text,label " बैनर : नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : सुनील लुल्ला, विकी राजान ी निर्देशक : आदित्य दत्त कलाकार : परेश रावल, राजीव खंडेलवाल, टीना देसाई सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 48 मिनट बिग बॉस, कौन बनेगा करोड़पति, खतरों के खिलाड़ी, सच का सामना जैसे रियलिटी और गेम शो की याद ‘टेबल नं.21’ देखते हुए आती है। हर शो का कुछ अंश ‘टेबल नं 21’ में नजर आता है और गेम का रोमांच और मजा इस फिल्म में मौजूद है। विवान (राजीव खंडेलवाल) को नौकरी‍ की तलाश है। उसे और उसकी पत्नी सिया (टीना देसाई) को फिजी यात्रा का इनाम खुलता है। आने-जाने सहित सारी पांच सितारा सुविधाएं उन्हें फ्री में मिलती हैं। एक रिसॉर्ट में उनकी शादी की पांचवी वर्षगांठ को भव्य तरीके से मनाया जाता है। यहां उनकी मुलाकात रिसॉर्ट के मालिक खान (परेश रावल) से होती है जो दोनों के आगे एक गेम खेलने का प्रस्ताव रखता है। आठ प्रश्न पूछे जाएंगे जो विवान और सिया की जिंदगी से संबंधित होंगे। हर प्रश्न का उत्तर हां या ना में देना होगा। सच बोलना होगा। हर जवाब के बाद एक टास्क पूरा करना होगा। इसके बदले में 21 करोड़ रुपये मिलेंगे। विवान-सिया चुनौती स्वीकारते हैं और गेम शुरू होता है। धीरे-धीरे समझ में आता है कि यह गेम उतना आसान नहीं है जितना की दिखाई दे रहा था, लेकिन इस गेम का रूल है कि इसे आप बीच में छोड़ नहीं सकते हैं। हर प्रश्न के साथ कहानी आगे बढ़ती है क्योंकि उत्तर दोनों की जिंदगी से संबंधित है। उत्तर देने के पहले एक फ्लेशबैक दिखाया जाता है। यहां पर स्लमडॉग मिलियनेयर की याद आती है क्योंकि उसका प्रस्तुतिकरण भी कुछ इसी तरह का था। संजय दत्त की जिंदा भी याद आती है। टेबल नं. 21 की खासियत ये है कि इसमें आगे क्या होने वाला इसका अंदाज लगाना मुश्किल होता है। दर्शकों की हालत विवान और सिया की तरह होती है, उन्हें भी पता नहीं रहता है कि कौन सा प्रश्न और टास्क उनका इंतजार कर रहा है। शांतनु रे, शीर्षक आनंद और अभिजीत देशपांडे ने मिलकर स्क्रिप्ट लिखी है और वे दर्शकों को बांधने में सफल रहे हैं। परदे पर जो दिखाया जा रहा है उससे सहमत होते हुए हमें घटनाक्रम को देखना पड़ता है और फिर अंत में, ऐसा क्यों हुआ, का जवाब दिया जाता है, जिससे संतुष्ट हुआ जा सकता है। थ्रिलर मूवी के नाम पर लेखक और निर्देशक ने कुछ छूट ली है और कुछ खामियां भी हैं, मसलन विवान और सिया का 21 करोड़ रुपये का गेम खेलने के लिए अचानक राजी हो जाना। एक बार भी उनके मन में संदेह नहीं उठता कि इतनी आसानी से उन्हें इतनी बड़ी रकम क्यों दी जा रही है? सिया के कुछ ऐसे राज, जो विवान को भी नहीं पता रहते हैं, खान को मालूम रहते हैं, आखिर उसने ये सब जानकारी कैसे जुटाई इस बारे में भी रोशनी नहीं डाली गई है? लेकिन ये खामियां इतनी बड़ी नहीं है कि फिल्म देखते समय खलल पैदा करें। इन्हें इग्नोर किया जा सकता है। निर्देशक आदित्य दत्त ने स्क्रिप्ट को खूबसूरती से परदे पर उतारा है। शुरुआती रीलों में फिल्म स्लो है, लेकिन गेम शुरू होते ही रफ्तार बढ़ जाती है और दर्शक पूरी तरह से फिल्म में डूब जाता है। उन्होंने सस्पेंस के प्रति उत्सुकता बनाए रखी है। फिल्म महज तीन किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, लेकिन बोरियत नहीं फटकती है। अभिनय की बात की जाए तो सबसे ऊपर परेश रावल का नाम आता है। अपने टिपिकल अंदाज में उन्होंने खान का किरदार निभाया है। राजीव खंडेलवाल ने अपनी पूरी प्रतिभा का इस्तेमाल नहीं किया है। कई जगह वे असहज नजर आते हैं। टीना देसाई अभिनय के मामले में औसत हैं। कुल मिलाकर टेबल नं 21 एक ऐसी थ्रिलर है जिसे देखते हुए न केवल टाइम अच्छे से पास होता है बल्कि कुछ नया भी देखने को मिलता है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "इस शुक्रवार रिलीज हुई इकलौती इस हॉलिवुड मूवी का पहला पार्ट करीब 15 साल पहले रिलीज हुआ और देश-विदेश के बॉक्स आफिस पर इस फिल्म ने कामयाबी और कलेक्शन का नया इतिहास रचा तो वहीं कई अवॉर्ड भी फिल्म के नाम हुए।फिल्म का पार्ट 2 पिछले फिल्म से हर कसौटी पर बेहतर है। फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट पर अच्छा काम किया गया है। फिल्म की तकनीकी टीम ने खूब मेहनत की है, वहीं एक एनिमेटिड फिल्म में कई ऐक्शन सीन इतने बेहतरीन बन पड़े हैं कि हॉलिवुड की ऐक्शन फिल्मों को भी मात देते हैं। वैसे अगर मैं बॉलिवुड स्टार्स दवारा हॉलिवुड मूवीज के लिए डबिंग करने वाले स्टार्स की बात करूं तो दि पाइरेट्स ऑफ दि कैरीबियन में अरशद वारसी अपने अंदाज में बोलते सुनाई दिए तो वहीं पिछले दिनों रिलीज हुई 20 सेंचुरी फॉक्स् स्टार की डेडपूल 2 के लिए रणवीर सिंह ने अपनी आवाज दी। इस क्रम में अब 'इनक्रेडिबल्स 2' में काजोल ने सुपरपावर ब्यूटी इलास्टीगर्ल के लिए अपनी आवाज दी । वहीं इस फिल्म की एक और खास बात यह है कि पार्ट 2 में कहानी और किरदारों के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है, बल्कि यह फिल्म लगभग वहीं से शुरू होती है जहां पिछली फिल्म खत्म हुई थी। स्टोरी प्लॉट : अंडरमाइनर जब शहर पर अटैक करता है तो मिस्टर इनक्रेडिबल अपनी वाइफ इलास्टीगर्ल बेटे डैश और बेटी वायलट ये चारों शहर को उसके अटैक से बचाने में कामयाब रहते हैं, लेकिन इसमें शहर में रहने वालों और पब्लिक प्रापर्टी का बेहद नुकसान होता है। इस वजह से लीडर्स आदेश देते है कि दुनिया के सभी सुपरहीरो आम लोगों की तरह ही अपनी असली पहचान छुपा कर रहेंगे और अपनी स्पेशल पावर का कहीं भी प्रयोग नहीं करेंगे। अगर सुपरहीरो ऐसा करेंगे तो उन पर भी कानूनी कार्यवाही होगी। बस इसी से दुखी होकर मिस्टर इनक्रेडिबल अपनी फैमिली के साथ यह सोचकर परेशान हैं कि ऐसी जिंदगी के साथ कैसे जीया जाए। इसी बीच एक दिन इनक्रेडिबल के पास विंस्टन डीवर का एक प्रपोजल आता है। बता दें कि विंस्टन सुपरहीरोज का फैन है और चाहता है दुनिया भर में सुपरहीरोज पर लगा बैन खत्म कर दिया जाए। विंस्टन एक प्लानिंग करता है जिसमें हर सुपरहीरो को अपनी स्पेशल पावर को दिखाकर अपनी काबिलियत साबित करनी है। इसकी शुरुआत इलास्टीगर्ल एक तेज रफ्तार बेकाबू बुलैट ट्रेन को रुकवा कर करती है। इलास्टीगर्ल बुलेट ट्रेन में फंसे सभी यात्रियों की जान बचाती है इसी के साथ एकबार फिर लोग सुपरहीरोज को चाहने लगती है तभी एक और विलन स्क्रीनस्लेवर की एंट्री होती है। अब इसके आगे क्या होता है इसे देखने के लिए आपको मिस्टर इनक्रेडिबल और उनकी सुपर पावर वाली फैमिली से मिलने थिअटर जाना होगा।फिल्म के कई सीन कमाल के हैं, खासकर मिस्टर इनक्रेडिबल के सबसे छोटे बेटे जैक की सुपर पावर्स वाले सीन्स बच्चों से लेकर बूढ़ों को चौंकाने का दम रखते हैं। गोद में बैठा बिस्किट की डिमांड करता है नन्हा जैक और ऐसा कुछ करता है कि आप बस देखते रह जाते हैं। जहां पिछली फिल्म में सबकुछ मिस्टर इनक्रेडिबल करते नजर आते हैं वहीं इस बार वह फिल्म के ज्यादा हिस्से में अपने बंग्ले में बैठकर बच्चों को संभालते दिखते हैं, यानी ऐक्शन सीन में इलास्टीगर्ल करती नजर आती है। फिल्म में कॉमिडी का भी अच्छा तड़का है और ऐसे ढेरों सीन हैं जो आपके सोनू-मोनू को जी भर कर मस्ती करने का मौका देंगे। फिल्म तकनीक के मामले में अव्वल है तो थ्री डी में बने सभी सीन्स कमाल के हैं। और हां, इस फिल्म के साथ आपको स्क्रीन पर एक छोटी सी प्यारी मूवी भी देखने को मिलेगी, फिर देर किस बात का, इस समर हॉलिडे में अगर बच्चों के साथ कहीं नहीं जाए पाए तो अब उन्हें उनके पसंदीदा मिस्टर इनक्रेडिबल की सुपर पावर वाली फैमिली से मिलाने नजदीकी थिअटर ले जाएं, यकीन मानिए आप भी अपसेट नहीं होंगे।",1 "चंद्रमोहन शर्मा, नवभारत टाइम्स पिछले कुछ अर्से से बॉक्स ऑफिस पर बायोपिक फिल्में अच्छा-खासा बिजनस कर रही है, बेशक, इंडियन क्रिकेट टीम के एक्स कप्तान अजहरुद्दीन पर बनी फिल्म अजहर बॉक्स आफिस पर कुछ खास ना कर पाई हो, लेकिन ट्रेड में बायोपिक फिल्में का क्रेज कम नहीं हो रहा है, आने वाले दिनों में एम. एस. धोनी पर बनी फिल्म का क्रेज अभी से फिल्म डिस्ट्रिब्यूशन कंपनियों और दर्शकों में है। इस फिल्म के डायरेक्टर उमंग कुमार के बारे में माना जाता है कि वह फिल्म शुरू करने से पहले जमकर होमवर्क करते हैं और अपनी फिल्म के किरदारों से जुडी हर जानकारी हासिल करने के साथ-साथ मीडिया में छपी अलग-अलग रिपोर्ट पर नजर डालने के बाद ही प्रॉजेक्ट पर काम शुरू करते हैं। उमंग कुमार ने इस फिल्म के लीड किरदार सरबजीत के साथ-साथ उनकी फैमिली और उसके नजदीकी लोगों से मिलकर स्क्रिप्ट पर काम शुरू किया। इतना ही नहीं फिल्म के लीड स्टार्स के साथ मिलकर वर्कशॉप करने के बाद स्टार्ट टू लास्ट प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया, फिल्म की यही खूबियां आपको ऐसे किरदार के साथ काफी हद तक बांधने में कामयाब है जिसके बारे में आप बहुत कुछ जानते है, जहां उमंग कुमार की मैरीकॉम एक अच्छा मेसेज देने के साथ-साथ हैपी एडिंग फिल्म थी वहीं यह बात सरबजीत के साथ लागू नहीं होती। देखिए फिल्म का ट्रेलर- कहानी: इंडो -पाक सीमा पर बने एक गांव का एक सीधा-सादा किसान सरबजीत (रणदीप हुड्डा) अपनी खूबसूरत पत्नी सुखप्रीत कौर (रिचा चड्डा ) के साथ रह रहा है। सरबजीत अपनी बहन दलबीर कौर (ऐश्वर्या राय बच्चन ) के बेहद नजदीक है। सरबजीत की खुशहाल फैमिली में सब कुछ ठीकठाक चल रहा है लेकिन अचानक एक दिन सरबजीत जब वापस घर नहीं लौटता तो उसके सारे परिवार में कोहराम मच जाता है। सरबजीत की गुमशुदगी से उसका परिवार बेहद सदमे में है। दलबीर कौर अपने भाई को तलाश करने की कोशिशें अपने दम पर शुरू करती है, लेकिन इस तलाश में दलबीर के अपने गांव वाले भी उसके साथ नहीं देते। दलबीर तय करती है कि अपने भाई की तलाश उस वक्त तक जारी रखेगी जब तक सरबजीत उसे मिल नहीं जाता। हर और अपने भाई की तलाश में भटक रही दलबीर को एक दिन खबर मिलती है सरबजीत गांव से सटी भारत-पाक सीमा को क्रॉस करने के बाद पाकिस्तानी क्षेत्र घुस गया और वहां उसे पाक सेना ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। इस खबर के आने के बाद सरबजीत की फैमिली में जैसे भूकंप सा आ जाता है, इसी बीच पाकिस्तानी सरकार सरबजीत को भारतीय जासूस घोषित कर देती है। यहीं से शुरू होता है दलबीर कौर का अपने भाई सरबजीत को पाकिस्तानी जेल से छुडाकर भारत वापस घर लाने का ऐसा मिशन जो एक दो नहीं बल्कि तेइस साल तक जारी रहा, इस बीच दलबीर ने सीएम से लेकर पीएम तक अप्रोच की, दलबीर को जब लगने लगा कि अब उसका भाई जल्दी ही घर लौट आएगा तभी पाक जेल में बंद सरबजीत के बारे में दलबीर को ऐसी खबर मिलती है जिसे सुन दलबीर पूरी तरह से टूट जाती है। ऐक्टिंग: सरबजीत का किरदार रणदीप हुड्डा के अब तक के फिल्मी करियर का सबसे बेहतरीन किरदार है। सरबजीत के किरदार में हरियाणा के इस जाट स्टार की गजब परफार्मेंस देख आप दंग रह जाएंगे। रणदीप ने इस फिल्म को साइन करने के बाद इस किरदार पर जमकर होम वर्क किया, रणदीप कई बार सरबजीत की वाइफ और उसकी बहन से मिले और खुद को सरबजीत के किरदार में सौ फीसदी फिट करने के अपने मिशन में लग गए। कोशिशों में लग गए। सिनेमा हॉल से बाहर आने वाला हर दर्शक रणदीप की एक्टिंग की तारीफें करते मिलेगा। ऐश ने अपनी पिछली इमेज से दूर हटकर एक ऐसी बहन जो अपने भाई के लिए कुछ भी कर सकती है, उस किरदार को असरदार ढंग से निभाया, बेशक कुछ लोग दलबीर के किरदार में ऐश के चयन को गलत ठहराये, लेकिन ऐश ने इस किरदार को अपने पॉवरफुल अभिनय जीवंत कर दिखाया है, अन्य कलाकारों में सरबजीत की पत्नी बनी ऋचा चड्डा की एक्टिंग अच्छी है। निर्देशन: इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने से पहले फिल्म के डायरेक्टर उमंग कुमार पंजाब जाकर सरबजीत की बहन दलबीर कौर से कई बार मिले और सरबजीत से जुडी हर जानकारी हासिल करने के बाद ही उन्होंने इस फिल्म को शुरू किया। उमंग की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों का मोह छोडकर मूल स्क्रिप्ट के साथ कहीं छेडछाड़ नहीं की बल्कि आउटडोर लोकेशंस में फिल्माएं कई सीन्स उमंग सीन्स को स्क्रीन पर बेहतरीन ढंग से पेश किया। उमंग ने फिल्म की शुरूआत तो बेहद सटीक ढंग और जानदार ढंग से की लेकिन ना जाने क्यों इंटरवल के बाद कहानी में कुछ फिल्मी टर्न देने में लग गए, ऐसे फिल्मी मसालों से उमंग को बचना चाहिए था। उमंग ने लीड किरदार ऐश और रणदीप के साथ फिल्म के दूसरे कलाकारों को कहानी के मुताबिक अच्छी फुटेज दी तो वहीं उनसे बेहतरीन काम लिया, और हां उमंग के निर्देशन का ही कमाल है कि पाक जेल में बंद सरबजीत के कुछ सीन्स को उमंग ने ऐसे असरदार ढंग से दिखाया कि दर्शकों की हमदर्दी सरबजीत को मिलती है। संगीत: फिल्म के सभी गाने माहौल पर पूरी तरह से फिट है, उमंग कुमार ने भी इन गानों को कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया, यही वजह है करीब सवा दो घंटे की इस फिल्म में कोई गाना जबरन ठूंसा हुआ नहीं लगता है। क्यों देखें: एक ऐसी बहन का रीयल लाइफ स्ट्रगल जिसने सीमापार देश जेल में बंद अपने निर्दोष भाई की घर वापसी के लिए अपने दम पर ऐसा स्ट्रगल किया कि सारे देश के लोगों की नजरें उसकी और लग गई, रणदीप हुड्डा के अब तक के फिल्मी करियर की बेहतरीन एक्टिंग और ऐश्वर्या रॉय बच्चन को डिफरेंट लुक और किरदार में देखने के लिए इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है। मुख्य कलाकार : रणदीप हुड्डा, ऐश्वर्या रॉय बच्चन, दर्शन कुमार, रिचा चड्डा, अंकिता श्रीवास्तव, अंकुर भाटिया ",0 " शनाया ग्रोवर (मंजरी फडणीस) पर हत्या का आरोप है। वह एक सामान्य महिला है, लेकिन इस केस में दिलचस्पी मुंबई से लेकर तो दिल्ली तक है। लोग रेडियो और टीवी से चिपक कर इस केस के बारे में जानकारी लेते हैं जिस पर हैरान होती है। मर्डर किसका हुआ है ये आधे घंटे बाद पता चलता है। इसके पहले खूब शोर मचाया जाता है। दर्शक हैरान रहता है कि आखिर चीख-पुकार क्यों हो रही है? इसके बाद लेखकों ने यह बताने में लंबा समय ले लिया कि यह मर्डर कहां हुआ है? इन बातों को इतनी देर बार उजागर करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता। कई सीन बेवजह रखे गए हैं। कहानी में रिश्तों का भी झोल है। पत्नी बड़ी आसानी से उस पति को माफ करती नजर आती है जो रिश्ते में बेईमानी करता है। दोष निर्देशक का भी है। सुब्रतो पॉल और प्रदीप रंगवानी ने मिलकर निर्देशन किया है। कई बार रसोई इसलिए भी बिगड़ जाती है जब एक से ज्यादा रसोइए हो जाते हैं। पहले मिनट से तो आखिरी मिनट तक फिल्म नकली लगती है। दर्शक कोई जुड़ाव फिल्म से महसूस नहीं करता। फिल्म का लंबा हिस्सा लॉक-अप में फिल्माया गया है जहां पर शनाया से पूछताछ चलती है। ये सीन अत्यंत उबाऊ हैं। लोखंडे (अरबाज खान) को बहुत कड़क पुलिस ऑफिसर बताया गया है और ऐसा वो खुद ही बोलता रहता है। यानी निर्देशकों से ऐसे सीन नहीं बने जिसके जरिये लोखंडे को काबिल और कड़क अफसर बताए। वह बेवजह चिल्लाता रहता है। निर्देशक ने अपना प्रस्तुतिकरण ऐसा रखा है कि पूछताछ चल रही है और बीच-बीच में घटनाक्रम दिखाए जाते हैं, लेकिन इसे वे ना मनोरंजक बना पाए और न ही रोमांचक। पूछताछ के दौरान काम वाली बाई, सिक्यूरिटी गॉर्ड, लिफ्ट मैन के जरिये कॉमेडी पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है जो मुस्कान भी चेहरे पर आ जाए। दोष कलाकारों का भी है। मुकुल देव ही खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ते नजर आए, बाकी का तो हाल बेहाल है। अरबाज खान अभिनय के नाम पर चीखते-चिल्लाते दिखाई दिए। वे ऐसे पुलिस ऑफिस बने जो खाकी नहीं पहनता क्योंकि खाकी तो उसके दिल में बसी है। मंजरी फडणीस का काम रोना-धोना था। अश्मित पटेल और अभिनय में छत्तीस का आंकड़ा है। 'कत्ल' को वे 'कतल' बोलते हैं। महक चहल को निर्देशक ने ज्यादा फुटेज ही नहीं दिए। फिल्म के संवाद बहुत भारी-भरकम हैं। अंग्रेजी स्टाइल में हिंदी बोलने वाले अश्मित पटेल के मुंह से ये सुनना आसान नहीं है। ऐसे कलाकार भारी संवादों का बोझ ही नहीं उठा पाते। एक-दो गाने ठीक-ठाक हैं। कुल मिलाकर 'निर्दोष' को बेकार बनाने में इससे जुड़े सभी लोग दोषी हैं। बैनर : यूवी फिल्म्स निर्माता : प्रदीप रंगवानी निर्देशक : सुब्रतो पॉल, प्रदीप रंगवानी कलाकार : अरबाज खान, मंजरी फडणीस, अश्मित पटेल, महक चहल, मुकुल देव सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटे 51 मिनट 1 सेकंड ",0 "मार्वल स्टुडियोज़ की फिल्मों में इन दिनों ढेर सारे सुपरहीरोज़ को एक साथ देखने को मिलता है और सुपरहीरो के फैंस को यह बात थिएटर तक खींच लाती है, हालांकि 'बेटमैन ‍वर्सेस सुपरमैन: डान ऑफ जस्टिस' को बहुत ज्यादा पसंद नहीं किया गया था, लेकिन 'कैप्टन अमेरिका : सिविल वॉर' उम्मीदों पर खरी उतरती है। यहां सुपरहीरोज़ दो टीमों में बंटे हुए नजर आए जो एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते हैं, लेकिन केवल इसी बात के बूते दर्शकों को बांधा नहीं जा सकता। एक मजबूत कहानी आपको सीट से चिपकाए रखती है और कहीं भी यह फिल्म खींची हुई नहीं लगती। कैप्टन अमेरिका: सिविल वॉर 2011 में आई 'कैप्टन अमेरिका: द फर्स्ट अवेंजर' तथा 2014 में प्रदर्शित हुई 'कैप्टन अमेरिका- द विंटर सोल्जर' की अगली कड़ी है। एवेंजर्स: एज ऑफ अल्ट्रॉन की घटना के लगभग एक वर्ष बाद नाइजीरिया में जैविक हथियार चोरी को रोकने के दौरान सुपरहीरोज़ के हाथों कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है और इससे एवेंजर्स के काम करने के तरीकों के प्रति अविश्वास बढ़ जाता है। सुपरहीरोज़ की मनमानी को रोकने के लिए 137 देशों के समर्थन के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ तय करता है कि उनके निर्देशों के अनुसार ही इन सुपरहीरोज़ को काम करना होगा। कैप्टन अमेरिका (क्रिस इवांस), आयरन मैन (रॉबर्ट डॉनी जूनियर), ब्लैक विडो (स्कॉरलेट जोहानसन), फॉल्कन (एंथनी मैकी) को यह बात उचित नहीं लगती। इसी बैठक के दौरान विस्फोट होता है और वकांडा का राजा मारा जाता है। सुपरहीरोज़ की स्थिति और खराब हो जाती है। सुपरहीरोज़ के खिलाफ एक दुश्मन काम कर रहा है जिससे उनकी छवि खराब हो। पहले से ही परेशान सुपरहीरोज़ आपस में लड़ने लगते हैं। उनकी टीम दो भागों में बंट जाती है। आयरन मैन के साथ ब्लैक विडो, ब्लैक पैंथर, विज़न और स्पाडरमैन है तो कैप्टन अमेरिका के दल में फाल्कन, विंटर सोल्जर, हॉक आई, एंट मैन जैसे साथी हैं। कैसे इनकी गलतहफमियां दूर होती हैं, ये फिल्म का सार है। निर्देशक एन्थनी रुसो और जोड रुसो ने फिल्म को इस तरह प्रस्तुत किया है कि दर्शकों की रूचि लगातार फिल्म में बनी रहे। कई देशों में फिल्माई गई कहानी को उन्होंने तेजी से दौड़ाया है ताकि दर्शकों को ज्यादा सोचने का समय नहीं मिले। घटनाक्रम तेजी से घटते हैं और लगातार रोमांचक दृश्य देखने को मिलते हैं। किस सुपरहीरो की टीम में आप हैं ये निर्णय लेने में बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ता है। एक्शन सीक्वेंस के साथ कहानी पर विशेष ध्यान दिया गया है, हालांकि जिन दर्शकों ने इस सीरिज की पिछली दो फिल्में नहीं देखी हैं उन्हें यह फिल्म समझने में थोड़ी कठिनाई महसूस हो सकती है। साथ ही सुपरहीरोज़ के आपसी लड़ाई के लिए ठोस कारण पैदा नहीं किए गए हैं, लेकिन एक साथ इतने सुपरहीरोज़ को साथ देखने का रोमांच इन बातों को भूला देता है। फिल्म की खासियत है सीजीआई और एक्शन सीक्वेंस। सारे सुपरहीरोज़ एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाला सीक्वेंस पैसा वसूल है। इस दौरान बोले गए उनके आपसी संवाद गुदगुदाते हैं। स्पाइडर मैन और एंट मैन थोड़ी देर के लिए आते हैं, लेकिन तबियत खुश कर जाते हैं। क्रिस इवांस और रॉबर्ट डॉनी जूनियर पूरी फिल्म में छाए रहे हैं। इन दोनों सुपरहीरोज़ में से कौन आपको ज्यादा रोमांचित करता है ये आपकी पसंद पर निर्भर करता है, पर कहा जा सकता है कि क्रिस पर रॉबर्ट भारी पड़े हैं। स्कार्लेट जोहानसन, एंथनी मैकी, जेरेमी रेनर का अभिनय भी जोरदार है। छोटे से रोल में टॉम हॉलैंड प्रभावित करते हैं। फिल्म का तकनीकी स्तर बहुत ऊंचा है। ट्रेंट ऑपलोक की सिनेमाटोग्राफी लाजवाब है। हिंदी में डब किए गए संवाद उम्दा हैं। हालांकि कैप्टन अमेरिका के संवाद हिंदी में डब करने वाले अभिनेता वरुण धवन के उच्चारण कही-कही दोषपूर्ण हैं। यदि आप सुपहीरोज़ के फैन नहीं भी हैं तो भी 'कैप्टन अमेरिका: सिविल वॉर' आपको पसंद आएगी। निर्माता : केविन फेज निर्देशक : एन्थनी रुसो, जोड रुसो कलाकार : क्रिस इवांस, रॉबर्ट डॉनी जूनियर, स्कार्लेट जोहानसन, सेबेस्टियन स्टेन, एंथनी मैकी, जेरेमी रेनर, पॉल रुड अवधि : 2 घंटे 17 मिनट ",1 "रामायण और महाभारत से प्रेरित होकर बॉलीवुड में अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है। साजिद नाडियाडवाला द्वारा निर्मित और साबिर खान निर्देशित फिल्म 'बागी' रामायण से प्रेरित है। फिल्म का नायक रोनी (टाइगर श्रॉफ) राम जैसा है और राघव (सुधीर बाबू) रावण जैसा। सिया (श्रद्धा कपूर) का राघव अपहरण कर लेता है और रोनी बैंकॉक में उसकी लंका को तहस-नहस कर सिया को वापस ले आता है। साबिर खान ने टिपिकल बॉलीवुड मसाला फिल्म बनाई है जो उस आम दर्शक के लिए है जो बॉलीवुड फिल्मों में रोमांस, गाने और एक्शन फिल्म देखने के लिए टिकट खरीदता है। इस दर्शक को अपनी पसंद के अनुरूप फिल्म लंबे समय से नहीं मिल रही थी और इस कमी को 'बागी' दूर करती है। रोनी अनुशासनहीन लड़का है। उसके पिता दक्षिण भारत स्थित एक शहर में उसे मार्शल आर्ट सीखने के लिए भेजते हैं। यात्रा के दौरान रोनी की मुलाकात सिया से होती है और वह उसे दिल दे बैठता है। मार्शल आर्ट की कठिन ट्रेनिंग रोनी में बदलाव लाती है। यहां उसकी मुलाकात मार्शल आर्ट के चैम्पियन राघव से होती है। राघव भी सिया को चाहता है। रोनी और सिया के बीच गलतफहलमी पैदा कर उन्हें दूर किया जाता है। कुछ वर्षों बाद रोनी को पता चलता है कि राघव ने सिया का अपहरण कर लिया है और उसे अपने साथ बैंकॉक ले गया है। सिया को बचाने का जिम्मा रोनी को दिया जाता है। वह अकेला ही शक्तिशाली राघव को सबक सीखा देता है। कहानी पढ़कर आप जान ही गए होंकि कि इसमें बिलकुल भी नयापन नहीं है और सारा दारोमदार प्रस्तुतिकरण पर टिक जाता है। निर्देशक साबिर खान ने इस पुरानी कहानी को नई सजावट के साथ पेश किया है। मार्शल आर्ट के स्टंट, ताजगी भरा रोमांस और कुछ बढ़िया हास्य दृश्यों के सहारे उन्होंने दर्शकों को बांध कर रखा है। फिल्म को उन्होंने बेहद तेज गति के साथ दौड़ाकर दर्शकों को ज्यादा सोचने का समय नहीं दिया है। इंटरवल तक फिल्म बांध कर रखती है। इस दौरान रोनी और सिया के रोमांटिक सीन तथा रोनी के ट्रेनिंग वाले दृश्य अच्छे लगते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म अपनी लय खो बैठती है, लेकिन क्लाइमैक्स के दौरान फिर गति पकड़ लेती है। दरअसल इंटरवल के बाद साबिर ने सारी बागडोर एक्शन डायरेक्टर को सौंप दी है। राघव की दस मंजिला इमारत में पहुंचने के लिए रोनी को हर मंजिल पर तरह-तरह के दुश्मनों से निपटना पड़ता है और यह लंबा क्लाइमैक्स एक्शन फिल्म देखने वालों को रोमांचित कर देता है। टाइगर श्रॉफ और श्रद्धा कपूर के प्लस पाइंट्स पर निर्देशक साबिर ने अपना दांव खेला है। टाइगर श्रॉफ स्टंट में माहिर हैं इसलिए उनकी यह खासियत दिखाने के लिए फिल्म में स्टंट्स पर विशेष जोर दिया गया है। मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग वाला ट्रेक और विलेन का भी मार्शल आर्ट में माहिर होने वाला ट्रेक फिल्म को बेहतर बनाता है। श्रद्धा कपूर की मासूमियत और चुलबुलेपन को भी साबिर ने बखूबी उभारा है। स्क्रीनप्ले की कुछ कमियां भी उभर कर आती हैं। जैसे एक छोटे बच्चे के ऑपरेशन के लिए रोनी को पैसे की जरूरत होती है और यह ट्रेक अधूरा ही छोड़ दिया गया है। उस बच्चे की जिम्मेदारी रोनी क्यों उठाता है? इसका जवाब नहीं मिलता। रोनी और सिया के ब्रेक-अप के लिए परिस्थितियों को ठीक से पैदा नहीं किया गया है। बैंकॉक में इतनी सारी हत्याएं कर रोनी का बच निकलना हजम नहीं होता? इन कमियों को मनोरंजन और एक्शन का डोज़ ढंक लेता है। बागी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें टाइगर श्रॉफ ने एक्टिंग कम और हाथ-पैर ज्यादा चलाए हैं और क्या खूब चलाए हैं। उनके कई फाइट सीन जबरदस्त हैं। इमोशनल और रोमांटिक सीन में भी वे बेहतर हुए हैं और 'बागी' के बाद उनके फैंस की संख्या में बड़ा इजाफा होगा। श्रद्धा कपूर की भूमिका उनकी पिछली कुछ फिल्मों जैसी ही है, लेकिन इस एक्शन मूवी में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। खलनायक के रूप में सुधीर बाबू हीरो को जमकर टक्कर देते हैं। सुनील ग्रोवर के हास्य दृश्य उम्दा बन पड़े हैं, लेकिन संजय मिश्रा ने अपने हास्य दृश्यों में जमकर बोर किया है। बागी टिपिकल बॉलीवुड मसाला फिल्म है। एक्शन जिसका प्लस पाइंट है और साथ में यह मनोरंजक भी है। बैनर : नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : साजिद नाडियाडवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : साबिर खान संगीत : मीत ब्रदर्स, अमाल मलिक, अंकित तिवारी कलाकार : टाइगर श्रॉफ, श्रद्धा कपूर, सुधीर बाबू सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 28 सेकंड ",1 "बैनर : एएसए प्रोडक्शन्स एंड इंटरप्राइजेस निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीत : चिरंतन भट्ट कलाकार : आदित्य नारायण, श्वेता अग्रवाल, राहुल देव सेंसर सर्टिफिकेट : ए * दो घंटे 23 मिनट विक्रम भट्ट ने ‘शॉपित’ नामक हॉरर फिल्म इसलिए बनाई है क्योंकि उनकी पिछली कुछ हॉरर फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिली है। उन्हें यह भ्रम हो गया कि सक्सेसफुल फिल्म बनाने का फॉर्मूला उनके हाथ लग गया। यही बात अधिकांश फिल्ममेकर्स के पतन का कारण बनती है। ‘शॉपित’ में भट्ट चूक गए हैं। अपने आपको उन्होंने दोहराया है, लेकिन ‘राज’ या ‘1920’ के स्तर तक नहीं पहुँच पाए। बेशक उन्होंने कुछ ऐसे उम्दा सीन क्रिटए किए हैं, जिन्हें देखते समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं, लेकिन फिल्म का कंटेट बेहद कमजोर है, इसलिए बात नहीं बन पाती। काया (श्वेता अग्रवाल) के परिवार को 300 वर्ष पहले श्राप मिला था कि उनके परिवार में किसी भी लड़की की शादी नहीं हो पाएगी। कोई लड़की शादी करेगी तो उसकी मौत हो जाएगी। अमन (आदित्य नारायण) से काया प्रेम करती है। काया को अमन एंगेजमेंट रिंग पहनाता है और दोनों की जिंदगी में भूचाल आ जाता है। एक शैतान आत्मा उनके पीछे पड़ जाती है। पता नहीं अमन, काया और निर्देशक विक्रम भट्ट ने लिव इन रिलेशनशिप के बारे में क्यों नहीं सोचा। वे शादी के पीछे ही क्यों पड़े रहे, लिव इन रिलेशनशिप पूरा मामला ही सॉल्व कर देता। खैर, ऐसी फिल्मों में कोई पादरी, डॉक्टर या प्रोफेसर होता है जो भूतों के बारे में ढेर सारी जानकारी रखता है। यहाँ एक प्रोफेसर (राहुल देव) है। वह तरह-तरह विद्याएँ/थ्योरी/मेथड्‍स जानता है। मसलन आदमी को पानी के टब में सुलाकर टाइम मशीन की तरह 300 साल पहले की दुनिया में पहुँचा देता है। अपने अंदर आत्मा को बुलाकर उससे बात कर लेता है। टेनिस बॉल पर भूतों की भाषा में प्रश्न लिखकर सुनसान पड़े सिनेमाघर, पैलेस में बॉल फेंककर उनसे जवाब माँगता है। उसे यह पता रहता है कि भूत कहाँ पाए जाते हैं। हर बार उसकी यह ट्रिक कारगर साबित होती है। इतनी अचूक ट्रिक जानने के बावजूद फिल्म को समेटने में विक्रम भट्ट ने दो घंटे 23 मिनट का समय ले लिया। न ही वे ऐसे दृश्य क्रिएट कर पाए, जो इन बातों पर भरोसा दिला सके। ये प्रोफेसर साहब अपने हिसाब से उस प्रेतात्मा तक पहुँच जाते हैं। हीरो और उसके दोस्त से तरह-तरह के काम करवाते रहते हैं। किसी भी जगह जाना इनके लिए मामूली बात है। ये सारे काम रात में ही करते हैं, ताकि डायरेक्टर दर्शकों को डरा सके। ऐसी जगह ठिकाना बनाते हैं जहाँ बिजली नहीं रहती। जंगल में मौजूद डाकबंगला से बढि़या ठिकाना भला कौन सा होगा। हीरोइन की जरूरत इन दृश्यों में नहीं है, इसलिए बेचारी को ‍बीच फिल्म में कोमा में भेज दिया। डॉक्टर्स उसका इलाज करते रहते हैं और ये तीनों उस प्रेतात्मा को ढूँढते हैं। आखिर में एक महल में उनकी खोज खत्म होती है। हीरो जीत जाता है। प्रोफेसर का क्या हुआ ये पता ही नहीं चलता। क्लाइमैक्स को जल्दबाजी में निपटाया गया है। कहानी में वर्तमान के तार अतीत से इस तरह जोड़े गए हैं उलझनें ज्यादा पैदा होती हैं। डायरेक्टर के रूप में विक्रम भट्ट ने उन शॉट्स पर फोकस किया है, जिनके जरिये दर्शकों को डराया जा सके, लेकिन स्क्रीनप्ले और कहानी पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। लेकिन सिर्फ कुछ शॉट्स देखने के लिए तो सिनेमाघर नहीं जाया जा सकता। इंटरवल के बाद फिल्म को बहुत खींचा गया है और कहानी आगे खिसकती ही नहीं है। आदित्य नारायण का अभिनय ठीक है। पूरी फिल्म में उन्हें एक से एक्सप्रेशन रखने थे, इसलिए उनके बारे में कोई राय बनाना जल्दबाजी होगी। लेकिन उन्होंने फिल्मों में अपना करियर शुरू करने में जल्दबाजी की है। उन्हें टीनएज लवस्टोरी चुनना थी। भूत से टक्कर लेते हुए वे बच्चे लगते हैं। श्वेता अग्रवाल को बहुत मेहनत करना पड़ेगी। राहुल देव को हीरो से भी ज्यादा मौका मिला है। बैकग्राउंड म्यूजिक और फोटोग्राफी उम्दा है, लेकिन एडिटिंग में कसावट नहीं है। संवाद कैरेक्टर पर सूट नहीं होते, ऐसा लगता है कि बहुत मैच्योर इंसान बोल रहा है। ‘शॉपित’ में कुछ डरावने दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो कुछ नहीं है। ",0 "निर्माता : अल्लू अरविंद, मधु वर्मा कथा-पटकथा-निर्देशक : ए.आर. मुरुगदास गीतकार : प्रसून जोशी संगीतकार : ए.आर. रहमान कलाकार : आमिर खान, असीन, जिया खान, प्रदीप सिंह रावत फिल्मों में बदला वर्षों पुराना विषय है। ‘शोले’, ‘करण अर्जुन’, ‘राम लखन’ जैसी हजारों फिल्में इस विषय पर बन चुकी हैं। माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-प्रेमिका की मौत का बदला- हम फिल्मों में अनेक बार देख चुके हैं। दरअसल एक्शन फिल्म की नींव ही बदले पर टिकी रहती है। मल्टीप्लेक्स के उदय के बाद इस आजमाए हुए विषय पर फिल्म बनना लगभग बंद हो गई, लेकिन आमिर खान अभिनीत एक्शन फिल्म ‘गजनी’ में इसे फिर सामने लाया गया है। इस एक्शन फिल्म के मुख्य किरदार को ‘शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस’ की बीमारी है, जो इसे एक नया एंगल देती है। संजय सिंघानिया (आमिर खान) कोई भी बात पन्द्रह मिनट से ज्यादा याद नहीं रख पाता। सोचिए कि इस बीमारी से ग्रसित आदमी जब सुबह उठता है तो उसका दिमाग कोरे कागज की तरह रहता है। आँख खुलने के बाद उसके दिमाग में सबसे पहले यह विचार आता है कि मैं कहाँ हूँ? कौन हूँ। फिर धीरे-धीरे वह आसपास रखी चीजों पर लगे कागज के टुकड़ों को पढ़ता है और कुछ-कुछ उसे याद आता है। यह बात फिल्म को खास बनाती है। कहानी है संजय सिंघानिया की, जो एयर वाइस सेल्यूलर फोन कंपनी का मालिक है। एक पत्रिका में वह कल्पना (असीन) नामक मॉडल का इंटरव्यू पढ़ता है, जो दावा करती है कि संजय उससे मिला था और उससे प्यार करता है। कल्पना को इस झूठ का सबक सिखाने संजय उसके घर जाता है, लेकिन वह खुद उससे प्यार कर बैठता है। दोनों की प्रेम कहानी आगे बढ़ती है, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। कुछ लड़कियों को कल्पना गुंडों से बचाती है। वे गुंडे कल्पना की हत्या कर देते हैं और संजय की भी निर्ममता से पिटाई करते हैं। सिर पर चोट की वजह से संजय शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस का शिकार हो जाता है। किस तरह से वह अपना बदला लेता है, यह फिल्म में रोमांचक तरीके से दिखाया गया है। फिल्म की कहानी बड़ी सीधी-सादी लगती है, लेकिन स्क्रीनप्ले में इतने सारे उतार-चढ़ाव दिए गए हैं कि दर्शक सीट पर बँधा रहता है। हर फ्रेम उसकी उत्सुकता बढ़ाती है कि आगे क्या होगा। कहानी गुजरे समय और वर्तमान समय में कूदती-फाँदती रहती है। इस कहानी में कई गुत्थियाँ, कई अड़चनें संजय की राह में खड़ी गई हैं, जिन्हें संजय सुलझाता है। ‘गजनी’ में एक बहुत प्यारी-सी लव स्टोरी भी छिपी हुई है। इस वजह से फिल्म में लगातार राहत मिलती रहती है। निर्देशक ए. मुरुगदास ने कहानी को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। कब रोमांस दिखाना है, कब ‍एक्शन दिखाना है और कब थ्रिल पैदा करना है, ये काम उन्होंने बखूबी किया है। बदले की कहानी तभी सफल होती है जब दर्शक के मन में भी ‍खलनायक के प्रति नफरत पैदा हो। नायक के साथ वह भी बदला लेने के लिए आतुर हो और यह काम मुरुगदास ने बखूबी किया है। इसके लिए उन्होंने संजय और कल्पना की प्रेम कहानी को उम्दा तरीके से विकसित किया है। कल्पना ‍के किरदार पर उन्होंने बहुत मेहनत की है। हमेशा हँसने वाली, मासूम, दूसरों की मदद करने वाली कल्पना को इतनी खूबसूरती के साथ पेश किया है कि सभी उसे चाहने लगते हैं। उसके बाद जब उसकी हत्या होती है तो दर्शक सन्न रह जाते हैं। उनकी पूरी सहानूभूति संजय के साथ हो जाती है और गजनी (विलेन) के प्रति नफरत से वे भर जाते हैं। फिल्म में हिंसा है, लेकिन उसके पीछे ठोस कारण भी है। कल्पना की हत्या और क्लाइमेक्स में आमिर का एक्शन अद्‍भुत है। कुछ कमियाँ भी हैं, लेकिन फिल्म की गति इतनी तेज रखी गई है कि दर्शक ज्यादा सोच नहीं पाता। खासतौर पर शुरुआत के आधे घंटे फिल्म की गति इतनी तेज है कि उससे तालमेल बैठाने में परेशानी होती है। ‘तारे जमीं पर’ के बाद आमिर ने यू टर्न लेते हुए एक शुद्ध कमर्शियल फिल्म में काम किया है। उन्हें संवाद कम दिए गए हैं, लेकिन बदले की आग से जलती हुई उनकी आँख सब कुछ बयाँ कर देती है। एक्शन दृश्यों में भी वे छाए रहे। उनकी एट पैक एब्स बॉडी का खूब प्रचार किया गया, लेकिन उन्होंने अपनी शर्ट कम उतारी। असीन ने ज्यादा बोलने वाली और मासूम लड़की का किरदार उम्दा तरीके से निभाया। खासकर रोमांटिक दृश्यों और उनकी हत्या वाले दृश्य में उनका अभिनय देखने लायक है। जिया खान का किरदार रोचक है जो पहले आमिर के लिए बाधाएँ खड़ी करता है और बाद में उसकी मदद करता है। गजनी के रूप में प्रदीपसिंह रावत के चेहरे से क्रूरता टपकती है। उनका किरदार सोने की मोटी चेन, अँगूठी और सफेद कपड़े पहना टिपिकल विलेन है, जो दस वर्ष पहले फिल्मों में दिखाई देता था और ‘ऐसा मारेंगे कि उसका नाखून भी नहीं मिलेगा’ जैसे संवाद बोलता है। फिल्म के एक्शन में बंदूक नहीं है। ज्यादातर हैंड टू हैंड फाइटिंग है। लोहे की रॉड और चाकू का प्रयोग किया गया है और आमिर ने अपने मजबूत शरीर से ज्यादातर खलनायकों की हड्डियाँ चटकाई हैं। एक्शन दृश्यों में कहीं-कहीं दक्षिण भारतीय फिल्म वाला टच आ गया है, जिससे वे लाउड दिखे हैं। फिल्म का संगीत ठीक है। ‘गुजारिश’ और ‘बहका’ उम्दा बन पड़े हैं, लेकिन कुछ गाने ऐसे हैं जैसे दक्षिण भारतीय भाषा से अनुवाद किए हुए हों। रवि चन्द्रन की सिनेमॉटोग्राफी उल्लेखनीय है। जबर्दस्त एक्शन, प्यारा-सा रोमांस, धड़कनें बढ़ाने वाला थ्रिल, खूबसूरत लोकेशन पर फिल्माए गए गाने और तनाव से भरे ड्रामे की वजह से ‘गजनी’ एक पैसा वसूल फिल्म है। ",1 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोट की सच्ची कहानी पर बनने वाली इस फिल्म को बनाने की प्लानिंग करीब दस साल पहले हुई। कहानी पूरी होने के बावजूद किसी न किसी वजह से फिल्म की शूटिंग टलती रही। नीरजा की रियल लाइफ स्टोरी की रील लाइफ में दर्शाया गया है। चंडीगढ़ की रहने वाली नीरजा ने 5 सितंबर 1986 को हाइजैक हुई पैन एम फ्लाइट 73 में सवार 359 यात्रियों को अपनी सूझबूझ और बहादुरी के दम पर बचाया था, लेकिन खुद शहीद हो गईं थीं। ऐसा पहली बार हुआ जब भारत सरकार ने सिर्फ 23 साल की उम्र में किसी को अशोक चक्र दिया हो, लेकिन नीरजा भनोट को यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया। आज इस फिल्म की कहानी या कुछ सीन्स को पाक विरोधी करार देने के बाद पाकिस्तान में फिल्म को इस शुक्रवार रिलीज नहीं किया गया, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने नीरजा को तमगा-ए-इन्सानियत अवॉर्ड से सम्मानित किया था। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : यह फिल्म नीरजा भनोट (सोनम कपूर) के आस-पास घूमती है। नीरजा के साथ-साथ उसकी इस कहानी में मां रमा भनोट (शबाना आजमी) और पापा (योगेंद्र टिकू) भी हैं जो हर कदम पर अपनी बेटी के साथ हैं। स्टडी के बाद मॉडलिंग और नीरजा की पर्सनल लाइफ को भी इस कहानी का हिस्सा बनाया गया है। नीरजा की कहानी शुरू होती है कराची से। 5 सितंबर 1986 को हाइजैक हुई पैन एम फ्लाइट 73 में हर बार की तरह इस बार भी नीरजा अपनी ड्यूटी पर थीं। फ्लाइट में 359 यात्री सवार थे। जब आंतकियों ने फ्लाइट को हाइजैक किया, नीरजा ने सबसे पहले अपनी फ्लाइट में बैठे अमेरिकी सिटिजन का पासपोर्ट उनसे लिया। उस वक्त तक नीरजा को आंतकियों के खतरनाक इरादों की शायद भनक लग चुकी थी। इतना ही नहीं नीरजा ने अपनी सूझबूझ और बहादुरी के दम पर इस फ्लाइट के क्रू स्टाफ को सबसे पहले बचाया तो उसके बाद मौका मिलते ही फ्लाइट में सवार यात्रियों को प्लेन से बाहर निकालने का काम शुरू किया। अगर नीरजा चाहती तो सबसे पहले खुद फ्लाइट से बाहर निकलकर अपनी जान बचा सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फ्लाइट के ज्यादातर यात्रियों को बाहर निकालने के बाद नीरजा बच्चों को बाहर निकालते वक्त आतंकियों की गोलियों की शिकार हो गईं। ऐक्टिंग : सोनम कपूर ने अब तक के अपने फिल्मी करियर में इस बार नीरजा के किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाते हुए इस किरदार को जीवंत बना दिया है। शबाना जब भी स्क्रीन पर नजर आईं तभी दर्शकों की आंखों को नम कर गईं। नीरजा की मां रमा भनोट के किरदार को शबाना ने बेहतरीन ढंग से निभाया है। डायरेक्शन : राम माधवानी ने दर्शकों को शुरू से लेकर आखिरी तक कहानी और किरदारों के साथ बांधे रखा। माधवानी ने कहानी को कुछ लाइट करने के मकसद से फ्लैशबैक का अच्छा इस्तेमाल किया है। संगीत : फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है। फिल्म के गाने कहानी का हिस्सा लगते हैं। क्यों देखें : अगर आप अच्छी और बेहतरीन फिल्मों के शौकीन हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है। सोनम कपूर की बेहतरीन और शबाना की गजब ऐक्टिंग और कसा हुआ निर्देशन इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। ",0 "शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की देवदास हमेशा से हिंदी फिल्मकारों का पसंदीदा विषय रही है। पहली बार 1928 में आई 'देवदास' मूक फिल्म थी। 1955 में आई दिलीप कुमार, वैजयंती माला और सुचित्रा सेन की देवदास आज भी अपनी कलात्मकता के कारण सिनेप्रेमियों को याद है, तो 2002 में प्रदर्शित हुई संजय लीला भंसाली की 'देवदास' अपनी भव्यता और संगीत के लिए जानी जाती है। उसके बाद अनुराग कश्यप भी इसका मॉडर्न वर्जन 'देव डी' लेकर आए थे। अब सुधीर मिश्रा इसे 'दास देव' के रूप में लाए हैं। हम आपको बता दें कि आप अगर सुधीर मिश्रा की दास देव में प्रेम कहानी की अपेक्षा लेकर जाएंगे, तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी, क्योंकि इसमें आपको शरत चंद्र के हारे हुए प्रेम की मासूमियत के बजाय राजनीति की महत्वाकांक्षाओं की काली दलदल ही नजर आएगी। कहानी की पृष्ठभूमि उत्तरप्रदेश की है, जहां देव (राहुल भट्ट) राजनीतिक घराने का उत्तराधिकारी है। उसे पारो (रिचा चड्ढा) से प्यार है। नशे और अय्याशी की गर्त में डूबे देव को उसके मुख्यमंत्री चाचा अवधेश (सौरव शुक्ला) ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। देव और पारो उस वक्त छोटे थे, जब एक हेलीकॉप्टर हादसे में उसके पिता (अनुराग कश्यप) की मौत हो गई थी। पारो देव को नशे और नकारेपन से निकालने की कोशिश करती है। देव का चाचा भी यही चाहता है कि वह खानदान की राजनीतिक विरासत को आगे संभाले। इस काम के लिए चांदनी (अदिति राव हैदरी) को लाया जाता है। देव से प्यार करनेवाली चांदनी राजनेताओं और रसूख रखनेवाले लोगों की दिलजोई के साथ-साथ उनके काले कारनामों की भी साथी है। कहानी में एक मोड़ ऐसा आता है, जब चांदनी एक व्यूह रचकर देव को राजनीति की बागडोर हाथ में लेने पर मजबूर कर देती है, मगर इस चक्रव्यूह में पारो और देव के बीच टकराव होता है और अपने आदर्शों और गरिमा को हमेशा ऊंचा रखनेवाली पारो विपक्ष के नेता (विपिन शर्मा) से शादी कर लेती है। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, देव, पारो और चांदनी के सामने राजनीति के ऐसे कुचक्र आते हैं कि उनके पैरों तले जमीन खिसक जाती है। सुधीर मिश्रा हमेशा से अपने जटिल विषयों के लिए जाने जाते हैं। डार्क और इंटेंस सिनेमा उनकी खूबी रही है और 'दास देव' में भी उन्होंने अपने इस आचरण को नहीं छोड़ा है। उन्होंने शरत चंद्र की देवदास के तीन मुख्य पात्रों देव, पारो और चांदनी को लेकर उसमें शेक्सपियर का ट्रेजिक, ग्रे और विश्वाघाती रंग मिला दिया है। उनका कोई भी किरदार दूध का धुला नहीं है। यही वजह है कि एक के बाद एक करके कहानी की कई परतें खुलती जाती हैं, मगर कहानी को और ज्यादा विस्तार देने के चक्कर में उन्होंने इसे इतना ज्यादा फैला दिया कि कई जगहों पर यह अपनी पकड़ खो देती है। कहानी के स्क्रीन प्ले को और ज्यादा कसा जा सकता था। फिल्म में कई किरदारों की उपस्थिति उलझन पैदा करती है। अभिनय की बात करें, तो राहुल भट्ट ने देव के किरदार की विषमताओं के साथ न्याय करने की पूरी कोशिश की है। फिल्म में उन्हें अपना जलवा दिखाने का पूरा मौका मिला है। रिचा चड्डा और अदिति राव ने अपनी भूमिकाओं को अपने सामर्थ्य से जिया है। रिचा पारो की भूमिका में और अदिति चांदनी की भूमिकाओं के ग्रे पहलू को भी सहजता से जी गई हैं। मिस लवली के बाद अनिल जॉर्ज एक बार फिर दमदार किरदार में दिखे हैं। सौरव शुक्ला, विनीत सिंह, दीपराज राणा, दलीप ताहिल जैसे सभी कलाकारों ने अपने किरदारों में जान डालकर कहानी को विश्वसनीय बनाया है। मेहमान कलाकार के रूप में अनुराग कश्यप मजबूत रहे हैं। कई संगीतकारों की मौजूदगी में 'रंगदारी', 'सहमी है धड़कन' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर दमदार है। क्यों देखें-डार्क सिनेमा के शौकीन राजनीति के रंग में रंगे देव, पारो और चांदनी को देख सकते हैं।",1 "चंद्रमोहन शर्मा 'गुड्डू की गन' टाइटल से ही आप समझ सकते हैं कि फिल्म में क्या है। अफसोस इस बात का है कि फिल्म देखकर आप खुद को ठगा महसूस करेंगे। पिछले कुछ अर्से से बॉक्स ऑफिस पर कुछ हॉट, डबल मीनिंग, सेक्सी फिल्मों ने औसत से ज्यादा बिजनस कर दिखाया। कुछ अर्सा पहले आई सेक्स कॉमिडी फिल्म हंटर और इसी मूवी के लीड किरदार में काफी समानताएं हैं। हालांकि ये किरदार दर्शकों की उस क्लास को भी प्रभावित नहीं कर पाते, जिसे इन फिल्मों का शौकीन माना जाता है। गुड्डू की गन देखने के बाद मानना होगा कि अगर कहानी, स्क्रिप्ट में दम न हो और सिर्फ सेक्स परोसने के नाम पर हॉट फिल्म बनाई जाए तो भी बॉक्स आफिस पर ऐसी फिल्म के टिकने के आसार कम हैं। कहानी: कोलकाता में घर-घर जाकर वॉशिंग पाउडर बेचने वाला सेल्समैन गुड्डू (कुणाल खेमू) अपने दोस्त लड्डू (सुमित व्यास) के साथ रहता है। गुड्डू कुछ ज्यादा ही रंगीनमिजाज टाइप का है। शादीशुदा महिलाओं के साथ मौज-मस्ती करना और रिश्ते बनाना उसकी आदत में शामिल है। दरअसल 'गुड्डू की गन' यानी उसका गुप्तांग कहीं ज्यादा पॉवरफुल है। जिस महिला के साथ गुड्डू का रिश्ता बनता है, वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। गुड्डू अब खुद को ऐसा इंसान समझता है जिसके लिए महिलाएं अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार बैठी हैं। इसी बीच गुड्डू एक सुंदर लड़की भोली (अपर्णा शर्मा) के साथ रिश्ता बनाकर छोड़ देता है। भोली के दादाजी को कई तांत्रिक शक्तियां भी प्राप्त हैं। दादाजी गुड्डू को ऐसा शाप देते हैं कि उसका गुप्तांग गोल्ड का हो जाता है। इसके बाद अचानक गुड्डू की डिमांड बढ़ जाती है। माफिया के लोग गुड्डू की गोल्डन गन को हासिल करने की दौड़ में लग जाते हैं। आखिर गुड्डू दादाजी से मिलता है, जो उसे बताते हैं कि जिस दिन उसे सच्चा प्यार मिलेगा, सब ठीक हो जाएगा। अचानक गुड्डू की मुलाकात काली (पायल सरकार) से होती है। पायल के सामने आते ही गुड्डू ठीक हो जाता है, लेकिन उसके जाते ही फिर वैसा। एक्टिंग: करियर में पहली बार शायद कुणाल खेमू ने बिहारी युवक का किरदार निभाया है और अपने किरदार में परफेक्ट रहे हैं। सुमित व्यास भी लडडू के रोल में अच्छे जमे हैं। न्यूकमर पायल सरकार ने अपने किरदार को बस निभा दिया है। अपर्णा शर्मा ने भोली के किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। डायरेक्शन: डायरेक्टर जोड़ी का दावा है कि फिल्म एक हॉट सेक्सी कॉमिडी फिल्म है। हालांकि दो घंटे की फिल्म में ऐसा एक-आध सीन ही है जो आपको हंसा सके। फिल्म की शुरूआत तो ठीक-ठाक होती है, लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म कुछ ऐसी भटकती है कि कौन सा किरदार क्या कर रहा है, समझ से परे लगता है। बेवजह कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए गुड्डू की लव स्टोरी का किस्सा भी फिल्म में जोड़ा गया है। संगीत: यूं तो फिल्म में एक कव्वाली भी फिट की गई है, लेकिन किसी भी गाने में इतना दम नहीं है जो इस सुस्त फिल्म में थोड़ी सी रफ्तार डाल सके। क्यों देखें: अगर कुछ नहीं कर रहे हैं और सेंसर का अडल्ट सर्टिफिकेट या फिल्म के नाम में गन शब्द जुड़ा देखकर टिकट खरीद रहे हैं, तो ठीक है। अच्छी फिल्मों के शौकीन इस गन से दूर ही रहें तो बेहतर होगा। कलाकार: कुणाल खेमू, पायल सरकार, अपर्णा शर्मा, बृजेंद्र काला, फ्लोरा सैनी, जमील खान, सुमित व्यास, निर्देशन: शांतुन छिब्बर, शीर्षक आनंद, गीत: विमल कश्यप, असीम अहमद, संगीत: राजू सरदार, गजेंद्र, विक्रम, सेंसर सर्टिफिकेट: एडल्ट, अवधि : 131 मिनट ",0 "पिछले सप्ताह रिलीज हुई 'पिंक' में शहरी महिलाओं का चित्रण था तो इस सप्ताह प्रदर्शित फिल्म 'पार्च्ड' भारत के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की दयनीय स्थिति को बयां करती है। शहर में रहने वाले और ग्रामीण जीवन से अपरिचित लोग महिलाओं की यह हालत देख दंग रह जाएंगे। गांवों में टीवी और मोबाइल तो पहुंच गए हैं, लेकिन महिलाओं के प्रति पुरुषों के दृष्टिकोण में रत्ती भर बदलाव नहीं देखने को मिलता है। उनके लिए स्त्री अभी भी सेक्स और बच्चा पैदा करने की मशीन है। वे स्त्रियों को पीटते हैं, मर्दानगी दिखाते हैं, क्रूरता भरा व्यवहार करते हैं और तमाम अधिकारों से वंचित रखते हैं। वे मर्द तो बन गए लेकिन इंसान नहीं बन पाए। फिल्म की लेखक और निर्देशक लीना यादव हैं। इसके पहले वे शब्द और तीन पत्ती बना चुकी हैं। पार्च्ड में उन्होंने तीन किरदारों रानी (तनिष्ठा चटर्जी), लाजो (राधिका आप्टे) और बिजली (सुरवीन चावला) के जरिये बाल विवाह, वेश्यावृत्ति, विधवा, घरेलू हिंसा, वैवाहिक बलात्कार जैसी तमाम बातों को पात्रों के जरिये दिखाया गया है। 32 वर्षीय रानी 15 की उम्र में ही विधवा हो गई। उसका 17 साल का बेटा है जिसकी वह शादी करती है। बेटे को अपनी पत्नी पसंद नहीं है और दोस्तों की संगत में रह कर वह बिगड़ गया है। मोबाइल पर ब्लू फिल्म देख उसके दिमाग में औरत की कल्पना कुछ और ही है। बिजली एक बोल्ड महिला है जो नाच-गाने का आइटम करती है और अपना शरीर भी बेचती है। लाजो को शादी के बाद भी बच्चा नहीं हुआ और उसे बांझ कह कर उसका पति दिन-रात पीटता है। लाजो को बिजली के जरिये पता चलता है कि पुरुष भी बांझ हो सकता है। बच्चे की खातिर वह अन्य पुरुष से संबंध बना कर गर्भवती होती है। ये तीनों महिलाएं आपस में सहेलियां हैं और आपसी दु:ख को बांटती रहती हैं। दु:ख से भरी जिंदगी में कुछ पल खुशियों के भी वे चुरा लेती हैं। तीनों प्यार की जरूरत महसूस करती हैं जो उन्हें किसी पुरुष से नहीं मिलता। प्यार की उनकी जिंदगी में कितनी कमी है कि रानी से एक अनजान शख्स फोन पर मीठी बातें करती हैं और वह शर्म से लाल हो जाती है। फिल्म दर्शाती है कि पुरुष अपनी दैहिक जरूरतों को 'मर्दानगी' का नाम देते हैं, लेकिन महिलाओं की दैहिक जरूरत को कोई नहीं समझता। रानी और लाजो अपनी इच्छाओं को दबाकर रखती हैं। पार्च्ड इशारा करती है कि महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार करना है तो उन्हें खुद आगे बढ़ना होगा। रानी अपनी बहू जानकी का जीवन सुधारने के लिए जानकी की शादी उसके प्रेमी से करा देती है। पार्च्ड के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें लीना यादव का प्रस्तुतिकरण बहुत बोल्ड है और थपेड़े की तरह चेहरे पर टकराता है। बोल्ड सीन, गालियां और हिंसा से उन्होंने परहेज नहीं किया है। कहानी में ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं है, लेकिन वे अपनी प्रस्तुति के बल पर बांध कर रखती हैं। महिलाओं के प्रति फिल्म में हिंसा ज्यादा हो गई है जिससे बचा जा सकता था। महिलाओं के सेक्स के प्रति विचार को उन्होंने अच्छे से दिखाया है। गालियों में महिला के बारे में ही बुरा क्यों कहा जाता है, इस पर भी वे रोष जताती हैं और उनकी महिला पात्र ऐसी गालियां बकती हैं जिनमें पुरुषों को बुरा कहा जाता है। आदिल हुसैन और राधिका आप्टे वाला लव मेकिंग सीन वास्तविकता नहीं लगता है। लीना के लेखन या निर्देशन में एक कमी यह भी महसूस होती है कि पात्रों के दर्द को दर्शक महसूस नहीं करता। ग्रामीण पात्र उन्होंने अच्छे से पेश किए हैं, लेकिन गांव नकली लगता है। अभिनय की दृष्टि से फिल्म मालामाल है। चूंकि फिल्म का निर्देशन एक महिला ने किया है इसलिए तीनों प्रमुख अभिनेत्रियों ने बिंदास तरीके से कैमरे के सामने अभिनय किया है। बोल्ड दृश्यों में उनमें कोई झिझक नजर नहीं आती। तनिष्ठा चटर्जी का अभिनय सधा हुआ है और वे ग्रामीण महिला के किरदार में डूब गई। राधिका आप्टे अपने हर किरदार को ऊर्जावान बना देती हैं। लाजो के रूप में वे प्रभावित करती हैं। सुरवीन चावला का अभिनय अच्छा है, लेकिन वे शहर की महिला लगती हैं। सहायक कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है। फिल्म को अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सिनेमाटोग्राफर रसेल कारपेंटर ने शूट किया है। क्लोज़-अप, लैंडस्कैप और रंगों का संयोजन में उनका कमाल देखने को मिलता है। कलाकारों के चेहरे के भावों को उन्होंने बखूबी पकड़ा है। कुल मिलाकर 'पार्च्ड' महिलाओं की आंतरिक भावनाओं और पुरुष शासित समाज की झलक अच्छे से दिखाती है। बैनर : अजय देवगन फिल्म्स निर्माता : अजय देवगन, गुलाब सिंह तनवार, असीम बजाज, रोहन जगदाले, लीना यादव निर्देशक : लीना यादव कलाकार : तनिष्ठा चटर्जी, राधिका आप्टे, सुरवीन चावला, अदिल हुसैन, लहर खान सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट 5 सेकंड ",1 "फिल्म तुम बिन-2 2001 में आई फिल्म तुम बिन का सीक्वल है। अगर हम करीब पंद्रह साल पहले रिलीज हुई फिल्म तुम बिन की बात करें तो उस फिल्म के गाने काफी हिट हुए थे और सुपरहिट गानों की वजह से ही काफी कम बजट में बनी फिल्म सुपहरहिट हुई थी। तुम बिन-2 का म्यूजिक अंकित तिवारी ने कंपोज किया है। कहानी: स्कॉटलैंड में तरन (नेहा शर्मा) और अमर (आशिम गुलाटी) दोनों अच्छे दोस्त है जो जल्दी ही शादी के पवित्र बंधन में बंधने वाले है। अमर बेहतरीन आइस स्केटर है, लेकिन एक ऐक्सीडेंट के बाद हर किसी को यही लगता है कि भीषण एक्सीडेंट के बाद अमर जिंदा नहीं रहा। तरन अब अमर के पापा जी (कंवलजीत सिंह) और दोस्तों की मदद से इस भयानक हादसे को भूलाकर जिंदगी को नए सिरे से जीने की नई कोशिश में लगी है, लेकिन तरन को अक्सर अमर की याद आती है, और उसके साथ गुजारे सुनहरे पल याद आते है। फिर भी तरन अब सब कुछ भूल जाना चाहती है। इस सिंपल सी लव स्टोरी में मोड़ उस वक्त आता है जब कहानी में अचानक शेखर (आदित्य सील) की एंट्री होती है। शेखर के साथ बीते करीब पच्चीस-छब्बीस सालों में बहुत कुछ अजीबोगरीब हो चुका है, तरन को अब धीरे धीरे शेखर के साथ वक्त गुजारना अच्छा लगता है। मन ही मन तरन फैसला कर चुकी है कि अब वह शेखर के साथ नई जिंदगी शुरू करेगी, लेकिन अचानक एक दिन अमर एक बार फिर तरन की लाइफ में लौट आता है। उसके बाद जो होता है वह देखने लायक है। ऐक्टिंग: तारीफ करनी होगी नेहा शर्मा की जिन्होंने स्क्रीन पर अपने किरदार को जीवंत कर दिखाया, खासकर इमोशंस सीन में नेहा ने गजब की ऐक्टिंग की है, अमर और शेखर के किरदारों में आशिम गुलाटी और आदित्य सील ने भी ठीक-ठाक ऐक्टिंग की है, कई सीन्स में आदित्य के सामने आशिम कमजोर नजर आए। पापा जी के रोल में कंवलजीत ने अपने किरदार में जान डाली है। निर्देशन: ऐसा लगता है अनुभव ने कहानी या स्क्रिप्ट पर ज्यादा काम करने की बजाय अपना फिल्म में ज्यादा से ज्यादा गाने फिट करने पर लगाया है। अगर गानों की बात करे तो फिल्म शुरू होने के करीब तीन-चार मिनट बाद ही गानों का सिलसिला शुरू हो जाता है, स्कॉटलैंड की लोकेशन और सिनेमेटोग्राफी बेजोड़ है, लेकिन कहानी को बेवजह खींचा गया है। फिल्म में पाकिस्तानी लड़के के साथ लव ऐंगल को क्यों फिट किया गया यह समझ से परे है तो वहीं इंटरवल के बाद कहानी को लंबा किया गया। अगर अनुभव फिल्म की एडिटिंग के वक्त दस-बारह मिनट की फिल्म पर अपनी और से कैंची चलाते तो दर्शकों को शायद फिल्म बांधे रख पाती। संगीत: फिल्म का संगीत इस फिल्म का सबसे बडा प्लस पॉइंट है, लेकिन तुम बिन पार्ट वन से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। आपको जगजीत सिंह की गजल 'तेरी फरियाद' सुनने को मिलेगी। क्यों देखें : अगर आप साफ-सुथरी म्यूजिकल लव स्टोरी स्क्रीन पर देखना चाहते है तो इस फिल्म को देखा जा सकता हैं। नेहा शर्मा की बेहतरीन परफॉर्मेंस और बेहतरीन लोकशन फिल्म देखने की एक और वजह हो सकते हैं। ",1 "बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, आमिर खान प्रोडक्शन्स निर्माता : आमिर खान, किरण राव निर्देशक : अनुषा रिज़वी संगीत : इंडियन ओशन, राम संपत, नगीन तनवीर कलाकार : ओंकार दास माणिकपुरी, रघुवीर यादव, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्दकी, शालिनी वास्ता, फारुख जफर केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 46 मिनट पीपली लाइव उन लोगों की कहानी है जो भारत के भीतरी इलाकों में रहते हैं। ये लोग इन दिनों भारतीय सिनेमा से गायब हैं। इनकी सुध कोई भी नहीं लेता है और चुनाव के समय ही इन्हें याद किया जाता है। तरक्की के नाम पर शाइनिंग इंडिया की तस्वीर पेश की जाती है। चमचमाते मॉल बताए जाते हैं। लेकिन भारत की लगभग दो तिहाई आबादी इन दूरदराज गाँवों में रहती है, जिन्हें एक समय का भोजन भी भरपेट नहीं मिलता है। कहने को तो भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन किसानों की माली हालत बहुत खराब है। उनके लिए कई योजनाएँ बनाई जाती हैं, लेकिन उन तक पहुँचने के पहले ही योजनाएँ दम तोड़ देती हैं। बीच में नेता, बाबू, अफसर उनका हक हड़प लेते हैं। पिछले दिनों इन योजनाओं को लेकर श्याम बेनेगल ने भी ‘वेल डन अब्बा’ बनाई थी और अब अनुषा ‘पीपली लाइव’ लेकर हाजिर हुई हैं। नत्था और उसके भाई बुधिया की जमीन बैंक हडपने वाली है क्योंकि लोन वापस करने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। वे एक नेता के पास जाते हैं, जो कहता है कि जीते जी तो सरकार तुम्हारी मदद नहीं कर सकती, लेकिन आत्महत्या कर लो तो मुआवजे के रूप में एक लाख रुपए तुम्हें मिल सकते हैं। बुधिया थोड़ा तेज है। वह नत्था को आत्महत्या करने के लिए राजी कर लेता है ताकि उसकी बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों को सहारा मिल जाए। उनके प्लान की भनक मीडिया को लग जाती है। अचानक नत्था का घर चर्चा का केन्द्र बन जाता है। मीडिया वाले कैमरे और माइक लेकर उनके घर के इर्दगिर्द जमा हो जाते हैं और नत्था आत्महत्या करेगा या या नहीं ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है। फिल्म की निर्देशक और लेखक अनुषा रिजवी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ी थी, इसलिए उन्होंने उनकी जमकर खबर ली है। किस तरह ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर सनसनी फैलाई जाती है। किस तरह न्यूज क्रिएट की जाती हैं, ये उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। मीडियाकर्मी नत्था के घर के आगे डेरा डाल देते हैं। उसकी हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। वह पेट साफ करने के लिए खेत जाता है तो उसके पीछे कैमरा लेकर दौड़ लगाई जाती है और बताया जाता है कि आज नत्था इतनी बार मल त्यागने गए हैं। नत्था के मल का रंग देख उसकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जाता है। ",1 "कुछ कुछ लोचा में लोचा ही लोचा है या कहा जाए कि पूरी फिल्म ही लोचा है। सबसे बड़ा लोचा तो ये है कि सनी लियोन से ज्यादा स्क्रीन टाइम राम कपूर को दिया गया है। जिन्हें सिर्फ सनी लियोन देखना है उनके साथ तो यह सबसे बड़ा लोचा है। बजाय सेक्सी सनी के उन्हें ज्यादातर समय थुलथुले राम कपूर को झेलना पड़ता है। जो मनोरंजन के उद्देश्य से टिकट खरीद लेते हैं उनके लिए भी यह फिल्म टार्चर से कम नहीं है। ऐसा लगता है कि घटिया सा कोई टीवी धारावाहिक देख रहे हों जो खत्म होने का नाम ही न ले रहा हो। यह फिल्म इतनी लंबी लगती है मानो हजार किलोमीटर का सफर बैलगाड़ी से तय कर रहे हो। देवांग ढोलकिया ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है। फिल्म में एक छोटा-सा सीन है जिसमें सनी लियोन कहती हैं कि फिल्म हीरोइन की जिंदगी बेहद कठिन होती है। हर आदमी उसे कहां घूरता है और उसके दिमाग में क्या चल रहा होता है इससे हीरोइन वाकिफ रहती है। शायद ये दो लाइन सुनाकर ही उन्होंने सनी लियोन को इम्प्रेस कर साइन कर लिया होगा। फिल्म का लेखन निहायत ही घटिया है। बतौर निर्देशक देवांग ने और भी बुरा काम किया है। ऐसा लगता है कि कैमरा स्टार्ट होते ही वे बैठ गए। जिसके मन में जो आया वो करते चला गया। पन्द्रह मिनट बाद ही आप बोर होने लगते हैं और जल्दी ही बोरियत के उच्चतम स्तर को छूते ही थिएटर से बाहर भागने का मन करता है। बात जिनके बर्दाश्त के बाहर हो जाती है वे भाग भी लेते हैं। कहानी है प्रवीण भाई पटेल उर्फ पीपी (राम कपूर) की। 45 वर्ष का पीपी अपनी पत्नी से परेशान है क्योंकि वह सारा दिन पूजा पाठ में लगी रहती है। वह बॉलीवुड हीरोइन शनाया (सनी लियोन) पर मरता है। एक प्रतियोगिता जीत कर उसे शनाया के साथ डेट पर जाने का अवसर मिलता है। शनाया को एक फिल्म में गुजराती लड़की का किरदार निभाना है और इसके लिए वह प्रवीण भाई के घर कुछ दिन गुजारना चाहती है। प्रवीण भाई अपने बीवी को बहाने से बाहर भेज देते हैं और अपने बेटे को लालच देकर अपने साथ मिला लेते हैं। > कुछ कुछ लोचा है के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें > कहानी इधर-उधर से उधार लेकर बनाई गई है जो टीवी एपिसोड की तरह लगती है। बावजूद इसके इस पर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है, लेकिन यह काम भी ठीक से नहीं हुआ। स्क्रिप्ट में लोचे ही लोचे हैं। प्रवीण पटेल की बीवी उसे अंत में माफ क्यों कर देती है, समझ के परे हैं। लगता है कि निर्देशक और लेखक यह मानते हैं कि पति की सारी गलतियां पत्नी को माफ कर देना चाहिए। एक्टिंग डिपार्टमेंट में फिल्म कंगाल है। राम कपूर ने इतने चीख-चीख कर संवाद बोले हैं कि कानों पर हाथ रखना पड़ता है। सनी लियोन के बिकिनी शॉट्स ही अच्‍छे हैं। एक्टिंग उनसे होती नहीं है। जिगर पटेल का किरदार निभाने वाले नवदीप छाबड़ा को पता ही नहीं है कि एक्टिंग किस चिड़िया का नाम है। यही हाल ईवलिन शर्मा का है। कोकिला के रूप में सुचिता त्रिवेदी ने ही ठीक-ठाक अभिनय किया है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। डबल मीनिंग वाले संवादों से भी काम चलाया गया है। गाने घटिया हैं। 'सागर' के गाने 'जाने दो' की नकल भी फूहड़ है। कुछ कुछ लोचा है जैसी फिल्मों से दूर रहना ही बेहतर है। इसे देख सिर दर्द की शिकायत भी हो सकती है। बैनर : अलुम्बरा एंटरटेनमेंट, मैजिक पिक्चर्स एंड एंटरटेनमेंट प्रा.लि., मैक्सिमस मल्टीमीडिया प्रा.लि. निर्माता : मुकेश पुरोहित, केके अग्रवाल निर्देशक : देवांग ढोलकिया संगीत : इक्का, आरको, इटेंस, अमजद-नदीम, धरम, संदीप, किंग कलाकार : सनी लियोन, राम कपूर, ईवलिन शर्मा, नवदीप छाबड़ा सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 24 मिनट ",0 "निर्माता : रमेश एस. तौरानी निर्देशक : केदार शिंदे संगीत : प्रीतम कलाकार : तब्बू, शरमन जोशी, वत्सल सेठ, युविका चौधरी, अयूब खान, उपासना सिंह, हिमानी शिवपुरी, शरत सक्सेना, सुहासिनी मुले यू सर्टिफिकेट * 16 रील * दो घंटे 10 मिनट ‘तो बात पक्की’ की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें दर्शकों को हँसाने की कोशिश साफ नजर आती है। कुछ गैर जरूरी सीन सिर्फ हास्य पैदा करने के लिए लिखे गए हैं (खासतौर पर शरत सक्सेना वाला ट्रेक), लेकिन इन्हें देख बोरियत होती है। न फिल्म में ऐसी सिचुएशन है, जिन्हें देख चेहरे पर मुस्कान आए और न ही ऐसे डायलॉग्स हैं जिन्हें सुनकर ठहाके लगाए जाए। अच्छी कॉमेडी फिल्म के लिए दमदार एक्टिंग भी एक आवश्यक शर्त है। वत्सल सेठ और युविका चौधरी से उम्मीद करना बेकार है, लेकिन शरमन जोशी और तब्बू जैसे कलाकार भी निराश करते हैं। राजेश्वरी (तब्बू) अपनी छोटी बहन निशा (युविका) के लिए दूल्हा ढूँढ रही है। उसकी खास शर्तें हैं। लड़का सक्सेना होना चाहिए। हैंडसम होने के साथ-साथ उसके पास अच्छा जॉब होना चाहिए। इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर के स्टुडेंट राहुल सक्सेना (शरमन जोशी) की नौकरी लगने ही वाली है और उसमें सारी खूबियाँ राजेश्वरी को नजर आती हैं। उसकी कोशिश से निशा और राहुल एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। उनकी शादी की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। इसी बीच राजेश्वरी के घर पर युवराज सक्सेना (वत्सल सेठ) किराएदार बनकर आ जाता है। वह ज्यादा कमाता है। उसके पास बंगला और कार भी है। राजेश्वरी अब अपनी बहन का रिश्ता ‍युवराज के साथ तय कर देती है। राहुल किस तरह से निशा को फिर से पाने में कामयाब होता है यह फिल्म का सार है। यह कहानी पढ़ने या सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन स्क्रीन पर देखते समय बोरियत महसूस होती है। स्क्रीनप्ले में वो पंच, वो गर्माहट नहीं है जो दर्शकों को बाँधकर कर रखे। फिल्म से दर्शक कनेक्ट नहीं हो पाता। निशा को वापस पाने के लिए और अपने रास्ते से युवराज को हटाने के लिए राहुल जो प्लानिंग बनाता है वो फिल्म का प्रमुख आकर्षण होना चाहिए था, लेकिन यह पार्ट निहायत ही घटिया तरीके से लिखा गया है। युवराज और उसकी माँ को बेवकूफ बताया गया है। कैरेक्टर को स्थापित करने के लिए बहुत सारे दृश्य खर्च किए गए हैं। तब्बू और शरमन की पहली मुलाकात और तब्बू के स्वभाव को बताने के लिए फिल्म के आरंभ में दिखाए गए वाले शादी के सीन बेहद कमजोर और लंबे हैं। केदार शिंदे का डायरेक्शन ठीक है, लेकिन स्क्रिप्ट कमजोरी होने के कारण वे भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। संगीतकार प्रीतम ने ‍फिल्म की स्टारकास्ट और सेटअप को देखते हुए अपनी कमजोर धुनें टिका दी हैं। गानों के लिए ठीक से सिचुएशन नहीं बनाई गई है और उनका पिक्चराइजेशन भी कमजोर है। तब्बू अपने रोल में असहज नजर आईं। कॉमेडी रोल बेहतर तरीके से निभाने वाले शरमन जोशी इम्प्रेस नहीं कर पाते। वत्सल सेठ और युविका चौधरी को अभिनय सीखने की जरूरत है। कुल मिलाकर ‘तो बात पक्की’ ज्यादातर बातों में कच्ची है। ",0 "कहानी: जिद्दी केशव (अक्षय) खुले विचारों वाली जया (भूमि) से दिल लगा बैठता है जो कि उत्तर प्रदेश में उसके पास वाले गांव की रहने वाली है। वे शादी भी करते हैं, लेकिन केशव उसे यह नहीं बता पाता है कि उसके घर में टॉइलट नहीं है और यही वह वजह बन जाती है, जिसे लेकर जया तलाक का मामला दर्ज कराती है। रिव्यू: हममें से कइयों के लिए घर में टॉइलट होना भले कोई बड़ी बात न लगती हो, लेकिन यह एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि आज भी हमारे देश में 58% भारतीय खुले में शौच के आदी हैं और यकीन मानिए वे ऐसा कर के खुश नहीं हैं। निर्देशक श्री नारायण सिंह ने इस फिल्म के जरिए समाज को एक आईना दिखाने की कोशिश की। फिल्म के जरिए हमें दिखाया गया है कि कैसे हमारे अंधविश्वासी ग्रामीणों ने, आलसी प्रशासन और भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर हमारे भारत को गंदगी का सबसे बड़ा तालाब बना रखा है। यहां खासकर महिलाओं के साथ जानवरों से भी ज्यादा असंवेदनशील तरीके से पेश आया जाता है। खेतों और खुले में जाकर शौच करने की हमारी पुरानी आदत पर व्यंग्य करते हुए यह फिल्म बड़े ही मजेदार ढंग से फिल्माई गई है। 'टॉयलट: एक प्रेम कथा' एक मजबूत लव स्टोरी भी है, जो काफी बैलेंस्ड है। यह आपका मनोरंजन करने के साथ-साथ आपको एजुकेट भी करती है। राइटर जोड़ी सिद्धार्थ-गरिमा हमें अपनी इस मजेदार कहानी से एक ऐसे सफर पर ले जाती है जो इस मुद्दे को लेकर जागरूक करती है कि हमारे घर में महिलाओं के लिए टॉइलट का होना कितना जरूरी है। इस कहानी में टॉइलट की वजह से फिल्म के लीड किरदार केशव और जया के बीच लड़ाई हो जाती है और इस वजह से पंडित जी (सुधीर पांडे) और उनके बड़े बेटे के बीच भी ठन जाती है। दो भाइयों नरु (दिव्येंदु) और केशव के बीच जो प्यार भरा रिश्ता है, वह भी देखने लायक है। गांव में शौचालय के लिए लीड किरदार की जो लड़ाई है, वह याद रखने लायक है। सरपंच से लेकर चुलबुले काका (अनुपम खेर) तक के साथ यूपी के देहातों की हर छोटी-बड़ी बातों को ध्यान में रखकर इसे फिल्माया गया है। वैसे, फिल्म का सेकंड हाफ इस मुख्य समस्या का कारण बताता है और इसके कारण काफी लेक्चरबाजी भी होती है। यह पूरी व्यंग्य भरी कहानी अक्षय कुमार के कंधों पर टिकी है। एक बार फिर अक्षय अपने शानदार परफॉर्मेंस से दर्शकों का दिल जीतने के लिए तैयार हैं। इस फिल्म को मिले स्टार्स में से आधा स्टार भूमि के लिए, जो जया के रोल में एकदम परफेक्ट दिख रही हैं। दिव्येंदु की कॉमिक शानदार है। पांडे और खेर की मौजूदगी को आप कहीं भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। फिल्म में कई ऐसे फ़नी मोमेंट्स हैं, जो आपके इमोशन को छूते हैं। 'हंस मत पगली', 'बखेड़ा', 'गोरी तू लठ मार' जैसे म्यूज़िकल ट्रैक एस फिल्म के बोनस पॉइंट हैं। गुजराती में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें... ",1 " स्टोरी आइडिया उम्दा है और निर्देशक अभिनय देव इस पर एक देखने लायक फिल्म बनाने में कामयाब हुए हैं। वैसे, इस कहानी पर बहुत कुछ काम किया जा सकता था, लेकिन सारी संभावनाओं का दोहन नहीं हो पाया। मूल कहानी के साथ कुछ उप कहानियां भी हैं, जो लगातार मनोरंजन का डोज देती रहती है। देव के बॉस का 'टॉयलेट पेपर' का बिजनेस है। उसका मानना है कि पीने का पानी नहीं मिलता तो धोने में पानी क्यों बरबाद करना। पानी की निरंतर होती कमी को वह अपने व्यवसाय के लिए अवसर मानता है। हालांकि इस बात को लेकर कुछ ज्यादा ही सीन हो गए। कुछ कम किए जा सकते थे। रंजीत के साथ उसकी पत्नी डॉली (दिव्या दत्ता) कुत्ते की तरह व्यवहार करती है क्योंकि वह एक पैसा नहीं कमाता। यह ट्रेक सिर्फ हंसाने के लिए रचा गया है। ऑफिस गॉसिप हैं। पुरुषों की फैंटेसी है। दिक्कत इस बात को लेकर है कि एक जैसे सीन की मात्रा कुछ ज्यादा ही हो गई है लिहाजा सेकंड हाफ में ये थोड़ा उबाते हैं क्योंकि इनमें नवीनता नहीं रहती। 'ब्लैकमेल' में आगे क्या होने वाला है ये अंदाजा लगाना मुश्किल है और यही बात फिल्म के पक्ष में जाती है। इस कारण फिल्म में अंत तक रूचि बनी रहती है। दूसरी खास बात है मजेदार किरदार। देव, उसका दोस्त, उसका बॉस, रंजीत, उसकी पत्नी, पत्नी के मां-बाप, एक जासूस, ये सब फनी हैं और इनको लेकर कुछ ऐसे सीन बनाए गए हैं जिन पर आप हंस सकते हैं। फिल्म के शुरुआती 10-15 मिनट बोझिल हैं। शायद इन्हें देव की मनोदशा दिखाने के लिए रखा गया है जिसकी जिंदगी में कोई चार्म नहीं है। इसके बाद निर्देशक अभिनव देव की फिल्म पर पकड़ मजबूत हो जाती है। खासतौर पर अरुणोदय सिंह की एंट्री होने के बाद फिल्म में मनोरंजन का ग्राफ ऊंचा होने लगता है। निर्देशक ने फिल्म को थ्रिलर बनाने के बजाय ह्यमूरस बनाने पर ज्यादा जोर दिया है। अभिनव का प्रस्तुतिकरण अच्छा है और उन्हें कलाकारों ने भी भरपूर सहयोग दिया है। स्क्रिप्ट में कुछ कमियां हैं, जिन्हें यहां पर लिखा नहीं जा सकता क्योंकि इससे फिल्म देखने का मजा बिगड़ सकता है, लेकिन ये कमियां फिल्म देखने में ज्यादा बाधक नहीं बनती हैं। देव और उसकी पत्नी का ठंडा रिश्ता, रंजीत और उसकी पत्नी का नफरत वाला रिश्ता क्यों है, इस पर प्रकाश नहीं डाला गया है। इरफान खान को संवाद कम दिए गए हैं और उन्हें चेहरे के भाव से ज्यादा काम चलाना पड़ा है, जिसमें उन जैसे काबिल अभिनेता को बिलकुल भी परेशानी नहीं हुई। अरुणोदय सिंह को अभिनय करते देखना अच्छा लगता है। उन्होंने तरह-तरह के चेहरे बना कर अपने किरदार को कॉमिक लुक दिया है। कीर्ति कुल्हारी एकमात्र ऐसी कलाकार रही जिनके साथ स्क्रिप्ट न्याय नहीं कर पाई। ओमी वैद्य, दिव्या दत्ता, गजराज राव (चावला), अभिजीत चव्हाण (पुलिस इंसपेक्टर) सहित अन्य अभिनेताओं का काम भी उम्दा है। उर्मिला मातोंडकर ने न जाने क्या सोच कर एक गाना किया है। कुल मिलाकर ब्लैकमेल एक नई कहानी और बेहतरीन एक्टिंग के कारण देखी जा सकती है। बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., आरडीपी मोशन पिक्चर्स निर्माता : कृष्ण कुमार, भूषण कुमार, अभिनय देव, अपूर्बा सेनगुप्ता निर्देशक : अभिनय देव संगीत : अमित त्रिवेदी, बादशाह कलाकार : इरफान खान, कीर्ति कुल्हारी, अरुणोदय सिंह, दिव्या दत्ता, ओमी वैद्य, उर्मिला मातोंडकर (स्पेशल अपियरेंस) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट ",1 "चंद्रमोहन शर्मा इस फिल्म के टाइटल को प्रॉडक्शन कंपनी ने एक खास क्लास और लीक से हटकर बनी फिल्मों को पंसद करने वाली क्लास को टारगेट करके ही रखा है। फिल्म का प्रेस शो खत्म होने के बाद इस फिल्म के पीआरओ से जब कई क्रिटिक्स ने फिल्म के टाइटल की वजह पूछी तो खुद पीआरओ साहब को ही इस बारे में कुछ पता नहीं था। आठ साल के अंतराल में ही एक शहर में टोटली एक ही स्टाइल में हुई किडनैपिंग की दो अलग-अलग घटनाओं को एक अलग और रोमांचक ढंग में पेश किया है। वैसे, अगर दो किडनैपिंग की घटनाओं की बात करें तो फिल्म का टाइटिल दो होना चाहिए, तीन नहीं। एक सीनियर क्रिटिक्स की माने तो चूंकि फिल्म की पूरी कहानी तीन लीड किरदारों अमिताभ बच्चन, नवाजुद्दीन सिद्दकी और विद्या बालन के इर्द-गिर्द घूमती है। इसी के चलते प्रॉडयूसर ने फिल्म का टाइटल कुछ अलग ढंग से तीन रखा, लेकिन फिल्म में तीन नहीं बल्कि चार अहम किरदार है, कहानी में बिग बी यानी जॉन के अलावा एक और दादाजी भी है और यह किरदार इस फिल्म का महत्वपूर्ण किरदार है। फिल्म का ट्रेलर- इससे पहले विद्या बालन के कंधों पर कहानी जैसी रोमांचक, थ्रिलर सुपर हिट फिल्म बना चुके डायरेक्टर सुजॉय घोष ने इस फिल्म के निर्देशन की कमान खुद संभालने के बजाए रिभु दास गुप्ता को दी, बेशक रिभु ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक न्याय किया, लेकिन बेवजह इंटरवल से पहले फिल्म के कई सीन्स को बेवजह लंबा खींचा तो क्लाइमेक्स में वैसा दम दिखाई नहीं दिया जो सुजॉय की कहानी में नजर आया था। कोलकाता के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म की शूटिंग रिभु ने कोलकात्ता की पहचान बन चुकी ट्रॉम ट्रेन, हावडा ब्रिज आदि कई लोकेशन्स पर की तो वहीं कुछ सीन्स को देख ऐसा लगता है जैसे रिभु स्टार्ट टू फिनिश बिग बी के किरदार को कुछ ज्यादा ही प्रमुखता भी दी। कहानी : फिल्म की शुरूआत जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) से होती है जो हमेशा की तरह इस बार भी कोलकाता के एक पुलिस स्टेशन में अपनी पोती एंजेला को किडनैप करने वाले उन अज्ञात किडनैपर के बारे में पूछताछ करने पहुंचा हुआ है, जिन्होंने आठ साल पहले उसकी पोती एंजेला का किडनैप किया और इसी दौरान एंजेला की एक ऐक्सीडेंट में मौत हो गई। पुलिस भी मानती है कि आठ साल पहले एंजेला का किडनेप हुआ और उसकी मौत हुई। उस वक्त एंजेला के किडनैप की जांच इंस्पेक्टर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दकी) को सौंपी लेकिन मार्टिन लाख कोशिशों के बावजूद किडनैपर को पकड़ नहीं पाया, इस केस में असफल होने के बाद मार्टिन को एहसास हुआ कि उसकी वजह से एंजेला की जान चली गई, पुलिस अफसरों ने इस केस में नाकामयाब रहने पर मार्टिन को खूब खरी खोटी सुनाई और इसके बाद मार्टिन पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में प्रीस्ट फादर बन गया। दूसरी ओर, जॉन की बीवी नेंसी इस सदमे के बाद वील चेयर पर पहुंच चुकी हैं। बेशक, इन आठ सालों में बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन जॉन को अब भी आस है कि एक दिन वह एंजेला के किडनैपर को सजा दिलाने में जरूर कामयाब होगा। अस्सी की उम्र के करीब पहुंच चुके जॉन ने हिम्मत नहीं हारी है। मार्टिन के इस केस से हटने के बाद आगे की जांच की कमान सरिता सरकार (विद्या बालन) कौ सौंपी जाती है। सरिता चाहती है कि इस केस की जांच में मार्टिन उसका साथ दे, लंबी जांच पड़ताल के बाद मार्टिन और सरिता अपने अलग ढंग से इस केस की गुत्थी को सुलझाने में लग जाते हैं, इसी दौरान एक मासूम बच्चे का किडनैप उसके नाना (सब्यसांची मुखर्जी) के सामने हो जाता है जब वह अपने नाना के साथ फुटबॉल खेल रहा होता है। ऐक्टिंग: पूरी फिल्म चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, अपनी पोती के किडनैपर को सजा दिलाने के लिए भटकते दादाजी का किरदार यकीनन बिग बी से अच्छी तरह से कोई दूसरा निभा नहीं पाता। इंस्पेक्टर मार्टिन के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दकी खूब जमे तो विद्या बालन अपने किरदार में सौ फीसदी फिट है, नाना जी के किरदार में सब्यसांची मुखर्जी को बेशक फुटेज कम मिली लेकिन तीन दिग्गज कलाकारों की मौजूदगी में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग का लोहा मनवाया। निर्देशन: रिभु दास गुप्ता ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक इंसाफ किया है, रिभु जहां कोलकाता के माहौल को फिल्म में उतारने में पूरी तरह से कामयाब रहे तो उन्होंने फिल्म के हर कलाकार से अच्छा काम लिया, ना जाने क्यूं इस तेज रफ्तार से आगे बढ़ती कहानी में गाने क्यों ठूंसे, बेशक, बैकग्राउंड में फिल्माए ये गाने फिल्म का हिस्सा बनाकर पेश किए गये लेकिन कहानी की रफ्तार को जरूर कम करते हैं, क्लाइमेक्स बेवजह खींचा गया। संगीत: फिल्म के गाने माहौल के मुताबिक है, बिग बी की आवाज में यह गाने कहानी का बेशक हिस्सा बनाकर पेश किये गए। क्यों देखें: बिग बी की बेहतरीन एक्टिंग, कोलकाता की बेहतरीन लोकेशन के साथ कुछ अलग और नया देखने वाले दर्शकों की कसौटी पर यह फिल्म खरा उतर सकती है। ",1 "अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन शिखर सितारा थे तब कईनिर्माताओं की पहुंच से वे दूर थे। इसलिए छोटे निर्माता अमिताभनुमा फिल्में मिथुन चक्रवर्ती के साथ बनाया करते थे और मिथुन को गरीबों का अमिताभ कहा जाता था। फॉक्स स्टार स्टुडियो ने रितिक रोशन के साथ-साथ बैंग बैंग नामक महंगी फिल्म बनाई थी जो किसी तरह बस लागत ही वसूल कर पाई थी। वैसी हॉलीवुड स्टाइल की देसी मूवी 'ए जेंटलमैन- सुंदर सुशील रिस्की' इसी बैनर ने सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ बनाई है जिनकी स्टारवैल्यू रितिक रोशन जैसी नहीं है। रितिक की तरह ही सिद्धार्थ को इस फिल्म में पेश किया गया है और इस फिल्म को बैंग बैंग का 'सस्ता' सीक्वल कह सकते हैं। फिल्म निर्देशन कृष्णा डीके, राज निदिमोरू ने किया है, जिन्होंने 99 और शोर इन द सिटी जैसी कुछ अच्छी फिल्में बनाई हैं। राज और डीके का तकनीकी पक्ष मजबूत है और उनका कहानी कहने का तरीका चौंकाने वाला है, लेकिन स्क्रिप्ट के चुनने में उनकी पकड़ ढीली है। 'ए जेंटलमैन' में भी वे इस कमजोरी पर काबू नहीं कर पाए। इंटरवल तक उन्होंने दर्शकों को गौरव और ऋषि की कहानी के जरिये खूब चौंकाया है। गौरव (सिद्धार्थ मल्होत्रा) मियामी में रहता है और सुंदर तथा अति सुशील है। एक सॉफ्टवेयर कंपनी के मार्केटिंग डिपार्टमेंट में काम करता है। उसकी दोस्त काव्या (जैकलीन मल्होत्रा) को गौरव में यही खराबी नजर आती है कि उसमें कोई खराबी नहीं है। हर तरह के नियम-कायदे वह मानता है और जिंदगी के प्रति उसका रवैया अति सुरक्षित है। दूसरी ओर ऋषि (सिद्धार्थ मल्होत्रा) है जो हूबहू गौरव जैसा नजर आता है। उसकी लाइफ में रिस्क ही रिस्क है। वह कर्नल (सुनील शेट्टी) की यूनिट एक्स के लिए काम करता है। उसका काम एजेंट्स की तरह है और उसे विश्वास दिलाया जाता है कि वह जो भी खून-खराबा कर रहा है देश के लिए कर रहा है। ऋषि इस जिंदगी से ऊब गया है और उसे कर्नल की बातों पर भरोसा नहीं है। फिल्म के पहले हिस्से में निर्देशक और लेखक ने दर्शकों के सामने ज्यादा पत्ते नहीं खोले हैं और दर्शक अपने स्तर पर ही पहेलियां बूझते रहते हैं। इंटरवल एक जोरदार ट्विस्ट पर होता है और इसे प्रस्तुतिकरण का कमाल कह सकते हैं। सेकंड हाफ से बहुत ज्यादा उम्मीद जाग जाती हैं और ये उम्मीद ही फिल्म पर भारी पड़ती है। फिल्म का सेकंड हाफ पहले हाफ की तुलना में कमजोर है और यहां पर कहानी की कमजोरी की कलई खुलने लगती है। चूंकि फिल्म लार्जर देन लाइफ है, लिहाजा लेखक और निर्देशक ने कुछ ज्यादा ही लिबर्टी ले ली है। जिस तरह से विदेशी धरती पर ऋषि और उसके पीछे पड़े दुश्मन गोली-बारी करते हैं उसे देख आश्चर्य पैदा होता है कि वहां पुलिस या कानून जैसी चीजें हैं भी यहां नहीं। ऋषि और गौरव का कनेक्शन भी सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है और जितनी आसानी से यह दिखाया गया है हकीकत में उतना ही मुश्किल है। कहानी या स्क्रिप्ट के इन कमजोरियों को छोड़ दिया जाए तो फिल्म मनोरंजक लगती है। फिल्म के एक्शन सीक्वेंस (मुंबई की गलियों से लेकर मियामी की सड़कों तक), बाइक और कार के चेजि़ंग दृश्य, गोलीबार वाले सीन रोमांच से भरपूर है। दो बिल्डिंगो के बीच ऊंचाई पर कार का फंस जाने वाला सीन बेहतरीन बन पड़ा है। एक्शन, रोमांस और कॉमेडी के बीच अच्छा संतुलन बनाया गया है। गौरव का काव्या को प्रपोज़ करने के लिए होटल में ले जाना, गे बनकर एक व्यक्ति को रिझाना, काव्या का जब यह जानना कि गौरव सुंदर और सुशील होने के साथ-साथ रिस्की भी है, काव्या के माता-पिता का गौरव के घर आने वाले सीन अच्छे बन पड़े हैं। यदि स्क्रिप्ट पर थोड़ी मेहनत और की जाती तो निश्चित रूप से फिल्म में और निखार आ जाता है। खास तौर पर सुनील शेट्टी का किरदार अधूरा सा लगता है। उसके बारे में फिल्म ज्यादा जानकारी नहीं देती। डीके और राज का कहानी कहने का तरीका उम्दा है। उन्होंने फिल्म को स्लिक, स्टाइलिश और कूल लुक दिया है। उनका शॉट टेकिंग बढ़िया है। दूसरे हाफ में फिल्म कहीं-कहीं उबाऊ लगती है और इस तरह के दृश्यों से निर्देशक को बचना था। एक्शन फिल्मों में सिद्धार्थ मल्होत्रा अच्छे लगते हैं और इस फिल्म में उनका काम अच्छा है। वे बेहद हैंडसम, फिट और स्टाइलिश लगे हैं। जैकलीन फर्नांडिस के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन जितना भी रोल उन्हें मिला उन्होंने अच्छे से निभाया है। गेस्ट अपियरेंस में सुनील शेट्टी इम्प्रेस नहीं कर पाए और कुछ हद तक लेखकों का भी दोष है कि उनका रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। दर्शन कुमार और हुसैन दलाल का काम अच्छा है। फिल्म का संगीत औसत है और सचिन-जिगर एक भी मधुर धुन नहीं दे पाए। रोमन जैकोबी की सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है और फिल्म को भव्य लुक देती है। कई बार ऐसी फिल्में अच्‍छी लगती हैं जिसमें गुडलुकिंग हीरो-हीरोइन हो, खूबसूरत लोकेशन हो, स्टाइलिश एक्शन हो, भले ही स्क्रिप्ट में थोड़ी-बहुत खामियां हों, 'ए जेंटलमैन' इसी तरह की फिल्म है। निर्माता : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्देशक : कृष्णा डीके, राज निदिमोरू संगीत: सचिन-जिगर कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा जैकलीन फर्नांडीस, सुनील शेट्टी, रजित कपूर, दर्शन कुमार, हुसैन दलाल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 35 सेकंड ",1 "लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' में वकील बनी तापसी जब आतंकवाद के शक में आरोपी बनाए गए मुसलमान चरित्र मुराद अली मोहम्मद का रोल निभानेवाले ऋषि कपूर से पूछती है, 'एक आम देशप्रेमी कैसे फर्क साबित करेगा दाढ़ी वाले मुराद अली मोहम्मद में और उस दाढ़ीवाले टेरेरिस्ट में? कि आप एक अच्छे मुसलमान हैं, आतंकवादी नहीं? आप देश के प्रति अपने प्रेम को कैसे साबित करेंगे?' तो फिल्म का किरदार ऋषि ही नहीं बल्कि दर्शक भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' आज के दौर की सबसे ज्यादा जरूरी फिल्म बन पड़ी है। अनुभव फिल्म में हम (हिंदू) और वो (मुसलमान) के बीच के विभाजन की ओर ध्यान आकर्षित करके आज के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर करारा प्रहार करते हैं।कहानी: इसकी शुरुआत बनारस के एक खुशहाल मुसलमान परिवार से होती है, जहां वकील मुराद अली मोहम्मद(ऋषि कपूर) अपने हिंदू पड़ोसियों के साथ मेल-मिलाप से रहता है। इस परिवार का एक दिलचस्प किरदार है, उनकी वकील बहू आरती मोहम्मद (तापसी पन्नू) जो लंदन से अपने ससुराल वालों से मिलने आती है। कहानी में टर्निंग पॉइंट तब आता है, जब अली मोहम्मद के भतीजे शाहिद( प्रतीक बब्बर) की शिनाख्त एक आतंकी हमले के जिम्मेदार आतंकवादी के रूप में होती है और तब पूरे परिवार को आतंकवादी मान लिया जाता है। परिवार की जिंदगी रातों-रात बदल जाती है। शाहिद के पिता बिलाल (मनोज पाहवा) को इस आतंकी हमले का साजिशकर्ता मानकर गिरफ्तार कर लिया जाता है। सम्मानित वकील मुराद अली मोहम्मद को भी आरोपी बनाया जाता है। इस परिवार को आतंकवादी साबित करने के लिए सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) और पुलिस अफसर दानिश जावेद (रजत कपूर) कमर कस लेते हैं। असल में दानिश जावेद ही वह पुलिस अफसर है, जिसने शाहिद का एनकाउंटर किया था। अब मुराद अली मोहम्मद के पास अपने व अपने परिवार को निर्दोष साबित करने और अपने खोए हुए सम्मान को दोबारा पाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता। वह खुद अपने केस की पैरवी के लिए उठ खड़ा होता है, मगर कोर्ट में उसकी देशभक्ति और उसके मुसलमान होने को लेकर जिस तरह के सवाल उठाए जाते हैं, उससे विचलित होकर वह अपना केस अपनी बहू आरती मोहम्मद को लड़ने के लिए कहता है। क्या आरती मोहम्मद अदालत के फैसले से पहले ही आतंकवादी मान लिए गए परिवार को निर्दोष साबित कर पाती है? क्या वह इनके छीन लिए गए गौरव को दोबारा लौटा पाती है? इसे जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा फिल्म के सच्चे हीरो साबित होते हैं। उन्होंने अपनी फिल्म के जरिए ऐसे मुद्दों और विषय पर प्रश्न किए हैं, जो आपके और हमारे जेहन में एक अरसे से दबे हुए हैं और हमारी सोच को कुंठित किए जा रहे हैं, मगर कोई भी इस पर संवाद नहीं करना चाहता। उन्होंने फिल्म में जेहाद के असली अर्थ की व्याख्या करते हुए बता दिया है कि उसका मतलब आतंकवाद नहीं बल्कि स्ट्रगल होता है। फिल्म में विभाजन की राजनीति पर भी प्रकाश डाला गया है। कदाचित यह पहली बार है, जब लेखक-निर्देशक ने दर्शाया है कि किसी परिवार में पैदा हुआ आतंकी भले पुलिस की गोलियों का शिकार होकर अपने अंजाम तक पहुंच जाए, मगर उसके बाद उसके परिवार पर क्या बीतती है? अनुभव के संवाद आपको अंदर तक झकझोर कर रख देते हैं। निर्देशन सधा हुआ है और स्क्रीनप्ले में पैनापन है। मंथर गति से बढ़नेवाले फर्स्ट हाफ के बाद कहानी जब सेकंड हाफ में कोर्ट रूम ड्रामा में पहुंचती है, तो आप अपनी जगह से हिल नहीं पाते। फिल्म में कलाकारों का अभिनय पक्ष इतना सशक्त है कि आपको महसूस ही नहीं होता कि आप कोई फिल्म देख रहे हैं। मुराद अली मोहम्मद के रूप में ऋषि कपूर ने अपने रोल को बेहद ही संयमित और प्रभावशाली ढंग से जिया है। उन्होंने अपनी केंद्रीय भूमिका को कहीं भी कमतर नहीं होने दिया है। आतंकवादी करार देकर अपनी देशभक्ति को साबित करने का दर्द उन्होंने बखूबी बयान किया है। बिलाल के रूप में मनोज पाहवा की बेबसी और मासूमियत दर्शकों को गहराई तक जज्बाती कर देती है। उन्होंने अपने करियर का बेहतरीन अभिनय किया है। तापसी पन्नू ने आरती मोहम्मद के रूप में एक बहू और वकील दोनों पक्षों को लाजवाब अंदाज में दर्शाया है। सरकारी वकील के रूप में आशुतोष राणा ने उम्दा अभिनय अदायगी की है। तापसी और आशुतोष दोनों के बीच कोर्ट रूम ड्रामा दर्शकों की तालियों का हकदार साबित होता है। शाहिद के रूप में प्रतीक अपनी छाप छोड़ जाते हैं। फिल्म के अन्य किरदारों में नीना गुप्ता, प्राची पंड्या शाह और अन्य कलाकरों ने अपने किरदारों को ईमानदारी से निभाया है। संगीत के मामले में 'ठेंगे से' और 'पिया सामने' जैसे गाने विषय के अनुरूप हैं। क्यों देखें- धर्म और सामाजिक धारणाओं की पड़ताल करनेवाली इस फिल्म को जरूर देखें। कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com डायरेक्टर सैयद अहमद अफज़ल ने कुछ समय पहले वाशु भगनानी के साहबजादे जैकी भगनानी को लीड किरदार में लेकर यंगिस्तान फिल्म बनाई थी। अहमद ने इस फिल्म में एक अच्छा मुद्दा उठाने की पहल तो की, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और बॉक्स ऑफिस का मोह उनके इस पहल को कामयाबी नहीं दिला पाए। राजनीति और सत्ता में युवाओं की भागीदारी और उनके ज्यादा सक्रिय होने को लेकर बनी इस फिल्म को यंग जेनरेशन ने ही ठुकरा दिया। इस बार फिर अहमद ने अपनी इस फिल्म में एक मेसेज देने की कोशिश तो की है, लेकिन यहां भी उन्होंने फुल होमवर्क किए बिना कमजोर स्क्रिप्ट के साथ इस प्रॉजेक्ट को पूरा करने की कोशिश की और यहीं वह मार खा गए, वर्ना उन्होंने इस फिल्म में ऐसा करंट टॉपिक उठाने की पहल की है, जिससे हर कोई बचना चाहता है। ब्लड बैंक और खून की खरीदारी और इसमें सक्रिय माफिया के आसपास घूमती इस फिल्म को अगर अहमद कम्प्लीट होमवर्क करके शुरू करते तो यकीनन उनकी इस पहल का हर कोई स्वागत करता और बॉक्स ऑफिस पर 'लाल रंग' अपना कुछ रंग दिखाता। कहानी : हरियाणा के एक शहर में खून बेचने के काले धंधे का सरगना है, शंकर (रणदीप हुड्डा)। वह लोगों से कम कीमत पर खून लेकर जरूरतमंदों को महंगे रेट पर बेचता है। चौंकाने वाली बात यह है कि शंकर एक मेडिकल कॉलेज से डिप्लोमा कर रहा है और वह इसी कॉलेज के स्टाफ मेंबर के साथ मिलकर खून चोरी करता है। इस कॉलेज में शंकर की खूब दादागीरी चलती है। शंकर कुछ नर्सिंग होम के साथ मिलकर महंगी कीमत पर खून बेचता है। शंकर का गैंग गरीब, बेबस और नशेड़ियों को पैसे का लालच देकर उनसे खून लेता है। जिस कॉलेज में शंकर पढ़ता है, उसी कॉलेज में राजेश (अक्षय ओबेरॉय) और पूनम (पिया बाजपेयी) भी ऐडमिशन लेते हैं। कुछ मुलाकातों के बाद दोनों एक-दूसरे के साथ प्यार करने लगते हैं, इसी दौरान राजेश और शंकर के बीच अच्छी-खासी दोस्ती हो जाती है। राजेश को जब शंकर के खून बेचने के धंधे के बारे में पता लगता है तो वह भी पैसे के लालच में इस गैरकानूनी बिज़नस के साथ जुड़ जाता है। अब ज्यादा कमाई और पैसा कमाने की चाह में यह गैंग उन नशेड़ियों का खून लेने से भी परहेज नहीं कर रहा है, जिन्हें एड्स और दूसरी जानलेवा गंभीर बीमारियां हैं। इंस्पेक्टर गजराज सिंह (रजनीश दुग्गल) ब्लड रैकेट से जुड़े लोगों को सबूत के साथ अरेस्ट करने की जुगाड़ में है। इसी बीच एक ऐसा हादसा होता है कि गजराज के शक की सूई राजेश और शंकर पर आ टिकती है। ऐक्टिंग : रणदीप हुड्डा ने फिल्म में जबर्दस्त ऐक्टिंग की है। फिल्म में रणदीप का किरदार टोटली हरियाणवी है, लिहाजा उनकी डायलॉग डिलिवरी गजब बन पड़ी है। इस फिल्म में शंकर का किरदार यकीनन रणदीप के अब तक निभाए फिल्मी किरदारों में बेहतरीन कहा जा सकता है। पिया बाजपेयी पूनम के रोल में खूब जमी हैं। अक्षय ओबेरॉय भी बेशक हरियाणवी किरदार में हैं, लेकिन स्क्रीन पर रणदीप के सामने टिक नहीं पाते, जबकि पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में रजनीश दुग्गल ठीकठाक हैं। निर्देशन : इस फिल्म में अपनी बात रखने के लिए डायरेक्टर सैयद अहमद अफजल ने कुछ सच्ची घटनाओं का भी सहारा लिया है। ड्रोन कैमरे का भी अफजल ने अच्छा इस्तेमाल किया है। इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार बेहद धीमी है और आपके सब्र का इम्तिहान लेने लगती है। क्लाइमैक्स कमजोर है, लेकिन स्क्रीनप्ले दमदार है। अगर अफजल अपनी बात को कम वक्त में बयां करते तो फिल्म और बेहतरीन बन सकती थी। संगीत : फिल्म में कई गाने हैं, जो बेवजह कहानी की रफ्तार को और धीमा करने का काम करते हैं। 'बावली बूच' और 'ऐ खुदा' गानों का फिल्मांकन बेहतरीन है। क्यों देखें : पावरफुल सब्जेक्ट, रणदीप हुड्डा की बेहतरीन ऐक्टिंग इस फिल्म की यूएसपी है, तो कहानी की बेहद स्लो रफ्तार माइनस पॉइंट है। ",1 "वर्षों पहले रुडयार्ड कि‍पलिंग ने 'द जंगल बुक' लिखी थी। रुडयार्ड किपलिंग का जन्म भारत में हुआ था और संभव है कि भारत के जंगलों से प्रेरित होकर उन्हें मोगली, बघीरा जैसे पात्र सूझे हों। उनकी लिखी कहानी कालजयी है। समय की धूल का इस पर कोई असर नहीं हुआ है। आज भी यह ताजा और प्रासंगिक लगती है। 1967 में पहली बार 'द जंगल बुक' बनी थी और 49 वर्ष बाद एक बार फिर यह फिल्म हाजिर है जिसे आधुनिक तकनीक ने और बेहतर बना दिया है। हमारे में से कई लोगों को दूरदर्शन पर प्रसारित हुई 'द जंगल बुक' याद होगी जिसका गाना 'चड्डी पहन कर फूल खिला है' आज भी कानों में गूंजता है। 'द जंगल बुक' निश्चित रूप से उन्हें यादों के गलियारे में ले जाएगी तो दूसरी ओर पहली बार देखने वाले बच्चों के लिए यह अद्‍भुत अनुभव होगा। फिल्म की कहानी सभी जानते हैं। मनुष्य का बच्चा मोगली (नील सेठी) जंगल में भेड़ियों के झुंड के साथ पलता है। बघीरा और रक्षा उसके रक्षक हैं। जंगल के सभी जानवर उससे प्यार करते हैं, सिवाय शेर खान के। शेर खान ने मोगली के पिता की हत्या की थी और वह मोगली को भी मारना चाहता है, लेकिन सभी जानवरों के मोगली के प्रति प्यार को देखते हुए उसके लिए यह आसान नहीं है। मोगली बड़ा हो गया है और बघीरा का मानना है कि उसे अब इंसानों की बस्ती में लौट जाना चाहिए जबकि मोगली इसके लिए तैयार नहीं है। फिल्म शुरुआत से ही आपको सब कुछ भूला देती है और जंगल की दुनिया अपने आगोश में ले लेती है। जंगल की दुनिया ज्यादा निराली और बेहतर लगती है। जहां सब कानून मानते हैं। उनमें प्यार है, भाईचारा है। मनुष्य की दुनिया से बेहतर लगती है जंगल और जानवरों की दुनिया। शेर खान को मोगली शायद इसीलिए पसंद नहीं था क्योंकि वह मनुष्य था। शेर खान को आशंका रहती थी कि यह भी मनुष्य की तरह व्यवहार कर हमारी दुनिया के लिए खतरनाक हो सकता है। बघीरा भी चिंता प्रकट करता है कि कही मनुष्य इसे बिगाड़ न दे, लेकिन उनका मोगली के प्रति यह प्यार भावुक करता है। द जंग ल बुक के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म को विश्वसनीय बनाता है इसका रियलिस्टिक लुक। इसके लिए फिल्म की तकनीकी टीम बधाई की पात्र है। कहीं भी फिल्म में नकलीपन नहीं लगता। ऐसा लगता है मानो हम मोगली के साथ जंगल में उछलकूद कर रहे हों। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म के लुक को और बेहतर बनाते हैं। ‍कई ऐसे शॉट्स हैं जो आपको दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर करते हैं। इन दिनों देखने में आया है कि हॉलीवुड फिल्मों में तकनीक फिल्म की कहानी पर भारी हो जाती है, लेकिन 'द जंगल बुक' के निर्देशक जॉन फेवरू ने फिल्म के इमोशन पर तकनीक को हावी नहीं होने दिया है। उन्होंने फिल्म को इस तरह प्रस्तुत किया है बच्चों के साथ-साथ वयस्कों के अंदर छिपे बच्चे को भी फिल्म गुदगुदाएं। फिल्म से यही शिकायत रहती है कि कुछ दृश्यों में अंधेरा बहुत ज्यादा है। 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है...' जैसा हिट गाना फिल्म में क्यों शामिल नहीं किया गया है, ये समझ के परे है। हिंदी वर्जन में इसे शामिल किया जाना था। प्रचार में दिखाकर फिल्म में शामिल न करना, एक तरह की ठगी है। तकनीकी स्तर पर फिल्म लाजवाब है। बैकग्राउंड म्युजिक, सिनेमाटोग्राफी, स्पेशल इफेक्ट्स, रंगों का संयोजन परफेक्शन के साथ किया गया है। नील सेठी पहली फ्रेम से ही मोगली नजर आता है। पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने किरदार को अभिनीत किया है। फिल्म के हिंदी वर्जन में ओम पुरी, इरफान खान, नाना पाटेकर और प्रियंका चोपड़ा जैसे सितारों ने आवाज दी है और इन्होंने डबिंग इतने उम्दा तरीके से की है कि ये पात्र और अच्छे लगने लगते हैं। शेर खान के रूप में जहां नाना पाटेकर डराते हैं तो बालू के रूप में इरफान खान हंसाते हैं। किंग लुई के संवाद स्तर से नीचे हैं। 'द जंगल बुक' वयस्क भी देखें और अपने साथ बच्चों को भी ले जाएं। वे इस ब्लॉकबस्टर अनुभव को लंबे समय तक याद रखेंगे। निर्देशक : जॉन फेवारू कलाकार : नील सेठी, (आवाज- ओम पुरी, इरफान खान, प्रियंका चोपड़ा, नाना पाटेकर) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 46 मिनट ",1 " दो परिवारों के बीच दुश्मनी है। उसके सदस्य एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। इसी बीच एक परिवार की लड़की और दूसरे परिवार के लड़के में इश्क हो जाता है और उनकी प्रेम कहानी में बाधा उनके घर वाले ही बन जाते हैं। फिल्म के लिए यह कहानी कोई भी लिख दे क्योंकि सैकड़ों बार यह कहानी दोहराई गई है और यही कहानी है ‘इसक’ की। आसान सी कहानी को तीन लोगों (मनीष तिवारी, पद्मजा तिवारी और पवन सोनी) ने मिलकर लिखा है, फिर भी वे इसे मनोरंजक नहीं बना पाए। इश्क को इसक इसलिए बना दिया गया है क्योंकि कहानी बनारस में सेट है। इस प्रेम कहानी की पृष्ठ भूमि में खूब हिंसा है। रेत माफिया है। नक्सलवाद है। लेकिन ये ड्रामा इतना घिसा-पिटा और खींचा हुआ है कि फिल्म देखते समय बोरियत हावी हो जाती है। फिल्म शुरू होते ही इतने सारे किरदारों को पेश कर दिया जाता है कि कन्फ्यूजन पैदा हो जाता है कि कौन क्या है? मिश्रा और कश्यप परिवार के बीच दुश्मनी क्यों है, इसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है। राहुल मिश्रा और बच्ची कश्यप की प्रेम कहानी को इस तरह से पेश किया गया है कि यह दर्शकों के दिलों को बिलकुल नहीं छूती। कई दृश्य ऐसे हैं जिनका कोई अर्थ ही नहीं है और वो सिर्फ फिल्म की लंबाई को बढ़ाते हैं। मनीष तिवारी का निर्देशन साधारण है। कई दृश्यों में दोहराव है जिससे लगता है कि निर्देशक खुद कन्फ्यूज है। खूब सारी बातों को उन्होंने फिल्म में फैलाया है कि बाद में संभालते ही नहीं बना। राहुल मिश्रा के रोल में प्रतीक बब्बर मिसफिट नजर आए और उनका अभिनय बुरा है। अमाइरा दस्तूर का आत्मविश्वास पहली फिल्म में ही झलकता है। रवि किशन, नीना गुप्ता, सुधीर पांडे, मकरंद देशपांडे ने अपने-अपने रोल ठीक से निभाए। संगीत के नाम पर एकाध गाना ही याद रहता है। कुल मिलाकर ‘इसक’ एक रूखी और बोर फिल्म है। बैनर : पैन इंडिया प्रा.लि. निर्माता : शैलेश आर. सिंह, धवल गाडा निर्देशक : मनीष तिवारी संगीत : सचिन, जिगर, कृष्णा कलाकार : प्रतीक बब्बर, अमाइरा दस्तूर, रवि किशन, राजेश्वरी सचदेव, नीना गुप्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए ",0 "नाली में कचरा जम जाए तो दुर्गंध फैलती है। कचरे को हटाया जाता है। वैसे ही समाज में जमा असामाजिक तत्वों का कचरा हम हटाते हैं। कई फिल्मों में इस तरह के संवाद सुन चुके हैं। सिर्फ संवाद ही नहीं बल्कि 'अब तक का छप्पन 2' फिल्म देखने के बाद लगेगा कि ऐसी सैकड़ों फिल्म देख चुके हैं। फिल्म में नया कुछ नहीं है। केवल 'अब तक छप्पन' की प्रसिद्धी का लाभ उठाने के लिए बनाई गई यह एक रूटीन फिल्म है। अपनी पत्नी को खोने के बाद साधु आगाशे (नाना पाटेकर) गोआ में जाकर मछली पकड़ कर अपना वक्त बरबाद करने में लगा हुआ है। इधर मुंबई में अंडरवर्ल्ड फिर सिर उठाने लगा है। मुख्यमंत्री और पुलिस अफसरों को साधु की याद आती है। साधु थोड़ा भाव खाता है, लेकिन बेटे के कहने पर मान जाता है। 'अंडरवर्ल्ड का काम करने का तरीका बदल गया है। अब इस धंधे में पहले जैसी ईमानदारी नहीं है।' आमलेट पकाते हुए साधु अपने बेटे से कहता है। सिनेमाहॉल में गिने-चुने दर्शक सोचते हैं कि कुछ नया देखने को मिलेगा, लेकिन इस डायलॉग के बाद साधु उसी शैली में काम करने लगता है जैसा पुलिस ऑफिसर 'अंडरवर्ल्ड' पर आधारित फिल्मों में करते आए हैं। अबतक छप्पन 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें इसके बाद आम दर्शक भी जान जाता है कि आगे क्या होने वाला है। विलेन की असलियत जानने में साधु आगाशे लंबा समय लेता है, लेकिन सभी जान जाते हैं कि विलेन कौन है? साधु पर गोली चलती है और वह गुंडों के पीछे भागता है, लेकिन दर्शक जान जाते हैं कि इधर साधु गुंडों के पीछे है, लेकिन दूसरी ओर उसका बेटा अकेला है। कहने का मतलब ये कि कहानी और स्क्रीनप्ले लिखने में कुछ भी नया ट्विस्ट नहीं जोड़ा गया है, जिससे एक आम फिल्म में भी रोमांच पैदा हो। गुल पनाग वाला ट्रेक तो अत्यंत कमजोर है। वे हर उस जगह पर मौजूद नजर आती हैं जहां कुछ न कुछ घटता है। निर्देशक एजाज गुलाब ने सपाट स्क्रिप्ट चुनी है। उनके निर्देशन पर रामगोपाल वर्मा की छाप है। शॉट टेकिंग उनका अच्छा है, लेकिन कहानी को उन्होंने बिना किसी उतार-चढ़ाव के पेश किया है। नाना पाटेकर ने एक आक्रोशित पुलिस ऑफिसर की भूमिका में पूरी गंभीरता के साथ काम किया है, लेकिन एक जैसे रोल में उन्हें कब तक देखते रहेंगे। विक्रम गोखले, आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव दमदार कलाकार हैं और इस तरह की भूमिका निभान उनके लिए सरल है। गुल पनाग प्रभाव नहीं छोड़ पाई। अब तक छप्पन 2 अपने पहले भाग की छवि को धूमिल करती है। बैनर : एलुम्ब्रा एंटरटेनमेंट प्रोडक्शन, वेव सिनेमाज़ पोंटी चड्ढा प्रजेंट्स निर्माता : राजू चड्ढा, गोपाल दलवी निर्देशक : एजाज गुलाब ",0 " उस समय यह परीक्षण जरूरी हो गया था क्योंकि रूस के विघटन के कारण भारत को कमजोर समझा जा रहा था। इस ऐतिहासिक घटना को इंजीनियर्स, सेना के अधिकारियों और वैज्ञानिकों ने खुफिया तरीके से अंजाम दिया था। फिल्म 'परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरण' में इसी घटना को दर्शाया गया है कि किस तरह से तमाम विपत्तियों से लड़ते हुए इन भारतीयों ने अपने मिशन में सफलता पाई। 'परमाणु' एक सत्य घटना पर आधारित है जिसमें कुछ काल्पनिक पात्र डाल कर इसे दिखाया गया है। आईआईटी से शिक्षा प्राप्त आईएएस ऑफिसर अश्वत रैना (जॉन अब्राहम) पीएमओ में काम करता है और 1995 में वह न्यूक्लियर टेस्ट की बात करता है तो उसकी हंसी उड़ाई जाती है। बाद में उसकी बात मान कर परीक्षण की तैयारियां की जाती है तो अमेरिकी सैटेलाइट इस बात को पकड़ लेते हैं। उसे नौकरी से हटा दिया जाता है। 1998 में पीएमओ का एक बड़ा ऑफिसर हिमांशु शुक्ला (बोमन ईरानी) उसे फिर इस मिशन के लिए तैयार करता है। वैज्ञानिक, सेना अधिकारी और विशेषज्ञों की एक टीम अश्वत तैयार करता है और इस मिशन को सफलतापूर्वक पूरा करता है। 24 घंटे में दो बार अमेरिकी सैटेलाइट की नजर पोखरण से हट जाती थी जिसे ब्लैंक स्पॉट कहा गया है। ब्लैंक स्पॉट के कुछ घंटों में ये सब अपना काम करते थे, जिससे ये सैटेलाइट उन्हें पकड़ नहीं पाए। अमेरिकियों को ध्यान भटकाने के लिए भारत ने कश्मीर में सैन्य हलचल भी बढ़ा दी थी ताकि ध्यान उधर चला जाए और यह नीति काम कर गई। फिल्म को अभिषेक शर्मा, संयुक्ता चावला शेख और एस. क्वाड्रस ने मिलकर लिखा है। लेखकों के सामने यह चुनौती थी कि फिल्म को डॉक्यूमेंट्री बनने से बचाना था। इसलिए उन्होंने काल्पनिक किरदार जोड़े। अश्वत की पारिवारिक जिंदगी में हो रही उथल-पुथल को जोड़ा। अफसोस की बात यह है कि ये सब बातें मूल ऐतिहासिक घटना पर पैबंद जैसी लगती है। इनमें से ज्यादातार सीक्वेंसेस का कोई मतलब नहीं निकलता। टीम बनाना और फिर मिशन पूरा करना ये बात हाल ही की कई फिल्मों में नजर आई है और यहां पर लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए और जब-जब इस तरह का प्रसंग फिल्म में दिखाया जाता है तो फिल्म रूटीन लगने लगती है। फिल्म में एक बात अखरती है जब टीम का एक सदस्य पोखरण की गर्मी या काम को लेकर शिकायत करता है। इस तरह के सीन फिल्म देखते समय मुंह का स्वाद खराब करते हैं क्योंकि देश के लिए काम कर रहे लोगों के मुंह से ऐसी बातें अच्‍छी नहीं लगती। इस तरह के दृश्यों से बचा जाना चाहिए था। इंटरवल के बाद फिल्म जरूर रफ्तार पकड़ती है जब पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस पोखरण में रह कर इस बात को पकड़ लेते हैं कि भारत परमाणु परीक्षण करने जा रहा है। यहां पर थ्रिल पैदा होता है। क्लाइमैक्स अच्छे से लिखा गया है और दर्शक सिनेमाहॉल छोड़ते समय अच्छी फिलिंग लेकर निकलते हैं और लेखक यहां पर कामयाब हुए हैं। निर्देशक अभिषेक शर्मा ने फिल्म बनाने के लिए एक बेहतरीन विषय चुना है, जिसमें सच्ची घटना और देशप्रेम शामिल है। आधे से ज्यादा लोग तो केवल इसीलिए फिल्म पसंद करेंगे क्योंकि यह पोखरण परमाणु परीक्षण कर आधारित है। अभिषेक इस घटना के बहुत ज्यादा अंदर नहीं गए। उनका मुख्य उद्देश्य इस बात पर था कि किस तरह से यह सब किया गया, हालांकि यहां भी बहुत ज्यादा डिटेलिंग नहीं है, कमियों के बावजूद वे पोखरण परमाणु परीक्षण वाली घटना को इस तरह से पेश करने में सफल हो गए कि यह दर्शकों के दिल को छू जाए। जॉन अब्राहम अब उसी तरह की फिल्म चुनते हैं जिसमें वे कम्फर्टेबल हों। उनके चेहरे पर बहुत ज्यादा भाव नहीं आते हैं और अश्वत रैना की भूमिका निभाने के लिए बहुत ज्यादा एक्सप्रेशन्स की जरूरत नहीं थी, इसलिए वे इस रोल को निभा ले गए। डायना पैंटी को सिर्फ इसलिए लिया गया क्योंकि निर्देशक को लगा कि फिल्म के लिए हीरोइन का होना जरूरी है। वे जॉन की टीम का हिस्सा बनी हैं। बोमन ईरानी का अभिनय बेहतरीन है। जॉन की पत्नी के रूप में अनुजा साठे का इमोशनल दृश्यों में अभिनय देखने लायक है। आदित्य हितकारी, योगेन्द्र टिक्कू, विकास कुमार और अजय शंकर ने सपोर्टिंग कास्ट के रूप में अच्छा अभिनय किया है। कुल मिला कर फिल्म 'परमाणु- द स्टोरी ऑफ पोखरण' का सब्जेक्ट इतना मजबूत है कि कमियां छिप जाती हैं और फिल्म एक बार देखने लायक बन जाती है। निर्माता : जेए एंटरटेनमेंट, ज़ी स्टूडियोज़, केवायटीए प्रोडक्शन निर्देशक : अभिषेक शर्मा संगीत : सचिन-जिगर, जीत गांगुली कलाकार : जॉन अब्राहम, डायना पेंटी, बोमन ईरानी, अनुजा साठे, आदित्य हितकारी, योगेन्द्र टिक्कू, विकास कुमार, अजय शंकर सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 9 मिनट 32 सेकंड ",1 "पुनर्जन्म की कहानी पर फिल्म बनाना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह विषय अविश्वसनीय है। दर्शकों को यकीन दिलाने के लिए बेहद ठोस स्क्रिप्ट लिखना होती है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। 'एक पहेली लीला' भी इस कमी से जूझती नजर आती है। स्क्रिप्ट के साथ-साथ निर्देशन और अभिनय का डिपार्टमेंट भी कमजोर है और फिल्म केवल सनी लियोन का स्किन शो बन गई है। मीरा (सनी लियोन) लंदन में रहने वाली मॉडल है। एक असाइनमेंट के सिलसिले में वह राजस्थान आती है जहां उसकी मुलाकात रणवीर (मोहित अहलावत) से होती है। दोनों में इश्क हो जाता है और वे शादी कर लेते हैं। मुंबई में रहने वाला करण (जय भानुशाली) अक्सर एक सपना देखता है जिससे वह परेशान है। वह एक बाबा के पास जाता है जो अपनी अनोखी विद्या से करण को उसके पिछले जन्म का दृश्य दिखाता है और करण को अपने सपने का रहस्य थोड़ा समझ आता है। करण को पता चलता है कि 300 वर्ष पहले लीला (सनी लियोन) श्रवण (रजनीश दुग्गल) से प्यार करती थी। एक मूर्तिकार भैरव (राहुल देव) लीला की खूबसूरती से प्रभावित होकर उसकी मूर्ति बनाना शुरू करता है और मूर्ति पूरी होते-होते लीला पर मर मिटता है। जब उसे पता चलता है कि श्रवण और लीला एक-दूसरे को चाहते हैं तो वह दोनों को अलग करने की सोचता है। वर्तमान में लीला का जन्म मीरा के रूप में होता है। भैरव और श्रवण भी जन्म लेते हैं। एक बार फिर उनके रास्ते एक-दूसरे से मिलते हैं। उनके वर्तमान जन्म का तार पिछले जन्म से किस तरह जुड़ता है यह फिल्म का सार है। जोजो खान द्वारा लिखी स्क्रिप्ट बेहद सतही है और उसमें खास मेहनत नहीं की गई है। हालांकि दोनों जन्मों की कहानी को अच्छी तरह विभाजित किया गया है और कन्फ्यूजन की कोई गुंजाइश नहीं रखी है, लेकिन कहानी में मनोरंजन का अभाव है और दर्शकों को यह बांधकर नहीं रखती है। लेखक ने दो ट्वीस्ट के जरिये दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की है। एक तो पिछले जन्म के हीरो और विलेन को नए जन्म में नए चेहरे दिए गए हैं जबकि हीरोइन का चेहरा वैसा ही रखा गया है। दूसरा ये कि पिछले जन्म के विलेन को वर्तमान जन्म में यह महसूस होता है कि वह पिछले जन्म का हीरो था। लेकिन ये दोनों ट्विस्ट खास प्रभावित नहीं कर पाते हैं बल्कि कई तरह के प्रश्न दिमाग में पैदा करते हैं। इस तरह की कुछ और खामियां स्क्रिप्ट में हैं। फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जो बोरियत पैदा करते हैं। खासकर दूसरे हाफ में। कई ऐसे सीन हैं जिसे देख लेखक की बुद्धि पर तरस आता है। जैसे मीरा को लंदन से भारत लाने के लिए लिखा गया प्रसंग बचकाना है। एक पहेली लीला के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें > फिल्म का निर्देशन बॉबी खान ने किया है। बॉबी ने लगभग ढाई घंटे की फिल्म बनाई है। इतनी देर तक दर्शकों को बड़े-बड़े निर्देशक बांध नहीं पाते हैं। बॉबी के हाथ से ‍कई जगह फिल्म छूट गई है और वे दर्शकों का मनोरंजन करने में भी असफल रहे हैं। उनका सारा फोकस सनी लियोन पर रहा है। शायद उन्होंने मान लिया कि दर्शक सनी लियोन को ही देखने आएंगे लिहाजा सनी को ग्लैमरस और सेंसुअस तरीके से पेश करने में ही उन्होंने सारा जोर लगा दिया। हालांकि उनकी यह कोशिश कामयाब भी रही है, लेकिन वे यह भूल गए कि सनी के साथ अच्छी स्क्रिप्ट का होना भी आवश्यक है। साथ ही वे सनी लियोन से अभिनय भी नहीं करा पाएं। सनी तब तक ही अच्छी लगती हैं जब तक वे मॉडलनुमा पोज देती हैं या अपनी कामुक अदाएं दिखाती हैं। जैसे ही वे संवाद बोलती हैं वैसे ही उनकी पोल खुल जाती है। सनी ने पूरी कोशिश की है, लेकिन अभी भी उन्हें एक्टिंग करना नहीं आता है। संवाद और चेहरे के भाव में मेल नहीं दिखता है। शराबी की एक्टिंग उन्होंने हास्यास्पद तरीके से की है। हां, तंग और छोटे कपड़ों में उन्होंने जमकर अंग प्रदर्शन किया है। जय भानुशाली को अभिनय की कोशिश करते देखना बोरियत भरा काम है। रजनीश दुग्गल, मोहित अहलावत और राहुल देव ने अपने किरदार अच्छे से निभाए हैं। जस अरोरा ने भले ही ओवर एक्टिंग की हो, लेकिन थोड़ा-बहुत मनोरंजन करने में सफल रहे हैं। एहसान कुरैशी को सिर्फ द्विअर्थी संवाद बोलने के लिए रखा गया था। उनकी और एंडी की कॉमेडी चेहरे पर मुस्कान भी नहीं ला पाती हैं। फिल्म में तेरे बिन नहीं लागे, मैं हूं दीवाना तेरा जैसे कुछ गाने अच्छे हैं, लेकिन 'देसी लुक' और 'ढोली बाजे' के छोड़ अन्य गानों का पिक्चराइजेशन खास नहीं है। कुल मिलाकर 'एक पहेली लीला' उन लोगों के लिए जो सनी लियोन को निहारना चाहते हैं। वैसे उनके पास अन्य विकल्प भी मौजूद हैं। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज लि., पेपरडॉल एंटरटेनमेंट निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, अहमद खान, शाइरा खान निर्देशक : बॉबी खान संगीत : मीत ब्रदर्स अंजान, अमल मलिक, डॉ. ज़ेयस, टोनी कक्कड़, उज़ैर जसवाल कलाकार : सनी लियोन, जय भानुशाली, मोहित अहलावत, रजनीश दुग्गल, राहुल देव, जस अरोरा सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 24 मिनट 30 सेकंड्स ",0 " इम्तियाज अली की फिल्मों के हीरो-हीरोइन अक्सर कन्फ्यूज रहते हैं कि उनके बीच प्यार है या नहीं। बिछुड़ने पर उन्हें अहसास होता है कि वे एक-दूसरे को चाहते हैं और जब सामने होते हैं तो लड़ने लगते हैं। इम्तियाज के भाई आरिफ अली ने अपने भाई की इसी बात को 'लेकर हम दीवाना दिल' में पेश किया है। इम्तियाज की सोचा ना था, जब वी मेट, हाईवे जैसी फिल्में आपको 'लेकर हम दीवाना दिल' देखते वक्त याद आएंगी। इतनी सारी फिल्मों को सामने रख कर भी आरिफ ढंग की फिल्म नहीं बना पाए। फिल्म को आज के युवाओं के अनुरूप बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन कहानी सदियों पुरानी है। करिश्मा (दीक्षा सेठ) रूढि़वादी दक्षिण भारतीय परिवार से है और उसके पिता अपनी पसंद के लड़के से उसका ब्याह रचाना चाहते हैं। अपने दोस्तों के साथ बीअर गटकने वाली करिश्मा अपने पिता का विरोध करने की हिम्मत नहीं रखती। डीनो (अरमान जैन) उसका दोस्त है। करिश्मा की शादी तय हो जाती है और उसे शादी से बचाने के लिए डीनो उसे भगा ले जाता है। गोआ से नागपुर होते हुए वे रायपुर और फिर बस्तर पहुंच जाते हैं। रास्ते में उन्हें अहसास होता है कि वे एक-दूसरे को प्यार करते हैं लिहाजा शादी कर लेते हैं। बस्तर के जंगलों में भटकते हुए वे नक्सलियों के बीच पहुंच जाते हैं। पैसे और सुख-सुविधा खत्म होने पर उनका प्यार फुर्र हो जाता है और यह नफरत में तब्दील हो जाता है। करिश्मा अपने घर फोन कर वापस लौट जाती है। मामला फैमिली कोर्ट में पहुंच जाता है और तलाक के लिए दोनों आवेदन करते हैं। तलाक की प्रक्रिया लंबी चलती है और एक-दूसरे से जुदा होने पर उन्हें प्यार का अहसास होता है। फिल्म की कहानी जहां से शुरू होती है अंत में वहीं पहुंच जाती है। हीरो-हीरोइन बाप के पैसों पर अय्याशी करते हुए प्यार करते हैं, लेकिन जब पैसे खत्म हो जाते हैं और प्यार की परीक्षा शुरू होती है तो उनका प्यार असफल साबित होता है। लेकिन एक बार जब वे वापस घर लौटते हैं तो उनमें मोहब्बत फिर जाग जाती है। यानी उनमें प्यार तभी हो सकता है जब जेबें भरी हो। यह स्क्रिप्ट की सबसे बड़ी खामी है। खामियों के साथ-साथ फिल्म मनोरंजक भी नहीं है। इंटरवल के पहले तो फिल्म को झेलना बहुत मुश्किल है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी पकड़ आती है और प्रेमियों के बिछुड़ने के दर्द को आप महसूस करते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि ‍दर्शकों की फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है। आरिफ अली ने लेखन और निर्देशन जैसी दोनों महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां उठाई हैं। निर्देशन के रूप में वे लेखक से भी कमजोर साबित हुए हैं। कई सीन उन्हें बेहूदा तरीके से शूट किए हैं। मसलन एक बाप अपने जवान बेटे को लिफ्ट में अचानक पीटने लगता है मानो वह अपराधी हो। नक्सलियों के बीच आइटन सांग की सिचुएशन हास्यास्पद तरीके से बनाई गई है। नक्सलियों का प्रमुख एक फिल्म निर्देशक और उसकी यूनिट को पकड़ लेता है और कहता है कि बहुत दिनों से फिल्म नहीं देखी है आज कुछ गाना-बजाना हो जाए। फौरन आइटम सांग टपक पड़ता है। फिल्म को 'कूल' बनाने की बनावटी कोशिश साफ नजर आती है। सैकड़ों बार 'कूल' 'रिलैक्स' शब्द सुनने को मिलते हैं। आरिफ ने ड्रामे को इस कदर बोरियत भरे तरीके से पेश किया है कि न तो प्रेमियों के प्रेम की आंच महसूस होती है और न ही मनोरंजन होता है। फिल्म के कलाकारों से भी आरिफ ठीक से काम नहीं करवा पाए। माना कि हीरो और हीरोइन का रोल निभाने वाले कलाकार नए हैं, अभिनय में कच्चे हैं, लेकिन उन पर आरिफ नियंत्रण नहीं रख पाए। फिल्म के अधिकतर कलाकार चीखते-चिल्लाते नजर आए। बिना किसी कारण के वे सीन में भड़क जाते थे। डीनो के भाई के रोमांस वाला ट्रेक पता नहीं क्यों रखा गया है। अरमान जैन अपने अभिनय से निराश करते हैं। उनकी लाउड एक्टिंग देख झल्लाहट होती है। उन्हें अपने आपको नियंत्रित रख अभिनय करना सीखना होगा। अरमान के मुकाबले दीक्षा सेठ का अभिनय अच्छा और आत्मविश्वास से भरा है। रोहिणी हट्टंगडी को छोड़ दिया जाए तो‍ फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट निराश करती है। प्रेम कहानी में संगीत महत्वपूर्ण होता है, लेकिन 'लेकर हम दीवाना दिल' में हिट गानों की कमी खलती है। 'खलीफा' को छोड़ कोई भी हिट गीत एआर रहमान नहीं दे पाए। कुल मिलाकर लेकर हम दीवाना दिल बनावटी और बोर फिल्म है। बैनर : इरोज इंटरनेशनल, इल्यूमिनाती फिल्म्स निर्माता : सैफ अली खान, दिनेश विजन निर्देशक : आरिफ अली संगीत : एआर रहमान कलाकार : अरमान जैन, दीक्षा सेठ, रोहिणी हट्टंगडी सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 20 मिनट ",0 "कहानी: सुपरहिट फिल्म सीरीज ट्रांसफॉर्मर्स की पांचवी फिल्म ट्रांसफॉर्मर्स : द लास्ट नाइट पहले से ही दर्शकों के बीच काफी पॉप्युलर है। ट्रांसफॉर्मर्स : द लास्ट नाइट फिल्म आज की दुनिया में ट्रांसफॉर्मर्स के बीच खतरनाक जंग की कहानी है। लेकिन फिल्म की शुरुआत अब से 1600 साल पहले की दुनिया में होती है, जब दुनिया के पहले ट्रांसफॉर्मर ने एक जादूगर को बुराई पर काबू पाने के लिए एक छड़ी दी थी। उस जादूगर के मरने पर वह छड़ी उसके साथ ही दफना दी गई थी। खास बात यह है कि उस छड़ी को उस जादूगर का कोई फैमिली मेंबर ही इस्तेमाल कर सकता है। बुरी शक्तियां उस छड़ी को हासिल करने के लिए अक्सर पृथ्वी पर हमला करती रहती हैं। अबकी बार बुरी ताकतों ने पूरी ताकत से उस छड़ी को हासिल करने के लिए हमला बोल दिया है। वहीं पृथ्वी पर मौजूद ट्रांसफॉर्मर्स के छिपे हुए रहस्यों की जानकारी रखने वाले सर एडमंड बर्टन (एंथनी होपकिंस) ट्रांसफॉर्मर्स के रक्षक केड येगर (मार्क वॉलबर्ग) और जादूगर मर्लिन की वंशज प्रोफेसर विवियन वेंबले (लौरा हेडेक) के साथ मिलकर उनका मुकाबला करने की पूरी कोशिश करते हैं। एक तरफ बुरी शक्तियां और दूसरी तरफ अच्छाई रक्षक अपनी-अपनी ट्रांसफॉर्मर्स की फौज के साथ उस छड़ी पाने की कोशिश में एक-दूसरे से भिड़ जाते हैं। क्या पृथ्वी के ये रक्षक शूरवीर अपनी कोशिशों में कामयाब हो पाएंगे? यह जानने के लिए आपको थिएटर में फिल्म देखनी होगी। ऐक्टिंग: मार्क वॉलबर्ग ने शूरवीर रक्षक के रोल में बढ़िया एक्टिंग की है। उनके ऐक्शन सीन्स जबर्दस्त बन पड़े हैं, तो उन्होंने एक सिंगल फादर के रोल को भी पूरी तरह जिया है। वहीं लौरा हेडेक ने जादूगर की वंशज प्रोफेसर के रोल में बढ़िया काम किया है। जिंदगी में पहली बार ट्रांसफॉर्मर्स की दुनिया में एंट्री करने के बाद उन्होंने अपना दम दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहीं ट्रांसफॉर्मर्स की जानकारी रखने वाले एंथनी होपकिंस ने बेहतरीन रोल किया है। वह बाकी कलाकारों के मुकाबले छोटे रोल में भी प्रभाव छोड़ते हैं। फिल्म के फर्स्ट हाफ में आपको ट्रांसफॉर्मर्स के बीच छोटी-मोटी मुठभेड़ों का मजा मिलता है, तो सेकंड हाफ में खतरनाक जंग के सीन आपको हिलाकर रख देंगे। ट्रांसफॉर्मर्स के बीच जंग के खतरनाक सीन आपको सीट से चिपककर और नजरें स्क्रीन पर टिकाए रखने के लिए मजबूर कर देंगे, वरना आप कुछ मिस कर देंगे। हिंदी में डब वर्जन में हिंदी के दर्शकों के लिए चुटीले संवाद भी डाले गए हैं। हालांकि अगर आपको बहुत ज्यादा मारधाड़ और ऐक्शन पसंद नहीं है, तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है। अभी तक ट्रांसफॉर्मर्स फिल्म सीरीज की अगली फिल्मों के लिए आपको तीन साल का लंबा इंतजार करना पड़ा था, लेकिन अबकी बार निर्माताओं ने जून 2018 और जून 2019 के लिए पहले से ही दो सीक्वल प्लान कर रखे हैं। इसलिए फिल्म में आखिर में सीक्वल की साफतौर पर गुंजाइश छोड़ी गई है। बच्चों में इस फिल्म का जबर्दस्त क्रेज है, लेकिन जबर्दस्त मारधाड़ वाले सींस की वजह से फिल्म को सेंसर बोर्ड से ए सर्टिफिकेट मिला है। फिल्म का असली मजा लेना है, तो इसे 3डी या आईमैक्स में ही देखें। कार, ट्रक या हवाईजहाज से खतरनाक ट्रांसफॉर्मर्स में बदलने वाली मशीनें आपको रोमांचित कर देंगी और करीब ढाई घंटे के लिए अपनी दुनिया में पहुंचा देंगी। ",0 "बॉलीवुड को हॉलीवुड की तुलना में हमेशा कमतर आँका जाता है, लेकिन ‘मेरीगोल्ड’ देखने के बाद महसूस होता है इस फिल्म के मुकाबले कहीं श्रेष्ठ फिल्में इस समय बॉलीवुड में बन रही हैं। एक बात और साफ हो जाती है कि घटिया फिल्म बनाने में हॉलीवुड भी पीछे नहीं है। ‘मेरीगोल्ड’ फिल्म हर तरफ से कमजोर है। न कहानी ढंग की है, न पटकथा और न ही निर्देशन। कहने को तो फिल्म दो घंटे की हैं, लेकिन ये दो घंटे किसी सजा से कम नहीं है। सलमान खान ने ‘मेरीगोल्ड’ केवल इसलिए ही साइन की होगी क्योंकि यह फिल्म हॉलीवुड वालों ने बनाई है। इसके अलावा दूसरा कारण नजर नहीं आता। यह सलमान खान की घटिया फिल्मों में से एक है। अमेरिकन अभिनेत्री मेरीगोल्ड लेक्स्टन (अली आर्टर) भारत आती है। गोवा में उसे एक बॉलीवुड की फिल्म में काम मिल जाता है। फिल्म के कोरियोग्राफर प्रेम (सलमान खान) से उसे प्रेम हो जाता है। एक-दो गलतफहमियाँ पैदा होती हैं और अंत में प्यार की जीत होती है। इस दो लाइन की कहानी को दो घंटे तक खींचा गया है। फिल्म में एक भी ऐसा दृश्य नहीं है जो अच्छा लगे। पहले दृश्य से आखरी दृश्य तक फिल्म बोर करती है। विलॉर्ड कैरोल घटिया लेखक है या निर्देशक, यह तय करना मुश्किल है। फिल्म की नायिका अली लॉर्टर का अभिनय ही सबसे उम्दा है। सलमान खान पूरी तरह से उखड़े-उखड़े रहे। ऐसा लगा मानो उनसे जोर जबरदस्ती कर अभिनय करवाया जा रहा है। निर्देशक : विलॉर्ड कैरोल संगीत : शंकर महादेवन, अहसान नूरानी, ग्रैमी रिवेल कलाकार : सलमान खान, अली लॉर्टर, नंदना सेन, इयान बोहेन, गुलशन ग्रोव र गुलशन ग्रोवर पूरी फिल्म में बुत बनकर खड़ रहे और उन्होंने एकमात्र संवाद बोला ‘नहीं’। विजयेंद्र घाटगे, नंदना सेन, इयान बोहेन, विकास भल्ला में प्रतियोगिता हो रही थी कि कौन सबसे खराब अभिनय करता है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी बेहद घटिया है। ‘मेरीगोल्ड’ देखना किसी सजा से कम नहीं है। ",0 "'कंटेंट इज किंग' का बोलबाला इन दिनों जोरों पर है और उस कंटेंट में 'स्लाइस ऑफ लाइफ' शैली वाली फिल्में खूब बन रही हैं। बिना स्टार पावर की मजेदार कहानियों वाली फिल्मों के लिए अब सीमित ही सही, मगर एक अलग दर्शक वर्ग तैयार हो रहा है। उन्हीं दर्शकों के लिए है, हर्ष छाया निर्देशित 'खजूर पे अटके'। जिंदगी और मौत के बीच झूलनेवाला एक शख्स कैसे अपने रिश्तेदारों को इकट्ठा होने पर मजबूर करके जीवन की विसंगति से परिचित करवाता है, इसका मजेदार चित्रण निर्देशक हर्ष छाया की इस फिल्म में देखने को मिलता है। मुंबई के नामी अस्पताल में देविंदर शर्मा मौत की आखिरी घड़ियों को गिनते हुए आईसीयू में भर्ती है। उसके दो भाई और एक बहन का परिवार मुंबई से दूर रहता है। इस मौके पर उसके करीबी रिश्तेदार उसके अंतिम दर्शन करने आते तो हैं, मगर अपने व्यक्तिगत अजेंडे और तोड़जोड़ के साथ। जितेंदर (मनोज पाहवा) बड़े भाई के आईसीयू में भर्ती होने की खबर सुनकर भावुक हो जाता है और अपनी पत्नी (सीमा भार्गव) की मर्जी के खिलाफ हवाई जहाज के महंगे टिकट खरीदता है। उसके बाद वह अपने बेटे तथा बेटी नयनतारा उर्फ रोजी (सना कपूर) के साथ मुंबई आ धमकता है। छोटा भाई रविंदर (विनय पाठक) एक अरसे से अपने बिजनस का एक कॉन्ट्रेक्ट पाने की तिकड़म में है, मगर दुनियादारी के डर से उसे भी अपनी पत्नी और बच्चे समेत मुंबई आना पड़ता है। उनकी लाली दी (डॉली अहलूवालिया) भी अपने पति से तू तू मैं मैं करके वहां आ पहुंचती है। मुंबई के अस्पताल में देविंदर शर्मा की पत्नी (अलका अमीन) और बेटा मौजूद है। हालात तब बड़े अजीब से हो जाते हैं, जब देविंदर दुनिया से जाने में देरी करता है और उसके अंतिम दर्शन करने आए रिश्तेदार अपने-अपने जुगाड़ में लग जाते हैं। युवा भांजों को लड़कियां ताड़नी हैं और डांस बार जाना है। नयनतारा फेसबुक फ्रेंड के साथ ऐक्टिंग के ऑडिशन देने लगती है। रविंदर की पत्नी (सुनीता सेनगुप्ता) पार्लर जाकर अपना हुलिया दुरुस्त करने की फिराक में है। और तो और देविंदर की पत्नी इस नाजुक हालत में भी दिन-रात खाती-पीती नजर आती है, जबकि उनका बेटा शरद इस बीच गर्लफ्रेंड से मिलना नहीं भूलता। इसी अफरा-तफरी के बीच एक दिन आखिरकार देविंदर का राम नाम सत्य हो जाता है, मगर वो जाते-जाते सभी को जिंदगी के सबक दे जाता है। निर्देशक के रूप में हर्ष छाया की पहली कोशिश मजेदार है, मगर उनकी इस फिल्म पर मराठी वेंटिलेटर की छाया साफ नजर आती है। हर्ष ने फिल्म को जिंदगी और उसके चरित्रों के काफी नजदीक रखा है, मगर इंटरवल के बाद कहानी हिचकोले खाने लगती है। हालांकि फिल्म के संवाद और कई दृश्य आपको मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं। फिल्म की कास्टिंग परफैक्ट और दिलचप्स है। मनोज पाहवा और सीमा भार्गव ने अपने किरदारों को बड़े मजे से जिया है। सीमा ने किरदार को अपने चेहरे के फनी भावों से मनोरंजक बना दिया है। विनय पाठक इस बार औसत रहे जबकि अलका अमीन ने अस्पताल में दिन-रात कुछ न कुछ खानेवाली पत्नी की भूमिका को बड़ी सहजता से निभाया। सना कपूर क्यूट लगी हैं, तो डॉली अहलूवालिया ने भी अच्छा-खासा मनोरंजन किया है। रॉकी दिलवाला के रूप में प्रथमेश परब ने खूब हंसाया है। सहयोगी कास्ट भी रोचक है। फिल्म का संगीत औसत है। बिक्रम घोष इसे फिल्म के मुताबिक संवार सकते थे। क्यों देखें-पारिवारिक और हास्य फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",1 "मॉम की कहानी: दिल्ली की एक बायॉलजी टीचर की खुशियों को तब नज़र लग जाती है जब उनकी बेटी आर्या के साथ जगन और उसके साथी रेप कर देते हैं। क्या देवकी अब कानून के फैसले का इंतजार करेगी या मां दुर्गा बनकर खुद दुष्टों का संहार करने निकलेगी। रिव्यू: मॉम आपको कई बार यह एहसास दिलाती है कि आप निर्भया के देश में रहते हैं। इसी विषय पर बनी अन्य फिल्मों की तरह डेब्यूटेंट रवि उद्यावर की इमोशनल थ्रिलर फिल्म आपको बताती है कि इंडिया या खासतौर से दिल्ली महिलाओं के लिए बिल्कुल सुरक्षित नहीं और यंग लड़कियों के लिए तो यह साफ असुरक्षित है। ...और इस बात की प्रासंगिकता इस फिल्म को देखने को और महत्वपूर्ण बनाती है। फिल्म की शुरुआत एक टीनेजर और उसकी सौतेली मां के बीच रूखेपन वाले व्यवहार से होती है। यह पूरा ट्रैक बड़ी ही खूबसूरती से फिल्माया गया है। ...और फिर टीनेजर के रेप और उसके साथ दुर्व्यवहार के बाद फिल्म का एक अलग पहलू नज़र आता है। फिल्म के प्लॉट के बारे में यहां और बताना सही नहीं, क्योंकि इससे क्लाइमैक्स का भी खुलासा हो सकता है। हां, इतना कहना काफी होगा कि प्रतिशोध लेने वाली मां जब प्राइवेट डिटेक्टिव डीके (नवाजुद्दीन) के साथ हाथ मिलाती है, तो स्क्रीन पर कहानी और भी ज्यादा रोमांचक नज़र आती है। एक कड़क मिजाज पुलिस ऑफिसर फ्रांसिस (अक्षय) की कड़ी निगरानी में कार्रवाई मजेदार ढंग से आगे बढ़ती है। एक समय पर आपको यह कहानी काफी आम लगेगी। यह हर उस फिल्म से मिलती लगेगी जिसमें खोए हुए बच्चों को मां-बाप ढूंढते हैं। फिल्म में कुछ ट्विस्ट और टर्न हैं, जो आपको बांधे रखने का दम रखते हैं। इस कहानी में श्रीदेवी के किरदार में आए उतार-चढ़ाव ही इस फिल्म की स्क्रिप्ट को मजबूत बनाते हैं। अपनी 300वीं फिल्म में श्रीदेवी ने साबित कर दिया कि आखिर क्यों वह देसी सिनेमा में आज भी लोगों के दिलों पर राज करती हैं। इस फिल्म में उन्होंने अपनी दमदार परफॉरमेंस से खुशी, बेबसी, प्रतिशोध और जीत के भाव को बखूबी बयां किया है। भावनाओं से भरपूर यह फिल्म आपको जरूर भावुक कर देगी। इस रोल को निभाने में उनके पति आनंद (अदनान) उनका साथ देते हैं जो कि एक उदार स्वभाव के व्यक्ति हैं। वहीं, नवाजुद्दीन भी अपने वन लाइनर्स के साथ दर्शकों पर छाप छोड़ने में कामयाब होते हैं। इस फिल्म में अक्षय खन्ना जानदार ऐक्टिंग करते दिखते हैं। उन्हें देखकर आपको आश्चर्य होगा कि वह लंबे वक्त तक फिल्मों से दूरी क्यों बना लेते हैं। फिल्म में श्रीदेवी की बड़ी बेटी का किरदार निभा रहीं सजल अली, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि वह करीना कपूर की फिल्में देखकर ही बड़ी हुई है, उनमें साफ तौर पर सीनियर ऐक्टर की छाप दिखाई पड़ती है। वहीं, ए. आर. रहमान का बैकग्राउंड स्कोर कमाल का रहा है। ऐना गोस्वामी के कैमरे ने भी ऐक्टर्स के अभिनय को बखूबी दर्शाया है। ",1 "निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, जॉन अब्राहम, रॉनी लाहिरी निर्देशक : शुजीत सरकार कलाकार : आयुष्मान खुराना, यमी गौतम, अन्नू कपूर, जॉन अब्राहम ( मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * अवधि : 2 घंटे 2 मिनट स्पर्म डोनेशन जैसे विषय पर फिल्म बनाना रस्सी पर चलने जैसा है। संतुलन बनाए रखना बेहद जरूरी है। विषय को थोड़ा मसालेदार बनाया जाए तो हो सकता है कि फिल्म फूहड़ लगे। विषय को गंभीर रखा जाए तो फिल्म डॉक्यूमेंट्री बन सकती है, लेकिन ‘विक्की‍ डोनर’ में निर्देशक शुजीत सरकार ने इस विषय को कुछ इस तरह पेश किया है कि लगभग पूरी फिल्म में मनोरंजन होता रहता है, साथ ही वे यह बात कहने में भी सफल रहे हैं कि स्पर्म डोनेट किए जाए तो ऐसे कई लोगों को संतान की खुशी मिल सकती है जो कुछ कारणों से इससे वंचित हैं। फिल्म की लेखक जूही चतुर्वेदी और निर्देशक सरकार ने जितने भी चरित्र गढ़े हैं वे बेहतरीन हैं। हर किरदार कुछ खासियत लिए हुए हैं। सीन दर सीन वे सामने आते रहते हैं और मनोरंजन करते रहते हैं। फिल्म का हीरो विक्की (आयुष्मान खुराना) बेरोजगार है, लेकिन स्पर्म डोनेशन को ऐसा काम मानता है जिससे समाज में उसकी बदनामी हो सकती है। उसे लगता है कि बिना शादी के वह बाप बन जाएगा। उसकी सोच के जरिये एक आम भारतीय की सोच स्पर्म डोनेशन के बारे में बताई गई है। विक्की को राजी करने के लिए उसके पीछे पड़ा फर्टिलिटी क्लिनिक चलाने वाला डॉ. बलदेव चड्ढा (अन्नू कपूर) का किरदार भी बेहतरीन लिखा गया है। लगभग एक तिहाई फिल्म बलदेव द्वारा विक्की को राजी करने में ही खर्च की गई है और फिल्म का यह हिस्सा सर्वश्रेष्ठ है। दोनों की नोक-झोक होती रहती है और उनके द्वारा बोले गए संवाद सुनने लायक हैं। विक्की का मां ब्यूटी पार्लर चलाती है और टिपिकल पंजाबी है, लेकिन व ैस ी नहीं है जैसा आमतौर पर फिल्मों में पंजाबी मां को दिखाया जाता है। विक्की की दादी को बड़ा ही एडवांस बताया गया है जो आधुनिक तकनीक से अच्छी तरह परिचित है। सास-बहू के साथ में ड्रिंक्स लेने वाले दृश्य डायरेक्टर और राइटर के इमेजिनेशन का उम्दा नमूना है। विक्की के स्पर्म में बड़ा ही दम है। विक्की और बलदेव इसके जरिये खूब माल बनाते हैं, लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब विक्की को एक बंगाली लड़की आशिमा रॉय (यामी गौतम) से प्यार हो जाता है। डॉ. बलदेव को लगता है कि विक्की अब उसके हाथ से निकल जाएगा। विक्की और आशिमा की लव स्टोरी को निर्देशक ने बहुत अच्छे तरीके से संभाला है। फिल्म गोता तब लगाती है जब दोनों के घर वाले यानी कि बंगाली और पंजाबी आमने-सामने होते हैं। एक-दूसरे को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। थोड़ी देर यह अच्छा लगता है, लेकिन इसे कुछ ज्यादा ही खींचा गया है। आशिमा को एक समझदार लड़की बताया गया है, लेकिन शादी के बाद जब उसे पता चलता है कि उसका पति स्पर्म डोनेट करता है तो उसका रूठना जंचता नहीं है। दोनों के सेपरेशन वाले सीन भी लंबे हो गए हैं, लेकिन फिल्म क्लाइमेक्स में फिर ट्रेक पर आ जाती है। निर्देशक शुजीत सरकार ने दिल्ली का जो माहौल पैदा किया है वह सराहनीय है। पंजाबी किरदार को ‍छोटे-छोटे डिटेल के साथ पेश किया गया है। साथ ही उन्होंने अपने सभी कलाकारों से बेहतरीन अभिनय निकलवाया है। आयुष्मान खुराना ने पंजाबी मुंडे की भूमिका खूब निभाई है। उनमें भरपूर आत्मविश्वास है और अन्नू कपूर जैसे अभिनेता के सामने वे कम नहीं लगे हैं। यामी गौतम ने भी एक सेल्फ डिपेंडेंट और इंटेलिजेंट वूमैन के किरदार को अच्छे से पेश किया है और खूबसूरत भी लगी हैं। अन्नू कपूर ने फिर साबित किया है कि वे कितने बेहतरीन अभिनेता हैं। उन्होंने अपने अभिनय से अपने किरदार को फूहड़ नहीं होने दिया है। मां के रूप में डॉली अहलूवालिया और दादी के रूप में कमलेश गिल उल्लेखनीय हैं। फिल्म के अंत में जॉन अब्राहम के गाने की कोई जरूरत नहीं थी। ‘विक्की डोनर’ एंटरटेनमेंट और मैसेज दोनों देती है। ",1 "केरी पैकर का नाम क्रिकेट की दुनिया में भले ही आदर के साथ न लिया जाता हो, लेकिन इस शख्स ने 1977 में क्रिकेट में छिपे व्यापार की संभावनाओं को तलाश लिया था। उन्होंने विश्व के नामी खिलाड़ियों को मुंहमांगा धन देकर अनुबंधित किया और वर्ल्ड सीरिज क्रिकेट के तहत उन्हें खिलाया गया। इसे केरी पैकर का सर्कस कहा गया। दुनिया के तमाम क्रिकेट बोर्ड इससे घबरा गए और बड़ी मुश्किल से इस हालात पर काबू किया गया, लेकिन क्रिकेट को व्यापार बनाने का बीज यही से पड़ा। आज क्रिकेट के जरिये करोड़ों रुपये कमाए जा रहे हैं और यह पूरी तरह से व्यापार बन चुका है। भारत में इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) खेली जाती है, जिसकी लोकप्रियता अपार है। यहां पर क्रिकेट एक ब्लॉकबस्टर फिल्म की तरह नजर आता है, जिसमें बड़े सितारे हैं, दिल की धड़कन बढ़ाने वाले क्षण हैं और ग्लैमर है। इस चमक के पीछे अंधेरा भी बहुत है। इसमें होने वाले मैचेस पर भारी सट्टा लगाया जाता है। खिलाड़ी तक बिक चुके हैं। कुछ टीमों पर इसी कारण प्रतिबंध भी लगा। मैच के बाद होने वाली पार्टी में कई खिलाड़ियों के पैर भी फिसले हैं। इसको आधार बना कर 'इनसाइड एज' नामक वेब टेलीविजन सीरिज बनाई गई है। इनसाइड एज का इस्तेमाल कॉमेंटेटर्स उस समय करते हैं जब बल्ले का भीतरी किनारा लगता है। अपने नाम के अनुरूप इस सीरिज में भीतरी परतों को उजागर किया गया है। दस एपिसोड्स (लगभग 45 मिनट का एक एपिसोड) में सिमटी इस सीरिज में बताया गया है कि आईपीएल जैसी पॉवर प्ले लीग (पीपीएल) का आयोजन भारत में चल रहा है। मुंबई मावेरिक्स नामक टीम भी इसमें हिस्सा ले रही है। मुंबई की टीम केन्द्र में है। इस टीम का एक मालिक हट गया है और इस कारण को-ओनर ज़रीना मलिक (रिचा चड्ढा) परेशान हैं। ज़रीना लोकप्रिय अभिनेत्री हैं। संकट के समय बिज़नेस मैन विक्रांत धवन (विवेक आनंद ओबेरॉय) मुंबई टीम से जुड़ जाता है। विक्रांत के इरादे नेक नहीं है और वह अपने ढंग से टीम को चलाना चाहता है। मुंबई टीम का वायु राघवन (तनुज वीरवानी) स्टार बैट्समैन है और इस टीम की कप्तानी अरविंद वशिष्ठ (अंगद बेदी) के हाथों है। टीम का कोच निरंजन सूरी (संजय सूरी) है। इस टीम के जरिये दिखाया गया है कि क्रिकेट का स्वरूप कितना बदल गया है। इस खेल में धन के आगमन से यह पूरी तरह व्यापार बन गया है। कोच, मालिक, खिलाड़ियों, सपोर्टिंग स्टाफ के अपने-अपने स्वार्थ हैं। अत्यधिक पैसों के आगमन के कारण कई बुराइयों ने भी इस खेल को जकड़ लिया है। सेक्स, पैसा और पॉवर का यह घालमेल बहुत ही खतरनाक हो गया है और कुछ लोग खेल को अपनी तरह से चला रहे हैं। जो मैच आप देख रहे हैं वो स्क्रिप्टेड भी हो सकते हैं। सटोरिये पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सट्टा प्रोफेशनल तरीके से संचालित होता है। आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल इसमें होता है पैसों का इतना ज्यादा लेन-देन होता है कि जिम्मेदार लोग आंख मूंद लेते हैं और नाक के नीचे होने वाली गतिविधियों को उपेक्षित कर देते हैं। इनसाइड एज में हकीकत और कल्पना को बहुत ही अच्‍छे तरीके से बुना गया है। क्रिकेट, स्टार खिलाड़ी, टीमें, फिल्म स्टार्स, चीयरलीडर्स, पीपीएल वास्तविक से लगते हैं और इन पर कहानी बुनी गई है जिस पर कितना यकीन करना है इसका फैसला आपको करना है। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दिनों से क्रिकेट पर बातें सुनने को मिल रही है उसे देख ज्यादातर बातों पर विश्वास होता है। इस पूरे ड्रामे को इतना बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है कि मानो आप मुंबई टीम के सदस्य हों। ड्रेसिंग रूम के अंदर की हलचल, टीम मीटिंग्स, खिलाड़ियों का ड्रग्स का लेना, चीयरगर्ल्स से संबंध बनाना, स्टार क्रिकेटर्स का एटीट्यूड, दबाव के कारण बिखरते निजी संबंध, मालिकों का दबाव, सटोरियों का टीम से सम्पर्क, मैच होने के पूर्व रणनीति बनाना जैसी कई बातों की तह में जाकर विस्तारपूर्वक इन्हें दर्शाया गया है। यहां ज्यादातर लोग बेहद स्वार्थी हैं और पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। सभी किसी न किसी से काम निकालने की फिराक में हैं। सिस्टम इतना भ्रष्ट हो चुका है कि खरे सिक्कों को खोटे सिक्के अपने आप बाहर निकाल देते हैं। शुरुआती 6 एपिसोड आपको बांधकर रखते हैं। कहानी में दरारें सातवें एपिसोड्स से पैदा होती हैं जब बात को समेटने की कोशिश की जाती है। अरबों-खरबों रुपये में खेलने वाला एक अमीर इंसान हत्या कर देता है, यह थोड़ा अविश्वसनीय लगता है। वायु नामक स्टार प्लेयर का सावर्जनिक स्थानों पर किया गया व्यवहार भी अजीब लगता है। कुछ और बातें भी हैं, जिनका उल्लेख यहां इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे आपका सीरिज़ देखने का मजा खराब हो सकता है, लेकिन ये छोटी-मोटी अड़चनें हैं और इन्हें उपेक्षित किया जा सकता है। इस सीरिज के नौ एपिसोड्स करण अंशुमन ने निर्देशित किए हैं जबकि एक एपिसोड करण और गुरमीत ने मिलकर निर्देशित किया है। करण का काम कमाल का है। उन्होंने सीरिज को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है और कहीं भी इस बात पर समझौता नहीं किया है कि फिल्म की बजाय यह वेब सीरिज नामक छोटे माध्यम के लिए बनाई जा रही है। एक-एक शॉट पर मेहनत दिखाई देती है। अमीरों की लाइफस्टाइल, क्रिकेट का तकनीकी पक्ष, ड्रेसिंग रूम की हलचल को जिस तरीके से उन्होंने पेश किया है वो दाद देने लायक है। पूरी सीरिज पर उनकी पकड़ कहीं नहीं छूटती। आमतौर पर स्पोट्स बेस्ड फिल्म या सीरिज़ में खेल का स्तर ऊंचा नहीं दिख पाता, लेकिन यहां पर करण ने खेल को लगभग ऐसा ही पेश किया है मानो सचमुच के खिलाड़ी खेल रहे हों। दो मैचों का रोमांच तो लाइव मैच जैसा मजा देता है। यदि आप क्रिकेट प्रेमी हैं तो यह सीरिज देखने का मजा दोगुना हो जाता है। निर्देशक के रूप में करण यह दिखाने में भी सफल रहे हैं कि किस तरह खेल के दबाव के कारण यहां रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं। अरविंद और उसकी पत्नी का रिश्ता, सेक्सहोलिक वायु के अपनी गर्लफ्रेंड के साथ रिश्ते, ज़रीना का ढलता करियर, बॉलीवुड की हलचल को बारीकी से उन्होंने दिखाया है। तकनीकी रूप से भी करण अंशुमन का काम तारीफ के काबिल है। उन्होंने पूरी सीरिज को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। करण ने कहानी को बोल्ड तरीके से दर्शाया है जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। बोल्ड सीन और गालियों से उन्होंने परहेज नहीं किया है। कई बार गालियों की अति हो जाती है और इससे बचा जा सकता था। सीरिज को हिंग्लिश में रखा है, हालांकि 80 प्रतिशत संवाद अंग्रेजी में हैं। हिंदी का इस्तेमाल गालियों में ज्यादा है और यह बात आपत्तिजनक है कि किरदार हिंदी तभी बोलते हैं जब गा‍ली बकना हो। सीरिज का समापन सकारात्मक तरीके से किया गया है जो कि इस बात को मजबूती देती है कि यह खेल पूरी तरह से बरबाद नहीं हुआ है और अभी भी ज्यादातर खिलाड़ी ईमानदारी के साथ खेल रहे हैं। क्रिकेट पर किस तरह से सट्टा लगता है और कैसे यह काम होता है इसे भी वे सफल तरीके से दिखाने में सफल रहे हैं। इनसाइड एज में कई दमदार कलाकार हैं। अभिनेत्री के रूप में करियर के ढलान पर खड़ी और मुंबई टीम की को-ओनर के रूप में रिचा चड्ढा का अभिनय जबरदस्त हैं। अपनी झटपटाहट को उन्होंने अपने अभिनय से व्यक्त किया है। अरबपति विक्रांत धवन का किरदार विवेक ओबेरॉय ने निभाया है। अमीरों की बॉडी लैंग्वेज, बोलने का अंदाज उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और अपने किरदार को स्टाइलिश बनाया है। स्टार क्रिकेटर वायु राघवन का अप्रत्याशित स्वभाव और एटीट्यूड को तनुज वीरवानी ने अच्छे से दर्शाया है। क्रिकेट खेलते समय भी वे बनावटी नहीं लगते। अंगद बेदी ने अपना काम गंभीरता से किया है और वे ऐसे क्रिकेट खिलाड़ी लगे हैं जो गंदगी बरदाश्त नहीं कर सकता। देवेंदर मिश्रा नामक भ्रष्ट खिलाड़ी के रूप में अमित सियाल का काम अच्छा है, हालांकि वे खिलाड़ी नहीं लगते, लेकिन अभिनय के बलबूते अपनी इस कमजोरी को छिपा लेते हैं। वे अपने आपको ऊंची जाति का मानते हैं और प्रशांत नामक खिलाड़ी को नीची जाति का मान जम कर प्रताड़ित करते हैं। सिद्धांत चतुर्वेदी, सारा जेन डायस, मनु ऋषि, आशा सैनी, जीतीन गुलाटी सहित सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है। करण अंशुमन, अमेय सारडा, पुनीत कृष्णा, सुमित पुरोहित, सौरव दवे ने इस सीरिज को लिखा है। वे विषय के बारे में गहराई से जानते हैं यह उनके लेखन में झलकता है। फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी ने इसे अमेज़ॉन प्राइम वीडियो के लिए बनाया है और यह सीरिज मिस नहीं करना चाहिए। ",1 "आशिकी 2 और सिटीलाइट्स के बाद भट्ट बंधु (मुकेश और महेश) एक बार फिर अपने चिर-परिचित फॉर्मूले की ओर लौटे हैं। मधुर संगीत, हॉरर, अपराध और सेक्स का तड़का लगाकर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं जिनमें से अधिकांश सफल भी रही है। 'खामोशियां' भी उसी तर्ज पर आधारित फिल्म है, लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि अपनी जानी-पहचानी पिच पर भी भट्ट की टीम असफल हो गई और नतीजे में 'खामोशियां' जैसी कमजोर फिल्म सामने आती है। 'खामोशियां' को विक्रम भट्ट ने लिखा है। विक्रम चाहे लिखे या निर्देशन करें, उनकी फिल्में एक जैसी होती हैं। नया सोचना उनके बस की बात नहीं है। लगातार वे अपने आपको दोहराए जा रहे हैं। उनका फॉर्मूला तार-तार हो चुका है। दर्शक थक चुके हैं, लेकिन विक्रम अभी भी उसी पर डटे हुए हैं। 'खामोशियां' की कहानी में नवीनता तो है ही नहीं, साथ ही यह बेहद कमजोर है। कबीर (अली फजल) एक लेखक है। उसके अंदर अधूरापन है। तनहा है। उपन्यास लिखने की प्रेरणा पाने के लिए वे एक यात्रा पर निकलता है और एक गेस्ट हाउस में रूकता है। इस गेस्ट हाउस को मीरा (सपना पब्बी) चलाती है। मीरा का पति (गुरमीत चौधरी) बीमार है और बिस्तर से उठ नहीं सकता है। मीरा और कबीर एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। कबीर के साथ गेस्ट हाउस में डरावनी घटनाएं घटती हैं और उसे महसूस होता है कि मीरा इस बारे में सब जानती है। राज जानने की कोशिश में कबीर फंस जाता है। कहानी में हॉरर, रहस्य, रोमांच और रोमांस जैसे तत्व हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल सही तरीके से नहीं हो पाया है। कहानी माहौल में ठीक से फिट नहीं हो पाई है। गेस्ट हाउस में कबीर के अलावा कोई और गेस्ट नहीं है। यहां तक भी बात ठीक है, लेकिन इतने बड़े गेस्ट हाउस में स्टॉफ नजर नहीं आता, फिर भी गेस्ट हाउस साफ-सुथरा नजर आता है। हर चीज करीने से रखी हुई दिखाई है। मीरा को स्विमिंग पुल साफ करते, किताबें जमाते हुए कुछ शॉट्स में दिखाया गया है, लेकिन इतने बड़े गेस्ट हाउस का सारा काम करना उसके बस की बात नहीं है। यह बात पूरी फिल्म में खटकती रहती है। मीरा का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। बिना सोचे-समझे वह किसी से शादी करने तक का फैसला ले लेती है। कबीर और मीरा का रोमांटिक ट्रेक भी दमदार नहीं है। हॉरर के नाम कर कुछ डरावने सीन है जो ठीक-ठाक हैं। खामोशियां का टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में एक लाश दिखाई गई है जो दो साल से जड़ी-बूटी के सहारे रखी गई है ताकि सड़े-गले नहीं। अब ऐसी कौन सी जड़ी-बूटी आती है, इस बात को भी छोड़ दिया जाए, लेकिन लाश ऐसी लगती है मानो वह शख्स दो साल से बिना नागा किए जिम जा रहा हो। एकदम फिट बॉडी। ऐसी कुछ और बड़ी खामियां फिल्म में हैं। क्लाइमैक्स तो फिल्म का सबसे कमजोर हिस्सा है। किसी तरह फिल्म को खत्म किया गया है। निर्देशक अभिषेक डर्रा का प्रस्तुतिकरण वैसा ही जैसा भट्ट बंधुओं की फिल्मों का होता है। फिल्म पर वे पूरी तरह पकड़ कभी नहीं बना पाए। सिनेमाटोग्राफी और संगीत ही फिल्म के प्लस पाइंट्स हैं। अली फजल फिल्म दर फिल्म बेहतर हो रहे हैं, हालांकि उन्हें मंझने में थोड़ा समय और लगेगा। सपना पब्बी की यह पहली फिल्म है और उनमें संभावना नजर आती है। गुरमीत चौधरी का रोल बहुत छोटा था और उन्हें ज्यादा फुटेज दिया जाना था। 'खामोशियां' नहीं भी देखी तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो निर्देशक : करण डर्रा संगीत : जीत गांगुली, अंकित तिवारी, नावेद जफर, बॉबी-इमरान कलाकार : अली फजल, सपना पब्बी, गुरमीत चौधरी सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 2 मिनट ",0 "कहानी: देव (इरफान खान) टॉइलट पेपर सेल्‍समेन है। एक शाम वह निर्णय लेता है कि वह काम से जल्‍दी छूटकर अपनी पत्‍नी के ल‍िए गुलाब का गुलदस्‍ता लेकर घर जाएगा। जब वह घर पहुंचता है तो उसकी पत्‍नी बेड पर क‍िसी और आदमी के साथ होती है। इसके बाद स‍िलसिलेवार तरीके से कई ऐसी घटनाएं होती हैं जो मजेदार और अपमानजनक होती हैं। र‍िव्‍यू: म‍िड‍िल क्‍लास आदमी अपनी ही परिस्थितियों का शिकार है। वह इस तरह अधीनता वाला जीवन जीता है क‍ि जब मतभेद की स्‍थ‍िति बनती है तो वह अपराध करने के लिए संघर्ष करता है। वह अपने भाग्य को छोड़ देता है। ब्‍लैकमेल का कॉन्‍सेप्‍ट यही है और इसी उथल-पुथल से फ‍िल्‍म में अच्‍छा ट्व‍िस्‍ट आता है। इसमें आम आदमी की रोजाना की मुश्‍क‍िलें हैं जैसे ईएमआई, लोन और असफल र‍िलेशनश‍िप्‍स। जब देव को अपनी पत्‍नी के बारे में पता चलता है तो वह उसके लवर रंजीत (अरुणोदय स‍िंह) को ब्‍लैकमेल करता है जो बाद देव की पत्‍नी को ब्‍लैकमेल करने लगता है। ड्रामा तब और बढ़ता है जब देव की ज‍िंदगी के बाकी कैरक्‍टर्स को उसके ब्‍लैकमेल‍िंग के प्लान्‍स के बारे में पता चलता है। इसके बाद सभी क‍िसी न क‍िसी को क‍िसी मकसद के ल‍िए ब्‍लैकमेल करने लगते हैं। यहां से जो स‍िचुएशनल ह्यूमर पैदा होता है, वह काफी मजेदार होता है। परवेज शेख (क्‍वीन और बजरंगी भाईजान के राइटर) ने बढ़िया ल‍िखी है और दृश्यों में कॉम‍िडी को कुशलतापूर्वक पेश क‍िया गया है। फ‍िल्‍म का फर्स्‍ट हाफ थोड़ा धीमा है। प्‍लॉट सेट होने में टाइम लगता है लेकिन इसके बाद का ह्यूमर काफी एंटरटेन‍िंग है। दूसरे हाफ में हंसी आती है। जैसे-जैसे हर प्‍लॉट खुलता है, स्‍थ‍ित‍ियां मजेदार होती जाती हैं। अभ‍िनव देव का डायरेक्‍शन पैसा वसूल है। अपनी ब्‍लैक कॉम‍िडी 'डेल्ही बैली' के बाद उन्‍होंने एक बार फ‍िर ज‍िस जॉनर में हाथ आजमाया है, उसमें वह काफी हद तक सफल रहे हैं। फ‍िल्‍म का टॉइलट ह्यूमर आपको 'डेल्ही बैली' की याद द‍िलाएगा। फ‍िल्‍म में द‍िया गया अमित त्र‍िवेदी का संगीत सही सीन्‍स पर फ‍िट बैठता है। फ‍िल्‍म में ओमी वैद्य अपनी मजेदार अमेर‍िकी भाषा में देव को प्रोत्‍साह‍ित करते हुए कहते रहते हैं, 'शेक इट अप'। इसके अलावा फ‍िल्‍म का गाना सटासट अच्‍छा बन पड़ा है! कुल म‍िलाकर ब्‍लैकमेल का ह्यूमर और इसका प्रेजेंटेशन बेहतरीन है। ऐक्‍ट‍िंग की बात करें तो इरफान, जो न ही अपने बॉस और न ही अपनी विश्वासघाती पत्नी के साथ खड़े होते हैं, ने एक औसत ऑफ‍िस के आदमी के रूप में सॉल‍िड परफॉर्मेंस दी है। उन्‍होंने अपने कैरक्‍टर में लाचारी लाई है और जब वह ब्‍लैकमेल करने के ल‍िए प्‍लान‍िंग करते हैं तो भी बेहद आसानी से उसे न‍िभा जाते हैं। उनके ऐक्‍शंस में अनिश्चितता है जो उनकी अच्‍छाई से आती है और इसी से हंसी आती है। बैड बॉय के रूप में अरुणोदय सिंह काफी गुस्‍सैल हैं। यह उनके कर‍ियर का अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है। रंजीत की पत्‍नी के रूप में द‍िव्‍या दत्‍ता मनोरंजन करती हैं। अरुणोदय के साथ उनके सीन्‍स आकर्षक हैं। कीर्ति कुल्हारी ने भी अपना क‍िरदार अच्‍छे से न‍िभाया है। ब्लैकमेल का प्‍लॉट इसका हीरो है और यह डार्क और फनी के बीच के बैलेंस को अच्‍छे तरीके से मैनेज करता है। फ‍िल्‍म कहीं भी इसके ब्‍लैक ह्यूमर को नहीं छोड़ती है। लंबे समय बाद ऐसी मजेदार फिल्म आई है।",1 " द एवेंजर्स में भी सुपरहीरो हमेशा की तरह एक बार फिर जीत गए, लेकिन इस बार लोगों के दिल जीतने के साथ ही बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में भी सुपरहीरोज से भरी इस फिल्म ने बाजी मार ली है। दुनिया पर मंडराता खतरा, सुपर विलेन से जोरदार लड़ाई और बुराई पर अच्छाई की जीत, यही तो होता है हर सुपरहीरोज वाली फिल्म में। यहां भी यही कहानी है, लेकिन जिस तरह से पेश की गई है उसने इस फिल्म को ब्लॉकबस्टर की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है। किसी भी फिल्म में लार्जर देन लाइफ वाला एक ही किरदार होता है लेकिन इस फिल्म में पूरे छह किरदार हैं जो अकेले ही किसी भी कहानी को खींचने का माद्दा रखते हैं। अक्सर इतने सारे भारी-भरकम किरदारों के कारण कहानी दब जाती है, लेकिन द एवेंजर्स यहीं सबसे अलग है। आयरन मैन, हल्क, कैप्टन अमेरिका, थॉर, हॉकआई और ब्लैक विडो जैसे सुपर सितारों ने अपना-अपना काम बखूबी किया है। मजेदार बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद किसी अंगेजी फिल्म में दर्शकों की सीटियां और तालियां सुनने को मिली है। इस फिल्म में भले ही 6 सुपरसितारे हों, शो स्टीलर तो आयरन मैन और हल्क ही हैं। दोनो जब-जब परदे पर आए हैं तब-तब दर्शकों का उत्साह देखते बनता है। थ्रीडी इफेक्ट इस फिल्म में जान डाल देता है। बेहतरीन साउंड और एक्शन दृश्यों से सजी द एवेंजर्स दर्शकों को बांधे रखने के साथ ही उन्हें तालियां बजाने के कई मौके देती है। पौराणिक कथाओं के शैतानी के देवता लौकी द्वारा इंसानों का उपहास बनाना और हल्क द्वारा उसकी पिटाई पर दर्शक सिनेमा हॉल सिर पर उठा लेते हैं। निर्देशक : जॉस व्हेडॉन कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस इवांस, मार्क रफेलो, क्रिस हेम्सवर्थ, स्कॉरलेट जोहानसन, जर्मी रेनर, टॉम हिडलस्टॉन, क्लार्क ग्रेग द एवेंजर्स में आक्रमक और गुस्सैल हरा दैत्य ब्रूस बैनर (हल्क), दैवीय हथौड़े से लैस तूफान का देवता थोर, द्वितीय विश्व युद्ध के विलक्षण सुपरनायक कैप्टन अमेरिका, जीनियस अरबपति टोनी स्टार्क (आयरन मैन), अचूक निशानेबाज हॉकआई और खूबसूरत मगर खतरनाक जासूस ब्लैक विडो ने पूरी फिल्म में एक भी बोझिल दृश्य नहीं आने दिया। कु ल मिलाक र पैस ा वसल ू फिल् म ह ै द एवेंजर्स। ",1 "अगर बॉलिवुड फिल्मों की बात की जाए तो पिछले कुछ अरसे से दिल्ली की तंग गलियों से लेकर चमकती, विकसित और फैशन नगरी में धीरे-धीरे तब्दील हो रही दिल्ली के साथ फिल्ममेकरों को कुछ ज्यादा ही लगाव हो गया है। कभी कहानी में चंद सीन्स में नजर आने वाली दिल्ली की लोकेशन पर आज ऐसी फिल्में बनने लगी है जो इस बदलती दिल्ली पर ही आधारित हैं। पिछले दिनों बॉक्स आफिस पर हिट रही पिंक से लेकर पीकू, विकी डॉनर, फुकरे जैसी हिट फिल्में भी दिल्ली के रंगरूप में ढली थीं। डायरेक्टर संजीव शर्मा ने अपनी इस फिल्म को पुरानी दिल्ली की इन्हीं तंग गलियों और बाजारों की लोकेशन पर शूट किया है। हालांकि कहानी या किरदारों को दिल्ली के रंग में ढालने के चक्कर में संजीव शर्मा ने फिल्म में द्विअर्थी संवादों और दिल्ली की प्रचलित गालियों का जमकर इस्तेमाल किया है। इसके बावजूद यह फिल्म उन दर्शकों को निराश नहीं करेगी जो दिमाग पर जोर ना देकर सिर्फ मस्ती और हंसने के लिए फिल्म देखते है। कहानी : पप्पी (मनोज बाजपेयी) लॉटरी के चक्कर में अपना सब कुछ खो चुका है। आलम यह है पप्पी के सिर पर एक चिट फंड कंपनी का मोटा कर्ज चढ़ा हुआ है। पप्पी को सोना (अदिति शर्मा) से बेइंतहा प्यार है। दूसरी और सोना की मां अपनी बेटी की शादी किसी बड़े घर में करना चाहती है। सोना की मां को बेटी के लिए सनकी इंस्पेक्टर तेजपाल (के.के. मेनन) पसंद है। पप्पी के दो खास दोस्त हैं बब्बे और खप्पी। यह दोनों हर पल पप्पी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। लंबे अरसे से पप्पी की नजर पास में रहने वाले दीवान साहब (अनुपम खेर) की हवेली पर है। पप्पी को लगता है कि हवेली में मोटा खजाना छिपा हुआ है। इसी छुपे खजाने को हासिल करने के लिए पप्पी अपने दोस्तों खप्पी और बब्बे के साथ मिलकर प्लान बनाता है। इस प्लान में जग्गी उर्फ तिरछा (विजय राज) और अज्जी (विपुल) के अलावा सोना भी शामिल होते हैं। दरअसल सोना सनकी इंस्पेक्टर तेजपाल से छुटकारा पाना चाहती है। सोना को लगता है अगर पप्पी के पास मोटी दौलत होगी तो उसकी मां पप्पी के साथ उसकी शादी करने को राजी हो जाएगी। प्लान के मुताबिक एक रात दीवान साहब की हवेली में छुपे खजाने को हासिल करने के लिए सभी हवेली पहुंचते है तो वहीं दूसरी और एक केस की छानबीन के सिलसिले में इंस्पेक्टर तेजापल सिंह भी दीवान साहब की हवेली पहुंच जाता है। ऐक्टिंग : फिल्म में कई मंझे हुए कलाकार हैं। मनोज बाजपेयी, विजय राज, के. के. मेनन, अनुपम खेर, अनु कपूर हर कोई अपने किरदार में ढला नजर आता है। विजय राज के बोलने का अंदाज गजब है तो अनु कपूर स्क्रीन पर कम फुटेज मिलने के बावजूद अपनी दमदार मौजूदगी का अहसास कराने में कामयाब रहे। सोना के किरदार में अदिति शर्मा ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। वैसे भी इन दिग्गज कलाकारों के सामने अदिति के करने के लिए कुछ खास था भी नहीं। निर्देशन : यंग डायरेक्टर संजीव शर्मा ने पुरानी दिल्ली में रहने वाले अपनी कहानी के सभी किरदारों को रचने में जबरदस्त मेहनत की, लेकिन इन किरदारों को परदे पर सही ढंग से पेश करने में वह नाकाम रहे। हां संजीव ने पुरानी दिल्ली की तहजीब से लेकर वहां रहने वालों पर यकीनन अच्छा होमवर्क किया जिसके चलते फिल्म के लगभग सभी किरदार दमदार बन पाए। संजीव ने डबल मीनिंग संवादों के साथ साथ भद्दी गालियों का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया, जिसके चलते फिल्म को सेंसर ने 'ए' सर्टिफिकेट दिया। इस कहानी पर मजेदार और दिलचस्प कहानी बनाई जा सकती थी लेकिन संजीव इसमें कामयाब नहीं हो पाए। इंटरवल के बाद फिल्म बेवजह खींचती नजर आती है। अगर फिल्म की अवधि 15 मिनट कम होती तो हो सकता था कि फिल्म दर्शकों को बांधने में कामयाब हो जाती। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और लोकेशन के मुताबिक तो फिट है लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं है जिसे हॉल से बाहर निकलने के बाद भी गुनगुना सकें। क्यों देखें : अगर आप पुरानी दिल्ली के रहने खास अंदाज को नजदीक से देखना और जानना चाहते है और इंडस्ट्री के दिग्गज कलकारों की बेहतरीन ऐक्टिंग देखना चाहते है तो इन उचक्कों से मिला जा सकता है। फिल्म में गालियों जमकर भरमार है इसलिए फैमिली क्लास और साफ सुथरी फिल्मों को पसंद करने वाले दर्शकों की कसौटी पर फिल्म खरी नहीं उतर पाएगी। ",0 " गोरी के प्यार में पड़ कर फिल्म का हीरो गोबर के बीच गांव में रहना मंजूर करता है। चिकन छोड़ दाल-रोटी खाता है और गांव वालों के लिए पुल बनाता है। इसी तरह की कहानी पर आधारित ‘रमैया वस्तावैया’ कुछ महीनों पहले रिलीज हुई थी। वो फिल्म थोड़ी लाउड थी, जबकि ‘गोरी तेरे प्यार में’ यह बात आधुनिक तरीके से कही गई है। वैसे इस तरह की कहानी बॉलीवुड में नई बात नहीं है। श्रीराम (इमरान खान) को दीया (करीना कपूर) श्रीदेवी कहती है। श्रीराम आलसी, निकम्मा और अमीर बाप की औलाद है। बंगलौर में रहने वाला तमिल है। अमेरिका से पढ़ कर आया है और परिवार वालों के लिए वह एलियन की तरह हो गया है। दीया अन्याय और शोषित लोगों के लिए अपनी आवाज बुलंद करती हैं। नारे लगाती है, धरना देती है, कैंडल जलाती है, रेड लाइट एरिये में जाकर डॉक्यूमेंट्री बनाती है और वक्त मिलता है तो शादियों में ‘टुई’ गाते हुए ठुमके लगाती है। बहुत पुरानी बात है कि दो अलग-अलग मिजाज के लोगों में आकर्षण होता है और इसी को आधार बनाकर इंटरवल तक की कहानी बनाई गई है। निर्देशक और लेखक पुनीत मल्होत्रा ने इस लव स्टोरी को इतना ज्यादा खींचा है कि नींद आने लगती है। तमिल परिवार को लेकर उन्होंने मजाक बनाया है, इमरान और उनके पिता के रिश्तों को कॉमेडी के एंगल से दिखाया है, लेकिन बात नहीं बनती। इमरान और करीना की प्रेम कहानी में भी गहराई नजर नहीं आती। न रोमांस दिल को छूता है और न कॉमेडी लबों पर मुस्कान लाती है। इंटरवल के बाद फिल्म यू टर्न लेते हुए शहर से गांव में शिफ्ट हो जाती है। श्रीराम-दीया में आदर्शों को लेकर टकराव हो जाता है। ब्रेकअप के बाद दीया गुजरात के एक गांव में पहुंच जाती है। हीरोइन को मनाने पीछे-पीछे हीरो भी उस गांव तक ट्रेन, बस, छकड़ा और पैदल जाते हुए पहुंच जाता है। गांव में नदी पर पुल न होने से गांव वालों को बेहद तकलीफ होती है और इसका उपाय दीया और श्रीराम खोजते हैं। फिल्म के निर्माता करण जौहर हैं इसलिए यह गांव भी उनकी निगाह से दिखाया गया है। करण या पुनीत कभी गांव में घुसे भी नहीं होंगे, लेकिन इतना जरूर सुन रखा होगा कि कच्चे मकान होते हैं, भैंस और धूल होती हैं। लिहाजा ऐसा ही गांव बना दिया गया है जो पूरी तरह बनावटी लगता है। कलेक्टर ऐसा दिखाया है जैसा पुरानी फिल्मों में जमींदार होते थे। पुल बनाने के लिए हीरो हर तरह का हथकंडा अपनाने की कोशिश करता है, लेकिन हीरोइन सिद्धांतवादी है। थोड़ी-बहुत उठापटक होती है और पुल बन जाता है। पुल बनाने वाला ट्रेक इतना सतही है कि हैरत होती है। सब कुछ बेहद आसानी से हो जाता है। शायद यह बात निर्देशक को भी पता थी कि उन्होंने यह मसला आसानी से निपटा दिया है, इसीलिए हीरोइन को हीरो कहता है कि उसे प्रत्येक गांव में जाना चाहिए ताकि कही कोई समस्या नहीं रहे। निर्देशक पुनीत मल्होत्रा हीरो-हीरोइन के बीच आदर्शों के टकराव को दर्शाने में सफल रहे हैं, लेकिन कहानी और स्क्रिप्ट में इतना दम नहीं है कि फिल्म बांध कर रख सके। कुछ सीन और संवाद चुटीले हैं, लेकिन केवल इसी के बूते पर ही फिल्म को अच्छा नहीं कहा जा सकता। इमरान खान के साथ परेशानी यह है कि वे कुछ अलग करने जाते हैं तो दर्शक उन्हें अस्वीकार कर देते हैं और चॉकलेटी बॉय के रूप में नजर आते हैं तो कहा जाता है कि वे एक-सा अभिनय करते हैं। ‘गोरी तेरे प्यार में’ इमरान उसी तरह के किरदार और अभिनय करते दिखाई दिए हैं जैसे ज्यादातर फिल्मों में वे करते हैं। करीना कपूर ने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है, लेकिन उनका किरदार ठीक से लिखा नहीं गया है। अनुपम खेर ने अपनी भूमिका बहुत शानदार तरीके से निभाई है और जब-जब वे स्क्रीन पर आते हैं फिल्म में दिलचस्पी बढ़ जाती है। श्रद्धा कपूर के पास ज्यादा करने को कुछ नहीं था। विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध किए गीत भले ही हिट हो रहे हो, लेकिन फिल्म में उनकी खास सिचुएशन नहीं बन पाई है और गानों ने फिल्म की लंबाई को बहुत बढ़ा दिया है। कुल मिलाकर गोरी तेरे प्यार में फिल् म क े हीर ो क ी तर ह सुस्त और उबा ऊ है। निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर निर्देशक : पुनीत मल्होत्रा संगीत : विशाल और शेखर कलाकार : इमरान खान, करीना कपूर खान, अनुपम खेर, श्रद्धा कपूर, ईशा गुप्ता ",0 "प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित ‘लागा चुनरी में दाग’ एक नारी के त्याग और समर्पण की कहानी पर आधारित फिल्म है। पेंशन से मोहताज पिता (अनुपम खेर)। उसकी दो बेटियाँ बड़की (रानी मुखर्जी) और छुटकी (कोंकणा सेन शर्मा)। माँ (जया बच्चन) रात-रातभर कपड़े सिलकर किसी तरह पैसा कमा रही हैं, लेकिन खर्चा ज्यादा है। पिता को लगता है ‍कि यदि उनका बेटा होता तो शायद उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता। बड़की को यह बात बुरी लगती है। वह बनारस से मुंबई जाने का फैसला करती है। दसवीं पास बड़की को कोई नौकरी नहीं मिलती। हारकर वह अपने जिस्म का सौदा कर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करती है। बड़की से अब वह नताशा बन गई है। परिवार में बड़की की माँ को छोड़कर सब इस बात से अनभिज्ञ है। छुटकी पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी करने के लिए मुंबई आती है और बड़की का राज खुल जाता है। थोड़े से उतार-चढ़ाव के बाद सुखद अंत के साथ फिल्म समाप्त होती है। इस तरह की कहानी पर कई फिल्में बन चुकी हैं। आगे क्या होने वाला है इसका अनुमान लगाना दर्शक के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। कहानी की सबसे कमजोर कड़ी है रानी मुखर्जी का अचानक वेश्या बन जाना। क्या संघर्षों से घबराकर इस तरह का रास्ता अपनाना चाहिए? उसके सामने इतने मुश्किल हालात भी नहीं थे कि उसे इस तरह का कदम उठाना पड़े। कई लोगों को बड़की की माँ का स्वार्थीपन भी अखर सकता है। बड़की मुंबई में असफल होकर वापस बनारस आना चाहती है। वह अपनी माँ को यह भी बताती है कि यहाँ उसे घिनौना काम भी करना पड़ सकता है, लेकिन उसकी माँ की खुदगर्जी आड़े आ जाती है। उन परिस्थितियों में उसके लिए पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। हालाँकि यह दिखाया गया है कि उस समय बड़की की माँ परेशान रहती है, लेकिन इतनी बड़ी बात को वह यह कहकर नहीं टाल सकती कि बेटी अब तुम सयानी हो गई हो, यह निर्णय तुम करो। कहानी चिर-परिचित जरूर है, लेकिन परदे पर इसे बेहद खूबसूरती के साथ प्रदीप सरकार ने पेश किया है। छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये उन्होंने चरित्रों को बखूबी उभारा है। उनके द्वारा फिल्माए गए कुछ दृश्य दिल को छू जाते हैं। उम्दा प्रस्तुति के कारण फिल्म दर्शकों को बाँधकर रखती है। विवान और छुटकी की नोकझोक के जरिये आधुनिक भारतीय महिला की अच्छी व्याख्या की गई है। रेखा निगम द्वारा लिखे गए संवाद चरि‍त्र को धार प्रदान करते हैं। जब बड़की के वेश्या होने का पता छुटकी को लगता है तो वह ग्लानि से भरकर कहती है कि हम तुम्हारी चिता से अपना चूल्हा जला रहे थे। पूरी फिल्म रानी मुखर्जी के इर्दगिर्द घूमती है। रानी का अभिनय शानदार है। उनकी आँखों के जरिये ही चरित्र की सारी मनोस्थिति बयाँ हो जाती है। कोंकणा सेन तो नैसर्गिक अभिनेत्री हैं, लगता ही नहीं कि वो अभिनय कर रही हैं। अभिषेक बच्चन का रोल छोटा है, जो शायद उन्होंने संबंधों की खातिर अभिनीत किया है। कुणाल कपूर थोड़े नर्वस लगे। जया बच्चन ने अपने चरित्र की सारी बारीकियों को समझकर अच्छी तरह से पेश किया है। हेमा मालिनी और कामिनी कौशल जैसी पुरानी नायिकाओं को देखना भी अच्छा लगता है। अनुपम खेर, सुशांत सिंह और टीनू आनंद ने भी अपना काम ठीक तरीके से किया है। निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : प्रदीप सरकार संगीत : शांतनु मोइत्रा गीत : स्वानं‍द किरकिरे कलाकार : रानी मुखर्जी, कोंकणा सेन शर्मा, जया बच्चन, अभिषेक बच्चन, कुणाल कपूर, अनुपम खेर, हेमा मालिनी, टीनू आनंद शांतनु मोइत्रा का संगीत सुनने लायक है। स्वानंद किरकिरे ने उम्दा बोल लिखे हैं। ‘हम तो ऐसे हैं भइया’ सबसे बेहतर गीत है। इस गीत का फिल्मांकन भी उम्दा है। सुशील राजपाल ने बनारस को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। फिल्म की प्रत्येक फ्रेम खूबसूरत है। फिल्म साफ-सुथरी है और पारिवारिक दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। उम्दा प्रस्तुतिकरण और शानदार अभिनय के कारण इस फिल्म को देखा जा सकता है। ",1 "कई लोग लड़कियों को सिगरेट या शराब पीते हुए देख चौंक जाते हैं और कहते हैं कि यह लड़की होकर शराब पी रही है। निश्चित रूप से यह बुरी लत है, लेकिन लड़कों को यह सब करते देख किसी को हैरानी नहीं होती। दरअसल सारी नैतिकता और आदर्श की बातें स्त्रियों पर ही थोपी जाती है और उनकी सोच, इच्छा और आत्मसम्मान को पुरुष लगातार कुचलता रहता है। स्त्रियों को आजादी देने से पुरुष घबराते हैं इसलिए आदर्श और परम्परा की जंजीरों में स्त्रियों को जकड़ा हुआ है। ये सारी बातें अलंकृता श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित फिल्म 'लिपस्टिक इन माय बुरखा' में उभर कर आती है। चार स्त्रियां फिल्म की प्रमुख पात्र हैं जो अलग-अलग उम्र और वर्ग की हैं, लेकिन चारों की हालत समान है। किसी को नौकरी पहनने की अनुमति नहीं, तो किसी को करियर बनाने की। तो कोई अपनी पसंद का लड़का भी नहीं चुन सकती। इन्हें घुट-घुट कर जीना पड़ता है। शिरीन असलम (कोंकणा सेन शर्मा) शादीशुदा है, लेकिन उसका पति सिर्फ उसे सेक्स मशीन मानता है। घर का खर्च वो चोरी-छिपे नौकरी कर चलाती है क्योंकि नौकरी की उसे इजाजत नहीं है। उसका पति का दूसरी महिला से अफेयर चल रहा है। बुआजी (रत्ना पाठक शाह) विधवा है। उम्र हो चली है इसलिए जमाना मानता है कि उन्हें पूजा-पाठ में ही व्यस्त रहना चाहिए। बुआजी धार्मिक किताबों के बीच रोमांटिक कहानियों की किताब रख कर पड़ती है और उम्र में अपने से आधे स्विमिंग कोच जसपाल (जगत सिंह सोलंकी) की तरफ आकर्षित हो जाती है। वह जसपाल को पहचान बताए बिना फोन लगाती है और फोन सेक्स उनके बीच होता है। लीला (आहना कुमरा) की शादी मनोज से तय हुई है जिसे वह पसंद नहीं करती। वह फोटोग्राफर अर्शद (विक्रांत मेस्सी) को चाहती है और सगाई के बाद भी दोनों में सेक्स जारी रहता है। रेहाना अबिदी (प्लाबिता बोरठाकुर) पॉप स्टार बनना चाहती है। जींस पहनना चाहती है, पब जाकर स्मोकिंग और ड्रिंकिंग करना चाहती है, लेकिन उसे बुरखा पहन कर कॉलेज जाना पड़ता है और अपने पिता की दुकान में काम करना पड़ता है। इन चारों महिलाओं के जीवन पर पुरुष और समाज की पाबंदियां हैं। इनके परिवार 'क्या कहेंगे लोग' से ग्रसित हैं। वे अपनों की बजाय बेगानों की चिंता ज्यादा करते हैं। वे इन लड़कियों से अपनी इज्जत को जोड़ते हैं और इसी वजह से उन्होंने इन्हें जकड़ रखा है। इन स्त्रियों की झटपटाहट, बगावती तेवर, इच्छाओं के दमन को यह फिल्म बोल्ड तरीके से दिखाती है। निर्देशक को अपनी बात को त्रीवता प्रदान करने के लिए इन बोल्ड दृश्यों की जरूरत महसूस हुई हो, लेकिन इनसे बचा जा सकता था। चारों महिलाओं की कहानी में से रेहाना और शिरीन की कहानी अपील करती है। ये शोषित नजर आती हैं। दूसरी ओर लीला की कहानी से दिखाया गया है कि उसके आक्रामक तेवर से पुरुष घबराते हैं। बुआजी की कहानी ज्यादा अपील नहीं करती। निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव ने कहानी को कहने के लिए भोपाल शहर चुना है, जहां दकियानूसी अभी भी पैर पसारे हुए है और आधुनिकता की आहट भी सुनाई देने लगी है। कलाकारों से उन्होंने अच्छा काम लिया है। फिल्म के अंत दर्शाता है कि अभी भी महिलाओं को आजादी पाने में लंबा समय लगेगा। फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। कोंकणा सेन शर्मा और आहना कुमरा का अभिनय इन सबमें बेहतरीन है। कोंकणा के हाव-भाव देखने लायक है वहीं आहना कैमरे के सामने बिंदास दिखाई दी है। लिपस्टिक इन माय बुरखा परफेक्ट फिल्म नहीं है, लेकिन जो बात यह फिल्म कहना चाहती है वो उभर कर सामने आती है। बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, एएलटी एंटरटेनमेंट निर्माता : प्रकाश झा संगीत : अलंकृता श्रीवास्तव संगीत : ज़ेबुन्निसा बंगश कलाकार : कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा, सुशांत सिंह, विक्रात मैस्से, प्लाबिता बोरठाकुर, जगत सिंह सोलंकी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट 23 सेकंड ",1 " पुलिसगिरी तमिल फिल्म ‘सामी’ का हिंदी रिमेक है और इसमें वही सब कुछ है जो आप अनगिनत बार देख चुके हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी एक्शन मूवी हिंदी में डब कर इन दिनों चैनलों कर खूब दिखाई जा रही है और ये उसका ही विस्तार है। ‘पुलिसगिरी’ भी दक्षिण के रंग में डूबी हुई है। संजय दत्त को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत की ही फिल्म देख रहे हैं। एक्शन से लेकर तो बैकग्राउंड म्युजिक तक सब कुछ लाउड है। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की बॉर्डर पर नागापुरम नामक एक छोटा-सा शहर है। यहां पर नागोरी (प्रकाश राज) का राज चलता है। एमपी, एमएलए, कलेक्टर, पुलिस सब उसके जेब हैं। नागापुरम में डिप्टी कश्निर ऑफ पुलिस रूद्र प्रताप देवराज (संजय दत्त) ट्रांसफर होकर आता है। वह अपने आपको गुंडा और पुलिस का कॉम्बो बताता है। सुबह उठकर बीअर से कुल्ला करने वाला और इडली को सांबर की बजाय बीअर से खाने वाले रुद्र के अपराध खत्म करने के उसके अपने उसूल हैं। वह गुंडा बनकर गुंडों के बीच जाता है और उन्हें गोलियों से भून देता है। ‘दबंग’ के चुलबुल पांडे की तरह वह भी रॉबिनहुडनुमा काम करता है। रिश्वत लेता है। नागोरी से भी वह सेटिंग कर लेता है, लेकिन ये रिश्ता लंबा नहीं चलता। दोनों एक-दूसरे की जान के प्यासे हो जाते हैं। लड़ाई-झगड़े से रुद्र को जब वक्त मिलता है तो वह रोमांस भी कर लेता है। ‘पुलिसगिरी’ को इस तरह बनाया गया है कि ज्यादा से ज्यादा एक्शन दृश्य शामिल किए जा सके। कुछ-कुछ ‍मिनटों में संजय दत्त गुंडों की ठुकाई करते हुए नजर आते हैं। निर्देशक के.एस. रविकुमार ने उन दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्म बनाई है, जिन्हें फाइट सीन और हीरोगिरी देखने में मजा आता है। उनकी जरूरतों का ध्यान रखते हुए उन्होंने सीन रचे हैं। उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी नहीं है। छोटी सी कहानी को रबर की तरह खींचा गया है, इस कारण फिल्म का प्रभाव कम हो जाता है। दबंग और सिंघम का असर साफ नजर आता है। एक्शन पर रवि कुमार का फोकस इतना ज्यादा रहा कि उन्होंने रोमांस, कॉमेडी और इमोशन को इग्नोर कर दिया जो कमर्शियल फिल्म का महत्वूपर्ण हिस्सा रहते हैं। राजपाल यादव और रजत रवैल का एक कॉमेडी ट्रेक डाला गया है, लेकिन उसे देख खीज पैदा होती है। कई दृश्यों में जल्दबाजी नजर आती है, शायद संजय के पास वक्त कम था, इसलिए फटाफट काम निपटा दिया गया। संजय दत्त ने अपना काम अच्छे से किया है। उनके फैंस जिस तरह का संजय देखना चाहते हैं, उसी अंदाज में वे नजर आए। सुपरमैन की तरह उड़ते हुए उन्होंने दर्जनों गुंडों को मारा, कारें उड़ाई, जमीन पर पैर मारा तो जमीन थरथराई, रूमाल का सिरा एक कान से घुसाकर दूसरे कान से निकाला, अपनी बांह में नारियल दबा के फोड़े और माइंड इट डायलॉग बोला। प्रकाश राज के लिए इस तरह के विलेन का रोल निभाना बांए हाथ का खेल है, लेकिन इसमें अब एकरसता आ गई है। सितार और ढोलक बजाते हुए उन्होंने कहा ‘सुर तो मोहम्मद रफी का नहीं है, लेकिन दम मोहम्मद अली का है।‘ इस पर संजय दत्त बोलते हैं ‘मेरा सुर है ओसामा का, मेरा पॉवर है ओबामा का।‘ इस तरह के संवाद फरहाद और साजिद ने लिखे हैं। फिल्म में प्राची देसाई भी हैं, जो बीच-बीच में आती रहती हैं। बॉलीवुड में कई हीरो ऐसे हैं जो अपनी उम्र से आधी हीरोइनों के साथ ठुमके लगा रहे हैं। फर्क नहीं दिखता तो सब चलता है, लेकिन यहां प्राची के संजय अंकल लगते हैं। गीत-संगीत ‘ब्रेक’ के काम आता है। एक गाना तो कम्प्यूटर ग्राफिक्स के इस्तेमाल से बना दिया गया है, जिसमें संजय-प्राची पहाड़ों पर नजर आते हैं, लेकिन उनके दीवानों को इससे कोई मतलब नहीं है। अमर-मोहिले ने बैकग्राउंड म्युजिक इतना लाउड रखा है कि सिनेमाहॉल छोड़ते वक्त सिरदर्द की शिकायत हो सकती है। कुल मिलाकर ‘पुलिसगिरी’ वही घिसी-पिटी कहानी पर बनी एक्शन फिल्म है, जिसे हजारों बार हम देख चुके हैं। बैनर : स्टार एंटरटेनमेंट प्रा. लि. निर्माता : टी.पी. अग्रवाल, राहुल अग्रवाल निर्देशक : के.एस. रविकुमार संगीत : हिमेश रेशमिया, अंजान-मीत ब्रदर्स कलाकार : संजय दत्त, प्राची देसाई, प्रकाश राज, ओम पुरी, मनोज जोशी, राजपाल यादव, रजत रवैल रिलीज डेट : 5 जुलाई 2013 सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 21 मिनट ",0 "chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में भारत-पाक को लेकर फिल्में बनाने का ट्रेंड नया नहीं है। अक्सर इस विषय पर बनी फिल्मों में दोनों देशों के बीच रिश्तों में कड़वाहट, जासूसी, बॉर्डर पर टेंशन या फिर भारत-पाक विभाजन के वक्त की कहानियां नजर आती हैं। 'बजरंगी भाईजान' में जरूर डायरेक्टर ने कुछ अलग और नया किया था। इस हफ्ते रिलीज हुई 'हैपी भाग जाएगी' भी इस विषय पर बनी टोटली मस्त और हैपी फिल्म है। फिल्म की कहानी दोनों देशों के दो प्रमुख शहरों अमृतसर और लाहौर के बीच घूमती है। रिऐलिटी को दरकिनार करके हल्की-फुल्की कॉमिडी फिल्म की चाह में अगर आप थिऐटर जा रहे हैं तो अपसेट नहीं होंगे। भले ही 'तनु वेड्स मनु' फेम डायरेक्टर आनंद एल रॉय इस फिल्म से बतौर को-प्रड्यूसर जुड़े हैं, लेकिन फिल्म पर उनकी छाप साफ नजर आती है। बॉलिवुड के दो कलाकारों के लिए यह फिल्म बेहद खास है। दीपिका पादुकोण के साथ 'कॉकटेल' में दिखने के बाद लीड ऐक्ट्रेस डायना पेंटी करीब चार साल फिल्मों में वापसी कर रही हैं। वहीं ऐक्टर अभय देओल भी लंबे गैप के बाद बड़ी स्क्रीन पर नजर आएंगे। हैपी भाग जाएगी का ट्रेलर यहां देखें कहानी : अमृतसर से पार्षद दमन सिंह बग्गा (जिम्मी शेरगिल) अपनी शादी के जश्न में बेहद खुश है। बग्गा 'यारा ओ यारा' गाने की धुन पर अपने दोस्तों के साथ थिरक रहा है। बग्गा की शादी बेहद खूबसूरत, मस्त, बिंदास हरप्रीत कौर उर्फ हैपी (डायना पेंटी) के साथ होने जा रही है। बग्गा लंबे अर्से से हैपी के साथ शादी का सपना देख रहा है जो कुछ वक्त बाद साकार होने वाला है। हैपी को यह रिश्ता मंजूर नहीं है। दरअसल, हैपी गुरदीप सिंह उर्फ गुड्डू (अली फजल) से प्यार करती है, लेकिन पिता की जिद के चलते हैपी दुल्हन का लिबास पहन कर तैयार हो जाती है। तभी बग्गा को खबर मिलती है कि हैपी भाग गई है। अमृतसर से भागी हैपी जा पहुंचती है लाहौर। हैपी खुद को शहर के जानेमाने राजनेता के बेटे बिलाल अहमद (अभय देओल) के बंगले में पाती है। बिलाल का सपना पाकिस्तान क्रिकेट टीम में खेलने का था। हालांकि, पिता की जिद के चलते बिलाल राजनीति में आ गए। बिलाल की शादी उसकी बचपन की दोस्त जोया (मोमल शेख) से होने वाली है। हैपी की एंट्री होती है तो सारा नजारा ही बदल जाता है। बिलाल के साथ हैपी को देखकर जोया पहले तो दोनों के रिश्तों पर शक करती है, लेकिन हैपी की आपबीती सुनकर जोया भी बिलाल के साथ उसकी मदद करने का फैसला करती है। अब बिलाल और जोया का एक ही मकसद है किसी तरह गुड्डू को लाहौर लाकर हैपी के साथ उसकी शादी करवा दी जाए। फिल्मी खबरें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें हमारा पेज NBT Movies ऐक्टिंग : पूरी फिल्म हैपी के इर्दगिर्द घूमती है। इस लीड किरदार को डायना पेंटी ने पूरी ईमानदारी और मेहनत के साथ स्क्रीन पर जीवंत किया है। बेशक कुछ सीन में डायना ओवरऐक्टिंग की शिकार रहीं, लेकिन किरदार की डिमांड के मुताबिक, डायना खरी उतरी है। बिलाल के रोल में अभय देओल निराश नहीं करते हैं। अली फजल को कहानी में बेहद कम फुटेज मिल पाई है। वहीं पीयूष मिश्रा ने बेहतरीन ऐक्टिंग से अपने किरदार में जान डाल दी है। लाहौर पुलिस में अफसर बने पीयूष की ऐक्टिंग इस फिल्म की यूएसपी है। वहीं दमन सिंह बग्गा के रोल में जिम्मी का किरदार तनु वेड्स मनु में उनके रोल का एक्सटेंशन लगता है। पाकिस्तानी ऐक्ट्रेस मोमेल शेख बस ठीकठाक रही। डायरेक्शन : मुद्दस्सर अजीज जाने-माने राइटर हैं। ऐसे में उनसे इस बार एक धमाकेदार कहानी की उम्मीद थी, लेकिन हैपी इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। हां, बतौर डायरेक्टर उन्होंने कहानी को मजेदार ढंग से पेश किया है, जो कहीं बोर नहीं करती। हालांकि इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक से भटकने लगती है। डायरेक्टर मुदस्सर स्क्रीन पर लाहौर का नजारा और वहां की जुबां पेश करने में जरूर कामयाब हुए। संगीत : फिल्म का संगीत माहौल पर फिट है, कई गानें पॉप्युलर हुए हैं। क्यों देखें : डायना पेंटी का बदला लुक, पीयूष मिश्रा की गजब ऐक्टिंग। अगर बिना तर्क किए लाइट कॉमिडी पसंद करते हैं तो हैपी से मिलकर अपसेट नहीं होंगे। ",1 "आदमी के अदृश्य होने का आइडिया बरसों पुराना है, लेकिन इस आइडिये में इतना दम है कि इस पर कई तरह की फिल्में बनाई जा सकती हैं। सारा सवाल आपकी कल्पनाशीलता का है। समय-समय पर फिल्में भी बनती रही हैं और विक्रम भट्ट की 'मि. एक्स' भी इसी पर आधारित है। विक्रम ने आइडिया तो अच्छा लिया, लेकिन इसके इर्दगिर्द जो उन्होंने कहानी बुनी वो इतनी लचर है कि दर्शक सिनेमाघर से गायब हो जाना चाहता है। रघुराम राठौर (इमरान हाशमी) और उसकी गर्लफ्रेंड सिया वर्मा (अमायरा दस्तूर) एंटी टेररिस्ट डिपार्टमेंट में काम करते हैं। उनकी शादी के एक दिन पहले उनका बॉस भारद्वाज (अरुणोदय सिंह) दोनों को बुलाता है और बताता है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री की जान को खतरा है। भारद्वाज, तिवारी (सुशील पांडे) और आदित्य दत्ता (जिग्नेश जोशी) एक षड्यंत्र रचते हैं और रघु को मुख्यमंत्री की हत्या करने के लिए मजबूर कर देते हैं। हत्या करने के बाद रघु भागते हुए एक केमिकल फैक्ट्री में छिप जाता है जिसमें भारद्वाज और उसके साथी आग लगाकर विस्फोट कर देते हैं। वे यह मान लेते हैं कि रघु मर गया, ‍लेकिन बुरी तरह जला हुआ रघु किसी तरह बच जाता है। वह अपने साथी पोपो (तन्मय भट्ट) को बुलाता है जो रघु को एक लेबोरेटरी में ले जाता है। वहां पोपो की बहन (श्रुति उल्फत) एक दवाई रघु को पीने की देती है। रघु ठीक तो हो जाता है, लेकिन उसे सिर्फ धूप और ब्लू नियॉन लाइट में ही देखा जा सकता है। इधर रघु से सिया नफरत करने लगती है क्योंकि वह मुख्यमंत्री का हत्यारा है। रघु मि. एक्स बन खलनायकों से बदला लेता है। सिया जान जाती है कि मि. एक्स कौन है और वह भारद्वाज को इस बारे में बता देती है। किस तरह रघु अपना बदला लेता है यह फिल्म का सार है। विक्रम भट्ट ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है, लेकिन दोनों ही कामों को उन्होंने घटिया तरीके से निपटाया है। विक्रम को लगा कि गायब होने वाला आइडिया और थ्री-डी इफेक्ट्स का कमाल देख कर ही दर्शकों को मजा आ जाएगा, लिहाजा उन्हें जो सूझा वो लिखा और इस बात की परवाह भी नहीं की दर्शकों के पास भी दिमाग होता है। साथ ही निर्देशक के रूप में कहानी को ऐसे पेश किया है कि कही से भी फिल्म मनोरंजन नहीं करती। फिल्म की प्रमुख कड़ियां अत्यंत ही कमजोर है। रघु का अदृश्य होने वाला प्रसंग कही से भी ऐसा नहीं है कि दर्शक रोमांचित हो जाए। रघु बुरी तरह जल जाता है, उसके सिर के बाल जल जाते हैं, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि उसके कपड़े सही सलामत रहते हैं। ये बात समझ से परे है कि सिया को रघु ये बात क्यों नहीं बताता कि भारद्वाज ने षड्यंत्र कर उसके द्वारा मुख्यमंत्री की हत्या करवाई है, इससे सिया की सारी गलतफहमी दूर हो जाती और रघु के काम में सिया बाधा नहीं पहुंचाती। इतनी कमजोर नींव पर फिल्म की इमारत (स्क्रीनप्ले) रखी गई है। ये सवाल बार-बार फिल्म देखते समय परेशान करता रहता है, लिहाजा फिल्म से जुड़ाव महसूस नहीं होता। विक्रम भट्ट का निर्देशन भी कमजोर है। हीरो के अदृश्य होने से पैदा होने वाले रोमांच को दिखाने में वे असफल रहे हैं। फिल्म में ज्यादातर समय हीरो दिखाई देता है और इसी बात से समझ में आ जाता विक्रम कितने कल्पनाशील हैं। फिल्म में एक सीन से दूसरे सीन में जुड़ाव नहीं है। विक्रम द्वारा पेश किए किरदार अजीब तरह से व्यवहार करते हैं। उन्होंने फिल्म को थ्री-डी फॉर्मेट में बनाया है, लेकिन यह मात्र पैसे की बरबादी रही क्योंकि थ्री-डी इफेक्ट्स खास प्रभावित नहीं करते। फिल्म में उन्होंने भगवान कृष्ण और हीरो के साथ होने वाले चमत्कारों को जोड़ने की बचकानी कोशिश भी की है। फिल्म का संगीत थका हुआ है। यही हाल फिल्म के हीरो इमरान हाशमी का भी है। एक ही एक्सप्रेशन लिए वे पूरी फिल्म में घूमते रहे और लगा कि बेमन से वे काम कर रहे हैं। अमायरा दस्तूर चीखने और चिल्लाने को ही अभिनय समझती हैं। अरुणोदय सिंह प्रभाव छोड़ने में असफल रहे। कुल मिलाकर 'मि. एक्स' सिनेमाघरों से गायब होने में ज्यादा वक्त नहीं लेगी। 3-डी बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्माता : मुकेश भट्ट निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीत : अंकित तिवारी, जीत गांगुली कलाकार : इमरान हाशमी, अमायरा दस्तूर, अरुणोदय सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए ",0 "चंद्रमोहन शर्मा मदारी एक सवाल है देश के उन नागरिकों से जो वोट देकर देश के प्रति अपने फर्ज का पालन करते हैं, लेकिन क्या उन्होंने अपने वोट का सही इस्तेमाल किया, क्या कभी वोट देने वालों ने गहराई से सोचा कि क्या उनके वोट को हासिल करने वाला अब अपनी भी डयूटी को पूरी ईमानदारी के साथ निभा रहा है या नहीं? इस फिल्म के डायरेक्टर ने करीब आठ साल पहले इरफान खान को लेकर 'मुंबई मेरी जान' बनाई। आम मुंबइया मसालों की फिल्मों से कोसो दूर निशिकांत कामत की इस फिल्म ने बेशक बॉक्स ऑफिस पर कोई करिश्मा न किया हो, लेकिन इस फिल्म के बाद लीक से हटकर किसी मकसद को लेकर बनी अलग ट्रैक की फिल्में पसंद करने वाली क्लास को एक ऐसा यंग डायरेक्टर मिल गया जो उनके टेस्ट को कुछ हद तक पहचानने में कामयाब था। अपनी इस फिल्म में कामत ने मदारी शब्द का प्रयोग मात्र एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है, दरअसल, कामत इस फिल्म के माध्यम से कहना चाहते हैं कि जिस तरह मदारी अपने खेल में एक जमूरे को अपने इशारों से कंट्रोल करता है, ठीक उसी तरह सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश को चलाने वाला सिस्टम भी आजादी के बाद से आज तक आम आदमी की जिंदगी को कंट्रोल करने में लगा है। बेशक, इरफान और कामत की यह फिल्म शुरुआत में बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ न बटोर पाए, लेकिन माउथ पब्लिसिटी के दम पर फिल्म अपनी लागत निकालने के साथ-साथ अच्छा-खासा मुनाफा भी कमाने का दम रखती है। कामत का यह मदारी कॉमन मैन और करप्ट सरकार के बीच के संघर्ष को पेश करने का एक माध्यम मात्र है। कहानी : निर्मल कुमार (इरफान खान) ऐसा कॉमन मैन है, जो देश के प्रति अपनी ड्यूटी समझता है। निर्मल देश में एक अच्छी सरकार बने इसके लिए अपने वोट का इस्तेमाल करता है, लेकिन इसके बाद उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि क्या उसके द्वारा चुनी गई सरकार या नेता सही काम कर रहे है या नहीं। निर्मल अपनी दुनिया में ही खुद को बिजी रखता है, उसे करप्शन या सरकार की नीतियों से कुछ लेना-देना नहीं है। निर्मल तो अपने करीब आठ साल के बेटे अपूर्व कुमार की अपने दम पर बेहतरीन परवरिश करने में लगा है। सबकुछ ठीक चल रहा है, तभी एक दिन अचानक एक ब्रिज एक्सिडेंट में अपूर्व की मौत हो जाती है। इकलौते बेटे की मौत के बाद निर्मल पूरी तरह से टूट जाता है, लेकिन निर्मल उसी क्षण यह फैसला भी लेता है कि अपूर्व की मौत के दोषियों को बेनकाब करके कानून से सजा दिलवाएगा। एक दिन निर्मल गृहमंत्री प्रशांत गोस्वामी (तुषार दलवी) के बेटे रोहन (विशेष बंसल) का किडनैप कर लेता है। होम मिनिस्टर के बेटे के किडनैप के बाद सारा शासनतंत्र हिल जाता है। इसके बाद निर्मल एक ऐसा मंझा हुआ मदारी बन जाता है, जो प्रशासन के साथ-साथ पुलिस ऑफिसर एन. वर्मा (जिम्मी शेरगिल) सहित सभी आला अफसरों को अपने इशारों पर नचा रहा है। ऐक्टिंग : इस फिल्म में इरफ़ान खान का किरदार और ऐक्टिंग कुछ साल पहले रिलीज़ हुई फिल्म 'अ वेंज़डे' के लीड किरदार नसीरुददीन शाह के किरदार की याद दिलाता है। इरफान की मौजूदगी वाला हर सीन फिल्म का खास सीन नज़र आता है। इरफान ने निर्मल कुमार के किरदार को अपने जीवंत अभिनय के साथ-साथ अपनी डायलॉग डिलीवरी और आंखों के दम पर जीवंत कर दिखाया है। पुलिस ऑफिसर एन. वर्मा के किरदार में जिम्मी शेरगिल खूब जमे हैं तो तारीफ करनी होगी मास्टर विशेष बंसल की, जिन्होंने इरफान जैसे बेहतरीन ऐक्टर के सामने अपने बेहतरीन अभिनय के दम पर अपनी खास मौजूदगी का एहसास कराया। डायरेक्शन : कामत की पिछली फिल्म 'रॉकी हैंडसम' को दर्शकों और समीक्षकों ने नकार दिया, लेकिन इस बार कामत ने अपनी हिट फिल्म दृश्यम की तर्ज पर इस फिल्म को पेश किया है। इस बार कामत का निर्देशन पहले से बेहतर लगा, बेशक कहानी की रफ्तार पर कामत कंट्रोल नहीं कर पाए और यही वजह है कि सवा दो घंटे की यह फिल्म बोझिल सी लगने लगती है, लेकिन स्क्रिप्ट की डिमांड पर कामत का ऐसा करना भी जरूरी था, वर्ना फिल्म मुंबइयां मसाला फिल्म बनकर रह जाती। कामत ने हर किरदार को उभरने का मौका दिया तो कहानी की डिमांड के मुताबिक पहाड़ों से लेकर रेगिस्तान तक सही लोकेशन का चयन किया। संगीत : विशाल भारद्वाज और सनी इंदर बावरा का संगीत कहानी की डिमांड के मुताबिक है। वैसे भी अक्सर ऐसी थ्रिलर कहानी में गाने कहानी को कमजोर करने काम करते हैं, लेकिन फिल्म में बार-बार पेश किया गया गाना 'डम डमा डम' कुछ ऐसे ढंग से पेश किया गया है जो कहीं अटपटा नहीं लगता। क्यों देखें : अगर आप इरफान खान के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते ऐक्टर की बेहतरीन ऐक्टिंग देखें। फिल्म में एक ऐसा मेसेज दिया गया है जो शायद आज के माहौल में बेहद जरूरी लगता है। अगर आप इस वीकेंड पर पूरी फैमिली के साथ एक साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं तो मदारी आपके लिए है। मदारी जैसी बेहतरीन फिल्म को टैक्स फ्री किया जाना चाहिए। ",0 "बलात्कार और बदला पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं। कानून और पुलिस का साथ नहीं मिलता और बलात्कारी मुस्कुराते हुए छूट जाते हैं। इसे देख कभी प्रेमी का खून खौलता है तो कभी पति का। कभी पिता का तो कभी 'मॉम' का। चिर-परिचित प्लॉट पर आधारित होने के बावजूद श्रीदेवी अभिनीत मॉम आपको शुरू से लेकर अंत तक बांध कर रखती है। हाल ही में लड़कियों की सुरक्षा को लेकर दृश्यम, पिंक और मॉम जैसी फिल्में आई हैं। ये फिल्में दर्शाती है कि अपराधियों को छोड़ना नहीं चाहिए। पिंक में एक होनहार वकील अपराधियों को सलाखों के पीछे करता है तो दृश्यम में एक पिता अपने तरीके से बेटी को बचाता है। समाज में महिलाओं को अपनी सुरक्षा को लेकर जो चिंता है वो इन फिल्मों से व्यक्त हो रही है। दिल्ली में देवकी (श्रीदेवी) एक टीचर है। उसकी दो बेटियां हैं जिसमें से बड़ी आर्या सबरवाल (सजल अली) की उम्र 18 वर्ष के करीब है। अपने दोस्तों के साथ एक पार्टी में वह जाती है जहां पर उसका क्लास मेट मोहित, उसका भाई और दो अन्य लोग बलात्कार करते हैं। सबूतों के अभाव में ये अपराधी छूट जाते है। पुलिस अफसर मैथ्यु फ्रांसिस (अक्षय खन्ना) चाह कर भी देवकी और आर्या की मदद नहीं कर पाता। देवकी और उसका पति बेहद दु:खी हैं। ऐसे समय दया शंकर (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) नामक एक प्राइवेट जासूस देवकी की मदद के लिए आगे आता है। किस तरह से देवकी अपराधियों को सबक सिखाती है, यह फिल्म का सार है। इस फिल्म को रवि उदयावर, गिरीश कोहली और कोना वेंकट राव ने लिखा है। बलात्कार और बदले के साथ उन्होंने कुछ उप-कहानियां भी मुख्य कहानी से जोड़ी है। मसलन मां और बेटी के रिश्ते में तनाव, युवा लड़की की सुरक्षा को लेकर उसके माता-पिता की चिंता, बलात्कार को लेकर लचर कानून, जैसी कुछ बातें फिल्म को अलग लुक देती है। फिल्म को दो भागों में बांटा गया है। पहला भाग बलात्कार होने के बाद की पीड़ा को दर्शाता है और यह काफी दर्दनाक है। बलात्कार पीड़िता को ताउम्र इस दर्द से गुजरना पड़ता है, साथ ही उसके परिवार का हर सदस्य इस दर्द को भोगता है। फिल्म का यह हिस्सा आपको बैचेन कर देता है। आर्या के खौफ और दर्द को सिनेमाघर में बैठा हर दर्शक महसूस करता है और यह निर्देशक रवि उदयावर की कामयाबी है। आप आर्या के माता-पिता की असहायता को भी महसूस करते हैं कि वे कुछ नहीं कर पाते। यहां निर्देशक ने एक उम्दा दृश्य रखा है। अपराधियों को अदालत बेकसूर करार देती है तो आर्या के पिता एक बलात्कारी को घूसा जड़ देते हैं और उन्हें सजा हो जाती है। देवकी कहती है कि इस देश में रेपिस्ट छूट जाते हैं और उन्हें एक चांटा मारने वाले को सजा हो जाती है। यह सीन हमारे समाज, देश और कानून के बारे में काफी कुछ कह जाता है। फिल्म का दूसरा भाग थ्रिलर में परिवर्तित हो जाता है, जिसमें देवकी अपराधियों को अपने तरीके से सजा देती है। यह भाग थोड़ा अविश्वसनीय है। अपराधियों को जिस तरह से देवकी सबक सिखाती है, यह देख अच्छा जरूर लगता है, लेकिन जिस तरह से वह यह सब करती है उस पर यकीन कम होता है। निर्देशक रवि यहां थोड़ा बहक गए और उन्होंने श्रीदेवी पर कुछ ज्यादा ही फोकस कर दिया। इससे नवाजुद्दीन सिद्दीकी और अक्षय खन्ना के किरदारों को उभरने का अवसर नहीं मिल पाया। बावजूद इसके ‍फिल्म के खत्म होने तक रूचि बनी रहती है। फिल्म में देवकी और उसके परिवार का सम्पन्न दिखाया गया है। वे साधन-सम्पन्न हैं और हर तरह की मदद लेकर अपराधियों को सजा दे सकते हैं, लेकिन देश में कई ऐसी बलात्कार पीड़ित महिलाएं होंगी जो साधन सम्पन्न नहीं हैं क्या उन्हें न्याय मिलता होगा? क्या सबकी 'मॉम' इतनी शक्तिशाली है? क्या कानून को 'मॉम' जैसा ताकतवर नहीं होना चाहिए? ऐसे सवाल फिल्म देखते समय दिमाग में उभरते हैं। फिल्म में प्रतिभाशाली कलाकारों का समूह है। श्रीदेवी का अभिनय शानदार है। उन्हें अपने अभिनय में कई रंग दिखाने का अवसर मिला है और जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया है। अस्पताल में जब पहली बार अपनी बेटी का बलात्कार होने के बाद मिलती हैं, उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। उनकी संवाद अदायगी जरूर कहीं-कहीं दोषपूर्ण है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी जब-जब स्क्रीन पर आते हैं, तनाव से भरी इस फिल्म में थोड़ी राहत मिलती है। एक अलग ही हुलिया और अभिनय का अंदाज उन्होंने अपनाया है और हमेशा की तरह उनका अभिनय जबरदस्त रहा है। आर्या के रूप में सजल अली खूबसूरत लगीं और श्रीदेवी के अभिनय के स्तर को उन्होंने 'मैच' किया है। अक्षय खन्ना के पास ज्यादा करने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन कड़क पुलिस ऑफिसर के रोल में वे जमे। आर्या के पिता के रूप में अदनान सिद्दीकी और खलनायक जगन के रूप में अभिमन्यु सिंह का अभिनय उल्लेखनीय है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक एआर रहमान ने दिया है और तारीफ करनी होगी रहमान के संगीत की, जिसके कारण 'मॉम' को ताकत मिली है। प्रोडक्शन डिजाइन, सिनेमाटोग्राफी तारीफ के काबिल है। संपादन दूसरे भाग में थोड़ा ढीला है और यहां पर फिल्म को छोटा किया जा सकता था। मॉम को वास्तविकता के निकट रखने की कोशिश की गई है, लेकिन जो हल सुझाया गया है वो वास्तविक नहीं लगता, बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है। बैनर : ज़ी स्टुडियो, मैड फिल्म्स, थर्ड आई पिक्चर्स निर्माता : बोनी कपूर, सुनील मनचंदा, नरेश अग्रवाल, मुकेश तलरेजा, गौतम जैन निर्देशक : रवि उदयावर संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : श्रीदेवी, अक्षय खन्ना, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सजल अली, अदनान सिद्दीकी, अभिमन्यु सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट 43 सेकंड ",1 " टी-सीरिज वाले अपनी फिल्मों से ज्यादा मेहनत उसके संगीत पर करते हैं। संगीत लोकप्रिय होता है तो खूब बिकता है और उसके कारण फिल्मों को भी अच्‍छी आमदनी हो जाती है। ये फॉर्मूला उन्होंने कई बार आजमाया है और अक्सर कारगर साबित हुआ है। यारियां' में नए कलाकार हैं। कम बजट में फिल्म बना दी गई है, लेकिन फिल्म का संगीत जोरदार है। 'एबीसीडी', 'सनी सनी', 'बारिश' जैसे कई गानें धूम मचाए हुए हैं, जो दर्शकों को सिनेमाघर तक खींच लाए हैं। फिल्म का निर्देशन किया है दिव्या खोसला कुमार ने। दिव्या ने 20 से ज्यादा म्युजिक बीडियो निर्देशित किए हैं और उनकी यही छाप 'यारियां' पर भी नजर आती हैं। पूरी फिल्म को उन्होंने म्युजिक वीडियो की तरह बनाया है। हर फ्रेम खूबसूरत है, स्लोमोशन और स्टाइलिस्ट शॉट है, बेमौसम बर्फ गिर रही है या बारिश हो रही है। ये सब पांच से दस मिनट के म्युजिक वीडियो में बिना कहानी के भी अच्‍छा लगता है, लेकिन यदि आप फिल्म बना रहे हो तो एक अदद कहानी की जरूरत होती है। यारियां' में सबसे कम मेहनत स्क्रिप्ट पर ही की गई है। ऐसा लगता है कि पहले गाने बना लिए गए और फिर उनकी सिचुएशन बनाते हुए स्क्रिप्ट तैयार की गई। कहानी लिखने पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई। स्टुडेंट ऑफ द ईयर, जो जीता वही सिकंदर, मैं हूं ना, लगान, फाल्तू जैसी फिल्मों को देख कहानी तैयार कर दी गई। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन सुपरहिट फिल्मों की कहानियों की नकल करने का काम भी ठीक से नहीं हुआ। कहानी और स्क्रिप्ट्स में कमजोरियां ही कमजोरियां हैं। सिक्किम में एक कॉलेज है जहां उसी तरह के टिपिकल स्टुडेंट हैं जैसा आप अनेक फिल्मों में देखते आए हैं। एक 'गे' टाइप है, एक हीरो का साइडकिक है, हीरो का दिल पढ़ने की बजाय पजामा पार्टीज़ में लगता है। छात्राओं की बात की जाए तो ऐसा लगता है ‍कि जैसे फैशन परेड चल रही हों। हॉट लड़कियों की स्कर्ट उड़ती रहती है और जो लड़कियां पढ़ने वाली रहती हैं उन्हें बहनजी टाइप बताया गया है। स्टु डेंट्‍स के तो हॉर्मोंस में बदलाव आ रहा है इसलिए उनका एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक है, लेकिन उम्रदराज टीचर्स भी उनकी तरह हरकतें करते रहते हैं। लड़के बेधड़क लड़कियों के होस्टल में किस करने के लिए पहुंच जाते हैं। इमोशन डालने के लिए मां-बेटे और दोस्ती के नाम पर आंसू बहाऊ दृश्यों की भरमार है। हीरोगिरी दिखाने का भी इंतजाम किया गया है। एक ऑस्ट्रेलियाई, कॉलेज की जगह रिसोर्ट और केसिनो बनाना चाहता है। कॉलेज का प्रिंसीपल इसके लिए तैयार नहीं होता तो वह एक चैलेंज देता है कि यदि उसके कॉलेज के स्टुडेंट्स संस्कृति और खेलों में ऑस्ट्रेलियाई स्टुडेंट्स को हरा देते हैं तो वह कॉलेज पर कब्जा नहीं करेगा। संस्कृति के नाम पर ऊटपटांग हरकतें होती हैं और ये इतनी लंबी चलती हैं कि फिल्म खत्म होने का इंतजार असहनयीय हो जाता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य गढ़े गए हैं जिनका कहानी से ताल्लुक नहीं है। इन दृश्यों की असेम्बलिंग कर दी गई है। फिल्म देखते समय कई सवाल उठते हैं, जैसे प्रिंसीपल इन स्टुडेंट्स को ऑस्ट्रेलियाइयों से मुकाबला करने वाली टीम में क्यों चुनता है जिनके खराब व्यवहार के लिए वह नाराज था। दीप्ति नवल उस ऑस्ट्रेलियाई लड़के के चोटिल हाथ पर अचानक दवाई लगाने क्यों पहुंच जाती है जिसने उसके बेटे को मारा था। चूंकि दीप्ति को महान दिखाना था, इसलिए इस दृश्य को फिल्मा लिया गया जबकि कहानी में ये कही से फिट नहीं होता। फिल्म के क्लाइमेक्स में 'माउंटेन क्लाइंबिंग' जैसे कठिन काम को हास्यास्पद बना दिया गया जिसमें भारतीय स्टुडेंट जीत जाता है। फिल्म में ज्यादातर नए कलाकार हैं, जो अभिनय के मामले में बेहद कच्चे हैं। हिमांश कोहली और रकुल प्रीत सिंह का पहला प्रयास औसत दर्जे का है। निकोल फारिया का काम सिर्फ सेक्सी दिखना था। देवांशु शर्मा, श्रेयस पर्दीवाला, ईवलिन शर्मा भी कोई खास असर नहीं छोड़ पाए। गुलशन ग्रोवर, दीप्ति नवल और स्मिता जयकर जैसे सीनियर कलाकारों ने सिर्फ पैसे के लिए यह फिल्म की। दिव्या कुमार खोसला ने फिल्म का प्रस्तुतिकरण युवाओं को ध्यान में रखकर किया और फिल्म को कलरफुल बनाया, लेकिन सिर्फ शॉट टेकिंग ही फिल्म निर्देशक का काम नहीं होता। फिल्म के अंत में वे लिखती हैं कि 'बच्चा संभालना और फिल्म निर्देशित करना सबसे मुश्किल दो काम हैं और मैंने ये साथ में किए।' पता नहीं दर्शक उनके 'यारियां' बनाने का अहसान कैसे चुका पाएंगे? बैनर : टी सीरिज सुपर कैसेट्स इं‍डस्ट्रीज लि. निर्माता : भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : दिव्या खोसला कुमार संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती, मिथुन, यो यो हनी सिंह, आर्को पार्वो मुखर्जी, अनुपम अमोद कलाकार : हिमांश कोहली, रकुल प्रीत सिंह, निकोल फारिया, देवांशु शर्मा, इवलिन शर्मा, गुलशन ग्रोवर, दीप्ति नवल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट ",0 " निर्माता-निर्देशक विशाल भारद्वाज को साहित्य आकर्षित करता है, लिहाजा उनकी फिल्मों की कहानी ज्यादातर शेक्सपीयर, रस्किन बांड जैसे लेखकों की रचनाओं पर आधारित होती हैं। उन्होंने अपनी ताजा फिल्म एक थी डायन मुकुल शर्मा द्वारा लिखित लघु कहानी के आधार पर बनाई है। मुकुल शर्मा अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा के पिता हैं और फिल्म के लिए कहानी में जो बदलाव किए हैं उसमें मुकुल को भी जोड़ा गया है। भारत में बनने वाली हॉरर या सुपरनेचुरल थ्रिलर मूवी से ‘एक थी डायन’ काफी अलग हैं। ये उन हॉरर फिल्मों की तरह नहीं है जो तय शुदा फॉर्मूलों के अनुसार बनती हैं और जो हॉरर कम कॉमेडी ज्यादा लगती हैं। बचपन में सभी को भूत-चुड़ैल की अंधेरी दुनिया के बारे में जानने की उत्सुकता रहती है। भले ही बच्चों को डर लगता हो, लेकिन ऐसे किस्से वे बड़े चाव से सुनते हैं। भूत-डायनों को लेकर उनकी अपनी कल्पनाएं होती हैं और यही चीज उन्हें ताउम्र डराती हैं क्योंकि बचपन की डरावनी बातें हमेशा याद रहती हैं। फिल्म का हीरो बोबो (इमरान हाशमी) बचपन में डायन, पिशाच और शैतानों की दुनिया के बारे में किताबें पढ़ता है और तरह-तरह की कल्पना करता है। अपनी छोटी बहन मीशा को भी वह ये बातें बताता हैं। बोबो और मीशा की मां इस दुनिया में नहीं है। उनके पिता की मुलाकात डायना (कोंकणा सेन शर्मा) नामक महिला से लिफ्ट में होती है। वे कार में उसे लिफ्ट देते हैं और बाद में शादी कर लेते हैं। बोबो अपनी इस नई मां से बहुत चिढ़ता है और उसे डायन मानता है। उसे पिशाच और डायनों के बारे सारी जानकारियां रहती हैं, जैसे, डायन की जान उसकी चोटी में और पिशाच की उसकी गर्दन में होती है। डायन की ताकत रात के किस समय बढ़ जाती है। कैसे वह अपनी ताकत बढ़ाती है, आदि-आदि। बोबो की बहन मीशा की मौत दुर्घटनावश हो जाती है और इसका जिम्मेदार वह डायना को मानता है। बोबो के बचपन वाले हिस्से को फिल्म का एक बड़ा हिस्सा समर्पित किया गया है और नि:संदेह यह फिल्म का सबसे बेहतरीन हिस्सा है। बाल बोबो के रूप में विशेष तिवारी ने कमाल का अभिनय किया है और उसकी बहन का रोल निभाने वाली लड़की भी बेहद क्यूट है। नरक को लेकर उनकी कल्पनाएं, रात को भाई-बहन का रजाई के अंदर टॉर्च लेकर डरावनी ‍किताबें पढ़ना, पिता के साथ भाई-बहन के संवाद, जैसे कई दृश्य हैं जो बेहतरीन बन पड़े हैं। बोबो बड़ा होता है, लेकिन डायन को लेकर उसका खौफ कम नहीं होता है। उसका अतीत बार-बार उसका पीछा करता है। तरामा (हुमा कुरैशी) नामक उसकी गर्लफ्रेंड बोबो को समझ नहीं पाती है। बोबो को लगता है कि डायनें अभी भी उसके इर्दगिर्द हैं। उसकी मुलाकात एक विदेशी लड़की लिसा दत्ता (कल्कि कोएचलिन) से होती है और उसमें भी बोबो को डायन नजर आती है। युवा बोबो वाला हिस्सा इतना प्रभावी नहीं है और कई बातें अस्पष्ट रह जाती हैं? मसलन मीशा मौत के बाद डायना कहां गायब हो जाती है? बड़े होने पर बोबो उसे क्यों नहीं खोजता? उसके साइकेट्रिक की रहस्यम तरीके से मौत होना? युवा बोबो सम्मोहन के जरिये अपने अतीत से रूबरू होता है, उसे ये सारी बातें याद क्यों नहीं रहती जबकि वह 11 वर्ष का था और इस उम्र की तो बातें याद रहती हैं। बोबो की मेजिक ट्रिक्स भी बचकानी हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स भी लेखक ठीक से सोच नहीं पाए और ये बी-ग्रेड की हॉरर मूवी जैसा है, इसके बावजूद फिल्म अच्छी लगती है, बांध कर रखती है, उत्सुकता बनाए रखती है तो इसका श्रेय जाता है निर्देशक कनन अय्यर को। कनन का प्रस्तुतिकरण बेहद दमदार है। उन्होंने डरावने दृश्य कम रखे हैं, लेकिन जितने भी हैं, रोंगटे खड़े करते हैं। खासतौर पर मीशा की मौत के बाद का दृश्य, बोबो का डायन का पीछा करना, बोबो-मीशा का लिफ्ट से नरक में जाना बेहद प्रभावी हैं। कनन ने इंटरवल तक जबरदस्त फिल्म बनाई है। आगे जानने की उत्सुकता बनी रहती है, लेकिन इसके बाद उन्हें लेखकों का वैसा साथ नहीं मिला। 1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत तीनों एक्ट्र ेसे स में सबसे प्रभावी रही हैं कोंकणा सेन शर्मा। उनके दृश्य बेहद डरावने हैं और उन्होंने अपने इर्दगिर्द रहस्य का ताना-बाना अच्छी तरह बुना। कल्कि कोएचलिन का रोल कन्फ्यूजन पैदा करने के लिए रखा गया है, इसे और बेहतर लिखा जा सकता था। इमरान हाशमी और हुमा कुरैशी का अभिनय औसत रहा। फिल्म का संगीत अच्छा है। दो गीत ‘काली काली’ तथा ‘यारम’ न केवल अच्छे लिखे गए हैं बल्कि इनकी धुनें भी ऐसी हैं कि पहली बार में ही पसंद आ जाते हैं। ‘यारम’ का पिक्चराइजेशन बेहतरीन है। सौरभ गोस्वामी की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है, हालांकि विशाल भारद्वाज की पिछली सारी फिल्मों जैसा इसमें भी परदे पर अंधेरा ज्यादा रखा गया है। एक थी डायन जिस उम्मीद के साथ शुरू होती है उस उम्मीद के साथ खत्म तो नहीं होती, लेकिन यह फिल्म अपनी मौलिकता और प्रस्तुतिकरण के कारण बांध कर रखती है। विक्रम भट्ट की पकाऊ हॉरर फिल्मों से थक चुके दर्शकों को यह फिल्म राहत देती है। बैनर : बालाजी टेलीफिल्म्स लि., विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर, विशाल भारद्वाज, रेखा भारद्वाज निर्देशक : कानन अय्यर संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इमरान हाशमी, कोंकणा सेन शर्मा, कल्कि कोएचलिन, हुमा कुरैशी सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 " चंद्रमोहन शर्मा बॉक्स ऑफिस पर इन दिनों जब मेगा बजट, मल्टिस्टारर मसाला फिल्मों का बोलाबाला है, ऐसे में उन फिल्मों के लिए डिस्ट्रिब्यूटर और थिएटर मिलना आसान नहीं होता जो चालू मसाला फिल्मों की भीड़ से दूर हटकर उन फिल्मों को समाज को एक अच्छा मेसेज देने की ईमानदारी से पहल की जाती है। शायद यही वजह है, इस शुक्रवार को जब जबर्दस्त विवादों से घिरने के बाद और दमदार प्रमोशन के बीच एक मल्टिस्टारर, मेगा बजट फिल्म ने जब देशभर के ज्यादातर सिनेमाघरों में कब्जा जमा लिया है तो ऐसे माहौल में पूरी ईमानदारी के साथ बनाई गई 'धनक' जैसी साफ सुथरी फिल्म को बनाना तो आसान है, लेकिन बनने के बाद थिएटरों तक पहुंचाना माउंट एवरेस्ट चढाई के समान है। वैसे, ग्लैमर इंडस्ट्री और दर्शकों की एक खास चुनिंदा क्लास में इस फिल्म के डायरेक्टर नागेश कुकूनूर की अलग पहचान बन चुकी है, नागेश की पिछली फिल्मों की बात करें तो इससे पहले 'हैदराबाद ब्लुज', 'तीन दीवारें', 'बॉलिवुड कॉलिंग', 'डोर' और 'लक्ष्मी' जैसी फिल्मों से नागेश ने इतना तो साबित किया कि बॉक्स ऑफिस ट्रेंड के विपरीत अलग मिजाज और हर फिल्म में एक मेसेज देने का दम उनमें है। एक बार फिर नागेश ने अपने मिजाज की फिल्म बनाई है, ऐसा लगता है नागेश को राजस्थान से कुछ ज्यादा ही लगाव रहा है, इस फिल्म में नागेश ने राजस्थान की खूबसूरती को इस फिल्म में बेहतरीन ढंग से पेश किया है। देखें, फिल्म धनक का ट्रेलर:- कहानी: इस फिल्म की कहानी राजस्थान के एक छोटे से गांव में रहने वाले आठ साल के छोटू (कृष छाबरिया) और उसकी बडी बहन परी (हेतल गढा) की है। छोटू आंखों से देख नहीं सकता है, छोटू की बहन परी का बस एक ही सपना है कि छोटू अपनी आंखों से इस खूबसूरत दुनिया को देख सके। परी चाहती है कि छोटू के नौंवे जन्मदिन से पहले उसका भाई अपनी आंखों से दुनिया देखें। परी दिल ही दिल में छोटू को आंखें दिलाने की पूरी तरह से ठान चुकी है, अपने इस मकसद के लिए परी खूब मेहनत कर रही है, लेकिन छोटू की आंखों के ऑपरेशन के लिए पूरे पैसे का इंतजाम नहीं हो पा रहा है। छोटू फिल्म स्टार शाहरुख खान का जबर्दस्त फैन है, इसी बीच परी शाहरुख खान का एक पोस्टर देखती है जिसमें नेत्र दान की अपील की गई है, इस पोस्टर को देखने के परी शाहरुख खान को अपने भाई की आंखों की रोशनी दिलवाने के लिए पत्र लिखती है। डाकबाबू परी का पहला पत्र तो शाहरुख खान के पते पर भिजवा देता है, लेकिन बाकी खत रोक लेता है। परी को अब शाहरुख के खत का इंतजार है, इसी बीच परी को पता लगता है कि गांव से दूर इन दिनों शाहरुख खान अपनी अगली फिल्म की शूटिंग के लिए आए हुए है, परी अपने भाई छोटू को साथ लेकर शाहरुख खान से मिलने के लिए चल देती है, गांव से शुरू हुई भाई-बहन की इस जर्नी में कई रोमांचक मोड़ आते हैं, लेकिन परी अपने भाई की आंखों की रोशनी के लिए शाहरुख से मिलने का सफर जारी रखती है। क्या परी की मुलाकात शाहरुख खान से हो पाएगी और छोटू की आंखों की रोशनी वापस आ पाएगी? इन सवालों का जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। ऐक्टिंग: पूरी फिल्म भाई-बहन के लीड किरदारों के आसपास घूमती है। इन लीड किरदारों में हेतल गढा और कृष छाबरिया ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है, इन दोनों बाल कलाकारों की तारीफ करनी होगी कि इन्होंने अपने जीवंत अभिनय से इन किरदारों में जान डाल दी। अन्य कलाकारों में सुरेश मेनन, विभा छिब्बर, संजना सिंह अपने अपने किरदार में फिट है। डायरेक्शन: नागेश कुकूनूर ने एक बार फिर अपने मिजाज की ऐसी फिल्म बनाई है जो उनके फैंस की कसौटी पर यकीनन खरा उतरने का दम रखती है। नागेश ने इस फिल्म में कभी उम्मीद का दामन ना छोड़ने का सार्थक मेसेज बडी सरलता के साथ दिया है। इस फिल्म में नागेश ने स्क्रिप्ट के साथ कहीं छेड़छाड़ नहीं की तो वहीं बॉक्स ऑफिस का मोह छोड़ पूरी ईमानदारी के साथ ऐसी फिल्म बनाई जिसे रिलीज के पहले दिन से ही टैक्स फ्री होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजस्थान की नयनाभिराम लोकेशन इस फिल्म का प्लस पॉइंट है। संगीत: दमादम मस्त कलंदर सहित फिल्म में कई गाने है, लेकिन सभी गाने फिल्म के माहौल पर फिट है, इन गानों में लोकगीतों और लोकधुनों का समावेश है जो देखने और सुनने में अच्छा लगता है। क्यों देंखें: अगर आप अच्छी फिल्मों के शौकीन है, नागेश की फिल्मों के फैन है तो इस फिल्म को बच्चों के साथ देखने जाए यकीन मानें अगर आप स्क्रीन पर इस बार कुछ नया और अच्छा देखने के शौकीन हैं तो धनक आपके लिए है। ",1 "बैनर : सिने रास एंटरटेनमेंट प्रा.लि., प्रकाश झा प्रोडक्शन्स निर्माता : प्रकाश झा निर्देशक : सुधीर मिश्रा संगीत : न िशा त खान कलाकार : इरफान खान, चित्रांगदा सिंह, अरुणोदय सिंह, अदिती राव, सौरभ शुक्ला, सुशांत सिंह, यशपाल शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 15 मिनट * 16 रील कुछ निर्देशक अपराधी और अपराध जगत को बेहतरीन तरीके से सिल्वर स्क्रीन पर पेश करते हैं। इनमें सुधीर मिश्रा का भी नाम लिया जा सकता है। ‘इस रात की सुबह नहीं’ में उन्होंने मुंबई की पृष्ठभूमि पर अपराध जगत को दिखाया था। उस फिल्म में जबरदस्त थ्रिल था। कुछ वैसा ही थ्रिल मिश्रा की नई फिल्म ‘ये साली जिंदगी’ को देख महसूस होत है। मिश्रा ने इस बार दिल्ली और उसके आसपास की जगह को चुना है। ‘ये साली जिंदगी’ अपराध और इश्क के घालमेल की कहानी है। आदतन अपराधी अपराध करने में एक नशा महसूस करता है और जब इश्क का भूत उस पर सवार हो जाता है तो वह अपनी जान की भी परवाह नहीं करता है। दो गैंगस्टर्स कुलदीप (अरुणोदय सिंह) और अरुण (इरफान खान) इश्क के कारण अपनी-अपनी जिंदगी इस कदर उलझा देते हैं कि लगातार फँसते चले जाते हैं। उन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आता। कदम-कदम पर धोखा, साजिश और अविश्वास का उन्हें सामना करना पड़ता है। प्रीति (चित्रांगदा सिंह) का अरुण यह हकीकत जानते हुए भी दीवाना है कि वह श्याम (विपुल गुप्ता) को चाहती है। हर कदम पर प्रीति की खातिर वह अपनी जान जोखिम में डालता है। दूसरी ओर कुलदीप अपनी पत्नी (अदिति राव हैदरी) को इतना चाहता है कि उसकी खातिर वह अपराध की दुनिया को छोड़ने के लिए तैयार है क्योंकि उसे शक है कि उसकी खूबसूरत पत्नी की जिंदगी में कोई और है। अरुण और कुलदीप के रास्ते टकराते हैं और उनकी कहानी उलझती जाती है। निर्देशक सुधीर मिश्रा ने कहानी को जटिल तरीके से परदे पर प्रस्तुत किया है, लेकिन यह प्रस्तुतिकरण अपील करता है। तेज गति से भागती इस फिल्म में कई उतार-चढ़ाव और घुमाव देखने को मिलते हैं। अगले पल क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। मिश्रा ने कई फ्लेशबैक, ढेर सारी लोकेशन्स, तेजी से दौड़ता समय और ढेर सारे किरदारों के साथ कहानी को पेश किया है, जिससे दर्शक को हर वक्त अलर्ट रहना पड़ता है वरना वह कन्फ्यूज हो सकता है। फिल्म में दो मुख्य किरदारों की कहानी के अलावा कई समानांतर कहानियाँ चलती हैं, जो आपस में गुँथी हुई है। हर कहानी अपने आप में मजेदार है। सारे किरदार ग्रे-शेड लिए हुए है। एक अजीब-सा पागलपन सबके सिर पर सवार है। वे कब क्या कर बैठे कहा नहीं जा सकता? पैसों के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनकी यह सनक फिल्म के थ्रिल को धार प्रदान करती है। चूँकि फिल्म के सारे किरदार अपराधी हैं, इसलिए संवादों में जमकर अपशब्दों और गालियों का इस्तेमाल हुआ है। फिल्म के नाम में ‘साली’ शब्द पर आपत्ति लेने वाला सेंसर गालियों के मामले में उदार निकला। अपशब्दों के कारण दर्शकों का एक वर्ग फिल्म से दूर रहना ही पसंद करेगा। यदि इतने अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं भी किया जाता तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता। अरुणोदय और अदिति के बीच कई किसिंग और बोल्ड दृश्य हैं। फिल्म में कुछ बेहतरीन गीत हैं जिन्हें स्वानंद किरकिरे ने ‍िलखा है और निशात खान ने इनकी मधुर धुन बनाई हैं। संपादन और बैकग्राउंड म्यूजिक उल्लेखनीय है। सशक्त कलाकारों की इसमें भीड़ मौजूद है। इरफान खान के अभिनय में कई खोट नजर नहीं आती है। अरुणोदय सिंह तेजी से एक अच्छे अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनात रहे हैं। आकर्षक चित्रांगदा सिंह का अभिनय और स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त है। अदिति राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, यशपाल शर्मा, सुशांत सिंह सहित सारे कलाकारों ने बेहतरीन एक्टिंग की है। कुल मिलाकर ‘ये साली जिंदगी’ एक डार्क और मसाला मूवीज से अलग है। यदि लीक से हटकर कुछ देखना चाहते हैं तो ‘ये साली जिंदगी’ आपके लिए है। ",1 " गॉडजिला जैसी फिल्में अपनी भव्यता और स्पेशल इफेक्ट्स के लिए देखी जाती हैं। निर्देशक गारेथ एडवर्ड्स की 'गॉडजिला' बेहद भव्य है। पैसा पानी की तरह बहाया गया है और विध्वंस के वो सारे दृश्य फिल्म में मौजूद हैं, जो इस तरह की फिल्मों के जान होते हैं। लेकिन फिल्म की कहानी रूटीन है और इसमें कुछ नया नहीं है, इसके बावजूद फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है क्योंकि नियमित अंतराल में स्पेशल इफेक्ट्स से लैस दृश्य परदे पर आते रहते हैं जो थ्री-डी तकनीक में खास प्रभाव छोड़ते हैं। जो ब्रॉडी जापान स्थित जंजीरा पॉवर प्लांट में बतौर न्यूक्लीयर वैज्ञानिक के काम करता है। इसी प्लांट में उसकी पत्नी सैंड्रा मारी जाती है। इसे एक दुर्घटना बताया जाता है, लेकिन जो को विश्वास है कि यह दुर्घटना नहीं है। ऐसा कुछ घटा है जो उससे छिपाया जा रहा है। जो अपने रिसर्च जारी रखता है, लेकिन उस पर किसी को विश्वास नहीं है। उसे झक्की माना जाता है। ऐसा मानने वालों में उसका बेटा फोर्ड भी है। चौदह वर्ष इस दुर्घटना को बीत चुके हैं। सेनफ्रांस्सिको में रहने वाले जो के बेटे फोर्ड को पता चलता है कि उसके पिता जो को जापान में गिरफ्तार कर लिया गया है क्योंकि वे निषेध क्षेत्र में घुस गए थे। वह अपने पिता के पास जापान पहुंचता है और अपने पिता के साथ उसे भी पकड़ लिया जाता है। पिता-पुत्र का सामना होता है दो राक्षसों से जिनकी खुराक रेडिएशन है और जो पल भर में विश्व भर में तबाही मचा देते हैं। फोर्ड किस तरह से स्थिति से निपटता है और अपने परिवार से मिलता है, यह फिल्म का सार है। फिल्म का पहला घंटा थोड़ा स्लो है और एक्शन शुरू होने में काफी वक्त लिया गया है। एक्शन देखने आए दर्शकों में इस वजह से बैचेनी होने लगती है। खासतौर पर गॉडजिला को पहली बार स्क्रीन पर दिखाने में भी काफी देरी की गई है। फिल्म का यह हिस्सा उन दर्शकों को अच्छा लगता है जो स्क्रीन पर चल रही बातों, जिनमें न्यूक्लीयर प्लांट और दैत्यों को तैयार करने की साजिश के बारे में बात की गई है, को समझ पाते हैं। सैंड्रा के मारे जाने का सीन कमाल का है, जिसमें उसका पति जो ही प्लांट के दरवाजे को बंद करता है ताकि रेडिएशन ना फैले, ज‍बकि उसकी पत्नी दरवाजे के मुहाने तक पहुंच जाती है। दूसरा घंटा एक्शन पैक्ड है। तबाही मचाते भीमकाय दैत्य ऊंची-ऊंची बिल्डिंग, पुल, हेलीकॉप्टर, हवाई जहाज, रेल को पल भर में नष्ट कर देते हैं। ये दृश्य इतनी सफाई से शूट किए गए हैं कि बिल्कुल वास्तविक लगते हैं। इनसे मुकाबला करते सैनिकों के दृश्य भी शानदार हैं। क्लाइमैक्स में गॉडजिला बनाम इन दैत्यों की लड़ाई फिल्म का प्लस पाइंट है। गॉडजिला जब गुर्राता है तो दर्शकों में सिरहन दौड़ जाती है। जिन्होंने पहली बार गॉडजिला को देखा है, उन्हें ये दृश्य बेहद पसंद आएंगे, लेकिन जिन्होंने देख रखा है, उन्हें जरूर थोड़ी निराशा हाथ लगती है। फिल्म में कई जगह लॉजिक को भी दरकिनार रख दिया गया है और एक्शन दृश्यों की जगह बनाई गई है। फोर्ड के रूप में एरन टेलर-जॉनसन का काम ठीक है। हालांकि उनका रोल इस तरह नहीं लिखा गया है कि वे फिल्म में 'हीरो' की तरह नजर आए, इस वजह से दर्शक उनसे जुड़ नहीं पाते हैं। जो ब्रॉडी के रूप में ब्रायन क्रांस्टन का अभिनय बेहद प्रभावी है। काश, उनका रोल और लंबा होता। अन्य कलाकारों के रोल छोटे हैं। कुछ बोझिल क्षणों के बावजूद गॉडजिला दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल है। निर्माता : थॉमस टूल, जॉन जश्नी, मैरी पैरेंट, ब्रायन रोजर्स निर्देशक : गारेथ एडवर्ड्स कलाकार : एरन टेलर-जॉनसन, केन वाटानबे, एजिलाबेथ ओस्लन, सैली हॉकिंस, ब्रायन क्रैंस्टन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट ",1 "कुल मिलाकर ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ साधारण लोगों की कहानी है, जिसमें मनोरंजन की आड़ में कुछ संदेश छिपे हुए हैं। निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : श्याम बेनेगल संगीत : शांतुनु मोइत्रा कलाकार : श्रेयस तलपदे, अमृता राव, रवि किशन, ईला अरुण, दिव्या दत्ता, यशपाल शर्मा, राजेश्वरी सचदे व, रवि झांकल शॉपिंग मॉल्स को ही इंडिया की तरक्की समझने वाले ये भूल जाते हैं कि भारत की पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी गाँवों में रहती हैं, जिन्हें कई मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं मिल पाती हैं। ईमेल और एसएमएस के जमाने में भी कई लोग अनपढ़ हैं और समस्याओं से जूझ रहे हैं। फिल्मों से भी अब गाँव गायब हो चले हैं। इन गाँव वालों की सुध ली है निर्देशक श्याम बेनेगल ने। सज्जनपुर गाँव के जरिये श्याम ने ग्रामीण जीवन की झलक दिखलाई है और गुदगुदाते हुए अंदाज में अपनी बात सामने रखी है। कहानी है पोस्ट ऑफिस के बाहर बैठे एक पत्र लेखक की और उसके सहारे पृष्ठभूमि में घटनाएँ दिखाई गई हैं। यह पत्र लेखक अनपढ़ लोगों के प‍‍त्र लिखता है और उन्हें मिले पत्रों को सुनाता है। श्याम बेनेगल का कहना है कि मुंबई जैसे शहर में भी कुछ माह पूर्व तक ऐसे लोग थे। पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत के भीतरी इलाकों में आज भी इस तरह के पत्र-लेखक रहते हैं। महादेव (श्रेयस तलपदे) लोगों के पत्र लिखता है और पैसा कमाता है। एक दिन उसके पास पत्र लिखवाने कमला (अमृता राव) आती है, जिसे महादेव बचपन में चाहता था। कमला को देख महादेव का पुराना प्यार जाग उठता है, लेकिन उसे यह जानकर दु:ख होता है कि कमला की शादी हो चुकी है और उसका पति मुंबई में है। कमला के पति को महादेव ऐसे खत लिखता है, ताकि वह कमला से नफरत करे। इस प्रेम कहानी में दूसरी कहानियाँ गूँथी गई हैं। ग्रामीण राजनीति की झलक सरपंच के चुनाव में देखने को मिलती है, जिसमें एक गुंडे की बीवी के खिलाफ किन्नर चुनाव लड़ता है। बाल विधवा और कंपाउंडर का प्रेम और उसका अंजाम। अंधविश्वास की मारी एक माँ जो अपनी मंगली बेटी पर से अशुभ साया उठाने के लिए उसकी शादी कुत्ते से करवाती है। गाँव से शहर पलायन की कहानी कमला के पति के जरिये दिखाई है। शॉपिंग मॉल के लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण और उन खबरों को सनसनीखेज तरीके से बताते टीवी चैनल पर एक नुक्कड़ नाटक के जरिये व्यंग्य किया गया है। निर्देशक और लेखक ने इन समस्याओं का कोई समाधान न दिखाते हुए उन्हें जस का तस पेश कर बताया है कि अभी भी भारत इन समस्याओं से जूझ रहा है। श्याम बेनेगल ने फिल्म का मूड हलका-फुलका रखा है और इन गंभीर बातों को उन्होंने व्यंग्यात्मक तरीके से पेश किया है। फिल्म की कहानी में कुछ कमियाँ हैं, लेकिन इसके उद्देश्य को देखते हुए इन्हें खारिज किया जा सकता है। दो चीज अखरती है। एक तो फिल्म की लंबाई और दूसरा गाने। फिल्म थोड़ी छोटी होती तो कहानी तेजी से आगे बढ़ती, क्योंकि कई जगह फिल्म ठहरी हुई लगती है। फिल्म के गाने थीम के अनुरूप और अर्थपूर्ण हैं, लेकिन वे फिल्म की गति में बाधा डालते हैं। फिल्म के सारे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है और इसका सारा श्रेय श्याम बेनेगल की पैनी नजर को जाता है। यह श्रेयस तलपदे के यादगार अभिनय में से एक माना जाएगा। महादेव के किरदार को उन्होंने डूबकर निभाया है। उनका चरित्र कई रंग लिए हुए है। दर्शकों को कई बार उनसे हमदर्दी होती है तो कई बार गुस्सा आता है। अमृता राव का अभिनय ठीक है। यशपाल शर्मा और ईला अरुण का अभिनय जबरदस्त है। ईला जब भी पर्दे पर आतीं दर्शकों को हँसाकर जातीं। साधु बने दयाशंकर और किन्नर बने रवि झांकल ने भी खूब हँसाया है। दिव्या दत्ता और राजेश्वरी सचदेव को उनकी योग्यता के अनुरूप भूमिकाएँ नहीं मिलीं। रविकिशन ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। अशोक मिश्रा के संवाद बोली का टच लिए हुए हैं, लेकिन समझने में आसान और चुटीले हैं। फिल्म के अन्य पक्ष साधारण हैं। कुल मिलाकर ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ साधारण लोगों की कहानी है, जिसमें मनोरंजन की आड़ में कुछ संदेश छिपे हुए हैं। ",1 "पिछले साल करोड़ों के बजट में बनी अजय देवगन स्टारर ‘शिवाय’ बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई थी और अजय के फैन्स अपने चहेते स्टार की अगली फिल्म का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। ऐसा लगता है अजय भी अब शायद यह अच्छी तरह से जान गए हैं कि उनके फैन्स उन्हें मसाला ऐक्शन फिल्म में देखना चाहते हैं। यही वजह रही अजय ने ‘शिवाय’ के बाद डायरेक्टर मिलन लूथरिया की इस फिल्म के लिए सबसे पहले डेट्स दी और फिल्म को कंप्लीट किया। रिलीज से पहले अजय की यह फिल्म उस वक्त मीडिया की सुर्खियों में आई जब जब इस फिल्म को देश में लगी इमर्जेंसी के साथ जोड़कर प्रचारित किया गया। हालांकि, पिछले महीने जब मधुर भंडारकर की इमर्जेंसी पर आधारित फिल्म ‘इंदु सरकार’ टिकट खिड़की पर टिक नहीं पाई तो फिल्म की प्रमोशन से इमर्जेंसी शब्द को निकाल ही दिया गया। वैसे, इस फिल्म का इमर्जेंसी से कुछ खास सारोकार नहीं है, बस कहानी की पृष्ठभूमि जरूर 1975 के आसपास की है, जब देश में लगी इमर्जेंसी के दौरान राजस्थान के कुछ राजघराने अपनी करोड़ों-अरबों की सम्पति को सरकारी नजरों से बचाकर किसी सुरक्षित में रखने में लगे हुए थे। इसे ऐक्शन थ्रिलर को राइटर रजत अरोड़ा ने लिखा है जो बॉक्स आफिस पर बिकाउ मसालों को अपनी कहानी में समेटने में परफेक्ट माने जाते हैं। मिलन के साथ अजय की पिछली फिल्म ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थी। ऐसे में ट्रेड पंडितों को इस फिल्म से भी बहुत उम्मीदें हैं, लेकिन अब जब मल्टिप्लेक्स कल्चर ने देश के मेजर सेंटरों से लेकर छोटे शहरों में अपनी जगह बना ली है और मल्टिप्लेक्सों पर कम बजट में बनीं लिपस्टिक अंडर बुर्का, टॉयलेट एक प्रेम कथा, बरेली की बर्फी ना सिर्फ दर्शकों द्वारा सराही जा रही है बल्कि बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही है, ऐसे में बॉलीवुड में अस्सी के दौर में दिखाई देने वाले चालू मसालों और ऐक्शन से भरी इस मेगा बजट फिल्म का मल्टिप्लेक्सों में अच्छा बिजनस नहीं होता तो फिल्म अपनी लागत भी शायद ही वसूल कर पाए। ​ स्टोरी प्लॉट : फिल्म की कहानी महारानी गीतांजलि (इलियाना डिक्रूज) के इर्दगिर्द घूमती है। देश में इमर्जेंसी लग चुकी है और इसी दौरान महारानी के आलीशान महल पर छापा पड़ता है। इस छापे में महारानी के अथाह खजाने जिसमें डायमंड, सोना, चांदी भी शामिल हैं को सरकारी अधिकारी सीज कर देते हैं। दरअसल, महारानी ने राजमहल से बरामद इस अथाह दौलत का सरकार को कोई ब्योरा नहीं दिया हुआ था। महारानी की इस अथाह दौलत को सरकारी अधिकारी दिल्ली भेजने का फैसला करते हैं और इसकी जिम्मेदारी जांबाज मेजर सहर (विद्युत जाम्मवाल) को सौंपी जाती है। इस ऑपरेशन की पूरी कमान मेजर सहर के हाथों में है। जयपुर से दिल्ली तक पहुंचाएं जा रहे इसी खजाने को रास्ते में ही लूटकर वापस रानी गीताजंलि तक पहुंचाने के मकसद से एक टीम बनती है, जिसकी कमान महारानी के प्रति वफादार भवानी सिंह (अजय देवगन) के पास है। ट्रक में रखी विशाल तिजोरी से खजाना लूटकर महारानी तक सुरक्षित पहुंचाने की टीम में महरानी की बेहद खास संजना (ईशा गुप्ता) सड़कछाप गुंडा और लड़कियों को देखते ही उन पर मर मिटने वाले दलिया (इमरान हाशमी) को भी भवानी इस टीम में शामिल करता है क्योंकि दलिया कुछ भी हो लेकिन भवानी के प्रति बेहद वफादार रहता है। इसी टीम में तिजोरियों का ताला खोलने में एक्सपर्ट शराबी तिकला (संजय मिश्रा) भी शामिल है। अब अगर आप यह जानना चाहते है कि क्या जांबाज ऑफिसर सहर इस खजाने से भरे ट्रक को दिल्ली तक पहुंचाने में कामयाब हो पाएगा, तो इसे जानने के लिए आपको थिएटर जाना होगा। पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर नजर आई इलियाना और अजय की जोड़ी खूब जमी है। अजय ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है तो इलियाना की ब्यूटी को कैमरामैन ने बड़ी खूबसूरती से कैमरे में कैद किया है। इमरान हाशमी अपनी सीरियल किसर की इमेज में बेशक नजर आए हो लेकिन इस बार उन्होंने अपने किरदार को बेहद अच्छे ढंग से निभाया है। कुछ सीन्स में इमरान अजय पर भारी पड़ते नजर आए हैं। विद्युत जामवाल हैरतअंगेज ऐक्शन सीन्स के लिए जाने जाते है और यहां भी उन्होंने यही कुछ किया है। ईशा गुप्ता और इमरान की जोड़ी बस ठीकठाक है, लेकिन अगर ऐक्टिंग की बात करें तो ईशा ने इलियाना को बहुत पीछे छोड़ दिया है। संजय मिश्रा अपने रोल में सौ फीसदी परफेक्ट रहे। ऐसा लगता है डायरेक्टर मिलन ने गीतांजलि का किरदार जयपुर की महारानी गायत्री देवी से प्रेरित होकर तैयार किया और पूरी फिल्म इसी के आसपास टिकी रही। मिलन ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों को इस बार कुछ बदले और अलग अंदाज में पेश किया है। हालांति, स्क्रिप्ट के साथ मिलन पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाए। ऐसा लगता है मिलन ने जैसे पहले ही इस कहानी को सिंगल स्क्रीन्स क्लास के दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखकर बनाने का मन बना लिया था। फिल्म के ऐक्शन सीक्वेंस तो कमाल के हैं लेकिन सवा दो घंटे की इस फिल्म में कहानी बार-बार ट्रैक से उतरती नजर आती है। खुले चौड़े रोड पर चेज करती हुईं धूल उड़ातीं गाड़ियों के सीन्स अस्सी के दशक में बनने वाली फिल्मों के ऐक्शन सीन्स की याद दिलाते हैं। और हां, राजस्थान की खूबसूरत आउटडोर लोकंशन फिल्म का एक प्लस पॉइंट है। चूंकि इस फिल्म को एक म्यूजिक कंपनी ने बनाया है सो फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले ही हिट है।फिल्म का एक गाना रश्के कमर पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। क्यों देखें: अगर आप अजय और इमरान के पक्के फैन हैं और ऐक्शन मसाला फिल्में पसंद करते है तो फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। लेकिन फिल्म में कुछ नयापन तलाश करने की कोशिश ना करे क्योंकि फिल्म टोटली चालू मसाला फिल्म से ज्यादा कुछ नहीं है। ",0 "बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो निर्माता : मुकेश भट्ट निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीत : जीत गांगुली, रशीद खान कलाकार : इमरान हाशमी, बिपाशा बसु, ईशा गुप्ता, मनीष चौधरी, मोहन कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 15 मिनट 51 सेकंड अपने करियर के आरंभ में विक्रम भट्ट ने रोमांटिक (आप मुझे अच्छे लगने लगे, मदहोश), एक्शन (गुलाम, फरेब) और कॉमेडी (आवारा पागल दीवाना) मूवीज़ बनाईं, लेकिन बाद में उन्हें दर्शकों को डराने में मजा आने लगा। अब उन्हें हॉरर फिल्मों के सिवाय कुछ नहीं सूझता। निर्माता बनकर विक्रम ने नए कलाकारों को लेकर कई हॉरर फिल्में बनाईं। कम बजट की फिल्मों की वजह से विक्रम को फायदा ही पहुंचा, लेकिन वे एक फॉर्मूले में वे कैद हो कर रह गए। चूंकि ‘राज 3’ के निर्माता मुकेश भट्ट हैं, इसलिए विक्रम ने इमरान हाशमी और बिपाशा बसु जैसे स्टार्स के साथ काम किया, लेकिन सितारों का साथ मिलने के बावजूद विक्रम ने कुछ नया करने की कोशिश नहीं की। जैसा कि उनकी ज्यादातर फिल्मों में होता है, हीरोइन पर बुरी आत्मा की नजर पड़ जाती है और उसे हीरो मुक्ति दिलाता है, यही राज 3 में भी देखने को मिलता है। राज 3 में भी वही कमजोरियां हैं जो आमतौर पर विक्रम भट्ट की हॉरर फिल्मों में होती हैं। इनके किरदार हमेशा बड़े घर में रहते हैं, लेकिन अकेले होते हैं। रात को अजीब-सी आवाज आती है तो बजाय घर से भागने के वे उस दिशा में आगे बढ़ते हैं जहां से आवाज आती है। पूरे घर के दरवाजे-खिड़कियां रात में खुले होते हैं। दरवाजे खोलते-बंद करते समय हमेशा आवाज होती है। बात करते हैं कहानी की। इस बार काले जादू से दर्शकों को डराने की कोशिश की गई है। शनाया शेखर (बिपाशा बसु) नामक एक्ट्रेस नई एक्ट्रेस संजना (ईशा गुप्ता) से पिछड़ती जा रही है। ईशा को पछाड़ने के लिए शनाया एक शैतानी आत्मा की मदद से ब्लैक मैजिक का सहारा लेती है। इस काम में शनाया का मददगार होता है उसका निर्देशक बॉयफ्रेंड आदित्य (इमरान हाशमी)। संजना को आदित्य अपनी फिल्म के लिए साइन कर लेता है और जादू किया गया पानी उसे पिलाता रहता है। संजना बीमार रहने लगती है और उसके साथ डरावनी घटनाएं घटने लगती हैं। उसकी हालत देख आदित्य का दिल पिघलता है। वह शनाया को कह देता है कि आगे से वह ऐसा नहीं करेगा, लेकिन शनाया उसे ब्लैकमेल के जरिये यह काम करने के लिए मजबूर करती है। इसके बाद किस तरह से आत्माओं की दुनिया में जाकर संजना को आदित्य काले जादू से बचाता है यह फिल्म का सार है। शनाया और संजना को सौतेली बहन भी बताया गया है और यह भी संजना से शनाया की ईर्ष्या करने की एक वजह है। कहानी में कई खामियां हैं, जैसे, जब शनाया शैतानी आत्मा को कहती है कि संजना को मार डालो तो वह शैतानी आत्मा कहती है कि मौत भगवान के हाथ में है। लेकिन यही शैतानी आत्मा संजना की नौकरानी, तांत्रिक और डॉक्टर को बड़ी आसानी से मार डालती है। वह आदित्य को क्यों नहीं मारती जब संजना को बचाने के लिए आदित्य आगे आता है। शनाया द्वारा आदित्य को ब्लैकमेल का जो कारण बताया गया है वो बेहद कमजोर है और सहूलियत के मुताबिक लिखा गया है। पुलिस सिर्फ एक सीन में नजर आती है और संजना की नौकरानी की मौत को आत्महत्या मान लेती है। एक तांत्रिक कब्रिस्तान में मारा जाता है, लेकिन उसकी कोई जांच-पड़ताल नहीं होती है। फिल्म का पहला हाफ ठीक-ठाक है और कुछ जगह डर के मारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। थ्री-डी में वर्जन में यह डर कई गुना बढ़ जाता है। दूसरे हाफ में फिल्म कमजोर पड़ जाती है क्योंकि जिस तरह से कहानी का अंत किया गया है वो संतुष्ट नहीं करता। क्लाइमेक्स में तो तब हद हो जाती है जब एक डॉक्टर संजना का इलाज करने के बजाय मुर्दाघर में उसे तांत्रिक क्रियाओं के लिए ले जाता है। निर्देशक विक्रम भट्ट ने स्क्रिप्ट की इन खामियों पर ध्यान देने की बजाय दर्शकों को डराने वाले सीन क्रिएट करने पर ज्यादा फोकस किया है क्योंकि उन्हें पता है कि दर्शक जब डरने के लिए सिनेमाघर में आया है तो वह इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता है। लेकिन अब उन्हें डराने के कुछ नए फॉर्मूले खोजने चाहिए क्योंकि अब वे अपने को दोहराने लगे हैं। एक्टिंग की बात की जाए तो बिपाशा बसु सब पर भारी हैं। वे न केवल ग्लैमरस लगी हैं बल्कि उन्होंने नफरत और ईर्ष्या की आग में जलती एक्ट्रेस को उम्दा तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। वफादारी और प्यार के बीच उलझे आदित्य के रूप में इमरान हाशमी निराश करते हैं। पूरी फिल्म में उनके चेहरे पर एक जैसे एक्सप्रेशन हैं और वे उनींदे लगते हैं। ईशा गुप्ता का चेहरा भावहीन है। राज 3 में निश्चित रूप से कुछ डरावने दृश्य हैं, लेकिन इन दृश्यों को देखने के लिए एक बोर कहानी झेलने की भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। ",0 "कुल मिलाकर ‘बिल्लू’ साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। निर्माता : गौरी खान निर्देशक : प्रियदर्शन गीतकार : गुलजार, आशीष पंडित, सईद कादरी, नीरज श्रीधर संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : शाहरुख खान, इरफान खान, लारा दत्ता, ओमपुरी, असरानी, राजपाल यादव, मनोज जोशी। विशेष भूमिका में - दीपिका पादुकोण, करीना कपूर और प्रियंका चोपड़ा। प्रियदर्शन को ग्रामीण जीवन से लगाव है और बीच-बीच में वे अपनी फिल्मों में गाँव दिखाते रहते हैं। ‘बिल्लू’ में उन्होंने बुदबुदा गाँव के रहने वाले लोगों को दिखाया है, जो उत्तरप्रदेश में कहीं पर है। प्रियदर्शन की फिल्मों में इस बात की गारंटी होती है कि उनकी फिल्में बोर नहीं करतीं, भले ही वे फॉर्म में नहीं हों। बिल्लू प्रियन की कोई महान फिल्म नहीं है, लेकिन पूरे समय तक बाँधकर रखती है। बिल्लू (इरफान खान) एक नाई है, जिसकी दुकान नहीं चलती। उसके बच्चों सहित पूरे गाँव वाले उसका मजाक उड़ाते हैं। एक दिन उसके बुदबुदा गाँव में सुपर स्टार साहिर खान (शाहरुख खान) शूटिंग के लिए आता है। उसे देखने के लिए पूरा गाँव उमड़ पड़ता है। पूरे गाँव में यह खबर फैल जाती है कि साहिर बिल्लू का बेहद अच्छा दोस्त है। बिल्लू के बच्चे और पत्नी बिंदिया (लारा दत्ता) उससे जिद करते हैं कि वह उनको साहिर से मिलवा दे। गाँव वाले बिल्लू पर मेहरबानी करने लगते हैं, इस उम्मीद के साथ कि बिल्लू साहिर को उनके घर या स्कूल में लेकर आए। बिल्लू बड़ा संकोची है। उसे उम्मीद नहीं है कि साहिर उसे अब पहचानता होगा और वह सबको टालता रहता है। आखिरकार एक दिन सबके सब्र का बाँध टूट जाता है और बिल्लू को धोखाधड़ी के जुर्म में जेल भी जाना पड़ता है। शूटिंग के आखिरी दिन साहिर एक भाषण में बताता है कि वह अपने दोस्त बिल्लू को ढूँढ रहा है, जिसने बचपन में उसकी बहुत सहायता की थी। फिल्म की अंतिम रील में उनकी मुलाकात होती है। कृष्ण और सुदामा से प्रेरित इस साधारण कहानी में ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हैं। कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है क्योंकि पूरी फिल्म में बिल्लू उलझा रहता है कि वह साहिर से मिले या नहीं। आधी-अधूरी कोशिश करता रहता है। दर्शक जानना चाहते हैं बिल्लू और साहिर की दोस्ती के बारे में और इसे अंत में बताया जाता है। शुरू से आखिरी तक के हिस्से को छोटे-छोटे मनोरंजक घटनाक्रमों के जरिये भरा गया है। शाहरुख खान का इस्तेमाल प्रियन ने चतुराई से किया है। उनकी संक्षिप्त भूमिका को इस तरह से पेश किया है कि फ्रेम में नहीं होने के बावजूद वे उपस्थित रहते हैं। लोगों की बातचीत में, दीवारों पर पोस्टर्स के रूप में या फिर बच्चों की हेअर स्टाइल में। फिल्म का क्लाइमैक्स अच्छा है, जब बिल्लू और साहिर की मुलाकात होती है। बिल्लू की खस्ता हालत के बावजूद साहिर को उसकी आर्थिक मदद करते हुए नहीं दिखाया गया क्योंकि शायद इससे उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती। इस सीन के पहले शाहरुख के भाषण वाला दृश्य उनके शानदार अभिनय से अच्छा बन पड़ा है, जब वे बिल्लू और अपनी दोस्ती के बारे में गाँव वालों को बताते हैं। इरफान खान शानदार अभिनेता हैं और बिल्लू के चरित्र में वे डूब गए हैं। एक सीधा-सादा, दिल का सच्चा और संकोची इनसान, जिसे उसके बच्चे भी डाँटते हैं, को उन्होंने परदे पर खूबसूरती के साथ पेश किया है। लारा दत्ता ने इरफान खान का साथ अच्छी तरह निभाया है, लेकिन उनका मेकअप उनकी गरीबी की तस्वीर नहीं पेश करता। सुपरस्टार के रूप में शाहरुख खान को सिर्फ अपने आपको पेश करना था, जो उनके लिए बाएँ हाथ का खेल था। सलमान खान से उनका झगड़ा और अक्षय कुमार से उनकी प्रतिद्वंद्विता के चलते उन्होंने एक दृश्य में सफाई दी है कि फिल्म इंडस्ट्री एक परिवार की तरह है, जिसमें छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं। फिल्म में जो ग्लैमर वाला हिस्सा गायब था, उसकी कमी को शाहरुख ने करीना कपूर, दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा के साथ गाने फिल्माकर पूरा किया है। तीनों नायिकाओं में दीपिका अपने हॉट लुक की वजह से बाजी मार लेती हैं। ओमपुरी, असरानी और राजपाल यादव ने प्रियदर्शन से अपने संबंधों की खातिर यह फिल्म की है क्योंकि उन्हें ज्यादा फुटेज नहीं मिले हैं। प्रीतम का संगीत ठीक-ठाक है और एक-दो गीत सुनने लायक हैं। ‍मनीषा कोर्डे के संवाद चुटीले हैं। बॉडी गार्ड्‍स से घिरे शाहरुख एक दृश्य में कहते हैं कि वे ऐसे सुपरस्टार हैं जो महिलाओं के बजाय पुरुषों से घिरे रहते हैं। कुल मिलाकर ‘बिल्लू’ साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। ",1 "कुल मिलाकर ‘99’ से जुड़े हर व्यक्ति का काम कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। फिल्म देखना हो तो इंटरवल के बाद जाइए। निर्माता : अनुपम मित्तल, आदित्य शास्त्री निर्देशक : राज निदिमोरू, कृष्णा डीके गीतकार : वैभव मोदी संगीतकार : समीर टंडन कलाकार : कुणाल खेमू, सायरस ब्रोका, सोहा अली खान, बोमन ईरानी, सिमोन सिंह, महेश माँजरेकर, विनोद खन्ना, अमित मिस्त्री कुछ वर्षों पहले हैंसी क्रोन्ये के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका की टीम भारत आई थी। तब मैच फिक्स हुए थे और इस घोटाले को दिल्ली पुलिस ने उनके फोन टेप कर उजागर किया था। इस सच्ची घटना को आधार बनाकर कुछ कल्पनाएँ की गईं और ‘99’ की कहानी तैयार की गई। इस घटना से सभी परिचित हैं, लेकिन ये सब कैसे हुआ इसकी कल्पना फिल्म के लेखक ने की है। फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट कर‍ दिया गया है कि उनकी फिल्म की कहानी में सिर्फ थोड़ी सच्चाई है। बात 1999 की है। मुंबई में दो दोस्त (कुणाल और सायरस) डुप्लिकेट सिम कॉर्ड बनाते हैं। पुलिस एक दिन उनके घर पहुँच जाती है। पुलिस से बचने के लिए वे एक कार चुरा लेते हैं, जो एक गैंगस्टर (महेश माँजरेकर) की रहती है। दुर्घटना में कार बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है और गैंगस्टर दोनों से हर्जाना माँगता है। दोनों कंगाल रहते हैं और मजबूरी में उन्हें गैंगस्टर के लिए पैसे वसूलने का काम करना पड़ता है। राहुल (बोमन ईरानी) से पैसे वसूलने वे दिल्ली जाते हैं, जो क्रिकेट मैचों पर पैसा लगाता है। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि कुणाल और सायरस भी क्रिकेट मैच पर पैसा लगाते हैं और उन्हें वे सबूत मिल जाते हैं, जिससे पता चलता है कि मैचों को फिक्स किया जा रहा है। वे सबूत पुलिस को देते हैं और चुपचाप बच निकलते हैं। ‘99’ फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है इसका पहला हॉफ। यह बेहद धीमा और उबाऊ है। कहानी आगे नहीं बढ़ती और दर्शक के धैर्य की परीक्षा लेती है। स्क्रीन पर जो दृश्य आते हैं वो बोर करते हैं। कहानी से उनका खास ताल्लुक नहीं रहता। शुरुआत से मध्यांतर तक फिल्म को जबरदस्ती खींचा गया है, सिर्फ लंबाई बढ़ाने के लिए। इस जगह को कैसे भरा जाए, यह सोचने में निर्देशक और लेखक नाकामयाब रहे। फिल्म गति पकड़ती है मध्यांतर के बाद। जब कुछ नए चरित्र आते हैं। कहानी में क्रिकेट और सट्टे का समावेश आता है, लेकिन तब तक फिल्म में रुचि खत्म हो जाती है। राज निदिमोरू और कृष्णा डीके ने फिल्म का निर्देशन किया है। उनका काम टुकड़ों में अच्छा है। इंटरवल के पहले वे कमजोर साबित हुए, जबकि बाद में उन्होंने दिखाया कि वे भविष्य में अच्‍छा काम कर सकते हैं। कुणाल और सोहा के रोमांस को वे ठीक से विकसित नहीं कर सके। अभिनय की बात की जाए तो बोमन ईरानी सभी पर भारी पड़े। एक सटोरिए की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। कुणाल खेमू और सायरस ठीक-ठाक रहे। सोहा अली खान का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनकी भूमिका महत्वहीन है। विनोद खन्ना और महेश माँजरेकर थके हुए नजर आए। अमित मिस्त्री जब-जब परदे पर आए, दर्शकों को हँसने का अवसर मिला। फिल्म में गानों की कमी महसूस होती है। संवाद कुछ जगह अच्छे हैं। राजीव रवि ने फिल्म को अच्छे से शूट किया है। फिल्म को ठीक से संपादित किए जाने की जरूरत थी। कुल मिलाकर ‘99’ से जुड़े हर व्यक्ति का काम कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। फिल्म देखना हो तो इंटरवल के बाद जाइए। ",0 "बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू जौहर निर्देशक : अयान मुखर्जी गीत : जावेद अख्तर संगीत : शंकर-अहसान-लॉय, अमित त्रिवेदी कलाकार : रणबीर कपूर, कोंकणा सेन शर्मा, अनुपम खेर, शिखा तलसानिया, नमिता दास, सुप्रिया पाठक, कश्मीरा शाह, राहुल खन्ना (विशेष भूमिका) यू/ए सर्टिफिकेट * 15 रील * 2 घंटे 15 मिनट ‘वेक अप सिड’ में जिंदगी के उस हिस्से को दिखाया गया है, जिससे ज्यादातर लोग गुजरते हैं। पढ़ाई खत्म होने के बाद कइयों के सामने कोई लक्ष्य नहीं होता। उनका हर दिन बिना किसी खास योजना के गुजरता है। इसका भी एक खास मजा है कि अगले क्षण हम क्या करेंगे, यह हमें भी पता नहीं होता। कॉलेज के अंतिम वर्ष में सिड (रणबीर कपूर) फेल हो गया है और जिंदगी में उसका कोई गोल नहीं है। होंडा सीआरवी में लांग ड्राइव, सुबह तक चलने वाली पार्टियाँ, इंटरनेट और वीडियो गेम्स के सहारे सिड की जिंदगी गुजरती है। पैसों का अभाव उसने देखा ही नहीं है। क्रेडिट कार्ड से वह खर्च करता है और डैड पैसे चुकाते हैं। सिड के डैड चाहते हैं कि वह उनका व्यसाय में हाथ बँटाए, लेकिन सिड की रूचि नहीं है। इसको लेकर सिड और उसके पिता में विवाद होता है और सिड अपनी दोस्त आयशा बैनर्जी (कोंकणा सेन शर्मा) के पास रहने चला जाता है। आयशा की सोच सिड से बिलकुल अलग है। उसके कुछ लक्ष्य हैं, जिन्हें पाने के लिए वह कोलकाता से मुंबई आई है। उम्र में सिड से थोड़ी बड़ी आयशा, सिड को बच्चा मानती है और उसे परिपक्व इंसान की तलाश है। पुराने गाने की वह शौकीन है और महान लेखकों की पुस्तक पढ़ती है। जिंदगी के प्रति विपरीत नजरिया रखने वाले जब दो इंसान साथ रहते हैं तो एक-दूसरे के गुण-अवगुण वे अपना लेते हैं। बिगड़ैल सिड व्यवस्थित रहना, अंडा बनाना और कपड़े धोना सीख लेता है। यही नहीं वह उसी मैग्जीन में नौकरी हासिल कर लेता है, जहाँ आयशा काम करती है। इधर आयशा को भी महसूस होता है कि व्यक्ति में थोड़ा बचपना भी रहना चाहिए बजाय हमेशा गंभीरता और परिपक्वता का आवरण ओढ़े रहने के। अलग होने के बाद उन्हें महसूस होता है कि वे एक-दूसरे की कमी महसूस कर रहे हैं और यही प्यार है। सिड और आयशा के रिश्ते और जिंदगी के प्रति नजरिये को फिल्म बखूबी उभारती है, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि में चल रहे घटनाक्रमों पर ध्यान नहीं दिया गया, जिससे फिल्म का समग्र प्रभाव कम हो जाता है। कोलकाता से लेखक बनने आई आयशा ‘मुंबई बीट’ के संपादक की असिस्टेंट बनना क्यों मंजूर कर लेती है, जिसका काम उसे कॉफी पिलाना, टाइम टेबल बनाना और टेबल साफ करना है। वह दूसरी जगह भी काम कर सकती थी। नौकरी मिलने के पहले ही वह फ्लैट किराए से ले लेती है और साज-सज्जा पर खूब पैसा खर्च करती है। आखिर कहाँ से आया इतना पैसा? जबकि वह सिड जैसे अमीर परिवार से नहीं है। बिगड़ैल सिड को सुधारने में भी जल्दबाजी की गई है। ‘दिल चाहता है’ और ‘लक्ष्य’ से प्रभावित 26 वर्षीय अयान मुखर्जी ने युवाओं को ध्यान में रखकर यह फिल्म निर्देशित की है, लेकिन वे भूल गए कि युवा तेज गति की फिल्म पसंद करते हैं क्योंकि ‘वेक अप सिड’ की गति धीमी है। कहानी में ज्यादा उतार-चढ़ाव और ड्रामा नहीं है। यह सिर्फ संवादों के सहारे आगे बढ़ती है और सिर्फ दो किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, इसलिए निर्देशक पर यह जिम्मेदारी आ जाती है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि दर्शकों की दिलचस्पी बनी रहे। इसमें अयान थोड़े-बहुत कामयाब रहे हैं। उन्होंने कई दृश्यों को अच्छे से पेश किया है, जैसे आयशा के जन्मदिन को सिड द्वारा सैलिब्रेट करना, सिड और उसके पिता का टकराव, सिड का अपनी माँ से ठीक तरह से पेश नहीं आना और बाद में अपनी गलती मानना। कहा जा सकता है कि अयान में एक अच्छा निर्देशक बनने की संभावनाएँ हैं और उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी है। अयान ने अपने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है। रणबीर कपूर ने सिड के किरदार में जान डाल दी है और उनका ये अब तक का श्रेष्ठ अभिनय है। कोंकणा सेन शर्मा जैसी सशक्त अभिनेत्री के सामने वे कहीं से भी कमजोर नहीं लगे। कोंकणा के लिए इस तरह की भूमिका निभाना बाएँ हाथ का खेल है। अनुपम खेर ने काफी दिनों बाद उम्दा अभिनय किया। राहुल खन्ना और कश्मीरा शाह को ज्यादा अवसर नहीं मिल पाए। ‘वेक अप सिड’ यादगार फिल्म नहीं है, लेकिन इसमें ताजगी है, जिसकी वजह से यह एक बार देखी जा सकती है। ",1 "पीके फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि मुख्य किरदार (आमिर खान) को लोग पीके कहते हैं। वह प्रश्न ही ऐसे पूछता है कि लोगों को लगता है कि होश में कोई ऐसी बातें कर ही नहीं सकता। 'पीके हो क्या?' जैसा जवाब ज्यादातर उसको सुनने को मिलता है और वह मान लेता है कि वह पीके है। भगवान की मूर्ति बेचने वाले से वह पूछता है कि क्या मूर्ति में ट्रांसमीटर लगा है जो उसकी बात भगवान तक पहुंचेगी। दुकानदार नहीं बोलता है तो पीके कहता है कि जब भगवान तक डायरेक्ट बात पहुंचती हो तो फिर मूर्ति की क्या जरूरत है? ऐसे ढेर सारे सवाल पूरी फिल्म में पीके पूछता रहता है और धर्म के ठेकेदार बगलें झाकते रहते हैं। आखिर ये सवाल पीके पूछता क्यों है? पीके पृथ्वी पर रहने वाला नहीं है। वह एलियन है। चार सौ करोड़ किलोमीटर दूर से पृथ्वी पर आया है। अपने ग्रह पर वापस जाने वाला रिमोट कोई उससे छीन ले गया है। जब रिमोट के बारे में वह लोगों से अजीब से सवाल पूछता है तो जवाब मिलता है कि भगवान ही जाने। वह भगवान को ढूंढने निकलता है तो कन्फ्यूज हो जाता है। मंदिर जाता है तो कहा जाता है कि जूते बाहर उतारो, लेकिन चर्च में वह बूट पहन कर अंदर जाता है। कही भगवान को नारियल चढ़ाया जाता है तो कही पर वाइन। एक धर्म कहता है कि सूर्यास्त के पहले भोजन कर लो तो दूसरा धर्म कहता है कि सूर्यास्त होने के बाद रोजा तोड़ो। भगवान से मिलने के लिए वह दान पेटी में फीस भी चढ़ाता है, लेकिन जब भगवान नहीं मिलते तो वह दान पेटी से रुपये निकाल लेता है। पीके को राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने मिलकर लिखा है। धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है। पीके को एलियन के रूप में दिखाना उनका मास्टरस्ट्रोक है। एक ऐसे आदमी के नजरिये से दुनिया को देखना जो दूसरे ग्रह से आया है एक बेहतरीन कांसेप्ट है। इसके बहाने दुनिया में चल रही बुराइयों तथा अंधविश्वासों को निष्पक्ष तरीके से देखा जा सकता है। > इंटरवल से पूर्व फिल्म में कई लाजवाब दृश्य देखने को मिलते हैं। जो हंसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करते हैं। एक साथ मन में दो-तीन भावों को उत्पन्न करने में लेखक और निर्देशक ने सफलता हासिल की है। भगवान के लापता होने का पेम्पलेट पीके बांटता है। वह मंदिर में अपने चप्पलों को लॉक करता है। उसे समझ में नहीं आता है कि वह कौन सा धर्म अपनाए कि उसे भगवान मिले। यह बात भी उसके पल्ले नहीं पड़ती कि आखिर इंसान कौन से धर्म का है, इसकी पहचान कैसे होती है क्योंकि इंसान पर कोई ठप्पा तो लगा नहीं होता। इन बातों को लेकर कई बेहतरीन सीन गढ़े गए हैं जो आपकी सोच को प्रभावित करते हैं। भगवान के नाम पर कुछ लोग ठेकेदार बन गए हैं और उन्होंने इसे बिजनेस बना लिया है। फिल्म में एक सीन है जिसमें एक गणित महाविद्यालय के बाहर पीके एक पत्थर को लाल रंग पोत देता है। कुछ पैसे चढ़ा देता है और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी उस पत्थर के आगे पैसे चढ़ाने लगते हैं। इस सीन से दो बातों को प्रमुखता से पेश किया गया है। एक तो यह कि धर्म से बेहतर कोई धंधा नहीं है। लोग खुद आते हैं, शीश नवाते हैं और खुशी-खुशी पैसा चढ़ाते हैं। दूसरा ये कि विज्ञान पढ़ने वाले भी अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं। बचपन से ही संस्कार के नाम पर उनमें कुछ अंधविश्वास डाल दिए जाते हैं जिनसे वे ताउम्र मुक्त नहीं हो पाते। फिल्म उन संतों को भी कटघरे में खड़ा करती है जो चमत्कार दिखाते हैं। हवा से सोना पैदा करने वाले बाबा चंदा क्यों लेते हैं या देश की गरीबी क्यों नहीं दूर करते? धर्म के नाम पर लोगों में भय पैदा करने वालों पर भी नकेल कसी गई है। जब ऊपर वाले ने तर्क-वितर्क की शक्ति दी है तो क्यों भला हम अतार्किक बातों पर आंखें मूंद कर विश्वास करें? > फिल्म पी के के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें बातें बड़ी-बड़ी हैं, लेकिन उपदेशात्मक तरीके से इन्हें दर्शकों पर लादा नहीं गया है। हल्के-फुल्के प्रसंगों के जरिये इन्हें दिखाया गया है जिन्हें आप ठहाके लगाते और तालियां बजाते देखते हैं। इंटरवल के बाद जरूर फिल्म दोहराव का शिकार लगती है। गाने लंबाई बढ़ाते हैं, लेकिन फिल्म से आपका ध्यान नहीं भटकता। पीके देखते समय 'ओह माय गॉड' की याद आना स्वाभाविक है, लेकिन पीके अपनी पहचान अलग से बनाती है। ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी की तरह निर्देशक राजकुमार हिरानी मिडिल पाथ पर चलने वाले फिल्मकार हैं। वे दर्शकों के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखते हैं साथ ही ऐसी कहानी पेश करते हैं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करे। 'पीके' में वे एक बार फिर उम्मीदों पर खरे उतरते हैं। सिनेमा के नाम पर उन्होंने कुछ छूट ली है, खासतौर पर जगतजननी (अनुष्का शर्मा) और सरफराज (सुशांतसिंह राजपूत) की प्रेम कहानी में, लेकिन ये बातें फिल्म के संदेश के आगे नजरअंदाज की जा सकती है। अपनी बात कहने में अक्सर वे वक्त लेते हैं और यही वजह है कि उनकी फिल्में लंबी होती हैं। संपादक के रूप में वे कुछ सीन और गानों को हटाने का साहस नहीं दिखा पाए। कुछ प्रसंग धार्मिक लोगों को चुभ सकते हैं जिनसे बचा भी जा सकता था। आमिर खान पीके की जान हैं। उनके बाहर निकले कान और बड़ी आंखों ने किरदार को विश्वसनीय बनाया है। उनके चेहरे के भाव लगातार गुदगुदाते रहते हैं। वे अपने किरदार में इस तरह घुसे कि आप आमिर खान को भूल जाते हैं। परदे पर जब वे नजर नहीं आते तो खालीपन महसूस होता है। ऐसा लगता है कि सारा समय वे आंखों के सामने होना चाहिए। यह उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। हिरानी की फिल्मों में आमतौर पर महिला किरदार प्रभावी नहीं होते, लेकिन 'पीके' में यह शिकायत दूर होती है। अनुष्का शर्मा को दमदार रोल मिला है। वे बेहद खूबसूरत नजर आईं और आमिर खान जैसे अभिनेता का सामना उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने किया है। सुशांत सिंह राजपूत, संजय दत्त, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी और परीक्षित साहनी का अभिनय स्वाभाविक रहा है। फिल्म के गाने भले ही हिट नहीं हो, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने प्रभावित करते हैं। 2014 के बिदाई की बेला में एक बेहतरीन तोहफा 'पीके' के रूप में राजकुमार हिरानी ने सिने प्रेमियों को दिया है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए। बैनर : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी निर्देशक : राजकुमार हिरानी संगीत : शांतनु मोइत्रा, अजय-अतुल कलाकार : आमिर खान, अनुष्का शर्मा, संजय दत्त, सुशांत सिंह राजपूत, बोमन ईरानी, सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, रणबीर कपूर (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 33 मिनट ",1 "मुन्ना माइकल की कहानी: यह कहानी है मुन्ना (टाइगर) की जो अनाथ है। एक उम्रदराज कोरस डांसर माइकल ( रॉनित) मुन्ना को मुंबई के चॉल में लेकर आता है। मुन्ना माइकल जैक्सन का बड़ा फैन है और उन्हीं के सपने को देखते बड़ा होता है। किंग ऑफ पॉप बनने के सपने को पूरा करने के लिए वह एक गुंडे महिन्दर फौजी (नवाजुद्दीन) तक को डांस सिखाने के लिए तैयार हो जाता है। जल्द ही दोनों की दोस्ती दुश्मनी में बदलने लगती है, जब दोनों को एक ही लड़की दीपिका उर्फ डॉली (निधि) से प्यार हो जाता है। रिव्यू: टाइगर के इर्द-गिर्द इस फिल्म की स्क्रिप्ट को समझने में परेशानी नहीं होती है। एक रूटीन स्टोरी के तरह आपको समय-समय पर कोरियॉग्राफ गाने और फाइटिंग सीन देखने को मिलेंगे। यहां तक की आप स्टॉपवॉच से स्क्रीन की रिकॉर्डिंग भी कर सकते हैं क्योंकि हर 15 मिनट पर इसमें एक गाना, लड़ाई और कई चीजें देखने को मिलेंगी। विडियो: सुनिए, नवाजुद्दीन सिद्दीकी से हुई मजेदार बातचीत इससे पहले टाइगर की 'हीरोपंती' और 'बागी' जैसे फिल्में बॉक्स ऑफिस पर आ चुकी हैं, जिसमें केवल उनकी चुस्ती-फुर्ती और काम को लेकर ईमानदारी दिखी। कह सकते हैं कि निर्देशक शब्बीर खान के साथ टाइगर की इस फिल्म को देखने के लिए आपको बहुत ज्यादा सोचने-समझने की जरूरत नहीं। पिछली फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी टाइगर पर डांस को लेकर वही पागलपन नज़र आ रहा। इसे आप उनकी पिछली फिल्मों से अलग सिर्फ इसी आधार पर कह सकते हैं कि उन्होंने इसमें अलग डायलॉग बोले हैं। जैसे कि, 'मुन्ना झगड़ा नहीं करता, मुन्ना सिर्फ पीटता है।'रिव्यू को गुजराती में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें इस फिल्म में भी वह अपने हथियार निकालकर हवा में झूलते, पलटते हुए किक मारते नज़र आ रहे हैं। इन सबके अलावा दर्शक उनके शर्टलेस अवतार को देखने के लिए भी मजबूर हैं। ये सब देखते हुए जिस जगह आप बेचैनी महसूस करने लगेंगे, ठीक उसी समय एक गुंडे, महिन्दर से आपका परियच कराया जाएगा जो टाइगर को सिर्फ इसलिए हायर करता है कि वह उससे कुछ डांस मूव्स सीख सके। राजस्थानी भाषा में बातचीत करने वाला यह डॉन बताता है कि यह सब वह सिर्फ इसलिए कर रहा क्योंकि वह डॉली के प्यार में पागल है, जो कि मेरठ की ड्रीम डांसर है। इस फिल्म से डेब्यू करने वालीं निधि ने अच्छी कोशिश की है और ओवर कॉन्फिडेंट भी नज़र आईं, लेकिन इसके बावजूद टाइगर ही दर्शकों का ध्यान खींचने में सबसे अधिक सफल रहे। नवाज हर फिल्म में कुछ न कुछ नया लेकर आते हैं और इस बार भी उन्होंने कुछ ऐसा ही किया है। यहां वह अपने मज़ाक उड़ाने वाले लहज़े को एक नया आयाम देते हैं जिसे देख आप हंसे बिना नहीं रह पाएंगे। यदि आप डांस मूव्स के शौकीन हैं तो 'मुन्ना माइकल' देखने जाएं, हालांकि इस फिल्म में वह कुछ नया दिखाने नहीं जा रहे लेकिन उनके नए मूव्स के इन्फेक्शन से बचना आसान भी नहीं।",0 "बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, विशेष फिल्म्स निर्माता : मुकेश भट्ट निर्देशक : विशाल म्हाडकर संगीत : जीत गांगुली, सिद्धार्थ हल्दीपुर, संगीत हल्दीपुर कलाकार : कुणाल खेमू, अमृता पुरी, मनीष चौधरी, मिया सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 50 मिनट * 12 रील महेश भट्ट की फिल्मों के हीरो सही और गलत के बीच की रेखा के बेहद नजदीक होते हैं। वे नैतिक रूप से भी थोड़े कमजोर होते हैं। अधिक पैसा कमाने के चक्कर में अपराध के दलदल में घुस जाते हैं। कुछ दिनों बाद उनका जमीर जागता है और वे उस दलदल से बाहर निकालना चाहते हैं। विशेष फिल्म्स की अधिकांश फिल्मों की यही कहानियां होती हैं। सेक्स और अपराध के इर्दगिर्द ये कहानियां घूमती हैं। ‘ब्लड मनी’ में भी यही सब है। मिडिल क्लास से आए पति-पत्नी जब दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं तो आलीशान बंगला, लंबी कार देख पत्नी दंग रह जाती हैं। पूछती है कि कहीं वो सपना तो नहीं देख रही है। इस पर पति कहता है कि मिडिलक्लास लोगों के साथ यही समस्या रहती है। उन्हें अचानक सफलता मिलती है तो वे यकीन नहीं कर पाते हैं और उन्हें लगता है कि वे सपना देख रहे हैं। कुणाल कदम खूब पैसा कमाना चाहता है और एमबीए करने के बाद दक्षिण अफ्री का स्थित ट्रिनीटी कंपनी में उसकी नौकरी लग जाती है। यह कंपनी हीरों का व्यापार करती है। किस योग्यता के बल पर कुणाल को चुना जाता है, ये फिल्म में स्पष्ट नहीं है। हीरों के बारे में भी उसकी जानकारी एक सामान्य आदमी जैसी है, फिर भी उसको इतना ऊंचा पैकेज क्यों दिया जा रहा है, समझ से परे है। स्ट्रीट स्मार्टनेस के जरिये वह एक ग्राहक को वही हीरा तीन करोड़ में बेच देता है, जिसके वह दो करोड़ दस लाख से ज्यादा देने के लिए तैयार नहीं था। यह सीन बेहद बचकाना है क्योंकि जो स्मार्टनेस वह दिखाता है वह बिलकुल भी विश्वसनीय नहीं है। ट्रिनीटी कंपनी हीरों की आड़ में कई अवैध धंधे भी करती है। ऊंची लाइफ स्टाइल में जकड़ा कुणाल न चाहते हुए भी अवैध व्यापार में शामिल हो जाता है। यहां से फिल्म दो ट्रेक पर चलने लगती है। कुणाल की वैवाहिक जिंदगी तबाह होने लगती है क्योंकि वह पत्नी को समय नहीं दे पाता। अपनी ऑफिस में काम करने वाली एक महिला से संबंध बना लेता है। दूसरा वह इस अपराध की दुनिया से बाहर निकलने की कोशिश में लगा रहता है। कुणाल और उसकी पत्नी वाला ट्रेक बेहद बोर है। कुणाल का अचानक दूसरी महिला के प्रति आकर्षित हो जाना वाला सीन सिर्फ ट्विस्ट देने के लिए रखा गया है और इसके लिए सही परिस्थितियां नहीं बनाई गई हैं। साथ ही दोनों के बीच जो इमोशनल सीन रखे गए हैं उनमें कुणाल खेमू और अमृता पुरी की सीमित अभिनय प्रतिभा खुल कर सामने आ जाती है। भाव विहीने चेहरे और खराब डायलॉग डिलेवरी के कारण ये सीन और बुरे लगते हैं। कुणाल को अपनी कंपनी को एक्सपोज करने वाला ट्रेक भी कुछ खास नहीं है और किसी तरह कमजोर क्लाइमैक्स के सहारे कहानी का अंत किया गया है। ‘ब्लड मनी’ की सबसे बड़ी समस्या इसकी स्क्रिप्ट है। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए जो प्रसंग रखे गए हैं उनमें दम नहीं है। निर्देशक विशाल म्हाडकर का प्रस्तुतिकरण जरूर ठीक-ठाक है और इस कारण कुछ हद तक फिल्म में दिलचस्पी बनी रहती है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के कारण उनका डायरेक्शन भी प्रभावित हुआ है। उनके निर्देशन पर महेश भट्ट स्कूल की छाप नजर आती है। कुणाल खेमू न बहुत अच्छे एक्टर हैं और न ही बड़े स्टार जो पूरी फिल्म को अपने दम पर खींच सके। उनका अभिनय अच्छे से बुरे के बीच झूलता रहता है। उनकी आवाज बड़ा माइनस पाइंट है। अमृता पुरी को संवाद कैसे बोले जाने चाहिए इसकी ट्रेनिंग की सख्त जरूरत है। खलनायक के रूप में मनीष चौधरी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। मिया उदेशी को एक दो हॉट सीन के अलावा कोई मौका नहीं मिला है। फिल्म का संगीत औसत है। तकनीकी रूप से भी फिल्म औसत है। कुल मिलाकर ‘ब्लड मनी’ में कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों ऐसी फिल्में बन चुकी हैं। साथ ही सैकड़ों बार दोहराई गई कहानी को भी ‘ब्लड मनी’ में ठीक से पेश नहीं किया जा सक ा है। ",0 "ऐसा लगता है जैसे वाशु भगनानी अपने लाडले जैकी को किसी भी तरह से बॉलिवुड स्टार बनाने पर आमादा हैं, पापा ने अब बेटे के लिए करीब आधा दर्जन से ज्यादा फिल्में भी बनाई। इंडस्ट्री के नामचीन डायरेक्टर को भी बेटे का करियर पटरी पर लाने के लिए फिल्मों की कमान सौंपी, बेशक इनमें से एकआध फिल्म बॉक्स ऑफिस पर थोड़ी बहुत चली भी हो लेकिन सच यही है कि जैकी का स्टार बनने का सफर अभी भी जारी है।वैसे बता दें, जैकी की इस फिल्म के निर्माता उनके पापा नहीं है। जैकी की इस नई फिल्म को नितिन कक्कड़ जैसे मंझे हुए काबिल डायरेक्टर ने निर्देशित किया है जो करीब 6 साल पहले कम बजट में बनी फिल्मि‍स्तान फिल्म के डायरेक्टर रहे, उनकी इस फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी मिला दर्शकों और क्रिटिक्स ने फिल्म को खूब सराहा। इस बार नितिन ने जैकी के करियर को पटरी पर लाने के मकसद से करीब दो साल पहले आई तेलुगु फिल्म पेली छुपूलू को कुछ बदलाव के साथ हिंदी में बनाया है लेकिन इस बार फिल्म को बिना किसी प्रमोशन के चंद मल्टिप्लेक्सों में रिलीज किया गया है।इसका खामियाजा मेकर्स को भुगतना पड़ सकता है। वैसे, फिल्म की कहानी में नयापन है फिल्म काफी हद तक दर्शकों को बांधने का दम भी रखती है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म के प्रिव्यू में शो में पंद्रह–बीस क्रिटिक की मौजूदगी और अडवांस बुकिंग पर फिल्म का जीरो रिस्पांस टेंशन की बात है।स्टोरी प्लॉटगुजराती फैमिली का जय (जैकी भगनानी) यूं तो इंजिनियर है उसने इंजिनियरिंग की स्टडी की है, इसके बावजूद अपने करियर को पटरी पर लाने की बजाए सारा दिन अपने घर में रहकर अजीबोगरीब हरकतें करता रहता है। घर वाले इससे परेशान हैं, अब जय के घरवालों को लगने लगता है अगर उसकी शादी करा दी जाए तो वह अपने करियर पर फोकस करेगा। बस फिर क्या फैमिली वाले जय की शादी एक खूबसूरत लड़की अवनी (कृतिका कामरा) से शादी की बात शुरू करते हैं, जय के साथ उसके खास दोस्त-प्रतीक गांधी और शिवम पारेख अक्सर नजर आते है। अब इसके आगे क्या होगा इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।डायरेक्शन - ऐक्टिंगडायरेक्टर नितिन की फिल्म पर अच्छी पकड़ है, खासतौर से इंटरवल से पहले की फिल्म मजेदार है। लेकिन इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार थम सी जाती है। हां, नितिन ने गुजरात के फ्लेवर और वहां की लोकेशन को अच्छे ढंग से पेश किया है। इस बार जैकी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है, न्यूकमर कृतिका कामरा अपने रोल में खूब जंची हैं, अन्य कलाकारों में नीरज सूद, प्रतीक गांधी, शिवम पारेख ठीकठाक रहे, फिल्म का एक गाना चलते चलते म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है।",0 "इस फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास का नाता मीडिया से रहा है। अविनाश ने बतौर डायरेक्टर अपनी पहली फिल्म मीडिया में कुछ साल पहले सुर्खियां बटोर चुकीं फैजाबाद की डांसर, सिंगर ताराबानो फैजाबादी से प्रेरित होकर बनाई। इस फिल्म की प्लानिंग करीब पांच साल पहले हुई, उस वक्त अनारकली के किरदार में रिचा शर्मा को कास्ट किया गया था। बाद में हालात ऐसे बने फिल्म शूटिंग फ्लोर तक ही नहीं पहुंच पाई। करीब चार साल बाद अविनाश ने इस प्रॉजेक्ट पर फिर काम शुरू किया और 'तनु वेड्स मनु' और 'रांझना' में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से मीडिया की सुर्खियां बटोर चुकीं स्वरा भास्कर को अविनाश ने अपनी इस फिल्म के लिए अप्रोच किया। स्वरा को कहानी और किरदार पंसद आया। इससे पहले स्वरा अपनी सोलो फिल्म 'नील बटे सन्नाटा' में खुद को बेहतरीन ऐक्ट्रेस साबित कर चुकी हैं। फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले स्वरा ने बिहारी भाषा पर जमकर होमवर्क किया। आरा की संस्कृति को ज्यादा नजदीक से जानने के लिए स्वरा किसी नामी होटेल की बजाए आरा के एक छोटे से होटेल में करीब एक महीने रहीं। स्वरा की यही मेहनत अब अनारकली के किरदार में साफ नजर आती है। अंत में स्वरा ने अपनी दमदार ऐक्टिंग के दम पर इस फिल्म को कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया तो वहीं तारीफ करनी होगी स्वरा के डायलॉग डिलीवरी की जो इस फिल्म की यूएसपी है। बतौर डायरेक्टर अविनाश दास की यह डेब्यू फिल्म है, लेकिन अविनाश इस सीमित बजट में बनी फिल्म के माध्यम से कई गंभीर मुद्दों पर भी दर्शकों का ध्यान खींचा है। बेशक फिल्म में कई डबल मीनिंग संवाद हैं, लेकिन ऐसे संवाद अब कॉमिडी शो और फिल्मों में अक्सर सुनाई देते हैं। इस फिल्म को लेकर सेंसर का रवैया कुछ ज्यादा ही सख्त रहा। कमिटी ने इस फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट तो दिया ही साथ ही कई सीन पर कैंची भी चलाई। कहानी : बिहार के आरा जिले में एक छोटे से मोहल्ले में रहने वाली लोक गायिका और डांसर अनारकली (स्वरा भास्कर) ने बचपन से ही अपनी मां को स्टेज पर गाते और डांस करते देखा। स्टेज पर मैरिज फंक्शन के दौरान एक हादसे में अनाकली की मां मारी जाती है। अनार जब बड़ी होती है तो रंगीला (पकंज त्रिपाठी) के ऑर्केस्ट्रा ग्रुप में शामिल हो जाती है। अनारकली इस ग्रुप की नंबर वन टॉप सिंगर, डांसर है। रंगीला के ग्रुप के साथ अनारकली स्टेज पर जब ठुमके लगाते परफॉर्म करती है तो स्टेज पर नोटों की बारिश सी हो जाती है। इसी बीच एक दिन पुलिस थाने में हो रहे फंक्शन के दौरान यहां चीफ गेस्ट बनकर पहुंचे आरा के एक विश्वविधालय के वीसी और स्टेट के चीफ मिनिस्टर के खास माने जानेवाले धर्मेन्द्र चौहान (संजय मिश्रा) का दिल अनारकली पर आ जाता है। चौहान स्टेज पर पब्लिक के सामने ही अनारकली के साथ अश्लील हरकतें शुरू कर देते हैं। थाना परिसर में हो रहे इस फंक्शन में चौहान की अश्लील हरकतें जब हद से ज्यादा बढ़ जाती हैं तो अनार उसे सबके सामने एक तमाचा लगाती है। इस थाने का एसएचओ बुलबुल पांडे (विजय कुमार) चौहान का खास है, स्टेज पर पब्लिक के बीच एक नाचने वाली से तमाचा खाने के बाद चौहान अब किसी भी कीमत पर अनारकली को हासिल करना चाहता है। ऐसे हालात में अनारकली एक दिन चौहान और लोकल पुलिस से बचकर दिल्ली आ जाती है। ऐक्टिंग : बॉलिवुड मसाला फिल्मों में अपनी जबर्दस्त कॉमिडी से फैन्स का दिल जीतने वाले संजय मिश्रा इस फिल्म के विलन हैं। वीसी चौहान के किरदार को संजय मिश्रा ने इस बेहतरीन ढंग से निभाया है कि हॉल में बैठे दर्शक उनके किरदार से नफरत करने लगते हैं। वहीं रंगीला ऑर्केस्ट्रा पार्टी के हेड के किरदार में पंकज मिश्रा ने अपने किरदार को दमदार बनाने के लिए अच्छी मेहनत की है। फिल्म की लीड ऐक्ट्रेस स्वरा भास्कर की बेहतरीन परफेक्ट ऐक्टिंग इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। निर्देशन : अविनाश ने एक सरल सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्म बनाई है जो ग्राउंड लेवल की सच्चाई को दर्शाती है। ऐसा लगता है कि अविनाश ने जैसे एक खास दर्शक वर्ग की पंसद को ध्यान में रखकर इस प्रॉजेक्ट पर काम किया, इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि फिल्म की कहानी कुछ ज्यादा ही टिपिकल है। फिल्म की भाषा ईस्ट यूपी और बिहार का मिक्सचर है। यकीनन फिल्म की यह भाषा इन राज्यों में तो बॉक्स ऑफिस के नजरिए से परफेक्ट हो, लेकिन हो सकता है कि 'ए' क्लास सेंटरों और टॉप मल्टिप्लेक्स ऑडियंस को यह भाषा पूरी तरह समझ न आए। संगीत : इस फिल्म के सभी गाने सब्जेक्ट, माहौल के डिमांड पर बनाए गए हैं। इन गानों के बोल आम बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले गानों जैसे नहीं हैं। हो सकता है कि जेन एक्स को फिल्म के यह टिपिकल स्टाइल के गाने शायद पसंद न आएं। क्यों देखें : अगर आप स्वरा के फैन हैं तो इस फिल्म को मिस न करें। इंटरवल से पहले फिल्म की सुस्त रफ्तार सब्र का इम्तिहान लेती है। वहीं फिल्म का क्लाइमैक्स गजब है। अगर आप मुंबइया चालू मसाला फिल्मों से उब चुके हैं तो 'अनारकली' एक बार देखी जा सकती है। ",1 "निर्माता : टॉम क्रूज, ब्रॉयन बर्क निर्देशक : ब्रॉड बर्ड कलाकर : टॉम क्रूज, सिमन पेग, पाउला पैटन, जर्मी रैनर, अनिल कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 12 मिनट हाई-टेक गैजेट्स, जबरदस्त विजुएल इफेक्ट्‍स और सांस रोक देने वाले स्टंट्स ‘मिशन इम्पॉसिबल’ सीरिज की खासियत हैं। मिशन इम्पॉसिबल सीरिज के फैंस को इस सीरिज की पिछली फिल्म, जो कि 2006 में रिलीज हुई थी, को देख थोड़ी निराशा हाथ लगी थी, लेकिन एमआई 4 : घोस्ट प्रोटोकॉल एक बार फिर उम्मीदों पर खरी उतरती है। ईथन हंट (टॉम क्रूज) रशिया की एक जेल में बंद है। आईएमएफ एजेंट्स जेन (पाउला पैटन) और बेनजी (सिमन पेग) उसे जेल से भागने में मदद करते हैं। तीनों को क्रेमलिन में भारी सुरक्षा के बीच से न्यूक्लियर बम के सीक्रेट कोड चुराना है, जिसके पीछे आंतकवादी हैंड्रिक (माइकल नेक्विस्ट) और उसके साथी भी लगे हुए हैं। वे अमेरिका पर न्यूक्लियर हमला करना चाहते हैं। सीक्रेट कोड पाने की कोशिश में गड़बड़ी होती है। हंट के पहले हैंड्रिक के हाथों वे कोड लग जाते हैं और वह क्रेमलिन में जबरदस्त विस्फोट करता है। रशियन पुलिस इसके लिए हंट को जिम्मेदार मानती है और दूसरी ओर अमेरिकी सरकार का भी यही सोचना है। हंट और उसके साथियों के लिए सभी सुविधाएं अमेरिकी सरकार बंद कर देती है। हंट और उसके साथियों को अब किसी भी कीमत पर हैंड्रिक को रोकना है और वो कोड वापस पाना है। इसके बाद शुरू होता है लुकाछिपी का खेल जो बुडापेस्ट, मास्को, दुबई से होता हुआ मुंबई तक जा पहुंचता है। किस तरह से ईथन हंट अपने मिशन को पॉसिबल बनाता है यह फिल्म में तेज रफ्तार से रोमांचक घटनाक्रम के जरिये दिखाया गया है। जोश एप्पेलबॉम और आंद्रे नेमेक द्वारा लिखी गई कहानी में ढेर सारे उतार-चढ़ाव हैं और स्क्रीनप्ले ऐसा लिखा गया है कि दर्शक फिल्म से बंधकर रहता है। स्टंट्स और ड्रामे का मिश्रण उम्दा तरीके से किया गया है, लिहाजा फिल्म देखते समय रोमांच बना रहता है। फिल्म में कई दृश्य उल्लेखनीय हैं। जेल से ईथन के भागने वाले और क्रेमलिन से सीक्रेट कोड चुराने की कोशिश करने वाले दृश्यों में रोमांच और हास्य का संगम है। दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा में फिल्माए गए सीन जबरदस्त बन पड़े हैं। टॉम क्रूज के जबरदस्त स्टंट के बाद यहां पर कोडवर्ड के लिए होने वाली डिलिंग में रोमांच हद पार कर जाता है। इसके बाद रेतीले तूफान में हैंड्रिक और हंट की चेंजिंग भी उम्दा बन पड़ी है। क्लाइमेक्स में हैंड्रिक और हंट की मल्टीस्टोरी कार पार्क में हुई फाइट भी शानदार है। जहां तक कमियों का सवाल है तो ईथन हंट और उनकी पत्नी वाले प्रसंग को ठीक से स्पष्ट नहीं किया गया है। अनिल कपूर की पार्टी वाला प्रसंग जल्दबाजी में निपटाया गया है, जिसमें ईथन और उसके साथी कोशिश करते हैं कि हैंड्रिक मिसाइल छोड़ने में नाकामयाब रहे। ईथन हंट के पीछे पड़ी रशियन पुलिस वाला ट्रेक भी अधूरे तरीके से दिखाया गया है। ब्रॉड बर्ड का निर्देशन उम्दा है। उन्होंने टॉम क्रूज की लोकप्रियता को ध्यान में रखकर फिल्म बनाई है ताकि उनके फैंस को मजा आए। फिल्म का मूड उन्होंने हल्का-फुल्का रखा है खासतौर पर बेनजी द्वारा बोले गए संवाद मजेदार हैं। टॉम क्रूज का अभिनय उम्दा है और स्टंट्स जबरदस्त। सिमन पेग जब-जब स्क्रीन पर आए दर्शकों को उन्होंने हंसाया। पाउला पैटन ने भी स्टंट्स में अपने हाथ दिखाए। हैंड्रिक बने माइकल को और ज्यादा फुटेज दिए जाने थे। अनिल कपूर का रोल इतना बड़ा नहीं है जितना कि इसके बारे में दावा कर रहे थे। कुल मिलाकर मिशन इम्पॉसिलबल 4 : घोस्ट प्रोटोकॉल टॉम क्रूज के फैंस को पसंद आएगी। ",1 " मिच (ड्वेन जॉनसन) बेवॉच में लाइफगार्ड्स का लीडर है। उसकी कंपनी तीन नए लाइफगार्ड्स रखती है जिसमें मैट ब्रूडी (जैक एफरॉन) भी शामिल है। मैट और मिच में बिलकुल नहीं बनती क्योंकि दोनों अपने को ज्यादा काबिल समझते हैं। समुंदर किनारे कुछ लोगों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो जाती है। मिच को शक है कि हंटले क्लब की नई मालकिन विक्टोरिया लीड्स (प्रियंका चोपड़ा) क्लब की आड़ में ड्रग्स की स्मगलिंग करती है, लेकिन उसके पास कोई सबूत नहीं है। पुलिस और नेता सब विक्टोरिया से मिले हुए हैं। मिच और मैट मिलकर किस तरह से विक्टोरिया को बेनकाब करते हैं, यह फिल्म का सार है। समुंदर का किनारा, खूबसूरत लड़कियां, ड्रग्स, अपराध जैसे चिर-परिचित फॉर्मूले होने के बाद भी यदि 'बेवॉच' दर्शकों को बांध नहीं पाती है तो इसका पूरा दोष कहानी और स्क्रीनप्ले पर मढ़ा जा सकता है। एक घिसी-पिटी कहानी पर फिल्म बनाई गई है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। विक्टोरिया को अत्यंत शक्तिशाली और चालाक दिखाया गया है जिसने सभी से हाथ मिला लिया और जो तैयार नहीं हुए उन्हें रास्ते से हटा दिया, लेकिन मिच जैसे एक मामूली लाइफगार्ड उसका साम्राज्य हिला देता है, यह बात हजम नहीं होती। मिच जिस तरह से यह सब करता है वो ड्रामे को और अविश्वसनीय बनाता है। मिच और मैट बड़ी आसानी से अस्पताल में घुस जाते हैं। पुलिस थाने से रिपोर्ट्स चुरा लेते हैं। विक्टोरिया के याट और क्लब में बड़ी आसानी से छानबीन करते हैं। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। वे जो चाहते हैं, सरलता से हासिल कर लेते हैं। इससे फिल्म में जरा भी रूचि पैदा नहीं होती। स्क्रीनप्ले में मनोरंजन का अभाव है। मैट और मिच की कॉमेडी ज्यादा हंसा नहीं पाती। विक्टोरिया द्वारा दी गई पार्टी वाला प्रसंग इतना लंबा है कि ऊब पैदा होने लगती है। ड्वेन जॉनसन जैसा स्टार होने के बावजूद एक्शन सीक्वेंस कम रखना निराश करता है। फिल्म का क्लाइमैक्स हास्यास्पद है। फिल्म के सीजीआई बहुत कमजोर है। याट में आग लगने वाला दृश्य पूरी तरह नकली लगता है। इससे बेहतर काम तो बॉलीवुड में हो रहा है। निर्देशक सेथ अपने प्रस्तुतिकरण को रोचक नहीं बना पाए और उपलब्ध साधनों का ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पाए। फिल्म में जो थ्रिल और ग्लैमर होना चाहिए था वो नजर नहीं आया। अधिकतर सीक्वेंस बोरियत से भरे हैं। अभिनय ही फिल्म का उल्लेखनीय पक्ष है। ड्वेन जॉनसन जोरदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है कि निर्देशक उनका ठीक से उपयोग ही नहीं कर पाया। जैक एफरॉन का अभिनय भी शानदार है और ड्वेन का वे अच्छा मुकाबला करते हैं। लड़कियों में सिर्फ प्रियंका चोपड़ा को ही कुछ करने का मौका मिला, बाकी तो महज आई कैंडी बन कर रह गईं। प्रियंका को यह रोल किसी बॉलीवुड मूवी के लिए ऑफर हुआ होता तो वे ठुकराने में ज्यादा देर नहीं लगाती। केवल हॉलीवुड मूवी होने के कारण उन्होंने यह रोल किया है। उनका रोल लंबा नहीं है। जहां तक अभिनय का सवाल है तो उन्होंने अपने किरदार को स्टाइलिश लुक देने में ही सारी मेहनत की है। बेवॉच के लाइफगार्ड्स ने फिल्म में भले ही सैकडों लोगों की जान बचाई हो, लेकिन इस फिल्म को वे डूबने से नहीं बचा पाए। निर्माता : इवान रेइतान, टॉम पोलक, ब्यू फ्लिन, ड्वेन जॉनसन, माइकल बर्क, डानी गार्सिया, डगलस श्वार्टज़, ग्रेगरी जे बोनैन निर्देशक : सेथ जॉर्डन कलाकार : ड्वेन जॉनसन, प्रियंका चोपड़ा, जैक एफरॉन, एलेकज़ेंड्रा डैडारिओ, केली रोहरबैच, जॉन बास, इल्फेनेश हडेरा सेंसर सर्टिफिकेट : ए ",0 "विक्रम भट्ट द्वारा बनाई गई हॉरर फिल्मों को देख दर्शक थक और पक चुके हैं, लेकिन विक्रम भट्ट अभी बोर नहीं हुए हैं। तीन-चार महीने में दर्शकों को डराने के लिए वे फिल्म लेकर हाजिर हो जाते हैं। दर्शक चाहते हैं कि विक्रम उन्हें अपनी फिल्मों से डराएं, चौकाएं, रोमांचित करें, लेकिन अब तो उनकी हॉरर/थ्रिलर फिल्मों को देख हंसी आती है। हॉरर या थ्रिलर बजाय ये हास्य फिल्मों में तब्दील हो गई हैं। विक्रम के साथ समस्या ये है कि वे एक जैसी फिल्में बना रहे हैं। भूत-चुड़ैल-प्रेतात्मा के जरिये भय पैदा किया जाता है। फिर कोई तांत्रिक, वैज्ञानिक, पंडित या फादर आकर रास्ता निकालता है। ‘क्रीचर’ में उन्होंने डराने के लिए एक खूंखार जानवर को लाया है। जो मानव और छिपकली का मिला-जुला रूप है। इसे ब्रह्मराक्षस बताया गया है। इसकी उत्पत्ति कैसे होती है इसके बारे में फिल्म में जूलॉजिस्ट बने मुकुल देव बताते हैं। इस ब्रह्मराक्षस से डराने की सारी कोशिश कमजोर स्क्रिप्ट के अभाव में बेकार हो गई हैं। कहानी है आहना दत्त (बिपाशा बसु) की, जो लोन लेकर हिमाचल प्रदेश में एक हिल स्टेशन पर एक होटल खोलती है। होटल के खुलते ही वहां कई लोग रूम की बुकिंग कराते हैं, जिसमें से एक लेखक कुणाल आनंद (इमरान अब्बास नकवी) भी है। जल्दी ही दहशत का माहौल शुरू हो जाता है क्योंकि होटल में ठहरे एक व्यक्ति की जंगल में अपनी पत्नी को घुमाने ले जाने के दौरान मौत हो जाती है। वह आहना के होटल में रूका था। क्रीचर होटल के कुक को भी मार डालता है। धीरे-धीरे मौत का सिलसिला शुरू हो जाता है। हमले से बचा एक आदमी बताता है कि यह एक राक्षस का किया धरा है। मुंबई का एक प्रोफेसर सदाना (मुकल देव) बताता है कि यह क्रीचर मूलत: ब्रह्मराक्षस है जिसे मारना लगभग असंभव है। आहना के होटल में कोई रूकना नहीं चाहता। प्रोफेसर सदाना भी आहना को होटल बंद करने का कहते हैं। इधर बैंक वाले आहना पर लोन चुकाने का दबाव बनाते हुए उसे दस दिन का समय देते हैं। आहना होटल बंद करने के बजाय क्रीचर से लड़ने का निश्चय करती है। उसका साथ देता है कुणाल जो अब आहना को चाहने लगा है। इसी बीच आहना को डॉ. मोगा (मोहन कपूर) बताता है कि क्रीचर को उसी हथियार से मारा जा सकता है जिसे गुरु पूर्णिमा के दिन नीम के पानी से एक विशेष तालाब में धोकर पवित्र किया जाए। गुरु पूर्णिमा तो महीनों दूर है। आहना इस ब्रह्मराक्षस से कैसे निपटती है यह फिल्म का सार है। विक्रम भट्ट की कहानी बेहद घिसी-पिटी है। सुखमणि साधना के साथ मिलकर उन्होंने स्क्रीनप्ले लिखा है, लेकिन कुछ भी नया वे पेश नहीं कर पाए। 'क्रीचर' ही एकमात्र पहलू है जिसको लेकर दर्शकों में जिज्ञासा रहती है। शुरुआत में क्रीचर वाले दृश्य थोड़ा डराते हैं, लेकिन जब इसी तरह के दृश्य लगातार दोहराए जाते हैं तो डर काफूर हो जाता है। जब तक क्रीचर को दिखाया नहीं गया है तब तक जरूर फिल्म में उत्सुकता रहती है, लेकिन क्रीचर को देखने के बाद फिल्म बेहद खींची गई है और इसमें रहस्य जैसी कोई बात नहीं रह जाती। क्रीचर को मारने का जो उपाय बताया गया है उस पर यकीन दिलाने में फिल्मकार नाकाम रहे हैं। विक्रम भट्ट की तारीफ इसलिए की जा सकती है कि उन्होंने हॉलीवुड की तर्ज पर बॉलीवुड में इस तरह की फिल्म बनाने का प्रयास किया है। सीमित बजट की वजह से वे अपनी कल्पनाओं को वैसे पंख नहीं लगा पाए। लेखक के रूप में एकरसता से उन्हें बचना होगा। उनकी सारी फिल्में एक जैसी लिखी जाती हैं। विक्रम ने अपने आपको एक ऐसे घेरे में कैद कर लिया है जिसके बाहर वे सोच नहीं पा रहे हैं। पहले भय पैदा किया जाता है, फिर उससे निपटने का बकवास सा उपाय बताया जाता है। अब तो विक्रम की फिल्मों के किरदार भी एक जैसे लगते हैं। ‘क्रीचर’ को खराब स्क्रिप्ट ले डूबी। जो थ्रिल, सस्पेंस और हॉरर इस जॉनर की फिल्मों में होना चाहिए वो नदारद है। फिल्म में गाने दर्शकों के लिए ब्रेक का काम करते हैं। बिपाशा और इमरान वाला रोमांटिक ट्रेक भी बेहद कमजोर है। वीएफएक्स वर्क तारीफ योग्य हैं क्योंकि सीमिति साधनों में किया गया है। थ्री-डी इफेक्ट्स कुछ जगह प्रभावी है। संवादों पर बिलकुल भी मेहनत नहीं की गई है। बिपाशा बसु ने अपने अभिनय से फिल्म में जान डालने की पुरजोर कोशिश की है, लेकिन नाकाम रही हैं। उनके अभिनय में विविधता नहीं है। इमरान अब्बास को पता ही नहीं कि एक्टिंग किसे कहते हैं। पूरी फिल्म में वे ‘वूडन एक्सप्रेशन’ लिए घूमते रहे। मुकुल देव औसत रहे। क्रीचर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए टिकट खरीदा जाए। 3 डी बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., बीजीवी फिल्म्स निर्माता : भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीतकार : मिथुन, टोनी कक्कड़ कलाकार : बिपाशा बसु, इमरान अब्बास, मुकुल देव, मोहन कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट ",0 " गुलाब गैंग के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि फिल्म के लेखक और निर्देशक सौमिक सेन यह तय नहीं कर पाए कि वे फिल्म का प्रस्तुतिकरण वास्तविकता के नजदीक रखें या कमर्शियल फॉर्मेट को ध्यान में रख बात को पेश किया जाए। पूरी फिल्म में उनकी यह दुविधा नजर आती है। कुछ सीन एकदम सलमान खान की फिल्मों जैसे हैं। माधुरी दीक्षित बिलकुल सलमान अंदाज में कूदते-फांदते और हवा में उड़ते हुए फाइटिंग करती नजर आती हैं तो दूसरी ओर कुछ दृश्यों में वो गंभीरता नजर आती है जो इस तरह की फिल्म मांगती है। लेकिन मामला खिचड़ी हो जाने से स्वाद बिगड़ गया है और एक अच्छे विषय पर कमजोर फिल्म का नतीजा सामने आता है। फिल्म के निर्माता ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी फिल्म पूरी तरह से काल्पनिक है। सम्पत पाल और गुलाब गैंग पर आधारित नहीं है, लेकिन सभी जानते हैं कि प्रेरणा उसी से ली गई है। सिर्फ गुलाब गैंग का विचार उधार लेकर सौमिक सेन ने कुछ वास्तविक घटनाओं को जोड़ कर फिल्म लिखी है। रज्जो (माधुरी दीक्षित) माधवपुर में गुलाब गैंग की लीडर है। असहाय महिलाओं की वह रक्षा करती है। छोटी बच्चियों को पढ़ाती है। इस गैंग की महिलाएं किसी भी मामले में अपने को पुरुषों से कम नहीं समझतीं और अक्सर हिंसा का सहारा लेती है। रज्जो का कहना है 'रॉड इज़ गॉड'। उसकी लोकप्रियता को बढ़ता देख भ्रष्ट राजनेता सुमित्रा देवी (जूही चावला) रज्जो की ओर हाथ बढ़ाती है, लेकिन रज्जो इसे ठुकरा कर सुमित्रा देवी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला करती है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने वाली सुमित्रा चुनाव जीतने के लिए सारे हथकंडे अपनाती है। चुनाव परिणाम क्या निकलता है? क्या रज्जो का स्कूल खोलने का सपना पूरा होगा? क्या सुमित्रा देवी को रज्जो हरा पाएगी? इन प्रश्नों के जवाब फिल्म का सार है। सौमिक सेन की कहानी में केवल यही विशेषता है कि इसमें हीरो भी महिला है और विलेन भी। इस अनूठी बात को छोड़ दिया जाए तो यह फिल्म केवल अच्छाई बनाम बुराई की कहानी है। 'गुलाब गैंग' को बीच में ही भूला दिया जाता है और यह फिल्म हीरो बनाम विलेन की कहानी बन जाती है जो हजारों बार सिल्वर स्क्रीन पर दोहराई जा चुकी है। सौमिक सेन ने केवल सीन गढ़े हैं और कहानी में प्रवाह नजर नहीं आता। कई दृश्यों का एक-दूसरे से संबंध नहीं है। कई बातें अस्पष्ट रह जाती हैं। जैसे सुमित्रा के नाम पर स्कूल खोलने के लिए रज्जो क्यों आपत्ति लेती है? रज्जो अचानक चुनाव लड़ने का फैसला कैसे कर लेती है? कई बार कानून हाथ में लेने के बावजूद पुलिस गुलाब गैंग के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं करती है? कहानी के साथ-साथ स्क्रीनप्ले में भी खामियां हैं? जिस तरीके से कहानी को परदे पर पेश किया गया है वो बेहद उबाऊ है। थोड़ी देर में ही दर्शक फिल्म में अपनी रूचि खो बैठते हैं और स्क्रीन पर चल रहे ड्रामे से जुड़ नहीं पाते। कुछ दृश्य तारीफ योग्य भी हैं। जैसे एक नेता के बलात्कारी बेटे को गुलाब गैंग की महिलाओं द्वारा तालाब से पकड़ना। रज्जो और सुमित्रा देवी के आमने-सामने वाले दृश्य। रज्जो का अपनी गैंग के सदस्यों के साथ हंसी-मजाक करना। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। माधुरी दीक्षित का किरदार गंभीरता मांगता था, लेकिन निर्देशक ने उनसे डांस भी करा दिया और हास्यास्पद तरीके से फाइटिंग भी कराई है, इस वजह से माधुरी के किरदार का फिल्म में प्रभावहीन नजर आता है। माधुरी के अभिनय में वो 'स्पार्क' नदारद रहा जो किरदार की डिमांड थी। अभिनय के मामले में जूही चावला बाजी मार ले जाती है और इसकी वजह है कि उनके किरदार में कई रंग हैं। कुटील मुस्कान और लौंग चबाती जूही ने अपनी इमेज के विपरीत खलनायिका के तेवर दिखाए हैं। कैसी भी परिस्थिति हो वे एकदम 'कूल' नजर आती हैं। गुलाब गैंग में से प्रियंका बोस और विद्या जगदाले का अभिनय उल्लेखनीय है। अतुल श्रीवास्तव, राजीव सक्सेना, भी प्रभावित करते हैं। सौमिक सेन का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है, लेकिन जरूरत से ज्यादा गानों का प्रयोग अखरता है। गुलाब गैंग रंगहीन है। न सोचने पर मजबूर करती है और न ही मनोरंजन। बैनर : बनारस मीडिया वर्क्स, सहारा मूवी स्टुडियोज़ निर्माता : अनुभव सिन्हा निर्देशक-संगीत : सौमिक सेन कलाकार : माधुरी दीक्षित नेने, जूही चावला, दिव्या जगदाले, प्रियंका बोस, अतुल श्रीवास्तव, राजीव सक्सेना सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 13 सेकंड ",0 "‘चमकू’ फिल्म तो क्या उसके पोस्टर से भी दूर रहिए। निर्माता : विजयेता फिल्म्स प्रा.लि. निर्देशक : कबीर कौशिक गीत : समीर संगीत : मोंटी शर्मा कलाकार : बॉबी देओल, प्रियंका चोपड़ा, डैनी, इरफान खान, राजपाल यादव, आर्य बब्बर, रितेश देशमुख ‘चमकू’ फिल्म का निर्माण बॉबी के घरेलू बैनर विजयेता फिल्म्स ने इसलिए किया गया है कि बॉबी के अंधकारमय करियर में रोशनी आए, लेकिन इस फिल्म के बाद यह अंधेरा और गहरा जाएगा। आश्चर्य होता है कि देओल्स ने इतनी घिसी-पिटी कहानी चुनी, जो किसी भी दृष्टि से बॉबी का भला नहीं कर सकती। एक बच्चे की आँखों के सामने उसके परिवार की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी जाती है। बड़ा होकर वह अपना बदला लेता है। इस एक लाइन की कहानी पर आधारित फिल्में दर्शक हजारों बार देख चुके हैं। इस पर फिल्म बनाना निर्देशक कबीर कौशिक और उस पर पैसा लगाने वालों की समझ पर सवालिया निशान लगाता है। फिल्म की कहानी में नया मोड़ यह दिया गया है कि नक्सलवादी चमकू (बॉबी देओल) पुलिस चुंगल में फँस जाता है। उसे रॉ और आईबी वाले एक कार्यक्रम के तहत असामाजिक तत्वों को मारने के लिए चुन लेते हैं। वे चुपचाप अपना काम करते हैं। शुभि (प्रियंक चोपड़ा) के प्यार में चमकू पड़ जाता है और इस काम से छुटकारा पाना चाहता है, लेकिन यह मुमकिन नहीं है। ‘या तो मारो या फिर मरो’ वाले सिद्धांत पर उसे काम करना है। फिल्म बहुत जल्दबाजी में बनाई गई है मानो कोई डैडलाइन पूरी करनी हो। फिल्म इस तरह छलाँग मारते हुए चलती है, मानो फिल्म को ‘फास्ट फॉरवर्ड’ करके देख रहे हों। दृश्यों का आपस में कोई तालमेल नहीं है। ऐसा लगता है कि चार घंटे की फिल्म को काँट-छाँट कर दो घंटे की कर दिया गया हो। क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? कहाँ हो रहा है? जैसे ढेर सारे प्रश्न दिमाग में आते हैं। फिल्म के निर्देशक के रूप में कबीर कौशिक का नाम जरूर है, लेकिन फिल्म देखकर लगता ही नहीं कि इसे किसी ने निर्देशित किया है। उन्होंने पूरी फिल्म ‍एक्शन डॉयरेक्टर टीनू वर्मा के जिम्मे छोड़ दी, जो कलाकारों से मारा-धाड़ करवाते रहे। बॉबी देओल का काम ठीक है। प्रियंका चोपड़ा को देख ऐसा लगा कि वे सिर्फ साडि़यों की मॉडलिंग करने बीच-बीच में आ जाती हैं। मोटापा अब उनके चेहरे और गर्दन पर झलकने लगा है। डैनी, रितेश देशमुख और राजपाल यादव जैसे कलाकारों ने पता नहीं क्यों फिल्म साइन की। या तो उनकी भूमिकाओं पर बुरी तरह कैंची चला दी गई या फिर उन्होंने पैसों की लालच में इस फिल्म में काम किया। एक की भी भूमिका उल्लेखनीय नहीं है। आर्य बब्बर और दीपल शॉ जैसे कलाकारों को तो निर्देशक ने एक भी संवाद नहीं दिए। इरफान खान और अखिलेन्द्र मिश्रा ने ठीक-ठाक काम किया। फिल्म में संगीत के नाम पर कुछ गाने भी हैं। ‘चमकू’ फिल्म तो क्या उसके पोस्टर से भी दूर रहिए। ",0 "बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया संगीत : अभिषेक रे कलाकार : इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्म ा, जाकि र हुसै न सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 15 मिनट * 8 रील पान सिंह तोमर का इंटरव्यू ले रहा पत्रकार पूछता है‍ कि आप डाकू कब बने, तो वह नाराज हो जाता है। वह कहता है ‘डकैत तो संसद में बैठे हैं, मैं तो बागी हूं।‘ उसे अपने आपको बागी कहलाना पसंद था। समाज जब उसे न्याय नहीं दिला पाया तो उसे बागी बनना पड़ा। अपनी रक्षा के लिए बंदूक उठाना पड़ी। उसे इस बात का अफसोस भी था। बागी बनकर बीहड़ों में भागने की बजाय उसे रेस के मैदान में भागना पसंद था। बीहड़ में ट्रांजिस्टर पर जब वह अपना नाम सुनता था तो भड़क जाता था। बुदबुदाता था कि जब उसने देश का नाम खेल की दुनिया में रोशन किया तो कभी उसका नाम नहीं लिया गया। कोई पत्रकार उससे इंटरव्यू लेने के‍ लिए नहीं आया, लेकिन बंदूक उठाते ही उसका नाम चारों ओर सुनाई देने लगा है। पान सिंह तोमर की जिंदगी दो हिस्सों में बंटी हुई है। खिलाड़ी और फौजी वाला हिस्सा उसकी जिंदगी का उजला पक्ष है तो बंदूक उठाकर बदला लेने वाला डार्क हिस्सा है। फौजी पान सिंह की खुराक इतनी थी कि उसे सलाह दी जाती है कि वह स्पोर्ट्स में चला जाए जहां खाने पर कोई राशनिंग नहीं है। पान सिंह बहुत तेज दौड़ता था इसलिए वह खेलों की ओर चला गया। 5000 मीटर रेस में वह हिस्सा लेना चाहता था, लेकिन अपने कोच के कहने पर स्टीपलचेज़ में हिस्सा लेता है। राष्ट्रीय रेकॉर्ड बनाता है और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में ‍भी हिस्सा लेता है। फौज से रिटायरमेंट के बाद गांव में शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहता है, लेकिन चचेरे भाइयों से जमीन के विवाद के कारण उसे बागी बनना पड़ता है। बंदूक उठाने के पहले वह भाइयों की शिकायत कलेक्टर से करता है। थाने जाता है। थानेदार को जब वह अखबारों की कटिंग दिखाता है तो ‘स्टीपलचेज़’ पढ़कर थानेदार पूछता है कि पानसिंह तुम किसको चेज़ करते थे। उसकी बात नहीं सुनी जाती है और सारे मेडल फेंक दिए जाते हैं। एथलीट पान सिंह की कहानी में कई उतार-चढ़ाव है, इसीलिए तिग्मांशु धुलिया को उन पर फिल्म बनाने का आ‍इडिया आया। यह आइडिया उन्हें तब सूझा था जब वे शेखर कपूर के असिस्टेंट के रूप में ‘बैडिंट क्वीन’ की शूटिंग चंबल के बीहड़ों में कर रहे थे। पान सिंह का नाम उन्होंने सुना और उन्हें लगा कि इस शख्स की कहानी सिल्वर स्क्रीन पर दिखाई जानी चाहिए। तिग्मांशु ने कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई हैं, लेकिन अब तक उन्हें वो श्रेय नहीं मिल पाया है, जिसके वे हकदार हैं। ‘पान सिंह तोमर’ भी उन्होंने देखने लायक बनाई है। चम्बल के डाकू पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन तिग्मांशु की फिल्म वास्तविकता के बेहद नजदीक है। आमतौर पर डाकू को बॉलीवुड फिल्मों में घोड़ों पर दिखाया जाता है जबकि हकीकत ये है कि वे मीलों पैदल ही चलते थे। कैसे वे जंगलों में रहते थे, गांव वाले उनकी क्यों मदद करते थे, किस तरह से पुलिस को उनकी सूचना मिलती थी, इस बात को तिग्मांशु ने बारीकी से दिखाया है। यही बात पा‍न सिंह के खेल वाले हिस्से के लिए भी कही जा सकती है। डाकू और बदले की कहानी के बावजूद यह फिल्म बोझिल नहीं है। पान सिंह की कहानी और उसके कैरेक्टर को बेहद मनोरंजक तरीके से दिखाया गया है। पान‍ सिंह और उसकी पत्नी की नोकझोक वाले हिस्से बड़े मजेदार हैं। पान सिंह की स्पष्टवादिता के कारण भी कई जगह हास्यास्पद स्थितियां निर्मित होती हैं। वह अपने ऑफिसर को साफ कह देता है कि कई अफसर निकम्मे हैं, सरकार चोर है और उसे अपने एक रिश्तेदार पर गर्व है जो बागी है और पुलिस उसे अब तक पकड़ नहीं पाई है। फिल्म में बहुत ज्यादा हिंसा भी नहीं है और सेंसर बोर्ड ने इसे ‘यू’ सर्टिफिकेट दिया है। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और इसे पन्द्रह मिनट छोटा किया जा सकता था। फिल्म में भिंड और मुरैना में बोली जाने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया है। इससे फिल्म की विश्वसनीयता और बढ़ जाती है। हालांकि कुछ शब्दों का अर्थ समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन बात समझ में आ जाती है। इरफान खान ने पान सिंह तोमर को परदे पर जिस तरह जिया है उससे फिर साबित हो गया है कि यह अभिनेता कभी खराब अभिनय नहीं कर सकता है। फौजी, खिलाड़ी और डकैत जैसे उनके कई चेहरे फिल्म में देखने को मिलते हैं। खिलाड़ी के रूप में उनकी उम्र ज्यादा लगती है, लेकिन जब उनके जैसा काबिल अभिनेता हो तो यह बात कोई मायने नहीं रखती है। माही गिल, विपिन शर्मा, जाकिर हुसैन जैसे परिचित चेहरों के अलावा कई नए चेहरे नजर आते हैं और सभी के अभिनय का स्तर बहुत ऊंचा है। फिल्म के अंत में उन खिलाड़ियों के नाम देख आंखें नम हो जाती है, जिन्होंने खेलों की दुनिया में भारत का नाम रोशन किया, लेकिन उनमें से किसी ने बंदूक उठा ली, किसी को अपना पदक बेचना पड़ा तो कई इलाज के अभाव में दुनिया से चल बसे। पान सिंह भी इनमें से एक था। ",1 "हीरो हमेशा यूनिफॉर्म में नहीं आते! जी हां, फिल्म 'रेड' की टैगलाइन यही है कि हीरो हमेशा यूनिफॉर्म में नहीं आते। बॉलिवुड फिल्मों में हम ज्यादातर ऐक्शन हीरोज को पुलिस या आर्मी की यूनिफॉर्म में दुश्मनों से भिड़ते देखते हैं। खुद अजय देवगन भी कई फिल्मों में पुलिस और आर्मी ऑफिसर के रोल में यह कमाल दिखा चुके हैं। इनमें उनकी 'सिंघम' और 'गंगाजल' से लेकर 'जमीन' तक कई फिल्में शामिल हैं। लेकिन इस फिल्म 'रेड' में अजय देवगन एक ऐसे हीरो के रोल में हैं, जो कि बिना वर्दी के ही अपना दम दिखाता है। इसे इनकम टैक्स रेड पर बनी दुनिया की पहली फिल्म भी बताया जा रहा है। जानकारों के मुताबिक फिल्म रेड 1981 में लखनऊ में पड़े एक हाई प्रोफाइल छापे की सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें एक निडर इंडियन रेवेन्यू सर्विस (आईआरएस) का ऑफिसर अमय पटनायक (अजय देवगन) सांसद रामेश्वर सिंह उर्फ राजाजी सिंह (सौरभ शुक्ला) के यहां अपनी पूरी टीम के साथ छापा मारता है। राजाजी बचने के लिए अपना पूरा जोर लगाता है, वहीं अमय भी पीछे नहीं हटता। हालांकि इस रस्साकशी में किसकी जीत होती है, यह तो आपको थिएटर जाकर ही पता लग पाएगा। इस पूरे घटनाक्रम में साहसी ऑफिसर अमय की पत्नी नीता पटनायक (इलियाना डीक्रूज) भी अपने पति को पूरा सपॉर्ट करती है। अजय देवगन को अपने किरदारों को खास अंदाज में जीने के लिए जाना जाता है। इस फिल्म में उन्होंने दिखा दिया कि रोल चाहे वर्दी वाले हीरो का हो या बिना वर्दी वाले हीरो का, वह उसे उतनी ही शिद्दत से करते हैं। वहीं राजाजी के रोल के लिए तो जैसे सौरभ शुक्ला से बढ़िया कोई दूसरा कलाकार हो ही नहीं सकता था। इलियाना डीक्रूज ने भी अपने छोटे से रोल के मुताबिक ठीकठाक ऐक्टिंग की है। वहीं राजाजी की दादी भी कमाल लगी हैं। इससे पहले 'आमिर' और 'नो वन किल्ड जेसिका' जैसी धारदार फिल्में बना चुके 'रेड' फिल्म के डायरेक्टर राजकुमार गुप्ता ने काफी अरसे पहले पड़े इस हाईप्रोफाइल छापे के असल गुनहगार और अफसर के नाम भले ही बदल दिए हों, लेकिन उस समय के माहौल को क्रिएट करने में वह काफी हद तक सफल रहे हैं। वहीं राजकुमार गुप्ता के साथ मिलकर फिल्म की स्टोरी और डायलॉग लिखने वाले रितेश शाह ने अपना कमाल दिखाया है। फिल्म के संवाद दर्शकों को पसंद आएंगे। इससे पहले फिल्म 'पिंक' में अपने काम के लिए तारीफें बटोर चुके रितेश ने 'रेड' में भी स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग पर मेहनत की है। खासकर ऐसी फिल्म जो कि किसी सत्य घटना पर आधारित हो, वहां आपके पास बहुत कुछ ड्रामेटिक करने के लिए नहीं होता। इंटरवल से पहले फिल्म आपको मजेदार लगती है, तो सेकंड हाफ में यह काफी रोमांचक हो जाती है। सबसे अच्छी बात यह है कि राजकुमार गुप्ता ने एडिटिंग काफी कसी हुई की है, जिस वजह से यह फिल्म महज दो घंटे से कुछ ज्यादा टाइम में खत्म हो जाती है। इस वीकेंड अगर आप कुछ रोमांचक देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए ही है। ",0 "महात्मा गांधी ने कहा था कि धरती पर इंसान की जरूरत के लिए पर्याप्त साधन हैं, उसके लालच के लिए नहीं। निर्माता आनंद एल राय और सोहम शाह की ताजातरीन पेशकश तुंबाड का मूल यही है। ज्यादा पाने का लालच इंसान को कई बार शैतान बना देता है। तुंबाड इशारों-इशारों में आपको ऐसे ही रहस्यमयी, रोमांचकारी और डरावने सफर पर ले जाती है।फिल्म की शुरुआत 1918 में महाराष्ट्र के एक गांव तुंबाड से होती है। मूसलाधार बारिश से सराबोर रहने वाले इस गांव की एक जर्जर हवेली में एक विधवा (ज्योति मालशे) एक वृद्ध की सेवा में लगी रहती है। गांव में प्रचलित कहानी के अनुसार, यह जर्जर हवेली देवी का सोना ले उड़ने वाले लालची पुत्र हस्तर का मंदिर है, जिसमें खजाना छिपा हुआ है। वीराने में स्थित अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी में दो छोटे बच्चों के साथ गुजर-बसर करने वाली यह विधवा इसी सोने की चाह में न केवल बूढ़े की सेवा करती है, बल्कि जान हथेली पर रखकर जंजीरों में जकड़ी उसकी दैत्य पत्नी के खाने का इंतजाम भी करती है। बावजूद इसके उसके हाथ सोने के एक सिक्के के अलावा कुछ नहीं लगता, उल्टे अपने छोटे बेटे को भी गंवाना पड़ता है। इसीलिए, वह अपने बड़े बेटे विनायक के साथ हमेशा के लिए तुंबाड गांव छोड़कर पुणे आ जाती है और उससे वादा लेती है कि वह तुंबाड कभी नहीं लौटेगा। विनायक मां से वादा तो कर लेता है, लेकिन अपने पुरखों के खजाने को नहीं भूल पाता और बड़ा होकर उसकी तलाश में लौटकर तुंबाड ही पहुंचता है। अब सोने के इन सिक्कों को बटोरने की लालच में वह किस हद तक पहुंचता है, यह देखकर दर्शक सिहर उठते हैं। तीन पीढ़ियों तक चलने वाली यह कहानी हिस्टॉरिकल, पीरियड, फैंटसी, हॉरर जैसे कई जॉनर्स का मिश्रण है, जो श्रीपद नारायण पेंडसे के मराठी उपन्यास तुंबडचे खोत पर आधारित है। निर्देशक राही अनिल बर्वे ने अपनी इस पहली ही फिल्म में ही नए और व्यापक दृष्टिकोण के साथ एंट्री मारी है। फिल्म को सशक्त बनाने में उन्हें क्रिएटिव डायरेक्टर आनंद गांधी का पूरा साथ मिला है। तुंबाड हिंदुस्तानी हॉरर फिल्मों के शरीर में आत्मा घुस जाने और फिर तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक से उसे भगाने वाले घिसे-पिटे ढर्रे को तोड़ती है।बढ़िया विजुअल इफेक्ट्स और पंकज कुमार की सिनमैटोग्राफी से दहशत का माहौल शुरू से ही बनने लगता है। कई सीन डर के मारे आंखें भींचने पर मजबूर कर देते हैं। सेकंड हाफ में कुछ सीन रेपटेटिव लगते हैं, जिससे कभी-कभी इंट्रेस्ट कम होने लगता है, लेकिन क्लाइमैक्स रोंगटे खड़ा कर देता है। फिल्म 'सिमरन' में अपनी नैचरल ऐक्टिंग के लिए तारीफ बटोरने वाले सोहम शाह विनायक के रोल में एक पायदान और ऊपर चढ़े हैं। उनकी मां के रोल में ज्योति मालशे और उनके बेटे के किरदार में बाल कलाकार मोहम्मद समद ने भी बढ़िया काम किया है। अजय-अतुल और जेस्पर कीड का संगीत फिल्म के अनुरूप है। क्यों देखें: हॉरर फिल्मों के शौकीनों को फिल्म पसंद आएगी।",1 " एक विलेन' की कहानी साधारण है, लेकिन फिल्म के दमदार किरदार और मोहित सूरी के अच्छे निर्देशन के कारण फिल्म देखते हुए समय अच्छे से कट जाता है। यह फिल्म कोरियन मूवी 'आय सा द डेविल' (2010) से प्रेरित है, जिसमें भारतीय दर्शकों की पसंद के मुताबिक बदलाव किए गए हैं। फिल्म में एक हीरो, एक हीरोइन और एक विलेन है जिनके इर्दगिर्द बॉलीवुड की ज्यादातर कमर्शियल फिल्में घूमती हैं। एक किरदार ऐसा है जिसकी मौत करीब है और मरने के पहले वह अपनी कुछ ख्वाहिश, जैसे- बारिश में मोर का नृत्य देखना, एक दिन के लिए प्रसिद्ध होना, किसी की जिंदगी बचाना, पूरी कर लेना चाहता है। वह आशावादी है। दूसरा किरदार गुंडा किस्म का है। एक गैंगस्टर के लिए काम करता है, लेकिन उसके अंदर अच्छा इंसान जिंदा है। जरूरत है उसे सही राह दिखाने की। तीसरा किरदार लल्लू किस्म का है। उसे कोई भी डरा-धमका लेता है, लेकिन सभी अनजान है कि उसके अंदर एक खतरनाक विलेन छिपा है जो वक्त आने पर छोटी सी बात के लिए किसी की भी हत्या कर देता है। ये तीनों किरदारों एक-दूसरे की राह में आते हैं और उनकी जिंदगी में उथल-पुथल मच जाती है। तीनों की कहानियों को अच्छे तरीके से गूंथा गया है जिससे नियमित अंतराल में फिल्म में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जहां एक ओर फिल्म में दो किरदारों के अंधेरे पक्ष हावी रहते हैं तो एक किरदार का उजला पक्ष फिल्म का संतुलन बनाए रखता है। आमतौर पर फिल्मों के दूसरे हाफ में घटनाक्रमों में तेजी आती है, लेकिन 'एक विलेन' के निर्देशक मोहित ने फिल्म को ऐसा पेश किया है मानो रिवर्स में देख रहे हों। पहले हाफ में ही उन्होंने सारे घटनाक्रम और एक महत्वपूर्ण घटना को दर्शकों के सामने रख दिया है। इंटरवल होने पर लगता है कि फिल्म में अब सब कुछ तो हो गया है और दूसरे हाफ में निर्देशक के दिखाने के लिए बचा ही क्या है? ये उत्सुकता दूसरे हाफ में थोड़ी निराशा में बदलती है क्योंकि वाकई में निर्देशक के पास कुछ था ही नहीं सिवाय घटनाओं के सिरे को एक-दूसरे के जोड़ने के, लेकिन फिल्म का आशावादी अंत इसे बचा लेता है। मोहित सूरी का प्रस्तुतिकरण उम्दा है। उन्होंने फ्लैशबेक का अच्छा उपयोग किया है। फिल्म अतीत और वर्तमान में लगातार जम्प करती रहती है। मोहित ने अपने किरदारों को बारीकी से समझा और उनकी मनोदशा को स्क्रीन पर अच्छी तरह से पेश किया। उनके बेहतरीन निर्देशन की वजह से ही फिल्म बांध कर रखती है। एक गुंडे की जिंदगी में प्यार का आगमन और उसकी मानसिक सोच को बदलने के अहसास को अच्छी तरह से पेश किया गया है। जहां तक स्क्रिप्ट का सवाल है तो कुछ खामियां हैं, जैसे, विलेन तक फिल्म का हीरो बहुत आसानी से पहुंच जाता है, पागलखाने से एक वृद्ध को भगाने वाला सीन कमजोर है, अस्पताल में रितेश और सिद्धार्थ की फाइट वाला सीन हास्यास्पद है। इससे ज्यादा चर्चा नहीं की जा सकती क्योंकि सस्पेंस खुल सकता है। आइटम सांग की फिल्म में कोई जरूरत नहीं थी। करेले पर नीम तब चढ़ गया जब इस आइटम सांग में प्राची देसाई जैसी ठंडी अभिनेत्री नजर आईं। प्रोमो और प्रचार के जरिये फिल्म थ्रिलर होने का आभास देती है, लेकिन इस फिल्म को थ्रिलर कहना गलत होगा क्योंकि सस्पेंस जैसा इसमें कुछ भी नहीं है और न ही विलेन तक पहुंचने के लिए भागमभाग। सब कुछ स्पष्ट है कि कौन विलेन है और क्यों वह यह सब कर रहा है। फिल्म का संगीत और पार्श्व संगीत प्रस्तुतिकरण को दमदार बनाता है। मोहित की फिल्मों का संगीत वैसे भी हमेशा से हिट रहा है। कहते हैं कि उनके घर यदि करोड़ों रुपये लेकर फिल्म निर्माता आ जाए तो मोहित उसे मिलने के लिए समय नहीं देते, लेकिन यदि कोई स्ट्रगलर म्युजिशियन या सिंगर आ जाए तो वे फौरन उससे मिल लेते हैं। अंकित तिवारी, मिथुन और सोच बैंड ने बेहतरीन काम किया है और गलिया, बंजारा, जरूरत जैसे गीत मधुर दिए हैं। एंग्री यंग मैन के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा जमे हैं। उनका जो लुक है वो किरदार पर सूट करता है। श्रद्धा कपूर ने बबली गर्ल का रोल निभाया है। कुछ दृश्यों में उनकी अभिनय की कोशिश नजर आती हैं तो कुछ दृश्य में वे सहज हैं। रितेश देशमुख को लंबे समय बाद ऐसे रोल में देखा गया जिसमें उन्हें कॉमेडी नहीं करना थी और रितेश ने अपना काम बखूबी किया। इन तीनों को छोड़ अन्य कलाकारों का चयन ठीक से नहीं किया गया। आमना शरीफ, रैमो फर्नांडिस, प्राची देसाई अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय नहीं कर पाए। कुल मिलाकर 'एक विलेन' मनोरंजन के मामले में विलेन नहीं है। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : शोभा कपूर, एकता कपूर निर्देशक : मोहित सूरी संगीत : मिथुन, अंकित तिवारी कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, श्रद्धा कपूर, रितेश देशमुख, आमना शरीफ, रैमो फर्नांडिस, कमाल रशीद खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 मिनट 10 सेकंड ",1 "निर्माता : उदय चोपड़ा निर्देशक : जुगल हंसराज कथा-पटकथा-संवाद : उदय चोपड़ा संगीत : सलीम-सुलैमान कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, उदय चोपड़ ा, डीन ो, अनुप म खे र यू सर्टिफिकेट * दो घंटे 21 मिनट ये बात 100 प्रतिशत पॉसिबल है कि यदि उदय चोपड़ा के अलावा किसी और ने ‘प्यार इम्पॉसिबल’ लिखी होती तो आदित्य चोपड़ा स्क्रिप्ट को रद्दी की टोकरी में डाल देते। लेकिन भाई की जिद के आगे संभवत: उन्हें झुकना पड़ा हो। ये सोचकर भी उन्होंने फिल्म बनाने की इजाजत दे दी हो कि इस फ्लॉप कहानी पर फिल्म बनाने के बाद उदय हीरो और लेखक बनने की जिद छोड़ देंगे। ये बात भी साबित हो गई है कि कहानी उदय ने ही लिखी होगी, किसी और की कहानी पर अपना नाम नहीं लगाया होगा क्योंकि ऐसी कहानी वे ही लिख सकते हैं। उदय ने क्या लिखा है, आप भी पढि़ए। अभय (उदय चोपड़ा) एक ऐसा इंसान है, जिसे कोई लड़की शायद ही पसंद करे क्योंकि वह अत्यंत ही साधारण है। मन ही मन वह अलिशा (प्रियंका चोपड़ा) को चाहता है, जो कॉलेज की सबसे हॉट गर्ल है। एक गाने के बाद कॉलेज की दुनिया खत्म और सब अपनी-अपनी राह पर। सात साल मेहनत कर अभय एक सॉफ्‍टवेयर बनाता है, जिसे वरुण (डीनो मोरिया) बड़ी आसानी से चुराकर सिंगापुर में एक कंपनी को बेचने जाता है जहाँ अलिशा काम करती है। अलिशा अब तलाकशुदा है और उसकी 6 साल की बेटी है। अभय भी सिंगापुर पहुँच जाता है। कुछ गलतफहमी होती है और अलिशा उसे नौकर समझ कर अपने घर में रख लेती है। इस नौकर से वह अपने दिल की सारी बात कहती है। उससे राय माँगती है। अंत में उसे पता चलता है कि अभय उसके कॉलेज में था उसे सात वर्ष से प्यार कर रहा है। दोनों एक हो जाते हैं और वरुण की चोरी पकड़ जाती है। कहानी के अनुरूप, स्क्रीनप्ले और निर्देशन भी खराब है। स्क्रीनप्ले से उतार-चढ़ाव गायब है। सब कुछ बड़ी आसानी से होता है। सॉफ्टवेयर की चोरी और उससे वापस अपनी चीज पाने में जो रोमांच होना चाहिए था वो नदारद है। लव स्टोरी एकदम नीरस है। फिल्म की अंतिम रील तक हीरो का प्यार एकतरफा है। अंत में हीरोइन उस पर अचानक मेहरबान हो जाती है, क्यों, इसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं है। हीरोइन के घर नौकर बनकर हीरो बेहद खुश है। न तो वह अपना सॉफ्टवेयर पाने की कोशिश करता है और न हीरोइन का दिल जीतने की। इससे फिल्म बेहद धीमी और उबाऊ बन गई है। फिल्म में किरदारों की कमी भी खलती है। कहानी प्रियंका, उदय और डीनो के इर्दगिर्द घूमती रहती है। उदय और डीनो जैसे अभिनेताओं को आप ज्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। कॉमेडी के नाम पर डाइनिंग टेबल पर खाना परोसने का एक लंबा दृश्य रखा गया है। सीन देखकर हँसी जरूर आती है, लेकिन निर्देशक और लेखक की कल्पना पर। निर्देशक के रूप में जुगल हंसराज कुछ कमाल नहीं दिखा पाए। सुभाष घई की तरह अपना चेहरा उन्होंने भी फिल्म में दिखाया है। एक आधुनिक लड़की का किरदार प्रियंका ने अच्छी तरह निभाया है, हालाँकि कुछ जगह वे ओवरएक्टिंग कर गई। उदय चोपड़ा ने पूरी कोशिश की, लेकिन बात नहीं बन पाई। डीनो मारियो ठीक-ठाक रहे। अनुपम खेर ने उदय चोपड़ा बनने की कोशिश क ी क्योंकि फिल्म में बाप-बेटे को एक जैसा दिखाया गया है। फिल्म का लुक युथफुल है। सलीम-सुलैमान ने कुछ अच्छी धुनें बनाई हैं। ‘अलिशा’ और ‘टेन ऑन टेन’ अच्छे बन पड़े हैं, लेकिन फिल्म में इनकी प्लेसिंग ठीक से नहीं की गई है। फिल्म अपने नाम के अनुरूप है। इससे प्यार इम्पॉसिबल है। ",0 "चंद्रमोहन शर्मा करीब 21 साल पहले इसी टाइटल पर बनी अजय देवगन स्टारर फिल्म बॉक्स आफिस पर सुपर हिट रही थी। शायद यही वजह रही पिछले साल जब रोहित शट्टी ने किंग खान के साथ बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कमाई करने कर चुकी फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' के बाद एक और मसाला थ्रिलर फिल्म बनाने का ऐलान किया, तो ऐसी खबरें भी आईं कि रोहित इस बार शाहरुख के साथ अजय स्टारर दिलवाले, बिग बी, किमी काटकर स्टारर हम या फिर बरसों पुरानी किशोर कुमार की एवरग्रीन म्यूजिकल कॉमिडी हिट फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' की कहानी का मिक्स्चर दर्शकों के सामने अपने अलग स्टाइल में पेश करेंगे। आपको फिल्म दिलवाले कैसी लगी? — Navbharat Times (@NavbharatTimes) December 19, 2015 अब जब रोहित और किंग खान की जोड़ी यह दूसरी फिल्म आपके सामने है, तो आपको यह फिल्म देखने के बाद 'हम' और 'चलती का नाम गाड़ी' की याद दिला सकती है, यहां भी रोहित ने इन दोनों फिल्मों से बेशक अपनी फिल्म को आगे बढ़ाने में थोड़ी बहुत मदद ली हो, लेकिन प्रस्तुतीकरण उन्होंने अपने कलरफुल स्टाइल में ही किया है। इंटरवल से पहले कई बार कहानी और किरदार रोहित के हाथ से फिसलते नजर आते हैं, तो इंटरवल के बाद रोहित की फिल्म में सैड सॉन्ग कतई अच्छा नहीं लगता। फिल्म के फ्लैशबैक सींस में बार-बार शाहरुख का हाथों में रिवॉल्वर लेकर नजर आना, काजोल की मुस्कुराहट के सींस समझ से परे नजर आते हैं। वहीं, कॉमेडी की फील्ड में अपना सिक्का जमाए हुए जॉनी लीवर, संजय मिश्रा के साथ नए कमीडियन वरूण शर्मा के कॉमेडी सींस यकीनन दिलवालों की कमजोर लव स्टोरी के बीच आपको झुंझलाहट नहीं आने देते। वहीं बल्गारिया की गजब आंखों की लुभाती लोकेशन के बीच रोहित स्टाइल कारों के साथ फिल्माएं एक्शन सींस और कारों की रेस के बीच फिल्माया लंबा ऐक्शन सीन फिल्म की यूएसपी है। कहानी गोवा में इशिता (कीर्ति सेनन) अपनी बड़ी बहन माया (काजोल) के साथ रेस्ट्रॉन्ट शुरू करने आई है। यहां इशिता की मुलाकात वीर (वरुण धवन) से होती है। वीर का बड़ा भाई राज (शाहरुख खान) कार मैकेनिक कम कार डिजाइनर है, वीर भी अपने भाई के साथ इसी पेशे में है। वीर पहली नजर में इशिता को देखते ही उस पर मर मिटता है, कुछ मुलाकातों के बाद दोनों एक दूसरे को चाहने लगते है। दूसरी और राज को लड़कियों से दोस्ती करना और प्यार-व्यार का चक्कर पसंद नहीं है, लेकिन अपने छोटे भाई वीर को दिल की गहराइयों से चाहने वाला राज भाई की खुशी की खातिर कुछ भी कर सकता है। एक दिन राज इशिता की बहन से अपने भाई और इशिता की शादी की बात करने के लिए उनके घर पहुंचता है। इशिता के घर पहुंचकर राज का सामना अपने उस अतीत से होता है, जिसे वह करीब पंद्रह साल बल्गारिया में छोड़ गोवा में अपने दोस्त शक्ति सिंह (मुकेश तिवारी) और अनवर (पंकज त्रिपाठी) और छोटे भाई वीर के साथ गोवा में नई जिंदगी शुरू करने के मकसद से आया था। फिल्म बाजीराव मस्तानी का रिव्यू पढ़ने के लिए क्लिक करें यहां से कहानी एक बार फ्लैशबैक में एंट्री करती है, बल्गारिया में अंडरवर्ल्ड डॉन बख्शी (विनोद खन्ना) और देव मलिक (कबीर बेदी) के बीच सोने की लूट को लेकर बरसों से खूनी जंग छिड़ी है। इस जंग में बख्शी का बड़ा बेटा काली (शाहरुख खान) उसके साथ है, तो दूसरी और मलिक की बेटी मीरा अपने पिता के साथ है। मीरा एक प्लान बनाकर पहले तो काली से प्यार करती है और फिर उसे धोखा देती है। एक-एक खूनी भिड़त के बाद मीरा को लगता है, काली ने उसके पिता को धोखा देकर उसकी हत्या कर दी है। इसी लड़ाई में काली अपने पिता को भी खो बैठता है, यहीं से काली हॉस्टल में पढ़ रहे अपने छोटे भाई वीर और अपने दो खास साथियों शक्ति और अनवर के साथ गोवा आ गया। अब पंद्रह साल बाद वीर और इशिता की लव स्टोरी ने इन दोनों को भी एक दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर दिया। डायरेक्शन बतौर डायरेक्टर रोहित ने फिल्म में दमदार कॉमिडी पंच और जबर्दस्त ऐक्शन सींस पर ज्यादा फोकस किया और इसमें कामयाब भी रहे। दूसरी और रोहित पूरी फिल्म में कहीं भी शाहरुख और काजोल की लव स्टोरी को सही ट्रैक पर नहीं ला पाए और ना ही इनके बीच फिल्माएं रोमांटिक सींस को असरदार ही बना पाए। बल्गारिया की खूबसूरती को रोहित ने बेहतरीन ढंग से फिल्म में समेटा है। ऐक्टिंग राज और काली के किरदारों में शाहरुख ने कुछ नया करने की बजाएं अपनी पुरानी फिल्मों के किरदारों को दोहराया तो मीरा के रोल में काजोल ने बस अपना किरदार को निभाया भर है। वरूण धवन के किरदार को देखकर शाहरुख स्टारर 'मैं हूं ना' में जैद खान का किरदार याद आता है, अगर फुटेज की बात करें, तो वरुण को यहां जैद से भी कम फुटेज दी गई है। वहीं वरुण कुछ नया करने की बजाएं इस बार फिर गोविंदा को कॉपी करते नजर आए। इशिता के रोल में कीर्ति सेनन पूरी तरह निराश करती है। ऑस्कर के रोल में संजय मिश्रा का जवाब नहीं, संजय जब भी स्क्रीन पर आए, हंसाकर गए। जॉनी लीवर ने जमकर ओवर ऐक्टिंग की है, तो वहीं विनोद खन्ना और कबीर बेदी जैसे मंझे हुए कलाकारों को इस फिल्म में वेस्ट किया गया है। संगीत आइसलैंड में शूट गेरुआ गाने के अलावा, जन्म जन्म और मनमा इमोशन यंगस्टर्स में हिट है, प्रीतम का म्यूजिक कहानी और माहौल पर फिट है। क्यों देखें अगर आप शाहरुख खान और काजोल के फैंस हैं, तो दिलवाले आपको शायद अपसेट ना करे, वही अगर आप बरसों बाद बॉलिवुड की सबसे हिट रही रोमांटिक जोड़ी को कुछ अलग लुक और अंदाज में देखने की चाह में थिअटर जाते है, तो अपसेट हो सकते हैं। फिल्म दिलवाले का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें ",0 "भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता है और यह रिश्ता सिर्फ मेट्रो सिटीज़ में ही नजर आता है। लिव-इन रिलेशनशिप पर कुछ फिल्में बनी हैं और मणिरत्नम के शिष्य शाद अली ने एक और प्रयास 'ओके जानू' के रूप में किया है। यह 2015 में प्रदर्शित फिल्म 'ओ कधल कनमनी' का हिंदी रिमेक है। लिव इन रिलेशनशिप में लड़का-लड़की साथ रहते हैं। दोनों का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना जरूरी है। खर्चा आधा-आधा बंटता है। किसी किस्म की प्रतिबद्धता या वायदा नहीं होता है। कोई किसी पर हक नहीं जमाता। प्यार कम और शारीरिक आकर्षण ज्यादा रहता है। प्यार के अभाव में यह रिश्ता ज्यादा चल नहीं पाता। यदि प्यार होता है तो इस रिश्ते की अगली मंजिल शादी होती है। 'ओके जानू' में लेखक मणिरत्नम ने दर्शाने की कोशिश की है कि कोई भी रिश्ता हो उसमें प्यार जरूरी है। शारीरिक आकर्षण भी ज्यादा देर तक बांध कर नहीं रख सकता। फिल्म में दो जोड़ियां हैं। आदि (आदित्य रॉय कपूर) और तारा (श्रद्धा कपूर) युवा हैं, शादी को मूर्खता समझते हैं। दूसरी जोड़ी गोपी (नसीरुद्दीन शाह) और उनकी पत्नी चारू (लीला सैमसन) की है। दोनों वृद्ध हैं। शादी को लगभग पचास बरस होने आए। शादी के इतने वर्ष बाद भी दोनों का नि:स्वार्थ प्रेम देखते ही बनता है। गोपी के यहां आदि और तारा पेइंग गेस्ट के रूप में रहते हैं। इन दोनों जोड़ियों के जरिये तुलना की गई है। एक तरफ गोपी और उनकी पत्नी हैं जिनमें प्यार की लौ वैसी ही टिमटिमा रही है जैसी वर्षों पूर्व थी। दूसरी ओर आदि और तारा हैं, जो प्यार और शादी को आउट ऑफ फैशन मानते हैं और करियर से बढ़कर उनके लिए कुछ नहीं है। फिल्म के आखिर में दर्शाया गया है कि प्यार कभी आउट ऑफ फैशन नहीं हो सकता है। फिल्म की कहानी में ज्यादा उतार-चढ़ाव या घुमाव-फिराव नहीं है। बहुत छोटी कहानी है। कहानी में आगे क्या होने वाला है यह भी अंदाजा लगना मुश्किल नहीं है। इसके बावजूद फिल्म बांध कर रखती है इसके प्रस्तुति के कारण। निर्देशक शाद अली ने आदि और तारा के रोमांस को ताजगी के साथ प्रस्तुत किया है। इस रोमांस के बूते पर ही वे फिल्म को शानदार तरीके से इंटरवल तक खींच लाए। आदि और तारा के रोमांस के लिए उन्होंने बेहतरीन सीन रचे हैं। इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है। दोहराव का शिकार हो जाती है। कुछ अनावश्यक दृश्य नजर आते हैं, लेकिन बोर नहीं करती। कुछ ऐसे दृश्य आते हैं जो फिल्म को संभाल लेते हैं। फिल्म के संवाद, एआर रहमान-गुलजार के गीत-संगीत की जुगलबंदी, मुंबई के खूबसूरत लोकेशन्स, आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर की केमिस्ट्री मनोरंजन के ग्राफ को लगातार ऊंचा रखने में मदद करते हैं। ओ के जानू के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें > निर्देशक के रूप में शाद प्रभावित करते हैं। ऐसी फिल्मों में जहां कहानी का बहुत ज्यादा साथ नहीं मिलता है, स्क्रीन पर क्या दिखाया जाए, के लिए निर्देशक को बहुत मेहनत करना होती है। शाद ने अच्छी तरह से अपना काम किया है। वे फिल्म को थोड़ा छोटा रखते तो उनका काम और भी बेहतर होता। आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर की जोड़ी अच्छी लगती है। एक बेफिक्र रहने वाले युवा की भूमिका आदित्य ने अच्छे से निभाई है। श्रद्धा कपूर को निर्देशक ने कुछ कठिन दृश्य दिए हैं और इनमें वे अपने अभिनय से प्रभावित करती हैं। बुजुर्ग दंपत्ति के रूप में नसीरुद्दीन शाह और लीला सैमसन अच्‍छे लगे हैं। 'ओके जानू' की कहानी में नई बात नहीं है, लेकिन आदि-तारा का रोमांस और शाद अली का प्रस्तुतिकरण फिल्म में दिलचस्पी बनाए रखता है। > बैनर : मद्रास टॉकीज़, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : मणि रत्नम, करण जौहर निर्देशक : शाद अली संगीत : एआर रहमान कलाकार : श्रद्धा कपूर, आदित्य रॉय कपूर, नसीरुद्दीन शाह, लीला सैमसन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 17 मिनट ",1 "इस फिल्म के डायरेक्टर और लीड हीरो राजकुमार राव दोनों में एक समानता जरूर है कि दोनों ही करियर में चैलेंज लेना अच्छी तरह से जानते हैं। अगर हंसल की पिछली फिल्म की बात करें तो कंगना लीड जैसी टॉप ऐक्ट्रेस के साथ जब हंसल ने 'सिमरन' बनाई तो यहां भी उन्होंने बॉक्स ऑफिस की डिमांड को साइड करके सिर्फ स्क्रिप्ट और किरदारों पर ही फोकस किया, बेशक 'सिमरन' टिकट खिड़क पर कहीं टिकट नहीं पाई, लेकिन क्रिटिक्स और दर्शकों की एक अलग क्लास ने सिमरन के लिए कंगना की जी भरकर तारीफें कीं। वैसे इससे पहले हंसल 'शाहिद', 'अलीगढ़', 'सिटी लाइट्स' जैसी लीक से हटकर बनी फिल्मों से यह साबित कर चुके हैं कि उन्हें हर बार कुछ नया और अलग करना पंसद है।राजकुमार ऐसे कलाकार हैं जो 'ट्रैप्ड' जैसी डिफरेंट मूवी से लेकर 'न्यूटन' जैसी लीक से हटकर बनी ब्लैक शेड्स की फिल्में करने से पीछे नहीं हटते। एकबार फिर हंसल और राजकुमार जब एकसाथ हैं तो दर्शकों को इस फिल्म से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें हैं। हंसल ने एकबार फिर रिस्क लेकर अपनी इस नई फिल्म में किसी देश भक्त की नहीं बल्कि एक आंतकी की कहानी को कुछ अलग ढंग से पेश करने की हिम्मत जुटाई। आपको बता दे इटैलियन शब्द ओमेर्ता ऐसे आतंकी के लिए यूज होता है जो पुलिस के बेइंतहां जुल्म के बाद भी टूटता नहीं है। स्टोरी प्लॉट : फिल्म की कहानी 2002 की है, लंदन में रह रहा अहमद ओमार सईद शेख (राजकुमार) पत्रकार डेनियल पर्ल ( टिमोथी रायन) की बेरहमी से की गई हत्या की कहानी को अपने अलफाज में पेश करता है। 1994 में दिल्ली में कुछ विदेशी टूरिस्टों के किडनैप करने की घटना में ओमार के शामिल होने से लेकर जेल में गुजारे वक्त और डेनियल की बेरहमी से की गई हत्या के आसपास घूमती यह कहानी इन्हीं किरदारों के साथ-साथ घूमती है।हंसल की इस फिल्म को हम एक खूंखार आतंकी को हीरो की तरह पेश करने वाली कहानी नहीं कह सकते, बल्कि हंसल ने पूरी ईमानदारी के साथ फिल्म में यह दिखाने की अच्छी कोशिश की है कि आज की युवा पीढ़ी आंतकवादी संगठनों की तरफ क्यों आकर्षित हो रही है। आखिर भटकी हुई युवा पीढ़ी को आईएसआई जैसे जिहादी संगठनों में ऐसा क्या नजर आता है कि वह सब कुछ छोड़कर सिर पर कफन बांधकर इसमें शामिल हो जाते हैं । करीब दो घंटे से भी कम की फिल्म में हंसल ने बात को अपनी फिल्म का अहम हिस्सा बनाया है। हंसल की कहानी की डिमांड के मुताबिक, फिल्म की करीब-करीब सारी शूटिंग आउटडोर लोकेशन पर की गई है। लंदन और भारत की लोकेशंस पर शूट की गई इस फिल्म में पाक दवारा चलाए जा रहे आतंकी कैंपेन को भी हंसल ने फिल्म में अच्छी तरह से पेश किया है। टिमोथी रायन, केवल अरोड़ा, राजेश तेलांग अपने-अपने किरदार में जमे हैं। अगर ऐक्टिंग की बात करें तो एक ऐसे आतंकी के किरदार को राजकुमार ने अपने लाजवाब अभिनय से जीवंत कर दिखाया है जो देखने में आपको बेहद शांत है, लेकिन अंदर से उतना ही जालिम है। ऐसा किरदार यकीनन राजकुमार ही कर सकते हैं, एकबार फिर खुद को बेहतरीन ऐक्टर साबित किया है उन्होंने। ईशान छाबड़ा का बैकग्राउंड स्कोर बस ठीकठाक है, हंसल की पिछली कुछ फिल्मों की तर्ज पर यह फिल्म भी बेहद लिमिटेड ऑडियंस के लिए ही बनाई फिल्म लगती है, लेकिन अगर आप इस मूवी को देखेंगे तो हॉल से बाहर आने के बाद महसूस करेंगे कि आपने एक बेहद खूंखार शांत आतंकवादी को कुछ नजदीक से समझा है। ऐसी फिल्में बनाना हर मेकर या ऐक्टर के बस की बात नहीं है। हंसल की दिल खोलकर तारीफ करेंगे कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने का साहस किया।",0 "जुरासिक वर्ल्डः फॉलन किंगडम रिव्यू: साल 1993 में स्टीवन स्पीलबर्ग द्वारा निर्देशित फिल्म 'जुरासिक पार्क' के समय से विजुअल इफेक्ट्स क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। उसके बाद आई इस सीरीज की फिल्में अब 'जुरासिक वर्ल्डः फॉलन किंगडम' तक का सफर तय कर चुकी हैं। यह साल 2015 में आई 'जुरासिक वर्ल्ड' का सीक्वल है। जिसमें नए टैलंट और नए तरीके के डायनासोर्स का रोमांचक मेल देखने के लिए मिलता है। इसके लिए 'फॉलन किंगडम' में कुछ बड़े बदलाव भी आपको देखने के लिए मिलते हैं। दरअसल फिल्म में दिखाया गया है कि इस्ला नुबलर आइलैंड पर एक ज्वालामुखी सक्रिय है, जिससे डायनासोर्स के पूरे विनाश का खतरा है। इस विनाशकारी प्राकृतिक आपदा से डायनासोर्स को बचाने के चलते एक बार फिर ओवेन और क्लेयर हाथ मिलाते हैं। इसके आगे ज्यादा कुछ न बताते हुए यही कहा जा सकता है कि ऐक्शन और रोमांच से भरपूर इस फिल्म को देखने पर आप निराश नहीं होते हैं। डायरेक्टर जे.ए. बायोना के नए प्रयोगों से इस बार फिल्म में डर का एक नया एहसास आपको होता है। हालांकि फिल्म में इमोशनल सीन्स की कमी खलती है। ऐसे क्रिस प्रैट और ब्राइस डलास हॉवर्ड ने बेमिसाल परफॉर्मेंस से अपनी खास छाप छोड़ी है, जो आपको फिल्म से बांधे रखती है। मगर एक समय के बाद फिल्म थोड़ी बोझिल होने लगती है, जिससे फिल्म की गति को नुकसान पहुंचा है। इसके साथ ही जैफ गोल्डबल्म जैसे सीरीज से जुड़े पुराने कलाकार की फिल्म में बतौर इयान मलकॉम वापसी भी कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ती है। इसके साथ ही इस बार फिल्म में नजर आए नए ऐक्टर्स से भी कहानी को कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है। इसके अलावा फिल्म में जो एक मुद्दा आखिर से अंत तक छाया रहा है कि क्या वाकई लुप्त हो चुके डायनासोर को बचाना सही है? जो लगभग गए जमाने की बात हो चुके हैं। फिल्म के एक सीन में एक ऐसा मोड़ भी आता है जब विनाश होते डायनासोर के दर्द से आप खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। हालांकि फिल्म देखते हुए आपको लगता है कि कहीं कुछ छूट रहा है, पर शायद ऐसा सीरीज की अगली फिल्म के लिए स्पेस रखने के लिए किया गया है। ऐसे फिल्म में ज्वालामुखी से होते सर्वनाश के दृश्य काफी बेजोड़ नजर आए हैं, जिसके बीच फिल्म 'जुरासिक वर्ल्डः फॉलन किंगडम' के असल हीरो सीजीआई डायनासोर्स की मौजूदगी वापस आपको उसी दौर में ले जाती हैं। हालांकि उनकी दहाड़ अपने पहले के साथी डायनासोर्स से इस बार कहीं ज्यादा तेज और डरावनी है। ",0 "1-बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा निर्देशन, कथा, पटकथा, संवाद : आदित्य चोपड़ा गीतकार : जयदीप साहनी संगीतकार : सलीम मर्चेण्ट - सुलेमान मर्चेण्ट कलाकार : शाहरुख खान, अनुष्का शर्मा (नया चेहरा), विनय पाठक, विशेष भूमिका में - काजोल, रानी मुखर्जी, प्रीति जिंटा, लारा दत्ता और बिपाशा बसु प्रेम कहानियों पर रोमांटिक फिल्म बनाने में यशराज फिल्म्स को महारत हासिल है। यश चोपड़ा ने ढेर सारी रोमांटिक फिल्में बनाईं और अब आदित्य चोपड़ा ने भी यशराज फिल्म्स को डूबते देख अपने सदाबहार फार्मूले की और लौटना पसंद किया। कहा जाता है कि जोडि़याँ स्वर्ग में ही बन जाती हैं और हम जिसे दिल से प्यार करते हैं उसमें हमें रब दिखाई देता है। ये प्यार बदले में किसी किस्म की माँग या शर्त नहीं रखता बल्कि हमेशा उसकी खुशी चाहता है। इन वर्षों पुरानी बातों को आधार बनाकर उसे नए अंदाज में आदित्य चोपड़ा ने पेश किया है। यशराज ‍बैनर की ‍पुरानी रोमांटिक फिल्मों की तुलना में इस बार कुछ बदलाव देखने को मिले हैं। इस बार स्विट्जरलैंड नहीं है, बल्कि हमारे देश का ही एक शहर है। इस बार फिल्म के किरदार महँगे कपड़े नहीं पहनते बल्कि आम लोगों जैसा सामान्य जीवन जीते हैं। इस बार खूबसूरती चेहरे पर नहीं बल्कि दिल में है। कहानी है सुरिंदर साहनी (शाहरुख खान) की, जो पंजाब पॉवर में काम करता है। दिल का अच्छा है, लेकिन जमाने की भाषा में कहें तो ‘स्मार्ट’ नहीं है। आँखों पर चश्मा लगाए सुरिंदर जानता ही नहीं कि स्टाइल क्या होती है। अपने प्रोफेसर की बेटी तानी (अनुष्का शर्मा) की शादी में वह जाता है, लेकिन बारातियों की दुर्घटना हो जाती है। सभी मारे जाते हैं, जिसमें तानी का दूल्हा भी रहता है जिससे वह प्रेम करती थी। अपने पिता के कहने पर तानी सुरिंदर से शादी कर लेती है। सुरिंदर जितना बोरिंग है, तानी उतनी जिंदादिल। सुरिंदर का अहसान तानी जरूर मानती है, लेकिन उससे प्यार नहीं करती। तानी डांस सीखने जाती है और तानी का दिल जीतने के लिए सुरिंदर भी नए लुक और नए नाम ‘राज’ के साथ वहाँ पहुँच जाता है। राज का रूप वह इसलिए धारण करता है क्योंकि वह तानी को खुश देखना चाहता है। दोनों डांस पार्टनर बन जाते हैं। राज के रूप में सुरिंदर अपने लुक के साथ-साथ अपनी भी शख्सियत बदल लेता है। खूब रोमांटिक बातें करता है और तानी भी धीरे-धीरे उसे चाहने लगती है। राज की असलियत जाने बिना तानी उसके साथ भागने के लिए तैयार हो जाती है। सुरिंदर चाहता है कि तानी उसे उसी रूप में पसंद करे, जैसा कि वह है न कि राज के रूप में उसे चाहे। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि तानी सुरिंदर को पसंद करने लगती है। आमतौर पर कहानियाँ प्रेम से शुरू होकर शादी पर खत्म होती है, लेकिन आदित्य ने ऐसी कहानी चुनी है, जिसमें शादी के बाद प्रेम शुरू होता है। इस कहानी का सबसे मजबूत पक्ष सुरिंदर की वह जिद है कि तानी उसे उसी रूप में पसंद करे जैसा वो है। कमजोर पक्ष पर गौर किया जाए तो तानी का राज की ओर आकर्षित होना कुछ लोगों को पसंद न आए। तानी के हृदय परिवर्तन के लिए कुछ ठोस कारण होने चाहिए थे, जो फिल्म में नदारद हैं। आदित्य चोपड़ा ने अपनी कहानी को कुशल निर्देशक के रूप में परदे पर पेश किया है। प्रस्तुतीकरण के लिए उन्होंने पुरानी शैली अपनाई है, शायद इसीलिए उन्हें दो घंटे चालीस मिनट का वक्त लगा। कई छोटे-छोटे दृश्य उन्होंने बेहतरीन तरीके से गढ़े हैं, जैसे - शादी के बाद सुरिंदर दोस्तों को पार्टी देता है और उसमें तानी का आना। तानी को प्रभावित करने के लिए सुरिंदर का सूमो पहलवान से लड़ना। तानी का राज को मोटरबाइक पर पीछे बैठाकर अपने प्रतिद्धंद्वी को सबक सिखाना। राज और तानी के बीच गोलगप्पे खाने वाला दृश्य। इसके अलावा सुरिंदर और तानी के बीच कई दृश्य खूबसूरती के साथ पेश किए गए हैं। फिल्म सिर्फ तीन कलाकारों शाहरुख, अनुष्का और विनय पाठक के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन इसके बावजूद बोरियत पास नहीं फटकती। रोमांस, हास्य, खुशी, दर्द, हँसी का उन्होंने बेहतर संतुलन बनाया है, जिससे फिल्म मनोरंजक बन गई है। तानी का राज और सुरिंदर के बीच भेद न कर पाना अचरज भरा जरूर लग सकता है, लेकिन इसे स्वीकारे बिना आप फिल्म का आनंद नहीं ले सकते। फिल्म का क्लायमेक्स शानदार तरीके से फिल्माया गया है, जिसमें स्टेज पर डांस करते वक्त तानी को पता चलता है कि सुरिंदर और राज एक ही व्यक्ति है। शाहरुख खान ने दोहरी भूमिकाएँ निभाई हैं। एक राज की और दूसरी सुरिंदर की। सुरिंदर के सीधेपन और दिल की पवित्रता को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। वहीं राज के रूप में दर्शकों को हँसाया। उम्र के निशान उनके चेहरे पर दिखने लगे हैं, लेकिन अभिनय में चपलता बाकी है। अनुष्का शर्मा ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है। पहली ही फिल्म में शाहरुख जैसे कलाकार के सामने खड़े होने में आपकी पोल खुल सकती है, लेकिन अनुष्का ने शाहरुख का डटकर मुकाबला किया। पंजाबी लड़कियों के सारे हाव-भाव उन्होंने अपने अभिनय में समाहित किए। शाहरुख के दोस्त के रूप में विनय पाठक जमे। वे जब-जब परदे पर आए, दर्शकों ने राहत महसूस की। सलीम-सुलैमान का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘हौले-हौले’ पहले ही लोकप्रिय हो चुका है। ‘डांस पे चांस’ जितना उम्दा लिखा गया है, उतना ही उम्दा फिल्माया गया है। ‘हम हैं राही प्यार के’ का फिल्मांकन भव्य है। इसमें पुराने नायकों को याद किया गया है और काजोल, बिपाशा, लारा, प्रिटी और रानी मुखर्जी जैसी नायिकाएँ कुछ देर के लिए दिखाई देती हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक में हारमोनियम का अच्छा उपयोग किया गया है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है। फिल्म की लंबाई कुछ लोगों को अखर सकती है। कुल मिलाकर ‘रब ने बना दी जोड़ी’ मनोरंजन का उम्दा पैकेज है, जिसमें प्यार, हँसी, दर्द, संगीत, नृत्य और खुशी का उचित मात्रा में संतुलन है। सभी उम्र और वर्ग के दर्शकों को यह पसंद आ सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत ",1 "थ्रिलर फिल्में ऐसी होनी चाहिए कि दर्शक अपनी पलक भी मूंद नहीं सके। ऐसी फिल्में बनाना आसान नहीं है और ज्यादातर बॉलीवुड थ्रिलर मूवीज़ निराश ही करती है। इस सप्ताह रिलीज 'जि़द' भी अपवाद नहीं है। कहने को तो यह थ्रिलर है, लेकिन इस फिल्म को देखते समय बोरियत ज्यादा होती है। थ्रिलर मूवी में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा आप ठीक-ठीक लगा सकते हैं तो फिल्म देखने में मजा नहीं आता। 'जिद' में अगले पल क्या होने वाला है इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल नहीं है। जर्मन फिल्म 'द गुड नेबर' से यह प्रेरित है, लेकिन विवेक अग्निहोत्री और रोहित मल्होत्रा से भी यह काम ठीक से नहीं हो पाया जिन्होंने 'जिद' की स्क्रिप्ट लिखी है। रोहन (करणवीर शर्मा) एक अखबार में बतौर क्राइम रिपोर्टर के काम करता है। गोआ में वह एक घर किराये पर लेता है। मकान मालिक की बेटी उसे दिल दे बैठती है। दोनों हिट एंड रन मामले में फंसते हैं और उनकी जिंदगी मुश्किलों से भर जाती है। फिल्म की कहानी में इतना दम तो है कि इस पर एक बेहतरीन थ्रिलर बनाई जा सकती है, लेकिन स्क्रिप्ट लिखते वक्त दिमाग ही नहीं लगाया गया है इसलिए सारा मामला गड़बड़ा गया है। फिल्म देखते समय आपके दिमाग में कई प्रश्न उठते हैं जिनके जवाब आपको नहीं मिलेंगे। कुछ देर बाद आप दिमाग लगाना भी बंद कर देंगे और फिल्म में रूचि खत्म होने में देर भी नहीं लगेगी। क्लाइमैक्स में जरूर चौंकाने की कोशिश की गई है, लेकिन तब तक दर्शक इस बात का इंतजार करता रहता है कि कब फिल्म खत्म हो। निर्देशन, लेखन, अभिनय बेहद खराब है। थ्रिल की बजाय निर्देशक ने सेक्स के नाम पर दर्शकों को बांधने की कोशिश की है और यही बात साबित करती है कि उन्हें अपनी काबिलियत पर ही विश्वास नहीं है। फिल्म में किसिंग और लव मेकिंग दृश्यों को परोसा गया है, लेकिन घटिया स्क्रिप्ट के कारण ये ठूंसे हुए लगते हैं। जि द का शो बुक करने के लिए यहां क्लिक करें विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बिलकुल भी दम नहीं है। इस सस्पेंस थ्रिलर से वे दर्शकों को जोड़ पाने में नाकाम साबित हुए हैं। प्रेम त्रिकोण, हत्या, रहस्य, सेक्सी सीन के बावजूद वे बांध नहीं पाते। उनका उद्देश्य सिर्फ गरमा-गरम सीन परोसना था। करणवीर शर्मा का अभिनय निराशाजनक है। मनारा ने जमकर अंग प्रदर्शन किया है और उन्हें वजन कम करने की जरूरत है। उन्होंने जमकर ओवर एक्टिंग की है। श्रद्धा दास ने भी अंग प्रदर्शन करने में कोई कंजूसी नहीं की है। गोआ की लोकेशन का अच्छा उपयोग किया गया है। कैमरामेन यश भट्ट ने कई सीन अच्छे शूट किए हैं। शरीब-तोषी द्वारा संगीतबद्ध किए कुछ गाने मधुर हैं। लेकिन ये बातें इतनी पर्याप्त नहीं है कि 'जिद' देखने के लिए टिकट खरीदा जाए। बैनर : अनुभव सिन्हा प्रोडक्शन्स प्रा. लि., बनारस मीडिया वर्क्स निर्माता : अनुभव सिन्हा निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री संगीत : शरीब साबरी, तोषी साबरी कलाकार : करणवीर शर्मा, मनारा, श्रद्धा दास, मोहन कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए ",0 "जाने-माने डायरेक्टर महेश भट्ट ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर आप दिल से एक बेहतरीन फिल्म बनाना चाहते हैं तो आपको चार साल का वक्त चाहिए। इस फिल्म की डायरेक्टर गौरी शिंदे ने करीब चार साल पहले श्रीदेवी का बरसों बाद अपनी फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' के साथ कमबैक कराया। गौरी की उस फिल्म में सिवाय श्रीदेवी के दूसरा और ऐसा कोई चेहरा नहीं था, जिसकी हिंदी बॉक्स ऑफिस पर अपनी पहचान हो, लेकिन टोटली डिफरेंट सब्जेक्ट, बेहतरीन निर्देशन के साथ श्रीदेवी की लाजवाब गजब ऐक्टिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी ऐसी यूएसपी रही जिसके दम पर फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत वसूलने के बाद डिस्ट्रिब्यूशन कंपनियों और मेकर्स को अच्छा-खासा प्रॉफिट भी दिया। अब करीब चार साल बाद एक बार गौरी जब अपनी नई फिल्म के साथ लौटी हैं तो इस बार भी उनकी फिल्म में जहां आलिया भट्ट की दिल को छू लेने वाली वर्ल्ड क्लास ऐक्टिंग है तो दर्शकों के लिए एक अच्छा मेसेज भी है। इस फिल्म में कुछ लाजवाब सीन हैं। गोवा के समुद्र किनारे शाहरुख खान और आलिया भट्ट का समुद्र की तेज गति के साथ किनारे और आती लहरों के साथ कबड्डी खेलने का सीन यकीनन आपको जिदंगी को जीने की एक और वजह बताने का दम रखता है तो वहीं इंटरवल के बाद कायरा यानी आलिया का जिदंगी को डरते-डरते अपने ही बनाए स्टाइल में जीने की मजबूरी का क्लाइमेक्स भी गौरी ने प्रभावशाली ढंग से फिल्माया है। मुबंई और गोवा की लोकेशन पर शूट गौरी की यह फिल्म हमें यह बताने में काफी हद तक सफल कही जा सकती है कि जिन खुशियों को पाने के लिए हम हर रोज बेताहाशा बिना किसी मंजिल के भागे जा रहे हैं और बेवजह टेंशन में रहने लगते हैं, अपनों से दूरियां बनाने और अपनों पर चीखने चिल्लाने लगते हैं, उन खुशियों को तो खुद हमने अपने से दूर किया है। गौरी की 'डियर जिदंगी' में आपको शायद इन सवालों का जवाब मिल जाए। कहानी : कायरा (आलिया भट्ट) विदेश से सिनेमटॉग्रफी का कोर्स करने के बाद अब मुंबई में अपने फ्रेंडस के साथ रह रही हैं। कायरा का ड्रीम एक मेगा बजट मल्टिस्टारर फिल्म को विदेश में शूट करने का है, लेकिन इन दिनों वह अपनी टीम के साथ ऐड फिल्में करने के साथ डांस म्यूजिक ऐल्बम को शूट करने में लगी हैं। गोवा में कायरा की फैमिली रहती है, लेकिन कायरा को अपनी फैमिली के साथ वक्त गुजारना जरा भी पसंद नहीं है। कायरा की फैमिली में उसकी मां, पापा के अलावा छोटा भाई भी है, लेकिन बचपन की कुछ कड़वी यादों के चलते कायरा ने अब अपनी फैमिली से कुछ इस कदर दूरियां बना ली है कि अब उसे उनके साथ रहने की बात सुनते ही टेंशन होने लगती हैं। कुछ दिन बाद फिल्म मेकर यजुवेंद्र सिंह (कुणाल कपूर) विदेश में एक फिल्म को शूट करने का ऑफर जब कायरा को देता है तो कायरा को लगता है जैसे उसका ड्रीम अब पूरा होने वाला है। हालात ऐसे बनते हैं कि ऐसा हो नहीं पाता और कायरा अब यजुवेंद्र से दूरियां बना लेती है। इसी बीच गोवा में कायरा के पापा उसे अपने एक दोस्त के न्यूली ओपन हुए होटल के ऐड शूट के लिए गोवा बुलाते हैं। यहां आकर कायरा एक दिन डॉक्टर जहांगीर खान (शाहरुख खान) से मिलती है। डॉक्टर जहांगीर खान शहर का जाना माना मनोचिकित्सक है। कायरा को लगता है कि उसे भी डॉक्टर जहांगीर खान के साथ कुछ सीटिंग करनी चाहिए, इन्हीं सीटिंग के दौरान जहांगीर खान कायरा को जिदंगी जीने का नया नजरिया तलाशने में उसकी मदद करते हैं। कुछ सीटिंग के बाद कायरा डॉक्टर जहांगीर खान उर्फ जग के बताए नजरिए से जब जिंदगी को नए सिरे से जीने की कोशिश करती है तो उसे लगता है सारी खुशियां तो उसके आस-पास ही बिखरी पड़ी हैं। ऐक्टिंग : स्टूडेंट ऑफ द इयर से ग्लैमर वर्ल्ड में एंट्री करने वालीं आलिया भट्ट का नाम बीते चंद सालों में इंडस्ट्री की बेहतरीन ऐक्टर्स में शामिल हो गया है। 'हाईवे' में अपनी ऐक्टिंग से मीडिया और दर्शकों की वाहवाही बटोरने के बाद आलिया ने एकबार फिर कायरा के किरदार को कुछ ऐसे ढंग से स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है कि अब तो उनके आलोचक भी उनकी ऐक्टिंग की तारीफें करने लगेंगे। आखिर तक आलिया के चेहरे के एक्सप्रेशन उनकी लाजवाब ऐक्टिंग का जवाब नहीं। डॉक्टर जहांगीर खान के किरदार में शाहरुख खान खूब जमे हैं। डॉक्टर जहांगीर का किरदार कुछ साल पहले आई यशराज बैनर की फिल्म 'चक दे इंडिया' में विमिन हॉकी टीम के कोच कबीर खान की याद ताजा कराता है, जहां कोच कबीर एक हारी हुई टीम को जीतने की डगर दिखाते हैं तो वहीं यहां डॉक्टर जहांगीर जिदंगी से दूर भाग रही एक लड़की को जिदंगी को नए सिरे से जीना सिखाते हैं। अन्य कलाकारों इरा दूबे, कुणाल कपूर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब रहे। निर्देशन : गौरी शिंदे की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया। गौरी की इस फिल्म में आपको उनकी पिछली फिल्म की तरह के टिपिकल चालू मसाले, आइटम नंबर और मारामारी देखने को नहीं मिलेगी। गौरी ने फिल्म के किरदारों को स्थापित करने में पूरी मेहनत की है तो वहीं कायरा के किरदार को स्क्रीन पर जीवंत बनाने के लिए पूरा होमवर्क किया। हां, इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार कुछ थम सी जाती है, डॉक्टर जहांगीर और कायरा के बीच सीटिंग के कुछ सीन को अगर एडिट किया जाता तो फिल्म की रफ्तार धीमी नहीं होती। संगीत : अमित त्रिवेदी का मधुर संगीत आपके दिल और दिमाग पर जादू चलाने का दम रखता है, टाइटल सॉन्ग लव यू जिंदगी, तारीफों से और तू ही है, गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। क्यों देखें : अगर आप साफ-सुथरी फिल्मों के शौकीन हैं तो हमारी नजर से आपको यह फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए। गौरी की यह फिल्म आपको ज़िंदगी को जीने का एक नया तरीका सिखाने का दम रखती है। इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि फिल्म देखते वक्त आप कहीं न कहीं खुद को कहानी या किसी किरदार के साथ रिलेट करेंगे। ",0 " दिल्ली में रहने वाले एक अच्छे खाते-पीते परिवार की कहानी के जरिये लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी ने दिखाया है कि 'अंग्रेजी' बोलने वालों को 'क्लासी' माना जाता है और हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जा दिया जाता है। मीता (सबा कमर) और उसका पति राज बत्रा (इरफान खान) दिल्ली में चांदनी चौक में रहते हैं। राज की कपड़ों की बड़ी दुकान है। बीएमडब्ल्यू में घूमता है। सब कुछ होने के बावजूद मीता इसलिए परेशान रहती है कि उसके पति की अंग्रेजी अच्छी नहीं है। इस कारण वो 'क्लास' लोगों में उठने-बैठने में असहज महसूस करती है। राज और मीता की बेटी पिया अब स्कूल जाने लायक हो गई है। मीता चाहती है कि उसकी बेटी दिल्ली के टॉप पांच स्कूल में से किसी एक में दाखिला ले। स्कूल में इंटरव्यू के पहले पिया के साथ-साथ राज और मीता की भी ट्रेनिंग होती है क्योंकि माता-पिता से भी सवाल पूछे जाते हैं। चार स्कूलों में पिया का एडमिशन नहीं हो पाता। आखिर में एक स्कूल बचता है, जहां एडमिशन फॉर्म के लिए ही रात में लोग लाइन में लग जाते हैं। इस स्कूल में सिफारिश भी नहीं चलती। राज को पता चलता है कि राइट टू एज्युकेशन के तहत गरीब बच्चों के लिए कुछ सीटें आरक्षित है। वह गरीब होने के कागजात जुटा लेता है। जब पता चलता है कि स्कूल वाले घर देखने आएंगे तो वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक गरीब बस्ती में शिफ्ट हो जाता है। इसके बाद कई हास्यास्पद परिस्थितियां जन्म लेती हैं। अमीर-गरीब लोगों के व्यवहार में अंतर को वह और उसकी पत्नी करीब से महसूस करते हैं। फिल्म इस बात को बारीकी से उठाती है कि अंग्रेजी माध्यम और महंगे स्कूलों की होड़ में माता-पिता बिना सोचे-समझे शामिल हो जाते हैं, मानो इन स्कूलों में दाखिला होते ही उनके बच्चे बड़े आदमी बन जाएंगे। वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह स्टेटस सिंबल का भी प्रतीक होता है। साथ ही अंग्रेजी न आने पर हीन भावना से ग्रसित होने की मनोदशा को भी फिल्म में व्यंग्यात्मक तरीके से दर्शाया गया है। स्क्रिप्ट में इस बात का ध्यान रखा गया है कि संदेश के साथ-साथ मनोरंजन भी हो। पहले हाफ में कई मनोरंजक दृश्य फिल्म में नजर आते हैं। संवाद भी गुदगुदाते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ा गंभीर होती है क्योंकि यह विषय की मांग भी थी। क्लाइमैक्स ठीक है और इससे बेहतर कुछ हो भी नहीं सकता था। अंग्रेजी और अंग्रेजी माध्यम के प्रति पैरेंट्स के मोह को दिखाया गया है, शिक्षण व्यवस्था के व्यावसायिक होने पर भी फिल्म सवाल उठाती है, लेकिन ये सारी बातें सभी जानते हैं। न चाहते हुए भी लोगों की अंग्रेजी सीखना और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना मजबूरी है क्योंकि अधिकांश अच्छी नौकरियां आपके अंग्रेजी ज्ञान के आधार पर ही मिलती है। अच्छा होता यदि फिल्म इस बात को भी दिखाती कि क्यों अंग्रेजी को भारत में इतना महत्व दिया जाता है? क्यों अंग्रेजी बोलने वाले को ज्यादा विद्वान माना जाता है? साकेत चौधरी का निर्देशन अच्छा है। उन्होंने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है और अपने प्रस्तुतिकरण के जरिये अच्छा माहौल बनाया है। फिल्म को मनोरंजक बनाते हुए उपदेशात्मक होने से बचाया है। अच्छा होता यदि फिल्म के अंत में दिखाए गए टाइटल हिंदी में होते। फिल्म बेहतरीन कलाकारों से सजी हुई है। इरफान खान कितने बेहतरीन अभिनेता हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को हंसाया है। पति पर प्रभुत्व जमाने वाली और अपनी बेटी को किसी अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने वाली मां के रूप में सबा कमर का अभिनय कहीं भी इरफान से कम नहीं है। अपनी बॉडी लैंग्वेज का उन्होंने खूब उपयोग किया है। गरीब आदमी कैसा होता है यह बताने में दीपक डोब्रियाल ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इंटरवल के बाद वे आते हैं और छा जाते हैं। अमृता सिंह का रोल ठीक से लिखा नहीं गया है। संजय सूरी, नेहा धूपिया, राजेश शर्मा छोटे-छोटे रोल में प्रभावित करते हैं। अमितोष नागपाल के संवाद बेहतरीन हैं। 'ये ताजा-ताजा गरीब बना है', 'हम तो खानदानी गरीब हैं', जैसे कई संवाद दाद देने लायक हैं। 'हिंदी मीडियम' अंग्रेजी बोलने वालों और न बोलने वाले के बीच के अंतर और शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। अच्छा होता यदि विषय की और गहराई में जाया जाता। बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखने लायक है । बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., मैडॉक फिल्म्स निर्माता : भूषण कुमार, दिनेश विजन, कृष्ण कुमार निर्देशक : साकेत चौधरी संगीत : सचिन जिगर कलाकार : इरफान, सबा कमर, दीपक डोब्रियाल, अमृता सिंह, संजय सूरी, नेहा धूपिया, दीक्षिता सहगल सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 13 मिनट 26 सेकंड ",1 "यशराज बैनर के साथ साथियां जैसी सुपरहिट फिल्म बनाने के बाद इसी बैनर के साथ झूम बराबर झूम जैसी सुपर फ्लॉप मल्टिस्टारर मेगा बजट फिल्म बना चुके यंग डायरेक्टर शाद अली पर मणिरत्नम आज भी सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। वैसे खुद मणिरत्नम ने बतौर डायरेक्टर रोजा, मुंबई, रावण जैसी कई सुपरहिट फिल्में बॉलिवुड को दी हैं, लेकिन मणि ने जब अपनी साउथ की इस सुपरडुपर हिट फिल्म ओके कनमनी को हिंदी में बनाने का फैसला किया तो डायरेक्शन की कमान अपने चहेते डायरेक्टर शाद अली को सौंपी। लिव-इन रिलेशनिशप पर साउथ की कहानी को हिंदी में नए अंदाज से बनाने के लिए शाद अली ने 'आशिकी 2' की लीड जोडी आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर को लिया। अफसोस, साउथ में सुपरहिट रही इस फिल्म को हिंदी में बनाने के लिए शाद ने होमवर्क अच्छी तरह नहीं किया। यहीं वजह है इंटरवल के बाद कहानी की सुस्त रफ्तार दर्शकों के धैर्य का इम्तिहान लेने लगती है। कहानी: मुंबई रेलवे स्टेशन पर आदि (आदित्य रॉय कपूर) और तारा (श्रद्धा कपूर) पहली बार मिलते हैं। गेमिंग के जबर्दस्त शौकीन आदि एक सॉफ्टवेयर डिवेलप करने के लिए लंबे अर्से से अमेरिका जाना चाहते हैं। वहीं, तारा एक आर्किटेक्ट हैं। तारा भी पैरिस जाना चाहती हैं। तारा और आदि की मुलाकातें बढ़ती हैं। इन दोनों में बस एक ही समानता है कि दोनों की डिक्शनरी में मैरिज नाम का शब्द नहीं है। दोनों को मैरिज की बजाएं लिव-इन रिलेशनशिप में रहना कुछ ज्यादा पसंद है। कुछ दिनों बाद तारा अपना हॉस्टल छोड़कर आदि के किराए के मकान में रहने आ जाती है। आदि का मकान मालिक गोपीचंद श्रीवास्तव (नसीरूद्दीन शाह) यहीं अपनी वाइफ (लीला सैमसन) के साथ रह रहा हैं। लिव-इन रिलेशनशिप की इस सिंपल कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब आदि को यूएस जाने का मौका मिलता है, लेकिन उस वक्त आदि और तारा एक दूसरे को चाहने लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स बॉलिवुड फिल्मों से कुछ डिफरेंट है। ऐक्टिंग: आशिकी 2 के लंबे अर्से बाद एकबार फिर स्क्रीन पर नजर आई आदित्य रॉय कपूर और श्रृद्धा कपूर की कैमिस्ट्री इस बार पहली फिल्म जैसी नजर नहीं आई। हां, स्क्रीन पर नसीरूद्दीन शाह और लीला सैमसन के बीच का रिश्ता आपको पसंद आएगा। नसीर और लीला के बीच फिल्माएं कई सीन बेहद इमोशनल बन पड़े हैं। निर्देशन: अगर शाद अली लिव-इन रिलेशनशिप की इस कहानी पर साउथ की फिल्म से हटकर काम करते तो यकीनन फिल्म और बेहतर बन पाती। ऐसा लगता है शाद ने आदित्य और श्रृद्धा के बीच की कैमिस्ट्री को और ज्यादा बेहतर और दमदार बनाने के लिए कंपलीट होमवर्क किया होता तो फिल्म यकीनन युवाओं की कसौटी पर खरा उतर पाती। यहीं वजह है आदि और श्रृद्धा की यह लव स्टोरी क्लाइमेक्स में न तो इमोशनल बन पाती है और न ही रोमांटिक। संगीत: फिल्म का एक गाना हम्मा- हम्मा कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है। एआर रहमान का सुरीला संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट कहा जा सकता है। क्यों देखें: अगर आप आदित्य रॉय कपूर और श्रृद्धा कपूर के पक्के फैन हैं तो ओके जानू से मिल आएं। और हां, एआर रहमान का उम्दा संगीत और बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी फिल्म का प्लस पॉइंट है। वहीं, अगर आप लिव-इन रिलेशिनशिप के टॉपिक पर कुछ नया और अलग देखने की चाह में थिएटर जा रहे है तो अपसेट हो सकते हैं। ",0 "अगर हम 'इन्फर्नो' की बात करें तो इस फिल्म का बजट बेहद मोटा है, इस फिल्म में हॉलिवुड के नामचीन स्टार्स के साथ-साथ बॉलिवुड के जाने-माने ऐक्टर इरफान खान की भी मौजूदगी है। फिल्म को यूरोप के कई देशों की बेहद खूबसूरत लोकेशन में जाकर शूट किया गया है। फिल्म के ऐक्शन, थ्रिलर सीन पर पैसा पानी की तरह बहाया गया है। फिल्म के डायरेक्टर रॉन हॉवर्ड अकैडमी अवॉर्ड विनर डायरेक्टर हैं। इतना ही नहीं यह फिल्म जाने-माने लेखक राइटर डॉन ब्राउन के बेहद लोकप्रिय नॉवल पर फिल्म बनाई, लेकिन फिल्म दर्शकों की कसौटी पर इसके बावजूद भी अगर खरी नहीं उतर पा रही है तो इसकी वजह फिल्म की बेहद कमजोर स्क्रिप्ट और ऐसा क्लाइमैक्स है जो इससे पहले भी हॉलिवुड की कई ऐक्शन, सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों में इससे भी ज्यादा दमदार अंदाज के साथ दर्शक देख चुके है। ...और हां, भारत में पिछले कुछ अर्से से हॉलिवुड फिल्मों की मोटी कमाई का ही असर रहा कि इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी ने यूके और यूएसए से पहले भारत में रिलीज किया है, लेकिन शायद इस बार भारत में फिल्म को सबसे पहले रिलीज करने का फैसला प्रॉडक्शन कंपनी की कसौटी पर खरा न उतर पाए। कहानी : विख्यात हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का सिम्बोलॉजिस्ट रॉबर्ट लैंगडॉन (टॉम हैंक्स) एक जबर्दस्त दुर्घटना के बाद इटली के एक हॉस्पिटल में भर्ती हैं। इस जबर्दस्त दुर्घटना के बाद अब रॉबर्ट अपनी याददाश्त खो चुका है। इस बुरे वक्त में हॉस्पिटल की डॉक्टर सिएना ब्रुक्स (फेलिसिटी जॉंस) रॉबर्ट का साथ देती है। हॉस्पिटल से बाहर आने के बाद रॉबर्ट अब सिएना ब्रुक्स के साथ मिलकर यूरोप के अलग-अलग देशों में जाकर एक विनाशकारी वायरस को खत्म करने के साथ-साथ कुछ ऐसे दस्तावेजों को हासिल करने में कामयाब होते हैं जो देश की सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है। इसी सफर में हैरी सिम्स (इरफान खान) की भी एंट्री होती है जो इस थ्रिलर रोमांचक सफर का अहम हिस्सा बनते हैं। ऐक्टिंग: टॉम हैंक्स हॉलिवुड के नामचीन और दुनिया भर में बॉक्स ऑफिस पर अपनी अलग पहचान बना चुके स्टार हैं, लेकिन न जाने क्यों डायरेक्टर रॉन हॉवर्ड ने ऐसे नामी ऐक्टर को फिल्म में ऐसे कमजोर किरदार के लिए चुना जो फिल्म की कहानी में बेशक दमदार नजर आए, लेकिन स्क्रीन पर उसके करने के लिए कुछ खास है हीं नहीं। ऐसे में टॉम जैसे नामचीन ऐक्टर ने भी अपने किरदार को बस निभा भर दिया। सिएना ब्रुक्स के किरदार में फेलिसिटी जॉंस ने अपने किरदार में मेहनत की है, वहीं इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में खुद को बेहतर ऐक्टर साबित कर चुके इरफान खान को बेशक इस फिल्म में ज्यादा फुटेज तो नहीं मिली, लेकिन इरफान अपनी अलग किस्म की डायलॉग डिलीवरी, फ्रेस एक्सप्रेशन के दम पर 'इन्फर्नो' की कहानी का अहम हिस्सा बनने में जरूर कामयाब रहे। डायरेक्शन : अगर एक कामयाब थ्रिलर फिल्म की बात करें तो ऐसी फिल्म की सबसे बड़ी खासियत फिल्म का क्लाइमैक्स और चेजिंग सीन होते हैं। 'इन्फर्नो' इन दोनों ही मामलों में बहुत पीछे नजर आती है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहद कमजोर है, ऐसा लगता है डायरेक्टर ने कमजोर कहानी और लचर स्क्रीनप्ले की वजह से ही शायद फिल्म के चेजिंग सीन को इस कदर लंबा कर दिया जो हॉल में बैठे दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेने का काम करते हैं। बेशक, डायरेक्टर रॉन हॉवर्ड ने ऐक्शन सीन में मेहनत की है लेकिन अगर दूसरी ऐक्शन थ्रिलर हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन सीन के साथ 'इन्फर्नो' के ऐक्शन सीन की तुलना की जाए तो यहां भी यह फिल्म बेहद पीछे नजर आती है। ऐसे में फिल्म का बेहद कमजोर और फिल्म शुरू होने के चंद मिनट बाद ही दर्शकों को आसानी से पता लग जाने वाले क्लाइमैक्स से दर्शकों की उत्सुकता खत्म सी हो जाती है। इंडस्ट्री के नामचीन और अनुभवी स्टार्स की मौजूदगी और मेगा बजट का भी डायरेक्टर कोई खास लाभ नहीं उठा सके। क्यों देखें : अगर आप बॉलिवुड स्टार इरफान खान के पक्के फैन हैं तो इस फिल्म को जरूर देखें ताकि आप जान सकें कि आपके चहेते बॉलिवुड ऐक्टर हॉलिवुड फिल्मों में क्या करते हैं। वहीं फिल्म की बेहतरीन सिनेमटॉग्रफी के साथ-साथ इटली और इस्ताम्बुल की ऐसी लोकेशन पर शूट फिल्म के कुछ ऐक्शन सीन इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी हैं।",1 "जरूरी नहीं है कि अच्छा आइडिया हो तो फिल्म भी अच्छी ही बने। 'लाल रंग' के साथ यही हुआ है। सैयद अहमद अफज़ल ने एक अच्छे उद्देश्य के साथ 'लाल रंग' बनाई है, लेकिन वे बात को सही तरीके से नहीं रख पाए। यहां लाल रंग का मतलब खून से है। खून किसी की जिंदगी बचा सकता है, लेकिन कुछ लोग इसे व्यापार बना लेते हैं। वे रक्त दान करने के बजाय रक्त ऊंचे दामों में अवैध तरीके से बेचते हैं। इन रक्त माफियाओं के काम करने के तरीके के इर्दगिर्द घूमती है 'लाल रंग'। विषय अलग है, लेकिन कहीं यह डॉक्यूमेंट्री न बन जाए, इसलिए निर्देशक और लेखक ने इसमें मनोरंजन के तत्व डाले हैं और यही पर सारी चूक हो गई है। जो ड्रामा दिखाया गया है वह बेहद उबाऊ और लंबा है। स्क्रीन की बजाय आप अपनी घड़ी देखने लग जाएं तो ये किसी भी फिल्म के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। हरियाणा के करनाल में रहने वाले राजेश धीमान मेडिकल लेबोरेटरी साइंस में डिप्लोमा के लिए कॉलेज में एडमिशन लेता है। वहां वह पूनम को दिल दे बैठता है और शंकर से उसकी दोस्ती हो जाती है। शंकर दादा टाइप इंसान है जो खून का अवैध कारोबार करता है। शंकर की स्टाइल से प्रभावित होकर राजेश भी उसके इस धंधे में शामिल हो जाता है। पैसे को लेकर राजेश और शंकर के संबंधों में दरार आ जाती है। एसपी गजराज सिंह इस घटिया कारोबार को बंद करना चाहता है। इन्हीं बातों के आसपास से गुजरती फिल्म खत्म होती है। लाल रंग के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें मनोरंजक बनाने के चक्कर में फिल्म अपने मूल उद्देश्य से भटकती है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह गरीबों से पैसों के बदले में खून का व्यापार किया जाता है। कैसे अस्पताल वाले पुराने खून को नया खून बताकर मरीज को चढ़ा देते हैं। रक्तदान शिविरों में से किस तरह खून को चुरा‍ लिया जाता है। लेकिन बीच-बीच में राजेश-पूनम तथा शंकर की लव स्टोरी भी आपको झेलना पड़ती है। शंकर और राजेश के बीच भी कई दृश्य है जो आपके सब्र की परीक्षा लेते है। फिल्म बेहद सुस्त गति से चलती है और अधिकांश जगह ठहरी हुई लगती है। सैयद अहमद अफज़ल का निर्देशन कमजोर है। फिल्म कई जगह ऐसी लगती है मानो नाटक देख रहे हो। अपनी बात कहने में उन्होंने बहुत सारा वक्त लिया है। फिल्म को न तो वे मनोरंजक बना पाए और न ही इस गंभीर मुद्दे को बेहतर तरीके से उठा पाए। फिल्म के संवादों में हरियाणवी टच दिया गया है जिससे कई संवाद हिंदी भाषी दर्शकों को समझने में कठिनाई आ सकती है। फिल्म के कलाकारों का अभिनय अच्छा है। रणदीप हुडा ने अपने कैरेक्टर को एक खास स्टाइल देते हुए बेहतरीन अभिनय किया है। अक्षय ओबेरॉय ने एक सीधे-सादे युवा की भूमिका बखूबी निभाई है। सहरानपुर गर्ल के रूप में पिया बाजपेई का अभिनय भी अच्‍छा है। मीनाक्षी दीक्षित और रजनीश दुग्गल के पास करने को कुछ ज्यादा नहीं था। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक निराशाजनक है और संपादन ढीला है। कुल मिलाकर 'लाल रंग' रंगहीन है। बैनर : क्रिअन पिक्चर्स निर्माता : नितिका ठाकुर निर्देशक : सैयद अहमद अफज़ल संगीत : विपिन पटवा, शिराज़ उप्पल कलाकार : रणदीप हुडा, अक्षय ओबेरॉय, रजनीश दुग्गल, पिया बाजपेई, मीनाक्षी दीक्षित सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट ",0 "यशराज फिल्म्स की ‘आजा नच ले’ एक फील गुड मूवी है। जिसके सारे किरदारों को अंत में खुशी मिलती है। बुरे चरि‍त्रों का हृदय परिवर्तन हो जाता है और भले लोगों को संघर्ष में सफलता। नवम्बर 2007 की यह दूसरी फिल्म है जिसमें ऑपेरा शैली को महत्व दिया गया है। इसके पहले दर्शक दीपावली पर संजय लीला भंसाली की ‘साँवरिया’ देख चुके हैं। फिल्म की कहानी न्यूयार्क की मॉडर्न कोरियोग्राफर दीया से अँगरेजी स्टाइल के साँग-डाँस से शुरू होकर भारत के शामली नामक एक छोटे शहर की दहलीज तक पहुँचती है, जहाँ दीया के नृत्य गुरु अपनी आखरी साँसें लेकर अजंता थिएटर को जीवित बनाए रखने की अपील करते हैं। दीया को उनका सपना पूरा करना है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं है। उसका मुकाबला स्थानीय सांसद और बिल्डर से है। इसके अलावा दीया के खिलाफ पूरा शामली भी है, क्योंकि ग्यारह वर्ष पहले वह इसी जगह से अपनी शादी के ऐन पूर्व एक अँग्रेज के साथ भाग गई थी। शामली के निवासियों की निगाह में दीया का चरित्र ठीक नहीं था। दीया वापस आकर अजंता थिएटर को पुनर्जीवित करती है और स्थानीय लोगों की मदद से लड़ाई जीतती है। फिल्म की शुरूआत थोड़ी कमजोर है, क्योंकि गति को बहुत तेज रखा गया है और इससे कहानी सेट नहीं हो पाती। दीया न्यूयार्क से वापस आती है और फौरन लड़ाई शुरू कर देती है। वह जैसा चाहती है, सब कुछ उसके अनुसार होता है। उसके पास पैसा कहाँ से आता है? यह बातें अखरती हैं, लेकिन बाद में धीरे-धीरे फिल्म अपनी पकड़ बना लेती है। कमियों के बावजूद भी रोचकता बरकरार रहती है और दर्शक फिल्म से जुड़ा रहता है। फिल्म में आज की राजनीति को बिजनेस के साथ जोड़ कर पेश किया गया है, जहाँ शॉपिंग-मॉल की संस्कृति कस्बों की कला-संस्कृति को निगलकर उपभोक्ता एवं बाजारवाद को बढ़ावा दे रही है। फिल्म नारी प्रधान है, लेकिन नारी की महत्ता का बखान फिजूल के संवादों या दृश्यों के माध्यम से नहीं दिखाया गया है। एक तलाकशुदा महिला केवल अपने दम पर लड़ाई लड़ती है और जीतती है। वहीं इस जीत की हीरो है इसलिए पुरुष नायक की कमी फिल्म में कहीं भी महसूस नहीं होती। अजंता थिएटर को बचाने के लिए दीया एक नृत्य नाटिका ‘लैला मजनू’ तैयार करती है। यह नाटिका फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण है। बीस मिनट की यह नाटिका बेहद उम्दा तरीके से लिखी गई है और दर्शक इसे देखते समय खो जाता है। इसमें लैला-मजनू की प्यार में दीवानगी उभरकर सामने आती है। सिनेमाटोग्राफर से निर्देशक बने अनिल मेहता ने फिल्म को फील गुड और मस्ती भरे मूड में पेश किया है। भले ही यह अनिल की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म हो, लेकिन उनके काम में परिपक्वता झलकती है। फिल्म की पटकथा और संवाद जयदीप साहनी ने लिखे हैं। जयदीप के पिछले काम को देखते हुए पटकथा थोड़ी कमजोर लगती है, लेकिन उनके संवाद चुटीले और ताजगी भरे हैं। उदाहरण के लिए ‘कला को शहर की जरूरत नहीं होती, लेकिन शहर को कला की जरूरत होती है’, ‘आधी मंजिल तो तय कर ली है, बची आधी तो मैं नींद में भी तय कर सकती हूँ’, ‘चाँद जैसे चेहरे पर बालों की लट मैगी नूडल्स जैसी लटका रखी है’। फिल्म के गीत एवं नृत्य संयोजन में वैभवी मर्चेण्ट ने कमाल कर दिखाया है और अपनी कुशलता की छाप छोड़ी है। फिल्म के गीतों में उम्दा शब्दों का चयन किया गया है। ‘आजा नच ले’, ‘इश्क हुआ’, ‘ओ रे पिया’ और ‘कोई पत्थर से न मारे’ अच्छे बन पड़े हैं। सलीम-सुलेमान का संगीत फिल्म के मूड को सूट करता है। माधुरी दीक्षित की ‘देवदास’ के बाद वापसी सुकून देने वाली है। इस फिल्म में उनका चरित्र उनकी उम्र से मेल खाता है। पूरी फिल्म का भार माधुरी ने अपने कंधों पर बखूबी उठाया है। उम्र का हल्का सा असर माधुरी की सुंदरता पर पड़ा है, लेकिन माधुरी का मैजिक और स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त बना हुआ है। कोंकणा सेन, रघुबीर यादव, कुणाल कपूर, अखिलेन्द्र मिश्रा, रणवीर शौरी, इरफान खान, दर्शन जरीवाला मँजे हुए कलाकार हैं। छोटी भूमिका में अक्षय खन्ना भी अच्छे लगते हैं। निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अनिल मेहता संगीत : सलीम-सुलेमान कलाकार : माधुरी दीक्षित, कोंकणा सेन, कुणाल कपूर, रघुबीर यादव, अक्षय खन्ना, दिव्या दत्ता, विनय पाठक, रणवीर शौरी, अखिलेन्द्र मिश्रा, जुगल हंसराज थोड़ी कमियों के बावजूद फिल्म अच्छी लगती है और एक बार देखने में कोई बुराई नहीं है। ",1 "बैनर : व्हाइट फीदर फिल्म्स, मुंबई मंत्र निर्माता : संजय गुप्ता निर्देशक : सुपर्ण वर्मा संगीत : शमीर टंडन, मानसी स्कॉट, गौरव दासगुप्ता, बप्पा लाहिरी, रंजीत बारोट कलाकार : फरदीन खान, दिया मिर्जा, इरफान खान, मनोज बाजपेयी, डिनो मोरिया, आफताब शिवदासानी, डैनी * यू/ए सर्टिफिकेट * 12 रील यूँ तो ‘एसिड फैक्ट्री’ का निर्देशन सुपर्ण वर्मा ने किया है, लेकिन फिल्म पर निर्माता संजय गुप्ता की छाप साफ नजर आती है। संजय गुप्ता लार्जर देन लाइफ और स्टाइलिश फिल्म बनाना पसंद करते हैं। उनकी फिल्म के किरदार अपराध जगज से जुड़े रहते हैं और ग्रे शेड लिए रहते हैं। ‘एसिड फैक्ट्री’ भी गुप्ता की फैक्ट्री से निकली एक ऐसी ही फिल्म है। फिल्म की कथा रोचक है और दर्शक भी याददाश्त खोए हुए सभी किरदारों की तरह जानना चाहता है कि उनकी असलियत क्या है। यह उत्सुकता फिल्म में दिलचस्पी बनाए रखती है। एक एसिड फैक्ट्री में दो लोग ऐसे हैं जिन्हें अपहृत कर ‍लाया गया है और कुछ लोग अपहरणकर्ता हैं। फैक्ट्री में गैस लीकेज हो जाती है और वे कुछ घंटों के लिए याददाश्त खो बैठते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि वे कौन हैं? यहाँ क्यों आए हैं? उनका क्या मकसद है। एक अपहरणकर्ता बाहर से टेलीफोन लगाकर उनसे संपर्क करता रहता है, जिसके आधार पर वे अनुमान लगाते रहते हैं। फैक्ट्री से बाहर निकलने का उन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आता है। फिल्म के क्लाइमैक्स में हर शख्स की याददाश्त लौट आती है। अँग्रेजी फिल्म ‘अननोन’ से प्रेरित इस फिल्म को निर्देशक सुपर्ण वर्मा ने उम्दा तरीके से फिल्माया है। काले जैकेट पहने, महँगी कारों और बाइक्स पर घूमते, पब में गाना गाते किरदारों को स्टाइलिश ढंग से उन्होंने दिखाया है। बीच-बीच में फ्लैश बैक के जरिये उन्होंने हर किरदार का परिचय दिया है। फिल्म का अंत रोचक बनाने में सुपर्ण मात खा गए। फिल्म को स्टाइलिश बनाने में एक्शन डॉयरेक्टर और सिनेमॉटोग्राफर का अहम योगदान है। एक्शन डॉयरेक्टर टीनू वर्मा ने बेहतरीन तरीके से स्टंट और चेज़ सीक्वेंस को अंजाम दिया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक और संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। फिल्म में फ्लॉप हो चुके कलाकारों की भीड़ है। फरदीन खान और डीनो मारियो का अभिनय उम्दा है। आफताब शिवदासानी और दिया मिर्जा चीख-चीखकर अपने आपको खतरनाक साबित करने में लगे रहें। मनोज बाजपेयी ने ओवर एक्टिंग की, जबकि डैनी और इरफान खान को ज्यादा अवसर नहीं मिले। फिल्म में उम्दा कलाकार होते, तो बात और बेहतर होती। यदि आप थ्रिलर और स्टाइलिश फिल्म पसंद करते हैं तो 98 मिनट का यह सौदा बुरा नहीं है। ",1 " खुले में शौच करने में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को होती है। सूर्योदय होने के पूर्व उन्हें गांव से बाहर जाना होता है। दिन में जरूरत हो तो पेट पकड़ कर बैठे रहो। मनचलों की छेड़खानी अलग से सहो। शायद इसी कारण वर्तमान सरकार स्वच्छता और शौचालय के निर्माण पर इतना जोर दे रही है। इन सारी बातों को 'टॉयलेट- एक प्रेम कथा' में बुना गया है। नाम से ही स्पष्ट है कि यह प्रेम कहानी टॉयलेट के इर्दगिर्द घूमती है। केशव (अक्षय कुमार) और जया (भूमि पेडनेकर) की पहली मुलाकात टॉयलेट के सामने ही होती है। मुलाकात प्यार में बदलती है और प्यार शादी में। ससुराल आकर जया को पता चलता है कि यहां तो टॉयलेट ही नहीं है। अलसुबह उठकर महिलाओं के साथ समूह में जाकर 'लोटा पार्टी' करना है। जया पढ़ी-लिखी है और चाहती है कि घर में टॉयलेट हो। ससुर (सुधीर पांडे) इसके लिए तैयार नहीं है। केशव पिता से डरता है इसलिए तरह-तरह के जुगाड़ करता है, लेकिन जुगाड़ टिकाऊ नहीं होते। इसके बाद केशव महिलाओं की समस्या को समझता है। किस तरह से वह अपनी रूठी पत्नी को मनाता है और अपने पिता सहित गांव वालों से लड़ता है यह फिल्म का सार है। श्री नारायण सिंह निर्देशित यह फिल्म हमें भारत के भीतरी इलाकों में ले जाती है, जहां अभी भी दकियानुसी लोग रहते हैं। निर्देशक और लेखक (सिद्धार्थ-गरिमा) ने फिल्म को दो भागों में बांटा है। इंटरवल के पहले माहौल को हल्का-फुल्का रखा गया है और केशव तथा जया के रोमांस को कॉमेडी के साथ दिखाया गया है। हालांकि 49 वर्षीय अक्षय कुमार पर कई दृश्यों में उम्र हावी लगती है और इसीलिए फिल्म में स्पष्ट कर दिया गया है कि केशव 36 साल का हो गया है और किसी कारणवश उसकी शादी नहीं हो पाई है। कुछ दृश्य आपको हंसाते हैं वहीं कुछ जगह लगता है कि फिल्म को बेवजह खींचा जा रहा है। कुछ दृश्य और गाने कम किए जा सकते थे। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी गंभीर होती है। टॉयलेट वाला मुद्दा हावी होता है। कुछ जगह फिल्म सरकारी भोंपू भी बन जाती है, लेकिन बीच-बीच में मनोरंजक दृश्य भी आते रहते हैं और दर्शकों का मन फिल्म देखने में लगा रहता है। सिद्धार्थ और गरिमा द्वारा लिखी कहानी और स्क्रिप्ट की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि आगे क्या होने वाला है यह सभी को पता रहता है और सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सफर मजेदार है। टॉयलेट के महत्व का संदेश हास्य और रोमांस में लपेट कर उन्होंने दिया है। निर्देशक श्री नारायण सिंह के काम को देख लगता है कि वे ग्रामीण मानसिकता को अच्छे से समझते हैं। गांव या छोटे शहर का माहौल उन्होंने अच्छे से क्रिएट किया है। फिल्म में मैसेज के साथ एंटरटेनमेंट हो इस बात को उन्होंने ध्यान रखा है। हालांकि उनका तकनीकी पक्ष थोड़ा कमजोर नजर आया। कुछ जगह सेट नकली लगते हैं तो कहीं वीएफएक्स कमजोर हैं। फिल्म का संपादन भी उन्होंने किया है इसलिए वे अपने ही दृश्यों को काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इस कारण फिल्म की लंबाई अखरती है। जैसे सना खान वाले प्रसंग का कोई मतलब ही नहीं है। गानों की अधिकता से भी बचा जा सकता था। लठ्ठ मार होली को भी दो बार दिखाना अखरता है। अक्षय कुमार ने अपना काम ईमानदारी के साथ किया है। उन्होंने ग्रामीण लहजे और बॉडी लैंग्वेज को बारीकी से पकड़ा है। जब उनके पिता द्वारा टॉयलेट तोड़ देने के बाद उनके गुस्से वाले सीन में उनका अभिनय बेहतरीन है। रोमांटिक दृश्यों में उम्र उन पर हावी लगी है। उनकी मूंछ पूरी फिल्म में एक जैसी नहीं है। कहीं-कहीं नकली लगती है और इस बात का ध्यान रखा जाना था। भूमि पेडनेकर का अभिनय शानदार है। दृश्य के मुताबिक वे अपने चेहरे पर भाव लाती हैं और सभी पर वे भारी पड़ी हैं। अनुपम खेर का रोल महत्वहीन है और उन्हें केवल इसलिए फिल्म से जोड़ा गया है ताकि फिल्म वजनदार लगे। सुधीर पांडे और द्वियेंदु शर्मा का अभिनय शानदार है। गाने फिल्म का कमजोर पक्ष है। टॉयलेट में छोटी-मोटी कमियां जरूर हैं, लेकिन जिस उद्देश्य से यह फिल्म बनाई गई है उसमें यह सफल है। बैनर : वायकॉम18 मोशन पिक्चर्स, कृअर्ज एंटरटेनमेंट, प्लान सी स्टुडियोज़, केप ऑफ गुड फिल्म्स निर्माता : अरूणा भाटिया, शीतल भाटिया, वायकॉम18 मोशन पिक्चर्स, अर्जुन एन कपूर, हितेश ठक्कर निर्देशक : श्री नारायण सिंह संगीत : विक्की प्रसाद, मानस-शिखर, सचेत-परम्परा कलाकार : अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर, द्वियेंदु शर्मा, सुधीर पांडे, शुभा खोटे, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट ",1 "आपने किसी समझदार इंसान के मुंह से सुना होगा कि जिस बात को अंजाम तक ले जाना मुमकिन न हो, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ दो! निर्माता महेश भट्ट की 'जलेबी' भी एक ऐसी ही लवस्टोरी है, जो प्यार के सफर पर एक अलग अंजाम तक पहुंचती है। फिल्म की शुरुआत में एक तलाकशुदा राइटर आयशा (रिया चक्रवर्ती) मुंबई से दिल्ली ट्रेन से जा रही है। इत्तेफाक से ट्रेन में उसके केबिन में ही उसका एक्स हज्बंड देव (वरुण चक्रवर्ती) भी अपनी पत्नी अनु (दिगांगना सूर्यवंशी) और बेटी दिशा के साथ सफर कर रहा था। उन्हें देख कर आयशा की आंखों के सामने उसका बीता हुआ कल और देव के साथ बिताया हुआ खूबसूरत वक्त फ्लैशबैक में घूम जाता है। साथ ही उसके मन में यह सवाल भी आता है कि क्या देव वाकई में उसे प्यार करता था? कहीं उसने उसे धोखा तो नहीं दिया? इन सब सवालों का जवाब आपको भी सिनेमाघर जाकर ही मिलेगा।जलेबी 2016 में आई बांग्ला फिल्म 'प्रकटन' की रीमेक है, जिसका मतलब पिछला है। इस फिल्म में डायरेक्टर पुष्पदीप भारद्वाज ने एक लवस्टोरी के माध्यम से लव ऐट फर्स्ट साइट में यकीन करने वाली युवा पीढ़ी को एक संदेश भी दिया है कि न तो पिंजरे का पंछी आसमान में उड़ पाता है और न ही आसमान का पंछी पिंजरे में रह पाता है! 'जलेबी' के सुबह के शो में भले ही लड़के-लड़कियां इसके हॉट पोस्टर को देखकर पहुंचे थे, लेकिन डायरेक्टर ने उन्हें बेहद खूबसूरती से जिंदगी के एक अलग मायने भी समझा दिए कि उनसे मोहब्बत कमाल की होती है, जिनका मिलना किस्मत में नहीं होता! अपनी पहली ही फिल्म में वरुण मित्रा ने अच्छी ऐक्टिंग की है, तो रिया चक्रवर्ती भी अपने रोल में खूब जमी हैं। वहीं छोटे से रोल में दिगांगना ने भी प्रभाव छोड़ा है। फिल्म बेहद दिलचस्प तरीके से आपको युवा प्रेमियों की जिंदगी दिखाती है, जो बिना सोचे-समझे फैसले ले लेते हैं, लेकिन उन्हें इस बात का इल्म कतई नहीं होता कि उन्हें निभाना कितना मुश्किल है। लव मैरिज के बाद लड़कियां जहां सपनीली दुनिया का ख्वाब आंखों में लेकर आती हैं, वहीं लड़का उसमें एक आदर्श बहू तलाशता है और दोनों के बीच परेशानियां शुरू हो जाती हैं। फिल्म के संवाद भी अच्छे बन पड़े हैं। मसलन एक सीन में लड़का कहता है कि ये तंग गलियां नहीं मेरा घर है। जहां दिल होता है, वहीं घर होता है। अगर मैंने ये फैमिली, ये घर छोड़ दिया, तो मैं तुम्हारा कभी हो ही नहीं पाऊंगा, क्योंकि मैं तब मैं, मैं नहीं रहूंगा! वहीं ट्रेन में इन लोगों के साथ सफर कर रहे नव विवाहित कपल से लेकर एक सिंगर और ओल्ड ऐज कपल तक की कहानी फिल्म में खूबसूरती से पिरोई हुई है, जो आपको जिंदगी की सच्चाइयों से रूबरू कराती हैं। दिल्ली की खूबसूरत लोकेशन भी फिल्म का एक महत्वपूर्ण किरदार है। दो घंटे से भी कम टाइम की फिल्म आपको लगातार बांधे रखती है।फिल्म का तेरे नाम से ही रोशन गाना पहले से ही हिट है। बाकी गाने भी अच्छे बन पड़े हैं। अगर इस वीकेंड कुछ अलग अंदाज वाली लव स्टोरी देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए ही है।",0 " बारने निर्णय लेता है कि अब उसके उम्रदराज दोस्तों से संबंध तोड़ने का समय आ गया है। स्टोनबैंक्स के मिशन को पकड़ने के लिए वह नौजवानों को अपनी गैंग में शामिल करता है। स्टोनबैंक्स को पकड़ने के लिए वह अपने नए साथियों के साथ निकल पड़ता है। उसका मिशन एक बार फिर असफल होता है और उसके नए सा‍थी पकड़े जाते हैं। बारने अकेले ही अपने साथियों को छुड़ाने के लिए निकलता है, लेकिन इसी बीच उसके पुराने साथी लौट आते हैं। नए और पुराने साथियों के साथ मिलकर बारने अपने मिशन को सफल बनाता है। फिल्म की कहानी सिल्वेस्टर स्टेलॉन ने लिखी है। कहानी बिलकुल सरल और सीधी है। जाहिर सी बात है कि एक्शन सीन की सिचुएशन बनाते हुए कहानी लिखी गई है। फिल्म की शुरुआत एक बेहतरीन एक्शन सीन से होती है। डॉक को ट्रेन से एक जेल ले जाया जा रहा है। ये खबर बारने को पता चलती है। हेलिकॉप्टर के जरिये वह अपने साथियों के साथ रवाना होता है। हेलिकॉप्टर और ट्रेन के जरिये बेहतरीन रोमांच पेश किया गया है। इसके बाद नियमित अंतराल में एक्शन सीन लगातार परोसे गए हैं। चाकू, ग्रेनेड्स, टैंक्स, हेलिकॉप्टर, प्लेन, पिस्तौल, मशीन गन, ट्रेन का इन एक्शन दृश्यों में उपयोग हुआ है और इन स्टार्स की भीड़ लगातार परदे पर गोलीबार और विस्फोट करती रहती है। इनके बीच जो फुर्सत मिलती है उसमें इनकी आपसी छेड़छाड़ चलती रहती है। बारने अपने 'बूढ़े' दोस्तों के लिए चिंतित है, लेकिन अपने इमोशन वह आसानी से जाहिर नहीं करता। नई और पके हुए उम्र के साथियों के बीच की नोकझोक भी उम्दा है। नए बच्चे इन्हें 'दादाजी' कहते हैं और वे कहते हैं 'तुम अभी अंडे से बाहर भी नहीं निकले हो'। एंटोनियो बैंडेरस की 'बक बक' ने एक्शन के बीच कुछ कॉमिक मोमेंट्स भी दर्शकों को दिए हैं। निर्देशक पैट्रिक ह्यूजेस ने अपनी टॉरगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर फिल्म बनाई है। उन्होंने एक्शन को प्रमुखता दी है और ऐसा एक्शन दिखाया है जो लोगों को पसंद आए। यदि स्क्रिप्ट पर थोड़ा ध्यान दिया जाता तो 'द एक्सपेंडेबल्स 3' का स्तर और ऊंचा हो जाता। सितारों की भीड़ फिल्म में मौजूद है। सिल्वेस्टर स्टेलॉन बेहद थके लगे और एक्शन दृश्यों में उनकी रफ्तार धीमी नजर आई। जेसन स्टाथम ने एक्शन सीन बखूबी निभाए। एंटोनियो बैंडेरस ने दर्शकों को हंसाया, लेकिन अभिनय के मामले में सबसे दमदार रहे मेल गिब्सन। कुटील मुस्कान के साथ उन्होंने बुरे आदमी के किरदार को अच्छे से निभाया। यदि आप एक्शन मूवी के शौकीन है तो पॉपकॉर्न का टब लेकर 'द एक्सपेंडेबल्स 3' का आनंद लिया जा सकता है। निर्माता : एवी लर्नर निर्देशक : पैट्रिक ह्यूजेस कलाकार : सिल्वेस्टर स्टेलॉन, अर्नोल्ड श्वार्जनेगर, जेसन स्टाथम, जेट ली, वेसले स्नीप्स, हैरीसन फोर्ड, मेल गिब्सन सिल्वेस्टर स्टेलॉन, अर्नोल्ड श्वार्जनेगर, जेसन स्टाथम, जेट ली, वेसले स्नीप्स, हैरीसन फोर्ड, मेल गिब्सन जैसे सितारों का स्वर्णिम दौर बीत चुका है। अकेले के दम पर फिल्म चलाना इनके बूते की बात नहीं है। इन रिटायर्ड एक्शन स्टार्स की भीड़ को लेकर 'द एक्सपेंडेबल्स' नामक सीरिज का निर्माण सिल्वेस्टर स्टेलॉन कर रहे हैं और इसका तीसरा भाग हाल ही में रिलीज हुआ है। ये 'बूढ़े' सितारे अपने जवानी के दिनों के 'एक्शन' को फिर दोहराते नजर आए हैं। इन सितारों से दर्शकों को एक ही उम्मीद रहती है और वो है 'दमदार एक्शन'। 'द एक्सपेंडेबल्स 3' में निर्देशक पीटर ह्यूजेस ने अपने दर्शकों के लिए जमकर एक्शन परोसा है। एक्शन देखने वालों की तबियत तो खुश हो जाती है, लेकिन जो कहानी ढूंढते हैं उन्हें निराशा हाथ लगती है। एक्शन इसमें ड्राइविंग सीट पर है और कहानी बैक सीट पर। बारने रोस (सिल्वेस्टर स्टेलॉन) अपने पुराने दोस्त डॉक (वेसले स्नीप्स) को एक जानदार एक्शन सीन के जरिये जेल से छुड़ाने में कामयाब रहता है। बारने की गैंग में अब बहुत कम लोग बचे हैं। उनकी उम्र हो गई है। बारने को पता चलता है कि उसका पुराना दोस्त कोनॉर्ड स्टोनबैंक्स (मेल गिब्सन) जो अब उसका दुश्मन है जिंदा है। वह अवैध हथियारों की खरीद और बिक्री में लिप्त है। बारने उसे पकड़ने की कोशिश करता है, लेकिन नाकामयाब रहता है। ",1 "असली मर्द वह होता है जो सिर्फ औरतों पर ही नसबंदी कराने का दबाव ना डालते हुए खुद भी नसबंदी कराने के लिए आगे आता है। फिल्म 'पोस्टर बॉयज़' में सनी देओल कुछ ऐसा ही मेसेज देते नजर आते हैं। फिल्म में नसबंदी जैसे गंभीर विषय को एक रोचक और सत्य घटना पर फिल्माया गया है और हलके-फुलके अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया गया है। फिल्म देश में जनसंख्या वृद्धि की बढ़ती समस्या पर भी फोकस करती है। बेशक इस फिल्म के बहाने सोसायटी में नसबंदी को लेकर चर्चा जरूर होगी। कहानी: फिल्म की कहानी जंगेठी गांव के रिटायर्ड फौजी चौधरी जगावर सिंह (सनी देओल), स्कूल टीचर विनय शर्मा (बॉबी देओल) और लोन रिकवरी एजेंट अर्जुन सिंह (श्रेयस तलपड़े) की है। यूं तो इन तीनों का एक-दूसरे से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन एक दिन अचानक ये तीनों स्वास्थ्य विभाग के नसबंदी अभियान वाले पोस्टर पर अपनी फोटो देखकर हैरान रह जाते हैं, जिस पर लिखा है कि हमने तो नसबंदी करा ली और अब आप भी करा लो। पिछड़े हुए गांव जंगेठी में इनके नसबंदी कराने की खबर आग की तरह फैलती है, जिस वजह से तीनों को तमाम परेशानियों को सामना करना पड़ता है। जगावर की बहन का रिश्ता टूट जाता है तो विनय की पत्नी उसे छोड़कर चली जाती है। वहीं, अर्जुन की गर्लफ्रेंड के पिताजी उसे अपना दामाद बनाने से साफ इनकार कर देते हैं। उसके बाद ये तीनों इसका पता लगाते हैं कि आखिर उनका फोटो पोस्टर पर कैसे आ गया, जबकि उन्होंने नसबंदी कराई ही नहीं, तो उन्हें पता लगता है कि मंत्री जी दौरे पर आने से पहले पोस्टर छपवाने के फेर में स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी ने गांव के फोटॉग्रफर से यूं ही कुछ लोगों की फोटो लेकर पोस्टर छपवा दिए। उसके बाद ये तीनों अपने आपको सही साबित करने के लिए सरकार के खिलाफ जंग लड़ते हैं। बढ़ते-बढ़ते मामला कोर्ट तक पहुंच जाता है लेकिन क्या इन तीनों को इंसाफ मिल पाता है? यह तो आपको थिअटर जाकर ही पता लगेगा। रिव्यू: 2014 में आई मराठी फिल्म 'पोस्टर बॉयज़' को श्रेयस तलपड़े ने न सिर्फ प्रड्यूस किया था बल्कि इसमें एक छोटा रोल भी किया था। फिल्म को मिले बढ़िया रिस्पॉन्स को देखते हुए श्रेयस ने न सिर्फ इस फिल्म की हिंदी रीमेक को प्रड्यूस करने की प्लानिंग की बल्कि इस फिल्म से पहली बार डायरेक्शन के फील्ड में भी एंट्री की। अपने कॉमेडी फिल्मों के एक्सपीरियंस का श्रेयस ने इस फिल्म में भरपूर इस्तेमाल किया और दर्शकों के सामने एक गंभीर विषय पर मजेदार फिल्म पेश की। उनके गोलमाल सीरीज का हिस्सा होने की वजह से श्रेयस की फिल्म में अजय देवगन, परिणीति चोपड़ा, अरशद वारसी और तुषार कपूर जैसे स्टार्स भी कैमियो में नजर आए। सनी देओल ने इस फिल्म में दिखा दिया कि वह न सिर्फ ऐक्शन फिल्मों में अच्छे रोल करते हैं, बल्कि गंभीर रोल में भी मजेदार कॉमेडी कर सकते हैं। खासकर सनी की पावरफुल बॉडी का श्रेयस ने दर्शकों के मनोरंजन के लिए खूब शोऑफ किया। वहीं आजकल फिल्मी पर्दे से गायब चल रहे बॉबी देओल ने भी फिल्म में ठीकठाक रोल किया है। पर्दे पर कॉमेडी सीन में देओल ब्रदर्स की जुगलबंदी मजेदार लगती है। इन 5 कारणों से ज़रूर देखें 'पोस्टर बॉयज़' ",1 "कहानी: फिल्म में पूरा मार्वल सिनेमैटिक यूनिवर्स (एमसीयू) एक साथ ताकतवर थैनोस से मुकाबला करने उतरता है क्योंकि उसने पूरे यूनिवर्स को खत्म करने की धमकी दी है। वह एक-एक करके सभी ग्रहों पर कब्जा करने लगता है तब सारे 22 सुपरहीरो मिलकर उसे एक साथ रोकने का फैसला करते हैं। रिव्यू: सुपरहीरो फिल्म जॉनर में बिना संदेह कहा जा सकता है कि 'अवेंजर्स: इन्फिनिटी वॉर' एक बहुत महत्वाकांक्षी फिल्म है। यह भारत में हॉलिवुड की सबसे बड़ी रिलीज बनने जा रही है। फिल्म ने प्री-सेल के मामले में बॉलिवुड की सुपरहिट फिल्म 'बाहुबली' को भी पीछे छोड़ दिया है। दिल्ली-एनसीआर में इस फिल्म के 1500 शो एक साथ चलेंगे। मार्वल स्टूडियो अपने सभी फिक्शनल हीरोज को एक साथ पहली बार स्क्रीन पर लाने के लिए 10 साल से ज्यादा मेहनत की है। इस फिल्म के लिए मार्वल स्टूडियो ने काफी भारी-भरकम मार्केटिंग कैंपेन भी चलाया है। हालांकि बड़ा प्रश्न उठता है कि क्या यह फिल्म दर्शकों की उम्मीदों पर खरी उतरती है या नहीं। और जवाब है, हां। इस फिल्म में आपके सभी सुपरहीरो पूरी फॉर्म में दिखेंगे। कोई भी सुपरहीरो फिल्म में छोटा नहीं दिखाई देगा। फिल्म के स्क्रीनप्ले के लिए क्रिस्टोफर मार्कस और स्टीफेन मैकफीली की तारीफ की जानी चाहिए। फिल्म में काफी ऐक्शन के साथ-साथ आपको कुछ बेहतरीन परफॉर्मेंस देखने को भी मिलेंगी। फिल्म को पूरे बैलंस के साथ बनाया गया है कि पूरे ढाई घंटे तक दर्शकों की इसमें रुचि बनी रहती है। फिल्म में एक मात्र विलन थैनोस की भूमिका को काफी मजबूत बनाया गया है और किरदार के साथ पूरा न्याय किया गया है। फिल्म में उससे मुकाबला करते हुए कई बार सुपरहीरो भी ताज्जुब में पड़ जाते हैं। अगर आपने पिछली अवेंजर मूवीज देखी हैं तो जबर्दस्त ऐक्शन से भरपूर इस फिल्म को मिस न करें। ",0 "मर्द को कभी दर्द नहीं होता, यह कहावत तो आपने सुनी होगी। लेकिन मर्द की मर्दानगी से जुड़े सवालों को हल्के-फुल्के अंदाज में छूती इस फिल्म में लीड कैरेक्टर आयुष्मान मर्द की नई परिभाषा बताती है कि मर्द वह होता है, जो ना दर्द देता है और ना किसी को देने देता है। फिल्म शुभ मंगल सावधान दिल्ली बेस्ड मुदित शर्मा (आयुष्मान खुराना) की कहानी है, जिसकी सगाई दिल्ली की ही सुगंधा (भूमि पेडनेकर) से हो जाती है। सगाई से शादी के बीच के दिनों में मुदित और सुगंधा एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो उन्हें पता लगता है कि मुदित को सेक्सुअल प्रॉब्लम है। यह पता लगते ही सुगंधा के पैरंट्स शादी के खिलाफ हो जाते हैं। लेकिन मुदित किसी भी हालत में सुगंधा से शादी करना चाहता है और इसके लिए हर मुमकिन कोशिश करता है। इसमें सुगंधा भी उसका पूरा साथ देती है। मजेदार घटनाक्रम और तमाम नोक-झोंक के बीच आखिरकार मुदित और सुगंधा की शादी हो पाती है या नहीं यह आपको थिअटर में जाने पर ही पता लगेगा। शुभ मंगल सावधान 2013 में आई तमिल फिल्म कल्याण समायल साधम् की हिंदी रीमेक है। इसके तमिल वर्जन के डायरेक्टर आर. एस. प्रसन्ना ही थे। इसलिए शुभ मंगल सावधान के निर्माता और अपनी तनु वेड्स मनु और रांझणा जैसी देसी अंदाज वाली फिल्मों के लिए मशहूर आनंद एल राय ने इसके डायरेक्शन की कमान प्रसन्ना को सौंपी। प्रसन्ना ने भी आनंद को निराश नहीं किया और हिंदी के दर्शकों के लिहाज से मजेदार कॉमिडी पेश की है। खास बात यह है कि उन्होंने मौजूदा समाज में स्ट्रेस के चलते लड़कों के बीच सेक्सुअल प्रॉब्लम और शादी के बाद इसे झेलने वाली वाली तमाम लड़कियों की परेशानी को बेहद खूबसूरती से मजेदार अंदाज में पर्दे पर उतारा है। बेशक, सिनेमा समाज का दर्पण होता है और सिनेमा का असर समाज पर काफी हद तक पड़ता है। ऐसे में, इस फिल्म को देखने वाले युवा लड़के-लड़कियों में निश्चित तौर पर एक ऐसे विषय को लेकर जागरूकता बढ़ेगी, जिसके बारे में हमारे समाज में बात करने से अमूमन बचा जाता है। खासकर प्रसन्ना ने कुछ सीरियस चीजों को महज सीन या डायलॉग से बेहद खूबसूरत अंदाज में पर्दे पर दिखाया है। हालांकि कहीं-कहीं डबल मीनिंग डायलॉग कुछ ज्यादा ही हो जाते हैं। लीक से हटकर सब्जेक्ट के चलते यंगस्टर्स के बीच चर्चित शुभ मंगल सावधान के क्रेज का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म के ट्रेलर को एक करोड़ से ज्यादा लोग देख चुके हैं। विकी डोनर, दम लगा के हईशा और बरेली की बर्फी में मजेदार रोल के बाद शुभ मंगल सावधान में भी बेहतरीन ऐक्टिंग करके आयुष्मान खुराना ने दिखा दिया है कि वह देसी जोनर की फिल्मों के एक्सपर्ट बन चुके हैं। वहीं दम लगा के हईशा और टॉयलेट एक प्रेमकथा जैसी देसी फिल्मों में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवाने वाली भूमि पेडनेकर ने भी दिखा दिया कि वह बॉलिवुड में लंबी पारी खेलने के लिए आई हैं। आने वाले दिनों में देसी जोनर की फिल्मों के कई रोल भूमि को ऑफर हो सकते हैं। दम लगा के हईशा के बाद आयुष्मान और भूमि की जोड़ी फिर से खूब जमी है। सुगंधा के ताऊ जी के रोल में ब्रिजेंद्र काला हमेशा की तरह लाजवाब हैं। वहीं सुगंधा की ममी के रोल में सीमा पाहवा ने बरेली की बर्फी के बाद एक बार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग की है। फिल्म के राइटर हितेश केवलय ने ऐसे मनोरंजक डायलॉग लिखे हैं, जो थिअटर में दर्शकों को पेट पकड़कर हंसने पर मजबूर देते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको खूब गुदगुदाता है। हालांकि इंटरवल के बाद से फिल्म जरूर थोड़ी सीरियस हो जाती है। फिल्म के गाने अच्छे लगते हैं और कहानी का हिस्सा ही लगते हैं। वहीं अनुज राकेश धवन की सिनेमटाग्रफी भी अच्छी है। खासकर गानों का फिल्मांकन भी खूबसूरती से किया गया है। इस वीकेंड आप इस फिल्म को देखने जायेंगे, तो यह आपको निराश नहीं करेगी। ​ मूवी रिव्यू को गुजराती में पढ़ें ",0 "बॉलिवुड में जब किसी नए सब्जेक्ट पर फिल्म बनती है तो अच्छा लगता है, लेकिन अगर उस सब्जेक्ट के साथ न्याय न हो तो उतना ही बुरा लगता है। फिल्म 'इरादा' के साथ भी यही हुआ है। कहानी: फिल्म में कहानी है एक बड़ी केमिकल कम्पनी की जिसकी जहरीली गैसों का पानी रिवर्स बोरिंग के जरिए जमीन के काफी नीचे तक छोड़ा जाता है। इसकी वजह से ज़मीन के नीचे के पानी में खतरनाक रसायन मिल जाते हैं। इस पानी को पीने से लोगों को कैंसर हो जाता है। जिसका शिकार आर्मी से रिटायर्ड पिता परबजीत वालिया (नसीरुद्दीन शाह) की बेटी रिया (रुमान मोल्ला) भी हो जाती है। एक दिन उस कम्पनी में अचानक ब्लास्ट हो जाता है जिसकी जांच के लिए एक इंटेलिजेंस ऑफिसर (अरशद वारसी) आता है। जांच के दौरान ऑफिसर को रिवर्स बोरिंग के अलावा और भी कई चौंकाने वाले राज़ मिलते हैं। पूरी फिल्म इसी प्लॉट के इर्द-गिर्द घूमती है। डायरेक्शन: फिल्म का आइडिया अच्छा होना एक बात है और फिल्म बनाना दूसरी। जिम्मेदारी तब और बढ़ जाती है जब आपकी फिल्म में नसीरुद्दीन और दिव्या दत्ता जैसे कलाकार हों। फिल्म का डायरेक्शन बहुत ही औसत है। अपर्णा सिंह बमुश्किल अपनी कहानी समझाने में सफल हो पाती हैं। कुछ कमियों की बात करें तो फिल्म का टाइम पीरियड वर्तमान है, लेकिन फिल्म के बाद में लिखा आता है कि पंजाब में इस तरह की समस्या पहले सन् 1970 के आस-पास हुआ करती थी। इसी तरह फिल्म का लॉजिक भी ड्रोन के साथ उड़ जाता है। video: सुनिए, अरशद वारसी के बारे में क्या कह रही हैं सागरिका इसी तरह कई जगह ज़बरदस्ती दर्शक पर अपनी कहानी थोपने की कोशिश की गई है। जैसे चीफ मिनिस्टर (दिव्या दत्ता) को बुरा दिखाने के लिए अचानक उनकी मां की एंट्री। रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर (नसीरुद्दीन शाह) जलकर मरा, यह यकीन दिलाने के लिए उसके लॉकेट और उनके मेडल दिखाना इत्यादि। फिल्म में एक्स्ट्रा सपॉर्टिंग ऐक्टर्स बिल्कुल सपॉर्ट नहीं करते हैं और कई डायलॉग बहुत वाहियात लगते हैं। ऐक्टिंग: फिल्म में दिव्या दत्ता और नसीरुद्दीन शाह जैसे बड़े नाम हैं तो अरशद वारसी जैसा प्रभावशाली अभिनेता भी। ऐसा बहुत कम होता है जब कोई ऐक्टर डायरेक्टर की क्षमता माप लेता है। दिव्या दत्ता ने वैसा ही काम किया है। किरदार में बिल्कुल सटीक लेकिन कमजोर डायरेक्शन उनकी प्रतिभा को सीमित कर देता है। नसीरुद्दीन शाह ने एक रिटायर्ड आर्मी मैन का किरदार तबीयत से निभाया है। फिल्म देखते समय आपको यकीन करने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि वह एक बेहद शार्प आर्मी ऑफिसर हैं। फिल्म में अरशद वारसी ने एक इंटेलिजेंस ऑफिसर के किरदार में दिखे हैं। अरशद वारसी की खास बात यह है कि उन्हें कोई भी रोल मिले वे उसे अपने अंदाज़ में करते हैं, लेकिन उनकी पिछली कई फिल्मों की तरह इसमें भी सर्किट का अक्स आपको नज़र आएगा। अरशद एक कैरक्टर के तौर पर तो ठीक हैं, लेकिन एक ऐक्टर के तौर पर वह जूझते नज़र आते हैं। 'चक दे इंडिया' फेम सागरिका घाटगे फिल्म में हैं, लेकिन क्यों हैं कहना कठिन है। न वह जर्नलिस्ट लगती हैं, न ही विरहणी प्रेमिका। फिल्म में रोमान मोल्ला, परबजीत वालिया (नसीरुद्दीन शाह) की कैंसर पीड़ित बेटी का किरदार निभा रही हैं लेकिन कहना गलत न होगा कि उन्होंने एक शानदार मौका हाथ से गंवाया है। उनके पास करने को बहुत कुछ था, लेकिन उन्होंने निराश किया। उन्हें यह समझना चाहिए कि ऐक्टिंग सर मुंड़वाने से काफी ऊपर की कला है। शरद केलकर की बात करें तो उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया। हालांकि राजेश शर्मा ने अपना काम बखूबी किया है वे कई बार अपने सामने वाले किरदार पर भारी पड़ते नज़र आए हैं। फिल्म की खास बातें: फिल्म की कहानी लीक से हटकर है, जिसकी तारीफ की जानी चाहिए। फिल्म में सस्पेंस है जिससे दर्शक बंधे रहते हैं और हैपी एंडिंग को प्राप्त होते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी अच्छा है। अगर आपको नसीरुद्दीन शाह और अरशद वारसी की जोड़ी पसंद है तो फिल्म जरूर देखें। दिव्या दत्ता की ऐक्टिंग को भी आप खूब इंजॉय करेंगे। ",0 "कहानी: इंदु का पति एक सरकारी मुलाज़िम है और इमर्जेंसी के जरिए अपने करियर को बूस्ट करना चाहता है, लेकिन इंदु नैतिकता और विचारधारा के बहाव में अपना अलग रास्ता चुन लेती है। रिव्यू: ऐसा लग रहा है कि मधुर भंडारकर बहुत सधकर उस वक्त की तरफ वापस कदम बढ़ा रहे हैं जब वह मनगढ़ंत कहानियों को असली जैसा दिखाने के बजाय असली घटनाओं को दिखाने पर जोर देते थे। इस बार वह किसी खास इंडस्ट्री की काली हकीकत उघाड़ने नहीं जा रहे हैं, बल्कि इंदु (कीर्ति कुल्हारी) की काल्पनिक कहानी के बहाने से उन्होंने 1975 से 1977 के बीच लागू हुई इमर्जेंसी के असली हालातों की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की है। इंदु, बहुत शर्मीली अनाथ लड़की है जो हकलाती है। उसे नवीन सरकार (तोता रॉय चौधरी) में एक साथी मिलता है, जो उसके हकलाने को दरकिनार कर उससे पूछता है कि वह ज़िन्दगी से क्या चाहती है। उसे इस सवाल का जवाब शादी के बाद मिलता है जब वह अपने पति को उन नेताओं के सुर में सुर मिलाते देखती है जो इमर्जेंसी से फायदा उठाने के लिए नियमों की कमर तोड़ रहे हैं। उसकी नैतिकता उसे विद्रोह करने पर मजबूर कर देती है और उसकी खूबसूरत जिन्दगी उससे छिन जाती है। फिल्म में 19 महीने की इमर्जेंसी को काफी जल्दबाज़ी में दिखाया गया है। पार्टी के नेताओं को हद से ज्यादा बुरा दिखा दिया गया है और विद्रोही हिम्मत इंडिया संगठन (इंदु जिसमें शामिल है) को हद से ज्यादा अच्छा दिखा दिया गया है। भंडारकर यहां राजनैतिक रूप से निष्पक्ष नहीं रह पाए हैं। फिल्म के डायलॉग संजय छेल ने लिखे हैं। कुछ बेहतरीन डायलॉग भागते सीन के बीच खो गए हैं और 'गरीबों को जीने का हक नहीं है' जैसी बेमानी बातों को बेवजह तवज्जो मिली है। आधी फिल्म गुजर जाने के बाद जब फिल्म पकड़ बनाती है, तो एक सरप्राइज कव्वाली आकर फिर फ्लो को तोड़ देती है। हालांकि, 'इंदु सरकार' उस वक्त शानदार लगती है जब वह लीड किरदार की भावनाओं और दुविधाओं के बीच संघर्ष पर फोकस करते हुए पॉलिटिक्स को पीछे छोड़ती दिखती है। इंदु और नवीन की कहानी उनके आसपास बुनी जा रहीं राजनीतिक साजिशों से कहीं ज्यादा रोचक है। कृति कुल्हारी ने अपने कंधों पर लीड रोल को खूबसूरती से निभाने की जिम्मेदारी को बखूबी संभाला है। अपने रोल के साथ उनकी ईमानदारी आपका इंटरेस्ट बनाए रखती है। तोता रॉय चौधरी ने भी इंदु के किरदार का भरपूर साथ दिया है। इंदु सरकार के साथ भंडारकर ने कई सारे चोचले छोड़े हैं और अपनी बात स्क्रीन पर बखूबी रखी है। लेकिन 'पेज 3' का जादू रीक्रिएट करने में नाकामयाब रहे हैं। ",1 " ईमानदार ऑफिसर अमय पटनायक (अजय देवगन) नेताओं की आंखों की किरकिरी है और उसके 49 ट्रांसफर हो चुके हैं। लखनऊ पहुंचते ही उसे सांसद ताऊजी (सौरभ शुक्ला) के बारे में जानकारी मिलती है कि इनके पास 420 करोड़ रुपये के आसपास की संपत्ति है। अभी भी यह बहुत बड़ी रकम है और 1981 में यह कितनी बड़ी होगी इसका आप अंदाजा ही लगा सकते हैं। ताऊजी के यहां छापा डालना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन यह जोखिम अमय उठा लेता है। किस तरह से वह छिपी हुई संपत्ति अपनी टीम के साथ ढूंढता है? किस तरह अमय के काम में ताऊजी और उसका लंबा-चौड़ा परिवार दखल डालता है? किस तरह के दबाव अमय को बर्दाश्त करने पड़ते हैं? यह सब रोचक तरीके से फिल्म में दिखाया गया है। रितेश शाह द्वारा लिखी गई कहानी (स्क्रीनप्ले और संवाद भी) ऐसे दो मजबूत किरदारों की कहानी है जिसमें एक अत्यंत ईमानदार है तो दूसरा घोर बेईमान। इनकम टैक्स का छापा दोनों को साथ ला खड़ा करता है और दोनों अपने गुणों व अवगुणों के साथ टकराते हैं। कहानी एक ऐसे छापे के बारे में है जो घंटों तक चलता रहता है। एक ही लोकेशन पर ज्यादातर समय कैमरा घूमता रहता है। फिल्म का हीरो भी ज्यादातर समय में एक ही ड्रेस में रहता है। ऐसे में दर्शकों को बहलाना आसान बात नहीं है, लेकिन स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि दर्शक फिल्म से बंधे रहते हैं। खासतौर पर ताऊजी और अमय के बीच जो बातचीत है वो बेहद रोचक है। यहां पर फिल्म के संवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फिल्म के पहले हाफ में ताऊ भारी पड़ता है जब अमय और उसकी टीम के हाथ कुछ भी नहीं लगता, लेकिन धीरे-धीरे यह बाजी पलटने लगती है। इस छापे के तनाव के बीच कुछ हल्के-फुल्के दृश्य भी हैं। ताऊ की मां वाले सीन हंसाते हैं। हालांकि जैसे-जैसे फिल्म समाप्ति की ओर जाती है मनोरंजन का ग्राफ नीचे आने लगता है। दृश्यों में दोहराव आने लगता है। ऐसा लगता है कि अब कुछ नया सूझ नहीं रहा है। फिल्म का क्लाइमैक्स खूब हंगामेदार है, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाता। निर्देशक के रूप में राजकुमार गुप्ता का काम ठीक है। एक ऐसी कहानी जिसमें दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। उन्होंने फिल्म को रियल रखने की कोशिश की है साथ कमर्शियल फॉर्मूलों का मोह भी नहीं छोड़ पाए हैं। जरूरी नहीं है कि फिल्म में हीरोइन रखी जाए। 'रेड' में इलियाना डीक्रूज नहीं भी होती तो भी फर्क नहीं पड़ता। अजय-इलियाना के बीच के दृश्य बोर करते हैं और बेवजह फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। अमय को इस छापे के पूर्व सारी जानकारी देने वाला सोर्स, जिसकी तलाश ताऊ को भी रहती है, के सस्पेंस पर से परदा हटता है तो मजा नहीं आता। अजय देवगन और सौरभ शुक्ला का अभिनय ‍फिल्म में रूचि बने रहने का बड़ा कारण है। एक ईमानदार ऑफिसर के रूप में अजय बिलकुल परफेक्ट लगे। उनका अभिनय एकदम सधा हुआ है और पहली फ्रेम से ही वे दर्शकों को अपने साथ कर लेते हैं। ताऊजी जैसे किरदार सौरभ शुक्ला जैसा अभिनेता ही निभा सकता है। उन्होंने भी अपना किरदार फिल्म की शुरुआत से बारीकी से पकड़ा और अंत तक नहीं छोड़ा। उनकी संवाद अदायगी तारीफ के काबिल है। इलियाना डीक्रूज का रोल महत्वहीन था, हालांकि उनका अभिनय ठीक-ठाक है। पुष्पा सिंह छोटे से किरदार में असर छोड़ती है। फिल्म का संगीत अच्छा है। सानू एक पल चैन, नित खैर मांगा सुनने लायक हैं। हालांकि गानों की फिल्म में जगह नहीं बनती थी। फिल्म में कई अगर-मगर हैं, लेकिन समग्र रूप से यह ऐसी फिल्म है जो देखी जा सकती है। बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज़ लि., पैनोरामा स्टूडियोज़ निर्माता : भूषण कुमार, कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक, कृष्ण कुमार निर्देशक : राजकुमार गुप्ता संगीत : अमित त्रिवेदी, तनिष्क बागची कलाकार : अजय देवगन, इलियाना डिक्रूज़, सौरभ शुक्ला, पुष्पा सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 8 मिनट ",1 "यकीनन जब बॉक्स ऑफिस पर टाइगर की जोरदार दहाड़ जारी हो और उसकी इसी दहाड़ के खौफ में कोई बॉलिवुड मूवी रिलीज़ तक नहीं हुई हो, ऐसे में बॉक्स आफिस पर हॉलिवुड से 'जुमानजी' का दस्तक देना ही बड़ी बात है। ऐसा भी नहीं 'जुमानजी' के फैन्स में फिल्म का क्रेज न हो। रिलीज़ से पहले फिल्म की अडवांस बुकिंग पर अच्छा-खासा रिस्पॉन्स मिला तो दर्शकों में फिल्म के क्रेज का अंदाज लगाकर मल्टिप्लेक्स संचालकों ने इस मूवी को औसतन चार से सात शोज में अपने यहां प्रदर्शित किया। वैसे अगर हम 'जुमानजी' की बात करें तो फैन्स को इसके लिए बेहद लंबा इंतजार करना पड़ा, करीब 22 साल पहले 'जुमानजी' रिलीज़ हुई तो फिल्म ने दुनिया भर में अच्छा बिज़नस किया। दरअसल, 'जुमानजी' दो बच्चों की कहानी है जो बोर्ड गेम खेलते वक्त एक ऐसा गेम शुरू कर बैठते हैं जिसका अंत उनकी समझ से परे है। 'जुमानजी' के इस अद्भुत गेम की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यह गेम हर अगली चाल के साथ और ज्यादा खतरे और नए-नए चैलेंज लेकर आता है। अगर हम 22 साल पहले रिलीज़ हुई फिल्म की बात करें तो उस फिल्म में रॉबिन विलियम्स ने लीड किरदार निभाया था। अब जब बरसों बाद 'जुमानजी' की जोरदार वापसी यानी फिल्म का सिक्वल रिलीज हुआ है तो इस बार सब कुछ बदला बदला सा है। इस बार जुमानजी का यह अनोखा गेम बोर्ड पर नहीं खेला जा रहा, बल्कि अब यह ऐसे खतरनाक विडियो गेम में तब्दील हो चुका है जो खेलने वाले को अंदर की ओर खींच लेता है, यानी इस नई गेम को खेलने वाले खुद जंगल पहुंच जाएंगे और वहीं पर यह खेल खेलेंगे। यह फिल्म पिछली फिल्म से अलग एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों की हर क्लास को अंत तक अपने साथ बांधने का दम रखती है। स्टोरी प्लॉट : एक हाईस्कूल में स्टडी कर रहे चार स्टूडेंट्स को अपने स्कूल के स्टोररूम को पूरी तरह से साफ करने की सजा दी जाती है। स्टोर की सफाई कर रहे इन चारों स्टूडेंटस को यहीं एक कोने में पड़ा बोर्ड गेम जुमानजी मिलता है, इसी गेम में करीब बाइस साल पहले रॉबिन लापता हुए थे, इन चारों को बोर्ड गेम खेलने में खास दिलचस्पी नहीं है, ऐसे हालात में जुमानजी भी विडियो गेम में तब्दील हो जाता है। विडियो गेम खेलते हुए यह चारों स्टूडेंट पूरी तरह से इस विडियो गेम में समा जाते हैं। स्टोरी में टिवस्ट उस वक्त आता है जब इन चारों का माइंड किसी दूसरे में प्रवेश कर जाता है। अब इन सभी के लिए सबसे बडा चैलेंज खुद को जिंदा रखने के साथ-साथ इस विडियो गेम से खुद को बाहर निकालना भी है। इस जर्नी को डायरेक्टर ने बेहद दमदार ढंग से पर्दे पर पेश किया है। जंगल से बाहर आने की लगातार कोशिश में ये चारों क्या-क्या करते हैं, यह देखना बेहद दिलचस्प है।थ्री डी तकनीक में बनी इस फिल्म की फटॉग्रफी गजब की है, जंगली जानवरों के सीन को बेहद दमदार ढंग से कुछ ऐसे अंदाज में फिल्माया गया है कि कुछ सीन में आपको लगेगा कि आप हॉल में नहीं बैठे बल्कि किसी घने जंगल के बीच खूंखार जानवरों के बीच हैं। डायरेक्टर जेक कासडन ने इस बरसों पुरानी कहानी को इस बार नए स्टाइल में पेश किया है तभी तो इस बार गेम कार्ड बोर्ड से तब्दील होकर विडियो गेम में बदल चुकी है। फिल्म की रफ्तार आपको कहानी और किरदारों के साथ बांधकर रखने में कामयाब है, इस वीकेंड में आप फैमिली के साथ जंगल की अडवेंचर जर्नी करने के मूड में हैं तो 'जुमानजी' आपको पसंद आ सकती है। क्यों देखें : शानदार फटॉग्रफी, अरसदार चौंका देने वाले थ्री डी इफेक्ट्स वाले सीन इस फिल्म की खासियत हैं। ऐसे में फिल्म को थ्री डी थिअटर में देखना ठीक रहेगा।",0 "PR फिल्म की पटकथा में ढेर सारी खामियाँ हैं। जो लोग पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म की गलतियाँ लिखकर बताते हैं, उनके लिए यह फिल्म बहुत काम आएगी। आ देखें जरा कौन ज्यादा ग‍लतियाँ बताता है। PR निर्माता : विकी राजानी निर्देशक : जहाँगीर सुरती संगीत : गौरव दासगुप्ता, प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : बिपाशा बसु, नील नितिन मुकेश, राहुल देव, सोफी चौधरी थ्रिलर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है। केवल वही थ्रिलर फिल्में सफल होती हैं, जो दर्शक को बाँधकर रखें, जिसमें आगे क्या होने वाला है, यह उत्सुकता बनी रहे। कहने को तो ‘आ देखें जरा’ भी थ्रिलर है, लेकिन इसमें एक भी ऐसा दृश्य नहीं है जो रोमांच को बढ़ाए। पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक दर्शक इस फिल्म से जुड़ नहीं पाता और हैरतभरी निगाहों से देखता रहता है कि क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? थोड़ी देर बाद यह रुचि भी समाप्त हो जाती है और लगता है कि फिल्म खत्म हो और वो सिनेमाघर से बाहर निकलें। कहानी का जो प्लॉट है, उसमें एक बेहतरीन थ्रिलर बनने की गुंजाइश थी। ‍फिल्म का नायक रे (नील नितिन मुकेश) के हाथ अपने नाना का एक कैमरा लगता है। उससे वह जिसका फोटो खींचता है उसके साथ भविष्य में क्या होने वाला है, तस्वीर के जरिये पता लग जाता है। आज खुले लॉटरी के नंबर का वह फोटो उतारता है तो फोटो में अगले दिन खुलने वाली लॉटरी के नंबर आ जाते हैं। घुड़दौड़, शेयर और लॉटरी के जरिये वह खूब दौलत कमाता है। इस कैमरे की मदद से वह डीजे सिमी (बिपाशा बसु) की जान बचाता है, जो उसकी गर्लफ्रेंड बन जाती है। यहाँ तक कहानी को नीरसता के साथ पेश किया गया है। एक दिन रे अपनी तस्वीर उतारता है और फोटो में आता है काला रंग। उसकी मौत निकट है, कैमरा बताता है। रे जानना चाहता है कि वह कैसे मरेगा या कौन उसे मारेगा। एक बार फिर संभावना जागती है कि आगे फिल्म देखने में मजा आएगा, लेकिन ये उम्मीदें पूरी ध्वस्त हो जाती हैं। फिल्म के लेखक और निर्देशकों को समझ में नहीं आया कि कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए। वे पूरी तरह कन्फ्यूज़्ड नजर आए। इसके बाद फिल्म में बेसिर-पैर की घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनका दर्शकों से कोई लेना-देना नहीं है। निर्देशक जहाँगीर सूरती बुरी तरह असफल रहे। न तो वे बिपाशा-नील की लव स्टोरी ठीक से पेश कर सके और न ही कलाकारों से अच्‍छा काम निकलवाने में सफल रहे। लेखकों ने उनका काम और मुश्किल कर दिया। ‘जॉनी गद्दार’ में नील का अभिनय अच्छा था, लेकिन इस फिल्म में वे निराश करते हैं। बिपाशा के सामने उनकी घबराहट देखी जा सकती है। साथ ही उनकी संवाद अदायगी बहुत खराब है। बिपाशा के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था। राहुल देव और अन्य कलाकारों ने खाना-पूर्ति की। फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर है। सिर्फ एक ही प्लस पाइंट है कि इसकी अ‍वधि लगभग दो घंटे की है। फिल्म की पटकथा में ढेर सारी खामियाँ हैं। जो लोग पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म की गलतियाँ लिखकर बताते हैं, उनके लिए यह फिल्म बहुत काम आएगी। आ देखें जरा कौन ज्यादा ग‍लतियाँ बताता है। ",0 "भारतीय क्रिकेट के चमकते सितारे महेन्द्र सिंह धोनी की उम्र इस समय 35 वर्ष है और अभी भी वे क्रिकेट खेल रहे हैं। उन पर फिल्म बनाना जल्दबाजी कही जा सकती है। हालांकि धोनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं और इस समय उनके जीवन पर फिल्म बनाना सफलता के अवसर बढ़ा देती है और यही बात निर्माता-निर्देशक नीरज पांडे ने सूंघ ली और 'एमएस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी' बनाकर पेश कर दी। इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह उस सूक्ष्मता के साथ पेश नहीं करती जो कि बायोपिक की अनिवार्य शर्त होती है। फिल्म में धोनी की जिंदगी में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं का समावेश है और संभव है कि धोनी तथा नीरज पांडे ने मिल कर तय किया होगा कि क्या दिखाना है और क्या छिपाना है। फिल्म के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें अनकही कहानी दिखाई गई है। क्रिकेट के मैदान में धोनी ने क्या कारनामे किए हैं इससे तमाम क्रिकेट प्रेमी परिचित हैं, लेकिन धोनी के 'धोनी' बनने के सफर की जानकारी कम ही जानते हैं। इसी को आधार बनाकर नीरज पांडे ने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है। फिल्म की शुरुआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 का फाइनल खेला जा रहा है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराजसिंह की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे। यह सीन दर्शकों में जोश भर देता है और फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 वर्ष पीछे, 7 जुलाई 1981 को चली जाती है जब रांची के एक अस्पताल में पान सिंह धोनी के यहां महेंद्र सिंह धोनी का जन्म होता है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है। यह सफर बहुत अच्छे तरीके से दिखाया गया है और कुछ नई बातें पता चलती हैं। जैसे एमएस की क्रिकेट में रूचि नहीं थी। स्कूल टीम के विकेटकीपर ने अपना नाम वापस ले लिया और गोलकीपर धोनी को विकेटकीपर बना दिया गया। जब वे मैदान में बाउंड्री लगाते थे तो दुकानदार, टीचर और विद्यार्थी मैदान पर धोनी का खेल देखने पहुंच जाते थे। पहला पोस्टर उन्होंने सचिन तेंडुलकर का खरीदा था। एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। हेलिकॉप्टर शॉट उन्होंने अपने संतोष नामक दोस्त से समोसे खिलाने के बदले सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहता था। एक महत्वपूर्ण मैच धोनी के हाथ से इसलिए निकल गया था क्योंकि उन्हें सूचना देर से मिली थी। कोलकाता से फ्लाइट पकड़ने के लिए वे रांची से पूरी रात सफर करते हैं, लेकिन फ्लाइट मिस हो जाती है। धोनी के परिवार की आर्थिक हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी। एक ऐसे परिवार का मुखिया यही सोचता है कि उसका बेटा पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी हासिल कर ले। पान सिंह धोनी भी यही चाहते थे और महेंद्र खेल में कुछ करना चाहता था। पिता खिलाफ नहीं थे, लेकिन एक आम भारतीय पिता का डर उनके मन में मौजूद था। अपने पिता की खातिर महेंद्र रेलवे में टीसी की नौकरी करता है। टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ता है और शाम को मैदान में पसीना बहाता है। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है। यहां तक फिल्म बेहद प्रभावी है और निर्देशक नीरज पांडे ने थोड़ा नमक-मिर्च लगा कर धोनी की कहानी को दिलचस्प बनाया है। धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है। धोनी की प्रेम कहानियों से भी नई बातें पता चलती हैं, लेकिन इन्हें जरूरत से ज्यादा फुटेज दिए गए हैं। दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? 90 टेस्ट मैचेस खेलने के बाद उन्होंने अचानक ऑस्ट्रेलियाई दौरे के बीच में टेस्ट क्रिकेट को क्यों अलविदा कह दिया? क्या उन पर किसी किस्म का दबाव था? इन प्रश्नों के जवाब नहीं मिलते हैं। हालांकि ये प्रश्न उन क्रिकेट प्रेमियों के दिमाग में उठते हैं जो क्रिकेट को घोल कर पी गए हैं। आम दर्शक को शायद इनमें ज्यादा रूचि न हो, लेकिन धोनी पर यदि फिल्म बन रही है तो इन बातों का फिल्म में समावेश किया जाना जरूरी लगता है। ये लेखक की कमजोरी को दर्शाता है। शायद नीरज और धोनी फिल्म को लेकर कोई विवाद नहीं चाहते हों। इसी तरह धोनी के भाई नरेंद्र सिंह धोनी के बारे में भी फिल्म में कुछ नहीं बताया गया है। एमएस धो नी- द अनटोल्ड स्टोरी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में नीरज पांडे का काम उम्दा है। उन्होंने धोनी के स्टार बनने से पहले की कहानी को मनोरंजक तरीके से दिखाया है। नीरज के कहानी कहने का तरीका ऐसा है कि उन लोगों को भी फिल्म अच्‍छी लगती है जिन्हें खेल में ज्यादा रूचि नहीं है। फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है और ज्यादातर समय वे दर्शकों फिल्म से जोड़ने में सफल रहे हैं। बीच-बीच में उन्होंने ऐसे कई दृश्य रखे हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है। रियल लोकेशन पर जाकर उन्होंने शूटिंग की है जिससे फिल्म की प्रामाणिकता बढ़ती है। उन्होंने फिल्म को बायोपिक बनाने के बजाय दर्शकों के मनोरंजन का ज्यादा ध्यान रखा है। आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत से काफी मेहनत करवाई है और सुशांत एक क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं। अभिनय के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली ही फ्रेम से धोनी दिखाई देने लगते हैं। यदि सुशांत की जगह कोई नामी सितारा होता तो उसे धोनी के रूप में देखना कठिन होता। सुशांत ने अपने चयन को सही ठहराया है और अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है। अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। महेंद्र सिंह धोनी ने हमें गर्व करने लायक कई अवसर दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। फिल्म में धोनी के खिलाड़ी जीवन की कुछ बातों का उल्लेख भले ही न हो, लेकिन आधुनिक क्रिकेट के इस 'हीरो' की फिल्म देखी जा सकती है। निर्माता : अरूण पांडे निर्देशक : नीरज पांडे संगीत : रोचक कोहली, अमाल मलिक कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, किआरा आडवाणी, दिशा पटानी, अनुपम खेर, कुमुद मिश्रा, भूमिका चावला, राजेश शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 3 घंटे 10 मिनट ",1 " सचिन तेंदुलकर को भारतीय क्रिकेट का भगवान माना जाता है। इस 'गॉड ऑफ क्रिकेट' ने अपने करोड़ों भक्तों को आनंद के ऐसे कई क्षण दिए हैं जिनकी जुगाली कर क्रिकेट प्रेमी जब-तब आनंद लेते रहते हैं। सचिन तेंदुलकर ने अपने करिश्माई खेल से क्रिकेट को भारत में बेहद लोकप्रिय बनाया और जिस तरह से इस खेल में पैसा बरस रहा है उसमें सचिन के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सचिन तेंदुलकर का अंतरराष्ट्रीय करियर 24 वर्षों का रहा। भारत की ओर से 664 इंटरनेशनल क्रिकेट मैचेस में प्रतिनिधित्व करते हुए 34357 रन बनाए। इतना लंबा करियर, बचपन से आज तक की बातें, मैदान के अंदर और बाहर की गतिविधियों को दो-ढाई घंटे की एक फिल्म में दर्शाना किसी भी फिल्मकार के लिए टेढ़ी खीर है। निर्देशक जेम्स अर्कस्किन ने इस चुनौती को स्वीकारा और वे सफल भी रहे। 'सचिन: ए बिलियन ड्रीम्स' में सचिन के बचपन से आज तक की प्रमुख घटनाओं को पिरोया गया है। इसमें 'एमएस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी' की तरह ड्रामा नहीं है जिसमें किसी और कलाकार ने धोनी का रोल अदा किया था। यह एक डॉक्यू-फीचर है जिसमें सचिन के बचपन को एक किरदार के जरिये दिखाया गया है, लेकिन बाकी की बातें सचिन सुनाते चलते हैं। सचिन- ए‍ बिलियन ड्रीम्स की शुरुआत सचिन के बचपन से होती है कि वे किस तरह से यह नटखट बच्चा क्रिकेट के प्रति गंभीर हो गया। किस तरह से सचिन के गुरु रमाकांत आचरेकर ने कितनी कड़ी मेहनत सचिन से कराई। इसके बाद, सचिन का पहला टेस्ट, उनकी नाक पर गेंद का लगना, अब्दुल कादिर को छक्के जमाना, 1996 का विश्व कप, सचिन के पिता का निधन और उसके बाद फिर से उनका विश्व कप क्रिकेट के लिए इंग्लैंड लौटना, सचिन का कप्तान बनना, 2003 का विश्व कप क्रिकेट का फाइनल, क्रिकेट पर फिक्सिंग का साया, 2001 में ऑस्ट्रेलिया से हुआ कोलकाता टेस्ट मैच, सचिन बनाम वॉर्न सीरिज़, चैपल का प्रशिक्षक बनना और फिर 2011 का विश्व कप जीतना जैसे कई यादगार लम्हें आंखों के सामने से गुजरते हैं जिन्हें देख सिनेमाहॉल में बैठे क्रिकेट प्रेमी के अंदर भावनाओं का ज्वार घुमड़ता है। कुछ सचिन की यादगार पारियों की भी झलक इनमें मिलती है। सचिन का इन घटनाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण रहा, यह भी जानने को मिलता है। मसलन फिक्सिंग पर उस समय चुप रहने का कारण बताते हुए सचिन ने कहा कि उनके पास बोलने को कुछ नहीं था और न ही सबूत थे। कुछ नई बातें भी पता चलती हैं। सचिन और अंजली की पहली मुलाकात कैसे हुई थी? जब सचिन तनाव में रहते हैं तो बप्पी लाहिरी द्वारा संगीतबद्ध कौन सा गाना सुनना पसंद करते हैं? कौन सा मैच सचिन अपने करियर का सबसे मुश्किल मैच मानते हैं? शेन वॉर्न ने जब सचिन को पहली बार आउट किया था तो उन्होंने क्या किया था? सचिन को अपने करियर के पहले मैच में नाक पर बॉल लगी थी तो जावेद मियांदाद ने क्या कहा था? विश्वकप क्रिकेट 2011 के फाइनल में सचिन जब आउट हुए थे तब वे क्या महसूस कर रहे थे? सचिन कप्तान क्यों नहीं बनना चाहते थे? विराट कोहली को कब महसूस हुआ कि जब वे बैटिंग के लिए मैदान में जा रहे थे तो ऐसा लगा मानो श्मशान में जा रहे हो? किस मैच के बाद कई खिलाड़ी बाथरूम में जाकर रोए थे? इन बातों को विराट कोहली, सहवाग, पोटिंग, वॉर्न, सहवाग, युवराज, लारा, गावस्कर जैसे खिलाड़ियों ने भी बताया है। ड्रेसिंग रूम के फुटेज सहित कई ऐसे फुटेज भी हैं जो संभवत: पहली बार सामने आए हैं। जैसे विश्व कप क्रिकेट 2011 का सेमीफाइनल जीतने के बाद कोच गैरी कर्स्टन ने ड्रेसिंग रूम में क्या कहा था? सचिन के निजी संग्रह के भी फुटेज हैं जिनमें उनके पारिवारिक जीवन की झलक मिलती है और ये फिल्म की विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं। सचिन: ए बिलियन ड्रीम्स में जिस बात की कमी लगती है वो उनके साथ खेले खिलाड़ियों की राय की। कुछ खिलाड़ी फिल्म में दिखाए गए हैं, लेकिन उनकी बात अत्यंत ही संक्षिप्त है। सौरव गांगुली, अनिल कुंबले, ब्रायन लारा, राहुल द्रविड़, सुनील गावस्कर, वसीम अकरम, जैसे खिलाड़ियों के मुंह से सचिन के बारे में बातें सुनना सचिन प्रेमियों को अच्छा लगता, भले ही फिल्म लंबी हो जाती। उनकी कुछ यादगार पारियों का उल्लेख और उनकी बेटिंग तकनीक पर भी बातें की जा सकती थी। अज़हर से सचिन के मनमुटाव वाला हिस्से सहित कुछ कड़वी यादों को हल्के से छुआ गया है। फिल्म में एक फुटेज कमाल का है जिसमें युवा सचिन से प्रशंसक आटोग्राफ ले रहे हैं और पास में बैठे सुपरस्टार अजहरुद्दीन को कोई पूछ नहीं रहा है। अज़हर की बैचेनी उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। सचिन के खास दोस्त रहे विनोद कांबली गायब हैं। जेम्स अर्कस्किन ने अपना प्रस्तुतिकरण सीधा और सरल रखा है। उन्होंने सचिन को एक हीरो की तरह पेश किया है और यही बात उनके प्रशंसक देखना चाहते हैं। सचिन, हर्ष भोगले और एक-दो अन्य लोगों की वाइस ओवर के जरिये उन्होंने बात को आगे बढ़ाया है। सचिन कुछ बार कैमरे के सामने असहज लगते हैं, लेकिन इस बात को छोड़ा जा सकता है क्योंकि वे 'अभिनेता' नहीं हैं। सचिन के अंतिम टेस्ट मैच में दिए बिदाई भाषण से फिल्म को खत्म करना मास्टर स्ट्रोक है। सचिन: ए बिलियन ड्रीम्स उन लोगों को पसंद आएगी जिनके लिए क्रिकेट 'धर्म' है। सचिन के फैंस को तो यह देखना ही चाहिए। सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 33 सेकंड ",1 "'लव सोनिया' के एक सीन में सोशल वर्कर मनीष (राजकुमार राव) सोनिया (मृणाल ठाकुर) को बचाने के लिए जान की बाजी लगा देता है और उसे बचाने वेश्यालय पहुंच भी जाता है, मगर सोनिया जिस्मफरोशी की उस दलदल से निकलने को राजी नहीं होती। कारण है, उसकी छोटी बहन प्रीति (रिया सिसोदिया) जिसे बचाने के लिए वह इस काली दुनिया में आई है। निर्देशक तबरेज नूरानी ने दो बहनों के बहाने ह्यूमन ट्रेफिकिंग की बदसूरत दुनिया के उस क्रूर और निर्मम सच को उजागर किया है, जिसे देखकर आप विचलित हो जाते हैं।कहानी कर्ज के बोझ तले दबे किसान के घर से शुरू होती है। किसान शिवा (आदिल हुसैन) अपने कर्ज का निपटारा करने के लिए दादा ठाकुर (अनुपम खेर) के साथ ह्यूमन ट्रैफिकिंग के तहत अपनी बेटी प्रीति का सौदा कर देता है। सोनिया को जब बहन प्रीति के बारे पता चलता है, तो वह उसे खोजने लिए देह व्यापार की घिनौनी दुनिया में प्रवेश कर जाती है। यहां बहन को बचाने के बजाय वह भी उसी जाल में फंस जाती है। वेश्यालय का मालिक फैजल (मनोज बाजपेयी) लड़कियों से पेशा कराने के तमाम डरावने हथकंडे अपनाता है। इस वेश्यालय में सोनिया को माधुरी (रिचा चड्ढा) और रश्मि (फ्रीडा पिंटो) मिलती हैं, जो किसी न किसी बहाने इस दलदल में धकेल दी गई थीं। कहानी में मोड़ तब आता है, जब सोनिया अपनी बहन को ढूंढ लेती है। क्या सोनिया खुद को और बहन को वेश्यावृत्ति की इस खौफनाक दुनिया से निकाल पाती है? इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी। बॉलिवुड में इससे पहले भी देह व्यापार पर 'मंडी', 'बाजार', 'मौसम', 'लक्ष्मी', 'बेगम जान' जैसी फिल्में बन चुकी हैं, मगर निर्देशक तबरेज नूरानी का निर्देशन दर्शाता है कि उन्होंने देह व्यापार की काली दुनिया का गहरा अध्ययन किया है। फिल्म की कहानी सच्ची घटनाओं पर आधारित बताई जा रही है। तबरेज नूरानी ने इंसानियत के डार्क साइड्स को भी बखूबी दर्शाया है कि कैसे अपने स्वार्थ और मतलब के लिए लोग संवेदनहीन हो जाते हैं। 'लव सोनिया' में तितली को जार में बंद करके रखनेवाला एक सीन है, जो पूरी फिल्म के नेचर को बयान करता है, फिल्म में विदेशों की ह्यूमन ट्रैफिकिंग को भी विस्तार दिया जाना चाहिए था। फिल्म की कास्टिंग और किरदार दिलचस्प हैं। अभिनय के मामले में फिल्म बहुत ही समृद्ध है। नवोदित मृणाल ठाकुर ने पहली फिल्म होने के बावजूद इतना जबरदस्त अभिनय किया है कि आपको असहनीय कचोट होने लगती है। रिचा चड्ढा का किरदार जितना निर्मम है, उतना ही मानवीय भी। फैजल के रूप में मनोज बाजपेयी ने दमदार अभिनय किया है। फ्रीडा पिंटो अपनी भूमिका में असर छोड़ जाती हैं। सई ताम्हणकर, राजकुमार राव, अनुपम खेर, आदिल हुसैन ने अपने-अपने किरदारों के हिसाब से बहुत बढ़िया अभिनय किया है। हॉलिवुड ऐक्ट्रेस डेमी मूर की उपस्थिति सुखद लगती है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर काफी दिलचस्प है जो कि कहानी के अनुरूप है। क्यों देखें- रियलिस्टिक डार्क फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",0 " फिल्म नूर के साथ समस्या यह है कि नूर के किरदार पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया गया है। उसे मजेदार और दिलचस्प बनाने की खूब कोशिश की गई है, लेकिन यह उतना मजेदार बन नहीं पाया है। अपनी जिंदगी से नूर परेशान है, यह बात कभी भी झलकती नहीं है। इंटरवल तक यही बात दर्शकों के गले उतारने की कोशिश की गई है। ढेर सारे फुटेज खर्च किए गए हैं, लेकिन बात नहीं बन पाई। नूर को पत्रकार दिखाया गया है, लेकिन इस बात में नकलीपन बहुत हावी है। कहानी में दो ट्विस्ट आते हैं। नूर के हाथ एक दिन ऐसा सूत्र लगता है जिसके बूते पर वह शरीर के अंग बेचने वालों का भंडाफोड़ कर सकती है, लेकिन उसका बॉस इस मसले को बहुत ही हल्के से क्यों लेता है समझ से परे है। दूसरा ट्विस्ट ये कि नूर कुछ करे उसके पहले उसका साथी धोखा देते हुए इस खबर को ब्रेक कर देता है। यहां फिल्म थोड़ा चौंकाती है, लेकिन जल्दी ही फिल्म फिर से बेपटरी हो जाती है। हताश नूर को उसका दोस्त लंदन ले जाता है और यह पूरा किस्सा कहानी को किसी भी तरह से कोई मजबूती नहीं देता। सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। नूर फिर मुंबई लौटती है और इस मामले में अपनी ओर से खोजबीन करती है। बड़ी आसानी से सब कुछ हो जाता है। ऐसा लगता है कि बिना कुछ किए धरे नूर ने वह हासिल कर लिया जिसके लिए वह पूरी फिल्म में झटपटा रही थी। जो लोग गवाही देने से घबरा रहे थे, वे अचानक सामने आ जाते हैं। यह मामला अत्यंत सतही है। निर्देशक ने इसमें गंभीरता नहीं दिखाई है लिहाजा दर्शक भी इस बात से जुड़ नहीं पाते हैं। नूर जिस डॉक्टर के चेहरे से मुखौटा उतारती है वह कभी इतना शक्तिशाली लगा ही नहीं कि महसूस हो कि नूर ने बहुत बड़ा काम किया है। उस डॉक्टर की चर्चा बस संवादों तक ही सीमित है, उसे फिल्म में महज एक-दो सीन में दिखाया गया है। यह स्क्रिप्ट राइटर्स की बड़ी भूल है। निर्देशक सुनील सिप्पी का सारा ध्यान माहौल को बेहद कूल रखने में ही गया है। उन्होंने फिल्म को अर्बन लुक दिया है और फिल्म के मूड को हल्का-फुल्का रखा है, लेकिन कई जगह स्क्रिप्ट की डिमांड थी कि फिल्म में तनाव पैदा हो। स्क्रिप्ट की कमियों पर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया है। कई दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं। वाइस ओवर इतना ज्यादा है कि झल्लाहट होती है। यह निर्देशक की कमी को दर्शाता है। फिल्म दो घंटे से भी कम समय की है और वे इतने में भी वे दर्शकों को बांध नहीं पाए। तकनीकी रूप से फिल्म अच्‍छी है। आर्ट डायरेक्शन उम्दा है। सिनेमाटोग्राफी शानदार है। कीको नाकाहारा ने मुंबई को बहुत ही उम्दा तरीके से शूट किया है। मुंबई की इस तरह की लोकेशन शायद ही पहले हिंदी फिल्म में देखने को मिली हो। बैकग्राउंड म्युजिक भी अच्‍छा है। अभिनय के मामले में फिल्म का पक्ष मजबूत है। सोनाक्षी सिन्हा की मेहनत उनके अभिनय में दिखती है, लेकिन स्क्रिप्ट की कमी के चलते उनकी मेहनत बेकार होती नजर आती है। पूरब कोहली छोटे से रोल में असर छोड़ते हैं। एमके रैना, कनन गिल, शिबानी दांडेकर और स्मिता तांबे का अभिनय भी प्रशंसनीय है। कुल मिलाकर 'नूर' बेनूर है। बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, विक्रम मल्होत्रा निर्देशक : सुनील सिप्पी संगीत : अमाल मलिक, आरडी बर्मन, बादशाह कलाकार : सोनाक्षी सिन्हा, कनन गिल, शिबानी दांडेकर, पूरब कोहली, मनीष चौधरी, एमके रैना, स्मिता तांबे रिलीज डेट : 21 अप्रैल 2017 सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 56 मिनट 24 सेकंड्स ",0 " साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स सही मायनों में सीक्वल है। ‘साहेब बीवी और गैंगस्टर’ की कहानी जहां से खत्म हुई थी, वही से यह शुरू होती है और उन्हीं किरदारों के साथ आगे बढ़ती है। निर्देशक तिग्मांशु धुलिया एक बार फिर उन्हीं तथाकथित राजाओं की दुनिया में ले जाते हैं जो शक्तिहीन हो चुके हैं, लेकिन उनकी फितरत नहीं गई है। अभी भी वे अपने आपको ‍विशिष्ट समझते हैं। जर्जर हो चुकी हवेलियों को अपनी शान समझते हैं, लेकिन ये बात नहीं समझ पाते कि कई बार वे इसी के चलते हंसी के पा‍त्र बन जाते हैं। अपने दबदबे को बरकरार रखने के लिए इनमें से कइयों ने राजनीति की ओर रूख किया है और चुनाव भी जीते हैं, लेकिन इसका मकसद जनता की सेवा करना कभी नहीं रहा। फिल्म के पिछले भाग में हमने देखा था कि माधवी (माही गिल) अपने साहेब (जिमी शेरगिल) की जगह लेती है और अब एमएलए बन चुकी है। उसके लिए पॉवर हासिल करना महज अय्याशी है और ऑफिस जाने पर उसे छोटी-छोटी बातों का मतलब नहीं समझ आता है। साहेब अब व्हील चेयर के जरिये घूमते हैं, लेकिन दूसरी शादी करना चाहते हैं। उनका कहना है कि वे दो बीवी अफोर्ड कर सकते हैं और राजा चाहे जितनी शादियां कर सकता है। उनकी एक ही शर्त रहती है कि वे शादी तभी करेंगे जब व्हील चेयर से खुद खड़े हो जाएंगे। प्रिंसेस रंजना (सोहा अली खान) पर उनका दिल आ जाता है। रंजना प्रेम करती है इंद्रजीत सिंह उर्फ राजा भैया (इरफान खान) से। इंद्रजीत भी शाही खानदान से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन अब हालात ये हैं कि उनके भाई को मास्टरी करना पड़ रही है। साहेब के पुरखों ने इंद्रजीत के पुरखों का खात्मा कर दिया था और उनसे बदला लेने के शोले इंद्रजीत के दिल में भड़क रहे हैं। रंजना के पिता (राज बब्बर) इंद्रजीत को इस काम में सपोर्ट करते हैं। इसके बाद शुरू होता है स्वार्थ और षड्यंत्र का खूनी खेल, जिसमें वर्तमान नेताओं और राजनीति पर भी व्यंग्य किया गया है। लेपटॉप का उपयोग नेताजी पोर्न मूवी देखने में करते हैं और ये सीन कमाल का है। फिल्म के ओपनिंग क्रेडिट्स से ही तिग्मांशु माहौल सेट कर देते हैं। उन्हें किरदारों को पेश करने में महारत हासिल है और यही बात ‘साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स’ में भी नजर आती है। लालच, ईर्ष्या, प्रेम, वासना, राजनीति, छल, अपराध को उन्होंने पल-पल बदलते किरदारों के जरिये पेश किया है। फिल्म का ड्रामा बहुत मजबूत है और सबसे बड़ी यह खासियत है कि कैरक्टर्स के मन में क्या चल रहा है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। सबके अपने स्वार्थ हैं और उसके हिसाब से उनकी सोच बदलती रहती है। इस फिल्म के पिछले भाग में भी यही सब था, लिहाजा दूसरे भाग में वो नयापन नजर नहीं आता, लेकिन फिल्म बांध कर रखती है। स्क्रिप्ट में कमियां भी हैं, खासतौर पर इंटरवल के बाद। कुछ सीन कन्फ्यूज करते हैं और फिल्म को लंबा भी खींचा गया है। कुछ ट्रेक अधूरे से लगते हैं और टाइट एडिटिंग की जरूरत महसूस होती है। आइटम सांग की कोई जगह नहीं बनती है और पता नहीं इसे क्यों रखा गया है। लेकिन ये कमियां फिल्म देखने में बाधा नहीं बनती हैं। फिल्म का अभिनय पक्ष बेहद मजबूत है। साहेब के रूप में जिमी शेरगिल का रौब देखने लायक है और पूरी फिल्म में वे सभी पर भारी पड़ते हैं। अपने पति का प्यार खो चुकी, शराबी, बिगड़ैल और कामुक महिला भूमिका शानदार तरीके से निभाकर माही गिल ने एक बार फिर साबित किया कि वे बेहतरीन अभिनेत्री हैं। सोहा अली एक छुईमुई प्रिंसेस के रूप में अच्छी लगती हैं। इरफान खान के संवाद बोलने की एक विशिष्ट शैली है और इस फिल्म में भी वे कमाल करते हैं। नेता बने राजीव गुप्ता भी अपनी छाप छोड़ते हैं। फिल्म में ‘हम जी रहे हैं, मकबरा नहीं बने हैं’, ‘मर्द इसलिए ज्यादा गालियां बकते हैं क्योंकि वे रोते कम हैं’ जैसे कई उम्दा संवाद सुनने को मिलते है। योगेश जानी की सिनेमाटोग्राफी फिल्म को एक अलग ही लुक देती है। साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स छल-कपट के प्रपंच और दमदार एक्टिंग के कारण देखी जा सकती है। बैनर : ब्रांडस्मिथ मोशन पिक्चर्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : राहुल मित्रा, तिग्मांशु धुलिया निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया संगीत : संदीप चौटा कलाकार : इरफान खान, ‍जिमी शेरगिल, माही गिल, सोहा अली खान, राज बब्बर, मुग्धा गोडसे ( आइटम सांग) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 26 मिनट बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 " यमला पगला दीवाना 2 की कहानी सनी देओल की पत्नी ने लिखी है। स्क्रीन पर दर्जनों गुंडों को पल भर में चित करने वाले सनी इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि पत्नी को यह कह कर मना कर सके कि इतनी बुरी कहानी पर वे फिल्म नहीं बनाएंगे। यदि अच्छा निर्देशक और स्क्रीनप्ले हो तो बुरी कहानी पर भी एक ठीक-ठाक फिल्म बन सकती है, लेकिन जितनी बुरी कहानी है, उससे बुरा स्क्रीनप्ले और निर्देशन है। 155 मिनट की यह फिल्म बुरी तरह पकाती है। एक भी ऐसा सीन नहीं है जो अच्छा लगे। बेसिर-पैर फिल्म कैसी होती है, इसका उदाहरण यमला पगला दीवाना का यह सीक्वल है। यमला पगला दीवाना 2 के प्रचार में डबल मस्ती, डबल धमाल जैसी बातें कही गई हैं, लेकिन यह फिल्म पिछली फिल्म के मुकाबले आधी भी नहीं है। समीर कर्णिक द्वारा निर्देशित इस फिल्म का पहला भाग बहुत अच्छा नहीं था, लेकिन उसमें कुछ ऐसे पंच थे, सीन थे, जिन्होंने दर्शकों को खुश किया था, लेकिन सीक्वल में उस स्तर को छू पाना ही मुमकिन नहीं हो पाया है। पूरी फिल्म में ऐसे बेहूदा प्रसंग घटित होते रहते हैं‍ कि फिल्म से जुड़े लोगों की समझ पर शक पैदा होने लगता है। वर्षों से देओल्स फिल्म इंडस्ट्री में हैं। कई उम्दा फिल्में उन्होंने की है। निर्देशक संगीत सिवन भी कुछ अच्छी फिल्म बना चुके हैं। ऐसे लोग इस तरह की फिल्म की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं? किस दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर उन्होंने यह फिल्म बनाई है? माइंडलेस कॉमेडी के नाम ‘कुछ तो भी’ परोसा नहीं जा सकता है। सीक्वल की कहानी का पिछली कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। कैरेक्टर्स जरूर वहीं हैं। गजोधर (बॉबी देओल) और धरम (धर्मेन्द्र) ठगी का काम जारी रखे हुए हैं। धरम का एक और बेटा परमवीर (सनी देओल) विदेश में ईमानदारी के रास्ते पर चलता है। सुमन एक अरबपति खन्ना (अन्नू कपूर) की बेटी है। धरम चाहता है कि गजोधर उसे अपने प्रेम जाल में फंसा ले। दोनों कोशिश शुरू करते हैं, लेकिन यह जानकर दंग रह जाते हैं कि खन्ना का परमवीर मैनेजर है। वह इनकी चाल नाकाम करने की कोशिश करता है। धरम और गजोधर की ठगी का एक सीन दिखाया गया है। धरम साधु के वेष में है। हजारों लोगों को प्रवचन दे रहा है। गजोधर उसका चेला बन कर आता है और अपनी मुश्किलें बयां करता है। धरम उसे बोलता है कि सभी चीजें फेंक दो। वह सोने की चेन, मोबाइल, टेबलेट, घड़ी फेंक देता है। उसे देख उपस्थित सभी लोग यहीं चीजें फेंक देते हैं और धरम के चेले उन्हें बटोर लेते हैं। इस सीन में न लॉजिक नजर आता है, न कॉमेडी और न ही एंटरटेनमेंट। इस तरह के कई ‍घटिया दृश्यों की भरमार है। एक बेहूदा सीन में बॉबी देओल अपनी फिल्मों के नामों को जोड़कर संवाद बोलते हैं। तो दूसरे सीन में सनी देओल शराब पीकर सौ से ज्यादा गुंडों की धुनाई करते हैं, वो भी कॉमेडी के पुट के साथ। दर्शक सनी को गंभीरता से लड़ते हुए देखना चाहते हैं न की कॉमेडी करते हुए। अनुपम खेर ने जोगिंदर आर्मस्ट्रांग नामक रोल निभाया है और उनका ट्रेक बहुत ही घटिया है। जब-जब वे परदे पर आते हैं खीज पैदा होती है। उनका रोल केवल इसलिए है क्योंकि क्लाइमेक्स में एक विलेन का होना जरूरी है। निर्देशक के रूप मे भले ही संगीत सिवन का नाम है, लेकिन ऐसा लगता है कि इस फिल्म को किसी ने निर्देशित ही नहीं किया। उन्होंने सीन दर सीन जोड़ कर फिल्म पूरी की है। फिल्म में कई जगह कन्टीन्यूटी भी दिखाई नहीं देती है। उन्होंने दृश्यों को बहुत लंबा रखा है, इस कारण खूब बोरियत होती है। सलमान खान, शाहरुख खान की मिमिक्री दिखाई, शोले का एक गाना दोहराया, सूमो पहलवान दिखाए, दर्जनों गुंडों को पिटते हुए, चीखते हुए सनी देओल दिखाए, विदेशी लोकेशन का नजारा दिखाया, लेकिन बात नहीं बन पाई। कॉमेडी के नाम पर यह फिल्म ट्रेजेडी बन गई है। धर्मेन्द्र की एक कलाकार के रूप में हम बेहद इज्जत करते हैं, लेकिन ऐसी फिल्में उनकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाती है। इसके बजाय उन्हें चुनिंदा रोल ही करना चाहिए। सनी देओल अपनी उन अदाओं को दोहरा रहे हैं जिनके कारण उनको लोकप्रियता मिली, लेकिन अब इन्हें देखकर दर्शक थक चुके हैं। बॉबी देओल ने अभिनय के नाम पर केवल आड़े-तिरछे मुंह बनाए हैं। नेहा शर्मा और क्रिस्टिना अखीवा खूबसूरत लगीं और उनका अभिनय ठीक कहा जा सकता है। अनुपम खेर ने इतनी बुरी एक्टिंग क्यों की, समझ से परे है। जॉनी लीवर ने भी जमकर बोर किया है। साजिद खान खुश हो सकते हैं कि अब उनकी फिल्म ‘हिम्मतवाला’ को वर्ष की सबसे बुरी फिल्म नहीं कहा जाएगा क्योंकि यमला पगला दीवाना 2 ने उस फिल्म को मीलों पीछे छोड़ दिया है। बैनर : सनी साउंड्स प्रा.लि., वायपीडी फिल्म्स लि. यूके निर्देशक : संगीत सिवन संगीत : शरीब साबरी, तोशी साबरी कलाकार : धर्मेन्द्र, सनी देओल, बॉबी देओल, नेहा शर्मा, क्रिस्टिना अखीवा, अनुपम खेर, जॉनी लीवर, अन्नू कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 35 मिनट ",0 "ChanderMohan.Sharma@timesgroup.com करीब 25 साल बाद अजय मेहरा एक बार फिर सिल्वर स्क्रीन पर अपने पुराने अंदाज में ही लौटे हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार अजय को राज कुमार संतोषी जैसे मंझे हुए डायरेक्टर का साथ नहीं मिला। न ही वह पावरफुल स्क्रिप्ट के साथ लौटे हैं। यही वजह है कि दो घंटे की इस फिल्म के साथ भी दर्शक पूरी तरह से कहीं बंध नहीं पाता। इस बार किरदारों को भी उस कदर पावरफुल नहीं बनाया गया। बेशक, फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी तर्क दे रही है कि उस वक्त जो बच्चे थे, अब जवान हो चुके हैं। ऐसे में उन्हें घायल का यह बदला हुआ अंदाज पसंद आ सकता है। पच्चीस साल पहले आई 'घायल' बॉक्स आफिस पर ब्लॉकबस्टर साबित हुई थी। अब सीक्वल में पुरानी फिल्म के मुकाबले यह कमजोर नजर आती है। सनी देओल ने ही फिल्म की कहानी लिखी और ऐक्टिंग के साथ फिल्म का निर्देशन भी किया। सनी यहीं कमजोर रह गए। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : मुबई के नामी बिजनसमैन राज बंसल (नरेंद्र झा) का दबदबा इतना है कि होम मिनिस्टर (मनोज जोशी ) से लेकर पुलिस कमिश्नर (जाकिर हुसैन) तक उसके दरबार में हर वक्त हाजिरी लगाते नजर आते हैं। बंसल साहब का बड़ा बेटा कबीर कुछ ज्यादा ही सिरफिरा है। बेहद गुस्सैल और हर बात में रिवॉल्वर निकाल लेने वाले कबीर के हाथों एक्स डीसीपी और आरटीआई एक्टिविस्ट डिसूजा (ओम पुरी) का मर्डर हो जाता है। इसी शहर से अजय मेहरा (सनी देओल) सत्यकाम नाम का अखबार निकालता है। हमेशा सच का साथ देने वाले अजय मेहरा को कॉलेज के चार दोस्त अपना आदर्श मानते है। रिहा (सोहा अली खान) अजय मेहरा की डॉक्टर है जो उसे उसकी पिछली यादों से दूर ले जाने की कोशिश में है। कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब अजय मेहरा को आदर्श मानने वाले इन चारों कॉलेज फ्रेंड्स के हाथ एक ऐसा विडियो टेप आता है, जिसमें रईस राज बंसल का बेटा होम मिनिस्टर की मौजूदगी में डिसूजा को गोलियों से भून देता है। राज बसंल नहीं चाहता है कि टेप अजय मेहरा पहुंचे। ऐक्टिंग : लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आई सोहा अली खान ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। सनी देओल अपने किरदार में फिट नजर आए। हैदर में नजर आए नरेंद्र झा ने अच्छा काम किया है। पहली बार कैमरा फेस कर रहे शिवम पाटिल, ऋषभ अरोड़ा ने अच्छा रोल निभाया है। टिस्का चोपडा, मनोज जोशी बस ठीकठाक रहे। ओम पुरी ने एक बार फिर वही किया, जो पहले से करते नजर आए हैं। डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर सनी देओल ने बरसों से हिंदी फिल्मों में नजर आ रही अच्छाई और बुराई की जंग को दिखाने की कोशिश की है। अगर सनी चाहते तो इस फिल्म को नए नाम से भी बना सकते हैं। ऐसा लगता है कि सनी अपनी पिछली सुपर हिट फिल्म को कैश करना चाहते थे। तभी उन्होंने पिछली घायल के हर सीन को दोहराया है। पुरानी फिल्म के फ्लैशबैक इस फिल्म की धीमी रफ्तार को और धीरे ही करते है। इस फिल्म में ऐसा कोई डायलॉग नहीं है जो हॉल से बाहर आने के बाद याद रह पाए। सनी ने यंगस्टर्स को खूब ज्ञान देने की कोशिश तो की है लेकिन उनका अंदाज नब्बे के दशक का है। फिल्म में ऐक्शन का ओवरडोज कुछ ज्यादा ही है। संगीत : फिल्म में कई गाने हैं, लेकिन हॉल से बाहर आने के बाद आपको शायद ही कोई गाना याद रह पाए। क्यों देखें : अगर आप सनी देओल का पक्के फैन हैं, ऐक्शन और स्टंट देखने थिएटर जाते हैं तो फिल्म देखी जा सकती है। इसकी तुलना पुरानी फिल्म से करेंगे तो अपसेट होंगे। ",0 "स्त्री एक हॉरर-कॉमेडी फिल्म है जिसमें कॉमेडी ज्यादा है। यहां तक कि डरावने दृश्यों में भी आप हंसते रहते हैं। चंदेरी नामक एक कस्बे की कहानी है जहां पर हर वर्ष पूजा के खास चार दिनों में भय का माहौल छा जाता है। कहा जाता है कि एक स्त्री आती है और रात में पुरुष को ले जाती है। यह चुड़ैल पढ़ी-लिखी है। जिस घर की दीवार पर लिखा होता है 'ओ स्त्री कल आना', वहां यह नहीं आती। बेवकूफ भी है जो 'कल' वाली बात उसे समझ में नहीं आती है। चंदेरी का मनीष मल्होत्रा यानी कि विक्की (राजकुमार राव) लेडिस टेलर है जो मात्र 31 मिनट में लहंगा सिल देता है। उसके दो खास यार हैं, बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जाना (अभिषेक बैनर्जी)। विक्की की मुलाकात एक लड़की (श्रद्धा कपूर) से होती है जो उसे पसंद आती है। इससे बिट्टू को जलन होने लगती है। यह लड़की पूजा वाले दिनों में ही आती है, नाम नहीं बताती, उसके पास मोबाइल भी नहीं है। बिट्टू को शक है कि यही वो स्त्री है जिसने चंदेरी के पुरुषों को परेशान कर रखा है। बिट्टू, विक्की, जाना और रूद्र (पंकज त्रिपाठी) इस रहस्य से परदा उठाते हैं। फिल्म की कहानी बहुत दमदार नहीं है। अच्छी शुरुआत के बाद लड़खड़ा जाती है। फिल्म का अंत कई सवाल छोड़ जाता है और दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं करता। जिस खूबसूरती से बात को शुरू किया गया था वैसा समेट नहीं पाए। आखिर 'स्त्री' का इरादा क्या था, पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया। उसके अतीत के बारे में एक कहानी बताई गई है कि वह स्त्री एक खूबसूरत वेश्या थी जिससे एक पुरुष प्यार कर बैठता है। यह चंदेरी के लोगों पसंद नहीं आती और वे दोनों को मार डालते हैं। यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि प्रेम को समाज बर्दाश्त नहीं कर पाता। वेश्या से संबंधों पर समाज को आपत्ति नहीं है, लेकिन उससे आप प्यार नहीं कर सकते। फिल्म में कुछ और बातें भी अस्पष्ट हैं जैसे रूद्र एक मृत महिला से फोन पर बात करता रहता है। इसका रहस्य क्या था यह फिल्म में बताना ही भूल गए। लेकिन ये कमियां भारी नहीं पड़ती हैं क्योंकि फिल्म मनोरंजन से भरपूर है। निर्देशक अमर कौशिक को हंसाने वाले वन लाइनर, शानदार लोकेशन और बेहतरीन एक्टर्स का साथ मिला है और ये खूबियां फिल्म की कमजोरियों पर भारी पड़ती है। दर्शक हंसते-हंसते इन बातों पर ध्यान नहीं देते हैं। एक कस्बे की बारीकी को निर्देशक ने बहुत खूबी से पकड़ा है। ऐसा लगता है जैसे हम खुद उस छोटे से कस्बे में पहुंच गए हों। पुराने घर, संकरी गलियां, मंदिर, ओटले बहुत अच्छी तरह से फिल्माए गए हैं। इस कस्बे के रहने वाले लोगों के मिजाज को भी अच्छी तरह से दर्शाया गया है। विक्की, बिट्टू और जाना पर फिल्माए गए दृश्य खूब हंसाते हैं। एक कस्बे में रहने वाले लड़के से जब लड़की बात करती है तो उस लड़के की हालत और उसके दोस्त को होने वाली तकलीफ वाले सीन बेहतरीन बन पड़े हैं। पिता-पुत्र के बीच वाला एक सीक्वेंस भी खूब हंसाता है जिसमें पिता अपने जवान होते बेटे को जवानी काबू में रखने के उपाय बताता है। निर्देशक और लेखक ने आज की राजनीतिक परिस्थिति को भी बड़ी सफाई के साथ फिल्म से जोड़ा है। एक किरदार (विजय राज) को अभी भी लगता है कि इमरजेंसी लगी हुई है। लोग उसे कहते हैं कि अब हालत सुधर चुकी है, लेकिन वह मानने को तैयार नहीं है। एक दोस्त दूसरे को बोलता है कि कुछ भी बनो पर भक्त ना बनो। इन दृश्यों के साथ कॉमेडी को खूबसूरती के साथ जोड़ा गया है। निर्देशक के रूप में अमर कौशिक का काम सराहनीय है। उन्होंने फिल्म की कमियों को ज्यादा उभरने नहीं दिया और दर्शकों के एंटरटेनमेंट का भरपूर ध्यान रखा। साथ ही वे अंत तक दर्शकों की यह उत्सुकता बनाए रखने में सफल रहे हैं कि आगे क्या होगा। हालांकि रहस्य से परदा उठ भी जाता है, लेकिन फिल्म में रूचि बनी रहती है। कहानी को कहने का उनका प्रस्तुतिकरण उम्दा है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। चक्षु, आंकलन, निम्नलिखित जैसे गाढ़ी हिंदी शब्द भी सुनने को मिलते हैं। इनका इस्तेमाल इतनी सफाई से किया गया है कि आपके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। साथ ही कूल दिखने के लिए किरदारों का अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण भी खूब हंसाता है। बिट्टू के किरदार के रूप में अपारशक्ति खुराना जबरदस्त रहे हैं। 'विक्की प्लीज' वाले सीन में उनका अभिनय कमाल का है। अभिषेक बैनर्जी ने भी शानदार तरीके से इनका साथ निभाया है और वे जब-जब स्क्रीन पर आते हैं, हंसी आती है। पंकज त्रिपाठी का अभिनय इतना बेहतरीन है कि लगता है कि उन्हें और स्क्रीन टाइम मिलना था। बेहतरीन अभिनय, हास्य से भरपूर दृश्य और चुटीले संवाद 'स्त्री' को देखने के पर्याप्त कारण हैं। बैनर : मैडडॉक फिल्म्स, डी2आर फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता : दिनेश विजन, राज-डीके निर्देशक : अमर कौशिक संगीत : सचिन संघवी, जिगर सरैया कलाकार : राजकुमार राव, श्रद्धा कपूर, पंकज त्रिपाठी, अपारशक्ति खुराना, अभिषेक बैनर्जी ",1 " भारत में लोकतंत्र, व्यवस्था और कानून इसलिए ही बनाए गए ताकि लाइन में बैठे आखिरी व्यक्ति तक इसका फायदा पहुंचे, लेकिन इनके बीच की पतली गलियों का सहारा लेकर कुछ लोगों ने इन बातों को मखौल बना दिया है। शहरों में ही चकाचौंध और विकास दिखता है, लेकिन ग्रामीण इलाकों के लोग तो मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरसते हैं, ऐसे में क्या हमारे लोकतंत्र पर हमें गर्व करना चाहिए? निर्देशक अमित मसूरकर और लेखक मयंक तिवारी ने अपनी फिल्म के जरिये इस पर कड़ा प्रहार किया है। फिल्म का नाम न्यूटन क्यों है? नूतन कुमार (राजकुमार राव) को यह नाम पसंद नहीं है इसलिए वह नू को न्यू और तन को टन बना कर न्यूटन कुमार बन जाता है। सरकारी नौकरी लगती है और उसे छत्तीसगढ़ में नक्सली प्रभावित सुदूर एक गांव में चुनाव अधिकारी बना कर भेजा जाता है। न्यूटन बेहद ईमानदार और आदर्शवादी है। चुनाव की प्रक्रिया पर उसका पूरा विश्वास है और वह निष्पक्ष चुनाव करवाना चाहता है। हेलिकॉप्टर के जरिये उसे जंगल में पहुंचाया जाता है, जहां से वह सैनिकों और अपने साथियों लोकनाथ (रघुवीर यादव) और माल्को (अंजलि पाटिल) के साथ आठ किलोमीटर पैदल चलकर एक खस्ताहाल स्कूल पहुंचता है जहां पर वोट डाले जाने हैं। 76 आदिवासियों के लिए यह मतदान केन्द्र बनाया गया है जहां कदम-कदम पर खतरा है। मिलिट्री ऑफिसर आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) का कहना है कि मतदान केन्द्र तक जाया ही नहीं जाए क्योंकि नक्सलियों ने चुनाव के बहिष्कार के लिए कहा है और कोई भी वोट डालने नहीं आएगा, लेकिन न्यूटन कुमार की जिद के आगे उसे झुकना पड़ता है। मतदान केन्द्र बनाया जाता है और लंबे समय तक वोट डालने कोई नहीं आता। आखिरकार आत्मा सिंह गांव वालों को डरा धमका कर मतदान केन्द्र तक लाता है। उन्हें मशीन के जरिये वोट डालना ही नहीं आता। उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है, वे हिंदी नहीं समझते और माल्को उन्हें उनकी भाषा में समझाती है। वोट देने के लिए आत्मा सिंह लोगों को इसलिए इकट्ठा करता है क्योंकि विदेशी मीडिया वहां आने वाला है और लोकतंत्र की सही छवि उनके आगे दिखानी है। धीरे-धीरे न्यूटन को हकीकत समझ आने लगती है और उसके आदर्श चकनाचूर होने लगते हैं। जब वह आदिवासियों की हालत देखता है तो उसका दिल पसीज उठता है। इन आदिवासियों का महज वोट के लिए उपयोग किया जा रहा है और चुनाव के बाद उन्हें भूला दिया जाएगा। न्यूटन कुमार एक आदिवासी को बोलता है कि आप वोट दीजिए ताकि आपकी हालत बदल जाएगी। सड़क, बिजली, अस्पताल आपको मिलेंगे, लेकिन हर बार वह आदिवासी जवाब देता है कि कुछ नहीं बदलेगा। फिल्म में आदिवासियों के जो दबे, कुचले, निराश, शोषित चेहरे दिखाए हैं वो आपको दहला देते हैं। सोचने पर ये मजबूर करते हैं कि भारत की बड़ी आबादी को अभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं है और आजादी के वर्षों बाद भी यह हालत है। फिल्म सवाल करती है, लेकिन न्यूटन कुमार जैसे लोगों के जरिये आशा का साथ भी नहीं छोड़ती। न्यूटन कुमार ईमानदारी और मुस्तैदी से अपने काम में जुटा हुआ है और उसे विश्वास है कि एक दिन सब कुछ बदलेगा। फिल्म की ताकत इसके रियल लोकेशन हैं। शहरी चकाचौंध से दूर यह ऐसे भारत में ले जाती है जिसकी कई लोगों ने कल्पना भी नहीं की होगी। मकान, हॉल, जंगल, स्कूल सभी फिल्म में अपनी तीखी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अतुल मसूरकर ने फिल्म को हल्का-फुल्का रखा है और चुनाव प्रक्रिया के जरिये कई अनकही बातों को कहा है। न्यूटन कुमार और आत्मा सिंह की नोकझोंक दिलचस्प है और आपको हंसने का मौका देती है। आत्मा सिंह नियम-कायदे पर चलने वाला आदमी है। उसका मानना है कि सारी प्रक्रिया ठीक से हो, नियम से हो और नियमों के फेर में पड़ कर वह कई बार लाइन के पार भी चला जाता है। इसको लेकर न्यूटन कुमार से उसके मतभेद होते रहते हैं। फिल्म की गति कुछ जगह दिक्कत देती है, खासतौर पर जब चुनाव करवाने के लिए जंगल में सभी किरदार पैदल जाते हैं। ये यात्रा बहुत लंबी हो जाती है। तकनीकी रूप से भी फिल्म थोड़ी कमजोर है। सिनेमाटोग्राफी का स्तर बहुत ऊंचा नहीं है। 'ईमानदारी के अवॉर्ड में सबसे ज्यादा बेईमानी होती है' और 'वर्दी में विनम्रता भी धमकी लगती है' जैसे उम्दा संवाद सुनने को मिलते हैं। राजकुमार राव लगातार अपने अभिनय से चौंकाते रहे हैं और एक बार फिर उनका अभिनय बेहतरीन रहा है। न्यूटन कुमार की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा उनके अभिनय से झलकती है। रघुवीर यादव मंजे हुए कलाकार हैं और लंबे समय बाद फिल्म में नजर आए हैं। पंकज त्रिपाठी का अभिनय शानदार हैं। आत्मा सिंह के रूप में रौबीले ऑफिसर में वे खूब जमे हैं। उम्दा कलाकारों के बीच अंजलि पाटिल अपनी छाप छोड़ती हैं। न्यूटन को वक्त दिया जाना चाहिए। बैनर : दृश्यम फिल्म्स निर्माता : मनीष मूंदड़ा निर्देशक : अमित मसूरकर संगीत : नरेन चंदावरकर, बैनेडिक्ट टेलर कलाकार : राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अंजलि पाटिल, रघुवीर यादव सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 46 मिनट 27 सेकंड ",1 " कुछ वर्ष पहले फिल्म निर्माता, निर्देशक या एक्टर अपन ी औलाद को लांच करते समय सुरक्षित दांव खेलत े थे । आजमाए हुए हिट फॉर्मूलों पर आधारित ऐसी कहानी चुनी जाती थी जो ज्यादा से ज्यादा लोगों को पसंद आए। इसमें कुछ हिट गीत हो, फाइटिंग हो, थोड़ा इमोशन और कॉमेडी हो ताकि नया हीरो/हीरोइन एकदम कंप्लीट पैकेज नजर आए। अब ये दौर बीत चुका है, लेकिन कुछ लोग अभी भी वहीं अटके हुए हैं। टिप्स वाले कुमार तौरानी के बेटे गिरीश कुमार ने ‘रमैया वस्तावैया’ से बतौर हीरो अपना सफर शुरू किया है। तौरानी ने हजारों बार आजमाई हुई प्रेम कहानी अपने बेटे के लिए चुनी है। यह फिल्म प्रभुदेवा द्वारा निर्देशित तेलुगु फिल्म ‘नुव्वोस्तानांते नुव्वोस्तानांते’ का हिंदी रिमेक है, जबकि यह तेलुगु फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ से प्रभावित थी। यानी कि कहानी के इस गन्ने का का रस इतना निचोड़ा जा चुका है कि अब इसमें कुछ बाकी नहीं रहा। शुरू से लेकर आखिरी तक यह पता रहता है कि आगे क्या होने वाला है। कहानी जानी-पहचानी हो तो बात आती है प्रस्तुतिकरण पर। कई बार परिचित कहानी पर भी फिल्म इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि निर्देशक उसे नए एंगल से पेश करता है। मनोरंजन का ऐसा तड़का लगाता है कि मन रमा रहता है। ‘रमैया वस्तावैया’ का निर्देशन प्रभुदेवा ने किया है। हिंदी में वांटेड और राउडी राठौर जैसी सफल फिल्में उन्होंने दी हैं। मसालों को किस तरह पेश किया जाना चाहिए यह काम उन्हें अच्छी तरह आता है। इन दोनों फिल्मों के प्रस्तुति‍करण में जहां ताजगी थी वही स्टार्स का साथ भी था, लेकिन ‘रमैया वस्तावैया’ से ये दोनों बातें नदारद हैं। प्रभुदेवा ने आज के दौर के मुताबिक बदलाव नहीं किए हैं। कॉलेज में पढ़ने वाली हीरोइन को मिट्टी के घोड़े के साथ खेलता देख अजीब-सा लगता है। फिल्म शुरू होते ही ओवरएक्टिंग और अतिनाटकीयता का सिलसिला शुरू हो जाता है जो अंत तक चलता रहता है। इस प्रेम कहानी में हीरो-हीरोइन एक-दूसरे को चाहने लगते हैं, लेकिन आर्थिक विषमता को लेकर दीवार खड़ी की जाती है। ऑस्ट्रेलिया में रहने वाला हीरो जिसने जिंदगी में कोई काम नहीं किया, हीरोइन के गांव आकर उसके भाई से हीरोइन का हाथ मांगता है। हीरोइन का भाई कहता है कि हीरो की मां ने किसान का अपमान किया है इसलिए हीरो को खेती कर उससे ज्यादा अनाज पैदा कर दिखाना होगा। गाय-भैंस के गोबर साफ करते हुए और कीचड़ में लथपथ होते हुए हीरो यह बाजी जीत लेता है। उसे रोजाना तीखा खाना क्यों खिलाया जाता है यह समझ से परे है। इस सपाट कहानी में कुछ विलेन भी डाल दिए गए हैं क्योंकि फाइटिंग सीन जरूरी है। कॉमेडी के नाम पर घिसी-पिटी जोकरनुमा हरकतें हैं। ऐसा लगता है कि पन्द्रह साल पुरानी फिल्म देख रहे हों। निर्देशक के रूप में प्रभुदेवा ने कुछ मौलिक नहीं सोचा और तयशुदा फॉर्मूले पर ही फिल्म बनाई। हीरो-हीरोइन के प्रेम और दर्द को दर्शक महसूस नहीं कर पाते हैं। सचिन-जिगर का संगीत अच्छा है। ‘जीने लगा हूं’ जैसे एक-दो गानें ऐसे हैं जो हिट हो चुके हैं। बात की जाए हीरो गिरीश कुमार की, जिनके लिए ‘रमैया वस्तावैया’ नामक फिल्म का निर्माण किया गया है। गिरीश के पीछे जो मेहनत की गई है उससे साफ झलकता है कि वे कलाकार की बजाय स्टार बनना चाहते हैं। स्टार बनना हो तो स्टार्स वाली बात भी होनी चाहिए। दिखने में वे साधारण हैं। डांस और फाइट ठीक-ठाक कर लेते हैं। अभिनय के लिए उन्हें मेहनत करना होगी, तब जाकर ही वे अपना सपना पूरा कर सकते हैं। श्रुति हासन खूबसूरत लगीं और अभिनय भी अच्छा कर लेती हैं। इस फिल्म में उन्हें कुछ कर दिखाने का मौका मिला है। गिरीश को फायदा हो न हो, श्रुति को इस फिल्म का लाभ जरूर मिल सकता है। हीरो कमजोर हो तो सपोर्टिंग कास्ट पर खूब मेहनत की जाती है। रणधीर कपूर, विनोद खन्ना, पूनम ढिल्लो, गो‍विंद नामदेव, सतीश शाह, नासेर, जाकिर हुसैन जैसे कई कलाकार हैं, लेकिन किसी का रोल पॉवरफुल नहीं है। हीरोइन के भाई के रूप में सोनू सूद असरदार रहे हैं। कुल मिलाकर ‘रमैया वस्तावैया’ पन्द्रह वर्ष पुरानी टिपिकल बॉलीवुड फिल्म नजर आती है। बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स निर्माता : कुमार एस. तौरानी निर्देशक : प्रभु देवा संगीत : सचिन जिगर कलाकार : गिरीश कुमार, श्रुति हासन, सोनू सूद, विनोद खन्ना, रणधीर कपूर, पूनम ढिल्लो, सतीश शाह, नासेर, जैकलीन फर्नांडिस ( आइटम सांग) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 28 मिनट ",0 " नवंबर 2008। समय रात के नौ बजे के आसपास। लियोपोल्ड क ैफ े में कुछ देशी, कुछ विदेशी हाथ में बीयर का ग्लास लिए क्रिकेट मैच देख रहे हैं। दो आतंकवादी आते हैं, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं और दृश्य ही बदल जाता है। मुंबई के ताजमहल होटल की लॉबी में हंसते-मुस्कराते चेहरे। उधम मचाते बच्चे। अचानक गोलियां चलती हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आता। संभलने का वक्त नहीं मिलता। होटल का चमचमाता फर्श खून से सन जाता है। इसके बाद मुंबई के कई स्थानों से इसी तरह की खबरें आती हैं। राकेश मारिया, जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस, के घर के तीन लैंडलाइन फोन और मोबाइल एक साथ घनघना उठते हैं तो राकेश को लगता है कि कुछ गड़बड़ है। मुंबई के कई हिस्सों में हुई इस तरह की घटनाओं की खबर उन्हें मिलती हैं। उन्हें कुछ सूझता नहीं कि क्या करें। राकेश बताते हैं कि उनके लंबे करियर में पहली बार इस तरह की घटना हो रही थी, जब अपराधी उनके सामने अपराध किए जा रहा था और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें इस तरह के अपराध को रोकने की ट्रेंनिंग ही नहीं मिली थी। आमतौर पर अपराध होने के बाद पुलिस पहुंचती है, लेकिन यहां तो आंखों के सामने अपराधी थे। उस दिन हमेशा दौड़ने-भागने वाली रूपहली मुंबई को थामने की कोशिश की गई थी। बेकसूरों को मारा गया था। बच्चे, महिलाओं सहित उस आदमी को भी गोली मार दी गई थी, जिसके घर आतंकवादियों ने पानी मांग कर पिया था। मुंबई पर जो हमला हुआ था उसकी पूरी विश्व में आलोचना हुई। लोगों का दिल आज भी इस घटना को याद कर भर आता है। इस घटना को रामगोपाल वर्मा ने पेश किया है और उन हालातों को दिखाया है, जिससे पुलिस और घटना के गवाह गुजरे हैं। मुंबई टेरर अटेक्स के बाद रामू महाराष्ट्र तत्कालीन मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के साथ ताजमहल होटल पहुंचे थे और उनकी काफी आलोचना भी हुई थी कि वे इस विषय पर फिल्म बनाने की सोच रहे हैं। भले ही उस वक्त रामू ने इससे इंकार किया था, लेकिन अब वो बात सच साबित हुई। रामगोपाल वर्मा ने घटना को जस का तस प्रस्तुत करने की कोशिश की है और इंटरवल तक उन्होंने कुछ हमलों को दिखाया है जिसे देख दिल दहल जाता है। दु:ख, दर्द और गुस्से भाव एक साथ आते हैं और आप सीट पर बैठ कसमसाते रहते हैं। हिंसा के अतिरेक से बचा जा सकता था, लेकिन शायद इससे आतंकियों की क्रूरता का अंदाजा नहीं लगता। अजमल कसाब को पकड़ने के बाद फिल्म पूरी तरह उसी पर फोकस हो जाती है और यहां पर रामू ने कई महत्वपूर्ण घटनाओं को छोड़ दिया है, जिनमें एनएसजी द्वारा किया गया ऑपरेशन भी शामिल हैं जिसके तहत उन्होंने ताज होटल में छिपे आतंकियों को मार गिराया था। फिल्म की शुरुआत में ही यह बता दिया गया है कि सिनेमा के नाम पर कुछ छूट ली गई है, इसलिए कुछ ड्रामेबाजी भी नजर आती है। खासतौर पर राकेश मारिया का कसाब को मुर्दाघर ले जाने वाले सीन में ड्रामा थोड़ा ओवर हो गया है, लेकिन इस सीन में नाना पाटेकर की अदाकारी देखने लायक है। कसाब का यह बताने वाले सीन कि यह घृणास्पद काम क्यों किया है, बेहद लंबा है। रामगोपाल वर्मा का काम थोड़ा जल्दबाजी का लगता है। थोड़ी और रिसर्च की जरूरत थी, साथ ही कुछ घटनाओं को शामिल किया जाना जरूरी था। फिर भी यह काम उनकी पिछली कुछ फिल्मों से अच्छा है। तकनीकी बाजीगरी से उन्होंने अपने आपको बचाए रखा और यह राहत की बात है। इस फिल्म में क्या है, ये सभी को पता है, लेकिन उसे परदे पर देखना उन क्रूरतम क्षणों से रूबरू होना है। उस त्रासदी में पुलिस और आम आदमी कैसे जूझ रहे थे, उसे जीवंत देखने के समान है। बैनर : इरोज इंटरनेशनल, एलम्ब्रा एंटरटेनमेंट निर्माता : पराग संघवी निर्देशक : रामगोपाल वर्मा कलाकार : नाना पाटेकर, संजीव जायसवाल, अतुल कुलकर्णी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट 24 सेकंड ",1 "थ्रिलर फिल्में बनाना आसान काम नहीं है। छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। इस तरह की फिल्में दर्शक बेहद गौर से देखते हैं और गलतियाँ ढूँढने की कोशिश करते हैं। हर समय उनके दिमाग में प्रश्न उठते रहते हैं। उन सवालों का जवाब देने में अगर निर्देशक और लेखक कामयाब हो गए तो फिल्म के भी कामयाब होने के आसार बढ़ जाते हैं। ‘जॉनी गद्दार’ इस वर्ष की अब तक प्रदर्शित थ्रिलर फिल्मों में श्रेष्ठ है। ‘एक हसीना थी’ फिल्म के जरिये अपनी शुरूआत करने वाले निर्देशक श्रीराम राघवन ने ‘जॉनी गद्दार’ को देखने लायक बनाया है। ‘जॉनी गद्दार’ उन पाँच लोगों की कहानी है, जो गैरकानूनी काम करते हैं। इन्हें एक डील मिलती है, जिसके बदले में ढाई करोड़ रुपए मिलने वाले रहते हैं। विक्रम (नील मुकेश) इस रकम को अकेला हड़पना चाहता है, ताकि वह अपनी प्रेमिका के साथ खुशहाल जिंदगी जी सके। अपनी गैंग से वह गद्दारी करता है। वह ढाई करोड़ रुपए पाने में कामयाब हो जाता है, लेकिन जैसे-जैसे उसकी गद्दारी के बारे में गैंग के सदस्यों को पता चलता जाता है वह उनको मारता जाता है। वह एक मुसीबत से निकलता है और परिस्थितिवश दूसरी मुसीबत में फँस जाता है। पैसे पास होने के बावजूद वह खर्च नहीं कर सकता। फिल्म की कहानी में दर्शकों से कोई बात छुपाई नहीं गई है। दर्शकों को शुरुआत से पता रहता है कि गद्दार कौन है? उसका प्लान क्या है? वह गद्दारी क्यों कर रहा है? वह अपने काम में छोटी-छोटी गलतियाँ करता हैं और उन गलतियों के जरिये उसका भेद उसके साथियों के आगे खुलता जाता है। एक अपराध छिपाने के लिए उसे दूसरा अपराध करना पड़ता है। फिल्म की कहानी जेम्स हैडली चेज़ के उपन्यास को आधार बनाकर लिखी गई है। फिल्म का एक बहुत बड़ा हिस्सा अमिताभ-नवीन निश्चल की फिल्म ‘परवाना’ से उठाया गया है। लेकिन निर्देशक ने ईमानदारी से अपनी प्रेरणा को दृश्यों के माध्यम से फिल्म में स्वीकारा है। पूरी फिल्म सिंगल ट्रैक पर चलती है। कोई कॉमेडी नहीं। कोई रोमांस नहीं। कोई नाच-गाना नहीं। कोई विदेशी लोकेशन नहीं। इसके बावजूद फिल्म बोर नहीं करती और दर्शक आगे का घटनाक्रम जानने के लिए उत्सुक रहता है। फिल्म की पटकथा को बड़ी सफाई से लिखा गया है और छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखा गया है। निर्देशक श्रीराम राघवन की छाप हर दृश्य में नजर आती है। उनकी कहानी कहने की शैली शानदार है। उन्होंने फिल्म को ऐसा लुक दिया है, ‍जैसा कि 80 के दशक की फिल्मों का हुआ करता था। फिल्म के टाइटल भी उन्होंने उसी अंदाज में परदे पर प्रस्तुत किए हैं। रंगों का संयोजन और फोटोग्राफी भी उस दौर की याद दिलाती है। ये उनका ही आत्मविश्वास है कि उन्होंने फिल्म का सारा भार नए कलाकार नील मुकेश के कंधों पर डाला है। फिल्म के हर कलाकार ने शानदार अभिनय किया है। नील मुकेश ने अपने कॅरियर की शुरूआत नकारात्मक भूमिका से की है, लेकिन उन्हें शानदार रोल मिला है। रितिक जैसे दिखने वाले नील ने पूरी फिल्म का भार बखूबी उठाया है। उनके अभिनय में आत्मविश्वास झलकता है। हालाँकि उनके बारे में ज्यादा कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि रोमांटिक और भावना-प्रधान दृश्यों में उन्हें अपनी अभिनय क्षमता सिद्ध करनी है, लेकिन वे लंबी रेस के घोड़े साबित हो सकते हैं। धर्मेन्द्र का रोल छोटा है, लेकिन उनकी उपस्थिति पूरी फिल्म में दिखाई पड़ती है। इस फिल्म के बाद उनकी डिमांड निर्माता-निर्देशक के बीच बढ़ जाएगी। विनय पाठक, ज़ाकिर हुसैन, दया शेट्टी ने अपने चरित्रों को जिया है। रीमी सेन ने कठिन भूमिका को कुशलतापूर्वक निभाया। अश्विनी कल्सेकर (पक्या की पत्नी) और रसिका जोशी (शिवा की माँ) का अभिनय भी शानदार है। गोविंद नामदेव जरूर ओवर एक्टिंग करते हैं। फिल्म का तकनीकी पक्ष मजबूत है। मध्यांतर के बाद फिल्म को थोड़ा छोटा किया जा सकता था। लगातार कॉमेडी देखकर आप ऊब गए हों तो बदलाव के रूप में ‘जॉनी गद्दार’ देखी जा सकती है। बैनर : एडलैब्स फिल्म्स लि. निर्देशक : श्रीराम राघवन कलाकार : नील मुकेश, धर्मेन्द्र, रिमी सेन, विनय पाठक, ज़ाकिर हुसैन, दया शेट्टी ",1 "दंगल को सिर्फ स्पोर्ट्स फिल्म कहना गलत होगा। इस फिल्म में कई रंग हैं। लड़कियों के प्रति समाज की सोच, रूढि़वादी परंपराएं, एक व्यक्ति का सपना और जुनून, लड़के की चाह, अखाड़े और अखाड़े से बाहर के दांवपेंच, देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना, चैम्पियन बनने के लिए जरूरी अनुशासन और समर्पण जैसी तमाम बातें इस दंगल में समेटी गई हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट कमाल की है और पूरी फिल्म बहती हुई एक मनोरंजन की नदी के समान है जिसमें दर्शक डुबकी लगाते रहते हैं। जैसा की सभी जानते हैं कि यह फिल्म पहलवान महावीर सिंह फोगाट के जीवन से प्रेरित है। बिलाली गांव में रहने वाला महावीर देश के लिए स्वर्ण पदक जीतना चाहता है। पहलवानी में उसने प्रतिष्ठा और प्रसिद्धी तो कमाई, लेकिन पैसा नहीं कमा पाया और इसी कारण उसे पहलवानी छोड़ एक छोटी-सी नौकरी करना पड़ी। महावीर ने सोचा कि अपने बेटों के जरिये वह अपने सपने को पूरा करेगा, लेकिन चार लड़कियां होने पर उसने अपने सपने को पेटी में यह सोच कर बंद कर दिया कि लड़कियों का जन्म तो चूल्हे-चौके और झाडूू-पोछे के लिए होता है। एक दिन उसकी बेटियां गीता और बबीता लड़कों की पिटाई करती है और यही से महावीर को महसूस होता है- म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के? > छोटे से गांव में छोरियों को छोरों से कम ही माना जाता है। जिसके घर सिर्फ लड़कियां पैदा होती हैं उसे लोग तुच्छ नजरों से देखते हैं। जिस गांव में लड़कियां बाल कटा कर ही ग्रामीणों के लिए चर्चा का विषय बन जाती हों वहां पर महावीर, गीता और बबीता को पहलवानी सिखाने का साहसिक फैसला लेता है और उन्हें चैम्पियन बना कर ही दम लेता है। एक अखबार में महावीर सिंह फोगाट के बारे में लेख पढ़ कर इस पर फिल्म बनाने का आइडिया पैदा हुआ था, जिसे निर्देशक नितेश तिवारी ने फिल्म के रूप में बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। फोगाट की कहानी बहुत ही दमदार और प्रेरणादायी है। यह दर्शाती है कि कुछ पाने की चाह के आगे साधनहीन होने की बात बौनी साबित हो जाती है। फिल्म यह बात बखूबी दर्शाती है कि फोगाट को दो मोर्चों पर लड़ना पड़ा। एक तो उसे अपना सपना पूरा करना था और दूसरा उस समाज से लड़ना था जो लड़कियों को कम आंकता है। उसकी तथा उसकी बेटियों की हंसी उड़ाई जाती है, लेकिन वह टस से मस नहीं होता। फिल्म इंटरवल तक इतनी तेज गति से भागती है कि दर्शकों की सांसें थम जाती है। फिल्म का पहला सीन ही इतना लाजवाब है कि तालियों और सीटियों का खाता फौरन खुल जाता है। इसके बाद एक से बढ़कर एक सीन की निर्देशक नितेश तिवारी झड़ी लगा देते हैं। चाहे वो लड़के पैदा करने के टोटके हो, बच्चियों को पहलवानी का प्रशिक्षण देने के दृश्य हों, पिता की सख्ती हो, छोरियों के छोरों से कुश्ती लड़ने के दृश्य हों, सभी इतनी बढ़िया तरीके से गूंथे गए हैं कि दर्शक बहाव में बहते चले जाते हैं। कहानी को परत दर परत प्रस्तुत किया गया है और इंटरवल के समय सवाल उठता है कि निर्देशक ने इतना कुछ दिखा दिया है कि अब उसके पास दिखाने के लिए बचा क्या है? इंटरवल के बाद 'दंगल' स्पोर्ट्स फिल्म बन जाती है। थोड़ा ग्राफ नीचे आता है, क्योंकि स्पोर्ट्स फिल्में कमोबेश एक जैसी ही लगने लगती हैं, लेकिन जल्दी ही स्थिति संभल जाती है। हो सकता है कि कई लोगों को खेल में रूचि न हो या कुश्ती के बारे में जानकारी न रखते हो, लेकिन फिल्म के यह हिस्सा भी उन्हें पसंद आएगा। कुश्ती की तकनीक इस कुशलता से बताई गई है कि यह फिल्म कुश्ती के बारे में आपकी जानकारी में इजाफा करती है। गीता के राष्ट्रीय स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर तक के सफर को यहां पर दर्शाया गया है। खेल के अलावा यह बात भी जोरदार तरीके से दिखाई गई है कि एक छोटे से गांव से निकल कर बड़े शहर की चमक-दमक किस तरह खिलाड़ी का ध्यान भंग कर सकती है। यहां पर बाप और बेटी के द्वंद्व को भी दिखाया गया है। गीता का नया कोच, महावीर के प्रशिक्षण को खारिज कर देता है और गीता उसकी बातों में आ जाती है। पिता-पुत्री के बीच कुश्ती का मैच फिल्म का एक शिखर बिंदु है जिसमें वे दोनों शारीरिक रूप से कुश्ती लड़ते हैं, लेकिन असली लड़ाई उनके दिमाग के अंदर चल रही होती है। > दं गल के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें आमतौर पर स्पोर्ट्स फिल्में खेल दिखाए जाने वाले दृश्यों में मार खा जाती हैं। नकलीपन हावी हो जाता है, लेकिन 'दंगल' में दिखाए गए कुश्ती के मैच इतने जीवंत हैं कि असल और नकल में भेद करना मुश्किल हो जाता है। फातिमा सना शेख ने युवा ‍गीता का किरदार निभाया है और उन्होंने इतनी सफाई से कुश्ती वाले दृश्य किए हैं कि वे सचमुच की कुश्ती खिलाड़ी लगी हैं। इन कुश्ती दृश्यों को इतने रोचक तरीके से फिल्माया गया है कि सिनेमाहॉल, स्टेडियम लगने लगता है और तनाव के मारे आप नाखून चबाने लगते हैं। राष्ट्रमंडल खेल में जब गीता स्वर्ण पदक जीतती है और तिरंगा को ऊपर जाते देख जो गर्व का भाव पैदा होता है उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। जब पार्श्व में 'जन-गण-मन' बजने लगता है तो सिनेमाहॉल में मौजूद सारे दर्शक में राष्ट्रप्रेम की भावना ऐसे हिलोरे लेती हैं कि वह स्वत: ही सम्मान में खड़ा हो जाता है। नितेश तिवारी ने इस सीक्वेंस को बखूबी फिल्माया है। निर्देशक के रूप में नितेश की पूरी फिल्म पर पकड़ है। पहले हाफ में उन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। हंसते-हंसाते उन्होंने गंभीर बातें कह डाली हैं। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो आपको ठहाका लगाने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर करते हैं। खासतौर पर महावीर के भतीजे का जो किरदार है वो अद्‍भुत है। उसके नजरिये से ही 'दंगल' दिखाई गई है और उसका वॉइस ओवर कमाल का है। अभिनय के मामले में फिल्म जबरदस्त है। कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा की तारीफ करना होगी कि उन्होंने हर भूमिका के लिए परफेक्ट एक्टर्स का चुनाव किया है। आमिर खान तो अपने किरदार में पूरी तरह डूब गए। वे महावीर लगे हैं, स्टार आमिर खान नहीं। वजन कम ज्यादा उन्होंने इस रोल के लिए किया है, लेकिन केवल इसके लिए ही तारीफ नहीं बनती। ये तो कई लोग कर सकते हैं। उनका अभिनय भी तारीफ के योग्य है। पहलवानों की बॉडी लैंग्वेज और हरियाणवी लहजे को जिस सूक्ष्मता के साथ पकड़ा है वो काबिल-ए-तारीफ है। अपने किरदार को उन्होंने धीर-गंभीर लुक दिया है। उन्होंने नए कलाकारों पर हावी होने के बजाय उन्हें भी उभरने का अवसर दिया है। ज़ायरा वसीम ने बाल गीता का किरदार निभाया है और उन्हें देख लगता ही नहीं कि यह लड़की एक्टिंग कर रही है। सुहानी भटनागर ने बाल बबीता बन उनका साथ खूब निभाया है। युवा गीता के रूप में फातिम सना शेख और युवा बबीता में रूप में सान्या मल्होत्रा अपना प्रभाव छोड़ती हैं। खासतौर पर फातिमा का अभिनय प्रशंसनीय है। महावीर के भतीजे के रूप में ऋत्विक साहोरे और अपारशक्ति खुराना ने कलाकारों ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। साक्षी तंवर अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं। गाने फिल्म देखते समय अच्छे लगते हैं क्योंकि वे कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक हैं और किरदारों की मनोदशा को दर्शाते हैं। सेतु श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। कुश्ती वाले सीन उन्होंने बेहतरीन तरीके से फिल्माए हैं। फिल्म की लंबाई से शिकायत हो सकती है, लेकिन इस तरह की फिल्मों के इत्मीनान जरूरी है। महावीर सिंह फोगाट अपनी बेटी गीता को तभी 'साबास्स' कहता है जब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक जीतती है। ऐसी ही साबासी आमिर और नितेश के लिए फिल्म देखने के बाद मुंह से निकलती है। बैनर : डिज्नी इंडिया स्टुडियो, आमिर खान प्रोडक्शन्स निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर, आमिर खान, किरण राव निर्देशक : नितेश तिवारी संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : आमिर खान, साक्षी तंवर, सान्या मल्होत्रा, फातिमा सना शेख सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 41 मिनट ",1 "chandermohan.sharma@timesgroup.com दुनिया के महान क्रिकेट कप्तान एम. एस. धोनी पर अगर फिल्म बनती है तो यकीनन बनने से पहले ही फिल्म का मीडिया की सुर्खियों में जगह बना लेना और दर्शकों में भी ऐसी फिल्म का जबर्दस्त क्रेज होना स्वभाविक हो जाता है। बॉक्स ऑफिस पर इससे पहले 'अ वेंसडे', 'स्पेशल 26' सहित कई हिट दे चुके डायरेक्टर नीरज पांडे ने इस बार करीब 100 करोड़ के भारी भरकम बजट में इस फिल्म को हिंदी के साथ मराठी, तमिल और तेलुगू में भी बनाया है। इसे एम. एस. धोनी के नाम का करिश्मा ही कहा जाएगा कि रिलीज से पहले ही इस फिल्म ने अपनी टोटल लागत वसूल कर ली। सैटलाइट्स राइट्स बेचने से करीब 55 करोड़, फिल्म में दिखाए गए ब्रैंड प्रमोशन से करीब 20 करोड़ के अलावा बाकी रकम म्यूजिक राइट्स और दूसरे राइट्स बेचने से कंपनी को मिली। देश-विदेश में करीब 5500 स्क्रीन्स पर एकसाथ रिलीज हुई इस फिल्म को बेशक पाकिस्तान में बैन कर दिया गया हो, लेकिन पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को मिली औसत से कहीं ज्यादा की ओपनिंग कलेक्शन के आंकड़ों को देखें तो 3 घंटे से ज्यादा अवधि की इस फिल्म का दर्शकों में अच्छा-खासा क्रेज नजर आ रहा है। बेशक, फिल्म में डायरेक्टर ने धोनी के नाम के साथ जुड़े कुछ विवादों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, तो वहीं इंटरवल से पहले फिल्म के कुछ सीन्स को बेवजह लंबा करके फिल्म की रफ्तार को कम किया है, इसके बावजूद धोनी के नाम का चमत्कार इस फिल्म को बॉक्स आफिस पर हिट कराने का दम रखता है। कहानी: फिल्म झारखंड के शहर रांची से शुरू होती है, जहां पान सिंह धोनी (अनुपम खेर) मोटर ऑपरेटर का काम करता है। पान सिंह का काम कॉलोनी के घरों के साथ साथ क्रिकेट ग्राउंड में भी पानी की सप्लाइ करना है। पान सिंह धोनी की एक बेटी (भूमिका चावला) है। अब उसके घर माही (सुशांत सिंह राजपूत) का जन्म होता है। स्कूली दिनों से ही माही को पढ़ाई से कहीं ज्यादा शौक खेलों का रहा। स्कूल ग्राउंड में माही को फुटबॉल खेलते हुए देखकर स्कूल की क्रिकेट टीम के कोच (राजेश शर्मा) को लगता है माही को फुटबॉल की जगह क्रिकेट खेलना चाहिए। माही पहले क्रिकेट खेलने से बचना चाहता है, लेकिन कोच की बात टाल नहीं पाता। माही को स्कूल की क्रिकेट टीम के लिए चुन लिया जाता है। यहीं से शुरू होता है माही का क्रिकेट की फील्ड में अपनी पहचान बनाने का सफर। इस मिशन में माही के पिता पान सिंह उसके साथ नहीं है। पिता चाहते हैं कि माही सरकारी नौकरी करे। ऐसे में एक दिन जब पान सिंह को जब माही को रेलवे में स्पोर्ट्स कोटे से नौकरी लगने की खबर मिलती है तो पान सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। खड़गपुर रेलवे स्टेशन में कुछ अर्सा नौकरी करने के बाद माही नौकरी छोड़कर क्रिकेट में ही करियर बनाने का फैसला करता है। पिता उसके इस कदम में साथ नहीं हैं। यहीं से शुरू होता है माही का क्रिकेट की दुनिया में अपनी पहचान बनाने का ऐसा सफर जो उसके लिए आसान नहीं था। इस सफर में माही को एक हवाई सफर में प्रियंका (दिशा पटानी) मिलती है। प्रियंका की सादगी और खूबसूरती पर माही फिदा हो जाता है, लेकिन एक कार ऐक्सिडेंट में प्रियंका की मौत के बाद माही की जिदंगी में साक्षी (कियारा आडवाणी) की एंट्री होती है। माही के जन्म से शुरू हुई धोनी की इस कहानी में माही के स्ट्रगल के साथ साथ उनकी पर्सनल लाइफ, मैरिज और वर्ल्ड कप में जीत तक का सफर है। ऐक्टिंग: डायरेक्टर नीरज पांडे ने अपनी इस मेगा बजट फिल्म में लीड किरदार के लिए जब सुशांत सिंह राजपूत का नाम चुना तो उनके इस फैसले से प्रॉडक्शन कंपनी के लोग भी पूरी तरह से सहमत नहीं थे। नीरज ने सुशांत का सिलेक्शन करने से पहले उनकी कोई फिल्म तक नहीं देखी थी। सुशांत की कुछ तस्वीरें देखने के बाद उनका सिलेक्शन हुआ। सुशांत ने धोनी का किरदार निभाने के लिए पूरा होम वर्क किया। हर रोज घंटों पसीना बहाया, माही के क्रिकेट खेलने के स्टाइल को सीखा। यही वजह है कि स्टार्ट टु लास्ट पूरी फिल्म में सुशांत सिंह छाए हुए हैं। अनुपम खेर ने एकबार फिर साबित किया कि वह हर रोल को अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के दम पर जीवंत बना देते है। अन्य कलाकारों में प्रियंका के रोल में दिशा पटानी और धोनी की प्रेमिका और पत्नी के किरदार में कियारा आडवाणी जमी हैं। स्कूल में पहली बार माही को क्रिकेट के गुर सिखाने वाले कोच बैनर्जी बाबू के रोल में राजेश शर्मा का जवाब नहीं, धोनी की बहन के रोल भूमिका चावला ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। डायरेक्शन: नीरज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ एक ऐसी साफ सुथरी बायॉपिक बनाई है, जिसे आप पूरी फैमिली के साथ थिअटर में बेहिचक देखने जा सकते हैं। नीरज ने धोनी की लाइफ के कुछ ऐसे अनछुए पहलूओं को भी विस्तार से दिखाया है, जिनके बारे में उनके फैन्स ज्यादा नहीं जानते। यहीं वजह है फिल्म की लंबाई 3 घंटे से ज्यादा की है, जो यकीनन मल्टिप्लेक्स कल्चर के इस दौर में जेन एक्स को अखर सकती है। फिल्म में माही की लाइफ के रोमांटिक पलों को कम करने के साथ साथ अगर रेलवे में उनकी सर्विस के दौरान घटी घटनाओं के अलावा गानों को अगर सिर्फ एक अंतरे के साथ नीरज शूट करते तो फिल्म की लंबाई को आसानी से 30 मिनट तक कम किया जा सकता था, फिर भी रियल लोकेशन पर शूट करने और पूरा होमवर्क के बाद फिल्म शुरू करने के लिए नीरज की तारीफ करनी होगी। उन्होंने फिल्म के लीड किरदार धोनी के अलावा दूसरे सभी कलाकारों को भी जरूरी फुटेज दी। संगीत: बेशक, फिल्म की रिलीज से पहले इस फिल्म के गाने म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरे उतरे। बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक है, लेकिन फिल्म के लगभग सभी गाने फिल्म की रफ्तार को कम करने का काम करते है। 'बेसब्रियां' गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें: अगर आप दुनिया के महान क्रिकेट कप्तान एम. एस. धोनी के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते हीरो की इस फिल्म को मिस ना करें। बेशक इस फिल्म की करीब 3 घंटे की लंबाई हॉल में कई बार आपके सब्र का इम्तिहान लेगी, लेकिन अगर धोनी की लाइफ के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में जानना चाहते हैं तो इस फिल्म को देखने जाएं। और हां, सुशांत सिंह राजपूत की बेहतरीन ऐक्टिंग, कैमरावर्क और लोकेशन इस फिल्म को देखने की एक और वजह भी हो सकती है। ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर विक्रम भट्ट स्टाइल और उनकी फिल्मों के दीवाने हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है। फिल्म में बोल्ड सीन पसंद करने वालों के लिए यह अच्छा ऑप्शन है। भट्ट कैंप पहले भी इस सब्जेक्ट पर फिल्म बना चुके हैं। 'राज', '1920' और 'हेट स्टोरी' जैसी फिल्मों में विक्रम बोल्ड सीन्स पर काफी ज्यादा फोकस करते हैं। ऐसे में इस बार भी लव गेम्स में सेक्स का तड़के काफी स्ट्रॉन्ग है। वहीं सेंसर बोर्ड भी मूवी पर काफी महरबान रहा है। कहानी : रमोना रायचंद (पत्रलेखा) और समीर सक्सेना उर्फ सैम (गौरव अरोड़ा) रिच कपल हैं। कुछ साल पहले रमोना के पति की बिल्डिंग से गिरकर मौत हो जाती है, शक रमोना पर है लेकिन ऐसा कुछ भी साबित नहीं हो पाता। पति की मौत के बाद रमोना को किसी की परवाह नहीं है। अब वह वही करती हैं जो करना चाहती हैं। इसी बीच रमोना और सैम मिलते हैं। दोनों को एक स्विंगर ग्रुप के बारे में पता चलता है और इसके बाद दोनों बड़ी पार्टीज का हिस्सा बनकर पार्टी में मौजूद सबसे हैपी कपल के बीच ब्रेकअप करने वाला एक लव गेम खेलना शुरू करते हैं। रमोना और सैम पार्टी में आए शादीशुदा कपल को अपने प्यार के जाल में फंसाने का काम करते हैं। यह गेम बस एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबध बनाना है। इसी दौरान एक ऐसे ही लव गेम के खेल में सैम डॉ. अलीशा (तारा अलीशा बेरी) से मिलते हैं। इस बार सैम को अलीशा से प्यार हो जाता है, जो रमोना को जरा भी पसंद नहीं है। ऐक्टिंग : मॉडल, ऐक्टर गौरव अरोड़ा ने सैम के किरदार में अच्छी ऐक्टिंग की है। तारा ने डॉक्टर अलीशा के किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। पत्रलेखा के जबर्दस्त बोल्ड ग्लैमरस लुक को देखकर चौक उठेंगे। डायरेक्शन : फिल्म शुरू करते वक्त विक्रम की सोच अच्छी रही जो इन दिनों रिच क्लास के बीच तेजी से ट्रेंड कर रहे स्विंगर्स कल्चर के बारे में फोकस करती है। फिल्म की स्क्रिप्ट को ज्यादा पावरफुल बनाने की बजाए विक्रम ने पहली फिल्मों के मुकाबले ज्यादा बोल्ड बनाने के अलावा कहीं और ध्यान नहीं दिया। विक्रम ने इंटीमेट सीन्स को दिखाते वक्त समाज के एक खास ग्रुप की सोच का भी कहीं न कहीं जिक्र किया है। बोल्ड सीन्स के बावजूद फिल्म की रफ्तार काफी धीमी है। लास्ट पार्ट असरदार नहीं है। संगीत : फिल्म में एक-दो नहीं दर्जन भर गाने हैं। फिल्म में कई अंग्रेजी गाने हैं, जिन्हें बैकग्रांउड में फिल्माया गया है। फिल्म का एक गाना 'आवारगी' रिलीज से पहले कई म्यूजिक चार्ट में अपनी जगह बना चुका है। ",0 "चंद्रमोहन शर्मा ​करीब चार साल पहले यंग डायरेक्टर लव रंजन के निर्देशन में बनी प्यार का पंचनामा रिलीज हुई तो पहले दिन की बॉक्स ओपनिंग बेहद कमजोर रही। लेकिन क्रिटिक्स रिव्यू आने के बाद यंगस्टर्स ने इस फिल्म को हाथोंहाथ लिया। बाद में यह फिल्म 2011 की बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट में शामिल हुई। बॉक्स आफिस पर जबर्दस्त कलेक्शन मिला। पिछली फिल्म इंटरवल के बाद कुछ सीरियस रही थी लेकिन इस बार स्टार्ट टु ऐंड लाइट कॉमिडी में पेश किया। ऐसा लगता है सेंसर ने अडल्ट सर्टिफिकेट देने से पहले भी कई सीन्स में कैंची चलाई है। फिल्म में बार-बार ‘बीप’ की आवाज सुनाई देगी। कहानी कहानी तीन दोस्तों तीन अंशुल गोगो (कार्तिक आर्यन), सिद्धार्थ उर्फ चौका (सनी सिंह) और तरुण उर्फ ठाकुर (ओंकार कपूर) के आसपास घूमती है। बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों में तीनों अच्छी सैलरी वाली जॉब कर करते हैं। फैमिली से दूर दिल्ली के पॉश एरिया में तीनों एक आलीशान फ्लैट में साथ रहते हैं। इन तीनों को तलाश है सच्चे प्यार और अपने लिए लाइफ पार्टनर की, सो तीनों के बीच अक्सर इसी बात को लेकर बहस होती रहती है कब किसकी लाइफ में खूबसूरत लड़की की एंट्री होगी। अचानक इन तीनों की लाइफ में रुचिका उर्फ चीकू (नुसरत भरूचा), सुप्रिया (सोनाली सहगल) और कुसुम (इशिता शर्मा) आती हैं। तीनों को लगता है अब उनकी लाइफ भी मस्ती औैर रोमांस के साथ गुजरने वाली है। कुसुम पर अपना दिल हार चुके ठाकुर साहब का क्रेडिट कार्ड उसकी फरमाइशें पूरी करने में ब्लॉक हो जाता है। चौका जब सुप्रिया को अपनी पत्नी बनाने का सपना लिए उसके घर पहुंचता है उसके पापा, रंधावा साहब (शरत सक्सेना) और मम्मी को एक ऐसा फ्री का नौकर मिल जाता है जो उनके किचन में गैस सिलेंडर पहुंचाने के साथ सुप्रिया की मम्मी को शॉपिंग कराने के काम में बिजी हो जाता है। रुचिका यानी चीकू से मिलने के बाद अंशुल को लगता है उसे अपने सपनों की रानी मिल गई, दिनभर चीकू के नखरे उठाने में लगे गोगो को उस वक्त जबर्दस्त झटका लगता है जब चीकू के बचपन का एक दोस्त उसकी जिदंगी में लौटता है। यहां देखें प्यार का पंचनामा 2 का ट्रेलर ऐक्टिंग फिल्म की तीनों लीड जोड़ियों में नजर आए सभी स्टार्स ने बेहतरीन परफॉर्म किया है। तारीफ करनी होगी कार्तिक आर्यन की जिन्होंने एकबार फिर साबित किया की ऐक्टिंग की एबीसी से लेकर एक्स वाई जेड तक की उन्हें समझ है। गोगो पर फिल्माया एक लंबा संवाद हॉल में बैठे दर्शकों को तालियां बजाने के लिए मजबूर करता है। गोगो के किरदार में कार्तिक ने बेस्ट परफॉर्मेस दी है। डायरेक्शन लव रंजन ने ऐसी स्क्रिप्ट पर अच्छा काम किया है जो बेचारे बैचलर्स के दर्द को उजागर करती है। सीक्वल को बनने में चार साल का वक्त लगा, ऐसा लगता है इस बीच रंजन ने लड़कियों की पसंद और उनके मूड पर अच्छी रिसर्च की है। इस बार किरदारों के नाम ज्यादा कैची हैं। संगीत : पिछली फिल्म का ट्रैक इस फिल्म में भी बैकग्रांउड में सुनाई देता है, अगर गाने कम कर दिए जाते तो फिल्म की रफ़्तार ज्यादा तेज हो सकती थी। क्यों देखें : अगर आप किसी रिलेशनशिप में हैं या फिर मैरिड हैं तो यह फिल्म आपके लिए है। यूथ को यह काफी पसंद आने वाली है। सभी कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग फिल्म की यूएसपी है। फिल्म अडल्ट है। साफ सुथरी फिल्में देखने वालों की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी। ",1 "अपनी पिछली फिल्म 'कमांडो' में साउथ फिल्मों में पहले से अपनी खास पहचान बना चुके ऐक्टर विद्युत जामवाल ने इतना तो साबित कर दिखाया कि ऐक्शन के मामले में वह बॉलिवुड के दूसरे ऐक्शन हीरो के मुकाबले कहीं ज्यादा दमदार साबित हो सकते हैं। करीब तीन साल पहले प्रडयूसर विपुल शाह ने 'कमांडो' की रिलीज़ एकाएक कर दी। 'कमांडो' को रिलीज के पहले दिन पहले शो में औसतन दस से पंद्रह फीसदी की ओपनिंग मिली तो दूसरे दिन की कलेक्शन चालीस से पचास फीसदी तक रही। पिछली 'कमांडो' में विद्युत पर फिल्माए हैरतअंगेज ऐक्शन सीन उस फिल्म की यूएसपी रहे तो अबकी बार भी अगर यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ कर दिखाती है तो इस बार भी इसका क्रेडिट न तो कहानी, न ही स्क्रिप्ट को दिया जाएगा, इसका टोटली क्रेडिट विद्युत जामवाल पर फिल्माए इन हैरतअंगेज ऐक्शन, स्टंट सीन को ही देना होगा। इस बार भी फिल्म से कहानी तो लगभग नदारद है, लेकिन ऐेसे ऐक्शन सीन की भरमार है जो ऐक्शन के शौकीनों की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखते हैं। देखने है तो फिल्म एक बार जरूर देख सकते हैं। यकीनन यह फिल्म उन लोगों को पसंद आएगी जो दमदार ऐक्शन देखने की चाह में कहानी पर ज्यादा गौर नहीं करते। कहानी : कैप्टन करणवीर सिंह (विद्युत जामवाल) का सेकंड मिशन विदेश से ब्लैकमनी को देश में वापसी लाना है। मलेशिया में मनी लॉन्डिरिंग का नंबर वन सरगना विक्की चड्डा (वंश भारद्वाज) अपनी खूबसूरत वाइफ मारिया (ऐषा गुप्ता) के साथ अब पुलिस की गिरफ्त में आ चुका है। विक्की को विदेश से भारत लाने की जिम्मेदारी कैप्टन करणवीर सिंह और उनकी टीम को सौंपी जाती है। कैप्टन करणवीर पर्सनली तौर पर भी इंटरनैशनल मनी लॉन्ड्रिंग को जड़ से खत्म करना चाहते हैं। करणवीर की इस टीम में उनके साथ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भावना (अदा शर्मा) भी है, जिसके पास एनकाउंटर करने की वजह न हो तो वह अपने पर्सनल फायदे के लिए एनकाउंटर कर सकती है। कैप्टन और उनकी टीम के सदस्यों का यह मिशन आसान नहीं है। देश में ऐसे बहुत से प्रभावशाली लोग हैं जो नहीं चाहते कि विक्की चड्डा और उसकी वाइफ को भारत वापस लाया जाए क्योंकि ऐसा होने से वह बेनकाब हो सकते हैं। इन मुश्किल हालात में जहां कैप्टन और उनकी टीम को इन दुश्मनों के साथ साथ अंदर छुपे ऐसे गद्दारों को भी राह से हटाना है, जिनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। ऐक्टिंग : अंत तक पूरी फिल्म विद्युत के ऐक्शन और उनके आसपास ही फोकस करती है। विद्युत ने एकबार फिर खुद को ऐसा बेहतरीन ऐक्शन स्टार साबित किया जिसकी डिक्शनरी में नामुमकिन शब्द नहीं है। अदा शर्मा ने भी कुछ अच्छे ऐक्शन सीन किए है, ऐेषा गुप्ता अपने किरदार में फिट रही तो विक्की के किरदार में वंश भारदवाज असरदार रहे। निर्देशन : स्मॉल स्क्रीन पर कॉमिडी में अपनी पहचान बना चुके देवेन भोजवानी के पास इस प्रॉजेक्ट के लिए अच्छी दमदार स्क्रिप्ट नहीं थी। देवेन के पास सिर्फ विद्युत थे तो उन्होंने सिर्फ उन्हीं के दम पर पूरी फिल्म को खींचा। बतौर निर्देशक देवेन कुछ नया या अलग नहीं कर पाए। देवेन इस फील्ड में आने से पहले कुछ होमवर्क करते तो अच्छा रहता। संगीत : फिल्म का संगीत माहौल के मुताबिक है। फिल्म का एक गाना हरे रामा म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है। ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरा उतर सके। क्यों देखें : अगर ऐक्शन के शौकीन हैं तो विद्युत के बिना किसी ड्यूप्लीकेट या बॉडी डबल का सहारा लिए बिना विद्युत पर फिल्माए हैरतअंगेज ऐक्शन सीन फिल्म देखने की सबसे बड़ी वजह है। ",0 " फिल्म 1971 में सेट है जब ईस्ट पाकिस्तान में मुजीबुर रहमान की गतिविधियों के कारण भारत-पाकिस्तान के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। तब दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली सेहमत खान (आलिया भट्ट) को पाकिस्तान जासूस बनाकर भेजा जाता है। सेहमत के पिता हिदायत खान (रजित कपूर) उसकी शादी पाकिस्तानी आर्मी ऑफिसर इकबाल सईद (विक्की कौशल) से करा देते हैं जिसके परिवार के अन्य लोग भी पाकिस्तानी आर्मी में हाई रेंक ऑफिसर्स हैं। शादी के पहले सेहमत को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है कि खून देख चक्कर खाने वाली सेहमत वक्त आने पर किसी इंसान को मारने से भी नहीं चूकती। पाकिस्तान जाकर सेहमत अपना काम शुरू कर देती है। सेहमत से एक भारतीय ऑफिसर पूछता है कि तुम यह सब करने के लिए क्यों राजी हुईं? तो वह इसका जवाब देती है कि वह मुल्क और खुद को अलग करके नहीं देखती। वह खुद को ही मुल्क मानती है। यह संवाद सेहमत के किरदार को इतने ठोस तरीके से परिभाषित करता है कि दर्शकों को यकीन हो जाता है कि यह लड़की देश के लिए कुछ भी कर सकती है। शुरुआत के कुछ मिनटों में भारत-पाक के तनावपूर्ण रिश्ते, सेहमत की ट्रेनिंग और उसकी शादी दिखाई गई है। इसके बाद फिल्म पूरी तरह से सेहमत पर शिफ्ट हो जाती है। सेहमत के लिए यह सब आसान नहीं था। वह एक परिवार का हिस्सा होकर उनकी ही जासूसी करती है। उसके परिवार में रिश्ते बन जाते हैं। लगाव पैदा हो जाता है। सेहमत जानती हैं कि उसका पति, ससुर, जेठ सभी अपने मुल्क (पाकिस्तान) के लिए काम कर रहे हैं और वह अपने मुल्क (भारत) के लिए, इसलिए उसे किसी की गलती नजर नहीं आती। मोहब्बत से ज्यादा मान वे देश को देती है, लेकिन कहीं ना कहीं उसके दिल पर चोट भी लगती है कि वह अपने परिवार के साथ विश्वासघात कर उन्हें मुसीबत में डाल रही है। सेहमत के दिमाग में चल रही इस उथलपुथल को निर्देशक मेघना गुलज़ार ने बेहतरीन तरीके से दर्शाया है। उन्होंने पाकिस्तानियों को ऐसे पेश नहीं किया कि वे भारत या भारतीयों के खिलाफ खूब जुबां चला रहे हों। इसलिए वे विलेन नहीं लगते और इससे दर्शक सेहमत की मानसिक स्थिति को गहराई के साथ समझते हैं। 'राज़ी' बताती है कि सरहद पर सेना के जवान तो अपना काम बखूबी कर रहे हैं, लेकिन कई गुमनाम एजेंट्स ऐसे काम कर जाते हैं जिनको वाहवाही भी नहीं मिलती। सेहमत अपने देश के लिए तन-मन-धन तक न्यौछावर कर देती है। सेहमत का जब राज खुलता है तो उसका पति पूछता है कि क्या वह कभी 'सच' भी थी। उसका इशारा उन अंतरंग क्षणों की ओर था कि क्या वह बिस्तर पर भी ड्यूटी निभा रही थी? सेहमत के पास इसका कोई जवाब नहीं होता। सेहमत को आखिर में अहसास होता है कि उसका जंग में सब कुछ लूट गया और उसे कोई फायदा नहीं हुआ। वह अपने बेटे को भारतीय सेना का हिस्सा बनाती है जिसका पिता पाकिस्तान सेना में था। इस तरह बातें जहां सोचने पर मजबूर करती हैं, कई तरह के सवाल पैदा करती हैं, वहीं स्पाय ड्रामा पूरी तरह बांध कर रखता है। फिल्म की कहानी और प्रस्तुतिकरण इतना सशक्त है कि आप फिल्म में डूबे रहते हैं। सेहमत के खुफिया जानकारी जुटाने वाले सीन इतने बेहतरीन तरीके से फिल्माए गए हैं कि आप पलक भी नहीं झपक सकते। भवानी अय्यर और मेघना गुलजार द्वारा लिखा गया स्क्रीनप्ले कई टर्न्स और ट्विस्ट्स लिए हुए है और फिल्म सरपट गति से भागती है। निर्देशक के रूप में मेघना गुलजार की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि इस जासूसी ड्रामे को उन्होंने रियल रखने की कोशिश की है। आमतौर पर फिल्मों में जिस तरह से जासूस का ग्लैमराइज्ड वर्जन दिखाया जाता है उससे यह फिल्म कोसों दूर है। मेघना ने फिल्म में बेहतरीन तरीके से थ्रिल पैदा किया है जिसे हम उनकी पिछली फिल्म 'तलवार' में भी देख चुके हैं। थ्रिल के साथ-साथ उन्होंने सेहमत के किरदार से दर्शकों को शानदार तरीके से कनेक्ट किया है जो कि आसान बात नहीं थी। फिल्म में एक-दो बातें खटकती भी हैं जैसे इतने भरे-पूरे परिवार में सेहमत सारा काम बहुत आसानी से करती है। खुफिया जानकारियों वाली फाइल को घर के लोग बड़ी आसानी से टेबल पर ही रख देते हैं। कॉम्बेट ट्रेनिंग लेने वाली सेहमत स्टूल पर चढ़ने में लड़खड़ाती है। लेकिन फिल्म की पकड़ इतनी मजबूत है कि दर्शकों का ध्यान ग‍लतियों पर नहीं जाता। एक और सवाल उठता है कि इतने हाई रेंक आर्मी ऑफिसर्स अपने परिवार की भारतीय बहू पर शक क्यों नहीं करते? दरअसल सेहमत अपनी मासूमियत से सभी का दिल जीत लेती हैं और जब तक वे उस पर शक करते वह अपना काम कर चुकी थी। आलिया भट्ट कई फिल्मों में दिखा चुकी हैं कि वे कितनी बेहतरीन एक्ट्रेस हैं। 'राज़ी' में वे अपने स्तर को और ऊंचा उठाती हैं। एक कठिन भूमिका को उन्होंने चैलेंज की तरह लिया और शानदार तरीके से अभिनीत किया। उन्होंने अपने किरदार को उतनी ही मासूमियत और मैच्योरिटी दी जितनी की जरूरत थी। कई दृश्यों में उनका अभिनय लाजवाब है। विक्की कौशल, जयदीप अहलावत, रजत कपूर, शिशिर शर्मा, आरिफ ज़कारिया, सोनी राज़दान, अमृता खानविलकर सहित सारे कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है। सिनेमाटोग्राफी और सम्पादन शानदार है। राज़ी को जरूर देखा जाना चाहिए। बैनर : जंगली पिक्चर्स, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : विनीत जैन, करण जौहर, हीरू यश जौहर, अपूर्वा मेहता निर्देशक : मेघना गुलज़ार संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : आलिया भट्ट, विक्की कौशल, जयदीप अहलावत, रजत कपूर, शिशिर शर्मा, आरिफ ज़कारिया, सोनी राज़दान, अमृता खानविलकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट ",1 " कहानी है मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) की जो अपनी पत्नी तबस्सुम (नीना गुप्ता), छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा) और उसके परिवार के साथ रहता है। 65वें जन्मदिन पर वह अपने पड़ोसियों के साथ एक पार्टी रखता है जिसमें शामिल होने के लिए विदेश से उसकी हिंदू बहू आरती (तापसी पन्नू) भी आती है। पार्टी के ठीक बाद बिलाल का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) का नाम इलाहबाद में हुए विस्फोट में सामने आता है। उस बम विस्फोट में 16 लोग मारे जाते हैं। शाहिद की पुलिस के साथ मुठभेड़ में मौत हो जाती है। शाहिद की मां और मुराद उसका शव लेने से इनकार कर देता है क्योंकि वह आतंकवादी था। इसके बाद परिवार मुश्किल में घिर जाता है क्योंकि पुलिस बिलाल और मुराद को भी आतंकवादी घोषित करने में लग जाती है। वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) के सामने अदालत में मुराद की बहू आरती वकील के रूप में खड़ी होती है। अनुभव सिन्हा की यह कहानी सामान्य है। अगर इसमें यह बात छिपा ली जाए कि किरदारों के धर्म क्या है तो इस तरह की कहानी कई बार परदे पर आ चुकी है, लेकिन किरदारों के धर्म जाहिर कर देने से बात में वजन आ गया। साथ ही कहानी में उन्होंने अन्य बातों को भी जोड़ ड्रामे को आगे बढ़ाया है इसलिए कहानी और विशेष बन जाती है। फिल्म में कई प्रश्न उठाए गए हैं और उनके जवाब भी दिए हैं। ALSO READ:कारवां : फिल्म समीक्षा ALSO READ:कारवां : फिल्म समीक्षा मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) के घर के बाहर जब लोग लिख देते हैं- 'पाकिस्तान जाओ' तो मुस्लिम भड़क जाते हैं। इस पर वह कहता है कि यदि कुछ मुस्लिम पाकिस्तान के मैच जीतने पर पटाखे फोड़ेंगे तो लोग ऐसा ही बोलेंगे। मुस्लिमों पर देशभक्ति साबित करने का दबाव भी रहता है। एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इंस्पेक्टर दानिश जावेद अपनी देशभक्ति को साबित करने के लिए शाहिद को मार देता है जबकि वह उसे जिंदा भी पकड़ सकता था। मुराद को समझ नहीं आता कि वे देशप्रेम कैसे साबित करे जबकि 1947 के बंटवारे में उसने धर्म के बजाय देश को चुना था। अदालत का जज इस बात को मानते हुए कि ज्यादातर आतंकवादी मुस्लिम निकलते हैं, मुस्लिमों को सलाह देता है कि वे अपने युवा बच्चों पर नजर रखें कि वे गलत सोहबत में तो नहीं पड़ गए हैं। जज साहब गैर मुस्लिमों को भी सलाह देते हैं कि वे आम मुस्लिम की दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क करना समझे। इन सारी बातों के जरिये लेखक और निर्देशक अनुभव सिन्हा ने संतुलन को बनाए रखा और दोनों धर्मों के एक-दूसरे को देखने के चश्मे को साफ कर देखने की सलाह दी है। फिल्म का पहला हाफ बेहद उम्दा है। दूसरे हाफ में फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में तब्दील हो जाती है और यहां पर कई बार फिल्म पर से पकड़ छूटती हुई भी दिखाई देती है। पुलिस क्यों बिलाल और मुराद को आतंकवादी बताने पर तुली रहती है इसकी ठोस वजह सामने नहीं आती। साथ ही कोर्ट रूम ड्रामा थोड़ा सिंपल हो गया है। पहले संतोष अपना नजरिया व्यक्त करता है और फिर आरती। ALSO READ:फन्ने खां : फिल्म समीक्षा ALSO READ:फन्ने खां : फिल्म समीक्षा कुछ बात कहने के लिए कहानी में जगह नहीं मिली तो उन्हें कहीं भी चिपका दिया गया। जैसे सड़क पर उर्स लगने से ट्रैफिक जाम होने वाला सीन जो कि कहानी में फिट ही नहीं था। आरती और उसके पति में होने वाले बच्चे के धर्म को लेकर भी मतभेद होते हैं और इसका क्या हल निकलता है यह नहीं बताया गया है। कमियों के बावजूद फिल्म बांध कर रखती है क्योंकि फिल्म देखते समय कई तरह की बातें दिमाग में उठती हैं और कुछ दृश्य आपको परेशान करते हैं। तीखे बाणों की तरह चुभते हैं। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। निर्देशक के रूप में अनुभव सिन्हा का काम तारीफ के काबिल है। उन्होंने किसी का पक्ष न लेते हुए दोनों धर्मों की एक-दूसरे के प्रति सोच को सीधे-सीधे और स्पष्ट तरीके से सामने रखा है। उन्होंने फिल्म को बनावटी और उपदेशात्मक होने से बचाया। उनके किरदार स्टीरियो टाइप नहीं लगते। मुल्क का एक्टिंग डिपार्टमेंट बहुत मजबूत है। अपनी दूसरी पारी में ऋषि कपूर लगातार कमाल कर रहे हैं। मुराद अली की हताशा को उन्होंने अच्छे से दर्शाया है। तापसी पन्नू को पहले हाफ में ज्यादा मौका नहीं मिला, लेकिन दूसरे हाफ में उनकी एक्टिंग बेहतरीन है। क्लाइमैक्स में वे दिखा देती हैं कि एक एक्ट्रेस के रूप में उनकी रेंज क्या है। जज के रूप में कुमु‍द मिश्रा का अभिनय जबरदस्त है। फैसला सुनाते समय उनका अभिनय देखने लायक है। आशुतोष राणा ने अपना रोल इस तरह अदा किया है कि लोग उनके किरदार से नफरत करे। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का काम भी अच्छा है। इन सबमें बाजी मार ले जाते हैं मनोज पाहवा। पुलिस कस्टडी में वे अपने अभिनय से हिला देते हैं। मुल्क की खासियत यह है कि यह बेहतर हिंदू या बेहतर मुसलमान बनने की बजाय बेहतर इंसान बनने की बात करती है। बैनर : सोहम रॉकस्टार एंटरटेनमेंट, बनारस मीडिया वर्क्स प्रोडक्शन निर्माता : दीपक मुकुट, अनुभव सिन्हा निर्देशक : अनुभव सिन्हा संगीत : प्रसाद सास्थे, अनुराग साइकिया कलाकार : तापसी पन्नू, ऋषि कपूर, प्रतीक बब्बर, नीना गुप्ता, रजत कपूर, मनोज पाहवा, आशुतोष राणा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट 18 सेकंट ",1