text,label "चंद्रमोहन शर्मा को-प्रड्यूसर और लीड ऐक्टर अक्षय कुमार की मानें तो उनकी नई फिल्म एयरलिफ्ट की कहानी और किरदार बिल्कुल सच्चे हैं। पहले खाड़ी युद्ध को कवर करने वाले एक सीनियर रिपोर्टर और उस वक्त एयर इंडिया में उच्च पद पर रहे एक अफसर इस कहानी को सच से परे मानते हैं। हालांकि, स्क्रीन पर आप जो कुछ भी देखेंगे वह सब सच के बेहद करीब है। बॉलिवुड की खबरें अपने फेसबुक पर पाना हो तो लाइक करें Nbt Movies फिल्म की कहानी चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। इन चारों को मिलाकर एक लीड किरदार स्क्रीन पर उतारा गया है, जिसे अक्षय कुमार ने निभाया है। यह फिल्म पहले खाड़ी युद्ध पर आधारित है। इस जंग के दौरान कुवैत में फंसे करीब एक लाख सत्तर हजार भारतीय नागरिकों को देश वापस लाए जाने की घटना को डायरेक्टर ने अपने अंदाज से पेश किया है। किरदारों को पर्दे पर उतारने में कुछ फिल्मी आजादी की जरूरत होती है, यही आजादी फिल्म के डायरेक्टर राजा मेनन ने भी ली है। देखिए, फिल्म का ट्रेलर इस घटना को और ज्यादा असरदार ढंग से पेश करने के मकसद से राजा ने फिल्म के कुछ सीन्स को दुबई से करीब चार घंटे की दूरी पर स्थित रसेल खेमा में जाकर शूट किया। गुजरात के भुज और राजस्थान की आउटडोर लोकेशन पर इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग की गई है। कहानी : रंजीत कात्याल (अक्षय कुमार), पत्नी अमृता कात्याल (निमरत कौर) और प्यारी-सी बेटी के साथ कुवैत में रहता है। वह शहर का नामी बिज़नसमैन है। खाड़ी युद्ध छिड़ने के बाद बुरी तरह से बर्बाद हुए कुवैत के एक शहर में रह रहे दूसरे भारतीय नागरिकों के साथ रंजीत का परिवार भी फंस जाता है। सरकारी अधिकारी हालात से निपटने के विकल्पों पर विचार कर रहे हैं और ऐसे में कुवैत का रईस बिज़नसमैन रंजीत अपने प्रभाव और रसूख से अपनी फैमिली और फंसे दूसरे भारतीय नागरिकों को वहां से निकालने का मिशन स्टार्ट करता है। कुवैत में हालात खराब हो रहे थे। भारतीय सेना डायरेक्ट कुछ करने में कतरा रही थी। उस वक्त रंजीत ने अपने दम पर दुनिया के सबसे बड़े ऑपरेशन को शुरू करने का फैसला किया। ऐक्टिंग : इस फिल्म में अक्षय कुमार ने एक बार फिर अपने किरदार को पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। एयरलिफ्ट में अक्षय कुमार ने अब तक के अपने फिल्मी करियर की बेहतरीन ऐक्टिंग की है। अक्षय जब स्क्रीन पर देश के राष्ट्रीय ध्वज के साथ नजर आते हैं, तो उनके चेहरे का एक्सप्रेशन देखकर हॉल में बैठे दर्शक इस सीन से बंध जाते हैं। अक्षय की पत्नी के किरदार में निमरत कौर ने अच्छा काम किया है। बाकी के कलाकारों में पूरब कोहली, इनामुल हक और कुमुद मिश्रा ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। डायरेक्शन : राजा मेनन ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह त्याग कर कहानी और किरदारों को पूरी तरह से माहौल में समेटा है। वहीं फिल्म के लगभर हर ऐक्टर से उन्होंने बेहतरीन ऐक्टिंग कराई है। वॉर सीन्स को भी उन्होंने पर्दे पर पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। उनका काम तारीफ के काबिल है। संगीत : ऐसी कहानी में गानों की जरूरत नहीं होती, लेकिन यहां राजा ने गानों का फिल्मांकन ऐसे ढंग से पेश किया है, जो कहानी और माहौल के अनुकूल है। क्यों देखें : अक्षय कुमार को उनके फिल्मी करियर के सबसे बेहतरीन किरदार में देखने के लिए इस फिल्म को देखें। अगर आप अच्छी और मेसेज देने वाली फिल्मों के शौकीन हैं, तो इस फिल्म को फैमिली के साथ देख सकते हैं। ",1 "अगर आप इस फिल्म को देखने जा रहे हैं तो सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि बेशक इस फिल्म के साथ प्रडूयसर कुमार मंगत, डायरेक्टर अश्विनी धीर के नाम के साथ परेश रावल का नाम भी जुड़ा हो लेकिन कुछ साल पहले आई फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' से इस फिल्म का कुछ लेना-देना नहीं है। यूं तो इस फिल्म के क्लाइमैक्स में आपको पिछली फिल्म के हीरो अजय देवगन भी नजर आएंगे लेकिन इन दोनों फिल्मों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इस बार चाचा जी मुंबई की किसी सोसाइटी की बजाय अपने एक अनजान रिश्तेदार के यहां लंदन जा पहुचे हैं और इस बार चाचा जी के साथ चाची जी भी हैं। दूसरी ओर, 'गेस्ट इन लंदन' पिछली फिल्म से टोटली अलग है। इंटरवल से पहले डायरेक्टर ने अपनी ओर से आपको हंसाने की हर मुमकिन कोशिश की है लेकिन इसमें ज्यादा कामयाब नहीं हो पाए तो इंटरवल के बाद क्लाइमैक्स में फिल्म की कहानी में कुछ ऐसा टर्न आता है कि आपकी आखें नम जाती हैं। वैसे, कुमार मंगत अपनी इस फिल्म को भी पिछली फिल्म के सीक्वल के नाम से ही बनाना चाहते थे लेकिन पिछली फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी से कुछ विवाद के चलते बात नहीं बन पाई तो मंगत अपने अतिथि को गेस्ट का नाम दिया तो मुंबई की बजाय गेस्ट के साथ लंदन पहुंच गए। कहानी: लंदन में रहने वाले आर्यन ग्रोवर (कार्तिक आर्यन) का वर्क वीज़ा खत्म होने वाला है और उसे न चाहते हुए भी वर्क वीज़ा खत्म होने के बाद भारत जाना ही होगा। ऐसे में उसके ऑफिस के कुछ साथी सलाह देते हैं कि अगर वह किसी ब्रिटिश मूल की लड़की के साथ डील करके मैरिज कर ले तो उसे लंदन रहने की स्थाई वीजा आसानी से मिल सकता है। आर्यन को यह आइडिया पसंद आता है और वह लंदन में अपनी फ्रेंड्स के साथ रह रहीं ब्रिटिश मूल की अनाया पटेल ( कृति खरबंदा) के साथ मिलकर नकली शादी करने का प्लान बनाता है। दोनों के बीच एक सीक्रेट डील होती है जिसके मुताबिक नकली शादी होने तक अनाया उसी के साथ रहेगी बस इसके अलावा इनके बीच और कोई रिश्ता नहीं होगा। इसी बीच आर्यन को खबर मिलती है कि इंडिया से उसके चाचा (परेश रावल) और चाची (तनवी आजमी) कुछ दिन उनके साथ रहने के लिए आ रहे हैं। वैसे, आर्यन ने चाचा जी को देखा तक नहीं है बस उसके पास अपने किसी रिश्तेदार का फोन आता है कि उसके पड़ोसी लंदन आ रहे हैं, कुछ दिन उसके घर मेहमान बनकर रहेंगे। अनाया से शादी की डील के होने के बाद अनाया भी कार्तिक के घर में ही रहती है। ऐसे में अचानक इसी घर में चाचा और चाची जी की एंट्री के बाद क्या कोहराम मचता है, यह मजेदार है। फिल्म में परेश रावल और तनवी आजमी दोनों की ऐक्टिंग का जवाब नहीं है। इन दोनों के बीच गजब की ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री का इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। वहीं चाचा जी एकबार फिर पिछली फिल्म के चाचा जी की याद दिलाते हैं। कार्तिक आर्यन और कीर्ति खरबंदा की जोड़ी क्यूट और फ्रेश लगी तो दोनों अपने-अपने किरदार में फिट भी नजर आए। डायरेक्टर अश्विनी धीर की इंटरवल से पहले फिल्म पर कहीं पकड़ नजर नहीं आती, ऐसा लगता है इंटरवल तक उनके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं, लेकिन आखिरी बीस मिनट में धीर फिल्म को ट्रैक पर लाने में कामयाब रहे। राघव सच्चर और अमित मिश्रा का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है, खासकर फिल्म के दो गाने 'दारू विच प्यार' और 'फ्रेंकी तू सोणा नच दी' का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है और जेनएक्स की कसौटी पर यह गाने फिट बैठ सकते हैं। अगर आप परेश रावल के पक्के फैन हैं तो गेस्ट से मिलने जाएं लेकिन इस बार अतिथि वाली बात नजर नहीं आएगी। ",0 "बॉलीवुड वाले चोरी-छिपे हॉलीवुड फिल्मों से कहानियां और दृश्य चुराया करते थे। उन पर न केवल हॉलीवुड वालों ने लगाम कसी बल्कि अपनी हिट फिल्म 'नाइट एंड डे' का हिंदी रिमेक 'बैंग बैंग' नाम से बनाया है। फॉक्स स्टार स्टुडियो के लिए डेढ़ सौ करोड़ रुपये की लागत से फिल्म बनाना मामूली बात है, लेकिन हिंदी फिल्म में इतने दाम में शायद ही किसी ने फिल्म बनाई हो। इतनी महंगी फिल्म होने से दर्शकों की उम्मीद का बढ़ना भी स्वाभाविक है। फिल्म में जबरदस्त एक्शन, शानदार लोकेशन और बॉलीवुड के दो खूबसूरत चेहरे हैं, जो रोमांचित करते हैं, लेकिन साथ ही फिल्म में कई बोरियत से भरे लम्हों को भी झेलना पड़ता है। फिल्म ठीक-ठाक है, देखी जा सकती है, लेकिन ऐसी भी नहीं है जो लंबे समय तक याद की जा सके। जरूरी नहीं है कि ज्यादा पैसा लगाने से ही फिल्म अच्छी बनती हो। बैंक रिसेप्शनिस्ट हरलीन (कैटरीना कैफ) शिमला में बोरिंग लाइफ जी रही है। जिंदगी में रोमांच लाने के लिए 'ट्रू लव डॉट कॉम' वेबसाइट के जरिये एक अनजान शख्स विक्की के साथ वह ब्लाइंड डेट फिक्स करती है। राजवीर (रितिक रोशन) को वह विक्की समझ लेती है। बात कुछ आगे बढ़े इसके पहले ही राजवीर पर कुछ लोग गोलियों की बरसात करते हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि हरलीन को न चाहते हुए भी राजवीर के साथ रहना पड़ता है। दरअसल राजवीर ने कोहिनूर हीरा चुरा रखा है, जिसे पाने के लिए पुलिस और एक गैंग उसके पीछे लगे हुए हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट को सुभाष नायर और सुजॉय घोष ने लिखा है। इस एक्शन मूवी को हरलीन के नजरिये से दिखाया गया है। हरलीन के दिमाग में राजवीर को लेकर कई सवाल है, जो दर्शकों के दिमाग में भी पैदा होते हैं। जैसे वह कौन है? क्या चाहता है? उसके पीछे लोग और पुलिस क्यों पड़ी है? उसकी आगे की क्या योजना है? कोहिनूर हीरा उसने क्यों चुराया है? इनके जवाब फिल्म में लंबे समय तक नहीं मिलते हैं और कई बार झुंझलाहट भी होती है कि आखिर बात को इतना खींचा क्यों जा रहा है। धीरे-धीरे सवालों के जवाब मिलते हैं, लेकिन इनके जवाब दर्शक अपनी समझ से पहले ही पा लेता है। फिल्म में कहानी जैसा कुछ नहीं है और सारा दारोमदार इस बात पर है कि परदे पर जो घटनाक्रम चल रहा है उसके जरिये दर्शकों को बांधा जाए। राजवीर-हरलीन तथा उनको पकड़ने वालों की भागमभाग का सफर है उसमें दर्शकों को मजा आए। पूरी फिल्म एक क्लाइमैक्स की तरह लगती है। राजवीर-हरलीन इस देश से उस देश भागते रहते हैं। इस भागमभाग में एक्शन, रोमांस और कॉमेडी है। ये सफर कई बार मजेदार लगता है तो कई बार बोरिंग। एक्शन के आते ही फिल्म अपने चरम पर आ जाती है, रोमांस ठीक-ठाक है, लेकिन ड्रामा इसकी कमजोर कड़ी है। फिल्म के विलेन का कोहिनूर को चोरी करवाने का जो कारण बताया गया है वो बेहद लचर है। फिल्म का निर्देशन सिद्धार्थ आनंद ने किया है। एक ऐसे शख्स पर डेढ़ सौ करोड़ रुपये लगाना जिसने अभी तक ढंग की हिट नहीं बनाई है, आश्चर्य की बात है। सिद्धार्थ के सामने 'नाइट एंड डे' मौजूद थी, इसलिए उनका काम आसान था। प्रस्तुतिकरण में उन्होंने ध्यान रखा कि यह अंग्रेजी फिल्म जैसी स्टाइलिश लगे, लेकिन बॉलीवुड के फॉर्मूले से भी वे बच नहीं पाए। खलनायक को उन्होंने टिपिकल तरीके से पेश किया। सिद्धार्थ के निर्देशन में वो कसावट नजर नहीं आती है जो 'नाइट एंड डे' के प्रस्तुतिकरण में है। फिल्म का एक्शन सबसे बड़ा प्लस पाइंट है, हवाई जहाज, स्टीमर, कारों के जरिये रोमांच पैदा किया गया है और इन एक्शन सींस को बहुत ही सफाई के साथ फिल्माया गया है। इंटरवल के ठीक पहले कार चेजिंग सीन लाजवाब है। बॉलीवुड के दो सबसे खूबसूरत चेहरे रितिक रोशन और कैटरीना कैफ की जोड़ी शानदार है। रितिक रोशन को बहुत कम कपड़े पहनने को दिए गए हैं ताकि वे अपनी बॉडी का प्रदर्शन कर सके। इस रोल को निभाने के लिए जिस स्टाइल और एटीट्यूड की जरूरत थी उस पर रितिक खरे उतरे हैं। एक्शन सीन उन्होंने बखूबी निभाए। कैटरीना कैफ बेहद मासूम और खूबसूरत लगी। बात को थोड़ा देर से समझने वाली लड़की का किरदार उन्होंने अच्‍छे से निभाया। कैटरीना और उनकी दादी के बीच के दृश्य अच्‍छे हैं। डैनी को कम फुटेज मिले हैं। जावेद जाफरी और पवन मल्होत्रा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फिल्म में दो-तीन गाने अच्छे हैं। 'तू मेरी' में रितिक का डांस देखने लायक है। बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को भव्य बनाता है। फोटोग्राफी, लोकेशन और तकनीकी रूप से फिल्म दमदार है। कुल मिलाकर 'बैंग बैंग' तभी अच्‍छी लगेगी जब ज्यादा उम्मीद लेकर थिएटर में न जाया जाए। यूं तो फिल्म ढाई स्टार के लायक है, लेकिन एक्शन की वजह से आधा स्टार अतिरिक्त दिया जा सकता है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो निेर्देशक : सिद्धार्थ आनंद संगीत : विशाल शेखर कलाकर : रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, डैनी, जावेद जाफरी, पवन मल्होत्रा सेंसर सर्टिफिकेट : युए * 2 घंटे 36 मिनट ",1 "बैनर : संजय दत्त प्रोडक्शन्स प्रा.लि., रुपाली ओम एंटरटेनमेंट प्रा.लि निर्माता : संजय दत्त, संजय अहलूवालिया, विनय चौकसे निर्देशक : डेविड धवन संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : संजय दत्त, अजय देवगन, कंगना, अर्जुन रामपाल, लीसा हेडन, चंकी पांडे, सतीश कौशिक सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 8 मिनट * 15 रील रासकल्स के गाने में एक लाइन है ‘गए गुजरे रासकल्स’ और यह बात फिल्म पर एकदम सटीक बैठती है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोग गए गुजरे हैं। फिल्म बेहद लाउड है और हर डिपार्टमेंट का काम खराब है। चाहे वो एक्टिंग हो, म्यूजिक हो या डायरेक्शन। डेविड धवन अपना मिडास टच खो बैठे हैं और रासकल्स में कॉमेडी के नाम पर बेहूदा हरकतें उन्होंने करवाई हैं। संजय दत्त सौ प्रतिशत इसलिए फिल्म में हैं क्योंकि वे निर्माता हैं वरना वे इस रोल के लायक हैं ही नहीं। वे पचास पार हैं और बुढ़ा गए हैं। परदे पर वे अपने से उम्र में आधी कंगना के साथ चिपका-चिपकी करते हैं तो सीन बचकाना लगता है। ये बात सही है कि सलमान या आमिर भी अपने से कहीं छोटी उम्र हीरोइन के साथ परदे पर रोमांस करते हैं, लेकिन वे अभी भी फिट हैं। उनमें ताजगी नजर आती हैं। ये बात संजू बाबा में नहीं है और वे फिल्म की बहुत ही कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। और भी कई कड़ियां कमजोर हैं। मसलन कहानी नामक कोई चीज फिल्म में नहीं है। दो छोटे-मोटे चोर एक पैसे वाली लड़की को पटाने में लगे हैं। लड़की के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है कि वह कौन है? कितनी अमीर है? जहां वह मिलती है कि फिल्म के दोनों हीरो उससे ऐसे चिपटते हैं जैसे गुड़ से मक्खी। फिल्म के 90 प्रतिशत हिस्से में यही सब चलता रहता है। ये सभी लोग बैंकॉक की सेवन स्टार होटल में रूके हुए हैं और वही पर डेविड ने पूरी फिल्म बना डाली है। होटल की लॉबी, स्विमिंग पुल, रूम, गार्डन कोई हिस्सा उन्होंने नहीं छोड़ा है। ढेर सारे हास्य दृश्यों को जोड़कर उन्होंने फिल्म तैयार कर दी है। इन दृश्यों में भी इतना दम नहीं है कि दर्शक कहानी की बात भूल जाएं। युनूस सेजवाल का स्क्रीनप्ले बेहद घटिया है और सैकड़ों बार देखे हुए दृश्यों को उन्होंने फिर परोसा है। कुछ ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देख मुस्कान आती है तो दूसरी ओर फूहड़ दृश्यों की संख्या ज्यादा है। एक प्रसंग में तो भूखे और गरीब बच्चों तक का मजाक बना डाला है। फिल्म के क्लाइमैक्स में दर्शकों को चौंकाने की असफल कोशिश की गई है। संवादों के नाम पर संजय छैल ने घटिया तुकबंदी लिख दी है, जैसे भोसले के हौंसले ने दुश्मनों के घोसले तोड़ दिए या जिंदगी में मौत, फिल्मों में आइटम नंबर और ये एंथनी कभी भी टपक सकता है। निर्देशक के रूप में डेविड धवन प्रभावित नहीं करते हैं। अधूरे मन से उन्होंने फिल्म पूरी की है। अजय देवगन ने अपना पूरा जोर लगाया है, लेकिन खराब स्क्रिप्ट की कमियों को वे नहीं ढंक पाए। संजय दत्त का अभिनय बेहद खराब है और उन्हें उम्र के मुताबिक रोल ही चुनना चाहिए। कुछ दृश्यों में वे विग के तो कुछ में बिना विग के नजर आएं। कॉमेडी करना कंगना की बस की बात नहीं है ये बात एक बार फिर साबित हो गई। उनका मेकअप भी फिल्म में बेहद खराब था। छोटे-से रोल मे लीसा हेडन प्रभावित करती हैं। ‘शेक इट सैंया’ में वे सेक्सी नजर आईं। सतीश कौशिक, चंकी पांडे जैसे बासी चेहरों ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अनिल धवन फिल्म के निर्देशक के बड़े भाई हैं, इसलिए वे भी छोटे-से रोल में नजर आएं, लेकिन उनसे संवाद बोलते नहीं बन रहे थे। अर्जुन रामपाल ने अपना काम ठीक से किया है। विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध गाने जब परदे पर आते हैं तो दर्शक उनका उपयोग ब्रेक के लिए करते हैं। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। एक अच्छी हास्य फिल्म के लिए उम्दा सिचुएशन, एक्टर्स की टाइमिंग और चुटीले संवाद बेहद जरूरी है। अफसोस की बात ये है कि रासकल्स हर मामले में कमजोर है। ",0 " चश्मे बद्दूर (1981) एक क्लासिक मूवी है, जिसे सई परांजपे ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने लीड रोल निभाए थे। चश्मे बद्दूर की कहानी इतनी बढ़िया है कि इस पर समय की धूल नहीं जम सकती। पचास वर्ष बाद भी इस पर फिल्म बनाई जा सकती है। टीनएजर्स और युवाओं को यह कहानी बेहद अपील करती है। तीन दोस्त हैं। दो लंपट और एक सीधा-सादा। उनके पड़ोस में एक लड़की रहने आती है। लंपट दोस्त उस लड़की को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन मुंह की खाते हैं। इस बात को छिपाते हुए वे अपने दोस्तों को नमक-मिर्च लगाकर किस्से बताते हैं और लड़की को बदनाम करते हैं। जब दोनों दोस्तों को पता चलता है कि उनके सीधे-सादे दोस्त का इश्क उसी लड़की से चल रहा है तो वे ईर्ष्या की आग में जल कर दोनों के बीच गलतफहमी पैदा करने में सफल रहते हैं। बाद में उन्हें गलती का अहसास होता है तो वे इसे सुधारते हैं। इस कहानी में अश्लीलता और फूहड़ता के तत्व घुसाने के सारी संभावनाएं मौजूद हैं, लेकिन सई ने कहानी की मा‍सूमियत को जिंदा रखते हुए बिना अश्लील हुए बेहतरीन तरीके से इसे स्क्रीन पर पेश किया था। रीमेक डेविड धवन ने बनाया है जो माइंडलेस और फूहड़ सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। सई इस बात को लेकर खफा भी हैं कि डेविड उनकी क्लासिक फिल्म को फिर बना रहे हैं। डेविड अपना सर्वश्रेष्ठ भी दें तो भी वे सई के नजदीक नहीं फटक सकते हैं। अपनी आदत के मुताबिक वे थोड़े बहके भी हैं, लेकिन सीमा में रहकर। कुल मिलाकर उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई है जिसे हंसते हुए देखा जा सकता है। रास्कल जैसी फिल्म बनाने के बाद लगने लगा था कि डेविड अब चूक गए हैं, लेकिन उन्होंने अच्छी वापसी की है और बिना सितारों के फिल्म बनाने का साहस किया है। चश्मे बद्दूर (2013) पुरानी फिल्म की सीन दर सीन कॉपी नहीं है, लेकिन उसका एसेंस (अर्क) इस फिल्म में मौजूद है। कुछ उम्दा सीन को दोहराया गया है, जैसे चमको वॉशिंग पाउडर वाला सीन, और आज के दर्शक के टेस्ट के मुताबिक जरूरी बदलाव किए हैं। पिछली बार कहानी दिल्ली की थी, यहां गोआ आ गया है, हालांकि इसको बदलने से कुछ खास बदलाव नहीं दिखता। अनुपम खेर का डबल रोल डेविड ने अपनी स्टाइल में डाला है, घटिया शायरी और एसएमएस वाले जोक भी सुनने को मिलते हैं, लेकिन इनका संतुलन सही है, इसलिए ये अखरते नहीं हैं। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां भी हैं। मसलन जोसेफ और जोसेफीन की शादी कराने वाले दोस्त अचानक इसके खिलाफ क्यों हो जाते हैं। कुछ घटनाक्रम लगातार दोहराए गए हैं जो खीज पैदा करते हैं। 1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत चश्मे बद्दूर (2013) की खासियत है इसकी ताजगी और ऊर्जा। डेविड ने कहानी को ऐसा दौड़ाया है कि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता और वह फिल्म में एंगेज रहता है। एक के बाद एक मजेदार सीन आते हैं और ज्यादातर हंसाने में कामयाब रहते हैं। खासतौर पर द्विव्येन्दु शर्मा और सिद्धार्थ वाले सीन। कहने को तो फिल्म के हीरो अली जाफर हैं, लेकिन सही मानों में द्विव्येन्दु और सिद्धार्थ का रोल पॉवरफुल है। उन्हें बेहतरीन सीन और संवाद मिले हैं। दोनों में सिद्धार्थ बाजी मार ले जाते हैं। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है। अली जाफर से ओवर एक्टिंग कराई गई है और कई बार वे देवआनंद की मिमिक्री करते नजर आएं। तापसी पन्नु निराश करती हैं। ऋषि कपूर और लिलेट दुबे वाला ट्रेक हम सैकड़ों फिल्मों में देख चुके हैं और ये बोर करता है। अनुपम खेर और भारती आचरेकर हंसाने में कामयाब रहे हैं। साजिद-फरहाद के वन लाइनर दमदार हैं और ज्यादातर हास्य उनके लिखे संवादों से ही पैदा हुआ है। खासतौर पर सिद्धार्थ और द्विव्येन्दु के लिए उन्होंने अच्छे डॉयलाग लिखे हैं। गानों का फिल्मांकन और स्टाइल 80 के दशक वाला रखा गया है। शायद इसीलिए एक गाने ढिचकियाऊं में उस दौर के गीतों की तर्ज पर ऊटपटांग बोल हैं। कुछ पुराने हिट गानों का भी सहारा लिया गया है। डेविड धवन ने अपनी शैली का तड़का लगाकर ‘चश्मे बद्दूर’ बनाई है। पुरानी चश्मे बद्दूर से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने ऐसी फिल्म तो बनाई है जिसे ढेर सारे पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखा जा सकता है। हालांकि जो तालियां डेविड के लिए बजती हैं, सही मायनों में 80 प्रतिशत की हकदार सई परांजपे हैं क्योंकि मूल काम तो उनका है। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्देशक : डेविड धवन संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : अली जफर, सिद्धार्थ, द्विव्येन्दु शर्मा, तापसी पन्नू, ऋषि कपूर, अनुपम खेर सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 56 सेकंड बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 " दिल्ली की एक पांच सितारा होटल में डैन (वरुण धवन) होटल मैनेजमेंट ट्रैनी है। यह काम उसे खास पसंद नहीं है और वह बात-बात में चिढ़ता है। तौलियों से वह जूते पोंछ कर गुस्सा निकालता है। होटल में आए ग्राहकों पर भी वह आपा खो बैठता है और अक्सर अपने सीनियर्स से डांट खाता है। शिउली (बनिता संधू) भी उसके साथ ट्रैनी है। दोनों के बीच कोई खास रिश्ता नहीं है। एक‍ दिन पार्टी करते हुए शिउली तीसरी मंजिल से नीचे गिर जाती है और कोमा में पहुंच जाती है। अस्पताल में डैन उससे अनिच्छा से मिलने जाता है। उसकी हालत देख वह परेशान हो जाता है और रोजाना उससे मिलने जाने लगता है। शिउली के भाई, बहन और मां से वह कभी नहीं मिला था, लेकिन धीरे-धीरे वह उनके करीब आकर फैमिली मेम्बर की तरह बन जाता है। 'अक्टूबर' में डैन के हमें दो रूप देखने को मिलते हैं। वह दुनियादारी और नियम-कायदों से चलने पर चिढ़ता है। वह ऐसी राह पर था जिस पर चलना उसे पसंद नहीं है, लिहाजा वह बात-बात पर उखड़ने लगता है। उसे किसी तरह का दबाव पसंद नहीं है और दबाव पड़ने पर वह फट जाता है। होटल में उसके काम करने की शैली से उसके व्यवहार की झलक हमें मिलती है। उसके इसी व्यवहार के कारण उसे कोई बहुत ज्यादा पसंद नहीं करता और दोस्त भी उसे प्रेक्टिकल होने के लिए कहते हैं। दोस्तों से डैन को पता चलता है कि ऊपर से नीचे गिरने के पहले शिउली ने पूछा था कि डैन कहां है? यह बात उसके दिल को छू जाती है। उसे महसूस होता है कि किसी ने उसके बारे में भी पूछा है तो वह नि:स्वार्थ भाव से शिउली की अस्पताल में सेवा करता है। यह जानते हुए भी कि शिउली कोमा में हैं वह उससे बात करता है और उसके प्रयासों से ही शिउली में इम्प्रूवमेंट देखने को मिलता है। डैन का होटल से अलग रूप हॉस्पिटल में देखने को मिलता है। यहां उसकी अच्छाइयां नजर आती हैं। वह शिउली के ठीक होने की आशा उसके परिवार वालों में जगाए रखता है। होटल में नियम तोड़ने वाले डैन को जब हॉस्पिटल में बिस्किट खाने से रोका जाता है तो वह मुंह से बिस्किट निकाल लेता है। होटल के व्यावसायिक वातावरण में शायद उसका दम घुटता था, जहां दिल से ज्यादा दिमाग की सुनी जाती है। हॉस्पिटल में दिल की ज्यादा चलती थी इसलिए वह नर्स और गार्ड से भी बतिया लेता था। जूही चतुर्वेदी ने फिल्म की स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। जूही ने 'अक्टूबर' के माध्यम से कहने की कोशिश की है कि व्यक्ति का व्यवहार पूरी तरह से परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इसलिए उसका आंकलन करते समय सभी बातों पर गौर करना चाहिए। फिल्म में घटनाक्रम और संवाद बेहद कम हैं। साथ ही कहानी भी बेहद संक्षिप्त है, इसलिए निर्देशक शूजीत सरकार के कंधों पर बहुत ज्यादा भार था। शूजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह फिल्म दो घंटे से कम होने के बावजूद लंबी लगती है और फिल्म की स्लो स्पीड से कई लोगों को शिकायत हो सकती है। लेकिन शूजीत, डैन के मन में उमड़ रहे भावनाओं के ज्वार से दर्शकों का कनेक्शन बैठाने में कामयाब रहे हैं। निश्चित रूप से यह बात बेहद कठिन थी। जुड़वां 2 और मैं तेरा हीरो जैसी फॉर्मूला फिल्मों के बीच वरुण धवन 'बदलापुर' और 'अक्टूबर' जैसी फिल्में भी करते रहते हैं जो यह दर्शाता है कि लीक से हट कर फिल्म करने की चाह उनमें मौजूद है। यह पूरी फिल्म उनके ही कंधों पर थी और उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। हर सिचुएशन में उनके किरदार की प्रतिक्रिया और सोच एकदम अलग होती है और इस बात को उन्होंने अपने अभिनय से निखारा है। बनिता संधू ने बमुश्किल एक-दो संवाद बोले होंगे। ज्यादातर समय उन्हें मरीज बन कर बिस्तर पर लेटना ही था, लेकिन उन्होंने काफी अच्छे एक्सप्रेशन्स दिए। शिउली की मां के रूप में गीतांजलि राव और डैन के सीनियर के रूप में प्रतीक कपूर का अभिनय भी जोरदार है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। ठंड और कोहरे में लिपटी दिल्ली, आईसीयू और फाइव स्टार के माहौल को उन्होंने कैमरे से बखूबी पकड़ा है। शूजीत सरकार की फिल्मों से जो अपेक्षा रहती हैं उस पर भले ही फिल्म पूरी नहीं उतर पाती हो, लेकिन देखी जा सकती है। टेस्ट क्रिकेट को देखने वाले धैर्य की जरूरत इस फिल्म को देखते समय भी पड़ती है। बैनर : राइजि़ंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन निर्माता : रॉनी लाहिरी, शील कुमार निर्देशक : सुजीत सरकार संगीत : शांतुनु मोइत्रा, अनुपम रॉय, अभिषेक अरोरा कलाकार : वरुण धवन, बनिता संधू, गीतांजलि राव, प्रतीक कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 55 मिनट 30 सेकंड ",1 " हसीना एक घरेलू लड़की थी, लेकिन भाई के भाग जाने और पति की हत्या के बाद कहा जाता है कि दाऊद का साम्राज्य उसने संभाल लिया और बतौर दाऊद की प्रतिनिधि भारत में काम किया। एक तरह से वह महिला डॉन थी जिससे लोग दाऊद के कारण घबराते थे। उसने कई मामलों को निपटाया और उसके दरबार में सैकड़ों लोग अपनी परेशानी लेकर आते थे। फिल्म में दिखाया गया है कि हसीना पर अदालत में मामला चल रहा है। एक बिल्डर ने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। वकील उससे सवाल करते हैं और जवाब में फिल्म बार-बार पीछे की ओर जाती है और तारीखवार उन घटनाओं का ब्यौरा दिखाया गया है जो हसीना के जीवन में घटते हैं। हसीना पारकर के बारे में लोगों ने ज्यादा सुना नहीं है और न ही लोगों को उनके बारे में ज्यादा जानकारी है। दाऊद और उसके स्नेह भरे संबंध, फिर उसकी शादी होना, खुशहाल जिंदगी जीना इन सब घटनाओं से भला किसी को क्या सरोकार है? इन बातों पर बहुत सारे फुटेज खर्च किए गए हैं। एक घरेलू महिला से वह दाऊद का काम कैसे संभालती है, यह बदलाव फिल्म में ठीक से नहीं दिखाया गया है। अचानक वह दाऊद की सत्ता संभाल लेती है और लोग उससे डरने लगते हैं। फिल्म में यह बात देखना एक झटके जैसा लगता है कि अचानक इतना बड़ा बदलाव कैसे आ गया? फिल्म गहराई में नहीं जाती और सतह पर तैरती रहती है। फिल्म में यह बात स्थापित करने की कोशिश की गई है कि हालात का शिकार होने के कारण उसे सब यह करना पड़ा ताकि दर्शकों को उसके प्रति हमदर्दी हो, लेकिन हसीना आपा से दर्शक हमदर्दी क्यों करें? फिल्म में कई बातें अस्पष्ट भी हैं, जैसे- हसीना के बेटे को किसने मारा, दर्शाया ही नहीं गया। निर्देशक अपूर्व लाखिया ने स्क्रिप्ट की कमियों पर ध्यान नहीं दिया। उनका प्रस्तुतिकरण कन्फ्यूजिंग है। इतनी बार फिल्म पीछे जाती है, बार-बार तारीखें दिखाई जाती हैं ‍कि सब याद रखना आसान नहीं है। हसीना को जिसके लिए अदालत बुलाया गया था वो बात दिखाई ही नहीं गई है और उससे दूसरी बातों पर ही सवाल किए जाते हैं। कोर्ट रूम ड्रामा भी नाटकीय है और गंभीरता का अभाव है। हसीना पर गाने फिल्माना भी दर्शाता है कि निर्देशक बॉलीवुड लटके-झटके छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। श्रद्धा कपूर का अभिनय देखने लायक है। हसीना आपा के किरदार को उन्होंने पूरी फिल्म में पकड़ कर रखा है और सारी भाव-भंगिमाओं को अच्छे से दिखाया है। उम्रदराज हसीना के रोल में वे युवा नजर आती हैं और यहां उन्हें उम्रदराज दिखाया जाना जरूरी था। श्रद्धा के भाई सिद्धांत कपूर ने दाऊद का किरदार निभाया है और उसे स्टीरियोटाइप पेश किया गया है जैसा हम हर फिल्म में दाऊद को देखते हैं। सिद्धांत का काम औसत से बेहतर है। महिला वकील के रूप में प्रियंका सेठिया को लंबा रोल मिला है जो उन्हें बेहतरीन तरीके से निभाया है। अंकुर भाटिया का अभिनय भी अच्छा है। कुल मिलाकर 'हसीना पारकर' विषय की गहराई में नहीं उतरते हुए छूती हुई निकल जाती है। बैनर : स्विस एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : नाहिद खान निर्देशक : अपूर्व लाखिया संगीत : सचिन जिगर कलाकार : श्रद्धा कपूर, सिद्धांत कपूर, अंकुर भाटिया, प्रियंका सेठिया सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट 51 सेकंड ",0 "जैसा कि फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि हर बार की तरह इस बार भी मिशन इम्पॉसिबल सीरीज का नायक टॉम क्रूज दुनिया को बचाने की खातिर एक असम्भव मिशन पर है। यह मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की छठी फिल्म है। फिल्म की कहानी इससे पिछली फिल्म मिशन इम्पॉसिबल : रोग नेशन को आगे बढ़ाती है। पिछली फिल्म में टॉम ने बागी ब्रिटिश एजेंट सोलोमन लेन (शॉन हैरिस) को गिरफ्तार किया था। इस बार फिल्म में नायक ईथन हंट (टॉम क्रूज) की इम्पॉसिबल मिशन फोर्स (आईएमएफ) को आतंकवादी जॉन लार्क और उसके करीबियों की तलाश है, जोकि दुनिया भर में परमाणु विस्फोट कर तबाही मचाना चाहता है। सोलोमन भी इस साजिश में शामिल है।एक सेफ हाउस में रह रहे ईथन को इस मिशन की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बर्लिन में प्लूटोनियम हासिल करने के मिशन के दौरान ईथन के अपने साथी को बचाने के चलते प्लूटोनियम उसके हाथ से निकल गया था। इसलिए इस बार उनके काम में अड़ंगा लगाने के लिए सीआईए डायरेक्टर ने अपने एक आदमी अगस्त वालकर (हेनरी काविल) को भी उनकी टीम में शामिल किया है। वालकर कदम-कदम पर ईथन की राह में रोड़े अटकाता है और उसे धोखा भी देता है। ईथन को जॉन लार्क को प्लूटोनियम खरीदने से रोकना है। इस मिशन में टीम आईएमएफ के अलावा ब्रिटिश जासूस और ईथन की पुरानी दोस्त इलसा फास्ट (रेबेका फर्गुसन) भी उसके साथ आ जाती है और कई मौकों पर उसकी मदद करती है। खास बात यह है कि फिल्म की कहानी आखिर में भारत के सियाचिन आती है। बहरहाल, ईथन अपने मिशन में कामयाब हो पाता है या नहीं यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा।टॉम क्रूज हर बार की तरह शानदार लगे हैं। खास बात यह है कि उनकी 56 साल की उम्र भी बेहतरीन एक्शन सीन्स में आड़े नहीं आती। वरना इस मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की पहली फिल्म करीब 22 साल पहले 1996 में आई थी। तब से लेकर अब तक टॉम क्रूज ने इसे अपने दम पर आगे बढ़ाया है और हर बार फैंस को पहले से बेहतर एक्शन सीन्स का तोहफा दिया है। इस बार भी फिल्म जबर्दस्त एक्शन सीन्स दिखाए गए हैं, जो आपकी सांसें थाम देते हैं। खासकर हेलिकॉप्टर वाले सीन देखने लायक हैं। फिल्म के कई सीन्स में बेहतरीन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी दर्शकों को हैरान करता है। फिल्म के राइटर और डायरेक्टर क्रिस्टोफर मैक्वेरी ने एक बार फिर बेहतरीन एक्शन ड्रामा रचा है। फिल्म में जबर्दस्त एक्शन से लेकर रोमांच तक सब कुछ है। टॉम के बाकी साथियों ने भी बढ़िया एक्टिंग की है। खासकर सीआईए एजेंट का रोल करने वाले हेनरी काविल कई सीन्स में हैरान करते हैं। इस हफ्ते अगर आप जबर्दस्त एक्शन और रोमांच देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को मिस ना करें।",1 "IFM IFM IFM IFM निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : शिमित अमीन पटकथा-संवाद-गीत : जयदीप साहनी संगीत : सलीम-सुलेमा न कलाकार : शाहरुख खान, विद्या मालवदे, अंजन श्रीवास्तव, जावेद खान भारत में खेलों पर आधारित फिल्में गिनती की बनी हैं। खुशी की बात है कि पिछले एक-दो वर्षों से फिल्मों में भी खेल दिखाई देने लगा है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और इस समय यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। इस खेल पर फिल्म बनाकर निर्देशक शिमित अमीन ने एक साहसिक काम किया है। ‘चक दे इंडिया’ कबीर खान की कहानी है, जो कभी भारतीय टीम का श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड रह चुका था। पाकिस्तान के विरूद्ध एक फाइनल मैच में वह अंतिम क्षणों में पेनल्टी स्ट्रोक के जरिये गोल बनाने में चूक गया और भारत मैच हार गया। मुस्लिम होने के कारण उसकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया। उसे गद्दार कहा गया। उस मैच के बाद खिलाड़ी के रूप में उसका कॅरियर खत्म हो गया। सात वर्ष बाद वह महिला हॉकी टीम का प्रशिक्षक बनता है। इस टीम को विश्व चैम्पियन बनाकर वह अपने ऊपर लगे हुए दाग को धोना चाहता है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं थी। इन लड़कियों का ध्यान खेल पर कम था। वे केवल नाम के लिए खेलती थीं। अलग प्रदेशों से आई इन लड़कियों में एकता नहीं थी। सीनियर खिलाडि़यों की दादागीरी थी। कबीर इन खिलाडि़यों के दिमाग में यह बात डालता है कि वे भारतीय पहले हैं, फिर वे महाराष्ट्र या पंजाब की हैं। फिर शुरू होता है प्रशिक्षण का दौर। हर तरफ से बाधाएँ आती हैं और कबीर इन बाधाओं को पार कर अंत में अपनी टीम को विजेता बनाता है। कहानी बड़ी सरल है, लेकिन जयदीप साहनी की पटकथा इतनी उम्दा है कि पहली फ्रेम से ही दर्शक फिल्म से जुड़ जाता है। छोटे-छोटे दृश्य इतने उम्दा तरीके से लिखे और फिल्माए गए हैं कि कई दृश्य सीधे दिल को छू जाते हैं। शाहरुख जब अपनी टीम का परिचय प्राप्त करते हैं तो जो लड़की अपने नाम के साथ अपने प्रदेश का नाम जोड़ती है, उसे वे बाहर कर देते हैं और अपने नाम के साथ भारत का नाम जोड़ने वाली लड़की को वे शाबाशी देते हैं। ये उन लोगों पर करारी चोट है, जो प्रतिभा खोज कार्यक्रम में प्रतिभा चुनते समय अपने प्रदेश के पहले होते हैं और भारतीय बाद में। ऑस्ट्रेलिया में स्टेडियम के बाहर खड़े शाहरुख एक विदेश ी कर्मचारी को भारत का तिरंगा लगाते हुए देखते रहते हैं। एक खिलाड़ी उनसे आकर पूछती है कि सर आप यहाँ क्या कर रहे है ं, तो शाहरुख का जवाब होता है कि मैं एक गोरे को तिरंगा फहराते हुए पहली बार देख रहा हूँ। भारत के लिए खेले एक श्रेष्ठ ‍हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति क्या होती है, ये निर्देशक ने शाहरुख को एक खटारा स्कूटर पर बैठाकर बिना संवाद के जरिये बयाँ कर दी। महिला टीम होन े क े कार ण इन्हे ं पुरुषों की छींटाकशी ‍का‍ शिकार भी होना पड़ता है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। शाहरुख एक जगह संवाद बोलते हैं 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'। शिमित का निर्देशन बेहद शानदार है। एक चुस्त पटकथा को उन्होंने बखूबी फिल्माया है। वे हॉकी के जरिये दर्शकों में राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ जगाने में कामयाब रहे। एक सीन में मैच के पूर्व जब ‘जन-गण-मन’ की धुन बजती है, तो थिएटर में मौजूद दर्शक सम्मान में खड़े हो जाते हैं। फिल्म में हर मैच के दौरान सिनेमाघर में उपस्थित दर्शक भारतीय टीम का इस तरह उत्साह बढ़ाते हैं, जैसे स्टेडियम में बैठकर वे सचमुच का मैच देख रहे हों। प्रत्येक दर्शक टीम से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है और यहीं पर शिमित की कामयाबी दिखाई देती है। शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है। उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है। फिल्म में गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है। जयदीप साहनी के संवाद सराहनीय है। कुल मिलाकर ‘चक दे इंडिया’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ",1 "अंकुर कुमार युद्ध के बीच प्यार का मेसेज देने वाली कई फिल्में हॉलिवुड में आ चुकी हैं। इसके बावजूद मैट रिव्स की 'वॉर फॉर द प्लैनेट ऑफ एप्स' का इंतजार बड़ी बेसब्री से हो रहा था। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार फिल्म रिलीज हो गई। पहले यह पिछले साल रिलीज होने वाली थी। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की नई रिबूटेड फ्रेंचाइजी की यह तीसरी फिल्म है, जिसे रिलीज होने से पहले ही ऑस्कर कंटेंडर वाली मूवी कहा जाने लगा था। हॉरर सीरिज फिल्म कल्वरफिल्ड के लिए पहचाने जाने वाले मैट रिव्स ने इससे पहले 2014 में रिलीज हुई इस फ्रेंचाइजी की दूसरी फिल्म 'डॉन ऑफ द प्लैनेट ऑफ़ एप्स' भी डायरेक्ट की थी। इसकी कहानी भी वहीं से आगे बढ़ती है। इसके विजुअल इफेक्ट्स, इमोशनल सीन और एक्शन से आप फिल्म के अंत तक बंध जाते हैं। कहानी: साइंस एक्सपेरिमेंट से तेज और चालाक बन जाने वाला सीजर वानरों का अलग साम्राज्य बनाकर ग्रुप का लीडर बन चुका है। साम्राज्य के उदय के दो साल बाद सीजर और उसकी वानर सेना मानवों की मिलिट्री टीम अल्फा-ओमेगा के साथ लड़ाई लड़ रही है। टीम को वानरों के दूसरे गुट के लीडर रेड का साथ मिला हुआ है। जिस वायरस सिमियन फ्लू की वजह से वानर तेज और चालाक बने थे, उसी वायरस की वजह से अब मानव जाति अपनी भाषा और ज्ञान खो रही है। ऐसे में वानर और इंसानों के बीच प्लैनेट पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो चुकी है। अल्फा-ओमेगा का विवादित लीडर कर्नल मैक कलोग न सिर्फ वानरों से नफरत करता है, बल्कि वह वायरस से संक्रमित होने वाले इंसानों को भी मारने में यकीन रखता है। कर्नल मैक कलोग द्वारा अपने परिवार के खात्मे के बाद वानरों को बचाने के लिए उनका मसीहा सीजर कर्नल से मिलने जाता है। अब क्या कर्नल मैक कलोग और सीजर के बीच समझौता हो पाएगा या प्लैनेट पर किसका राज होगा, फिल्म देखने के बाद ही पता लग सकेगा। इफेक्ट्स के साथ इमोशन: विजुअल इफेक्ट्स के मामले में हॉलिवुड बॉलिवुड से कहीं आगे है। यह हॉलिवुड फिल्म भी तकनीक के साथ स्टोरी के मामले में भी बेहतरीन साबित हुई है। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की पिछली दोनों फिल्में काफी सफल रही है। एक्शन सीन काफी उम्दा हैं। स्टोरी इतनी अच्छी है कि विलेन के रूप में आप कर्नल के साथ इंसानों से भी नफरत करने लगेंगे। वॉर की वजह से अनाथ हुई बच्ची नोवा और उसे अपनी बेटी की रूप में स्वीकार करने वाले वानर मॉरिस से आपको प्यार हो जाएगा। वहीं बैड एप वानर इस गंभीर फिल्म में कॉमेडी एंगल लेकर आया है। उसके कॉमेडी पंच लाजवाब हैं। बैकग्राउंड साउंड इफेक्ट्स वॉर फिल्म को पूरी तरह से जस्टीफाई करते हैं। अगर आप इस फ्रेंचाइजी की पुरानी फिल्में देखी है तो आप इस फिल्म को न मिस करें। यह अब इस फ्रेंचाइजी की सबसे बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती है। ",1 " बाहुबली दो में इसका जवाब इंटरवल के बाद मिलता है। तब तक कहानी में ठोस कारण पैदा किए गए हैं ताकि दर्शक कटप्पा के इस कृत्य से सहमत लगे। भले ही दर्शक जवाब मिलने के बाद चौंकता नहीं हो, लेकिन ठगा हुआ भी महसूस नहीं करता क्योंकि तब तक फिल्म उसका भरपूर मनोरंजन कर चुकी होती है। बाहुबली को के विजयेन्द्र प्रसाद ने लिखा है। इसकी कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है। फिल्म के कई किरदारों में भी आप समानताएं खोज सकते हैं। महिष्मति के सिंहासन के लिए होने वाली इस लड़ाई में षड्यंत्र, हत्या, वफादारी, सौगंध, बहादुरी, कायरता जैसे गुणों और अवगुणों का समावेश है, जिनकी झलक हमें लगातार सिल्वर स्क्रीन पर देखने को मिलती है। निर्देशक एस राजामौली ने इन बातों को भव्यता का ऐसा तड़का लगाया है कि लार्जर देन लाइफ होकर यह कहानी और किरदार दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। राजामौली की खास बात यह है कि बाहुबली के किरदार को उन्होंने पूरी तरह विश्वसनीय बनाया है। हाथी जैसी ताकत, चीते जैसी फुर्ती और गिद्ध जैसी नजर वाला बाहुबली जब बिजली की गति से दुश्मनों पर टूट पड़ता है और पलक झपकते ही जब उसकी तलवार दुश्मनों की गर्दन काट देती है तो ऐसा महसूस होता है कि हां, यह शख्स ऐसा कर सकता है। बाहुबली की इन खूबियों को फिल्म के दूसरे हिस्से में खूब भुनाया गया है। 'बाहुबली द कॉन्क्लूज़न' देखने के लिए 'बाहुबली: द बिगनिंग' याद होना चाहिए वरना फिल्म समझने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है। हालांकि पहले भाग में महेंन्द्र बाहुबली के कारनामे थे तो इस बार उसके पिता अमरेन्द्र बाहुबली के हैरतअंगेज कारनामे देखने को मिलते हैं। पिछली बार हमने देखा था कि महेंद्र बाहुबली को कटप्पा उसके पिता की कहानी सुनाता है। दूसरे भाग में विस्तृत रूप से इस कहानी को देखने को मिलता है। अमरेन्द्र और देवसेना के रोमांस को बेहद कोमलता के साथ दिखाया गया है। चूंकि पहले भाग के बाद कटप्पा की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी इसलिए दूसरे भाग में उसे ज्यादा सीन दिए गए हैं। कॉमेडी भी करवाई गई है। अमरेन्द्र और देवसेना तथा अमरेन्द्र और शिवागामी के साथ किस तरह से भल्लाल देव और उसका पिता षड्यंत्र करते हैं यह कहानी का मुख्य बिंदू है। कहानी ठीक है, लेकिन जिस तरह से इसे पेश किया गया है वो प्रशंसा के योग्य है। फिल्म की स्क्रिप्ट बेहतरीन है और इसमें आने वाले उतार-चढ़ाव लूगातार मजा देते रहते हैं। हर दृश्य को बेहतर और भव्य बनाया गया है और फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो ताली और सीटी के लायक हैं। जैसे, बाहुबली की एंट्री वाला दृश्य, बाहुबली और देवसेना के बीच रोमांस पनपने वाले सीन, बाहुबली और देवसेना के साथ में तीर चलाने वाला सीन, भरी सभा में देवसेना का अपमान करने वाले का सिर काटने वाला सीन, ऐसे कई दृश्य हैं। इंटरवल तक फिल्म भरपूर मनोरंजन करती है। इंटरवल के बाद ड्रामा ड्राइविंग सीट पर आता है और फिर क्लाइमैक्स में एक्शन हावी होता है। फिल्म की कमियों की बात की जाए तो कुछ को कहानी थोड़ी कमजोर लग सकती है। पहले भाग में जिस भव्यता से दर्शक चकित थे और दूसरे भाग से उनकी अपेक्षाएं आसमान छू रही थी, उन्हें दूसरे भाग की भव्यता वैसा चकित नहीं करती है। क्लाइमैक्स में सिनेमा के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट ले ली गई है और दक्षिण भारतीय फिल्मों वाला फ्लेवर थोड़ा ज्यादा हो गया है। लेकिन इन बातों का फिल्म देखते समय मजा खराब नहीं होता है और इनको इग्नोर किया जा सकता है। निर्देशक के रूप में एसएस राजामौली की पकड़ पूरी फिल्म पर नजर आती है। उन्होंने दूसरे भाग को और भव्य बनाया है। एक गाने में जहाज आसमान में उड़ता है वो डिज्नी द्वारा निर्मित फिल्मों की याद दिलाता है। कॉमेडी, एक्शन, रोमांस और ड्रामे का उन्होंने पूरी तरह संतुलन बनाए रखा है। जो आशाएं उन्होंने पहले भाग से जगाईं उस पर खरी उतरने की उन्होंने यथासंभव कोशिश की है। एक ब्लॉकबस्टर फिल्म कैसे बनाई जाती है ये बात वे अच्छी तरह जानते हैं और दर्शकों के हर वर्ग के लिए उनकी फिल्म में कुछ न कुछ है। प्रभाष और बाहुबली को अलग करना मुश्किल है। वे बाहुबली ही लगते हैं। बाहुबली का गर्व, ताकत, बहादुरी, प्रेम, समर्पण, सरलता उनके अभिनय में झलकता है। उनकी भुजाओं में सैकड़ों हाथियों की ताकत महसूस होती है। ड्रामेटिक, एक्शन और रोमांटिक दृश्यों में वे अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। देवसेना के रूप में अनुष्का शेट्टी को इस भाग में भरपूर मौका मिला है। देवसेना के अहंकार और आक्रामकता को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया। वे अपने अभिनय से भावनाओं की त्रीवता का अहसास कराती हैं। भल्लाल देव के रूप में राणा दग्गुबाती अपनी ताकतवर उपस्थिति दर्ज कराते हैं। शिवगामी बनीं रम्या कृष्णन का अभिनय शानदार हैं। उनकी बड़ी आंखें किरदार को तेज धार देती है। कटप्पा बने सत्यराज ने इस बार दर्शकों को हंसाया भी है और उनके किरदार को दर्शकों का भरपूर प्यार मिलेगा। नासेर भी प्रभावित करते हैं। तमन्ना भाटिया के लिए इस बार करने को कुछ नहीं था। फिल्म की वीएफएक्स टीम बधाई की पात्र है। हालांकि कुछ जगह उनका काम कमजोर लगता है, लेकिन उपलब्ध साधनों और बजट में उनका काम हॉलीवुड स्टैंडर्ड का है। खास तौर पर युद्ध वाले दृश्य उल्लेखनीय हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक अच्छा है। गानों में जरूर फिल्म मार खाती है क्योंकि ये अनुवादनुमा लगते हैं, लेकिन इनका फिल्मांकन शानदार है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सिनेमाटोग्राफी, सेट लाजवाब हैं। कलाकारों का मेकअप उनकी सोच के अनुरूप है। बाहुबली 2 भव्य और बेहतरीन है। पहले भाग को मैंने तीन स्टार दिए थे क्योंकि आधी फिल्म को देख ज्यादा कहा नहीं जा सकता। पूरी फिल्म देखने के बाद चार स्टार इसलिए क्योंकि ब्लॉकबस्टर मूवी ऐसी होती है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, एए फिल्म्स, आरको मीडिया वर्क्स प्रा.लि. निर्देशक : एसएस राजामौली संगीत : एमएम करीम कलाकार : प्रभाष, राणा दग्गुबाती, अनुष्का शेट्टी, तमन्ना भाटिया, रामया कृष्णन, सत्यराज, नासेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 47 मिनट 30 सेकंड्स ",1 " लिबास से भले ही हम कितने ही आधुनिक हो गए हो, लेकिन बात जब शादी की आती है तो अचानक रूढ़िवादी विचारधाराएं सारी आधुनिकता पर हावी हो जाती हैं। 1981 में के. बालाचंदर ने 'एक दूजे के लिए' बनाई थी, जिसमें लड़के और लड़की को शादी करने में इसलिए अड़चनें आती हैं क्योंकि एक उत्तर भारतीय है तो दूसरा दक्षिण भारतीय। भाषा, पहनावे और संस्कृति की भिन्नताएं रूकावट बनती हैं। में रिलीज हुई फिल्म '2 स्टेट्स' भी बताती है कि स्थिति बहुत सुधरी नहीं है। अभी भी शादी के लिए लड़के और लड़की में प्यार होना ही काफी नहीं है। कई धरातलों पर समानताएं होना जरूरी है। भारत में शादी लड़के या लड़की से नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार से करना होती है क्योंकि ज्यादातरों को शादी के बाद अपने पैरेंट्स के साथ ही रहना होता है। लड़की का लड़के के बजाय लड़के की मां से मधुर संबंध रखना महत्वपूर्ण है। हालांकि अब बड़ी संख्या में विभिन्न जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं और इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि शादी के बाद पति-पत्नी अपने पैरेंट्स के साथ नही रहते हैं। स्टेट्स चेतन भगत द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है और 'एक दूजे के लिए' तथा इस फिल्म में कई समानताएं हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण के लिहाज से यह फिल्म काफी अलग है। आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ने वाले पंजाबी लड़के कृष मल्होत्रा और तमिल लड़की अनन्या स्वामीनाथन में प्रेम हो जाता है। पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों शादी के करने का फैसला लेते हैं। यहां जाकर उन्हें पता चलता है कि शादी के लिए दोनों में प्यार होना ही काफी नहीं है। दोनों अपने माता-पिता की मर्जी से शादी करना चाहते हैं और उन्हें यह करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शाकाहारी-मांसाहारी, भाषा, संस्कृति, पहनावा, रंग जैसे मुद्दों को लेकर मतभेद उभरते हैं। कृष और अनन्या अपनी शादी के लिए वो सारे काम करते हैं जिससे उनके पैरेंट्स खुश हो, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगती। एक बार तो वे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि उनमें ही मतभेद होने लगते हैं। जानी-पहचानी कहानी और कमियों के बावजूद फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है क्योंकि निर्देशक अभिषेक वर्मन के प्रस्तुतिकरण में ताजगी है। फिल्म की शुरुआत में कृष और अनन्या का रोमांस थोड़ा अविश्वसनीय लगता है, लेकिन दिल को छूता है। अनन्या और कृष के बीच में शुरुआत में शारीरिक आकर्षण रहता है जिसे प्यार में तब्दील होते देखना अच्छा लगता है। बीच-बीच में मनोरंजक दृश्य आते रहते हैं जो फिल्म को संभाल लेते हैं। मसलन, अनन्या का हाथ मांगते समय कृष उसके पूरे परिवार के लिए अंगूठी लाता है और कहता है कि वह उसके परिवार के साथ शादी करना चाहता है। फिल्म में कुछ बातें अखरती हैं, जैसे, कृष और अनन्या के माता-पिता को बहुत ज्यादा ही रूढ़िवादी दिखाया गया है मानो पचास साल पुराना जमाना हो। तीन चौथाई फिल्म पैरेंट्स को मनाने में खर्च हुई है और बीच में कई बार फिल्म खींची हुई प्रतीत होती है। निर्देशक ने दर्शकों के मनोरंजन का ख्याल रखते हुए कई बार समझौते भी किए और कई सीन ऐसे हैं जो सहूलियत के मुताबिक लिखे गए हैं। जैसे कृष के पिता का हृदय परिवर्तन का अचानक हृदय परिवर्तन हो जाना। एक शादी में दूल्हे का दहेज के लिए अड़ जाना और उसे अनन्या द्वारा मनाना जैसे दृश्य सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं क्योंकि फिल्म की कहानी से इस तरह के दृश्यों का कोई ताल्लुक नहीं है। अर्जुन कपूर और आलिया भट्ट की केमिस्ट्री दर्शकों को चुम्बक की तरह फिल्म से बांध कर रखती है। आलिया बेहद खूबसूरत लगी हैं और उनका अभिनय फिल्म दर फिल्म निखरता जा रहा है। हालांकि वे तमिल लड़की नहीं लगती है, लेकिन अपने अभिनय से वे इस कमी को बहुत जल्दी कवर कर लेती हैं। पंजाबी मुंडे के रूप में अर्जुन का अभिनय भी अच्छा है। अपने पिता से बिगड़े रिश्ते और एक प्रेमी की भूमिका उन्होंने अच्छे से निभाई है। फिल्म में एक सीन में कृष कहता है कि पंजाबी सास से खतरनाक कोई नहीं होता है और यह भूमिका अमृता सिंह ने बेहद कुटिलता से निभाई है। रेवती और शिव सुब्रमण्यम ने तमिल पैरेंट्स की भूमिका निभाई। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत '2 स्टेट्स' का निराशाजनक पहलू है। एक भी सुपरहिट गाना नहीं है। प्रेम कहानी में गाने अच्छे लगते हैं, लेकिन '2 स्टेट्स' में ये अखरते हैं। कमियों के बावजूद आलिया-अर्जुन की केमिस्ट्री, अच्छी एक्टिंग और ताजगी के कारण फिल्म देखी जा सकती है। बैनर : नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : साजिद नाडियाडवाला, करण जौहर निर्देशक : अभिषेक वर्मन संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित रॉय, अमृता सिंह, शिव सुब्रमण्यम, रेवती सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 29 मिनट ",1 "निर्माता : अशोक घई निर्देशक : मनोज तिवारी संगीत : प्रीतम कलाकार : सेलिना जेटली, ईशा कोप्पिकर, गुल पनाग, जावेद जाफरी, चंकी पांडे, दिव्या दत्ता, असावरी जोशी, मुकेश तिवारी, सनी देओल ( मेहमान कलाकार) केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 45 मिनट ज्यादातर ऑफिसेस में कुछ पुरुष बॉस ऐसे होते हैं जो अपने अधीन काम करने वाली महिलाओं/लड़कियों पर बुरी नजर रखते हैं। तरक्की व अन्य प्रलोभन देकर उनका यौन शोषण करते हैं। कुछ लड़कियों की मजबूरी रहती है। कुछ इसे तरक्की की ही सीढ़ी ही मानती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो लंपट बॉस को मजा चखा देती हैं। ‘हैलो डार्लिंग’ की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। एक अच्छी हास्य फिल्म की रचना इस थीम पर की जा सकती है, लेकिन अफसोस की बात ये है कि न इस फिल्म का निर्देशन अच्छा है और न ही स्क्रीनप्ले। कलाकारों से भी जमकर ओवर एक्टिंग कराई गई है, जिससे ‘हैलो डार्लिंग’ देखना समय और पैसों की बर्बादी है। हार्दिक (जावेद जाफरी) अपने अंडर में काम करने वाली हर लड़की पर बुरी नजर रखता है। चाहे वो उसकी सेक्रेटरी कैंडी (सेलिना जेटली) हो या सतवती (ईशा कोप्पिकर) और मानसी (गुल पनाग) हो। तीनों उसे सबक सिखाना चाहती हैं। एक दिन मानसी गलती से हार्दिक की काफी में जहर डाल देती है। हार्दिक कुर्सी से गिरकर बेहोश हो जाता है और तीनों लड़कियों को लगता है कि उनके जहर देने से उसकी यह हालत हो गई है। वे उसे अस्पताल ले जाती हैं। वहाँ फिर गलतफहमी पैदा होती है। उन्हें लगता है कि हार्दिक मर गया है। उसकी लाश को उठाकर वे समुद्र में फेंकने के लिए उठाती हैं, लेकिन इतनी बड़ी कंपनी में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाली ये लड़कियाँ इतनी बेवकूफ रहती हैं कि दूसरे आदमी की लाश उठा लेती हैं। इधर होश में आकर हार्दिक उनकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लेता है और उन्हें ब्लैकमेल करता है। लड़कियाँ उसे कैद कर लेती हैं। किस तरह से वह उनके चंगुल से निकलता है, यह फिल्म का सार है। दरअसल इस फिल्म से जुड़े लोग यही निर्णय नहीं ले पाए कि वे क्या बनाने जा रहे हैं। बॉस और लड़कियों से शुरू हुई उनकी कहानी थोड़ी देर में ही राह भटक जाती है और कही और जाकर खत्म होती है। ये लड़कियाँ बॉस को सबक सिखाना चाहती हैं, लेकिन उसे घर में कैद करने के बाद वे ऑफिस पर ज्यादा ध्यान देती हैं मानो उनका उद्देश्य ऑफिस को अच्छे से चलाना है। वे ये बात भूल जाती हैं कि हार्दिक को भी सही राह पर लाना है। फिल्म का क्लाइमैक्स भी बेहद कमजोर है और किसी तरह कहानी को खत्म किया गया है। कमजोर क्लाइमैक्स में सनी देओल को लाया गया है ताकि दर्शकों का ध्यान भटक जाए। स्क्रीनप्ले भी अपनी सहूलियत से लिखा गया है। मिसाल के तौर पर लड़कियों के घर कैद हार्दिक के हाथ फोन लगता है और बजाय पुलिस को फोन करने के वह घर पर फोन कर बीवी से बात करता है। उसकी बेवकूफ बीवी कुछ समझ नहीं पाती। इसके बाद भी उसे मौका था कि वह अपने दोस्त, ऑफिस या पुलिस को फोन कर अपना हाल बताता, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं करता। कई दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देख लगता है कि हँसाने की पुरजोर लेकिन नाकाम कोशिश की जा रही है। कैरेक्टरर्स भी ठीक से स्थापित नहीं किए गए हैं। हार्दिक अपनी बीवी से क्यों भागता रहता है यह भी नहीं बताया गया है। हद तो ये हो गई कि हार्दिक की बीवी उसे ‘हार्दिक भाई’ कहकर पुकारती है। बिगड़े हुए पतियों को सुधारने वाला एक ट्रेक अच्छा था, लेकिन उसे ठीक से विकसित नहीं किया गया। एक निर्देशक के रूप में मनोज तिवारी निराश करते हैं। न उन्होंने स्क्रीनप्ले की कमजोरी पर ध्यान रखा और न ही दृश्यों को ठीक से फिल्मा पाए। पूरी‍ फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती है। जावेद जाफरी ने अभिनय के नाम पर तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। ईशा कोप्पिकर और सेलिना जेटली में इस बात की प्रतियोगिता थी कि कौन घटिया एक्टिंग करता है। इनकी तुलना में गुल पनाग का अभिनय ठीक है। चंकी ने अभिनय के नाम पर फूहड़ हरकतें की हैं। दिव्या दत्ता ने पता नहीं ये फालतू रोल क्यों स्वीकार किया। इस फिल्म के निर्माता हैं अशोक घई, जो सुभाष घई के भाई हैं। सुभा ष घई में भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि इस फिल्म के साथ अपना नाम जोड़ सके। लगता है कि प्रीतम ने अपनी रिजेक्ट हुई धुनों को कम दाम में टिका दिया। केवल पुराना सुपरहिट गीत ‘आ जाने जाँ....’ (रिमिक्स) ही सुना जा सकता है। फिल्म देखने से तो बेहतर है कि इसी सदाबहार गाने को एक बार फिर सुन लिया जाए। ",0 "फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए। निर्माता-निर्देशक : शशि रंजन संगीत : रूप कुमार राठौड़ कलाकार : अनुपम खेर, सतीश शाह, शाद रंधावा, समीर दत्तानी, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर, सतीश कौशिक, दीपशिखा, गुलशन ग्रोवर, जैकी श्रॉफ यू/ए * 14 रील पता नही ‘धूम धड़ाका’ जैसी फिल्में क्यों बनाई जाती हैं? इस फिल्म के जरिये न कोई सार्थक बात सामने आती है और न मनोरंजन होता है। शिक्षा जरूर मिलती है कि ऐसी फिल्मों से दूर रहा जाए। निर्माता-निर्देशक शशि रंजन ने सिर्फ अपने शौक की खातिर यह फिल्म बनाई है। कहने को तो यह हास्य फिल्म है, लेकिन दर्शक इस‍ फिल्म को देखने के बाद अपने आपको कोसते हुए बाहर निकलता है कि वह क्यों यह फिल्म देखने आया? फिल्म का हास्य इतना गया गुजरा है कि न समझदार दर्शक को हँसी आती है और न ही फूहड़ हास्य पसंद करने वालों को। ओवर एक्टिंग से भरी इस घटिया नौटंकी से छुटकारा 14 रील खत्म होने के बाद मिलता है, कुछ समझदार दर्शकों ने तो मध्यांतर को ही फिल्म का अंत मान लिया। मुँगीलाल (अनुपम खेर) एक डॉन है, जिसे एएबीएम (ऑल एशियन भाई मीट) में परिस्थितिवश कहना पड़ता है कि उसका वारिस है। जबकि उसकी शादी भी नहीं हुई है। वर्षों पहले उसने अपनी बहन को घर से निकाल दिया था। उसे पता चलता है कि उसने कमल नामक संतान को जन्म दिया है। वह उस वारिस की तलाश करता है तो उसके पास कई कमल नाम के लड़के-लड़कियाँ आ जाते हैं। क्या उसके पास आए सारे कमल असली हैं, इसकी वह पड़ताल करता है। फिल्म की कहानी में हास्य की गुंजाइश थी, लेकिन पटकथा बेहद घटिया है। दृश्यों को इतना लंबा रखा गया है कि संवाद लेखक के पास संवाद खत्म हो गए। फिल्म देखते समय कई सवाल दिमाग में उठते हैं, जिनका जवाब अंत तक नहीं मिलता। सारे पात्र जोकरनुमा हैं और उनसे ओवरएक्टिंग करवाई गई है। दु:ख की बात तो यह है कि इस फिल्म में अनुपम खेर और सतीश शाह जैसे कलाकारों ने काम किया है। अनुपम खेर की यह फिल्म इसलिए याद रहेगी क्योंकि इसमें उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे घटिया अभिनय किया है। शाद रंधावा, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर और समीर दत्तानी जैसे कलाकारों को काम क्यों नहीं मिलता, यह उनका अभिनय देखकर समझ में आ जाता है। गुलशन ग्रोवर, सतीश कौशिक, जैकी श्रॉफ और दीपशिखा जैसे थके हुए चेहरे बोर करते हैं। फिल्म का एक भी पक्ष उल्लेखनीय नहीं है। फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए। ",0 "जैकी चैन और सोनू सूद स्टारर इस फिल्म का बजट 65 मिलियन यूएस डॉलर के करीब माना जा रहा है। फिलहाल, हम ओवरसीज की बात नहीं करते, लेकिन भारत सहित कई दूसरे एशियाई देशों में जैकी चैन का जबर्दस्त जलवा है। जैकी के ऐक्शन देखने को बेकरार उनके फैन्स को वैसे भी अपने चहेते ऐक्शन स्टार की फिल्म देखने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा है। जैकी की पिछली 'द मिथ' कई साल पहले रिलीज हुई, लेकिन मल्लिका शेरावत के साथ बनी जैकी की यह फिल्म इंडियन बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कलेक्शन नहीं कर पाई। ऐसे में अब इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी को इस बार भारत में जबर्दस्त कलेक्शन की उम्मीद है। अगर फिल्म के क्रेज और जैकी द्वारा इस फिल्म की गई भारत में प्रमोशन पर नजर डाली जाए तो फिल्म इंडस्ट्री के ट्रेड पंडितों का लगता है कि भारत में इंग्लिश और हिंदी के साथ कई दूसरी भाषाओं में रिलीज़ हुई यह फिल्म पहले वीकेंड पर अच्छा बिज़नस कर सकती है। इस फिल्म डायरेक्टर स्टेनली टॉन्ग चाइना के नामचीन निर्देशकों में से एक है उनके निर्देशन में बनी 'द स्टोन एज वॉरियर्स' बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई करने में कामयाब रही। अब जब इस बार स्टेनली को इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन के साथ बॉलिवुड के कई स्टार्स का भी साथ मिला है तो उन्होंने इस बार टोटली मसाला ऐक्शन फिल्म बनाई है। कहानी: चाइना के एक म्यूजियम में जैक (जैकी चैन) मशहूर आर्कियॉलजिस्ट है जो अपनी असिस्टेंट कायरा (अमायरा दस्तूर) के साथ विभिन्न विषयों पर शोध कर रहा है। भारत से प्रफेसर अश्मिता (दिशा पटानी) जैक से मिलने चाइना आती है। अश्मिता काफी अर्से से मगध के छिपे खजाने की भारत में तलाश कर रही है। जैक से मिलने पहुंची अश्मिता अपने साथ एक करीब एक हजार साल पुराना नक्शा भी लाई है, जिसकी मदद से मगध के प्राचीन बहुमुल्य असीम खजाने तक पहुंचा जा सकता है। अश्मिता की बात सुनने के बाद जैक इस छुपे खजाने की तलाश में उसकी सहायता करने का फैसला करते है। जैक अपनी असिस्टेंट कायरा और अश्मिता के साथ खजाने की तलाश में भारत आते हैं। भारत आने के बाद जैक खजाने की तलाश में लग जाता है, इस दौरान जैक की टीम का सामना रैंडल (सोनू सूद) से होता है, रेंडल इस छुपे खजाने को अपने पूर्वजों का खजाना बताकर इस खजाने पर अपना अधिकार बता रहा है। यहीं से इन दोनों के बीच टकराव शुरू होता है ऐक्टिंग : करीब 62 साल के हो चुके जैकी चैन के ऐक्शन सीन आपको हैरान कर देंगे, इतनी ज्यादा उम्र के होने के बावजूद जैकी के ऐक्शन सीन में आपको कतई कमी दिखाई नहीं देगी। कोई कमी नहीं दिखाई देगी। इन ऐक्शन सीन में जैकी का अच्छा साथ झांग इकसिंग, मिया मुकी ने दिया है। रेंडल के किरदार में सोनू को कुछ नया करने का मौका नहीं मिला, वैसे भी स्क्रिप्ट में रेंडल के किरदार पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई, ऐसे में सोनू अपने किरदार को परफेक्ट ढंग से नहीं निभा पाए। अमायरा दस्तूर और दिशा पटानी को लेकर भी कुछ ऐक्शन सीन हैं, लेकिन इन दोनों ने ऐक्शन सीन से ज्यादा ध्यान कैमरे के सामने अपनी ब्यूटी पेश करने में लगाया है। जैकी चैन और दिशा पटानी के कुछ सीन जरूर अच्छे बन पड़े हैं। निर्देशन : स्टेनली ने पूरी फिल्म चाइना, दुबई और भारत के अलग-अलग लोकेशंस पर शूट की है। स्टेनली ने फिल्म की सिनेमटॉग्रफी पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया, इसलिए यह गजब की बन पड़ी है। स्टेनली के पास दमदार स्क्रिप्ट नहीं थी, लेकिन इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन का साथ था सो उन्होंने सारा ध्यान फिल्म के ऐक्शन सीन को ज्यादा से ज्यादा बेहतरीन बनाने में लगाया और काफी हद तक कामयाब भी रहे। वहीं, इस फिल्म टाइटल 'कुंग फू योग' तो रखा गया है, लेकिन डायरेक्टर पूरी फिल्म में योग को कहीं फिट नहीं कर पाए जो यकीनन इस फिल्म का माइनस पॉइंट है। संगीत : फिल्म के आखिर में फिल्म की पूरी स्टार कास्ट के साथ एक डांस सॉन्ग है। इस गाने की कोरियॉग्राफ़र फराह खान है। बेशक यह गाना आपको समझ नहीं आएगा, लेकिन कैमरे के सामने जैकी का थिरकना आपको जरूर पसंद आएगा। क्यों देखें : अगर जैकी चैन के फैन हैं और ऐक्शन फिल्में मिस नहीं करते तो इस फिल्म को देखें। दुबई में फिल्माई लग्ज़री कार रेस, क्लाइमैक्स में दिशा पटानी, अमायरा दस्तूर का फिल्माया ऐक्शन सीन बेहतरीन बन पड़ा है। अगर कुछ नया या अच्छी कहानी की तलाश में थिअटर जा रहे हैं तो अपसेट हो सकते हैं। ",0 "घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है। निर्माता : फरहान अख्तर-रितेश सिधवानी निर्देशक : अभिषेक कपूर गीतकार : जावेद अख्तर संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : फरहान अख्तर, प्राची देसाई, अर्जुन रामपाल, पूरब कोहली, ल्यूक केनी, शहाना गोस्वामी, कोयल पुरी हर इंसान किशोर या युवा अवस्था में कुछ बनने के सपने देखता है, लेकिन बाद में संसार की चक्की में वह ऐसा पिस जाता है कि कमाने के चक्कर में उसे अपने सपनों को कुचलना पड़ता है। कुछ ऐसा ही होता है ‘रॉक ऑन’ के चार दोस्तों जो (अर्जुन रामपाल), केडी (पूरब कोहली), आदित्य श्रॉफ (फरहान अख्तर) और रॉब नेंसी (ल्यूक केनी) के साथ। चारों का सपना था कि वे देश का सबसे बड़ा बैंड बनाएँ। युवा अवस्था के दौरान वे ऐसे सपने देखते हैं। वे एक प्रतियोगिता जीतते हैं और उन्हें एक कंपनी द्वारा अलबम के लिए साइन भी कर लिया जाता है। अलबम की शूटिंग के दौरान आदित्य और जो में विवाद हो जाता है और अलबम अधूरा रह जाता है। कहानी दस वर्ष आगे आ जाती है। आदित्य और केडी व्यवसाय में लग जाते हैं। रॉब संगीतकारों का सहायक बन जाता है और जो के पास कुछ काम नहीं रहता। चारों के दिल में अपने शौक के लिए आग जलती रहती है। आदित्य की पत्नी साक्षी (प्राची देसाई) को आदित्य के अतीत के बारे में कुछ भी नहीं पता रहता। एक दिन पुराना सूटकेस खोलने पर उसके सामने आदित्य के बैंड का राज खुलता है। वह एक बार फिर सभी दोस्तों को इकठ्ठा करती हैं और उनका बैंड ‘मैजिक’ पहली बार परफॉर्म करता है। इस मुख्य कहानी के साथ-साथ कुछ उप-कथाएँ भी चलती हैं। संगीत से दूर रहने की वजह से आदित्य जमाने से नाराज रहता है और इसकी आँच उसकी पत्नी साक्षी पर भी पड़ती है। दोनों के तनावपूर्ण रिश्ते की कहानी भी साथ चलती है। जो निठल्ला बैठकर पत्नी की कमाई पर जिंदा रहता है। उसे होटल में जाकर गिटार बजाना मंजूर नहीं है। उसकी पत्नी फैशन डिजाइनर बनने के सपने को छोड़ मछलियों का धंधा करती है क्योंकि घर चलाने की मजबूरी है। रॉब के अंदर प्रतिभा है, लेकिन संगीतकारों का सहायक बनकर उसे अपनी प्रतिभा को दबाना पड़ता है, जिसका दर्द वह अकेले बर्दाश्त करता है। फिल्म की मूल थीम ‘जीतने के जज्बे’ को लेकर है, जिसमें दोस्ती, संगीत, ईगो और आपसी रिश्तों को मिलाकर निर्देशक अभिषेक कपूर ने खूबसूरती के साथ परदे पर पेश किया है। उनका कहानी कहने का तरीका शानदार है। फिल्म वर्तमान और अतीत के बीच चलती रहती है और फ्लैश बैक का उपयोग उन्होंने पूरे परफेक्शन के साथ किया है। अभिषेक द्वारा निर्देशित कुछ दृश्य छाप छोड़ते हैं। वर्षों बाद जब आदित्य से मिलने रॉब और केडी आते हैं तो वे आदित्य से हाथ मिलाते हैं। इसके फौरन बाद आदित्य अपने हाथ धोता है, उसे डर लगता है कि हाथ मिलाने से उसके अंदर मर चुके संगीत के जीवाणु फिर जिंदा न हो जाएँ। आदित्य के चरित्र में आए बदलाव को निर्देशक ने दो दृश्यों के जरिए खूबसूरती के साथ पेश किया है। आदित्य ऑफिस के गॉर्ड के अभिवादन का कभी जवाब नहीं देता था, लेकिन जब बैंड फिर से शुरू किया जाता है तो वह आगे बढ़कर उनका अभिवादन करता है। निर्देशक ने इन दो दृश्यों के माध्यम से दिखाया है कि संगीत के बिना आदित्य कितना अधूरा था। चूँकि फिल्म रॉक कलाकारों के बारे में है, इसलिए उन्हें स्टाइलिश तरीके से परदे पर पेश किया गया है। निहारिका खान का कॉस्ट्यूम सिलेक्शन तारीफ के काबिल है। कलाकारों के लुक पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। फिल्म में कुछ ‍कमियाँ भी हैं। निर्देशक यह ठीक से नहीं बता पाए कि आदित्य अपनी पत्नी साक्षी से क्यों नाराज रहता है? रॉब को बीमार नहीं भी दिखाया जाता तो भी कहानी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। मध्यांतर के बाद फिल्म की गति धीमी पड़ जाती है। कुछ लोगों को ‘रॉक ऑन’ देखकर ‘दिल चाहता है’ और ‘झंकार बीट्स’ की भी याद आ सकती है। ऐसी फिल्मों में संगीतकारों की भूमिका अहम रहती है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत थोड़ा कमजोर जरूर है, लेकिन फिल्म देखते समय अच्छा लगता है। फिल्म के हिट होने के बाद इसका संगीत भी लोकप्रिय होगा। जेसन वेस्ट के कैमरा वर्क और दीपा भाटिया के संपादन ने फिल्म को स्टाइलिश लुक दिया है। निर्देशक के रूप में अपनी धाक जमा चुके फरहान अख्तर अच्छे अभिनेता भी हैं। उनका चरित्र कई शेड्स लिए हुए है और उन्होंने हर शेड को बखूबी जिया। अभिनय के साथ-साथ उन्होंने गाने भी गाए हैं। भारी-भरकम संगीत में आवाज का ज्यादा महत्व नहीं रहता है इसलिए उनकी कमजोर आवाज को बर्दाश्त किया जा सकता है। अर्जुन रामपाल सही मायनों में रॉक स्टार हैं और उन्होंने अपने चरित्र को बखूबी जिया है। उनकी पत्नी डेबी की भूमिका शहाना गोस्वामी ने बेहतरीन तरीके से निभाई है। प्राची देसाई, पूरब कोहली, कोयल पुरी और ल्यूक केनी भी अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है। ",1 "ChanderMohan.Sharma@timesgroup.com 'सनम तेरी कसम' की डायरेक्टर जोड़ी का फिल्म बनाने और सोचने का नजरिया बाकी डायरेक्टर्स से अलग है। इन दिनों जहां हॉट ऐक्शन, डबल मीनिंग और बेवजह ऐक्शन स्टंट और थ्रिलर मूवीज़ बनाने का ट्रेंड चला हुआ है तो इस जोड़ी ने दिल को छूने वाली लव-स्टोरी बनाई है। कहानी : इंद्र ( हर्षवर्धन राणे ) मुंबई की एक सोसायटी में अकेला रहता है। इंद्र दिनभर अपने फ्लैट में बने जिम में कसरत करता या फिर नशा करता रहता है। इंद्र को प्यार शब्द से नफरत है। हालांकि, उसका रूबी नाम की एक मेकओवर आर्टिस्ट के साथ लंबे अर्से से रिलेशनशिप है। सोसायटी वालों को इंद्र के बारे में बस इतना पता है कि वह एक अमीर परिवार से है और आठ साल जेल काट कर लौटा है। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies इसी सोसायटी के एक फ्लैट में सरस्वती पार्थसारथी (मावरा हुकेन) अपनी छोटी बहन कावेरी और मां-बाप के साथ रहती है। सरस्वती एक लाइब्रेरी में जॉब करती हैं। साउथ इंडियन फैमिली की सरस्वती अपने पापा जयराम (मनीष शर्मा) को ही अपना आदर्श मानती है। सिंपल लुक वाली सरस्वती फैशन की एबीसी तक नहीं जानती। कावेरी को शिकायत है कि उसी की वजह से उसकी अपने बॉयफ्रेंड से शादी नहीं हो पा रही है। क्योंकि, पापा चाहते हैं कि पहले बड़ी बेटी की शादी हो, लेकिन जयराम, सरस्वती की शादी किसी आईएएस से करना चाहते हैं। सरस्वती के पिता को सोसायटी में रह रहे इंद्र का रहन-सहन और उसका स्टाइल जरा भी पसंद नहीं है, लेकिन चाह कर भी जयराम इंद्र के खिलाफ कुछ कर नहीं पा रहा है। इंद्र शहर के नामी ऐडवोकेट (सुदेश बेरी) का बेटा है, लेकिन पिता से उसे नफरत है। इस बार जब फिर सरस्वती अपने सिंपल लुक को लेकर शादी के लिए रिजेक्ट हो जाती है तो वह रूबी से मेकओवर कराने का फैसला करते हैं। सरस्वती के मां-बाप तिरुपति गए हुए हैं। देर रात सरस्वती इंद्र से मिलने जब उसके फ्लैट पहुंचती है तभी वहां रूबी आ जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि इंद्र बुरी तरह जख्मी हो जाता है। रूबी उसे इसी हाल में छोड़कर चली जाती है। ऐसी हालत में सरस्वती घायल इंद्र को ट्रीटमेंट के लिए लेकर जाती है। यहीं पर पुलिस इंस्पेक्टर की एंट्री होती है, बुरी तरह से घायल इंद्र को छोड़ने सरस्वती जब उसके फ्लैट लौटती है, तभी वहां उसके पापा की एंट्री होती है। ऐक्टिंग : फिल्म के लीड किरदार सरस्वती को पाकिस्तानी ऐक्ट्रेस ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिया है। फिल्म के जिस भी सीन में मावरा की मौजूदगी है वही सीन्स फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी हैं। मावरा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपनी पहली ही हिंदी फिल्म में एक सीधी-सादी साउथ इंडियन बहन जी टाइप लड़की के किरदार को बखूबी निभाया। हर्षवर्धन राणे का किरदार इंद्र बार-बार 'आशिकी 2' में आदित्य राय कपूर के किरदार की याद दिलाता है। डायरेक्शन : डायरेक्टर इस बार भी राधिका राव और विनय की जोड़ी ने स्क्रिप्ट को अपने ही अंदाज में हैंडल किया है। अच्छी शुरुआत के बाद बीच-बीच में दोनों ट्रैक से भटके तो सही, लेकिन कहानी और किरदारों के साथ इन्होंने कहीं बेवजह छेड़छाड़ नहीं की। कहानी की स्लो रफ्तार और लीड किरदार इंद्र को कमजोर बनाकर सरस्वती के किरदार को आखिर तक मजबूत बनाने की कोशिश की गई, दर्शकों की बड़ी क्लास को पसंद आए। तस्वीरें: 'रणबीर की दीवानगी ने कर दिया था मुझे बदनाम' संगीत : फिल्म के कई गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। टाइटल सॉन्ग सनम तेरी कसम का फिल्मांकन गजब है। फिल्म के लगभग गानों का फिल्मांकन अच्छा और माहौल के मुताबिक किया गया है। क्यों देखें : अगर आपको सिंपल म्यूजिकल लव-स्टोरी पसंद है तो इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। ",1 " चंद्रमोहन शर्मा आमतौर से दिवाली से पहले के वीक में ऐसी फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर दस्तक देती है जिनकी अप्रोच सीमित और सब्जेक्ट कुछ हटकर होता है। ऐसे फिल्में फैमिली क्लास की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं लेकिन एक खास वर्ग जरूर इन्हें पसंद करता है। यंग डायरेक्टर मनीष श्रीवास्तव की इस फिल्म में भी ऐसा मसाला मौजूद है जो मल्टिप्लेक्स कल्चर और जेन एक्स की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखता है। कहानी हुसैनी (विकास आनंद) की हत्या की जांच एसीपी संकेत पुजारी (नसीरुद्दीन शाह) इंस्पेक्टर समीरा (औरोशिखा) के साथ कर रहा है। केस की जांच के दौरान इन दोनों के हाथ कुछ विडियो फुटेज लगते हैं। इनको संकेत और समीरा बार-बार देखते हैं, इन्हें लगता है ये टेप्स उन्हें कातिल तक पहुंचा सकती हैं। इन्हीं टेप्स से उन्हें दीपक उर्फ आदि (आनंद तिवारी), पैटी (आंचल नंदजोग्र), नीना (मानसी) और जीवन (निशांत लाल) के बारे में पता लगता है। यहीं से कहानी ऐसे चक्रव्यूह में जाकर फंसती है कि हॉल में बैठा दर्शक भी सोच में पड़ जाता है। हुसैनी के मर्डर से जुड़े तार दुबई तक पहुंचते हैं संकेत को जांच में पता लगता है कि हुसैनी का रिश्ता दुबई में बैठे डॉन अजमत खान से है। इस विडियो में ऐसा कुछ भी है जो सोची समझी प्लानिंग करके तैयार किया गया है। संकेत और समीरा को इस टेप के बारे में ऐसा एक राज पता लगता है जिसे सुनकर दोनों के पैरों तले जमीं निकल जाती है। । ऐक्टिंग डायरेक्टर मनीष की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह किए बिना किरदारों के मुताबिक फिल्म की स्टार कॉस्ट चुनी। सैम के रेाल में अमित सयाल ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। एकबार फिर पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में नसीरुद्दीन शाह छा गए। ज्यादातर नए कलाकार है लेकिन हर किसी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। खासकर आदि के रोल में आनंद तिवारी ने अपनी पहचान छोड़ी तो अन्य कलाकारों में मानसी रच, आंचल नन्द्रजोग, दिशा अरोड़ा, निशांत लाल, सिराज मुस्तफा, सनम सिंह सहित सभी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। डायरेक्शन इस फिल्म की कहानी भी मनीष ने लिखी है शायद यही वजह है उनकी कहानी और किरदारों पर पूरी पकड़ है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार कुछ धीमी है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक पर फुल स्पीड से लौटती है। हर किरदार को मनीष ने पावरफुल बनाने की अच्छी कोशिश की है। कुछ सीन्स को जरूरत से ज्यादा लंबा किया गया है। नसीर जब भी स्क्रीन पर नजर आते हैं, कहानी की रफ्तार तेज हो जाती है। क्यों देखें अगर आप डार्क और लीक से हटकर बनी सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों को कुछ ज्यादा ही पसंद करते हैं तो इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है। ",0 "बैनर : पीवीआर पिक्चर्स निर्माता : अजय बिजली, दिबाकर बैनर्जी, प्रिया श्रीधरन, संजीव के. बिजली निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : इमरान हाशमी, अभय देओल, कल्कि कोएचलिन, प्रसन्नजीत चटर्जी, फारुख शेख सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट चुनाव नजदीक आते ही शहर को पेरिस या शंघाई बनाने की बातें तेज हो जाती हैं। बिज़नेस पार्क, ऊंची बिल्डिंग और चमचमाते मॉल्स के लिए मौके की जमीन चुनी जाती है। इसका विरोध भी शुरू हो जाता है क्योंकि कुछ लोगों की दुकान विरोध से ही चलती है। राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं और नेता से लेकर तो अफसर तक अपना-अपना हित साधने में जुट जाते हैं। इस तरह के विषय पर भारत में कई फिल्में बन चुकी हैं और शंघाई में दिबाकर बैनर्जी ने इसे अपने नजरिये से प्रस्तुत किया है। मूलत: इस फिल्म की कहानी ग्रीक लेखक वासिलिस वासिलिकोस की किताब ‘ज़ेड’ से प्रेरित है जिसका भारतीयकरण कर ‘शंघाई’ में प्रस्तुत किया गया है। कही-कही कहानी ‘जाने भी दो यारों’ से भी प्रेरित लगती है। शंघाई का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है दिबाकर बैनर्जी का निर्देशन और प्रस्तुतिकरण। दिबाकर बैनर्जी की गिनती वर्तमान में भारत के बेहतरीन निर्देशकों में से होती है और वे हर विषय पर फिल्म बनाने की क्षमता रखते हैं। फिल्म की हर फ्रेम पर उनकी छाप नजर आती है और एक ही सीन में वे कई बातें कह जाते हैं। कोरियोग्राफर, फाइट मास्टर या स्टार उन पर हावी नहीं होते हैं। दिबाकर बैनर्जी अपनी यह बात कहने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि व्यवसाय बन चुकी है और कितनी गिर चुकी है। हालांकि उनका डायरेक्शन क्लास अपील लिए हुए है। उन्होंने दर्शकों के लिए समझने को बहुत कुछ छोड़ा है और यही वजह है कि एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। भारत नगर में सरकार आईबीपी (इंटरनेशनल बिज़नेस पार्क) बनाने की घोषणा करती है। जिस जमीन पर ये बनाया जाना है वहां पर गरीब बस्ती है। सरकार उन्हें दूर जमीन और मकान देने का वादा करती है और आईबीपी को प्रगति से जोड़ती है। इसी बीच चार्टर्ड फ्लाइट से सोशल एक्टिविस्ट डॉ. अहमदी (प्रसन्नजीत) की एंट्री होती है जो आईबीपी का विरोध करता है। न्यूजपेपर के फ्रंट पेज पर कैसे छपा जाए ये वह बेहतरीन तरीके से जानता है और इसलिए हीरोइन की बगल में खड़े होकर फोटो भी खिंचाता है। अहमदी के विरोध के स्वर तेज होते है और सरकार घबराने लगती है। इसी बीच एक शराबी ड्राइवर अहमदी को अपनी गाड़ी से कुचल देता है। सरकार इसे एक्सीडेंट बताती है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि यह मर्डर है। ",1 "विश्व हिंदू परिषद के विरोधों के बीच थिअटर तक पहुंची फिल्म 'लाली की शादी में लड्डू दीवाना' एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, खूबसूरत लड़की 'लाली' (अक्षरा हसन) और झूठे, मतलबी, लूज़र 'लड्डू' (विवान शाह) की लव स्टोरी है, जिसमें एक नेक-जहीन, अमीर शहजादे 'कबीर' (गुरमीत चौधरी) का तीसरा एंगल भी है। फिल्म की कहानी में झोल की भरमार है। मसलन, साइकल की दुकान के मालिक का बेटा यानी अपना हीरो लड्डू टाटा, बिड़ला, अंबानी बनने का सपना देखता है, पर उसे पूरा करने के लिए ललितपुर से बड़ोदरा जाकर कैफे में वेटर बन जाता है। शायद ही किसी ने टाटा, बिड़ला बनने के लिए यह रास्ता पहले कभी सोचा होगा। यही नहीं, कैफे में बैठे-बैठे अपने लैपटॉप पर करोड़ों की डील करने वाली लाली नौकरी छोड़ते ही सड़क पर आ जाती है, क्योंकि उसका घर, गाड़ी, मोबाइल सब कंपनी का है। मोबाइल का बिल भी कंपनी भरती है। यह कैसी नौकरी थी भई, फिल्म के राइटर साहब शायद भूल गए कि नौकरी करने पर कुछ सैलरी-वैलरी भी मिलती है। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सीन के बावजूद इस कदर बोर करती है कि दिल करता है कि काश इसकी समीक्षा न करनी होती तो एक नींद ही मार ली जाती। खैर, फिल्म की शुरुआत होती है लाली की शादी से, जो नौ महीने की प्रेग्नेंट है और वीर से शादी के बंधन में बंधने वाली है। उसी मंडप में लड्डू भी दूल्हा बना बैठा है। तभी लड्डू होने वाली दुल्हन लेक्चर देकर लोगों को पकाना शुरू करती है, लेकिन लड्डू उससे प्रेरित होकर वीर के पास यह खुलासा करने पहुंच जाता है कि लाली के होने वाले बच्चे का बाप वही है। फिर शुरू होता है फ्लैशबैक यानी लाली और लड्डू की अमर प्रेम कहानी, जिसे देखकर लोग फिल्म देखने के अपने फैसले को कोसने पर मजबूर हो जाएंगे। अमीर बनने का सपना देखने वाला लड्डू लाली को अमीरजादी समझकर कॉफी के साथ गुलाब का फूल देकर पटा लेता है। लाली को पाकर उसके मन में लड्डू फूटने शुरू ही होते हैं कि पता चलता है कि लाली ने नौकरी छोड़ दी है और उसकी तरह ठन ठन गोपाल हो चुकी है। लाली को भी लड्डू के झूठ पता चल जाता है। फिर भी वह लड्डू के साथ कश्मीर में प्यार भरे गाने के लिए तैयार हो जाती है। हद तो तब होती है जब लड्डू अपनी गर्लफ्रेंड लाली से बॉस की गलत हरकतों को छोटे लेवल का कॉम्प्रोमाइज बताकर सहने की सलाह देता है। बॉयफ्रेंड की ऐसी नसीहत पर कोई भी लड़की जोर का थप्पड़ लगाएगी, लेकिन लाली चुप रहती है। वह लड्डू पर हाथ तब उठाती है जब वह उसे शादी से पहले प्रेग्नेंट हो जाने पर अबॉर्शन करने को कहता है। इस पर लड्डू के मां-बाप उसे बेदखल कर लाली को अपनी बेटी बना लेते हैं और अमीरजादे वीर से उसकी शादी तय कर देते हैं। अब लाली की शादी वीर से होगी या लड्डू से, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखने की नहीं, बस थोड़ा सा दिमाग लगाने की जरूरत है। हां, वीएचपी वाले ये फिल्म जरूर देख सकते हैं, क्योंकि फिल्म देखने के बाद उन्हें ये तसल्ली हो जाएगी कि उनकी हिंदू संस्कृति सही सलामत है, क्योंकि फिल्म में प्रेग्नेंट महिला की शादी और फेरों का ऐसा कोई सीन नहीं है, जिसे लेकर वे बवाल कर रहे थे। फिल्म के डायरेक्टर मनीष हरिशंकर ने अपने तय कॉमिडी ऑफ एरर क्रिएट करने की कोशिश की है, लेकिन पूरी तरह नाकामयाब हुए हैं। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सींस के बावजूद दर्शकों को बोर ही करती है। विवान और अक्षरा की ऐक्टिंग बेहद निराशाजनक है। विवान ओवर ड्रमैटिक हैं तो अक्षरा के चेहरे पर इमोशन ही नहीं आते। संजय मिश्रा, दर्शन जरीवाला, सौरभ शुक्ला जैसे सपोर्टिंग कलाकार फिल्म को कुछ गति देने की कोशिश करते हैं, लेकिन बहुत भला नहीं कर पाते। फिल्म का म्यूजिक भी प्रभावी नहीं है। कहीं भी कभी भी आ जाने वाले गाने फिल्म को और बोझिल ही बनाते हैं। ",0 "किशन गिरहोत्रा (फरहान) के सिंगर बनने के सपने तब एकाएक बिखर जाते हैं जब वह मुरादाबाद के आईएएस ऑफिसर के मर्डर के झूठे केस में फंस जाता है। इसके बाद वह उस अपराध के लिए जेल चला जाता है जो उसने कभी किया ही नहीं था। किशन एनजीओ वर्कर (डायना पेंटी) और जेल के कुछ साथियों की मदद से एक बैंड बनाने का निर्णय लेता है। क्या वह जेल के अंदर अपना बैंड बनाने का सपना पूरा कर पाता है या वह जेल से भागने में सफल हो पाता है? मूवी रिव्यू: सच्ची घटनाओं पर आधारित लखनऊ सेंट्रल एक फील-गुड, ह्यूमन, जेल तोड़कर भागने की इच्छा वाले ड्रामा वाली फिल्म है। यह फिल्म आपको इमोशनली जोड़ती है। हर मुश्किल से जीतने की थीम इस फिल्म को लोगों से कनेक्ट करती है। अपने घर से बाहर लखनऊ सेंट्रल की चारदीवारी के अंदर जीने की एक वजह तलाशते कैदी दर्शकों के दिल के तार को छेड़ देते हैं। अपने परिवार और समाज से ठुकरा दिए जाने के बाद कैदी एक-दूसरे के साथ में सुकून महसूस करते हैं। रंजीत तिवारी ने कैदियों के बीच इस दोस्ती और अनोखे रिश्ते को बहुत खूबसूरती के साथ हैंडल किया है। इस मुद्दे पर उनकी भावुकता को उनके स्टारकास्ट ने कॉम्प्लिमेंट किया है। रॉनित रॉय अपने किरदार पर बहुत सटीक दिखते हैं। वह फिल्म में एक धूर्त और चालाक जेलर की भूमिका निभा रहे हैं। फरहान ने पूरी क्षमता के साथ लखनऊ सेंट्रल को अपने कंधों पर उठाया है लेकिन देसी कैरक्टर को निभाने के लिए किए उनके एफर्ट्स विजिबल हो जाते हैं। उनकी अशुद्ध अंग्रेजी में बात करना आर्टिफिशल लगता है लेकिन उनका किरदार आपको कहानी से कनेक्ट कर देता है। उनका किरदार आपको उनकी बदकिस्मती पर रुला देता है। दीपक डोबरियाल, रवि किसन, राजेश शर्मा, इनाम-उल-हक और गिप्पी ग्रेवाल मुख्य भूमिकाओं में नजर आएंगे। फिल्म के गानों की बात करें तो रंगदारी एक खूबसूरत कंपोजिशन है। डायना पेंटी ने भी फिल्म में अच्छा काम किया है। ",0 "रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्मित फिल्म ‘गो’ के एक दृश्य में राजपाल यादव गुंडों को धमकाते हुए कहते हैं कि भाग जाओ यहाँ से। गुंडे नहीं भागते। फिर वह दूसरी बार कहते हैं ‘मैं दूसरी बार वार्निंग दे रहा हूँ भाग जाओ यहाँ से।‘ गुंडे फिर भी नहीं भागते, लेकिन सिनेमाघर से कुछ दर्शक जरूर भाग जाते हैं। एक निर्माता के रूप में रामगोपाल वर्मा की बुद्धि पर तरस आता है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने इतनी घटिया कहानी पर फिल्म बनाने की सोची। मौका देने में अगर वे इतने उदार हैं तो फिल्म बनाने की हसरत पालने वाले हर इनसान को रामू से मिलना चाहिए। ऐसा लगता है कि नौसिखियों की टीम ने यह फिल्म बनाई है। घिसी-पिटी कहानी, बकवास पटकथा और घटिया निर्देशन। कौन कितना घटिया काम करता है, इसका मुकाबला चल रहा है। पूरी फिल्म दृश्यों की असेम्बलिंग लगती है। कहीं से भी कोई-सा भी दृश्य टपक पड़ता है। कहानी है दो प्रेमियों की। उनके माता-पिता शादी के खिलाफ रहते हैं। क्यों रहते हैं यह नहीं बताया गया। दोनों मुंबई से गोवा के लिए भाग निकलते हैं। साथ में एक कहानी और चलती रहती है। इसमें उपमुख्यमंत्री की हत्या मुख्यमंत्री ने करवा दी है। दोनों कहानी के सूत्र आपस में जुड़ जाते हैं। परिस्थितिवश उपमुख्यमंत्री की हत्या का सबूत इन प्रेमियों के हाथ लग जाता है और उन्हें पता ही नहीं रहता। सबूत मिटाने के लिए मुख्यमंत्री के गुंडों के अलावा पुलिस भी इनके पीछे लग जाती है। इन सबसे वे कैसे बचते हैं, ये बचकाने तरीके से बताया गया है। एक छोटा-सा बैग लेकर भागे ये प्रेमी हर दृश्य में नए कपड़ों में नजर आते हैं। पता नहीं उस बैग में इतने सारे कपड़े कैसे आ जाते हैं? बैग भी मि. इंडिया से कम नहीं है। कभी उनके साथ रहता है तो कभी गायब हो जाता है। गौतम नामक नए अभिनेता ने इस फिल्म के जरिये अपना कॅरियर शुरू किया है। उसके पास न तो हीरो बनने की शक्ल है और न ही दमदार अभिनय। निशा कोठारी के लिए अभिनय के मायने हैं आँखें मटकाना, तरह-तरह की शक्ल बनाना और कम कपड़े पहनना। केके मेनन ने पता नहीं क्यों यह फिल्म की? राजपाल यादव जरूर थोड़ा हँसाते हैं। फिल्म के निर्देशक के रूप में मनीष श्रीवास्तव का नाम दिया गया है। पता नहीं इस नाम का आदमी भी है या फिर बिना निर्देशक के काम चलाया गया है। फिल्म बिना ड्राइवर के कार जैसी चलती है, जो कहीं भी घुस जाती है। निर्माता : रामगोपाल वर्मा निर्देशक : मनीष श्रीवास्तव कलाकार : गौतम, निशा कोठारी, केके मेनन, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव गानों से कैंटीन वाले का भला होता है, क्योंकि दर्शक गाना आते ही बाहर कुछ खाने चला जाता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में जबरदस्त अँधेरा है। तकनीकी रूप से फिल्म फिसड्‍डी है। ‘गो’ देखते समय थिएटर से बाहर भागने की इच्छा होती है। ",0 " एक सुपरहीरो की फिल्म से जो अपेक्षाएं होती हैं उस पर आयरन मैन 3 खरी उतरती है। सभी को पता है कि सुपरहीरो की कहानियां अच्छाई बनाम बुराई की होती है, लेकिन दर्शक को जो चीज रोमांचित करती है वो है दमदार प्रस्तुतिकरण, शानदार एक्शन सीक्वेंस और जबरदस्त उतार-चढ़ाव। इन्हीं कसौटी पर आयरन मैन 3 अपने प्रशंसकों को खुश करती है। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म की जान है और यह फिल्म थ्री-डी वर्जन में ही देखी जानी चाहिए। टोनी स्टार्क अपने विशाल बंगले में कई आयरन मैन सूट तैयार करता है और इसको लेकर उसका अपनी गर्लफ्रेंड पीपर पॉट्स से विवाद भी होता रहता है। वह लगातार 72 घंटे तक काम करता है लंबे समय से उसने गहरी नींद नहीं ली है। आतंकवादी मैनडेरिन का आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहा है जिससे सभी चिंतित है। पत्रकारों से बात करते हुए टोनी उसे धमकी देते हुए अपने घर का पता भी बता देता है। मैनडेरिन इसे अपने लिए चुनौती मानता है और टोनी के घर पर जबरदस्त हमला करता है। टोनी और उसकी गर्लफ्रेंड किसी तरह अपनी जान बचाते हैं। टोनी को मृत मान लिया जाता है। उसके हथियार और शक्ति में पहले जैसी बात नहीं होती। वह अपने आपको एक अनजान जगह पर पाता है जहां 10 वर्ष का एक लड़का हर्ले उसकी मदद करता है। किस तरह से टोनी फिर शक्तिशाली होता है। मैनडेरिन को ढूंढ निकालता है। किस तरह से उसे मैनडेरिन का राज पता चलता है, यह फिल्म का सार है। फिल्म की कहानी उतनी मजबूत नहीं है, लेकिन परदे पर जिस तरह से इसे पेश किया गया है, वो पूरी तरह दर्शकों को सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर करता है। पहले सीन से आखिरी सीन तक बोरियत का एक भी पल नहीं है। साथ ही फिल्म की अवधि बहुत कम है, इससे फिल्म बेहद कसी हुई लगती है। चाइनीज थिएटर में विस्फोट वाला दृश्य, टोनी के घर पर तथा अमेरिकी हवाई जहाज पर मैनडेरिन के हमले वाले दृश्य फिल्म की जान है। स्पेशल इफेक्ट्सल इतने बेहतरीन हैं कि सारे दृश्य एकदम वास्तविक लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स पैसा वसूल है और इसमें एक्शन जबरदस्त है। निर्देशक शेन ब्लैक ने कुछ बदलाव आयरन मैन सीरिज में किए हैं और ये बदलाव फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। हर्ले वाला प्रसंग जोड़कर फिल्म को बच्चों से जोड़ने की कोशिश की गई है और ये दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जार्विस से टोनी की नोक-झोक भी उम्दा है। शेन ने एक्शन के अलावा, ह्यूमर और ड्रामे का भी ध्यान रखा है। रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने आयरन मैन के किरदार में जान फूंक दी है। एक्शन के साथ-साथ वे इमोशनल दृश्यों में भी बेहद प्रभावी रहे हैं। बेन किंग्सले का रोल छोटा है, लेकिन उनका अभिनय देखने लायक है। कुल मिलाकर आयरन मैन में अपने प्रशंसकों को खुश करने वाली सारी खूबियां मौजूद हैं। निर्माता : केविन फीज निर्देशक : शेन ब्लैक कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जूनियर, ग्वेनेथ पॉल्ट्रो, बेन किंग्सले घंटे 10 मिनट ",1 "1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : ढिलिन मेहता निर्देशक : शिवम नायर कलाकार : ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, बोमन ईरानी, नेहा धूपिया, तारा शर्मा गुजराती नाटक ‘महारथी’ पर आधारित ‘महारथी’ एक थ्रिलर फिल्म है, जिसके सात सौ से ज्यादा शो हो चुके हैं। इसलिए फिल्म के प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक है। साथ ही नसीर, बोमन, ओमपुरी और परेश रावल जैसे सशक्त कलाकार भी फिल्म के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। फिल्म में वे सारे तत्व मौजूद हैं, जो एक थ्रिलर फिल्म में जरूरी होते हैं और इस वजह से फिल्म में शुरू से आखिरी तक दिलचस्पी बनी रहती है। मिस्टर एडेनवाला (नसीरुद्दीन शाह) कभी सफल निर्माता थे, लेकिन अब कर्जों में फँसे हैं। मिसेस एडेनवाला (नेहा धूपिया) ने पैसों की खातिर उनसे शादी की थी और अब दोनों एक-दूसरे को पसंद नहीं करते। एक रात मि. एडेनवाला की जान सुभाष (परेश रावल) बचाता है। बदले में उसे ड्राइवर की नौकरी मिल जाती है। मि. एडेनवाला ने अपना 24 करोड़ रुपए का बीमा करवा रखा है और उनकी मौत के बाद ये सारे रुपए उनकी पत्नी को मिलने वाले हैं। यह बात उनका वकील (बोमन ईरानी), पत्नी और सुभाष भी जानता है। एक रात पत्नी के तानों से परेशान होकर एडेनवाला अपनी पत्नी और सुभाष के सामने आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन उसके पूर्व अपनी पत्नी को वे चुनौती दे जाते हैं कि वह उनकी आत्महत्या को हत्या साबित करे तभी उसे 24 करोड़ रुपए की राशि मिल सकती है। सुभाष मौके का फायदा उठाना चाहता है। वह मिसेस एडेनवाला को समझाता है कि कम जोखिम, कम फायदा बिजनेस होता है। ज्यादा जोखिम, ज्यादा फायदा जुआ होता है और कम जोखिम और ज्यादा फायदा एक मौका होता है जो जिंदगी में कभी-कभी आता है। दोनों मिल जाते हैं और एक योजना बनाते हैं जिसके जरिए मिस्टर एडेनवाला की आत्महत्या को हत्या साबित किया जा सके। आदमी योजना क्या बनाता है और होता कुछ और है। कई चीजें ऐसी घटित हो जाती हैं जिनके बारे में वह सोचता भी नहीं है। यही बात मिसेस एडेनवाला और सुभाष के साथ भी होती है। फिल्म की खास बात यह है कि इसमें ज्यादा कुछ छिपाया नहीं गया है। अपराधी और पुलिस के हर कदम दर्शक से वाकिफ रहता है। इसलिए रोचकता बनी रहती है। पटकथा कसी हुई है, लेकिन ऐसे लम्हें कम हैं जो दर्शकों को रोमांच से भर दें। फिल्म में कुछ और कमियाँ भी हैं। नेहा धूपिया की मौत वाला प्रसंग कमजोर है। नसीर का परेश के नाम सारी दौलत कर जाने के पीछे भी कोई ठोस वजह नजर नहीं आती। नि:संदेह परेश रावल ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन उनकी जगह यह किरदार कोई युवा अभिनेता निभाता तो फिल्म की कमर्शियल वैल्यू बढ़ जाती। परेश की उम्र इस किरदार से ज्यादा है। शायद परेश इस नाटक से शुरू से जुड़े हुए हैं, इस वजह से उन्हें लिया गया है। शराबी और सफलता देख चुके इंसान के रूप में नसीरुद्दीन शाह ने बेहतरीन अभिनय किया है। उनकी तकलीफ को दर्शक महसूस करता है। अभिनय के महारथियों के बीच में रहकर नेहा धूपिया के अभिनय में भी सुधार आ गया। ओमपुरी जैसे अभिनेता की प्रतिभा के साथ यह फिल्म न्याय नहीं कर पाती। उनका रोल सबसे कमजोर है। बोमन ईरानी ठीक हैं। थ्रिलर फिल्म में गाना नहीं हो तो बेहतर होता है, इसलिए फिल्म में गाना नहीं है। इस फिल्म को जबर्दस्त तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक बार देखी जा सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में फिल्ममेकर्स के लिए मर्डर मिस्ट्री, सस्पेंस, थ्रिलर ऐसे हॉट सब्जेक्ट हैं जो अक्सर बॉक्स ऑफिस पर हिट रहते हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम ही देखने को मिला है जब करीब साढ़े पांच दशक से भी ज्यादा वक्त गुजर चुके किसी सब्जेक्ट पर फिल्में बनाने का जुनून मेकर्स में आज भी बरकरार हो। करीब साढ़े पांच दशक पहले हुए नानावटी केस ने पूरे देश को उस वक्त झकझोर दिया था। इस मर्डर मिस्ट्री को देश का पहला ऐसा केस माना जाता है जब राजनेताओं के साथ-साथ दो अलग-अलग कम्युनिटी के लोग इस केस के साथ जुड़े। इस केस में मरने वाला सिंधी समाज का अमीर बिज़नसमैन था सो इस कम्युनिटी के लोग इस केस के साथ जुड़े। वहीं मारने वाला पारसी कम्युनिटी का नेवी ऑफिसर था सो नौसेना के कमांडर को इस कम्युनिटी का खुला साथ मिला। कोर्ट में इस केस में पारसी नेवी ऑफिसर के लिए उस वक्त के नामी पारसी ऐडवोकेट पेश हुए तो तो सिंधी बिज़नसमैन की फैमिली की ओर से इसी समुदाय के ऐडवोकेट राम जेठमालानी कोर्ट पेश हुए थे। इस टॉपिक पर बनी पहली हिंदी फिल्म की बात करें तो 1963 में रिलीज हुई डायरेक्टर आर. के. नैयर की 'ये रास्ते हैं प्यार के' इस सब्जेक्ट पर बनी पहली फिल्म थी। इसके बाद 1973 में विनोद खन्ना स्टारर अचानक की कहानी भी इस केस की पृष्ठभूमि पर बेस थी। खबरों की मानें तो पूजा भट्ट भी इस टॉपिक पर 'लव अफेयर' टाइटल से फिल्म बना रही हैं। अगर 'रुस्तम' की बात करें तो यह फिल्म इस सब्जेक्ट पर बनी पिछली दोनों फिल्मों से कहीं ज्यादा भव्य और भारी भरकम बजट में बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ स्टार्स और टिकट खिडकी पर बिकाऊ मसालों को के साथ बनी फिल्म है। अक्षय कुमार पिछले कुछ सालों में बॉलिवुड के पहले ऐसे स्टार हैं जिनकी हर साल औसतन चार फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन अब अगले चार महीने अक्षय की कोई और फिल्म रिलीज होने के आसार नहीं हैं। ऐसे में अक्षय के फैन अपने चहेते स्टार की इस फिल्म को मिस नहीं करेंगे तो 15 अगस्त के कमाऊ वीक में फिल्म का रिलीज़ होना बॉक्स आफिस पर फायदे का सौदा है तो इस फिल्म के ऑपोज़िट रितिक रोशन स्टारर 'मोहनजोदड़ो' का आना यकीनन इस फिल्म की कलेक्श्न को प्रभावित कर सकता है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर. लाइक करें NBT Movies कहानी : इंडियन नेवी का कमांडर रुस्तम पावरी ( अक्षय कुमार ) अपनी खूबसूरत वाइफ सिंथिया पावरी (इलियाना डीक्रूज़) के साथ बेहद खुश जिंदगी गुजार रहा है। 'रुस्तम' को अपनी डयूटी, अपनी वर्दी और अपनी वाइफ से प्यार है। अचानक रुस्तम को नेवी के एक सीक्रेट मिशन पर कुछ अर्से के लिए विदेश जाना पड़ता है। इसी बीच सिंथिया और शहर के अमीर रंगीनमिजाज सिंधी बिज़नसमैन विक्रम मखीजा (अरजन बाजवा) के बीच नजदीकियां बढ़ने लगती हैं। विक्रम और सिंथिया की मुलाकातों को विक्रम की बहन प्रीति मखीजा (ईशा गुप्ता) बढ़ावा देती है, जल्दी ही विक्रम और सिंथिया के बीच लगातार बढ़ती नजदीकियां अवैध संबधों में बदल जाती है। 'रुस्तम' अपनी ड्यूटी कंप्लीट करके एक दिन अचानक जब घर पहुंचता है तो उसे सिंथिला नहीं मिलती है। अलबत्ता सिंथिया को विक्रम मखीजा के लिखे कुछ लव लेटर मिलते हैं और इन्हीं लव लेटर से रुस्तम को पता चलता है कि सिंथिया के विक्रम मखीजा के साथ नाजायज संबध हैं। रुस्तम नेवी ऑफिस जाकर अपने नाम सर्विस रिवॉल्वर इशू कराकर विक्रम के घर पहुंचता है और विक्रम को एक के बाद एक तीन गोलियां मारता है। विक्रम की हत्या के बाद रुस्तम सीधा पुलिस स्टेशन जाकर अपना गुनाह कुबूल करके खुद को सरेंडर कर देता है। विक्रम की बहन प्रीति किसी भी सूरत में रुस्तम को कोर्ट से सख्त सजा दिलवाने पर आमादा है और वह इसके लिए अपनी दौलत और अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रही है। यहीं से शुरू होता है इस केस के साथ पारसी और सिंधी कम्युनिटी के प्रभावशाली लोगों के अलावा मीडिया और आम लोगों का जुड़ना जिस वजह से अदालत में चल रहा यह केस बेहद अहम हो जाता है। ऐक्टिंग : 'स्पेशल 26', 'बेबी' और 'एयरलिफ्ट' के बाद 'रुस्तम' के किरदार में अक्षय कुमार ने एकबार फिर साबित किया है कि उनमें हर किरदार को निभाने की जबर्दस्त क्षमता है। 'जोकर', 'राउडी राठौर', 'एंटरटेनमेंट', 'खिलाड़ी 786' वगैरह में अपने किरदार की वजह से क्रिटिक्स की आलोचनाएं झेलने के बाद अक्षय ने एकबार फिर साबित किया कि वह डायरेक्टर के लिए ऐसे ऐक्टर हैं जो हर किरदार को निभाने का दम रखते हैं। नेवल कमांडर की ड्रेस में अक्षय स्क्रीन पर लाजवाब नज़र आए। पुलिस कस्टडी और कोर्ट के शुरुआती सीन्स में अक्षय की खामोशी देखने लायक है। ईशा गुप्ता ने अपने किरदार के लिए अच्छा होमवर्क किया जिसका असर स्क्रीन पर नजर आया, इलियाना डीक्रूज बस ठीकठाक रहीं। कुमुद मिश्रा, अर्जन बाजवा ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया, वकील के रोल में सचिन खेडेकर खूब जमे हैं। निर्देशन : टीनू देसाई ने चर्चित नानावटी केस की पृष्ठभूमि पर लिखी स्क्रिप्ट को दमदार अंदाज में पेश किया है। टीनू को एक सशक्त बेहतरीन कसी हुई स्क्रिप्ट मिली और इसी के चलते टीनू ने इस मर्डर मिस्ट्री को ऐसे ढंग से पेश किया कि दर्शक कहानी और किरदारों के साथ जुड़ पाता हे। टीनू की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पचास के दशक को स्क्रीन पर बेहतरीन ढंग से दर्शाया। बेशक पचास के दशक में फिल्माएं इस फिल्म के कुछ सीन्स एकता कपूर की 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई' और 'बॉम्बे वेलवेट' की याद दिलाते हैं। फिल्म शुरुआती पंद्रह मिनट सुस्त है, लेकिन इंटरवल के बाद आपको सीट से बांधने का दम रखती है। टीनू ने किरदारों के मुताबिक, हर कलाकार को जरूरी फुटेज दी तो अक्षय से एक बार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग करवाने में भी कामयाब रहे। काश, टीनू फिल्म की ऐडिटिंग के वक्त ऐसे सीन पर कैंची चलाकर फिल्म की लंबाई को दस से पंद्रह मिनट कम करते तो फिल्म की रफ्तार स्टार्ट टू लास्ट एक जैसी रहती। संगीत : फिल्म का संगीत पचास के माहौल में कहानी की डिमांड के मुताबिक तैयार किया गया है, रिलीज से पहले दो गाने तेरे संग यारा, और जब तुम होते हो कई म्यूजिक चार्ट में हिट हैं। इन गानों को टीनू ने फिल्म में कहानी का हिस्सा बनाने की अच्छी कोशिश की है। क्यों देखें : अगर आप अक्षय के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार को दमदार नए लुक में देखने के साथ एक पावरफुल किरदार में देखने थिअटर जाए, कोर्ट के सीन्स फिल्म का प्लस पॉइंट है। ",0 "अक्सर लीक से हटकर बनी ऐसी फिल्में जिनका बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा क्रेज न हो, फिल्म में ऐसे स्टार्स हो जिनकी टिकट खिड़की पर डिमांड न हो, ऐसी फिल्मों को रिलीज करने से हर कोई कतराता है। यही वजह रही कि पिछले साल ही पूरी होने के बावजूद इस फिल्म को सिनेमाघरों तक पहुंचने में लंबा वक्त लग गया। पिछले साल मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग के वक्त इस फिल्म का क्रेज उस वक्त नजर आया जब इसकी स्क्रीनिंग के वक्त पूरा हॉल खचाखच भरा नजर आया तो फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों ने सीटों से खड़े होकर हॉल में मौजूद फिल्म के लीड स्टार राजकुमार राव और डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवानी के लिए तालियां बजाई। बेशक, यह फिल्म दर्शकों की एक ऐसी क्लास की कसौटी पर ही खरा उतरने का दम रखती है जो लीक से हटकर कुछ ऐसा देखने की चाह में थिअटर का रुख करते हैं, जो सच्चाई और वास्तविकता के बेहद नजदीक हो। अगर 'ट्रैप्ड' की बात की जाए तो यह एक ऐसी घटना पर बनी फिल्म है जिस पर आप आसानी से यकीन कर लेंगे। बेशक, फिल्म का क्लाइमैक्स कुछ ड्रामाई लगता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म ऐसे दर्शकों को अंत तक बांधने का दम रखती है, जिनमें मुंबइया मसाला, ऐक्शन, रोमांटिक फिल्मों की भीड़ से हटकर कुछ नया देखने की चाह हो। इस फिल्म के टेस्ट को देखते हुए मेकर्स ने फिल्म को सिंगल स्क्रीन्स में नहीं, बल्कि मल्टिप्लेक्सों में ही रिलीज किया है। इस फिल्म की कहानी की डिमांड के मुताबिक, डायरेक्टर ने फिल्म में इंटरवल नहीं दिया। अगर आप भी इस फिल्म को पूरा इंजॉय करना चाहते हैं और खुद को फिल्म के साथ बांधकर रखते हुए फिल्म देखना चाहते हैं तो आप फिल्म देखते वक्त हॉल से बाहर न जाएं। फिल्म की शुरुआत कुछ सुस्त है, लेकिन शुरुआती बीस मिनट के बाद आप कहानी और लीड किरदार के साथ बंध जाते हैं। कहानी : शौर्या (राज कुमार राव) और नूरी (गीताजंलि थापा) एक-दूसरे से प्यार करते हैं। शौर्या एक कंपनी में सर्विस करता है। हालात ऐसे बनते हैं कि शौर्या को एक दिन में शादी करनी है और उसे इसके लिए पहले रहने के लिए फ्लैट चाहिए। शौर्या का बजट पंद्रह हजार से ज्यादा नहीं बन रहा, ऐसे में मुंबई में कई एजेंट से मिलने के बाद भी शौर्या को इस किराए पर फ्लैट नहीं मिल रहा। ऐसे में शौर्या को एक एजेंट शहर से कुछ दूर कानूनी विवादों के चलते करीब दो साल से खाली स्वर्ग अपार्टमेंट की पैंतीसवी मंजिल पर एक फ्लैट किराए पर देता है। इस अपार्टमेंट में शौर्या के अलावा और कोई नहीं है। अपार्टमेंट के मेन गेट पर एक बूढ़ा वॉचमैन है, जिसे बहुत कम सुनाई देता है। शौर्या इस फ्लैट को किराए पर ले लेता है। फ्लैट में रात गुजारने के बाद शौर्या सुबह जाने की तैयारी कर रहा है। शौर्या ने फ्लैट के मेन गेट पर चाबी लगाई हुई है, अचानक उसे एकबार फिर फ्लैट के अंदर जाना पड़ता है, तभी तेज हवा के एक झोंके से फ्लैट का दरवाजा बंद हो जाता है, चाबी बाहर लटकी रह जाती है। अपार्टमेंट की पैंतीसवी मंजिल पर फंसे शौर्या का मोबाइल फोन भी जवाब दे देता है, अब उसके पास यहां से बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। ऐक्टिंग : पूरी फिल्म शौर्या यानी राजकुमार राव के कंधों पर टिकी है। इस फ्लैट में शौर्या के पास पीने के लिए पानी नहीं, खाने के लिए कुछ नहीं है, ऐसे हालात में पल-पल जिंदगी की जंग हारते बेबस इंसान के किरदार को राव ने अपनी शानदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। भूख के चलते फ्लैट में कीड़े-मकड़े खाने के सीन आपको हतप्रभ कर देंगे। राव की प्रेमिका बनी गीताजंलि थापा के पास करने के लिए कुछ नहीं था। निर्देशन : नामी स्टार्स के साथ लुटेरा बनाने के बाद विक्रमादित्य मोटवानी ने लंबे अर्से बाद इस फिल्म के निर्देशन की कमान संभाली, स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक, मोटवानी खरे उतरे हैं। ऐसी फिल्में देखने वालों की क्लास अलग होती है और इस क्लास की कसौटी पर विक्रमादित्य खरे उतरेंगे। क्यों देखें : अगर कुछ नया और अलग देखने के शौकीन हैं तो फिल्म आपको पंसद आ सकती है। टाइमपास, ऐक्शन, थ्रिलर, रोमांटिक मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ भी नहीं। ",1 " देश भर में महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अत्याचारों का कारण कुछ लोग फिल्मों को बताते हैं। ‘ग्रेंड मस्ती’ जैसी फिल्में उनकी बातों को वजन देती है। यह फिल्म महिलाओं को उपभोग की वस्तु बताती है। ये फिल्म दर्शाती है कि हर महिला बड़ी सहजता के साथ उपलब्ध है सिर्फ थोड़ी फ्लर्टिंग की जरूरत है। फिल्म में पुरुष और स्त्री के प्राइवेट पार्ट्स को लेकर कई भद्दे मजाक किए गए और अश्लीलता की सीमा पार की गई है। इस फिल्म को एडल्ट कॉमेडी की कैटेगरी में डालना उचित नहीं है। भारत में ‘एडल्ट कॉमेडी फिल्म’ का सही मतलब कभी नहीं समझा गया है। ‘ग्रेंड मस्ती’ के निर्देशक इंद्रकुमार ने ‘मस्ती’ फिल्म बनाई थी, जो ‘एडल्ट कॉमेडी’ के नाम पर ठीक-ठाक फिल्म थी, लेकिन ‘ग्रेंड मस्ती’ फूहड़ और दूषित मानसिकता के साथ बनाई गई फिल्म है। इसमें ‘फन’ नहीं बल्कि ‘चीपनेस’ है। फिल्म के तीनों हीरो के दिमाग में सदैव सेक्स का कीड़ा बुलबुलाता रहता है। जब वे कॉलेज में पढ़ते थे तो स्टुडेंट्स के साथ लेडी टीचर्स भी टू पीस में कॉलेज आती थीं और वे मस्ती किया करते थे। कॉलेज छोड़ने के बाद तीनों की शादी हो जाती है। तीनों को अपनी खुराक के अनुरूप सेक्स का डोज नहीं मिल पाता क्योंकि किसी की पत्नी पति से ज्यादा कामयाब है तो कही पत्नी बच्चे को संभालने में व्यस्त है। कॉलेज में एक कार्यक्रम के लिए एक्स स्टुडेंट्स को बुलाया जाता है। तीनों मौज-मस्ती करने पहुंचते हैं, लेकिन कॉलेज में लड़कियां टू-पीस के बजाय बुरके में नजर आती है क्योंकि नया प्रिंसीपल बहुत सख्त है। तीनों प्रिंसीपल की पत्नी, बेटी और बहन से रोमांस करना शुरू कर देते हैं। फिल्म में कहानी जैसा कुछ है ही नहीं। लेखक तुषार हीरानंदानी, मिलाप जवेरी और निर्देशक इंद्र कुमार की यही कोशिश रही है कि हर सीन में फूहड़ता डाली जाए। चाहे संवादों के जरिये, इशारों से या अंग प्रदर्शन से। फूहड़ चुटकुलों से भी काम चलाया गया है। घटियापन को ही हास्य समझ लिया गया है। फिल्म के पहले सीन में ही ए बी सी के नये मायने बताए गए हैं। ए बोलते ही कैमरा महिलाओं के नितंबों पर जाता है। बी बोलते ही ब्रेस्ट नजर आते हैं। सी बोलते ही दर्शकों को कल्पना करने के लिए छोड़ दिया जाता है। टाइम पूछने पर बताया जाता है ‘ब्रा पेंटीज़’ फिर संभलकर जवाब दिया जाता है ‘बारह पैंतीस’। कॉमेडी के नाम पर मोटे, नाटे लोगों को भी नहीं छोड़ा गया। ‘लौरा, रोज, मेरी, मार्लो’ जैसे नामों का मजाक बनाया गया है। एक लड़का उसका नाम पूछने पर पहेली के रूप में जवाब देता है ‘मुंह में दूं या हाथ में?’ फिर नाम बताता है ‘प्रसाद’। ऐसे उदाहरणों से फिल्म पटी पड़ी है। आटे में नमक बराबर फूहड़ता हो तो बर्दाश्त किया जा सकता है, लेकिन यहां तो पूरे कुएं में ही भांग है। सेक्स या ग्लैमर को फिल्म में दिखाया जाना गलत नहीं है, लेकिन नाम, रंग-रूप और स्त्रियों के प्रति भद्दी बातों में मनोरंजन कैसे ढूंढा जा सकता है। एक्टिंग, संगीत और अन्य पक्षों की बात करना बेकार है। महत्वपूर्ण फैसला अब दर्शकों के हाथ में है। यदि वे इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफल बनाते हैं तो निर्माता-निर्देशकों की इस बात में दम नजर आने लगेगा कि हम क्या करें दर्शक ही ऐसी ‘सस्ती’ फिल्में देखना चाहते हैं। बैनर : मारुति इंटरनेशनल निर्माता : अशोक ठाकरिया, इंद्र कुमार निर्देशक : इंद्र कुमार संगीत : आनंद राज आनंद, संजीव दर्शन कलाकार : विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी, मंजरी फडणीस, करिश्मा तन्ना, सोनाली कुलकर्णी, ब्रूना अब्दुल्ला, मरयम जकारिया, कायनात अरोरा, सुरेश मेनन ",0 " सत्तर और अस्सी के दशक में इस तरह की फिल्में बना करती थी जिसमें हीरो के बचपन को खूब दिखाया जाता था। पिता को ईमानदारी की 'सजा' मिल जाती थी। बड़े होकर ये बच्चे अपनी राह पर चल पड़ते हैं और किसी चौराहे पर आमने-सामने हो जाते हैं। यही सब 'सत्यमेव जयते' में दोहराया गया है। फिल्म में एक भी ऐसा पल नहीं है जो पहले कभी नहीं देखा गया हो। वीर (जॉन अब्राहम) एंग्री यंग मैन है। वह भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स को चुन-चुन कर जला देता है। पुलिस विभाग में हलचल मच जाती है। पुलिस इंस्पेक्टर शिवांश (मनोज बाजपेयी) को जिम्मेदारी दी जाती है कि वह इस पुलिस के दुश्मन को ढूंढ निकाले। वीर को जब यह पता चल जाता है तो वह शिवांश को फोन लगा कर हत्याओं के बारे में बात करता है और चुनौती देता है। शिवांश के हाथ एक सूत्र लगता है जिससे वह उसको पकड़ने के करीब पहुंच जाता है। क्या वह वीर को पकड़ लेता है? वीर ये हत्याएं क्यों कर रहा है? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं। कहानी का सबसे कमजोर पहलु यह है कि जब यह राज खुलता है कि वीर हत्या क्यों कर रहा है, तो उस घटना में और वीर द्वारा की गई हत्याओं में कोई कनेक्शन नजर नहीं आता। वीर को जब पता था कि उसका दुश्मन कौन है तो वो उसी आदमी को खत्म कर सकता था। वह ढेर सारे पुलिस ऑफिसर्स की हत्या क्यों करता है? ठीक है कि वह भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स को मौत के घाट उतारता है, लेकिन जिस तरह से लेखक ने इन बातों को जोड़ने की कोशिश की है वो बिलकुल भी लॉजिक के हिसाब से सही नहीं है। शुरुआत में जरूर फिल्म थोड़ी उम्मीद जगाती है, लेकिन जब धीरे-धीरे लॉजिक का साथ छूटने लगता है तो फिल्म का ग्राफ नीचे की ओर तेजी से आने लगता है। और आखिरी के घंटे में तो फिल्म में कोई रूचि ही नहीं रह जाती है। वीर के लिए बड़े पुलिस ऑफिसर्स की हत्या करना चुटकी बजाने जैसा रहता है। सरेआम पेट्रोल पंप पर और पुलिस थाने में घुस कर वह अपना काम कर जाता है। दूसरी ओर शिवांश को काबिल पुलिस अफसर दिखाया गया है, लेकिन वह असहाय ही नजर आता है। वीर का शिवांश को फोन लगाने वाली बात भी गले नहीं उतरती। क्यों वह अपने लिए ही मुश्किल पैदा कर रहा है? निर्देशक को सिर्फ दोनों की टक्कर दिखाना थी इसलिए यह बात डाल दी गई। मिलन मिलाप ज़वेरी का ध्यान सिर्फ इसी पर रहा कि किसी भी तरह फाइट सीन डाले जाएं। उन्हें स्टाइलिश बनाया जाए, भले ही वे कहानी में फिट होते हैं या नहीं। यही हाल संवादों का है। सीन में किसी भी तरह संवाद को डाला गया है। फाइट सीन एक्शन प्रेमियों को थोड़ा खुश करते हैं। हालांकि इनमें नई बात नहीं है, लेकिन जॉन अब्राहम को एक्शन करते देखना अच्छा लगता है। जॉन अब्राहम का चेहरा पूरी फिल्म में एक सा रहा। कैसा भी सीन हो उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। फाइटिंग सीन में तो यह चल जाता है, लेकिन जब इमोशनल सीन आते हैं तो जॉन की पोल खुल जाती है। मनोज बाजपेयी अब एक जैसा अभिनय करने लगे हैं। बागी 2 का ही एक्सटेंशन सत्यमेव जयते में नजर आता है। नई हीरोइन आयशा शर्मा को सिर्फ इसलिए रखा गया कि फिल्म में एक हीरोइन होना चाहिए। आयशा का अभिनय निराशाजनक है। सत्यमेव जयते के बारे में सत्य बात यही है कि इससे दूर ही रहा जाए। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., एमए एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, मनीषा आडवाणी, मधु भोजवानी, निखिल आडवाणी निर्देशक : मिलाप मिलन ज़वेरी संगीत : साजिद वाजिद कलाकार : जॉन अब्राहम, आयशा शर्मा, मनोज बाजपेयी, अमृता खानविलकर सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 21 मिनट 11 सेकंड ",0 "बैनर : भंडारकर एंटरटेनमेंट, वाइड फ्रेम पिक्चर्स निर्माता : कुमार मंगत पाठक, मधुर भंडारकर निर्देशक : मधुर भंडारकर संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : अजय देवगन, इमरान हाशमी, ओमी वैद्य, श्रुति हासन, शाजान पद्मसी, श्रद्धा दास, टिस्का चोपड़ा, रितुपर्णा सेनगुप्ता सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 28 मिनट * 16 रील शुक्र है कि मधुर भंडारकर ने अपना ट्रेक बदला वरना एक जैसी फिल्म बनाते हुए वे टाइप्ड होने लगे थे। पिछली फिल्म ‘जेल’ की असफलता ने उन्होंने सबक सीखते हुए इस बार हल्की-फुल्की रोमांटिक फिल्म ‘दिल तो बच्चा है जी’ बनाई। ज्यादातर निर्देशक जब अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आते हैं तो बेहतर फिल्म नहीं बना पाते हैं। कुछ नया करने की कोशिश में वे बहक जाते हैं। ‘दिल तो बच्चा है जी’ के जरिये मधुर ने कोई महान रचना तो नहीं की है, लेकिन यह फिल्म औसत से बेहतर है। कई जगह स्क्रिप्ट में कसावट की जरूरत महसूस होती है, लेकिन समग्र रूप से यह फिल्म दर्शकों को ‘फील गुड’ का अहसास कराती है। प्यार के मायने सबके लिए अलग-अलग हैं। कोई सेक्स को ही प्यार समझ बैठता है। किसी का दिल किसी एक से नहीं भरता तो कोई एक पर ही पूरी जिंदगी न्यौछावर कर देता है। इसको आधार बनाकर मधुर भंडारकर, नीरज उडवानी और अनिल पांडे ने ‘दिल तो बच्चा है जी’ की कहानी और स्क्रीनप्ले लिखा है। वर्षीय नरेन आहूजा (अजय देवगन) का वैवाहिक जीवन असफल रहा। पत्नी से वह तलाक ले रहा है। इसी बीच वह उम्र में अपने से आधी जून पिंटो (शाजान पद्मसी) की ओर आकर्षित होने लगता है। जून आज की जनरेशन से है, जो किसी से भी अपने दिल की बातें बिंदास तरीके से शेयर करती है। वह अपने बॉस नरेन से भी पूछ बैठती है कि उसने पहली बार सेक्स किस उम्र में किया था। नरेन उसके इस बिंदासपन को ही प्यार समझ बैठता है। नरेन के दो पेइंग गेस्ट हैं, मिलिंद केलकर (ओमी वैद्य) और अभय (इमरान हाशमी)। मिलिंद के लिए प्यार के मायने हैं शादी और परिवार। उसे इस बात से मतलब है कि वह गुनगुन (श्रद्धा दास) को चाहता है, भले ही गुनगुन उसका और उसके पैसों का उपयोग करती है। सच्चा प्यार ही उसके लिए मायने रखता है। अभय की जिंदगी तीन ‘एफ’ के इर्दगिर्द घूमती है। फन, फ्लर्टिंग और ....। उसकी जिंदगी का आदर्श वाक्य है- सो और सोने दो। प्यार-व्यार उसके लिए बेकार की बातें थीं, जब तक वह निक्की (श्रुति हासन) से मिलता नहीं है। इन तीनों की प्यार की गाड़ी मंजिल तक पहुँच पाती है या नहीं, यह फिल्म में हल्के-फुल्के तरीके से दिखाया गया है। इस कहानी में हास्य की भरपूर गुंजाइश थी, लेकिन तीनों लेखक मिलकर इसका पूरी तरह उपयोग नहीं कर पाए। कई जगह फिल्म घसीटते हुए आगे बढ़ती है, खासकर पहले हाफ में। तीनों कैरेक्टर्स को स्थापित करने में जरूरत से ज्यादा समय लिया गया है। इसके बावजूद उन्होंने जितना भी पेश किया है, वह अच्छा लगता है। संजय छैल द्वारा लिखे गए ‘आजकल तक होलसेल में बैडलक चल रहा है’ जैसे चुटीले संवाद कई जगह गुदगुदाते हैं। अजय और शाजान की कहानी सबसे ज्यादा दिलचस्प है और गुदगुदाती है। निर्देशक मधुर ने प्यार को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण को अपने कैरेक्टर के जरिये सामने रखा है। उनकी तीनों फीमेल कैरेक्टर्स बेहद प्रेक्टिकल और बोल्ड हैं। अभय के साथ निक्की एक रात गुजारती है और सेक्स को लेकर वह बिलकुल असहज नहीं होती। गुनगुन अपने स्वार्थ की खातिर मिलिंद का जमकर शोषण करती है। एक निर्देशक के रूप में मधुर ने कहानी को इस तरह पेश किया है कि उत्सुकता बनी रहती है। हालाँकि कई जगह दोहराव देखने को मिलता है। फिल्म की लंबाई भी ज्यादा है और अंत भी परफेक्ट नहीं कहा जा सकता है। अभिनय फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है। अजय देवगन ने अपने उम्र से आधी लड़की को चाहने की असहजता को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। शाजान पद्मसी फिल्म का सरप्राइज है। उनके खूबसूरत और मासूम चेहरे का निर्देशक ने जमकर उपयोग किया है। शाजान का अभिनय उल्लेखनीय है और इस फिल्म के बाद उन्हें बेहतरीन मौके मिल सकते हैं। इमरान हाशमी के लिए लंपट व्यक्ति का किरदार निभाना हमेशा से आसान रहा है। इस फिल्म में उनके अभिनय में सुधार नजर आता है। ओमी वैद्य ‘3 इडियट्स’ से उठकर सीधे ‘दिल तो बच्चा है जी’ में चले आए हैं। श्रुति हासन में आत्मविश्वास नजर आया और श्रद्धा दास भी प्रभावित करती हैं। प्रीतम का संगीत मधुर है, लेकिन हिट गीत की कमी खलती है। हिट गाने इस फिल्म के लिए मददगार साबित हो सकते थे। अभी कुछ दिनों से और जादूगरी अच्छे बन पड़े हैं। कुल मिलाकर कमियों के बावजूद भी ‘दिल तो बच्चा है जी’ रोचक है। ",1 "निर्देशक गौरी शिंदे ने 'इंग्लिश विंग्लिश' बनाकर चौंका दिया था। उनकी फिल्म लीक से हटकर थी और सफल भी रही थी। वे ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और गुलजार जैसे निर्देशकों की राह पर चलने वाली निर्देशक हैं। ये मध्यमार्गी फिल्मकार माने जाते हैं जो संदेश देने वाली फिल्म मनोरंजक अंदाज में पेश करते हैं। गौरी शिंदे की दूसरी फिल्म 'डियर जिंदगी' में उन्होंने जिंदगी के मायने समझाने की कोशिश की है। खूब सारा ज्ञान दिया गया है, लेकिन इस बात का ध्यान भी रखा है कि यह 'भारी' न हो जाए। कियारा (आलिया भट्ट) नामक लड़की के जरिये बात कही गई है। वह कैमरावूमैन है। अपने करियर में बहुत कुछ करना चाहती है, लेकिन अवसर नहीं मिल रहे हैं। अपनी लव लाइफ को लेकर कन्फ्यूज है। माता-पिता से उसकी बनती नहीं है। अपनी जिदंगी को उसने उलझा रखा है। समस्या इतनी जटिल नहीं है जितनी उसने बना रखी है। सिर्फ दोस्तों के साथ रहना उसे अच्‍छा लगता है। मुंबई से कियारा को कुछ कारणों से अपने माता-पिता के पास गोआ जाना पड़ता है। यहां उसकी मुलाकात दिमाग के डॉक्टर जहांगीर खान उर्फ जग्स (शाहरुख खान) से होती है। कियारा उससे सलाह लेने के लिए जाती है और जग्स से लगातार मुलाकात उसका जिंदगी के प्रति दृष्टिकोण बदल देती है। उसे समझ में आता है कि उसका व्यवहार और जिंदगी के प्रति नजरिया ऐसा क्यों हो गया है। छोटी-छोटी बातें हमें उलझा कर रख देती हैं और हम जिंदगी के सकारात्मक पहलुओं की ओर देखना बंद कर दु:खी हो जाते हैं। > > डियर जिं दगी के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें गौरी शिंदे ने फिल्म को लिखा भी है। उन्होंने जो विषय चुना है उस पर लिखना आसान है और फिल्म बनाना बहुत कठिन है, लेकिन वे एक ऐसी फिल्म बनाने में सफल रही हैं जो देखी जा सकती है। जो बात वे कहना चाहती थीं उन्होंने किरदारों के जरिये व्यक्त की है, अब ये दर्शक पर निर्भर करता है कि वह कितना समझता है। अक्सर कियारा की उम्र के लड़के या लड़की इस स्थिति से गुजरते हैं। माता-पिता और वे आपस में एक-दूसरे को समझ नहीं पाते। प्यार के मायने उन्हें पता नहीं रहते। करियर में कम समय बहुत कुछ कर लेना चाहते हैं। जब चीजें उनके मन के अनुरूप नहीं होती तो वे दु:खी हो जाते हैं और ऐसे समय उन्हें जग्स जैसे गाइड की जरूरत पड़ती है जो उन्हें समझाए और जीवन के मायने बताए। फिल्म के जरिये इन सारी बातों को दर्शाया गया है। फिल्म को खास बनाते हैं कियारा और जग्स के किरदार। कियारा जहां कन्फ्यूज और कम उम्र की है तो जग्स स्पष्ट और परिपक्व। इस वजह से दोनों एक-दूसरे के पूरक लगते हैं। फिल्म में उनकी बातचीत सुनने लायक है और कुछ बेहतरीन संवाद सुनने को मिलते हैं। कमरे में, समुंदर किनारे और साइकिलिंग करते हुए जग्स, कियारा से बातचीत करता है, जिसके आधार पर कियारा को पता लगता है कि वह कहां गलत है। जिंदगी की तरह यह फिल्म भी परफेक्ट नहीं है। कुछ खामियां उभर कर आती हैं। मसलन कियारा ऐसी क्यों है, इसका कारण ये बताया गया है कि बचपन में उसे पैरेंट्स का उसे प्यार नहीं मिलता। हालांकि पैरेंट्स की कोई खास गलती नजर नहीं आती, इससे ड्रामा कमजोर होता है। दूसरी शिकायत फिल्म की लंबाई को लेकर होती है। चूंकि कहानी में उतार-चढ़ाव कम और बातचीत ज्यादा है इसलिए फिल्म कहीं-कहीं ठहरी हुई लगती है। अली ज़फर का किरदार महत्वहीन है और इसका ठीक से विस्तार नहीं किया गया है। निर्देशक के रूप में गौरी शिंदे ने विषय भारी होने के बावजूद फिल्म का मूड को हल्का रखा है। गोआ की खूबसूरती, शाहरुख-आलिया की केमिस्ट्री और संवाद फिल्म को ताजगी देते हैं। छोटे-छोटे दृश्यों से उन्होंने बड़ी बात कहने की कोशिश की है। कलाकारों का अभिनय फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। आलिया भट्ट के करियर का यह सर्वश्रेष्ठ अभिनय है। एक ही फिल्म में उन्हें कई रंग दिखाने के अवसर मिले और हर भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ कर व्यक्त किया है। शाहरुख के साथ उनकी पहली मुलाकात और अपने परिवार के सामने उनका फट पड़ने वाले दृश्यों में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। उनका अभिनय दर्शकों को फिल्म से बांध कर रखता है। सीन के अनुरूप तुरंत उनके चेहरे भर भाव आते हैं। सुपरस्टार का चोला उतारकर एक सामान्य रोल में शाहरुख खान को देखना सुखद है। अपने चार्म से उन्होंने जहांगीर खान की भूमिका को बहुत आकर्षक बना दिया है। फिल्म की कामयाबी या नाकामयाबी का बोझ उन पर नहीं है इसलिए वे तनाव मुक्त दिखे और इसका असर उनके अभिनय पर नजर आया। अपनी बोलती आंखें और संवाद अदागयी से उन्होंने अपने अभिनय को गहराई दी है। अन्य कलाकारों का योगदान भी अच्छा है। 'लव यू जिंदगी' सहित कुछ गीत गहरे अर्थ लिए हुए हैं। 'डियर जिंदगी' की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जिंदगी के प्रति सकारात्मक और आशावादी होने की बात कहती है। बैनर : होप प्रोडक्शन्स, धर्मा प्रोडक्शन्स, रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट निर्माता : गौरी खान, करण जौहर, गौरी शिंदे निर्देशक : गौरी शिंदे संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : आलिया भट्ट, शाहरुख खान, कुणाल कपूर, अली ज़फर, अंगद बेदी, आदित्य रॉय कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 29 मिनट 53 सेकंड ",1 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com नई दिल्ली : करीब आठ साल पहले विक्रम भट्ट ने पहली बार न्यू कमर रजनीश दुग्गल और अदा शर्मा को लेकर सीमित बजट में '1920' टाइटल से हॉरर फिल्म बनाई। फिल्म ने अच्छी कलेक्शन भी की। ऐसे में विक्रम को लगा कि एक बार फिर इसी टाइटल से फिल्म बनाई जाए, तो उन्होंने चार साल पहले '1920 एविल रिटर्न्स' फिल्म बनाई और यह फिल्म भी बी और सी सेंटरों के अलावा सिंगल स्क्रीन थिएटरों के दम पर अच्छा बिज़नस करने में कामयाब रही। देखिए फिल्म का ट्रेलर: 1920 लंदन अब एक बार फिर विक्रम अपने इसी पसंदीदा टाइटल के साथ अपनी नई फिल्म लेकर हाजिर हैं। इंडस्ट्री में यह भी अटकलें हैं कि विक्रम ने इस फिल्म को करीब तीन साल पहले ही बना लिया था, लेकिन हालात ऐसे बने कि फिल्म किसी न किसी वजह से हर बार लटकती रही। इस बीच विक्रम ने 'हेट स्टोरी' टाइटल से भी फिल्में बनाईं। अगर बतौर प्रड्यूसर बात करें, तो '1920' और 'हेट स्टोरी' विक्रम भट्ट की कंपनी के लिए हर बार फायदे की फ्रेंचाइजी रहा है। इस बार भी विक्रम ने अपने उन्हीं आजमाए हुए फॉर्म्युले- बुरी आत्माएं, तांत्रिक वगैरह को लेकर यह फिल्म बनाई। ऐसी हॉरर, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत और बुरी आत्माओं को पर्दे पर देखने वाले दर्शकों की एक खास क्लास रहती है और इसी दर्शक वर्ग के दम पर विक्रम की इस फिल्म ने पहले दिन के पहले शो में दिल्ली के डायमंड थिऐटर में सौ फीसदी ऑक्युपेंसी पाई, तो यूपी के कई सेंटरों में फिल्म की कलेक्शन 40 फीसदी से ज्यादा रही। कहानी : राजस्थान की राजकुमारी शिवांगी (मीरा चोपड़ा) के पति वीर (विशाल करवाल) पर एक चुड़ैल का साया है। पति को चुड़ैल के साए से बचाने के मकसद से राजकुमारी अपने एक्स बॉयफ्रेंड जय (शरमन जोशी) से मदद मांगती है, क्योंकि जय तंत्र-मंत्र जानता है। तीन किरदारों के आसपास घूमती इस कहानी में नया कहने को बस इतना है कि अक्सर हमारी फिल्मों में हिरोइन को बुरी आत्मा घेरती है, लेकिन इस बार विक्रम की इस फिल्म में भूत ने हिरोइन को नहीं, बल्कि हीरो को वश में कर लिया है और हिरोइन अपने हीरो को बचा रही है। ऐक्टिंग : लगता है कि शरमन जोशी ने कुछ नया ट्राई करने की चाह में इस फिल्म में काम किया, लेकिन शुरू से अंत तक उनका किरदार बुझा-बुझा सा ही है। न तो उन्होंने इस किरदार के लिए खास तैयारी की। एक फिल्म करने के बावजूद मीरा चोपड़ा की पहचान दर्शकों के लिए अभी भी बस इतनी ही है कि वह प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन हैं। अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो लगता है कि मीरा को अभी ऐक्टिंग सीखनी बाकी है। टीवी से फिल्मों में आए विशाल करवाल के करने के लिए कुछ खास नहीं था, फिर भी उन्होंने कम फुटेज के बावजूद अपनी पहचान दर्ज कराई। डायरेक्शन : यंग डायरेक्टर टीनू सुरेश देसाई की यह डेब्यू फिल्म है, यही वजह है कि फिल्म में एक के बाद एक खामी साफ नजर आती है। डायरेक्टर ने दर्शकों को डराने के लिए बरसों पुराने उन्हीं फॉर्म्युलों को अपनाया है, जो कभी रामसे ब्रदर्स अपनाया करते थे। हॉरर के नाम पर डिजिटल साउंड का ज्यादा इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वह भी बेअसर लगता है। अच्छा होता कि सुरेश इस स्क्रिप्ट पर काम शुरू करने से पहले फिल्म के प्रड्यूसर विक्रम भट्ट से इस बात की टिप्स ले लेते कि इस आधुनिक तकनीक के दौर में दर्शकों को डराने के लिए कौन से तरीके अपनाए जाएं। संगीत : फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं, जो हॉल से बाहर आने के बाद जुबां पर आने का दम रखता हो। क्यों देखें : अगर शरमन जोशी के नाम पर फिल्म देखने जा रहे हैं, तो बिल्कुल न जाएं। अलबत्ता, हॉरर के नाम पर कुछ भी पचा सकते हैं, तो फिल्म आपके लिए है। ",0 "बैनर : इरोज इंटरनेशनल, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : बेला सहगल संगीत : जीत गांगुली कलाकार : बोमन ईरानी, फराह खान, कविन दवे, शम्मी, डेजी ईरानी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 52 मिनट यदि किसी की उम्र तीस या चालीस के पार हो गई हो और शादी नहीं हुई हो तो उसका बड़ा मजाक बनाया जाता है। उसकी पीठ पीछे लोग इस बात को लेकर खूब हंसते हैं। उसमें कमियां ढूंढने का प्रयास करते हैं। वह जहां भी जाता है, उससे ये बात जरूर पूछी जाती है कि खुशखबरी कब सुना रहे हो। ‘शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी’ के हीरो फरहाद का भी यही गम है। 45 का होने आया है और शादी नहीं हो पाई। ब्रा-पेंटी की दुकान पर सेल्समैन है। कभी शादी की बात चलती भी है तो उसका काम सुन लोग भाग खड़े होते हैं। भला ये कैसा काम है? अंडरगारमेंट पहनते सभी हैं, लेकिन उसके बारे में बात करने से हिचकते हैं। वर्षीय शिरीन उसकी दुकान पर आती है और फरहाद को उससे प्यार हो जाता है। प्यार की कोई उम्र नहीं होती है, लेकिन हमारे यहां यदि 45 वर्ष का अधेड़ इश्क लड़ाए तो उसे बुरा माना जाता है। फरहाद कहता भी है कि प्यार की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती, यह कभी भी हो सकता है। शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि फिल्म शुरू होने के कुछ देर बाद यह ट्रेक से उतर जाती है और एक औसत प्रेम कहानी बन कर रह जाती है। इस प्रेम कहानी की विशेषता सिर्फ ये है कि इसमें प्रेम करने वाले फोर्टी प्लस हैं, यदि बीस के भी होते तो कहानी पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। कंसेप्ट को ठीक तरह से डेव्हलप नहीं किया गया है। दो प्रौढ़ इंसानों की लव स्टोरी में कॉमेडी का अच्छा-खासा स्कोप था, जिसका पूरा उपयोग नहीं किया गया है। कहानी में विलेन है फरहाद की मां। शिरीन को वह इसलिए पसंद नहीं करती क्योंकि उसने फरहाद के पिता द्वारा बनाई गई टंकी तुड़वा दी। यह टंकी फरहाद के घर पर बनी थी। नफरत करने का यह बेहद बेतुका प्रसंग रचा गया है और इसके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती है। कहानी की नींव कमजोर होने से दर्शक कभी भी फिल्म से जुड़ नहीं पाता। साथ ही शिरीन-फरहाद की लव स्टोरी में कुछ उम्दा, कुछ उबाऊ और कुछ बचकानी बातें हैं। कई जगह उन्हें ऐसे दिखाया गया है जैसे वे टीन-एजर्स हों। फिल्म का संगीत अच्छां है, लेकिन गानें फिल्म में पैबंद की तरह चिपकाए गए हैं। हाल ही में ‘फेरारी की सवारी’ में सेंट्रल कैरेक्टर्स पारसी थे, इस फिल्म में भी सारे किरदार पारसी हैं। आमतौर पर फिल्मों में पारसियों को कैरीकेचर की तरह पेश किया जाता है। निर्देशक बेला सहगल ने अपने मैन कैरेक्टर्स को इससे बचा कर रखा है, लेकिन पारसियों की मीटिंग में लड़ने वाले लोग कार्टून नजर आते हैं। एक पारसी बूढ़े का किरदार अच्छा है जो इंदिरा गांधी का दीवाना है और उनसे शादी करना चाहता है। निर्देशक के रूप में बेला सहगल का पहला प्रयास अच्छा है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के चलते वे चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं। कई जगह हंसाने की असफल कोशिश साफ नजर आती है। बोमन ईरानी ने फरहाद के किरदार को विश्वसनीय तरीके से पेश किया है। फराह खान कुछ दृश्यों में असहज लगीं और उन्होंने खुल कर एक्टिंग नहीं की। डेजी ईरानी और शम्मी ने फरहाद की मां और दादी मां के रोल बखूबी निभाए। कुल मिलाकर ‘शिरीन फरहाद की लव स्टोरी’ में रोमांस और हास्य का अभाव है। ",0 "निर्माता : भरत शाह निर्देशक : पूजा जतिंदर बेदी संगीत : शरीब सबरी - तोषी सबरी कलाकार : शाइनी आहूज ा, सयाली भगत, जूलिया ब्लिस, तेज सप्र ू सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट * 14 रील फिल्म डायरेक्टर बनने के लिए कोई डिग्री या हुनर की जरूरत नहीं होती है। जेब में पैसा हो तो कोई भी फिल्म बना सकता है। शायद यही वजह है कि हर वर्ष ढेर सारी कचरा फिल्में बनती हैं। पूजा जतिंदर बेदी ने भी शायद अपना शौक पूरा करने के लिए ‘घोस्ट’ निर्देशित की है, लिखी भी है और संपादित भी की है। पूजा का शौक तो पूरा हो गया, लेकिन उनका मजा दर्शकों के लिए सजा बन गया। वे इस फिल्म के जरिये क्या दिखाना चाहती है, समझ में ही नहीं आता। इससे अच्छी हॉरर फिल्में तो रामसे ब्रदर्स बनाते थे। ‘घोस्ट’ में न ढंग की कहानी है, न संवाद। ‘अगर मर्दानगी को अय्याशी कहते हैं तो मैं अय्याश हूं’, जैसे संवाद सुनने को मिलते हैं। कहानी है सिटी अस्पताल की, जिसमें एक नर्स, डॉक्टर और वार्ड बॉय की क्रूरता पूर्वक हत्या की जाती है। इन लोगों का दिल निकाल लिया जाता है और चेहरा बिगाड़ दिया जाता है। सुहाना (सयाली भगत) इसी अस्पताल में डॉक्टर हैं। फिल्म में उन्हें डॉक्टर कहा गया है इसलिए यकीन करना पड़ता है वरना उनकी ड्रेसेस को देख तो यही लगता है कि वे मॉडल हैं। पुलिस निकम्मी है। फिल्म में कभी कुछ करती दिखाई नहीं देती। इसलिए मामले को एक प्राइवेट डिटेक्टिव को सौंपा जाता है। उसकी लाइफ स्टाइल को देख कुछ युवा जासूस बनने के लिए प्रेरित हो सकते हैं क्योंकि वह महंगी कारों में घूमता है। पहाड़ों पर जाकर फोटोग्राफी करता है। फाइव स्टार होटल में रूकता है और रात को पब में महंगी शराब पीता है। वह जासूसी करते हुए कभी नजर नहीं आता। अचानक विजय और सुहाना पर फिल्माया एक रोमांटिक गाना टपक पड़ता है और पता चलता है कि सुहानी तो विजय पर मर मिटी है। विजय का अपने बाप से नाराजगी वाला ट्रेक भी है। दो-चार सीन फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए इन बाप-बेटों पर भी फिल्मा दिए गए हैं। अमिताभ और दिलीप कुमार की शक्ति वाली स्टाइल में। आखिर में थोड़ी बहुत उठा-पटक के बाद रहस्य पर से परदा उठता है और दर्शक सिनेमाहॉल से ऐसे निकलते हैं जैसे जेल से छूटे हों। पूजा ने जैसी बेसिर-पैर कहानी लिखी है वैसा ही उनका निर्देशन है। उनके दृश्य दोहराव के शिकार हैं। एक-दो दृश्य ऐसे हैं जहां उन्होंने डर पैदा किया है वरना ज्यादातर दृश्यों में तो पहले से ही पता चल जाता है कि अब डरावनी घटना घटने वाली है और दर्शक पहले से ही तैयार हो जाता है। डरावने चेहरे वाले मेकअप पुरानी सी-ग्रेड फिल्मों की याद दिलाते हैं। गानों को देख फास्ट फॉरवर्ड बटन की याद आती है। फिल्म के सारे कलाकारों का अभिनय घटिया है। शाइनी आहूजा और सयाली भगत बिलकुल प्रभावित नहीं करते। यही हाल जूलिया का है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद कमजोर है। कहने को तो ‘घोस्ट’ हॉरर फिल्म है, लेकिन रात को भूत-प्रेत के डर से नहीं बल्कि इस बुरी फिल्म को देखने के अफसोस के कारण नींद नहीं आएगी। ",0 "थ्रीडी निर्माता : स्टीवन स्पीलबर्ग, जी. मैक ब्राउन, वाल्टर एफ. पार्क्स, लॉरी मैकडोनाल्ड निर्देशक : बैरी सॉनेनफील्ड कलाकार : विल स्मिथ, टॉमी ली जोंस, जोश ब्रॉलिन, एलिस ईव, एमा थाम्पसन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 43 मिनट दस वर्ष बाद मैन इन ब्लैक सीरिज की वापसी हुई है। पहले दो भागों में खतरनाक एलियंस से पृथ्वी और पृथ्वीवासियों को बचाने वाले एजेंट जे और के इस बार समय को विपरीत दिशा में ले गए हैं। टाइम ट्रेवल का ट्रेक इस बार ‘मैन इन ब्लैक 3’ में देखने को मिलता है जो बेहद दिलचस्प है। कहा जा सकता है कि दूसरे भाग की तुलना में तीसरा भाग ज्यादा दमदार है। सीक्रेट एजेंट जे के सामने इस बार दोहरा मिशन है। एजेंट के की जिंदगी खतरे में है। एजेंट जे टाइम ट्रेवल के जरिये 1969 में पहुंच कर न केवल एजेंट के की जिंदगी बचाता है बल्कि एक बार फिर पृथ्वी को दूसरे ग्रहों के वासियों से पैदा होने वाले खतरे से रक्षा करता है। चंद्रमा पर स्थित जेल से खतरनाक बोरिस भाग निकलता है। बोरिस को 1969 में न केवल एजेंट के ने गिरफ्तार किया था बल्कि उसका एक हाथ भी काट दिया था। बोरिस टाइम ट्रेवल के जरिये 1969 में पहुंच कर एजेंट के को मारना चाहता है। एक दिन अचानक एजेंट के गायब हो जाता है। एजेंट जे जब उसके बारे में पूछताछ करता है तो उसे पता चलता है कि एजेंट के की मौत को तो चालीस बरस से भी ज्यादा हो गए हैं। एजेंट जे भी वर्ष 1969 में पहुंच जाता है और न केवल एजेंट के को बचाता है बल्कि आर्कनेट के जरिये पृथ्वी को भी बचाने में कामयाब होता है। एमआईबी 3 में इस बार बजाय स्पेशल इफेक्ट्स के कहानी और ट्रीटमेंट पर ज्यादा फोकस किया गया है। तीसरा भाग थ्री-डी में है, इसके बावजूद अजीबो-गरीब एलियंस और उनसे एजेंट जे और के की फाइट मिसिंग है। फिल्म के थ्री-डी में होने से दर्शक ज्यादा उम्मीद लेकर जाता है और उसे थोड़ी मायूसी होती है। एक रेस्टॉरेन्ट की फाइट ही उल्लेखनीय है जिसमें एक बड़ी फिश को एजेंट जे मार गिराता है। वर्तमान से भविष्य में या अतीत में जाना वाला विचार भी फिल्मों में नया नहीं है, लेकिन एमआईबी 3 में यह ट्रेक मनोरंजक तरीके से पेश किया गया है और फिल्म का एक बड़ा हिस्सा इसे दिया गया है। यहां पर युवा एजेंट के और एजेंट जे की आपसी बातचीत और नोकझोक सुनने और देखने लायक है। वाले प्रसंग को उस ऐतिहासिक घटना के साथ जोड़ा गया है जब नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा पर जा रहे थे, लेकिन यहां पर बोरिस से दोनों एजेंट्स की फाइट और आर्कनेट के जरिये पृथ्वी को बचाने वाले प्रसंग में थोड़ी अति हो गई है। क्लाइमैक्स इमोशनल है जिसमें एजेंट जे को अपने बारे में एक ऐसा राज पता चलता है जिसे एजेंट के ने अब तक छिपा कर रखा था। निर्देशक बैरी सॉनेनफील्ड ने कहानी को बेहद तेज गति से पेश किया है और काफी कुछ दर्शकों की समझदारी पर भी छोड़ा है। यदि वे एलियंस वाले दृश्यों को ज्यादा रखते (जो एमआईबी सीरिज की खासियत है) तो बेहतर होता। ‍फिल्म का संपादन इतना बढ़िया है कि एक भी सीन फालतू नहीं है। विल स्मिथ एक बार फिर जबरदस्त फॉर्म में हैं और उन्होंने अपनी एक्टिंग और संवादों के जरिये दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। टॉमी ली जोंस को कम फुटेज मिला है और उनका मेकअप भी खराब है। जोश ब्रोलिन ने युवा एजेंट के का रोल बखूबी निभाया है और विल स्मिथ के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी है। बोरिस के रूप में जेमैन क्लीमेंट भयानक लगे हैं। विज्युअल इफेक्ट्स भले ही कम हो, लेकिन एमआईबी 3 में दर्शकों को खुश रखने के लिए काफी मसाला है। ",1 "फिल्म के शुरुआती सीन में सनी (खुशमीत गिल) की दादी (सुरेखा सीकरी) उसके पापा (मनमीत सिंह) से कहती है कि हमारे परिवार ने जो कुछ भी हासिल किया है, वह नाक के दम पर ही है। हमारे यहां सूंघ नहीं पाना देख नहीं पाने के बराबर है। दरअसल, सनी की फैमिली में पीढ़ियों से अचार बनाने का काम होता है। फिलहाल उसके पापा अचार की फैक्ट्री चलाते हैं। ऐसे में, सनी जो कि अपनी नाक में ब्लॉक की वजह से सूंघ नहीं सकता, वह पूरी फैमिली की परेशानी का सबब है। अब आप समझ गए होंगे कि डायरेक्टर अमोल गुप्ते ने इस फिल्म का नाम स्निफ यानी कि गंध क्यों रखा। सूंघ नहीं पाने की वजह से सनी को अपनी रोजाना लाइफ से लेकर स्कूल तक में तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। घरवाले उसे स्पेशलिस्ट को दिखाते हैं, तो वह भी उसकी नाक में ब्लॉक बताकर हाथ खड़े कर लेता है। एक दिन अखबार में मुंबई में बढ़ती कार चोरियों की खबर पढ़कर जासूसी दिमाग के सनी का ध्यान इस ओर जाता है और वह कुछ करने की सोचता है। इसी बीच एक दिन स्कूल की लैब में कुछ ऐसा केमिकल लोचा होता है कि न सिर्फ सनी की नाक का ब्लॉक हट जाता है, बल्कि उसकी सूंघने की क्षमता भी काफी बढ़ जाती है। अब वह दो-दो किलोमीटर दूर तक सूंघ लेता है और किसी का मुंह सूंघ कर यह भी बता देता कि उसने कल क्या खाया था। अपनी सूंघने की क्षमता के दम पर स्कूल में अपनी टीचर के पैसे चोरी होने का मामला सुलझाकर वह हीरो बन जाता है। एक दिन जब सनी की कॉलोनी से ही एक गाड़ी चोरी हो जाती है, तो वह अपनी दूर-दूर तक सूंघने की क्षमता के सहारे चोर तक पहुंचने की सोचता है। वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर पुराने मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक डिवाइस से कॉलोनी में एक सीसीटीवी नेटवर्क भी तैयार करता है। कॉलोनी के एक अंकल के कहने पर सनी चोरों का सुराग तलाशने चोर बाजार पहुंचता है। वहां वह कार चोरों के चंगुल में फंस जाता है, लेकिन अपनी बहादुरी से उन्हें पकड़वा देता है। बावजूद इसके उसकी कॉलोनी में चोरी करने वाले चोर का अभी भी पता नहीं लगता। तो क्या सनी असली चोर को तलाश पाता है? इसका पता आप फिल्म देखकर ही लगा पाएंगे। यूं तो भारत में बच्चों के लिए फिल्में कम ही बनती हैं, लेकिन 'तारे जमीन पर' और 'स्टेनली का डिब्बा' जैसी बच्चों की कहानियों पर बेस्ड फिल्में बनाने वाले अमोल गुप्ते लगातार ऐसी फिल्में बना रहे हैं। चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी ऑफ इंडिया के चेयरपर्सन रह चुके अमोल का बच्चों की फिल्मों से काफी जुड़ाव है, लेकिन इस बार बतौर डायरेक्टर स्निफ में वह अपनी पिछली फिल्मों जैसा दम नहीं दिखा पाए। हालांकि अपने ऐक्टिंग के शौक के चलते अमोल ने खुद जरूर पर्दे पर अपनी झलक दिखाई है। अमोल की पिछली फिल्में बच्चों के साथ-साथ पैरंट्स को भी अपील करती थीं, लेकिन इस बार स्निफ में वह बात नजर नहीं आती। बावजूद इसके अगर आप अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को यह फिल्म दिखाने ले जाएंगे, तो यह उन्हें निराश नहीं करेगी। ",0 " बाइस वर्ष की उम्र तक पढ़ाई। 25 में नौकरी। 26 में छोकरी। 30 में बच्चें। 60 में रिटायरमेंट। ऐसी जिंदगी ‘ये जवानी है दीवानी’ का हीरो बनी (रणबीर कपूर) नहीं जीना चाहता है। उसे हिप्पी स्टाइल में जिंदगी जीना पसंद है। दुनिया का कोई कोना वो छोड़ना नहीं चाहता। शादी वह जरूरी नहीं समझता। उसका मानना है कि आदमी जिंदगी भर दाल-चांवल खाकर कैसे गुजारा कर सकता है? वैसे भी आजकल फिल्मों में दिखाए जाने वाले ज्यादातर हीरो/हीरोइनों को शादी पर विश्वास नहीं है। पिछले सप्ताह रिलीज हुई ‘इश्क इन पेरिस’ के हीरो का भी यही सोचना था। बनी की सोच आज के युवाओं की शादी के प्रति सोच को दिखाती है। हालांकि भारत में ऐसी सोच वाले युवा बहुत कम हैं, जिनका प्यार/शादी पर यकीन नहीं है। जो हैं, उनमें से भी ज्यादातर में इतना साहस नहीं है कि वे धारा के विपरीत तैर सकें। खैर, फिल्म की हीरोइन नैना (दीपिका पादुकोण) का मिजाज और सोच बनी से विपरीत है। वह पढ़ाकू है, इसलिए उसे लुक में ज्यादा स्मार्ट नहीं दिखाया गया है। वह बोल्ड नहीं है। मस्ती करने से घबराती है। पढ़ाकू को थोड़ा दब्बू दिखाना फिल्म वालों की पुरानी आदत है। नैना को शौक नहीं है कि वह दुनिया घूमे। वह एक कमरे में भी जिंदगी काट सकती है क्योंकि उसे अपनों के बीच रहना पसंद है। विपरीत मिजाज वालों के इस द्वंद्व और बनी का बंजारा जिंदगी की तरफदारी करने को अयान मुखर्जी ने अपनी फिल्म में दिखाया है। फिल्म बनी की आधुनिक सोच से शुरू होती है, लेकिन समाप्त होते तक बनी भी प्यार कर बैठता है और शादी के लिए तैयार हो जाता है। यहां पर अयान कुछ नया नहीं सोच पाए और परंपरागत शैली में अपनी कहानी का उन्होंने समापन किया। शायद भारतीय दर्शकों की मानसिकता और बॉक्स ऑफिस की मांग को ध्यान में रखकर उन्हें ऐसा करना पड़ा हो क्योंकि कपड़ों या चमचमाते मॉल्स से ही भले ही भारतीय आधुनिक लगते हो, लेकिन सोच के मामले में ठेठ देसी हैं। हीरो-हीरोइन का मिलन ही उनके लिए फिल्म का सही अंत है। ‘ये जवानी है दीवानी’ शुरुआत में थोड़ी लड़खड़ाती है। फिल्म शुरू होते ही माधुरी दीक्षित का गाना बिना सिचुएशन के टपक पड़ता है और फिल्म की कहानी से इसका कोई संबंध नहीं है। माधुरी अपनी वही पुरानी अदाओं को दोहराती नजर आती हैं, जो अब उन पर जमती नहीं है। इसके बाद कहानी इंटरवल तक मनाली में घूमती रहती है। मनाली की सड़कों पर हास्य के पुट के साथ एक लंबा एक्शन सीक्वेंस रखा गया है जो बेहद बचकाना है। शुरुआती कुछ झटकों के बाद फिल्म में धीरे-धीरे पकड़ आ जाती है क्योंकि बनी और नैना के बीच कुछ उम्दा दृश्यों के साथ-साथ उनके दोस्तों की कॉमेडी भी लगातार चलती रहती है। फिर आता है एक छोटा-सा ट्विस्ट। बनी शिकागो चला जाता है। आठ वर्ष बाद बनी और नैना अपने दोस्त की शादी में मिलते हैं। पृष्ठभूमि में शादी चलती है और यही पर बनी को अहसास होता है कि वह नैना से प्यार करने लगा है। इंटरवल के बाद का यह पूरा ड्रामा ‘बैंड बाजा बारात’ की याद दिलाता है। उस फिल्म में भी एक शादी के दौरान हीरो को महसूस होता है कि वह हीरोइन को प्यार करने लगा है। अयान मुखर्जी की लिखी कहानी में यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि आगे क्या होना वाला है, इसके बावजूद फिल्म इसलिए अपील करती है क्योंकि प्रस्तुतिकरण ताजगी भरा है और युवाओं की पसंद के अनुरूप है। जहां तक निर्देशन का सवाल है तो अयान शुरुआत के अलावा बीच में भी कुछ जगह ‍डगमगाते हैं। कुछ दृश्यों को बेवजह रखा गया है और इन्हें हटाकर फिल्म की लंबाई को कम किया जा सकता है। दूसरी ओर कई ऐसे दृश्य भी अयान ने लिखे हैं, जैसे- नैना का बोरिंग लड़की से फन लविंग गर्ल बनना, मन ही मन बनी को प्यार करना, बनी को यह अहसास होना कि वह नैना को चाहने लगा है, बनी और उसके पिता के दृश्य, जो दिल को छूते हैं। चारों दोस्तों की मस्ती हंसाती है। बनी और नैना का कैरेक्टराइजेशन उम्दा है। पहली फ्रेम से ही उनकी हर बात अच्छी लगती है। इनके अलावा उनके दोस्तों के किरदार भी उल्लेखनीय हैं। रणबीर और दीपिका की केमिस्ट्री इस फिल्म की जान है। दोनों एक-दूसरे के साथ बेहद सहज नजर आते हैं। एक मस्त और बिंदास लड़के के किरदार को रणबीर ने बखूबी निभाया है। दीपिका पादुकोण का किरदार मुंह से कम और चेहरे के भावों से ज्यादा बोलता है। ऐसा रोल निभाना मुश्किल होता है, लेकिन दीपिका इस चैलेंज पर खरी उतरती हैं। कल्कि को जितने भी दृश्य मिले हैं उनमें वह जबदरस्त हैं। आदित्य रॉय कपूर ने उनका साथ अच्छे से निभाया है। फारुख शेख चंद सीन में नजर आते हैं और अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं। प्रीतम का संगीत और बैकग्राउंड म्युजिक इस फिल्म का प्लस पाइंट है। बलम पिचकारी, बदतमीज दिल, कबीरा, सुभानअल्लाह हिट हो चुके हैं। बदतमीज दिल में रणबीर का डांस देखने लायक है। फिल्म के संवाद आम जिंदगी में जैसे बाते करते हैं, वैसे हैं। बीच-बीच में ‘वक्त बीतता है और हम खर्च होते हैं’ जैसे कुछ उम्दा संवाद भी सुनने को मिलते हैं। कुल मिलाकर ‘ये जवानी है दीवानी’ उस बात को पुख्ता करती है कि आज का युवा कितना ही आधुनिक होने का दावा करे, प्यार और शादी पर उसका विश्वास अभी भी कायम है। यह बात फिल् म मे ं मौज-मस्ती के साथ मनोरंजक अंदाज में कही गई है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता: करण जौहर निर्देशक : अयान मुखर्जी संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण, कल्कि कोएचलिन, आदित्य रॉय कपूर, कुणाल रॉय कपूर, फारुख शेख, तन्वी आजमी, माधुरी दीक्षित सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट ",1 "निर्माता : रेणु तौरानी, कुमार एस. तौरानी निर्देशक : कूकी वी गुलाटी संगीत : सचिन गुप्ता कलाकार : विवेक ओबेरॉय, अरुणा शील्ड्‍स, नंदना सेन, नीरू सिंह, संजय कपूर यू/ए सर्टिफिकेट * 2 घंटे 15 मिनट नाम रखने से ही कोई प्रिंस नहीं बन जाता। ये बात ‘प्रिंस’ फिल्म पर पूरी तरह लागू होती है। ‘प्रिंस’ नामक यह फिल्म हर मामले में कंगाल है। कुछ हॉलीवुड और कुछ बॉलीवुड फिल्मों को देख शिराज अहमद ने नई कहानी लिख दी, लेकिन ‍स्क्रीनप्ले इतना बचकाना है कि हैरत होती है फिल्म निर्माता पर कि वह इतने पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गया। अक्सर कम्प्यूटर की मनुष्य के दिमाग से तुलना की जाती है, इसलिए इस फिल्म में दिमाग के साथ कम्प्यूटर जैसा व्यवहार किया गया है। कम्प्यूटर की मेमोरी से डेटा को हटाया जा सकता है और फिर लोड भी कर सकते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा दिमाग के साथ ‘प्रिंस’ में देखने को मिलता है। भारत के वैज्ञानिकों ने वर्षों की मेहनत के बाद एक ऐसा चिप तैयार किया है, जिससे मनुष्य के दिमाग से उसकी याददाश्त को इरेज किया जा सकता है। वह मनुष्य भूल जाता है कि वह कौन है। उसके कौन पहचान वाले हैं। वगैरह-वगैरह। प्रिंस नामक चोर की मेमोरी को भी इरेज कर दिया गया। इसके पहले की उसकी याददाश्त जाती वह चिप को अपने कब्जे में ले एक सिक्के में रखकर कहीं छिपा देता है। सुबह उठने के बाद उसे कुछ याद नहीं रहता क्योंकि कम्प्यूटर की तरह वह रिस्टार्ट हो गया। प्रिंस के पीछे कुछ बदमाश पड़ जाते हैं और उससे सिक्के के बारे में पूछते हैं जबकि प्रिंस तो अपने बारे में भी नहीं जानता। उसे पता चलता है कि माया नाम की उसकी गर्लफ्रेंड है, लेकिन परेशान तब खड़ी हो जाती है जब तीन-तीन माया उसकी जिंदगी में आ जाती हैं और सभी को उस सिक्के की तलाश है। प्रिंस न केवल वो सिक्का ढूँढ निकालता है बल्कि अपनी खोई याददाश्त भी हासिल कर लेता है। यह काम करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि फिल्म के राइटर ने हर कदम पर उसकी मदद की है। फिल्म का कंसेप्ट जरूर नया हो सकता है, लेकिन स्क्रीनप्ले में ढेर सारी खामियाँ हैं। एक तरफ तो आप आधुनिक तकनीक और विज्ञान का इस्तेमाल दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ तर्क-वितर्क को परे रख दिया गया है। स्क्रीन पर घटनाक्रम को इस तरह पेश किया गया है मानो कार्टून कैरेक्टर देख रहे हो। कई बार प्रिंस स्पाइडरमैन की तरह एक्शन करता है, जबकि उसे आम आदमी दिखाया गया है। मेमोरी इरेज करने के जो दृश्य स्क्रीन पर दिखाए गए हैं वे बहुत ही बचकाने हैं और उन पर यकीन करना मुश्किल है। फिल्म में एक्शन और स्टाइल को महत्व दिया गया है इसलिए सीन इन बातों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं कि इन्हें फिल्म में जगह मिले। कुछ कैरेक्टर (जैसे राजेश खट्टर का) बेवजह रखे गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। निर्देशक कुकी गुलाटी ने सारा ध्यान शॉट टेकिंग और फिल्म की स्टाइल पर दिया है। गन और हॉट गर्ल्स को लेकर स्टाइलिश फिल्म बनाने के चक्कर में वे कंटेंट पर ध्यान देना भूल गए और निर्माता के करोड़ों रुपए फूँक डाले। फिल्म को आखिरी के 30 मिनटों में खींचा गया है, जब प्रिंस विलेन के जूते में एक डिवाइस लगा देता है ताकि उसे पता चल जाए कि विलेन कहाँ है और फिल्म डर्बन से पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर पर पहुँच जाती है। अंत ऐसा किया गया है ताकि सीक्वल की संभावना बनी रहे। विवेक ओबेरॉय का अभिनय निराशाजनक है। लेदर जैकेट पहन वे तरह-तरह के पोज देकर गन चलाते रहे। अरुणा शील्ड्‍स का फिगर अच्छा है, लेकिन एक्टिंग के मामले वे जीरो हैं। नंदना सेन ने पता नहीं ऐसा रोल क्यों स्वीकार कर लिया। नीरू सिंह प्रभावित नहीं करतीं। संगीत के नाम पर केवल एक गीत उम्दा है। फिल्म के एक्शन सीन उल्लेखनीय हैं। फोटोग्राफी में एरियल शॉट्स का शानदार उपयोग किया गया है। बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है। कुल मिलाकर ‘प्रिंस’ उस सुंदर शरीर की तरह है जिसमें प्राण नहीं है। ",0 " अपराध और हिंसा पर फिल्म बनाना फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप का कम्फर्ट ज़ोन है, इससे बाहर निकलते हुए उन्होंने रोमांटिक फिल्म 'मनमर्जियां' बनाई है। ये अच्छी बात है कि निर्देशक के रूप में उन्होंने अपनी सरहदें लांघी हैं। 'मनमर्जियां' 1999 में प्रदर्शित फिल्म संजय लीला भंसाली की फिल्म 'हम दिल दे चुक सनम' का अनुराग वर्जन है। यह पहली बार है जब अनुराग ने अपनी फिल्म नहीं लिखी है। इसे कनिका ढिल्लो ने लिखा है और उन्होंने कई फिल्मों से प्रेरणा ली है। जब वी मेट, वो सात दिन और हम दिल दे चुके सनम जैसी फिल्मों की याद आती है। कहानी अमृतसर में सेट है। विक्की (विक्की कौशल) और रूमी (तापसी पन्नू) एक दूसरे को बेहद चाहते हैं। प्यार के साथ फ्यार भी उनके लिए बहुत मायने रखता है। एक दिन दोनों की चोरी पकड़ी जाती है। रूमी कहती है कि वह विक्की से ही शादी करेगी और यदि विक्की तैयार नहीं हुआ तो वह किसी से भी शादी कर लेगी। जिम्मेदारी के नाम विक्की घबरा जाता है और वह रूमी के घर शादी की बात करने ही नहीं पहुंचता। आखिरकार रूमी लंदन के बैंकर रॉबी (अभिषेक बच्चन) के साथ अरेंज मैरिज के लिए तैयार हो जाती है। विक्की इस शादी के खिलाफ है। वह रूमी के साथ भाग जाता है, लेकिन उसका लापरवाह स्वभाव फिर आड़े जाता है। उसे पता ही नहीं कि रूमी को लेकर कहां जाना है? क्या करना है? इससे खफा होकर रूमी घर लौट आती है, पर विक्की के प्रति उसकी मोहब्बत में कोई कमी नहीं आती। शादी के ठीक एक दिन पहले फिर रूमी और विक्की भागने का प्लान बनाते हैं, लेकिन विक्की फिर दगा देता है और रूमी की शादी रॉबी से हो जाती है। रॉबी यह जानते हुए कि रूमी से शादी कर लेता है कि विक्की उसका बॉयफ्रेंड है। शादी के बाद भी विक्की को रूमी भूला नहीं पाती। अपनी मनमर्जी चलाती है जिससे इस यह प्रेम त्रिकोण बेहद जटिल हो जाता है। फिल्म की कहानी नई नहीं है, लेकिन अनुराग कश्यप का ट्रीटमेंट इस फिल्म को अलग बनाता है। रूमी और विक्की के कन्फ्यूजन को वे काफी हद तक दिखाने में सफल रहे हैं। उन्होंने अपनी बात कहने के लिए दर्जन भर गानों का सहारा लिया है और इस रोमांटिक फिल्म को म्यूजिकल भी बनाया है। फिल्म कुछ जुदा होने की कोशिश करती है। प्यार को काला या सफेद के बजाय ग्रे कहती है। 'जमाना है बदला, मोहब्बत भी बदली, घिसे पिटे वर्जन नू, मारो अपडेट' कहते हुए 'प्यार' और 'फ्यार' के बीच की लाइन को 'ब्लर' भी करती है, लेकिन इन बातों को हौले से छूती है। रूमी और विक्की के कैरेक्टर्स के जरिये बताया गया है कि प्यार और फ्यार के लिए शादी जरूरी नहीं है। बिना शादी के ही जब सब ठीक चल रहा है तो शादी कर मामले को क्यों उलझाया जाए? लेकिन समाज इस तरह के रिश्ते को पसंद नहीं करता है। रूमी और विक्की पर दबाव बनाया जाता है कि इस रिश्ते पर शादी की मुहर लगाई जाए। निर्देशक और लेखक ने युवा पीढ़ी के प्यार को लेकर कन्फ्यूज़न को दर्शाने की कोशिश की है, लेकिन कहीं-कहीं वे खुद भी कन्फ्यूज नजर आए। इसके साथ ही फिल्म की लंबाई (157 मिनट) भी बहुत ज्यादा है इस कारण कई बार फिल्म ठहरी हुई लगती है। स्क्रिप्ट में इस बात की कमी खलती है कि यदि रूमी का परिवार और विक्की का भी परिवार शादी के लिए राजी है तो विक्की क्यों बार-बार शादी के नाम पर भाग जाता है? विक्की और रूमी के बारे में सब कुछ जानते हुए भी रॉबी क्यों रूमी से शादी करने के लिए तैयार हो जाता है? स्क्रिप्ट की खामियों को काफी हद तक अनुराग कश्यप अपने निर्देशन के बल पर ढंक लेते हैं। उन्होंने फिल्म को बेहद अच्छे से शूट किया है। दो एक जैसी दिखने वाली लड़कियों के डांस, कहवा पीते खामोश लड़के और‍ स्क्रिप्ट में गानों को गूंथ कर फिल्म को देखने लायक बनाया है। उन्होंने रूमी और विक्की के प्यार को आक्रामकता के साथ दिखाया है। कई जगह फिल्म दोहराव का शिकार भी हुई है। कनिका ढिल्लो के संवाद अच्छे हैं। 'डिस्कशन अच्छी चीज होती है' जैसे कुछ बेहतरीन संवाद सुनने को मिलते हैं। फिल्म में एक अच्छा सीन लिखा गया है। रूमी जो खुले में सुट्टा लगाने से परहेज नहीं करती है, शादी के बाद अपने प्रेमी से चोरी-छिपे मिलने जाती है। इस पर उसका पति कहता है कि गाड़ी से जाया करो, मुंह छिपाकर चोरी से नहीं। शायद यहीं पर उसकी सोच अपने पति और खुद के प्रति बदलती है। फिल्म का सबसे चमकदार पहलू रूमी का किरदार है। इतना बिंदास महिला पात्र बहुत ही कम हिंदी फिल्म में देखने को मिला है। अपनी शर्तों पर जीने वाली, डॉमिनेटिंग, इच्छाओं को खुल कर व्यक्त करने वाली रूमी दरअसल इस फिल्म की हीरो है। तापसी पन्नू ने यह किरदार निभाया है और यह उनके करियर का बेहतरीन अभिनय है। रूमी की आक्रामकता, बिंदासपन, छटपटाहट, प्यार, फ्यार को उन्होंने बेहतरीन तरीके से जिया है। हर सीन में वे अन्य कलाकारों पर भारी पड़ी हैं। विक्की कौशल का अभिनय भी बेहतरीन है, हालांकि कई बार लगता है कि उनके किरदार को लेखक और निर्देशक ने फिल्म के बीच भूला दिया है। अभिषेक बच्चन का निर्देशक ने चतुराई के साथ उपयोग किया है। वे अभिषेक के अभिनय की रेंज जानते हैं, इसलिए उन्होंने अभिषेक को ऐसे सीन नहीं दिए जहां वे अनकम्फर्टेबल महसूस करें। उन्हें कम संवाद दिए गए हैं। अमित त्रिवेदी का संगीत शानदार है और फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में अहम योगदान देता है। बैनर : ए कलर येलो प्रोडक्शन, इरोस इंटरनेशनल, फैंटम फिल्म्स निर्माता : आनंद एल. राय निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : तापसी पन्नू, अभिषेक बच्चन, विक्की कौशल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 37 मिनट 16 सेकंड ",1 "chandermohan.sharma@timesgroup.com ग्लैमर नगरी में यंग डायरेक्टर पवन कृपलानी की पहचान उन डायरेक्टर्स में है जो लीक से हटकर कुछ अलग किस्म की फिल्में बनाते हैं। पवन की पिछली दोनों फिल्में 'रागिनी एमएमएस' और 'डर: एट द मॉल' बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इन फिल्मों को हॉरर फिल्में पसंद करने वाली क्लास ने पंसद किया। इस बार पवन ने इस थ्रिलर साइकॉलजिकल कहानी पर फिल्म बनाई है, सीमित बजट में ऐसी स्टार कास्ट को लेकर बनाई गई इस फिल्म में बेशक एक नई कहानी है, लेकिन इसके बावजूद ऐसे मसाले कहीं नजर नहीं आते जो बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को हिट करने का दम रखते हैं। राधिका आप्टे ने अपने किरदार को ऐसे सशक्त ढंग से निभाया कि कल तक राधिका को कमजोर ऐक्ट्रेस मानने वाले भी इस फिल्म में उनके किरदार और बेहतरीन ऐक्टिंग को देखने के बाद उसके फैन बन जाएंगे। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आर्टिस्ट महक (राधिका आप्टे) एगोराफोबिया से पीड़ित हैं, यह एक ऐसी बीमारी है जब रोगी घर से बाहर या किसी अनजान जगह पर जाने के नाम से ही बौखला जाता है। महक एक आर्ट एग्ज़िबिशन से आधी रात को लौट रही है, रास्ते में टैक्सी ड्राइवर उसके साथ रेप करने की नाकाम कोशिश करता है। महक खुद को बचाने में कामयाब रहती है, लेकिन इस हादसे के फौरन बाद महक एगोराफोबिया की शिकार हो जाती है। इस बुरे वक्त में महक के साथ उसका खास दोस्त शान (सत्यदीप मिश्रा) उसके साथ है। शान को लगता है अगर महक कुछ वक्त के लिए अपने घर से दूर जाकर कहीं और रहने जाए तो शायद कुछ ठीक हो जाए। शान अपने एक दोस्त के तीन रूम के फ्लैट में महक के साथ रहने के लिए आता है। इस फ्लैट में आने के बाद भी महक का डर खत्म नहीं होता और यहां आकर भी खुद को इस फ्लैट में कैद कर लेती है। फ्लैट में आने के बाद महक को लगता है फ्लैट में एक लाश दफन है। दरअसल, महक और शान के इस फ्लैट में आने से पहले एक लड़की इस फ्लैट में रहती है, जो अचानक गायब हो जाती है। ऐसे में महक को लगता है फ्लैट में उस लड़की की लाश कहीं दफन है। देखिए: फिल्म फोबिया का ट्रेलर ऐक्टिंग : अंत तक पूरी फिल्म महक यानी राधिका आप्टे के आसपास घूमती है और राधिका ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से इस किरदार को जीवंत किया है। अपने किरदार को निभाने के लिए राधिका ने कंप्लीट होमवर्क किया और डायरेक्टर पवन के साथ कई वर्कशॉप भी की। इतना ही नहीं किरदार की डिमांड के मुताबिक, राधिका ने ऐसा लुक अपनाया जिसमें वह खूबसूरत दिखाई नहीं देती। शान के रोल में सत्यदीप मिश्र जंचे हैं। अन्य कलाकारों में निक्की के रोल में यशस्वनी ने अपनी पहचान दर्ज कराई है। निर्देशन : पवन कृपलानी ने अंत तक दर्शकों को कहानी और किरदारों के साथ बांधने की अच्छी कोशिश की है। फिल्म की शुरुआत कुछ कमजोर है, लेकिन इंटरवल से कुछ पहले कहानी ट्रैक पर लौटती है। 'रागिनी एमएमएस' से कुछ पहचान बना चुके पवन ने स्क्रिप्ट के साथ पूरी ईमानदारी तो की, लेकिन ऐसा लगता है जैसे उन्होंने फिल्म शुरू करते ही सोच लिया था कि वह मल्टिप्लेक्स कल्चर के लिए फिल्म बना रहे हैं। करीब दो घंटे की इस फिल्म की कहानी को पर्दे पर उतारने के लिए उन्होंने फ्लैशबैक का कुछ ज्यादा ही सहारा लिया है, इसके बावजूद फिल्म अगर बॉक्स ऑफिस पर नहीं टिकती तो इसकी वजह डिफरेंट कहानी और किरदार कहे जाएंगे जो बेहद सीमित क्लास दर्शकों की कसौटी पर ही खरा उतर सकते हैं। संगीत : फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर कहानी और महौल पर पूरी तरह से फिट है। क्यों देखें : राधिका आप्टे की बेहतरीन ऐक्टिंग दिल को छूने का दम रखती है। अगर आपको साइको-थ्रिलर फिल्में पसंद हैं तभी फोबिया आपको पसंद आ सकती है। ऐसी पावरफुल स्क्रिप्ट जो लीक से हटकर कुछ अलग किस्म की फिल्में देखने वाली मल्टिप्लेक्स क्लास की ही कसौटी पर खरी उतर सकती है। ",1 "यदि आप अनुराग कश्यप की डार्क फिल्में पसंद करते हैं तो ‘गुलाल’ आपको अच्छी लगेगी। बैनर : जी लाइमालइट निर्देशक : अनुराग कश्यप गीत-संगीत : पीयूष मिश्रा कलाकार : केके मेनन, आदित्य श्रीवास्तव, दीपक डोब्रियाल, जेसी रंधावा, माही गिल, पीयूष मिश्रा, आदित्य श्रीवास्तव * 8 रील * ए-सर्टिफिकेट ‘गुलाल’ की कहानी अनुराग कश्यप ने आठ वर्ष पहले लिखी थी। उनका कहना है कि जब वे बेहद कुंठित थे और कहानी के जरिये उन्होंने अपना गुस्सा निकाला। ये बात और है कि इस फिल्म के लिए उन्हें कोई निर्माता नहीं मिला और इसी बीच उन्होंने कुछ फिल्में बना डालीं। ‘गुलाल’ में कई कहानियाँ हैं, जिसे ढेर सारे चरित्रों के जरिये पेश किया गया है। छात्र राजनीति, राजपूतों के अलग राज्य की माँग, नाजायज औलाद का गुस्सा, प्रेम कहानी, युवा आक्रोश का गलत इस्तेमाल जैसे मुद्दों को उन्होंने फिल्म में दिखाया है। फिल्म का प्रस्तुतिकरण अनुराग ने यथार्थ के करीब रखा है, इस वजह से फिल्म के किरदार गालियों से भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। कहानी का मुख्य किरदार है दिलीप (राजसिंह चौधरी), जो एक सीधा-सादा लड़का है और कॉलेज में आगे की पढ़ाई करने के लिए आया है। वह रांसा (अभिमन्यु सिंह) के साथ रहता है, जो मस्तमौला और बेखौफ इनसान है। बना (केके मेनन) राजपूतों के पृथक राज्य के लिए धन और नौजवानों को इकट्ठा करता है। छात्र राजनीति में उसकी रुचि है क्योंकि युवाओं के माध्यम से वह धन जुटाता है। रांसा को वह अपनी पार्टी राजपूताना से जनरल सेक्रेटरी का चुनाव लड़वाता है, लेकिन पारिवारिक दुश्मनी के चलते चुनाव के पहले रांसा का कत्ल हो जाता है। ऐन मौके पर दिलीप को चुनाव लड़वा दिया जाता है और वह चुनाव में किरण को हरा देता है। अपनी हार से बौखलाए किरण और उसका भाई करण किसी भी तरह जनरल सेक्रेटरी का पद पाना चाहते हैं, इसलिए दिलीप को किरण अपने प्यार के जाल में फँसाती है। जनरल सेक्रेटरी बनने के बावजूद दिलीप, बना की सिर्फ कठपुतली बनकर रह जाता है। वह विद्रोह करता है और उसे बना की असलियत मालूम पड़ती है। ताकत, हिंसा, फरेब, लालच, षड्‍यंत्र, बेवफाई और नफरत का दिलीप शिकार बन जाता है। ‘गुलाल’ की बेहतरीन शुरुआत से जो आशा बँधती है, वो अंत में पूरी नहीं हो पाती। नए किरदार कहानी से जुड़ते जाते हैं और उसका विस्तार होता है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म अनुराग कश्यप के हाथ से निकल जाती है। लेखक के रूप में वे कहानी को ठीक से समेट नहीं पाए। राजनीति को लेकर शुरू की गई बात प्रेम कहानी पर खत्म होती है। कई मुद्दों और चरित्रों को अधूरा छोड़ दिया गया है। राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी में नयापन नहीं है और इस तरह की फिल्में पहले भी आ चुकी हैं। खून-खराबे के खेल में पुलिस को लगभग भुला ‍ही दिया गया है और ऐसा लगता है चारों ओर जंगलराज है। फिल्म के अंत में बना को जब दिलीप गोली मार देता है, तब दोनों के बीच काफी लंबे संवाद हैं। वो भी ऐसे समय जब दिलीप को गोली लगी हुई है। लेखक के बजाय अनुराग निर्देशक के रूप में ज्यादा प्रभावित करते हैं। एक ही दृश्य के माध्यम से उन्होंने कई बातें कही हैं। चरित्र को स्थापित करने में ज्यादा फुटेज बरबाद नहीं किए गए हैं। दर्शकों को दृश्यों के माध्यम से समझना पड़ता है कि कौन क्या है और ये बात फिल्म में आगे आने वाले दृश्यों से स्पष्ट होती है, इसलिए सारी बातों को याद रखना पड़ता है। पीयूष मिश्रा के लिखे गीत फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। उनकी लिखी हर लाइन सुनने लायक है। गुरुदत्त से अनुराग कश्यप बेहद प्रभावित हैं, इसलिए एक गीत में ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ का भी उपयोग किया गया है। फिल्म के संवाद तीखे हैं और तीर की तरह चुभते हैं। राजीव राय की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। रंग-बिरंगी रोशनी के जरिये कलाकारों के भाव को अच्छी तरह उभारा गया है। अभिनय की दृष्टि से सारे कलाकार एक से बढ़कर एक हैं। केके मेनन (बना), राजसिंह चौधरी (दिलीप), अभिमन्यु सिंह (रांसा), पंकज झा (जडवाल), दीपक डोब्रियाल, पीयूष मिश्रा और आयशा मोहन ने अपने चरित्रों को जिया है। जेसी रंधावा को ज्यादा मौका नहीं मिला है। यदि आप अनुराग कश्यप की डार्क फिल्में पसंद करते हैं तो ‘गुलाल’ आपको अच्छी लगेगी। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर डायरेक्टर इंद्र कुमार की पिछली फिल्मों का जिक्र किया जाए तो उनके निर्देशन में बनी दिल, बेटा, राजा, मन, इश्क, और धमाल जैसी साफ सुथरी फिल्में याद आती हैं। नब्बे की शुरुआत में इंद्र कुमार की आमिर खान स्टारर दिल के साथ डायरेक्टर बने और दिल ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी और कमाई के नए रेकॉर्ड बनाए। इसके बाद अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित स्टारर बेटा, इश्क सहित कई सुपरहिट फिल्में बनाई। पहली बार इंद्र कुमार ने 'धमाल' के साथ फुल कॉमिडी फिल्म में हाथ आजमाया। संजय दत्त, अरशद वारसी, स्टारर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया, लेकिन 2004 में इंद्र कुमार ने अजय देवगन जैसे नामी स्टार के साथ मस्ती बनाई और यहीं से हॉट कॉमिडी फिल्मों के साथ उनका नाम जुड़ा। बेशक मस्ती में भी डबल मीनिंग डायलॉग और हॉट सीन्स थे लेकिन इन सीन्स के बावजूद मस्ती को फैमिली क्लास ने भी एन्जॉय किया और फिल्म सुपरहिट साबित हुई। मस्ती की रिलीज के करीब आठ साल बाद इंद्र कुमार ने इस फिल्म का सिक्वल ग्रेट मस्ती बनाया तो इस बार उनकी यह फिल्म बोल्ड सीन्स, डबल मीनिंग डायलॉग के दम पर बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies लेकिन ग्रेट ग्रैंड मस्ती के साथ ऐसा करिश्मा शायद ही हो पाए। वजह साफ है इस बार बेहद कमजोर कहानी, लचर स्क्रिप्ट और बेवजह ठूंसे गए हॉट सीन्स और जरूरत से कहीं ज्यादा डबल मीनिंग डायलॉग हैं जो कहीं भी कहानी का हिस्सा नहीं लगते। वहीं इस फिल्म की स्टारकास्ट भी अनफिट लगती है। दूसरे रिलीज से करीब दो सप्ताह पहले फिल्म के लीक होने का खामियाजा प्रॉडक्शन कंपनी को होगा। कहानी: अमर सक्सेना ( रितेश देशमुख ), मीत मेहता ( विवेक ओबेरॉय ) और प्रेम चावला ( आफताब शिवदासानी ) तीनों अच्छे दोस्त है और तीनों शादीशुदा हैं। इन तीनों की खूबसूरत बीवियां हैं लेकिन तीनों अपनी मैरिज लाइफ से ज़रा खुश नहीं हैं। घर में खूबसूरत बीवी होने के बावजूद तीनों इधर-उधर हाथ पांव मारने से बाज नहीं आते। अमर अपनी बरसों पुरानी हवेली को बेचने के लिए गांव जाने का प्लान बनाता है। अमर के साथ मीत और प्रेम भी मस्ती करने के लिए गांव जाते हैं। गांव जाकर इन्हें पता लगता है कि गांव वाले अमर की हवेली को भूतिया कहते हैं पर ये तीनों दोस्त इस बात को नहीं मानते और हवेली जाते हैं। यहां इनकी मुलाकात रागिनी (उर्वशी रौतेला) से होती है। रागिनी से मिलने के बाद तीनों रागिनी को अपना बनाने के सपने देखने लगते हैं। अब हम आपको रागिनी कौन है, यह नहीं बताएंगे। अगर यह बता डाला तो इस फिल्म देखने की कोई वजह नहीं रहेगी। इसी बीच कहानी में अंताक्षरी बाबा (संजय मिश्रा) रामसे (सुदेश लहरी) और गांव की खूबसूरत लड़की शिनी (सोनाली राउत) की एंट्री होती है। यहीं से एक ऐसा ड्रामा शुरू होता है जो शुरू में कुछ मजेदार लगता है लेकिन चंद मिनट बाद ही आपके सब्र की परीक्षा लेने लगता है। ऐक्टिंग: इस फिल्म में रितेश देशमुख अपने अभिनय के दम पर बाकी सारी कलाकारों पर भारी पड़े। रितेश की डायलॉग डिलीवरी कमाल की है। फिल्म में रितेश की सास के रोल में ऊषा नाडकर्णी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। अगर फिल्म की बाकी स्टारकास्ट की बात करें तो विवेक, आफताब, उर्वशी और श्रद्धा दास ने अपने किरदारों को ठीकठाक निभाया है। श्रेयश तलपड़े और सुदेश लहरी का फिल्म में कैमियो है लेकिन दोनों ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। निर्देशन: मस्ती की कामयाबी की हैट-ट्रिक मनाने के लिए इस बार इंद्र कुमार को एक बेहद कमजोर और लचर स्क्रिप्ट के अलावा कहानी के लिए अनफिट स्टारकास्ट मिली। फिल्म की कहानी बेहद कमजोर हैं। इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार बेहद सुस्त है तो बाद में इंद्र कुमार कहानी और किरदारों को समेटने में ऐसे उलझे कि जैसे-तैसे कहानी को बस समेट पाए। अगर इंटरवल के बाद की कहानी की बात की जाए तो कहानी गायब नजर आती है। बेशक इंद्र कुमार ने अपनी और से दर्शकों को हंसाने की भरसक कोशिश की लेकिन डबल मीनिंग डायलॉग और हॉट सीन्स से नहीं बल्कि संजय मिश्रा और रितेश की ऐक्टिंग के दम पर। अच्छा होता इंद्र इस सिक्वल को बनाने की जल्दबाजी को छोड़कर पूरे होमवर्क के बाद इस पर काम करते तो शायद मस्ती की हैट-ट्रिक सुपरहिट के साथ मना पाते। संगीत: सवां दो घंटे से भी कम की कहानी में डायरेक्टर साहब ने न जाने क्यूं जरूरत से कहीं ज्यादा गाने फिट कर डाले। बेशक गाने स्क्रीन पर सुनने और देखने में ठीक बन पड़े हैं लेकिन इन गानों को अगर कम किया जाता तो मस्ती की रफ्तार को बढ़ाया जा सकता था। क्यों देखें: अगर मस्ती सीरीज की पिछली दोनों फिल्में देखी हैं तो इस बार यह देखने जाए कि बिना दमदार कहानी और स्क्रिप्ट के इंद्र कुमार ने सीरीज की तीसरी फिल्म को कैसे बना डाला। ",0 "कहानी बिल्कुल जिंदगी की तरह होती है। शुरुआत और अंत दोनों शुरुआत में ही तय होते हैं। 'हेट स्टोरी' की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें प्यार से ज्यादा नफरत है। यह फिल्म 'हेट स्टोरी' फ्रैंचाइजी की चौथी फिल्म है। पिछले दिनों 'गोलमाल' फ्रैंचाइजी की भी चौथी फिल्म 'गोलमाल 4' रिलीज हुई है। बेशक, इसे 'हेट स्टोरी' सीरीज का दर्शकों के बीच क्रेज ही कहा जाएगा कि अब इसकी चौथी फिल्म 'हेट स्टोरी 4' रिलीज हो रही है और अब इस सीरीज़ की पांचवी फिल्म को लेकर भी चर्चा है। फिल्म के क्रेज़ का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सुबह के शो में दर्शकों की खासी तादाद मौजूद थी। फिल्म की कहानी ब्रिटेन में रहने वाले दो भइयों आर्यन खुराना (विवान भटेना) और राजवीर खुराना (करण वाही) की है। रिशमा (इहाना ढिल्लन) आर्यन की गर्लफेंड है। उन्हें अपने ब्रैंड के लिए फ्रेश फेस की तलाश है। राजवीर इसके लिए अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड की जगह ताशा (उर्वशी रौतेला) को तलाशता है, लेकिन आर्यन भी उस पर लट्टू हो जाता है। राजवीर और आर्यन का बाप विक्रम खुराना (गुलशन ग्रोवर) बड़ा बिज़नसमैन है, जो कि मेयर का इलेक्शन लड़ रहा है। वह आर्यन को राजवीर और ताशा को दूर रखने की जिम्मेदारी देता है। राजवीर ताशा को चाहता और प्रपोज़ करता है, लेकिन आर्यन उसे बाहर भेजकर ताशा को अपना बना लेता है। यही नहीं जब रिशमा उन दोनों को साथ देख लेती है, तो वह उसकी जान ले लेता है। इंटरवल के बाद कहानी में नया मोड़ आता है। तो आखिर में ताशा किसकी होती है? यह तो आपको सिनेमा देखकर ही पता लगेगा।फिल्म के डायरेक्टर विशाल पंड्या ने हर बार इस सीरीज़ की फिल्मों में नए कलाकार और नए एंगल डालने की कोशिश की है। इस बार भी उन्होंने नई कोशिश की है। हालांकि इस बार उनकी टीम में कोई भी नामी सितारा मौजूद नहीं है। बावजूद इसके वह नामी फ्रैंचाइजी सीरीज़ का फायदा उठाकर दर्शकों पर प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं।देखिए, उर्वशी का जबरदस्त बोल्ड अवतारफिल्म का संगीत अच्छा है, तो 'हेट स्टोरी' सीरीज़ की पिछली फिल्मों की तरह हॉट सीन्स की भरमार है। डायरेक्टर ने फिल्म के लिए खूबसूरत लोकेशन तलाशी हैं। फिल्म के जबर्दस्त डायलॉग कई फिल्मों का डायरेक्शन कर चुके मिलाप मिलन झवेरी ने लिखे हैं, जो कि दर्शकों को पसंद आते हैं। अगर आप रोमांटिक थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं, तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी।",0 "रेणुका व्यवहारेकहानी: असम के एक खूबसूरत गांव में रहने वाली धुनू को पेड़ पर चढ़ना, लड़कों के साथ खेलना और अपना थरमाकॉल का गिटार फ्लॉन्ट करना काफी अच्छा लगता है। वह घर के कामों में अपनी विधवा मां का हाथ भी बटाती है। उसका सपना है कि एक दिन उसके पास असल गिटार हो। क्या उसका यह सपना पूरा हो पाएगा?रिव्यू: लेखक-प्रड्यूसर-निर्देशक रीमा दास की असमी फिल्म 'विलेज रॉकस्टार्स' भारत की ओर से ऑस्कर 2019 के लिए बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज कैटिगरी के लिए भेजी गई है। यह आशाओं, इच्छाओं और कठिनाइयों के सामने निडरता की बेबाक कहानी है जो स्लो होने के बावजूद आपकी कल्पनाओं को बांधती है। यह एक तरह से रीमा की अपने घर और वहां के खूबसूरत लोगों के लिए भेंट है। जिन लोगों को धीमी चलने वाली कहानियां पसंद नहीं हैं, यहां उनके सब्र की परीक्षा हो सकती है लेकिन रीमा ने अपने अंदाज में सभी किरदारों और उनकी जिंदगी का विवरण देने में समय लिया है। असम के दृश्यों और वहां की धुनों की शानदार सिनेमटॉग्रफी और ऑडियोग्रफी के जरिए रीमा आपको धुनू के सपनों की दुनिया में ले जाती हैं। एक ऐसी दुनिया जो आपको आपके सौभाग्य का एहसास दिलाती है। एक ऐसी दुनिया जहां अपने दुर्भाग्य के बावजूद एक मां अपनी बेटी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। वह कहती है कि हमारे पास परिश्रम के अलावा कुछ नहीं है। यह फिल्म गरीबी और उससे होने वाली दुविधाओं को दर्शाती है। इसका थीम ट्रैजडी है लेकिन फिर भी यह खुशियों को ढूंढने की एक दिल छू लेने वाली कहानी है। शानदार विजुअल और इमोशन्स के अलावा रीमा का लेखन भी काफी अच्छा है जिसमें लैंगिक समानता को बड़े ही अच्छे तरीके से कहानी में मिला दिया गया है। धुनू की मां अपनी बेटी की परवरिश बेटे की तरह ही करती है। वह धुनू का साथ देती है और उसे 'लड़की की तरह' रहने की नसीहत देने वाले समाज से लड़ती भी है। फिल्म की महिलाएं उन्हीं सामाजिक, शारीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझती हैं जिनसे दो जून की रोटी कमाने के लिए एक पुरुष जूझता है। विलेज रॉकस्टार्स आपको एक ही समय में रुलाती भी है और उत्साहित भी करती है। यह एक छोटी बच्ची और उसकी मां के तकलीफों की कहानी से ज्यादा उन तकलीफों से लड़ने के जज्बे की कहानी है।ट्रेलर: ",1 "आजकल के मॉडर्न जमाने में यूं तो भूत-प्रेत की बात पर कोई यकीन नहीं करता, लेकिन फिर भी कुछ चीजें ऐसी हैं, जो आपको अपने पर यकीन करने के लिए मजबूर कर देती हैं। स्त्री भी देश के कुछ हिस्सों में प्रचलित एक अवधारणा पर आधारित है। माना जाता है कि कुछ खास दिनों में कोई रूह स्त्री का रूप धर कर घर के मर्द का नाम लेकर दरवाजे पर दस्तक देती है और अगर कोई पुरुष दरवाजा खोल देता है, तो वह उसे अपने साथ ले जाती है। बाहर बस उसके कपड़े पड़े रह जाते हैं। उससे बचने के लिए लोग अपने घर के बाहर 'ओ स्त्री कल आना' लिख देते हैं, जिसे पढ़ कर वह लौट जाती है और यह सिलसिला रोजाना चलता रहता है। फिल्म स्त्री भी एक विचित्र घटना से प्रेरित बताई जाती है। हालांकि, फिल्म में डायरेक्टर अमर कौशिक ने हॉरर के साथ कॉमिडी का भी तड़का लगा दिया है। फिल्म को रियल टच देने के लिए इसकी शूटिंग भी भोपाल के पास एक ऐसी जगह की गई है, जहां ऐसी घटनाओं के बारे में सुनने में आता रहता है। फिल्म से जुड़े सूत्रों के मुताबिक शूटिंग के दौरान भी लोगों को खास हिदायत दी गई थी। फिल्म में विक्की (राजकुमार राव) मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे चंदेरी में एक टेलर है। चंदेरी में साल के चार दिन पूजा होती है। माना जाता है कि उन दिनों में स्त्री लोगों को अपना शिकार बनाती है, इसलिए इन दिनों वहां के लोग खासे सावधान रहते हैं। एक दिन उसकी मुलाकात एक अंजान स्त्री (श्रद्धा कपूर) से होती है। विक्की अपने दोस्तों बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जना (अभिषेक बनर्जी) को उसके बारे में बताता है। विक्की उस लड़की से कई बार मिलता है। इसी बीच विक्की का कोई दोस्त और दूसरा दोस्त जना एक के बाद एक करके स्त्री के शिकार बन जाते हैं। तब बिट्टू विक्की को स्त्री की अजीब हरकतों के बारे में समझाता है, तो वे रुद्रा (पंकज त्रिपाठी) की शरण में जाते हैं, जो उन्हें स्त्री की सच्चाई से परिचित कराता है। विक्की और उसके साथी स्त्री से कैसे छुटकारा पाते हैं? यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा। डायरेक्टर अमर कौशिक ने फिल्म पर कहीं भी अपनी पकड़ कमजोर नहीं पड़ने दी है। फर्स्ट हाफ में फिल्म मजेदार है, तो सेकंड हाफ में आपको थोड़ा डराती भी है। फिल्म आपको आखिर तक बांधे रखती है, लेकिन इसका क्लाइमैक्स और बेहतर हो सकता था। बेशक स्त्री से अमर ने हॉरर कॉमिडी का एक नया जॉनर आजमाया है। राजकुमार राव ने फिल्म में हमेशा की तरह बढ़िया ऐक्टिंग की है। यह राजकुमार का यंग जेनरेशन में क्रेज ही है कि सुबह के शो में युवाओं की खासी भीड़ मौजूद थी। पंकज त्रिपाठी ने एक बार फिर शानदार ऐक्टिंग की है। देसी रोल में उनका कोई जवाब नहीं। वहीं श्रद्धा कपूर के पास फिल्म में करने के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं था, बावजूद इसके वह ठीक लगी हैं। वहीं अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बनर्जी भी मजेदार लगे हैं। फिल्म में सुमित अरोड़ा के डायलॉग खासे मजेदार हैं, जो आपको पेट पकड़ कर हंसने पर मजबूर कर देते हैं। केतन सोढा ने हॉरर फिल्म के लिहाज से दमदार बैकग्राउंड स्कोर दिया है। वहीं फिल्म में दो आइटम नंबर भी हैं। इस वीकेंड आप कुछ लीक से हटकर मजेदार देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म मिस मत करिए।",1 "बैनर : यशराज फिलम्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : मनीष शर्मा संगीत : सलीम-सुलैमान कलाकार : अनुष्का शर्मा, रणवीर सिंह, नीरज सूद, मनीष चौधरी सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 14 रील * 2 घंटे 20 मिनट दिल्ली में होने वाले शादियों पर कई फिल्में बनी हैं और ‘बैंड बाजा बारात’ के रूप में एक और फिल्म हाजिर है। कहानी में कोई नयापन नहीं है, लेकिन फिल्म के हीरो-हीरोइन की कैमेस्ट्री, उम्दा अभिनय, चुटीले संवाद और कुछ हिट गानों के कारण लगातार मनोरंजन होता रहता है। श्रुति (अनुष्का शर्मा) दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय परिवार से है। जिंदगी के प्रति उसका नजरिया स्पष्ट है। पाँच साल बाद वह शादी करना चाहती है और उसके पहले ‘वेडिंग प्लानिंग’ का बिज़नेस शुरू करती है। बिट्टो (रणवीर सिंह) को श्रुति पसंद आ जाती है और उसको पटाने के लिए वह उसका बिज़नेस पार्टनर बन जाता है। श्रुति उसे इसी शर्त पर पार्टनर बनाती है कि ‘जिससे व्यापार करो, उससे कभी ना प्यार करो’। यानी बात दोस्ती से आगे नहीं बढ़ेगी। दोनों मिलकर कई शादियाँ करवाते हैं और तरक्की करते हैं। एक रात श्रुति अपना बनाया हुआ नियम खुद तोड़ती है और दोनों सारी हदें लाँघ जाते हैं। इसके बाद बिट्टो के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ जाता है। दोनों में अनबन होती है और व्यावसायिक रूप से भी दोनों अलग हो जाते हैं। अलग-अलग व्यवसाय करते हैं, लेकिन उन्हें घाटा होता है। किस तरह से दोनों फिर से बिज़नेस पार्टनर के अलावा लाइफ पार्टनर बनते हैं, यह फिल्म का सार है। फिल्म सैटल होने में शुरू के पन्द्रह मिनट लेती है और उसके बाद इंटरवल तक भरपूर मनोरंजन करती है। किस तरह ‘शादी मुबारक’ कंपनी के जरिये दोनों अपना व्यवसाय जमाते हैं, ये बहुत दिलचस्प तरीके से दिखाया गया है। फिल्म के मुख्य किरदार वेडिंग प्लानर हैं इसलिए पृष्ठभूमि में कई शादियाँ होती रहती हैं और कहानी आगे बढ़ती रहती है। शादियों का चटक रंग और धूम-धड़ाका फिल्म में नजर आता है। दिक्कत शुरू होती है इंटरवल के बाद। बिट्टो और श्रुति के अलग होने के कारणों को लेखक ठीक से पेश नहीं कर पाए। श्रुति अपने ही नियम को तोड़ बिट्टो से प्यार करने लगती है, लेकिन बिट्टो क्यों उससे दूर भागता है? उसके दिमाग में क्या चल रहा है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। जबकि श्रु‍ति का बिज़नेस पार्टनर बिट्टो इसीलिए बनता है क्योंकि वह उससे प्यार करता था। इससे दोनों के अलग होने का दर्द दर्शक महसूस नहीं करता। अंतिम 15 मिनटों में फिल्म फिर एक बार ट्रेक पर आ जाती है। इन कमियों के बावजूद फिल्म मनोरंजन करती है और इसका सबसे बड़ा कारण है रणवीर और अनुष्का की कैमेस्ट्री। दोनों ने अपने किरदारों को बारीकी से पकड़कर बखूबी पेश किया है। शुरुआती दो फिल्मों में अनुष्का को कम अवसर मिले थे, लेकिन यहाँ उनका रोल हीरो जैसा है और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया है। रणवीर सिंह के आत्मविश्वास को देख लगता ही नहीं कि यह उनकी पहली फिल्म है। एक मँजे हुए अभिनेता की तरह छोटे शहर से दिल्ली आए लड़के का रोल उन्होंने बखूबी निभाया है। कैरेक्टर रोल के लिए अनजाने से चेहरे हैं, लेकिन सभी ने अपना काम खूब किया। निर्देशक के रूप में मनीष शर्मा प्रभावित करते हैं। मनोरंजक सिनेमा गढ़ने में वे कामयाब रहे हैं। दिल्ली शहर का फ्लेवर और किरदारों का उत्साह स्क्रीन पर नजर आता है। यदि वे इमोशनल सीन को भी अच्छे से पेश करते तो फिल्म का प्रभाव और बढ़ जाता। सलीम-सुलैमान ने फिल्म के मूड को ध्यान में रखकर धुनें तैयार की हैं और इनमें से ‘तरकीबें, ‘एंवई एंवई’ और ‘दम दम’ सुनने लायक है। वैभव मर्चेण्ट की कोरियोग्राफी भी देखने लायक है। कुल मिलाकर इस बैंड बाजे वाली बारात में शामिल हुआ जा सकता है। ",1 "1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : शैलेन्द्र आर. सिंह निर्देशक : अनिल सीनियर कलाकार : राहुल बोस, कोंकणा सेन शर्मा, इरफान खान, राहुल खन्ना, सोहा अली खान, पायल रोहतगी वूडी एलन की फिल्म ‘हसबैंड्‍स एंड वाइव्स’ से प्रेरित होकर निर्देशक अनिल सीनियर ने ‘दिल कबड्डी’ नामक फिल्म बनाई है। फिल्म में पति-पत्नी की दो जोडि़यों ऋषि-सिमी (राहुल बोस-कोंकणा सेन शर्मा) और समित-मीत (इरफान खान-सोहा अली खान) के बनते-बिगड़ते रिश्ते को दिखाया गया है। बात गंभीरता से नहीं बल्कि हास्य से भरे अंदाज में की गई है। इसे ‘एडल्ट कॉमेडी’ कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि जैसे कैमरा इन जोडि़यों के बेडरूम में लगा है, जिसमें वे सेक्स से लेकर वो सारी बातें करते हैं, जो आमतौर पर पति-पत्नी के बीच होती हैं। फिल्म के आरंभ में दिखाया गया है कि समित और मीत की शादी को कुछ वर्ष हो गए हैं और दोनों आपस में खुश नहीं हैं। पत्नी को कला फिल्म पसंद है, तो पति को मसाला फिल्म। छोटी-छोटी बातों पर वे लड़ते रहते हैं। दोनों के बीच सेक्स हुए भी कई महीने हो गए हैं और इस वजह से पति अपनी पत्नी से नाराज है। उसका कहना है कि इस कारण दिमाग और शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है। दोनों अलग होने का फैसला करते हैं। ऋषि और सिमी इनके अच्छे दोस्त हैं। दोनों के आपसी संबंध सिर्फ ठीक-ठाक है। ऋषि की चाहत कुछ और थी, इस वजह से पत्नी में उसे कमी दिखाई देती है। उसे अपनी गर्लफ्रेंड की याद आती है जो बहुत सेक्सी थी। समित और मीत के अलगाव का असर उनके रिश्तों पर भी होता है। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि फिल्म के अंत में समित और मीत एक हो जाते हैं और ऋषि-सिमी अलग हो जाते हैं। जहाँ एक ओर पुरुषों को लंपट दिखाया गया है, जिन्हें अपनी पत्नी के बजाय दूसरी औरतें ज्यादा आकर्षक और हॉट लगती हैं, क्योंकि सेक्स को लेकर सबकी अलग-अलग कल्पनाएँ हैं। वहीं पत्नियाँ अपने पति पर बहुत ज्यादा रोक-टोक लगाती हैं और हक जमाती हैं। पति-पत्नी के रिश्तों में शादी के कुछ वर्षों बाद ठहराव आ जाता है। रोमांस गायब हो जाता है। वे एक-दूसरे से बोर हो जाते हैं और वैवाहिक जिंदगी की सीमाएँ लाँघते हैं। इन सारी बातों को गुदगुदाते अंदाज में दिखाया गया है। पूरी फिल्म में इन दोनों जोडि़यों की जिंदगी से कुछ प्रसंग उठाए गए हैं, जिन्हें निर्देशक ने एक नए अंदाज में पेश किया है। सारे किरदार कई बार कैमरे की ओर मुखातिब होकर सवालों के जवाब उसी अंदाज में देते हैं, जैसे इंटरव्यू के दौरान दिए जाते हैं। घटनाओं का क्रम निर्धारित नहीं है, कोई-सा भी प्रसंग कभी भी आ जाता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म रोचक लगती है। कई दृश्य हँसाते हैं। मध्यांतर तक फिल्म में पकड़ है, लेकिन इसके बाद फिल्म थोड़ी लंबी खिंच गई है। फिल्म के कलाकार इसका सबसे सशक्त पहलू है। इरफान खान का किरदार ‘मेट्रो’ फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए किरदार का विस्तार लगता है। उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। सोहा अली खान के चरित्र में कई शेड्स हैं और उन्होंने हर रंग को बखूबी परदे पर पेश किया है। राहुल बोस और कोंकणा सेन हमेशा की तरह शानदार हैं। पायल रोहतगी ने ओवर एक्टिंग की है। एडल्ट कॉमेडी और सेक्स को लेकर हिंदी फिल्मकार परहेज करते रहे हैं, लेकिन बिना फूहड़ और अश्लील हुए भी एडल्ट कॉमेडी पर फिल्म बनाई जा सकती है। कुल मिलाकर ‘दिल कबड्डी’ हँसाती ज्यादा है, बोर कम करती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत ",1 "निर्माता : गौरी खान निर्देशक : रोशन अब्बास संगीत : आशीष, श्री डी, प्रीतम कलाकार : अली फजल, गिसेलो मोंटेरो, जोया मोरानी, सत्यजीत दुबे, सतीश शाह, लिलेट दुबे, विजय राज, मुकेश तिवारी, मनोज जोशी, नवनीत निशान, मेहमान कलाकार- शाहर ु ख खान सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 10 मिनट शाहरुख खान भी यह बात समझ गए थे कि उनके द्वारा बनाई गई फिल्म ‘ऑलवेज कभी कभी’ के चलने की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए उन्होंने ‍भी‍ फिल्म के प्रचार में कोई रूचि नहीं ली। पिछले कई दिनों से वे ‘रा-वन’ का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन ऑलवेज कभी कभी के बारे में उन्होंने एक भी शब्द नहीं बोला। फिल्म इतनी उबाऊ है कि बार-बार सिनेमाघर छोड़ने का मन करता है। दर्शक कितना पक जाता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही फिल्म खत्म होती है और स्क्रीन पर शाहरुख खान के आइटम सांग के साथ नाम आने शुरू होते हैं, कोई भी इस सुपरस्टार पर फिल्माया गया गाना देखने के लिए रूकना भी पसंद नहीं करता। ‘ऑलवेज कभी कभी’ में वही बात की गई है जो हम हाल ही में फालतू और थ्री इडियट्स में देख चुके हैं। पैरेंट्स के सपनों को पूरा करने का बच्चों पर दबाव। पढ़ाई का टेंशन आदि। कई बार दोहराई जा चुकी यह बात फिल्म में इतने बचकाने तरीके से पेश की गई है कि कही भी फिल्म अपना असर नहीं छोड़ पाती। सब कुछ सतही तरीके से कहा गया है। ऐसा लगता है कि फिल्म के जरिये कई बातें निर्देशक और लेखक कहना चाहते थे, लेकिन वे ठीक से कह नहीं पाए और सारा मामला गड़बड़ हो गया। कहने को तो फिल्म टीनएजर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन फिल्म में वो मौज-मस्ती नदारद है जो इस वर्ग को पसंद है। न ही ये फिल्म इस तरह की कोई बात या मुददा सामने लाती है कि पैरेंट्स इसे देखकर कुछ सीख सकें। निर्देशक रोशन अब्बास पर अभी भी कुछ कुछ होता है टाइप फिल्मों का हैंगओवर छाया हुआ है। फिल्म को उन्होंने उसी अंदाज में बनाया है और उनका ध्यान फिल्म के लुक और स्टाइलिंग पर रहा है। स्क्रीनप्ले लिखने वालों में उनका भी नाम है और यहाँ पर वे निर्देशक से भी ज्यादा कमजोर साबित हुए हैं। सारे घटनाक्रम ठूँसे हुए लगते हैं और इन घटनाओं को बेहूदा तरीके से आपस में जोड़ा गया है। रोमियो जूलियट के नाटक के बारे में ढेर सारी बातें कर खूब बोर किया गया है। पुलिस वाला ट्रेक भी बचकाना है। हँसाने के लिए जो दृश्य रखे गए हैं वो खीज पैदा करते हैं। आखिर में पैरेंट्स का अचानक हृदय परिवर्तन होना तर्कसंगत नहीं लगता है। फिल्म का संगीत इसकी एक और कमजोर कड़ी है। नंदी के रूप में जोया मोरानी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हैं और उन्होंने नैसर्गिक अभिनय किया है। समीर का किरदार निभाया है अली फज़ल ने और उनका अभिनय भी ठीक कहा जा सकता है। गिसेले मोंटेरो सुंदर है, लेकिन उनकी एक्टिंग के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती है। सत्यजीत दुबे भी ओवर एक्टिंग करते रहे। विजय राज, सतीश शाह और मुकेश तिवारी जैसे अभिनेताओं ने पता नहीं क्या सोचकर दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकारी। कुल मिलाकर ऑलवेज कभी कभी को ‘नेवर’ कहना ही उचित है। ",0 "निर्माता : हेराल्ड क्लोसर निर्देशक : रोलैंड एमरिच कलाकार : जॉन क्यूसैक, अमांडा पीट, डैनी ग्लोवर, वूडी हैरलसन दो घंटे 38 मिनट ये बात सभी लोग मानते हैं कि दुनिया एक दिन खत्म हो जाएगी। हालाँकि इसके पीछे ठोस कारण कोई नहीं दे पाया है। कब खत्म होगी? इसके बारे में कई बार तारीखें घोषित की गई, जिनमें से कुछ गुजर भी गईं। माया सभ्यता के कैलेंडर ने पृथ्वी की एक्सपायरी डेट दिसंबर 2012 घोषित की है, जिसको आधार बनाकर ‘2012’ का निर्माण किया है। इसमें कुछ वैज्ञानिक तथ्यों का भी इस्तेमाल किया गया है और चार्ल्स हैपगुड की 1958 में प्रस्तुत की गई अर्थ क्रस्ट डिस्प्लेसमेंट थ्योरी का हवाला भी दिया गया है। खैर, दुनिया जब खत्म होगी तब होगी, लेकिन किस तरह से होगी इसकी कल्पना ‘2012’ में की गई है। तबाही का जो खौफनाक मंजर पेश किया है वो दिल दहला देता है। सूर्य की गर्मी लगातार बढ़ती है, जिससे पृथ्वी पर हलचल बढ़ने लगती है। इस बात को सबसे पहले एक भारतीय महसूस करता है और उसका अनुमान है कि पृथ्वी का अंत निकट है। वह ये बात अपने अमेरिकी दोस्त को बताता है और बात अमेरिकी राष्ट्रपति तक पहुँच जाती है। राष्ट्रपति अन्य देशों के प्रमुखों को इस भयावह स्थिति के बारे में बताते हैं और आम लोगों से इस बात को छिपाया जाता है ताकि अफरा-तफरी का माहौल न बने। मानव जाति को बचाने के लिए एक सीक्रेट शिप का निर्माण शुरू किया जाता है ताकि दुनिया भर के चुनिंदा लोग इस महाप्रलय से बच सके। दुनिया भर से पैसा जुटाया जाता है और कुछ अमीर लोग इस शिप में बैठने के लिए 600 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति किराया चुकाते हैं। यह बात कुछ आम लोगों को भी पता चल जाती है और वे भी इस शिप में बैठने की कोशिश करते हैं। एक तरफ दुनिया खत्म हो रही है तो दूसरी ओर ऐसे समय भी कुछ लोग राजनीति से बाज नहीं आते हैं। एक बिखरता हुआ परिवार त्रासदी की इस घड़ी में एकजुट हो इस विनाश में प्यार और विश्वास पाता है। सीक्रेट शिप के जरिये बचे हुए लोग इस महाप्रलय का सामना करते हुए विजयी होते हैं। फिल्म में कई किरदार हैं जिनके जरिये प्यार, नफरत, विश्वास, अविश्वास जैसे मानवीय स्वभावों को दिखाया गया है। किस तरह मुसीबत में अपने याद आते हैं। ऐसे समय कोई अपने बारे में ही सोचता है तो कोई मनुष्य जाति के बारे में विचार करता है। एक रेडियो जॉकी का किरदार मजेदार है, जिसे अपने श्रोताओं को सबसे पहले खबर देने की सनक है और वह ज्वालामुखी के बीच खड़ा होकर अपना काम करता है। फिल्म में ड्रामे की बजाय स्पेशल इफेक्ट्स पर जोर दिया है। शुरू के 15 मिनट बाद विनाश को जो सिलसिला शुरू होता है तो अंत तक चलता है। ज्वालामुखी, भूकंप और सुनामी के जो दृश्य दिखाए गए हैं वे अद्‍भुत हैं। जमीन फट जाती है और उसमें शहर समा जाते हैं। पानी में कई शहर डूब जाते हैं। इन सबके बीच विमान में बैठा एक परिवार किस तरह बचता है ये उम्दा तरीके से पेश किया गया है। स्पेशल इफेक्ट्स सुपरवाइज़र माइक वज़ीना नि:संदेह इस फिल्म के हीरो हैं। इतनी सफाई से उन्होंने अपने काम को किया है कि कुछ भी बनावटी या नकली नहीं लगता। ‘इंडिपेडेंस डे’ और ‘द डे ऑफ्टर टूमारो’ जैसी फिल्म बनाने वाले रोलैंड एमरिच कल्पनाशील और लार्जर देन लाइफ फिल्म बनाने में माहिर हैं। एक बार फिर उन्होंने उम्दा काम किया है, हालाँकि वे अपनी पिछले काम के नजदीक नहीं पहुँच पाए हैं। फिल्म का अंत थोड़ा लंबा हो गया है। कुछ दृश्य को रखने का मोह यदि रोलैंड छोड़ देते तो फिल्म में कसावट आ जाती। फिल्म को भव्य बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। जॉन क्यूसैक, अमांडा पीट, डैनी ग्लोवर सहित सारे कलाकारों का अभिनय उम्दा है। आप दुनिया खत्म होने की बात पर विश्वास करें या न करें, लेकिन यह फिल्म आपको कल्पना की ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहाँ आप सब कुछ भूल जाते हैं। ",1 " चंद्रमोहन शर्मा बरसों पहले शुरू हुए रीयल लाइफ कपल पर बनने वाली फिल्मों के हिट होने के ट्रेंड को बॉलिवुड के यंग मेकर्स एकबार फिर कैश करना चाहते हैं। इस रेस में यकीनन इम्तियाज अली पहले ही शामिल हो चुके हैं। करियर के शुरुआती दौर में इम्तियाज ने ऐसा एक्सपेरिमेंट करीना कपूर और शाहिद कपूर को लेकर 'जब वी मेट' में किया और फिल्म बॉक्स आफिस पर सुपरहिट रही। अब एक बार फिर इम्तियाज ने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण को लेकर तमाशा बनाई। हालांकि जहां जब वी मेट के बाद करीना और शाहिद का ब्रेकअप हो गया, वहीं ब्रेकअप के बाद दीपिका और रणबीर दूसरी बार एक साथ आए हैं। इम्तियाज की इस फिल्म ने उन्हें ऐसे मिलाया कि प्रमोशन के दौरान दोनों ने ट्रेन में नाइट जर्नी तक की। बेशक रीयल कपल को लेकर बनी फिल्मों का अच्छा क्रेज बनता है, लेकिन यह हर फिल्म के हिट होने की गारंटी नहीं। वैसे इम्तियाज की इस फिल्म की लीड जोड़ी 'ये जवानी है दीवानी' में धमाल मचा चुकी है। हालांकि यह जोड़ी बैक टु बैक दूसरी हिट दे पाएगी, इतना दमखम इस फिल्म में कम नजर आता है। हां दीपिका-रणबीर की जोड़ी की दमदार केमिस्ट्रिी इनके फैंस के लिए यकीनन पैसा वसूल है। फिल्म और टीवी की खबरें सीधें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : तारा माहेश्वरी (दीपिका पादुकोण) फ्रांस के द्वीप कोर्सिका में मुश्किल में है। तारा का सारा सामान और पासपोर्ट चोरी हो चुका है। इस मुश्किल के वक्त उसकी मुलाकात वेद वर्धन (रणबीर कपूर) से होती है। वेद अपने पिता (जावेद शेख) के सपनों को पूरा करने के लिए अपने ख्वाब को दफन करके इंजीनियर तो बन गया, लेकिन दिल से वेद कुछ और ही बनना चाहता है। यही वजह है कि वह लाइफ को अपने ढंग से एन्जॉय करने के लिए कोर्सिका पहुंचा है। यहीं पर तारा और वेद एक टूर प्लान करते हैं। टूर पर निकलने से पहले वेद और तारा के बीच तय होता है कि दोनों अपनी असली पहचान एक-दूसरे को नहीं बताएंगे। इस टूर के बाद दोनों अपने-अपने शहर लौट जाते हैं। हालांकि लौटने के बाद तारा को पता चलता है कि उसे वेद उर्फ डॉन से प्यार हो चुका है। दिल्ली ट्रांसफर होने पर तारा उसी बार में पहुंचती है, जहां वेद भी अक्सर जाया करता है। हालांकि वेद कोर्सिका से लौटने के बाद दोबारा अपनी पुरानी दुनिया में लौट चुका है और मशीनी जिंदगी जीने लगा है। इस बार वेद से मिलने के बाद तारा को लगता है यह वेद वह नहीं जिसे वह कोर्सिका में मिली थी। इसके बाद दोनों ब्रेकअप कर लेते हैं। क्या वेद खुद को पहचान पाएगा और क्या वेद और तारा दोबारा मिल पाएंगे, यही कहानी तमाशा दिखाने की कोशिश करती है। ऐक्टिंग : दीपिका ने एकबार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग की है। तारा के किरदार की मस्ती और बाद में उसके अंदर के दर्द को दीपिका ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। रणबीर कपूर के किरदार में शेड तो कई हैं, लेकिन इंटरवल के बाद रणबीर कई सीन्स में ओवर ऐक्टिंग के शिकार रहे। अन्य कलाकारों में पीयूष मिश्रा और कम फुटेज के बावजूद जावेद शेख अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। डायरेक्शन : इस बार इम्तियाज अली ने अपनी कहानी के लीड किरदारों को लिखा तो बेहद दमदार, लेकिन फिल्म की फाइनल स्क्रिप्ट के वक्त कुछ नया करने के चक्कर में ऐसे उलझे कि कहानी बेवजह लंबी होती गई। कमजोर स्क्रिप्ट के अलावा कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार फ्लैश बैक सीन्स का प्रयोग कहानी की पहले से सुस्त रफ्तार को और धीमा करने का काम करता है। संगीत : फिल्म का संगीत पहले ही युवाओं में हिट है। अगर कहा जाए तो कमजोर स्क्रिप्ट के बावजूद फिल्म का संगीत दर्शकों को कहानी और किरदारों के साथ जोड़ने में सफल है तो यह गलत नहीं होगा। 'मटरगश्ती', 'हीर' और 'अगर तुम साथ हो' गाने पहले से हिट हैं। ए आर रहमान और गीतकार इरशाद कामिल की जोड़ी ने यकीनन बेहतरीन काम किया है। क्यों देखें : रणबीर और दीपिका के फैन हैं तो इसबार इनके बीच की बेहतरीन केमिस्ट्री आपको अच्छी लगेगी। खूबसूरत विदेशी लोकेशन, दमदार म्यूजिक और इम्तियाज अली का नाम फिल्म की यूएसपी है। वहीं कमजोर स्क्रिप्ट फिल्म का माइनस पॉइंट। फिल्म तमाशा, युवा पीढ़ी को अपनी ओर खींचने का दम रखती है। लेकिन ऐसा 'तमाशा' फैमिली क्लास की कसौटी पर शायद खरा उतरने का दम नहीं रखता। ",1 "आपने हॉरर फिल्में भी देखी होंगी और कॉम‍िडी फिल्में भी लेकिन 'नानू की जानू' इन दोनों का ही मजेदार मिश्रण है। फ‍िल्‍म में आनंद उर्फ नानू (अभय देओल) एक दिल्ली बेस्ड गुंडा है जो लोगों को डरा-धमकाकर उनके मकान को कब्जा करता है। इस काम में डब्बू (मनु ऋषि) उसकी मदद करता है। एक दिन अचानक नानू के साथ अजीब-अजीब चीजें होने लगती हैं। वह डब्बू और पड़ोसियों की मदद मांगता है लेकिन परेशानी से निजात नहीं मिलती है। दरअसल, उसका पाला सिद्धि उर्फ जानू (पत्रलेखा) से पड़ जाता है जो कि भूतनी है और नानू को चाहती है। उसके बाद शुरू होता है मजेदार कॉमिडी का सिलसिला जो आपको पूरी फिल्म के दौरान गुदगुदाता रहता है। आखिरकार जानू अपने नानू को पाने में कामयाब होती है या नहीं, यह जानने के लिए आपको थिअटर जाना पड़ेगा। हालांकि, किसी भूतनी के इंसान को चाहने का प्रयोग हम इससे पहले अनुष्का शर्मा की फिल्म फिल्लौरी में भी देख चुके हैं लेकिन नानू की जानू उस लिहाज से अलग तरह की फिल्म है। यह 2014 में आई तमिल फिल्म 'पिसासु' का रीमेक है। इससे पहले इसका तेलुगू और कन्नड़ में भी रीमेक बन चुका है।यहां देखें ट्रेलर... सिल्वर स्क्रीन पर कम ही नजर आने वाले अभय देओल जब भी किसी फिल्म में द‍िखते हैं तो उनकी ऐक्टिंग को नजरअंदाज करना मुश्‍क‍िल हो जाता है। वह अपने लिए लीक से हटकर स्क्रिप्ट ही चुनते हैं। फिल्म में पत्रलेखा का रोल काफी छोटा है। वहीं, मनु ऋषि ने न सिर्फ दर्शकों को गुदगुदाने वाली ऐक्टिंग की है बल्कि हिंदी में फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी है। उनकी मजेदार स्क्रिप्ट पर डायरेक्टर फराज हैदर ने दर्शकों को मनोरंजन करने वाली फिल्म बनाई है। इससे पहले फराज अभय की नैशनल अवॉर्ड विनर फिल्म 'ओए लक्की, लक्की ओए' के असिस्टेंट डायरेक्टर भी रह चुके हैं। इस बार इस जोड़ी ने फिर साथ में कमाल दिखाया है। बृजेंद्र काला ने भी कुमार के छोटे से रोल में हमेशा की तरह बढ़िया ऐक्टिंग की है। यूं तो इस हफ्ते करीब आधा दर्जन फिल्में रिलीज होने वाली थीं लेकिन इसे नानू की जानू की किस्मत ही कहिए कि ज्यादातर फिल्में पोस्टपोन हो गईं। आखिर में फिल्म जरूर थोड़ी बचकाना हो जाती है लेकिन साथ में रोड सेफ्टी का मेसेज भी देती है। अगर आप इस वीकेंड कुछ मजेदार देखना चाहते हैं तो इस फ‍िल्‍म को मिस मत कीजिए।",0 "मंत्री से ऑफिसर फिरोज (डैनी) पूछने के लिए आता है कि दूसरे देश से आतंकवादी को गुपचुप तरीके से पकड़ने के लिए कोवर्ट काउंटर इंटेलिजेंस के ऑफिसर अजय (अक्षय कुमार) को परमिशन दी जाए। मंत्री पूछते हैं कि यदि अजय पकड़ा गया तो? फिरोज कहता है 'हम बोल देंगे कि हम इसे जानते ही नहीं है। मंत्री जी, ये अलग ही किस्म के बंदे होते हैं। थोड़े से खिसके हुए। ये देश के लिए मरते नहीं बल्कि जिंदा रहते हैं। इन्हें इस बात की भी परवाह नहीं रहती कि सरकार इन्हें क्या देती है?' अजय जैसे ऑफिसर्स की कहानी है 'बेबी', जिनके लिए राष्ट्र सबसे पहले होता है। उनकी उपलब्धि का कोई गुणगान भी नहीं होता ‍क्योंकि उनकी पत्नी तक नहीं जानती कि वे क्या काम करते हैं। पकड़े जाए तो सरकार भी पल्ला छुड़ा लेती है। चुनिंदा ऑफिसर्स को लेकर पांच वर्ष का एक मिशन बनाया गया है जिसका नाम है 'बेबी'। ये लोग आतंकवादियों को ढूंढ उन्हें मार गिराते हैं। 'बेबी' फिल्म उनके अंतिम मिशन के बारे में हैं। इस यूनिट का हेड फिरोज (डैनी) के नेतृत्व में अजय और उसके साथी (अनुपम खेर, राणा दग्गुबाती, तापसी पन्नू) इंडियन मुजाहिदीन का खास बिलाल खान (केके मेनन) के पीछे हैं जो मुंबई से भाग सऊदी अरब पहुंच गया है। वह मुंबई और दिल्ली में खतरनाक घटनाओं को अंजाम देना चाहता है। एक सीक्रेट मिशन के तहत बेबी की टीम उसके पीछे सऊदी अरब पहुंच जाती है। 'बेबी' का निर्देशन किया है नीरज पांडे ने, जिनके नाम के आगे 'ए वेडनेस डे' और 'स्पेशल 26' जैसी बेहतरीन रोमांचक फिल्में हैं। वास्तविक घटनाओं से प्रेरणा लेकर वे थ्रिलर गढ़ते हैं और सरकारी ऑफिसर्स की कार्यशैली को बखूबी स्क्रीन पर दिखाते हैं। 'बेबी' में भी उनकी यह खूबी नजर आती है। वैसे 'बेबी' देखते समय आपको 'डी डे' और टीवी धारावाहिक '24' याद आते हैं। नीरज की फिल्में वास्तविकता के नजदीक रहती हैं, लेकिन 'बेबी' में उन्होंने सिनेमा के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है। हालांकि जो परदे पर दिखाया जा रहा है उसे न्यायसंगत ठहराने की उन्होंने पूरी कोशिश की है, लेकिन दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सके। बेबी का टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें : बेबी का टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें : फिल्म का पहला हिस्सा थोड़ा लंबा खींचा गया है और कुछ हिस्से गैर जरूरी लगते हैं। मसलन इस्तांबुल पहुंच कर अजय का अपने साथी को आतंकियों से छुड़ाने वाला हिस्सा फिल्म की कहानी के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितने की फुटेज इस पर खर्च किए गए हैं। बिलाल की एंट्री के बाद फिल्म में पकड़ आती है और इंटरवल के बाद वाला हिस्सा बेहतरीन है। खासतौर पर फिल्म के अंतिम 40 मिनट जबरदस्त है और इस दरमियान आप कुर्सी से हिल नहीं पाते हैं। आतंकवादियों के मामले पर फिल्म में नया एंगल यह दिखाया गया है कि सीमा पार के लोग हमारे देश के नागरिकों को उनका हथियार बना रहे हैं। वे हमारी सरकार के खिलाफ खास समुदाय के लोगों के मन में संदेह पैदा कर रहे हैं ताकि उनका काम आसान हो। दूसरी ओर 'बेबी' यूनिट का हेड फिरोज को दिखा कर निर्देशक और लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है आतंकवादियों को किसी खास समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। नीरज पांडे द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट में कुछ खामियां भी हैं, जैसे बिलाल, जो अपने आपको कसाब से बड़ा आतंकी मानता है, बड़ी आसानी से मुंबई से भाग निकल आता है। उसके भाग निकलने वाला सीन बेहद कमजोर है और इसका फिल्मांकन सत्तर के दशक की फिल्मों की याद दिला देता है। उस समय भी स्मगलर पुलिस की गिरफ्त से ऐसे ही भाग निकलते थे। सऊदी अरब में जिस तरह से अपने मिशन को 'बेबी' ग्रुप अंजाम देता है उस पर यकीन करना मुश्किल होता है। हालांकि भारत सरकार की ओर से उन्हें पूरी मदद मिलती है और इसके जरिये फिल्म के निर्देशक ने ड्रामे को विश्वसनीय बनाने की पुरजोर कोशिश भी की है। इन खामियों के बावजूद नीरज रोमांच पैदा करने में सफल रहे हैं। दर्शक पूरी तरह से फिल्म से बंध कर रहते हैं और उत्सुकता बनी रहती है। रोमांटिक दृश्यों में निर्देशक नीरज की असहजता स्पष्ट दिखाई देती है। इस तरह के सीन उन्होंने मन मारकर 'स्पेशल 26' में भी रखे थे और 'बेबी' में भी यही बात जारी है। अक्षय और उनकी पत्नी के बीच के दृश्यों बेहद सतही हैं। अक्षय कुमार ने अपनी भूमिका पूरी गंभीरता से निभाई है। एक्शन रोल में वे जमते हैं और 'बेबी' में अजय के किरदार में वे बिलकुल फिट नजर आए। अक्षय के मुकाबले अन्य कलाकारों को कम फुटेज मिले। राणा दग्गुबाती को तो संवाद तक नहीं मिले। छोटे-से रोल में तापसी पन्नू अपना असर छोड़ जाती है। उनका और अक्षय के बीच नेपाल वाला घटनाक्रम फिल्म का एक बेहतरीन हिस्सा है। अनुपम खेर की फिल्म के क्लाइमैक्स में एंट्री होती है और वे तनाव के बीच राहत प्रदान करते हैं। मधुरिमा तूली के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। रशीद नाज और सुशांत सिंह ने अपने-अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से निभाया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक बहुत ज्यादा लाउड है। कुछ लोगों को सिर दर्द की भी शिकायत हो सकती है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी ऊंचे दर्जे की है। 'बेबी' और बेहतर बन सकती थी, बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज लि., ए फ्राईडे फिल्मवर्क्स, क्राउचिंग टाइगर मोशन पिक्चर्स, केप ऑफ गुड फिल्म्स निर्देशक : नीरज पांडे संगीत : मीत ब्रदर्स कलाकार : अक्षय कुमार, तापसी पन्नू, राणा दग्गुबाती, अनुपम खेर, डैनी, केके मेनन, मधुरिमा टुली, रशीद नाज, सुशांत सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 42 सेकंड्स ",1 "बैनर : जीएस एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : बंटी वालिया, जसप्रीत सिंह वालिया निर्देशक : राहुल ढोलकिया संगीत : मिथुन कलाकार : संजय दत्त, बिपाशा बसु, कुणाल कपूर, शेरनाज पटेल, अनुपम खेर, यशपाल शर्मा * ए- सर्टिफिकेट * 1 घंटा 55 मिनट वर्षों से चली आ रही कश्मीर समस्या अब तक हल नहीं हो पाई है। यह आग पता नहीं कब बुझेगी। निर्देशक राहुल ढोलकिया ने ‘लम्हा’ के जरिये बताया है कोई भी नहीं चाहता कि यह आग बुझे। नेता, पुलिस, सेना, आतंकवादियों के अपने-अपने मतलब हैं इसलिए वे इस समस्या को जस का तस बनाए रखते हैं। सरकार इस समस्या से निपटने के लिए भारी भरकम राशि देती है, जिससे भ्रष्ट अफसरों को पैसा खाने का मौक ा मिलता है। नेता अपनी दुकान चलाते हैं। आतंकवादी और कश्मीर की आजादी का सपना दिखाने वाले लोग विदेशी मदद से अपनी जेबें भरते हैं। इन बातों को दिखाने के लिए जो ड्रामा लिखा (राघव धर, राहुल ढोलकिया) गया है वो बहुत बिखरा हुआ और बोरिंग है। बहुत सारी बातें स्पष्ट नहीं हो पाईं। नि:संदेह लेखक और निर्देशक ने एक अच्छी थीम का चुनाव किया, लेकिन वे अपनी बात को ठीक से नहीं रख पाए। जब यह खबर आती है कि ऑर्मी, पुलिस, नेता बजाय शांति स्थापित करने के अशांति फैला रहे हैं तो विक्रम (संजय दत्त) नामक ऑफिसर को सीक्रेट मिशन पर भेजा जाता है ताकि वह उन लोगों को बेनकाब कर सके। घाटी में विक्रम कदम रखता है और उसी दिन अलगाववादी नेता हाजी (अनुपम खेर) पर जानलेवा हमला होता है, लेकिन वह बच जाता है। कौन है इस विस्फोट के पीछे, यह जानने में विक्रम जुट जाता है। इस काम में उसकी मदद करती है अज़ीजा (बिपाशा बसु) जो हाजी की बेटी जैसी है। इस यात्रा में वे कई चेहरों को बेनकाब करते हैं। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि कई दृश्यों का मुख्‍य कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। उदाहरण के लिए सीमा पर तैनात एक सैनिक इस बात से खफा है कि उसे मात्र सात हजार रुपए मिलते हैं। लंबे समय से वह घर नहीं जा पाया है। उसे खाना खुद बनाना पड़ता है। इस दृश्य को यदि कहानी से जोड़कर दिखाया जाता तो प्रभावी होता। कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर यदि फिल्म बनाई जा रही है तो फिल्म वास्तविकता के निकट होना चाहिए, लेकिन इसको लेकर भी निर्देशक राहुल कन्फ्यूज नजर आए। बिपाशा और संजय दत्त जैसे स्टार्स का प्रभाव उन पर हो गया। संजय दत्त से उन्होंने कुछ ऐसे कारनामे करवाए जो बॉलीवुड का हीरो करता है। साथ ही उसे ठीक से जस्टिफाई भी नहीं किया गया है। प्रस्तुतिकरण भी इतना बेजान है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। कैरेक्टर ठीक से नहीं लिखे गए हैं और इसका असर कलाकारों के अभिनय पर भी पड़ा है। किसी को समझ में नहीं आया कि वह क्या कर रहा है। संजय दत्त, बिपाशा बसु और अनुपम खेर का अभिनय औसत दर्जे का रहा। कुणाल कपूर निराश करते हैं। महेश मांजरेकर और यशपाल शर्मा का पूरी तरह उपयोग नहीं हो पाया। फिल्म के गाने थीम के अनुरूप हैं, लेकिन इन्हें नहीं भी रखा जाता तो खास फर्क नहीं पड़ता। जेम्स फोल्ड्‍स ने कैमरे को ज्यादा ही शेक किया है, जिसकी जरूरत नहीं थी। कुल मिलाकर ‘लम्हा’ निराश करती है। ",0 "हिंदी सिनेमा के दर्शक इन दिनों बायोपिक बेहद पसंद कर रहे हैं इसलिए निर्माता-निर्देशक इतिहास के पन्नों में ऐसे चरित्र ढूंढ रहे हैं जिन पर फिल्म बनाई जा सके। नीरजा भनोट ने अपनी छोटी सी जिंदगी में इतना बड़ा कारनामा कर दिया कि उन पर फिल्म तो बनती है। फिल्म निर्देशक राम माधवानी ने नीरजा और उनके जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरित होकर 'नीरजा' बनाई है। किसी व्यक्ति विशेष पर फिल्म बनती है तो कहानी किस तरह की होगी, क्या होगी, ये दर्शकों को पहले से पता रहता है और सारा खेल प्रस्तुतिकरण पर आ टिकता है ताकि दर्शक उन पलों को जी सके। 'नीरजा' भी उन क्षणों का बखूबी महसूस कराती है जब एक विमान का अपहरण हो जाता है और फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा अपना हौंसला न खोते हुए सैकड़ों जान बचाती हैं। फिल्म की यह खूबी है कि शुरुआत 15-20 मिनटों में ही यह बहुत सारी बातें उम्दा तरीके से सामने रख देती है। नीरजा का चुलबुलापन, सुपरस्टार राजेश खन्ना के प्रति दीवानगी, अपने जॉब से प्यार करने वाली और प्रेम के अंकुरित होते बीज के जरिये नीरजा का किरदार बखूबी दर्शकों के दिमाग पर छा जाता है। सितम्बर 1986 में पैन एम 73 की उड़ान मुंबई से रवाना होती है और कराची में उतरती है, जहां कुछ आतंकी विमान में घुस कर हाइजैक कर लेते हैं। 379 यात्री विमान में सवार हैं। इस कठिन अवसर में भी नीरजा दिमाग को शांत रखते हुए पायलेट को प्लेन हाइजेक का संकेत देती है और सारे पायलेट्स कॉकपिट से भाग निकलते हैं। अबू निदाल ऑर्गेनाइजेशन के आतंकियों के सामने विकट स्थिति खड़ी हो जाती है क्योंकि विमान उड़ाने वाला कोई नहीं है। वे साइप्रस में कैद अपने साथियों को छुड़ाना चाहते थे, लेकिन पायलेट की मांग में उलझ जाते हैं। घंटों तक विमान कराची एअरपोर्ट पर खड़ा रहता है। बातचीत चलती रहती है और इसी बीच नीरजा अपने यात्रियों को ध्यान रखने का कर्तव्य बखूबी निभाती है। नीरजा की बहादुरी और निर्णय लेने की क्षमता तब भी दिखाई देती है जब उसे भनक लगती है कि आतंकी सारे पासपोर्ट इकट्ठा कर अ‍मेरिकी नागरिकों को मार सकते हैं। वह अपने साथियों के साथ अमेरिकियों के पासपोर्ट छिपा देती है और आतंकियों के प्लान में बाधा उत्पन्न करती है। फिल्म का तीन-चौथाई हिस्सा हवाई जहाज के अंदर फिल्माया गया है और एक सीमित स्थान पर फिल्म को केन्द्रित रख कर दर्शकों को बांधे रखना आसान बात नहीं थी, लेकिन निर्देशक राम माधवानी, लेखक और फिल्म के संपादक मोनिषा ने बेहतरीन काम करते हुए न केवल फिल्म को देखने लायक बनाया है बल्कि आप भी उस फ्लाइट में सवार एक यात्री की तरह उस भय से भरे क्षणों को जीते हैं। विमान के अंदर के तनाव को आप महसूस करते हैं। साथ ही नीरजा के परिवार पर उस समय क्या गुजर रही थी इस बात को भी अच्छी तरह पेश किया गया है। फिल्म के अंत में तो भावुक दर्शकों की आंखें गीली हो जाएंगी। कुछ विज्ञापनों में मॉडल रह चुकीं नीरजा का शादी का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। फ्लेशबैक के जरिये उसके अतीत की कड़वाहट को कहानी में बखूबी पिरोया गया है। नीर जा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म कुछ जगह फिसलती भी है कुछ जगह ठहरी हुई लगती है। कुछ बनावटी सीन भी अखरते हैं और फिल्म के बीच एक गाने की गुंजाइश तो बिलकुल नहीं थी। आतंकियों की मांग पर भी थोड़े फुटेज खर्च किए जाने थे। अंत में कुछ भावुक दृश्यों से भी बचा जा सकता था, लेकिन ये छोटी-मोटी कमियां हैं। निर्देशक राम माधवानी ने एक चैलेंजिंग कहानी पर फिल्म बनाई है और पूरी फिल्म में उन्होंने दर्शकों को जोड़ कर रखा है। नीरजा को वे दर्शकों से सीधा कनेक्ट करने में भी सफल रहे हैं। दो घंटे की फिल्म को यदि वे थोड़ा और छोटा कर देते तो फिल्म में कसावट आ जाती। लंबे समय तक बॉलीवुड में रहने के बावजूद सोनम कपूर अभी तक बतौर अभिनेत्री छाप नहीं छोड़ पाई हैं। 'नीरजा' के जरिये उन्हें बड़ा अवसर मिला और जिसका उन्होंने पूरा फायदा भी उठाया। अपने अभिनय से वे प्रभावित करती हैं और उनके करियर की यह बेहतरीन फिल्म है। शबाना आजमी के दृश्य कमजोर लिखे गए हैं, लेकिन वे अपने सशक्त अभिनय के जरिये इस कमी को पूरा करती है। संगीतकार शेखर छोटी भूमिका में औसत रहे हैं। फिल्म में अधिकांश चेहरे नए हैं और यह स्क्रिप्ट की डिमांड भी थी। आतंकी बने दो कलाकारों का अभिनय अच्छा है। नीरजा के पिता के रोल में योगेन्द्र टिक्कू का काम भी शानदार है। सुपरस्टार राजेश खन्ना की नीरजा बहुत बड़ी फैन थीं। काका की फिल्म का एक संवाद है कि जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं। इस संवाद को 23 वर्षीय नीरजा ने सही मायनो में जिया था। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, ब्लिंग अनप्लग्ड निर्माता : अतुल कस्बेकर निर्देशक : राम माधवानी संगीत : विशाल खुराना कलाकार : सोनम कपूर, शबाना आज़मी‍, शेखर रावजिआनी, योगेन्द्र टिक्कू सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 2 मिनट ",1 "मर्दाना कमजोरी पर हिंदी में शायद ही पहले कोई फिल्म बनी होगी। इस विषय पर फिल्म बनाना रस्सी पर चलने जैसा है। जरा सा संतुलन बिगड़ा और धड़ाम। रेखा पार की और फिल्म अश्लील हो सकती थी, लेकिन निर्देशक आरएस प्रसन्ना फिल्म 'शुभ मंगल सावधान' में सधे हुए अंदाज से चले। यह फिल्म तमिल फिल्म 'कल्याणा सामयाल साधम' से प्रेरित है। कहानी का मूल प्लाट छोड़ सब कुछ बदल दिया गया है। कहानी मुदित (आयुष्मान खुराना) और सुगंधा (भूमि पेडनेकर) की है। मुदित को सुगंधा पसंद आ जाती है और वह ऑनलाइन रिश्ता भिजवाता है। सुगंधा के दिल में भी मुदित धीरे-धीरे बस जाता है। शादी तय हो जाती है। शादी के कुछ दिन पहले घर में सुगंधा अकेली रहती है और मुदित वहां आ पहुंचता है। दोनों अपने पर काबू नहीं रख पाते हैं। इसके पहले की वे कुछ कर बैठे मुदित अपने अंदर 'मर्दाना कमजोरी' पाता है। इसके बाद यह बात दोनों पक्षों में फैल जाती है और हास्यास्पद परिस्थितियां निर्मित होती हैं। इस गंभीर मुद्दे को फिल्म में हल्के-फुल्के अंदाज से दिखाया गया है। फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिन पर आपकी हंसी नहीं रूकती। खासतौर पर जब सुगंधा की मां अलीबाबा और गुफा वाला किस्सा सुनाती है, जब मुदित की कमजोरी के बारे में उसके और सुगंधा के पिता को पता चलता है, सुगंधा के पिता और उनके बड़े भाई की नोकझोंक, मुदित का फिर से बारात लाना वाले सीन उम्दा बन पड़े हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले हितेश केवल्य ने लिखा है और उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन हो। कहानी की सबसे महत्पूर्ण बात यह है कि सुगंधा को जब पता चल जाता है कि मुदित एक कमजोरी से जूझ रहा है तब वह कभी की मुदित से रिश्ता तोड़ने की बात नहीं सोचती। लगातार उस पर उसके पिता दबाव भी डालते हैं, लेकिन वह नहीं मानती। वह सेक्स के बजाय प्यार को अहमियत देती है और इससे प्रेम कहानी पॉवरफुल बनती है। फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है, लेकिन कुछ दरारें समय-समय पर उभरती है। जैसे, मुदित अपने इलाज के बारे में कभी गंभीर नहीं लगता। बाबा बंगाली के पास जाने के बजाय वह डॉक्टर के पास क्यों नहीं जाता? एक बार सुगंधा के पिता उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं, लेकिन वे जानवरों के डॉक्टरों के पास क्यों ले जाते हैं यह समझ से परे है। फिल्म में एक दृश्य है कि शादी के ठीक पहले मुदित और सुगंधा एक कमरे में बंद हो जाते हैं। बाहर सारे लोग इस बात पर शर्त लगाते हैं कि कुछ होगा या नहीं। थोड़ी देर बाद वे बाहर आते हैं। मुदित कहता है हो गया और सुगंधा कहती है नहीं हुआ। असल में हुआ क्या, यह बताया नहीं गया। ठीक है, इस सीन से हास्य पैदा किया गया है, लेकिन दर्शक सोचते ही रह जाते हैं कि आखिर हुआ क्या? इसी तरह मुदित और उसकी एक्स गर्लफ्रेंड वाला किस्सा भी आधा-अधूरा सा है। इन कमियों के बावजूद फिल्म में थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद उम्दा सीन आते रहते हैं, लिहाजा कमियों पर ध्यान कम जाता है। निर्देशक के रूप में आरएस प्रसन्ना का काम अच्‍छा है। एक मध्मवर्गीय परिवार की तस्वीर उन्होंने अच्छे से पेश की है जो मॉडर्न भी होना चाहता है और थोड़ा डरता भी है। एक संवेदनशील विषय को उन्होंने अच्छे से हैंडल किया है और किरदारों को गहराई के साथ पेश किया है। आयुष्मान खुराना का अभिनय दमदार है और कुछ दृश्यों में उन्होंने अपनी चमक दिखाई है, लेकिन बाजी मार ले जाती हैं भूमि पेडनेकर। वे जब भी स्क्रीन पर आती हैं छा जाती हैं। एक तेज-तर्रार और मुदित को चाहने वाली लड़की के रोलमें उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का अभिनय भी शानदार है। नीरज सूद (सुगंधा के पिता), सीमा पाहवा (सुगंधा की मां), चितरंजन त्रिपाठी (मुदित के पिता), सुप्रिया शुक्ला (मुदित की मां) और ब्रजेन्द्र काला (सुगंधा के ताऊ) का अभिनय शानदार है। हल्की-फुल्की फिल्म पसंद करने वालों को 'शुभ मंगल सावधान' पसंद आ सकती है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर यलो प्रोडक्शन निर्माता : आनंद एल. राय, कृषिका लुल्ला निर्देशक : आर.एस. प्रसन्ना संगीत : तनिष्क-वायु कलाकार : आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, ब्रजेन्द्र काला, सीमा पाहवा, नीरज सूद, चितरंजन त्रिपाठी, सुप्रिया शुक्ला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 45 मिनट 25 सेकंड शुभ मंगल सावधान को आप पांच में से कितने अंक देंगे? ",1 "बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : मिलन लुथरिया संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : अजय देवगन, कंगना, इमरान हाशमी, प्राची देसाई, रणदीप हुड़ा, गौहर खान सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 24 मिनट ‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ की शुरुआत में भले ही यह लिख दिया हो कि इस फिल्म की कहानी किसी व्यक्ति से मिलती-जुलती नहीं है, लेकिन फिल्म के शुरू होते ही समझ में आ जाता है कि यह हाजी मस्तान और दाउद इब्राहिम से प्रेरित है। निर्देशक मिलन लुथरिया ने एक ऐसी फिल्म बनाने की सोची जो 70 के दशक जैसी लगे। आज भी कई लोग उस दौर की फिल्मों को याद करते हैं जब ज्यादातर विलेन स्मगलर हुआ करते थे और लार्जर देन लाइफ का पुट होता था। मिलन ने आधी हकीकत और आधा फसाना के जरिये उस दौर और उन फिल्मों को फिर जीवंत किया है जिन्हें देखना सुखद लगता है। हाजी मस्तान से प्रेरित किरदार सुल्तान मिर्जा (अजय देवगन) मिल-जुलकर धंधा (स्मगलिंग) करने में विश्वास रखता है। वह उन चीजों की स्मगलिंग करता है जिनकी अनुमति सरकार नहीं देती है, लेकिन उन चीजों की स्मगलिंग नहीं करता जिनकी अनुमति उसका जमीर नहीं देता है। दाउद पर आधारित किरदार शोएब (इमरान हाशमी) में किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने की ललक है। वह सिर्फ अपनी तरक्की चाहता है और सही/गलत में कोई फर्क नहीं मानता है। सुल्तान की तरह वह बनना चाहता है और उसकी गैंग में शामिल हो जाता है। अपने तेजतर्रार स्वभाव के कारण सुल्तान का विश्वसनीय बन जाता है। कु‍छ दिनों के लिए सुल्तान उसे अपनी कुर्सी पर बैठने के लिए कहता है और वह मुंबई को खून-खराबा, गैंगवार, ड्रग्स और आतंक के शहर में बदल देता है। इसी को लेकर दोनों के संबंधों में दरार आ जाती है। कहानी बेहद सरल है और दर्शक इस बात से पूरी तरह वाकिफ रहते हैं कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले (रजत अरोरा) इस खूबी से लिखा गया है कि आप सीट से चिपके रहते हैं। ड्रामे को तीव्रता के साथ पेश किया गया है और एक के बाद एक बेहतरीन सीन आते हैं। ",1 " chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर हम इस फिल्म की डायरेक्टर लीना यादव की बात करें तो ग्लैमर इंडस्ट्री में उनकी अपनी पहचान दो फिल्मों 'शब्द' और 'तीन पत्ती' के साथ है। पिछले दिनों लीना यादव से जब उनके करियर को लेकर हमने बात की तो उन्होंने बेझिझक कबूल किया कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इतना लंबा वक्त गुजारने के बाद भी वह खुद को बॉलिवुड फिल्मों में फिट नहीं मानती हूं, इसकी वजह उनका फिल्में बनाने का नजरिया और सोच बॉलिवुड मेकर्स से टोटली डिफरेंट है। उन्होंने कहा कि जब संजय दत्त और ऐश्वर्या रॉय को लेकर 'शब्द' बनाई तो इस फिल्म को क्रिटिक्स की तारीफें मिलीं, दर्शकों की एक क्लास ने उनकी फिल्म के सब्जेक्ट को सराहा। लीना की दूसरी फिल्म 'तीन पत्ती' में इंडस्ट्री के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ हॉलिवुड स्टार बेन किंग्सले स्क्रीन पर नजर आए, इस फिल्म का सब्जेक्ट भी हिंदी मसाला फिल्मों से अलग था, बॉक्स ऑफिस पर लीना की इन दोनों फिल्मों का बिज़नस ऐसा नहीं रहा कि ट्रेड ऐनालिस्ट उनकी इन फिल्मों को हिट और कमाऊ फिल्मों की लिस्ट में शामिल करते। फिलहाल, 'तीन पत्ती' के लंबे अर्से बाद इस बार लीना ने एकबार फिर अपनी इस नई फिल्म का सब्जेक्ट भी कुछ ऐसा चुना जो बॉलिवुड फिल्मों से अलग था। लीना की इस फिल्म में महिलाओं के यौन शोषण के साथ-साथ पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को आज भी भोग और उपयोग की सोच के नजरिए को बेहद बोल्ड अंदाज में पेश किया। बेशक उनकी इस फिल्म को भी बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ नसीब न हो, लेकिन इस फिल्म को देखने वाली सीमित दर्शकों की क्लास फिल्म की जमकर तारीफें करेगी। दर्शकों की एक क्लास में लीना की इस फिल्म में जमकर परोसे गए हॉट, सेक्सी सीन्स के साथ लगभग हर दूसरे-तीसरे सीन में भद्दी गालियों की भी चर्चा है, लेकिन इन सबके बावजूद लीक से हटकर कुछ अलग और स्क्रीन पर कुछ नया देखने वाले दर्शकों की क्लास इस फिल्म को जरूर पसंद करेगी। पिछले साल जब लीना की इस फिल्म को टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया तो शो के बाद सारा हॉल अगले कुछ क्षण तक तालियों की आवाज से गुंजता रहा। अब तक कई विदेशी फिल्म फेस्टिवल में अपने नाम कई अवॉर्ड कर कर चुकी लीना की इस फिल्म को अपने ही देश में सिनेमा की स्क्रीन तक पहुंचने में करीब एक साल की लंबा इंतजार करना पड़ा। कहानी : कहानी गुजरात कच्छ में कहीं दूरदराज बसे एक छोटे से गांव से शुरू होती है। इस सीन को देखकर दर्शक समझ सकते हैं कि अगले करीब दो घंटों में स्क्रीन पर उन्हें क्या दिखाई देगा। गांव की पंचायत गांव की एक नवविवाहिता को अपने पति के घर लौटने का फैसला देती है, पंचायत पीड़ित महिला की कोई बात नहीं सुनती, महिला पति के घर लौटना नहीं चाहती, क्योंकि वहां उसका बूढ़ा ससुर उसका यौन शोषण करता है, महिला अपना यह दर्द अपनी मां के साथ भी बांटती है, लेकिन मां भी अपनी बेटी की बात नहीं सुनती। बेशक, इस घटना का फिल्म की स्टोरी से कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन यह घटना फिल्म के टेस्ट को जरूर बयां करती है। फिल्म इस गांव की चार महिलाओं की है। रानी (तनिष्ठा चटर्जी) की उम्र करीब 32 साल है, एक ऐक्सिडेंट में उसके पति की मौत हो चुकी है। रानी अब अपने बेटे गुलाब सिंह (रिधि सेन) की शादी करना चाहती है ताकि उसके वीरान घर में बहू आ सके। गुलाब की मर्जी के खिलाफ रानी उसकी शादी कम उम्र की जानकी (लहर खान) से करती है। जानकी अभी स्कूल में पढ़ रही है, इस शादी से बचने के लिए जानकी अपने लंबे बाल तक काट लेती है, लेकिन इसके बावजूद जानकी की शादी गुलाब से होती है। शादी के बाद भी गुलाब अपनी पत्नी को पीटता है, रानी चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही। रानी की एक सहेली लाजो (राधिका आप्टे) है, लाजो शादी के बाद मां नहीं बन सकी तो उसका शराबी पति उसे रोजाना बुरी तरह से पीटता है, इसी गांव में चल रही एक नाटक मंडली में डांस करने वाली बिजली (सुरवीन चावला) डांस ग्रुप में नाचने के साथ गांव के मर्दों की सेक्स की भूख मिटाने का काम भी करती है। रानी, लाजो, बिजली और जानकी को मर्दों से नफरत है, हर राज पुरुष प्रधान समाज में कुचली जा रही इन चारों महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती इस कहानी में इन चारों का मकसद पुरुषों की कैद से छुटकारा और उनसे मिलने वाली प्रताड़ना से मुक्ति प्राप्त करना है। ऐक्टिंग : रानी के किरदार में तनिष्ठा चटर्जी ने अपने दमदार अभिनय से अपने किरदार को जीवंत कर दिया है। खूबसूरत बोल्ड बिंदास बिजली के रोल में सुरवीन चावला ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है, वहीं लाजो के रोल में बेशक राधिका आप्टे ने कई बेहद बोल्ड सेक्सी सीन्स किए लेकिन यह सीन उनके किरदार की पहली डिमांड भी थी। कम उम्र में शादी होने के बाद अपने पति गुलाब से प्रताड़ित होती जानकी के रोल में लहर खान ने अपने किरदार में मेहनत की है। निर्देशन : लीना यादव की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और किरदारों की डिमांड के मुताबिक मूल सब्जेक्ट के साथ कहीं छेड़छाड़ नहीं की, बेशक लीना की इस फिल्म से पहले महिलाओं के यौन शौषण और उन्हें पुरुष प्रधान समाज में प्रताड़ित करने को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन लीना की यह फिल्म हिंदी फिल्मों में बॉक्स ऑफिस की डिमांड पर परोसे जाने वाले चालू मसालों से कोसों दूर और वास्तविकता के काफी नजदीक है। अगर लीना क्लाइमैक्स पर कुछ और ज्यादा होम वर्क करतीं तो यकीनन फिल्म एक ठोस और नए मेसेज के साथ समाप्त होती। फिल्म में बोल्ड, सेक्सी और हॉट सीन्स और भद्दी गालियों की जमकर भरमार है, लेकिन लीना की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन सब को कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया। संगीत : फिल्म का संगीत महौल पर सौ फीसदी फिट है, लोक गीतों और लोक संगीत का समावेश है। क्यों देखें : अगर आप सिनेमा के पर्दे पर कुछ नया और रीऐलिटी के करीब देखना पसंद करते हैं तो यकीनन 'पार्च्ड' आपके लिए है। चालू मसालों और मुंबइया ऐक्शन फिल्मों के शौकीनों को शायद फिल्म पसंद न आए। सेंसर से फिल्म को मिला अडल्ट सर्टिफिकेट फैमिली क्लास और साफ सुथरी फिल्मों के शौकीनों को 'पार्च्ड' से दूर करेगा। 'पार्च्ड' का रिव्यू अंग्रेजी में यहां पढ़ें। ",1 " रानी (कंगना रनोट) के मेहंदी कार्यक्रम के सीन से जब फिल्म शुरू होती है तो लगता है कि एक ओर लाउड पंजाबी वेडिंग पर आधारित फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन कुछ मिनटों में यह गलतफहमी दूर हो जाती है। रानी को उसका होने वाला पति विजय (राजकुमार राव) शादी के दो दिन पहले बताता है कि स्टेटस में समानता न होने के कारण वह यह शादी नहीं कर सकता। लंदन से लौटने के बाद उसे रानी पिछड़ी हुई लगती है। आम लड़की रानी जिसने सड़क भी अकेले पार नहीं की, हनीमून पर अकेले जाने का तय करती है। हनीमून को लेकर उसने कई सपने देखे थे। वह अकेली पेरिस के लिए निकल पड़ती है और वहां से एम्सर्टडम। इस बाहरी यात्रा के साथ वह भीतरी यात्रा भी करती है और उसका वो पहलू सामने आता है जिससे उसका परिचय भी पहली बार होता है। एक घबराने और नर्वस रहने वाली लड़की से आत्मविश्वासी लड़की बनने की इस यात्रा के दर्शक साक्षी बनते हैं। बॉलीवुड में इस तरह की फिल्म और वह भी महिला किरदार को लेकर बनाने का साहस फिल्ममेकर नहीं कर पाते हैं और इस मायने में विकास बहल निर्देशित फिल्म 'क्वीन' अनोखी है। 'क्वीन' कई बार 'इंग्लिश-विंग्लिश' की याद दिलाती है, हालांकि दोनों का विषय और ट्रीटमेंट जुदा है। क्वीन की कहानी में बहुत ज्यादा ड्रामा नहीं है और न ही निर्देशक का प्रस्तुतिकरण भावुकता से भरा है। न रानी को हालात की मारी दिखाते हुए आंसू बहाउ दृश्य रखे गए हैं और न ही उसमें हो रहे बदलावों को घुमाव भरे ड्रामे के जरिये दिखाया गया है। कहानी के नाम पर रानी की यात्रा है और छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिये उसमें हो रहे बदलाव को निर्देशक ने दिखाया है। फिल्म की स्क्रिप्ट परवेज शेख, चैताली परमार और विकास बहल ने मिलकर लिखी है और उन्होंने कई छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया है। कई दृश्य ऐसे हैं जो खामोशी से बहुत कुछ कह जाते हैं। भारत में लड़कियों को अति-सुरक्षित माहौल में रखा जाता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता तक प्रभावित हो जाती है और व्यक्तित्व निखर नहीं पाता। रानी जहां भी जाती है उसके साथ उसका बहुत छोटा भाई भी साथ में जाता है जो वक्त पड़ने पर शायद ही उसकी रक्षा कर पाए, लेकिन यह उस मानसिकता को दर्शाता है कि लड़की की सुरक्षा के लिए एक मर्द का साथ होना जरूरी है भले ही वह बच्चा हो। 'क्वीन' में रानी के जरिये दिखाया गया है कि जब वह अकेले सफर करती है, होटल में रूकती है, चोर से भिड़ती है, कार ड्राइव करती है तो उसमें आत्मविश्वास जागता है। सुरक्षित माहौल न मिलने पर उसमें खुद करने का जज्बा जागता है। एम्सर्टडम पहुंचने पर रानी को तीन लड़कों के साथ रूम शेयर करना पड़ता है जिसमें से एक जापानी, एक फ्रेंच और एक रशियन है। इन तीनों के बीच एक भारतीय के जरिये दिखाया गया है कि सांस्कृतिक धरातल पर हम कितने ही अलग हो, भावनाओं के मामले में एक जैसे हैं। बाथरूम में छिपकली नजर आने पर सभी डर जाते हैं। सुनामी में अपने माता-पिता को खोने का दु:ख जापानी को हमेशा सालता रहता है और वह तब बेहतर महसूस करता है जब रानी अपने माता-पिता से बात करती है। इन गंभीर बातों को हल्के-फुल्के प्रस्तुतिकरण के द्वारा पेश किया गया है। बीच-बीच में मुस्कान लाने वाले प्रसंग आते रहते हैं जो लगातार मनोरंजन करते रहते हैं। रानी की दोस्त विजय लक्ष्मी (लिसा हेडन) और रानी के परिवार के बीच बातचीत वाले सीन हास्य से भरपूर हैं। फिल्म का अंत भी बेहतर तरीके से किया गया है। हालांकि फिल्म कई बार लंबी प्रतीत होती है और कुछ दृश्यों को अनावश्यक रूप से खींचा भी गया है। रानी के मंगेतर का हृदय परिवर्तन अचानक हो जाना अखरता भी है, लेकिन फिल्म की खूबियों के आगे ये छोटी-मोटी कमजोरियां गौण हैं। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है और निर्देशक ने गानों का उपयोग खूबसूरती से किया है। कई बार फिल्म बोझिल होती है तब अमित का संगीत फिल्म को संभाल लेता है और ऊर्जा से भर देता है। 'लंदन ठुमकदा', 'बदरा बहार', 'ओ गुजरिया' जैसे गीत बेहतरीन बन पड़े हैं। गैंगस्टर, लाइफ इन मेट्रो, फैशन, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों से कंगना रनोट साबित कर चुकी हैं कि वे बेहद प्रतिभाशाली एक्ट्रेस हैं और यह पूरी तरह से निर्दे‍शक पर निर्भर करता है कि उनका इस्तेमाल निर्देशक कैसे करता है। कई फिल्मों में कंगना ने बुरा अभिनय भी किया है, लेकिन कसूरवार निर्देशक को माना जा सकता है। 'क्वीन' में कंगना ने कमाल का अभिनय किया है। एक नर्वस, घबराई हुई लड़की जिसकी शादी दो दिन पहले टूट जाती है से लेकर आत्मविश्वासी लड़की के रूप में बदलने के सारे भाव उनके चेहरे पर नजर आते हैं। निर्देशक विकास बहल ने कंगना की उच्चारण संबंधी कमजोरियों को बड़ी सफाई से उनकी खूबी बना दिया है। लिसा हेडन को इतना बेहतर रोल कभी नहीं मिला। रोल के मुताबिक उन्होंने सेक्स अपील भी परोसी और अच्छा अभिनय भी किया। राजकुमार राव ने अभिनय की एक खास शैली अपना रखी है और वे अब एक जैसे लगते हैं। वे काबिल अभिनेता हैं और एक जैसे अभिनय से उन्हें बचना चाहिए। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का काम भी उम्दा है। जो अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं उन्हें 'क्वीन' जरूर देखना चाहिए। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : विकास बहल संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : कंगना रनोट, राजकुमार राव, लिसा हेडन, बोक्यो मिश, जेफरी हो, जोसेफ गिटोब सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 26 मिनट ",1 "शेफ की कहानी: रोशन कालरा (सैफ) एक थ्री-स्टार मिशलिन शेफ हैं, जिसे न्यू यॉर्क के एक रेस्ट्रॉन्ट से इसलिए बाहर निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने एक कस्टमर को पंच मारा था। उन्हें जबरन ब्रेक लेने को कहा जाता है और वह अपने बेटे अरमान (स्वर) और अलग हो चुकी पत्नी राधा मेनन (पद्म प्रिया) के साथ वक्त बिताने के लिए कोच्चि आ जाते हैं। यह ट्रिप उनके लिए काफी फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि इस दौरान वह अपनी बिखरी हुई फैमिली को समेट पाने को एक अच्छी कोशिश करते हैं। उसे उसकी अपनी खूबियों और ताकत का एहसास दिलाने के मकसद से उसकी पत्नी उसे सलाह देती है कि उसे एक नई शुरूआत करनी चाहिए और इसी क्रम में अपना एक फूड ट्रक शुरू करना चाहिए।शेफ रिव्यू: साल 2014 में हॉलिवुड निर्देशक जॉन फैवरो ने शेफ से नाम से जो फिल्म बनाई थी और उसी फिल्म से प्रेरणा लेते हुए बॉलिवुड निर्देशक राजा कृष्णा मेनन ने सैफ अली खान के साथ बनायी है फिल्म 'शेफ' जो दर्शकों को जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराने के साथ ही उनके दिल को छू लेती है। शेफ दो स्तर पर काम करती है। पहले स्तर पर फिल्म आपको पाक कला और खाने से जुड़े एक ऐसे सफर पर ले जाती है जहां फिल्म के नायक की खाने बनाने की कला देखकर आपका भी मन करेगा अपना ऐप्रन, चाकू और दूसरी चीजें लेकर सीधे किचन में जाने का और स्क्रीन पर दिखाए गए एक से एक मजेदार खाने को बनाने का जिसे देखते ही लोग ऊंगलियां चाटते रह जाएं। दूसरी और सबसे जरूरी कि यह फिल्म आपको एक बेहतरीन इमोशनल जर्नी पर ले जाएगी, जो बाप-बेटे के बीच कमजोर पड़ रहे रिश्ते को मजबूत करती दिख रही, जिनकी विचारधारा भले अलग है लेकिन उनके बीच की बॉन्डिंग इतनी मजबूत है और कि उसे तोड़ा नहीं जा सकता। रिश्ते की बनावट को इतनी बखूबी यहां हैंडल किया गया है कि कई बार आपकी आंखें नम हो जाएंगी।फिल्म 'शेफ' को-पैरेंटिंग यानी बच्चे के पालन-पोषण में मां-बाप दोनों का सहयोग जरूरी है, इस गुण की ओर भी ध्यान दिलाती है जो आज के शहरी समाज की एक अहम जरूरत बन गई है। फिल्म की कहानी सैफ अली खान के कंधों पर टिकी है। इस बार सैफ अपने शानदार अंदाज़ में पर्दे पर दिख रहे हैं, चाहे वह एक केयरिंग पिता के रोल में हों या फिर हज्बंड के रोल में जो रिश्तों की बेहतरी की कोशिश करते हुए आपको खूब जंचेंगे। पद्मप्रिया काफी आकर्षक दिख रही हैं। इतनी कम उम्र में स्वर अपनी पहचान बनाने में कामयाब नज़र आ रहे। शोभिता धुलिपाला (विनी) ने भी शानदार काम किया है जो कि रोशन की को-वर्कर और फ्रेंड हैं।यह फिल्म आपको फ़न से भरे एक ऐसे रोड ट्रिप पर ले जाएगी, जहां खाने और फैमिली पर खास फोकस है। यहां कुछ मजेदार मुकाबला भी दिखेंगे, लेकिन रितेश शाह के डायलॉग्ज़ स्मार्ट और हाजिर जवाब हैं। हालांकि, फिल्म थोड़ी धीमी नज़र आ रही और यह आपको ठीक वैसा ही लगेगा जैसे आप भूखे पेट लंच टेबल पर बैठे हों और भूख खत्म होने के बाद आपका ऑर्डर आपके सामने आया हो।तो कैसी है शेफ? भले शेफ की कहानी कई जगह आपको जानी-पहचानी सी लगे, लेकिन इस जर्नी को आप इंजॉय करेंगे। अब आप तय करें कि आप इस फिल्म को देखते हुए क्या खाना पसंद करेंगे। पॉपकॉर्न या फिर टेस्टी पास्ता, जिसे रोशन पल में बना लेते हैं।",0 "बैनर : सरोज एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : रचना सुनील सिंह निर्देशक : पार्थो घोष कलाकार : जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, निकिता आनंद, रोजा एक वक्त ऐसा भी था जब पार्थो घोष का नाम सफल निर्देशकों में गिना जाता था। 100 डेज़, दलाल और अग्निसाक्षी जैसी सफल फिल्में उन्होंने दी थीं। लेकिन वक्त के साथ घोष बदल नहीं पाए और इसका परिणाम ‘एक सेकंड... जो जिंदगी बदल दे’ में देखने को मिलता है। अरसे से अटकी हुई यह फिल्म अब जाकर रिलीज हुई है। चूका हुआ निर्देशन, जैकी और मनीषा जैसे थके हुए कलाकार, बेजान स्क्रीनप्ले इस फिल्म में देखने को मिलते हैं। 1998 में बनी स्लाइडिंग डोर्स से प्रेरित ‘एक सेकंड... जो जिंदगी बदल दे’ में एक भी चीज उल्लेखनीय नहीं है। कहानी है एक कपल की, जिसमें पति अपनी पत्नी को धोखा देते हुए अपनी पहली गर्लफ्रेंड से संबंध बनाए हुए है। क्या होता है जब पत्नी एक सेकंड की देरी के कारण ट्रेन मिस कर देती है? इसके बाद दो कहानियाँ समानांतर चलती है, लेकिन पर्दे पर क्या घट रहा है इससे दर्शक कभी भी जुड़ नहीं पाता। फिल्म का विचार भले ही अच्छा है, लेकिन निर्देशन और स्क्रीनप्ले ने सब गड़बड़ कर दिया। जैकी श्रॉफ ने ऐसे अभिनय किया मानो कोई रूचि ही न हो। यही हाल मनीषा कोइराला का भी है। निकिता आनंद का सारा ध्यान अंग प्रदर्शन पर रहा। रोजा एक्टिंग में जीरो है। पार्थो घोष का निर्देशन प्रभावित नहीं करता। न वे कहानी को ठीक से पेश कर पाए और न ही कलाकारों से अच्छा अभिनय उन्होंने लिया। फिल्म का संगीत और गानों का फिल्मांकन भी खास नहीं है। अन्य तकनीकी पक्ष भी कमजोर है। कुल मिलाकर ‘एक सेकंड...जो जिंदगी बदल दे’ देखने का एक भी कारण इस फिल्म में मौजूद नहीं है। ",0 "रामायण की कहानी तो आप सभी ने सुनी होगी कि भगवान राम ने हनुमान और वानरों के राजा सुग्रीव की सहायता से रावण की लंका पर विजय पर प्राप्त करके अपनी पत्नी सीता को छुड़ा लिया था, लेकिन रामायण की कहानी इतनी बड़ी है कि इसकी कई कहानियों को अभी भी कम ही लोग जानते हैं। ऐसी ही एक अनकही कहानी पर प्रसिद्ध कार्टून कैरक्टर छोटा भीम की निर्माता कंपनी ग्रीन गोल्ड ने हनुमान वर्सेज महिरावण फिल्म बनाई है। हनुमान वर्सेज महिरावण फिल्म कहानी रामेश्वरम से शुरू होती है, जहां रामायण से जुड़ी एक साइट पर पुरातत्वविद खुदाई कर रहे हैं। इसी दौरान एक वैज्ञानिक के दो बच्चे अपने पापा के साथ वहां पहुंचते हैं, तो टीम के हेड उन्हें वहां निकली हुई अजीबोगरीब मूर्तियां दिखाते हैं। बच्चे उनके बारे में ज्यादा जानने की जिद करते हैं, तो वह उन्हें उनसे जुड़ी रावण के सौतेले भाई महिरावण की कथा सुनाते हैं। कथा के मुताबिक, राम-रावण युद्ध के दौरान जब रावण हार के कगार पर पहुंच गया, तो उस रात उसने धोखे से लड़ाई जीतने के लिए अपने सौतेले भाई पाताल के राजा महिरावण के पास संदेश भेजा कि वह राम और लक्ष्मण को अगवा करके उन्हें मार दे। महिरावण पहले से ही 998 राजकुमारों की बलि चढ़ा चुका था और उसे अपना यज्ञ पूरा करने के लिए दो और राजकुमारों की जरूरत थी। वह तुरंत सुग्रीव के खेमे में जाकर धोखे से राम और लक्ष्मण को उठाकर अपने राज्य पाताल ले आता है। रावण ने तो राक्षसों को विभीषण को भी मारने को कहा था, लेकिन ऐन मौके पर राम-लक्ष्मण के आने से विभीषण की जान बच गई। विभीषण की मदद से हनुमान भी महिरावण के पीछे-पीछे पाताल पहुंच जाता है। मायावी महिरावण की तरह उसका राज्य भी बेहद रहस्यमय और मायावी था, जहां हनुमान का सामना बेहद खतरनाक मुश्किलों से होता है। लेकिन अपनी जान पर खेलकर हनुमान न सिर्फ महिरावण की मृत्यु का रहस्य पता करते हैं, बल्कि उसे मारकर राम-लक्ष्मण को वापस ले आते हैं। यूं तो गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों को ध्यान में रखते हुए हर साल तमाम हॉलिवुड फिल्में रिलीज होती हैं, लेकिन फिल्म के निर्माताओं ने भारतीय बच्चों को अपनी पौराणिक कहानियों से रूबरू कराने की खातिर यह फिल्म बनाई है। पहले इस फिल्म को गर्मियों की छुट्टियों में रिलीज होना था, लेकिन इस दौरान बड़ी बॉलिवुड और हॉलिवुड फिल्मों से क्लैश टालने की खातिर अब इसे स्कूल खुलने पर रिलीज किया गया है। 3डी में बनी इस फिल्म में डायरेक्टर ने कहानी को रोचक ढंग से कहा है और एनिमेशन भी उम्दा क्वॉलिटी का इस्तेमाल किया गया है। फिल्म की कहानी अपने आप में मनोरंजक है, जो डेढ़ घंटे तक आपको बांधे रखती है। हालांकि फिल्म में बॉलिवुड फिल्मों की तर्ज पर गाने थोड़े खलते हैं। बावजूद इसके इस वीकेंड आप अपने बच्चों के साथ इस फिल्म को एन्जॉय कर सकते है। ",1 "चंद्रमोहन शर्मा बाजीराव मस्तानी रिलीज होने से पहले ही इस फिल्म की चर्चा मीडिया में शुरू हो गई। दरअसल, ग्लैमर इंडस्ट्री में आज भंसाली की इमेज ऐसे चंद बेहतरीन फिल्म मेकर्स में की जाती है जो बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों के साथ कहीं भी समझौता नहीं करते वरना रितिक रोशन जैसे स्टार को स्टार्ट टू लॉस्ट व्हील चेयर पर बिठाकर गुजारिश बनाने की कल्पना तक इंडस्ट्री का दूसरा कोई नहीं कर सकता। इस बार भंसाली ने अपने बरसों पुराने एक सपने को सिल्वर स्क्रीन पर साकार किया है जो उन्होंने बारह तेरह साल पहले देखा था। हालात ऐेसे बने कि स्क्रिप्ट पर काम लगभग पूरा होने के बावजूद भंसाली को अपने इस सपने को साकार करने में इतना लंबा वक्त लग गया। फिल्म की मेकिंग, सेट्स और संवादों की तुलना बहुत पहले से के. आसिफ साहब की एवरग्रीन फिल्म मुगल ए आजम के साथ की जा रही थी। जिस तरह आसिफ साहब ने अपनी फिल्म के लीड किरदार शहजादा सलीम के माध्यम से शंहशाह अकबर प्यार का पैगाम पहुंचाया था वैसे ही भंसाली की इस फिल्म में यही काम पेशवा बाजीराव ने किया है। यकीनन यह भंसाली साहब का कमाल है कि उन्होंने मराठी कल्चर के साथ-साथ उस वक्त के माहौल को बेहतरीन ढंग से पर्दे पर उतारा है। बेशक इस फिल्म में आइना महल में फिल्माया एक गाना और कुछ संवाद आपको क्लासिक मुगल-ए-आजम की याद दिलाती है। कहानी कहानी 1700 दौर की है जब मराठा साम्राज्य का महान योद्धा पेशवा बाजीराव बल्लाल (रणवीर सिंह) अपने साम्राज्य का चारों और विस्तार करने में लगा हुआ था, बाजीराव की शादी काशीबाई (प्रियंका चोपड़ा) से हुई है, काशीबाई की नजरों में बाजीराव जैसा दुनिया में दूसरा कोई और नहीं, सो वह खुद से कहीं ज्यादा बाजीराव को पसंद करती है। अपने साम्राज्य का विस्तार करने में लगातार बिजी बाजीराव युद्ध और रणभूमि में ही ज्यादा वक्त गुजारता है। इसी दौरान, एक दिन बाजीराव का सामना बुंदेलखंड महाराज छत्रसाल की बेटी मस्तानी (दीपिका पादुकोण) से होता है। मस्तानी बेहद सुंदर है, तलवारबाजी और युद्धकलाओं में उसकी महारत है। युद्ध के मैदान में मस्तानी बाजीराव से मदद लेने आई है ताकि अपने पिता के राज्य को आक्रमणकारियों से बचा सके। इसी युद्ध के दौरान मस्तानी और बाजीराव एक-दूसरे को चाहने लगते है, इसके बाद दोनों विवाह में भी बंध जाते हैं। बाजीराव हिंदू हैं और मस्तानी मुसलमान, ऐसे में दूसरे धर्म की लड़की के साथ बाजीराव की शादी उसकी पहली पत्नी काशीबाई (प्रियंका चोपड़ा) के अलावा मां राधाबाई (तन्वी आजमी), बहन भियुबाई (अनुजा गोखले) के अलावा उसके भाई चिमाजी अप्पा (वैभव) को मंजूर नहीं लेकिन सभी बाजीराव की खुशी के सामने खामोश है। ऐक्टिंग रणवीर को पेशवा के किरदार में देखकर सहज विश्वास नहीं होता है कि ग्लैमर इंडस्ट्री में कुछ अर्सा पहले ही करियर शुरू करने वाला एक हरफनमौला एक्टर इस कद्र बेहतरीन ऐक्टिंग भी कर सकता है। पेशवा के किरदार में रणबीर की एनर्जी और उनकी संवाद अदायगी का बदला अंदाज आपको यकीनन पसंद आएगा। मानना होगा रणवीर सिंह इस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष हैं, उनकी बेहतरीन ऐक्टिंग देखकर लगेगा रणबीर शूटिंग के दौरान इस किरदार में पूरी तरह से खो गए। पेशवा के किरदार के लिए उन्होंने मराठी लहजे पर जबर्दस्त मेहनत की है। मस्तानी के रोल में दीपिका सुंदर लगती है तो साथ ही हाथों में तलवार लिए दीपिका का दूसरा लुक उसके अभिनय को और निखारने का काम करता है। प्रियंका ने अपने किरदार को असरदार ढंग से निभाया है यकीनन काशीबाई का किरदार उनके करियर की चंद बेहतरीन भूमिकाओं में अपनी जगह बनाने का दम रखता है। बाजीराव की मां यानी आई साहब के किरदार में तन्वी आजमी ने ऐसा उम्दा सजीव दमदार अभिनय किया है जो लंबे अर्से तक याद रहेगा। ​ डायरेक्शन भंसाली ने अपनी इस फिल्म में आज के माहौल में ऐसा संदेश देने की अच्छी पहल की है जिसकी आज निहायत जरूरत है, यानी प्यार का कोई धर्म नहीं होता बस। वहीं भंसाली अपनी फिल्म को बेहतरीन महंगे सेट्स और हिंदी फिल्मों में कम ही नजर आने वाले दृश्यों के साथ दिखाने के लिए जाने जाते हैं। हम दिल दे चुके सनम में गुजराती कल्चर तो इस बार भंसाली ने अपनी इस फिल्म में महाराष्ट्रियन कल्चर को असरदार ढंग से पर्दे पर आकर्षक रंगों के साथ पेश किया है। भंसाली की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने रणबीर सिंह से पेशवा बाजीराव के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया। संगीत इस फिल्म के लगभग सभी गाने रिलीज से पहले ही काफी लोकप्रिय हो चुके है। भंसाली ने फिल्मी पर्दे पर इन गानों को टोटली मराठी अंदाज में पेश किया है। इस फिल्म का गाना अलबेला साजन सलमान स्टारर फिल्म हम दिल दे चुके सनम के गाने की याद दिलाता है। क्यों देखें अगर आप संजय लीला भंसाली की फिल्मों के अलग कलेवर को पसंद करते हैं। रणवीर, दीपिका, प्रियंका चोपड़ा के फैन हैं, तो अपने इन तीनों चहेते स्टार्स को इस बार डिफरेंट लुक में देखने के लिए यह फिल्म जरूर देखें। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर अब फिल्में बनने का ट्रेंड दम तोड़ रहा है ऐसे में हिस्ट्री बेस्ड फिल्मों के शौकीनों के लिए भी एक अच्छा ऑप्शन है। फिल्म बाजीराव मस्तानी का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें ",1 " बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, रेड चिली एंटरटेनमेंट निर्माता : हीरू जौहर, गौरी खान निर्देशक : करण जौहर संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन, आलिया भट्ट, ऋषि कपूर, रोनित रॉय, मेहमान कलाकार - बोमन ईरानी, फराह खान, काजोल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * सेंसर सर्टिफिकेट नंबर : सीआईएल/2/137/2012 * लंबाई : 3988.40 मीटर्स * 16 रील * 2 घंटे 25 मिनट वयस्क होने की दहलीज पर खड़े किरदारों को लेकर बहुत कम‍ फिल्में बनती हैं जबकि फिल्म देखने वाले दर्शकों में सबसे ज्यादा प्रतिशत इसी वर्ग का होता है। करण जौहर ने अपने करियर में पहली बार साहस दिखाते हुए नए कलाकारों के साथ इस वर्ग के लिए ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ बनाई है। वैसे फिल्म निर्माता के रूप में उन्होंने शाहरुख खान की पत्नी गौरी खान को अपना पार्टनर बनाया है क्योंकि बिना शाहरुख के वे कुछ नहीं सोच सकते हैं। माई नेम इज खान के जरिये करण ने अपना ट्रेक बदला था, लेकिन ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ के जरिये वे एक बार फिर अपने चिर-परिचित डांस-सांग-रोमांस और स्टाइलिश सिनेमा की ओर लौट गए हैं। ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हिंदी सिनेमा के स्क्रीन पर अब तक नजर नहीं आया हो। फिल्म पूरी तरह फॉर्मूलाबद्ध है, लेकिन जिस तरह से एक अनुभवी रसोइया आपकी पसंदीदा डिश को उन्हीं मसालों के साथ और स्वादिष्ट बना देता है वही काम करण जौहर ने किया है। करण ने अपनी टॉरगेट ऑडियंस की पसंद को ध्यान में रखा है, उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी और मनोरंजन के तत्व शामिल हैं, इस वजह से ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ एक मनोरंजक फिल्म के रूप में सामने आती है। सेंट टेरेसा हाई स्कूल के तीन स्टुडेंट्स अभिमन्यु सिंह (सिद्धार्थ मल्होत्रा), रोहन नंदा (वरुण धवन) और शनाया सिंघानिया (आलिया भट्ट) के इर्दगिर्द कहानी घूमती है। अभिमन्यु और रोहन की पारिवारिक पृष्ठभूमि बेहद अलग है। रोहन के पिता के पास अरबों रुपये हैं, जबकि अभिमन्यु के माता-पिता अब दुनिया में नहीं रहे और भैया-भाभी के भरोसे वह पलता है। अब ये मत पूछिए कि फाइव स्टार होटल जैसे नजर आने वाले स्कूल का खर्चा उसके भैया कैसे उठाते हैं। यहां गरीब, गरीब इसलिए है कि उसके पास फेरारी कार नहीं है। करण जौहर के लिए गरीबी की परिभाषा थोड़ी अलग होती है। अभि और रो में बिलकुल नहीं पटती। वे दोस्त बनते हैं, लेकिन उनके रिश्ते तब और बिगड़ जाते हैं जब उनके बीच शयाना आ जाती है। फिर दोनों में स्टुडेंट ऑफ द ईयर का मुकाबला शुरू हो जाता है और प्यार, नफरत और ईर्ष्या जैसी भावनाएं देखने को मिलती हैं। स्क्रिप्ट में कई खामियां हैं। जैसे यह स्कूल नहीं बल्कि शानदार होटल नजर आता है। सारे स्टुडेंट्स इंटरनेशनल ब्रांड के कपड़े पहने और ब्यूटी पार्लर से निकले नजर आते हैं। साथ ही स्टुडेंट ऑफ द ईयर के लिए जिस तरह से छात्रों के बीच प्रतियोगिता करवाई जाती है, उसमें लड़के और लड़कियों की साथ में साइकिलिंग, तैराकी और दौड़ करवाई जाती है, जो कि पूरी तरह गलत है। हालांकि फिल्म के अंत में एक स्टुडेंट इस बात को उठाता भी है, लेकिन हैरत इस बात को लेकर होती है कि क्या पच्चीस वर्षों से चली आ रही इस प्रतियोगिता को लेकर किसी के भी दिमाग में इस तरह का प्रश्न नहीं आया। स्क्रिप्ट की इन कमियों का असर करण अपने शानदार निर्देशन से कम कर देते हैं। उन्होंने फिल्म की गति बेहद तेज रखी है, जिससे दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता। साथ ही किरदार इतने सशक्त हैं कि कहानी पर वे हावी हो जाते हैं, जिससे कई खामियां छिप जाती हैं। छोटे-छोटे दृश्यों से दर्शकों को हंसाया गया है और कहानी को आगे बढ़ाया गया है। सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन और आलिया भट्ट के रूप में तीन नए कलाकार बॉलीवुड को मिले हैं। आलिया एक्टिंग के मामले में थोड़ी कमजोर हैं, लेकिन वक्त के साथ-साथ वे सीख जाएंगी। वे ही इस फिल्म में एकमात्र ऐसी कलाकार हैं जो अपनी उम्र के मुताबिक नजर आती हैं। उनकी खूबसूरती और मासूमियत आकर्षित करती है। तीनों में सबसे ज्यादा दम वरुण धवन में नजर आता है। वरुण न केवल डांस में माहिर हैं बल्कि उनके चेहरे पर हर तरह के भाव आते हैं, ऊंचाई के मामले में वे जरूर मार खाते हैं। सिद्धार्थ मल्होत्रा का चेहरा सख्त है और रोमांस करते समय भी यह सख्त बना रहता है। लेकिन अपने किरदार को वे स्टाइल और एटीट्यूड देने में कामयाब रहें। तीनों के दोस्त बने कलाकारों का काम भी उम्दा है। ऋषि कपूर डीन बने हैं जो जॉन अब्राहम को देख ‘आहें’ भरता है। विशाल-शेखर का संगीत इस फिल्म का प्लस पाइंट है। कई गानों में उन्होंने पुराने हिट गानों का उपयोग किया है। प्रोडक्शन के नजरिये से फिल्म रिच है और किसी किस्म की कंजूसी नहीं की गई है। यदि आप हल्की-फुल्की और बबलगम रोमांस टाइप फिल्में पसंद करते हैं तो ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ देखी जा सकती है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "अब जब लंबे अर्से बाद टाइगर की एक बार फिर वापसी हुई है तो सलमान के फैन्स भी अपने चेहते टाइगर का वेलकम करने को बेताब है। रिलीज़ से पहले फिल्म के ट्रेलर ने यूट्यूब पर नया रेकॉर्ड कायम किया तो अब फिल्म ने रिलीज़ से पहले सिनेमाघरों में 30 करोड़ से ज्यादा की अडवांस बुकिंग का रेकॉर्ड भी अपने नाम किया। इस फ़िल्म के डायरेक्टर बेशक बदल गए हों लेकिन कहानी और किरदारों को पेश करने का अंदाज पिछली फिल्म से काफी हद तक मिलता है। पिछली फिल्म की कहानी अपने वतन से शुरू हुई तो इस बार आंतकवाद की आग मे बरसों से झुलसते सीरिया की जमीं से शुरू होती है। सलमान की यह फ़िल्म देखकर ताज्जुब होता है कि पाकिस्तान मे फिल्म को क्यों रोका गया, जबकि फिल्म मे ऐसा कुछ भी नहीं जो पाकिस्तान के जरा भी विरुद्ध हो। अलबत्ता पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई और रॉ का एक एक साथ एक मिशन पर निकलना और कामयाब होना सिनेमा के पर्दे पर देखना अच्छा लगता है। हॉलिवुड फिल्मों को टक्कर देते बेहतरीन ऐक्शन सीन ऑस्ट्रिया और मोरक्को की गजब की खूबसूरत लोकेशन के साथ और 'धूम' के बाद कटरीना के जबरदस्त स्टंट और ऐक्शन सीन फिल्म का प्लस पॉइंट हैं तो वही इंटरवल के बाद फिल्म को बेवजह खींचा जाना चन्द मिनट बाद पर्दे पर बंदूक से लगातार निकलती गोलियों की आवाज आपको कई बार टेंशन का आभास करा सकती है, लेकिन सलमान का स्टाइल और उनका नया कुछ बदला हुआ अंदाज आपको पसंद आ सकता है।स्टोरी प्लॉट: अविनाश सिंह राठौर (सलमान खान) अब करीब आठ साल के एक सुंदर से बेटे जूनियर टाइगर का पापा बन चुका है। अपनी खूबसूरत वाइफ जोया (कटरीना कैफ) और बेटे के साथ टाइगर ऑस्ट्रिया की बर्फीली पहाड़ियों के बीच शांति से अपनी लाइफ गुजार रहा है, लेकिन एक पल भी टाइगर न तो अपने वतन और न ही रॉ को भूल पाया है।यही वजह है कि टाइगर अपनी मौजूदगी का संकेत नई दिल्ली मै बैठे अपने बॉस शिवाय सर (गिरीश कर्नाड) को भेजता रहता है। इसी बीच सीरिया के कई कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन आईएस का मुखिया उस्मान (साजिद) एक के बाद एक कई शहरों पर अपना कब्जा करने और इन्हें बर्बाद करने में लगा है, जो अमेरिका को सबक सिखाने के लिए और यहां दहशत फैलाने व बेगुनाह नागरिकों की हत्याएं करने में लगा है। अमेरिकी जर्नलिस्ट को मौत के घाट उतारने के बाद भी उस्मान की कैद में कई अमेरिकी हैं। ऐसे में अमेरिका उस्मान के बेस कैम्प को तबाह करने और उस्मान सहित दूसरे आंतकियों को मारने के लिए सात दिन बाद अटैक करने का प्लान बनाता है। उस्मान के इसी अड्डे में भारत और पाकिस्तान की करीब 40 से ज्यादा नर्स भी हैं जो उस्मान और उसके साथी बगदादी के कब्जे में हैं। अब इन भारतीय नर्सों को भारत वापस लाने का मिशन रॉ प्रमुख शिनॉय टाइगर को सौंपते हैं। टाइगर अपनी टीम में अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ जाता है तो वही कभी पाक खुफिया एजेंसी की खास एजेंट रही जोया खान भी आईएस और उस्मान की गिरफ्त से पाकिस्तानी नर्सों को बचाने के मिशन पर सीरिया पहुंचती है। टाइगर के साथ रॉ की टीम और जोया के साथ आईएसआई के दो लोग भी यहां इन सबकी मदद करने में लगा है । करीब 25 सालों से ऑयल रिफाइनरी के लिए मजदूरों का लाने का काम करता है, लेकिन असल मे वह भी रॉ का एजेंट है। जोया और टाइगर के इस मिशन का अंजाम क्या होता है यह देखने के लिए आपको टाइगर से मिलना होगा।पूरी फिल्म सलमान के कंधों पर टिकी है। लंबे अरसे बाद सलमान को इस फिल्म में जबर्दस्त ऐक्शन करते देख उनके फैंस जरूर खुश हो सकते हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में सलमान का शर्ट उतारकर हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन स्टार की तरह भारी भरकम बंदूक और स्टेनगन को चलाना सिंगलस्क्रीन्स पर जादू चला सकता है। जोया के रोल में कटरीना का जवाब नहीं है। उनपर फिल्माए कुछ ऐक्शन सीन्स काफी अच्छे हैं। यकीनन, ऐसे खतरनाक स्टंट सीन के लिए कटरीना ने काफी होमवर्क किया होगा। अन्य कलाकारों में राकेश के रोल में कुमुद मिश्रा और आतंकी सरगना उस्मान के रोल में साजिद ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। रॉ चीफ के रोल में गिरीश कर्नाड काफी जमे हैं। डायरेक्टर अली अब्बास जफर की स्क्रिप्ट पर अच्छी पकड़ है। फिल्म की गति जोरदार है जो आपको एक पल भी स्क्रीन से नजर हटाने का मौका नहीं देती है। इंटरवल के बाद न जाने क्यों फिल्म के क्लाइमैक्स को खींचा गया है। करीब पौने तीन घंटे की फिल्म में एेक्शन की भरमार फैमिली क्लास को शायद न जमे। फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले हिट हो चुका है। 'स्वैग से करेंगे सबका स्वागत' का फिल्मांकन गजब का है। क्यों देखें: सलमान और कटरीना की दमदार केमिस्ट्री और हैरतअंगेज स्टंट ऐक्शन सीन के साथ फिल्म में एक अच्छा मेसेज भी है। अगर आप सलमान के फैन हैं तो 100 फीसदी यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। वहीं, अगर आप पहली फिल्म से इसकी तुलना करेंगे या कुछ नया सोचकर इसे देखेंगे तो शायद अपसेट हो सकते हैं। हां, फिल्म का क्लाइमैक्स ऐसा है कि टाइगर के एक बार फिर वापस आने की उम्मीद है।इसे गुजराती में पढ़ें...",0 "निखिल आडवाणी उन निर्देशकों में से हैं जो अच्छी भली कहानी को खराब तरीके से प्रस्तुत करते हैं। ज्यादा दूर नहीं जाए तो पिछले सप्ताह रिलीज हुई सुपरहिट फिल्म 'हीरो' का रिमेक उन्होंने ऐसा बनाया कि ओरिजनल 'हीरो' के निर्देशक सुभाष घई सहित फिल्म के निर्माता सलमान खान भी सोच रहे होंगे कि निखिल को उन्होंने यह मौका क्यों दिया? निखिल की इस काबिलियत पर किसी को शक नहीं है कि 'चांदनी चौक टू चाइना', 'सलाम-ए-इश्क' 'पटियाला हाउस' जैसी फ्लॉप फिल्मों के बावजूद उन्हें अवसर मिले जा रहे हैं। इस हफ्ते यह बंदा 'कट्टी बट्टी' के साथ फिर हाजिर है। हम नहीं सुधरेंगे वाली बात उन फिट बैठती है क्योंकि एक बार फिर उन्होंने 'कट्टी बट्टी' के रूप में एक और पकाऊ-उबाऊ फिल्म दर्शकों के सामने पेश कर दी है। माधव काबरा उर्फ मैडी‍ (इमरान खान) का पायल (कंगना रनौट) से ब्रेकअप हो गया है। पिछले पांच वर्षों से वे लिव-इन-रिलेशनशिप में थे। पायल के प्यार में मैडी पागल है तो दूसरी ओर पायल के लिए यह महज टाइमपास रहता है। माधव को यकीन नहीं हो रहा है कि पायल उसे छोड़ कर चली गई है। डिप्रेशन में वह गलती से शराब की जगह फिनाइल पी लेता है। उसके दोस्त और बहन ये मानते हैं कि मैडी ने आत्महत्या की कोशिश की है। वे पायल को भूलने की सलाह देते हैं। बीच-बीच में कहानी पीछे की ओर जाती है कि कैसे पायल और मैडी की मुलाकात हुई थी? कैसे दोनों साथ रहने लगे? इसी बीच मैडी को पता चलता है कि पायल अपने एक्स बॉयफ्रेंड से शादी करने वाली है। वह मुंबई से दिल्ली जाता है ताकि पायल से पूछ सके कि ब्रेक अप की वजह क्या है? कट्टी बट्टी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत ही कमजोर है और हैरानी की बात तो ये है कि इस पर फिल्म बनाना कैसे मंजूर कर लिया गया? मैडी और पायल की पहली मुलाकात, फिर दोनों का साथ रहने का निर्णय, ये सब कुछ इतना जल्दबाजी में दिखाया गया है कि यकीन करना मुश्किल होता है। शराब पीने वाला हीरो, टैटू वाली हीरोइन, दोनों सेक्स के लिए आतुर, बढ़िया सेट्स के जरिये लेखक और निर्देशक ने फिल्म को 'कूल' और 'युथफुल' बनाने की कोशिश की है, लेकिन इन सब बातों के बीच जो ड्रामा दिखाया है वह निहायत ही उबाऊ है। पहले हाफ इतना बोर है कि आपको नींद आ सकती है, या फिर आप थिएटर से बाहर निकलने का फैसला कर सकते है। इंटरवल के बाद भी फिल्म में कोई सुधार नजर नहीं आता। मुंह में पान रखकर हां-ना में जवाब देना, एक बेवकूफ किस्म के बॉस का अपने वर्कर के साथ स्टेच्यु खेलना, ऑफिस में मैडी और उसके दोस्त का आपस में फाइट करना, 'फ्रस्ट्रेटेड वन साइडेड लवर्स एसोसिएशन (फोस्ला)' नामक बैंड का पायल की शादी में पहुंच कर उटपटांग हरकत करने जैसी बातों में मनोरंजन ढूंढना बेवकूफी है। फिल्म के अंत में एक इमोशनल ट्वीस्ट दिया गया है, जो अपील करता है, लेकिन इसमें बहुत देर कर दी गई है। तब तक फिल्म में आपकी रूचि खत्म हो जाती है। यह ट्वीस्ट पहले दिया गया होता तो निश्चित रूप से फिल्म बेहतर बन सकती थी। जिस बात को दर्शकों और हीरो से छिपा कर रखा गया अंत में बताया गया है, उसे दर्शकों को पहले बताया जाना जरूरी था। निखिल आडवाणी ने कमजोर स्क्रिप्ट चुनी है और उनका निर्देशन भी सतही है। वे तकनीकी रूप तो मजबूत है, लेकिन कहानी कहने का तरीका उन्हें सीखना होगा। शंकर-अहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध 'सरफिरा', 'लिप टू लिप' और 'सौ आंसू' सुनने लायक हैं, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने अखरते हैं। संवाद औसत दर्जे के हैं। इमरान खान एक जैसा अभिनय करते आए हैं और 'कट्टी बट्टी' में भी वे उसी अंदाज में दिखाई दिए। उनके पास सीमित एक्सप्रेशन्स हैं और उसी के जरिये वे काम चलाते हैं। कंगना रनौट का रोल बहुत बड़ा नहीं है और फिल्म के अधिकांश हिस्से से वे गायब नजर आती हैं। उनका रोल भी ठीक से लिखा नहीं गया है। इमरान की तुलना में उनका अभिनय बेहतर रहा है। कुल मिलाकर 'कट्टी बट्टी' एक उबाऊ फिल्म है और इससे 'कट्टी' करने में ही भलाई है। बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि. ‍निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : निखिल आडवाणी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : इमरान खान, कंगना रनौट सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 32 सेकंड्स ",0 "‘जोधा अकबर’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन में बैठकर हम सोलहवीं सदी में पहुँच गए हैं और सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा है। निर्माता : आशुतोष गोवारीकर-रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : आशुतोष गोवारीकर संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, सोनू सूद, कुलभूषण खरबंदा, इला अरुण, निकितिन धीर, प्रमोद माउथो आशुतोष गोवारीकर अपनी फिल्मों को विस्तार से बनाते हैं। ‘जोधा अकबर’ की प्रेम कहानी को भी उन्होंने लगभग पौने चार घंटे में समेटा है। इतिहास में कल्पना का समावेश कर सोलहवीं सदी की इस प्रेम कथा को परदे पर पेश किया गया है। फिल्मकार का मानना है कि जोधा-अकबर की प्रेम कहानी को वो श्रेय नहीं मिला है, जो मिलना चाहिए था। जोधा के प्रेम से अकबर को अपनी सोच में एक नई दिशा मिली। वहीं दो भिन्न धर्म और संस्कृतियों का मिलन भी हुआ। फिल्म की शुरुआत एक भीषण युद्ध से होती है और इससे फिल्म की भव्यता का अंदाजा लग जाता है। इस युद्ध का फिल्मांकन इतना शानदार है कि मुँह से वाह निकल जाता है। इसके बाद बाल अकबर को दिखाया गया है, जो खून-खराबे के खिलाफ है, लेकिन उसके नाम पर उसके सहयोगी अपनी क्रूरता को अंजाम देते हैं। कहानी छलांग लगाकर युवा अकबर (रितिक रोशन) पर आती है, जो अपने फैसले खुद लेने का निर्णय लेता है। आमेर के राजा भारमल (कुलभूषण खरबंदा) अपने राज्य की प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर मुगलों से दोस्ती करने का फैसला करता है। भारमल चाहता है कि उसकी बेटी जोधा (ऐश्वर्या) से अकबर शादी करें। बिना जोधा को देखे अकबर निकाह के लिए राजी हो जाता है। जोधा निकाह करने के पहले अकबर के सामने दो शर्त रखती हैं। वह अपना धर्म नहीं बदलेगी और उसे महल के अंदर एक मंदिर बनवाकर दिया जाएगा। अकबर दोनों शर्त कबूल कर लेता है। एक हिंदू लड़की से निकाह करने के बदले अकबर को कट्‍टरपंथियों की नाराजगी झेलना पड़ती है। निकाह के बाद अकबर से जोधा दूर-दूर रहती है। वह कहती है कि फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग है। फिर शुरू होता है अकबर और जोधा का रोमांस। इस मुख्य कथा के साथ-साथ राजनीति, षड्‍यंत्र की उपकथाएँ भी चलती रहती हैं। फिल्म में अकबर और जोधा के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है। अकबर एक न्यायप्रिय होने के साथ-साथ सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता था। जोधा के कहे गए वाक्य फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग बात हैं का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वह जनता के बीच जाकर उनके हालात पता करता है। हिंदू तीर्थयात्रियों पर लगने वाले कर को हटाता है और लोगों का मन जीतता है। वो हिंदुस्तान को अपना मुल्क मानता है। उसके विचार आज भी सामयिक हैं। राजकुमारी जोधा राजपूत तेवरों के साथ पेश की गई है। आत्मसम्मान वाला गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था। उसने निडरता के साथ मुगल सम्राट अकबर के आगे अपनी शर्त रखी और मनवाने में कामयाब भी हुई। तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण जोधा एक बहादुर स्त्री थी। आशुतोष गोवारीकर की इस फिल्म में भव्यता नजर आती है। उनका इस विषय पर किया गया शोध नजर आता है परंतु कुछ कमियाँ भी हैं। पटकथा अच्छी है, लेकिन बहुत शानदार नहीं है। इस फिल्म में जबरदस्त ड्रामा की गुंजाइश थी, परंतु आशुतोष ने गहराई में जाने के बजाय सतह पर तैरना पसंद किया। जोधा-अकबर की प्रेम कहानी अच्छी है, लेकिन वह दिल को छूती नहीं। न ही आशुतोष ने उस दौर की परिस्थितियों में भीतर तक जाने की कोशिश की है। संवाद इस फिल्म का दूसरा कमजोर पहलू है। इस तरह की कहानियों में संवाद बेहद दमदार और असरदार होना चाहिए जो दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर दें, लेकिन इस तरह के संवाद फिल्म में कम हैं। संवाद में बेहद सरल हिंदी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिसे समझने में कोई परेशानी महसूस नहीं होती है। फिल्म में कुछ दृश्य उल्लेखनीय हैं। मसलन जोधा द्वारा अकबर का नाम लिखना और अनपढ़ होने के कारण अकबर का उसे पढ़ने में असमर्थ होना। वह जोधा को पढ़ने को कहता है और जोधा विचित्र परिस्थि‍ति में फँस जाती है कि एक हिंदू स्त्री अपने पति का नाम कैसे ले। जोधा का निकाह के पहले अकबर के सामने शर्त रखना। बावर्चीखाने में जोधा का अकबर के लिए खाना बनाना। वहाँ पर उसका अकबर की दाई माँ (इला अरुण) से वाक् युद्ध। बाद में उसे सबके सामने खाना चखकर यह साबित करना कि उसने खाने में कुछ नहीं मिलाया है और अकबर का बाद में उसी थाली में भोजन करना। अंत में अकबर और शरीफुद्दीन के बीच की लड़ाई। अकबर के रूप में रितिक थोड़े असहज नजर आए। ‍वे अकबर कम और रितिक ज्यादा लगे। ऐश्वर्या राय उन पर भारी पड़ीं। पहली फ्रेम से दर्शक उन्हें जोधा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। अभिनय की दृष्टि से ‘जोधा अकबर’ ऐश्वर्या की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक गिनी जाएगी। सोनू सूद (राजकुमार सुजामल), इला अरुण (महाम अंगा), कुलभूषण खरबंदा (राजा भारमल), निकितिन धीर (शरीफुद्दीन), उरी (बैरम खान), प्रमोद माउथो (टोडरमल) का अभिनय भी उम्दा है। नीता लुल्ला के कास्ट्यूम उल्लेखनीय हैं। किरण देओहंस का कैमरावर्क अंतरराष्ट्रीय स्तर का है। एआर रहमान का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘जश्ने बहारा’, ‘अज़ीम ओ शान शहंशाह’ और ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा’ सुनने लायक हैं। रहमान का बैकग्राउंड संगीत फिल्म को अतिरिक्त भव्यता प्रदान करता है। फिल्म की लंबाई थोड़ी ज्यादा जरूर है, लेकिन बोरियत नहीं होती। यदि फिल्म संपादित कर तीस मिनट छोटी कर दी जाए तो इससे फिल्म में कसावट आ जाएगी। ‘जोधा अकबर’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन में बैठकर हम सोलहवीं सदी में पहुँच गए हैं और सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा है। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com लीजिए, सलमान एकबार फिर अपने फैन्स से ईद पर ईदी लेने आ गए हैं। इस फिल्म का सलमान के फैन्स के अलावा फैमिली क्लास को भी बड़ी बेसब्री से इंतजार था। अब जब, सुल्तान ईद के दिन रिलीज नहीं हुई तो इसका कुछ खामियाजा प्रॉडक्शन कंपनी को भुगतना पड़ सकता है। सलमान की यह फिल्म बेशक पहले दिन बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के चार्ट में नंबर वन पर शायद शामिल न हो पाए, लेकिन अगले चार दिन यकीनन सलमान बॉक्स ऑफिस अपने नाम करने वाले हैं। क्रिकेट को लेकर क्रेज़ के बावजूद इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कुश्ती पर करीब 115 करोड़ के भारी-भरकम बजट में नंबर वन स्टार्स के साथ यह फिल्म बनाई। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : हरियाणा रेवाड़ी के एक छोटे से गांव में रहने वाला सुल्तान अली खान (सलमान खान) अपने दोस्त गोविंद के साथ केबल टीवी का काम करता है। गांव के लोगों को चैनल दिखाने के काम में लगा सुल्तान अपनी इसी दुनिया में मस्त है। सुल्तान रेवाड़ी से लेकर अपने गांव तक कटी हुई पतंग को लूटने की फील्ड में नंबर वन है। अचानक, एक दिन सुल्तान की मुलाकात आरफा (अनुष्का शर्मा) से होती है। आरफा और उसके पिता का बस एक ही सपना है कि आरफा देश के लिए ओलिंपिंक में रेसलिंग खेले और मेडल जीतकर अपने वतन का नाम रोशन करे। पहली ही नजर में सुल्तान को आरफा से एकतरफा प्यार हो जाता है। सुल्तान जब आरफा से अपने प्यार का एहसास करता है तब आरफा उसे पहले अपनी कुछ अलग पहचान बनाने के लिए कहती है। सुल्तान भी रेसलर बनने का फैसला करके आरफा के पिता के अखाडे में ही कुश्ती के दांवपेच सीखने आता है। अब आरफा भी सुल्तान को अपना दोस्त बना लेती है, लेकिन सुल्तान जब एकबार फिर आरफा के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है तो आरफा उसे थप्पड़ मारती है। यही एक थप्पड़ सुल्तान की जिंदगी का मकसद ही बदल देता है। अब सुल्तान का मकसद रेसलिंग में स्टेट चैंपियन बनने का है। स्टेट चैंपियन बनने के बाद सुल्तान की कामयाबी का सफर शुरू होता है। आरफा और सुल्तान का निकाह होता है, इसी के बाद आरफा और सुल्तान की लाइफ में बहुत कुछ होता है। आरफा सुल्तान को छोड़ अपने पिता के घर लौट आती है। सलमान भी रेसलिंग को छोड़कर एक सरकारी दफ्तर में नौकरी करने लगता है, ऐसे में सुल्तान की लाइफ में आकाश ओबेरॉय (अमित साद) की एंट्री होती है, जो दिल्ली में रेसलिंग की वर्ल्ड क्लास चैंपियनशिप करवा रहा है। आकाश से मिलने के बाद सुल्तान एकबार फिर अपने खोये हुए प्यार को हासिल करने और अपनी पहचान साबित करने के लिए रेसलिंग की दुनिया में लौटता है। ​ऐक्टिंग : स्टार्ट टू लास्ट तक फिल्म सलमान खान के मजबूत कंधों पर टिकी है। रेवाड़ी के एक छोटे से गांव में रहने वाले हरियाणवी पहलवान के इस किरदार में सलमान ने अपने बेहतरीन अभिनय से जान डाल दी है। देसी पहलवान से विदेशी रेसलर के किरदार को निभाने के लिए सलमान ने भाषा सीखने के साथ कुश्ती के कई दांव सीखे तो अपनी 'दबंग', 'बॉडीगार्ड', 'वॉन्टेड', 'रेडी', जैसी पिछली फिल्मों से बनी इमेज से हटकर अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। वहीं हरियाणवी महिला रेसलर के रोल को अनुष्का शर्मा ने बखूबी निभाया है। अनुष्का ने इस किरदार में जान डालने के मकसद से हरियाणवी भाषा की क्लास अटेंड की। तारीफ करनी होगी फिल्म में सलमान के खास दोस्त गोविंद के किरदार निभाने वाले कलाकार की, जिन्होंने सलमान जैसे मंजे हुए स्टार के ऑपोजिट अपनी दमदार मौजूदगी का दमदार एहसास कराया। कोच के रोल में रणदीप हुड्डा डायरेक्टर की परफेक्ट चॉइस रहे तो आशीष ओबेरॉय के रोल में अमित साद निराश नहीं करते। निर्देशन : अली अब्बास जफर की यह फिल्म एक रेसलर की लाइफ पर बेस्ड है, लेकिन डायरेक्टर ने रेसलर की लव-स्टोरी पर कुछ ज्यादा ही फोकस किया है। इंटरवल से पहले की रफ्तार धीमी होने की वजह से दर्शक कहानी के साथ पूरी तरह से नहीं बंध पाते। अनुष्का और सलमान की लव-स्टोरी को अगर डायरेक्टर कुछ कम करके यही वक्त सुल्तान और आरफा की लाइफ और रेसलिंग पर ज्यादा फोकस करते तो फिल्म की रफ्तार कम नहीं होती। ऐसे में कहानी में बार-बार फ्लैशबैक का इस्तेमाल भी बोर करने लगता है। हां, रणदीप हुड्डा की एंट्री से लेकर ऐंड तक फिल्म रफ्तार पकड़ती है। हां, अली ने फिल्म को परफेक्ट लोकेशंस पर शूट किया, वहीं सलमान पर फिल्माए फाइट सीक्वेंस का जवाब नहीं।. संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही इस फिल्म के दो गाने कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। टाइटल सॉन्ग सुल्तान का फिल्मांकन बेहतरीन है, वहीं 'जग घूमियां' और 'बेबी' यंगस्टर्स की जुबां पर पहले से है, लेकिन सलमान की इस फिल्म का संगीत उनकी पिछली सुपरहिट फिल्मों के मुकाबले कमजोर है। बेशक, विशाल-शेखर की जोड़ी ने फिल्म की कहानी की गति के मुताबिक फिल्म का म्यूजिक दिया है। फिल्म में कुश्ती और रेसलिंग के सीन के साथ सुनाई देता बैकग्राउंड म्यूजिक दर्शकों को हॉल में तालियां बजाने के लिए प्रेरित करता है। क्यों देखें : अगर आप सलमान खान के फैन हैं तो इस फिल्म को एकबार जरूर देखें, यकीनन सुल्तान के किरदार को स्क्रीन पर जीवंत बनाने के लिए सलमान ने बहुत पसीना बहाया है। फिल्म के क्लाइमैक्स में रेसलिंग चैंपियनशिप के सीन में सलमान और विदेशी फाइटर पर फिल्माए फाइट सीक्वेंस का जवाब नहीं। हां, अगर आप इस फिल्म को देखने किसी मल्टिप्लेक्स में जा रहे हैं तो इस फिल्म को देखने के लिए करीब सवां तीन घंटे का वक्त रिजर्व कर लीजिए। ",0 " बैनर : हरी ओम एंटरटेनमेंट कं., इरोज इंटरनेशनल मीडिया लि., एचआर म्युजिक निर्माता : हिमेश रेशमिया, ट्विंकल खन्ना, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : आशीष आर. मोहन संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : अक्षय कुमार, असिन, हिमेश रेशमिया, मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर, मुकेश तिवारी, जॉनी लीवर, क्लाडिया सिएस्ला सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 21 मिनट खिलाड़ी 786 शुरू होते ही चंद सेकंड का एक एक्शन सीन मूड बना देता है कि हम किस तरह की फिल्म देखने जा रहे हैं। फिर होती है अक्षय कुमार की एंट्री और वे चीखते हैं ‘खिलाड़ी इज़ बैक।‘ लगभग 12 वर्ष बाद उनकी खिलाड़ी सीरिज की कोई फिल्म रिलीज हुई है। खिलाड़ी सीरिज की ज्यादातर फिल्में थ्रिलर हुआ करती थीं, लेकिन ये एक कॉमेडी फिल्म है, जिसमें मनोरंजन का मसाला भरा हुआ है। पंजाब में रहने वाला बहत्तर सिंह (अक्षय कुमार) कहता है ‘दुनिया में तीन चीजें होती तो हैं, पर दिखाई नहीं देती। पहला भूतों का संसार। दूसरा सच्चा वाला प्यार और तीसरा बहत्तर सिंह की रफ्तार।‘ वह पलक झपकते ही काम कर देता है कि यकीन ही नहीं होता कि यह कब और कैसे हो गया।‘ बहत्तर सिंह के चाचा का नाम इकहत्तर सिंह (मुकेश ऋषि) है और पिता का नाम सत्तर सिंह (राज बब्बर)। एक भाई तिहत्तर सिंह भी था जो बचपन में एक मेले में खो गया था। जैसे इन किरदारों के नाम अजीब हैं वैसे ही इनके काम। बहत्तर सिंह पुलिस वालों की वर्दी पहनकर घूमता है। अवैध सामान ले जा रहे है ट्रकों को पकड़ता है। आधा पुलिस रख लेती है और आधा वो खुद। बदनामी के कारण उसकी शादी नहीं हो पा रही है। दूसरी ओर मुंबई में इंदु (असिन) की शादी इसलिए नहीं हो पा रही है क्योंकि वह डॉन तात्या तुकाराम तेंदुलकर (मिथुन चक्रवर्ती) की बहन है। तात्या चाहता है कि इंदु की शादी एक शरीफ खानदान में हो। मनसुख (हिमेश रेशमिया) नामक एक बंदा बहत्तर सिंह की शादी इंदु से तय करवाता है। वह तात्या को कहना है कि बहत्तर सिंह पुलिस वाला है और बहत्तर सिंह को ये बताता है कि तात्या पुलिस में है। इस तरह से गलतफहमियां पैदा होती हैं और ये कॉमेडी में बदल जाती है। खिलाड़ी 786 कोई महान फिल्म होने का दावा नहीं करती है। फिल्म का उद्देश्य स्पष्ट है कि जो दर्शक फिल्म देखने आए हैं उनका भरपूर मनोरंजन हो। वे हंसते-हंसते अपने दु:ख दर्द भूल जाए। उनकी फिल्म आम आदमी को भी पसंद आए। इस उद्देश्य में ‘खिलाड़ी 786’ पूरी तरह सफल है। फिल्म की कहानी, किरदार, स्क्रिप्ट और संवाद इस तरह लिखे गए हैं कि दर्शकों को हंसी आए। कलाकारों से ओवर एक्टिंग करवाई गई है, फाइट सीन बेहद लाउड हैं, लेकिन फिल्म की थीम को देखते हुए ये बातें अखरती नहीं हैं। हर सीन को कलरफुल बनाया गया है। फिल्म में मनोरंजन का पक्ष इतना भारी है कि कई बातें इग्नोर की जा सकती हैं, लेकिन कुछ ट्रेक फिल्म में पैबंद के रूप में लगते हैं। भारती और उसके साथी वाला ट्रेक, जिसमें क्लाइमेक्स वे अचानक रिपोर्टर बन जाते हैं। जॉनी लीवर का फिल्म के शुरू में बाथरूम में बंद होना और क्लाइमेक्स में टपकना। संभव है कि फिल्म की अवधि छोटी करने के चक्कर में इनके ट्रेक पर कैंची चल गई हो। असिन के जेल में बंद प्रेमी को भी जरूरत से ज्यादा फुटेज दिया गया है जो खीज पैदा करता है। निर्देशक आशीष आर. मोहन नए हैं, लेकिन उनके काम में मैच्योरिटी नजर आती है। फिल्म को उन्होंने सरपट दौड़ाया है ताकि दर्शकों को सोचने का ज्यादा वक्त नहीं मिले। पुरानी फिल्मों से भी उन्होंने आइडिए उधार‍ लिए हैं। ‍डेविड धवन और प्रियदर्शन की फिल्म मेकिंग स्टाइल से वे प्रभावित नजर आते हैं। खिलाड़ी भैया ‍अक्षय कुमार फिल्म की जान है। अपने किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और उसे एक खास किस्म की बॉडी लैंग्वेज और लुक दिया है। असिन ने फिल्म के ग्लैमर को बढ़ाया है। हिमेश रेशमिया ने ये अच्छा काम किया है कि हीरो बनने की जिद छोड़ दी है और सेकंड लीड रोल की राह पकड़ी है। मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर, जॉनी लीवर, मुकेश तिवारी मंझे हुए अभिनेता हैं और इस तरह के रोल निभाना उनके लिए चुटकी बजाने जैसा है। हिमेश रेशमिया का म्युजिक फिल्म का प्लस पाइंट है। हुक्का, लांग ड्राइव, ओ बावरिया फिल्म की वैल्यू को बढ़ाते हैं। कुल मिलाकर खिलाड़ी 786 एक जायकेदार चाट की तरह है जिसमें हर स्वाद मौजूद है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "अगर दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों पर बनी फिल्मों की बात की जाए तो इन पर अब तक हिंदी-पंजाबी में करीब दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन हर फिल्म में इन दंगों के पीछे की साजिश को किसी डायरेक्टर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्क्रीन पर पेश नहीं किया, अलबत्ता हर बार दंगों के दौरान हिंसक भीड़ द्वारा बेगुनाहों की बेरहमी से की जा रही हत्याएं, लूटपाट, आगजनी की घटनाओं को दिखाने और दंगा पीड़ितों को करीब 32 साल बाद भी इंसाफ न मिल पाने का दर्द जरूर दिखाया गया। बेशक, आज यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या 32 साल पहले हुए इन दंगों के दर्द और जख्मों को आज की यंग जेनरेशन के सामने पेश किया जाना क्या उचित है। इस फिल्म के डायरेक्टर शिवजी राव लोटन मराठी फिल्म इंडस्ट्री में एक जाना-पहचाना नाम हैं, लोटन के निर्देशन में बनी मराठी फिल्म धग ने नैशनल अवॉर्ड भी हासिल किया। अगर इस फिल्म की बात की जाए तो रिलीज से पहले यह फिल्म कई फिल्म फेस्टिवल में दिखाई और जमकर सराही गई, लेकिन देश में इस फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट न मिलने की वजह से रिलीज नहीं किया जा सका। पिछले दिनों सेंसर ने कुछ काट-छांट के बाद फिल्म को ए सर्टिफिकेट के साथ क्लियर किया तो फिल्म कोर्ट में जा अटकी, जिसकी वजह से रिलीज डेट कई बार बदली गई। खैर, अब हाईकोर्ट के आदेश के बाद यह फिल्म रिलीज हो पाई है। कहानी : देविंद्र सिंह (वीर दास) दिल्ली विधुत प्रदाय संस्थान डेसू में बाबू है। कॉलोनी में देविंद्र को हर कोई प्यार करता है, वह भी हर किसी के दुख-दर्द में उनके साथ खड़ा होता है। यही वजह है कि कॉलोनी वाले उसे अपने हर दुख-सुख का साथी मानते हैं। देविंद्र की फैमिली में उसकी खूबसूरत बीवी तेजिंदर कौर (सोहा अली खान) दो बेटे और एक छोटी बेटी है। तेजिंदर और देविंद्र की लाइफ में टर्निंग पॉइंट 31 अक्टूबर को उस वक्त आता है जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा हुई निर्मम हत्या की खबर के बाद दिल्ली की कई कॉलोनियों में हिसंक दंगे और मारकाट शुरू हो जाते हैं। कल तक देविंद्र के साथ खड़े होनेवाले उसके ऑफिस और कॉलोनी के साथी भी अब उससे दूरी बना लेते हैं। हिसंक दंगाइयों की भीड़ हर ओर लूटपाट और बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार रहीं है। तत्कालीन सरकार के नेता भी दंगों को रोकने की बजाए भड़काने में लगे हैं और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है। धीरे-धीरे इन दंगाइयों की भीड़ देविंद्र के घर की और भी बढ़ रही है। ऐसे नाजुक वक्त में देविंद्र के दो हिंदु दोस्त अपने एक सिंगर दोस्त की मदद से इन सभी को हिंसक दंगाई भीड़ से बचाकर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाने का फैसला करते हैं। ऐक्टिंग : वीर दास और सोहा अली खान दोनों ही अपने-अपने किरदारों में अनफिट नजर आते हैं, जहां देविंद्र के किरदार में वीर दास की डायलॉग डिलीवरी भी बेहद कमजोर है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं सोहा अली खान कुछ सीन्स में तो जंचीं, लेकिन दंगों के दौरान अपने तीन छोटे बच्चों के साथ डरी सहमी एक सिख महिला के किरदार को असरदार ढंग से नहीं निभा पाईं। डायरेक्शन : ऐसा लगता है प्रॉडक्शन कंपनी को फिल्म जल्दी शुरू करने की कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी रही तभी तो एक कमजोर स्क्रिप्ट रेडी होते ही डायरेक्टर शिवजी ने इस पर काम शुरू कर दिय और यही वजह है कि फिल्म में दिखाए दंगों के कई सीन्स बनावटी लगते हैं तो वहीं कुछ सीन को बेवजह लंबा खींचा गया। खासकर, देविंद्र की फैमिली को उसके दोस्तों द्वारा सुरक्षित जगह पहुंचाने वाला सीन जरूरत से कहीं ज्यादा लंबा है तो वहीं क्लाइमैक्स दर्शकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता। लीड जोड़ी के लिए वीर और सोहा का चयन डायरेक्टर का गलत फैसला कहा जाएगा। दंगों के सीन्स पर मेहनत करने की बजाएं डायरेक्टर ने जगह-जगह दंगाइयों को मारपीट और लूटपाट करते दिखाने के अलावा कुछ नया नहीं किया। संगीत : ऐसी पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्म में गीत-संगीत के लिए ज्यादा स्कोप नहीं रहता। ऐसे में जब ऐसे गंभीर और संवेदनशील सब्जेक्ट को स्क्रीन पर मात्र पौने दो घंटे में निबटाया जा रहा हो, यहीं वजह है फिल्म का कोई गाना न तो दिल को छू पाता है और न ही हॉल से बाहर निकलने के बाद आपको याद रह पाता है। क्यों देखें : अगर 1984 में हुए दंगों के एक पक्ष को जानना चाहते हैं या फिर इस फिल्म के अंत में स्क्रीन पर दिखाए गए इन दंगों के पीछे के कुछ ऐसे फैक्ट्स जो आपको एक ऐसी सच्चाई से अवगत कराएंगे, जिसे आप शायद नहीं जानते हों तो इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है। वर्ना, इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं कि आप अतीत में हुई एक बेहद दुखदायी, शर्मनाक त्रासदी की यादें ताजा करने थिअटर जाएं।",0 "कुछ फिल्में वास्तविक घटनाओं को जस का तस प्रस्तुत करती हैं। कुछ सच्ची घटनाओं से प्रेरित होती है जिसके आधार पर काल्पनिक कथा गढ़ी जाती हैं। 'द गाजी अटैक' इसी तरह की फिल्म है। 1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के ठीक पहले पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी भारतीय जल सीमा में घुसी जिसके इरादे नेक नहीं थे। वे विशाखापत्तनम पर हमला और भारतीय युद्धपोत आईएनएस विक्रांत को नष्ट करना चाहते थे, लेकिन भारतीय नौसेनिकों की बहादुरी ने उनके इरादे नाकामयाब करते हुए गाजी को नष्ट कर दिया। गाजी के बारे में पाकिस्तान ने कभी भी स्वीकार नहीं किया कि उनकी पनडुब्बी को भारत ने ध्वस्त किया। यह ऐसा राज है जो समुंदर में दफन है। फिल्म के आरंभ में ही बता दिया गया है कि यह कहानी सच्ची नहीं है। इसे नौसेना का क्लासिफाइड मिशन कहा गया जिसका रिकॉर्ड कही नहीं है। इस मिशन को अंजाम देने वाले सैनिकों की स्तुति में कोई गान भी नहीं होता। भारतीय पनडुब्बी एस-21 (आईएनएस राजपूत) में कैप्टन रणविजय सिंह (केके मेनन), अर्जुन (राणा दग्गुबाती) और एक्सीक्यूटिव ऑफिसर देवराज (अतुल कुलकर्णी) हैं। इन्हें पता चलता है कि पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी समुंदर में है। गाजी में सवार लोग भी भांप जाते हैं कि एस-21 को पता चल गया है। इसके बाद माइंड गेम शुरू होता है। एक-दूसरे को समुंदर के अंदर चकमे दिए जाते हैं। एक-दूसरे को फांसने के लिए जाल बिछाए जाते हैं। फिल्म में मनोरंजन और थ्रिल का ग्राफ पनडुब्बी की तरह ऊपर-नीचे होता रहता है। सही मायने में कहा जाए तो अंतिम आधे घंटे में ही फिल्म में रोमांच पैदा होता है जब भारतीय और पाकिस्तानी पनडुब्बी आमने-सामने होती है और हमले में तेजी आती है। इसके पहले का हिस्सा माइंड गेम और दो नौसेनिकों के आदर्शों के टकराव में खर्च किया गया है। फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले और निर्देशन का जिम्मा संकल्प रेड्डी ने उठाया है। संकल्प की कहानी में कुछ बातें गैरजरूरी और मिसफिट लगती है। रणविजय को आक्रामक बताया गया है तो अर्जुन हमेशा नियम से चलता है। इसको लेकर दोनों में टकराव होता है और इस टकराव की ड्रामे में ठीक से जगह नहीं बनाई गई है। इसी तरह तापसी पन्नू का किरदार क्यों रखा गया है, समझ से परे है? क्या केवल फिल्म में एक हीरोइन होनी चाहिए इसलिए तापसी को रखा गया है? उनके किरदार को फिल्म से हटा भी दिया जाए तो रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। ऊपर से तापसी को महज दर्शक बना दिया गया है। इन दोनों ट्रेक से फिल्म कई बार ठहरी हुई प्रतीत होती है। 'जन-गण-मन' का बार-बार प्रयोग ठीक नहीं कहा जा सकता है। केवल देशभक्ति की लहर पैदा करने के लिए यह किया गया है। निर्देशक के रूप में संकल्प की यह पहली फिल्म है और उनके प्रयास की सराहना की जा सकती है। फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है कि भारत में इससे पहले इस तरह की फिल्म नहीं बनी है। पनडुब्बी के बारे में कई जानकारियां पता चलती है। तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन दर्शकों को समझ में आ जाता है कि क्या हो रहा है और क्या किया जा रहा है। निर्देशक के रूप में संकल्प फिल्म के अंतिम आधे घंटे में तनाव और रोमांच पैदा करने में सफल रहे हैं। पनडुब्बी के सेट वास्तविक लगते हैं। केके मेनन, राणा दग्गुबाती और अतुल कुलकर्णी को उन्होंने बराबर फुटेज दिए हैं। केके मेनन एक काबिल अभिनेता हैं, लेकिन रणविजय के रूप में वे प्रभावित नहीं करते। उनके किरदार की आक्रामकता अभिनय में नहीं झलकती। राणा और अतुल का अभिनय प्रभावी है। तनाव और दबाव को अपने अभिनय के जरिये वे व्यक्त करते हैं। ओम पुरी और नासेर संक्षिप्त भूमिकाओं में दिखाई दिए। तापसी पन्नू को निर्देशक ने बर्बाद किया है। सिनेमाटोग्राफर के रूप में मधी को एक सीमित जगह ही कैमरा घुमाना था, लेकिन उन्होंने अपना काम अच्छे से किया है। द गाजी अटैक में निशाना पूरी तरह से टारगेट पर नहीं लगा है, लेकिन अनोखे अनुभव के लिए इसे एक बार देखा जा सकता है। बैनर : पीवीपी सिनेमा, मैटिनी एंटरटेनमेंट, एए फिलम्स, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्देशक : संकल्प रेड्डी कलाकार : राणा दग्गुबाती, तापसी पन्नू, केके मेनन, अतुल कुलकर्णी, ओम पुरी सेंसर सर्टिफिकट : यूए * 2 घंटे 5 मिनट 13 सेकंड ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com पिछले साल जब अनुराग कश्यप की बतौर डायरेक्टर 'बॉम्बे वेलवेट' बॉक्स ऑफिस पर पहले ही दिन चारों खाने चित्त हुई तो अनुराग के आलोचकों को उनपर जमकर बरसने का मौका मिल गया। इस बार अनुराग ने ग्लैमर इंडस्ट्री के स्टार्स नहीं, बल्कि अपनी कहानी के किरदारों में फिट होने वाले कलाकारों के साथ काम किया। किसी स्टूडियो में लगाए गए महंगे सेट्स पर नहीं, बल्कि मुंबई की स्लम बस्तियों में जाकर इस फिल्म को बनाया है... तो इस डार्क थ्रिलर फिल्म के साथ आप पहले सीन से बंधकर रह जाते हैं। कहानी : रमन्ना (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) एक सनकी या मानसिक तौर से विक्षिप्त साइकोपैथ किलर है, रमन्ना एक के बाद कई हत्याएं सिर्फ इसलिए कर रहा है कि उसे मारते वक्त एक अजीब सा मजा आता है। हत्या के इसी पल को इंजॉय करने के लिए रमन्ना बेगुनाहों की हत्याएं कर रहा है। करीब नौ हत्याएं करने के बाद रमन्ना खुद ही पुलिस स्टेशन जाकर अपना गुनाह कबूल करता है, लेकिन पुलिस के आला अफसरों को उसकी बात पर यकीन नहीं होता कि वह सच कह रहा है। पुलिस उस पर थर्ड डिग्री यूज करती है ताकि वह सच बताए। एसीपी राघवन (विकी कौशल) रमन्ना से सच उगलवाना चाहता है, सो रमन्ना को थाने से सटी एक पुरानी इमारत के एक बंद पड़े कमरे में बंद कर दिया जाता है। यहां से मौका मिलते ही रमन्ना भाग जाता है। एसीपी राघवन नशे का आदी है, राघवन एक खूबसूरत लड़की सिमी (सोभिता धूलिपाला) के साथ लिविंग रिलेशनशिप में है। पुलिस कस्टडी से भागने के बाद रमन्ना एक बार फिर बेगुनाहों की हत्याएं करने में लग जाता है, लेकिन इस बार उसकी पहली शिकार उसकी अपनी सगी बहन बनती है जो अपने पति और बेटे के साथ खुशहाल जिदंगी गुजार रही है। भूख से बेहाल रमन्ना अपनी बहन के घर आता है, यहां आकर वह अपनी बहन के साथ-साथ उसके पति और करीब दस साल के बेटे को भी बेरहमी से मार देता है। इस बार रमन्ना पुलिस के सामने सरडेंर के लिए नहीं जाता। इस ट्रिपल हत्याकांड के बाद रमन्ना एक के बाद एक हत्याएं कर रहा है, दूसरी ओर एसीपी राघवन पुलिस कस्टडी से भागकर बेगुनाहों को मार रहे रमन्ना को पकड़ने के लिए अपनी टीम के साथ दिन-रात एक किए हुए है। ऐक्टिंग : अगर हम इस फिल्म को अकेले नवाजुद्दीन सिद्दीकी के कंधों पर टिकी फिल्म कहें तो यह गलत नहीं होगा। स्टार्ट से लास्ट तक दर्शकों को स्क्रीन पर रमन्ना की ऐंट्री का इंतजार रहता है। नवाज ने रमन्ना के किरदार को अपने बेमिसाल अभिनय के दम पर पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है, फिल्म की शुरुआत में पुलिस थाने जाकर खुद को नौ लोगों का हत्यारा बताने और अपना गुनाह कबूल करने वाले सीन में नवाज ऐक्टिंग के शिखर पर नजर आते है। रमन्ना के फेस एक्सप्रेशन, के अलावा उनकी डायलॉग डिलीवरी गजब है। फिल्म देखकर लगेगा रमन्ना के किरदार को नवाज से बेहतर कोई दूसरा कलाकार नहीं निभा पाता। एसीपी राघवन के रोल में विकी कौशल खूब जमे हैं। सोभिता को फुटेज कम मिली, लेकिन कम फुटेज के बावजूद शोभिता ने साबित किया कि उन्हें ऐक्टिंग की एबीसी अच्छी तरह से आती है। डायरेक्शन : अनुराग कश्यप ने एक बार फिर अपने टेस्ट की फिल्म बनाई और करीब साढ़े चार करोड़ के बेहद कम बजट में एक ऐसी फिल्म बनाई है, जो क्रिटिक्स की तारीफें बटोरने के अलावा बॉक्स ऑफिस पर यकीनन कमाई कर सकती है। बतौर डायरेक्टर अनुराग ने फिल्म के सभी कलाकारों से बेहतरीन काम लिया तो स्क्रिप्ट की डिमांड पर सही लोकेशन का भी सिलेक्शन किया। इंटरवल के बाद की फिल्म कुछ सुस्त होने लगती है, विकी कौशल और शोभिता पर फिल्माए सीन्स को कम किया जाता तो फिल्म और ज्यादा पावरफुल बन सकती थी। संगीत : ऐसी कहानी में गीत-संगीत के लिए जगह नहीं होती। यही वजह बैकग्राउंड में फिल्माए गाने स्क्रीन पर तो अच्छे लगते हैं, लेकिन हॉल से बाहर आकर आपको याद नहीं रह पाते। क्यों देखें : अगर नवाजुद्दीन सिद्दीकी को आप ऐक्टिंग के शिखर पर देखना चाहते हैं और अनुराग की डार्क शेड फिल्मों के दीवाने हैं तो फिल्म आपको यकीनन पसंद आएगी। फिल्म अडल्ट है, सो साफ-सुथरी और फैमिली क्लास के लिए यह फिल्म बिल्कुल नहीं है। ",0 "देखी हुई बात जरूरी नहीं है कि सच हो, इस बात के इर्दगिर्द घूमती है फिल्म निर्देशक निशिकांत कामत की 'दृश्यम'। दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह फिल्म धूम मचा चुकी है और हिंदी में इसे 'दृश्यम' नाम से ही पेश किया गया है। कहानी है विजय सालगांवकर (अजय देवगन) की जो गोआ में केबल ऑपरेटर है। चौथी फेल, अनाथ और मध्यमवर्गीय विजय के परिवार में पत्नी नंदिनी (श्रिया सरन) और दो बेटियां हैं। उसकी जिंदगी बिना परेशानी के बीत रही है और उसने कई बातें फिल्म देख कर ही सीखी हैं। आईजी मीरा देशमुख (तब्बू) का बेटा गायब हो जाता है और शक के दायरे में सालगांवकर परिवार आ जाता है। मीरा को पूरा यकीन है कि उसके बेटे के गायब होने का राज विजय जानता है, लेकिन सारे सबूत इस बात को नकारते हैं। सबूतों के जरिये विजय भ्रम का जाल रच देता है कि मीरा उसमें उलझ जाती है। क्या सचमुच में विजय का परिवार अपराधी है या उसे फंसाया जा रहा है? इस बात का उत्तर मिलता है थ्रिलर 'दृश्यम' में। दृश्यम की कहानी की विशेषता यह है कि किसी बात को दर्शकों से छिपाया नहीं गया है। अपराधी सामने है और पुलिस उस तक कैसे पहुंचती है इसको लेकर रोमांच पैदा किया गया है। साथ ही व्यक्ति अपने परिवार को किसी भी मुसीबत से बचाने के लिए किस हद तक जा सकता है इस बात को भी कहानी में प्रमुखता दी गई है। फिल्म की शुरुआत बेहद सुस्त है और जो पारिवारिक दृश्य दिखाए गए हैं वो अपील नहीं करते। कॉमेडी भी बेतुकी लगती है। सालगांवकर परिवार के साथ जो हादसा दिखाया गया है वो लेखक ने अपनी सहूलियत के मुताबिक लिखा है। विजय को मध्यमवर्गीय परिवार का दिखाया है, लेकिन जैसा जीवन वह जीता है वो इस बात से मेल नहीं खाता। विजय रात भर सिर्फ फिल्म देखने के‍ लिए अपने ऑफिस में क्यों बैठा रहता है? वह मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करता। ऑफिस का फोन भी उठाकर रख देता है। ये सारी बातें इसलिए दिखाई गई हैं कि उसके घर होने वाले हादसे के समय वह मौजूद नहीं हो और न ही घर वाले उससे सम्पर्क कर सके। विजय का पुलिस इंसपेक्टर गायतुंडे से पंगा लेना वाला सीन भी सिर्फ इसलिए रखा गया है कि दोनों में दुश्मनी हो। ये कमजोरियां फिल्म के पहले हाफ को कमजोर करती है। साथ ही फिल्म की लंबाई आपके धैर्य की परीक्षा लेती है। कहानी का सीमित किरदारों के इर्दगिर्द घूमना भी फिल्म की अपील को कम करता है। फिल्म ट्रेक पर तब आती है जब तब्बू की एंट्री होती है और आईजी के बेटे के गायब होने के बाद पुलिस हरकत में आती है। चोर-पुलिस का खेल शुरू होता है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात का रोमांच दर्शक महसूस करते हैं। स्क्रिप्ट की खास बात यह है कि सालगांवकर परिवार के तनाव को दर्शक महसूस करते हैं इसलिए पूरी फिल्म में कुछ कमजोरी के बावजूद रूचि बनी रहती है। यह देखना दिलचस्प लगता है कि किस तरह सालगांवकर परिवार चुनौतियों से निपटता है। दृश्यमके टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें बतौर निर्देशक निशिकांत का काम औसत से ऊपर है। पहले हाफ में वे निराश करते हैं। उनका प्रस्तुतिकरण सीधा और सरल है, जबकि थ्रिलर फिल्म होने के नाते वे अपने प्रस्तुतिकरण में कई उतार-चढ़ाव ला सकते थे। तारीफ उनकी इस बात के लिए की जा सकती है कि वे किरदारों को दर्शकों से जोड़ने में सफल रहे। अजय देवगन का अभिनय एक-सा नहीं है। कुछ दृश्यों में उनके उत्साह में कमी नजर आईं और वे असरदार नहीं रहे। श्रिया सरन का काम औसत दर्जे का है। तब्बू को एक सख्त पुलिस ऑफिसर दिखाया गया है, लेकिन उनके अभिनय में वैसी सख्ती नजर नहीं आई। इंसपेक्टर गायतोंडे के रूप में कमलेश सावंत का अभिनय बेहतरीन रहा है। एक चौथी फेल इंसान किस तरह अपने परिवार को बचाने के लिए अपनी स्मार्टनेस दिखाता है, यह फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है जो ड्रामे में रोमांच पैदा करता है। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, पैनोरामा स्टुडियोज़ निर्माता : कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक, अजीत अंधारे निर्देशक : निशिकांत कामत संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : अजय देवगन, श्रेया सरन, तब्बू, रजत कपूर, इशिता दत्ता, कमलेश सावंत सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 43 मिनट 33 सेकंड ",1 "इस शुक्रवार बॉक्स आफिस पर रिलीज हुई दोनों फिल्में उसी टाइटल पर बनी पिछली फिल्मों को बॉक्स आफिस पर मिली जबर्दस्त कामयाबी के बाद ही इनकी प्रॉडक्शन कंपनियों ने बनाई। हैरी बावेजा को अपनी पिछली फिल्म 'चार साहबजादे' का सीक्वल बनाने में करीब 2 साल का वक्त लग गया तो वहीं, फरहान अख्तर ने इसी टाइटल पर बनी अपनी पिछली फिल्म की कामयाबी के करीब 8 साल बाद फिल्म का सीक्वल बनाकर दर्शकों के सामने पेश किया। जहां, चार साहबजादे के बाद सीक्वल का निर्देशन भी हैरी बावेजा ने ही किया, वहीं फरहान ने सीक्वल के निर्देशन की कमान न जाने क्या सोचकर शुजात सौदागर के कंधों पर डाली। यही बदलाव फरहान की इस फिल्म को पिछली फिल्म से बहुत पीछे छोड़ता है। वैसे, अगर शुजात की बात की जाए तो उन्होंने कई साल पहले एक टीवी शो 'बलि' बनाया। अब लंबे गैप के बाद उनका नाम इस फिल्म के साथ जुड़ा। फरहान अख्तर बैनर की पिछली फिल्म का निर्देशन अभिषेक कपूर ने किया और फिल्म जबर्दस्त हिट रही। उनकी इस फिल्म को जहां बेस्ट फिल्म का नैशनल अर्वाड मिला तो वहीं इस फिल्म में बेहतरीन ऐक्टिंग के लिए अर्जुन रामपाल को बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर का नैशनल अवॉर्ड मिला। फिलहाल, अगर इस फिल्म की बात की जाए तो इस बार फरहान ने फिल्म पर जमकर पैसा लगाया। मेघालय की वादियों तक में जाकर शूट किया। बॉक्स आफिस पर पहचान बना चुकीं श्रृद्धा कपूर को लीड ऐक्ट्रेस बनाकर पेश किया, लेकिन फिल्म की कहानी और किरदारों को और ज्यादा बेहतर बनाने के मामले में कुछ खास नहीं किया। कहानी: 'रॉक ऑन 2' फिल्म वहीं से स्टार्ट होती है जहां पिछली फिल्म खत्म हुई थी, यानी बिछड़े दोस्त 8 साल बाद एकबार फिर मिलते हैं। जो (अर्जुन रामपाल) अब एक म्यूजिक रिऐलिटी शो का जज बन चुका है, इसी के साथ-साथ जो एक नामी म्यूजिक कंपनी का ओनर है। इसी कंपनी से जो का दोस्त और उनके बैंड का मेम्बर के डी (पूरब कोहली) भी जुड़ा है। लेकिन के डी अब जो के लिए काम करता है। बिजनस फैमिली से जुड़ा आदि (फरहान अख्तर) अब मुम्बई छोड़ चुका है आदि का नया ठिकाना मेघालय है। अचानक हालात कुछ ऐसे बनते है कि आदि को एकबार फिर मुंबई आना पडता है। इसी बीच बैंड में न्यू सिंगर जिया शर्मा (श्रृद्धा कपूर) के साथ एक और सिंगर उदय (शशांक अरोड़ा) भी जुड़ चुका है। जिया को बचपन से गाने का का शौक है, लेकिन उसके पिता को मंजूर नहीं कि उनकी बेटी किसी पॉप कल्चर वाले बैंड के लिए गाए। आदि और जिया एक-दूसरे को जानते हैं। एक बार फिर सब मिलते हैं। इन सब का बैंड शुरू होता है और बैंड को कॉन्सर्ट करने के लिए अब शिलांग जाना है। ऐक्टिंग: स्टार्ट टु लॉस्ट पूरी फिल्म फरहान अख्तर के कंधों पर टिकी है। यकीनन आदि के किरदार को फरहान ने अपने बेहतरीन अभिनय से पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। साक्षी यानी प्राची देसाई के किरदार को इस बार कम जगह दी गई जो फिल्म का माइनस पॉइंट है, वहीं जिया शर्मा के रोल में श्रृद्धा कपूर ने अच्छी ऐक्टिंग करने से कहीं ज्यादा खुद को सिंगिग स्टार साबित करने में ज्यादा मेहनत की है, यही वजह है जिया के रोल में श्रृद्धा कहीं प्रभावित नहीं कर पातीं। अगर पिछली फिल्म के जो के यानी अर्जुन रामपाल की बात की जाए तो इस बार अर्जुन ने अपने किरदार के लिए ज्यादा होमवर्क करने की बजाए अपने रोल को बस निभा भर दिया। वहीं अगर फिल्म के दूसरे कलाकारों की बात की जाए तो उन्होंने भी अपने किरदार को बस निभाया ही है। निर्देशन: फरहान ने न जाने क्यूं बेहद कमजोर स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला किया। वहीं, डायरेक्टर शुजात सौदागर ने भी स्किप्ट पर मेहनत करने या कहानी को ज्यादा दिलचस्प बनाने और इसमें नयापन लाने के मकसद से अपनी ओर से कुछ खास नहीं किया। यही वजह है इंटरवल से पहले की फिल्म जहां पुराने दोस्तों के फिर से मिलने के आसपास घूमती है तो वहीं इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार बेहद सुस्त हो जाती है। समझ से परे है रॉक ऑन पहले जेन एक्स की कसौटी पर जबर्दस्त हिट रही और मल्टीप्लेक्सों पर फिल्म ने जबर्दस्त बिजनस भी किया, लेकिन इस बार इसी क्लास की पसंद को दरकिनार करके डायरेक्टर ने कहानी में रिश्तों और दोस्ती के पुट को ज्यादा तवज्जो दी। फिर भी, फिल्म की बेहतरीन लोकेशन का जवाब नहीं। संगीत: शंकर एहसॉन लॉय की तिकड़ी ने माहौल के मुताबिक फिल्म का म्यूजिक तैयार किया है, स्क्रीन पर फिल्म के गाने आपको यकीनन पसंद आएंगे। हां, अगर इन गानों को बार-बार सुना जाए तो यकीनन गाने यंगस्टर्स की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखते है। क्यों देखें: अगर फरहान और अर्जुन रामपाल के पक्के फैन है तो लंबे अर्से बाद आई अपने चहेते स्टार्स की इस फिल्म को देख सकते है। मेघालय की नयनाभिराम लोकेशन फिल्म का प्लस पॉइंट है तो वहीं बेहद कमजोर कहानी माइनस पॉइंट है। ",1 "हॉलीवुड सिनेमा की सबसे बेहतरीन और रोमांचक सिरीज में से एक 'हैरी पॉटर' ने लोगों के दिलों पर एक दशक से भी ज्यादा राज किया है। लेकिन हर कहानी कभी न कभी खत्म होती ही है। सालों से जारी इस शानदार सफर के अंत के बारे में कई कयास लगाए जा रहे थे पर नि:संदेह दस साल पहले शुरू हुई इस महागाथा का अंत भी बेहद शानदार किया गया है। हैरी पॉटर की सफलता का सबसे बड़ा राज है कि इस फिल्म से दर्शक दिल से जुड़े हैं। एक बहादुर और समझदार नवयुवक के रूप में हैरी को बुराई की ताकतों से लड़ते देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है। सीढ़ियों के नीचे बनी कोठरी में रहने वाले 11 साल के मासूम हैरी को कई फिल्मों में बड़ा होते देखते हुए दर्शक खुद-बखुद की इस किरदार के करीब आ गए थे। इस फिल्म के अंतिम भाग 'हैरी पॉटर एंड द डेथली हॉलोज पार्ट 2' में हैरी को दु:साहसी किशोर से एक साहसी युवक के रूप में बदलते देखना और भी अच्छा लगा। हैरी पॉटर के इस अंतिम भाग में जबरदस्त कम्प्यूटर प्रभाव डाले गए हैं। ड्रेगन की पीठ पर उड़ने से लेकर शैतान लॉर्ड वॉल्डामोर्ट और उसके साथियों के साथ हैरी की लड़ाई शानदार तरह से फिल्माई गई है। डेविड यॉट्स द्वारा निर्देशित और 3डी तकनीक से फिल्माई गई इस फिल्म में ऐसे बहुत से दृश्य है जो दर्शकों को लंबे समय तक याद रहेंगे। यह भाग शुरू होता है लॉर्ड वॉल्डेमोर्ट द्वारा हैरी के दोस्त और प्राध्यापक डम्बलडोर की कब्र से दुनिया के सबसे शक्तिशाली जादू की छड़ी को हासिल करने से। (डैनियल रैडक्लिफ) हैरी पॉटर और दोस्तों हरमाइनी (एम्मा वॉटसन) और रॉन (रूपर्ट ग्रिंट) महापिशाच लॉर्ड वॉल्डेमोर्ट को मारने के लिए उसकी आत्मा के विभिन्न भागों जो हॉरक्रुक्सेस में छुपे है को नष्ट करने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं। इस फिल्म में हैरी की भूमिका निभा रहे डेनियल क्लिफ ने बेहद आत्मविश्वास से इस फिल्म में हैरी के किरदार को जिया है। हांलाकि उसके साथियों ने अंतिम फिल्म के लिहाज से कोई ऐसा प्रदर्शन नहीं किया जो यादगार बन जाए पर दस सालों से रुपहले पर्दे पर हर बार रोमांच के नए आयाम बनाती इस महागाथा की समाप्ति ने इन सितारों के लिए नए आसमान खोल दिए हैं। यूं तो कई कई अच्छी फिल्मों के अंत बुरे होते हैं पर करोड़ो दर्शकों के चहेते किरदार हैरी पॉटर की अंतिम फिल्म का इससे अच्छा अंत हो ही नहीं सकता था। किताबों और फिल्मों से हमने हैरी और उसके साथियों को बड़ा होते देखा है। इसलिए हैरी पॉटर को अलविदा कहने में थोड़ा दुख तो होगा ही...। बेकार, 2-औसत, 2:5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-शानदार, 5-अद्‍भुत ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com पिछले सप्ताह 'कुंग फू पांडा' और इस हफ्ते 'द जंगल बुक' यानी एग्ज़ाम पीरियड खत्म होने के बाद हॉलिवुड के नंबर वन बैनर की नजरें इंडियन बॉक्स ऑफिस पर पर होने वाली मोटी कलेक्शन की ओर टिकी हैं। बॉक्स ऑफिस पर 'कुंग फू पांडा' कामयाब रही। अब डायरेक्टर जॉन फेवरू की इस फिल्म का सिनेमामालिकों में क्रेज इतना ज्यादा है कि दिल्ली एनसीआर के सभी मल्टिप्लेक्स संचालकों ने एक दिन में दस से बारह शो में रिलीज किया। बॉक्स ऑफिस के शुरुआती रुझानों के मुताबिक, फिल्म को पहले दिन से अच्छी ओपनिंग मिलनी तय है। दरअसल, द जंगल बुक का क्रेज विदेश से कहीं ज्यादा भारत में है। दूरदर्शन पर लंबे समय तक यह सीरीज़ दिखाई गई और जबर्दस्त हिट रही। भारत में जंगल बुक के इसी जबर्दस्त क्रेज को कैश करने के मकसद से फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी डिज़्नी ने अपनी इस फिल्म को अमेरिका से एक वीक पहले भारत में रिलीज किया। थ्री डी, टू के और आइमैक्स तकनीक में बनी इस फिल्म को बच्चों और बड़ों की एक ऐसी परफेक्ट फिल्म कह सकते हैं जो पूरी तरह से पैसा वसूल है। बेशक रिलीज़ से पहले 'द जंगल बुक' सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड से मिले यूए सर्टिफिकेट की वजह से कुछ ज्यादा ही हॉट हो गई। सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड को इसके लिए जमकर कोसा गया तो वहीं अब जब फिल्म आपके सामने है तो इसे देखकर ऐसा कहीं नहीं लगता कि फिल्म को यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए था। डायरेक्टर जॉन फेवरू ने जंगल बुक बेशक बच्चों के लिए बनाई है, लेकिन फिल्म की विश्व स्तरीय ऐनिमेशन तकनीक, वीएफएक्स और घने जंगलों की सिनेमेटोग्रफ़ी और डिजिटल साउंड कुछ ऐसी खूबियां है जो दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती है। एग्ज़ाम में पास होने के बाद आपने अगर अपने बच्चों के साथ शॉपिंग, या आउटिंग वगैरह पर अपने बिज़ी शेडयूल की वजह से नहीं जा पाए तो इस वीक उनके साथ 'द जंगल बुक' देखने जाएं, यकीन मानें बच्चों के साथ-साथ आप भी इस जंगल की दिलचस्प सैर को फुल इंजॉय करेंगे। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : विशाल घने जंगल में मोगली (नील सेठी) बिल्कुल अकेला रह रहा है। मोगली के पिता को शेरखान यानी शेर ने मार डाला, लेकिन उस वक्त शेरखान नन्हे मोगली को नहीं देख पाया। अब मोगली जंगल में बिल्कुल अकेला रह गया है। घने जंगल में उसके चारों ओर खूंखार जानवरों का डेरा है। एक दिन मोगली को बगिरा (कालाचीता) मिलता है, जो उसे शेरखान की नजरों से बचाकर रक्षा (भेड़िया) के पास ले जाता है। जंगल में रक्षा अब मोगली को अपने बच्चों की तरह पालती है। कुछ वक्त बाद शेरखान की नज़रें मोगली पर पड़ जाती है। इस बार शेरखान किसी भी सूरत में मोगली को अपना शिकार बनाने को बेताब है। मोगली पर आई इस मुसीबत में उसे खूंखार शेरखान से बचाने के मकसद से जंगल के सभी भेड़िये और बगिरा आपस में मिलकर तय करते हैं कि मोगली को अगर बचाए रखना है तो उसे जंगल से दूर इंसानों की दुनिया में पहुंचाना चाहिए। वहीं जाकर मोगली पूरी तरह से सेफ रह सकता है। इसके बाद बगिरा मोगली को अपने साथ लेकर इंसानों की बस्ती की ओर चल पड़ता है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि बीच रास्ते में शेरखान उन पर हमला कर देता है। इस हमले की वजह से बगिरा और मोगली एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। बगिरा से अलग होने के बाद मोगली अकेले ही अपने दम पर अपनी मंजिल की ओर चल देता है, मोगली को इस सफर में जंगल के कई दूसरे जानवर भी मिलते हैं। बल्लु भालू और का (सांप) से मोगली मिलता है, इसी बीच मोगली को पता चलता है कि शेरखान ने जंगल में उसका पालन पोषण करने वाले उसके पिता समान भेड़ियों के सरदार को मार डाला है। अब मोगली अपनी मंजिल पर जाने की बजाए शेरखान से बदला लेने का फैसला करता है। ऐक्टिंग: मास्टर नील सेठी ने पहली बार इस फिल्म में ऐक्टिंग की है, लेकिन कैमरे के सामने उनकी एंट्री और अपनी दमदार ऐक्टिंग को देखकर लगता है कि ऐक्टिंग की फील्ड में नील बहुत पहले से हैं। यकीनन, नील इस फिल्म के डायरेक्टर जॉन की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरे हैं। फिल्म के इकलौते लाइव किरदार मोगली में नील की ऐक्टिंग का जवाब नहीं। नील के अलावा फिल्म में दूसरा कोई आर्टिस्ट नहीं, सो हम इस फिल्म के किरदारों के लिए वॉयस डबिंग करने वाले ग्लैमर इंडस्ट्री के नामी कलाकारों की बात करते हैं। शेरखान के लिए नानापाटेकर ने अपनी दमदार आवाज दी है तो बल्लु भालू के किरदार के लिए इरफान खान ने पंजाबी स्टाइल में अपनी आवाज दी। बल्लु भालू जब भी स्क्रीन पर सीन आता है तो इरफान अपनी अलग स्टाइल में हॉल में बैठे दर्शकों को हंसने का मौका देते हैं। बगिरा के लिए ओमपुरी ने आवाज दी, वहीं प्रियंका चोपड़ा ने सांप के किरदार के लिए आवाज दी है। जहां तक डबिंग की बात है तो हर किसी ने अपने काम को पूरी ईमानदारी के साथ किया है। डायरेक्शन: जॉन फेवरू हॉलिवुड के जानेमाने प्रडयूसर, ऐक्टर, डायरेक्टर हैं। आयरनमैन, आयरमैन 2 और शेफ जैसी चर्चित फिल्मों के दम पर जॉन ने हॉलिवुड में अपनी अलग पहचान बनाई। वहीं इस बार उनकी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने स्टार्ट टू लास्ट करीब पौने दो घंटे की इस लाइव ऐनिमेटेड फिल्म को कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया। यकीनन, इस फिल्म का सबसे बेस्ट पार्ट ऐनिमेशन, सिनेमेटोग्रफ़ी और वीएफएक्स है, लेकिन जॉन ने स्क्रिप्ट और किरदारों को स्क्रीन पर कुछ इस तरह से पेश किया कि फिल्म का हर कैरेक्टर असरदार बन पड़ा है। क्यों देंखें : अगर आप भी अपने सोनू-मोनू के साथ 'द जंगल बुक' देखने जाते हैं तो यकीनन आप भी इस फिल्म को देखते हुए अपने बचपन की यादों में खो सकते हैं। फिल्म का हर फ्रेम गजब है, स्क्रीन पर विशाल जंगल के सीन्स के बीच बॉलिवुड के नामी स्टार्स की आवाज का जादू और बेहतरीन थ्री डी तकनीक इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है, और हां, अगर आप सचमुच इस जंगल की सैर का मजा चाहते हैं तो प्लीज थ्री डी तकनीक में ही इस फिल्म को देखिए, वर्ना इस जंगल सफारी का मजा कुछ किरकिरा हो सकता है। ",1 "वन नाइट स्टैंड, ये तीन शब्द युवाओं को आकर्षित करने के लिए काफी हैं। यदि इसके साथ सनी लियोन का नाम जोड़ दिया जाए तो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाएगी। शायद यही सोच कर 'वन नाइट स्टैंड' के निर्माता-निर्देशक ने फिल्म शुरू की। ये तीन शब्द तो तय कर लिए गए, लेकिन इन शब्दों के इर्दगिर्द कैसी कहानी बुनी जाए, कैसे फिल्म बनाई जाए, इस पर कम दिमाग खर्च किया गया। किसी तरह फिल्म पूरी कर ली गई, लेकिन बिना कहानी के फिल्म को खींचना अच्छे-अच्छे के बस की बात नहीं है। नतीजे में 'वन नाइट स्टैंड' जैसी फिल्म सामने आती है जो मात्र 97 मिनट की है, लेकिन ये समय भी लंबा लगता है। फिल्म का नाम ही आधी कहानी जाहिर कर देता है। थाईलैंड में सेलिना (सनी लियोन) और उर्विल (तनुज वीरवानी) की मुलाकात होती है। सेलिना मतलब आसमान और उर्विल मतलब समुंदर। दोनों अपने नाम का मतलब बताते हुए कहते हैं जहां दुनिया खत्म होती वहां उनका मिलन होता है। खैर, बातें होती हैं, रोमांस होता है, हीरो-हीरोइन आकर्षित होते हैं सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। उर्विल पुणे लौटता है तो दर्शकों को बताया जाता है कि वह शादीशुदा है। सिमरन (न्यारा बैनर्जी) से उसने पांच वर्ष पहले शादी की थी। सेलिना का नशा उर्विल के दिमाग से नहीं उतरता। वह इंटरनेट पर उसे खोजता है, लेकिन वह नहीं मिलती। अचानक पुणे में वह सेलिना से टकरा जाता है। जब वह सेलिना के बारे में तहकीकात करता है तो उसे पता चलता है कि सेलिना न केवल शादीशुदा है बल्कि उसका एक बच्चा भी है। खुद झूठ बोलने वाला हीरो, हीरोइन के झूठ बोलने से नाराज हो जाता है। गिलास तोड़ता है, हीरोइन का पीछा करता है, बीवी को सताता है, करियर पर ध्यान नहीं देता। दर्शक हैरान रह जाते हैं कि जो खुद झूठा है वह हीरोइन के झूठ पर इतना परेशान क्यों हो रहा है। लेखक और निर्देशक समझ नहीं पाते कि अब कहानी को आगे कैसे बढ़ाया जाए। बार-बार चीजों को दोहराया जाता है और कहानी को मंजिल पर पहुंचाए बिना फिल्म को खत्म कर दिया जाता है। जस्मिन डिसूजा ने फिल्म को निर्देशित किया है। फिल्म को उन्होंने 'कूल' लुक दिया है, लेकिन स्क्रिप्ट की कमजोरी के चलते वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं। शुरुआती 40 मिनट में वे प्रभावित करती हैं, लेकिन बाद में फिल्म पर से उनका नियंत्रण छूट जाता है। सनी लियोन को लेकर दर्शकों के दिमाग में एक विशेष किस्म की छवि है। बजाय स्किन शो के उन्हें एक सशक्त रोल देना, जिसमें भरपूर अभिनय की गुंजाइश हो, जोखिम भरा हो सकता है। 'वन नाइट स्टैंड' में यह दांव उल्टा पड़ गया है। सनी लियोन पुरजोर कोशिश करती हैं, लेकिन एक सीमा के बाद उनसे अभिनय नहीं होता। तनुज वीरवानी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है, लेकिन फिल्म के आखिर में उन्हें भी समझ नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। न्यारा बैनर्जी की भूमिका अत्यंत ही कमजोर थी। वे संजी-संवरी चुपचाप सब कुछ सहने वाली पत्नी की भूमिका में हैं। सिनेमाहॉल छोड़ते समय कुछ दर्शकों की प्रतिक्रिया से पता चला कि सनी लियोन को जिस सेक्सी अंदाज में देखने के लिए उन्होंने टिकट खरीदा था उसकी भरपाई नहीं हो पाई। फिल्म में एक गाना है- 'दो पैग मार और भूल जा', लेकिन इस फिल्म को भूलने में दो पैग कम हैं। बैनर : स्विस एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : फुरकुन खान, प्रदीप शर्मा निर्देशक : जस्मिन डिसूजा संगीत : जीत गांगुली, मीत ब्रदर्स, टोनी कक्कर, विवेक कर कलाकार : सनी लियोन, तनुज वीरवानी, न्यारा बैनर्जी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 37 मिनट ",0 "सूरज बड़जात्या की फिल्मों में ऐसा परिवार दिखाया जाता है जो तन-मन-धन से खुश है। किसी तरह का मनमुटाव नहीं और नैतिकता का पूरा ध्यान रखा जाता है। इस परिवार से एकदम विपरीत है कनु बहल की फिल्म 'तितली' का परिवार, जो अभावों में जी रहा है। इस परिवार के लिए जिंदगी बदसूरत है। अपने आपको जिंदा रखने के लिए उन्हें जद्दोजहद करना पड़ती है और वे जानवर बन जाते हैं। परदे पर उनके कारनामों को देख सिनेमाहॉल में बैठे आप डिस्टर्ब हो जाते हैं और उनकी मौजूदगी खतरे का अहसास कराती है। दिल्ली में रहने वाले तीन भाइयों में से सबसे छोटे का नाम तितली (शशांक अरोरा) है। उसकी मां को लड़की चाहिए थी, लेकिन जब तीसरी बार भी लड़का हो गया तो मां ने लड़की वाला नाम रख कर ही काम चला लिया। विक्रम (रणवीर शौरी) और बावला (अमित सियाल) उसके बड़े भाई हैं। छोटी-मोटी नौकरी से इनका गुजारा नहीं होता इसलिए ये दोनों भाई हाइवे पर लोगों को लूटते हैं। तितली भी कभी-कभी उनका साथ देता है, लेकिन वह इस नरक की जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है। जब दोनों भाइयों को इसकी भनक लगती है तो वे तितली की नीलू (शिवानी रघुवंशी) से शादी करा देते हैं ताकि तितली घर छोड़कर नहीं जाए। साथ ही उन्हें अपनी टीम में एक लड़की की भी जरूरत थी इसलिए वे नीलू को भी इसमें शामिल करते हैं, लेकिन नीलू इसके खिलाफ है। नीलू की यह शादी उसकी मर्जी से नहीं हुई है और वह प्रिंस को चाहती है। तितली और नीलू में एक डील होती है ताकि वे दोनों इस नारकीय जीवन से आजादी पा सके। कनु बहल और शरत कटारिया ने मिलकर यह कहानी लिखी है जो जिंदगी में बढ़ रही असमानता और आने वाले भयावह भविष्य की ओर इशारा करती है। समाज में अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होती जा रही है और इसके दुष्परिणाम क्या होंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस चौड़ी खाई के कारण भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी बढ़ती जा रही है। चमचमाते शॉपिंग मॉल्स और दमकते हाइवे के नीचे की गंदगी सतह पर नहीं आई है, लेकिन यदि इस दिशा में सोचा नहीं गया तो यह कभी भी सतह पर आ सकती है। फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार के ये लोग बुरे नहीं हैं बल्कि परिस्थितियां बुरी हैं जिसके कारण ये घिनौने होते जा रहे हैं। पैसों के लिए वे किसी का खून बहाने के लिए तैयार हो जाते हैं। पत्नी हाथ तुड़वाने और पति हाथ तोड़ने के लिए तैयार हो जाता है। पति अपने सामने पत्नी को दूसरे की बांहों में देखना भी कबूल कर लेता है। फिल्म में थूकने और उल्टी करने के दृश्यों से उपकाइयां आती हैं, लेकिन जिस तरीके से यह परिवार रहता है और हरकतें करता है उसको देख भी कुछ लोगों को उपकाइयां आ सकती हैं क्योंकि वे इन लोगों की जिंदगी से परिचित नहीं हैं। निर्देशक कनु बहल ने फिल्म को एकदम रियल रखा है और यह वास्तविकता ही आपको विचलित करती है। उन्होंने एक परिवार का जीवन आपके सामने उठा कर रख दिया है और दर्शकों को समझने के लिए काफी चीजें छोड़ दी हैं। फिल्म में बैकग्राउंड म्युजिक नहीं के बराबर है। वातावरण में आने वाली आवाजों को जगह दी गई है जिससे फिल्म की विश्वसनीयता और बढ़ गई है। सिंक साउंड का इस्तेमाल भी इसके लिए जिम्मेदार है। कमी इस बात की लगती है कि फिल्म में एक भी सकारात्मक किरदार नहीं है। जिंदगी अभी इतनी बुरी भी नहीं हुई है कि कोई भला आदमी ही नहीं हो। हालांकि फिल्म के अंत में नीलू और तितली सारी बातों को भूला कर नई शुरुआत का फैसला करते हैं और फिल्म आशावादी संदेश के साथ खत्म होती है। कलाकारों का अभिनय उत्कृष्ट दर्जे का है। लगता ही नहीं कि कोई एक्टिंग कर रहा है। रणवीर शौरी को छोड़ बाकी कलाकार अपरिचित से हैं और यह स्क्रिप्ट की डिमांड भी थी। रणवीर शौरी, शशांक अरोरा, अमित सियाल, शिवानी रघुवंशी सहित सभी ने अपने किरदारों को बखूबी पकड़ा है। 'तितली' जैसी फिल्म देखना हर किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि सच कड़वा और कठोर होता है। बैनर : यशराज‍ फिल्म्स निर्माता : दिबाकर बैनर्जी निर्देशक : कनु बहल कलाकार : शशांक अरोरा, रणवीर शौरी, अमित सियाल, शिवानी रघुवंशी, ललित बहल सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 57 मिनट ",1 "ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। चिल्ड्रन ऑफ हेवन, द कलर ऑफ पैराडाइज़, द सांग ऑफ स्पेरोज़ जैसी बेहतरीन फिल्में वे बना चुके हैं। उनकी फिल्म में मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों के समीकरणों को सूक्ष्मता के साथ दिखाया जाता है। वे उन लोगों को फिल्म का मुख्य किरदार बनाते हैं जिन्हें जीवन में हर पल संघर्ष करना होता है और वे आशा का साथ नहीं छोड़ते। माजिद ने इस बार हिंदी फिल्म 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' बनाई और पूरी फिल्म को मुंबई में फिल्माया है। मुंबई विदेशी फिल्मकारों को भी लुभाता रहा है और उनका इस शहर को देखने का नजरिया अलग ही होता है। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में चमक-दमक वाली मुंबई देखने को मिलती है, लेकिन ऊंची और चमचमाती बिल्डिंगों के साथ लाखों लोग झुग्गियों में भी रहते हैं जिनका जीवन अभावग्रस्त होता है। बियॉण्ड द क्लाउड्स की पहली फ्रेम में मुंबई का वो पुल नजर आता है जहां लाखों रुपये की महंगी कारें दौड़ रही हैं। फिर कैमरा पुल के नीचे जाता है जहां संकरी-सी जगह में लोग रहते हैं। यहां से माजिद मजीदी ऐसा मुंबई दिखाते हैं जो बहुत कम दिखाई देता है। कई मुंबईवासी भी अपने इस शहर को पहचान नहीं पाएंगे। कहानी है आमिर (ईशान खट्टर) की जो ड्रग्स बेचता है और मुंबई की निचली बस्ती में रहता है। उसे बहन तारा ने पाल पोसकर बढ़ा किया है। तारा के साथ एक इंसान गलत व्यवहार करने की कोशिश करता है और तारा उसके सिर पर जोरदार वार कर देती है। वो आदमी जाता है अस्पताल और तारा पहुंच जाती है जेल में। उस आदमी का जिंदा रहना जरूरी है वरना तारा को हत्या करने के बदले में उम्रकैद हो सकती है। आमिर उसी आदमी की अस्पताल में सेवा करता है जिसने उसकी बहन के साथ गलत व्यवहार किया है। उस आदमी का परिवार कई दिनों बाद दक्षिण भारत से आता है जिसमें बूढ़ी मां और दो छोटी बेटियां हैं। वे हिंदी नहीं समझते। आमिर उनसे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करता है (कितनीअजीब बात है कि भारत के दो अलग-अलग प्रांतों में रहने वालों को अंग्रेजी ही जोड़ती है)। सभी की बुरी हालत देख आमिर उन्हें अपने घर ले आता है। उनसे आमिर का एक अनोखा संबंध बन जाता है। आमिर की इस उलझन को निर्देशक माजिद मजीदी ने बेहतरीन तरीके से दर्शाया है। आमिर की उलझन और दर्द को दर्शक महसूस कर सकते हैं। मुंबई के इस स्ट्रीट स्मार्ट छोरे की अच्‍छाई बार-बार सतह पर आती रहती है। शुरू में वह उस शख्स के परिवार से नफरत करता है, लेकिन जब अपने घर के बाहर बारिश में उन्हें भीगते देखता है तो घर के अंदर ले आता है। उसका यह हृदय परिवर्तन वाला सीक्वेंस बेहतरीन है। निर्देशक ने यह दर्शाया है कि प्यार की कोई भाषा नहीं होती है। आमिर और वो परिवार एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते हैं, लेकिन आंखों के जरिये एक-दूसरे की मन की बात जान लेते हैं। फिल्म में एक और सीन कमाल का है जब आमिर लड़की को बेचने के लिए ले जाता है। रास्ते में दोनों शरबत पीते हैं और लड़की का हाथ खराब हो जाता है। जब भीड़ में दोनों अलग होते हैं तो लड़की घबराकर अपने गंदे हाथ से आमिर का जैकेट पकड़ लेती है और जैकेट खराब हो जाता है। आमिर उसी पल समझ जाता है कि वह लड़की उस पर कितना विश्वास करती है कि अपना गंदा हाथ भी उसके जैकेट पर लगा देती है। उसी पल वह उस लड़की को बेचने का इरादा त्याग देता है। निर्देशक के रूप में माजिद मजीदी प्रभावित करते हैं। कहानी को उन्होंने ऐसे पेश किया है कि दर्शक खुशी, दु:ख और दर्द को महसूस करते हैं। उन्होंने दर्शाया है कि अभावग्रस्त लोग छोटी-छोटी बातों में खुशी ढूंढ लेते हैं। जेल में नारकीय जीवन जीने वाली तारा एक छोटे-से बच्चे से अद्‍भुत रिश्ता बना लेती है। तारा द्वारा उस शख्स को मारने वाला सीन माजिद ने अद्‍भुत तरीके से फिल्माया है। धोबी घाट में सूख रही सफेद चादरों के बीच परछाई के जरिये यह सीन दिखाया गया है। आमिर और छोटी बच्चियों के रिश्ते में मासूमियत और खूबसूरती की सुगंध महसूस कर सकते हैं। माजिद ने अपने कलाकरों से भी बेहतरीन काम लिया है। ईशान खट्टर ने पहली फिल्म में ही शानदार अभिनय किया है। उन्होंने भावनाओं को त्रीवता के साथ दर्शाया है। गुस्सा, आक्रामकता और अच्छाई के रंग उनके अभिनय में देखने को मिलते हैं। घर जाकर वे गुस्से में जब फट पड़ते हैं उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। आंखों का इस्तेमाल उन्होंने अच्छे से किया है। मालविका मोहनन का डेब्यू भी शानदार रहा है। तारा के रूप में उन्होंने अपनी भूमिका गंभीरता के साथ निभाई है। उन्हें थोड़ा और फुटेज दिया जाता तो बेहतर होता। बूढ़ी स्त्री के रूप में जीवी शारदा का अभिनय उल्लेखनीय है। दो छोटी बच्चियों ने अपने अभिनय से फिल्म को मासूमियत दी है। सिनेमाटोग्राफर अनिल मेहता ने माजिद मजीदी की आंख से मुंबई को दिखाया है। धोबी घाट, सूखती चादरें, कीचड़, कोठा, लोकल ट्रेन, तंग गलियां, झोपड़ी की पृष्ठभूमि में ऊंची बिल्डिंग जैसे रियल लोकेशन्स फिल्म को धार देते हैं। एआर रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक कलाकारों की मनोदशा को अनुरूप है और फिल्म को ताकत देता है। भले ही 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' में माजिद अपने उच्चतम स्तर को छू नहीं पाए हों, लेकिन उनकी यह फिल्म देखने लायक है। बैनर : ज़ी स्टूडियो, नम: पिक्चर्स निर्देशक : माजिद मजीदी संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : ईशान खट्टर, मालविका मोहनन, गौतम घोष, जीवी शारदा ",1 "पिता-पुत्र के रिश्ते पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन पिता-पुत्री के रिश्ते पर कम ही फिल्म देखने को मिली है। इस रिश्ते को लेकर शुजीत सरकार ने 'पीकू' नामक अनोखी फिल्म बनाई है। विकी डोनर, मद्रास कैफे के बाद तीसरी बेहतरीन फिल्म शुजीत ने दी है और साबित किया है कि इस माध्यम पर उनकी तगड़ी पकड़ है। दिल्ली में रहने वाली पीकू (दीपिका पादुकोण) एक वर्किंग वुमैन है। मां इस दुनिया में नहीं है। घर पर वह अपने सत्तर वर्षीय पिता भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) की देखभाल करती है। इस उम्र में बीमारी को लेकर फोबिया रहता है और भले-चंगे भास्कर को आश्चर्य होता है जब रिपोर्ट में उन्हें स्वस्थ बताया जाता है। कब्ज की बीमारी से वे पीड़ित हैं और हर बात को वे मोशन से जोड़ देते हैं। होम्योपैथी से लेकर घरेलू नुस्खे तक आजमाए जाते हैं। नियमित अंतराल से ब्लड प्रेशर और बुखार नापते रहते हैं और एक अच्छे मोशन को लेकर दिन-रात चिंता सताती रहती है। पीकू की उम्र 30 के आसपास है, लेकिन पिता के लिए उसने अपने आपको भूला दिया है। भास्कर बैनर्जी कई बार उसके साथ स्वार्थ से भरा व्यवहार करते हैं। उन्हें डर सताता रहता है कि बेटी ने शादी कर ली तो उनका खयाल कौन रखेगा। जहां उन्हें लगा कि कोई लड़का पीकू में रूचि ले रहा है तो वे अपनी बेटी के सामने ही उसे कह देते हैं कि पीकू वर्जिन नहीं है। इतना खुला और मिठास से भरा रिश्ता है पिता-पुत्री के बीच। इसमें बेवजह की भावुकता नहीं है। पूरी फिल्म में पीकू और उसके पिता भास्कर बैनर्जी बहस करते रहते हैं। एक-दूसरे की जरा नहीं सुनते, लेकिन इस बहस से ही उनका प्यार टपकता है। कहा भी जाता है कि जिससे ज्यादा प्यार रहता है उसी से छोटी-छोटी बातों पर तकरार होती रही है। इस बात को दर्शाना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म की लेखक जूही चतुर्वेदी और निर्देशक शुजीत ने जटिल काम इतने उम्दा तरीके से पेश किया है कि आप लगातार हंसते रहते हैं और दोनों के मजबूत रिश्ते की दाद देते हैं। भास्कर बैनर्जी की अपनी फिलॉसॉफी है जो सोचने पर मजबूर करती है। उनका मानना है कि लड़की का जब तक कोई उद्देश्य न हो उसे शादी नहीं करना चाहिए। यदि सिर्फ पति की सेवा करना और रात को सेक्स करना हो तो इसके लिए शादी करने की जरूरत नहीं है। बेहतर है कि पति के बजाय माता-पिता की सेवा की जाए। बुढ़ापे में वैसे भी अपने पैरेंट्स को देखभाल की जरूरत पड़ती है। पीकू अपने पिता से शिकायत किए बिना उनकी देखभाल करती है और वह भी पिता की तरह नकचढ़ी हो गई है ताकि लड़के उससे दूर रहे। भास्कर बैनर्जी दिल्ली से कोलकाता जाते हैं और यह सफर रोड द्वारा तय करते हैं। पीकू के व्यवहार से टैक्सी चलाने वाले ड्रावयर चिढ़े हुए हैं और टैक्सी सर्विस का मालिक राणा चौधरी (इरफान खान) खुद ड्राइव करता है। इस लंबे सफर में कई मजेदार घटनाएं घटती हैं जो देखने लायक हैं। पिता-पुत्री का रिश्ता, महिलाओं की स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता और पैरेंट्स की देखभाल संबंधी मुद्दे 'पीकू' में उठाए गए हैं, लेकिन यह भारी-भरकम इमोशन से भरी फिल्म नहीं है। फिल्म हल्की-फुल्की है और परतों में ये बात छिपी हुई हैं जिन्हें इशारों में निर्देशक और लेखक ने दर्शाया है। बंगाली परिवार की पृष्ठभूमि देकर फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। पीकू के घर पर स्वामी विवेकानंद के साथ सत्यजीत रे की तस्वीर भी लगी हुई है जो दिखाती है कि रे के प्रति बंगालियों में कितना आदर है। एक अदद नौकर हमेशा उनके साथ होता है। उन्हें अपनी बुद्धि पर गर्व है। जब गैर बंगाली राणा चौधरी होशियारी वाली बात करता है तो उसे एक बंगाली टोकता है कि क्या आपको यकीन है कि आप बंगाली नहीं हैं? मोशन को लेकर गजब का ह्यूमर रचा गया है। वैसे भी सुबह-सुबह एक बेहतरीन मोशन होना दुनिया के बड़े सुखों में से एक है। भास्कर बैनर्जी अपनी पोटी को लेकर चिंतित रहते हैं और सेमी सॉलिड या मैंगो पल्प से लेकर उसके रंग तक की चर्चा डाइनिंग टेबल पर करते हैं। वह दिल्ली से कोलकाता के सफर में एक पॉटी करने वाली कुर्सी लेकर साथ चलते हैं और ढाबों में कुर्सी का उपयोग किया जाता है। वेस्टर्न या इंडियन टॉयलेट में कौन-सी बेहतर है इसको लेकर इरफान जो तर्क देते हैं उसे सुन आप हंस बिना नहीं रह सकते हैं। लेखक जूही चतुर्वेदी का काम तारीफ के काबिल है। एक बेहतरीन फिल्म उन्होंने लिखी है। फिल्म के किरदारों के बीच जो वार्तालाप है वो बेहद मनोरंजक है। भास्कर बैनर्जी और उनके परिवार की जिंदगी का एक हिस्सा दर्शकों के सामने रखा है जो गुदगुदाता है। शुजीत सरकार ने कलाकारों से अच्छा काम करवाया है और फिल्म को वास्तविकता के करीब रखा है। हर किरदार को उन्होंने बारीकी से उभारा है। चूंकि कहानी किरदारों की जिंदगी का कुछ हिस्सा है और इसमें लंबी-चौड़ी कहानी नहीं है, ऐसे में निर्देशक का काम अहम हो जाता है और यह जिम्मेदारी उन्होंने कुशलता से निभाई है। अलग-अलग जॉनर की फिल्में बना कर शुजीत ने दिखा दिया है कि वे आलराउंडर निर्देशक हैं और किसी एक जॉनर में बंधे रहना उन्हें पसंद नहीं है। पीकू के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें पीकू की सिर्फ कलाकारों के अभिनय के कारण भी देखी जा सकती है। एक से बढ़कर एक अभिनेता इसमें हैं। एक वृद्ध, जिद्दी, झक्की, आलोचनावादी और जिसे आसानी से खुश न किए जा सके वाले भास्कर बैनर्जी के किरदार अमिताभ बच्चन ने प्राण फूंक दिए हैं। उनके बंगाली उच्चारण सुनने लायक हैं। अमिताभ ने कई भूमिकाएं निभाई हैं, लेकिन इस तरह की भूमिका में उन्हें पहले कभी नहीं देखा गया। बॉलीवुड के शहंशाह का अभिनय देखने लायक है। इरफान खान का अभिनय सम्मोहित करने वाला होता है। दर्शकों की ख्‍वाहिश रहती है कि वे हमेशा उन्हें स्क्रीन पर देखे। राणा चौधरी के किरदार को उन्होंने पूरी संपूर्णता के साथ अदा किया है। अमिताभ और इरफान जैसे दिग्गज कलाकार के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म देखने के बाद दीपिका का किरदार याद रहता है। पिता की सेवा में लगी पीकू अपनी जिंदगी भी जीना चाहती है। वह शिकायत नहीं करती, लेकिन उसका चेहरा सब बयां करता है। दीपिका के चेहरे के एक्सप्रेशन देखने लायक हैं। यह उनके करियर के उम्दा परफॉर्मेंसेस में से एक है। पीकू को देखने के कई कारण हैं और इसे मिस नहीं करना चाहिए। बैनर : एमएसएम मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन्स निर्माता : एनपी सिंह, रॉनी लहरी, स्नेहा राजानी निर्देशक : शुजीत सरकार कलाकार : अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, जीशु सेनगुप्ता, रघुवीर यादव सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट ",1 " इस समय वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्मों का चलन है, इसलिए निर्माता-निर्देशक संज य गुप्ता ने वर्तमान में बह रही हवा को ध्यान में रखते हुए हुसैन जैदी द्वारा लिखी गई किताब ‘डोंगरी टू दुबई’ के आधार पर ‘शूटआउट एट वडाला’ बनाई। फिल्म देखने के बाद यह बात पूरी तरह से समझ में आ जाती है कि इस पुस्तक की केवल आड़ ली गई है और फिल्म पूरी तरह से संजय गुप्तामय है। इसमें बेवजह की हिंसा है, अपशब्दों की भरमार है, जगह भरने के लिए एक-दो नहीं बल्कि पूरे तीन आइटम सांग्स हैं। मन्या सुर्वे की यह कहानी है कि किस तरह परीक्षा में नकल नहीं करने वाला सच्चा और सीधा-सादा मन्या अंडरवर्ल्ड में अपना दबदबा साबित करता है। निर्दोष मन्या को एक भ्रष्ट पुलिस वाला हत्या के मामले में फंसा कर जेल की हवा खिला देता है। उसे उम्रकैद हो जाती है। जेल से वह भाग निकलता है और अपनी गैंग बना लेता है। उसकी अंडरवल्ड के दूसरे लोगों मकसूद, मस्तान और हकसर भाइयों से लड़ाइयां होती हैं। पुलिस के हाथ बंधे हुए हैं। आखिर में पुलिस मन्या का एनकाउंटर करती है जो मुंबई स्थित वडाला नामक स्थान पर होता है। फिल्म में बताया गया है कि यह पहला एनकाउंटर था, जिसमें पुलिस ने एक गुंडे पर गोली चलाकर उसे मार डाला। इस वास्तविक घटना को बेहद ही नकली तरीके से पेश किया गया है। अच्छा तो ये होता कि बिना किसी संदर्भ के यह फिल्म बना दी जाती। स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है ताकि ज्यादा से ज्यादा एक्शन सीन शामिल किया जा सके। लेखन में गहराई नहीं है जिसके कारण किरदारों और परदे पर चलने वाले घटनाक्रमों से दर्शक बिलकुल भी जुड़ाव नहीं महसूस करता। निर्देशक संजय गुप्ता ये तय नहीं कर पाए कि वे अपने किरदारों को किस तरह से पेश करें। एक तरफ तो वे भारी-भरकम शब्दों में डायलॉगबाजी करते हैं तो दूसरी ओर बेवजह गालियां बकते रहते हैं। एक तरफ मन्या औरतों को सम्मान देने की बात करता है तो दूसरी ओर अपनी ही गर्लफ्रेंड को गाली बकता है। कुछ फूहड़ प्रसंग भी डाल दिए गए हैं। उससे भी मन नहीं भरा तो तीन आइटम नंबर भी झेलना पड़ते हैं, जिनकी इन गानों में कोई सिचुएशन ही नहीं बनती। सनी लियोन का आइटम नंबर तो भी ठीक है, लेकिन प्रियंका चोपड़ा और सोफी चौधरी के आइटम सांग एकदम ठंडे हैं। संजय गुप्ता ने कहानी को कहने का जो तरीका चुना है वो भी विश्वसनीय नहीं है। एक इंसपेक्टर ढेर सारी गोली मारने के बाद मन्या को पुलिस वैन में अस्पताल ले जा रहा है और मन्या उसे अपनी कहानी सुनाता है। इस कारण कई जगह कन्फ्यूजन पैदा होता है। मन्या के किरदार को भी ठीक तरह से पेश नहीं किया गया है। संजय गुप्ता का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश लुक और एक्शन सीक्वेंसेस पर रहा और लेखन पक्ष की कमियों को वे अनदेखा कर गए। जॉन अब्राहम के अभिनय के स्तर को देखा जाए तो उनका अभिनय ठीक है, लेकिन मन्या के किरदार में वे वो आग और ऊर्जा नहीं फूंक सके जो कैरेक्टर की डिमांड थी। कंगना ने पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन दिया है और जॉन के साथ उनके दो-तीन हॉट सीन हैं। तुषार कपूर ने लगातार फूहड़ संवाद और घटिया अभिनय से बोर किया है। जॉन अब्राहम को इतना ज्यादा फुटेज दिया गया है कि दूसरे कलाकारों की भूमिका उनके आगे गौण हो गई है, जिनमें मनोज बाजपेयी जैसा अभिनेता भी शामिल है, जिसकी प्रतिभा का उपयोग ही नहीं हो पाया। सोनू सूद और अनिल कपूर का अभिनय जरूर ठीक है। महेश मांजरेकर और रोनित रॉय केवल भीड़ का हिस्सा नजर आए। एक गैंगस्टर की कहानी और ढेर सारे एक्शन दृश्य भी किसी किस्म की गरमाहट पैदा नहीं कर पाए और यही शूटआउट वडाला की असफलता है। बैनर : व्हाइट फीदर फिल्म्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, संजय गुप्ता, शोभा कपूर, अनुराधा गुप्ता निर्देशक : संजय गुप्ता संगीत : अनु मलिक, आनंद राज आनंद, मीत ब्रदर्स कलाकार : जॉन अब्राहम, कंगना, अनिल कपूर, तुषार कपूर, मनोज बाजपेयी, सोनू सूद, महेश मांजरेकर, मेहमान कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, सनी लियोन, सोफी चौधरी, जैकी श्रॉफ, रंजीत सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 30 मिनट 10 सेकंड बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",0 "बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स, एएलटी एंटरटेनमेंट निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : मिलन लथुरिया संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : विद्या बालन, नसीरुद्दीन शाह, इमरान हाशमी, तुषार कपूर, राजेश शर्मा, अंजू महेन्द्रू सेंसर सर्टिफिकेट : (ए) * 2 घंटे 23 मिनट दक्षिण भारतीय अभिनेत्री सिल्क स्मिता 80 के दशक में बी-ग्रेड फिल्मों की सुपरस्टार थी। अपनी कामुक अदाओं और अंग प्रदर्शन के जरिये उन्होंने दर्शकों को दीवाना बना दिया था। उनकी जिंदगी में सब कुछ तेजी से घटा और 36 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। सिल्क की जिंदगी से प्रेरित होकर ‘द डर्टी पिक्चर’ बनाई गई है जो सिल्क के जन्मदिन 2 दिसंबर को रिलीज हुई है। सिल्क से प्रेरित होने की वजह से फिल्म देखते समय यही लगता है कि हम सिल्क की जीवन-यात्रा देख रहे हैं। ‘द डर्टी पिक्चर’ बनाने वालों ने बड़ी चतुराई के साथ ऐसा विषय चुना है, जो हर तरह के दर्शक वर्ग को अपील करे। चूंकि सिल्क और बोल्डनेस एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, इस कारण ‘द डर्टी पिक्चर’ के बोल्ड सीन में हल्कापन नहीं लगता। हालांकि कुछ अश्लील संवादों से बचा जा सकता था, जिसकी छूट फिल्म मेकर ने सिल्क के नाम पर ली है। गांव में रहने वाली लड़की रेशमा पर सिनेमा इस कदर हावी था कि वह हीरोइन बनने घर से भागकर मद्रास चली जाती है। वहां जाकर उसे समझ में आता है कि उसके जैसी कई लड़कियां हैं जो एक चांस के लिए स्टुडियो के चक्कर लगा रही हैं। बड़ी मुश्किल से उसे एक फिल्म में काम मिलता है, जिसमें वह उत्तेजक डांस करती है। एक फिल्मकार की नजर उस पर पड़ती है और रेशमा का नया नाम वह सिल्क रख देता है। फिल्मों में सफलता पाने के लिए सिल्क अच्छा-बुरा नहीं सोचती। शरीर तक का इस्तेमाल करती है। वह एक आंधी की तरह है। जहां जाती है तूफान आ जाता है। बोल्ड इतनी कि जो प्रेमी उससे शादी करने वाला है उससे उसके बाप की उम्र पूछती है। पुरुष बोल्ड हो तो इसे उसका गुण माना जाता है, लेकिन यही बात महिला पर लागू नहीं होती। पुरुष प्रधान समाज महिला की बोल्डनेस से भयभीत हो जाता है। जो सुपरस्टार रात सिल्क के साथ गुजारता है दिन के उजाले में उसके पास आने से डरता है। सुपरस्टार बनी सिल्क को समझ में आ जाता है कि सभी पुरुष उसकी कमर पर हाथ रखना चाहते हैं। सिर पर कोई हाथ नहीं रखना चाहता। बिस्तर पर उसे सब ले जाना चाहते हैं घर कोई नहीं ले जाना चाहता। सिल्क के जीवन में तीन पुरुष आते हैं। एक सिर्फ उसका शोषण करना चाहता है। दूसरा उसे अपनाने के लिए तैयार है, लेकिन सिल्क के बिंदासपन और अपने भाई से डरता है। अपने हिसाब से उसे बदलना चाहता है। तीसरा उससे नफरत करता है। उसे फिल्मों में आई गंदगी बताता है, लेकिन अंत में उसकी ओर आकर्षित होता है। फिल्म में सिल्क की कहानी मनोरंजक तरीके से पेश की गई है। फिल्म इंडस्ट्री को नजदीक से देखने का अवसर मिलता है। वह दौर पेश किया गया जब सिंगल स्क्रीन हुआ करते थे, चवन्नी क्लास में दर्शक गाना पसंद आने पर जेब में रखी चिल्लर फेंका करते थे। सिल्क की कलरफुल लाइफ के साथ-साथ उसके दर्द और उदासी को भी निर्देशन मिलन लथुरिया ने बेहतरीन तरीके से सामने रखा है। मिलन ने वह दौर, और तमिल फिल्म इंडस्ट्री को बारीकी के साथ पेश किया है, साथ ही उन्होंने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम लिया है। इमरान हाशमी और विद्या बालन की प्रेम कहानी को मैच्योरिटी के साथ हैंडल किया है। ‘सूफियाना’ और ‘ऊह ला ला’ गाने के लिए सही सिचुएनशन बनाई है। दूसरे हाफ में कुछ देर के लिए फिल्म मिलन के हाथ से छूटते हुए लगती है, खासतौर पर सिल्क और शकीला का पार्टी में डांस करने वाले प्रसंग से बचा जा सकता था। रजत अरोरा की स्क्रिप्ट और मिलन का ट्रीटमेंट ऐसा है कि फिल्म मास और क्लास दोनों टाइप के दर्शकों को पसंद आएगी। रजत अरोरा के संवादों पर दर्शक कई जगह हंसते हैं तो कई जगह तालियां बजाते हैं। खासतौर पर सिल्क को पुरस्कृत करने वाले सीन में संवाद सुनने लायक हैं। नसीरुद्दीन शाह के लिए भी बेहतरीन लाइनें लिखी गई हैं। विद्या बालन इस फिल्म की जान है। कई लोगों को कहना था कि गर्ल नेक्स्ट डोर इमेज वाली विद्या को सिल्क स्मिता के रोल में चुनना गलत कास्टिंग है। विद्या उन लोगों को गलत साबित करती हैं। उनके किरदार को जो बोल्डनेस चाहिए थी, ‍वो विद्या ने दी। कैमरे के सामने वे बोल्ड सीन और कम कपड़ों में बिलकुल नहीं झिझकी। विद्या ने कई दृश्यों में कमाल का अभिनय किया है, ‍जैसे तुषार कपूर के साथ कार सीखने वाला सीन, सुपरस्टार नसीर की पत्नी से मुलाकात वाला सीन, इमरान हाशमी के साथ शराब पीने वाला सीन। सिल्क के दर्द और प्यार की तड़प उन्होंने जानदार अभिनय के साथ पेश किया है। वर्ष की बेस्ट एक्ट्रेस के पुरस्कार उन्हें निश्चित रूप से मिलेंगे। एक उम्रदराज सुपरस्टार, जो कि अभी भी कॉलेज स्टूडेंट के रोल करता है, में नसीरुद्दीन शाह का अभिनय देखने लायक है। सुपरस्टार के एटीट्यूड और लटके-झटके को नसीर ने बखूबी पेश किया है। इमरान हाशमी का रोल छोटा है और उन्होंने कमेंट्री ज्यादा की है। लेकिन अपनी इमेज से विपरीत उन्होंने रोल किया है और उनके किरदार में कई शेड्स हैं। अंत में उनका पात्र सहानुभूति बटोर लेता है। तुषार कपूर को जो रोल मिला है वो उन पर सूट करता है, इसलिए वे भी अच्छे लगते हैं। सिल्क कहती है कि किसी ‍भी फिल्म को चलाने के लिए उसमें सबसे जरूरी तीन चीजें होती हैं- एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट। और यही चीज ‘द डर्टी पिक्चर’ में भी है। ",1 "क्या सुभाष घई की 1983 में रिलीज हुई 'हीरो' इतनी महान फिल्म है कि इसका रिमेक बनाया जाए? एक आम कहानी पर आधारित फिल्म तब दमदार संगीत और अच्छे प्रस्तुतिकरण के कारण सफल हो गई थी। पिछले 32 वर्षों के दौरान इस तरह की कहानी पर इतनी सारी फिल्में रिलीज हो गई हैं कि 2015 में रिलीज 'हीरो' की कहानी थकी हुई लगती है। इस‍ लिहाज से 'हीरो' का रिमेक बनाना ही गलत निर्णय है। 'हीरो' जब रिलीज हुई थी तब सलमान खान लगभग 18 वर्ष के होंगे और शायद उन्हें 'हीरो' बेहद पसंद आई होगी। तब से वे इस तरह की फिल्म करने की इच्छा दिल में पाले हुए होंगे। मेंटर बन उन्होंने अपने सपने को पूरा किया है, लेकिन अब 'हीरो' जैसी फिल्मों का जमाना लद चुका है। सूरज (सूरज पंचोली) एक गुंडा है। वह पाशा (आदित्य पंचोली) के लिए काम करता है। पाशा का आईजी (तिग्मांशु धुलिया) से विवाद चल रहा है। आईजी को सबके सिखाने के लिए पाशा, सूरज को आईजी की बेटी राधा (अथिया शेट्टी) के अपहरण का जिम्मा सौंपता है। राधा के सामने पुलिस वाला बन सूरज जाता है। वह राधा से कहता है कि उसकी जान को खतरा है और आईजी के निर्देश पर उसे दूसरे शहर ले जाना पड़ेगा। सूरज और उसके साथियों के साथ राधा कुछ दिन गुजारती है। राधा और सूरज नजदीक आ जाते हैं। जब राधा को पता चलता है कि सूरज ने उसका अपहरण किया है तो राधा का दिल टूटता है, लेकिन सूरज उससे दादागिरी छोड़ने का वादा करता है। सूरज को दो वर्ष की सजा हो जाती है और राधा फ्रांस पढ़ने के लिए चली जाती है। राधा के पिता, सूरज और राधा की शादी के खिलाफ हैं। वे किसी और से राधा की शादी नहीं कर दे इसलिए राधा का भाई उन्हें बताता है कि फ्रांस में राधा और रणविजय में नजदीकियां बढ़ रही है, लेकिन इस बात में रत्ती भर सच्चाई नहीं है। सूरज जेल से छूटता है और राधा उसे लेने के लिए आती है। इसी बीच रणविजय और राधा की झूठी कहानी में तब ट्विस्ट आता है जब सचमुच में रणविजय की एंट्री होती है। राधा के पिता को पता चलता है तो वे बेहद नाराज होते हैं। किस तरह सारी गुत्थियां सुलझती है? क्या राधा-सूरज एक हो पाते हैं? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं। ही रो के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें सुभाष घई द्वारा लिखी गई कहानी को थोड़े बदलाव के साथ निखिल आडवाणी ने उमेश बिष्ट के साथ मिलकर लिखा है। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि फिल्म सूरज और अथिया का शोकेस बन कर रह गई है। अन्य बातों की उपेक्षा की गई है। फिल्म में डिटेल्स पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया है। क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, ये प्रश्न फिल्म देखते समय लगातार दिमाग में कौंधते रहते हैं। सूरज गुंडा क्यों है, इसका जवाब नहीं मिलता। आईजी की बेटी का अपहरण, सूरज-राधा में प्यार, सूरज का जिम खोलना इतनी आसानी से हो जाता है कि आश्चर्य होता है। रणविजय वाला ट्रेक निहायत ही बेहूदा है और महज फिल्म की लम्बाई बढ़ाता है। > एक दृश्य का दूसरे दृश्य से तालमेल नहीं है। सूरज और अथिया द्वारा शो पेश करना सिर्फ दोनों की डांसिंग स्किल्स दिखाने के लिए रखा गया है। ये शो क्यों हो रहा है? अथिया के शो में सूरज कैसे आ गया? इस तरह के कई सवाल हैं। सवालों को हाशिये पर रखा जा सकता है जब फिल्म में मनोरंजन हो, लेकिन ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं है। कहानी में दम नहीं हो तो कुशल निर्देशक अपने प्रस्तुतिकरण पर दर्शकों को बांध सकता है, लेकिन निखिल आडवाणी सिर्फ नाम के निर्देशक लगे। न उन्होंने स्क्रिप्ट की कसावट पर ध्यान दिया और न ही वे अपने प्रस्तुतिकरण में ताजगी ला सके। फिल्म देख ऐसा लगता है कि बिना निर्देशक के यह फिल्म पूरी कर दी गई हो। फिल्म के आखिर में जब सलमान खान गाने गाते नजर आते हैं तो वे पूरी फिल्म से ज्यादा राहत देते हैं। सूरज पंचोली और अथिया शेट्टी में आत्मविश्वास तो नजर आता है, लेकिन अभिनय में वे कच्चे हैं। केवल बॉडी बनाना, फाइट और डांस करना ही हीरो बनने की शर्त पूरी करता है तो इसमें सूरज इसमें खरे उतरते हैं। अथिया शेट्टी की संवाद अदायगी दोषपूर्ण है। नकचढ़ी राधा के किरदार में उन्हें सिर्फ चिल्लाना ज्यादा था। बेहतरीन फिल्म बनाने वाले तिग्मांशु धुलिया ने इस फिल्म में राधा के पिता की भूमिका निभाई है और उनके अभिनय में इस बात की झलक मिलती है कि ये सब हो क्या रहा है। फिल्म का संगीत 'मैं हूं हीरो तेरा' को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर गाने ब्रेक का काम करते हैं। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत है। कुल मिलाकर यह 'हीरो' ज़ीरो के नजदीक है। बैनर : सलमान खान फिल्म्स, इरोज़ इंटरनेशनल, मुक्ता आर्ट्स लि., एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : सलमा खान, सलमान खान, सुभाष घई निर्देशक : निखिल आडवाणी संगीत : सचिन-जिगर, अमीत ब्रदर्स अंजान कलाकार : सूरज पंचोली, अथिया शेट्टी, तिग्मांशु धुलिया, आदित्य पंचोली ",0 "बॉलीवुड फिल्मों के ज्यादातर सीक्वल निशाने पर नहीं लगते। 'हैप्पी भाग जाएगी' का सीक्वल 'हैप्पी फिर भाग जाएगी' पहली फिल्म की परछाई मात्र साबित हुआ है। फिल्म से कुछ उम्दा लोगों के नाम जुड़े हुए थे जिससे उम्मीद जागी थी कि यह सीक्वल सिर्फ पहले भाग की सफलता को भुनाने के लिए नहीं बनाया होगा, लेकिन फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद ही यह आशा, निराशा में बदल जाती है। हैप्पी पहली फिल्म में पाकिस्तान पहुंच गई थी, इस बार चीन को चुना गया है। एक हैप्पी (डायना पेंटी) के साथ दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) भी आ मिली है। दो हैप्पी होंगी तो कन्फ्यूजन तो होगा ही, बस इसी बात के आसपास कहानी घूमती रहती है। हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) चीन में उस इंसान से बदला लेने आई है जो उसके साथ शादी तोड़ देता है। उसी समय चीन में दूसरी हैप्पी (डायना पेंटी) भी अपने पति गुड्डू (अली फज़ल) के साथ मौजूद है। हैप्पी के जरिये चीनी माफिया पाकिस्तान से अपना कुछ काम करवाना चाहते हैं और वे भूल से उस हैप्पी का अपहरण कर लेते हैं जिसकी उन्हें जरूरत नहीं है। अपने इस काम को अंजाम देने के लिए चीनी माफिया भारत से बग्गा (जिमी शेरगिल) और पाकिस्तान से अफरीदी (पियूष मिश्रा) को भी उठवा कर चीन ले आते हैं। मिस्टेकन आइडेंटीटीज़ का फॉर्मूला यहां लगाया गया है, लेकिन यह काम नहीं कर पाया। फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट पर मेहनत नहीं की गई है। मनोरंजन के नाम पर दिमाग को घर पर भी रख कर आए तो भी यह फिल्म मनोरंजन नहीं करती। फिल्म के लेखक और निर्देशक मुदस्सर अजीज़ पिछली फिल्म के चुटकलों को ही यहां दोहराते नजर आए। उन्होंने लोकेशन बदल कर पूरी फिल्म चीन में बना कर दर्शकों का ध्यान बंटाने की कोशिश की है, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। फिल्म की कहानी में कोई दम नहीं है और कई सवालों के जवाब नहीं मिलते। स्क्रिप्ट में भी ऐसी बात नहीं है कि यह लगातार हंसाती रहे। कुछ वन लाइनर और कुछ सीन जरूर मजेदार हैं। चीनी को हिंदी बोलते या गाने गाते देखना अच्छा लगता है, लेकिन इस तरह के संवाद और दृश्यों की संख्या बहुत कम है। शुरुआती आधे घंटे के बाद फिल्म का ग्राफ लगातार नीचे की ओर आता है और आखिरी के 45 मिनट में तो फिल्म उबाऊ हो जाती है। क्लाइमैक्स भी थका हुआ है। मुदस्सर अजीज़ ने निर्देशक के रूप में अपने लेखन की कमियों को छिपाने की कोशिश की है, लेकिन सफल नहीं हो पाए। उन्होंने फिल्म के दो नए किरदारों (सोनाक्षी सिन्हा और जस्सी गिल) पर ज्यादा फोकस किया है और अली फज़ल, डायना पेंटी, पियूष मिश्रा, जिमी शेरगिल पर कम ध्यान दिया है। यह प्रयोग असफल रहा है क्योंकि दर्शकों को पुराने किरदारों को देखने में ज्यादा दिलचस्पी थी। पियूष और जिमी ज्यादातर दृश्यों में नजर आते हैं, लेकिन उनके पास करने को कुछ नहीं रहता। सोनाक्षी सिन्हा कन्फ्यूज नजर आई और पूरी फिल्म में भागती ही रहीं। जस्सी गिल का अभिनय प्रभावित करता है। जिमी शेरगिल और पियूष मिश्रा को ज्यादा मौके नहीं मिले। डायना पेंटी और अली फज़ल तो चीन सिर्फ घूमने के लिए गए थे। अपारशक्ति खुराना रंग में नजर नहीं आए। फिल्म का संगीत भी कमजोर है, लेकिन गानों का पिक्चराइजेशन अच्छा है। इस बार हैप्पी के साथ-साथ दर्शक भी भाग जाएंगे। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर येलो प्रोडक्शन निर्माता : आनंद एल. राय, कृषिका लुल्ला निर्देशक : मुदस्सर अजीज़ संगीत : सोहेल सेन कलाकार : सोनाक्षी सिन्हा, जस्सी गिल, जिमी शेरगिल, पियूष मिश्रा, डायना पेंटी, अली फज़ल, अपारशक्ति खुराना सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 17 मिनट 12 सेकंड ",0 "बॉलिवुड में आजकल हॉरर फिल्मों के नाम पर सिर्फ 1920 सीरीज की फिल्में ही आती हैं। ऐसे में भारतीय दर्शकों के पास हॉरर फिल्मों के नाम पर सिर्फ हॉलिवुड की हॉरर फिल्में देखने का ही ऑप्शन है। बेशक वहां भी शैतान से जुड़े ढेरों किस्से हैं, जिन पर हॉलिवुड के निर्माता अक्सर फिल्में बनाते रहते हैं। हॉलिवुड की चर्चित हॉरर फिल्मों में कंज्यूरिंग सीरीज़ की फिल्मों को दर्शकों ने काफी पसंद किया है। 'द नन' कंज्यूरिंग सीरीज़ की ही अगली फिल्म है, जिसे इस सीरीज का सबसे ख़ौफनाक किस्सा बताया जा रहा है। फिल्म के क्रेज का आइडिया इसी बात से लगाया जा सकता है कि 'द नन' का सुबह का शो हाउसफुल था।इस फिल्म की कहानी की शुरुआत 1952 में रोमानिया के सैंट कार्टा में एक ऐबी (ऐसी जगह जहां नन रहती हैं) से हुई थी। माना जाता है कि उस ऐबी के एक दरवाजे में शैतान रहता है और उससे आगे गॉड का राज नहीं है। इसी वजह से आसपास के लोग उससे दूर रहते हैं। एक दिन एक नन उस दरवाजे के भीतर गई और शैतान के हाथों मारी गई, जबकि दूसरी नन ने शैतान से बचने के लिए पहले से की गई प्लानिंग के तहत फांसी लगा ली। उसकी लाश वहां सब्जियां लाने वाले एक आदमी मोरिस को मिली। जब यह खबर फैली, तो उसके बाद वैटिकन ने एक जांच दल गठित किया। उसमें एक पादरी फादर एंथनी बुर्के (डेमियन बिहिर) और एक नन सिस्टर इरीन (टेसा फार्मिगा) जिसने अभी तक शपथ नहीं ली, को रोमानिया भेजा। वे दोनों उस सब्जी वाले के साथ वहां जाते हैं। फादर एंथनी एक ऐसे पादरी हैं, जो अक्सर ऐसी घटनाओं की जांच करते हैं। वहां इन दोनों के साथ अजीब-अजीब घटनाएं होती हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हारते और उस रहस्यमय ऐबी से जुड़े रहस्य का खुलासा करने का फैसला करते हैं। सब्जी बेचने वाला मोरिस भी उन दोनों का साथ देने का फैसला करता है। क्या फादर और सिस्टर ऐबी के शैतान को काबू कर पाते हैं? आखिर उस ख़ौफनाक ऐबी का राज क्या है? इस ख़ौफनाक सवाल का जवाब आपको थिअटर जाकर ही मिल पाएगा।हॉलिवुड की तमाम हॉरर फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी शैतान और चर्च की जंग दिखाई गई है। हालांकि, इस बार चर्च की ओर से मोर्चा किसी पादरी की बजाय एक नन ने संभाला है। सिस्टर इरीन के रोल में टेसा फार्मिगा ने अच्छी ऐक्टिंग की है। खासकर शैतान से लड़ाई के सीन में वह जोरदार लगती हैं। वहीं डेमियन ने भी ठीकठाक ऐक्टिंग की है। उधर मोरिस के रोल में जोनस भी दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। फिल्म की शूटिंग भी कहानी की डिमांड के मुताबिक डरावनी लोकेशन पर की गई है। हॉरर फिल्मों में बैकग्राउंड स्कोर बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस फिल्म में शैतान से जंग के सीन आपको खासे डरावने लगते हैं। वहीं खौफनाक ऐबी के भीतर के सीन भी खतरनाक हैं। अगर आपको हॉरर फिल्में देखना पसंद है, तो आपको नन से जरूर मुलाकात करनी चाहिए।",1 "कहानी: मुंबई सबअर्बन एरिया में रहने वाली खुशमिजाज हाउस वाइफ सुलोचना जिसे सुलु नाम से भी बुलाया जाता है, को रेडियो पर नाइट आरजे का काम दिया जाता है। इस काम के चलते उसकी लाइफ में बड़ा चेंज आता है। रिव्यू: हाल में बॉलिवुड में ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गई है जिनमें भारतीय मध्यवर्ग की महिलाओं को ग्लैमरस तरीके से दिखाया जाता है। विज्ञापनों के डायरेक्टर से फिल्म डायरेक्टर बने सुरेश त्रिवेणी ने सुलोचना उर्फ 'सुलु' के रूप में विद्या बालन को ध्यान में रखते हुए ऐसी ही मध्यवर्ग की एक सामान्य महिला की कहानी लिखी है। सुलु ने अभी तक कुछ बड़ा तो नहीं किया है लेकिन वह सपने बहुत देखती है। जब उसे एक खास मौका मिलता है तो उसकी पर्सनल और फैमिली लाइफ पर काफी असर पड़ता है। सुलु सफलता से रेडियो जॉकी के तौर पर कॉर्पोरेट मीडिया में अपना जीवन जीने लगती है। जल्द ही सुलु रातोंरात मशहूर हो जाती है साथ ही वह अपने घर को भी सफलता से संभालती है। सुलु के रूप में विद्या बालन ने बिना किसी आक्रामता के इस किरदार को सहजता से जिया है। उन्होंने सुलु के किरदार में एक औरत की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को रखते हुए दिखाया है कि कैसे एक घरेलू महिला अपने परिवार की जरूरतों के लिए अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ देती है। सुलु के पति अशोक के रूप में मानव कौल का चयन फिल्म के लिए एकदम पर्फेक्ट है। अशोक अपनी पत्नी सुलु को खुश रखने का हर संभव प्रयास करता है लेकिन इसके साथ-साथ वह अपने काम के प्रेशर को भी झेल रहा है जो कभी-कभी झुंझला जाता है। रेडियो जॉकी के तौर पर सुलु की नाइट लाइफ फिल्म को काफी मजेदार बना देती है। हल्की-फुल्की फिल्म से फिल्म एकदम से सीरियस ड्रामा बनते समय थोड़ी लड़खड़ा जाती है। उससे पहले फिल्म आपको गुदगुदाती है। फिल्म पूरी कहानी को सुलु की नजरों से दिखाती है जिसमें आपको काफी मजा आएगा। विद्या ने सुलु के किरदार के उस पक्ष को खूबसूरती से निभाया है जब उसकी आवाज को दुनिया सुनती है और वह रातोंरात मशहूर हो जाती है। जिस तरह से सुलु और उसका परिवार परेशानियों से जूझता है उस तरह से इस फिल्म से शहरी जनता अपने आपको रीलेट कर पाएगी क्योंकि शहरी जनता भी अपनी जिंदगी में परेशानियों से जूझते हुए बेहतर जिंदगी के लिए अपने सपने नहीं छोड़ती। फिल्म की स्टोरी में सुलु का किरदार दमदार है, वह इतनी मजबूत है कि हर मुश्किल में 'मैं कर सकती है' वाला ऐटिट्यूड रखती है।क्यों देखें: 'तुम्हारी सुलु' एक ऐसी फिल्म है जिसका आप पूरे परिवार के साथ आनंद ले सकते हैं। अगर विद्या के फैन हैं और उनकी दमदार ऐक्टिंग देखना चाहते हैं तो फिल्म को जरूर देखें।",0 "दहेज के नाम पर विभिन्न धर्म के लोग एक से नजर आते हैं। भारतीय समाज का यह रोग वर्षों पुराना है। समय-समय पर कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिये इसके बुराई के खिलाफ इतनी बार आवाज उठाई है कि अब यह फिल्मों के लिए घिसा-पिटा विषय हो गया है। हबीब फैसल द्वारा निर्देशित फिल्म 'दावत-ए-इश्क' भी दहेज जैसी कुरीति के खिलाफ है, लेकिन किरदारों और पृष्ठभूमि में ऐसा बदलाव किया गया है कि फिल्म में नवीनता का आभास होता है। हैदराबाद और लखनऊ जैसे शहरों में इसे फिल्माया गया है जो स्थानीय लज़ीज व्यंजनों के कारण देश भर में प्रसिद्ध है। इन शहरों के अलावा बिरयानी, हलीम, कबाब के स्वाद को भी फिल्म देखते समय दर्शक महूसस करते हैं। कहानी के सारे पात्र मुस्लिम समुदाय से हैं जिससे फिल्म में एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। जहेज़ के नाम पर मां-बाप अपने आईएस ऑफिसर, डॉक्टर और इंजीनियर बेटों के भाव तय करते हैं और निकाह के लिए लड़की वालों से रकम मांगी जाती है। लड़कों ने पढ़-लिख कर डिग्री तो हासिल कर ली है, लेकिन 'ज्ञान' अर्जित नहीं कर पाए। कपड़ों के मामले में वे भले ही आधुनिक लगते हो, लेकिन वैचारिक रूप से वे वर्षों पुरानी दकियानूसी परंपराओं के हिमायती हैं। यही वजह है कि फिल्म की नायिका गुलरेज़ (परिणीति चोपड़ा) की शादी नहीं हो पा रही है। वह तेज-तर्रार है। जहेज़ मांगने वाले लड़के और मां-बाप को बाहर करने में देर नहीं लगाती। गुलरेज़ अमेरिका जाकर शू डिजाइनिंग का कोर्स करना चाहती है। उसके पिता (अनुपम खेर) अदालत में क्लर्क है और ये खर्चा उठाना उनके बूते की बात नहीं है। गुलरेज़ को लगता है कि सभी लड़के दहेज मांगने वाले होते हैं। वह इन दहेज लोभियों को सबक सीखाने के लिए एक योजना बनाती है। पूरी दुनिया बेईमानी कर रही है तो हम क्यों ईमानदारी में फांके खाए कहते हुए उसके पिता भी गुलरेज के साथ हो लेते हैं। अपने पिता के साथ नाम और पहचान बदलकर वह हैदराबाद से लखनऊ जाती है। एक अमीर लड़के को फांसती है ताकि शादी करने के बाद धारा 498-ए का दुरुपयोग कर उन पर दहेज मांगने का आरोप लगाए और अदालत के बाहर मोटी रकम लेकर समझौता कर ले। इससे उसका अमेरिका जाने का सपना भी पूरा हो जाएगा। तारिक (आदित्य राय कपूर) को वह अपने जाल में फंसाती है, लेकिन खुद ही फंस जाती है। तारिक न केवल दहेज विरोधी है बल्कि वह इतना अच्छा इंसान है कि गुलरेज उसे चाहने लगती है। अपने ही बुने मकड़जाल से गुलरेज कैसे निकलती है, यह फिल्म का सार है। हबीब फैसल और ज्योति कपूर ने फिल्म की कहानी मिल कर लिखी है जबकि स्क्रिप्ट और संवाद हबीब के हैं। दहेज जैसे गंभीर विषय पर आधारित होने के बावजूद यह फिल्म हल्की-फुल्की और रोमांटिक है। इतनी सरलता के साथ यह फिल्म संदेश देती है कि कही भी फिल्म भारी या उपेदशात्मक नहीं लगती। जिसको धोखा देने जा रहे हो उसी से प्यार कर बैठने वाला फॉर्मूला भी बहुत पुराना है, लेकिन हबीब का प्रस्तुतिकरण फिल्म को अलग रंग देता है। हैदराबाद और लखनऊ को उन्होंने खूब फिल्माया और बीच-बीच में व्यंजनों का उल्लेख फिल्म को अलग कलेवर देता है। फिल्म के किरदारों पर मेहनत की गई है। परिणीति, आदित्य और अनुपम के इर्दगिर्द ही फिल्म घूमती है और ये तीनों किरदार भरपूर मनोरंजन करते हैं। पिता-पुत्री का रिश्ता फिल्म में खूब हंसाता है। वही परिणीति और आदित्य का रोमांटिक ट्रेक भी उम्दा है। संवाद भी कई जगह गुदगुदाते हैं। निर्देशक के रूप में हबीब ने फिल्म में माहौल बहुत ही हल्का-फुल्का रखा है। स्क्रिप्ट परफेक्ट भी नहीं है। कई जगह फिल्म गड़बड़ा जाती है, लेकिन तुरंत एक अच्छा दृश्य फिल्म को संभाल लेता है। फिल्म के अंत में गुलरेज का कन्फ्यूजन दर्शकों को समझ नहीं आता। तारिक को चाहने के बावजूद गुलरेज का उसे धोखा देना और फिर पछतावा करना को ठीक से दिखाया नहीं गया है। दूसरे हाफ में निर्देशक हड़बड़ी में दिखे। गुलरेज और उसके पिता का नकली पासपोर्ट बनवाना, तारिक के प्रतिष्ठित परिवार को धोखा देना इतनी आसानी से बताया गया है कि यकीन करना थोड़ा मुश्किल होता है, लेकिन फिल्म के मूड और उद्देश्य को देखते हुए इसे इग्नोर किया जा सकता है। फिल्म के प्रमुख कलाकार टॉप फॉर्म में नजर आएं। परिणीति चोपड़ा ने तेजतर्रार गुलरेज के किरदार को बखूबी निभाया। उनके पिता की भूमिका के रूप में अनुपम खेर ने अपने बेहतरीन अभिनय से दर्शकों को हंसाया। आदित्य राय कपूर पहली बार बतौर अभिनेता के रूप में प्रभावित करने में सफल रहे। साजिद-वाजिद द्वारा संगीतबद्ध दो-तीन गीत गुनगुाने लायक हैं। कुल मिलाकर 'दावत-ए-इश्क' का मजा लिया जा सकता है। बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : हबीब फैसल संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : आदित्य रॉय कपूर, परिणीति चोपड़ा, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 3 मिनट 6 सेकंड ",1 "भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर, रिश्वतखोर सरकारी बाबुओं और वोट पाकर नोट कमाने वाले नेताओं ने पूरा सिस्टम गंदा कर रखा है। बच्चा गंदगी करता है तो डायपर बदल दिया जाता है, लेकिन सिस्टम की गंदगी साफ करना इतना आसान नहीं है। साथ ही इतना साहस कम ही लोगों में होता है। अन्याय और शोषण के खिलाफ कुछ युवा 'उंगली गैंग' बना लेते हैं जो कानून को हाथ में लेते हुए इन बिगड़ैल लोगों को सबक सिखाता है। इस गैंग का मानना है कि यदि घी सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो टेढ़ी करना होती है, लेकिन वे बीच का रास्ता अपनाते हैं। यह विषय बॉलीवुड का पसंदीदा रहा है। अस्सी और नब्बे के दशक में सिस्टम के खिलाफ जूझ रहे हीरो की कई फिल्में आई हैं। थोड़े बहुत बदलाव के साथ रेंसिल डिसिल्वा ने इसे लिखा और निर्देशित किया है। रेंसिल ने 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्म और '24' जैसे धारावाहिक लिखा है, लेकिन 'उंगली' में उन्होंने बेहद निराश किया है। उनकी लिखी स्क्रिप्ट में कई कमजोर दृश्य हैं और निर्देशक के रूप में वे ड्रामे में विश्वसनीयता का पुट नहीं डाल पाए हैं। अभय (रणदीप हुडा), माया (कंगना), गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) मिलकर अन्याय के खिलाफ लड़ने का फैसला तब करते हैं जब माया के भाई (अरुणोदय सिंह) को न्याय नहीं मिलता। वे उंगली गैंग बना कर रिक्शा चालकों, आरटीओ में काम करने वाले बाबुओं और पुलिस वालों को अपने तरीके से सबक सिखाते हैं। इस गैंग को पकड़ने का काम पुलिस ऑफिसर काले (संजय दत्त) को सौंपा जाता है जो यह काम निखिल (इमरान हाशमी) के जिम्मे करता है। निखिल उंगली गैंग जैसे काम कर अभय और उसकी टीम का ध्यान आकर्षित करता है। उसे पकड़ने का मौका मिलता है तो वह उनकी गैंग में शामिल हो जाता है। क्या उंगली गैंग पकड़ी जाती है? क्या निखिल अपने फर्ज से गद्दारी करता है? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं। लेखन फिल्म की बहुत बड़ी कमजोरी है। उंगली गैंग जिस आसानी से काम करती है उस पर यकीन करना मुश्किल है। उंगली गैंग को पकड़ने के लिए पुलिस की कोशिश कमजोर नजर आती है। उंगल गैंग बेहद आसानी से निखिल से मिलने पहुंच जाती है और यह बात हजम नहीं होती। निखिल को जब इस गैंग को पकड़ने का सुनहरा अवसर मिलता है तो बजाय उन्हें गिरफ्तार करने के वह उनकी गैंग में क्यों शामिल होता है ये समझ से परे है। उंगली का शो बुक करने के लिए यहां क्लिक करें पुलिस ऑफिसर काले अपना ट्रांसफर करवाने के लिए फिक्सर (महेश मांजरेकर) के घर जाता है। वो अपने घर में पुलिस वालों को रुपये से भरे कमरे में आसानी से जाने देता है। यहां तक कि उंगली गैंग रुपये से भरे कमरे में पहुंच जाती है और नोटों को केमिकल लगाती है। इस दौरान फिक्सर के सुरक्षाकर्मी बाहर खड़े रहते हैं। रणदीप-नेहा और इमरान-कंगना के बीच बेवजह रोमांस दिखाने की कोशिश की गई है। कहने का मलतब ये कि लेखक ने तमाम अपनी सहूलियत से स्क्रिप्ट लिखी है और दर्शकों को जोड़ने में वे विफल रहे हैं। निर्देशक के रूप में भी रेंसिल निराश करते हैं। ड्रामे को विश्वसनीय बनाने में तो वे असफल रहे ही हैं, लेकिन मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को भी घोर निराशा हाथ लगती है। पूरी फिल्म बोरियत से भरी है और नींद न आने वालों की शिकायत इस फिल्म से दूर हो सकती है। फिल्म में ढेर सारे स्टार कलाकार हैं, जिनका सही उपयोग कर पाने में भी रेंसिल असफल रहे हैं। मिलाप ज़वेरी के संवाद कुछ जगह अच्छे लगते हैं, लेकिन 'आप काले हैं तो वे दिलवाले हैं' जैसे घटिया संवाद भी सुनने को मिलते हैं। फिल्म में गाने ठूंसे गए हैं जो अखरते हैं। फिल्म के कलाकारों ने अनमने तरीके से काम किया है। इमरान हाशमी के स्टारडम का ठीक से उपयोग नहीं किया गया है और न ही उन्हें ज्यादा फुटेज मिला है। इमरान ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है, लेकिन स्क्रिप्ट का साथ उन्हें नहीं मिला। संजय दत्त का भी यही हाल रहा है। कंगना रनौट, नेहा धूपिया और रणदीप हुडा को फिल्म देखने के बाद महसूस होगा कि उन्होंने क्यों ये फिल्म की। फिल्म में छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई दमदार कलाकार हैं, लेकिन सबकी प्रतिभा का उपयोग नहीं हो सका है। श्रद्धा कपूर को एक गाने में फिट किया गया है ताकि फिल्म में ताजगी महसूस हो, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। उंगली की एक ही बात अच्छी है कि इसकी अवधि दो घंटे से कम है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू यश जौहर निर्देशक : रेंसिल डिसिल्वा संगीत : सलीम-सुलेमान, सचिन-जिगर, गुलराज सिंह, असलम केई कलाकार : इमरान हाशमी, कंगना रनौट, संजय दत्त, नेहा धू‍पिया, रणदीप हुडा, अंगद बेदी, नील भूपलम, अरुणोदय सिंह, श्रद्धा कपूर (आइटम नंबर), रजा मुराद, रीमा लागू, महेश मांजरेकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट 18 सेकंड ",0 "रिव्यू: सूरमा की कहानी शुरू होती है सन् 1994 के शाहाबाद से, जिसे देश की हॉकी की राजधानी माना जाता था। यह एक छोटा सा कस्बा है, जहां ज्यादातर लोगों का बस यही सपना है कि वह भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा बनें। लगभग सभी बच्चे, चाहे वह लड़की हो या लड़का इसी सपने को पाने की दौड़ में शामिल हैं।युवा संदीप सिंह (दिलजीत दोसांझ) भी इन्हीं लोगों में से एक है, लेकिन स्ट्रिक्ट कोच के कारण उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है और वह हॉकी से पल्ला झाड़ लेते हैं। टीनेज तक उनकी जिंदगी से हॉकी गायब रहता है, लेकिन फिर उनके जीवन में हरप्रीत (तापसी पन्नू) की एंट्री होती है, जिससे संदीप को प्यार हो जाता है। हरप्रीत फिर से संदीप में हॉकी के लिए जज्बा पैदा करती है और उसे आगे बढ़ते रहने और खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है। इससे एक बार फिर हॉकी प्लेयर बनना संदीप के लिए जीवन का मकसद बन जाता है। लेखक-निर्देशक शाद अली ने फिल्म के फर्स्ट हाफ में संदीप सिंह के हॉकी प्लेयर बनने की कहानी को दिखाया है, हालांकि, उन्होंने इसमें कस्बे के छोटे-छोटे लम्हों और लीड पेयर के रोमांस को जोड़कर कहानी को बोझिल नहीं होने दिया। इंटरवल से पहले कहानी सीरिअस मोड़ ले लेती है, जो आपको भावुक कर देती है। 'उड़ता पंजाब' में दिलजीत की ऐक्टिंग को सराहा गया था, लेकिन ''सूरमा'' में उन्होंने जैसा अभिनय किया है वह बेहतरीन है। वह अपने किरदार के हर भाव और लम्हे को जीते और जीवंत करते दिखाई देते हैं। फिल्म में उनकी हॉकी की स्किल्स तारीफ के काबिल दिखती हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने किरदार को समझा और पर्दे पर जिया, वह सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। तापसी पन्नू हमेशा की तरह ऐक्टिंग के मामले में अपना बेस्ट देती दिखीं, लेकिन उनका किरदार फिल्म के ट्रैक को स्लो करता है। सपोर्टिंग कास्ट के रूप में अंगद बेदी जिन्होंने दिलजीत के बड़े भाई का किरदार निभाया है, शानदार अभिनय करते नजर आए हैं। उन्होंने अपने किरदार को बखूबी पर्दे पर दिखाया है। कुलभूषण खरबंदा और सतिश कौशिक की ऐक्टिंग भी अच्छी है। फिल्म में कई गानें हैं, लेकिन कोई भी गाना इंप्रेस नहीं कर पाता।देखिए, 'सूरमा' देखने के बाद क्या बोले लोग नैशनल हॉकी टीम के कैप्टन, अर्जुन अवॉर्ड विनर और एक शख्स जिसे गलती से गोली मार दी गई और फिर भी उसने वापसी की, उसकी कहानी बायॉपिक के रूप में पर्दे पर उतारने के कई फायदे हैं। हालांकि, शाद अली ने जिस तरह से कहानी को दिखाया है, उसमें सिनेमा के लिए जरूरी ड्रामा और सॉलिड सब्जेक्ट मिसिंग दिखता है। फिल्म में हॉकी गेम से जुड़े कई सीन है पर इनमें से कोई भी आपको थ्रिल महसूस नहीं करवाता। SOORMA in Cinemas 🤩🍿 A post shared by Diljit Dosanjh (@diljitdosanjh) on Jul 19, 2018 at 9:15pm PDT क्यों देखें: दिलजीत दोसांझ की ऐक्टिंग के शौकीन हैं तो फिल्म जरूर देखें तापसी पन्नू और दिलजीत की कैमिस्ट्री देखने लायक खेल पर बनी बायॉपिक के चाहने वालों के लिए अच्छी फिल्मतो अगर आप यह जानना चाहते हैं कि संदीप सिंह की जिंदगी में कब, क्यों, कैसे और क्या हुआ तो ''सूरमा'' फिल्म आपके लिए है। यह दिल से जुड़ी एक कहानी है, जो आपके दिल को जीत सकती है। यह फिल्म आपको सच्चाई दिखाती है, लेकिन कहानी में रोमांच की कमी इसे कमजोर बनाती है। Day 1 Rs 3.25 करोड़ Day 2 Rs 4.75 करोड़ Day 3 Rs 5.25 करोड़ Day 4 Rs 2 करोड़ Day 5 Rs 1.85 करोड़ कुल Rs 17.10 करोड़ ",1 "कई किस्म के 'फोबिया' होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ फोबिया रहता है। पवन कृपलानी की फिल्म 'फोबिया' की नायिका महक (राधिका आप्टे) को एगोराफोबिया है। इस फोबिया से ग्रस्त इंसान को अनजान एवं खुली या सार्वजनिक जगहों पर जाने से डर का एहसास होता है। महक के साथ एक टैक्सी ड्राइवर ने लूटपाट की थी और उसके बाद वह घर से बाहर निकलने में ही डरने लगी। उसका दोस्त/ बॉयफ्रेंड शान (सत्यदीप मिश्रा) उसका इलाज करवाता है पर कोई फायदा नहीं होता। शान अपने दोस्त के फ्लैट में महक को ले जाता है ताकि जगह बदलने से महक का डर कम हो, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ जाता है। घर में सुरक्षित महसूस करने वाली महक को घर में ही डर लगने लगता है। उसे तरह-तरह की चीजें नजर आती हैं और स्थिति बद से बदतर हो जाती है। पवन कृपलानी द्वारा लिखी कहानी बहुत ही संक्षिप्त है और यहां पर सारा दारोमदार स्क्रिप्ट और निर्देशक पर टिका हुआ है। ऐसे सीन रचने होते हैं जो भले ही कहानी को आगे नहीं बढ़ाए, लेकिन दर्शकों को बांध कर रखे। यहां पात्र भी बहुत कम हैं, लेकिन पवन ने अपना काम बखूबी किया है। पहले हाफ में वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। कुछ दृश्यों में रोमांच पैदा होता है तो कुछ में डर लगता है। बिना तेज आवाजों, अंधेरे और खतरनाक चेहरों के दर्शकों को चौंकाया और रोमांचित किया गया है। साथ ही दर्शकों की इस उत्सुकता को बरकरार रखा है कि आगे क्या होने वाला है। दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी लंबी खींची गई है, लेकिन फिल्म के अंतिम 15 मिनट जबरदस्त हैं। कहानी यू टर्न लेती है और आप सीट से चिपक जाते हैं। फोबिया केे टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें पवन कृपलानी का निर्देशन उम्दा है और फिल्म पर उनकी पकड़ है। एगोराफोबिया थीम का उन्होंने अच्छा इस्तेमाल किया है। एक रोमांच से भरी कहानी को उन्होंने उम्दा तरीके से परदे पर पेश किया है। उन्होंने दर्शकों को चौंकाने के लिए कुछ अतिरिक्त करने की कोशिश नहीं की है। सीमित पात्रों में बोरियत का खतरा भी पैदा होता है, लेकिन पवन इससे अपनी फिल्म को बचा कर ले गए। उनकी सबसे बड़ी सफलता यह रही कि पूरी फिल्म में वे दर्शकों को जोड़े रखने में सफल रहे हैं। स्क्रिप्ट में सबसे बड़ी खामी यह है कि जब महक को डर लगता है तो उसे अकेला रखा ही क्यों जाता है? जब उसका इलाज चल रहा होता है तो उसके पास में चाकू क्यों रखा जाता है? तकनीक रूप से फिल्म बहुत मजबूत है। करण गौर के बैकग्राउंड म्युजिक का उम्दा इस्तेमाल किया गया है। जरूरी नहीं है कि तेज आवाज से ही डर पैदा होता है, पानी टपकने या चीजों के गिरने की आवाज भी भय पैदा करती है। वातावरण में पैदा होने वाली ध्वनियों, जैसे दूर कहीं बजता गाना या दूर के फ्लैट से आती आवाजों से अच्छा माहौल बनाया गया है। जयकृष्णा गुम्माडी की सिनेमेटोग्राफी उम्दा है और फिल्म को गहराई देती है। पूजा लड्ढा सुरती का संपादन तारीफ के योग्य हैं। इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है इसके कलाकारों का अभिनय। राधिका आप्टे ने कमाल का अभिनय किया है। एगोराफोबिया से ग्रस्त लड़की का भय उन्होंने बखूबी दिखाया है। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें खूब बोलती हैं। हर दृश्य में उनका दबदबा नजर आता है। सत्यदीप मिश्रा अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। महक की पड़ोसी के रूप में यशस्विनी का अभिनय भी उम्दा है। साइकोलॉजिकल थ्रिलर '‍फोबिया' देखने के बाद आप महसूस कर सकते हैं कि आपने एक अधपकी कहानी पर आधारित फिल्म देखी है, लेकिन इस बात की तसल्ली होती है कि फिल्म ने आपको रोमांचित किया है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्शन निर्देशक : पवन कृपलानी कलाकार : राधिका आप्टे, सत्यदीप मिश्रा, यशस्विनी, अंकुर विकल सेंसर सर्टिफिकेट : ए ",1 "बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स निर्माता-निर्देशक : प्रकाश झा कलाकार : अजय देवगन, रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेक र, साराह थॉम्पस न यू/ए * 2 घंटे 49 मिनट समाज की तमाम बुराइयों को प्रकाश झा ने तीखे तेवरों के साथ अपनी फिल्मों में प्रस्तुत‍ किया है और अपनी आवाज उठाई है। पिछली कुछ फिल्मों के जरिये उन्होंने अपने काम का स्तर लगातार ऊपर उठाया है, लेकिन ‘राजनीति’ में वे उस स्तर तक पहुँच नहीं पाए हैं। झा को राजनीति में गहरी रुचि है, इसलिए अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होना स्वाभाविक है। उम्मीद थी वे राजनीति के नाम पर होने वाले काले कारनामों को अपने नजरिए से पेश करेंगे, लेकिन यह कुर्सी को लेकर दो परिवारों के बीच हुए विवाद की बनकर कहानी रह गई। कहने का यह मतलब नहीं है कि ‘राजनीति’ बुरी फिल्म है, लेकिन यह झा की पिछली फिल्मों क े स्तर तक नहीं पहुँच पाई है । महाभारत के किरदारों को आधुनिक राजनीति से जोड़कर प्रकाश झा ने ‘राजनीति’ बनाई है। महाभारत में धर्म बनाम अधर्म की लड़ाई थी, लेकिन अब ‘पॉवर’ के लिए लड़ने वाले लोग किसी कानून-कायदे को नहीं मानते हैं। वे इसे हासिल करने के लिए कुछ भी कर-गुजरने को तैयार हैं और जीत से कम उन्हें स्वीकार्य नहीं है। इस बात को झा ने दिखाने की कोशिश की है। लेकिन मूल कहानी पर दो परिवारों का विवाद इतना भारी हो गया है कि मध्यांतर के बाद कहानी गैंगवार की तरह हो गई। क्षेत्रीय पार्टी का अध्यक्ष बीमार होकर पार्टी की बागडोर जब अपने भाई (चेतन पंडित) और उसके बेटे पृथ्वी (अर्जुन रामपाल) को सौंपता है तो यह बात उसके बेटे वीरेन्द्र (मनोज बाजपेयी) को पसंद नहीं आती। वह अपने चचेरे भाई पृथ्वी के खिलाफ आवाज भी उठाता है, लेकिन अकेला पड़ जाता है। दलित और राजनीति में कुछ कर गुजरने की चाह लिए हुए सूरज (अजय देवगन) से वीरेन्द्र की मुलाकात होती है। कुछ मुद्दों को लेकर सूरज की पृथ्‍वी से अनबन है, इस बात का फायदा वीरेन्द्र उठाता है और उसे अपने साथ जोड़ लेता है। कुछ दिनों में चुनाव होने वाले हैं। पृथ्‍वी के पिता को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन उनकी हत्या हो जाती है। विदेश में रहने वाला समर (रणबीर कपूर) अपने भाई की मदद के लिए भारत में ही रूक जाता है। इन दोनों भाइयों को अपने मामा ब्रजगोपाल (नाना पाटेकर) पर बेहद भरोसा है, जो राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं। पृथ्‍वी को वीरेन्द्र षड्‍यंत्र के जरिये पार्टी से निष्काषित करवा देता है, लेकिन पृथ्वी हार नहीं मानता। वह अपने भाई के साथ नई पार्टी बनाकर वीरेन्द्र और सूरज की पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ता है। यह लड़ाई धीरे-धीरे इतनी हिंसक हो जाती है कि दोनों परिवारों को इसका नुकसान उठाना पड़ता है। इस कहानी के साथ-साथ इंदु (कैटरीना कैफ) और समर की प्रेम कहानी भी है, जिसमें समर को इंदु चाहती है, लेकिन समर किसी और की चाहत में गिरफ्त है। कजिन ब्रदर्स के विवाद के जरिये प्रकाश झा ने दिखाने की कोशिश की है कि सत्ता के मद में लोग अंधे हो गए हैं, उनका इतना नैतिक पतन हो गया है कि भाई, भाई की हत्या कर देता है, एक पिता अपनी बेटी के प्यार को अनदेखा कर उस इंसान से उसकी शादी करवा देता है जो मुख्यमंत्री बनने वाला है, एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को ठुकराकर उस लड़की से शादी के लिए तैयार हो जाता है जिसका पिता पार्टी के लिए भारी-भरकम राशि बतौर चंदे के देता है और टिकट पाने के लिए एक महिला किसी के साथ भी हमबिस्तर होने के लिए तैयार है। प्रकाश झा ने महाभारत से प्रेरित कहानी को बेहतरीन तरीके से पेश किया है और फिल्म फिल्म के लंबी होने के बावजूद रुचि बनी रहती है। हर कैरेक्टर पर उन्होंने मेहनत की है। श ुर ुआत में इतने सारे कैरेक्टर्स देख समझने में तकलीफ होती है कि कौन क्या है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति स्पष्ट होती जाती है और उन किरदारों में हमें अर्जुन, कर्ण, युधिष्ठिर, कृष्ण, दुर्योधन, धृतराष्ट्र नजर आने लगते हैं। रियलिस्टिक फिल्म बनाने वाले फिल्मकार प्रकाश झा ने इस बार कमर्शियल पहलूओं पर भी ध्यान दिया है और कुछ सीन इस तरह गढ़े हैं जो मसाला फिल्म देखने वाले दर्शकों को अच्छे लगते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें वास्तविकता से दूर होना पड़े। यह बात उनकी फिल्म पसंद करने वालों को अखर सकती है। अधिकांश कलाकार मँजे हुए हैं और हमें बेहतरीन अभिनय देखने को मिलता है। अजय देवगन की आँखें सुलगती हुई लगती हैं, जो उनके आक्रोश को अभिव्यक्त करती हैं। रणबीर कपूर ने एक कूल और शातिर किरदार को बेहतरीन तरीके से अभिनीत कर अपने अभिनय की रेंज दिखाई है। मनोज बाजपेयी दहाड़ते हुए शेर की तरह लगे हैं जिसे किसी भी कीमत पर वो सब चाहिए जो वह चाहता है। नाना पाटेकर ने उस इंसान को उम्दा तरीके से जिया है जो हँसते हुए खतरनाक चाल चल जाता है। अर्जुन रामपाल की सीमित अभिनय प्रतिभा कुछ दृश्यों में उजागर हो जाती है। कैटरीना भी कई जगह असहज नजर आती हैं। नसीरुद्दीन शाह छोटे-से रोल में प्रभाव छोड़ते हैं। भीगी सी और मोरा पिया गीत सुनने लायक हैं, लेकिन फिल्म में इन्हें ज्यादा जगह नहीं मिल पाई है। ‘राजनीति में मुर्दों को जिंदा रखा जाता है ताकि वक्त आने पर वो बोल सके’ और ‘राजनीति में कोई भी फैसला सही या गलत नहीं होता बल्कि अपने उद्देश्य को सफल बनाने के लिए लिया जाता है’ जैसे कुछ उम्दा संवाद भी सुनने को मिलते हैं। भले ही यह प्रकाश झा की पिछली फिल्मों के मुकाबले कमतर हो, लेकिन देखी जा सकती है। ",1 "डार्क और गालियों से भरपूर फिल्म बनाने वाले निर्देशक अनुराग कश्यप ने इस बार थोड़ा मिजाज बदला है। 'मुक्काबाज' में गालियां सुनने को नहीं मिली और एक प्रेम कहानी भी उनकी फिल्म में दिखाई देती है। मुक्केबाज की बजाय मुक्काबाज नाम क्यों है, यह फिल्म में एक दृश्य के माध्यम से दिखाया गया है। फिल्म की कहानी परिचित सी लगती है। एक खिलाड़ी को किस तरह से राजनीतिक ताकतें रोकती हैं और उत्तर प्रदेश में गुंडागर्दी किस स्तर तक पहुंच गई है ये फिल्मों में कई बार दर्शाया जा चुका है। इस चिर-परिचित कहानी को अलग बनाता है अनुराग कश्यप का प्रस्तुतिकरण। उन्होंने खेल और राजनीति को आपस में गूंथ कर अपनी नजर से कहानी को दिखाया है। यह कहना मुश्किल है कि प्रेम कथा की पृष्ठभूमि में बॉक्सिंग और राजनीति है या राजनीति और बॉक्सिंग की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानी। इसे अनुराग का कमाल भी मान सकते हैं कि उन्होंने बढ़िया संतुलन बनाए रखा। श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) बॉक्सर के रूप में नाम कमाना चाहता है और इसके लिए वह भ्रष्ट नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) की सेवा में जुटा रहता है क्योंकि बॉक्सिंग फेडरेशन में भगवान की तूती बोलती है। भगवान की भतीजी सुनयना (ज़ोया हुसैन) को श्रवण चाहने लगता है। सुनयना भी उसे पसंद करती है। भगवान दास के व्यवहार के कारण श्रवण उससे पंगा ले लेता है तो भगवान दास भी कसम खा लेता है कि खिलाड़ी के रूप में वह श्रवण का करियर बरबाद कर देगा। जब भगवान दास को सुनयना और श्रवण की मोहब्बत के बारे में पता चलता है तो उसका गुस्सा और बढ़ जाता है। इसके बाद श्रवण और सुनयना का जीना भगवान दास मुश्किल कर देता है। इस कहानी में कई मुद्दों को समेटा गया है। जातिवाद, खेलों में राजनीति, गुंडागर्दी, गौ-रक्षा के नाम पर हत्याएं, गौ-मांस को लेकर राजनीति, खेल में बाहुबलियों का प्रवेश, नौकरी में खिलाड़ियों की स्थिति जैसी बातों को फिल्म में जोरदार तरीके से दिखाया गया है। श्रवण जितना बॉक्सिंग के रिंग में लड़ता है उससे ज्यादा लड़ाई उसे रिंग से बाहर लड़ना पड़ती है। एक साथ दो मोर्चों पर लड़ते हुए उसके दर्द और झल्लाहट को निर्देशक ने इस तरह से पेश किया है कि दर्शक इसको महसूस कर सकते हैं। इसके साथ ही यह भी दिखाया गया है कि लाख कोशिशों के बावजूद भी जातिवाद की ज़हरीली लहर अभी भी चल रही है। दलित को अभी भी अलग जग या गिलास में पानी पिलाया जाता है। नाम से ज्यादा सरनेम को महत्व मिलता है। गाय के नाम पर खूब राजनीति चल रही है। फिल्म की नायिका को गूंगा दिखाया गया है जो उस इलाके की महिलाओं की स्थिति को बयां करती है। महिलाओं को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है। ये सारी बातें कई छोटे-छोटे दृश्यों के जरिये दिखाई गई है। इंटरवल तक तो फिल्म फर्राटे से चलती है और परदे पर चल रहा घटनाक्रम आपको बैचेन करता है। कुछ बेहतरीन सीन भी देखने को मिलते हैं, जैसे श्रवण और उसके पिता की नोकझोंक। एक आम पिता की तरह वे परेशान रहते हैं कि बेटे की नौकरी लगे और श्रवण की झटपटाहट कि वह कोशिश तो कर रहा है। अपने पिता को वह खूब सुनाता है। इंटरवल के बाद कई जगह महसूस होता है कि फिल्म को लंबा खींचा जा रहा है। 'मुक्काबाज' एक रूटीन फिल्म की तरह कई जगह हो जाती है। आसानी से फिल्म को 20 मिनट छोटा किया जा सकता था। अनुराग कश्यप अपने निर्देशन से प्रभावित करते हैं। एक साधारण सी कहानी को उन्होंने अपने निर्देशन के जरिये शानदार तरीके से पेश किया है। कई मुद्दों पर उन्होंने पंच लगाए हैं, कुछ हवा में गए हैं तो कुछ चेहरे पर जोरदार तरीके से लगे हैं। रियल लोकेशन पर उन्होंने फिल्म को शूट किया है जो फिल्म को ताकत देता है। अनुराग ने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय लिया और कई दृश्यों को आक्रामकता के साथ पेश किया है। 'आइटम बॉय' के प्रति उनका आकर्षण कायम है और नवाजुद्दीन सिद्दीकी से एक गाना उन्होंने कराया है। गानों का फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है। श्रवण और सुनयना की प्रेम कहानी को भी उन्होंने बखूबी दर्शाया है। सेकंड हाफ में जरूर उनके हाथों से फिल्म कई बार फिसली है और इसकी वजह से ठहरी हुई सी महसूस होती है। विनीत सिंह ने तो ऐसे अभिनय किया मानो इसी रोल के लिए वे पैदा हुए हों। बॉक्सर जैसी फिजिक उन्होंने बनाई है और उनके बॉक्सिंग वाले सारे दृश्य असली लगते हैं। उनके अभिनय की त्रीवता देखने लायक है। उनके अंदर धधकती आग की आंच महसूस होती है। ज़ोया हुसैन का किरदार गूंगा है, लेकिन वे अपनी आंखों और चेहरे के एक्सप्रेशंस के जरिये कई बातें बोल जाती हैं। जिमी शेरगिल अब इस तरह के रोल में टाइप्ड हो गए हैं। हालांकि उनका अभिनय देखने लायक है। रवि किशन छोटे-से रोल में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनका रोल लंबा होता, ऐसा महसूस होता है। अन्य सारे सपोर्टिंग एक्टर्स का योगदान भी तारीफ के काबिल है। रचिता अरोरा का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। उनके गानों से फिल्म आगे बढ़ती है और सारे गाने सिचुएशनल हैं। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, फैंटम फिल्म्स, कलर येलो प्रोडक्शन्स निर्माता : आनंद एल. राय, अनुराग कश्यप, मधु मंटेना, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : रचिता अरोरा कलाकार : विनीत कुमार सिंह, ज़ोया हुसैन, जिमी शेरगिल, रवि किशन, साधना सिंह, नवाजुद्दीन सिद्दीकी (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 35 मिनट 28 सेकंड ",1 " इन दो सीक्वेंसेस को देखने के बाद आप महूसस कर लेते हैं कि अगले कुछ घंटे टार्चर होने वाला है और आपकी इस 'उम्मीद' को निर्देशक उमंग कुमार बिलकुल भी नहीं तोड़ते। उमंग कुमार ने 'मैरी कॉम' जैसी बेहतरीन फिल्म बनाई थी, लेकिन 'भूमि' जैसी सी-ग्रेड फिल्म देखने के बाद लगता है कि कहीं 'मैरीकॉम' पर उनका नाम तो चस्पा नहीं कर दिया था। भूमि एक रिवेंज ड्रामा है। बेटी से बलात्कार होता है। बाप कानून की शरण में जाता है, लेकिन अपराधी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। फिर बाप-बेटी कानून अपने हाथ में लेकर बलात्कारियों को सबक सिखाते हैं। कुछ महीने पहले इसी तरह की कहानी 'काबिल' में देखने को मिली थी, जो लचर फिल्म थी, लेकिन 'भूमि' तो इस मामले में और आगे (या पीछे?) निकल गई। जूते-चप्पल बेचने की दुकान वाला अरुण सचदेवा (संजय दत्त) अपनी बेटी भूमि (अदिति राव हैदरी) के साथ रहता है। भूमि को एक लड़का चाहता है, लेकिन वह उसे पसंद नहीं करती। भूमि की शादी एक डॉक्टर से तय हो जाती है। शादी के ठीक एक दिन पहले वह लड़का अपने दो अन्य साथियों के साथ भूमि का बलात्कार करता है। इस कारण भूमि की शादी टूट जाती है। भूमि को वे जान से मारने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन भूमि बच जाती है। अदालत में भूमि हार जाती है और इसके बाद बदले की अपनी कहानी शुरू होती है। इस तरह की कहानी पर तीस-चालीस साल पहले फिल्म बना करती थी और इस घटिया कहानी पर आज के दौर में फिल्म बनाना 'साहस' का काम है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है, गेम खेला जाए तो हर बार आप जीतेंगे। स्क्रीनप्ले में भी खामियां हैं। भूमि शादी के ठीक एक दिन पहले कुछ घंटों के लिए गायब हो जाती है, लेकिन उसकी कोई खोज खबर नहीं ली जाती। पहली बार उसके साथ नशे की हालत में बलात्कार किया जाता है और ये दरिंदे कौन है उसे याद नहीं रहते, लेकिन विलेन इतने मूर्ख कि उसके सामने दोबारा आ जाते हैं कि ले हमको पहचान ले। जिन्होंने ये सोच कर संजय दत्त के नाम पर टिकट खरीद ली कि 'बाबा' खूब मारामारी करेगा, वे भी निराश होते हैं। फिल्म के 80 प्रतिशत हिस्से में संजय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। फिर आखिरी में अपराधियों को सबक सिखाते हैं और वे यह सब आसानी से कर लेते हैं। अचानक दादागिरी दिखाने वाले दरिंदे संजू बाबा को देख थर-थर कांपने लगते हैं। कहने की बात यह है कि सब कुछ लेखक की मर्जी से चलता है। निर्देशक के रूप में उमंग कुमार बिलकुल प्रभावित नहीं करते। उनका सारा ध्यान सिर्फ इस बात पर रहा कि सीन कैसे खूबसूरत लगे, भले ही लॉजिक हो या न हो। मसलन भूमि को झाड़ियों में टार्च लेकर लोग खोजते हैं। परदे पर सीन अच्छा लगता है, लेकिन एक जैसी टॉर्च लेकर सब आसपास ढूंढते रहते हैं कि उनकी समझ पर तरस आता है। भूमि को याद करते हुए उसके पिता घर में जमीन पर रोते हैं। उनके आसपास सूखी पत्तियां दिखती हैं। निर्देशक ने यह सूखी पत्तियों को पिता की हालत से जोड़ने की कोशिश की है, लेकिन सूखी पत्तियां आई कहां से? इसका कोई जवाब नहीं है। फिल्म कई बार पिछड़ी मानसिकता को दिखाती है, खासतौर महिलाओं के बारे में। इस तरह के संवाद और दृश्यों से बचना चाहिए था। 'लड़कियों के पिता तो गूंगे होते हैं' जैसे संवादों से आखिर क्या साबित करने की कोशिश की गई है। संजय दत्त ने अपनी वापसी के लिए इस फिल्म को चुना है, जो दर्शाता है कि उन्होंने कभी सोच समझ कर फैसले नहीं किए हैं। वे थके हुए लगे। फिल्म में एक जगह उन्हें कसरत करते दिखाया गया है, ताकि अंत में उनकी फाइटिंग को जस्टिफाई किया जा सके, लेकिन बात नहीं बन पाई। इमोशनल और कॉमेडी संजय कभी नहीं कर पाए और यहां भी उनकी यही कमी बरकरार रही। अदिति राव हैदरी का काम ठीक-ठाक रहा, लेकिन उनके किरदार को ठीक से उभरने नहीं दिया। शरद केलकर सब पर भारी रहे और खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। शेखर सुमन निराश करते हैं। संगीत के मामले में भी फिल्म कमजोर है। कुल मिलाकर 'भूमि' देखना समय और पैसे की बरबादी है। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., लीजैण्ड स्टुडियोज़ निर्माता : भूषण कुमार, संदीप सिंह, कृष्ण कुमार निर्देशक : उमंग कुमार संगीत : सचिन जिगर कलाकार : संजय दत्त, अदिति राव हैदरी, शेखर सुमन, शरद केलकर, सनी लियोन (आइटम नंबर) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 39 सेकंड ",0 "बैनर : सारेगामा-एचएमवी निर्माता : मधु मंटेना निर्देशक : अब्बास टायरवाला संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : जॉन अब्राहम, पाख ी, मानस ी स्कॉ ट, रघ ु रा म, जॉर् ज यं ग, आ र माधव न, नंदन ा सेन यू/ए सर्टिफिकेट * 17 रील * 2 घंटे 29 मिनट ‘झूठा ही सही’ का सबसे बड़ा माइनस पाइंट इसकी हीरोइन पाखी है। जब आप कमर्शियल फार्मेट को ध्यान में रखकर लव स्टोरी बना रहे हैं तो हीरोइन का सुंदर होना जरूरी होता है। नि:संदेह पाखी ने अच्‍छी एक्टिंग की है, लेकिन उनमें हीरोइन मटेरियल नहीं है। वे हीरोइन की परिभाषा पर खरी नहीं उतरती और उम्र भी उनकी कहीं ज्यादा है। पाखी के पति अब्बास टायरवाला भी कम दोषी नहीं हैं। एक तो उन्होंने पाखी को हीरोइन बनाया और दूसरा ये कि कहानी को इतना ज्यादा खींचा गया कि फिल्म देखते-देखते ऊब होने लगती है और थकान चढ़ने लगती है। इस फिल्म को कम से कम एक घंटा कम किया जा सकता है क्योंकि कई दृश्य लगातार दोहराए गए हैं। सिद्धार्थ (जॉन अब्राहम) की ‘कागज के फूल’ नाम से लंदन में एक बुक शॉप है। स्मार्ट सी लड़की से बात करते हुए वह हकलाने लगता है (बड़ी अजीब प्राब्लम है)। एक रात सुसाइड हेल्पलाइन के फोन गलती से सिड के फोन पर आने लगते हैं, जिसमें मिष्का (पाखी) का फोन भी रहता है। मिष्का को उसके प्रेमी कबीर (माधवन) ने धोखा दे दिया है और वह आत्महत्या करने की सोच रही है। सिड उसे समझाता है और बातों ही बातों में अपने बारे में कई झूठ बोल देता है। मिष्का को उससे बात करना अच्छा लगता है और वह उसे फिदातो कहकर बुलाती है। इसी बीच सिड की मुलाकात मिष्का से होती है और वह उसे चाहने लगता है। मिष्का भी उसे पसंद करती है और उसके बारे में हेल्पलाइन पर फिदातो से बातें भी करती है। उसे नहीं पता रहता कि फिदातो और सिड वास्तव में एक ही इंसान है। किस तरह सिड का राज खुलता है और मिष्का पर क्या गुजरती है, यह फिल्म का सार है। इस कहानी के साइड में दूसरे ट्रेक्स भी हैं, कुछ मजेदार हैं तो कुछ बोर। सिड के दोस्तों वाला ट्रेक मनोरंजक है। ऐसा लगता है कि अब्बास टायरवाला ने अपनी पिछली फिल्म ‘जाने तू...या जाने ना’ के किरदारों को यहाँ भी फिट कर दिया है। मस्तमौला किस्म के इंसान। खाना-पीना और मौज करना। धर्म, जात-पात जैसी बातों से दूर। लिबास के साथ-साथ विचारों में भी आधुनिक। सिड का एक दोस्त पाकिस्तानी है और हिंदुस्तान-पाकिस्तान को लेकर कुछ मनोरंजक संवाद हैं। इसी तरह उनके दोस्तों में ‘गे’ भी शामिल हैं, जिसे वे बिलकुल भी हिकारत की नजर से नहीं देखते हैं। दोस्तों के बीच के कुछ दृश्य और संवाद बेहतरीन बन पड़े हैं। निर्देशक अब्बास टायरवाला का प्रस्तुतिकरण बहुत ज्यादा बनावटी और नकली है। इससे किरदार और दर्शकों में कोई तारतम्य स्थापित नहीं होता। दर्शकों को हँसाने की कोशिश साफ नजर आती है। फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी पकड़ आती है, लेकिन क्लाइमैक्स में फिर कमजोर हो जाती है। सिड को मिष्का ब्रिज तक पहुँचने के लिए सिर्फ दस मिनट ही क्यों देती है? शायद जबरदस्ती की भागमभाग दिखाने के लिए यह ड्रामा किया गया। अभिनय के लिहाज से ये जॉन अब्राहम का सबसे बेहतरीन परफॉर्मेंस है। पहली बार बजाय अपने डील-डौल के उन्होंने अभिनय से प्रभावित किया है, हालाँकि हकलाते हुए उन्होंने कई बार ओवरएक्टिंग भी की है। सिड के दोस्तों के रूप में मानसी स्कॉट और रघु राम का अभिनय बेहतरीन है। माधवन का किरदार बहुत ही घटिया तरीके से लिखा गया है और वे बिलकुल भी नहीं जमे। नंदना सेन भी छोटे-से रोल में नजर आईं। संगीतकार के रूप में एआर रहमान निराश करते हैं। गीत के बोल अच्छे हैं, लेकिन ‘क्राय क्राय’ को छोड़ दिया जाए तो अन्य गीतों की धुनें औसत दर्जे की है। बैकग्राउंड म्यूजिक जरूर उम्दा है। लंदन में इस फिल्म को खूबसूरती से फिल्माया गया है। कुल मिलाकर ‘झूठा ही सही’ लंबी और उबाऊ फिल्म है। ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में रेमो डिसूजा की पहचान बतौर कोरियॉग्राफ़र लंबे अर्से से बनी हुई है। रेमो इंडस्ट्री के बेहतरीन चंद उन कोरियॉग्राफ़र्स की लिस्ट में शामिल हैं, जिन्होंने ग्लैमर इंडस्ट्री के नामी स्टार्स को अपने इशारों पर नचाया है, वहीं अगर रेमो के निर्देशन में बनी उनकी पहली फिल्म 'फालतू' की बात की जाए तो अरशद वारसी, जैकी भगनानी स्टारर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर बेशक कुछ खास कमाल नहीं किया। वहीं, रेमो की पिछली दोनों फिल्में 'एबीसीडी' और इस फिल्म के सीक्वल जरूर टिकट खिड़की पर हिट रहे। इस फिल्म में रेमो ने एक सुपरहीरो को सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया। फिल्म की रिलीज से पहले रेमो ने माना था कि बॉलिवुड में सुपरहीरो पर फिल्म बनाने से हर कोई कतराता है, क्योंकि ऐसी फिल्म की तुलना दर्शक, क्रिटिक्स और ट्रेड वाले हॉलिवुड फिल्मों के साथ करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि हॉलिवुड में बनी सुपरहीरो वाली फिल्मों के मुकाबले हमारी फिल्मों का बजट 10-20 फीसदी से भी कम होता है, लेकिन मैंने इसके बावजूद सुपरहीरो के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म को बनाने का फैसला किया। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं जो बच्चों की पसंद को ध्यान में रखकर फिल्म में रखे गए। शायद यही चंद सीन ही बॉक्स ऑफिस पर फिल्म का सबसे बडा प्लस पॉइंट साबित हो सकते हैं। NBT को और बेहतर बनाने के लिए सर्वे में हिस्सा लें, यहां क्लिक करें। कहानी: पंजाब के किसी शहर के बीचोबीच बसी करतार सिंह कॉलोनी ऐसी कॉलोनी है जो शहरों में तेजी से फैल रहे वायु प्रदूषण से कोसो दूर हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बसी है। इसी कॉलोनी में अमन (टाइगर श्रॉफ) अपनी मां बेबो (अमृता सिंह) के साथ रहता है। इस कॉलोनी को अमन के पिता ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर बसाया था। अमन की मां बेहद बिंदास और ऐसी महिला हैं जो अपनी दुनिया में मस्त रहती है। अमन को उसकी मां अक्सर उसके पिता की बहादुरी और उसके शौर्य के किस्से सुनाती रहती है, लेकिन अमन अपने पिता जैसा बहादुर नहीं, अमन तो कॉलोनी से कुछ दूर बसे एक स्कूल में मार्शल आर्ट टीचर है जो इस स्कूल के बच्चों को जूडो-कराटे सिखाता है। अमन की मां अपने पति के नाम पर बसी कॉलोनी की जमीन की मालकिन है। कीर्ति (जैकलीन) से मिलने के बाद अमन उसे चाहने लगता है। कहानी में टिवस्ट् उस वक्त आता है जब शहर का नामी बिज़नसमैन मल्होत्रा (के.के. मेनन) अपने एक प्रॉजेक्ट को पूरा करने के लिए कॉलोनी की जमीन को किसी भी प्राइस में खरीदने के लिए अमन की मां से अपनी पूरी टीम को लेकर मिलने करतार सिंह कॉलोनी आता है। इसी कॉलोनी में एक पुराना पेड़ है, जिसकी धार्मिक मान्यता भी है। कॉलोनी निवासी इस पेड़ की पूजा करते है, अमन की मां किसी भी सूरत में इस जमीन को बेचने को राजी नहीं होती। मल्होत्रा किसी भी तरह से इस जमीन को हासिल करना चाहता है। मल्होत्रा को जब लगता है वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाएगा तो वह राका (नेथन जोन्स) को अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए बुलाकर इस कॉलोनी को तबाह करने के लिए कुछ भी करने को कहता है। अब एंट्री होती है फ्लाइंग जट्ट की जो अपनी बेपनाह शक्तियों के दम पर राका से टकराता है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies ऐक्टिंग : हीरोपंती, बागी के बाद एकबार फिर टाइगर श्रॉफ ने साबित किया कि बॉक्स आफिस पर दर्शकों की भीड़ बटोरने की कला उनमें है। अगर ऐक्शन सीन की बात की जाए तो इस फिल्म में टाइगर सुपरहीरो बने हैं सो इस बार उन्होंने कुछ अलग ही किस्म के ऐक्शन, स्टंट सीन्स किए हैं। सुपरहीरो के लुक में टाइगर खूब जमे हैं। तारीफ करनी होगी नेथन जोन्स की, जिन्होंने गजब ऐक्शन सीन के अलावा अच्छी ऐक्टिंग भी की। फिल्म में नेथन का पहला सीन जैसलेमर के रेगिस्तान में करीब दस दिनों में शूट किया गया। इस सीन में नेथन रेत से बाहर आते नजर आते हैं, यकीनन इस सीन के लिए नेथन ने शूट से पहले जमकर होमवर्क किया। इतना ही नहीं अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए नेथन ने हिंदी के कुछ शब्द खास तौर से सीखें। के. के. मेनन एकबार अपने पुराने लुक में नजर आए। इस फिल्म में मेनन का लुक और उनका किरदार 'सिंह इज़ ब्लिंग' में उनके किरदार से मिलता नजर आता है। अन्य कलाकारों में जैकलीन ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया तो लंबे अर्से बाद बिग स्क्रीन पर अमृता सिंह बिंदास सरदारनी बेबो के किरदार में खूब जमी हैं। डायरेक्शन : डायरेक्टर रेमो डिसूजा ने एक सिंपल सी ऐसी कहानी पर जिस पर इससे पहले कई फिल्में बन चुकी है, उसी कहानी में सुपरहीरो का तड़का लगाकर ऐसे ढंग से पेश किया है जो आपको पसंद आएगा। अगर रेमो स्क्रिप्ट पर ज्यादा काम करते तो फिल्म की स्पीड लास्ट तक दर्शकों को बांध पाती, लेकिन करीब ढाई घंटे की यह फिल्म कई बार आपके सब्र की परीक्षा लेती है। स्क्रीनप्ले और भी बेहतर किया जा सकता था। कहानी ऐसी है जिसे आप पहले से ही समझ जाते हैं तो कोई सरप्राइज एलिमेंट नहीं रह जाता है। हां, रेमो ने इस कहानी के साथ कुछ अच्छे सोशल मेसेज भी देने की पहल की है जो बच्चों के साथ आपको भी पंसद आएंगे। रेमो की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कई ऐक्शन सीन को हॉलिवुड जैसा लुक देने की अच्छी कोशिश की है। अगर रेमो फिल्म के कुछ बेफिजूल सीन पर कैंची चलाते तो और मजा आता। संगीत : 'चल चलिए' गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है, लेकिन फिल्म के कई गाने कहानी का हिस्सा न होकर ठूंसे हुए लगते हैं। यही वजह है गानों की वजह से फिल्म की स्पीड कमजोर हो जाती है। क्यों देखें : ऑस्ट्रेलियन ऐक्टर नेथन जोन्स के बेहतरीन स्टंट ऐक्शन सीन्स, टाइगर श्रॉफ का बदला लुक और ऐसे सुपरहीरो की एंट्री जो बच्चों को यकीनन पसंद आएगी। अगर इस वीकेंड को बच्चों के नाम करना चाहते है तो उन्हें इस सुपरहीरो से मिला सकते है। ",1 "डेडपूल वयस्कों का सुपरहीरो है क्योंकि ये अन्य सुपरहीरो से काफी अलग है जो कि बच्चों का मनोरंजन करते हैं। डेडपूल दूसरे सुपरहीरोज़ का मजाक उड़ाता है। वह बदसूरत है। गालियां बकता है। फ्लर्टिंग करता है। उसे चोट भी लगती है। यहीं बातें उसे दूसरे सुपरहीरोज़ से जुदा बनाती है। सुपरहीरोज़ बोर भी करने लगे थे। उनकी कहानियां एक-सी होने लगी थी और इनके बीच डेडपूल ने थोड़ी ताजगी प्रदान की। डेडपूल को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया और इसका दूसरा भाग 'डेडपूल 2' नाम से आया है। हालांकि इसे एक्समैन सीरिज़ की 11वीं फिल्म भी कहा जाता है क्योंकि डेडपूल भी एक ट्रेनी एक्समैन है। फिल्म की कहानी बहुत दमदार नही हैं, लेकिन इसे देखने लायक बनाते हैं इसके किरदार। कहानी पर किरदार भारी पड़ते हैं क्योंकि हर किरदार मजेदार है जो लगातार मनोरंजन करता है। डेडपूल 2 खुद को गंभीरता से नहीं लेता, हर बात मजाक में उड़ाता है, खुद पर भी हंसता है, इसलिए दर्शक भी हर बात को गंभीरता से नहीं लेते हैं और परदे पर दिखाए जा रहे हर घटनाक्रम को मजा लेते हैं। यही फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है। निर्देशक डेविड लीच इस बात की आड़ में कई ऐसे प्रसंग डाल देते हैं जिन पर विश्वास करना कठिन है। हमारी दक्षिण भारतीय फिल्मों को भी वे पीछे छोड़ देते हैं। मसलन पांच फीट की दूरी से डेडपूल पर दनादन गोलियां दागी जाती हैं, लेकिन वह तलवार से हर गोली को नाकाम कर देता है। पर इसे पेश करने का तरीका इतना जोरदार है कि आप सब बातें भूल कर मजा लेने लगते हैं। एक्शन फिल्म का प्लस पाइंट है। लगातार एक्शन सीन बीच-बीच में आकर फिल्म का स्तर ऊंचा उठाते रहते हैं। एक बड़े से ट्रक से बच्चे को छुड़ाने वाला सीक्वेंस जबरदस्त है। डेडपूल का अपनी टीम बनाने वाला सीन, पैराशूट से कूद कर आधी टीम के खत्म होने वाले सीन भी बेहद मनोरंजक हैं। डेविड लीच ने सिर्फ इस बात का ध्यान रखा है कि दर्शकों का लगातार मनोरंजन होता रहे और इसमें वे सफल रहे हैं। डेडपूल 2 का सबसे मजबूत पक्ष इसके डायलॉग्स हैं। जिसने भी इसके हिंदी संवाद लिखे हैं उसने फिल्म को भारतीय रंग में रंग दिया है। फिल्म का टोन बदलकर इसे मजेदार बना दिया है। डायलॉग खूब हंसाते हैं। कुछ डायलॉग तो कादर खान की याद दिला देते हैं। कुछ सीमा के पार निकल जाते हैं। हिंदी वर्जन में रणवीर सिंह ने डेडपूल को अपनी आवाज दी है और उनका काम किसी हीरो से कम नहीं है। फिल्म के सारे कलाकारों का अभिनय जोरदार है। रयान रेनॉल्ड्स ने डेडपूल के किरदार को शानदार तरीके से जिया है। जोश ब्रोलिन ने केबल का किरदार निभाकर फिल्म को शक्तिशाली किया है। मोरेना बैक्करीन ने वनेसा के रोल के जरिये फिल्म को नजाकत दी है। करण सोनी, जूलियन डेनिसन सहित अन्य कलाकार भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। कई बार 'बी-ग्रेड' मूवीज़ स्तरहीन होकर भी मनोरंजन कर जाती हैं और यही मजा डेडपूल 2 देती है। निर्माता : साइमन किनबर्ग, रयान रेनॉल्ड्स, लॉरेन श्लेर डोनर निर्देशक : डेविड लीच संगीत : टाइलर बेट्स कलाकार : रयान रेनॉल्ड्स, जोश ब्रोलिन, मोरेना बैक्करीन, जूलियन डेनिसन, करण सोनी सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 37 सेकंड ",1 "निर्देशक : मार्क वेब कलाकार : एंड्रयू गारफील्ड, एमा स्टोन, रे इफांस, सैली फील्ड, इरफान खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट स्पाइडरमैन सीरिज की अगली फिल्म ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ में इस बार न तो स्पाइडरमैन के रूप में टॉबी मैग्वायर हैं और न ही निर्देशन सैम रैमी ने किया है। नई टीम ने इस बार स्पाइडरमैन सीरिज को आगे बढ़ाया है और यह फर्क फिल्म देखने पर पता चलता है। मार्क वेब ने स्पाइडरमैन को अपने विज़न से दिखाया है और इस सुपर हीरो को निभाने की जवाबदारी एंड्रयू गारफील्ड के युवा कंधों पर है। फिल्म के रिलीज होने के पहले सवाल खड़े किए गए थे कि क्या एंड्रयू स्पाइडरमैन के रूप में जंचेंगे? क्या दर्शक उन्हें स्पाइडरमैन के रूप में पसंद करेंगे? दोनों प्रश्नों के जवाब सकारात्मक है। टीनएज स्पाइडरमैन को एंड्रयू ने बखूबी स्क्रीन पर पेश किया है और मार्क वेब का यह स्पाइडरमैन सुपरहीरो की बजाय आम आदमी के ज्यादा निकट है। वह लड़खड़ाता है, गिरता है, दु:खी होता है, लेकिन अंत में उसी की जीत होती है क्योंकि सुपरहीरो कभी हार ही नहीं सकता। द अमेजिंग स्पाइडरमैन की कहानी तीन ट्रेक पर चलती है, जिसमें एक्शन, रोमांस और रोमांच है। पीटर पार्कर (एंड्रयू गारफील्ड) जब छोटा था तब उसके माता-पिता रहस्यमय परिस्थितियों में उसे अंकल के पास छोड़ गए थे। उसके बाद वे कभी नहीं लौटे। टीनएजर पीटर के हाथ अपने पिता का पुराना ब्रीफकेस लगता है, जिसमें कुछ फॉर्मूले लिखे हुए हैं। वह अपने पिता और उनकी खोज के बारे में जानने के लिए उत्सुक होता है और डॉ. कर्ट कॉनर्स (रे इफांस) से मुलाकात करता है जो उसके पिता के साथ काम करते थे। कॉनर्स दो प्रजातियों के जीन को आपस में मिलाने का प्रयोग कर रहे हैं और इसमें पीटर उनकी मदद करता है। यह ट्रेक काफी रोमांचकारी है। पीटर और ग्वेन (एम्मा स्टोन) की प्रेम कहानी को निर्देशक मार्क वेब ने शानदार तरीके से फिल्माया है और रियल लाइफ लवर्स की कैमिस्ट्री भी खूब जमी है। ग्वेन के पिता को न्यूयॉर्क सिटी पुलिस डिपार्टमेंट का कैप्टन बताया जो स्पाइडरमैन को पकड़ना चाहता है, जिससे इस ट्रेक में थोडा कॉमेडी का भी टच आ गया है। इस लव-स्टोरी का अंत सुखद करने से सिनेमाहॉल छोड़ते समय दर्शकों के चेहरे खिल जाते हैं। स्पाइडरमैन के कारनामे भी देखने को मिले हैं जब पीटर पार्कर असहाय लोगों की जान बचाता है और ताकतवर छिपकली बन गए कॉनर्स से भी लोगों और शहर को बचाता है जो सभी को तबाह करने पर तुला हुआ है। इस ट्रेक में जबरदस्त स्पेशल इफेक्टस हैं जो थ्री-डी फॉर्मेट में फिल्म देखने वालों को ज्यादा रोमांचित करेंगे। कॉनर्स और पीटर की फाइटिंग सीन उन लोगों की तमन्ना पूरी करते हैं जो सुपरहीरो को हीरोगिरी करते देखना चाहते हैं। फिल्म का कुछ हिस्सा इस सीरिज की पुरानी फिल्मों की याद ताजा करता है। हालांकि पिछले भागों से इसका कोई खास लेना-देना नहीं है। एक बार फिर दिखाया गया है कि मकड़ी के काटने से पीटर स्पाइडरमैन बनता है। मार्क वेब द्वारा निर्देशित ‘द अमेजिंग स्पाडडरमैन’ की शुरुआत काफी धीमी है और शुरुआती हिस्से को टाइट एडिटिंग के जरिये छोटा किया जा सकता है क्योंकि फिल्म की लंबाई कुछ ज्यादा है। अंकल-आंटी और पीटर के रिश्ते पर मार्क ने कुछ ज्यादा ही फुटेज खर्च किए हैं। ग्वेन और पीटर की लव स्टोरी वाला ट्रेक आने के बाद फिल्म में उठाव आता है और जब पीटर स्पाइडरमैन की ड्रेस में आता है तो फिल्म का स्तर और उठ जाता है। हालांकि इरफान खान वाला और अपने अंकल के हत्यारे को पीटर द्वारा ढूंढने वाली बात अधूरी ही रह जाती है। डॉक्टर कॉनर्स के अचानक विलेन बन जाने का भी कोई ठोस कारण नहीं दिया गया है। पीटर पार्कर की झुंझलाहट, शर्मीलेपन और ईमानदारी को एंड्रयू गारफील्ड ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। स्पाडडरमैन को टीनएजर बताया गया है जिससे युवाओं के बीच वे औ र लोकप्रिय हो सकते हैं और ‍उन्हें आगे भी इस सीरिज को करने का अवसर मिलेगा। एमा स्टोन, रे इफांस, डेनिस लेरी, सेली फील्ड सहित सारे कलाकारों का अभिनय उम्दा है। इरफान खान का रोल बहुत छोटा है और वे पहले ही ये बता चुके हैं कि अपने बेटों के लिए उन्होंने स्पाइडरमैन सीरिज से जुड़ना पसंद किया। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सिनेमाटोग्राफी खासतौर पर उल्लेखनीय है। सुपरहीरो को पसंद करने वालों की अपेक्षाओं पर ‘द अमेजिंग स्पाडडरमैन’ खरी उतरती है। ",1 "बैनर : यूटीवी स्पॉट बॉय निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : राजकुमार गुप्ता संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : रानी मुखर्जी, विद्या बालन सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट * 16 रील आम इंसान को इंसाफ नहीं मिलने की कहानी पर बॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन ‘नो वन किल्ड जेसिका’ इसलिए प्रभावित करती है कि यह एक सत्य घटना पर आधारित है। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ उन फिल्मों से इसलिए भी अलग है क्योंकि इसमें कोई ऐसा हीरो नहीं है जो कानून हाथ में लेकर अपराधियों को सबक सीखा सके। यहाँ जेसिका के लिए एक टीवी चैनल की पत्रकार देशवासियों को अपने साथ करती है और अपराधी को सजा दिलवाती है। जेसिका को सिर्फ इसलिए गोली मार दी गई थी क्योंकि उसने समय खत्म होने के बाद ड्रिंक सर्व करने से मना कर दिया था। हत्यारे पर शराब के नशे से ज्यादा नशा इस बात का था कि वह मंत्री का बेटा है। उसके लिए जान की कीमत एक ड्रिंक से कम थी। से ज्यादा हाई प्रोफाइल लोग उस समय मौजूद थे जब जेसिका को गोली मारी गई, लेकिन किसी ने जेसिका के पक्ष में गवाही नहीं दी। दूसरी ओर मंत्री होने का फायदा उठाया गया। गवाहों को खरीद लिया गया या धमका दिया। रिपोर्ट्स बदल दी गई। जेसिका की बहन सबरीना करोड़ों भारतीयों की तरह एक आम इनसान होने के कारण लाख कोशिशों के बावजूद अपनी बहन को न्याय नहीं दिला पाई। टीवी चैनल पर काम करने वाली मीरा को धक्का पहुँचता है कि जेसिका का हत्यारा बेगुनाह साबित हो गया। वह मामले को अपने हाथ में लेती है। गवाहों के स्टिंग ऑपरेशन करती है और जनता के बीच इस मामले को ले जाती है। चारों तरफ से दबाव बनता है और आखिरकार हत्यारे को उम्रकैद की सजा मिलती है। फिल्म यह दर्शाती है कि यदि मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभाए तो कई लोगों के लिए यह मददगार साबित हो सकता है। साथ ही लोग कोर्ट, पुलिस, प्रशासन से इतने भयभीत हैं कि वे चाहकर पचड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं। इसके लिए बहुत सारा समय देना पड़ता है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। फिल्म सिस्टम पर भी सवाल उठाती जिसमें ताकतवर आदमी सब कुछ अपने पक्ष में कर लेता है। राजकुमार गुप्ता ने फिल्म का निर्देशन किया है और आधी हकीकत आधा फसाना के आधार पर स्क्रीनप्ले भी लिखा है। उन्होंने कई नाम बदल दिए हैं। एक वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म को उन्होंने डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है, बल्कि एक थ्रिलर की तरह इस घटना को पेश किया है। लेकिन कहीं-कहीं फिल्म वास्तविकता से दूर होने लगती है। इंटरवल के पहले फिल्म तेजी से भागती है, लेकिन दूसरे हिस्स में संपादन की सख्त जरूरत है। ‘रंग दे बसंती’ से प्रेरित इंडिया गेट पर मोमबत्ती वाले दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं। कुछ गानों को भी कम किया जा सकता है जो फिल्म की स्पीड में ब्रेकर का काम करते हैं। सारे कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के कारण भी फिल्म अच्छी लगती है। रानी मुखर्जी के किरदार को हीरो बनाने के चक्कर में यह थोड़ा लाउड हो गया है। फिर भी होंठों पर सिगरेट और गालियाँ बकती हुई एक बिंदास लड़की का चरित्र रानी ने बेहतरीन तरीके से निभाया है। रानी का कैरेक्टर मुखर है तो विद्या बालन का खामोश। विद्या ने सबरीना के किरदार को विश्वसनीय तरीके से निभाया है। उन्होंने कम संवाद बोले हैं और अपने चेहरे के भावों से असहायता, दर्द, और आक्रोश को व्यक्त किया है। इंसपेक्टर बने राजेश शर्मा और जेसिका बनीं मायरा भी प्रभावित करती हैं। अमित त्रिवेदी ने फिल्म के मूड के अनुरुप अच्छा संगीत दिया है। ‘दिल्ली’ तो पहली बार सुनते ही अच्‍छा लगने लगता है। फिल्म के संवाद उम्दा हैं। जेसिका को किस तरह न्याय मिला, यह जानने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। साथ ही उन जेसिकाओं को भी खयाल आता है, जिन्हें अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। ",1 "आमिर खान ने पिछले एक दशक में ऐसी प्रतिष्ठा हासिल कर ली है कि यदि उनका नाम किसी फिल्म से जुड़ा हो तो वो अच्छी फिल्म गारंटी होता है। उनके बैनर की ताजा फिल्म 'सीक्रेट सुपरस्टार' इस बात को और आगे ले जाती है और दर्शाती है कि आमिर खान बहुत ही सूझबूझ के साथ अपनी फिल्मों को चुनते हैं। सीक्रेट सुपरस्टार एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसका एक सपना है। अपने सपनों में वह रंग भरना चाहती है, लेकिन उसकी राह में ढेर सारी अड़चने हैं। अपने सपने को पूरा करने की उसकी जो यात्रा फिल्म में दिखाई गई है वो आपको भावुक कर देती है। मंजिल सभी को पता है, लेकिन उस तक जाने का जो सफर है वो फिल्म को यादगार बनाता है। वडोदरा में रहने वाली इंसिया की उम्र है 15 वर्ष। वह टीवी पर आने वाला सिंगिंग रियलिटी शो देखती है और उसकी तमन्ना भी जाग जाती है कि वह गायकी के क्षेत्र में अपना नाम कमाए। उसके पिता बेहद क्रूर हैं। इंसिया की मां के साथ वे खराब व्यवहार तो करते ही हैं, साथ ही इंसिया का गाने के प्रति लगाव भी उन्हें सख्त नापसंद है। सोशल मीडिया उन लोगों को प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराता है जो कुछ करना चाहते हैं। चूंकि इंसिया के पिता दकियानुसी हैं, इसलिए उसकी राह और भी मुश्किल है। उसकी मदद करती है उसकी मां। मां उसको जितनी आजादी दे सकती थी, देती है, लेकिन पिता तो इंसिया को सपना देखने की आजादी भी नहीं देते। इंसिया बुरका पहने यू-ट्यूब पर अपने गाने लोड करती है जो बेहद प्रसिद्ध होते हैं। उसकी फैन फॉलोइंग बढ़ती जाती है। शक्ति कुमार नामक बददिमाग संगीतकार इंसिया के लिए फरिश्ता बन कर आता है और इंसिया का सपना पूरा करने में मदद करता है। इस फिल्म को अद्वैत चंदन ने लिखा और निर्देशित किया है। रूढ़िवादी परंपराएं और आधुनिक तकनीक को उन्होंने बारीकी से जोड़ा है। एक लेखक के रूप में उनका काम शानदार है। इंसिया की पृष्ठभूमि, उसके सपने, मां, भाई और दोस्त के साथ उसके रिश्ते को बड़ी सफाई के साथ लिखा गया है। स्क्रिप्ट में इतनी कसावट है कि शुरू से आखिरी तक यह आपको बांध कर रखती है। फिल्म में ऐसे कई इमोशनल सीन आते हैं जब कई लोगों को आंसू रोक पाना मुश्किल होगा। इंसिया का अपनी मां को बुद्धू समझना और बाद में यह जानना कि उसकी मां ने उसके लिए कितना कुछ किया है, फिल्म का मास्टर स्ट्रोक है। फिल्म दो ट्रैक पर चलाती है। एक फैमिली ड्रामा है और दूसरा इंसिया का सपना। इस कारण दो धमाकेदार क्लाइमैक्स देखने को मिलते हैं। जिस तरह से इंसिया की मां अपने पति से रिश्ता तोड़ती है, उसके लिए जो सिचुएशन बनाई गई है वो जबरदस्त है। इसके तुरंत बात इंसिया अपनी पहचान को छिपाने वाला बुरका निकाल कर फेंक देती है वो सीन भी शानदार है। जहां तक कमियों का सवाल है तो इंसिया जिस तेजी से सफलता हासिल करती है, उसको लेकर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। इसी तरह कहीं-कहीं फिल्म में मेलोड्रामा कुछ ज्यादा ही हावी हो गया है, फिल्म की लंबाई भी थोड़ी अखरती है, लेकिन फिल्म का कंटेंट शानदार होने के कारण छोटी-मोटी कमियों को इग्नोर किया जा सकता है। अच्‍छी बात यह है कि फिल्म आपको कई जगह हंसाती भी है। इंसिया और उसके दोस्त चिंतन के कई ऐसे दृश्य हैं। आमिर खान का हर सीन लाजवाब है। उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज और चेहरे के भावों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। ज़ायरा वसीम ने कमाल का अभिनय किया है। इस 'दंगल गर्ल' ने दिखा दिया कि उसमें बहुत दम है। ज़ायरा के चेहरे पर पल-पल बदलते जो भाव हैं वो देखने लायक हैं। पूरी फिल्म को उन्होंने अपने कंधे पर उठा कर रखा है और हर सीन में वे अपनी छाप छोड़ती हैं। मां के रोल में मेहेर विज का अभिनय लाजवाब है। पति से डरने वाली, लेकिन बच्चों के लिए किसी भी हद तक गुजरने वाली स्त्री के किरदार में उन्होंने जान डाल दी है। आमिर खान पर फिल्म को सफल बनाने का किसी तरह का दबाव नहीं था, इसलिए उन्होंने उन्मुक्त अभिनय किया है। अपने किरदार को उन्होंने लाउड रखा है, लेकिन कैरीकेचर नहीं बनने दिया। वे जब-जब स्क्रीन पर आते हैं चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। इंसिया के पिता के रूप में राज अरुण, भाई के रूप में कबीर साजिद, और चिंतन का रोल निभाने वाले तीर्थ शर्मा का का काम भी उल्लेखनीय है। कौसर मुनीर ने बेहतरीन गीत लिखे हैं और अमित त्रिवेदी का संगीत भी अच्छा है। 'मैं कौन हूं' के साथ-साथ 'मेरी प्यारी अम्मी', 'गुदगुदी' और 'आई मिस यू' भी सुनने लायक हैं। 'सीक्रेट सुपरस्टार' को जरूर देखा जाना चाहिए। बैनर : आमिर खान प्रोडक्शन्स, ज़ी स्टुडियो निर्माता : आमिर खान, किरण राव, आकाश चावला निर्देशक : अद्वैत चंदन संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : ज़ायरा वसीम, आमिर खान, राज अरुण, मेहर विज़, राज अरुण, तीर्थ शर्मा, कबीर साजिद 2 घंटे 30 मिनट ",1 "बॉलिवुड की इस कॉमिडी मूवी के साथ कुछ नया हुआ है। हमारे यहां ऐक्शन या हॉरर सब्जेक्ट पर ही बनने वाली फिल्मों को 3 डी तकनीक में बनाया जाता है, लेकिन इस बार प्रडयूसर वासु भगनानी और उनके साहबजादे जैकी भगनानी ने 3 डी का यह प्रयोग कॉमिडी में लगाया है। वैसे इससे पहले डांस पर बनी फिल्म भी 3 डी में बन चुकी है, लेकिन कॉमिडी में ऐसा प्रयोग करने से अक्सर हमारे मेकर बचते आए हैं। 3 डी में बनी इस फिल्म में पहली बार लीड किरदारों में पंजाब के सुपरस्टार और सिंगर दिलजीत दोसांझ के साथ सोनाक्षी सिन्हा है। इस फिल्म की कहानी भी बॉलिवुड से जुड़ी है। वैसे, इससे पहले 'ओम शांति ओम' सहित कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इस बार डायरेक्टर चाकरी ने इस फिल्म में कुछ नया करने की अच्छी कोशिश की है। ग्लैमर इंडस्ट्री वालों के आपसी रिश्तों से लेकर एक-दूसरे का पछाड़कर आगे निकलने और एक-दूसरे पर अजीबोगरीब कॉमेंट करने का ट्रेंड भी इस कहानी का हिस्सा है। अब यह बात अलग है कि बिहार बेस की सोनाक्षी इस फिल्म में एक गुजराती लड़की का किरदार निभाती नजर आएंगी। वैसे हम इस फिल्म के प्रडयूसर वासु की बात करें तो कभी उनका नाम बॉलिवुड में कामयाबी की गारंटी माना जाता था। डायरेक्टर डेविड धवन और हीरो गोविंदा के साथ वासु ने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं, लेकिन इसके बाद अपने साहबजादे को हीरो बनाने के मोह में वासु कुछ ऐसे फंसे कि डेविड और उनके बीच दूरियां बढ़ गईं। वहीं वासु भी बॉक्स ऑफिस पर एक अदद हिट को तरस गए। इस बार वासु ने एक नए डायरेक्टर के साथ अपने पसंदीदा सब्जेक्ट कॉमिडी पर फिल्म बनाई। फिल्म में वासु ने बॉलिवुड के नंबर वन डायरेक्टर करण जौहर से लेकर साउथ के सुपरस्टार राणा दग्गुबाती के साथ सुशांत और आदित्य रॉय कपूर को पेश किया है, तो वहीं अपनी फिल्म 'बीवी नंबर वन' के हीरो सलमान खान को भी वासु ने इस फिल्म में पेश किया। फिल्म की कहानी में नयापन तो है लेकिन कहानी को पर्दे पर मजेदार ढंग से पेश करने में डायरेक्टर कामयाब नहीं हो पाए। ऐसे में यही लगता है कि वासु को अपनी पुरानी सुपरहिट फिल्मों के प्रडयूसर नंबर वन वाली इमेज को बनाने में अभी कुछ और इंतजार करना पड़ सकता है।स्टोरी प्लॉट: फिल्म की कहानी न्यू यॉर्क में आयोजित हो रहे आइफा फेस्टिवल से जुड़ी है। इस फेस्टिवल का आयोजन कराने वाली कंपनी के मालिक गैरी (बोमन ईरानी) अपनी सहायक सोफी (लारा दत्ता) के साथ इस फेस्टिवल की तैयारियों में लगे हैं। गैरी लंबे अर्से से अपनी असिस्टेंट सोफी को कम्पनी में पार्टनर बनाने का झांसा देते आ रहे हैं, लेकिन पार्टनर बना नहीं रहे हैं। लंबे अर्से से अपने बॉस की बातों का ऐतबार कर रही सोफी को लगने लगा है कि बॉस उसके साथ धोखा कर रहे हैं सो वह न्यू यॉर्क में होनेवाले अवॉर्ड फंक्शन को फ्लॉप और कंपनी के नाम को खराब करने की प्लानिंग करती है। अपनी इस प्लानिंग के मुताबिक, लारा फंक्शन में परफार्मेंस के लिए ऐसे टैलंट का सिलेक्शन करती है जो सबसे बुरे यानी फिसड्डी होते हैं। यानी इन्हें स्टेज पर परफॉर्मेंस करने की एबीसी तक नहीं आती। तेजी (दिलजीत दोसांझ) एक रिकवरी एजेंट है, वहीं जीनत पटेल यानी सोनाक्षी सिन्हा एक फैशन डिजाइनर। वैसे, जीनत का सपना बॉलिवुड में अपनी पहचान बनाने का है, लेकिन ऐक्टिंग में जीनत जीरो ही है। वहीं इस फंक्शन की एंकरिंग करने वाले करण जौहर को उनका कट्टर विरोधी अर्जुन (जुड़वां रोल में करण) किडनैप करने की प्लानिंग बनाए बैठा है। अब देखना यह है ऐसे हालात में यह फंक्शन कैसे हो पाता है।फिल्म में स्टार्स का मेला लगा हुआ है। दिलजीत ने अपने किरदार में अच्छी ऐक्टिंग की है। आम तौर पर खामोश नजर आनेवाले दिलजीत अपने किरदार में खूब जमे हैं। वहीं जीनत पटेल के रोल में सोनाक्षी सिन्हा बस ठीक-ठाक रहीं तो करण जौहर और रितेश देशमुख जब भी स्क्रीन पर नजर आए हॉल में हंसी के ठहाके गूंजे। यंग डायरेक्टर चाकरी तोलेटी ने कहानी को ट्रैक पर रखने की अच्छी कोशिश की है। फिल्म में ज्यादातर वही स्टार्स है जो कभी न कभी आइफा फंक्शन में परफॉर्म कर चुके हैं। क्यों देखें : अगर आप दिलजीत दोसांझ के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार, सिंगर को अलग अंदाज में देखने के लिए यह फिल्म देखें। स्क्रीन पर बॉलिवुड के कई नामचीन स्टार्स को एकसाथ देखने का मौका भी आपको इस फिल्म में मिलेगा। फिल्म का जॉनर कॉमिडी है, लेकिन हंसने का मौका कम ही मिल पाता है। फिल्म के संगीत में इतना दमखम नहीं जो म्यूजिक लवर्स को अपनी धुनों पर थिरकाने का काम कर सके।",0 "बैनर : बालाजी टेलीफिल्म्स, एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर, प्रिया श्रीधरन निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी संगीत : स्नेहा खानविलकर कलाकार : अंशुमन झा, श्रुति, राजकुमार यादव, नेहा चौहान, आर्या देवदत्ता, अमित सियाल ए सर्टिफिकेट * एक घंटा 43 मिनट ‘लव सेक्स और धोखा’ एक एक्सपरिमेंटल फिल्म है, जो कैमरे और टेक्नालॉजी की पर्सनल लाइफ में दखल को दिखाती है। हर आदमी के पास इन दिनों कैमरा है और जब चाहे वो इसका उपयोग/दुरुपयोग कर रहा है। कैमरे की आँख हम पर लगातार नजर रखे हुए है। मीडिया इसके जरिये स्टिंग ऑपरेशन कर रहा है। लेकिन उसका उद्देश्य सच्चाई को समाने लाने की बजाय सनसनी फैलाना और प्राइम टाइम में मनोरंजन देना है। अश्लील एमएमएस की इन दिनों डिमांड है क्योंकि दूसरों के निजी क्षणों को देखना बड़ा अच्छा लगता है। हर कोई रियलिटी देखना चाहता है। कई बार लोगों को पता ही नहीं चलता और ये वेबसाइट पर अपलोड कर दिए जाते हैं। निर्देशक दिबाकर बैनर्जी ने अपनी फिल्म को तीन कहानियों में बाँटा है। पहली स्टोरी में लव दिखाया गया है। फिल्म इंस्टीट्यूट का स्टुडेंट डिप्लोमा फिल्म बनाते हुए हीरोइन से प्यार कर बैठता है। टीनएज में प्यार को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। ‘डीडीएलजे’ जैसी फिल्मों का नशा दिमाग पर छाया रहता है। इस कहानी के किरदार भी राज और सिमरन की तरह व्यवहार करते हैं, लेकिन उनकी लव स्टोरी का ‘द एंड’ राज और सिमरन की तरह नहीं होता है क्योंकि रियलिटी और कल्पना में बहुत डिफरेंस है। तीनों कहानी में ये वीक है क्योंकि इसमें नाटकीयता कुछ ज्यादा हो गई है। इस स्टोरी को हाथ में कैमरा लेकर फिल्माया गया है। दूसरी कहानी डिपार्टमेंटल स्टोर में लगे सिक्यूरिटी कैमरे की नजर से दिखाई गई है। इस कैमरे की मदद से वहाँ काम करने वाला आदर्श एक पोर्न क्लिप बनाना चाहता है। रश्मि नामक सेल्सगर्ल का वह पहले दिल जीतता है और फिर स्टोर में उसके साथ सेक्स कर वह क्लिप को महँगे दामों में बेच देता है। यहाँ बताने की कोशिश की गई है कि हर ऊँची दुकान या मॉल्स में आप पर कड़ी नजर सिक्यूरिटी के बहाने रखी जा रही है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी हो सकता है। तीसरी कहानी को स्पाय कैमरे के जरिये दिखाया गया है। एक डांसर को म्यूजिक वीडियो में मौका देने के बहाने एक प्रसिद्ध पॉप सिंगर उसका शारीरिक शोषण करता है। डांसर की मुलाकात एक जर्नलिस्ट से होती है, जिसकी मदद से वे सिंगर का स्टिंग ऑपरेशन करते हैं। यहाँ मीडिया को आड़े हाथों लिया गया है, जो इस फुटेज के जरिये सच्चाई को सामने लाने के बजाय अपनी टीआरपी को ध्यान रखता है। वे इस कहानी को सीरियल की तरह खींचकर पैसा बनाना चाहते हैं। तीनों कहानियों को बेहतरीन तरीके से जोड़ा गया है और आपको अलर्ट रहना पड़ता है कि कौन-सा कैरेक्टर किस स्टोरी का है और इस स्टोरी में कैसे आ गया है। फिल्म के सारे कलाकार अपरिचित हैं, लेकिन उनकी एक्टिंग सराहनीय है। कभी नहीं लगता कि वे एक्टिंग कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे हमारे आसपास मौजूद हैं और हम कैमरे के माध्यम से उन पर नजर रखे हुए हैं। डायरेक्टर दिबाकर बैनर्जी की पकड़ पूरी फिल्म पर है। एक्सपरिमेंटल और रियलिटी के करीब होने के बावजूद फिल्म इंट्रस्टिंग लगती है। अपने एक्टर्स से उन्होंने बखूबी काम लिया। सिनेमाटोग्राफर निकोस ने कैमरे को एक कैरेक्टर की तरह यूज़ किया है। नम्रता राव की एडिटिंग तारीफ के काबिल है। ‘लव सेक्स और धोखा’ उन लोगों के लिए नहीं है जो टिपिकल मसाला फिल्म देखना पसंद करते हैं। आप कुछ डिफरेंट की तलाश में हैं तो इसे देखा जा सकता है। ",1 "'मकबूल' और 'ओमकारा' जैसी बेहतरीन फिल्में बनाकर ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी एक अलग और खास पहचान बना चुके डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने इस बार कुछ नया करने की बजाय वैसा ही कुछ किया जो ग्लैमर इंडस्ट्री में मसाला फिल्में बनाने वाले मेकर बरसों से करते आए हैं। अगर हम 80-90 के दशक की बात करें तो उस वक्त भी हमशक्ल, जुड़वा भाइयों को लेकर दर्जनों फिल्में बनीं और इनमें से कुछ फिल्में टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित भी रही। विशाल के निर्देशन में बनी इस मसाला ऐक्शन फिल्म की कहानी भी हमशक्ल भाइयों और क्राइम की दुनिया में सक्रिय गैंगस्टर के इर्दगिर्द घूमती है।स्टोरी: गुड्डू (शाहिद कपूर) एक सीधा-सादा युवक है, बेचारा हकला कर बोलता है और एक एनजीओ के लिए काम करता है, वहीं चार्ली (शाहिद कपूर) कुछ तुतला कर बोलता वह 'स' को हमेशा 'फ' बोलता है। चार्ली फटाफट रईस बनना चाहता है और इसके लिए कुछ भी करने को तैंयार है। स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) गुड्डू को प्यार करती है। स्वीटी का पिता भाई भोपे (अमोल गुप्ते) एक ऐसा गैंगस्टर है, जो मुंबई में आकर बसे दूसरे प्रदेश के लोगों को वहां से भगाना चाहता है। एक दिन स्वीटी और गुड्डू शादी कर लेते हैं इससे भोपे बहुत नाराज होकर इनके पीछे पड़ जाता है। उधर एक दिन चार्ली दो करप्ट पुलिस वालों से उनके ड्रग्स लूट लेता है उसे नहीं मालूम कि उसने पुलिस वालों को लूटा है। इन ड्रग्स की कीमत करोड़ों रुपये है लेकिन पुलिस की गिरफ्त में चार्ली नहीं गुड्डू आ जाता है। अब इसके बाद इन दोनों भाइयों पर एक के बाद एक ऐसी मुश्किलें आती हैं जिससे छुटकारा पाना आसान नहीं है।रिव्यू: अगर ऐक्टिंग की बात करें तो शाहिद कपूर ने इस फिल्म में अपने अबतक के करियर का सबसे बेहतरीन किरदार निभाए हैं, डबल रोल में शाहिद ने मेहनत की है लेकिन शाहिद वैसा करिश्मा नहीं कर पाए जो 'ओमकारा' में सैफ अली ने कर दिखाया। एक महाराष्ट्रियन लड़की के किरदार में प्रियंका चोपड़ा खूब जमी हैं। अमोल गुप्ते और चंदन सान्याल ने अपने किरदारों को कुछ इस अंदाज में जिया है कि कई सीन्स में वह शाहिद पर हावी रहे हैं।ना जाने क्यों विशाल ने इस बार ऐसी कहानी चुनी जिसमें नयापन बिल्कुल भी नहीं है। हां, विशाल का कहानी को कहने का नजरिया जरूर अलग है। यही वजह है अगर आप शुरुआत की फिल्म मिस कर दें तो आगे की कहानी को समझना आसान नहीं। फिल्म का स्क्रीनप्ले जानदार है और विशाल ने इस फिल्म को कुछ इस तरह से बनाकर पेश किया कि हॉल में बैठे दर्शक को फिल्म देखते वक्त भी माइंड से काम लेना जरूरी है, वर्ना कहानी ठीक तरह से पल्ले नहीं पड़ेगी। खासतौर से चार्ली और गुड्डू द्वारा बोले गए संवाद आपको ध्यान से सुनने पड़ते है। विशाल ने इस मसाला फिल्म को भी अपने ऐंगल से बनाया है, कैमरे पर उनकी अच्छी पकड़ रही है तो फिल्म को डार्क शूट किया गया है। फिल्म की लोकेशन बेहतरीन हैं। म्यूजिक की बात करें तो फिल्म का एक गाना 'ढेन टेने' पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल है।क्यों देखें: एक मसाला फिल्म को कैसे विशाल ने आम मुंबइयां मसाला फिल्मों की भीड़ से हटकर बनाया है। शाहिद कपूर की जानदार ऐक्टिंग फिल्म देखने की एक वजह है। ",1 "राजकुमार हीरानी जैसे ऊंचे कद के निर्देशक के लिए संजय दत्त जैसा विषय स्तर से नीचे है। आखिर संजय दत्त के जीवन में ऐसा क्या है कि हीरानी को उस पर फिल्म बनाने की जरूरत महसूस हो। नि:संदेह संजय के जीवन में कई ऐसे उतार-चढ़ाव हैं जिस पर कमर्शियल फिल्म बनाई जा सकती है, लेकिन हीरानी कभी भी अपनी फिल्म को सफल बनाने के लिए इस तरह समझौते नहीं करते। संजय दत्त के साथ हीरानी ने तीन फिल्में की हैं और उस दौरान संजय ने ऐसे कई किस्से सुनाए जिन्हें सुन हीरानी को लगा हो कि संजय के ये रोचक किस्से दर्शकों तक पहुंचने चाहिए। साथ ही यह बात भी बताना जरूरी है कि अदालत फैसला दे चुकी है कि संजय दत्त आतंकवादी नहीं हैं और उन्होंने सिर्फ गैरकानूनी तरीके से हथियार रखे थे जिसकी सजा वे काट चुके हैं। यह बात ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच पाई। संजू फिल्म आपका भरपूर मनोरंजन करती है, लेकिन यदि गहराई से सोचा जाए तो यह संजय दत्त का महिमा मंडन भी करती है। संजय दत्त को एक 'हीरो' की तरह पेश किया गया है मानो उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत बड़े कारनामे किए हो। यही बात फिल्म देखते समय खटकती है क्योंकि कई जगह निर्देशक और लेखक लाइन क्रॉस कर गए हैं। सभी जानते हैं कि संजय दत्त उस समय ड्रग्स की चपेट में आ गए थे जब उनकी पहली फिल्म 'रॉकी' रिलीज भी नहीं हुई थी। उसी दौरान उनकी मां और फिल्म अभिनेत्री नरगिस दत्त की मृत्यु हो गई थी और संजय दत्त नशे में चूर थे। इंटरवल तक, ड्रग्स लेने वाले संजय से लेकर तो ड्रग्स से छुटकारा पाने वाले संजय की कहानी फिल्म में दिखाई गई है। इंटरवल के बाद फिल्म उस किस्से को दिखाती है जब संजय हथियार रखने के मामले में फंस जाते हैं और किस तरह से संजय और उनके पिता सुनील दत्त परिवार पर लगे दाग को मिटाने के लिए संघर्ष करते हैं। फिल्म की शुरुआत से संजय दत्त के प्रति इमोशन्स जगा दिए गए हैं। सीन ऐसे बनाए गए हैं कि दर्शक तुरंत संजय दत्त को पसंद करने लगते हैं। इसके बाद उन्हें सभी बातों में मजा आने लगता है और पूरी सहानुभूति संजय दत्त के साथ हो जाती है। यदि किसी फिल्म का ऐसा सीन होता तो जिसमें अस्पताल में मां कोमा में है और सामने बैठा उसका बेटा ड्रग्स ले रहा है तो दर्शक उसे व्यक्ति को धिक्कारते, लेकिन 'संजू' में इस दृश्य को इस तरह से पेश किया गया है कि संजय के लिए आपको दया आती है। गलती संजय की नहीं बल्कि उस दोस्त की लगती है जो संजू को ड्रग्स के दलदल की ओर धकेलता है। एक लेखिका (अनुष्का शर्मा) का किरदार बनाया गया है जो संजय दत्त के जीवन पर इसलिए किताब नहीं लिखती क्योंकि संजय ड्रग्स लेते हैं। आतंकवादी होने का उस पर ठप्पा लगा है, लेकिन बाद में वह किताब लिखने के लिए मान जाती है। इस सीक्वेंस के जरिये दर्शकों के मन में बात डाली गई है कि संजय दत्त फंस गए थे। संजय दत्त के जीवन के कई किस्से हैं। एक सुपरस्टार को उन्होंने धमकाया था। एक हीरोइन के घर के सामने उन्होंने फायर किए थे। उन्होंने कई शादियां की। उनकी बड़ी बेटी त्रिशाला से उनके संबंध तनावपूर्ण रहे। वे गलत संगतों में फंस गए थे। 90 के दशक की एक टॉप हीरोइन से उनकी नजदीकियां थीं। इन बातों का कोई जिक्र फिल्म में नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि अब इन लोगों की अपनी जिंदगियां हैं जिनके साथ खिलवाड़ करना उचित नहीं है, लेकिन एक राजनेता को दिखाने में समझौता नहीं किया गया जो संजय दत्त से मुलाकात के वक्त सो जाता है। इशारों-इशारों में वह नेता कौन है ये बता दिया गया है। जब यह दिखाया जा सकता है तो इशारों में और भी कई बातें दिखाई जा सकती थीं। यहां पर लेखक और निर्देशक ने सूझबूझ से काम लिया और साफ कह दिया कि यह बायोपिक नहीं है। इसलिए उन्हें अधिकार मिल जाता है कि वे क्या दिखाएं और क्या नहीं? उन्होंने वहीं पहलू चुने जिससे यह लगे कि संजय दत्त मासूम थे और न चाहते हुए भी उलझते चले गए। इन बातों को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया जाए तो आप फिल्म का भरपूर मजा ले सकते हैं। फिल्म लगातार मनोरंजन करती है। एक पल के लिए भी बोझिल नहीं होती। कई दृश्य आपको हंसाते हैं। आपको इमोशनल करते हैं। खास तौर पर संजय दत्त और सुनील दत्त वाले किस्से शानदार बने हैं। संजय दत्त और सुनील दत्त के रिश्ते के बारे में कई बातें पता चलती हैं। संजय दत्त जब जेल में थे तब सुनील दत्त भी जमीन पर सोते थे और पंखा भी चालू नहीं करते थे क्योंकि संजय के पास भी कोई पंखा नहीं था। संजय दत्त अपने पिता से इसलिए नाराज थे क्योंकि वह कभी भी संजू की तारीफ नहीं करते थे। सुनील दत्त की छवि एक ईमानदार और साफ-सुथरे शख्स की थी और संजय दत्त इसलिए कुंठित थे कि वे पिता जैसे नहीं बन पाए। उनकी महानता को नहीं छू पाए। फिल्म का वो सीक्वेंस बेहद इमोशनल है जहां पर संजय दत्त ने अपनी पिता की तारीफ में एक भाषण तैयार किया है और परिस्थितिवश वे अपने पिता को यह सुना नहीं पाते और अगले ही दिन सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है। पिता-पुत्र के रिश्ते में उपजे तनाव और प्यार को बेहद खूबसूरती के साथ दिखाया गया है और यह दिल को छू जाता है। इसी तरह संजय दत्त और उनके खास दोस्त कमलेश कापसी (विक्की कोशल) के बीच दृश्य खूब हंसाते हैं। जो हर मुसीबत में संजय दत्त का साथ निभाता है और एक बार रूठ भी जाता है। कमलेश के अनुसार संजय की जिंदगी सिर्फ 'ख', 'प' और 'च' शब्दों के इर्दगिर्द घूमती है। इनकी पहली मुलाकात, साथ में नाइट क्लब जाना, चाय में वोदका पिलाना, संजय की पहली गर्लफ्रेंड रूबी से मिलने वाले सीन खूब मनोरंजन करते हैं। निर्देशक के रूप में राजकुमार हीरानी ने फिल्म को संजय दत्त के 'सफाईनामा' के रूप में पेश किया है। वे संजय का यह रूप दिखाने में सफल रहे कि वे 'सिचुएशन्स' का शिकार रहे हैं और उनकी ज्यादा गलतियां नहीं थी। संजय की छवि खराब करने वाली बातों को उन्होंने चुना ही नहीं। संजय और अंडरवर्ल्ड कनेक्शन को भी उन्होंने उतना ही दिखाया जितना जरूरी था। फिल्म को मनोरंजक बनाने में वे सफल रहे और पूरी फिल्म में उन्होंने दर्शकों को बांध कर रखा है। घटनाओं को उन्होंने इस तरह से पेश किया है कि फिल्म रोचक लगती है। कुछ दृश्यों में वे हास्य के नाम पर 'स्तर' से नीचे भी गए हैं। इस फिल्म को आप चाहें तो सिर्फ रणबीर कपूर के लिए भी देख सकते हैं। फिल्म की पहली फ्रेम से ही वे संजय दत्त लगते हैं। ऐसा लगता है मानो हम संजय दत्त को देख रहे हैं। उनका अभिनय फिल्म को अविश्वसनीय ऊंचाइयों पर ले जाता है और दर्शकों को वे अपने अभिनय से सम्मोहित कर लेते हैं। केवल रणबीर का अभिनय देखते हुए ही हमें फिल्म अच्छी लगने लगती है। संजय दत्त के मैनेरिज्म और बॉडी लैंग्वेज को उन्होंने बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा है और कहीं भी पकड़ को ढीली नहीं होने दिया। इस फिल्म में उनका अभिनय वर्षों तक याद किया जाएगा। सुनील दत्त के किरदार में परेश रावल का अभिनय बेहतरीन है। सुनील दत्त की जो छवि है उसे परेश ने अपने अभिनय से दर्शाया है। दत्त साहब की विशाल शख्सियत को परेश के अभिनय से आप महसूस कर सकते हैं। विक्की कौशल ने संजय दत्त के जिगरी दोस्त के रूप में खूब मनोरंजन किया है। वे बेहद तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और हर फिल्म में उनका अभिनय देखने लायक होता है। संजय दत्त को ड्रग्स देने वाले व्यक्ति का किरदार जिम सरभ ने इतना शानदार तरीके से अभिनीत किया है उनसे आप नफरत करने लगते हैं। छोटे-छोटे रोल में अनुष्का शर्मा, दीया मिर्जा, सोनम कपूर, बोमन ईरानी, करिश्मा तन्ना, मनीषा कोइराला, अंजन श्रीवास्तव, सयाजी शिंदे ने अपना काम शानदार तरीके से किया है। फिल्म के गाने देखते समय अच्छे लगते हैं। अंत में संजय दत्त पर भी एक गाना फिल्माया गया है जिसमें वे 'मीडिया' और उसके 'सूत्रों' को कोसते नजर आते हैं जिन्होंने उनकी जिंदगी में भूचाल ला दिया था। एक्टिंग और एंटरटेनमेंट इस फिल्म को देखने दो बड़े कारण हैं, लेकिन फिल्म हीरानी के स्तर की नहीं है। निर्माता : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टूडियोज़ निर्देशक : राजकुमार हिरानी संगीत : रोहन रोहन, विक्रम मंट्रोज़ कलाकार : रणबीर कपूर, अनुष्का शर्मा, सोनम कपूर, परेश रावल, मनीषा कोइराला, दीया मिर्जा, विक्की कौशल, जिम सरभ, बोमन ईरानी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट 45 सेकंड ",1 "चार दोस्त अपनी-अपनी जिंदगी से जूझते हैं और उनके दिल टूटते हैं। बॉलिवुड के लिए यह कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं है, लेकिन 'वीरे दी वेडिंग' अलग इसलिए है कि इस फिल्म में ये चार दोस्त लड़कियां हैं। ये चारों लड़कियां अपनी शर्तों पर जीती हैं और निडर और बेबाक होकर बात करती हैं। चारों आपस में सेक्स और ऑर्गज्म की भी बातें करती हैं। वे अपने हालातों पर हंसती हैं। इस तरह की फिल्म को देखना अच्छा लगता है जिसमें महिला किरदारों की प्रगतिशीलता और उनकी जिंदगी की कमियों और समस्याओं को दिखाया गया हो। इन किरदारों को गलतियां करने की छूट है और यही इस फिल्म की खूबसूरती है। फिल्म की कहानी इनकी जिंदगी की उलझनों से वाकिफ कराती है। कालिंदी (करीना कपूर) शादी के झंझटों में फंसी हुई है। शादी करना और रिश्तेदारों की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करना उसे अखरता है। लेकिन वह वक्त के साथ बहती जाती है क्योंकि वह प्यार में है। अवनी (सोनम कपूर) को सोलमेट नहीं मिल रहा है। उसकी मां दिन-रात उसके लिए जीवनसाथी ढूंढने में लगी है। साक्षी (स्वरा भास्कर) रिलेशनशिप में बंधने के लिए बनी ही नहीं है और मीरा (शिखा तल्सानिया) एक विदेशी से शादी कर चुकी है। उसका एक बच्चा भी है लेकिन उसकी शादीशुदा जिंदगी में कोई खुशी नहीं है। इन चारों सहेलियों की केमिस्ट्री काफी तगड़ी है। कुछ बेहतरीन डायलॉग्स हैं जिन्हें इन ऐक्ट्रेसस ने शानदार तरीके से बोला है। फिल्म के कई सीन आपको खूब हंसाते भी हैं, लेकिन फिल्म का एक हिस्सा है जो बेहतर हो सकता था। फिल्म में किरदारों के जीवन को थोड़ा और विस्तार से दिखाना चाहिए था जिससे दर्शक उन्हें महसूस कर पाएं। दर्शक इन किरदारों की समस्याएं तो समझते हैं लेकिन उनसे खुद को जोड़ नहीं पाते हैं। स्क्रिप्ट पर थोड़ा सा और काम होता तो फिल्म जानदार बन सकती थी। लड़कियों के डायलॉग दिलचस्प जरूर हैं लेकिन कहीं-कहीं लड़कियों की गप्पेबाजी में काफी समय बर्बाद किया गया है और फिल्म रुकी हुई सी लगती है। हर फ्रेम में चारों लड़कियां बेहतरीन आउटफिट्स पहने हुए नजर आती हैं। चाहे वे पार्टी कर रही हों, सफाई कर रही हों, ख्यालों में खोई हों या फिर बस साथ बैठी हों। चारों ऐक्ट्रेसस ने अपने डायलॉग्स काफी आत्मविश्वास के साथ बोले हैं लेकिन बैकग्राउंड म्यूजिक कहीं-कहीं उनपर भारी पड़ता है। इसके अलावा 'तारीफां' और 'भांगड़ा ता सजदा' जैसे गाने आपको खूब एंटरटेन करेंगे। पर्दे पर महिलाओं के ऐसे किरदार कम ही देखने को मिलते हैं जो बेबाक होकर अपनी इच्छाओं और सेक्स के बारे में बात करें। 'वीरे दी वेडिंग' इस ओर एक अच्छा प्रयास है। खासकर, इसके डायलॉग्स और प्रॉब्लम्स से युवा खुद को जोड़ सकेंगे। ",0 " फिल्मों के चयन के मामले में अभय देओल की बड़ी तारीफ की जाती है, लेकिन बतौर निर्माता उनका चयन तारीफ के योग्य नहीं है। 'वन बाय टू' में अभय देओल हीरो होने के साथ-साथ सह-निर्माता भी है और यह फिल्म अपने किरदारों के मुताबिक बेहद ऊबाऊ और भटकी हुई फिल्म है। फिल्म के जरिये क्या कहने की कोशिश की जा रही है यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता है। एक छोटी-सी बात को इतना ज्यादा खींचा गया है कि सिनेमाहॉल में दर्शक को नींद आने लगती है और पर्दे पर चल रहे घटनाक्रम में उसकी कोई रूचि नहीं रहती। अमित शर्मा (अभय देओल) और समायरा पटेल (प्रीति देसाई) की कहानी है, जिनकी फिल्म में एक-दो बार ही मुलाकात होती है। दोनों की कहानी समानांतर चलती है और उनके साथ एक जैसा घटित हो रहा है। अमित का राधिका नामक लड़की से ब्रेक अप हो गया है और वह उसे भूला नहीं पा रहा है। उसकी अच्‍छी-खासी नौकरी है और मां-बाप चाहते हैं कि वह सेटल हो जाए, लेकिन वह बहुत कुंठित है। आधी रात को अमित अपनी एक्स गर्लफ्रेंड के घर के आगे गिटार बजा कर गाना गाता है और उसकी एक्स गर्लफ्रेंड कहती है कि वह रेस्तरां जाकर सूप ले, वन बाय टू करे, आधा पिए और बचे हुए में डूब कर मर जाए। ऐसी ही उबाऊ और पकाऊ हरकतें वो करता रहता है जो उसके मां-बाप के साथ-साथ दर्शकों को भी झेलना पड़ती हैं। दूसरी ओर समायरा अपनी शराबी मां के साथ रहती है। उसके पिता उसे चाहते हैं तो लेकिन यह स्वीकारने में हिचकते हैं कि वह उनकी बेटी है। समायरा डांस शो के जरिये अपनी पहचान बनाना चाहती है और सफलता नहीं मिलने के कारण वह भी कुंठित है। इन दोनों पकाऊ किरदारों को लेकर पकाऊ फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है देविका भगत ने। देविका को ही शायद नहीं पता कि वे क्या दिखाना चाहती है या फिर अपने ही लिखे को वे ठीक से परदे पर उतार नहीं सकी। जिस तरह फिल्म के मुख्य किरदार कन्फ्यूज नजर आते हैं वही हाल देविका का भी है। देविका ने बताने की कोशिश की है कि आज की युवा पीढ़ी के पास सब कुछ है, फिर भी वह खुश नहीं है। वह ब्रेकअप को लेकर, अपने बॉयफ्रेंड को लेकर, अपने जॉब को लेकर परेशान है। इन बातों को बहुत खींचा गया गया है। कई दृश्यों का कोई अर्थ नहीं निकलता है और न ही इनमें आपसी संबंध नजर आता है। फिल्म का संपादन भी बहुत गड़बड़ है और कई बार सीक्वेंस आगे-पीछे लगते है, लेकिन इसमें संपादक की गलती कम और निर्देशक की ज्यादा नजर आती है क्योंकि उसके पास कोई विकल्प ही नहीं होगा। अभय देओल का अभिनय निराशाजनक है। शायद वे भी कन्फ्यूज हो गए होंगे कि निर्देशक उनसे क्या चाहता है। प्रीति देसाई एक्ट्रेस से बेहतर डांसर हैं। रति अग्निहोत्री, लिलेट दुबे, जयंत कृपलानी के किरदारों ने भी जमकर बोर किया है। दर्शन जरीवाला जरूर अपनी शायरी से थोड़ा मनोरंजन करते हैं। फिल्म का एकमात्र उजला पक्ष है इसका संगीत। शंकर-अहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध 'कबूम', 'खुशफहमियां', 'खुदा ना खास्ता' सुनने लायक हैं। बेहतर यही है कि 'वन बाय टू' देखने की बजाय इसके गीत सुने जाएं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अमित कपूर, अभय देओल निर्देशक : देविका भगत संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : अभय देओल, प्रीति देसाई, रति अग्निहोत्री, जयंत कृपलानी, दर्शन जरीवाला, लिलेट दुबे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट ",0 " भारत और पाकिस्तान में रहने वाले आम लोग युद्ध या तनावपूर्ण संबंध नहीं चाहते हैं। अमन और शांति से दोनों देशवासी रहे यही उनकी कामना रहती है, लेकिन कुछ लोग अपने हित साधने के लिए ऐसी हरकतें किया करते हैं ताकि युद्ध जैसी परिस्थितियां निर्मित हों। ये राजनेता हो सकते हैं या फिर कोई तीसरा देश जो अपने हथियारों की बिक्री कर लाभ कमाना चाहता है। ‘वॉर... छोड़ ना यार’ इन्हीं बातों को उठाती हैं। बातें बहुत गंभीर हैं, लेकिन इन्हें हास्य की चाशनी में लपेट कर पेश किया गया है ताकि संदेश को ग्रहण नहीं भी करना हो तो कम से कम मनोरंजन से ही पेट भर लिया जाए। फिल्म में दिखाया गया है कि सीमा पर एक-दूसरे के खिलाफ बंदूक ताने खड़े सैनिकों में इतने अच्छे संबंध बन जाते हैं कि वे एक-दूसरे को अपने-अपने देश के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाते हैं। अंताक्षरी खेलते हैं। लता मंगेशकर और सचिन तेंडुलकर के प्रति दीवानगी जैसी भारत में है वैसी पाकिस्तान में भी है। लेकिन जब ‘ऊपर’ से आदेश मिलता है तो उन्हें न चाहते हुए भी गोलियों की बरसात करना पड़ती है। निर्देशक ने पाकिस्तान के मजे लेते हुए दिखाया है कि वहां के सैनिकों को भरपेट भोजन ही नहीं मिलता तो बेचारे हमसे क्या लड़ेंगे। साथ ही भारत-पाक के बिगड़े हुए संबंधों का जिम्मेदार चीन और अमेरिका को ठहराया गया है। कहा गया है कि चीन में बनी हुई वस्तुओं का हमारे देशवासियों को बहिष्कार करना चाहिए। इन सभी बातों को लेखक और निर्देशक फराज हैदर ने स्क्रीन पर बहुत ही अपरिपक्व तरीके से पेश किया है। हास्य और सिनेमा के नाम पर उन्होंने छूट तो ली है, लेकिन वे ऐसा हास्य नहीं रच पाए कि दर्शक पूरे समय फिल्म का आनंद ले सके। हैदर ने किरदारों को अच्छे से लिखा और पेश किया है। शरमन जोशी, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, दलीप ताहिल (चार रोल में) के किरदार मजेदार हैं, लेकिन फिल्म को आगे बढ़ाने वाले प्रसंग उतने दमदार नहीं हैं। फिल्म में कई उबाऊ दृश्य हैं। कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं जिन पर हंसी आती हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। सोहा अली फिल्म में एक रिपोर्टर बनी है जिसको पहले ही पता चल जाता है कि दोनों देशों के बीच वॉर होने वाला है और वह सीमा पर पहले ही पहुंच जाती है, लेकिन उनका किरदार विश्वसनीय नहीं बन पाया है। जिस तरीके से वे दोनों देशों के बीच के युद्ध को रोकती हैं वो भी हजम करने लायक नहीं है। ऐसी फिल्मों में गाने झपकी लेने के काम आते हैं। कलाकारों में जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, मनोज पाहवा का अभिनय उम्दा है। दलीप ताहिल ने अपने चारों किरदारों को कैरीकेचर की तरह प्रस्तुत किया है, लेकिन वे अच्छे लगते हैं। भारत की पहली वॉर कॉमेडी‍ फिल्म कही जा रही ‘वॉर छोड़ ना यार’ को बनाने के पीछे उद्देश्य भले ही अच्छा हो, लेकिन जिस तरीके से इसे पेश किया गया है उसको देख यही कहा जा सकता है ‘यह फिल्म... छोड़ ना यार’। बैनर : एओपीएल एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्देशक : फराज हैदर संगीत : असलम केई कलाकार : शरमन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, मुकुल देव, मनोज पाहवा, दलीप ताहिल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए ",0 "मोहल्ले की हर लड़की बहन ही क्यों होनी चाहिए? राजकुमार राव और श्रुति हसन अभिनीत 'बहन होगी तेरी' में इसी सवाल, उलझन और मुसीबत को कॉमिक अंदाज में दर्शाया गया है। फिल्म के निर्देशक अजय पन्नालाल ने इस फिल्म से अपने निर्देशन का आगाज किया है। पिछले कुछ अरसे से बॉलिवुड उत्तर प्रदेश पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। इस फिल्म का बैकड्रॉप भी लखनऊ है। फिल्म का मूल आइडिया बहुत ही रोचक है। निर्देशक अजय पन्नालाल अगर इस आइडिया को उसी दिलचस्प तरीके से फिल्मा पाते तो यकीनन यह एक टोटल धमाल फिल्म हो सकती थी। कहानी लखनऊ के दो परिवारों की है, जहां पर फिल्म के मुख्य किरदार गट्टू (राजकुमार राव) और श्रुति हसन (बिन्नी) पड़ोसी हैं। गट्टू बिन्नी को बचपन से प्यार करता है, मगर पड़ोसी परिवारों के बच्चों के बीच प्यार पनपने पर एक तरह की अनकही पाबंदी है और इन्हीं वजहों से उस मोहल्ले के लड़के रक्षाबंधन के दिन अपने घरों से कोसों दूर जाकर छुप कर अपना दिन बिताते हैं। जो भी अपने प्रेम का इजहार मोहल्ले की लड़कियों से करने की कोशिश करता है उसकी कलाई पर राखी बांध दी जाती है। गट्टू पर भी यही सामाजिक प्रेशर है और इसी वजह से वह दुनिया के सामने अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाता। हालांकि बिन्नी को वह अपने दिल की बात बता चुका है। लिहाजा दोनों परिवार और समाज उसे बिन्नी का भाई मानने लगती है। हद तो तब होती है, जब गट्टू के माता और पिता (दर्शन जरीवाला) बिन्नी को दूधवाले भूरा (हेरी टैंगरी) के साथ स्कूटर पर साथ देखकर उनके अफेयर की अफवाह फैला देते हैं और बिन्नी का भाई जयदेव (निनाद कामत) बिन्नी की शादी राहुल (गौतम गुलाटी) के साथ तय कर देता है। और तो और बिन्नी पर नजर रखने के लिए गट्टू को ही नियुक्त किया जाता है। कन्फ्यूजन तब बढ़ता है, जब भूरा का अपराधी और खूनी पिता (गुलशन ग्रोवर) और ताऊ (रंजीत ) को बहू के रूप में बिन्नी भा जाती है और वे उसे अगवा करने की धमकी दे डालते हैं। अब बिन्नी से शादी करने की होड़ में दो-दो परिवार लगे हैं, मगर बिन्नी का सच्चा आशिक उसका भाई बनकर उसकी रखवाली करता फिर रहा है। क्या गट्टू हिम्मत करके समाज और घरवालों के सामने बिन्नी के प्रति अपने प्यार की स्वीकारोक्ति कर पाता है या फिर बिन्नी उसकी बहन बनकर ही रह जाती है, इसका फैसला तो अंत में हो पाता है। तस्वीरें: बुजुर्ग महिला के साथ इस सीन के लिए राजकुमार राव ने किए 18 रीटेक कहानी का आइडिया फ्रेश है, मगर कहानी बहुत ही सपाट है। हां, कई सीक्वेंसेज बहुत ही बढ़िया बन पड़े हैं, जो हंसाने में कामयाब रहते हैं। क्रिकेट मैच, नाटक में शिवजी की एंट्री, वन लाइनर्स, जैसे कई पल याद रह जाते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ कहीं-कहीं बोर करता है। मध्यांतर के बाद कहानी गति पकड़ती है, मगर क्लाइमैक्स फिर कमजोर पड़ जाता है। कहानी के कुछ पंच बचकाने लगते हैं, किंतु उन्हें छोटे शहर के परिवेश का दर्शाकर खपा दिया गया है। अभिनय के मामले में राजकुमार राव बाजी मार ले जाते हैं। किरदार की बारीकियों को वे बखूबी पकड़ लेते हैं और फिर अपने अभिनय में पिरोकर गटटू की बहन कहने की बेबसी, उससे निकलने की चालाकी और शराब पीकर ऊधम मचाने के तमाम एक्सप्रेशन को वे पूरी सहजता से निभा ले जाते हैं। श्रुति हसन खूबसूरत लगी हैं। बिन्नी के रूप में उन्हें अपने अभिनय का जलवा दिखाने का पूरा मौका था, मगर वे संवाद अदायगी में मार खा गईं। पिता के रूप में दर्शन जरीवाला हंसाते हैं। क्रिमिनल पिता और ताऊ के रूप में गुलशन ग्रोवर और रंजीत को पर्दे पर देखना रोचक लगता है। भूरा के रूप में हैरी टैंगरी ठीक-ठाक लगे हैं। जयदेव के रूप में निनाद कामत ने अपने किरदार को सलीके से निभाया है। संगीत: फिल्म में कई संगीतकारों का जमावड़ा है, इसके बावजूद 'जय माता दी', 'जानू मेरी जान' गाने के अलावा और कोई गाने यादगार नहीं बन पड़े हैं। क्यों देखें : फ्रेश आइडिया के शौकीन और राजकुमार राव के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें: મૂવી રિવ્યુઃ બહેન હોગી તેરી ",0 "भारत-पाकिस्तान के खट्टे-मीठे रिश्तों ने हमेशा ही फिल्मकारों को आकर्षित किया है। गदर जैसी फिल्मों में खट्टा ज्यादा था तो 'बजरंगी भाईजान' में इन पड़ोसी देशों के बारे में मिठास ज्यादा मिलती है। गदर में अपनी पत्नी को लेने के लिए सनी देओल पाकिस्तान में जा खड़े हुए और पूरी फौज को उन्होंने पछाड़ दिया था। बजरंगी भाईजान में पाकिस्तानी से आई बालिका को छोड़ने सलमान खान भारत से वहां जा पहुंचते हैं जहां उन्हें कई मददगार लोग मिलते हैं। उनके व्यवहार से महसूस होता है कि दोनों देश के आम इंसान अमन, चैन और शांति चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक स्तर पर दीवारें खड़ी कर दी गई हैं और कुछ लोग इस दीवार को ऊंची करने में लगे रहते हैं। बजरंगी भाईजान को कमर्शियल फॉर्मेट में बनाया गया है और हर दर्शक वर्ग को खुश किया गया है। हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाक, इमोशन, रोमांस, कॉमेडी बिलकुल सही मात्रा में हैं और यह फिल्म इस बात की मिसाल है कि कमर्शियल और मनोरंजक सिनेमा कैसा बनाया जाना चाहिए। दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर आता है तो उसे महसूस होता है कि उसका पैसा वसूल हो गया है। कहानी है पवन चतुर्वेदी (सलमान खान) की जो पढ़ाई से लेकर तो हर मामले में जीरो है। लगातार फेल होने वाला पवन जब पास हो जाता है तो उसके पिता सदमे से ही मर जाते हैं। बजरंगबली का वह भक्त है। बजरंग बली का मुखौटा लगाए कोई जा रहा हो तो उसमें भी पवन को भगवान नजर आते हैं। पवन की एक खासियत है कि वह झूठ नहीं बोलता है। पिता के दोस्त (शरत सक्सेना) के पास वह नौकरी की तलाश में दिल्ली जा पहुंचता है। यहां उसकी रसिका (करीना कपूर खान) से दोस्ती होती है। एक दिन पवन की मुलाकात एक छोटी बच्ची (हर्षाली मल्होत्रा) से होती है जो बोल नहीं सकती। मां-बाप से बिछुड़ गई है। उस लड़की को वह अपने घर ले आता है ताकि वह उसे मां-बाप से मिला सके। उसे वह मुन्नी कह कर पुकारता है। मुन्नी अनपढ़ भी है। पवन उससे कई शहरों के नाम पूछता है और अंत में उसे पता चलता है कि मुन्नी तो पाकिस्तान की रहने वाली है। वह पाकिस्तानी एम्बेसी ले जाता है। वीजा पाने की कोशिश करता है, लेकिन नाकाम रहता है। हारकर वह खुद मुन्नी को बॉर्डर पार कर पाकिस्तान ले जाने का फैसला करता है। राह इतनी आसान नहीं है, लेकिन पवन को बजरंग बली पर पूरा भरोसा है। बजरंगी भाईजान के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें वी. विजयेन्द्र प्रसाद ने बेहतरीन कहानी लिखी है जिसमें सभी दर्शक वर्ग को खुश करने वाले सारे तत्व मौजूद हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले भी उम्दा लिखा गया है और पहले दृश्य से ही फिल्म दर्शकों की नब्ज पकड़ लेती है। शुरुआती दृश्यों में ही मुन्नी अपनी मां से बिछड़ जाती है और दर्शकों की हमदर्दी मुन्नी के साथ हो जाती है। इसके बाद सलमान की धांसू एंट्री 'सेल्फी' गाने से होती है। जब मुन्नी को पवन का साथ मिल जाता है तो दर्शक निश्चिंत हो जाते हैं कि अब मुन्नी को कोई खतरा नहीं है। पवन के रूप में सलमान का किरदार बहुत अच्छी तरह गढ़ा गया है। 'घातक' के सनी देओल की या‍द दिलाता है। ‍ फिल्म का पहला हाफ हल्का-फुल्का और मनोरंजन से भरपूर है। इसमें रोमांस और इमोशन है। कुछ दृश्य मनोरंजक और दिल को छू लेने वाले हैं। मुन्नी का राज खुलने वाले दृश्य जिसमें पता चलता है कि वह पाकिस्तान से है, बेहतरीन बन पड़ा है। वह पाकिस्तान की क्रिकेट में जीत पर खुशी मनाती है और बाकी लोग उसे देखते रह जाते हैं। इसी तरह मुन्नी का चुपचाप से पड़ोसी के घर जाकर चिकन खाना, मस्जिद जाना, उसको एक एजेंट द्वारा कोठे पर बेचने वाले सीन तालियों और सीटियों के हकदार हैं। इंटरवल के बाद फिल्म धीमी और कमजोर पड़ती है, लेकिन जल्दी ही ट्रेक पर आ जाती है। पाकिस्तान में पवन को पुलिस, फौज और सरकारी अधिकारी परेशान करते हैं, लेकिन आम लोग जैसे चांद (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) और मौलाना (ओम पुरी) उसके लिए मददगार साबित होते हैं। एक बार फिर कुछ बेहतरीन दृश्य देखने को मिलते हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में भले ही सिेनेमा के नाम पर छूट ले ली गई हो, लेकिन यह इमोशन से भरपूर है। भारत-पाक दोनों ओर की जनता का पवन को पूरा समर्थन मिलता है और उसे एक सही मायने में हीरो की तरह पेश किया गया है। एक ऐसा हीरो जिसे आम दर्शक बार-बार रुपहले परदे पर देखना चाहता है। गूंगी मुन्नी की फिल्म के अंत में बोलने लगने लगती है, भले ही यह बात तार्किक रूप से सही नहीं लगे, लेकिन यह सिनेमा का जादू है कि देखते समय यह दृश्य बहुत अच्छा लगता है। निर्देशक कबीर खान ने फिल्म को बेहद संतुलित रखा है। उन्हें पता है कि कई लोग इसे हिंदू या मुस्लिम के चश्मे से देखेंगे, लिहाजा उन्होंने कहानी को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि किसी को भी आवाज उठाने का मौका नहीं मिले। उन्होंने फिल्म को उपदेशात्मक होने से बचाए रखा और अपनी बात भी कह दी। पवन और मुन्नी की जुगलबंदी को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। मुन्नी की मासूमियत और पवन की सच्चाई तथा ताकत का मिश्रण बेहतरीन है। तर्क की बात की जाए तो कई प्रश्न ऐसे हैं जो दिमाग में उठते हैं। जैसे क्या बिना वीजा के लिए गैर-कानूनी तरीके से किसी देश में घुसना ठीक है? सीमा पार करते ही पवन को पाकिस्तानी फौजी पकड़ लेते हैं और फिर छोड़ देते हैं, क्यों? मुन्नी की मां अपनी बेटी को ढूंढने की कोशिश क्यों नहीं करती? अव्वल तो ये कि फिल्म में इमोशन और मनोरंजन का बहाव इतना ज्यादा है कि आप इस तरह के सवालों को इग्नोर कर देते हैं। वहीं इशारों-इशारों में इनके जवाब भी मिलते हैं। पाकिस्तानी फौजी सोचते हैं कि इस आदमी की स्थिति ‍इतनी विकट है कि कानूनी रूप से वे चाहे तो कभी भी मदद नहीं कर सकते, लेकिन इंसानियत के नाते तो कर ही सकते हैं। धर्म और कानून से भी बढ़कर इंसानियत होती है। शायद इसीलिए अंत में पाकिस्तानी सैनिक, पवन को रोकते नहीं हैं और बॉर्डर पार कर भारत जाने देते हैं। सलमान खान की मासूमियत जो पिछले कुछ वर्षों से खो गई थी वो इस फिल्म से लौट आई है। उन्होंने अपने किरदार को बिलकुल ठीक पकड़ा है और उसे ठीक से पेश किया है। वे एक ऐसे हीरो लगे हैं जिसके पास हर समस्या का हल है। बजरंगी भाईजान निश्चित रूप से ऐसी फिल्म है जिस पर वे गर्व कर सकेंगे। हर्षाली मल्होत्रा इस फिल्म की जान है। उसकी भोली मुस्कुराहट, मासूमियत, खूबसूरती कमाल की है। हर्षाली ने इतना अच्छा अभिनय किया है कि वह सभी पर भारी पड़ी है। उसके भोलेपन से एक पाकिस्तान का घोर विरोधी किरदार (जो कहता है कि यह उस देश की है जो हमारे लोगों को मारते हैं) भी प्रभावित हो जाता है। करीना कपूर खान का रोल छोटा है, लेकिन वे प्रभावित करती हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी अब स्टार हो गए हैं और दर्शक उनकी एंट्री पर भी तालियां-सीटियां मारते हैं। पाकिस्तानी पत्रकार का रोल उन्होंने अच्छे से निभाया है जो सलमान खान की हर कदम पर मदद करता है। ओम पुरी छोटे रोल में असरकारी रहे हैं। संगीत और संवाद के मामले में फिल्म कमजोर है। 'सेल्फी ले ले रे' खास नहीं है। चिकन सांग की फिल्म में जरूरत ही नहीं थी और यह गाना नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। 'भर दो झोली' जरूर अच्छा है और 'तू जो मिला' का फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है। 'बजरंगी भाईजान' की सच्चाई और मुन्नी की मासूमियत दिल को छूती है। बैनर : इरोज इंटरनेशनल, सलमान खान फिल्म्स, कबीर खान फिल्म्स निर्माता : सलमा खान, सलमान खान, रॉकलाइन वेंकटेश निर्देशक : कबीर खान संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : सलमान खान, करीना कपूर खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, हर्षाली मल्होत्रा, ओम पुरी, शरत सक्सेना ",1 "कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है। निर्माता : रवि वालिया निर्देशक : ईश्वर निवास संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : आफताब शिवदासानी, आयशा टाकिया, रितेश देशमुख, रिमी सेन, सौरभ शुक्ला, अनुपम खेर फिल्म में एक दृश्य है, जिसमें रितेश देशमुख ने रिमी सेन का अपहरण कर लिया है। वे उन पर एक पत्र लिखने का दबाव डालते हैं। रिमी पत्र लिखने से इंकार करती हैं। रितेश धमकी देते हुए कहते हैं कि यदि उन्होंने कहा नहीं माना तो वे उसे ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ दिखाएँगे। रिमी मान जाती हैं। हो सकता है कि अगली किसी फिल्म में नायिका को यातना देने के लिए ‘दे ताली’ दिखाई जाने की धमकी दी जाए। ‘दे ताली’ को अब्बास टायरवाला ने लिखा है, जिन्होंने आमिर खान के लिए ‘जाने तू...या जाने ना’ बनाई है। ‘दे ताली’ फिल्म के खराब होने का सारा दोष अब्बास का ही है। वे यह निर्णय ही नहीं ले पाए कि फिल्म को क्या दिशा दें। कभी फिल्म गंभीर हो जाती है, तो कभी तर्क-वितर्क से परे हास्य की दिशा में मुड़ जाती है। अमू (आयशा टाकिया), अभि (आफताब शिवदासानी) और पगलू (रितेश देशमुख) बेहद पक्के दोस्त हैं। अभि बहुत अमीर है और उसके पैसे पर उसके दोनों दोस्त मजे करते हैं। अमू तो अभि के पापा (अनुपम खेर) के ऑफिस में काम करती है, लेकिन पगलू कोई काम-धंधा नहीं करता। उसके पास घर का किराया देने के पैसे नहीं है, लेकिन कपड़े बड़े शानदार पहनता है। इन दिनों हर दूसरी फिल्म में किराएदार और मकान मालिक के बीच फिजूल के हास्य दृश्य दिखाए जाते हैं, जो इस फिल्म में भी हैं। दोस्ती में ‍प्यार की मिलावट की गई है। अमू मन ही मन अभि को चाहने लगती है और उसे लगता है कि अभि भी उसे चाहता है। अमू के मन की बात पगलू जानता है। दोनों उस समय चौंक जाते हैं जब अभि अपनी नई गर्लफ्रेंड कार्तिका (रिमी सेन) से उन्हें मिलवाता है। कार्तिका एक चालू किस्म की लड़की है (यह भेद बहुत जल्दी खोल दिया गया है), जो सिर्फ पैसों की खातिर अभि को चाहती है। पगलू चाहता है कि अभि और अमू की शादी हो। अमू के साथ मिलकर वह हास्यास्पद योजनाएँ बनाता है और कार्तिका की असलियत उसके सामने लाता है। फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं, जिनके आधार पर ‍अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी। लेकिन पटकथा इतनी सतही लिखी गई है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। फिल्म के चरित्र भी दोषपूर्ण हैं। अभि खुद यह नहीं जानता कि वह किसे चाहता है? जब कार्तिका की बुराई सुनता है तो अमू को चाहने लगता है और कार्तिका को सामने पाकर उससे शादी करने के सपने देखने लगता है। पूरी फिल्म में पगलू, कार्तिका की असलियत सामने लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, अंत में कार्तिका के साथ हो जाता है। फिल्म के शुरुआती 45 मिनट बेहद बोर हैं। रिमी सेन जब फिल्म में प्रवेश करती है तब फिल्म में थोड़ी देर के लिए रुचि पैदा होती है। इसके बाद फिल्म में बची-खुची रुचि भी खत्म हो जाती है और जो दिखाया जा रहा है उसे झेलना पड़ता है। फिल्म के निर्देशक ईश्वर निवास (पहले ई. निवास थे, अब ईश्वर हो गए हैं, शायद किस्मत जाग जाए इसलिए) का सारा ध्यान फिल्म को मॉडर्न लुक देने में रहा। आधुनिक कपड़े, ट्री हाउस, डिस्कोथेक, शानदार घर और ऑफिस, बड़ी-बड़ी बातों की भूलभुलैया में वे फिल्म की पटकथा पर ध्यान देना भूल गए। गानों का फिल्मांकन भव्य है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कहीं से भी टपक पड़ते हैं। विशाल-शेखर का संगीत बेदम है। फिल्म की कहानी टीनएज कलाकारों की माँग करती है, लेकिन आफताब और रितेश जैसे कलाकारों से काम चलाया गया है। रितेश तो फिर भी ठीक हैं, लेकिन आफताब मिसफिट हैं। उन्होंने खूब बोर किया है। हास्य भूमिकाएँ निभाने में रितेश को महारत हासिल है, यह एक बार फिर उन्होंने साबित किया है। आयशा टाकिया को ज्यादा मौका नहीं मिला है। रिमी सेन के चरित्र में कई रंग हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है। अनुपम खेर पूरी फिल्म में एक कुत्ते को प्रशिक्षण देते रहते हैं, पता नहीं इस भूमिका में उन्होंने क्या खूबी देखी? कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है। ",0 "रंग रसिया के पहले शॉट में दिखाया गया है कि राजा रवि वर्मा द्वारा बनाए गए एक चित्र की नीलामी हो रही है। चित्र को अश्लील मानकर विरोध हो रहा है। लगभग 130 वर्ष पूर्व भी यही स्थिति थी जब चित्र बनाने वाले राजा रवि वर्मा के चित्रों को अश्लील मानकर मुकदमा चला गया था। धर्म के रक्षक तब भी उनके खिलाफ थे। यानी कि इतने वर्षों के बावजूद तकनीकी रूप से कई परिवर्तन हुए हैं, लेकिन सोच के स्तर पर कोई खास तरक्की नहीं हुई है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति वाले मुद्दे पर वर्षों से बहस जारी है और लगता नहीं है कि निकट भविष्य में भी यह बहस खत्म होगी। सेंसर बोर्ड जैसे संस्थान भी हैं जो तय करते है कि कितनी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। राजा रवि वर्मा अपने द्वारा बनाए गए न्यूड फोटो पर बवाल मचाने वालों से कहते हैं कि हमारी संस्कृति इतनी कमजोर नहीं है कि एक नंगे बदन पर टूट जाए। ये आश्चर्य की बात है कि रवि वर्मा, जिन्हें केरल के एक राजा ने उनकी प्रतिभा को देख राजा की उपाधि दी, ने हिंदुओं के देवी-देवताओं को चेहरा और स्वरूप दिया, उन पर फिल्म इतने वर्षों बाद बनाई गई। इन चित्रों को बनाने के पहले उन्होंने वेद-पुराण का गहरा अध्ययन किया। देश भर में घूमे और उसके बाद देवी-देवताओं के चित्र बनाए। लीथोग्राफी प्रिंटिंग के माध्यम से उनके यह बहुरंगी चित्र कागज पर उपलब्ध होकर घर-घर में पहुंचे। दीवारों पर चिपका कर लोगों ने उनकी पूजा की। अछूत मानकर जिन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता था उनके लिए वे भगवान को मंदिर से बाहर उनके घर ले आए। आज भी हम कागज पर छपे भगवान के फोटो के आगे नतमस्तक होते हैं उनमें से ज्यादातर राजा रवि वर्मा के हैं। रवि वर्मा का यह सफर आसान नहीं था। धर्म के ठेकेदार उनसे पूछते हैं कि किसने उसे हक दिया है कि वह देवी देवताओं के चित्र बनाए। बात तब और बढ़ जाती है जब जिस स्त्री का चेहरा उसने देवी के लिए उपयोग किया था वही चेहरा वह न्यूड फोटो में भी इस्तेमाल करता है, लेकिन फिल्म में ‍दिखाया गया है कि इसमें रवि वर्मा की गलती नहीं थी। भारतीय सिनेमा भी राजा रवि वर्मा का कर्जदार है क्योंकि भारतीय सिनेमा के पितामह धुंडीराज गोविंद फालके (दादा साहेब फालके) ने न केवल राजा रवि वर्मा के साथ काम किया बल्कि राजा रवि वर्मा ने उन्हें आर्थिक मदद भी की जिसकी मदद से दादा फालके भारत में सिनेमा को ला सके। फिल्म रंजीत देसाई के बायोग्राफिकल नॉवेल 'राजा रवि वर्मा' पर आधारित है। केतन मेहता धन्यवाद के पात्र हैं कि वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने राजा रवि वर्मा से परिचित कराया। राजा रवि वर्मा की पूरी जिंदगी को कुछ घंटे की फिल्म में समेटा है जो इतना आसान नहीं था। फिल्म से ज्यादा हमें राजा रवि वर्मा का काम और जीवन संघर्ष प्रभावित करता है। फिल्म में ऐसे कुछ दृश्य हैं जिन्हें हटाया जा सकता था। साथ ही कुछ प्रसंग, जैसे राजा रवि वर्मा के भाई वाला किस्सा, उनके द्वारा छोड़ी गई पत्नी का क्या हुआ, अधूरे लगते हैं। इनका ठीक से विस्तार नहीं हुआ है। बावजूद इन कमियों फिल्म बांधकर रखती है। रवि वर्मा और उनकी प्रेरणा सुगंधा के रिश्ते को बारीकी से रेखांकित किया गया है। इस रिश्ते को देख रवि वर्मा का स्वार्थी रूप भी सामने आता है। केतन मेहता ने रवि वर्मा की जिंदगी के साथ कला की अभिव्यक्ति वाले विचार को भी अच्छी तरह गूंथा है। फिल्म दर्शाती है कि काबू कुछ ही चीजों पर किया जा सकता है। खयालात पर काबू पाना बूते की बात नहीं है। फिल्म को एक पेंटिंग की तरह शूट किया गया है। संवादों में गहराई है। गीत-संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप हैं। रणदीप हुडा ने लीड रोल निभाया है। इसे उनके करियर का बेहतरीन काम कहा जा सकता है। हालांकि कई बार उनकी पकड़ से किरदार छूटा भी है। खासतौर पर जब उन्हें बूढ़ा दिखाया गया है तब उनका अभिनय कमजोर रहा है। नंदना सेन की अदाकारी बेहतरीन है। बोल्ड किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। विक्रम गोखले, दर्शन जरीवाला, परेश रावल, आशीष विद्यार्थी, सचिन खेड़ेकर, टॉम अल्टर जैसे बेहतरीन अभिनेता यदि सपोर्टिंग कास्ट में हो तो फिल्म का स्तर बढ़ जाता है। रंग रसिया एक उम्दा फिल्म है। एक बेहतरीन चित्रकार से रूबरू कराने के साथ-साथ यह फिल्म कुछ प्रश्न भी उठाती है जिनके बारे में सोचते हुए दर्शक सिनेमाघर से बाहर निकलता है। बैनर : माया ‍मूवीज, इनफिनिटी फिल्म्स निर्माता : आनंद महेंद्रू, दीपा साही निर्देशक : केतन मेहता संगीत : संदेश शांडिल्य कलाकार : रणदीप हुडा, नंदना सेन, परेश रावल, आशीष विद्यार्थी, सचिन खेडेकर, प्रशांत नारायण सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 16 रील ",1 "यह कहानी है कैद में फंसे एक साहेब, राजनीति में ऊंचा कद रखती उसकी पत्नी और लंदन बेस्ड गैंगस्टर की जो रूसी तरीके के एक खतरनाक खेल के जरिए सबका कत्ल करता है। इस फिल्म के डायरेक्टर और को राइटर तिग्मांशू धूलिया ने इस ड्रामा फिल्म को दमदार तरीके से पेश किया है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे सत्ता के भूखे मर्द और औरत बिना उस तक पहुंचे रुकने का नाम नहीं लेते हैं। इस बार कहानी की एक नई शुरुआत होती है, जो अनदेखे-अनजाने मोड़ से होते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हर किरदार के कई नए चेहरों की पहचान कराती है। फिल्म की कहानी रानी माधवी देवी (माही गिल) के इर्द-गिर्द घूमती है। जिन्होंने अपने किरदार को इस बखूबी से निभाया है कि आप बार-बार उन्हें ही देखना चाहते हैं, जबकि स्क्रिप्ट में उनके किरदार को काफी लंबा लिखा भी गया है। इसके बाद आदित्य प्रताप सिंह (जिम्मी शेरगिल) आते हैं, जिन्होंने अपने राजसी रुतबे और खोए प्यार को पाने का बखूबी रोल निभाया है। इसके साथ ही कबीर के रोल में संजय दत्त ने एक गैंगस्टर से ज्यादा समझदार अपराधी का रोल निभाया है। जो अपने गुस्से और दिल के हाथों मजबूर होकर अक्सर मुश्किलों में पड़ जाता है। इस रोल को संजय ने बखूबी निभाया है, हालांकि कई जगह वह थोड़ा निराश भी करते नजर आए हैं। इसके साथ ही जहां ये तीनों अपने रोल के साथ न्याय करते नजर आए हैं, वहीं फिल्म की अन्य दो ऐक्ट्रेसेस के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है। मोना के किरदार में चित्रागंदा सिंह बेशक बहुत ही खूबसूरत नजर आई हैं, लेकिन अपने इंट्रो सीने को छोड़कर वह फिल्म में अपनी कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई हैं। दूसरी ओर सोहा अली खान के टैलंट को साहेब की दूसरी बीवी रंजना के रोल में एकदम बर्बाद किया गया है। इसके अलावा कबीर बेदी, नफीसा अली और दीपक तिजौरी बूंदीगढ़ के राजपरिवार के तौर पर सपोर्टिंग रोल में फिट नजर आए हैं। हालांकि, एकसाथ इतने किरदारों को फिल्म में पेश करना थोड़ा मुश्किल भरा जरूर लगा, मगर तिग्मांशू धूलिया और संजय चौहान ने फिल्म की कहानी इस रोचक ढंग से लिखी है कि दर्शक आगे क्या होनेवाला है इसका अंदाजा नहीं लगा पाते हैं। ऐसे डायरेक्टर तिग्मांशू की इस फिल्म के आइटम नंबर और रोमांटिक गानों को छोड़ दें तो जबरदस्त तरीके से पंच के साथ लिखे गए डायलॉग्स दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहे हैं। जिनका असर फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों पर कायम रहता है। बहरहाल, अगर कुछेक बातों को छोड़ दें तो रोमांचक पटकथा और दमदार ऐक्टिंग के दम पर यह फिल्म अपनी पिछली फिल्मों को मिली सफलता को आगे ले जाती हुई नजर आती है। ",0 "पर्दे पर कलाकार की इमेज आमतौर पर इतनी प्रबल होती है कि दर्शक उसे उसी दायरे में देखने के आदी हो जाते हैं। कई बार पर्दे पर जब यह छवि खंडित होती है तो उसे अपनाना आसान नहीं होता। एक छोटे-से अंतराल के बाद 'डियर माया' से मनीषा कोइराला की वापसी हुई है और पर्दे पर पहली बार उन्हें माया के रूप में बूढ़ी, कुरूप, तन्हा और कॉम्प्लेक्स्ड किरदार में देखना उनके प्रसंशकों को आघात दे सकता है। जाहिर है कि एक जमाने में मनीषा बेहद दिलकश और ग्लैमरस अभिनेत्री रही हैं, मगर पहले फ्रेम के बाद कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, हम माया की जटिलताओं, रूप-रंग और बॉडी लैंग्वेज के साथ समरस होते जाते हैं। सेकंड हाफ के बाद माया चौंकाने में कामयाब रहती हैं। यह मनीषा जैसी समर्थ अभिनेत्री के अभिनय का जलवा और जुर्रत है कि उन्होंने अपनी वापसी के लिए इस तरह के अनकन्वेंशनल किरदार को चुना। शिमला में रहनेवाली ऐना (मदीहा इमाम) और ईरा (श्रेया सिंह चौधरी) हाई स्कूल में पढ़नेवाली शरारती लड़कियां हैं। ईरा की मां सिंगल पैरंट है, जबकि ऐना अपने माता-पिता के साथ रहती है। ऐना अपने पड़ोस में रहनेवाली माया देवी (मनीषा कोइराला) के प्रति गहरी दिलचस्पी रखती है। माया देवी ने पिछले 20-25 सालों से खुद को घर में बंद करके रखा है। माया के घर के सदस्यों के नाम पर एक नौकरानी, दो कुत्ते और पक्षियों से भरे कुछ पिंजरे हैं। ऐना को अपनी मां से पता चलता है कि माया की यह हालत उसके पीड़ित और दुखी बचपन के कारण है, जहां माया की मां की मौत के बाद उसके चाचा ने माया पर कुरूप होने का धब्बा लगाकर न केवल उसे प्रताड़ित किया बल्कि उसकी शादी नहीं होने दी। यही वजह है कि माया कभी किसी पर विश्वास नहीं कर पाई और अपने साथ हमेशा एक खंजर रखने लगी। कुल मिलाकर माया की जिंदगी बेरंग और उदास थी। ईरा के दिमाग में एक शैतानी भरा आइडिया आता है और दोनों सहेलियां मिलकर माया की बेरंग जिंदगी में रंग भरने का प्लान बनाती हैं या ईरा के शब्दों में कहें तो माया की जिंदगी में शाहरुख खान लाना चाहती हैं। इरा के उकसाने पर माया एक काल्पनिक शख्स वेद के नाम से माया को चिट्ठियां लिखने लगती है। उन रूमानी खतों से माया की जिंदगी में पॉजिटिव बदलाव आते हैं, मगर कहानी में भयानक मोड़ तब आता है, जब माया भी वेद से प्यार करने लगती है। एक काल्पनिक शख्स के लिए वह अपना घर बार बेचकर उसकी तलाश में दिल्ली आने का फैसला करती है। ऐना घबरा जाती है। वह चाह कर भी उसे सच्चाई नहीं बता पातीं। माया के चले जाने के बाद ऐना गहरे अपराधबोध से ग्रसित हो जाती है। उसे लगता है कि एक काल्पनिक शख्स की खोज में निकली गुमशुदा माया के लिए वह जिम्मेदार है। उसके बाद दिल्ली पढ़ाई करने आई ऐना की जिंदगी का एक ही मकसद है, माया को ढूंढना, मगर क्या वह माया को तलाश कर पाती है। इसका पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। निर्देशक सुनैना भटनागर इम्तियाज अली को असिस्ट कर चुकी हैं और कुछ दृश्यों में इम्तियाज की हलकी-सी झलक देखने को मिलती है। कहानी का बेसिक प्लॉट दिलचस्प है, मगर पेस धीमा है। फिल्म को 20 मिनट कम करके और ज्यादा कसा जा सकता था। कहानी में माया के किरदार और परिवेश पर मेहनत की गई है, मगर इंटरवल के बाद उनके गुमशुदगीवाले एंगल को जस्टिफाई नहीं किया गया है। कुछ दृश्यों का कच्चापन खटकता है, इसके बावजूद फिल्म सकारात्मक पहलू दिखाने में सफल रहती है। सायक भट्टाचार्य की सिनेमटॉग्रफी दमदार है। 'डियर माया' खुद को और अपनी जिंदगी को फिर से तलाशने की कहानी है और इसमें कोई शक नहीं कि मनीषा की दमदार वापसी हुई है। उनके डार्क सर्कल, लोगों के प्रति अविश्वास और सख्त रवैये से लेकर जिंदगी में आशा की किरण तक जैसे किरदार के विभिन्न पड़ावों को वे शिद्दत से जी जाती हैं। उन्होंने अपनी परफॉर्मेंस को रियलिस्टिक अप्रोच के साथ निभाया है। डेब्यू करने वालीं ऐक्ट्रेस श्रेया सिंह चौधरी और मदीहा इमाम ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है, लेकिन इमाम ध्यान खींचने में कामयाब रहती हैं। इरावती हर्षे ने मां के रोल को संतुलित ढंग से निभाया है। फिल्म का संगीत पक्ष यदि मजबूत होता तो फिल्म को और अधिक मजबूती मिल सकती थी। गानों की कोई रिकॉल वैल्यू नहीं है।डियर माया के रिव्यू को गुजराती में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें ",1 "निर्माता : करण अरोरा निर्देशक : अंकुश भट्ट कलाकार : केके मेनन, प्रशांत नारायण, पियूष मिश्रा, पवन मल्होत्रा, शिल्पा शुक्ला, दीप्ति नवल, कैटेरीना लोपेज, वेदिता प्रताप सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : ए अपराध की दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस दुनिया के लोग प्यार, दोस्ती, रिश्ते सब कुछ भूल जाते हैं। रास्ते में पड़ने वाली बाधा को हटाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस विषय को लेकर कई फिल्में पहले भी बनी हैं और यही कहानी है ‘भिंडी बाजार’ की। फिल्म का प्रस्तुतिकरण में निर्देशक और स्क्रीनप्ले लेखकों ने कुछ नया करने की कोशिश की है और इसमें उन्हें असफल मिली है। कई उतार-चढ़ाव देकर दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये प्रयास साफ नजर आते हैं। फिल्म एक रूटीन ड्रामा लगता है जो किसी तरह का असर नहीं छोड़ पाता है। मुंबई के भिंडी बाजार में जेबकतरों का एक गैंग है जिसका प्रमुख है मामू (पवन मल्होत्रा)। पांडे (पियूष मिश्रा) कभी मामू के लिए काम करता था, लेकिन विवादों के चलते उसने अपना गैंग बना लिया। दोनों गैंग के सदस्य एक-दूसरे को मारने का कोई असवर नहीं छोड़ते। इधर मामू के गैंग के कुछ युवा सदस्य जैसे तेज (गौतम शर्मा) और फतेह (प्रशांत नारायणन) मामू बनना चाहते हैं ताकि उनका राज चले। लगातार वे षड्यंत्र रचते रहते हैं। कहानी में कुछ महिला पात्र भी हैं, जिनकी वफादारी किसके प्रति है, ये पता लगाना बहुत मुश्किल है। यह कहानी बार-बार अतीत और वर्तमान में झूलती रहती है। श्रॉफ (केके मेनन) और तेज शतरंज खेल रहे हैं और तेज उसे अपनी कहानी सुनाता रहता है। शतरंज के खेल और तेज की जिंदगी को आपस जोड़ने की कोशिश निर्देशक ने की है, लेकिन बात नहीं बन पाई। थोड़ी-थोड़ी देर में श्रॉफ, तेज और शतरंज के दृश्य बीच-बीच में आते रहते हैं जो न केवल खीझ पैदा करते हैं बल्कि कहानी में भी रूकावट डालते हैं। तेज का प्रेम प्रसंग ठूँसा हुआ लगता है। निर्देशक अंकुश भट्ट पर रामगोपाल वर्मा का बहुत ज्यादा प्रभाव है। उन्होंने रूटीन कहानी को अलग तरह से प्रस्तुत करने की कोशिश की, लेकिन काम में सफाई ना होने के कारण बात नहीं बन पाई। संवादों में गालियों का उपयोग अखरता है क्योंकि वे घटनाक्रम से मेल नहीं खाती। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक शोरगुल से भरा है जो फिल्म देखते समय व्यवधान उत्पन्न करता है। अभिनय की बात की जाए तो पवन मल्होत्रा, प्रशांत नारायण, गौतम शर्मा, पियूष मिश्रा प्रभावित करते हैं। मामू की साली के रूप में वेदिता प्रताप सिंह असर छोड़ती हैं। दीप्ति नवल ने पता नहीं क्यों दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकार की। छोटे-से रोल में जैकी श्रॉफ निराश करते हैं। केके मेनन के पास सिवाय शतरंज खेलने के कुछ करने को नहीं था। कैटेरीना लोपेज के आइटम नंबर का ठीक से उपयोग नहीं किया गया। कुल मिलाकर ‘भिंडी बाजार’ में सब कुछ बासी-सा लगता है। ",0 "फिल्म की प्रचार लाइन में लिखा गया है ‘मिशन...मोहब्बत...मैडनेस’, लेकिन फिल्म देखने के बाद सिर्फ अंतिम शब्द ध्यान रहता है। निर्माता : चंपक जैन, गणेश जैन, रतन जैन निर्देशक : संजय छैल संगीत : अनु मलिक कलाकार : राहुल बोस, मल्लिका शेरावत, परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, ज़ाकिर हुसैन फिल्म शुरू होती है और दस मिनट में ही समझ में आ जाता है कि आगे कितना बोर होना पड़ेगा। एक थर्ड क्लास नाटक कंपनी के थर्ड क्लास कलाकार ‘मुगल-ए-आजम’ नाटक का मंचन करते हैं। वे जो मन में आता है वो बोलते हैं। हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी के अलावा वे आपसी बातचीत भी कर लेते हैं और सामने बैठे दर्शक खूब हँसते हैं। समय 1993 का है, कुछ पुराने इंडिया टुडे और फिल्मफेअर के मार्फत यह दिखाया गया है। सेंट लुईस नामक एक छोटे शहर में यह नाटक खेला जाता है। फिल्म के एक संवाद में बताया जाता है कि इस छोटे-से शहर में गिनती के लोग हैं और गिनती के मकान। लेकिन यहाँ इस नाटक के लगभग 125 शो होते हैं। गिनती के लोग होने के बावजूद इस घटिया नाटक के इतने शो? निर्देशक ने दर्शक बदलने की जहमत भी नहीं उठाई। अधिकांश दृश्यों में वही चेहरे मौजूद रहते हैं। एक बोलता है मैं यहाँ रोज आता हूँ क्योंकि यह नाटक देखने में बड़ा मजा आता है। धन्य है सेंट लुईस के लोग। राहुल बोस रॉ के एजेंट दिखाए गए हैं। लगता है कि उन्हें बहुत फुर्सत थी। रोजाना नाटक देखने आते और अनारकली बनी मल्लिका शेरावत को निहारते। मल्लिका की शादी उम्र में उनसे कहीं बड़े परेश रावल से हुई है। मल्लिका राहुल को भी चाहती है और परेश को भी। राहुल जब चाहते उसके मेकअप रूम, बेडरूम और बाथरूम में घुस जाते। का समय इसलिए दिखाया गया है कि उस समय देश में दंगे भड़काने की साजिश रची जा रही थी। राहुल बोस को इस बारे में पता चलता है और वे नाटक कंपनी के साथियों की मदद से देश को बचाते हैं, लेकिन बेचारे दर्शक नहीं बच पाते। हर तरह के किरदार इस फिल्म में हैं। के.के. मेनन रॉ एजेंट हैं, साथ में गजल गायक भी हैं। उनके तार आईएसआई और अंडरवर्ल्ड से भी जोड़ दिए गए। बाद में उनसे लाश के रूप में भी अभिनय करवा दिया। थिएटर का एक कलाकार दाउद इब्राहीम जैसा है ताकि वक्त आने पर वह नकली दाउद बन सके। निर्देशक संजय छैल ने इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा ‘जाने भी दो यारो’ के क्लायमैक्स में खेले गए नाटक से ली है। उन्होंने फिल्म को जमकर रबर की तरह खींचा। अंडरवर्ल्ड, विवाहेतर संबंध, देशभक्ति, कॉमेडी जैसी सारी चीजें उन्होंने फिल्म में डाल दीं, लेकिन यह सब मिलकर ट्रेजेडी बन गई। ढाई घंटे तक परदे पर नौटंकी चलती रहती है। निरंतरता का फिल्म में अभाव है और कोई भी सीन कहीं से भी टपक पड़ता है। ‘मुगल-ए-आजम’ नाटक में तो उन्होंने जानबूझकर कलाकारों को घटिया अभिनेता दिखाने के लिए ‍घटिया अभिनय कराया, लेकिन नाटक के बाहर भी उनसे घटिया अभिनय क्यों करवाया यह समझ के परे है। परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, राहुल बोस जैसे सारे कलाकार फिल्म में ओवर एक्टिंग करते रहे। क्या ओवरएक्टिंग को ही निर्देशक ने हास्य मान लिया। इतने अच्छे कलाकारों का ठीक से उपयोग नहीं कर पाना निर्देशक की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। राहुल बोस और परेश रावल ने तरह-तरह के गेटअप बदलकर अपनी-अपनी भूमिका निभाई, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाए। राहुल बोस का अभिनय देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनके सिर पर बंदूक तानकर जबर्दस्ती उनसे अभिनय करवा रहा हो। के.के. मेनन ने खूब बोर किया। मल्लिका शेरावत का ध्यान अभिनय पर कम और अंग प्रदर्शन पर ज्यादा था। अनु मलिक ने अपनी सारी बेसुरी और पुरानी धुनें निर्माता को टिका दीं। आश्चर्य होता है कि ये धुनें उस संगीत कंपनी (वीनस) ने खरीदी, जो संगीत की समझ होने का दावा करती है। गानों के फिल्मांकन पर खूब पैसा खर्च किया गया है, लेकिन एक भी देखने लायक नहीं है। कहानी से भी इनका कोई लेना-देना नहीं है। फिल्म की प्रचार लाइन में लिखा गया है ‘मिशन...मोहब्बत...मैडनेस’, लेकिन फिल्म देखने के बाद सिर्फ अंतिम शब्द ध्यान रहता है। ",0 "यकीन नहीं होता कि 'ओह माय गॉड' जैसी उम्दा फिल्म बनाने वाले फिल्म निर्देशक उमेश शुक्ला 'ऑल इज़ वेल' जैसी खराब फिल्म बना सकते हैं। रोड ट्रिप के जरिये एक बेटे और माता-पिता के बीच दूरियां खत्म होने की कहानी उन्होंने पेश की है, लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उल्लेखनीय कहा जा सके। इन्दर (अभिषेक बच्चन) के पिता भल्ला (ऋषि कपूर) और मां पम्मी (सुप्रिया पाठक) आपस में लड़ते रहते हैं। इन्दर के पिता की एक बेकरी है जिससे खास आमदनी नहीं होती है। माता-पिता के विवादों से परेशान इन्दर बैंकॉक चला जाता है ताकि अपना म्युजिक अलबम निकाल सके। दस साल बाद इन्दर को फोन आता है कि उसके पिता बेकरी बेचना चाहते हैं और इसके लिए इन्दर की साइन की जरूरत है। भारत लौटने पर इन्दर को पता चलता है कि उसकी मां को अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है। पिता पर बीस लाख रुपये का कर्ज है, चीमा नामक गुंडा यह वसूलना चाहता है। इन्दर के पिता बेकरी बेचने के लिए तैयार नहीं है। बैंकॉक से इन्दर के साथ निम्मी (असिन) भी भारत आती है। इन्दर को निम्मी बेहद चाहती है, लेकिन अपने माता-पिता के अनुभव के आधार पर इन्दर शादी नहीं करना चाहता। निम्मी की दूसरे लड़के से शादी तय हो जाती है। चीमा को इन्दर, उसके माता-पिता और निम्मी किसी तरह चकमा देकर भाग निकलते हैं। इन्दर के पीछे चीमा और चीमा के पीछे पुलिस। इस भागदौड़ में कई गड़बड़ियां होती है। कुछ दिन बाप-बेटे साथ गुजारते हैं और उनके बीच की गलतफहमियां दूर हो जाती हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट बकवास है। ऐसे कई सवाल हैं जो फिल्म देखते समय लगातार उठते रहते हैं। भल्ला आखिर क्यों अपनी पत्नी पर चिल्लाता रहता है? इन्दर अपने पिता से इसलिए नाराज है क्योंकि वे जिंदगी में 'लूजर' है, लेकिन दस वर्षों में उसने भी न पैसा कमाया न नाम। पिता से पंगा था इसलिए दस साल से बात नहीं की, लेकिन मां को किस बात की सजा दी? निम्मी आखिर क्यों इन्दर के पीछे पड़ी रहती है जबकि इन्दर उसमें कभी रूचि नहीं लेता और शादी से साफ इनकार भी कर देता है। इन्दर की मां को अल्जाइमर रहता है, लेकिन फिल्म के आखिर में वह अचानक कैसे ठीक हो जाती है? ऐसी कई सवाल और हैं जो उठाए जा सकते हैं। पौराणिक किरदार श्रवण कुमार से भी इन्दर के कैरेक्टर को जोड़ने की तरकीब फिजूल है। कोई भी किरदार ऐसा नही है जिससे दर्शक अपने आपको कनेक्ट कर सके। ऑल इ ज़ वेल के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक उमेश शुक्ला का प्रस्तुतिकरण बहुत ही कमजोर है। हास्य के नाम पर उन्होंने ऐसे दृश्य परोसे हैं मानो सब टीवी का कोई फूहड़ धारावाहिक देख रहे हो। बासी चुटकलों से हंसाने की कोशिश की है। स्क्रिप्ट की खामियों को कैसे वे नजरअंदाज कर गए ये खोज का विषय है। किरदारों को भी वे ठीक से पेश नहीं कर पाए। मनोरंजन का फिल्म में नामो-निशान नहीं है। बुरी स्क्रिप्ट और निर्देशन का असर कलाकारों की एक्टिंग पर भी पड़ा। ऋषि कपूर चीखते-चिल्लाते रहे। अभिषेक बच्चन का अभिनय देख ऐसा लगा कि मानो उन्हें फिल्म करने में कोई रूचि ही नहीं है। यही हाल असिन का भी रहा। सुप्रिया पाठक जैसी अभिनेत्री को तो अवसर ही नहीं मिला। चीमा के रूप में ज़ीशान अय्यूब ने अपने अभिनय से किरदार में जान डालने की कोशिश की है। सोनाक्षी सिन्हा ने सिर्फ संबंधों की खातिर एक आइटम सांग किया जो देखने लायक ही नहीं है। फिल्म का टाइटल जरूर बताता है कि 'ऑल इज़ वेल', लेकिन सच्चाई से यह बात कोसों दूर है। निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, वरुण बजाज निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : हिमेश रेशमिया, अमाल मलिक, मिथुन, मीत ब्रदर्स अंजान कलाकार : अभिषेक बच्चन, असिन, ऋषि कपूर, सुप्रिया पाठक, ज़ीशान अय्यूब, सोनाक्षी सिन्हा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 5 मिनट 49 सेकंड ",0 "गोविंदा और कॉमिडी को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा जाए तो गलत न होगा। इस जाने-माने स्टार-ऐक्टर ने जितनी कॉमिडी फिल्में की होंगी, शायद ही किसी और अदाकार ने की होंगी। अभिषेक डोगरा के निर्देशन में 'फ्राइडे' से गोविंदा की वापसी हुई है और इसमें कोई शक नहीं है कि गोविंदा अपने पुराने अंदाज में नजर आए हैं। अभिषेक ने अगर एक दमदार कहानी का चयन किया होता, तो यह फिल्म गोविंदा की बेहतरीन कमबैक हो सकती थी, मगर फिर भी यह बेसिरपैरवाली कहानी के साथ एक टाइम पास मूवी है, जो अडल्टरी लॉ के खारिज किए जाने के बाद विवाहेतर संबंधों पर एक हलका-फुलका मेसेज भी देती है।कहानी: कहानी की शुरुआत होती है, सैल्समैन राजीव छाबड़ा (वरुण शर्मा) से। यह बेचारा अपने काम में नाकामी का मारा है। इससे एक लंबे अरसे से प्यूरीफायर नहीं बिका है और अब इसकी नौकरी खतरे में है। नौकरी के हाथ से जाने के साथ-साथ गर्लफ्रेंड भी ऑफिस में काम करने वाले सफल सेल्समैन के साथ हो ली है। हर तरह से निराश होने के बाद राजीव किसी तरह से जुगाड़ करके स्टेज के जाने-माने आर्टिस्ट गगन (गोविंदा) की समाजसेवी पत्नी बेला (प्रभलीन संधू) को दीदी बनाकर उसके घर प्यूरीफायर लगाने पहुंचता है। गगन के घर पहुंचने के बाद वह देखता है कि बिंदु (दिगांगना सूर्यवंशी) जो कि पुलिस अफसर राजेश खेड़ा की बीवी है, गगन की बाहों में लिपटी हुई है। राजीव से पहले उस घर में एक चोर (बृजेंद्र काला) घुसपैठ कर चुका है और गगन और बेला के विवाहेतर संबंधों का राज जानकर उन्हें ब्लैकमेल करके घर में बड़े मजे से चोरी कर रहा है। राजीव के घर में दाखिल होने के बाद बहुत सारा कन्फ्यूजन पैदा हो जाता है। गगन राजीव के सामने बेला को अपनी बीवी बताता है। घर में राजीव के साथी प्लंबर( इश्तियाक खान) की एंट्री होती है। फिर गगन की असली बीवी बेला भी आ धमकती है और अंत में बिंदु का पुलिसिया पति भी आ पहुंचता है। कई उतार-चढ़ाव और झूट-सच के साथ कहानी अपनी मंजिल तक पहुंचती है। रिव्यू: निर्देशक अभिषेक डोगरा का सारा जोर फिल्म को टाइम पास बनाने में रहा। यही वजह है कि उन्होंने कहानी का दामन पूरी तरह से छोड़ दिया। हां, फिल्म में कॉमिडी ऑफ एरर्स का उन्होंने अच्छा-खासा इस्तेमाल किया है। लगता है उन्होंने यह फिल्म गोविंदा जैसे सीनियर ऐक्टर को ट्रिब्यूट देने के लिए भी बनाई है, क्योंकि एक सीन में वरुण शर्मा गोविंदा से कहते हैं, आप अपने आप में किसी संस्थान से कम नहीं, वहीं एक अन्य दृश्य में जब वरुण गोविंदा से पूछते हैं कि उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड कब मिलेगा, तो वह कहते हैं, पहले नैशनल तो मिल जाए। पूरी फिल्म तकरीबन एक ही घर में शूट की गई है, तो इससे आपको फिल्मों जैसे भव्य विजुअल्स भी नहीं मिल पाता। मनु ऋषि चड्ढा के डायलॉग्ज मनोरंजक हैं। अभिनय के मामले में यह टिपिकल गोविंदा वाली फिल्म है, जिसमें गोविंदा ने जमकर मनोरंजन किया है। वरुण शर्मा ने कॉमिडी में उनके साथ को कायम रखा है। वरुण ने अपने अभिनय से लोगों को खूब हंसाया है। ये दोनों ही कलाकार अपने किरदारों में फिट नजर आते हैं। गोविंदा की कॉमिक टाइमिंग लाजवाब है। बृजेंद्र काला और राजेश शर्मा अपने अंदाज में आपका मनोरंजन करते हैं तो वहीं फिल्म से डेब्यू करनेवाली दिगांगना सूर्यवंशी का काम भी अच्छा है। प्रभलीन संधू औसत रही हैं। संगीत के मामले में फिल्म कुछ खास असर नहीं छोड़ पाती। क्यों देखें: कॉमिडी के शौकीन और गोविंदा के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।",0 "इस साल की दूसरी छमाही में आने वाली अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमैन' उसी वक्त चर्चा में आ गई जब अक्षय ने पहली बार इसके सब्जेक्ट के बारे में बताया। उस वक्त लगा कि ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाना हर किसी के बूते की बात नहीं। ठीक कुछ वैसे ही जैसे कुछ साल पहले आयुष्मान खुराना स्टारर 'विकी डोनर' के सब्जेक्ट को लेकर था। फिलहाल, अक्षय की फिल्म को रिलीज होने में वक्त लगेगा लेकिन इसी बीच यंग डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना ने लगभग उसी सब्जेक्ट पर 'फुल्लू' बनाकर रिलीज भी कर डाली। वैसे, अक्षय की फिल्म को इस फिल्म के पहले रिलीज होने से फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि अक्षय की फिल्म में नामी स्टार्स के साथ-साथ बॉक्स आफिस पर बिकाऊ मसाला भी भरपूर होगा। बॉलिवुड में कुछ अर्से से लीक से हटकर या कुछ अलग फिल्में बन रही हैं। अब जब इन फिल्मों को मेजर सेंटरों पर दर्शकों की एक खास क्लास मिलने लगी है और बॉक्स आफिस कलेक्शन भी बढ़ने लगा है, तो मेकर 'फुल्लू' जैसी फिल्म बनाने से परहेज नहीं करते। फिल्म के डायरेक्टर अगर चाहते तो अपनी कहानी को किसी बड़े शहर पर फोकस करके भी फिल्म बना सकते थे, लेकिन यहां अभिषेक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी के साथ पूरी ईमानदारी बरतते हुए शहर से दूर एक छोटे से गांव की महिलाओं पर फोकस करके यह फिल्म बनाई। आज भी हमारे शहरों से कहीं ज्यादा आबादी इन्हीं गांवों में रहती है। अब गांव के किसान भी अपनी खेती छोड़कर दूर-दराज के गांव जाकर काम करना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसे में गांवों में रहने वाली महिलाओं की समस्याओं और उनकी निजी जिंदगी से इन मर्दों को कोई लेना-देना नहीं होता। इस फिल्म के लीड हीरो शारिब अली हाशमी ने कुछ साल पहले रिलीज हुई फिल्म 'फिल्मिस्तान' में लीड किरदार निभाकर क्रिटिक्स और दर्शकों की जमकर वहवाही बटोरी, अब लंबे अर्से बाद शारिब जब इस फिल्म में लीड किरदार में नजर आए तो उन्होंने जता दिया कि वह कोई भी किरदार खूबसूरती से निभाने में सक्षम हैं। कहानी: फुल्लू (शारिब अली हाशमी) एक छोटे से गांव में अपनी मां और बहन के साथ रहता है। फुल्लू कोई कामकाज नहीं करता। लेकिन जब कभी गांव से दूर शहर जाता है, तो गांव में रहने वाली महिलाएं उससे अपनी जरूरत का सामान मंगवाती हैं। वह कभी किसी को ना नहीं कहता। फुल्लू की मां उसकी शादी बिगनी (ज्योति सेठी) के साथ कर देती है। एक दिन फुल्लू जब शहर सामान लेने आता है तो उसे पहली बार माहवारी के दौरान उपयोग में आने वाले सेफ्टी पैड के बारे में पता चलता है। एक मेडिकल हाउस में वह लेडी डॉक्टर को महिलाओं को इसके बारे में बताते हुए सुनता है। फुल्लू को लगता है गांव में रहने वाली सभी महिलाओं को इस पैड के बारे में जागरूक करना चाहिए और उन्हें बहुत कम कीमत पर पैड उपलब्ध भी कराए जाने चाहिएं। फुल्लू शहर में आकर पैड बनाना सीखता है। जब वह सीखकर गांव लौटता है, तो उसकी मां और बहन ही उसके इस काम से खुश नहीं होते। लेकिन बिगनी को भरोसा है एक दिन उसका पति अपने इस नेक मकसद में कामयाब ज़रूर होगा। ऐक्टिंग: फुल्लू के किरदार में शारिब हाशमी छा गए। इमानुल हक कम फुटेज होने के बावजूद अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। ज्योति सेठ और नूतन सूर्या ने अपने किरदारों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। निर्देशन: कई बॉलीवुड फिल्मों के सीन्स में महिलाओं की माहवारी का ज़िक्र हुआ है लेकिन इस सब्जेक्ट पर किसी ने फिल्म नहीं बनाई। तारीफ करनी होगी इस फिल्म के निर्माताओं की, जिन्होंने ऐसे अहम सब्जेक्ट पर पूरी ईमानदारी के साथ फिल्म बनाई। यह फिल्म महिलाओं को फोकस करके बनाई गई है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि जेंट्स फिल्म के साथ कनेक्ट नहीं कर पाएंगे। इस फिल्म का लीड किरदार फुल्लू ऐसा है जो हर किसी की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखता है। यंग डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना ने फिल्म को सच के और नजदीक रखने के लिए फिल्म की शूटिंग किसी स्टूडियो में ना करके गांव में जाकर की जो फिल्म को और भी खूबसूरत बनाता है। फिल्म में मैसेज देने की चाहत में स्क्रीनप्ले पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। एडिटिंग काफी सुस्त है जिससे दो घंटे से भी कम अवधि की फिल्म भी दर्शकों को अंत तक बांधकर नहीं रख पाती संगीत: फिल्म का संगीत कहानी का अहम हिस्सा लगता है। बैकग्राउंड में चल रहा गाना 'भुल्लर भुल्लर' अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें: अगर आप अच्छी और ज़मीनी हकीकत से जुड़ी फिल्मों के शौकीन हैं तो फुल्लू आपको पसंद आएगी। और हां, यह समझ से परे है कि सेंसर ने ऐसी फिल्म, जो समाज को एक मैसेज दे रही है, को अडल्ट सर्टिफिकेट किस आधार पर दिया ।",0 " तीन कलाकारों के ट्रिपल रोल कॉमेडी और कन्फ्यूजन के लिए विशाल कैनवास देता है, लेकिन इसके लिए फिल्मकार और स्क्रिप्ट में बहुत दम होना चाहिए। साजिद खान ने ट्रिपल रोल वाली बात तो सोच ली, लेकिन उसके लिए जो स्क्रिप्ट लिखी है वो निहायत ही घटिया है। ऊपर से साजिद का घटिया निर्देशन करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ करता है। 'तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा' भी याद आ रहा है। हमशकल्स' फिल्म मजा के बजाय सजा देती है। ऐसी सजा जिसके लिए पैसे भी आपने ही खर्च किए हैं। 'हिम्मतवाला' के पिटने के बाद साजिद को समझ में आ गया कि वे वही काम करें जो उन्हें आता है। यानी की कॉमेडी फिल्म बनाना। 'हाउसफुल' सीरिज में उन्होंने दर्शकों को हंसाया था, लेकिन इस बार साजिद अपने चिर-परिचित विकेट पर ही रन आउट हो गए। कई बार ऐसा लगता है कि 'हिम्मतावाला' की असफलता का वे दर्शकों से बदला ले रहे हो। माइंडलेस कॉमेडी फिल्मों का भी अपना मजा होता है, लेकिन 'हमशकल्स' तो इस कैटेगरी में भी नहीं आती। हमशकल्स' में कहानी जैसी कोई चीज है ही नहीं। अशोक (सैफ अली खान) और कुमार दोस्त हैं। अरबपति-खरबपति अशोक संघर्षरत स्टैंडअप कॉमेडियन है। रेस्तरां में वह ऐसे चुटकले सुनाता है कि लोग भाग खड़े होते हैं। अंग्रेजों को वह हिंदी में जोक्स सुनाता है। एक लड़की उसे बोलती है कि आप बड़े 'विटी' हैं तो वह जवाब देता है कि आप 'चर्चगेट' हैं। अशोक का मामा (राम कपूर) उसे पागल घोषित कर सारी जायदाद अपने नाम कराना चाहता है। अशोक, कुमार और मामाजी के उसी शहर में हमशकल्स हैं। तीनों ही पागल हैं और पागलखाने में भर्ती है। वे कब पागल बन जाते हैं और कब एकदम सयाने ये लेखक और निर्देशक ने अपनी सहूलियत से तय किया है। अदला-बदली होती है और कन्फूजन पैदा करने की नाहक कोशिश पैदा की गई है। सयाने अशोक और कुमार बाहर भी आ जाते हैं, लेकिन पुलिस की मदद लेने का खयाल उनके दिमाग में दूर-दूर तक नहीं आता। खतरनाक पागलों को वहां काम करने वाला एक कर्मचारी बड़ी आसानी से भगा देता है। ऐसी ढेर सारी खामियां स्क्रिप्ट्स में हैं। डबल रोल का वजन तो साजिद से संभल नहीं रहा था और उन्होंने तीनों के तीसरे हमशकल्स को भी स्क्रिप्ट में बिना वजह के घुसेड़ दिया। इतना वजन लादने के बाद स्क्रिप्ट का तो दम ही निकल गया। डर लगने लगा कि कहीं इनके चौथे हमशकल्स न आ जाए। तीसरे हमशकल्स के लिए प्लास्टिक सर्जरी का सहारा ले लिया गया। वैसे तो साजिद अपने दर्शकों को निहायत ही बुद्धू समझते हैं, लेकिन फिर भी एक किरदार पूछता है कि प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे तो बदल दिए गए हैं, लेकिन आवाज वैसी कैसे है? जवाब मिलता है कि गले में वोकल घुसेड़ दिया गया है। क्लाइमेक्स में भीड़ इकट्ठी करना साजिद की खासियत है जो फिजूल की भागमभाग करते हैं। हाउसफुल में इंग्लैंड की महारानी नजर आई थी कि यहां प्रिंस चार्ल्स का डुप्लिकेट दिखाई देता है। दर्शकों को हंसाने के लिए तमाम कोशिशें की गई हैं, लेकिन एकाध दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें देख मुस्कान भी चेहरे से मीलों दूर रह जाती है। कंपनी की बोर्ड मीटिंग वाला सीन ही उम्दा है जिसमें तीनों हमशकल्स के कारण कन्फ्यूजन पैदा होता है। हंसाने के लिए क्या-क्या किया गया है, इसकी बानगी देखिए, पानी एक दवाई में मिला दो तो आदमी कुत्ते की तरह व्यवहार करने लगता है। यह दवाई पीने के बाद सैफ और रितेश कुत्ते की तरह व्यवहार करते हैं। लोगों को काटते हैं। एक परफ्यूम ऐसा है जिसे लगा तो महिलाओं से पुरुष चिपकने लगता है। राम कपूर अपनी ही हमशक्ल महिला के पीछे बावरा हो जाता है। कोकीन और वोदका के परांठे खिलाए गए हैं। साजिद खान ने दर्शकों को बुद्धू समझते हुए चीजों को इतना ज्यादा समझाया है कि कोफ्त होने लगती है। जब हमशक्ल किरदारों की अदला-बदली होती है तो बैकग्राउंड से आवाज आती है 'अदला बदली हो गई, कन्फ्यूजन शुरू हो गई'। और जिस कन्फ्यूजन के पीछे दर्शक मनोरंजन की तलाश करता है वो कही भी नजर नहीं आता। कलाकारों ने एक्टिंग के नाम पर मुंह बनाया है, आंखें टेढ़ी की हैं और जीभ बाहर निकाली है। सैफ अली खान थके हुए, असहज और मिसफिट लगे हैं। रितेश देशमुख की टाइमिंग भी साजिद के घटिया निर्देशन के कारण गड़बड़ा गई है। राम कपूर ने इन दोनों हीरो के मुकाबले अच्‍छा काम किया है। सतीश शाह भी थोड़ा हंसा देते हैं। बिपाशा बसु ने फिल्म का प्रमोशन क्यों नहीं किया, उनका रोल देख समझ आ जाता है। ऊपर से उन्होंने एक्टिंग भी घटिया की है। तमन्ना भाटिया और ईशा गुप्ता को तुरंत एक्टिंग की क्लास में प्रवेश लेना चाहिए। तीनों हीरोइनें हर जगह शॉर्ट पहन कर आंखें मटकाती रहती हैं। फिल्म में पागल खाने का सिक्युरिटी ऑफिसर (सतीश शाह) मरीजों को टार्चर के लिए साजिद खान की 'हिम्मतवाला' और फराह खान की 'तीस मार खां' दिखाता है। हो सकता है कि साजिद अपनी अगली फिल्म में टार्चर लिए 'हमशकल्स' का भी इस्तेमाल करें। फिल्म के किरदार बार-बार बोलते हैं 'हम पागल नहीं हैं हमारा दिमाग खराब है', उनका इशारा किस ओर है यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो, पूजा एंटरटेनमेंट इंडिया लि. निर्माता : वासु भगनानी निर्देशक : साजिद खान संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : सैफ अली खान, बिपाशा बसु, रितेश देशमुख, तमन्ना भाटिया, ईशा गुप्ता, राम कपूर, सतीश शाह, चंकी पांडे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 33 सेकंड ",0 " चंपक (रितेश देशमुख), गुलाब (भुवन अरोरा) और गेंदा (विक्रम थापा) जेबकतरे हैं। एक ही दांव में ज्यादा से ज्यादा पैसा पाने के चक्कर में बैंक में डाका डालने पहुंच जाते हैं। बैंक डकैती वाले दिन उनके सारे दांव उल्टे पड़ जाते हैं। पुलिस भी पहुंच जाती है और मीडिया भी। फिर एंट्री होती है सीबीआई ऑफिसर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) की क्योंकि बैंक में कुछ 'खास' है। अपनी हरकतों से बेवकूफ नजर आने वाले चंपक, गुलाब और गेंदा किस तरह से परिस्थितियों से निपटते हैं, यह फिल्म में कॉमेडी और थ्रिल के सहारे दिखाया गया है। कागज पर कहानी भले ही अच्छी लगती हो, लेकिन प्रस्तुतिकरण में मात खा गई है। इस कहानी में हास्य और रोमांच की भरपूर संभावनाएं थीं, जिनका दोहन नहीं हुआ। फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा और उबाऊ है। कहानी ठहरी हुई लगती है। चंपक, गुलाब और गेंदा की बेवकूफों वाली हरकतें हंसाती नहीं बल्कि आपके धैर्य की परीक्षा लेती हैं। चंपक मुंबई का है और गुलाब-गेंदा दिल्ली के। मुंबई बनाम दिल्ली को लेकर जो कॉमेडी पैदा की गई है वो बिलकुल प्रभावित नहीं करती। फिल्म में एक्शन कम और बातें ज्यादा हैं। बैंक चोर बिलकुल भी हड़बड़ी या तनाव में नजर नहीं आते। वे बड़े आराम से अपना काम करते हैं मानो महीने भर का समय उनके पास है। जबकि बाहर पुलिस खड़ी हुई है। वे घिरे हुए हैं। फिल्म के अंत में इन सब बातों का स्पष्टीकरण दिया गया है, लेकिन ये काफी नहीं है। स्क्रिप्ट में इतनी कमियां हैं कि उन्हें यहां गिनाने का कोई मतलब नहीं है। इतना बड़ा बैंक, मात्र तीन चोर, अंदर 28 लोग, बाहर पुलिस, सीबीआई, बड़ी आसानी से इन पर काबू किया जा सकता था, लेकिन कुछ नहीं होता। चोर पकड़ने वाले तो मानो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। इंटरवल के बाद जरूर दर्शकों को चौंकाने में फिल्मकार को सफलता हाथ लगती है, लेकिन यह उफान बहुत जल्दी उतर जाता है। निर्देशक के रूप में बम्पी फिल्म को विश्वसनीय नहीं बना पाए। कहानी जो हास्य और रोमांच की मांग करती थी, वे पूरी नहीं कर पाए। रितेश देशमुख का अभिनय अच्छा है, हालांकि उनसे बहुत कुछ कराया जा सकता था। गुलाब और गेंदा बने भुवन अरोरा और विक्रम थापा की जोड़ी अच्छी लगती है और उन्होंने थोड़े राहत के पल दिए हैं। विवेक ओबेरॉय को संवादों के जरिये बहुत काबिल ऑफिसर बताया गया है, लेकिन वे कभी कुछ करते नहीं दिखाई दिए। रिया चक्रवर्ती का अभिनय औसत है। बाबा सहगल बोर करते हैं। 'बैंक चोर' देखने के बाद लगता है कि जेब भी कट गई और महत्वपूर्ण समय भी गंवा बैठे। बैनर : वाय फिल्म्स निर्माता : आशीष पाटिल निर्देशक : बम्पी संगीत : श्री श्रीराम, कैलाश खेर, रोचक कोहली, बाबा सहगल, समीर टंडन कलाकार : रितेश देशमुख, रिया चक्रवर्ती, विवेक ओबेरॉय, भुवन अरोरा, विक्रम थापा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 सेकंड ",0 "बार बार देखो में दो संदेश दिए गए हैं। कल की चिंता में दुबले होने की बजाय वर्तमान को भरपूर तरीके से जियो तथा परिवार और काम के बीच में संतुलन रखो। इन दोनों बातों को कहानी में गूंथ कर दर्शाया गया है। अतीत में की गई गलतियों को सुधारने की कोशिश फिल्म 'एक्शन रिप्ले' में दिखाई गई थी, 'बार बार देखो' में भविष्य में होने वाली गलतियों को पहले ही देख लिया जाता है और उन्हें होने के पहले ही सुधार लिया जाता है। जय वर्मा (सिद्धार्थ मल्होत्रा) गणित का प्रोफेसर है। जिंदगी में भी हर समय वह केलकुलेशन करता रहता है। गणित की दुनिया में नाम कमाने का उसका सपना है और इसलिए वह अपनी बचपन की गर्लफ्रेंड दीया कपूर से शादी करने से बचता है। शादी के ऐन मौके पर वह अपने दिल की बात दीया को बता कर उसका दिल तोड़ देता है। इसके बाद जय सो जाता है। नींद खुलती है तो वह अपने आपको दस दिन आगे पाता है। उसे कुछ समझ नहीं आता। अगली बार सोने पर वह समय को दो साल आगे पाता है। इसके बाद टाइम सोलह वर्ष आगे हो जाता है। घटनाएं उसके साथ ऐसी घटती हैं कि अतीत में की गई गलतियों के परिणाम उसे भविष्य में भुगतना पड़ते हैं और उन्हें सुधारने के लिए वह वर्तमान में आने के लिए झटपटाने लगता है। फिल्म की कहानी दिलचस्प है, लेकिन नित्या मेहरा, अनुभव पाल और श्री राव द्वारा लिखा स्क्रीनप्ले थोड़ा कमजोर है। जय के किरदार को ठीक से पकाया नहीं गया है। दीया उसके साथ इतने वर्ष से है फिर भी उसके खयालात के बारे में नहीं जानती या दीया को अब तक अपने विचारों से जय ने क्यों नहीं अवगत कराया, आश्चर्य पैदा करता है। यह बात फिल्म देखते समय लगातार अखरती है। दूसरी बात जो अखरती है वो फिल्म की लंबाई। कुछ प्रसंग को अनावश्यक रूप से लम्बा खींचा गया है इसलिए फिल्म लगातार हिचकोले खाती रहती हैं। अच्छी बात यह है कि फिल्म में दिलचस्पी बनी रहती है। जय की जिंदगी में समय की छलांग उत्सुकता पैदा करती है। जय और दीया के साथ कुछ मजबूत चरित्र किरदार फिल्म को मजबूती देते हैं। साथ ही कहानी के लिए जो माहौल बनाया गया है, ड्रामे को हल्का-फुल्का रखा गया है वो दर्शकों को राहत देता है। इंटरवल के बाद फिल्म में जान आती है और क्लाइमैक्स फिल्म का मजबूत पक्ष है। यह निर्देशक नित्या मेहरा की बतौर निर्देशक पहली फिल्म है। वे 'लाइफ ऑफ पाई' और 'द रिलक्टंट फंडामेंटलिस्ट' में सहायक निर्देशक के तौर पर काम कर चुकी हैं। मीडियम पर नित्या की पकड़ नजर आती है। कहानी बार-बार वर्तमान से भविष्य और अतीत में आती-जाती है, लेकिन उन्होंने दर्शकों के मन में कन्फ्यूजन नहीं पैदा होने दिया। साथ ही फिल्म के संदेश को उन्होंने अच्छे से दर्शकों के दिमाग में उतारा है। बार बार दे खो के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें लीड रोल में सिद्धार्थ मल्होत्रा और कैटरीना कैफ हैं। इन दोनों कलाकारों की पहचान कभी भी बेहतरीन कलाकार के रूप में नहीं रही है। यहां पर दोनों के अभिनय में गुंजाइश नजर आती है, हालांकि दोनों ने हरसंभव कोशिश की है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ दिक्कत यह रही है उनके किरदार को 30 से 60 वर्ष तक आयु में पेश किया गया है, लेकिन उनके चेहरे के भाव हरदम एक जैसे रहे हैं। बॉडी लैंग्वेज पर उन्हें मेहनत की जरूरत है। सिद्धार्थ और कैटरीना कैफ की जोड़ी अच्‍छी लगी है। कैटरीना को अंग्रेज महिला की बेटी बताकर निर्देशक ने उनकी संवाद अदायगी को मजबूत पक्ष बना दिया। अभिनय के मामले में कैटरीना ठीक रही हैं। राम कपूर का किरदार दिलचस्प है और उनका अभिनय भी अच्छा है। रवि के. चंद्रन भी सिनेमाटोग्राफी का उल्लेखनीय जरूरी है। उन्होंने कहानी को इस तरह से फिल्माया है कि निर्देशक का बहुत सारा काम आसान हो गया है। किरदारों के मूड और महत्व के अनुसार उन्होंने कैमरे की पोजीशन रखी है और लाइट्स का उपयोग किया है। कुल मिलाकर 'बार बार देखो' को एक बार देखा जा सकता है। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन्स, इरोस इंटरनेशनल निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, करण जौहर, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : नित्या मेहरा संगीत : अमाल मलिक, आर्को, बादशाह, बिलाल सईद, जसलीन रॉयल, प्रेम हरदीप कलाकार : कैटरीना कैफ, सिद्धार्थ मल्होत्रा, सारिका, राम कपूर, रजित कपूर सेसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 21 मिनट 19 सेकंड ",1 "IFM फिल्म का संपादन तो कमाल का है। दो-तीन दृश्यों में तो संवाद अधूरा ही रह गया और उन्होंने दूसरा दृश्य जोड़ डाला। कई जगह फिल्म धुँधली नजर आती है। संगीतकार डब्बू मलिक की गाड़ी भी ऐसे निर्माताओं के बल पर चल रही है। गीत-संगीत के नाम पर वे कुछ भी बनाकर टिका देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद है ‘ये हमारे म्यूजिक वीडियो का डब्बू मलिक है। पता नहीं आज किसे पका रहा होगा।‘ पकाने का काम डब्बू ने नहीं बल्कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने किया है। इस मामले में टीमवर्क दिखाई देता है। IFM निर्माता : मनोज चतुर्वेदी, संजय चतुर्वेदी निर्देशक : अजय चंडोक संगीत : डब्बू मलिक कलाकार : सोहेल खान, अमृता अरोरा, आरती छाबडि़या, यश टोंक, व्रजेश हीरजी, सयाजी शिंदे, कुलभूषण खरबंदा यू सर्टिफिकेट * 14 रील ’टीम : द फोर्स’ के कास्ट और क्रू पर नजर दौड़ाई जाए, तो ज्यादातर नाम दोयम दर्जे के नजर आते हैं। अब दोयम दर्जे के निर्देशक और कलाकारों से एक घटिया फिल्म की ही उम्मीद की जा सकती है और इस उम्मीद को ‘टीम’ की टीम नहीं तोड़ती। इस फिल्म में एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जो प्रशंसा के काबिल हो। अजय चंडोक ऐसे निर्देशक हैं, जिन्हें सस्ती फिल्म बनाने वाले निर्माता साइन करते हैं और घटिया फिल्म बनाने के बावजूद उनके हाथ में कुछ प्रोजेक्ट्‍स हैं। अभी हाल ही में उनकी ‘किससे प्यार करूँ’ प्रदर्शित हुई थी। ये बताना मुश्किल है कि ‘टीम’ ज्यादा घटिया है या ‘किससे प्यार करूँ’। फिल्म की कहानी ऐसी है, जिसे कोई भी लिख सकता है। लेखक होना जरूरी नहीं है। तीन दोस्त अपना वीडियो एलबम बनाना चाहते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि उनके पास खाने को कुछ नहीं रहता, लेकिन दो तो इतने हट्टे-कट्टे हैं कि लगता है वे दिन में 6 बार खाते हों। वीडियो एलबम बनाने के लिए दयालु मकान-मालिक इन प्रतिभाशाली (?) कलाकारों को सात लाख रुपए देता है। वे गोआ जाते हैं और इसी बीच मकान मालिक पर एक गुंडा मकान बेचने के लिए दबाव बनाता है। उस गुंडे को तीनों सबक सिखाते हैं। आप सोच रहे होंगे कि इससे बेहतर कहानी तो मैं लिख सकता हूँ, परंतु ये मौका मिला है युनूस सेजवाल को। इन्होंने एक जमाने में डेविड धवन के लिए कुछ सफल फिल्में लिखी थीं। यहाँ निर्माता ने कम पैसे दिए होंगे, इसलिए उन्होंने घटिया कहानी टिका दी। युनूस साहब अभी भी उस दौर में जी रहे हैं, जो कब का बीत चुका है। फिल्म के हीरो हैं सोहेल खान। सोहेल खान हँस रहे होंगे उन निर्माताओं पर जिन्होंने उन्हें फिल्म में हीरो बना डाला, परंतु उन्हें तो पैसे गिनने से मतलब है। उनकी सेहत पर हिट या फ्लॉप से कोई असर नहीं पड़ता, इसलिए उन्होंने तमाम ऊटपटांग हरकत इस फिल्म में कर डाली। सोहेल की तरह फिल्म के हर पात्र ने ओवर एक्टिंग की, चाहे व्रजेश हीरजी हों, यश टोंक हों या सयाजी शिंदे। सयाजी शिंदे की वजह से एक-दो जगह आप हँस सकते हैं, लेकिन बाकी के अभिनय को देखकर रोना आता है। अमृता अरोरा को गानों में याद किया जाता है, जो कभी भी फिल्म के बीच में कहीं से भी टपक पड़ते हैं। फिल्म का संपादन तो कमाल का है। दो-तीन दृश्यों में तो संवाद अधूरा ही रह गया और उन्होंने दूसरा दृश्य जोड़ डाला। कई जगह फिल्म धुँधली नजर आती है। संगीतकार डब्बू मलिक की गाड़ी भी ऐसे निर्माताओं के बल पर चल रही है। गीत-संगीत के नाम पर वे कुछ भी बनाकर टिका देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद है ‘ये हमारे म्यूजिक वीडियो का डब्बू मलिक है। पता नहीं आज किसे पका रहा होगा।‘ पकाने का काम डब्बू ने नहीं बल्कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने किया है। इस मामले में टीमवर्क दिखाई देता है। ",0 "कहानी: दो नेत्रहीन कपल रोहन भटनागर (रितिक रोशन) और सुप्रिया शर्मा (यामी गौतम) की शादी होती है और वे एक-दूसरे का सहारा बन जाते हैं। दुर्भाग्य से उनकी इस अंधेरी दुनिया में हलचल तब मच जाती है जब सुप्रिया का रेप होता है और रोहन को समझ आता है कि पुलिस वाले उनके लिए कुछ करने वाले नहीं हैं। ...और इसके बाद कानून को अपने हाथ में लेने के सिवा रोहन के पास कोई और रास्ता नहीं बचता। रिव्यू: बदला अंधा होता है, यह इस फिल्म का सबसे मजबूत संदेश है। यह फिल्म हॉलिवुड फिल्म 'ब्लाइंड फ्यूरी' (1989) के रटगर हॉउर के लीड किरदार के अलावा कोरियन सुपरहिट फिल्म ब्रोकन (2014) से प्रेरित नज़र आ रही है। कुल मिलाकर संजय गुप्ता ने इसे बड़े ही असरदार और मनोरंजक तरीके से पेश किया है। फिल्म की शुरुआत कुछ ऐसे होती है, जहां रोहन एक बेहतरीन डबिंग आर्टिस्ट है और सुप्रिया काफी अच्छा पियानो बजाती है। शारीरिक अक्षमता के बावजूद जिंदगी के प्रति दोनों का रवैया काफी पॉज़िटिव है। सिर्फ दो सीन में आप इनके प्यार को महसूस कर लेंगे। ...और जैसे ही आप उन्हें एक मॉल में एक-दूसरे से केवल दो मिनट के लिए अलग देखते हैं तो आप बेचैन हो जाते हैं। इनका मोन अमोर डांस देखकर बस सब जादू सा लगता है और बेहद खुशी होती है। लेकिन, जब बात आम जिंदगी और एक बॉलिवुड थ्रिलर की हो तो वास्तविक जिंदगी में ऐसे सॉन्ग और डांस यकीनन सच नहीं होते। जब एक गुंडा अमित शेलार (रोहित रॉय) और उसका साथी वसीम (सहीदुर रहमान) साथ मिलकर सुप्रिया का रेप करते हैं तो रोहन की दुनिया में और भी ज्यादा अंधेरा छा जाता है। दरअसल रेपिस्ट अमित वहां के लोकल कॉर्पोरेटर माधवराव शेलार (रॉनित रॉय) का भाई है और इसी वजह से भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (नरेन्द्र झा और गिरीश कुलकर्णी) इस मामले की जांच-पड़ताल को सही तरीके से होने नहीं देते। जब उनकी करतूतों को सहना मुश्किल हो जाता है, तब रोहन उनसे बदला लेने के बारे में सोचता है। यहीं से फिल्म अलग राह मुड़ती है और आप सोच ही सकते हैं कि आगे क्या हो सकता है। चूहे-बिल्ली का यह खेल आपको रोमांचित करता है। जब भी रितिक अपना बदला लेने के लिए किसी को सताते और उसपर जुल्म करते हैं, तो आप दर्शक के तौर पर खुशी से सीटियां बजाते हैं इस फिल्म का मुख्य आकर्षण रितिक का दमदार परफॉर्मेंस है। वह एक प्रेमी और एक फाइटर के रूप में शानदार दिख रहे हैं। मूवी रेटिंग में आधा स्टार पूरी फिल्म में रितिक के शानदार परफॉर्मेंस के लिए। यामी ने भी शानदार प्रदर्शन किया है। टेक्निकली भी फिल्म काफी बेहतरीन है, जिसके लिए सुदीप चटर्जी (कैमरा) और रेसुल पुकुट्टी (साउंड) को विशेष धन्यवाद। ",1 "एआर मुरुगादास उन फिल्मकारों में से हैं जो कमर्शियल सिनेमा के फॉर्मेट में रह कर भी कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। हिंदी में वे गजनी और हॉलिडे बना चुके हैं। इस बार उन्होंने हीरोइन को लीड रोल देकर एक्शन मूवी 'अकीरा' बनाई है। फिल्म में बताया गया है कि अकीरा संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ऐसा शक्तिशाली जिसमें शालीनता भी हो। इस फिल्म में नायिका का नाम अकीरा है जो न चाहते हुए भी अपराधियों के चंगुल में ऐसी फंस जाती है कि अपनी बेगुनाही के लिए उसे काफी मशक्कत करना पड़ती है। अकीरा (सोनाक्षी सिन्हा) जोधपुर में रहती है। बचपन में उसकी दोस्त पर एसिड अटैक होता है। यह देख अकीरा के पिता उसे जूडो कराटे सीखाते हैं। इसके बाद वह एक लड़के को ऐसा सबक सिखाती है कि तीन वर्ष की उसे सजा होती है। बड़ी होने के बाद वह जोधपुर से पढ़ने के लिए मुंबई जाती है और होस्टल में रहने लगती है। दूसरी ओर भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर राणे (अनुराग कश्यप) और उसके साथियों के सामने एक कार एक्सीडेंट होता है। जब वे डिक्की खोल कर करोड़ों रुपये देखते हैं तो उनकी नीयत डोल जाती है। वे रुपये लेकर चम्पत हो जाते हैं। उनका यह राज राणे की एक महिला दोस्त को पता चल जाता है। धीरे-धीरे कुछ और लोग यह बात जान जाते हैं। राणे और उसके साथी एक-एक कर सबको मारते जाते हैं, लेकिन मामला उलझता जाता है और अकीरा भी इसमें फंस जाती है। अकीरा के पीछे राणे के साथी लग जाते हैं। राबिया (कोंकणा सेन शर्मा) ईमानदार पुलिस ऑफिसर है। वह भी जांच शुरू कर देती है इससे राणे की मुश्किल और बढ़ जाती है। शांता कुमार द्वारा लिखी कहानी रोमांचक और उतार-चढ़ाव से भरपूर है। समानांतर चलती कहानियों को उन्होंने बहुत ही उम्दा तरीके से एक-दूसरे से जोड़ा है। इंटरवल तक फिल्म तेज रफ्तार से भागती है और सीट से आपको चिपकाए रखती है। अकीरा, राणे और राबिया के किरदार बेहद प्रभावशाली हैं और सभी की एंट्री जबरदस्त है। पहले सीन से ही उनकी छवि दर्शकों के दिमाग में अंकित हो जाती है जो फिल्म देखते समय बहुत काम आती है। कहानी में अगले पल क्या होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। सेकंड हाफ उस अपेक्षा पर खरा नहीं उतरता जिसकी उम्मीद पहले हाफ में जागती है। यहां पर निर्देशक सोनाक्षी सिन्हा को हीरो की तरह दिखाने की कोशिश करते हैं जिससे फिल्म बार-बार ट्रेक से उतरती है। सोनाक्षी सिन्हा को पागलखाने में भर्ती किए जाने वाला प्रसंग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। करोड़ों रुपये लूट लिए गए, लेकिन इसकी कोई हलचल नजर नहीं आती। सेकंड हाफ में सोनाक्षी को प्रमुखता दिए जाने की बजाय राबिया और राणा को ज्यादा फुटेज दिए जाते तो रोमांच और बढ़ सकता था। अकी रा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में मुरुगादास का काम अच्छा है। ज्यादातर समय वे दर्शकों को बांधने में सफल रहे। एक्शन दृश्यों में वे जरूर थोड़ा बहक गए जिसका असर फिल्म पर होता है। सोनाक्षी के किरदाय को लार्जर देन लाइफ पेश करने के चक्कर में नुकसान फिल्म का हुआ है। एक्शन के साथ उन्होंने इमोशन को भी अच्छे से जोड़ा है चाहे वो सोनाक्षी के भाई की पत्नी का दबदबा हो या मूक-बधिर बच्चों के प्रसंग हो। उन्होंने फिल्म को फालतू खींचने की कोशिश नहीं की है। रोमांस की जरूरत नहीं थी तो उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। फिल्म के सारे कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया। सोनाक्षी सिन्हा को एक्शन करते देखना सुखद लगा। एंग्री यंग वूमैन के रोल में वे फिट लगीं। उन्हें निर्देशक ने संवाद कम दिए और ज्यादातर समय उन्हें अपने एक्सप्रेशन से ही काम चलाना पड़ा। अनुराग कश्यप पहले सीन से ही अपनी छाप छोड़ते हैं। हालांकि उन पर नाना पाटेकर का असर दिखा। गर्भवती और ईमानदार पुलिस ऑफिसर के रूप में कोंकणा सेन ने प्रभावशाली अभिनय किया। काश उनको और ज्यादा दृश्य दिए जाते। अमित सध, अतुल कुलकर्णी सहित तमाम कलाकारों का अभिनय उम्दा है। परफेक्ट फिल्म न होने के बावजूद 'अकीरा' आपको बांधकर रखती है और एक्शन-थ्रिलर के शौकीनों को पसंद आ सकती है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्देशक : एआर मुरुगादास संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सोनाक्षी सिन्हा, कोंकणा सेन शर्मा, अनुराग कश्यप, अमित सध सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 52 सेकंड ",1 "1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : मधुर भंडारकर, देवेन खोटे, रॉनी स्क्रूवाला, ज़रीना मेहता निर्देशक : मधुर भंडारकर संगीतकार : सलीम-सुलेमान कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, कंगना, मुग्‍धा गोडसे, अरबाज खान, समीर सोनी, अर्जन बाजवा, किट्टू गिडवानी, हर्ष छाया, राज बब्बर, किरण जुनेजा ’ए’ सर्टिफिकेट * 17 रील निर्देशक मधुर भंडारकर को पोल खोलने वाला निर्देशक माना जाता है क्योंकि वे प्रत्येक कार्य क्षे‍त्र के अँधेरे में छिपे हुए पक्ष पर रोशनी डालकर उसका कुरूप चेहरा सबके सामने प्रस्तुत करते हैं। इस बार मधुर के निशाने पर फ़ैशन जगत है। तेज रोशनी, छरहरे बदन, खूबसूरत चेहरे, स्टाइलिश ड्रेसेस और एटीट्यूड लिए मॉडल्स की जिंदगी और फैशन की दुनिया में परदे के पीछे क्या होता है, यह जानने के लिए मधुर मॉडल्स के ग्रीन रूम में कैमरा लिए घुस गए हैं। कहानी है चंडीगढ़ में रहने वाली मेघना माथुर (प्रियंक चोपड़ा) की, जिसकी आँखों में ढेर सारे सपने हैं। अपने सपनों को पूरा करने के लिए उसे अपना शहर छोटा लगता है और वह परिवार के खिलाफ मुंबई जाने का निर्णय लेती है। सपने पूरे करने के चक्कर में अक्सर उसके लिए चुकाया जाने वाला मूल्य नजर अंदाज कर दिया जाता है, जिसका परिणाम बेहद घातक सिद्ध होता है। यही गलती मेघना से होती है। जब उसे इस बात का अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अपनी महत्वाकांक्षाओं को वह पूरा तो कर लेती है, लेकिन शिखर पर पहुँचकर उसे अकेलेपन का अहसास होता है। वह अपने आपको खो देती है और उसे लगता है कि उसने इसकी बहुत बड़ी कीमत अदा की है। फिल्म में जेनेट (मुग्धा गोडसे) और शोनाली गुजराल (कंगना) के रूप में दो और मुख्य किरदार हैं। जेनेट ने कड़ा संघर्ष किया, लेकिन वह सुपरमॉडल नहीं बन पाई। फ़ैशन जगत से जुड़े रहने के लिए वह राहुल (समीर सोनी) नामक शख्स से शादी कर लेती है, जो कि एक गे है। शोनाली के रूप में मॉडल्स की मानसिक स्थिति को दिखाया गया है। वह सुपर मॉडल है, लेकिन काम के दबाव को वह सहन नहीं कर पाती और ड्रग्स में खुशी की तलाश करती है। मेघना माथुर फिल्म का केन्द्रीय पात्र है और उसके जरिए मधुर भंडारकर ने फैशन जगत की पड़ताल की है। इस दुनिया के ग्लैमरस चेहरे के पीछे छिपे तिकड़म, राजनीति, ईर्ष्या, गलाकाट प्रतियोगिता और शोषण को उन्होंने परदे पर पेश किया है। मॉडल्स के पास प्रसिद्धी और शोहरत होती है, लेकिन वे कंपनियों के गुलाम रहते हैं। कांट्रेक्ट के मकड़जाल में उन्हें ऐसा फँसाया जाता है कि उनका हरकदम कंपनियों के इशारे पर संचालित होता है। महिला मॉडल्स पर चूँकि बहुत पैसा लगा रहता है इसलिए वे न गर्भवती हो सकती हैं और न ही शादी कर सकती हैं। मधुर का निर्देशन प्रशंसनीय है, लेकिन उनसे और ज्यादा की उम्मीद थी। फैशन जगत के बजाय उन्होंने मेघना माथुर की संघर्ष यात्रा पर ज्यादा ध्यान दिया। फिल्म देखने के बाद फैशन जगत की नकारात्मक छवि उभरती है। ऐसा लगता है कि सारी मॉडल्स कामयाबी पाने के लिए अपने नैतिक मूल्यों को ताक में रखती हैं। इस जगत के सकारात्मक पहलू को भी दिखाने की कोशिश की जानी थी, हालाँकि कुछ किरदारों के जरिए और अंत में मेघना की वापसी के रूप में उन्होंने यह प्रयास किया है, लेकिन यह काफी नहीं है। फिल्म की लंबाई भी अखरने वाली है और कम से कम इसे बीस मिनट छोटा किया जा सकता है। फिल्म की पटकथा मध्यांतर के पहले और अंतिम तीस मिनट्स में चुस्त है। निरंजन आयंगर के संवाद छोटे और सटीक हैं। फिल्म में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन बार-बार पार्श्व में बजते ‘मर जावां’ और ‘जलवा’ अच्छे लगते हैं। फिल्म में दिखाई गई कास्ट्‍यूम्स उल्लेखनीय है। प्रियंका चोपड़ा का अभिनय शानदार है। लगभग पूरे समय वे परदे पर दिखाई देती हैं। उनका किरदार थोड़ी कम उम्र की लड़की की माँग करता है, लेकिन अपने उम्दा अभिनय से वे इस कमी को वे पूरा करती हैं। कंगना का अभिनय सबसे बेहतरीन है। उनका रोल छोटा है, लेकिन वे असर छोड़ने में कामयाब रही हैं। उनका किरदार जो एटीट्यूड माँगता था उससे बढ़कर उन्होंने उसे दिया है। मुग्धा गोडसे को देख लगता ही नहीं कि यह उनकी पहली फिल्म है। पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने जेनेट के किरदार को परदे पर पेश किया है। अरबाज खान, अर्जन बाजवा, हर्ष छाया और समीर सोनी ने भी अपने-अपने किरदारों को बखूबी अंजाम दिया है, लेकिन थोड़े अधिक लोकप्रिय चेहरों को लिया जाता तो प्रभाव और बढ़ता। कुल मिलाकर ‘फैशन’ अपने विषय, उम्दा प्रस्तुतीकरण और सशक्त अभिनय की वजह से एक बार देखी जा सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत ",1 "स्टुडियो : ी निर्माता : ी निर्देशक : संगीत : न, कलाकार : * 2 घंटे 23 मिन ट, बजट : 150 जेम्स बांड सिरीज की ताजा फिल्म स्कायफाल के जरिये सीक्रेट एजेंट 007 अपने हैरतअंगेज कारनामों से 23वीं बार दर्शकों को रोमांचित करने के लिए आया है। उम्मीद के अनुसार जेम्स बांड की यह फिल्म कमाल की है और हैरत नहीं कि ब्रिटेन के कई अखबार स्कायफाल की तारीफ से अटे पड़े हैं। वैसे तो बांड के हैरतअंगेज कारनामों का कोई जवाब नहीं है। लेकिन स्कायफाल को वेटिकन के आधिकारिक अखबार ने बांड सिरीज की सबसे अच्छी फिल्म करार दिया है। कहानी कुछ यूं है कि बांड को एक बार फिर से मुसीबत में फंसी अपनी एजेंसी एमआई 6 और अपनी क्रूर बॉस एम (जुडी डेंच) को बचाना है। बांड को अपने काम के प्रति अपनी वफादारी भी साबित करनी है, क्योंकि अपने अतीत की वजह से भी अपना काफी नुकसान कर बैठा है। एक ऑपरेशन में एम की वजह से जेम्स गलती से अपनी ही एक साथी की गोली का शिकार हो जाता है। बांड के खत्म होते ही एमआई 6 को साइबर टेरेरिस्ट सिल्वा (जेवियर बारडेम) तबाह करना शुरू कर देता है। तभी बांड फीनिक्स जैसा मौत की राख से उठ खड़ा होता है। लगभग 750 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म के निर्देशक सैम मेंडिस ने फिल्म की शुरुआत में ही जबरदस्त बाइक रैसिंग सीन फिल्माया है। इसके अलावा उन्होंने जेम्स बांड जैसे कैरेक्टर का फिर से परिचय देने का साहस भी दिखाया है। मेंडिस ने शायद ऐसा इसलिए किया हो, क्योंकि जेम्स बांड सिरीज की फिल्म लगभग चार साल बाद आई है, ऐसे में वे दर्शकों के दिमाग में बांड को फिर से ‍स्थापित करना चाहते हों। फिल्म के शुरूआती सीन में ही जेम्स बांड (डेनियल क्रेग) दुश्मनों से संवेदनशील जानकारी वापस लाने के लिए लगभग आधे इस्तांबुल को नष्ट कर देता है। इस सीन से पुराने जेम्स बांड की छवि दर्शकों के दिमाग में कौंधती है और उन्हें उम्मीद बंधती है कि इस फिल्म में उन्हें एक्शन और जेम्स बांड के हैरतअंगेज कारनामों का अच्छा खासा तड़का मिलेगा। बांड सिरीज की पिछली फिल्मों के पटकथा लेखक नील पुर्विस और रॉबर्ट वेड (केसिनो रॉयल और डाइ अनादर डे) ने ग्लेडिएटर जैसी फिल्म के लेखक जॉन लोगान के साथ मिलकर स्कायफाल की पटकथा को कहीं भी ढीला नहीं पड़ने दिया है। फिल्म की शुरुआत से क्लाइमैक्स तक फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है। स्कॉटलैंड, मकाऊ, इस्तानबुल और लंदन के दृश्य बेहद उम्दा हैं और इनके जरिये कहानी को रोचक तरीके से आगे बढ़ाया गया है। हालांकि बांड के रूप दर्शक एक युवा और तेजतर्राट अभिनेता को देखना चाहते हैं। जेम्स बांड को देखने की चाहत के साथ दर्शकों के मन में यह आशंका थी कि डेनियल क्रेग इस उम्र में बांड की हैरतअंगेज भरी जिंदगी जी पाएंगे? लेकिन क्रेग ने अपने दमदार अभिनय से इस बात का अहसास नहीं होने दिया है। स्कायफाल में उनका किरदार इस तरीके से गढ़ा गया है कि बांड की उम्र कहीं भी बीच में नहीं आती। डेनियल क्रेग ने एक बार फिर बांड को अपने अंदाज में जिया है। बांड जिस दर्जे का एक्शन करता है, उसी स्तर का ह्यूमर और इमोशन भी उसमे है। सिल्वा ने अपनी खलनायकी अच्छी तरह निभाई है, लेकिन वे पर्दे पर डरावने नहीं लगे हैं, जो शायद उनके किरदार के लिए जरूरी था। जुडी डेंच का अभिनय लाजवाब है और वे भावुक दृश्यों में प्रभावित करती हैं। कुल मिलाकर स्कायफाल जेम्स बांड सिरीज की एक और जबरदस्त फिल्म है जो सिनेमाघर से निकलने के बाद भी दर्शकों के दिमाग में घूमती है। तो अगर आप बांड फैन हैं तो स्कायफाल देखना न भूलें और अगर आप बांड फैन नहीं हैं तो स्कायफाल यह जानने के लिए देखें कि बांड आखिर है क्या और क्या कर सकता है? बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "चंद्रमोहन शर्मा आजकल फ्रैंचाइजी फिल्में बनाने का ट्रेंड चल निकला है। हॉलिवुड में यह ट्रेंड काफी कामयाब रहा तो अब बॉलिवुड में इस पर हाथ आजमाया जा रहा है। हेट स्टोरी सीरीज की यह तीसरी फिल्म है। इसमें पिछली फिल्मों की तरह एक नहीं बल्कि दो-दो हॉट ब्यूटी हैं। डायरेक्टर विशाल पांड्या ने फिल्म को थ्रिलर बनाने की अच्छी कोशिश की है। इसमें हर ऐसा मसाला परोसने की कोशिश की है, जो दर्शकों की उस क्लास को सिनेमाघरों तक खींचने का दम रखता है जो A सर्टिफिकेट फिल्मों में देखने की चाह लिए थिएटर तक जाते हैं। जरीन खान और डेजी शाह के कुछ बोल्ड सीन्स पर सेंसर की कैंची चली है, लेकिन सेंसर की मौजूदा प्रिव्यू पॉलिसी के चलते ऐसे सीन्स की आस दर्शकों को पहले से नहीं थी। कहानी: आदित्य दीवान (शरमन जोशी) कामयाब बिजनेसमैन है। उसकी खूबसूरत पत्नी सिया दीवान (जरीन खान) बिजनेस में हसबैंड के साथ खड़ी नजर आती है। आदित्य ने अपने बड़े भाई विक्रम (प्रियांशु चटर्जी) की मौत के बाद फैमिली का बिजनस संभाला है। अचानक एक दिन आदित्य को आउडी कार कोई अनजान शख्स गिफ्ट में देता है। कार पर लगे विजिटंग कार्ड को देखकर आदित्य कार गिफ्ट करने वाले शख्स के बारे में पता लगाता है। यह आउडी कार सौरव सिंघानिया (करण सिंह ग्रोवर) ने उसे गिफ्ट में दी है। सौरव, आदित्य और सिया को अपने बंगले पर डिनर के लिए बुलाकर उन्हें बिना ब्याज करोड़ों रुपये का कर्ज ऑफर करता है। सौरव इस मेहरबानी के बदले आदित्य की वाइफ सिया के साथ एक रात बिताने की इच्छा जताता है। आदित्य गुस्से में सिया के साथ उसके घर से चला जाता है। यहीं से सौरव आदित्य के बिजनस को तबाह करने पर आमादा हो जाता है। सौरव एक साजिश रचता है, जिसके चलते आदित्य अपनी सेक्रटरी काव्या (डेज़ी शाह) को ऑफिस से निकाल देता है। कुछ दिन बाद काव्या की लाश शहर से दूर मिलती है। सौरव कौन है और कहां से आया है। आदित्य को बरबाद करने पर वह क्यों तुला है यही इस फिल्म का सस्पेंस है। ऐक्टिंग: फिल्म के चार लीड किरदारों सिया, सौरव, काव्या और आदित्य की बात करें तो सभी ने अपने किरदार को जैसे कैमरे के सामने बस निभा भर दिया है। जरीन खान ने अपनी बेचारी वाली इमेज को तो तोड़ा है। पूरी फिल्म में जरीन के चेहरे का एक्सप्रेशन एक जैसा नजर आता है। आदित्य दीवान के किरदार के लिए शरमन जोशी को लेने की मजबूरी समझ से परे है। इस फिल्म में अरबपति बिजनसमैन का किरदार निभा रहे शरमन किसी सीन में टॉप बिजनेसमैन नहीं लगे। करण सिंह ग्रोवर रोबीले चेहरे और बॉडी के दम पर पूरी फिल्म में शरमन पर हावी नजर आए। डायरेक्शन: विक्रम भट्ट की कहानी को विशाल ने हॉट सीन्स और सस्पेंस का तड़का लगाकर पेश करने की कोशिश की है। कहानी के बीच-बीच में, जरीन और डेजी के बोल्ड सीन्स के साथ-साथ आइटम नंबर टाइप गानों की मौजूदगी दर्शकों को कुछ हद तक फिल्म के साथ बांधने में कामयाब है, लेकिन विशाल पूरी फिल्म में किसी भी कलाकार से अच्छी एक्टिंग तो दूर औसत एक्टिंग भी नहीं करवा पाए। संगीत: फिल्म का संगीत यकीनन फिल्म का प्लस पॉइंट है। खासतौर पर 'तुम्हें अपना बनाने की' और 'वजह तुम हो' गाने म्यूजिक लवर्स में पहले से हिट हैं। क्यों देखें: अगर आप हॉट, सेक्सी के साथ-साथ रिवेंज-ड्रामा-थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं तो एकबार देख सकते हैं। साफ-सुथरी, एंटरटेनर फिल्मों के शौकीन हैं तो आप हेट स्टोरी को पचा नहीं पाएंगे। ",1 "साउथ में कई सुपरहिट फिल्म बना चुके ए आर मुरुगदॉस के नाम बॉलिवुड में भी दो सुपरहिट फिल्में हैं। आमिर खान स्टारर 'गजनी' और अक्षय कुमार की हिट फिल्म 'हॉलिडे'। मुरुगदॉस को ऐक्शन और थ्रिलर फिल्में बनाने वाले कामयाब डायरेक्टर के तौर पर जाना जाता है। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री खासकर हिंदी फिल्मों की बात करे तो अक्सर ऐक्शन फिल्मों का ताना-बाना हीरो के इर्द-गिर्द ही रहा है। मुरुगदॉस भी इससे अछूते नहीं रहे। ऐसे में पिछले साल जब उन्होंने तमिल फिल्म 'मोनारगुरु' को हिंदी में बनाने का फैसला किया तो इस बार उन्होंने कुछ नया करने की चाह में अपनी इस फिल्म को हीरो की बजाए हिरोइन के इर्दगिर्द रखने का फैसला किया। 'हॉलिडे' की शूटिंग के दौरान मुरुगदॉस ने सोनाक्षी पर फिल्मांए कुछ ऐसे ऐक्शन सीन्स पर गौर किया तो उन्हें लगा सोनाक्षी ही उनकी 'अकीरा' है। मुरुगदॉस ने जब सोनाक्षी पर भरोसा जताया तो उन्होंने भी उनकी कसौटी पर सौ फीसदी खरा उतरने का फैसला किया। इस फिल्म में अपने लगभग सभी ऐक्शन सीन्स को सोनाक्षी ने ड्यूप्लिकेट की मदद के बिना किया और शूटिंग शुरू होने से पहले अपने बेहद बिजी शेड्यूल में लंबा वक्त जिम में गुजारा। कहानी : जोधपुर, राजस्थान में अपने परिवार के साथ रह रही अकीरा शर्मा (सोनाक्षी सिन्हा) को बचपन में ही उनके पिता (अतुल कुलकर्णी) ने उस वक्त सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देने का फैसला किया, जब उन्होंने देखा स्कूल के बाहर चौराहे पर 'अकीरा' की एक सहेली के चेहरे पर कुछ सिरफिरे लड़कों ने तेजाब डाल दिया। 'अकीरा' पुलिस स्टेशन में लड़की पर तेजाब डालने वाले लड़के की पहचान करती है, लड़के को पुलिस कस्टडी में ले लेती है। कुछ दिनों बाद 'अकीरा' को वही लड़का अपने दोस्तों के साथ उस वक्त घेर लेता है, जब वह स्कूल से लौट रही होती है। सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले चुकी 'अकीरा' इन सभी की जमकर पिटाई करती है। इसी दौरान लड़का जब तेजाब की बोतल लाकर अकीरा के चेहरे पर डालने की कोशिश करता है तो वह पलटवार करती है और तेजाब से उसी लड़के का चेहरा जल जाता है। इस घटना के बाद अकीरा को रिमांड होम भेज दिया जाता है। वह अब रिमांड होम से बाहर आ चुकी है, लेकिन उसके पिता दुनिया में नहीं रहे। ऐसे में मुंबई में रह रहा 'अकीरा' का भाई उसे और अपनी मां को अपने घर ले आता है। कॉलेज में 'अकीरा' को सीनियर जब परेशान करते है तो वह उन्हें अच्छा सबक सीखाती है। सिंपल चल रही कहानी में ट्विस्ट उस वक्त आता है, जब क्राइम ब्रांच का हर वक्त नशे में धुत्त रहने वाले एसीपी राणे (अनुराग कश्यप) का एक ऐसा विडियो लीक होता है, जो उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता है। जिस विडियो कैमरे से राणे का विडियो बनाया गया वह कैमरा अकीरा के पास मिलता है। राणे के साथी अकीरा को पुलिस कस्टडी में लेकर ऐसा कुछ करते है कि उसे सरकारी पागलखाने में भिजवा दिया जाता है। ऐक्टिंग: ऐक्शन सीन्स की बात करे तो यकीनन सोनाक्षी ने ड्यूप्लिकेट की मदद लिए बिना कुछ बेहद खतरनाक सीन्स को भी बड़ी बखूबी के साथ किया है। ऐक्शन सीन्स के अलावा सोनाक्षी पर फिल्माए पुलिस हिरासत और पागलखाने में टॉचर्र करने के सीन्स देखने लायक हैं। इन सीन्स को असरदार बनाने के लिए सोनाक्षी ने अच्छी मेहनत की है। नशे में धुत्त रहने वाले मुंबई पुलिस के करप्ट एसीपी राणे के किरदार में अनुराग कश्यप खूब जमे है। अनुराग के फेस एक्सप्रेशन और उनकी डायलॉग डिलिवरी का जवाब नहीं। ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कोंकणा सेन शर्मा की ऐक्टिंग दमदार है। अमित साद और अतुल कुलकर्णी को कहानी में बेहद कम फुटेज मिली, लेकिन दोनों ने अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन : डायरेक्टर ए आर मुरुगदॉस ने इस फिल्म में यह दिखाने की अच्छी कोशिश अच्छी की है कि एक अकेली लड़की को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए किन-किन हालात से गुजरना होता है। बेशक इस फिल्म को ऐक्शन फिल्म कहकर प्रमोट किया गया, लेकिन इंटरवल के बाद ऐक्शन कम और इमोशन सीन्स कहीं ज्यादा हैं। पागलखाने में बेगुनाह को बिजली के झटके देने और बुरी तरह से प्रताड़ित करने के सीन्स पर कैंची चलानी चाहिए थी। इंटरवल के बाद ऐसा भी लगता है कहानी ट्रैक से उतर रही है। 'अकीरा' के संघर्ष को साइड करके फिल्म पुलिस और उसके बीच की लुकाछिपी पर ज्यादा फोकस करती है। फिल्म का क्लाइमेक्स ज्यादा असरदार नहीं बन पड़ा है। अगर डायरेक्टर क्लाइमेक्स पर थोड़ी और मेहनत करते तो 'अकीरा' दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतर पाती। संगीत: विशाल-शेखर का संगीत कहानी के माहौली पर पूरी तरह से फिट है। रिलीज से पहले फिल्म के दो गाने कई म्यूजिक चार्ट में अपनी जगह बना चुके हैं। क्यों देखें: अगर आप सोनाक्षी सिन्हा के फैन्स है तो फिल्म मिस ना करे। फिल्म में महिला सशक्तीकरण को असरदार ढंग से पेश करते हुए एक अच्छा मेसेज भी दिया गया है। ",1 "चंद्रमोहन शर्मा, नवभारत टाइम्स ऐसा शायद पहली बार हुआ है जब साउथ की कोई फिल्म हिंदी में डब होकर दिल्ली एनसीआर में सवा सौ स्क्रीन्स पर रिलीज हुई हो, इतना ही नहीं दिल्ली एनसीआर में रजनी सर की इस फिल्म को तमिल, तेलुगू, हिंदी के अलावा बांग्ला में भी रिलीज किया गया। जहां साउथ में इस फिल्म के शो सुबह साढ़े तीन बजे से शुरू हुए तो दिल्ली में भी सुबह 9 बजे से शो हुए। देशभर में चार हजार और दुनिया में करीब आठ हजार स्क्रीन्स में रिलीज हुई इस फिल्म के क्रेज को देखते हुए ट्रेड पंडितों ने इस फिल्म की पहले दिन की कलेक्शन का आंकड़ा चालीस करोड़ से ज्यादा होने की भविष्यवाणी कर रखी है। वैसे भी रजनी सर की इस फिल्म के डायरेक्टर पी. रंजीत के नाम इससे पहले ही अटकत्ती और मद्रास जैसी सुपर हिट फिल्में दर्ज हैं। ऐसे में रजनीकांत की इस नई फिल्म में रजनी फैंस के लिए बहुत कुछ है। कहानी: कबालीशरण (रजनीकांत) मलयेशिया में कबाली के नाम से जाना जाता है, मलयेशिया की एक जेल से गैंगस्टर कबालीशरण की पूरे पच्चीस साल के बाद अब रिहाई हो रही है। कबाली की रिहाई को लेकर पुलिस-प्रशासन काफी सकते में है, पुलिस के साथ प्रशासन को भी यकीन है कि कबाली के जेल के बाहर आने के बाद शहर में अफरातफरी का माहौल होने के अलावा अपराध भी कई गुना बढ़ सकता है। दरअसल, कबाली अब भी उन लोगों को नहीं भूला है कि जिनकी वजह से उसने अपनी लाइफ का बड़ा हिस्सा जेल में गुजारा, सो पुलिस को लगता है कबाली जेल से छूटने के बाद अपने इन दुश्मनों को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेगा। इस बीच शहर में सक्रिय हुआ एक दूसरा गैंग जिसकी पहचान 43 से है, जेल से कबाली के बाहर आने का इंतजार कर रहा है। ऐसे में, कबाली जेल से जब छूटकर बाहर आता है तो हैरान रह जाता है, कबाली गैंग के लोग अब भी गैरकानूनी काम करने में लगे हैं, लेकिन इन लोगों ने भी अपने नियम बना रखे हैं। जेल जाने से पहले कबाली ड्रग्स और जिस्मफरोशी से नफरत करता था, कबाली पहले ही अपनी खूबसूरत बीवी रूपा (राधिका आप्टे) के साथ बेटी भी खो चुका है। अब जब कबाली जेल से बाहर आ चुका है तो गैंग के लोगों को डर है कि कबाली उनके गैंरकानूनी धंधे को हमेशा के लिए खत्म कर देगा। मलयेशिया और भारत के बीच पनपती इस कहानी में कई ऐसे टर्निंग पॉइंट्स भी आते हैं जब दर्शक कबाली के अलग-अलग लुक और स्टाइल देखते हैं। ऐक्टिंग: अपनी पिछली फिल्मों की तरह इस फिल्म में रजनीकांत ने शुरुआत से एंड तक अपने दर्शकों को सौ फीसदी एंटरटेन किया है। इस फिल्म में रजनीकांत ने गैंगस्टर से लेकर कई अलग-अलग किरदारों को जानदार ढंग से निभाया है। वैसे भी रजनी के फैंस अपने चहेते स्टार की स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा मौजूदगी के लिए सिनेमाहॉल जाते हैं। ऐसे में रजनीकांत पर फिल्माएं स्टंट ऐक्शन या कहिए मारकाट के सीन्स खूब बन पड़े हैं। इस फिल्म में रजनीकांत ने अपने लुक और स्टाइल के साथ ऐक्शन सीन्स को दमदार निभाने के लिए अच्छीखासी मेहनत की है। मांझी सहित कई फिल्मों में अपनी पहचान बना चुकी राधिका आप्टे ने इस बार भी बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रजनीकांत के साथ राधिका के कई सीन्स बेहद असरदार बन पड़े हैं। देखिए फिल्म का ट्रेलर: निर्देशन: साउथ फिल्म इंडस्ट्री में डायरेक्टर पा रंजीत की पिछली फिल्में अटकत्ती और मद्रास बॉक्स आफिस पर सुपर हिट रही, इन फिल्मों ने टॉप कलेक्शन के साथ-साथ क्रिटिक्स की तारीफें भी जमकर बटोरी। रंजीत की इस नई फिल्म की स्क्रिप्ट में बेशक कुछ नयापन ना हो लेकिन हर वो मसाला मौजूद है जो रजनी के फैंस को चाहिए। रंजीत ने फिल्म के रजनीकांत की मौजूदगी वाले ज्यादातर सीन्स को स्पेशल विजुअल इफेक्टस के साथ दिखाने की अच्छी पहल की है। वहीं रंजीत ने मलयेशिया की बेहतरीन लोकेशंस में फिल्म शूट करके करके फिल्म को और भी भव्य बना दिया है। फिल्म की लंबाई कुछ ज्यादा हो गई है, अगर इंटरवल से पहले के कुछ सीन्स पर अगर कैंची चलती तो यकीनन फिल्म में और जान पड़ती। क्यों देखें: अगर रजनीकांत के फॉलोअर हैं और उनकी फिल्में मिस नहीं करते तो इस बार भी अपने चहेते स्टार की इस फिल्म को देखने जाएं। वैसे भी रजनी सर की फिल्मों के साथ तर्क-वितर्क जैसे शब्दों का कुछ लेना देना नहीं होता। दुनिया भर में फैले रजनीकांत के फैंस अपने चहेते सुपर स्टार की फिल्म में जो कुछ देखने की चाह में आते हैं उन उम्मीदों पर फिल्म खरी उतरती है। इस बार भी कबाली में यही कुछ है। फिर भी, अगर आप इस फिल्म की तुलना पिछले साल बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा चुकी साउथ की बाहुबली के साथ करेंगे तो यकीनन कबाली उस फिल्म के सामने पीछे नजर आती है। ",1 "हॉलिवुड फिल्म ऐंटमैन ऐंड द वास्प 2015 में आई फिल्म ऐंटमैन का सीक्वल है। फिल्म की शुरुआत में स्कॉट लैंग उर्फ ऐंटमैन (पॉल रूड) को एफबीआई ने दो साल के लिए नजरबंद किया हुआ है। बावजूद इसके वह अपनी बेटी का हर तरह से मनोरंजन करने की कोशिश करते हुए दोहरी जिम्मेदारी निभाता है। उसके ऊपर पाबंदी है कि वह डॉक्टर हैंक पेम (माइकल डगलस) और उनकी बेटी होप उर्फ वास्प (इवेंजलाइन लिली) से सम्पर्क नहीं कर सकता। एक दिन अचानक स्कॉट को वास्प की मां से कुछ मेसेज मिलते हैं, जो कि क्वॉन्टम फील्ड में बंद है। ऐसे में, वह अपने ऊपर लगी पाबंदी की परवाह न करते हुए हैंक को मेसेज करता है। दरअसल, एक मिसाइल को नाकाम करने के मिशन में अपनी वाइफ को क्वॉन्टम फील्ड में छोड़ने पर मजबूर हुए हैंक और उसकी बेटी वास्प ने उसे वापस लाने के लिए वहां तक एक सुरंग बनाई है। वे दोनों स्कॉट को अगवा कर लेते हैं, लेकिन उनके मिशन में एक लड़की रुकावट डाल देती है, जो कि हैंक के किसी पुराने सहयोगी की बेटी है और अब किसी अजीब बीमारी की शिकार है। वास्प किसी भी कीमत पर अपनी मां को वापस लाना चाहती है। वहीं हैंक और स्कॉट उसकी मदद करते हैं। वे अपने मिशन में कामयाब होते हैं या नहीं, यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। फिल्म के सभी मुख्य कलाकारों ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। पॉल रूड ने एक सुपरहीरो से लेकर घर पर बेटी की देखभाल करने वाले बाप के रोल को बढ़िया तरीके से निभाया है। शुरुआती सीन में पॉल और बेटी की परेशानियां देखकर हालिया हॉलिवुड फिल्म 'इनक्रेडिबल्स 2' की याद आ जाती है। इसके अलावा, पॉल ने ऐक्शन के अलावा बढ़िया कॉमिडी सीन भी किए हैं। बात अगर इवेंजलाइन लिली की करें, तो वास्प के रोल में वह शानदार लगी हैं। उन्होंने बढ़िया ऐक्शन सीन किए। वहीं माइकल डगलस के पास भले ही फर्स्ट हाफ में भले ही कुछ खास करने का नहीं था, लेकिन फिल्म के क्लाइमैक्स में उन्होंने अपना दम दिखाया है। हॉलिवुड फिल्मों की आजकल हिंदी में डबिंग इतनी बढ़िया होने लगी है कि आपका पूरा मनोरंजन हो जाता है। ऐंटमैन ऐंड द वास्प भी इस मामले में पीछे नहीं है। फिल्म की बेहतरीन हिंदी डबिंग भी आपको खूब गुदगुदाती है। इसके अलावा, थ्रीडी में बेहतरीन ऐक्शन और छोटी-बड़ी होती कारों के सीन भी आपको मजेदार लगते हैं। वहीं ऐंटमैन की सेना में शामिल खतरनाक चींटियां भी पर्दे पर दिलचस्प नजर आती हैं। इस वीकेंड अगर कुछ मजेदार देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को मिस न करें। ",1 "कॉफी विद डी का सबसे रोचक हिस्सा होना था दाऊद का काल्पनिक इंटरव्यू। इसके लिए लंबा इंतजार कराया गया। इंटरवल होने के बाद 15 मिनट बीत जाते हैं तब जाकर वो इंटरव्यू शुरू होता है जिसके लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है। यह इंटरव्यू इतना कमजोर और घटिया है कि आश्चर्य होता है कि इस पर फिल्म बनाने का निर्णय कैसे ले लिया गया। इस इंटरव्यू में न हंसी-मजाक है और न कोई गंभीर बात। लेखक कुछ सोच ही नहीं पाए। केवल आइडिया सोच लिया गया कि दाऊद का काल्पनिक इंटरव्यू दिखाना है और फिल्म बना दी गई। कायदे से तो पूरी फिल्म दाऊद का इंटरव्यू होनी थी, लेकिन इतना मसाला लेखक के पास नहीं था। इसलिए इंटरव्यू के शुरू होने के पहले जिस तरह से फिल्म को खींचा गया है वो दर्शाता है कि फिल्म से जुड़े लोग कितने कच्चे हैं। ऐसा लगा है कि उनकी सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो गई हो। इंटरवल तक फिल्म में बैठे रहना मुश्किल हो जाता है और राहत तो तभी मिलती है जब फिल्म खत्म होती है। अर्णब गोस्वामी से प्रेरित होकर अर्णब नामक किरदार गढ़ा गया है जो एक टीवी चैनल पर काम करता है। लोगों से बातचीत करते समय चीखता चिल्लाता रहता है। अर्णब का बॉस उसके काम से खुश नहीं है। टीआरपी लगातार गिर रही है। दो महीने का समय दिया जाता है। 'डी' का इंटरव्यू लेने का विचार अर्णब को आता है। वह सोशल मीडिया के जरिये डी को उकसाता है, उसके बारे में झूठी बातें प्रचारित करता है। आखिरकार डी उसे कराची इंटरव्यू के लिए बुलाता है। ये सारा प्रसंग या कहे कि पूरी फिल्म दोयम दर्जे की है। इस फिल्म का निर्माण ही क्यों किया गया है यह समझ से परे है। न इसमें मनोरंजन है और न ही डी के बारे में कुछ नई बात इसमें की गई हैं। बेहूदा प्रसंग डाल कर फिल्म को पूरा किया गया है। फिल्म का निर्देशन विशाल मिश्रा ने किया है। कहानी भी उनकी ही है। विशाल को आइडिया तो अच्छा सूझा था, लेकिन उस पर फिल्म बनाने लायक न उनके पास स्क्रिप्ट थी और न ही निर्देशकीय कौशल। ‍विशाल का निर्देशन स्तरहीन है।कई शॉट्स तो उन्होंने कैमरे के सामने कलाकार खड़े कर फिल्मा लिए। विशाल का काम ऐसा है मानो किसी शख्स ने निर्देशन सीखना शुरू किया हो और उसे फिल्म बनाने को मिल गई हो। कई दृश्यों में उनकी कमजोरी उभर कर सामने आती है। जैसे, अर्णब और उसकी पत्नी बात कर रहे हैं। टीवी भी चालू है। जब पंच लाइन की जरूरत हो तो टीवी की आवाज सुनाई देती थी बाकी समय टीवी गूंगा हो जाता था। लेखक के रूप में विशाल मिश्रा ने रोमांस और कॉमेडी डाल कर दर्शकों को बहलाने की कोशिश की है, लेकिन ये ट्रेजेडी बन गए हैं। फिल्म का नाम कॉफी विद डी है, लेकिन यह फिल्म में कही सुनाई या दिखाई नहीं देता। कम से कम इस इंटरव्यू को ही 'कॉफी विद डी' का नाम दिया जा सकता था। अभिनय के मामले में भी फिल्म निराशाजनक है। सुनील ग्रोवर प्रभावित नहीं कर पाए। कई बार उन्होंने ओवरएक्टिंग की तो कई बार उनके चेहरे पर सीन के अनुरुप भाव नहीं आ पाए। दीपान्निता शर्मा को फिल्म में ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया। अंजना सुखानी और राजेश शर्मा का अभिनय ठीक रहा। डी का रोल ज़ाकिर हुसैन ने निभाया और एक खास किस्म का मैनेरिज़्म उन्होंने अपने किरदार को दिया है। पंकज त्रिपाठी निराश करते हैं। इस डी के साथ कॉफी पीने से सिर दर्द की शिकायत हो सकती है। बैनर : एपेक्स एंटरटेनमेंट निर्माता : विनोद रमानी निर्देशक : विशाल मिश्रा संगीत : सुपरबिआ कलाकार : सुनील ग्रोवर, अंजना सुखानी, दी‍पान्निता शर्मा, ज़ाकिर हुसैन, पंकज त्रिपाठी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 3 मिनट ",0 "'सामने आतंकवादियों की फौज खड़ी है' एक नर्स कहती है। 'लेकिन टाइगर जिंदा है'- एक आवाज आती है और सलमान खान एमजी 42 मशीनगन चलाते नजर आते हैं। 30 किलो वजनी, 1200 राउंड्स प्रति मिनिट की स्पीड, बेल्ट लोडेड मैगज़ीन वाली एमजी 42 जब सलमान के हाथों में नजर आती है तो यह फिल्म का बेहतरीन सीन बन जाता है। फौलादी शरीर, माथे से रिसता खून और हाथों में मशीनगन लिए गोलियां दागते सलमान खान एक सुपरस्टार नजर आते हैं और उनका यही अंदाज देखने के लिए तो उनके फैंस टिकट खरीदते हैं। 'टाइगर जिंदा है' में वो सारे मसाले घोंट कर निर्देशक अली अब्बास ज़फर ने डाल दिए हैं जो सलमान के फैंस को दीवाना कर देते हैं। टाइगर जिंदा है लार्जर देन लाइफ मूवी है जो सलमान के स्टारडम को मैच करती है। टाइगर जिंदा है फिल्म एक था टाइगर का सीक्वल है। एक था टाइगर अच्छी फिल्म नहीं थी और यह बात खुद निर्देशक कबीर खान ने कबूली थी। वो तो सलमान खान के स्टारडम के कारण बॉक्स ऑफिस पर एक था टाइगर की दहाड़ गूंजी थी। वो फिल्म कैसी भी हो, लेकिन उसके दो किरदार अविनाश उर्फ टाइगर और ज़ोया बहुत उम्दा हैं। टाइगर जिंदा है के ट्रेलर में ही कहानी उजागर हो जाती है। इराक में भारतीय नर्सों को अपहरणकर्ताओं ने बंधक बना लिया है। इन्हें छुड़ाने का जिम्मा टाइगर पर है। रोमांच इस बात में है कि कैसे मिशन को अंजाम दिया जाता है। फाइलों में मान लिया गया था कि क्यूबा में टाइगर की मौत हो गई है जबकि ज़ोया से शादी के बाद टाइगर सब कुछ छोड़ कर ऑस्ट्रिया में पारिवारिक जिंदगी जीने लगता है। जूनियर नामक एक उनका बेटा भी हो चुका है। नर्सों को छुड़ाने की जब बात याद आती है तो शिनॉय सर को टाइगर की याद आती है और वे 24 घंटों में टाइगर को ढूंढ निकालते हैं। 40 नर्सों में कुछ पाकिस्तानी भी हैं। यह बात पता चलते ही ज़ोया भी टाइगर के मिशन में शामिल हो जाती हैं। एक तीसरे ही देश में भारतीय और पाकिस्तानी एजेंट्स मिल कर मिशन को अंजाम देते हैं। निर्देशक अली जानते थे कि उनके पास प्रस्तुत करने के लिए सीधी और सरल कहानी है इसलिए उन्होंने एक्शन का जोरदार तड़का लगाकर फिल्म को बेहतर बनाने की कोशिश की है। फिल्म में एक्शन का स्तर इतना ऊंचा रखा है कि उसके रोमांच में खोकर दर्शक अन्य बातों को भूल जाता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य डाले गए हैं जो दर्शकों को सीटियां और तालियां बजाने पर मजबूर करते हैं, जैसे- कैटरीना कैफ का एंट्री सीन लाजवाब है जब वे कैमरे में बिना आए पल भर में गुंडों को ठिकाने लगा देती हैं। दो भारतीय एजेंट्स का बैग को ऊपर रखने के लिए विवाद करना और बैग खोलने पर तिरंगे का निकलना, भारतीय और पाकिस्तानी एजेंट्स का साथ में बैठकर बातें करना कि यदि दोनों देश एक होते तो क्या समां होता, सचिन और अकरम एक ही टीम में खेलते, फिल्म के अंत में पाकिस्तानी एजेंट का तिरंगा फहराना और फिर भारतीय एजेंट के कहने पर पाकिस्तानी झंडा भी साथ में लहराना। हालांकि कुछ दृश्यों में महसूस होता है कि देशभक्ति की लहर बेवजह पैदा की जा रही है। फिल्म के एक्शन सीन जबरदस्त हैं। एक लंबा हैवी-ड्यूटी एक्शन सीक्वेंस है जिसमें इराक में टाइगर का पीछा आतंकवादी करते हैं। घोड़े और कार के सहारे वे उनको खूब छकाते हैं। यह सीन लाजवाब है। जहां तक कमियों का सवाल है तो अली अब्बास ज़फर ने फिल्म के नाम पर खूब छूट ली है। खतरनाक आतंकवादियों द्वारा भारतीय नर्सों तथा टाइगर और उसकी गैंग को इस तरह खुला छोड़ देना, साथ ही टाइगर गैंग कई चीजें बड़ी आसानी से कर देती है, ये बातें थोड़ा अखरती हैं। खाने में बेहोशी की दवा मिलाने का फॉर्मूला तो मनमोहन देसाई के जमाने से चला आ रहा है। कुछ नया सोचा जाना चाहिए था। जितने खतरनाक आतंकवादी बताए गए हैं उतनी कठिन चुनौती वे पेश नहीं कर पाते। दुनिया में अशांति के माहौल के लिए वे व्यवसायी जिम्मेदार हैं जो हथियार बनाते हैं, जैसी बातों को हौले से छुआ गया है। यहां पर लेखक ने गहराई के साथ उतरना पसंद नहीं किया है। कहानी की इन कमियों को तेज रफ्तार और रोमांचक एक्शन के सहारे छिपाया गया है। इस कारण दर्शक भी इन बातों पर गौर नहीं करते हैं। टाइगर जिंदा है देखते समय बेबी, एअरलिफ्ट और एजेंट विनोद जैसी फिल्में भी याद आती हैं। इन फिल्मों में इसी तरह के मिशन थे, टीम वर्क था। 'टाइगर जिंदा है' में वही दोहराव देखने को मिलता है, लेकिन इस फिल्म को उन फिल्मों से जो बात जुदा करती है वो है सलमान खान का स्टारडम। निर्देशक के रूप में अली अब्बास ज़फर ने फिल्म को हॉलीवुड स्टाइल लुक दिया है। उन्होंने फिल्म में संतुलन बनाए रखा है और दर्शकों को हर तरह के मसाले परोसे हैं। एक्शन फिल्म होने के बावजूद उन्होंने हर दर्शक और वर्ग का ख्याल रखा है और एक्शन का ओवरडोज नहीं होने दिया। अच्छी बात यह है कि वे दर्शक की फिल्म में रूचि बनाए रखते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म में जरूर डिप आता है, लेकिन कुछ मिनट बाद गाड़ी फिर पटरी पर लौट आती है। अली ने सलमान के स्टार पॉवर का बखूबी उपयोग किया है। सलमान को उसी स्टाइल और अदा के साथ पेश किया है जो दर्शकों अच्छी लगती है। हर सीन में सलमान का दबदबा नजर आता है। सलमान का एंट्री सीन भी शानदार है। थोड़ी देर चेहरा आधा ढंका नजर आता है। फिर पूरा चेहरा तब नजर आता है जब वे खतरनाक भेड़ियों से अपने बेटे को इस शर्त के साथ बचाते हैं कि कोई भी भेड़िया मारा न जाए। यह सीक्वेंस फिल्म का माहौल बना देता है। शर्टलेस सलमान को भी एक्शन करते दिखाया गया है ताकि 'भाई' के फैंस की हर इच्छा पूरी हो जाए। सलमान खान ने इस फिल्म के लिए अपना वजन कम किया है। वे फिट और हैंडसम लगे हैं। एक्शन दृश्यों में उन्होंने विशेष मेहनत की है। टाइगर के रूप में वे ऐसे शख्स लगे हैं जो इतनी भारी भरकम जिम्मेदारी को अपने मजबूत कंधों पर उठा सकता है। अभिनय के नाम पर उनका एक विशेष अंदाज है, वही उन्होंने दोहराया है और अपने फैंस को ताली और सीटी बजाने के कई मौके दिए हैं। कैटरीना कैफ के सीन कम हैं, लेकिन जो भी उन्हें मिले हैं उनमें उन्हें कुछ कर दिखाने का मौका मिला है। कुछ एक्शन सीनभी कैटरीना को करने को मिले हैं और वे इनको बखूबी निभाती दिखी हैं। गिरीश कर्नाड, अंगद बेदी, सज्जाद डेलफ्रूज़, कुमुद मिश्रा,परेश रावलकाबिल अभिनेता हैं और इनका सपोर्ट फिल्म को मिला है। जूलियस पैकियम इस फिल्म में महत्वपूर्ण रोल निभाते हैं। उनक बैकग्राउंड म्युजिक तारीफ के काबिल है। फिल्म देखते समय यह दर्शकों में रोमांच उत्पन्न करता है। विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध किए गीत 'स्वैग से करेंगे सबका स्वागत' और 'दिल दिया' सुनने लायक हैं। इनका फिल्मांकन आंखों को सुकून देता है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है। बर्फीले पहाड़ों से लेकर तो तपते रेगिस्तान तक कैमरे को खूब घुमाया गया है। विदेशी लोकेशन्स और एक्शन सीक्वेंस बढ़िया फिल्माए गए हैं। जोरदार एक्शन और सलमान खान के स्टारडम के कारण टाइगर की दहाड़ सुनी जा सकती है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अली अब्बास ज़फर संगीत : विशाल शेखर कलाकार : सलमान खान, कैटरीना कैफ, सज्जाद डेलफ्रूज़, अंगद बेदी, कुमुद मिश्रा, गिरीश कर्नाड सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट ",0 " फिल्म 1996 से शुरु होती है। एलेक्स नामक किशोर को रेत में दबा 'जुमानजी' नामक बोर्ड गेम मिलता है। अब बोर्ड गेम कौन खेलता है? कह कर वह कोई रूचि नहीं लेता। वह दौर वीडियो गेम का था जब कैसेट्स लगा कर गेम खेले जाते थे। जुमानजी नामक वो गेम वीडियो गेम में बदल जाता है। फिर कहानी शिफ्ट होती है आज के दौर में। चार टीनएजर्स को अलग-अलग कारणों से एक कमरे को साफ करने की सजा सुनाई जाती है। वहां पर उनके हाथ जुमानजी नामक वीडियो गेम हाथ लगता है। वे टीवी से कनेक्ट कर गेम खेलते हैं। अचानक वे इस दुनिया से जुमानजी के जंगल में अपने आपको पाते हैं। वे जो किरदार को चुनते हैं उसमें वे बदल जाते हैं। पढ़ाकू और डरपोक स्पेंसर एक शक्तिशाली इंसान (ड्वेन जॉनसन) में बदल जाता है। हट्टा-कट्टा फ्रिज एक दुबले और नाटे इंसान (केविन हार्ट) के रूप में अपने आपको पाता है। लड़कों से बात करने में घबराने वाली मार्था एक हॉट लड़की (करेन गिलान) में परिवर्तित हो जाती है। सबसे मजेदार कैरेक्टर तो बैथनी को मिलता है। वह एक मोटे पुरुष के रूप में बदल जाती है। कैरेक्टर के बदलाव को लेकर निर्देशक और लेखक ने कुछ मजेदार सीन बनाए हैं। कुछ जोक्स 'एडल्ट' किस्म के भी हैं, लेकिन इनका मजा लिया जा सकता है। जब ये टीनएजर्स वीडियो गेम के शक्तिशाली किरदारों में बदलते हैं और अपनी-अपनी शक्तियों और कमियों से परिचित होते हैं तब दर्शकों का अच्छा खासा मनोरंजन होता है। किरदारों की यहां से यात्रा शुरू होती है अपने आपको गेम की दुनिया से बाहर निकाल कर फिर से दुनिया में आने की। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। गेम को जीतना होगा। कई लेवल पार करना होंगे। इस यात्रा को बेहद रोमांचक बनाया गया है। कुछ दर्शकों को यह बात अखर सकती है कि विलेन को बेहद शक्तिशाली नहीं बताया गया है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि बजाय एक खास किस्म के विलेन पर फोकस करने के वीडियो गेम की तरह अलग-अलग विलेन बनाए गए हैं। कभी ये बाइकर्स के रूप में आते हैं, कभी गैंडा बन कर पीछा करते हैं, कभी मगरमच्छ के रूप में निगलने आते हैं तो कभी जगुआर बन मुश्किल पैदा करते हैं। स्क्रिप्ट की दूसरी खासियत फिल्म के प्रमुख किरदारों की केमिस्ट्री है। आपस में वे एक मजबूत टीम बन कर सामने आते हैं। इनके बीच कई दृश्य मजेदार हैं जो गुदगुदाते हैं। हां, लॉजिक को कई बार दरकिनार रखा गया है, लेकिन इसे इग्नोर इसलिए किया जा सकता है कि आप एक वीडियो गेम का हिस्सा हैं और वीडियो गेम में लॉजिक से ज्यादा एंटरटेनमेंट का ध्यान रखा जाता है। निर्देशक जेक कस्डन ने फिल्म को मनोरंजक बनाया है। उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी महसूस होती है। फिल्म का मूड उन्होंने हल्का-फुल्का रखा है और फिल्म देखने में वीडियो गेम खेलने जैसा मजा मिलता है। ड्वेन जॉनसन अपनी एक्टिंग से ज्यादा अपने लुक्स से प्रभावित करते हैं। वे बॉडी-बिल्डिंग के चैम्पियन की तरह लगते हैं। ब्रेवस्टोन के किरदार के रूप में जब वे धुनाई करते हैं तो मजा आता है। उनके बोले गए संवाद मनोरंजन करते हैं। केविन हर्ट, करेन गिलन, निक जोनास, जैक ब्लैक सहित अन्य कलाकारों का अभिनय भी बेहतरीन है। फिल्म को 3-डी में देखना विशेष अनुभव है। कई दृश्य 3-डी में मजा देते हैं। मनोरंजन के लिए यह एक्शन, एडवेंचर, कॉमेडी फिल्म को वक्त दिया जा सकता है। यदि आपने पहले वाली मूवी देख रखी है तो भी यह फिल्म मजा देती है। ",1 "कहानी: शेर-ए-हिंद (गुरमीत राम रहीम सिंह इंसान) अपने साथी प्रीत इंसान के साथ पाकिस्तानी आर्मी के अंदर पहुंच जाता है और फिर उनके आतंकी गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब देता है। रिव्यू: गुरमीत राम रहीम सिंह उर्फ डॉ. एमएसजी की यह तीसरी फिल्म है। फिल्म में शेर-ए-हिंद एक भारतीय जासूस के किरदार में है, जो भारत में हो रही आतंकी गतिविधियों का पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की कसम खाता है। स्मार्टवॉच को शस्त्र बनाकर, अपनी सहयोगी हनी प्रीत की मदद से शेर-ए-हिंद अपने इस रोल को जेम्स बॉन्ड के रूप में ढालने की पूरी कोशिश की है, जो आपको हर वक्त बनावटी नज़र आएगा। एक जासूस के रूप में वह कभी बैंगनी रंग की बाइक, कभी लाल हेलिकॉप्टर पर सवार नज़र आता है तो कभी अपने मोडिफाइड ऑरेंज कार दुश्मनों के काफिले के आगे उनके इलाके में उड़ाते हुए नज़र आ जाएगा। शेर-ए-हिंद का गैजिट भी कम मजेदार नहीं। कुछ रिंग, जो अचानक तितलियां बन जाती हैं, उनकी घड़ी जो हर तरह का काम कर सकती है और कुछ ऐसे भी रिंग हैं जो चश्मे से लेकर मोडिफाइड गाड़ियों और बम तक में तब्दील हो जाते हैं। फिल्म में एमएसजी (शेर-ए-हिंद) का पाकिस्तानी लड़की सरगम (दीक्षा इंसान) से रोमांस वाले सीन भी काफी मजेदार बन पड़े हैं। जिस तरह से वह प्रेमी के रूप में सरगम के आसपास हिचकिचाते हुए से दिख रहे हैं और पूरी फिल्म में जैसे उन्हें कल्पना से परे एक बेहद अनोखे इंसान के रूप में दर्शाया गया है, यह देखना वाकई काफी मजेदार है। दोनों को एक-दूसरे के प्यार का एहसास टेलिप्रॉम्प्टर (एक ऐसी डिवाइस, जिसके जरिए लोग स्क्रिप्ट को इलेक्ट्रॉनिक विज़ुअल टेक्स्ट के सहारे पढ़ सकते हैं) के जरिए ही हो जाता है। यहां तक कि उनकी फिल्म की पूरी स्टार कास्ट टेलिप्रॉम्प्टर से पढ़ सकती है। फिल्म में म्यूज़िक की बात करें तो उनकी पिछली फिल्म के गाने 'लव चार्जर' की तरह इसमें भी कई ऐसे सीन हैं, जिसे देख उनके फैन्स को खुशियां मिल सकती हैं। कभी उनके गोल-गोल मसल्स दिखेंगे तो कभी उनके गिटार की आवाज सुनाई देगी। जहां तक देशभक्त वाले ऐंगल की बात है तो आखिर में उड़ी अटैक और भारत के सर्जिकल स्ट्राइक्स जैसी घटनाओं को शामिल किया गया है। आप चाहे ऐसी फिल्मों के फॉलोअर हों या फिर कदरदान, आपको यह पता होना चाहिए कि इसमें कॉमिडी से ज्यादा कुछ भी नहीं, जिसमें कि मुख्य किरदार आपकी संवेदनाओं के हर हिस्से की धज्जियां उड़ाता नज़र आता है। ",0 "1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : सतीश कौशिक संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : हिमेश रेशमिया, श्वेता कुमार, उर्मिला मातोंडकर, डैनी, डीनो मोरिया, गुलशन ग्रोवर, रोहिणी हट्टंगडी, बख्तियार ईरानी, राज बब्बर, असरानी सतीश कौशिक को रीमेक बनाने में महारत हासिल है। उन्होंने दक्षिण भारत की भाषाओं की फिल्मों के हिंदी रीमेक बनाए हैं। इस बार उन्होंने सुभाष घई की 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘कर्ज’ के आधार पर हिमेश रेशमिया के साथ ‘कर्ज’ बनाई है। मोंटी (हिमेश रेशमिया) एक दक्षिण अफ्रीका का लोकप्रिय रॉकस्टार है। एक बार अचानक वह एक धुन बजाने लगता है। उसे एक हवेली, मंदिर और एक लड़की दिखाई देती है और वह बेहोश हो जाता है। एक पार्टी में उसकी मुलाकात टीना (श्वेता कुमार) से होती है। टीना को मोंटी पसंद करने लगता है। छुट्टियाँ बिताने के लिए मोंटी केन्या जाता है, जहाँ उसे वो हवेली नजर आती है, जिसकी छवि उसे अकसर दिमाग में दिखाई देती है। धीरे-धीरे मोंटी को अपने पिछले जन्म की याद आने लगती है। पिछले जन्म में वह रवि वर्मा (डीनो मो‍रिया) था और कामिनी (उर्मिला मातोंडकर) को चाहता था। कामिनी ने उसकी जायदाद हड़पने के लिए उसकी हत्या कर दी थी। रवि की माँ और बहन भी थीं, जिनके बारे में अब कोई नहीं जानता। कामिनी से मोंटी नजदीकी बढ़ाता है। वह अपनी माँ और बहन का पता लगाने के साथ-साथ कामिनी से अपना बदला लेता है। फिल्म की कहानी बेहद सशक्त है। इसमें पुनर्जन्म, प्यार, बदला, माँ-बेटे और भाई-बहन का प्यार जैसे मसाला फिल्मों के सारे तत्व मौजूद हैं। ड्रामे की भरपूर गुंजाइश है। निर्देशक सतीश कौशिक ने इन सारे मसालों का भरपूर उपयोग किया है। उन्होंने फिल्म की गति तेज रखते हुए कई नाटकीय घटनाक्रम फिल्म में डाले हैं, जो मसाला फिल्म पसंद करने वालों को अच्छे लगेंगे। फिल्म का प्रस्तुतीकरण आज के दौर की फिल्मों जैसा नहीं है। सतीश कौशिक ने 70 और 80 के दशक वाला ट्रीटमेंट फिल्म को दिया है। सतीश कौशिक के दिमाग में यह स्पष्ट था कि वे किन दर्शकों (आम जनता) के लिए फिल्म बना रहे हैं और वे अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं। फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं, जैसे उर्मिला की उम्र में 25 वर्ष बाद भी कोई बदलाव नहीं देखने को मिलता। उर्मिला ने रवि वर्मा की माँ और बहन को क्यों छोड़ दिया? तेज गति से भागती फिल्म मध्यांतर के बाद धीमी पड़ जाती है, लेकिन क्लाइमेक्स के समय फिर गति पकड़ लेती है। पटकथा लेखक शिराज अहमद ने घई वाली ‘कर्ज’ में थोड़े बदलाव किए हैं, लेकिन इससे कहानी पर कोई खास असर नहीं पड़ता। अभिनेता हिमेश रेशमिया इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। उन्हें अभिनय बिलकुल नहीं आता। सतीश कौशिक ने बड़ी चतुराई से उनका उपयोग किया है, ताकि उनकी कमजोरियाँ छिप जाएँ। नई नायिका श्वेता कुमार कहीं से भी प्रभावित नहीं कर पातीं। उनकी और हिमेश की केमेस्ट्री एकदम ठंडी है। उर्मिला मातोंडकर ने खल‍नायिका की भूमिका शानदार तरीके से निभाई है। गुलशन ग्रोवर और राज बब्बर की भूमिका महत्वहीन है। डैनी और असरानी ने दर्शकों को हँसाने की कोशिश की है। डीनो मोरिया और रोहिणी हट्टंगडी भी सं‍क्षिप्त भूमिकाओं में नजर आए। संगीतकार हिमेश रेशमिया फिल्म की मजबूत कड़ी हैं। ‘तंदूरी नाइट्स’, ‘तेरे बिन चैन न आए’, ‘माशा अल्लाह’, ‘धूम तेरे प्यार की’ और ‘एक हसीना थी’ जैसे गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। गानों का फिल्मांकन भव्य है, हालाँकि नृत्य में हिमेश कमजोर हैं। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। यह फिल्म कुछ अलग होने का दावा नहीं करती, लेकिन मसाला फिल्म पसंद करने वालों को अच्छी लगेगी। जिन लोगों ने सुभाष घई की ‘कर्ज’ को पसंद किया है, उन्हें भी यह फिल्म देखकर निराशा नहीं होती है और जो पहली बार ‘कर्ज’ देख रहे हैं उन्हें भी यह पसंद आ सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत ",1 "सारा मसला ख्वाहिशों का है... फिल्म की शुरुआत में खिलजी का यह डायलॉग पूरी फिल्म का सार है। दुनिया की हर नायाब चीज पर अपना कब्जा करने की चाहत रखने वाला अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती की एक झलक देखने की ख्वाहिश कर तड़प कर रह जाता है। पूरी फिल्म खिलजी की सनक, उसके झक्कीपन, उसकी इच्छाओं, उसकी मर्जी, उसकी सेक्शुएलिटी, उसके जुनून को लेकर है। चित्तौड़ के राजपूत राजा उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर देते हैं और खिलजी धोखे से राज्य हड़पने में कामयाब तो हो जाता है, लेकिन अपनी सूझबूझ, कूटनीति और प्रेजेंस ऑफ माइंड के जरिए किस तरह रानी पद्मावती सनकी खिलजी की उस एक ख्वाहिश को अधूरा रख छोड़ती हैं, यही संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म 'पद्मावत' में बड़े शानदार ढंग से दिखाया है। आंखों को चकाचौंध कर देने वाली भंसाली की इस पीरियड फिल्म में एक से एक शानदार परफॉर्मेंसेज हैं। सिनेमा हॉल से बाहर आकर दो चीजें आपके दिमाग पर दस्तक देंगी, एक तो खिलजी के रूप में रणवीर सिंह का दमदार अंदाज अौर दूसरा यह कि आखिर इस फिल्म पर इतना विवाद हो क्यों रहा है, जबकि फिल्म में तो वैसा कुछ भी नहीं है। फिल्म की कहानी मलिक मोहम्मद जायसी की 1540 में लिखी पद्मावत पर आधारित है, जो राजपूत महारानी रानी पद्मावती के शौर्य और वीरता की गाथा कहती है। पद्मावती मेवाड़ के राजा रावल रतन सिंह की पत्नी हैं और बेहद खूबसूरत होने के अलावा बुद्धिमान, साहसी और बहुत अच्छी धनुर्धर भी हैं। 1303 में अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती की इन्हीं खूबियों के चलते उनसे इस कदर प्रभावित होता है कि चित्तौड़ के किले पर हमला बोल देता है। फिल्म के अंत में महाराज रावल रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच तलवारबाजी के सीन में रतन सिंह अपने उसूलों, आदर्शों और युद्ध के नियमों का पालन करते हुए खिलजी को निहत्था कर देते हैं, लेकिन पद्मावती को पाने की चाहत में खिलजी धोखे से रतन सिंह को यह कहकर मार डालता है कि जंग का एक ही उसूल होता है, जीत। अपनी आन-बान-शान की खातिर इसके बाद पद्मावती किस तरह जौहर के लिए निकलती हुए खिलजी की ख्वाहिशों को ध्वस्त कर देती हैं यही फिल्म की कहानी है। चित्तौड़ के मशहूर सूरमा गोरा और बादल की शहादत को भी फिल्म में पूरे सम्मान के साथ दर्शाया गया है।करीब 200 करोड़ की लागत से बनी 'पद्मावत' अब तक की सबसे महंगी फिल्म बताई जाती है। फिल्म के हर सीन में सिर से पांव तक ढकीं दीपिका पादुकोण ने अपने चेहरे के हाव भाव और खासतौर से आंखों के जरिए जो दमदार अभिनय किया है, वह सराहनीय है। चाहे प्यार हो या गुस्सा, हर तरह का इमोशन तुरंत दीपिका की बड़ी-बड़ी आंखों से साफ महसूस किया जा सकता है। 30-30 किलों के खूबसूरत लहंगों, भारी गहनों और खासतौर पर नाक की नथ में दीपिका खूब जमी हैं। सजी-धजी दीपिका की मौजूदगी को पूरे स्क्रीन पर इस कदर दिखाया गया है कि आसपास सब कुछ बौना नजर आता है। शाहिद कपूर ने महाराजा रावल रतन सिंह के किरदार के साथ न्याय किया है। वह शुरू से अंत तक शालीन नजर आए लेकिन एक किरदार जो पूरी फिल्म को अपने कब्जे में करता है वह हैं अलाउद्दीन खिलजी यानी रणवीर सिंह। रणवीर असल जिंदगी में भी जिस कदर एनर्जी से भरपूर हैं। शुरू से अंत तक एक सनकी, विलासी, व्यभिचारी और कुंठित मानसिकता जैसे लक्षणों को जीवंत करने में रणवीर ने जान लड़ा दी है। खली वली गाने में उनका हैपी डांस, उनकी एनर्जी को समेटने में कामयाब हुआ है। उनके कई डायलॉग्स आपको सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हुए याद रह जाएंगे। मसलन खिलजी की क्रूरता दिखाता एक डायलॉग- सीन में उनकी पत्नी उनसे कहती हैं कुछ तो खौफ खाइए। इस पर वह पलटकर पूछते हैं आज खाने में क्या-क्या है? जब उन्हें बताया जाता है कि खाने में ढेर सारे पकवान हैं तो खिलजी का जवाब होता है, जब खाने में इतना कुछ है तो खौफ क्यों खाऊं? साथ ही फिल्म में उनके अंदर छिपे एक नाकाम प्रेमी की बेबसी को दर्शाता एक डायलॉग- वह अपने गुलाम मलिक काफूर से लगभग रोते हुए पूछते हैं, काफूर बता मेरे हाथ में कोई प्यार की लकीर है, नहीं है तो क्या तू ऐसी लकीर बना सकता है? काफूर अपने मालिक की ऐसी हालत देख रोता है। गुलाम मलिक काफूर के रोल में जिम सरभ के रूप में एक सरप्राइज दिया है भंसाली ने इंडस्ट्री को। अपने शानदार हावभाव के जरिए ही काफूर यह साबित करने में कामयाब होते हैं कि वह मन ही मन खिलजी से प्यार करते थे। जलालुद्दीन खिलजी के रोल में रजा मुराद ने बेहद दमदार रोल किया है तो अदिति राव हैदरी भी खिलजी की बीवी के रोल में बेहद सशक्त लगी हैं। भंसाली के कैमरे ने उनकी खूबसूरती को भी बेहद उम्दा ढंग से उभारा है। घूमर गाना तो पहले ही काफी हिट हो चुका है, इसके अलावा भी तुर्क-अफगानी संगीत का अच्छा संगम इस फिल्म में है। फिल्म की एडिटिंग इतनी उम्दा है, स्क्रिप्ट इतनी टाइट है कि दो घंटे 44 मिनट यूं निकल जाते हैं। 3डी फिल्म के पैमाने पर पद्मावत एकदम खरी उतरती है। शुरुआत में फैंटसी, रोमांस और राजस्थानी पारंपरिक लोक-संगीत से सराबोर कहानी कब अचानक आपको अपने ड्रामे में बांध लेती है आपको पता ही नहीं चलता। कुल मिलाकर फिल्म बहुत खूबसूरत लगेगी, आपकी आंखों को, आपके जेहन को और आपके दिल को। मुमकिन है कि इसे देखने के बाद इसका विरोध करने वाले लोग अपनी विचारधारा बदलकर इस फिल्म पर गर्व का अहसास करने लगें। ",0 "बैनर : मारुति इंटरनेशन ल, बि ग पिक्चर् स निर्माता : अशोक ठाकरिया, इंद्र कुमार निर्देशक : के. मुरली मोहन राव संगीतः राघव सच्चर कलाकार : सुनील शेट्टी, आरती छाबड़िया, आशीष चौधरी, ट्यूलिप जोशी, आफताब शिवदासानी, जावेद जाफरी, किम शर्मा, सोफिया चौधरी, राजपाल यादव, चंकी पांडे, सुहासिनी मुळे, प्रेम चोपड़ा, वृजेश हीरजी, शरद सक्सेना * सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 110 मिनट निर्माता इंद्र कुमार और अशोक ठाकरिया ने लगभग सवा करोड़ रुपए खर्च कर हॉलीवुड फिल्म ‘डेथ एट ए फ्यूनरल’ के हिंदी में रीमेक बनाने के अधिकार खरीदे, लेकिन नकल करने में भी अक्ल की जरूरत होती है वरना ‍’दिल्ली में कुतुबमीनार है’ की जगह नकलची विद्यार्थी ‘दिल्ली में कुतिया बीमार है’ लिख देता है। कुछ ऐसा ही हाल इस फिल्म का भी है। नकल भी ठीक से नहीं की गई है। एक अच्छी कहानी (जिसमें हास्य की बहुत गुंजाइश थी) को बेहूदा स्क्रीनप्ले, ओवर एक्टिंग और खराब निर्देशन ने जाया कर दिया। कहानी तो विदेशी उठा ली, लेकिन उसका भारतीयकरण करने में घिसे-पिटे चुटकुले, फूहड़ संवाद और दृश्य डाल दिए गए और हँसाने की नाकाम कोशिश गई है। स्टीवन लैजारस (सुनील शेट्टी) के पिता का अंतिम संस्कार होने वाला है। रिश्तेदार और दोस्तों का जमावड़ा लगा हुआ है। हर किरदार की अपनी कहानी है। कोई बदला लेना चाहता है तो कोई इस मौके पर रोमांस में लगा हुआ है। सास-बहू और भाई-भाई की अनबन है। शक करने वाली पत्नी है। हॉट मॉडल भी है जो हर किसी के साथ सोने के लिए तैयार है। ड्रग्स और ब्लैकमेलिंग भी है। कहानी में हास्य पैदा करने का सारा सामान जमा है, लेकिन स्क्रिप्ट ने सारा मामला बिगाड़ दिया है। फिल्म में हर किरदार की कहानी है, लेकिन ज्यादातर कमजोर है। खासतौर पर आफताब शिवदासानी वाली, जिसमें वे ड्रग के नशे में बेहूदा हरकत करते रहते हैं। इसी तरह प्रेम चोपड़ा और जावेद जाफरी के टॉयलेट वाला सीन घृणा पैदा करता है। ट्यूलिप जोशी और वृजेश हीरजी के दृश्य भी दोहराव की वजह से बोर करते हैं। रही-सही कसर के. मुरली मोहनराव के कमजोर निर्देशन ने पूरी कर दी है। यह ड्रामा चंद घंटों का और सिर्फ एक सेट पर है इसलिए निर्देशक की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह फिल्म को एकरसता से बचाए, लेकिन मुरली इसमें असफल रहे हैं। बी-ग्रेड कलाकारों का फिल्म में जमावड़ा है। सुनील शेट्टी निराश करते हैं। आफताब ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। जावेद जाफरी और चंकी पांडे ने हँसाने के लिए तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। आशीष चौधरी ठीक रहे हैं। राजपाल यादव और वृजेश हीरजी को ज्यादा अवसर नहीं मिले। नायिकाओं में सोफी चौधरी, किम शर्मा, ट्यूलिप जोशी और आरती छाबडि़या औसत रहीं। कुल मिलाकर ‘डैडी कूल’ एकदम ठंडी है। ",0 "बॉलीवुड की फिल्मों में इन दिनों प्रेम-कथाएँ कम नजर आ रही हैं और ऐसे समय में निर्देशक इम्तियाज अली ‘जब वी मेट’ लेकर हाजिर हुए हैं। ‘जब वी मेट’ की कहानी में नयापन नहीं है। इस तरह की कहानियों पर पहले फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इसका ताजगीभरा प्रस्तुतिकरण फिल्म को देखने लायक बनाता है। प्रेम में धोखा और व्यवसाय में पिटा हुआ इनसान आदित्य (शाहिद कपूर) हताशा में एक रेल में बैठ जाता है। उसकी मुलाकात होती है हद से ज्यादा बोलने वाली लड़की गीत (करीना कपूर) से। गीत मुंबई से अपने घर भटिंडा जा रही है। वहाँ से मनाली भागकर वह अपने प्रेमी अंशुमन (तरुण अरोरा) से शादी करने वाली है। एक स्टेशन पर दोनों की ट्रेन छूट जाती है। दोनों सड़कों पर, टैक्सी में, बस में नाचते-झूमते और गाते हुए भटिंडा पहुँचते हैं। इस यात्रा में आदित्य के दिल में गीत के प्रति प्यार जाग जाता है। गंभीर रहने वाला आदित्य गीत से जिंदगी को जिंदादिली से जीना सीख जाता है। इसके बाद आदित्य अपनी राह और गीत अपनी। महीने बाद जब आदित्य को पता चलता है कि गीत को उसके प्रेमी ने धोखा दिया है तो वह गीत की खोज करता है। गीत को उसके प्रेमी से भी मिलवाता है, लेकिन कुछ उतार-चढ़ाव के बाद गीत आदित्य को ही अपना बनाती है। इम्तियाज ने आदित्य और गीत के चरित्र पर खूब मेहनत की है और उनका विस्तार बहुत अच्छे तरीके से किया है। फिल्म के दोनों मुख्य पात्र असल जिंदगी से लिए गए लगते हैं। उनका रोमांस नकली नहीं लगता। आदित्य और गीत की आपसी नोकझोंक को बेहद अच्छे तरीके से पेश किया गया है। दर्शक बहुत जल्द उनमें खो जाता है और उन चरित्रों के सुख-दु:ख को महसूस करने लगता है। जब पात्र अच्छे लगने लगते हैं तो कई बार फिल्म की कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। फिल्म का पहला हाफ बेहद मनोरंजक है। दूसरे हाफ में जब गीत और आदित्य अलग होते है तो फिल्म गंभीर हो जाती है। यहाँ फिल्म की लंबाई भी ज्यादा लगने लगती है। इस हाफ को थोड़ा छोटा किए जाने की जरूरत है। फिल्मी के शुरूआती दृश्य को बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था, जब आदित्य हताश होकर रेलवे स्टेशन पहुँचता है। पटकथा में थोड़ी कसावट की जरूरत महसूस होती है, खासकर मध्यांतर के बाद। शाहिद और करीना की जोड़ी को परदे पर रोमांस करते देखना सुखद लगा। शाहिद ने अपना काम बखूबी निभाया। हालाँकि वे एक उद्योगपति लगते नहीं हैं, इसलिए उन्हें परिपक्व दिखाने के लिए चश्मा पहनाया गया। एक सिख लड़की के रूप में करीना का अभिनय सब पर भारी पड़ा। पहली फ्रेम से लेकर आख‍िरी तक करीना का अभिनय सधा हुआ है। उसके संवाद बढि़या लिखे गए हैं, इसलिए उनका ज्यादा बोलना भी प्यारा लगता है। दारासिंह को देखना भी सुखद लगा। दारासिंह के दृश्य एक खास कोण से शूट किए गए। उनके पीछे दीवारों पर लगे जानवरों के कटे सिर दारासिंह के व्यक्तित्व को बलशाली बनाते हैं। पवन मल्होत्रा तो एक मँजे हुए कलाकार हैं। प्रीतम का संगीत हिट तो नहीं है, लेकिन गाने मधुर हैं। पूछो ना पूछो, तुमसे ही, मौजा-मौजा सुनने और देखने लायक हैं। कोरियोग्राफी उम्दा है। नटराज सुब्रमण्यम ने कैमरे की आँख से आउटडोर दृश्यों को उम्दा फिल्माया है। निर्माता : धीलिन मेहता निर्देशक : इम्तियाज अली संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : करीना कपूर, शाहिद कपूर, दारासिंह, पवन मल्होत्रा, किरण जुनेजा, तरूण अरोरा इम्तियाज ने युवाओं को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई है, लेकिन यह हर वर्ग के दर्शकों का मनोरंजन करती है। ",1 "स्मॉल स्क्रीन पर लंबे अरसे से धमाल मचा रहे कपिल शर्मा के शो में डॉक्टर मशहूर गुलाटी के किरदार में दर्शकों को खूब हंसा रहे सुनील ग्रोवर बतौर हीरो अपनी इस फिल्म में वैसा करिश्मा नहीं कर पाए जो कपिल के शो में कर रहे हैं। वैसे, सुनील इससे पहले भी ऐसा ही जलवा कपिल के इसी शो में गुत्थी का किरदार निभा कर कर चुके हैं। पिछले दिनों सुनील की यह फिल्म उस वक्त मीडिया की सुर्खियों में छाई जब अंडरवर्ल्ड डॉन से कथित तौर से मिली धमकी की वजह से ऐन वक्त पर फिल्म की रिलीज को आगे खिसका दिया गया। कहानी : मुम्बई बेस टीवी एंकर अर्नब घोष (सुनील ग्रोवर) एक टीवी चैनल में प्राइम टाइम शो होस्ट करता है। पिछले कुछ अरसे से अर्नब परेशान चल रहा है। इस वजह से उसके प्राइम टाइम शो की टीआरपी लगातार गिरने लगी है। टीवी चैनल में अर्नब का बॉस रॉय (राजेश शर्मा ) उसे दो महीने का वक्त देता है ताकि वह अपने शो की लगातार गिरती टीआरपी को टॉप पर लाए, वरना उसे प्राइम टाइम पर पेश होने वाले शो को होस्ट करने से हटकार किसी नॉन प्राइम टाइम का होस्ट बना दिया जाएगा। अर्नब की खूबसूरत वाइफ पारुल (अंजना सुखानी) उसे सलाह देती है अगर वह अंडरवर्ल्ड डॉन डी (जाकिर हुसैन) का एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करके अपने प्राइम टाइम शो में पेश करे तो टीआरपी बहुत बढ़ जाएगी। अर्नब को अपनी वाइफ के इस आइडिया में काफी दम नजर आता है । अर्नब अपने बॉस रॉय से पारुल के इस आइडिया पर डिस्कस करता है। बॉस को भी इस आइडिया को सुनने के बाद ऐसा लगता है अगर चैनल पर अंडरवर्ल्ड डी का इंटरव्यू चलता है तो शो की टीआरपी शिखर पर आ सकती है। बस यहीं से शुरू होता है अर्नब का अपनी टीम के साथ डॉन का इंटरव्यू करने का मिशन, जो कई टर्निंग प्वाइंट के बाद कामयाब होता है। ऐक्टिंग : कपिल के शो में अपनी जबर्दस्त ऐक्टिंग के दम पर लाखों दर्शकों को अपना फैन बनाने वाले सुनील ग्रोवर इस फिल्म में अपनी ऐक्टिंग से कहीं प्रभावित नहीं कर पाए। दरअसल, इन दिनों दर्शक सुनील को जिस लुक और स्टाइल में देख रहे हैं, फिल्म में उनका किरदार ठीक इसके विपरीत है। वैसे डायरेक्टर ने सुनील के साथ फिल्म में कुछ हल्के फुल्के कॉमिडी सीन है, लेकिन इन सीन्स में सुनील ओवर ऐक्टिंग के शिकार लगे। फिल्म में सुनील के अलावा पंकज त्रिपाठी, जाकिर हुसैन और राजेश शर्मा जैसे कई मंझे हुए कलाकार हैं, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और डायरेक्टर की किरदार पर अच्छी पकड़ ना होने की वजह से हर कलाकार ने बस अपना किरदार निभा भर दिया। हां, सुनील की वाइफ के रोल में अंजना के सीन बेशक कम हैं, लेकिन इसके बावजूद अ्ंजना ने अपने छोटे से किरदार को अच्छी तरह से निभाया है। निर्देशन : यकीनन इस फिल्म को बनाने का विशाल का आइडिया अच्छा था, टीवी चैनल वाले अपने किसी शो की टीआरपी को बढ़ाने के लिए क्या कुछ नहीं करते इसे फिल्म में दिखाने की कोशिश तो जरूर की गई लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और कंपलीट स्क्रीनप्ले ना होने की वजह से फिल्म दर्शकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाती। विशाल ने सुनील ग्रोवर को जिस अंदाज में पेश किया वह दर्शकों की बहुत बड़ी क्लास के पल्ले नहीं पड़ता। वैसे, किसी चैनल द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी अंडरवर्ल्ड डॉन का इंटरव्यू लेने का आइडिया नया और मजेदार है, लेकिन विशाल इसे स्क्रीन पर उस अंदाज में पेश नहीं कर पाए जैसे करना चाहिए था। फिल्म में कई संवादों और सीन्स पर सेंसर की कैंची चली तो वहीं इन सीन्स में फिल्म की डबिंग भी बेहद कमजोर है। संगीत : वैसे इस कहानी में कहीं गानों की जरूरत नहीं थी, इसके बावजूद डायरेक्टर ने दो घंटे की फिल्म में गाने भी फिट कर दिए जो स्क्रीन पर तो ठीकठाक लगते हैं लेकिन इन गानों की वजह से पहले से स्लो चल रही इस फिल्म की रफ्तार और कम हो जाती है। क्यों देखें : अगर आप सुनील ग्रोवर के पक्के फैन हैं तो इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह यही हो सकती है। अगर आप यह सोचकर फिल्म देखने जा रहे हैं कि कपिल के शो की तर्ज पर इस फिल्म में भी सुनील ने कॉमिडी का जमकर तड़का लगाया होगा तो यकीनन अपसेट होंगे। ",0 "दशरथ मांझी अलग ही मिट्टी का बना होगा, वरना एक आदमी पहाड़ से पंगा लेकर अकेला ही विजय हासिल कर ले ये आम आदमी की बस की बात नहीं है। इससे साबित होता है कि व्यक्ति के अंदर असीमित क्षमताएं होती हैं, बस खुद पर उसे यकीन होना चाहिए। दशरथ मांझी का जीवन ऐसा है कि उस पर फिल्म बनाई जाए और केतन मेहता ने 'मांझी- द माउंटेन मैन' के जरिये यह काम कर दिखाया है। वैसे भी केतन को बायोपिक बनाना पसंद है और वे वल्लभ भाई पटेल, मंगल पांडे और राजा रवि वर्मा पर फिल्म बना चुके हैं। दशरथ मांझी बिहार के गेहलौर गांव में रहने वाला एक आम आदमी था। 1934 में उसका जन्म हुआ। गेहलौर गांव की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट पहाड़ था। लोगों को घूमकर वजीरजंग जाना पड़ता था, जहां अस्पताल, स्कूल, रेलवे स्टेशन थे। इसमें समय बरबाद होता था। पहाड़ के कारण सुविधाएं भी गेहलौर तक नहीं पहुंची थी। एक दिन दशरथ मांझी की पत्नी फाल्गुनी (फगुनिया) पहाड़ से गिर जाती है। घूम कर जाना पड़ता है और इस कारण उसकी मृत्यु हो जाती है। गुस्साया दशरथ विशाल पहाड़ के सामने खड़ा होकर बोलता है 'बहुत बड़ा है, अकड़ है, ये भरम है, भरम' और वह हथौड़ा लेकर अकेला ही सुबह से लेकर रात तक पहाड़ में से रास्ता बनाने में जुट जाता है। उसका यह जुनून कभी खत्म नहीं होता। वह कभी नहीं सोचता कि यह काम उसके बस की बात नहीं है। लोग उसे पागल समझते हैं, बच्चे पत्थर मारते हैं, उसके पिता नाराज होते हैं, लेकिन दशरथ इन बातों से बेखबर जुटा रहता है अपने मिशन में। 22 साल लग जाते हैं उसे पहाड़ में से रास्ता बनाने में और अंत में यह आदमी पहाड़ को बौना साबित कर उस पर विजय हासिल कर लेता है। दशरथ बेहद गरीब था। खाने के पैसे भी नहीं थे, उसके पास। जब पानी की कमी के चलते पूरा गांव खाली हो गया तब भी वह पहाड़ छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। पत्तियां खाकर उसने पेट भरा और पहाड़ को काट डाला। एक पत्रकार उससे पूछता है कि 'इतनी ताकत कहां से लाते हो?' वह जवाब देता है 'पहले जोरू से प्यार था, अब इस पहाड़ से है।' प्यार में कितनी ताकत होती है इसकी मिसाल है दशरथ। लोग ताजमहल बनवाते हैं, लेकिन अपनी पत्नी की याद में दशरथ ने उस पहाड़ को ही उखाड़ फेंका जिसने उसकी पत्नी को उससे छीन लिया था। दशरथ की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणा भी है जो हर काम को कठिन मानते हैं। फिल्म में एक दृश्य में एक पत्रकार दशरथ के आगे दुखड़ा रोता है कि वह अखबार मालिकों के हाथों की कठपुतली बन गया है। दशरथ कहता है कि नया अखबार शुरू कर लो। वह कहता है कि यह बहुत कठिन है। तब दशरथ पूछता है पहाड़ तोड़ने से भी कठिन है? मांझी- द माउं टेन मैन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की स्क्रिप्ट केतन मेहता और महेंद्र झाकर ने मिल कर लिखी है और फिल्म में तीन ट्रेक समानांतर चलते हैं। एक तो दशरथ की पहाड़ तोड़ने की प्रेरणास्पद कहानी, जो बताती है कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। दूसरा ट्रेक दशरथ और उसकी पत्नी फाल्गुनी की प्रेम कहानी का है और इस तरह का प्रेम अब बहुत कम देखने को मिलता है। तीसरा ट्रेक उस दौर में राजनीतिक तौर पर चल रही उथल-पुथल को दर्शाता है। मसलन छुआछुत को सरकार खत्म करती है, जमींदारों के खिलाफ डाकू खड़े हो जाते हैं, आपातकाल लगता है। दशरथ को पैसा दिलाने के बहाने उसके नाम पर नेता और सरकारी अफसर लाखों रुपये डकार जाते हैं। दशरथ इसकी शिकायत 1300 किलोमीटर दूर पैदल चल कर दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करने के लिए जाता है, लेकिन पुलिस उसे भगा देती है। वन विभाग वाले पहाड़ को अपनी संपदा बता कर दशरथ को जेल में डाल देते हैं। ये राजनीतिक हलचल बताती है कि तब भी आम आदमी की नहीं सुनी जाती थी और हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी सिर्फ नारों तक ही सीमित है। दशरथ की कहानी में इतनी पकड़ है कि आप पूरी फिल्म आसानी से देख लेते हैं और दशरथ की हिम्मत, मेहनत और जुनून की दाद देते हैं। अखरता है कहानी को कहने का तरीका। निर्देशक केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। पहाड़ भी छोटा-बड़ा होता रहता है। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन 'मांझी द माउंटन मैन' में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थोड़ा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। अभिनय के क्षेत्र में यह फिल्म बहुत आगे है। एक से बढ़कर एक कलाकार हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं। एक सूखे कुएं वाले दृश्य में उन्होंने कमाल की एक्टिंग की है। मांझी के रूप में उनका अभिनय लंबे समय तक याद किया जाएगा। राधिका आप्टे का नाम अब ऐसी अभिनेत्रियों में लिया जाने लगा है और हर तरह के रोल आसानी से निभा लेती हैं। मांझी की पत्नी के किरदार में उन्होंने सशक्त अभिनय किया है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी तगड़ी है और हर कलाकार ने अपना काम बखूबी किया है। खुश होने पर मांझी बोलता था- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद। फिल्म देखने के बाद आप भी यही बोलना चाहेंगे। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एनएफडीसी इंडिया > निर्माता : नीना लथ गुप्ता, दीपा साही निर्देशक : केतन मेहता संगीत : संदेश शांडिल्य, हितेश सोनिक कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, पंकज त्रिपाठी, दीपा साही, गौरव द्विवेदी, अशरफ उल हक सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 1 मिनट 51 सेकंड रेटिंग : 3.5/ 5 ",1 "अविनाश (दलकीर), एक हैरान-परेशान इंसान है और उसके पिता से उसका अजीब सा रिश्ता है। वह अपने सपने पूरे न होने का जिम्मेदार उन्हीं को ठहराता है। फिर अचानक उसके पिता की मौत हो जाती है और इसके बाद सब बदल जाता है।करवां का रिव्यू: पिता के अचानक मरने की खबर से अविनाश और उसका दोस्त शौकत (इरफान) बेंगलुरु से कोच्चि आ जाते हैं और इस यात्रा के दौरान उन्हें अपनी जिंदगी के बारे में सोचने का टाइम मिलता है। खो जाना कभी-कभी अपने आप को पाने का सबसे अच्छा तरीका होता है। कारवां की यही कहानी है। हर सफर उस तरह खत्म नहीं होता जैसा आपने सोचा होता है। फिल्म भी काफी हद तक इसी तर्ज पर है। इसमें ट्रैजिडी के बीच भटकता हुआ अविनाश धीरे-धीरे खुद को पा लेता है। दक्षिण भारत की खूबसूरत जगहों पर शूट की गई फिल्म कारवां इसके तीनों किरदारों अविनाश, शौकत और तान्या (मिथिला) को उनकी जिंदगी दुविधाओं से रूबरू करवाती है। फिल्म कारवां को डार्क कॉमिडी दिखाने के लिए कुछ ज्यादा मेहनत कर दी गई है। ऐसा लगता है कि फिल्म पर अलग और फनी दिखने का बोझ है। हालांकि यह काफी हद तक सफल भी होती है लेकिन इसमें दिखाई गई परिस्थितियां थोड़ी अकल्पनीय लगती हैं। फिल्म कारवां में अगर कुछ जबरदस्त है तो वह है दलकीर और इरफान की बेहतरीन ऐक्टिंग। मलयालम फिल्मों के चहेते दलकीर का हिंदी डेब्यू काबिलेतारीफ है। वह स्क्रीन पर बेहद स्वाभिवक दिखते हैं इसके अलावा मलयाली होने के बाद भी उनकी हिंदी पर बढ़िया कमांड है। इरफान का किरदार भले ही अधपका हो लेकिन वह हिंदी सिनेमा के इतने बढ़िया ऐक्टर हैं कि फिल्म में जान डाल देते हैं। आधी फिल्म के बाद एक सीन है जिसमें वह अपने पिता के बारे में बात करते हैं, जिसे देखकर लगता है कि वह कितने कमाल के ऐक्टर हैं। फिल्म के कुछ सीन बेहद जबरदस्त हैं। मिथिला पालकर ठीक-ठाक हैं पर कोई छाप नहीं छोड़तीं। कृति खरबंदा का स्पेशल रोल अच्छा है। कारवां कोई वैसी उतार-चढ़ाव वाली कहानी नहीं है जैसी आप उम्मीद कर रहे हैं लेकिन आप दिल में अहसास लेकर निकलेंगे कि अंत भला सो भला। ",0 "यकीनन यह साल ऐक्टर राजकुमार राव के लिए बेहद खास है। फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद पहली बार इस साल राज कुमार की सबसे ज्यादा फिल्में रिलीज़ हो रही हैं। हाल ही में रिलीज़ हुई राजकुमार राव की 'बरेली की बर्फी' लोगों को खूब पसंद आई। कुछ समय पहले रिलीज़ हुई राजकुमार की फिल्म 'बहन होगी तेरी' बेशक बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन दर्शकों की एक क्लास ने इस फिल्म को सराहा और कम बजट में बनी उनकी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत बटोरने में भी कामयाब रही। राजकुमार के बारे में माना जाता है कि वह बॉलिवुड मसाला ऐक्शन फिल्मों के स्टार नहीं हैं और अगर ऐसा होता तो राज कभी 'ट्रैप्ड' जैसी फिल्मनहीं करते। इस फिल्म में राजकुमार की ऐक्टिंग की हर किसी ने जमकर तारीफ की। अब अगर उनकी इस नई फिल्म की बात करें तो एकबार फिर राजकुमार ने इस फिल्म में अपनी लाजवाब ऐक्टिंग और किरदार को अपने अंदाज में कुछ ऐसा जीवंत बना दिया है कि एकबार फिर राव इस फिल्म में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के चलते इस अवॉर्ड के दावेदारों की लिस्ट में जरूर शामिल हो गए है। इस फिल्म को रिलीज़ से पहले जिस तरह क्रिटिक्स और दर्शकों की एक क्लास की जमकर तारीफें मिल रही हैं उसे देखकर लगता है कि फिल्म देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित फेस्टिवल में अपने नाम कई अवॉर्ड करने वाली है। स्टोरी प्लॉट : न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) की अपनी बसाई अलग ही दुनिया है और वह अपनी इसी दुनिया में ही रहना चाहता है। मिडल क्लास फैमिली का न्यूटन कुमार उर्फ नूतन कुमार सरकारी नौकरी में है, लेकिन रिश्वत से कोसों दूर है। टाइम का इतना पक्का है कि डयूटी से पहले आना और काम पूरा करके जाना उसका नियम है। ऐसे में आदर्शवादी न्यूटन को भी लगता है कि वह अपनी कुछ खासियतों के चलते दूसरों से टोटली अलग है। घर वाले उसकी शादी करना चाहते हैं, लेकिन न्यूटन को जब पता चलता है कि लड़की की उम्र अभी 18 साल से कम है तो वह शादी करने से साफ इन्कार कर देता है। दरअसल, स्कूल कॉलेज की दुनिया से निकलने के बाद भी न्यूटन आज भी किताबों में लिखी बातों पर पर चलना पसंद करता है। राज्य में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है सो न्यूटन को भी उसकी मर्जी से छत्तीसगढ़ के नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित एरिया में पीठासीन अधिकारी बनाकर भेजा जाता है। दरअसल, छत्तीसगढ़ के इस बेहद पिछड़े इलाके में आज भी माओवादियों का चारों ओर खौफ है और माओवदियों ने इस बार यहां चुनाव का पूरी तरह से बॉयकाट किया हुआ है। वह नहीं चाहते कि यहां किसी भी सूरत में वोटिंग हो। न्यूटन यहां के एक छोटे से गांव के कुल 76 वोटरों से वोटिंग कराने के लिए अपनी टीम के हेलिकॉप्टर से साथ यहां आता है। यहां आने के बाद न्यूटन की टीम में यहीं से थोड़ी दूर एक स्कूल की टीचर माल्को (अंजली पाटिल) भी शामिल है। यहां आने के बाद इनकी टीम की सुरक्षा और वोटिंग कराने की जिम्मेदारी जिस सैनिक बटैलियन की लगती है उसका हेड आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) पर है, जिसका मानना है कि यहां वोटिंग कराने से कुछ होने वाला नहीं, सो न्यूटन के साथ बहस होती रहती है। न्यूटन के जोर देने पर आत्मा सिंह अपनी बटैलियन के साथ कैम्प से करीब आठ किमी दूर घने जंगल में एक वीरान पड़े सरकारी स्कूल के एक कमरे में मतदान केंद्र बनाता है और फिर शुरू होता है वोटरों के आने का इंतजार । फिल्म की कहानी शुरू से अंत तक आपको बांधने का दम रखती है। करीब पौने दो घंटे की फिल्म कई बार आपको देश की चुनाव प्रणाली, सरकारी अफसरों की सोच और सिक्यॉरिटी फोर्स के नजरिये के बारे में सोचने पर बाध्य करेगी। न्यूटन एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों की एक खास क्लास के लिए है, जिन्हें रिऐलिटी को स्क्रीन पर देखना पंसद है। वहीं तारीफ करनी होगी यंग डायरेक्टर अमित मसुरकर की जिन्होंने एक कड़वी सच्चाई को बॉलिवुड मसालों से दूर हटकर पेश किया है। यही वजह है कि फिल्म के कई सीन आपको सोचने पर मजबूर करेंगे। ऐसा भी नहीं कि फिल्म बेहद गंभीर सब्जेक्ट पर बनी है और इसमें आपको गुदगुदाने के लिए कुछ नहीं है। पकंज त्रिपाठी और राजकुमार राव के संवादों को सुनकर आप कई बार हंसेंगे। ऐक्टिंग: राजकुमार राव ने न्यूटन के किरदार को बखूबी निभाया है। सच कहा जाए तो राव ने न्यूटन के किरदार में अपनी मासूमियत और फेस एक्स्प्रेशन से जान डाल दी है। आत्मा सिंह के रोल में पकंज त्रिपाठी खूब जमे हैं। वहीं रघुवीर यादव भी अपने रोल में सौ फीसदी परफेक्ट हैं तो अंजली पाटिल ने अपने किरदार की डिमांड के मुताबिक किरदार को निभाया है। फिल्म का रियल लोकेशन पर शूट किया गया है सो लोकेशन का जवाब नहीं। 'चल तू अपना काम कर ले' गाना फिल्म के माहौल और स्ब्जेक्ट पर फिट है। ",0 "ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बना चुके डायरेक्टर इम्तियाज अली के भाई साजिद अली के निर्देशन में बनी पहली ही फिल्म अब तक रिलीज नहीं हो सकी। जॉन अब्राहम की प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले इस फिल्म के साथ ऐसे कुछ विवाद जुड़े कि यह फिल्म अब तक सिनेमा के पर्दे पर नहीं पहुंच सकी। ऐसे में इम्तियाज ने भाई को एकता कपूर के बैनर तले बनी इस फिल्म के निर्देशन की कमान सौंपी, बेशक इस बार भाई ने हर कदम पर उनका साथ दिया और फिल्म इस बार सिनेमा के परदे तक पहुंचने में कामयाब रही। अगर आप 'लैला मजनू' को लीड किरदार में रखकर फिल्म बना रहे हैं तो हॉल में बैठा दर्शक आपकी फिल्म को कहीं न कहीं लैला मजनू की अमर प्रेम कहानी के साथ जोड़कर देखेगा, लेकिन ऐसा करते हुए दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। वैसे भी नई स्टार कास्ट को लेकर फिल्म बनाना और बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को हिट कराना आसान नहीं होता, ऐसा ही कुछ इस फिल्म के साथ भी नजर आता है। कश्मीर की बफीर्ली वादियों के बैकग्राउंड में बनी यह फिल्म एक अलग ही प्रेम कहानी को पेश करती है।स्टोरी प्लॉट: कश्मीरी युवक कैस भट्ट (अविनाश तिवारी) के पापा एक नामी अमीर बिज़नसमैन है, कैस के पापा और लैला (तृप्ति डिमरी) के पापा के बीच दुश्मनी है। इन दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा बना हुआ है। 'लैला मजनू' की कहानी कश्मीर के रहने वाले कैस भट्ट (अविनाश तिवारी) और लैला (तृप्ति डिमरी) की है। कैस के पिता बहुत बड़े बिज़नसमैन हैं और लैला के पिता से उनका छत्तीस का आंकड़ा है। इस दुश्मनी के बीच जब कैस और लैला की लव स्टोरी शुरू होती है हॉल में बैठे दर्शक उसी वक्त आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि आगे चलकर यह लव स्टोरी किस ओर करवट लेने वाली है। जाहिर है इन दोनों की फैमिली को उनका यह रिश्ता कतई मंजूर नहीं, लेकिन कैस और लैला फैमिली की परवाह किए बिना एक-दूसरे से मिलते हैं और उनका प्यार परवान चढ़ता जाता है। एक दिन जब इनका सामना अपनी-अपनी फैमिली से होता है तो लैला-मजून की यह लव स्टोरी किस मोड़ पर पहुंच जाती है और इस लव स्टोरी की अंत क्या होता है इसे जानने के लिए फिल्म देखनी होगी। ऐक्टिंग और डायरेक्शन : कैस यानी मजनू का किरदार निभा रहे अविनाश तिवारी ने अपने किरदार को जीवंत करने के लिए खूब पसीना बहाया है। किरदार को निभाने के लिए अविनाश ने अच्छा-खासा होमवर्क भी किया जो आपको उनके रोल में नजर आता है। बेशक इस फिल्म की रिलीज़ के बाद अविनाश को ग्लैमर इंडस्ट्री में अलग पहचान मिलेगी। तारीफ करनी होगी कि कश्मीरी ऐक्टर मीर सरवर और सुमित कौल की जिन्होंने अपने-अपने किरदार की ऐसी अलग पहचान बनाई कि हॉल से बाहर आने के बाद आपको इन दोनों के किरदार जरूर याद रहते हैं। वहीं तृप्ति डिमरी ने लैला के किरदार को निभा भर दिया। तृप्ति को अगर इंडस्ट्री में लंबी पारी खेलनी है तो उन्हें अब लंबा सफर तय करना बाकी है। डायरेक्टर साजिद को एक बेहद कमजोर और बिखरी हुई ऐसी स्क्रिप्ट मिली जो बार-बार झोल खाती है। फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट यह है कि लैला-मजनू की इस लव स्टोरी में इकतरफा प्यार नजर आता है जो दर्शकों की किसी भी क्लास को हजम नहीं हो पाता। स्क्रीनप्ले कई जगह बेहद कमजोर नजर आता है, कई बार ऐसे लगता है जैसे एकता कपूर फीचर फिल्म नहीं कोई महाएपिसोड बना रही हैं। वहीं कश्मीर में चारों ओर बिखरी खूबसूरती को कैमरामैन ने बेहद कुशलता के साथ कैमरे में कैद किया है।क्यों देखें: अगर आज के लैला मजनू की लव स्टोरी के बीच उनके परिवारों के तकरार को देखना चाहते हैं तभी इस फिल्म को देखने जाए। हां कश्मीर की खूबसूरत लोकेशंस फिल्म की यूएसपी है।",1 " सम्राट एंड कंपनी का जासूस सम्राट तिलक धारी फिल्म में एक संवाद बोलता है कि मैं साधारण केस नहीं लेता हूं क्योंकि ये टूटी हुई पेंसिल की तरह होते हैं जिनमें कोई पाइंट या नोक नहीं होती। यह बात फिल्म पर भी लागू होती है। जासूसी फिल्मों में ऐसी धार होनी चाहिए कि दर्शक अपनी सीट से हिल ना सके, उस मामले में फिल्म दम से खाली है। मंथर गति से चलने वाली इस फिल्म को यदि आप बीच में पन्द्रह मिनट नहीं भी देखें तो भी फिल्म समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी। एक छोटी सी कहानी जिस पर 25 मिनट का टीवी एपिसोड काफी होता उसे दो घंटे की फिल्म बनाकर खींचा गया है। सम्राट तिलक धारी (राजीव खंडेलवाल) पहली बार मिलने वाले शख्स के बारे में चुटकी में बता देता है कि वह कौन सा अखबार पढ़ता है, कहां से आ रहा है, उसके क्या शौक है? लेकिन एक मामूली से केस को सुलझाने में वह काफी वक्त लेता है। शिमला में रहने वाली युवा और अमीर लड़की डिम्पी सिंह (मदालसा शर्मा) मुंबई आकर सम्राट से मिलती है। डिम्पी का केस अजीब है। उसके बगीचे के वृक्ष दिन पर दिन सूखते जा रहे हैं। डिम्पी के पिता के घोड़े की भी रहस्मयी परिस्थिति में मौत हो गई। सीसीटीवी फुटेज देखने पर एक एक छाया नजर आती है। डिम्पी के पिता डरे हुए और बीमार हैं। मामले की विचित्रता सम्राट को इस केस को लेने के लिए मजूबर करती है। वह केस सुलझाने पहुंचता है, लेकिन मामला उलझता जाता है। हत्याएं होने लगती हैं। लेकिन सम्राट मामले की तह तक पहुंच ही जाता है। सम्राट एंड कंपनी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें एक्शन कम और संवाद बहुत ज्यादा है। खासतौर जासूस बना सम्राट काम कम करता है और बहुत ज्यादा बोलता है। उसके कई संवाद तो समझ में ही नहीं आते क्योंकि बहुत ही तेज गति से बोले गए हैं। अफसोस इस बात का है कि फिल्म की गति ऐसी तेज नहीं है। कौशिक घटक ने फिल्म का निर्देशन किया है और मनीष श्रीवास्तव के साथ इसे लिखा भी है। फिल्म लिखते समय कागज पर भले ही अच्‍छी लगी हो, लेकिन स्क्रीन पर इसे उतारने में कौशिक बुरी तरह असफल रहे हैं। ढेर सारी चीजों को उन्होंने फिल्म से जोड़ा, लेकिन अंत में वे सब निरर्थक साबित होती हैं। दर्शकों को भ्रमित करने के लिए बार-बार उन्होंने उन चेहरों पर फोकस किया है जिन पर शक की सुई घूमती है, लेकिन ये सब तरकीबें अब पुरानी हो चुकी हैं। जिस पर शक की सुई निर्देशक एक बार भी नहीं घुमाता वही अंत में कातिल निकलता है और सिनेमाहॉल में बैठे दर्शकों के पास भले ही इस बात का लॉजिक न हो, लेकिन निर्देशक की शैली को देखते हुए वे कातिल का नाम पहले ही बता देते हैं। फिल्म में कई हास्यास्पद सीन है। जैसे दो लोग लड़ रहे हैं और उनके बीच सवाल-जवाब का दौर चल रहा है। स्क्रिप्ट में भी कई खामियां हैं। कॉमेडी के नाम पर कई बेतुके सीन रखे गए हैं। गानों का मोह भी नहीं छोड़ा गया है। क्लाइमेक्स में कातिल तक पहुंचने का तरीका बेहद घटिया है और बच्चों की कहानी जैसा लगता है। किरदारों की इतनी भीड़ है कि नाम और चेहरे तक याद नहीं रहते। इससे फिल्म में रूचि बहुत जल्दी ही खत्म हो जाती है। राजीव खंडेलवाल अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन 'सम्राट एंड कंपनी' में वे कई बार असहज दिखे। मदालसा शर्मा के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था और वे किसी भी तरह का प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। गिरीश कर्नाड जैसे अभिनेता को निर्देशक ने बरबाद कर दिया। प्रोडक्शन क्वालिटी भी दमदार नहीं है। सम्राट एंड कंपनी के साथ सौदे में नुकसान दर्शकों का ही है। बैनर : राजश्री प्रोडक्शन्स प्रा.लि. निर्माता : कविता बड़जात्या निर्देशक : कौशिक घटक संगीत : अंकित तिवारी कलाकार : राजीव खंडेलवाल, मदालसा शर्मा, गोपाल दत्त, गिरीश कर्नाड, प्रियांशु चटर्जी * 2 घंटे 6 मिनट ",0 " बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : यश चोपड़ा संगीत : ए.आर.रहमान कलाकार : शाहरुख खान, कैटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा मेहमान कलाकार : ऋषि कपूर, नीतू सिंह, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 59 मिनट 20 सेकंड ‘मेरी उम्र 21 वर्ष है। मैं आज की जनरेशन की हूं जहां सेक्स पहले करते हैं और फिर प्यार होता है।‘ 38 वर्षीय मेजर समर को डिस्वकरी चैनल के लिए काम करने वाली अकीरा कहती है। समर की डायरी पढ़कर उसे यकीन नहीं होता कि समर, उस मीरा को अभी भी दिल में बैठाए घूम रहा है, जिससे उसके मिलन की कोई संभावना नहीं है। बॉम्ब सूट पहने बिना समर बम डिफ्यूज करता है क्योंकि उसका मानना है कि बम से गहरे जख्म उसे जिंदगी ने दिए है। जब जिंदगी के जख्मों से बचने के लिए कोई सूट नहीं होता तो फिर बम से क्या डरना। उसके दिल पर मीरा से बिछड़ने का जख्म अभी भी हरा है। समर की दीवानगी देख अकीरा उससे प्यार कर बैठती है क्योंकि उसका मानना है कि उसकी जनरेशन में इस तरह से प्यार करने वाले लड़के बचे नहीं हैं। समर-मीरा और अकीरा इर्दगिर्द घूमती हुई प्रेम-त्रिकोण वाली कहानी आदित्य चोपड़ा ने लिखी है और इसमें थोड़ी झलक ‘वीरा जारा’ की नजर आती है, जो ‘जब तक है जान’ के पहले यश चोपड़ा ने निर्देशित की थी। यश चोपड़ा ने जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाईं, उसमें प्रेमी डूबकर प्यार करने वाले होते हैं। उन्हें अपना पसंदीदा साथी नहीं मिलता तो वे उसकी यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट देते थे, लेकिन अब प्यार की परिभाषा ‘तू नहीं तो और सही’ वाली हो गई है और देवदास को बेवकूफ समझा जाता है। जब तक है जान के जरिये उस प्यार को अंडरलाइन किया गया है, जिसे सच्चा प्यार कहा जाता है। साथ ही समर की जिंदगी में आई दो लड़कियों के सहारे दो जनरेशन के प्यार करने के अंदाज में आए परिवर्तन की झलक दिखलाने की कोशिश भी की गई है। ऐसा ही प्रयास इम्तियाज अली ने ‘लव आज कल’ में किया था। आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखी गई कहानी और स्क्रीनप्ले न तो पूरी तरह से परफेक्ट है और न ही इनमें कुछ नई बात है। कुछ घटनाक्रम तो ऐसे हैं कि आपको एकता कपूर के वर्षों चलने वाले धारावाहिकों याद आ जाती है। शाहरुख-कैटरीना की प्रेम कहानी टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल में है। लंदन में रहने वाली अमीरजादी मीरा को वेटर समर से प्यार हो जाता है। गिटार बजाते और गाना गाते शाहरुख को उसी अंदाज में पेश किया गया है जैसे बरसों पहले वे रोमांटिक मूवी में नजर आते थे। यहां पर फिल्म की शुरुआत बेहद धीमी और उबाऊ है, लेकिन धीरे-धीरे बात बनने लगती है। कुछ कारणों से समर और मीरा की प्रेम कहानी का सुखांत नहीं होता। यहां से कहानी दस वर्ष का जम्प लेती है और समर को कश्मीर और लद्दाख में सेना के लिए काम करते हुए दिखाया जाता है। अकीरा (अनुष्का शर्मा) की एंट्री होती है। अनुष्का अपनी एक्टिंग और लुक से फिल्म में ताजगी और गति दोनों ही लाती हैं। क्लाइमेक्स से थोड़ा पहले फिल्म फिर कमजोर हो जाती है। एक कुशल निर्देशक वो होता है जो कहानी की कमजोरी को अपने दमदार प्रस्तुतिकरण के बल पर छुपा देता है। अपने आखिरी समय तक फिल्म बनाते रहे यश चोपड़ा इस काम में ‍माहिर थे। जब तक है जान में उन्होंने किरदारों के प्रेम की भावना को इतनी गहराई से पेश किया है कि ज्यादातर समय फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है और यह जिज्ञासा कायम रहती है कि फिल्म के अंत में क्या होगा। जब तक है जान पर यश चोपड़ा के निर्देशन की छाप नजर आती है। उन्होंने किरदारों के अंदर चल रही भावनाओं को बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। कई दृश्य दिल को छूते हैं और फिल्म पर उनकी पकड़ मजबूत नजर आती है। लगभग तीन घंटे की इस फिल्म को एडिट कर टाइट किया जाना बेहद जरूरी है। एक निर्देशक शूटिंग के दौरान कई सीन फिल्मा लेता है और एडिटिंग टेबल पर उसे जो गैर जरूरी लगते हैं उन्हें हटवा देता है। संभव है कि पोस्ट प्रोडक्शन का काम यश चोपड़ा नहीं देख पाए और इस वजह से फिल्म में उन दृश्यों को भी जगह मिल गई जो जरूरी नहीं थे। एआर रहमान का काम सराहनीय है। सांस, इश्क शावा और हीर की धुन मधुर है। साथ ही रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करता है। आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखे गए कुछ संवाद जोरदार हैं हालांक ि सिंक साउंड होने की वजह से कई बार डॉयलाग सुनने में परेशानी होती है। जहां तक अभिनय का सवाल है तो शाहरुख खान अपने बेसिक्स की और लौटे हैं। उन्होंने अपने अभिनय में वही मैनेरिज्म अपनाए हैं जिसके लोग दीवाने हैं। वैसे भी रोमांटिक रोल में वे बेहद सहज और नैसर्गिक लगते हैं, लेकिन अब चेहरे पर उम्र के निशान गहराने लगे हैं। यश चोपड़ा अपनी हीरोइनों को बेहद खूबसूरत तरीके से स्क्रीन पर पेश करने के लिए जाने जाते हैं और यहां पर वे कैटरीना पर मेहरबान नजर आएं। कैटरीना की एक्टिंग औसत से बेहतर कही जा सकती है। अनुष्का शर्मा अपनी बिंदास एक्टिंग के बल पर कैटरीना से आगे नजर आती हैं। उनके चेहरे पर हर तरह के एक्सप्रेशन नजर आते हैं। कुल मिलाकर जब तक है जान उस रोमांस के लिए देखी जा सकती है, जो वर्तमान दौर की फिल्मों में नजर नहीं आता है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 " दुनिया काफी बदल चुकी है और दुनिया के साथ-साथ आपका चहेता स्पाइडरमैन भी बदल चुका है। इस फिल्म स्पाइडरमैन होमकमिंग में वह अकेला नहीं है, बल्कि अब दुनिया की भलाई के लिए वह एवेंजर्स के साथ मिलकर काम करता है। फिल्म की कहानी की शुरुआत आज से कुछ साल पहले से होती है, जब टोनी स्टार्क (रॉबर्ट डॉनी जूनियर) यूएस डैमेज कंट्रोल डिपार्टमेंट के साथ मिलकर एलियंस के मलबे की साफ-सफाई का ठेका ले लेता है। वह एड्रियन टूमस (माइकल कीटन) को इस डील से बाहर कर देता है, जो कि पहले यह काम कर रहा था। इससे निराश न होकर टूमस कई साल की मेहनत के बाद अपने साथियों के साथ मिलकर एलियंस के मलबे से हासिल की गई बेशकीमती धातुओं से खतरनाक हथियार बनाने लगता है। साथ ही, वह अपने लिए एक खतरनाक वल्चर सूट तैयार करता है, जिसकी मदद से वह आसमान में उड़कर बड़े क्राइम को अंजाम देता है। वहीं दूसरी ओर स्पाइडरमैन की नई सीरीज़ का हीरो पीटर पार्कर (टॉम हॉलैंड) यानी कि स्पाइडरमैन एक 15 साल का बच्चा है, जो अभी हाईस्कूल में पढ़ता है। टोनी ने उसको बताया है कि अभी वह एवेंजर्स की टीम में शामिल होने के लिए रेडी नहीं है, इसलिए उसे अपनी पढ़ाई के साथ ट्रेनिंग पर ध्यान देना चाहिए। अपनी आंटी के साथ रहने वाला पीटर स्टार्क इंडस्ट्रीज की इंटर्नशिप के बहाने बतौर स्पाइडरमैन अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान देता है। एक दिन बतौर स्पाइडरमैन पीटर की मुठभेड़ एटीएम लूटने की कोशिश कर रहे कुछ ऐसे लुटेरों से होती है, जो कि टूमस द्वारा सप्लाई किए गए खतरनाक हथियारों से लैस थे। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें तब से पीटर इन हथियारों को बनाने वालों की तलाश में लग जाता है। इस दौरान वह कईं बार मुश्किल हालात में फंस जाता है, जहां टोनी स्टार्क यानी कि आयरनमैन खुद आकर उसे बचाता है। पीटर से हुई एक ऐसी ही गड़बड़ के बाद टोनी उससे उसका स्पाइडरमैन वाला अडवांस सूट वापस ले लेता है, जो कि एवेंजर्स की ओर से उसे दिया गया था। पीटर उससे विनती करता है कि इस सूट के बिना वह कुछ नहीं है, तो टोनी उसे जवाब देता है कि अगर वह इसके बिना कुछ नहीं है, तो वह इसके लायक भी नहीं है। उसके बाद एक दिन पीटर को पता लगता है कि टूमस एवेंजर्स के नई बिल्डिंग में शिफ्ट किए जा रहे हथियारों को चुराने की प्लानिंग कर रहा है। अब पीटर के सामने बड़ी चुनौती यह है कि उसे बिना एवेंजर्स की मदद के खतरनाक हथियारों से लैस टूमस से निपटना है। बतौर स्पाइडरमैन टॉम हॉलैंड ने बढ़िया रोल किया है। वहीं हिंदी में स्पाइडरमैन के लिए डबिंग करने वाले टाइगर श्रॉफ की आवाज आपको अपनी सी लगती है। हिंदी में डबिंग मजेदार है और साथ ही इसमें इंडियन ऑडियंस को ध्यान में रखते हुए कुछ मजेदार टि्वस्ट भी डाले गए हैं। पीटर पार्कर के रोल में टॉम की नौसिखिया हरकतों के बावजूद उनका भोलापन आपको आकर्षित करता है। खासकर बच्चों को इस बार स्पाइडरमैन और ज्यादा प्यारा लगेगा, क्योंकि वह उनका हमउम्र जो हो गया है। वहीं बच्चों के लिए डबल बोनांजा यह है कि फिल्म में स्पाइडरमैन के साथ उन्हें एवेंजर्स यानी कि आयरनमैन का ऐक्शन और अमेरिका मैन की झलक मिलती है, जिससे उनके चेहरे खिल उठते हैं। यह बात और है कि बाद में ऑफर मिलने पर भी स्पाइडरमैन एवेंजर्स की टीम में शामिल होने से इनकार कर देता है। फिल्म के मेन विलेन के रोल में माइकल किटोन खतरनाक लगते हैं। स्पाइडरमैन और वल्चर के बीच आसमान में लड़ाई के सीन बेहद रोमांचक हैं, जो कि आपको हिलाकर रख देते हैं। वहीं वॉशिंगटन डीसी में स्पाइडरमैन के अपने स्कूल फ्रेंड्स को बचाने के सीन भी जबर्दस्त हैं। फिल्म में टेक्नॉलजी का भी जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है, जो कि थ्री डी पर्दे पर दिलचस्प लगता है। सुपरहिट स्पाइडरमैन फिल्म फ्रेंचाइजी की 16वीं फिल्म स्पाइडर मैन: होमकमिंग को लेकर रिलीज़ से पहले दर्शकों में जबर्दस्त क्रेज था, जिसके चलते गुरुवार रात को हुए स्पेशल प्रिव्यू भी हाउसफुल रहे। बॉलिवुड में थ्री डी फिल्मों के अकाल के बीच भारतीय दर्शकों को थ्री डी के नाम पर सिर्फ हॉलिवुड फिल्मों का ही सहारा रह गया है। ऐसे में, बेहद खूबसूरत अंदाज में शूट की गई फिल्म स्पाइडरमैन को थ्री डी या आईमैक्स में देखना वाकई दिलचस्प एक्सपीरियंस होगा। इस फिल्म का सीक्वल पहले ही 2019 के लिए अनाउंस कर दिया गया है। हालांकि, इससे पहले स्पाइडरमैन आपको एवेंजर्स सीरीज़ की अगले साल आने वाली फिल्म में जरूर अपनी झलक दिखा सकता है। ",0 " अपने किए गए वादे और कर्तव्य के कारण उसका गर्लफ्रेंड ग्वेन के साथ ब्रेक-अप भी हो जाता है। सुपरहीरो होने के बावजूद उसकी जिंदगी आसान नहीं है। रोजाना नई चुनौतियां उसके सामने आती हैं। उसके सामने इलेक्ट्रो नामक विलेन आ खड़ा होता है। साथ ही उसके बचपन के दोस्त हैरी की पीटर की जिंदगी में फिर एंट्री होती है जो ऑसकॉर्प का सीईओ है और वह स्पाइडरमैन के खून से अपनी बीमारी का इलाज करना चाहता है। कैसे स्पाइडरमैन इन चुनौतियों से निपटता है? यह फिल्म का सार है। सुपरहीरो के प्रशंसक फिल्म में हैरत-अंगेज दृश्य देखने के लिए जाते हैं और 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' में पेट भर कर इस तरह के सीन देखने को मिलते हैं, जिन्हें पैसा वसूल कहा जा सकता है। स्पाइडरमैन का लोगों से जीवन बचाने से लेकर तो न्यूयॉर्क की सड़कों पर इलेक्ट्रो से टक्कर वाले सीन कमाल के हैं और उनमें नवीनता भी देखने को मिलती है। इलेक्ट्रो का पुलिस की कारों और साइन बोर्ड्स को उड़ाना जबरदस्त है। क्लाइमेक्स में भी शानदार एक्शन देखने को मिलता है। निर्देशक मार्क वेब ने सुपरहीरो की कहानी में उसकी प्रेम कहानी को बेहतरीन तरीके से गूंथा है। जहां स्पाइडरमैन के रूप में पीटर पार्कर लार्जर देन लाइफ कारनामे करता है, वहीं उसकी प्रेम कहानी एक सामान्य इंसान जैसी है। उसकी जिंदगी के इन दो पहलुओं को खूबसूरती से दिखाया गया है। खासतौर पर पीटर और ग्वेन की लवस्टोरी दिल को छूती है और उनके दर्द को दर्शक महसूस करते हैं। खलनायक के चरित्र-चित्रण में 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' मार खाती है। विलेन जितना दमदार और ताकतवर होगा, उतना ही हीरो शक्तिशाली नजर आएगा। मैक्स डिल्लन को स्पाइडरमैन का प्रशंसक दिखाया गया है। उसका इलेक्ट्रो में परिवर्तित होकर अचानक स्पाइडरमैन के खिलाफ हो जाना अखरता है। उसके पास स्पाडरमैन के खिलाफ होने के ठोस कारण नहीं था, इसलिए विलेन के रूप में वह काफी हल्का लगता है। इसी तरह हैरी और पीटर की दोस्ती और दुश्मनी को भी बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था। हैरी के पास स्पाइडरमैन से लड़ने का ठोस कारण था, लेकिन निर्देशक और लेखक ने इसका पूरा फायदा नहीं उठाया। फिल्म में कई सब-प्लॉट और किरदारों की भीड़ भी हैं, जिनमें से कुछ गैर-जरूरी लगते हैं। स्क्रिप्ट की ये खामियां फिल्म पर समग्र रूप से प्रभाव नहीं डालती क्योंकि भव्य एक्शन सीन और शानदार स्पेशल इफेक्ट्स के डोज लगातार मिलते रहते हैं और सुपरहीरो की फिल्मों में यही बात सबसे अहम होती है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स, सिनेमाटोग्राफी और तकनीकी पहलू चकित करते हैं। थ्री-डी तकनीक में ये और भी प्रभावी हैं। एंड्रयू गारफील्ड ने फर्ज और प्रेम के बीच फंसे व्यक्ति की भूमिका प्रभावी तरीके से निभाई है। खासतौर पर रोमांटिक दृश्यों में वे अच्छे लगे हैं। एमा स्टोन और एंड्रयू की केमिस्ट्री बेहद जमी है। एमा ने ऐसी लड़की का रोल अदा किया है जिसके पास दिमाग है और वह स्पाइडरमैन की ताकत का बखूबी उपयोग करती है। जैमी फॉक्स का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। हैरी के रूप में डैन डेहान प्रभावित करते हैं। कुल मिलाकर 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' में वो सारे मसाले हैं जो एक सुपरहीरो की फिल्म में जरूरी होते हैं। निर्माता : एवी एरड, मैट टॉलमच निर्देशक : मार्क वेब कलाकार : एंड्रयू गारफील्ड, एमा स्टोन, जैमी फॉक्स डी * 2 घंटे 22 मिनट सुपरहीरो की फिल्मों की शुरुआत एक धमाकेदार एक्शन सीन से होती है और 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' के आरंभ में भी ऐसा ही सीन देखने को मिलता है। एक प्लेन में पीटर पार्कर के मॉम-डैड किस तरह मारे गए थे, को निर्देशक ने शुरुआत में ही रखा है, फिल्म के प्रति मूड सेट कर देता है। पीटर के पिता रिचर्ड पार्कर का जीवन खतरे में रहता है इसलिए पीटर को वे उसकी आंटी के पास छोड़ जाते हैं। साथ ही वे अपने काम के बारे में जानकारी भी छोड़ जाते हैं, जिसको पीटर समझने की कोशिश करता है। इसके बाद पीटर पार्कर उर्फ स्पाइडरमैन की शानदार एंट्री होती है। एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग पर छलांग मारता हुआ वह जुटा हुआ है लोगों का जीवन बचाने में। ",1 "निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर, रॉनी स्क्रूवाला लेखक-निर्देशक : पुनीत मल्होत्रा संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : इमरान खान, सोनम कपूर, समीर दत्तानी, समीर सोनी, केतकी दवे, अंजू महेन्द्रू, ब्रूना अब्दुल्ला सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 16 रील लड़के को प्यार और प्यार से जुड़ी सारी चीजों से नफरत है। दूसरी ओर एक लड़की है जिसकी नजरों में प्यार से खूबसूरत कुछ नहीं है। दोनों की मुलाकात होती है और विचारों में बदलाव आने लगते है। पुनीत मल्होत्रा ने एक बेहतरीन थीम चुनी, लेकिन स्क्रिप्ट में थोड़ी कसावट आ जाती तो ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ बेहतरीन फिल्म बन जाती। कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म बाँधकर रखने में सफल है। वीर (समीर सोनी) एक ऐसा निर्देशक है जो हमेशा लव स्टोरीज़ पर आधारित सफल फिल्म बनाता है। उसकी सारी फिल्में एक जैसी रहती हैं जिनमें भरपूर ड्रामा होता है। उसका ‍असिस्टेंट जे (इमरान खान) को इन प्रेम कहानियों से नफरत है। उसका मानना है कि प्यार जैसा कुछ नहीं होता और ये बेकार की बातें हैं। वीर अपनी नई फिल्म से सिमरन (सोनम कपूर) नाम की प्रोडक्शन डिजाइनर को जोड़ता है जो दिन-रात प्यार के खयालों में खोई रहती है। टेडी बियर, पिंक कलर, कैंडल लाइट डिनर, फ्लॉवर्स, केक, रोमांटिक फिल्में ही उसकी दुनिया है। वह राज (समीर दत्तानी) को बेहद चाहती है। दो अलग विचार धारा वाले लोग मिलते हैं तो उनमें टकराव होना स्वाभाविक है। यहाँ तक फिल्म बेहतरीन है। सिमरन के बॉयफ्रेंड का मजाक बनाना, फॉर्मूलों वाली ‍लव स्टोरीज पर बनी फिल्मी की हँसी उड़ाना, सिमरन और जे की नोक-झोक अच्छी लगती है। लेकिन इसके बाद फिल्म उसी फॉर्मूले पर चलने लगती है, जिसका पहले मजाक बनाया गया। सिमरन कन्फ्यूज हो जाती है। मिस्टर राइट (राज) की बजाय उसे मिस्टर राँग (जे) अच्छा लगने लगता है। वह राज को छोड़ जे को चाहने लगती है। उसे दिल की बात बताती है, लेकिन जे प्यार में नहीं पड़ना चाहता। जे जब उसका प्यार ठुकरा देता है तो वह वापस राज की बाँहों में लौट जाती है। सिमरन की कमी जे को महसूस होती है और उसे समझ में आता है कि यही प्यार है। वह सिमरन को ‘आई लव यू’ कहता है’ और अब उसे सिमरन ठुकराती है। अंत में अड़चनें दूर होती हैं। प्रेमियों का मिलन होता है और जे मान लेता है कि प्यार नाम का जादू होता है। फिल्म का दूसरा हिस्सा इसलिए कमजोर लगता है क्योंकि उसमें नयापन बिलकुल नहीं है। वे तमाम किस्से, घटनाएँ इसमें दोहराए गए हैं जो हम ढेर सारी फिल्मों में देख चुके हैं। साथ ही इसे लंबा खींचा गया है। इस हिस्से में वो मस्ती और ताजगी नजर नहीं आती, जो फिल्म के पहले हाफ में है। हालाँकि कि कुछ बेहतर सीन इस हिस्से में देखने को मिलते हैं। लेखक के रूप में पुनीत कुछ नया सोचते तो यह एक उम्दा फिल्म होती, जहाँ ‍तक निर्देशन का सवाल है तो लगता ही नहीं कि यह पुनीत की पहली फिल्म है। उन्होंने ‍कहानी को ऐसा फिल्माया है कि दर्शक की रूचि बनी रहती है। फिल्म में रूचि बने रहने का एक और सशक्त कारण इमरान खान और सोनम कपूर की कैमिस्ट्री और एक्टिंग है। दोनों एक-दूसरे के पूरक लगते हैं और भविष्य में यह कामयाब जोड़ी बन सकती है। ‘लक’ और ‘किडनैप’ में अपने अभिनय से निराश करने वाले इमरान आशा जगाते हैं कि अच्छा निर्देशक उन्हें मिले तो वे अभिनय कर सकते हैं। इस फिल्म के बाद सोनम कपूर की माँग बढ़ने वाली है। खूबसूरत लगने के साथ-साथ उन्होंने एक्टिंग भी अच्छी की है। फिल्म में कई फिल्मकारों और उनकी फिल्मों का मजाक बनाया गया है, जिसमें इस फिल्म के निर्माता करण जौहर भी शामिल हैं। करण को उनके साहस के लिए बधाई दी जानी चाहिए क्योंकि न केवल उनकी फिल्मों, करवा चौथ और नाटकीय दृश्यों का बल्कि एक कैरेक्टर वीर (समीर सोनी) के रूप में उनका भी मजाक बनाया गया है। समीर सोनी ने इसे बेहतरीन तरीके से निभाया है।। समीर दत्तानी ने एक बोरिंग लवर का काम अच्छे से किया। विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ और ‘बिन तेरे’ तो पहली बार सुनकर ही अच्छा लगने लगता है। अयानांका बोस की सिनेमाटोग्राफी आँखों को अच्छी लगती है। ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ का शानदार पहला हाफ है। इमरान-सोनम की उम्दा कैमेस्ट्री है। अच्छा संगीत है। इस कारण यह एक अच्छा ‘टाइम पास’ है। ",1 "रिलीज से पहले ही इस फिल्म के टाइटल और मेन किरदारों को लेकर विवाद शुरू हो गया था। हालांकि, सेंसर ने इस फिल्म को ग्रीन सिग्नल दे दिया। इस फिल्म के डायरेक्टर 'मिस 420' और 'घात' जैसी फिल्में बना चुके हैं, लेकिन दोनों बहुत नहीं चलीं। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेबसूक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : फिजी में रह रहे भारतीय हाई कमिश्नर शंकर राय (अयूब खान) को किडनैप कर लिया जाता है। हाई कमिश्नर को किडनैपर से छुड़वाने के मकसद से सीक्रेट एजेंट संतेश्वर सिंह उर्फ संता (बोमन ईरानी) और बटेश्वर सिंह उर्फ बंता (वीर दास) को इंडियन सिक्यॉरिटी एजेंसी की ओर से फिजी भेजा जाता है। फिजी पहुंचकर इन दोनों का सामना करीना राय (नेहा धूपिया) और सोनू सुल्तान के साथ होता है। सीक्रेट मिशन में एक के बाद एक रुकावटें आने लगती हैं। ऐक्टिंग : संता और बंता के लीड किरदारों को बोमन ईरानी और वीर दास ने अच्छे से निभाया है। बोमन ईरानी ने कुछ नया करने की कोशिश की है। संजय मिश्रा, जॉनी लीवर हंसाने में कामयाब रहे हैं। राम कपूर ठीक-ठाक रहे। नेहा धूपिया और लीज़ा हेडन बस शोपीस बनकर रह गई हैं। निर्देशन : आकाशदीप का निर्देशन बेहद कमजोर है। बेशक उनकी सोच अच्छी रही है, लेकिन कहानी में नयापन नहीं है। स्क्रिप्ट में जान नहीं है। डायरेक्टर ने इस कमजोर स्क्रिप्ट को और लचर बना दिया है। हालांकि, कॉमिडी के कई सीन्स दमदार हैं। संगीत : फिल्म का म्यूजिक लाउड है, लेकिन कोई भी गाना ऐसा नहीं जो आपको हॉल से निकलने के बाद याद रह सके। ",0 "आज से तकरीबन 31 साल पहले दक्षिण के निर्देशक संगीतम श्रीनिवास राव कमल हासन-अमला अभिनीत साइलेंट फिल्म 'पुष्पक' लाए थे, जो उस दौर में न केवल आलोचकों द्वारा सराही गई थी बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी अपना जलवा दिखाने में कामयाब रही थी। तकरीबन 3 दशक बाद दक्षिण के निर्देशक कार्तिक सुब्बाराज भी कोरियॉग्रफर-डांसर-ऐक्टर-डायरेक्टर प्रभुदेवा को लेकर 'मरक्यूरी' जैसी साइलेंट थ्रिलर ले आए, जिसमें न कोई संवाद है और न ही कोई नाच-गाना मगर यह फिल्म अपने कमजोर प्लॉट और असंगत क्लाइमेक्स की वजह से मार खा गई।कहानी: फिल्म की कहानी एक ऐसे इलाके की है, जहां के लोगों की मौत 'मरक्यूरी' के कारण हुई है। उसी इलाके में 5 गूंगे युवाओं की टोली (सनथ रेड्डी, दीपक परमेश, अनीश पद्मन, शशांक और इंदुजा) इंदुजा का जन्मदिन मनाने और नाइट आउट के इरादे से एक बंगले में आते है। मस्ती-मजाक और प्यार-मोहब्बत के माहौल में उस वक्त खलल पड़ जाता है, जब रात ड्राइव के दौरान उनका वास्ता प्रभुदेवा की लाश से पड़ता है। वह लाश उनकी गाड़ी से एक जंजीर के जरिए कुछ इस तरह से बंधी हुई मिलती है कि उनके लिए उस लाश को ठिकाने लगाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता। लाश को ठिकाने लगाने के बाद इन युवाओं को कई खौफनाक हादसों से गुजरना पड़ता है। अब वे खौफनाक हादसे क्या हैं, इसे अगर हमने बता दिया तो कहानी का मजा खतम हो जाएगा। बेहतर है, आप इसे फिल्म में देखें।रिव्यू: इसमें कोई दो राय नहीं कि 'पिज्जा' जैसी हॉरर-थ्रिलर फिल्म में लेखन की जिम्मेदारी निभाने वाले कार्तिक सुब्बाराज ने 'मरक्यूरी' जैसी साइलेंट फिल्म के जरिए लेखक-निर्देशक के रूप में सिनेमा में प्रयोगधर्मिता की पहल की है। फिल्म की शुरुआत थ्रिलर अंदाज में होती है। फिल्म का फर्स्ट हाफ कसा हुआ है, जहां हॉरर और थ्रिल बरकरार रहता है मगर सेकंड हाफ तक जाते-जाते कहानी का टायर पंचर होने लगता है और क्लाइमेक्स कन्फ्यूजन पैदा कर देता है। फिल्म के आखिर में निर्देशक ने कहानी को मरक्यूरी के विस्फोट से मरनेवालों के आंकड़ों से जोड़ने की कोशिश की है, जिसमें भोपाल गैस कांड को भी शामिल किया गया है। ये आंकड़े इस थ्रिलर-हॉरर कहानी में कहीं भी तर्कसंगत मालूम नहीं होते। हां, कार्तिक गूंगे और अंधे किरदारों के बीच होने वाले चूहे-बिल्ली के खेल के जरिए थ्रिल तो पैदा करते हैं, मगर प्रभुदेवा का भुतहा गेटअप और बॉडी लैंग्वेज से डराने में असफल रहते हैं। फिल्म का तकनीकी पक्ष मजबूत है। संतोष नारायण का संगीत बिना संवादों वाली इस फिल्म में अपने साउंड इफेक्ट से रोमांच पैदा करता है। कांच की किरचों की टूटने की आवाज हो या स्पीकर का शोर, तमाम साउंड इफेक्ट्स कमाल के हैं। उत्कृष्ट कैमरा वर्क के लिए एस तिर्रु तालियों के हकदार साबित हुए हैं। ऐक्टिंग: अभिनय पक्ष की बात करें, तो प्रभुदेवा ने अंधे और हॉरर किरदार के साथ न्याय किया है मगर जिस तरह फिल्म प्रमोशन में उन्हें खूंखार विलेन के रूप में प्रचारित किया गया था उस हिसाब से उनसे उम्मीदें ज्यादा थीं। अन्य किरदार साइन लैंग्वेज में बात करते नजर आते हैं और वे अपने चरित्रों को बखूबी निभा ले जाते हैं, मगर इन कलाकारों में सनथ रेड्डी और इंदुजा की परफॉर्मेंस याद रह जाती है। क्यों देखें: अगर आप एक्सपेरिमेंटल सिनेमा के शौकीन हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं।",0 "निर्माता : सुनील बोहरा, शैलेश आर सिंह निर्देशक : रामगोपाल वर्मा संगीत : संदीप चौटा कलाकार : माही गिल, दीपक डोब्रियाल, अजय गेही, जाकिर हुसैन सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 49 मिनट * 8 रील प्यार और परिस्थितियों की वजह से कई बार इंसान ऐसी हरकत कर देता है जो उसने कभी सोची भी नहीं होती। चींटी नहीं मारने वाला इंसान परिस्थितिवश किसी व्यक्ति की न केवल हत्या कर सकता है बल्कि उसके बाद लाश के छोटे-छोटे भी टुकड़े कर देता है। ‘नॉट ए लव स्टोरी’ में अपनी गर्लफ्रेंड अनुषा (माही गिल) को फिल्म मिलने की खुशी में रॉबिन (दीपक डोब्रियाल) उसे सरप्राइज देने मुंबई चला आया। आशीष (अजय गेही) के साथ रात गुजारने वाली अनुषा दरवाजे पर रॉबिन को देख घबरा जाती है क्योंकि उसके बेडरुम में आशीष नग्न अवस्था में सोया है। उसके पास दस सेकंड से भी कम समय का वक्त है क्योंकि आशीष जाग कर बेडरूम से बाहर निकल आया है। ऐसी परिस्थिति में दरवाजा खोल कर रॉबिन को वह झूठ बोल देती है कि आशीष ने उसके साथ जोर-जबरदस्ती की है। अनुषा के प्यार में दीवाना रॉबिन गुस्से से पागल हो जाता है और बिना सोचे-समझे वह आशीष की हत्या कर देता है। लाश के सामने वे सेक्स करते हैं। चंद मिनट का यह दृश्य हिला कर रख देता है और सोचने पर मजबूर करता है कि परिस्थितिवश इंसान को हैवान में बदलते देर नहीं लगती। नीरज ग्रोवर हत्याकांड से प्रेरित होकर रामगोपाल वर्मा ने यह फिल्म बनाई है। हकीकत में चूंकि यह घटना हुई है, इसलिए यह फिल्म विश्वसनीय लगती है। पूरी फिल्म चार भागों में बंटी हुई है। हत्या के पहले वाला भाग जिसमें अनुषा हीरोइन बनने के लिए संघर्ष कर रही है, थोड़ा कमजोर है। हत्या वाला दृश्य, जबरदस्त है। हत्या के बाद लाश को ठिकाने लगाना और फिर पुलिस के गिरफ्त में आना, रोचक है। इसके बाद कोर्ट वाले दृश्य, थोड़ा ड्रामेटिक है, लेकिन हर भाग पर निर्देशक का दबदबा नजर आता है। प्यार में आदमी कैसे रूप बदलता है इसकी मिसाल कोर्ट वाले दृश्यों में देखने ‍को मिलती है। रॉबिन और अनुषा दोनों फंस चुके हैं। अपने आपको बचाने के लिए वे प्यार-व्यार भूल जाते हैं और अपने-अपने वकीलों के मार्फत एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। अनुषा यह सब नहीं देख पाती क्योंकि उसके अंदर रॉबिन के प्रति प्यार फिर जाग जाता है। वह रॉबिन के सामने अपनी गलती स्वीकारती है और रॉबिन उसे चुंबन देकर एक-तरह से माफ कर देता है। पात्रों की मनोदशा को परदे पर उतारना आसान काम नहीं है। रॉबिन और अनुषा के प्यार की त्रीवता और हत्या के बाद का भय रामू ने इस कदर फिल्माया है कि पात्रों के दर्द, प्यार और डर को दर्शक महसूस करता है। बहुत दिनों बाद रामू ने अपने निर्देशन का कमाल दिखाया है। हाल ही के वर्षों में यह उनका श्रेष्ठ काम है। इस फिल्म ने उस रामू की याद दिला दी जो कभी रंगीला, सत्या, भूत जैसी फिल्में बनाया करता था। निर्देशक ने घटना को जस का तस पेश करने की कोशिश की है और अपनी तरफ से किसी का पक्ष नहीं लिया है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है, ये सबको पता है, लेकिन उम्दा प्रस्तुतिकरण के कारण फिल्म थ्रिलर जैसी लगती है। फिल्म का ओपन एंड कुछ लोगों को अखर सकता है। फिल्म को दो-तीन लोकेशन्स पर फिल्माया गया है और ज्यादा किरदार भी नहीं हैं, इसके बावजूद भी नीरसता हावी नहीं होती है। दीपक डोब्रियाल ने जुनूनी प्रेमी का किरदार अच्छे से निभाया है, हांलाकि ज्यादातर वक्त उनके एक्सप्रेशन एक जैसे रहे हैं। माही गिल सब पर भारी पड़ती हैं। लाश के टुकड़े किए जा रहे हैं और कैमरा माही के चेहरे पर है। इस सीन में भय, घृणा, ग्लानि जैसे कई एक्सप्रेशन माही ने अपने चेहरे के जरिये दिए हैं। पुलिस इंसपेक्टर के रूप में जाकिर हुसैन अपनी छाप छोड़ते हैं। फिल्म की लागत कम करने के लिए रामगोपाल वर्मा ने डॉयरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी को नहीं रखा और केनन 5 डी से फिल्म को शूट किया है। कैमरे एंगल्स फिल्म को अलग ही लुक देते हैं। रियल लोकेशन्स और कम से कम क्रू मेंबर रखने की वजह से फिल्म बहुत कम लागत में बनी है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। फिल्म का नाम भले ही नॉट ए लव स्टोरी हो, लेकिन इसमें एक लव स्टोरी छिपी हुई है और इसी प्यार के कारण दोनों प्रेमी क्रूरतापूर्वक अपने अपराध को अंजाम देते हैं। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com हमेशा से सुनते आए हैं कि किक्रेटर और ग्लैमर नगरी के स्टार्स की सबसे ज्यादा वैल्यू रही है, बेशक यह बात किसी हद तक सही भी हो, यकीनन ब्रैंड और मॉडलिंग की दुनिया में इन्हें आज आसमां छूती प्राइस भी मिलती हो, लेकिन अगर रिऐलिटी पर नजर डाली जाए तो यहां ऐसा कतई नहीं लगता। 70 के दशक से इंडियन फिल्म स्क्रीन पर ऐसा कई बार नजर आया जब किसी नामी क्रिकेटर ने हिंदी फिल्म में लीड किरदार निभाया और फिल्म हिट रही है। सलीम दुर्रानी के साथ प्रवीन बॉबी को लेकर बनी 'चरित्र' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित रही तो ऐसे ही कुछ नजारा दूसरी फिल्मों के साथ भी नजर आया। इस बार मामला कुछ बदला हुआ है। किक्रेट की फील्ड में अपना दबदबा बना चुके तूफानी गेंदबाज ब्रेट ली को लेकर बनी इस फिल्म को पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर मिली बेहद मामूली ओपनिंग यही साबित करती है कि दर्शक इन्हें क्रिकेट के मैदान में शायद देखना पंसद करते हैं, वहीं दूसरी बात ब्रेट ली की इस फिल्म मे ऐसा कुछ खास नजर भी नहीं आाता कि दर्शक इस फिल्म को देखने की चाह में थिऐटर का रुख करें। वैसे इससे पहले भी ब्रेट ली का नाम म्यूजिक के साथ जुड़ चुका है, अब देखना बाकी है कि सिल्वर स्क्रीन पर भी क्या अपनी पहचान बना पाते हैं। वैसे बता दें, ऑस्टेलिया में बनी इस फिल्म का प्रीमियर सिडनी में पिछले साल हो चुका है। कहानी : मीरा (तनिष्ठा चटर्जी) ऑस्ट्रेलिया के एक शहर में रहती है। मीरा सिंगल मदर है, लेकिन मीरा की मां (सुप्रिया पाठक) अक्सर अपनी बेटी को सेकंड मैरिज करने की सलाह देती रहती है। कुछ यही हाल विल (ब्रेट ली) को उसका अकेलापन जरा भी पसंद नहीं है। विल को किसी साथी की तलाश है जो उसे समझ सके। ऐसे में एक दिन मीरा और विल की मुलाकात एक पार्टी में होती है, पहली ही मुलाकात के बाद विल को लगने लगता है कि मीरा में ऐसी सभी खूबियां हैं जो उसके साथी में होनी चाहिए। इसके बाद विल हमेशा मीरा से मिलने का कोई न कोई बहाना तलाशता है और अक्सर मीरा से मिलने पहुंच जाता है। दूसरी ओर अब मीरा की मां को इन दोनों का मिलना जरा भी पसंद नहीं। इसकी वजह विल का दूसरे देश से होने के साथ-साथ विदेशी कल्चर से होना भी है। दरअसल, मीरा की मां अपनी बेटी की शादी किसी और के साथ करना चाहती है। ऐसे में विल को लगता है उसका खास दोस्त (अर्को घोष) ही उसे इंडियन कल्चर से लेकर इंडिया के बारे में ऐसी सभी जानकारी दे सकता है जो उसे मीरा तक पहुचंने में मदद कर सकती है। फिल्मी खबरें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें हमारा पेज NBT Movies ऐक्टिंग: अगर आप ब्रेट ली की तूफानी गेंदबाजी के फैन हैं तो इस फिल्म को देखकर उनकी ऐक्टिंग के फैन हो सकते हैं। यकीनन ब्रेट ली ने अपने किरदार को बखूबी ऐसे असरदार ढंग से निभाया है जो उनके फैन्स को सरप्राइज कर सकता है। तनिष्ठा चटर्जी मीरा के रोल में जमी हैं। सु्प्रिया पाठक और अर्को घोष अपने रोल में फिट रहे है। निर्देशन : अनुपमा शर्मा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इस सिंपल सी कुछ अलग लव स्टोरी को ऐसे अंदाज में पेश करने की अच्छी पहल की है जो कहीं बोझिल नहीं करती । वहीं, फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद कमजोर है जो इससे पहले भी दर्जनों हिंदी फिल्मों में नजर आ चुका है। क्यों देखें : अगर ब्रेट ली के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते खिलाड़ी को एक नए लुक में देखें। कहानी में नयापन नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि आप बोर हों। ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com आमिर खान के साथ सुपरहिट फिल्म लगान के अलावा रितिक के साथ 'जोधा अकबर' बना चुके डायरेक्टर आशुतोष गोवारिकर की कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कहीं टिक नहीं पाई। प्रियंका चोपड़ा के साथ उन्होंने 'वॉट्स यॉर राशि' में एक नया प्रयोग किया, लेकिन फिल्म नाकाम रही। आठ साल बाद आशुतोष ने रितिक के साथ एक ऐसे प्रॉजेक्ट पर काम किया है, जिस पर इंडस्ट्री के बड़े फिल्ममेकर भी शायद ही फिल्म बनाने की हिम्मत जुटा पाएं। हजारों साल पुरानी मोहनजो दारो संस्कृति को उन्होंने बिग स्क्रीन पर पेश करने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन मोटे बजट में बनी यह फिल्म भव्य सेट्स और गजब कॉस्ट्यूम के चक्रव्यूह में फंसकर रह गई। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आमरी में सरमन (रितिक रोशन) अपने काका (नितिश भारद्वाज) और काकी के साथ नीले पत्थर यानी नील का काम करता है। आमरी से दूर बसे शहर मोहनजो दारो में व्यापारी नीले पत्थर बेचने जाते हैं। सरमन अक्सर अपने काका से मोहनजो दारो जाने की जिद करता रहता है। सरमन के काका जानते हैं कि मोहनजो दारो का क्रूर शासक महाम (कबीर बेदी) छल कपट और लालच के दम पर वहां के लोगों पर जबरन राज कर रहा है। यही वजह है कि वह सरमन को वहां नहीं जाने देते। हालांकि, सरमन के जिद करने पर काका उसे व्यापार के लिए मोहनजो दारो भेजने को राजी हो जाते हैं। यहां आकर सरमन की मुलाकात चानी (पूजा हेगड़े) से होती है, सरमन पहली ही मुलाकात में चानी पर मर मिटता है। मोहनजो दारो के निवासी यहां के प्रधान महाम के अत्याचारों से और उसके द्वारा लगाए जाने वाले कर की वजह से पीड़ित हैं। महाम अपने बेटे मूंजा ( अरुणोदय सिंह ) के साथ चानी की शादी करना चाहता है। दूसरी ओर मूंजा भी चानी पर फिदा है। ऐसे में, सरमन अपने प्यार को हासिल करने और मोहनजो दारो के निवासियों को महाम और मूंजा के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के मकसद से वहीं रहने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : सरमन के रोल में रितिक ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। ऐक्शन सीन्स में रितिक का जवाब नहीं। नई ऐक्ट्रेस पूजा हेगड़े के करने के लिए कुछ खास था ही नहीं। चानी के रोल में पूजा की ऐक्टिंग देखकर लगता है उन्हें अभी ऐक्टिंग की एबीसी सीखने की जरूरत है। अन्य कलाकारों में कबीर बेदी और मनीष चौधरी प्रभावित करते हैं, अरुणोदय सिंह मूंजा के रोल में नहीं जमे हैं। डायरेक्शन : आशुतोष ने इस सब्जेक्ट पर रिसर्च के बाद ही काम शुरू किया होगा, इसका एहसास आपको फिल्म के शुरुआती सीन्स देखकर लगेगा। हालांकि, उन्होंने कहानी को बेवजह कुछ ज्यादा ही लंबा खींच डाला है। इंटरवल से पहले फिल्म आपको किसी धारावाहिक जैसी लगने लगती है। चानी और सरमन की लव स्टोरी को मोहनजो दारो की पृष्ठभूमि के साथ दिखाने के चक्कर में आशुतोष कुछ ऐसे उलझे कि इंटरवल के बाद स्क्रिप्ट उनके हाथों से फिसलती गई। ऐक्शन सीक्वेंस को उन्होंने बेहतरीन ढंग से फिल्माया है। संगीत : ए.आर. रहमान ने फिल्म के मिजाज के मुताबिक संगीत दिया है, टाइटिल सॉन्ग के अलावा 'तू है' गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें : अगर आप रितिक के फैन हैं तो उनके टोटली चेंज लुक के लिए यह फिल्म देखें और आशुतोष गोवारिकर स्टाइल की फिल्में पसंद करते हैं तो थिएटर जाएं। वहीं अगर आप फिल्म में हजारों साल पुरानी संस्कृति मोहनजो दारो की तलाश करेंगे तो यकीनन अपसेट हो सकते हैं। ",1 Neil Soansकहानी: सुश्रुत (आयुष शर्मा) वडोदरा में बच्चों को गरबा सिखाते हैं। इस बार का 9 दिन का नवरात्रि का त्योहार उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल देता है। उन्हें मिशेल (वरीना हुसैन) से प्यार हो जाता है और उनका प्यार जीतने के लिए वह हर काम करते हैं। रिव्यू: सुश्रुत उर्फ 'सुसु' को एक ऐसा लड़का दिखाया गया है जिसकी कोई ख्वाहिशें नहीं हैं और वह केवल अपनी जिंदगी में डान्स करना चाहता है। उसके परिवार की तरफ से उस पर नौकरी ढूंढने का दबाव है जबकि वह वडोदरा में अपनी एक गरबा अकैडमी खोलना चाहता है। वहीं इंग्लैंड की मिशेल अपनी मातृभूमि भारत लौटना चाहती है और इस बात के लिए उसके पिता (रोनित रॉय) तैयार हो जाते हैं। अपनी फैमिली के कहने पर वह वडोदरा में नवरात्रि मनाने के लिए रुक जाते हैं। इसी त्योहार के दौरान सुसु को मिशेल से प्यार हो जाता है। 'लवयात्रि' केवल एक साधारण सी लव स्टोरी है। इससे ज्यादा फिल्म में कुछ भी नहीं है। डायरेक्टर अभिराज मीनावाला की यह पहली फिल्म है और उन्होंने बॉलिवुड के पुराने मसालों पर सेफ गेम खेलने की कोशिश की है। हालांकि फिल्म का स्क्रीनप्ले बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लिखा गया है। फिल्म के कैरक्टर्स आपको पसंद आएंगे लेकिन कहानी आपको इतनी आकर्षक नहीं लगेगी। फिल्म के गाने खूबसूरती से फिल्माए गए है और वैभवी मर्चेंट की कोरियॉग्रफी भी अच्छी है। यह कहना सही होगा कि अपनी पहली फिल्म कर रहे आयुष और वरीना अभी ऐक्टिंग में कच्चे हैं। हालांकि स्क्रीन पर उनकी केमिस्ट्री अच्छी लगती है। आयुष बिल्कुल युवा लड़के के रूप में ठीक लगते हैं। सुसु के अंकल के रूप में राम कपूर ने और मिशेल के पिता के रूप में रोनित रॉय ने बेहतरीन काम किया है और उन्होंने इमोशनल और भारी-भरकम डायलॉग बोले हैं। 'लवरात्रि' उन लोगों के लिए अच्छी फिल्म है जो 90 के दशक की रोमांटिक फिल्मों के शौकीन हैं। ,1 " बैनर : वाइड फ्रेम्स फिल्म्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, ए फ्राइडे फिल्मवर्क्स निर्माता : शीतल भाटिया, कुमार मंगत पाठक निर्देशक : नीरज पांडे संगीत : एमएम क्रीम, हिमेश रेशमिय ा कलाकार : अक्षय कुमार, काजल अग्रवाल, मनोज बाजपेयी, अनुपम खेर, जिम्मी शेरगिल, राजेश शर्मा, दिव्या दत्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 22 मिनट 32 सेकंड ए वेडनेसडे जैसी जबरदस्त फिल्म से चौंकाने वाले निर्देशक नीरज पांडे की अगली फिल्म ‘स्पेशल 26’ अस्सी के दशक में घटी कुछ ठगी की घटनाओं पर आधारित है। उस दौर में संचार के साधन इतने सशक्त नहीं थे, लिहाजा इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना आसान बात थी। काला धन जमा करने वाले नेताओं और व्यापारियों के यहां कुछ लोगों का एक गैंग नकली सीबीआई ऑफिसर या इनकम टैक्स ऑफिसर बन छापा मारता है और नकद-गहने जब्त कर लेता है। बात इसलिए बाहर नहीं आती थी क्योंकि शिकार खुद अपराधी हैं। वे मन मसोसकर रह जाते हैं। इन चालाक अपराधियों को ‘स्पेशल 26’ में हीरो बनाकर पेश किया है क्योंकि वे एक तरह से रॉबिनहुड की तरह हैं जो अमीरों को लूटते थे, ये बात और है कि वे गरीबों में ये पैसा बांटते नहीं थे। स्पेशल 26 एक ऐसी थ्रिलर मूवी है, जिसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं है। यहां चोर और पुलिस दिमागी चालों से एक-दूसरे का सामना करते हैं। फिल्म के पहले हिस्से में नकली ऑफिसरों के दो किस्से दिखाए गए हैं कि किस तरह से ये अपना काम करते हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेंज, चेहरे के भाव, कागजी कार्रवाई और अकड़ बिलकुल असली पुलिस ऑफिसरों की तरह होती है। फिल्म में रोचकता तब बढ़ जाती है जब वसीम नामक असली और ईमानदार सीबीआई ऑफिसर इन्हें पकड़ने के लिए पीछे लग जाता है। चूंकि नकली सीबीआई के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं है इसलिए वह इन्हें रंगे हाथ पकड़ने की फिराक है। वसीम को इनके अगले कदम का पता चल जाता है जब ये मुंबई की एक प्रसिद्ध ज्वैलरी शॉप पर छापा मारने वाले होते हैं। वसीम कामयाब होता है या अजय (अक्षय कुमार) की गैंग, इसका पता एक लंबे क्लाइमैक्स के बाद पता चलता है। नीरज पांडे का प्रस्तुतिकरण बताता है कि उन्होंने इस दिशा में काफी काम किया है। उन्होंने न केवल सरकारी ऑफिसर्स के कामकाज करने के तरीके को सूक्ष्मता के साथ पेश किया है बल्कि 1987 का दौर भी लाजवाब तरीके से पेश किया है। इसका श्रेय आर्ट डायरेक्टर को भी जाता है। नंबर घुमाने वाले और कॉर्डलेस फोन, बड़े ब्रीफकेस, फिएट-एम्बेसेडर और एम्पाला कार, लेम्ब्रेटा स्कूटर, करंसी नोट, समाचार पत्र और पत्रिकाएं, फिल्मों के पोस्टर्स, विमल सूटिंग शर्टिंग और थ्रिल कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं। नीरज ने कहानी को ज्यादा उलझाने के बजाय सीधे तरीके से कहा है। चोर-पुलिस के इस खेल को रोचकता के साथ पेश किया है और इंटरवल के बाद तो फिल्म सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर कर देती है। क्लाइमेक्स में एक ट्विस्ट दिया है, जो अच्छा तो लगता है, लेकिन कहानी को थोड़ा कमजोर करता है। फिल्म में हीरोइन नहीं भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अक्षय कुमार जैसे स्टार के कारण हीरोइन रखना शायद मजबूरी हो। यह काम अधूरे मन से किया गया है। अक्षय और काजल की लव स्टोरी में भी थ्रिल पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन यह ट्रेक उतना प्रभावी नहीं बन पाया है। इसी तरह गानों की भी कोई जरूरत नहीं थी। अक्षय कुमार का किरदार ठगी क्यों करता है, इसका कारण नहीं भी बताया जाता तो खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसके साथियों का भी इतिहास नहीं बताया गया है। फिल्म के संवाद और कुछ सीन उल्लेखनीय हैं। एक ईमानदार ऑफिसर अपने बॉस से पैसे बढ़ाने की बात करते हुए कहता है कि अब उसे घर का खर्च उठाने में परेशानी आ रही है, यदि पैसा नहीं बढ़ा तो वह रिश्वत लेना शुरू कर देगा। इस सीन को हास्य के पुट के साथ पेश किया गया है, लेकिन इसका असर गहरा है। इसी तरह अक्षय और अनुपम खेर का इंटरव्यू लेने वाले सीन मनोरंजक है। अनुपम खेर के ढेर सारे बच्चें रहते हैं और इसके पीछे वे ये तर्क देते हैं कि उनकी जवानी के समय टीवी नहीं था। संभव है भारत की जनसंख्या ज्यादा होने का यह कारण भी हो। एक्टिंग के मामले में यह फिल्म सशक्त है। अक्षय कुमार ने अपना काम पूरी संजीदगी के साथ किया है। एक रौबदार और आत्मविश्वास से भरे ऑफिसर के रूप में वे बेहद जमे हैं। ओह माय गॉड के बाद स्पेशल 26 में अभिनय कर अक्षय ने बता दिया है कि वे मसाला फिल्मों के साथ-साथ लीक से हटकर बनने वाली फिल्मों के लिए भी तैयार हैं। अनुपम खेर ने लंबे समय बाद यादगार अभिनय किया है। नकली ऑफिसर के रूप में वे बेहद रौबदार नजर आते हैं, लेकिन दूसरे पल ही वे डरपोक बन जाते हैं। पूरी फिल्म में उन्हें यह खौफ सताता रहता है कि कहीं वे पकड़े न जाए। इस भय को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। मनोज बायपेयी की फिल्म में एंट्री होते ही फिल्म का स्तर बढ़ जाता है। एक कड़क और ईमानदार पुलिस ऑफिसर के रूप में मनोज का अभिनय देखने लायक है। काजल अग्रवाल का काम ठीक है। राजेश शर्मा, किशोर कदम और दिव्या दत्ता को कम मौका मिला है, लेकिन ये सब अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्पेशल 26 कई कारणों से देखने लायक है। ",1 "कुल मिलाकर ‘किडनैप’ को देख ऐसा लगता है कि दर्शकों का कुछ घंटों के लिए किडनैप हो गया हो। निर्माता : श्री अष्टविनायक सिने विज़न लिमिटेड निर्देशक : संजय गढ़वी गीत : मयूर पुरी संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : संजय दत्त, इमरान खान, मिनिषा लांबा, विद्या मालवदे, राहुल देव, रीमा लागू, सोफी चौधरी (विशेष भूमिका) निर्देशक संजय गढ़वी के पास ‘किडनैप’ फिल्म की पटकथा पाँच वर्षों से थी। इस पटकथा पर उन्हें आदित्य चोपड़ा ने फिल्म नहीं बनाने दी और बदले में उनसे ‘धूम’ और ‘धूम 2’ का निर्देशन करवाया। जब संजय ने यशराज फिल्म्स को छोड़ा तो आदित्य ने बड़ी आसानी से उन्हें ‘किडनैप’ की पटकथा भी दे दी। आदित्य चतुर व्यवसायी हैं, यदि उन्हें ‍’किडनैप’ की कहानी और पटकथा में दम नजर आता तो वे खुद इस पर पैसा लगाते। ‘किडनैप’ को थ्रिलर कहकर प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन इसमें एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जो किसी तरह से रोमांचित करे। कहानी का मूल विचार अच्छा है कि अपहरणकर्ता ने अरबपति की बेटी का अपहरण कर लिया है और बदले में वह उससे वह कुछ काम करवाता है। हर काम में एक संकेत छिपा हुआ है, जो उसे अपनी बेटी के नजदीक पहुँचने में मदद करता है। इस कहानी को परदे पर पेश करने के लिए एक उम्दा स्क्रीनप्ले की जरूरत थी और यही पर फिल्म बुरी तरह मार खा जाती है। लगता है कि निर्देशक और लेखक को इस कहानी से कुछ ज्यादा ही प्यार था, इसलिए उन्होंने इस पर किसी भी तरह फिल्म बना डाली। विक्रांत रैना (संजय दत्त) एक रईस आदमी है। उसका अपनी पत्नी से तलाक हो चुका है। उसकी बेटी सोनिया (मिनिषा लांबा) का कबीर (इमरान खान) अपहरण कर लेता है। कबीर सिर्फ विक्रांत से ही बात करता है और उससे कुछ काम करवाता है। किस तरह विक्रांत, कबीर के पास पहुँचता है, यह फिल्म में बड़े ही हास्यास्पद तरीके से दिखाया गया है। शिबानी बाठीजा और संजय गढ़वी ने दर्शकों को मूर्ख समझने की भूल की है और कुछ ऐसे घटनाक्रम फिल्म में डाले हैं कि हैरानी होती है। विक्रांत से कबीर हजार का नोट चोरी करवाता है। सारी सुरक्षा को तोड़कर जिस तरह विक्रांत चोरी करता है, वह किसी भी दृष्टि से संभव नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि कबीर ने कब उस हजार के नोट पर संदेश लिखकर वहाँ छिपा दिया था। विक्रांत के जरिए कबीर जेल से अपने दोस्त को छुड़वाता है। विक्रांत की पत्नी मानवाधिकार की कार्यकर्ता बन बड़ी आसानी से जेल में घुस जाती है। कबीर बड़ी आसानी से कैदी तक पहुँच जाता है। जेल में आग लगा देता है और पता नहीं कहाँ से उसे फायर ब्रिगेड के कर्मचारी की ड्रेस भी मिल जाती है और वो आग बुझाता है। अगर इतनी आसानी से कैदियों को छुड़वाना मु‍मकिन होता तो आज सारे कैदी जेल से बाहर होते। कबीर क्यों बदला लेता है, उसको लेकर जो घटनाक्रम रचा गया है वो बेहद लचर है और फिल्म ‘जिंदा’ की याद दिलाता है। कबीर सात साल जेल में काटता है। पता नहीं उसे इतना वक्त कैसे मिल जाता है कि वह पढ़-लिखकर कम्प्यूर का मास्टर बन जाता है। किडनैप के बाद सोनिया हर दृश्य में ड्रेस बदलती है। शायद उसके लिए यह ड्रेसेस कबीर ही लाया होगा। उसकी हर ड्रेस इतनी छोटी रहती है कि वह अपना पूरा शरीर भी ढँक नहीं पाती। फिल्म के आखिर में सोनिया को भागने का अवसर मिलता है, लेकिन वह घायल कबीर के होश में आने का इंतजार करती है। वह बंदूक उसके इतने नजदीक से चलाने की कोशिश करती है ताकि कबीर उसे पकड़ सके। फिल्म की शुरुआत एक गाने से होती है, जिसका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। फिल्म के क्लायमैक्स में संजय दत्त, इमरान खान पर गोली चलाते हैं और वो गिर पड़ता है। वह कैसे बचता है, इस बारे में कुछ नहीं बताया गया। संजय दत्त और उनकी पत्नी के बीच क्यों तलाक होता है, इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई। फिल्म का अंत भी बेहद खराब है। संजय गढ़वी की ‘धूम’ और ‘धूम 2’ भी सशक्त फिल्में नहीं थीं, लेकिन कुछ भाग्य का सहारा और कुछ स्टार्स के आकर्षण की वजह से वे फिल्में चल निकली। ‘किडनैप’ में उनकी पोल खुल गई। पूरी फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ है। संजय दत्त पूरे समय असहज दिखाई दिए। इमरान खान कुछ ज्यादा ही तने हुए नजर आए। उन्हें संवाद अदायगी पर ध्यान देना होगा। मिनिषा लांबा ने पूरी फिल्म में अंग प्रदर्शन किया है। राहुल देव का चरित्र ठूँसा हुआ है। विद्या मालवदे, मिनिषा की मम्मी कम बहन ज्यादा लगती है। कुल मिलाकर ‘किडनैप’ को देख ऐसा लगता है कि दर्शकों का कुछ घंटों के लिए किडनैप हो गया हो। ",0 " ये फगली-फगली क्या है, ये फगली-फगली? इस बात का खुलासा फिल्मकार ने पहली फ्रेम में ही कर दिया, फगली यानी कि फाइटिंग द अगली'। अब इस तरह का नाम रखने की जरूरत क्यों पड़ी, ये तो वे ही जाने। अपने नाम की तरह फिल्म भी कुछ ऐसी ही है। तर्कहीन और अर्थहीन। पहली फ्रेम से बोरियत हावी होती है जो अंत तक दूर नहीं होती। बिना कहानी के दर्शकों को बांध पाना आसान काम नहीं है। निर्देशक कबीर सदानंद और लेखक राहुल हांडा ने शुरुआती पौन घंटे बिना कहानी के फिल्म को ऐसे खींचा है कि फिल्म हांफने लगती है। कॉमेडी, दोस्तों की चुहलबाजी, दारूबाजी, बोल्ड संवाद, तीन गाने और लेह के सीन ‍भी फिल्म को संभाल नहीं पाए। दोस्तों की मौज-मस्ती के बाद कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब जिमी शेरगिल की एंट्री होती है। देव (मोहित मारवाह), गौरव (विजेंदर सिंह), आदित्य (आरिफ लांबा) और देवी (किआरा अडवाणी) का ऐसे शख्स से विवाद होता है जो देवी को छेड़ देता है। सबक सिखाने के लिए उसे कार की डिक्की में बंद कर वे शहर से बाहर की ओर जाते हैं, वहां उनकी झड़प भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर चौटाला (जिमी शेरगिल) से हो जाती है। चौटाला डिक्की में बंद शख्स की हत्या कर देता है और इसका इलजाम चारों दोस्तों पर लगा देता है। मामले को दबाने के लिए वह 61 लाख रुपये मांगता है और उसके बाद उसकी ब्लेकमेकिंग बढ़ती जाती है। जिमी के किरदार की एंट्री से लग रहा था कि फिल्म संभल जाएगी, लेकिन स्थिति और बिगड़ती चली जाती है। 'फुकरे' और 'शैतान' की राह पर चल रही यह फिल्म 'रंग दे बसंती' के ट्रैक पर चलने लगती है। ढेर सारी फालतू की बातें, बेहूदा संवाद, घटिया एक्टिंग और निर्देशन भला कैसे फिल्म को संभाल सकते थे। दर्शक कहीं कनेक्ट नहीं हो पाता और 'द एंड' टाइटल का इंतजार उसे बेसब्री से रहता है। नई दिल्ली इन दिनों फिल्मकारों का पसंदीदा शहर हो गया है। दिल्ली के जरिये यूपी और हरियाणा का टच फिल्म को दिया जाता है। 'तेरे पिछवाड़े में डंडा घुसेड़ दूंगा' जैसे संवाद दिल्ली के नाम पर छूट लेकर दिखाए जाते हैं। कबीर ने भी दिल्ली का ऐसा ही माहौल दिखाया है, लेकिन माहौल बनाने से ही फिल्म अच्छी नहीं बन जाती। फुकरे' की तर्ज पर चार लंगोटिया यार ले लिए, जिनमें से एक लड़की है। एक दोस्त हमेशा 'फट्टू' होता है और यहां भी है। लड़की के जरिये रोमांस और 'फट्टू' दोस्त के जरिये कॉमेडी दिखाने की चेष्टा की गई है जो कही से भी प्रभावित नहीं करती। बिजॉय नाम्बियार की 'शैतान' की तरह ये दोस्त मौज-मस्ती करते हैं और फिर फंस जाते हैं। रंग दे बसंती' की नकल के चक्कर में फिल्म की बुरी गत बन गई है। मीडिया, नेता, पुलिस को कोसा गया है, लेकिन इसके लिए जिस तरह की स्क्रिप्ट लिखी गई है वो बेहद घटिया है। 80-90 प्रतिशत जल चुका शख्स अस्पताल में मीडिया को लाइव इंटरव्यू देता है और उसे ऐसा करने की अनुमति डॉक्टर ही देता है। इस तरह के कई बचकाने प्रसंग फिल्म में है। एक पॉवरफुल नेता का बेटा होने के बाद भी गौरव एक अदने से पुलिस ऑफिसर से इतना क्यों डरता है ये भी समझ से परे है। कई बार घटिया स्क्रिप्ट को अभिनेता अपने दम पर बचा लेते हैं, लेकिन यहां ये एक्टर्स, निर्देशक-लेखक के साथ मिले हुए हैं। मोहित मारवाह ने थोड़ी गंभीरता दिखाई है, लेकिन उनकी भी सीमाएं हैं। एक्टिंग रिंग में विजेंदर सिंह बेहद कच्चे खिलाड़ी नजर आए। अरफी लांबा ने जमकर बोर किया। किआरा आडवाणी को टिकना है तो खूब मेहनत करना होगी। जिमी शेरगिल का अभिनय अच्छा है, लेकिन वो भी कहां तक दम मारते। फिल्म में चारों दोस्तों को पानी की तरह शराब गटकते और इतना सुट्टा मारते दिखाया है कि लगभग आधी फिल्म में स्क्रीन के कोने पर वैधानिक चेतावनी ही नजर आती है। सेंसर बोर्ड के डंडे के कारण फिल्मकार को बार-बार लिखना पड़ता है कि ये दोनों चीजें सेहत के लिए बुरी है। ऐसी चेतावनी फिल्म के लिए भी होना चाहिए कि फलां फिल्म आपके समय और धन के लिए खतरनाक है। चलिए, ये काम हम ही कर देते हैं। बैनर : ग्रेजिंग गोट प्रोडक्शन्स निर्माता : अश्विनी यार्डी, अलका भाटिया निर्देशक : कबीर सदानंद संगीत : यो यो हनी सिंह, प्रशांत वैद्यहर, रफ्तार कलाकार : जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, किआरा अडवाणी, विजेंदर सिंह, आरफी लांबा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट 18 सेकंड्स ",0 "बॉलीवुड में लड़कियों की दोस्ती और उनकी मौज-मस्ती पर बहुत कम फिल्में बनी हैं और 'वीरे दी वेडिंग' इस कमी को पूरा करती है। इस फिल्म की चार लड़कियां बिंदास लाइफ जीती हैं और रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ उनके बगावती तेवर हैं। कालिंदी पुरी (करीना कपूर), अवनि शर्मा (सोनम कपूर), साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) और मीरा सूद (शिखा तलसानिया) की दोस्ती बचपन से है। जवां होने के बाद सबकी अलग-अलग कहानियां है। अवनि एक वकील है और उसकी मां उसके लिए लड़का ढूंढ रही है। लड़कों को लेकर उसकी अपनी पसंद है। साक्षी के पिता ने करोड़ों रुपये खर्च कर उसकी शादी की, लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद अब वह अपने पति से अलगाव चाहती है। मीरा ने भाग कर एक गोरे से शादी की है और उसके घर वाले उसके इस फैसले से नाराज है। सिडनी में रहने वाली कालिंदी की जिंदगी में ऋषभ मल्होत्रा (सुमित व्यास) नामक बेहतरीन लड़का है, लेकिन वह शादी करने से घबराती है क्योंकि उसका बचपन अपने माता-पिता के झगड़ों में बीता है। उसका मानना है कि पति बनते ही प्रेमी बदल जाता है। काफी सोच समझ कर वह शादी के लिए हां कहती है। सभी सहेलियां उसकी शादी के लिए दिल्ली में जमा होती हैं और भव्य शादी की तैयारियां शुरू होती हैं। रस्मो-रिवाज और ढेर सारे रिश्तेदार देख कालिंदी घबरा जाती है और शादी करने से इंकार कर देती है। इन चारों लड़कियों के माध्यम से दिखाया गया है कि शादी और बच्चों का लड़कियों पर कितना ज्यादा प्रेशर है। वे अपनी मर्जी के लड़के से शादी नहीं कर सकती। शादी नहीं करना चाहती हैं तो उन पर शादी का दबाव डाला जाता है। फिर पहले बच्चे का दबाव, फिर दूसरे का दबाव। कोई लड़की यदि अपनी मर्जी से पति से अलग होना चाहे तो उसके चरित्र पर अंगुली उठाई जाती है। कालिंदी के कैरेक्टर के जरिये लड़कियों के शादी के प्रति कन्फ्यूज नजरिये को दिखाया गया है। वे तय नहीं कर पातीं कि वे शादी करें या नहीं। फिल्म के लेखक निधि मेहरा और मेहुल सूरी ने बहुत सारी बातों को अपनी कहानी में समेटा है। इसमें गॉसिप करने वाली आंटियां हैं, जो सारी बातें करने के बाद बोलती हैं, छोड़ो हमें क्या करना है, एक गे कपल है जिसे देख कोई चौंकता नहीं है, मम्माज़ बॉय है, सेक्स को लेकर बातें करने वाली लड़कियां हैं। हर किरदार की अपनी समस्या है और इसे पूरे डिटेल्स के साथ लिखा गया है। इन सभी बातों को मसालेदार तरीके से कहा गया है। फिल्म आपको लगातार हंसाती रहती है और कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। अंत में कहानी समेटने में लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए और सुखद अंत के साथ फिल्म को समाप्त करने में ही उन्होंने भलाई समझी। अचानक सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। लेखक थोड़ी और गहराई में जा सकते थे। निर्देशक के रूप में शशांक की मेहनत नजर आती है। उन्होंने कई छोटे-छोटे सीन रचे हैं और फिल्म को बोझिल नहीं होने दिया। जहां फिल्म ठहरती हुई महसूस होती है वहीं पर वे मनोरंजक दृश्यों के जरिये फिल्म को पटरी पर ले आते हैं। फिल्म की मुख्य किरदार महिलाएं हैं, लेकिन उन्होंने फिल्म को फेमिनिस्ट नहीं होने दिया। खोखली नारीवाद की बातें या पुरुषों को कमतर करने की कोशिश नहीं की है। इसके बजाय उन्होंने अपने महिला कैरेक्टर्स पर भरपूर काम किया है। उन्हें स्टीरियोटाइप नहीं बनने दिया है। ऐसे बोल्ड और बिंदास फीमेल कैरेक्टर्स संभवत: पहली बार हिंदी फिल्मों में दिखाई दिए हैं। साथ ही एक साधारण कहानी को उन्होंने अपने आधुनिक किरदारों और प्रस्तुतिकरण के जरिये एक अलग लुक दिया है। फिल्म में कई प्रोडक्ट्स को प्रमोशन के लिए दिखाया गया है जो आंखों को चुभते हैं। फिल्म के संवाद ऐसे हैं जैसे कि दोस्त आपस में बात करते हैं- 'ले ली', 'दे दी', 'चढ़ जा', 'अपना हाथ जगन्नाथ' आदि-आदि। फिल्म की स्टारकास्ट बढ़िया है। शादी को लेकर कन्फ्यूज लड़की के रोल में करीना कपूर का काम अच्छा है। सोनम कपूर, स्वरा भास्कर और शिखा तलसानिया अपनी-अपनी जगह अच्छी हैं। नीना गुप्ता, मनोज पाहवा सहित सपोर्टिंग कास्ट ने भी अपना काम ठीक से किया है। वीरे दी वेडिंग 'महिला सशक्तिरकण' जैसे नारे की बजाय इस बात के इर्दगिर्द ज्यादा है कि 'व्हाय शुड बॉयज़ हेव ऑल द फन?' बैनर: अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, बालाजी टेलीफिल्म्स लि. निर्माता : रिया कपूर, एकता कपूर, शोभा कपूर, अनिल कपूर, निखिल द्विवेदी निर्देशक : शशांक घोष संगीत : शाश्वत सचदेव, विशाल मिश्रा कलाकार : करीना कपूर खान, सोनम कपूर आहूजा, स्वरा भास्कर, शिखा तलसानिया, सुमित व्यास, नीना गुप्ता, विवेक मुश्रान, मनोज पाहवा सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 5 मिनट ",1 "बैनर : एसएलबी फिल्म्स, हरि ॐ एंटरटेनमेंट कंपनी, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, शबीना खान, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : प्रभुदेवा संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा सांवरिया और गुजारिश जैसी फिल्मों को दर्शकों द्वारा नकारने के बाद संजय लीला भंसाली ने ऐसी फिल्म बनाने का नि‍श्चय किया जो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरे। मसाला फिल्म बनाना उनके मिजाज में नहीं है इसलिए निर्देशक के रूप में प्रभुदेवा को चुना। प्रभुदेवा ‘वांटेड’ के रूप में दक्षिण भारतीय फिल्म का सफल हिंदी संस्करण बना चुके हैं। कहानी ऐसी चुनी गई जिस पर तेलुगु, तमिल और कन्नड़ में फिल्में बनीं और सुपरहिट भी रहीं। इस तरह ‘राउडी राठौर’ का जन्म हुआ। वैसे भी इस समय हिंदी भाषी दर्शकों को साउथ की फिल्मों के रीमेक बड़े पसंद आ रहे हैं। दक्षिण की फिल्मों का ड्रामेटिक अंदाज और लाउडनेस खासकर आम दर्शकों को अच्छे लगने लगे हैं। इसलिए राउडी राठौर में भले ही मुंबई और बिहार के गांव की कहानी बताई गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि हम दक्षिण भारत का ही कोई शहर या गांव देख रहे हैं। कलाकारों की एक्टिंग, ड्रेस से लेकर तो गानों, बैकग्राउंड म्यूजिक, एक्शन और डांस तक लाउड हैं। परपल और पिंक कलर की पेंट में अक्षय कुमार को आपने शायद ही पहले कभी देखा हो। लेकिन ये सब बातें इसलिए नहीं अखरती क्योंकि फिल्म में मनोरंजन के सारे मसाले मौजूद हैं। कुछ जगह जरूर फिल्म खींची हुई लगती है, झोल खाती है, लेकिन ऐसे पल कम आते हैं। दरअसल फिल्म के निर्देशक प्रभुदेवा ने फिल्म की गति इतनी तेज रखी है और हर फ्रेम में एंटरटेनमेंट को इतना ज्यादा महत्व दिया है कि दर्शकों को सोचने के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता है। राउडी राठौर की कहानी में कोई नयापन नहीं है, लेकिन वे सारे मसाले हैं जो दर्शकों को पसंद हैं। शिव (अक्षय कुमार) एक चोर है। रेलवे की घड़ी, एसटीडी बूथ और यहां तक कि एटीएम भी वह चुराकर घर ले आया है। प्रिया (सोनाक्षी सिन्हा) का दिल वह जीत लेता है, लेकिन सच-सच बता देता है कि चोरी मेरा काम। छ: वर्ष की एक लड़की उसे पापा बोलने लगती है तो वह आश्चर्य में पड़ जाता है। बाद में उसे मालूम पड़ता है कि इंसपेक्टर विक्रम राठौर (अक्षय कुमार) उसका हमशक्ल है जो देवगढ़ गांव में बापजी नामक गुंडे के आतंक को खत्म करने में जुटा है। ",1 "कहानी: मनुष्य काफी अर्से से पृथ्वी के अलावा अंतरिक्ष के किसी दूसरे ग्रह पर रहने का ठिकाना तलाश रहा है, जहां वह पृथ्वी के रहने लायक नहीं रह जाने के बाद रह सके। वेनम भी एक ऐसे ही मिशन की कहानी है। फिल्म की शुरुआत में अंतरिक्ष में दूसरे ग्रह पर जीवन तलाशने गया एक स्पेसशिप पूर्वी मलयेशिया में दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। दरअसल उस स्पेसशिप में 4 एलियन थे, जिन्हें पृथ्वी से मिलते-जुलते एक ग्रह से पकड़ कर लाया गया है। स्पेसशिप दुर्घटना के बाद उनमें से 3 मिल जाते हैं, लेकिन एक गायब हो जाता है। उधर ऐडी ब्रोक (टॉम हार्डी) एक उत्साही न्यूज रिपोर्टर है जो हमेशा कुछ नया तलाशता रहता है। एक दिन उसे एक बड़े बिजनसमैन कार्लटन ड्रेक (रिज अहमद) का साक्षात्कार करने का मौका मिलता है, जो उस स्पेसशिप कंपनी का मालिक है। ऐडी उससे कुछ तीखे सवाल पूछता है, जिस वजह से उसकी और ड्रेक की कंपनी से जुड़ी उसकी गर्लफ्रेंड ऐनी वेइंग (मिशेल विलियम्स) की नौकरी चली जाती है। दरअसल ड्रेक दूसरे ग्रहों पर मनुष्यों के रहने की संभावना तलाश रहा है। इसलिए वह पृथ्वी से मिलते-जुलते एक ग्रह से एलियन लाकर उनको मनुष्यों की बॉडी में अजस्ट करने का प्रयोग कर रहा है, ताकि इस तरह मनुष्य की बॉडी भी एलियन के ग्रह पर रहने लायक हो जाए। ऐडी खोजबीन के लिए उस लैब में जाता है, तो वहां एक एलियन वेनम उसकी बॉडी में घुस जाता है। आगे क्या होता है, यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। रिव्यू: सुबह के हॉउसफुल शो में टॉम हार्डी के जबर्दस्त ऐक्शन और ह्यूमर सीन्स पर सीटियां और तालियां बजाते दर्शकों को देख कर यह कहना गलत नहीं होगा कि इस हफ्ते 'वेनम' का क्रेज दूसरी बॉलिवुड फिल्मों से ज्यादा ही है। बेशक फिल्म के बेहतरीन ऐक्शन सीन्स आपको हैरान कर देते हैं। 2 घंटे से भी कम अवधि की फिल्म न सिर्फ आपको इस बात का एहसास कराती है कि साइंस की कोई गलती कितनी बड़ी मुसीबत बन सकती है, बल्कि एक नई तरह के एलियंस से भी रूबरू कराती है। वेनम और उसके साथी एलियंस की आपसी लड़ाई के सीन्स खतरनाक लगते हैं, तो इंसानों को वे कैसे निगलते हैं, वह भी बेहद डरावना लगता है। फिल्म में टॉम हार्डी की ऐक्टिंग जबर्दस्त है, तो हिंदी की डबिंग भी लाजवाब है, जो आपको इस हिला देने वाली फिल्म में हंसाती भी है। फिल्म के डायरेक्टर रुबेन फ्लैशर कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं पड़ने देते हैं। इस वीकेंड अगर आप कोई बेहतरीन ऐक्शन फिल्म इंजॉय करना चाहते हैं, जिसमें हल्की-फुल्की कॉमिडी का तड़का भी हो, तो यह फिल्म आपको मिस नहीं करनी चाहिए। ",1 "बॉलिवुड में बरसों से सीक्वल बनाने का ट्रेंड चल रहा है। वहीं अगर अक्षय कुमार के बैनर तले बनी फिल्म 'नाम शबाना' की बात करें तो यह फिल्म उनकी बॉक्स ऑफिस पर हिट रही फिल्म 'बेबी' का प्रीक्वल है, यानी इस फिल्म की कहानी 'बेबी' से आगे की नहीं बल्कि 'बेबी' से पहले की है। खबर है प्रॉडक्शन कंपनी इस फिल्म को पहले 'बेबी 2' टाइटल के साथ बनाना चाहती थी, लेकिन अक्षय इस फिल्म के साथ 'बेबी' शब्द नहीं जोड़ना चाहते थे, इसलिए फिल्म का टाइटल 'नाम शबाना' रखा गया। वैसे, फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी का दावा है कि फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है, जिसे कुछ सिनेमाई लिबर्टी लेकर बनाया गया। संयोग है कि अक्षय स्टारर 'बेबी' के क्लाइमैक्स में नजर आईं तापसी का किरदार करीब 20 मिनट का था तो अब इस फिल्म में अक्षय कुमार का किरदार करीब 20 मिनट में सिमट कर रह गया। बेशक फिल्म का टाइटल 'बेबी' न हो, लेकिन फिल्म में अनुपम खेर, डैनी और मुरली शर्मा का किरदार 'बेबी' से कतई अलग नहीं है। हां, यह बात अलग है कि मुरली शर्मा का किरदार बेशक पिछली फिल्म से अलग नहीं है, लेकिन उनका मिनिस्टर के पीए वाला किरदार इस फिल्म के साथ कहीं कनेक्ट नहीं कर पाता। जहां पिछली फिल्म की यूएसपी पिछली फिल्म की स्पीड, दमदार स्क्रिप्ट और अक्षय कुमार की बेहतरीन ऐक्टिंग थी तो वहीं इस फिल्म की इकलौती यूएसपी तापसी पन्नू ही हैं। वैसे इस फिल्म के डायरेक्टर शिवम नायर की कुछ पिछली फिल्मों पर नजर डाली जाए तो उनकी पिछली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाईं। ऐसे में नामी स्टार के साथ अच्छे बैनर की 'नाम शबाना' का बॉक्स ऑफिस पर हिट होना अहम है। कहानी : शबाना खान (तापसी पन्नू) का बचपन अपने घर में घरेलू कलह को देखते हुए बीत रहा है। शबाना की मां ने बेशक लव मैरिज की, लेकिन शादी के बाद हालात कुछ ऐसे बदले कि उसकी शादीशुदा जिंदगी तबाह होकर रह गई। शबाना का पिता अक्सर घर में शबाना की मौजूदगी में ही उसकी मां को जमकर पीटता और उसकी मां हमेशा मदद के लिए शबाना को बुलाया करती थी। आखिर, एक दिन शबाना के सब्र का पैमाना टूटा और उसने अपने पिता के सिर पर ऐसा जमकर वार किया कि उसके पिता ने वहीं दम तोड़ दिया। शबाना को जूवेनाइल कोर्ट ने दो साल की सजा दी। स्पेशल टाक्स फोर्स के चीफ रणवीर सिंह (मनोज बाजपेयी) की नजरें उसी वक्त से शबाना पर टिकी हुई थीं जब उसने अपने पिता को मारा था। कॉलेज स्टडी के दौरान शबाना ने जूडो सीखा और कई जूडो कॉम्पिटिशन में हिस्सा लिया। एक दिन शबाना की आंखों के सामने उसके प्रेमी जय की हत्या कर दी जाती है, लेकिन पुलिस सबूत न होने की बात कहकर कुछ नहीं कर रही। ऐसे हालात में, टास्क फोर्स चीफ रणबीर शबाना की मदद करता है। रणबीर की मदद से शबाना जय के कातिल को उसके अंजाम तक पहुंचाती है। अब शबाना टास्क फोर्स का हिस्सा बन चुकी है, शबाना को एक खास मिशन के लिए ट्रेंड करने के बाद मलेशिया भेजा जाता है, जहां उसका सामना दुनिया के कई आतंकी संगठनों को खतरनाक हथियारों की सप्लाई करने वाले टोनी उर्फ मिखाइल ( पृथ्वीराज सुकुमारन) से है। यहां शबाना की मदद के लिए टास्क फोर्स का जांबाज ऑफिसर अजय (अक्षय कुमार) और शुक्ला जी (अनुपम खेर) भी हैं। ऐक्टिंग : अंत तक फिल्म तापसी पन्नू के कंधों पर टिकी है। 'पिंक' के बाद एकबार फिर तापसी ने खुद को इंडस्ट्री की ऐसी बेहतरीन ऐक्ट्रेस साबित किया जो अपने दम पर भी फिल्म हिट कराने का दम रखती है। तापसी पर फिल्माए ऐक्शन, स्टंट सीन इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। टास्क फोर्स के चीफ के किरदार में मनोज बाजपेयी खूब जमे हैं। साउथ के नामी ऐक्टर पृथ्वीराज सुकुमारन अपने किरदार में सौ फीसदी फिट रहे हैं, वहीं अक्षय कुमार ने अपने किरदार को ठीकठाक निभाया तो अनुपम खेर, डैनी और मुरली शर्मा ने वही किया जो पिछली फिल्म में किया। डायरेक्शन : शिवम नायर ने फिल्म के फाइट सीन और तापसी के किरदार पर सबसे ज्यादा मेहनत की है। वहीं स्क्रिप्ट पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और यही वजह है कि इंटरवल से पहले की फिल्म शबाना की पहचान कराने में बीत जाती है तो इंटरवल के बाद कहानी में एक के बाद एक कई टर्न हैं, जो दर्शकों को कहानी से बांधने में कामयाब रहे। नायर ने फिल्म में गाने भी रखे जो फिल्म की स्पीड कमजोर करते हैं और फिल्म की अवधि बेवजह बढ़ाते हैं। संगीत : फिल्म के साथ टी सीरीज का नाम जुड़ा है, सो कहानी में बेवजह दो-तीन गानें फिट किए, लेकिन यही गाने फिल्म का माइनस पॉइंट बनकर रह गए। क्यों देखें : अगर आपने 'बेबी' देखी है तो इस फिल्म को देखिए। इस बार फिल्म देखने की वजह अक्षय नहीं, बल्कि तापसी पन्नू की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ-साथ बिना किसी बॉडी डबल की मदद के उनके खतरनाक ऐक्शन सीन हैं। ",0 "चंद्रमोहन शर्मा आप अपने पसंदीदा फिल्म स्टार्स, क्रिकेटर या दूसरी सेलिब्रेटिज को तो उनके बर्थडे पर बधाई का मेसेज करना नहीं भूलते, लेकिन क्या आपको अपने किसी टीचर का बर्थडे भी याद है? ऐसे ही सवालों का जवाब इस फिल्म में निर्देशक ने बेहद सादगी के साथ दिया है। बॉलिवुड में इससे पहले भी एजुकेशन सिस्टम पर फिल्में बनी हैं, लेकिन पब्लिक स्कूलों के बीच एक-दूसरे को पछाड़ने की दौड में सबसे ज्यादा कौन पिसता है, इसका बेहद सटीक जवाब डायरेक्टर जयंत ने दिया है। इस फिल्म को किसी सिंगल स्क्रीन थिएटर मालिक को चारों शो में लगाने के काबिल नहीं लगा। वहीं सरकारों ने भी इस फिल्म को एंटरटेनमेंट टैक्स में छूट के काबिल नहीं माना। भले ही इस फिल्म में बॉलिवुड के करीब आधा दर्जन दिग्गज और मंझे हुए स्टार्स हैं, लेकिन बॉक्स आफिस के पैमाने पर ट्रेड एनालिस्ट इन्हें आउटडेटेड मानते हैं। तभी तो ट्रेड में 'चॉक एंड डस्टर' का कहीं क्रेज नजर नहीं आया। कहानी फिल्म में मुंबई के कांता बेन हाई स्कूल की कहानी दिखाई गई है। इस स्कूल को चलाने वाली ट्रस्टी कमिटी का हेड अनमोल पारिक (आर्य बब्बर) इसे शहर का नंबर वन और ऐसा स्कूल बनाना चाहता है, जहां सिलेब्रिटीज तक के बच्चे भी पढ़ने के लिए आएं। इसीलिए अनमोल काबिल औैर अनुभवी प्रिसिंपल भारती शर्मा (जरीना वहाब) को बर्खास्त कर यंग वाइस प्रिसिंपल कामिनी गुप्ता (दिव्या दत्ता) को नई प्रिसिंपल बनाता है। कामिनी अनुभवी टीचरों को प्रताड़ित करने में लग जाती है। स्कूल की सीनियर मैथ्स टीचर विधा सावंत (शबाना आजमी) और साइंस टीचर ज्योति (जूही चावला) प्रिसिंपल की इस तानाशाही और काबिल टीचर्स का हैरसमेंट करने की नीतियों का विरोध करती हैं, तो कामिनी सबसे पहले विधा को नाकाबिल करार देकर नौकरी से बर्खास्त कर देती है।विधा को स्कूल में हार्ट अटैक पड़ जाता है और उसे अस्पताल में ऑपरेशन के लिए भर्ती कराना पड़ता है। ऐसे में ज्योति एक टीवी चैनल की रिपोर्टर भैरवी ठक्कर (रिचा चड्ढा) के साथ मिलकर टीचर्स के सम्मान और विधा को उसका हक वापस दिलाने की लड़ाई लड़ती है। डायरेक्शन जयंत की तारीफ करनी होगी कि करीब सवा दो घंटे की इस फिल्म में उन्होंने कहानी को सही ट्रैक पर तो रखा ही, फिल्म की स्पीड भी कहीं कम नहीं होने दी। ऐक्टिंग विधा सावंत के किरदार में शबाना आजमी ने जान डाल दी है। वह इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। जूही चावला और दिव्या दत्ता का भी जवाब नहीं। दिव्या ने एक बार फिर अपनी काबिलियत साबित की। ऋषि कपूर ने अंत में आकर भी दर्शकों की खूब वाहवाही बटोरी है। क्यों देखें ऐसी बेहतरीन कहानी जो यकीनन आपको आपके स्कूल के किसी ना किसी टीचर की याद एक बार जरूर दिलाने का दम रखती है। ऐसी फिल्म आपको फैमिली के साथ देखनी चाहिए। साफ फिल्में कम ही बनती हैं। संगीत हम शिक्षा के और गुरु ब्रह्मा गानों का फिल्मांकन बेहतरीन किया गया है। ",1 "कहानी में सखी और म्याऊँ नामक दीपिका पादुकोण की दोहरी भूमिकाएँ भी हैं। सखी और म्याऊँ जुड़वाँ बहनें हैं और बचपन में होजो की वजह से बिछड़ गई थीं। होजो की वजह से ही उनकी माँ की मृत्यु हुई थी और उनके पिता की याददाश्त चली गई थी। सखी और म्याऊँ को होजो के बारे में पता चलता है तो वे भी उससे बदला लेना चाहती हैं। सिद्धू को कुंगफू उनके पिता ही सिखाते हैं। सिद्धू कामयाब होता है और आखिर में पूरे परिवार का मिलन हो जाता है। पुरानी फिल्मों को देखकर भी नई कहानी ढंग से नहीं लिखी जा सकी। इस कहानी में ढेर सारे अगर-मगर हैं। माना कि सिनेमा के नाम पर थोड़ी छूट ली जा सकती हैं, लेकिन इसकी भी सीमा होती है। फार्मूला या मनोरंजक फिल्म बनाने के नाम पर दर्शकों को बेवकूफ तो नहीं समझा जा सकता। मसाला इतना भी मत डालो कि हाजमा खराब हो जाए। निर्देशक निखिल आडवाणी का प्रस्तुतिकरण भी बेहद घटिया है। ऐसा लगा कि वे सत्तर और अस्सी के दशक में बनी फिल्मों का 'चाँदनी चौक टू चाइना' के जरिये मजाक उड़ा रहे हों। फिल्म की कहानी गंभीरता की माँग करती है, लेकिन उन्होंने इसे कॉमेडी के अंदाज में पेश किया है, जिससे मामला चौपट हो गया है। कॉमेडी का भूत उन पर ऐसा सवार था कि हर दृश्य में उन्होंने कॉमेडी घुसेड़ दी चाहे वो रोमांटिक दृश्य हो, भावुक दृश्य हो या एक्शन सीन हो। कॉमेडी के नाम पर हास्यास्पद दृश्य रचे गए हैं। मिथुन चक्रवर्ती जब अक्षय कुमार को लात जमाते हैं तो अक्षय रॉकेट की तरह आसमान में जाते हैं और धड़ाम से नीचे गिरते हैं। होजो के एक आदमी को अक्षय उठाकर जोर-जोर से घुमाने लगते है तो आँधी चलने लगती है और आसपास के लोग उड़ने लगते हैं। अक्षय और दीपिका जब एक बिल्डिंग से गिरते हैं तो दीपिका छाता खोल लेती है, जो पेराशूट का काम करता है। ऐसे एक-दो दृश्य तो बर्दाश्त किए जा सकते हैं, लेकिन जब पूरी फिल्म ही ऐसी हो तो दर्शक ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ बनाने वालों की अक्ल पर सिर्फ तरस खा सकते हैं। इन दृश्यों को देखकर भला कोई कैसे हँस सकता है। पैसा खर्च करने में भी अक्ल का इस्तेमाल होता है, लेकिन निखिल आडवाणी ने निर्माताओं का पैसा बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 'सलाम-ए-इश्क' जैसी डब्बा फिल्म बनाने के बाद एक और डब्बा फिल्म उन्होंने अपने नाम कर ली है। टशन हो या सिंह इज किंग या चाँदनी चौक टू चाइना, अक्षय का किरदार हर जगह एक जैसा नजर आता है। वही जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति का। उन्हें टाइप्ड होने से बचना चाहिए। चाँदनी चौक टू चाइना में उन्होंने दर्शकों को हँसाया, लेकिन अब दोहराव महसूस होने लगा है। उनकी क्षमताओं का पूरा दोहन निर्देशक नहीं कर पाए। खासकर स्टंट दृश्यों में अक्षय का और बेहतर उपयोग किया जा सकता था। फिल्मों के चयन के मामले में उन्हें सावधानी बरतना चाहिए। दीपिका पादुकोण खूबसूरत लगीं और उन्होंने स्टंट दृश्य अच्छे से अभिनीत किए। गॉर्डन लियू ने खलनायकी के तेवर दिखाए। रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती और रणवीर शौरी ठीक-ठाक रहे। संवादों के जरिये कुछ जगह हँसने का अवसर मिलता है। चीनी भाषा में भी ढेर सारे संवाद हैं, हालाँकि उन्हें अँग्रेजी सबटाइटल के साथ दिखाया गया है, लेकिन हिंदी में उन्हें दिया जाता तो ज्यादा दर्शकों को इसका लाभ मिलता। फिल्म का तकनीकी पक्ष सशक्त है। स्टंट दृश्य, फोटोग्राफी पर बहुत मेहनत की गई है। संगीत निराशाजनक है। हिट गानों का अभाव अखरता रहता है। निर्माता : रोहन सिप्पी निर्देशक : निखिल आडवाणी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, रणवीर शौर ी, गॉर्डन लिय ू, रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती हॉलीवुड की फिल्म कंपनी वॉर्नर ब्रदर्स को रमेश सिप्पी, मुकेश तलरेजा, रोहन सिप्पी और निखिल आडवाणी ने मिलकर किस तरह चूना लगाया, इसकी मिसाल है ‘चाँदनी चौक टू चाइना’। हॉलीवुड कंपनियों के दिमाग में ये बात घुसी हुई है कि बॉलीवुड की नाच-गाने और उटपटांग हरकतों वाली फिल्में बेहद पसंद की जाती हैं। इसी बात को आधार बनाकर सिप्पियों ने ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ नामक फिल्म उन्हें टिका दी और अपनी जेबें भर लीं। फिल्म के लेखक श्रीराम राघवन ने इसकी कहानी लिखने के लिए हॉलीवुड की फिल्में देखने की भी तकलीफ नहीं उठाई। उन्होंने अपने निर्माता रमेश सिप्पी की ‘सीता और गीता’, ‘शोले’ जैसी फिल्मों से ही कहानी निकाल ली ताकि कॉपीराइट का मामला भी न हो। ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ इतनी बेसिर-पैर फिल्म है कि आश्चर्य होता है कि इस पर इतना पैसा क्यों खर्च किया गया। वॉर्नर ब्रदर्स ने इस कहानी में ऐसा क्या देखा कि वे इसमें भागीदार बन गए। शायद उन्होंने रमेश सिप्पी के पिछले रिकॉर्ड को देख पैसा लगाया होगा। सत्तर और अस्सी के दशक की ज्यादातर फिल्में मिलना-बिछुड़ना, खोया-पाया, डबल रोल, याददाश्त का चले जाना और फिर लौट आना, पुनर्जन्म, बदला, खलनायक का गाँव में आतंक फैलाना जैसे फार्मूलों पर आधारित रहती थीं। इन सब का घालमेल कर चाँदनी चौक टू चाइना में परोसा गया है। ‘ओम शांति ओम’ और ‘टशन’ के बाद चाँदनी चौक टू चाइना तीसरी ऐसी बड़ी फिल्म है जो उस दौर में बनने वाली फिल्मों पर आधारित है। चाँदनी चौक में पराठे बेचने की दुकान में काम करने वाले सिद्धू (अक्षय कुमार) के सपने बड़े-बड़े हैं। वह अमीर बनना चाहता है, लेकिन मेहनत पर उसका यकीन नहीं है। एक दिन दो चीनी उसके पास आते हैं और वे सिद्धू को एक मशहूर चीनी योद्धा का पुनर्जन्म मानते हैं। चॉपस्टिक (रणवीर शौरी) नामक दुभाषिया सिद्धू को बेवकूफ बनाकर चीन पहुँचा देता है। चीन पहुँचकर सिद्धू को पता चलता है कि उसे होजो नामक आदमी से एक गाँव को छुड़ाना है, जो बेहद खतरनाक है। गाँव के लोग सिद्धू को महान योद्धा मानते हैं, लेकिन होजो के सामने सिद्धू की पोल खुल जाती है। जब होजो सिद्धू की खूब पिटाई करता है तो वह उसे मारने की कसम खाता है। एक कुंगफू मास्टर से वह कुंगफू सीखता है और अपना बदला लेता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ में न चाँदनी चौक के पराठों की महक है और न चाइना के नूडल्स का स्वाद। इस फिल्म को देखने में पैसा खर्च करने के बजाय तो नूडल्स खरीदकर खाना बेहतर है। ",0 "बैनर : होप प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, राकेश झुनझुनवाला, आर. बाल्की निर्देशक : गौरी शिन्दे संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : श्रीदेवी, मेहदी नेबू, आदिल हुसैन, प्रिया आनंद, अमिताभ बच्चन ( मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 15 मिनट 33 सेकंड आजाद होने के बावजूद गुलामी के कुछ अंश अभी भी हमारे खून में मौजूद है। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले को या किसी गोरी चमड़ी वाले को देखते ही हम हीन भावना से ग्रस्त होकर अपने आपको कम समझने लगते हैं। भारत में तो इस समय यह आलम है कि विद्वान उसे ही माना जाता है जिसे अंग्रेजी आती है। करोड़ों भारतीय ऐसे हैं जिन्हें यह भाषा बिलकुल पल्ले नहीं पड़ती हैं और बेचारे रोजाना इस हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। इंग्लिश विंग्लिश ऐसी ही शशि नामक महिला की कहानी है जो इस भाषा में अपने आपको व्यक्त नहीं कर पाती है। उसकी दस-बारह वर्ष की लड़की पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में अपनी मां को ले जाने में शर्मिंदगी महसूस करती है क्यों उसकी मां टीचर्स से हिंदी में बात करेगी। घर पर बच्चे और पति अक्सर उसका मजाक बनाते है क्योंकि अंग्रेजी शब्दों का वह गलत उच्चारण करती है। शशि नामक किरदार के जरिये सूक्ष्मता के साथ दिखाया गया है कि किस तरह अंग्रेजी नहीं जानने वाला शख्स बैंक, एअरपोर्ट या बड़े होटल में जाने में घबराता है। न्यूयॉर्क में शशि एक रेस्तरां में अपने लिए कॉफी खरीदने जाती है तो उससे अंग्रेजी में ऐसे बात की जाती है कि बेचारी घबरा जाती है। अंग्रेजी में जब उसके आसपास के लोग बात करते हैं तो उसे नींद आने का बहाना बनाकर वहां से उठना पड़ता है ताकि उनके बीच वह बेवकूफ न लगे। शशि अपनी बहन की बेटी की शादी के लिए न्यूयॉर्क जाती है और वहां अंग्रेजी सीखने का फैसला करती है। क्लास में उसका परिचय ऐसे कई लोगों से होता है जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं। लेकिन इसको लेकर न उनमें शर्मिंदगी है और न ही उनका मजाक बनाया जाता है। भारत, स्पेन, चीन, फ्रांस से ये लोग आए हैं और अमेरिका में रहने के लिए अंग्रेजी सीखते हैं। यहां यह बताने की कोशिश की गई है कि भारत में अंग्रेजी का हौव्वा बनाया गया है और माहौल ऐसा बनाया गया है कि अंग्रेजी में बात करना विद्वता की निशानी है। टूटी-फूटी हिंदी या क्षेत्रीय भाषा यदि कोई बोलता है तो उसका कोई मजाक नहीं बनाया जाता। फिल्म दो ट्रेक पर चलती है। एक शशि की अंग्रेजी में कमजोरी और दूसरा, इस हाउसवाइफ को घर में सम्मान नहीं मिलता। वैसे वह बूंदी के लड्डू बनाकर बेचती है, लेकिन इसे बहुत छोटा काम समझा जाता है। शशि के लड्डू को यदि कोई बेहद स्वादिष्ट बताता है तो उसका पति यह कहकर शशि का मजाक उड़ाता है कि ये तो पैदा ही लड्डू बनाने के लिए हुई है। न्यूयॉर्क में जब शशि अकेली इंग्लिश क्लास में जाती है और थोड़ी-बहुत इस भाषा से परिचित होती है तो उसकी चाल में आत्मविश्वास नजर आने लगता है। क्लास में एक फ्रेंच पुरुष शशि की ओर आकर्षित होता है और पूरी क्लास के सामने उसकी सुंदरता की तारीफ करता है। शशि को बुरा जरूर लगता है, लेकिन यहां से वह खुद से प्यार करने लगती है और उसकी एक नई यात्रा शुरू होती है। न चाहते हुए भी फिल्म यह बात रेखांकित करती है कि अंग्रेजी महत्वपूर्ण भाषा है क्योंकि अंग्रेजी सीखने के बाद शशि का आत्मविश्वास और सम्मान दोनों बढ़ जाता है। हालांकि न्यूयॉर्क से भारत लौटते समय वह हवाई जहाज में हिंदी अखबार पढ़ने को मांगती है और इसके जरिये यह दिखाने की कोशिश की गई है कि उसके लिए हिंदी भी महत्वपूर्ण है, लेकिन केवल सिर्फ एक सीन से बात नहीं बनती। फिल्म जिस थीम से शुरू होती है उसका निर्वाह अंत में नहीं करती है। विज्ञापन फिल्म बनाने में गौरी शिंदे का बड़ा नाम है और फीचर फिल्म बनाकर उन्होंने साबित किया कि वे इस माध्यम की गहरी समझ रखती है। इंग्लिश विंग्लिश न केवल हंसाती है या रुलाती है बल्कि सोचने पर भी मजबूर करती है। फिल्म का मूड उन्होंने बेहद हल्का-फुल्का रखा है। बीच में कहानी इंच भर भी नहीं खिसकती है, लेकिन गौरी शिंदे ने फिल्म को बिखरने नहीं दिया। फ्रेंच पुरुष के शशि के प्रति आकर्षण को उन्होंने बखूबी दिखाया है। दोनों के बीच कुछ दृश्य में वह फ्रेंच बोलता है और शशि हिंदी, लेकिन दोनों एक-दूसरे की बात समझ जाते हैं। कही-कही भाषा की जरूरत नहीं होती है और केवल भाव से हम सामने वाले के मन की अंदर की बात जान लेते हैं। लगभग 15 वर्ष बाद श्रीदेवी की वापसी हुई है, लेकिन कैमरे के सामने अभिनय करना वे नहीं भूली हैं। इन पन्द्रह वर्षों में उन्हें सैकड़ों फिल्मों के प्रस्ताव मिले, लेकिन सही स्क्रिप्ट की उनकी तलाश ‘इंग्लिश विंग्लिश’ पर आकर खत्म हुई और उनका चुनाव एकदम सही है। शशि की झुंझलाहट, उपेक्षा और आत्मविश्वास को उन्होंने बेहद शानदार तरीके से स्क्रीन पर पेश किया। आदिल हुसैन, सुलभा देशपांडे सहित तमाम कलाकारों का अभिनय शानदार है जो परिचित चेहरे नहीं हैं। अमिताभ बच्चन दो-तीन सीन में नजर आते हैं और ये सीन हटा भी दिए जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। इंग्लिश विंग्लिश एक अनोखे विषय, शानदार निर्देशन और श्रीदेवी के बेहतरीन अदाकारी की वजह से देखी जा सकती है। ",1 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com 'कपूर ऐंड सन्स' 80-90 के दशक वाली एक फैमिली ड्रामा फिल्म है। डायरेक्टर ने मल्टिप्लेक्स कल्चर और यूथ को दिमाग में रखते हुए इसमें लव एंगल फिट किया है। कहानी रियल कपूर परिवार से जुड़ी हुई नहीं है। बतौर प्रड्यूसर करण जौहर की हाल में आईं कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा नहीं कर पाई हैं। ऐसे में 35 करोड़ के बजट में 'कपूर ऐंड सन्स' को उन्हें काफी उम्मीदें हैं। इसके लिए उन्होंने यंग डायरेक्टर और एक्टर शकुन बत्रा को इसकी कमान सौंपी है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें Nbt Movies कहानी : फिल्म की कहानी करीब 90 साल के हो चुके रंगीन मिजाज दादाजी अमरजीत कपूर (ऋषि कपूर) उनके बेटे हर्ष कपूर (रजत कपूर) के साथ-साथ उनके दोनों पोते राहुल कपूर (फवाद खान) और अर्जुन कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) की है। राहुल लंदन में पिछले करीब आठ साल से रह रहे हैं तो वहीं छोटा बेटा अर्जुन न्यू जर्सी में रहता है। दोनों राइटर हैं। फ्लॉप किताब लिखने के बाद राहुल की दूसरी किताब कामयाब रही। दूसरी ओर अपनी पहचान बनाने के लिए अर्जुन का स्ट्रगल जारी है। साउथ इंडिया के कुन्नूर शहर में अपने बेटे हर्ष के साथ रह रहे दादाजी को एकदिन अचानक दिल का दौरा पड़ता है। दोनों भाई घर वापस आते हैं। घर आने के बाद इन दोनों के रिश्तों में टेंशन साफ नजर आती है। छोटे भाई अर्जुन को लगता है राहुल ने जिस उपन्यास से रातोंरात कामयाबी पाई उसका आइडिया उसका था और राहुल ने उसे चुराकर उपन्यास लिखा। वहीं राहुल और अर्जुन की मां सुनीता कपूर (रत्नाशाह पाठक) और पिता हर्ष कपूर (रजत कपूर) के रिश्ते में भी कड़वाहट है। हर्ष की पर्सनल लाइफ में एक दूसरी महिला भी है, जिस वजह से सुनीता और हर्ष के बीच हर वक्त टेंशन रहती है। बैंक की नौकरी छोड़ने के बाद हर्ष ने जो बिज़नस किया वही ठीक नहीं चला। अर्जुन को घर आने के बाद भी यही लगता है कि मां-बाप राहुल को ज्यादा चाहते हैं। दोनों भाइयों को घर आने के बाद माता-पिता के बीच टूटते रिश्ते के बारे में पता चलता है। ऐसे में उनकी लाइफ में टिया (आलिया भट्ट) की एंट्री होती है। टिया मुंबई से यहां अपना बरसों पुराना बंगला बेचने आई हुई हैं। दूसरी ओर, दादाजी की बस एक ही ख्वाहिश है कि मरने से पहले अपनी पूरी फैमिली के साथ एक फैमिली फोटोग्राफ हो जाए। डायरेक्शन : शकुन की तारीफ करनी होगी कि स्टार्ट टु लास्ट तक उन्होंने कहानी को सही ट्रैक पर रखा और पूरी फिल्म को पारिवारिक माहौल के आसपास रखा। फिल्म की स्क्रिप्ट जानदार है, लेकिन इंटरवल के बाद शकुन ने फिल्म की रफ्तार काफी स्लो कर दी। क्लाइमैक्स को कुछ ज्यादा ही लंबा किया गया है। ऐक्टिंग : ऋषि कपूर ने रंगीन मिजाज जिंदादिल दादा जी के किरदार में बेहतरीन ऐक्टिंग की है। दादा जी का यह किरदार आपको पूरा एंटरटेन करेगा। सिद्धार्थ,फवाद ने अपने-अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। छोटे भाई के रोल में सिद्धार्थ खूब जमे हैं तो वहीं फवाद ने बड़े भाई के रोल में जान डाल दी है। आलिया भट्ट कई सीन्स में ओवरऐक्टिंग की शिकार रहीं तो उनका किरदार उनकी कई पिछली फिल्मों की कॉपी जैसा लगता है। रजत कपूर और रत्ना शाह ने अपने किरदारों को बेस्ट प्ले किया है। बॉलिवुड में दो भाइयों के बीच अनबन, फैमिली के बीच टूटते रिश्तों को लेकर अब तक दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, दरअसल, ऐसे सब्जेक्ट में डायरेक्टर को हर तरह का मसाला परोसने की काफी हद तक छूट मिल जाती है, और इन्हीं में से कोई एक मसाला फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट बना देता है। यह फिल्म भी कुछ इसी तरह की थीम पर बनी है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का गाना 'लड़की ब्यूटिफुल कर गई चुल' पहले ही म्यूजिक चार्ट में टॉप पर है। क्यों देखें : बेहतरीन ऐक्टिंग, गजब लोकेशन के बीच ऐसी फैमिली कहानी जो कहीं न कहीं आपके दिल को छूती है। टूटते परिवारों और रिश्तों में कड़वाहट के बीच ऋषि कपूर का यादगार अभिनय है फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। ",0 " PR PR निर्माता : बालागिरी निर्देशक : अजय चंडोक संगीत : डब्बू मलिक कलाकार : अरशद वारसी, उदिता गोस्वामी, आशीष चौधरी, आरती छाबरिया, श्वेता मेनन, यश टोंक, शक्ति कपूर, आशीष विद्यार्थी सुनते हैं कि ’किससे प्यार करूँ’ के नायक अरशद वारसी ने इस फिल्म का प्रमोशन करने से इनकार कर दिया। क्यों? क्योंकि फिल्म अच्छी नहीं बनी है। अरशद ने ऐसा करके सही किया या गलत, ये अलग बात है, लेकिन जब अभिनय करने वाले का ही फिल्म में मन नहीं लग रहा था, तो दर्शकों का मन कैसे बहल सकता है। इस फिल्म में हर चीज सस्ती है। सस्ता निर्देशक, सस्ते हीरो, सस्ती हीरोइन, सस्ते तकनीशियन। सस्ते लोगों का काम भी सस्ता है। कहने को तो ये कॉमेडी फिल्म है, लेकिन फिल्म देखते समय दो-चार जगह हँसी आ जाए तो इसे फिल्म की कामयाबी माना जाना चाहिए। हास्य के नाम पर ओवर एक्टिंग की गई है, अटक-अटककर संवाद बोले गए हैं और तरह-तरह के चेहरे बनाए गए हैं। अभिनय में हँसाना बेहद कठिन काम माना जाता है और यह हर किसी के बस की बात नहीं है। आशीष चौधरी, यश टोंक और आरती छाबरिया जैसे कलाकार कैसे किसी को हँसा सकते हैं, जो अभिनय के नाम पर ठीक तरह से रो भी नहीं सकते। सिद (अरशद वारसी), जॉन (आशीष चौधरी) और अमित (यश टोंक) बेहद अच्छे दोस्त हैं। नताशा (आरती छाबरिया) को जॉन बेहद चाहता है, लेकिन प्यार का इजहार नहीं कर पाता। नताशा एक दिन कहीं चली जाती है और जॉन उदास हो जाता है। उसके दोस्त ये उदासी नहीं देख पाते। वे शीतल (उदिता गोस्वामी) को जॉन के नजदीक लाते हैं, लेकिन उनका पाँसा उन पर ही उल्टा पड़ जाता है, जब शीतल जॉन और उसके दोस्तों के बीच दरार डाल देती है। उसकी निगाह जॉन की सम्पत्ति पर है। किस तरह से वे जॉन को उसके चंगुल से छुड़ाते हैं, ये फिल्म का सार है। कहानी के नाम पर कुछ भी नहीं है। हँसाने के नाम पर कुछ दृश्यों को जोड़ दिया गया है और हो गई फिल्म तैयार। दर्शकों को हँसाने के लिए लॉजिक को भी किनारे रख दिया गया है, लेकिन फिर भी वे कामयाब नहीं हो पाए। बीच में कुछ गाने और एक्शन दृश्य को भी ठूँसा गया है। यूनुस सेजवाल ने लेखन का काम इस तरह किया है मानो वे पच्चीस वर्ष पुराने दर्शकों के लिए फिल्म लिख रहे हों। निर्देशक अजय चंडोक ने कलाकारों को पूरी छूट दे दी और जिसने जैसा भी अभिनय किया, उसे उन्होंने वन टेक में ओके कर दिया। अभिनय में अरशद वारसी और श्वेता मेनन ही ठीक-ठाक रहे। कुल मिलाकर ‘किस से प्यार करूँ’ प्यार के लायक नहीं है। ",0 "डर्टी पॉलिटिक्स में पहले ही बता दिया गया है कि कहानी काल्पनिक है, जबकि सभी जानते हैं कि प्रेरणा कहां से ली गई है। फिल्म की कहानी में इतना दम तो है कि इस पर एक अच्छी मसाला फिल्म बनाई जा सके, लेकिन उबाऊ फिल्म बना दी गई है। निर्देशक हैं केसी बोकाड़िया जिन्होंने अस्सी और नब्बे के दशक में अनेक सफल मसाला फिल्में बनाई हैं, अफसोस की बात है कि उनका प्रस्तुतिकरण अभी भी उसी दौर का है जबकि दर्शकों की रूचि अब बहुत बदल गई है। यह फिल्म गंदी राजनीति की बात करती है जिसमें नेता अपना हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बूढ़े नेता दीनानाथ (ओमपुरी) का दिल नाचने वाली खूबसूरत अनोखी देवी (मल्लिका शेरावत) पर आ जाता है। दीनानाथ अपने साथी दयाल (आशुतोष राणा) के जरिये अनोखी देवी को ऊंचे सपने दिखाता है। पैसे और पॉवर का जादू अनोखी पर चल जाता है। लालच में वह दीनानाथ की हर मुराद पूरी करती है। चुनाव में अनोखी को दीनानाथ उसके पसंदीदा शहर से टिकट नहीं दिलवा कर अपने पठ्ठे मुख्तार (जैकी श्रॉफ) को टिकट दिला देता है। अनोखी को यह बात चुभ जाती है। वह दीनानाथ के काले कारनामों की सीडी उजागर करने की धमकी देती है। दीनानाथ अपनी इज्जत बचाने के लिए अनोखी का कत्ल करा देता है और किसी को कानों कान खबर नहीं होती। अनोखी देवी के अचानक गायब होने के मामले को एक ईमानदार व्यक्ति मनोहर सिंह (नसीरुद्दीन शाह) उठाता है। सीबीआई जांच बैठाई जाती है। क्या शक्तिशाली नेता दीनानाथ तक पुलिस पहुंच पाती है? यह फिल्म का सार है। कहानी में कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके जवाब नहीं मिलते। मुख्तार क्यों अनोखी देवी को मारने के लिए तैयार हो जाता है, यह स्पष्ट नहीं है। दयाल मन ही मन दीनानाथ से जलता है, इसके बावजूद वह उसकी हमेशा मदद क्यों करता है, ये समझ से परे है। इसके अलावा खराब स्क्रिप्ट और निर्देशन इस फिल्म को ले डूबा। केसी बोकाड़िया ने आधी से ज्यादा फिल्म एक ही बंगले में शूट कर डाली और ताबड़तोड़ काम खत्म किया। फिल्म में पात्र इतनी बक-बक करते हैं कि दर्शक पक जाते हैं। फिल्म में एक्शन कम और बातचीत बहुत ज्यादा है। बोकाड़िया शायद भूल गए कि वे फिल्म बना रहे हैं कोई रेडियो कार्यक्रम नहीं। फिल्म में बेमतलब के ढेर सारे दृश्य हैं जिनके कारण फिल्म उबाऊ और थका देने की हद तक लंबी हो गई है। अनोखी देवी फिल्म का मुख्य पात्र है, लेकिन उस पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई। उसकी लालच को निर्देशक ठीक से दिखा नहीं पाए। उसकी तुलना में विलेन दीनानाथ पर ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं। अनोखीदेवी की हत्या वाले महत्वपूर्ण प्रसंग को भी सतही तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म का कमजोर अंत लेखक की कमजोरी को उजागर करता है। ढेर सारे प्रतिभाशाली कलाकारों के जरिये केसी बोकाड़िया ने अपनी सीमित प्रतिभा को ढंकने की कोशिश की है, लेकिन कामयाब नहीं रहे। अच्छी स्क्रिप्ट के अभाव में ये कलाकार आखिर कब तक किला लड़ा सकते थे। मल्लिका शेरावत ने थोड़ी-बहुत एक्टिंग के साथ एक्सपोज भी किया। ओम पुरी ने भ्रष्ट नेता का रोल अच्छी तरह से निभाया, लेकिन वे उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए जिस एक्टर ओम पुरी को हम जानते हैं। नसीरुद्दीन शाह, आशुतोष राणा, अनुपम खेर, गोविंद नामदेव, जैकी श्रॉफ, सुशांत सिंह, अतुल कुलकर्णी के हिस्से जितना आया उन्होंने अच्छी तरह से निभाया। कुल मिलाकर 'डर्टी पॉलिटिक्स' ऐसी फिल्म नहीं है जिस पर पैसा और समय खर्च किया जाए। बैनर : बीएमबी म्युजिक एंड मेग्नेटिक्स लि. निर्देशक : केसी बोकाड़िया संगीत : आदेश श्रीवास्तव, संजीव दर्शन, रॉबी बादल कलाकार : मल्लिका शेरावत, ओम पुरी, जैकी श्रॉफ, अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह, आशुतोष राणा, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 13 मिनट ",0 "शराबबंदी का मुद्दा इस समय भारत के कुछ प्रदेशों में गरमाया है। कुछ राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए इसे अहम मानते हैं। गुजरात में वर्षों से मदिरा पर रोक है, बावजूद इसके वहां पर चोरी-छिपे पच्चीस हजार करोड़ रुपये की शराब साल भर में पी जाती है। बिना भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स और नेताओं के ये संभव नहीं है। माफियाओं और भ्रष्टों को इसके जरिये एक व्यवसाय हाथ लग गया है और रईस (शाहरुख खान) जैसे लोग इस शराबबंदी की ही देन है जो अवैध रूप से शराब पियक्कड़ों तक पहुंचाते हैं। रईस की कहानी गुजरात के एक तस्कर से प्रेरित है, हालांकि फिल्म से जुड़े लोग इसे नकारते हैं। शायद उन्होंने किरदार और कुछ वास्तविक घटनाओं को लेकर कुछ कल्पना के रेशे अपने तरफ से डाल दिए हो। फिल्म की कहानी अस्सी के दशक में सेट है। जब टीवी ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन हो रहा था। रईस बेहद गरीब परिवार से है और चश्मा खरीदने के पैसे भी उसके पास नहीं है। उसकी मां की बात 'कोई धंधा छोटा या बुरा नहीं होता' उसके दिमाग में बैठ जाती है। बचपन से ही वह शराब की बोतल एक जगह से दूसरी जगह ले जाना शुरू कर देता है। जवान होते ही वह खुद का धंधा करने की सोचता है ताकि ज्यादा माल कमा सके। वह अवैध शराब के व्यवसाय को बुरा नहीं मानता क्योंकि इससे किसी का बुरा नहीं होता। देखते ही देखते नेताओं और पुलिस के संरक्षण में रईस खूब पैसा कमा लेता है। पुलिस ऑफिसर मजमूदार (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) बेहद ईमानदार और अवैध शराब का व्यापार करने वालों का काल है, लेकिन रईस उसके हाथ नहीं लगता। हर बार वह मजमूदार को आंखों में धूल झोंक देता है। जब मजमूदार उस पर भारी पड़ता है तो रईस उसका ट्रांसफर तक करा देता है। का बिल की फिल्म स मीक्षा पढ़ने के लिए क्लिक करें रईस से हारना मजमूदार को पसंद नहीं आता। वह दूसरे शहर से भी रईस पर निगाह रखता है। पैसा कमा कर रईस रॉबिनहुड जैसा व्यवहार करने लगता है। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है और वह नेताओं की आंखों की किरकिरी बन जाता है। धीरे-धीरे रईस को समझ आता है कि वह नेताओं के हाथ की कठपुतली बन गया है। मुसीबत में घिरे रईस से ऐसी गलती हो जाती है कि मजमूदार उसकी जान के पीछे पड़ जाता है। फिल्म को आशीष वाशी, नीरज शुक्ला और हरित मेहता ने लिखा है। स्क्रिप्ट में दर्शाया गया है कि किस तरह नेता और पुलिस अपने हित साधने के लिए रईस जैसे अपराधियों का भी इस्तेमाल करते हैं। इसे शराबबंदी, दंगों और बम ब्लॉस्ट से जोड़ा गया है। बॉलीवुड में इस तरह कई फिल्में आ चुकी हैं, लेकिन 'रईस' की स्क्रिप्ट इस तरह लिखी गई है कि दोहराई गई चीजों को एक बार फिर स्क्रीन पर देखना अच्छा लगता है। कई उतार-चढ़ाव स्क्रिप्ट में दिए गए हैं, जो दर्शकों की फिल्म में रूचि बनाए रखते हैं। बॉलीवुड कमर्शियल फिल्मों के मसाले यहां संतुलित नजर आते हैं। जोरदार संवाद, एक्शन, हीरो की अकड़, चोर-पुलिस का खेल फिल्म को रोचक बनाते हैं। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिन पर तालियां और सीटियां बजती हैं। मसलन रईस की एंट्री, मजमूदार की एंट्री, मजमूदार और रईस के बीच डायलॉगबाजी, लैला गाने के बीच दिखाए गए एक्शन दृश्य, रईस के बचपन के दृश्य, मजमूदार द्वारा रईस का ट्रक पकड़ना और उसमें से चाय का गिलास निकलना, जयराज की घड़ी रईस द्वारा लौटाना, जैसे कई दृश्य फिल्म को लगातार धार देते रहते हैं। फिल्म के एक्शन सीन भी जबरदस्त हैं। हालांकि खून-खराबा ज्यादा है जिसे कुछ दर्शक नापसंद भी करे, लेकिन एक्शन दृश्यों के लिए सिचुएशन अच्छी बनाई गई है। फिल्म का पहला हाफ शानदार है। तेज गति से भागती फिल्म और रईस का किरदार छाप छोड़ता है। चोर-पुलिस का खेल रोचक लगता है, लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म खींची हुई लगने लगती है जब रईस अपने आपको मसीहा बनाने की कोशिश करता है। यहां पर फिल्म ट्रेक से छूटने लगती है। रईस का रोमांटिक ट्रेक कमजोर है। यह फिल्म में नहीं भी होता तो खास फर्क नहीं पड़ता। शायद शाहरुख खान रोमांस के बादशाह कहलाए जाते हैं इसलिए रोमांस को महत्व दिया गया है, लेकिन यह अधूरे मन से रखा गया है। गाने चूंकि लोकप्रिय नहीं हैं इसलिए फिल्म देखते समय व्यवधान उत्पन्न करते हैं। अच्छी बात यह है कि इन स्पीड ब्रेकर्स के बीच अच्छे दृश्य आ जाते हैं और फिल्म को संभाल लेते हैं। कुछ लोगों को यह भी शिकायत हो सकती है कि एक अपराधी को फिल्म महामंडित करती है, हालांकि मनोरंजन की आड़ में यह बात दब जाती है। फिल्म का निर्देशन राहुल ढोलकिया ने किया है। राहुल ने इसके पहले 'लम्हा' जैसी बुरी फिल्म बनाई थी। यहां पर उन्हें बड़ा कैनवास और सुपरस्टार का साथ मिला है। फिल्म की कहानी साधारण है, लेकिन राहुल का जोरदार प्रस्तुतिकरण फिल्म को देखने लायक बनाता है। कहानी अस्सी के दशक की है इसलिए राहुल ने कही-कही अपना प्रस्तुतिकरण उस दौर की फिल्मों जैसा भी रखा है, जैसे हीरो का बचपन दिखाया गया है। पहले, जैसे भागते हुए बच्चे, वयस्क बन जाते थे, वैसे ही यहां पर मोहर्रम में मातम बनाता हुआ हीरो जवान हो जाता है। सुपरस्टार की छवि को देखते हुए और उनके प्रशंसकों को खुश करने के लिए राहुल ने रईस के किरदार पर काफी मेहनत की है। उनकी यह कोशिश कामयाब भी रही है कि फिल्म देखने के बाद दर्शकों को रईस याद रहता है। शाहरुख की खासियत को निर्देशक ने बखूबी उभारा है। फिल्म के अंत में वे रईस के किरदार को एक हीरो का रूप देने में भी सफल रहे हैं। फिल्म के संवाद शानदार हैं। 'दिन और रात तो लोगों के होते हैं, शेरों का तो जमाना होता है' जैसे कई संवाद सुनने को मिलते हैं। राम संपत का बैकग्राउंड म्युजिक उल्लेखनीय है। गाने जरूर कमजोर हैं। पुराने गाने 'लैला' में अभी भी दम है और यही ऐसा गीत है जो देखने और सुनने में अच्छा लगता है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी बहुत बढ़िया नहीं कही जा सकती है। शाहरुख खान ने जिस तरीके से पिछली कुछ फिल्में की थीं उनके चयन पर उंगलियां उठने लगी थीं। इस बार शाहरुख खान ने कुछ हद तक शिकायत को दूर किया है। बहुत दिनों बाद वे देशी फिल्म में नजर आए हैं। वे अक्सर उन किरदारों में अच्छे लगते हैं जिसमें ग्रे शेड्स होते हैं। यहां पर शाहरुख अपने अभिनय और स्टारडम के बल पर पूरी फिल्म का भार उठाते हैं। पठानी सूट, चश्मा, आंखों में काजल और दाढ़ी उनके किरदार पर सूट होती है। बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेअरिंग उनके अभिनय में झलकती है। माहिरा खान दिखने में औसत हैं, लेकिन उनका अभिनय अच्छा है। पुलिस ऑफिसर के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय जबरदस्त है। खासतौर पर उनके संवाद बोलने की शैली दाद देने लायक है। वे स्क्रीन पर जब भी आते हैं छा जाते हैं। शाहरुख के दोस्त के रूप में जीशान अली अय्यूब, अतुल कुलकर्णी, नरेंद्र झा सहित तमाम कलाकारों का काम बढ़िया है। 'लैला' गाने में आकर सनी लियोन माहौल को गरमा देती हैं। रईस की कहानी रूटीन जरूर है, लेकिन इसमें दर्शकों को खुश करने का भरपूर मसाला है। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, गौरी खान निर्देशक : राहुल ढोलकिया संगीत : राम संपथ कलाकार : शाहरुख खान, माहिरा खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, शीबा चड्डा, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, अतुल कुलकर्णी, सनी लियोन (आइटम नंबर) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 24 मिनट ",1 "बैनर : स्पलिट इमेज पिक्चर्स, वीनस रेकॉर्डस एंड टेप्स निर्माता : गोविंद मेनन, विक्रम सिंह निर्देशक : जेनिफर लिंच कलाकार : मल्लिका शेरावत, जेफ डॉसिट, इरफान खान, दिव्या दत्ता * केवल वयस्कों के लिए * 1 घंटा 44 मिनट * 12 रील मल्लिका शेरावत ‘हिस्स’ फिल्म के प्रचार के लिए कह रही हैं कि वे देखने वालों की नींदे उड़ा देंगी, सही कह रही हैं। बोर फिल्म देखने के बाद तो नींद आ जाती है, लेकिन ‘हिस्स’ जैसी बुरी फिल्म देखने के बाद नींद आ ही नहीं सकती। मल्लिका ने इस फिल्म के लिए बॉलीवुड फिल्मों के ऑफर ठुकरा दिए। लंबा समय हॉलीवुड में बिताया। पोस्ट प्रोडक्शन पर महीनों काम चला, लेकिन मामला टाँय-टाँय फिस्स हो गया। एक अंग्रेज को कैंसर है। छ: महीने उसके पास बचे हैं। वह भारत आकर नागमणि हासिल करना चाहता है ताकि अमर हो जाए। एक नाग को वह पकड़ लेता है, ताकि नागिन उसके पास आए और बदले में वह उससे मणि हासिल कर सके। इस दो लाइन की कहानी को भी ठीक से पेश नहीं किया गया है। स्क्रीनप्ले में न तो मनोरंजन है और लॉजिक को भी दरकिनार रख दिया गया है। नागिन के अलावा इरफान खान, उनकी पत्नी और सास वाला ट्रेक भी है, जो बेहद कमजोर और बोरिंग है। पूरी फिल्म में नागिन बनी मल्लिका शेरावत एक भी शब्द नहीं बोलती है। ठीक है, नागिन इंसानों की भाषा नहीं जानती, लेकिन जब वे मनुष्य का रूप धारण कर सकती है तो बोल भी सकती थी। इससे अच्छी तो हमारी बॉलीवुड फिल्में हैं, जिसमें इच्छाधारी नागिन न केवल बोलती थी, बल्कि गाती और डांस भी करती थी। कम से कम मनोरंजन तो होता था। निर्देशक जेनिफर लिंच ने एक विदेशी नजरिये से भारत को देखा है। तंग गलियाँ, पुराने मकान, गंदगी, गटर, जाहिल किस्म के लोगों का बैकड्रॉप उन्होंने रखा है। उनके प्रजेंटेशन में से एंटरटेनमेंट गायब है। न ही ड्रामे में कोई उतार-चढ़ाव है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्‍स की बड़ी चर्चा थी, लेकिन इनमें कोई खास बात नजर नहीं आती है। मल्लिका शेरावत का अभिनय निराशाजनक है। सिवाय इधर-उधर घूमने के उन्होंने कुछ नहीं किया है। इरफान खान जैसे अभिनेता को इस तरह की भूमिका में देख आश्चर्य होता है। उनके द्वारा अभिनीत घटिया फिल्मों में की सूची में ‘हिस्स’ का नाम जरूर शामिल रहेगा। जैफ डॉसिटी और दिव्या दत्ता भी कोई असर नहीं छोड़ते हैं। ‘हिस्स’ के बजाय तो इच्छाधारी नागिन पर आधारित पुरानी फिल्में देखना लाख गुना बेहतर है। ",0 "chandermohan.sharma@timesgroup.com यंग डायरेक्टर नित्या मेहरा इस फिल्म से पहले ही ‘लाइफ ऑफ ए पाई’ जैसी कामयाब फिल्म से शोहरत बटोर चुकी हैं। बेशक, नित्या हॉलिवुड फिल्म की सहायक डायरेक्टर रहीं, लेकिन हॉलिवुड फिल्म के साथ जुड़ने का फायदा उन्हें बॉलिवुड में बतौर डायरेक्टर डेब्यू करते वक्त मिला। नित्या ने अपनी पहली फिल्म के लिए अलग विषय चुना, लेकिन नया सब्जेक्ट चुनने के बावजूद उन्होंने सब्जेक्ट और किरदारों पर ज्यादा होमवर्क करने के बजाए इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने में कुछ ज्यादा ही जल्दी दिखाई। इंटरवल से पहले तक ट्रैक पर अपनी रफ्तार से चल रही यह फिल्म इंटरवल के बाद भटक जाती है। फिल्म का सब्जेक्ट नया और मजेदार है, लेकिन प्रस्तुतीकरण की बात करे तो यहां फिल्म कमजोर नजर आती है। कटरीना का बदला नया बोल्ड लुक, कॉस्टयूम बेहतरीन लोकेशन और काला चश्मा जैसा हिट गाना इस फिल्म को कुछ दिलचस्प बनाता है। कहानी: जय वर्मा (सिद्धार्थ मल्होत्रा) दिल्ली के एक कॉलेज में प्रफेसर है। जय अपनी पुरानी दोस्त दीया कपूर (कटरीना कैफ) के साथ लंबे अर्से से रिलेशनशिप में है। अब इन दोनों की जल्दी ही शादी होने वाली है। इसी दौरान अचानक एक दिन जय वर्मा को कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से जॉब की ऑफर मिलती हैं। जय अपने करियर को सबसे ज्यादा महत्व देता है और इस नई जॉब को लेकर काफी उत्साहित है। जय विदेश में सेटल होना चाहता है, लेकिन मुश्किल यह है कि दीया के पापा (राम कपूर) नहीं चाहते कि उनका होने वाला दामाद विदेश में इस नई जॉब के लिए जाए। हालात ऐसे बनते है कि अब जय शादी करने से कतराने लगता है। यहीं से कहानी एक अलग टर्न लेती है। अब जय अपने आने वाले कल यानी भविष्य में आ चुका है, यहां आकर उसे महसूस होने लगता है कि दीया के साथ उसकी दोस्ती और लंबी रिलेशनशिप का उसकी अपनी पर्सनल लाइफ में कितना महत्व है। जय भविष्य के बारे में बहुत कुछ जानने लगता है, इसी दौरान एकबार फिर जय और दीया की लाइफ में कुछ अलग होने लगता है। ऐक्टिंग: जय वर्मा के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने मेहनत की है। इस किरदार में सिद्धार्थ कई अलग-अलग शेड्स में नजर आए। यंग प्रोफेसर से लेकर भविष्य में नजर आने वाले जय वर्मा को इस किरदार में वह अलग-अलग आयु में दिखाया गया। फितूर के लंबे अर्से बाद अब इस फिल्म में नजर आई कटरीना कैफ ने भी अपने किरदार को पूरी एनर्जी और दिल लगाकर निभाया है। इस बार कटरीना का स्क्रीन पर आपको कुछ बोल्ड रूप नजर आएगा ,लेकिन यह किरदार की डिमांड थी और इस बार कैट खरी उतरीं। कटरीना के पापा के रोल में राम कपूर फिट रहे, लेकिन कई सीन्स में उनके बोलने का अंदाज कुछ ज्यादा ही लाउड हो जाता है। स्यानी गुप्ता और रंजीत कपूर अपने रोल में बस ठीकठाक रहे। निर्देशन: यकीनन यंग डायरेक्टर नित्या मेहरा ने बॉलिवुड में करियर की शुरुआत के लिए एक ऐसा सब्जेक्ट चुना, जिस पर फिल्म बनाने से डायरेक्टर कतराते हैं। वर्तमान से भविष्य तक घूमती ऐसी कहानी जो सिर्फ दो-तीन किरदारों के इर्दगिर्द ही घूमती हो ऐसे सब्जेक्ट पर ढाई घंटे तक दर्शकों को बांधकर रखना आसान नहीं है। लेकिन स्क्रिप्ट में नयापन होने के साथ साथ थाइलैंड की बेहतरीन, दिलकश लोकेशन, कैटरीना-सिद्धार्थ की जोड़ी को डिफरेंट अंदाज में पेश करने की वजह से दर्शक इंटरवल तक तो फिल्म के साथ बंध पाता है। नित्या ने फिल्म की शुरुआत गुजरा हुआ कल, आज और आने वाले कल के सब्जेक्ट को लेकर की लेकिन इंटरवल तक कहानी में कुछ नया नहीं होने की वजह से फिल्म की रफ्तार सुस्त हो जाती है। अगर नित्या फिल्म के स्क्रीनप्ले पर फिल्म की शुरुआत से पहले कुछ और ज्यादा काम करती तो यकीनन दर्शक इस फिल्म को एकबार फिर देखने आ जाते। संगीत: इस फिल्म की रिलीज से पहले प्रॉडक्शन कंपनी ने काला चश्मा को जमकर प्रमोट किया। गाने में कैट और सिद्धार्थ का अंदाज और लुक देखने लायक है। गाने के फिल्माकंन पर अच्छी-खासी मेहनत की गई है। यही गाना फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है, बाकी गाने बस कामचलाऊ हैं। क्यों देखें: अगर आप कैटरीना के जबर्दस्त फैन है और धूम 3 के बाद अपनी चहेती ऐक्ट्रेस को बिंदास, सेक्सी और हॉट अंदाज में देखने को बेताब है तो इस फिल्म को बार-बार तो नहीं एकबार देखा जा सकता है। ",1 "फंस गए रे ओबामा (2010) और जॉली एलएलबी (2013) जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले लेखक और निर्देशक सुभाष कपूर 'गुड्डू रंगीला' में अपने बनाए गए स्तर से फिसल कर नीचे आ गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में सुभाष ने फिल्म बनाई है, लेकिन न वे दर्शकों का मनोरंजन कर पाएं और न ही खाप पंचायत वाले मुद्दे को ठीक से उभार पाए। बीइंग हनुमान और ऑफ्टर व्हिस्की आई एम रिस्की लिखे जैकेट और टी-शर्ट पहनने वाले गुड्डू (अमित सध) और रंगीला (अरशद वारसी) ममेरे भाई हैं। हरियाणा के गांवों में 'कल रात माता का ईमेल आया है' जैसे गाने गाकर वे लोगों का दिल बहलाते हैं। इसी बहाने वे यह भी पता लगा लेते हैं कि लोगों के घरों में कितना माल है। इसकी जानकारी वे डकैतों को देते हैं और यह भी उनके पैसे कमाने का एक जरिया है। गुड्डू और रंगीला की ये हरकत पुलिस को पता चल जाती है। थानेदार दस लाख रुपये मांगता है। इसी बीच उन्हें एक लड़की बेबी (अदिति राव हैदरी) को चंडीगढ़ से उठाकर दिल्ली ले जाने का काम मिलता है। दस लाख रुपये में सौदा होता है। बेबी का वे अपहरण कर दिल्ली ले जाने वाले रहते हैं कि उन्हें फोन आता है कि उसे शिमला लेकर जाओ क्योंकि प्लान में तब्दीली हो गई है। बेबी एक शक्तिशाली नेता और गुंडे बिल्लू (रोनित रॉय) की साली है। बिल्लू से रंगीला का भी कनेक्शन है। कुछ वर्ष पूर्व रंगीला की पत्नी की हत्या बिल्लू ने कर दी थी क्योंकि उसने गैर समाज के लड़के से विवाह किया था। बेबी के बहाने रंगीला को बिल्लू से बदला लेने का मौका मिल जाता है। गुड्डू और रंगीला यह जानकर हैरान हो जाते हैं कि बेबी ने जानबूझ कर अपना अपहरण करवाया है क्योंकि वह अपने जीजा बिल्लू से अपनी बहन की मौत का बदला लेना चाहती है। वह दस करोड़ रुपये बिल्लू से ऐंठना चाहती है साथ ही उसके पास बिल्लू के गंदे कारनामों की एक सीडी भी है जिसके सहारे वह बिल्लू का राजनीतिक करियर भी बरबाद करना चाहती है। इसके बाद कई उतार-चढ़ाव कहानी में देखने को मिलते हैं। गुड्डू रंगीला का टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद और निर्देशन सुभाष कपूर का है। फिल्म की कहानी में कोई नई बात नहीं है बावजूद इसके यह ठीक-ठाक है, लेकिन इस कहानी पर आधारित स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। न इसमें मनोरंजन है और न ही लॉजिक। सबसे अहम बात यह है कि बेबी अपना अपहरण क्यों करवाती है जबकि उसके पास बिल्लू के गलत कारनामों की सीडी है। वह इस सीडी के बदले में ही दस करोड़ रुपये बिल्लू से ले सकती थी और सीडी को सार्वजनिक कर सकती थी। इस वजह से अपहरण वाला पूरा ट्रेक कमजोर पड़ जाता है। रंगीला की पत्नी जीवित रहती है और यह बात रंगीला को पता नहीं चलती तथा रंगीला को बिल्लू के न पहचान पाने वाली बात हजम नहीं होती। ये लेखन की बड़ी कमजोरियां हैं। स्क्रिप्ट में मनोरंजन का अभाव है। हंसाने के लिए कुछ चुटकुले हैं जिन पर हंसी कम खीज ज्यादा आती है। रोमांस की फिल्म में कोई गुंजाइश नहीं थी, लेकिन बेबी और गुड्डू का रोमांस फिट करने की असफल कोशिश की गई है। बिना सिचुएशन के गाने रखे गए हैं। लड़कियों और प्रेम के खिलाफ खाप पंचायत वाले मुद्दे को भी दिखाया गया है, लेकिन ये ट्रेक प्रभावी नहीं है। ये सिर्फ खलनायक को शक्तिशाली और महामंडित करने के लिए रखा गया है। फिल्म का पहला आधा घंटा बोरियत से भरा है। अपहरण के बाद जब बेबी के असली इरादे जाहिर होते हैं तो फिल्म चौंकाती है और उत्सुकता पैदा होती है, लेकिन ये उम्मीद जल्दी ही धराशायी हो जाती हैं। इंटरवल के बाद तो फिल्म में रूचि ही खत्म हो जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स किसी बी-ग्रेड की एक्शन मूवी की तरह है। सुभाष कपूर निर्देशक के रूप में प्रभावित नहीं करते। फिल्म के कैरेक्टर रियल लगते हैं और हरकतें लार्जर देन लाइफ वाली करते हैं। यह तालमेल गड़बड़ा गया है। जिस अभिनेता अरशद वारसी को हम जानते हैं वो इस फिल्म में नजर नहीं आया। अमित सध निराश करते हैं। अदिति राव हैदरी को जो रोल मिला है उसमें वे फिट नहीं बैठती। रोनित रॉय को सबसे ज्यादा फुटेज मिले हैं और उनका अभिनय अच्छा है। छोटी-मोटी भूमिकाओं में ज्यादातर कलाकारों का काम अच्छा है। कुल मिलाकर गुड्डू रंगीला रंग नहीं जमा पाई। गुड्डू रंगीला बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता : संगीता अहिर निर्देशक : सुभाष कपूर संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : अरशद वारसी, अमित सध, अदिति राव हैदरी, रॉनित रॉय सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 4 मिनट 46 सेकंड्स ",0 "कहानी: जब-जब जिसके लगने हैं, तब-तब उसके लगते हैं। फिल्म 'अ जेंटलमैन' में गौरव (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। गौरव एक सुंदर और सुशील लड़का है, जो मियामी में एक कॉर्पोरेट कंपनी में जॉब करता है। उसके दोस्तों के मुताबिक उसकी लाइफ रिवर्स चल रही है। उसने अपना घर खरीद लिया है और बच्चों के लिहाज से बड़ी गाड़ी भी लेकिन उसकी लाइफ में अभी एक गर्लफ्रेंड की कमी है, जिसके लिए वह अपनी ऑफिस कलीग काव्या (जैकलीन फर्नांडिस) को पटाने की कोशिश करता है लेकिन जैकलीन चाहती है कि उसका लाइफ पार्टनर सुंदर और सुशील होने के साथ थोड़ा रिस्की भी हो। मसलन जब काव्या की फ्रेंड उससे पूछती है कि आखिर गौरव में क्या कमी है? तो वह कहती है कि कोई कमी नहीं है, यही उसकी कमी है। वह कुछ ज्यादा ही सेफ है। हालांकि काव्या के पैरंट्स को जरूर सर्वगुण संपन्न गौरव बेहद पसंद आ जाता है। उधर मुंबई में कर्नल (सुनील शेट्टी) की यूनिट एक्स में काम करने वाला ऋषि (सिद्धार्थ मल्होत्रा) बेहद खतरनाक फाइटर है। कर्नल की खातिर वह अपनी टीम के साथी याकूब (दर्शन कुमार) के साथ खतरनाक मिशनों को अंजाम देता है। बचपन से यही काम कर रहा ऋषि एक दिन इस निर्दोष लोगों की जान लेने वाली मारकाट भरी लाइफ से बोर हो जाता है और सेटल होने की खातिर कर्नल से अलग होने की इजाजत मांगता है। इसकी एवज में कर्नल ऋषि को एक लास्ट टास्क देता है, जिसमें उसे एक एजेंट से खुफिया जानकारी वाली ड्राइव हासिल करनी है। हालांकि मिशन पूरा होने के बाद कर्नल के आदेश के मुताबिक ऋषि के साथी उसे मारने की कोशिश करते हैं लेकिन वह खुफिया ड्राइव लेकर निकल जाता है। वहीं, मियामी में एक दिन अचानक काव्या यह देखकर हैरान रह जाती है कि उसके सीधे-साधे बॉयफ्रेंड गौरव का मुकाबला गुंडों से होता है, तो वह न सिर्फ उनकी जबर्दस्त पिटाई करता है बल्कि गन से जमकर फायर भी करता है। आखिर गौरव और ऋषि का आपसी रिलेशन क्या है? यह जानने के लिए आपको थिअटर जाना होगा। रिव्यू: फिल्म के डायरेक्टर राज ऐंड डीके अपनी थोड़ा हटकर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं लेकिन इस बार वे कहानी के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाए। खासकर फिल्म का स्क्रीनप्ले और प्लॉट कमजोर है। फर्स्ट हाफ में फिल्म की स्पीड ठीकठाक है लेकिन सेकंड हाफ में यह भटक जाती है। फिल्म देखते वक्त कई बार दर्शक कुछ चीजों को लेकर कंन्फ्यूज नजर आते हैं। फिल्म में ऐक्शन के अलावा गोलीबारी के सीन्स की भरमार है। सिद्धार्थ मल्होत्रा ने सीधे-सादे गौरव के रोल को बखूबी निभाया है लेकिन रिस्की ऋषि के रोल में वह उतना नहीं जमे हैं। फिल्म में दो अलग-अलग लोगों का किरदार प्ले करने की वजह से वह करीब-करीब हर शॉट में पर्दे पर नजर आते हैं। फिल्म में जैकलीन के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं था लेकिन फिर भी फिल्म के कुछ गानों में वह जमी हैं, तो ऐक्शन सीन में भी उन्होंने बेहतर करने की कोशिश की है। दर्शन कुमार ने जरूर फिल्म में अपना दम दिखाया है। कई सीन में वह सिद्धार्थ को पूरी टक्कर देते हैं। वहीं सिद्धार्थ के फ्रेंड के रोल में हुसैन दलाल दर्शकों के चेहरे पर हंसी लाने में कामयाब रहे। सुनील शेट्टी ने गेस्ट रोल में अपना किरदार बखूबी निभाया है। डायरेक्टर राज ऐंड डीके ने भारतीय दर्शकों के लिए मियामी की खूबसूरत लोकेशंस को जरूर बड़े पर्दे पर बेहतरीन अंदाज में दिखाया है हालांकि फिल्म के गाने उतने दमदार नहीं हैं और बस रस्म अदायगी करते हैं। । ",0 "बैनर : इरोज इंटरनेशनल, अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, स्पाइस इंफोटेनमेंट निर्माता : रजत रवैल, अनिल कपूर, डॉ. बी.के. मोदी निर्देशक : अनीस बज्मी संगीत : प्रीतम कलाकार : संजय दत्त, अनिल कपूर, सुष्मिता सेन, कंगना, अक्षय खन्ना, सुनील शेट्टी, परेश रावल, नीतू चन्द्रा, शक्ति कपूर, रंजीत सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 16 रील * 2 घंटे 22 मिनट पता नहीं किन दर्शकों को ध्यान में रखकर अनीस बज्मी ने ‘नो प्रॉब्लम’ बनाई है। हर बात में लॉजिक ढूँढने वाले दर्शक तो इसे बिलकुल भी पसंद नहीं करेंगे। जो दर्शक दिमाग नहीं लगाना चाहते हैं,‍ फिल्म सिर्फ मनोरंजन के लिए देखते हैं, उन्हें भी इस कॉमेडी फिल्म में ठहाका लगाना तो छोड़िए मुस्कुराने के भी बहुत कम अवसर मिलेंगे। इस फिल्म में सिर्फ प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम नजर आती हैं। दो चोर और एक बैंक मैनेजर एक मंत्री की हत्या के अपराध में फँस जाते हैं, जो उन्होंने की ही नहीं है। उनके हाथ करोड़ों के हीरे लगते हैं, जिसके पीछे बहुत बड़ा डॉन पड़ा हुआ है। इन सभी के पीछे एक मूर्ख पुलिस ऑफिसर लगा हुआ है। चोर-पु‍लिस के इस खेल में ढेर सारे किरदार आते-जाते रहते हैं और इस लुकाछिपी के जरिये दर्शकों को हँसाने की कोशिश की गई है। प्रॉब्लम नं.1 : इस सीधी-सादी कहानी कहने के लिए लेखक ने ढेर सारे हास्य दृश्यों का सहारा लिया है। गोरिल्ला बंदूक चलाते हैं, थैंक्यू कहने पर नो प्रॉब्लम कहते हैं। एक इंसपेक्टर के पेट से दो गोलियाँ निकाली नहीं जा सकी, जो उसे गुदगुदी करती रहती है। इस तरह की छूट लेने के बावजूद यदि लेखक दर्शकों को हँसा नहीं पाता है तो उसे सोच लेना चाहिए कि कितना घटिया काम उन्होंने किया है। प्रॉब्लम नं. 2 : फिल्म के ज्यादातर कैरेक्टर्स फनी बताए गए हैं और हर सीन में हास्य डालने की कोशिश की गई है। सब्जी में यदि नमक या मिर्च या तेल ज्यादा हो जाए तो स्वाद बिगड़ जाता है। यहाँ हास्य के अतिरेक ने फिल्म का मजा खराब कर दिया है। प्रॉब्लम नं. 3 : निर्देशक अनीस बज्मी ने अपना काम चलताऊ तरीके से किया है। कई शॉट्स जल्दबाजी में शूट किए गए हैं। फिल्म की गति को उन्होंने तेज रखा है ताकि खामियों पर परदा डाला जा सके, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए हैं। सिंह इज किंग की खुमारी अभी भी उन पर चढ़ी नजर आती है क्योंकि क्लाइमैक्स में उन्होंने सभी को सरदार बना डाला है। फिल्म का क्लाइमेक्स प्रियदर्शन की फिल्मों जैसा लगता है। अनीस ‍ने फिल्म को जरूरत से ज्यादा लंबा बनाया है, जिस वजह से यह उबाऊ हो गई है। प्रॉब्लम नं. 4 : संजय दत्त, अनिल कपूर, अक्षय खन्ना, सुष्मिता सेन, सुनील शेट्टी जैसे फ्लॉप स्टार इस फिल्म में हैं। भले ही इनकी स्टार वैल्यू नहीं रही है, लेकिन ये कलाकार तो अच्छे हैं। खराब स्क्रिप्ट और निर्देशन का असर इनके अभिनय पर भी पड़ा है। अनिल कपूर ने तो स्क्रिप्ट से उठकर कोशिश की है, लेकिन अधिकांश कलाकार असहज नजर आए। शायद उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा होगा कि वे क्या कर रहे हैं। कंगना का मैकअप ऐसा किया गया है कि वे खूबसूरत नजर आने के बजाय बदसूरत दिखाई देती हैं। परेश रावल भी टाइप्ड हो गए हैं। सुनील शेट्टी से एक्टिंग की उम्मीद करना बेकार है। 70 और 80 के दशक में खलनायकी के तेवर दिखाने वाले रंजीत ने सुनील शेट्टी के गुर्गे का रोल क्यों मंजूर किया, समझ से परे है। प्रॉब्लम नं. 5 : संवाद के जरिये हास्य फिल्मों को धार मिलती है। हालाँकि निर्देशक ने हँसाने के लिए डॉयलॉग्स के बजाय दृश्यों का सहारा लिया है, फिर भी संवाद बेहद सपाट हैं। प्रॉब्लम नं. 6 : संगीतकार प्रीतम से सौदा सस्ता हुआ होगा, इसलिए उन्होंने अपनी सारी रिजेक्ट हुई धुनों को थमा दिया है। सभी गानों में सिवाय शोर के कुछ सुनाई नहीं देता है। इसके अलावा भी कई प्रॉब्लम्स इस फिल्म में हैं, जिनकी चर्चा करना बेकार है। ",0 "एडल्ट कॉमेडी बनाना भारतीय फिल्मकारों के बस की बात नहीं है। फूहड़ता को ही वे एडल्ट कॉमेडी समझ बैठते हैं और बदले में 'क्या कूल हैं हम 3' जैसी कचरा फिल्में देखने को मिलती हैं। इस फिल्म से जुड़े लोगों से बेहतर तो वे लोग हैं जो व्हाट्स एप के लिए 'नॉटी जोक्स' बनाते हैं जिसमें कुछ क्रिएटिविटी तो होती है। एक तरफ प्रतिभाशाली लेखकों को मौके नहीं मिलते तो दूसरी ओर मुश्ताक शेख और मिलाप मिलन ज़वेरी जैसे लोगों की लिखी घटिया कहानी पर लोग पैसा लगाने को राजी हो जाते हैं। केवल क्या कूल हैं हम सीरिज की सफलता को भुनाने के लिए तीसरा भाग तैयार कर दिया गया है जिसमें कहानी, निर्देशन, संवाद, अभिनय, गाने सहित सारी चीजें अपने निम्नतम स्तर पर है। कहानी के नाम पर कुछ भी नहीं है। जो मन में आया लिख दिया। चुटकलों को जोड़-जोड़ कर फिल्म बना दी गई। कोई लॉजिक नहीं क्योंकि हर सीन में डबल मीनिंग संवाद को घुसेड़ने की बात लेखकों ने शायद तय कर ली थी। भले ही वे सीन में फिट बैठते हो या नहीं। शायद वे यह मान कर बैठे थे कि दर्शक यही सब देखने आए हैं। फिल्म मेकिंग के तमाम नियम-कायदों को ताक में रख कर एक घटिया फिल्म परोस दी गई। जानवरों को भी नहीं छोड़ा गया। एक बूढ़ा हाथ में एक पक्षी लेकर घूमता रहता है जिसे बार-बार 'पोपट' क्यों कहा गया, समझाने की जरूरत नहीं है। एक चूहा फिल्म के हीरो की पेंट में घुस जाता है। एक कुत्ता बूढ़े आदमी को 'ओरल सुख' पहुंचाता है। एक घोड़ा भी है। क्या कू ल हैं हम 3 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें तमाम हिट फिल्मों का मजाक बनाया गया है। 'शोले' की पैरोडी 'खोले' बनाकर की गई है। हर किरदार पर 'सेक्स' की धुन सवार रहती है। एक किरदार लाल रंग को देख 'काणा' हो जाता है। इतने सारे तामझाम के बावजूद मजाल है कि आपको हंसी आ जाए। खीज पैदा होती है। समय ठहरा हुआ लगता है। फिल्म खत्म होने का इंतजार बहुत लंबा हो जाता है। बहुत हिम्मत का काम है इस फिल्म को झेलना। तुषार कपूर और आफताब शिवदासानी अब इस तरह की फूहड़ फिल्मों के खास चेहरे हो गए हैं क्योंकि दूसरी फिल्मों में उनके लिए जगह नहीं बची है। 'क्या कूल हैं हम 3' देखने आए दर्शक शायद यही सोच रहे थे कि 'क्या FOOL हैं हम' जो इस फिल्म को देखने सिनेमाघर चले आए। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स, एएलटी एंटरटेनमेंट निर्माता : शोभा कपूर, एकता कपूर निर्देशक : उमेश घाडगे संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : तुषार कपूर, आफताब शिवदासानी, कृष्णा अभिषेक, मंदना करीमी, गिज़ेल ठकराल, क्लॉडिया सिस्ला, मेघना नायडू, गौहर खान, रितेश देशमुख (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 5 मिनट 30 सेकंड ",0 " निर्माता के रूप में दिनेश विजन के पास लंबा अनुभव है। कई सफल फिल्म उन्होंने सैफ अली खान के साथ मिलकर बनाई है। निर्माता रहते हुए उन्हें निर्देशन का कीड़ा काट खाया और 'राब्ता' देखने के बाद यही लगता है कि वे निर्माता ही रहते तो बेहतर होता। निर्देशक के रूप में उन्हें अभी और तैयारी करना चाहिए। अमृतसर से शिव (सुशांत सिंह राजपूत) नौकरी के लिए बुडापेस्ट जा पहुंचता है। लड़कियां उसकी कमजोरी है। शिव में पता नहीं ऐसी क्या खास बात है कि लड़कियां उसकी ओर खींची चली आती है। खैर, चॉकलेट शॉप पर उसकी मुलाकात सायरा (कृति सेनन) से होती है। सायरा और शिव दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित हो जाते हैं। सायरा का एक बॉयफ्रेंड भी रहता है जिससे शिव ब्रेकअप भी करा देता है। चट बिस्तर के बाद पट ब्याह वे करना चाहते हैं। लगभग सवा घंटे तक यह सारा ड्रामा चलता रहता है जो नितांत ही उबाऊ है। इसको 'फनी' बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है जो मुस्कान भी आ जाए। शिव और सायरा का पूरा रोमांस नकली लगता है। इसके बाद एंट्री होती है जैक (जिम सरभ) की, जो अरबपति है। काम के सिलसिले में शिव दूसरे शहर जाता है और सायरा से जैक दोस्ती बढ़ाता है। एक दिन सायरा अपने आपको जैक की कैद में पाती है। जैक को पिछले जन्म वाली सारी बात पता है और इस जन्म में वह सायरा को पाना चाहता है। सायरा कुछ समझ नहीं पाती, लेकिन एक दिन समुंदर में गिर जाती है और उसे सब याद आ जाता है। यहां से फिल्म चली जाती है सैकड़ों वर्ष पूर्व। शिव, सायरा और जैक का पिछला जन्म दिखाया जाता है। पहले से ही बेपटरी होकर लुढ़क रही फिल्म और निम्नतम स्तर पर चली जाती है। पुनर्जन्म वाला यह हिस्सा इतना कन्फ्यूजिंग है कि निर्देशक और लेखक क्या बताना चाह रहे हैं कुछ समझ नहीं आता। संवाद भी बड़े अजीब हो जाते हैं। राजकुमार राव जैसे कलाकार की यहां पर दुर्गति कर दी गई है। एक बार फिर फिल्म वर्तमान दौर में आती है। हीरोइन और विलेन को सब याद आ गया, लेकिन हीरो को कुछ याद नहीं आता। बहरहाल क्लाइमैक्स में थोड़ी फाइटिंग होती है और सब सही हो जाता है। चांद, तारे, बारिश, पूर्णिमा से दोनों जन्मों की कहानी को जोड़ने के जो प्रयास किए गए हैं वो अर्थहीन हैं। सीन इतने लंबे रखे गए हैं कि झल्लाहट होती है। निर्देशक के रूप में दिनेश विजन असफल रहे हैं। न तो वे फिल्म को मनोरंजक बना पाए हैं और न उन्होंने लॉजिक का ध्यान रखा है। फिल्म के लेखक कुछ भी नया पेश नहीं कर पाए और कहानी अत्यंत ही कमजोर है। सुशांत सिंह राजपूत कोई रोमांस के बादशाह शाहरुख खान तो है नहीं जो रोमांटिक फिल्म में जान फूंक सके। 'कूल' लगने के उनके अतिरिक्त प्रयास साफ नजर आते हैं। कई दृश्यों में वे असहज नजर आएं। कृति सेनन पर दीपिका पादुकोण का हैंगओवर नजर आया। शायद दिनेश विजन ने उनसे दीपिका की तरह अभिनय करने का बोला हो क्योंकि दिनेश ने कुछ फिल्में दीपिका के साथ बनाई हैं। जिम सरभ का लुक उनके कैरेक्टर पर फिट बैठता है, लेकिन उनका कैरेक्टर ठीक से नहीं लिखा गया है। 'सिगरेट खत्म होने के पहले जान बचा सकता है तो बचा ले' जैसे संवाद उन पर बिलकुल सूट नहीं जमते। वरूण शर्मा टाइप्ड हो गए हैं और हर फिल्म में एक जैसे नजर आते हैं। दीपिका पादुकोण पर फिल्माया गया गाना ही फिल्म का एकमात्र सुखद पहलू है, लेकिन एक गाने के लिए ढाई घंटे की फिल्म झेलना समझदारी की बात नहीं है। बैनर : मैडॉक फिल्म्स, टी-सीरिज़ निर्माता : दिनेश विजन, भूषण कुमार, होमी अडजानिया, कृष्ण कुमार निर्देशक : दिनेश विजन संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, कृति सेनन, जिमी सरभ, दीपिका पादुकोण (एक गाने के लिए) ",0 "'सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।' इस गाने को 1970 में जाने-माने गीतकार गुलजार ने भले वहीदा रहमान-राजेश खन्ना की फिल्म 'खामोशी' के लिए लिखा हो, मगर इस गीत के बोल शूजित सरकार की 'अक्टूबर' पर फिट बैठते हैं। वाकई प्यार कोई बोल नहीं, कोई आवाज नहीं, एक खामोशी है, सुनती है कहा करती है...शूजित की 'अक्टूबर' एक अनकहे प्यार की दास्तान को बयान करती है। फिल्म के शुरुआती दौर में इस प्यार को समझने में आपको वक्त लगता है, मगर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, आप इसकी गहराई में उतरते चले जाते हैं। क्लाइमेक्स जहां अनकंडीशनल लव की व्याख्या करता है, वहीं आपको बुरी तरह से उदास कर देता है और आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ऐसी प्रेम कहानी में जीना कैसा होता होगा?होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करनेवाला डैन (वरुण धवन) एक फाइव स्टार होटल में इंटर्नशिप कर रहा है। वह अपनी जिंदगी में किसी भी काम को गंभीरता से नहीं लेता। हालांकि, उसका सपना एक रेस्तरां खोलने का है, मगर इंटर्नशिप के दौरान उसकी ऊल-जुलूल हरकतों और अनुशासनहीनता के कारण उसे बार-बार निकाल दिए जाने की वार्निंग दी जाती है। दूसरी ओर उसकी बैचमेट शिवली डैन के मिजाज के विपरीत बहुत ही मेहनती और अनुशासनप्रिय स्टूडेंट है। शिवली और डैन के बीच कहानी में कुछेक दृश्य ऐसे जरूर आते हैं, जहां उनके बीच एक अनकहा रिश्ता महसूस होता है, मगर लेखक-निर्देशक ने उसे कहीं भी अंडरलाइन नहीं किया। फिर एक दिन अचानक शिवली एक हादसे की शिकार होकर कोमा में चली जाती है। जिस वक्त उसके साथ यह हादसा होता है, डैन वहां मौजूद नहीं था, मगर हादसे का शिकार होने के ऐन पहले शिवली ने डैन के बारे में पूछा जरूर था। क्षत-विक्षत अवस्था में कोमा में जा चुकी शिवली की हालत का डैन पर गहरा असर पड़ता है। शिवली के अस्पताल के चक्कर काटते हुए वह एक ऐसे सफर पर निकल पड़ता है, जिसके बारे में उस जैसा 21 साल का लड़का कभी सोच ही नहीं सकता था। 'विकी डोनर', 'पीकू' और 'पिंक' जैसे अलहदा विषयों पर फिल्म बनाने वाले शूजित सरकार यहां प्यार को नया आयाम देते नजर आते हैं, जो हिंदी फिल्मों से बिलकुल भी मेल नहीं खाता। फिल्म के पहले 45 मिनट बहुत ही सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ते हैं। इसे समझने के लिए आपको सब्र से काम लेना होगा, मगर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, किरदारों की डिटेलिंग हमें उनकी जिंदगी में उतरने पर मजबूर कर देती है। आप निष्छल जज्बातों से जुड़ते चले जाते हैं। यहां लेखिका जूही चतुर्वेदी का जिक्र करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने अपने लेखन के जरिए शूजित की सहजता और संवेदनशीलता का साथ दिया है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमटोग्राफी कई दृश्यों में पेंटिंग की मानिंद लगती हैं। 'मैं तेरा हीरो', 'जुड़वा 2', 'हम्पटी की दुल्हनिया' जैसी तमाम फिल्मों में हिंदी सिनेमा के प्रचलित फिल्मी हीरो को साकार करने वाले वरुण धवन को देखकर आपको बिलकुल याद नहीं आता कि वे अपनी फिल्मों में नाच-गाना, रोमांस और फाइट के लिए जाने जाते हैं। यहां वे अपनी बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और नम आंखों से डैन के किरदार को जिंदा कर देते हैं। शिवली की भूमिका को बनिता संधू ने अपनी आंखों के हाव-भावों से असरदार बना दिया है। शिवली की मां का रोल करने वाली गीतांजलि राव के रूप में हिंदी सिनेमा को एक सहज और सशक्त अभिनेत्री मिली है। सहयोगी कलाकार भी बनावट से परे रियल नजर आते हैं। शांतनु मोइत्रा का बैकग्राउंड स्कोर विषय की मासूमियत को बरकरार रखता है। क्यों देखें-प्रेम कहानियों पर यकीन करने वाले प्यार की नई परिभाषा को गढ़नेवाली इस फिल्म को जरूर देखें।",0 " कई बार चीजें इतनी परफेक्ट हो जाती हैं कि यकीन करना पड़ता है कि किसी अदृश्य शक्ति का साथ था। 1975 में रिलीज हुई ‘शोले’ को बनाते समय किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि वे सब इतिहास लिखने जा रहे हैं। एक ऐसी फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसे क्ला‍सिक माना जाएगा या मिलिनेयम की श्रेष्ठ फिल्म कहा जाएगा। रिलीज के 38 वर्ष बाद भी यह फिल्म चर्चा में बनी हुई है। कई लोग इस बात की गिनती भूल चुके हैं कि उन्होंने कितनी बार इसे देखा है। कुछ ने अपने पिता और दादा से इस फिल्म के बारे में कहानी सुनी होगी। इस फिल्म के किरदारों, संवादों और कहानी ने भारतीय सिनेमा पर गहरा असर किया। भारत में व्यावसायिक सिनेमा को नए सिरे से परिभाषित किया। ‘शोले’ में मनोरंजन के वो सारे तत्व सही मात्रा में हैं जिनकी तलाश में एक आम आदमी मनोरंजन के लिए सिनेमाघर में जाता है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोगों ने अपना सर्वश्रेष्ठ इसी फिल्म को दिया तभी यह बॉलीवुड के इतिहास का मील का पत्थर बन गई है। इस फिल्म में जितना लिखा जाए कम है। ढेर सारी खूबियां हैं। जय-वीरू की दोस्ती वाला ट्रेक ही ले लीजिए। धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की केमिस्ट्री गजब ढाती है। एक वाचाल है तो दूसरा अंतर्मुखी। एक अपने दिल की सारी बात बता देता है तो दूसरा अपने दोस्त से भी कुछ बातें छिपा जाता है। वो इसलिए छिपाता है कि उससे उसके दोस्त को कोई नुकसान न पहुंचे। सिक्के के जरिये फैसले लेने वाली बात के तो कई बेहतरीन प्रसंग है। अंत में जब वीरू को सिक्के की असलियत पता चलती है तो उसके साथ सारे दर्शक भी स्तब्ध रह जाते हैं क्योंकि जय ने इस सिक्के के जरिये अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। एक एक्शन फिल्म की पथरीली जमीन पर रोमांस की कोपलें भी हैं। दिल को हथेली पर लिए घूमने वाले गबरू वीरू और बक-बक करने वाली बसंती के बीच कई बेहतरीन रोमांटिक सीन हैं। इन दोनों का रोमांस जहां लाउड है तो जय और राधा का रोमांस खामोशी ओढ़े हुए है और दर्शाता है कि प्रेम के लिए भाषा की जरूरत नहीं पड़ती है। ठाकुर और गब्बर का रिवेंज ड्रामा सीधे दर्शकों पर असर करता है। गब्बर का आतंक पूरी फिल्म में नजर आता है और जब वह ठाकुर के परिवार के सदस्यों को मौत के घाट उतार देता है तो सिनेमाहॉल में बैठा दर्शक सिहर जाता है। ठाकुर के हाथ काट दिए जाते हैं तो वह जय और वीरू को अपने मजबूत हाथ बनाकर गब्बर से लड़ता है। ऐसे तो पूरी फिल्म की एक-एक फ्रेम उल्लेखनीय है, लेकिन कई ऐसे दृश्य हैं जो रोमांचित करते हैं। फिल्म की शुरुआत में जय-वीरू-ठाकुर और डाकुओं के बीच ट्रेन पर फिल्माया गया सीक्वेंस भारत में फिल्माए बेहतरीन एक्शन सीक्वेंसेस में से एक है। वीरू का रिश्ता लेकर जय का बसंती की मौसी के पास जाना, वीरू का शराब पीकर टंकी पर चढ़ जाना, बसंती का गब्बर के अड्डे पर नाचना, इमाम साहब के बेटे की हत्या कर उसका शव घोड़े के जरिये गांव भिजवाना, गब्बर का ठाकुर के हाथ काट देना, अंग्रेजों के जमाने वाले जेलर जैसे कई बेहतरीन दृश्यों से फिल्म लबालब है जिन्हें देख दर्शक हंसता है, रोता है, डरता है। कहानी को परदे पर उतारना निर्देशक रमेश सिप्पी बेहतरीन तरीके से जानते हैं। बदले की तीखी कहानी को रोमांस-कॉमेडी की चाशनी में लपेट कर उन्होंने इस तरीके से पेश किया है कि दर्शक को हर स्वाद का मजा आता है। इतने सारे किरदारों और प्रसंगों को समेटना और उन्हें प्रभावी बनाना आसान काम नहीं था। पूरी फिल्म पर वे अपनी पकड़ कभी नहीं खोते। छोटे से छोटे कलाकार से उन्होंने श्रेष्ठ अभिनय कराया है। ‘शोले’ को बेहतरीन बनाने में सिनेमाटोग्राफर द्वारका दिवेचा का भी अहम योगदान है। अमिताभ बच्चन माउथ आर्गन बजा रहे हैं और जया रोशनी कम कर रही है। संध्या और रा‍त्रि के मिलन का समय है। इस सीन को द्वारका ने कमाल का शूट किया है। संध्या और रात्रि के मिलन में प्रकाश तेजी से बदलता है और इस चंद सेकंड्स के दृश्य को फिल्माने में 20 दिन का वक्त लगा था। ऐसी मेहनत छोटे-छोटे सीन के लिए की गई है। फिल्म-समीक्षा का दूसरा हिस्सा.... अगले पेज पर फिल्म के लेखक सलीम-जावेद ने कई फिल्मों और निजी जीवन से प्रेरणा लेकर किरदारों तथा प्रसंगों को गढ़ा। किरदार इतनी सूक्ष्मता के साथ लिखे गए कि सिनेमाहॉल से निकलने के बाद सभी याद रह जाते हैं। सांभा, कालिया, इमाम साहब, जेलर, सूरमा भोपाली, मौसी जैसे संक्षिप्त किरदार भी अपना असर छोड़ते हैं। सलीम-जावेद के लिखे संवाद भी बेहतरीन किरदारों की सोच को बयां करते हैं। ‘तेरा क्या होगा कालिया?’ बेहद सरल संवाद है, लेकिन ऐसी सिचुएशन बनाई गई, अमजद खान ने इस तरह संवाद बोला और रमेश सिप्पी ने इस तरह फिल्माया कि यह सामान्य-सा संवाद भी याद रहता है। ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती’ जैसे संवाद देर तक गुदगुदाते रहते हैं। खिलंदड़ और गबरू जवान की भूमिका धर्मेन्द्र पर खूब फबी है। उनकी वजह से फिल्म में एक सकारात्मक ऊर्जा बहती रहती है। उस समय वे हेमा मालिनी के दीवाने थे, इसलिए हेमा के साथ रोमांटिक सीन कुछ ज्यादा ही प्यार नजर आता है। एक्शन, कॉमेडी और इमोशन जैसे कई रंग धर्मेन्द्र के किरदार में हैं और उन्होंने बखूबी इन्हें जिया है। अमिताभ बच्चन को कम संवाद मिले हैं, लेकिन चेहरे के भावों और आंखों के जरिये उन्होंने त्रीवता के साथ अपने किरदार को जिया है। कई दृश्यों में बिना कुछ कहे उन्होंने बहुत कुछ कहा है। एक्शन सीन में उनका गुस्सा देखते ही बनता है। ठाकुर बलदेव सिंह की भूमिका को संजीव कुमार ने अपने अभिनय से अविस्मरणीय बनाया है। बदले की आग की तपिश उनके चेहरे से महसूस की जा सकती है। अमजद खान ने गब्बर के रूप में दर्शकों को खूब डराया है। उनका किरदार ऐसा लिखा गया है कि अंदाजा लगाना आसान नहीं है कि यह कब क्या कर बैठे और अमजद ने चरित्र के अनुरूप अपने चेहरे के भावों को बदला है। हेमा मालिनी, जया बच्चन, एके हंगल, असरानी, सचिन, जगदीप, लीला मिश्रा, विजू खोटे, मैक मोहन सहित सभी कलाकार अपने श्रेष्ठ फॉर्म में नजर आए हैं। आरडी बर्मन ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत रचा है और उनका बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को और प्रभावी बनाता है। थ्री-डी में परिवर्तित कर इस फिल्म को बड़े परदे पर फिर से देखने का अवसर पेन इंडिया के जयंतीलाल गढ़ा ने उपलब्ध कराया है। थ्री-डी में ढालने वाले तकनीशियनों की मेहनत सफल रही है और ‘शोले’ को थ्रीडी में देखना एक शानदार अनुभव है। प्रिंट क्वालिटी और साउंड को भी सुधारा गया है। ‘शोले’ दिमाग के बजाय दिल से देखी जाने वाली फिल्म है। इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाहॉल में कई कम उम्र के बच्चे भी थे, जिन्होंने इस फिल्म सफलता के कई किस्से सुन रखे हैं। कई दर्शक ऐसे भी थे, जिन्हें एक-एक संवाद रटा हुआ है और वे किरदारों के साथ उन्हें दोहरा रहे थे। 38 वर्ष बाद भी जय, वीरू, गब्बर की एंट्री और कई दृश्यों पर तालियां और सीटियां बज रही थी। इस फिल्म को एक बार फिर बड़े परदे पर देखने का बिरला अवसर मिला है जिसे किसी भी हाल में चूकना नहीं चाहिए। निर्माता : जी.पी. सिप्पी निर्देशक : रमेश सिप्पी संगीत : आर.डी. बर्मन कलाकार : धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, अमजद खान, असरानी, ए.के. हंगल, सचिन, विजू खोटे, लीला मिश्रा, मैकमोहन, केश्टो मुखर्जी, जगदीप, सत्येन कप्पू सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 3 घंटे 37 मिनट ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com भाग मिल्खा भाग के बाद मेरी कॉम को बॉक्स ऑफिस पर मिली कामयाबी के बाद बॉक्स ऑफिस पर मसाला ऐक्शन फिल्में ब्लू और बॉस बना चुके डायरेक्टर टोनी डिसूजा ने इंडियन क्रिकेट टीम के एक्स कैप्टन रहे अजहरुद्दीन पर फिल्म बनाई तो लगा इस बार दर्शकों को एकबार फिर पूरी ईमानदारी के साथ बनाई गई एक और अच्छी बायोपिक फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे डायरेक्ट डिसूजा ने अपनी इस बायोपिक फिल्म में मोहम्मद अजहरुद्दीन के उसी पक्ष को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया जो अजहर शायद अपने फैन के साथ शेयर करना चाहते थे। बेशक ऐसा करना गलत भी नहीं है, लेकिन दर्शक अजहर पर बनी इस फिल्म में उनकी बतौर क्रिकेटर से कहीं ज्यादा उनकी पर्सनल लाइफ के साथ जुडे बेहद गंभीर मुद्दों को भी देखना चाहते थे जो कई सालों तक अजहर के नाम के साथ जुडे रहे। ऐसा लगता है कि इस बायोपिक फिल्म में अजहर की बात तो की गई है लेकिन उन्हीं के नजरिए से। यही इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष बनकर रह गया है। डायरेक्टर अजहर की पर्सनल लाइफ को भी फिल्म का मजबूत हिस्सा बनाते तो शायद यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर हिट रही पिछली फिल्मों की लिस्ट में शामिल हो पाती। कहानी: मोहम्मद अजहरुद्दीन ( इमरान हाशमी) को बचपन में उनके नाना ( कुलभूषण खरबंदा) से क्रिकेट का शौक जैसे विरासत में मिला। नन्हें अजहर के नाना का बस एक ही सपना था कि उनका नाती इंडियन क्रिकेट टीम में सौ टेस्ट मैच खेले। नाना जब बिस्तर में आखिरी घड़ियां गिन रहे थे, ठीक उसी वक्त अजहर को क्रिकेट टीम में सिलेक्ट होने के लिए जाना पड़ा। लगातार कामयाबी की और बढ़ते अजहर के करियर में टर्न उस वक्त आया जब उनकी खुशहाल जिंदगी में मैच फिक्सिंग और ऐक्ट्रेस संगीता की एंट्री होती है। खूबसूरत बेगम नौरीन ( प्राची देसाई ) को तलाक देने के बाद अजहर ऐक्ट्रेस संगीता के साथ दूसरा निकाह करता है। इसी दौरान अजहर का नाम मैच फिक्सिंग के साथ जुड़ता है। इंडियन क्रिकेट टीम से अजहर को बाहर कर दिया जाता है। कल तक अजहर की एक झलक पाने को बेताब उनके फैंस अब उसके पुतले जला रहे हैं। हर कोई अब अजहर को शक की नजर से देखने लगता है। मैच फिक्सिंग में नाम आने के बाद अजहर की लोकप्रियता खत्म हो चुकी है। ऐसे में खुद को बेगुनाह साबित करने और अपनी इमेज को बेदाग साबित करने के लिए अहजर फिक्सिंग मामले को कोर्ट में अपनी और से चैलेंज करते है। कोर्ट में अजहर के खिलाफ केस लड़ रही मीरा (लारा दत्ता) कभी उनकी सबसे बड़ी फैन हुआ करती थी। ऐक्टिंग: फिल्म शुरू से आखिर तक अजहर के किरदार में नज़र आ रहे इमरान हाशमी पर टिकी है। सिल्वर स्क्रीन पर इमरान की इमेज बतौर सीरियल किसर के तौर पर कुछ ज्यादा ही जानी जाती है। शायद यहीं वजह है कि डायरेक्टर ने इस किरदार की डिमांड को इग्नोर करते हुए इमरान को पहले प्राची और बाद में नरगिस के साथ किस सीन के साथ भी पेश किया है। यकीनन इमरान ने रील लाइफ में क्रिकेटर अजहरुद्दीन बनाने के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। इमरान ने इस किरदार के लिए करीब पांच महीने तक क्रिकेट की बारीकियां सीखीं, तो ग्राउंड में भी जमकर पसीना बहाया। यहीं वजह है फिल्म में इमरान ने अजहर के किरदार को जीने की ईमानदारी के साथ कोशिश की है और इसमें काफी हद तक कामयाब भी रहे हैं। ऐंक्ट्रेस संगीता के किरदार में नरगिस फाखरी को फुटेज कम मिली। फिल्म में अजहर की पहली बीवी के किरदार में प्राची देसाई ऐक्टिंग के मामले में नरगिस पर भारी नजर आती हैं। अजहर के नाना बने कुलभूषण खरबंदा चंद सीन्स के बावजूद अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे तो वकील बनी लारा दत्ता की ऐक्टिंग बस ठीकठाक है। वहीं, अजहर का केस लड़ रहे वकील के किरदार कुणाल रॉय कपूर की ऐक्टिंग काबिलेतारीफ है। निर्देशन: इंडियन क्रिकेट टीम के एक्स कैप्टन अजहरुद्दीन की इस बायोपिक फिल्म के लिए डायरेक्टर डिसूजा ने सिनेमा की काफी हद तक लिबर्टी लेते कुछ सीन्स को अलग नजरिए से पेश किया है। वहीं ऐसा लगता है डायरेक्टर इस कहानी को कैमरे के सामने बयां करने में काफी हद तक कन्फ्यूज भी रहे तभी तो स्टार्ट टु लॉस्ट पूरी फिल्म सिर्फ अजहर की बात उन्हीं के नजरिए से पेश करने की एक पहल लगती है। कुछ सीन्स को देखकर ऐसा भी लगता है अजहर अपने दिल की जो बात मीडिया और अपने फैंस से खुलकर नहीं कर पाए अब उसी बात को उन्होंने रील लाइफ में इस फिल्म में कह दिया है। डिसूजा ने फिल्म के लीड किरदार को पावरफुल बनाने के लिए तो अच्छी खासी मेहनत की, लेकिन कहानी के बाकी किसी किरदार को असरदार ढंग से पेश नहीं किया। यहीं वजह है दर्शकों को फिल्म के कुछ सीन्स बनावटी नज़र आते है तो वहीं संगीता और अजहर की लव स्टोरी को भी डिसूजा सही ढंग से पेश नहीं कर पाए। संगीत: रिलीज से पहले ही फिल्म के कई गाने म्यूजिक लवर्स की जुबां पर हैं। क्यों देखें: अगर आप कभी इंडियन क्रिकेट टीम के कामयाब कैप्टन रहे अजहरुदीन के जबर्दस्त फैन रहे है तो अपने चहेते क्रिकेटर की इस फिल्म को देख सकते है। और हां इमरान हाशमी के फैंस को यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इमरान इसमें एक अलग और डिफरेंट लुक में नजर आ रहे हैं। ",1 " हंसी तो फंसी नाम इस फिल्म को सूट नहीं करता। थोड़ा वल्गर या नकारात्मक सा लगता है, लेकिन फिल्म का मिजाज ऐसा नहीं है। दरअसल 'हंसी तो फंसी' एक बेहद हल्की-फुल्की रोमांटिक-कॉमेडी मूवी है जो ज्यादातर समय दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब रहती है। फिल्म की कॉमेडी दर्शकों को गुदगुदाती है, लीड पेयर के रोमांस को आप महसूस करते हैं और इमोशन्स दिल को छूते है। फिल्म के किरदार इतने बढ़िया तरीके से लिखे गए हैं कि सिनेमाघर से निकलने के बाद भी याद रहते हैं। खासतौर पर परिणीति चोपड़ा का किरदार लंबे समय तक याद रहेगा। वैसे भी बॉलीवुड में महिला किरदारों को इतने प्रमुखता से नहीं लिखा जाता है, जैसा कि इस फिल्म में लिखा गया है। फिल्म का हीरो निखिल (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक शादी में शामिल होने जाता है, तभी उसी घर से एक लड़की मीता (परिणीति चोपड़ा) उसे भागते हुए दिखाई देती है। निखिल भागने में उसकी मदद करता है। शादी में निखिल करिश्मा (अदा शर्मा) को दिल दे बैठता है। इसके बाद कहानी सात साल आगे बढ़ जाती है। निखिल और करिश्मा की शादी होने वाली है। सारे मेहमान आ जाते हैं। ऐसे में करिश्मा एक बिन बुलाए मेहमान मीता को रुकवाने का जिम्मा निखिल को देती है। दरअसल मीता और करिश्मा बहनें हैं, लेकिन मीता की हरकतों से उसे कोई पसंद नहीं करता है और वह सात वर्ष पूर्व घर छोड़ कर भाग जाती है। मीता को निखिल अपने घर ले आता है। मीता के साथ सात दिनों में निखिल के प्यार के प्रति विचार बदल जाते हैं और वह करिश्मा के साथ सात वर्षों के रिश्ते के बारे में पु‍नर्विचार करता है। दरअसल करिश्मा के प्रति उसका आकर्षण था जो वह दिल दे बैठा, लेकिन इन सात वर्षों में वह सिर्फ करिश्मा को खुश करने की कोशिश करता रहा। जबकि मीता के साथ उसका दिमागी तालमेल बैठता है और उसे समझ आता है कि प्यार में बाहरी आकर्षण से ज्यादा महत्वूपर्ण है मेंटल लेवल का समान होना। हंसी तो फंसी' को हर्षवर्धन कुलकर्णी ने लिखा है और विज्ञापन फिल्म बनाने वाले विनिल मैथ्यू ने पहली बार कोई फिल्म निर्देशित की है। 'हंसी तो फंसी' में कई ऐसी चीजें हैं जो पहले भी आप कई हिंदी फिल्मों में देख चुके हैं, जैसे शादी की पृष्ठभूमि में कहानी का सेट होना, दोनों तरफ के बड़े परिवार, लड़का-लड़की का बहुत देर बाद यह अनुभव करना कि उन्हें प्यार हो गया है, लेकिन इसके बावजूद आप किरदारों के कारण फिल्म में ताजगी को महसूस करते हैं। कहानी न तो बहुत लंबी है और न ही इसमें बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव है। ऐसे में स्क्रीनप्ले इतना दमदार होना चाहिए कि दर्शकों को बांध कर रख सके। बिना कहानी के परदे पर हो रहे घटनाक्रमों में दर्शकों की रूचि बनी रहे। इसके लिए स्क्रीनप्ले के साथ-साथ निर्देशक को भी बहुत मेहनत करना होती है और 'हंसी तो फंसी' इस मामले में कामयाब है। फिल्म की शुरुआत में ही मीता और निखिल का बाल रूप दिखाकर निर्देशक ने दर्शकों के मन में यह बात स्थापित कर दी कि दोनों कितने खुराफाती हैं। निखिल हर चीज को बेहद हल्के से लेता है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वह गंभीर नहीं है। लेकिन यह बात करिश्मा नहीं समझती और उस पर हमेशा दबाव डालती रहती है। मीता का किरदार बहुत ही दिलचस्प है। वह बहुत ब्रिलियंट है। केमिकल इंजीनियर है। उसकी होशियारी को उसका व्यावसायिक सोच रखने वाला परिवार समझ नहीं पाता है, इसलिए वह चीन भाग जाती है और सात वर्ष बाद भारत लौटी है क्योंकि उसे पैसों की जरूरत है। यह पैसे वह अपने घर से चुराना चाहती है। फिल्म के पहले हाफ में परिणीति का यह किरदार खूब मनोरंजन करता है। एंटी डिप्रेशन टेबलेट लेने के बाद मीता का एक अलग ही वर्जन बाहर आता है और वह अजीब हरकतें करती हैं। उसकी इन हरकतों की कमी फिल्म के सेकंड हाफ में महसूस होती हैं। मीता के प्रति सब कठोर रहते हैं, लेकिन उसके अंदर छिपी एक प्यारी-सी मासूम लड़की को निखिल खोज लेता है और यही बात दोनों को करीब ले आती है। निखिल और मीता का एक-दूसरे जानना बहुत ही खूबी से दिखाया गया है। दोनों के बीच कई ऐसे सीन हैं जिससे वे एक-दूसरे के करीब आते हैं। जैसे- मीता को निखिल का कमरे में बंद कर देना और बहुत देर बाद रूम का दरवाजा खोलकर यह जानना कि मीता प्रेशर बर्दाश्त नहीं कर पाई और उसने साड़ी गीली कर दी। मीता का सीधे-सीधे निखिल को यह बोलना कि वह उसकी बहन (करिश्मा) को छोड़ उससे शादी कर ले क्योंकि वह उसके लायक है। फिल्म में कई सिचुएशनल कॉमेडी के दृश्य भी हैं, जो खूब हंसाते हैं। रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर शरत सक्सेना का मीता पर शक करना कि उसने हार चुराया है और बाद में मीता का उनका ही बेग खुलवाना। मीता को अपने पिता से मिलवाने के लिए निखिल का आधी रात को उसके घर जाना और मीता के पिता को जगा कर बाहर लाना, इस दृश्य में हास्य और इमोशन एक साथ आप महसूस कर सकते हैं। जहां तक कमियों का सवाल है तो मीता का चीन वाला हिस्सा कमजोर है। उसे ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया है। चीन और चोरी वाले प्रसंगों में फिल्म कमजोर भी पड़ती है। क्लाइमेक्स वैसा ही है जैसा हम कई फिल्मों में देख चुके हैं, जबकि उम्मीद थी कि कुछ अलग तरीके से बात क्लाइमैक्स तक पहुंचेगी। करिश्मा के किरदार को ठीक से पेश नहीं किया है, लेकिन इन कमियों का फिल्म पर उतना असर नहीं पड़ता। फिल्म के संवादों में जबरदस्त हास्य है और कई संवादों को समझने में दिमाग की जरूरत लगती है। फिल्म का अभिनय पक्ष बहुत मजबूत है। पूरी फिल्म परिणीति के इर्दगिर्द घूमती है और उन्होंने अपने शानदार अभिनय से दिखा दिया है कि क्यों उन्हें वर्तमान पीढ़ी की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों में से एक माना जाता है। मीता का किरदार उन्होंने इस कदर जिया है कि कही लगता नहीं है कि वे अभिनय कर रही हैं। कई दृश्यों में उनका अभिनय देखने लायक है। एक फिल्म पुराने सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अभिनय के मामले में काफी तरक्की की है। परिणीति चोपड़ा जैसी दमदार अभिनेत्री के सामने न केवल टिके रहे बल्कि बराबरी से मुकाबला भी किया। एक कन्फ्यूज और सबको खुश रखने वाले किरदार को उन्होंने अच्छे से निभाया। करिश्मा के रूप में अदा शर्मा का अभिनय भी बेहतरीन है। आमतौर पर मनोज जोशी लाउड हो जाते हैं, लेकिन यहां मीता के रोल में उन्होंने अपने आप पर काबू रखा। उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है जिसमें मीता को उसके घर वाले डांट रहे हैं और वे आकर मीता को गले लगा लेते हैं। निखिल के पिता और रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर के रूप में शरत सक्सेना ने दर्शकों को खूब हंसाया है। कुल मिलाकर हंसी तो फंसी ताजगी से भरी एक रोमांटिक फिल्म है, जिसमें ढेर सारी हंसी और इमोशन्स भी हैं। वेलेंटाइन डे निकट है और इस प्यार से भरे माहौल में यह फिल्म देखी जा सकती है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने, अनुराग कश्यप निर्देशक : विनिल मैथ्यु संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, परिणीति चोपड़ा, अदा शर्मा, शरत सक्सेना, मनोज जोशी, नीता कुलकर्णी, समीर खख्खर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 21 मिनट 19 सेकंड ",1 "फाइंडिंग फैनी में कहानी पर भारी किरदार हैं। उनका व्यवहार थोड़ा अजीब है। कैरीकेचर जैसे हैं, लेकिन इतने मजेदार हैं कि उनका यह स्वभाव पसंद आता है। मुख्यत : पांच किरदार हैं। जो एक-दूसरे से जुदा हैं, लेकिन साथ में पुरानी खटारा इम्पाला कार में शान से बैठकर फैनी को ढूंढने निकलते हैं। फैनी मिलती है या नहीं ये तो क्लाइमैक्स में पता चलता है, लेकिन फैनी को ढूंढने का इनका सफर बढ़िया है। इस सफर में वर्षों से दफन कई राज खुलते हैं। कुछ गिला-शिकवा दूर होते हैं और जिंदगी में पांचों को कुछ मकसद मिल जाता है। बीइंग सायरस और कॉकटेल जैसी फिल्म बना चुके निर्देशक होमी अजदानिया एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। गोआ में पोकोलिम नामक एक गांव है। वहां की जिंदगी ठहरी हुई महसूस होती है। सबके पास फुर्सत है। कोई हड़बड़ी नहीं। खूब समय है। इस वातावरण को बहुत ही उम्दा तरीके से निर्देशक ने दर्शाया है। इसमें बैकग्राउंड म्युजिक का भी अहम रोल है। चहचहाती चिड़िया और घड़ी की टिक-टिक से उस जगह की शांति को महसूस किया जा सकता है। बीइंग सायरस और कॉकटेल जैसी फिल्म बना चुके निर्देशक होमी अजदानिया एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। गोआ में पोकोलिम नामक एक गांव है। वहां की जिंदगी ठहरी हुई महसूस होती है। सबके पास फुर्सत है। कोई हड़बड़ी नहीं। खूब समय है। इस वातावरण को बहुत ही उम्दा तरीके से निर्देशक ने दर्शाया है। इसमें बैकग्राउंड म्युजिक का भी अहम रोल है। चहचहाती चिड़िया और घड़ी की टिक-टिक से उस जगह की शांति को महसूस किया जा सकता है। होमी अजदानिया ने एक खबर पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि एक पत्र उसी इंसान के पास लौट आता है जिसने लिखा था। यह पत्र उसे 46 वर्ष बाद मिलता है। इससे उन्हें 'फाइंडिंग फैनी' का आइडिया मिला। फ्रैडी (नसीरुद्दीन शाह), स्टेफैनी फर्नांडिस उर्फ फैनी को एक खत लिखता है जिसमें वह प्रेम का इजहार करता है। जब फैनी की तरफ से कोई जवाब नहीं मिलता तो वह यह मान लेता है कि फैनी ने उसे रिजेक्ट कर दिया है। 46 वर्ष बाद उसे यह खत सीलबंद अवस्था में वापस मिलता है। उसे महसूस होता है कि वह जिंदगी भर इस झूठ के सहारे जिया कि फैनी ने उसके प्रेम निवेदन को ठुकरा दिया जबकि फैनी को तो पता भी नहीं चला कि वह उसे चाहता था। वह फैनी को ढूंढना चाहता है जिसमें उसकी मदद करती है एंजी (दीपिका पादुकोण)। युवा एंजी विधवा है क्योंकि उसका पति (रणवीर सिंह) वेडिंग वाले दिन ही केक खाकर मर गया। अपनी सासु रोज़ी (डिम्पल कपाड़िया) के साथ वह रहती है। सेवियो (अर्जुन कपूर) एंजी को चाहता था, लेकिन जब एंजी ने दूसरे से शादी कर ली तो वह गांव छोड़ कर चला गया और अब छ: बरस बाद लौटा है। वह कार मैकेनिक है और उसने ही अपने डैड की खटारा कार डॉन पैड्रो (पंकज कपूर) को बेची है। पैड्रो एक पेंटर है और उसे भारी-भरकम औरतें बेहद पसंद है। वह रोज़ी की पेंटिंग बनाना चाहता है। फैनी को ढूंढने के लिए ऐंजी और फ्रैडी निकलते हैं और किसी न किसी वजह से इनके साथ रोज़ी, सेवियो और पैड्रो भी जुड़ जाते हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट भले ही परफेक्ट न हो, लेकिन दिलचस्प जरूर है। कॉमेडी के नाम पर कहीं भी हंसाने की कोशिश नहीं की गई है, लेकिन पूरी फिल्म में चेहरे पर एक मुस्कान तैरती रहती है। किरदार कब क्या कर बैठे, यह अंदाजा लगाना आसान नहीं है और इसी वजह से पूरी फिल्म में रूचि बनी रहती है। फिल्म में कई दृश्य अच्छे बन पड़े हैं, जैसे- पैड्रो का रोजी की पेंटिंग बनाना, रोजी-पैड्रो और फ्रैडी का पेड़ के नीचे शराब पीना, एंजी और सेवियो का साथ में रात बिताना, फैनी को ढूंढते हुए एक ऐसे घर में पहुंचना जहां एक रशियन रहता है। संवाद बहुत चुटीले हैं और कई बार समझने के लिए दिमाग भी लगाना पड़ता है। शुरुआत में लंबी कंमेट्री भी है जिसमें किरदारों का परिचय दिया गया है, लेकिन इससे बचा भी जा सकता था। होमी अदजानिया का प्रस्तुतिकरण फिल्म को खास बनाता है। उन्होंने दर्शकों को अपने तरीके से मतलब निकालने की जिम्मेदारी दी है। हालांकि उनका कहानी कहने का तरीका 'हटके' है और टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल से दूर है, इसलिए जरूरी नहीं है कि सभी को यह पसंद आए। गोआ और वहां का वातारवण उन्होंने बेहद खूबी के साथ पेश किया है और दर्शक इन पांचों किरदारों में खो जाता है। फिल्म के हर डिपार्टमेंट पर उनकी पकड़ नजर आती है। फिल्म में दीपिका पादुकोण, अर्जुन कपूर जैसे स्टार कलाकार और पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, डिम्पल कपाड़िया जैसे बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन सभी को उतने ही फुटेज दिए गए जितने की जरूरत थी। फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। सबसे बेहतर हैं नसीरुद्दीन शाह। क्यों उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में से एक माना जाता है यह 'फाइंडिंग फैनी' से एक बार फिर साबित हो जाता है। फ्रैडी की सादगी और अकेलेपन को उन्होंने बहुत अच्‍छे से पेश किया। पंकज कपूर का किरदार बड़ा टेढ़ा था और उन्हें ऐसे किरदारों को निभाने में मजा भी आता है। डिम्पल की पेंटिंग बनाते समय उनका अभिनय देखने लायक है और वे इस दृश्य में अपने अभिनय से बहुत कुछ कह जाते हैं। डिम्पल का किरदार बेहद लाउड है और उन्होंने वैसी ही लाउडनेस किरदार को दी जितनी डिमांड थी। एंजी के रोल में दीपिका एकदम सहज नजर आईं और पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक वे अपने किरदार में रही। उन्होंने अपनी ग्लैमरस इमेज को अलग रख अभिनय किया और कही भी इन हैवीवेट अभिनेताओं से आतंकित नजर नहीं आईं। सेवियो के रूप में अर्जुन कपूर का चयन भी सही है। उन्होंने अपने किरदार को सही एटीट्यूड दिया। रणवीर सिंह चंद सेकंड के लिए नजर आते हैं, लेकिन फिल्म के अंत तक याद रहते हैं। अनिल मेहता ने की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है और उन्होंने माहौल को खूब पकड़ा है। तकनीकी रूप से फिल्म मजबूत है। फाइंडिंग फैनी उन लोगों के लिए है जो कुछ फिल्मों में कुछ नया देखना चाहते हैं। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मैडॉक फिल्म्स निर्माता : दिनेश विजान निर्देशक : होमी अडजानिया संगीत : मथिअस डुप्लेसी कलाकार : अर्जुन कपूर, दीपिका पादुकोण, नसीरुद्दीन शाह, डिम्पल कपाड़िया, पंकज कपूर, अंजलि पाटिल, रणवीर सिंह (विशेष भूमिका) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * एक घंटा 33 मिनट ",1 "बॉलिवुड में नारी प्रधान फिल्मों के बनने का ट्रेंड नया नहीं है, साठ के दशक से लेकर आज के दौर तक हमेशा नायिका प्रधान फिल्में बनती रही है। आज की नंबर वन टॉप ऐक्ट्रेस भी हमेशा अपनी अलग पहचान बनाने और बॉक्स ऑफिस पर अपने दम पर हिट करने की चाह में अपनी प्राइस से कम प्राइस लेकर नायिका प्रधान फिल्में करती रहती हैं। करीना कपूर ने 'चमेली' जैसी कम बजट फिल्म की तो कंगना ने 'क्वीन' सहित कुछ और ऐसी ही फिल्में की। अकीरा में भी सोनाक्षी लीड किरदार में नजर आईं, अब नूर भी सोनाक्षी के इर्दगिर्द घूमती कहानी पर बनी फिल्म है। पाकिस्तानी राइटर सबा इम्तियाज़ के बेस्ट सेलर नॉवल 'कराची यू आर किलिंग मी' से प्रेरित नूर की कहानी एक ऐसी महिला जर्नलिस्ट की है जो पत्रकारिता की दुनिया में अपने दम पर कुछ हटकर और डिफरेंट करना चाहती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता, कुछ अलग करने की चाह में नूर और उसके पापा की जान जरूर ख़तरे में पड़ जाती है। कहानी: नूर (सोनाक्षी सिन्हा) एक टीवी चैनल की रिर्पोटर हैं, नूर अपने बॉस शेखर दास (मनीष चौधरी) से हमेशा अपसेट रहती हैं दरअसल, नूर का बॉस उसे कुछ नया या हटकर करने की बजाए वहीं पुरानी रूटीन टाइप की रिर्पोटिंग करवा रहा है। जहां नूर चैनल के लिए रिसर्च बेस्ड स्टोरी करना चाहती है, तो शेखर उसे फिल्म सिटी में जाकर सनी लियोनी का इंटरव्यू करने जैसे नॉन सीरियस काम पर लगा रहा है। इसी बीच नूर के हाथ एक ऐसी सनसनीखेज स्टोरी आती है जो समाज की कई नामचीन हस्तियों के चेहरे से ईमानदारी और समाजसेवा का नकाब हटा सकती है, नूर के घर की नौकरानी मालती का भाई वासु एक ऐसे किडनी ट्रांसप्लांट गिरोह के चगुल में फंसकर अपनी एक किडनी गंवा बैठा, जिसमें शहर के कई रसूखदार लोग और नामी डॉक्टर शामिल हैं। नूर इस स्टोरी को कवर तो करती है, लेकिन शेखर इस स्टोरी पर एक दो दिन बाद डिस्कस करने की बात कहकर स्टोरी रोक देता है। इसी बीच नूर की यह स्टोरी चोरी हो जाती है, एक दूसरे टीवी चैनल पर स्टोरी चलने के बाद मालती और उसका भाई गायब हो जाते हैं। ऐक्टिंग: स्टार्ट टू लॉस्ट पूरी फिल्म नूर के आसपास ही घूमती है, अकीरा में ऐक्शन स्टंट करने के बाद सोनाक्षी ने नूर के किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाया है। बेशक, नूर का किरदार कुछ कन्फ्यूज सा है जो प्यार और करियर के चक्रव्यूह में फंसा सा है, ऐसे किरदार को असरदार ढंग से निभाने के लिए सोनाक्षी ने अच्छी मेहनत की, सोनाक्षी के किरदार को हम बरसों पहले आई मधुर की फिल्म पेज 3 की महिला जर्नलिस्ट कोंकणा सेन शर्मा के किरदार का एक्सटेंशन भी कह सकते हैं, वहीं कनन गिल, पूरब कोहली, शिबानी, एम के रैना ने अपने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। डायरेक्शन: ऐसा लगता है डायरेक्टर सुन्हील सिप्पी को काफ़ी बिखरा हुई स्क्रिप्ट मिली, समझ नहीं आता सुन्हील ने अपनी कहानी की शुरुआत का बडा पार्ट मोनोलॉग के ज़रिए क्यों पेश किया। अगर दो घंटे की फिल्म में करीब दस _ पंद्रह मिनट तक फिल्म की लीड किरदार नूर ही अपने बारे में बताती रहे तो यकीनन दर्शकों को यह उबाऊ और बोर लगेगा। फिल्म की शुरूआत धीमी है और इंटरवल से ठीक पहले कहानी अपने ट्रैक पर आती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सुन्हील की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने मीडिया में एंट्री कर रही वाले युवा पीढी को ब्रेकिंग न्यूज और अपने नाम चमकाने की चाह में किसी की जान से कभी ना खेलने का मेसेज भी दिया है। संगीत: फिल्म का एक गाना गुलाबी आंखें जो तेरी देखी पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल है। क्यों देखें: एक बेहतरीन नॉवल पर बनी ऐसी फिल्म जिसमें मीडिया का एक अलग चेहरा पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया गया, सोनाक्षी की बेहतरीन ऐक्टिंग इस फिल्म को देखने की एक वजह हो सकती है। ",0 "मोहेंजो दारो के शुरुआती सीक्वेंस में रितिक रोशन एक भीमकाय मगरमच्छ को मारते हैं। यह सीन और मगरमच्छ निहायत ही नकली लगता है। यह नकलीपन फिर पूरी फिल्म पर हावी हो जाता है और आश्चर्य होता है‍ कि इस फिल्म से आशुतोष गोवारीकर और रितिक रोशन जैसे लोग जुड़े हुए हैं। एक ऐसी फिल्म पर करोड़ों रुपये लगाए गए हैं जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है। जरा कहानी पर गौर फरमाएं। एक हीरो है जो गांव से शहर आता है। खूबसूरत हीरोइन को दिल दे बैठता है। हीरोइन की शादी फिल्म के मुख्य विलेन के लड़के से तय है जिसका इस शहर पर राज है। विलेन अपने रास्ते से उस हीरो को हटाना चाहता है। हीरो के पिता की वर्षों पहले इस विलेन ने ही हत्या की थी। हीरो को एक और मकसद मिल जाता है। वह न केवल प्यार हासिल करता है बल्कि शहर के लोगों को भी बचाता है। इस घिसी-पिटी और हजारों बार आजमाई को कहानी आशुतोष गोवारीकर ने लिखा है। कहानी को अलग लुक और फील देने के लिए वे चार हजार वर्ष पुराने दौर में चले गए। मोहेंजो दारो की पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी इस घटिया कहानी को चिपका दिया और सोचा कि दर्शकों को वे मोहेंजो दारो के सेट, कास्ट्यूम और भव्यता में ऐसा उलझाएंगे कि कहानी वाली बात दर्शक भूल जाएंगे, लेकिन घटिया कहानी के साथ स्क्रीनप्ले भी इतना उबाऊ है कि फिल्म से आप जुड़ नहीं पाते। फिल्म की शुरुआत में मोहेंजो दारो को थोड़ी प्रमुखता दी है। कैसे व्यापार होता था? कैसे लोग रहते थे? कैसे समय की गणना की जाती थी? लेकिन धीरे-धीरे मोहेंजो दारो और वर्षों पुरानी सभ्यता पीछे छूट जाती है और रूटीन कहानी हावी हो जाती है। फिर कहानी में मोहेंजो दारो है या नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता। हीरो का नाम है सरमन और हीरोइन का चानी। दोनों की प्रेम कहानी पर भी काफी फुटेज खर्च किए गए हैं, लेकिन यह रोमांस बहुत ही फीका है। चानी का सरमन पर फिदा होने वाला जो सीन बनाया गया है वो कोई भी सोच सकता है। इसी तरह सरमन और विलेन माहम तथा मूंजा के दृश्य भी सपाट हैं। न खलनायक के लिए नफरत पैदा होती है और न हीरो के लिए सहानुभूति। फिल्म का लंबा क्लाइमैक्स है जो सीजीआई के कारण कमजोर बन गया है। क्लाइमैक्स में फिल्म का हीरो खूब जी जान लगाकर हजारों गांव वालों को बचाता है, लेकिन उसकी इस महान कोशिश आपको बिलकुल भी उत्साहित नहीं करती है क्योंकि तब तक फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है और इंतजार इस बात का रहता है कि फिल्म कब खत्म हो। क्लाइमैक्स की एडिटिंग भी बेहद खराब है। मोहें जो दारो के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें आशुतोष के निर्देशन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। वे अपने प्रस्तुतिकरण से फिल्म को दिलचस्प नहीं बना पाए। जिस तरह से उन्होंने कहानी के बीच गानों को डाला है उससे फिल्म का बनावटीपन और बढ़ा है। बकर और जोकार से सरमन का फाइटिंग सीन छोड़ दिया जाए तो फिल्म में कुछ भी देखने लायक नहीं है। रितिक रोशन ने पूरी ईमानदारी से कोशिश की है, लेकिन उनके कद और मेहनत के साथ फिल्म की स्क्रिप्ट न्याय नहीं कर पाती। वे भी बेदम स्क्रिप्ट के तले असहाय नजर आए। उनका लुक भी बेहद आधुनिक है जो आंखों में खटकता है। पूजा हेगड़े का अभिनय औसत दर्जे का है और वे बिलकुल प्रभावित नहीं करतीं। ‍रितिक के साथ उनकी केमिस्ट्री बिलकुल नहीं जमी। कबीर बेदी और अरुणोदय सिंह ने खलनायकी के रंग दिखाए हैं। हालांकि सींगो वाले मुकुट में कबीर बेदी बहुत बुरे दिखे हैं। म्युजिक और बैकग्राउंड म्युजिक दोनों ही विभागों में एआर रहमान का काम उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं है। बैनर : आशुतोष गोवारीकर प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : सुनीता गोवारीकर, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक: आशुतोष गोवारीकर संगीत : एआर रहमान कलाकार : रितिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह, शरद केलकर ",0 "ऐसा लगता है कि पंजाब में लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने वाले हर सिंगर में ऐक्टिंग की फील्ड में भी अपनी पहचान बनाने को लेकर क्रेज है। कुछ वक्त पहले जब हनी सिंह की आवाज का जादू हर किसी पर सिर चढ़कर बोल रहा था तभी हनी भी सिनेमा की स्क्रीन पर नजर आए तो इन दिनों दिलजीत दोसांझ को पंजाबी मेकर के साथ बॉलिवुड के नामी मेकर भी अपनी फिल्म के लिए साइन करने को बेकरार हैं। गुरुदास मान तो बरसों से गायकी और ऐक्टिंग की फील्ड में ऐक्टिव हैं। पंजाबी सिंगर सतिंदर सरताज ने भी इस फिल्म के साथ साथ अब गायकी के साथ ऐक्टिंग में भी हाथ आजमाया है। वैसे, सरताज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक ऐसी फिल्म में खुद को लॉन्च किया है जो एक खास क्लास के लिए ही बनाई गई है। इस फिल्म में पंजाब के अंतिम महाराजा दुलीप सिंह और महारानी विक्टोरिया के साथ उनके रिश्तों को पूरी ईमानदारी के साथ भारतीय मूल के ब्रिटिश डायरेक्टर कवि राज ने पेश किया है। हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी में बनी इस फिल्म को इस शुक्रवार को चुनिंदा मल्टिप्लेक्सों में रिलीज़ किया गया है। स्टोरी प्लॉट : महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दुलीप सिंह (सतिंदर सरताज) को पांच साल की उम्र में ही महाराज घोषित करके महारानी जींद (शबाना आजमी) को उनका संरक्षक घोषित किया गया। ब्रिटिश सिख युद्ध के बाद रानी जींद को गिरफ्तार किया गया और फिर निर्वासित जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया गया। कुछ अर्से बाद ब्रिटिश अधिकारी लॉगिन (जेसन फ्लेमिंग) को महारानी का राज-प्रतिनिधि बना दिया गया। इसी दौरान दुलीप सिंह को लंदन भेज दिया गया। लंदन के राजमहल में महारानी विक्टोरिया से दुलीप सिंह की नजदीकी बढ़ी, इसी दौरान दुलीप सिंह ईसाई बन गए और अंग्रेजी सरकार उस वक्त मोटी पेंशन बांधकर उनसे कोहिनूर हीरा ले लिया गया। लंदन के राजमहल से दुलीप सिंह ने अपनी मां महारानी जींद को कई खत लिखे, जो उनकी मां तक नहीं पहुंचे। ऐसे में दुलीप सिंह आए और अपनी मां जींद से मिले और मां को लंदन अपने साथ ले गए। लंदन में अपने बेटे के साथ रहते हुए महारानी जींद ने दुलीप सिंह को अपनी सिख विरासत और परम्पराओं के बारे में समझाया। इसी दौरान महरानी जींद ने दुलीप सिंह को सिख गुरुओं की अपनी आन-बान और शान के लिए पूरी जिंदगी कौम के लिए कुर्बान करने के बारे में बताया। इसी दौरान जींद को मां से पता चला कि पंजाब के लाखों सिखों को इंतजार है कि महाराज रणजीत सिंह का सबसे छोटा बेटा परदेश से लौटकर वतन आए और उनका नेतृत्व करे। मां की इन्हीं शिक्षाओं का ही असर था कि दुलीप सिंह वापस सिख धर्म में लौट आए। इसी दौरान दुलीप सिंह ने एक विदेशी लड़की से शादी की तो क्वीन विक्टोरिया ने उन्हें ब्लैक प्रिंस ऑफ पर्थशायर की उपाधि दी। लंदन में अपनी मां की मौत के बाद दुलीप सिंह एक बार फिर अपनी कौम की खातिर कुछ करने की चाहत लेकर वतन लौटे। महाराज दुलीप सिंह के किरदार में पंजाब के नामी सिंगर सतिंदर सरताज ने अपने किरदार को अच्छी तरह से जीया है। महारानी जींद के रोल में शबाना आजमी का अभिनय दिल को छूता है, शबाना ने इस किरदार को दिल से निभाया है। पंजाबी डायलॉग में पकड़ अच्छी रही, वहीं जॉन लॉगिन के किरदार में जेसन फ्लेमिंग जमे हैं। भारतीय मूल के ब्रिटिश डायरेक्टर कवि राज ने सब्जेक्ट की डिमांड के मुताबिक फिल्म बनाई है, बॉक्स आफिस को उन्होंने पूरी तरह से दरकिनार किया है। बेशक, टिकट खिड़की पर उनकी यह फिल्म कुछ खास न कर पाए लेकिन दर्शकों की उस क्लास को यह फिल्म यकीनन पसंद आएगी जो कुछ नया जानने और अपने और अपनी कौम के अतीत को जानना चाहते हैं। सतिंदर सरताज ने ही इस फिल्म के पंजाबी गानों को कम्पोज किया है। कई इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म अवॉर्ड्स जीत चुकी है। अगर आप चालू मसाला फिल्मों से दूर हटकर कुछ अलग और अपने गौरवमयी इतिहास को जानने के शौकीन हैं तभी इस 'ब्लैक प्रिंस' से मिलने जाएं। बॉलीवुड मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं है। ",1 " फटा पोस्टर निकला हीरो का सबसे बड़ा आकर्षण राजकुमार संतोषी हैं। उन्होंने संदेश प्रधान फिल्मों के साथ-साथ ऐसी फिल्में भी बनाई हैं जो मनोरंजन से भरपूर रही हैं। लिहाजा ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ से मनोरंजन की आशा लिए दर्शक जाता है, लेकिन संतोषी की यह फिल्म पूरी तरह निराश करती है। सारा दोष संतोषी का ही है क्योंकि उन्होंने कहानी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग और निर्देशन जैसी सारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाई हैं, लेकिन एक भी डिपार्टमेंट में मन लगाकर काम नहीं किया। यह फिल्म पूरी तरह बनावटी है, कलाकारों ने ओवरएक्टिंग की है और संतोषी का निर्देशन आउटडेटेट है। ऐसा लगता है कि बरसों पुरानी फिल्म देख रहे हो। फिल्म के सेट भी पुरानी फिल्मों जैसे नजर आते हैं। कही से भी यह फिल्म मनोरंजन नहीं करती है। गांव में रहने वाले विश्वास राव (शाहिद कपूर) की मां सावित्री (पद्मिनी कोल्हापुरे) चाहती है कि उसका बेटा ईमानदार पुलिस इंसपेक्टर बने, लेकिन वह हीरो बनना चाहता है। पुलिस में भर्ती के इंटरव्यू के लिए विश्वास को मुंबई बुलाया जाता है तो खुश होता है कि इस आड़ में हीरो बनने का सपना पूरा कर लेगा। मुंबई में पुलिस वर्दी पहन कर वह फोटो खिंचवाता है। गलती से यह फोटो अखबार में छप जाती है और गांव में मां समझती है कि बेटा पुलिस वाला बन गया है। वह मुंबई आती है तो मां के विश्वास को कायम रखने के लिए विश्वास नकली पुलिस वाला बनकर घूमता है। गुंडों की पिटाई भी करता है, लेकिन उसका यह भांडा कुछ देर बाद फूट जाता है। यह पूरा ट्रेक हंसाने के लिए रखा गया है, लेकिन काम नहीं करता। हास्य दृश्यों को बोर करने की हद तक लंबा खींचा गया है। यही हाल एक्शन दृश्यों का है। संतोषी जो छोटे-छोटे दृश्यों से हास्य पैदा करते हैं, वो जादू इस फिल्म से नदारद है। इंटरवल के बाद फिल्म में इमोशन और खलनायक वाले ट्रेक को महत्व दिया गया है। खलनायक वाला ट्रेक बहुत बुरा है। विलेन बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनके अड्डे पर कोई भी कभी भी मुंह उठाए घुस जाता है। फिल्म न तो पूरी तरह गंभीर है, न हास्य में इतना दम है कि दर्शकों को बांधकर रख सके इसलिए पूरी तरह मामला गड़बड़ा गया है। राजकुमार संतोषी से मौलिकता की उम्मीद की जाती है, लेकिन इस फिल्म में वे अपने आपको दोहराते नजर आए। कई प्रसंग अजब प्रेम की गजब कहानी और अंदाज अपना अपना की याद दिलाते हैं। संतोषी का प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह का है कि अगले पल क्या होने वाला है, इसका अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है। हद तो ये है कि कलाकार क्या संवाद बोलेंगे यह भी आप बता सकते हैं। आइटम सांग, फाइट सीन, गाने, मां की ममता, खोया-पाया फॉर्मूला जैसे तमाम मसाले इस फिल्म में डाले गए हैं, लेकिन इनका संतुलन अनुपात में नहीं है। पद्मिनी कोल्हापुरे को छोड़ हर कलाकार से ओवर एक्टिंग करवाई गई है इसीलिए पद्मिनी का अभिनय ही सबसे बेहतर नजर आता है। शाहिद कपूर का किरदार कैरीकेचर बन गया है। उनके अभिनय में असहजता साफ झलकती है कि खुद उन्हें अपने किरदार और निर्देशक पर यकीन नहीं है तो वे दर्शकों को कैसे यकीन दिला पाएंगे। एक्शन दृश्यों में वे बिलकुल फिट नहीं बैठते। ‘बर्फी’ में अपने अभिनय से प्रभावित करने वाली इलियाना डीक्रूज निराश करती हैं। फिल्म में हीरोइन होना जरूरी है इसलिए उन्हें रखा गया है। न उनका रोल ठीक से लिखा गया है और न ही उनकी एक्टिंग में दम नजर आता है। दर्शन जरीवाला, जाकिर हुसैन, सौरभ शुक्ला, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा जैसे दमदार चरित्र अभिनेताओं की फौज फिल्म में हैं, लेकिन सभी से ओवर एक्टिंग करवाई गई है। नरगिस फाखरी का आइटम सांग फीका है। सलमान खान भी छोटे से रोल में नजर आते हैं और अंदाज अपना अपना पार्ट टू की बात करते हुए कहते हैं फिर से आमिर खान के साथ काम करना पड़ेगा, आइला...। फिल्म के एक-दो गाने ठीक हैं, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कभी भी टपक पड़ते हैं। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर है। कई सीन छोटे किए जा सकते हैं जो बेवजह फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। कुल मिलाकर पोस्टर फटने पर हीरो नहीं बल्कि जीरो निकलता है। बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स निर्माता : रमेश एस. तौरानी निर्देशक : राजकुमार संतोषी कलाकार : शाहिद कपूर, इलियाना डिक्रूज, पद्मिनी कोल्हापुरे, दर्शन जरीवाला, जाकिर हुसैन, सौरभ शुक्ला, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, नरगिस फाखरी (आइटम नंबर), सलमान खान (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * दो घंटे 26 मिनट 20 सेकंड ",0 "अपराधी को फिल्म में बेहद चालाक बताया गया है। वह अपनी किसी से भी सीधे तौर पर संवाद नहीं करता, लेकिन रानी को हमेशा फोन लगाता है। उसे धमकाता और चैलेंज देता है। ये बात उसके किरदार से मेल नहीं खाती। चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार वाला मुद्दा भी फिल्म के बीच में पीछे रह जाता है और चोर-पुलिस का खेल उस पर हावी हो जाता है। प्यारी' जब उसे तीन-चार दिन दिखाई नहीं देती तो वह खोजबीन शुरू करती है। उसे पता चलता है कि प्यारी का सिर्फ अपहरण ही नहीं हुआ है बल्कि वह संगठित तरीके से लड़कियों और व्यापार करने वाले गिरोह के जाल में फंस गई है। इसे एक ऐसा इंसान चलाता है जिसके बारे में कोई जानकारी किसी के पास नहीं है। शिवानी उसके खिलाफ लड़ती है और अंत में सफल होती है। फिल्म की शुरुआत बेहद धीमी है और शुरुआती प्रसंग बेहद बनावटी लगते हैं। धीरे-धीरे फिल्म अपनी पकड़ मजबूत करती है और परदे पर चल रहा थ्रिल अच्छा लगने लगता है। फिल्म की स्क्रिप्ट ऐसी नहीं है जिसे परफेक्ट कहा जाए। फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखने की कोशिश भी की गई है तो कई जगह सिनेमा के नाम पर छूट भी ले ली गई है। खासतौर पर क्लाइमैक्स में रानी को 'हीरो' बनाने का मोह निर्देशक नहीं छोड़ पाए हैं। रानी के हाथ में बंदूक है। सामने विलेन खड़ा है। इसके बावजूद वह बंदूक से गोलियां निकाल फेंकती है और उसकी धुलाई करती है। देह व्यापार सदियों पुराना है और इसमें बच्चियों को भी धकेल दिया गया है। भारत जैसे देश से प्रत्येक आठ मिनट में एक बालिका लापता होती है और चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार का भारत बड़ा केन्द्र माना जाता है। ज्यादातर गरीब और अशिक्षित लोगों की बालिकाओं को उठा लिया जाता है और तथाकथित सभ्रांत और शक्तिशाली लोग इनका शोषण करते हैं। इन बातों को लेकर फिल्म निर्देशक प्रदीप सरकार ने 'मर्दानी' बनाई है। सरकार कमर्शियल फॉर्मेट में फिल्म बनाते हैं, लेकिन सामाजिक मुद्दे से उसे जोड़ देते हैं। पिछली कुछ फिल्मों में वे दिशा भटक गए थे, इसके बावजूद निर्माता आदित्य चोपड़ा ने उन पर विश्वास जताया और अपने बैनर तले तीसरा अवसर दिया। मर्दानी दरअसल चोर-पुलिस का खेल है, जिसके बैकड्रॉप में गर्ल चाइल्ड ट्रैफिकिंग को दिखाया गया है। गोपी पुथरन द्वारा लिखी गई कहानी ऐसी नहीं है कि जिसमें आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन जिस तरह से मंजिल तक पहुंचने से ज्यादा सफर का मजा आता है, वैसा ही कुछ मजा यह फिल्म देती है। अपराधी तक पुलिस किस तरह पहुंचती है, ये देखना दिलचस्प है। शिवानी रॉय (रानी मुखर्जी) क्राइम ब्रांच में सीनियर इंस्पेक्टर है। अपने पति और भतीजी के साथ वह रहती है। वह निडर है, गालियां बकती है और परिवार के मुकाबले काम को प्राथमिकता देती है। सड़क पर फूल बेचने वाली लड़की 'प्यारी' से उसे विशेष स्नेह है। उसे अपनी बेटी जैसी मानती है। अपराधी को फिल्म में बेहद चालाक बताया गया है। वह अपनी किसी से भी सीधे तौर पर संवाद नहीं करता, लेकिन रानी को हमेशा फोन लगाता है। उसे धमकाता और चैलेंज देता है। ये बात उसके किरदार से मेल नहीं खाती। चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार वाला मुद्दा भी फिल्म के बीच में पीछे रह जाता है और चोर-पुलिस का खेल उस पर हावी हो जाता है। फिल्म समीक्षा का शेष भाग अगले पेज पर... स्क्रिप्ट की इन कमियों को प्रदीप सरकार का कुशल निर्देशन ढंक लेता है। उन्होंने ड्रामे को बेहद रोचक तरीके से पेश किया है जिससे पूरी फिल्म में दर्शक की रूचि बनी रहती है। गर्ल चाइल्ड ट्रैफिकिंग मुद्दे के गहराई में वे भले ही नहीं गए हो, लेकिन लगातार दर्शकों को वे इस दुनिया का अंधेरा पक्ष दिखाते रहे। उम्दा संवादों और बेहतरीन अभिनय ने उनके काम को आसान कर दिया। मामले की किस तरह पुलिस जांच करती है। क्लू मिलने के आधार पर कैसे आगे बढ़ती है। इसे दिलचस्प तरीके से पेश किया गया है। अच्छी बात यह भी रही कि बॉलीवुड के तमाम लटको-झटकों से उन्होंने अपनी फिल्म को दूर रखा। बेवजह के हास्य दृश्यों, नाच और गानों को उन्होंने फिल्म में स्थान नहीं दिया। इनकी कोई सिचुएशन भी फिल्म में नहीं बनती थी। फिल्म के एक्शन में अतिरेक नहीं है। एक्शन दृश्यों को लंबा नहीं खींचा गया है और फिल्म के मूड के अनुरूप वास्तविक रखा गया है। रानी मुखर्जी ने एक इंस्पेक्टर का किरदार पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया है। उनके अभिनय में ठहराव देखने को मिलता है और वे कही भी हड़बड़ी में नहीं दिखाई दी। एक्शन सीन में जरूर वे कमतर लगी क्योंकि जिस तरह की फिटनेस उनका यह रोल डिमांड करता है वैसी फिटनेस उनमें नजर नहीं आई। विलेन के रूप में ताहिर राज भसीन ने रानी को जबरदस्त टक्कर दी है। फिल्म में वे खून-खराबा करते या चीखते हुए नजर नहीं आते, बावजूद इसके वे अपने अभिनय से खौफ कायम करने में कामयाब रहे। जीशु सेनगुप्ता का रोल बहुत संक्षिप्त है। फिल्म में कई अपरिचित चेहरे हैं, लेकिन सभी का अभिनय अच्छा है। कमियों के बावजूद 'मर्दानी' प्रभावित करती है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : प्रदीप सरकार कलाकार : रानी मुखर्जी, जीशु सेनगुप्ता, ताहिर राज भसीन सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 53 मिनट 38 सेकंड ",1 "चंद्रमोहन शर्मा करीब पांच दशक पहले 1962 में शुरू हुआ बॉन्ड सीरीज की फिल्मों का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। वक्त के साथ-साथ इस सीरीज की फिल्मों की लोकप्रियता और कमाई बढ़ती गई। बॉन्ड सीरीज की यह 24वीं फिल्म भारत में कुछ देर से रिलीज की गई। इसने चीनी बॉक्स ऑफिस पर पहले 345 करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई का रेकॉर्ड बनाया। वर्ल्ड वाइड कलेक्शन में भी फिल्म ने शुरुआती बीस दिनों हैरी पॉटर सीरीज की पिछली फिल्म को पीछे छोड़ दिया। डेनियल क्रेग चौथी बार बॉन्ड बने हैं। अगर बॉन्ड सीरीज की पिछली फिल्म स्काईफॉल की बात करें तो करीब तीन साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म ने करीब एक हजार करोड़ डॉलर का बिजनेस किया था। प्रॉडक्शन हाउस ने इस फिल्म के निर्देशन की कमान भी स्काइफॉल के निर्देशक सैम मेंडेस को सौंपी और उन्होंने करीब आठ महीनों में इस फिल्म को पूरा कर दिखाया। इस फिल्म का बजट 31 करोड़ डॉलर रहा जबकि पिछली फिल्म का बजट 21 करोड़ डॉलर के करीब था। इस फिल्म को दिल्ली एनसीआर के लगभग सभी मल्टिप्लेक्सों पर औसतन पांच से आठ शोज में रिलीज किया गया और रिलीज से पहले फिल्म के क्रेज का ही असर था कि गुरूवार को फिल्म के प्रिव्यू शोज में कई मल्टिप्लेक्सों पर शो हाउसफुल रहे। वहीं इंडिया में बॉन्ड सीरीज की इस फिल्म पर शायद पहली बार कुछ ज्यादा ही सेंसर ने कैंची चलाई। किस सीन्स की लंबाई को पचास फीसदी कम करने औैर कुछ डायलॉग की साउंड डिलीट करने के बाद सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड के सुप्रीमो पहलाज निहलानी की जमकर आलोचना भी हुई इसके बावजूद फिल्म को रिलीज के पहले दिन पचास से अस्सी फीसदी की जबर्दस्त ओपनिंग मिली। ​कहानी जेम्स बॉन्ड (डेनियल क्रेग) एक खास मैसेज मिलने के बाद मैक्सिको और रोम में अपने एक सीक्रिट मिशन पर निकल पड़ता है। यहां उसकी मुलाकात होती है लूसिया (मोनिका बलुची) से होती है जो एक क्रिमिनल की विधवा है। लूसिया बॉन्ड को एक संस्था 'स्पेक्टर' के बारे में बताती है, जिसमें उसका पति भी काम करता था। इस आतंकी संस्था का मकसद दुनियाभर में आतंकवादी घटनाओं को बढ़ाना है। बॉन्ड किसी तरह इस संस्था की एक मीटिंग में पहुंचने में कामयाब होता है लेकिन इस मीटिंग स्पेक्टर का लीडर फ्रांज ओबेरहोजर बॉन्ड को पहचान लेता है। दूसरी ओर, लंदन में नैशनल सिक्युरिटी सेंटर के नए हेड मैक्स डेनबिंग (एंड्रू स्कॉप) बॉन्ड के मिशन पर कई सवाल खड़े कर देता है। मैक्स डेनबिग को बॉन्ड के मिशन और उसके काम करने के तरीकों पर जबर्दस्त ऐतराज है। ऐसे में बॉन्ड को मैक्स की और अपने कुछ पुराने साथियों के ऐतराज करने और सहयेाग ना करने के बावजूद अपने आतंक के खिलाफ मिशन को कामयाब करना है। अब बॉन्ड अपने इसी मकसद को पूरा करने में लग जाता है। इस बार बेशक डायरेक्टर ने बॉन्ड के मिशन को तो कंप्लीट कर दिखाया लेकिन फिल्म को ऐसी जगह पर खत्म किया है जहां से अगली फिल्म की शुरूआत का रास्ता साफ नजर आता है। ऐक्टिंग अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो लगतार बढ़ती उम्र के बावजूद एकबार फिर बॉन्ड के किरदार में डेनियल क्रेग ने साबित किया कि उन्हें इस किरदार में साइन करके कोई गलती नहीं की है। फिल्म के ऐक्शन सीन्स में क्रेग ने खूब मेहतन की है। इस बार फिर बिना ड्यूप्लिकेट का सहारा लिए कई बेहद खतरनाक सीन्स खुद ही किए हैं। फिल्म के लगभग हर फ्रेम में डेनियल बेहतरीन नजर आए, लेकिन अगर स्काईफॉल की बात करें तो यकीनन उस फिल्म के ऐक्शन सीन्स को सैम ने गजब ढंग से फिल्माया था लेकिन इस बार उनकी वैसी महारत दिखाई नहीं देती। अन्य कलाकारों में मोनिका बलुची, रॉल्फ फ्लेंस, बेन विशा, एंड्रयू स्कॉट ने अपने किरदारों में अच्छा काम किया है। डायरेक्शन सैम मेंडेस ने बॉन्ड सीरीज की फिल्मों में बरसों से नजर आती विशेषताओं को इस बार भी असरदार ढंग से पेश किया है। बेशक फिल्म के कुछ ऐक्शन सीक्वेंस ज्यादा ही लंबे हो गए हैं। अगर इन सीन्स पर सैम खुद ही कैंची चलाते तो फिल्म की स्पीड और ज्यादा तेज होती। विलेन का किरदार जाने-माने फ्री स्टाइल रेसलर बतिस्ता ने निभाया है लेकिन उनका किरदार भी बॉन्ड की इमेज के सामने बौना नजर आता है। अगर बॉन्ड के सामने विलन ज्यादा पावरफुल नहीं है तो यकीनन इससे बॉन्ड का कद भी कम ही होता है। फिल्म की शुरुआत में मैक्सिको में फिल्माए गए करीब सात मिनट के ऐक्शन सीक्वेंस का जवाब नहीं। रोम, ऑस्ट्रिया, मैक्सिको की खूबसूरत लोकेशन्स को डायरेक्टर ने खूबसूरती से कैमरे में कैद करवाया है तो बॉन्ड सीरीज की अलग स्पेशिलटी जैसे बॉन्ड की अलग स्टाइल की गाड़ियां, वॉच, महंगी कारों की लंबी रेस, माइक्रो चिप्स और अलग-अलग स्टाइल की गन्स और बॉन्ड के आशिकाना लुक और स्टाइल को सैम ने अच्छे ढंग से पर्दे पर उतारा है। क्यों देंखें अगर बॉन्ड सीरीज फिल्मों और ऐक्शन सीन्स और अपने चहेते जेम्स बॉन्ड किरदार को एक नए लेटेस्ट और मजेदार लुक में देखना चाहते हैं तो स्पेक्टर देखने जाएं। फिल्म की गजब आंखों को लुभाने का दम रखती लोकेशन्स और ऐक्शन सीन्स फिल्म का प्लस प्वाइंट है। ",0 "कुल मिलाकर ‘ओम शांति ओम’ देखकर उतना मजा नहीं आता, जितनी अपेक्षाएँ लेकर दर्शक जाता है। *यू/ए *18 रील निर्माता : गौरी खान निर्देशक : फरहा खान संगीत : विशाल शेखर कलाकार : शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, श्रेयस तलपदे, अर्जुन रामपाल, किरण खेर फरहा के दिमाग में 1975 के आसपास बनी फिल्मों की कुछ यादें हैं। जब नायिकाएँ नखरे दिखाती थीं। हीरो शूटिंग पर घंटों देरी से पहुँचते थे। कलाकारों में एक प्रकार का घमंड था। उन फिल्मों में माँ का अहम किरदार हुआ करता था। एक अदद दोस्त होता था जो अपनी दोस्ती के लिए जान दे देता था। स्टूडियो में लचर तकनीक के जरिये शॉट फिल्माए जाते थे। उस दौर में भी अच्छी फिल्में बनती थीं, लेकिन फरहा को नाटकीयता से भरी फिल्में ज्यादा याद हैं। उसी दौर की जुगाली करते हुए उन्होंने अपनी ताजा फिल्म ‘ओम शांति ओम’ का तानाबाना बुना है। यह फिल्म उस दौर की एक कमजोर फिल्म जैसी लगती है। फिल्म शुरू होती है 1977 से। ओमप्रकाश माखीजा (शाहरुख खान) एक जूनियर कलाकार है और मा‍खीजा जैसे सरनेम की वजह से हीरो नहीं बन पाता। उसकी माँ को विश्वास है कि वह एक न एक दिन जरूर फिल्मों में हीरो बनेगा। वह उस दौर की टॉप नायिका शांतिप्रिया (दीपिका पादुकोण) को मन ही मन चाहता है। एक बार शूटिंग के दौरान वह आग से घिरी शांति को अपनी जान पर खेलकर बचाता है और वे दोस्त बन जाते हैं। एक दिन ओम चुपचाप शांति और एक फिल्म निर्माता मेहरा (अर्जुन रामपाल) की बात सुनता है। उसे पता चलता है कि शांति और मेहरा की शादी हो चुकी है और वह माँ बनने वाली है। शादी की बात उन दिनों छिपाकर रखी जाती थी, ताकि नायिका को काम मिलता रहे। मेहरा बहुत महत्वाकांक्षी रहता है। वह एक धनवान स्टूडियो मालिक की बेटी से शादी करना चाहता है, ताकि वह स्टूडियो का मालिक बन सके। शांति को रास्ते से हटाने के लिए वह एक फिल्मी सेट पर शांति को बंद कर आग लगा देता है। ओम शांति को बचाने की कोशिश में खुद भी मारा जाता है। ओम अगला जन्म एक सुपर स्टार के घर में लेता है। फिल्म उद्योग में परिवारवाद बहुत चलता है और इसलिए ओम भी हीरो बन जाता है। नए जन्म में वह ओम कपूर (शाहरुख) के रूप में 2007 का एक बहुत बड़ा स्टार है। एक बार शूटिंग के दौरान वह उसी फिल्म स्टूडियो में जाता है, जहाँ शांति को जलाकर मारा गया था। उसे पुराना घटनाक्रम याद आ जाता है। वह मेहरा से अपना बदला लेता है। शांतिप्रिया भी नया जन्म लेकर उसे मिल जाती है। फिल्म की कहानी मनमोहन देसाई की फिल्मों जैसी लगती है और सुभाष घई की ‘कर्ज’ से भी बेहद प्रभावित है। इसे फरहा खान ने मजाकिया अंदाज में फिल्माया है। फरहा ने उस दौर की फिल्मों का और कलाकारों का मजाक उड़ाया है और अपनी फिल्म को भी उन्होंने उसी तरह फिल्माया है। फिल्म में मध्यांतर तक 1977 का दौर चलता है तब तक फिल्म अच्छी भी लगती है। मध्यांतर के बाद कहानी 2007 में आ जाती है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट 1977 वाला ही लगता है। फिल्म के नाम पर फरहा ने खूब छूट ली है और कई बातें पचती नहीं हैं। बेशक‍ फिल्म लार्जर देन लाइफ है, लेकिन लॉजिक को बहुत ज्यादा दरकिनार कर दिया गया है। मध्यांतर के बाद फिल्म का मूड गंभीर होना था, लेकिन इसे सतही तौर पर निपटा दिया गया है। कहानी के साथ-साथ फिल्म का क्लाइमैक्स भी कमजोर है। शाहरुख जैसे सशक्त नायक को अपनी हीरोगीरी दिखाने का ज्यादा मौका नहीं दिया गया। फरहा ने जिस ‘टॉरगेट ऑडियंस’ के लिए यह फिल्म बनाई है, उन्हें यह बात जरूर अखरेगी। फिल्म की कहानी के पहले हिस्से में शाहरुख का एकतरफा प्यार दिखाया गया है। शाहरुख और दीपिका के बीच प्यार की तीव्रता दिखाकर दोनों को मारा जाता तो फिल्म का प्रभाव और बढ़ता तथा दर्शकों की सहानुभूति भी दोनों के प्रति पैदा होती। साथ ही उनका दूसरा जन्म लेना भी सार्थक लगता। फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि बॉलीवुड है, इसलिए इसके ज्यादातर मजाक भी उन लोगों को ज्यादा समझ में आएँगे जो बॉलीवुड को नजदीकी से जानते हैं। आम आदमी अधिकांश मजाकों को समझ नहीं पाएगा। लगता है कि‍ फिल्म बनाते समय फरहा ने अपने बॉलीवुड के दोस्तों का खयाल ज्यादा रखा है। फरहा ने कुछ शॉट उम्दा फिल्माए हैं। दीपिका का ‘एंट्री सीन’। शाहरुख का दक्षिण भारतीय कलाकार बनकर फाइटिंग करना। अर्जुन रामपाल द्वारा स्टूडियो में आग लगाए जाने वाला दृश्य। फिल्म फेअर पुरस्कार समारोह में ‘नॉमिनेशन’ के लिए अभिषेक, शाहरुख और अक्षय वाले दृश्य सिनेमाघर में बैठे दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। अभिनय में शाहरुख ने पूरी फिल्म का भार अपने ऊपर उठाया है। 2007 के ओम की तुलना में वे 1977 वाले ओम के रूप में ज्यादा अच्छे लगे हैं। दीपिका में फूलों-सी ताजगी है। वे सुंदर होने के साथ प्रतिभाशाली भी हैं। अपनी पहली फिल्म में उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है। हालाँकि उन्हें ज्यादा दृश्य नहीं मिले हैं। खलनायक के रूप में अर्जुन रामपाल अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं। श्रेयस तलपदे, किरण खेर और जावेद खान ने भी अपने किरदार अच्छी तरह निभाए हैं। एक ही गाने में बॉलीवुड के तमाम बड़े कलाकारों को लेकर शाहरुख और फरहा ने बॉलीवुड में अपने प्रभाव को दर्शाया है। विशाल-शेखर का संगीत बेहद उम्दा है और ‘दर्दे‍ डिस्को’ ‘ओम शांति ओम’ और ‘आँखों में तेरी’ लोकप्रिय हो चुके हैं। वी. मनिकानंद ने कैमरे के जरिये फिल्म को भव्यता प्रदान की है। संदीप चौटा का बैकग्राउंड संगीत बेहद सशक्त है और 70 के दशक को ध्यान में रखकर बनाया गया है। शिरीष कुंदर का संपादन अच्छा है, लेकिन शायद फरहा ने उन्हें फिल्म छोटी नहीं करने दी होगी। फिल्म पर जबरदस्त पैसा खर्च किया गया है और यह हर फ्रेम में नजर आता है। कुल मिलाकर ‘ओम शांति ओम’ देखकर उतना मजा नहीं आता, जितनी अपेक्षाएँ लेकर दर्शक जाता है। ",1 "बेशक, अक्षय कुमार के साथ 'बेबी' में एक छोटा सा किरदार करने का तापसी पन्नू को खास फायदा न मिला हो, लेकिन बिग बी के साथ बनी तापसी की फिल्म 'पिंक' की कामयाबी के बाद बॉलिवुड में तापसी की वैल्यू कहीं ज्यादा बढ़ी है। पिंक बॉक्स ऑफिस पर जबर्दस्त हिट रही, क्रिटिक्स और दर्शकों ने इस फिल्म की कामयाबी का क्रेडिट बिग बी के साथ तापसी की बेहतरीन ऐक्टिंग को दिया। फिलहाल, इस शुक्रवार तापसी की दो फिल्में रिलीज हुईं। दो फिल्मों की इन दिनों शूटिंग जारी है, एक फिल्म बनकर तैयार है। तापसी स्टारर यह फिल्म भी करीब तीन साल पहले बनी, उस वक्त फिल्म का टाइटल 'रनिंग शादी डॉट कॉम' रखा गया, लेकिन अब जब फिल्म रिलीज़ हुई तो टाइटल में से डॉट काम गायब हो गया। तापसी की इस फिल्म में मेकर ने एक डिफरेंट सोच के साथ एक मजेदार सब्जेक्ट तो चुना, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और कहानी में झोलझाल के चलते यह रनिंग शादी बॉक्स ऑफिस पर टिक पाएगी इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं। कहानी : अमृतसर के मेन बाजार में 'सिंह ऐंड सिंह' नाम से एक गारमेंटस शॉप है, इस शॉप के प्रॉपराइटर सिंह साहब की इकलौती बेटी निम्रत कौर उर्फ निम्मी (तापसी पन्नू) अपने पापा की शॉप में काम करने वाले सेल्समैन राम भरोसे (अमित साध) के साथ कुछ ज्यादा ही घुली-मिली हुई है। निम्मी और राम अक्सर एकसाथ घूमने जाते हैं, इतना हीं नहीं निम्मी अपनी सभी बातें राम के साथ शेयर करती है। बिहार के पटना शहर का रहने वाला राम कभी अमृतसर की सड़कों पर रिक्शा चलाया करता था, लेकिन निम्मी के पापा ने उसे अपनी शॉप में काम पर रख लिया। राम दिल ही दिल में निम्मी को पसंद करता है, लेकिन अपनी बात कभी जुबां पर नहीं लाता। किसी बात को लेकर राम और निम्मी के पापा के बीच टकराव हो जाता है और वह राम को नौकरी से निकाल देते हैं। अब राम अपने खास दोस्त सरबजीत सिंह उर्फ साइबर जीत सिंह (अर्श बाजवा) के साथ मिलकर ऐसे प्रेमी जोडों की शादी कराने के लिए वेबसाइट बनाता है। राम और साइबर अपनी रनिंग शादी डॉट कॉम के माध्यम से अब तक 49 मैरिज करा चुके हैं। कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब निम्मी इनके पास अपनी शादी कराने के लिए आती है। निम्मी अपने बॉयफ्रेंड शंटी के साथ शादी करना चाहती है जो इनकी फैमिली को मंजूर नहीं। यहीं से शुरू होता है निम्मी, राम और साइबर के भागने का सिलसिला। अमृतसर से डलहौजी होते हुए के बाद पटना के बाद फिर अमृतसर आकर खत्म होता है। ऐक्टिंग : अमित साध और तापसी के बीच अच्छी केमेस्ट्री है, तापसी के बोलने का अंदाज स्टार्ट टू लॉस्ट टिपिकल पंजाबी है तो वहीं अमित साध अपने किरदार को बिहारी युवक जैसा रंग नहीं दे पाए। राम के खास दोस्त सायबर सिंह के किरदार में अर्श बाजवा ने अच्छा काम किया है। निर्देशन : समझ नहीं आता डायरेक्टर ने टाइटल में से डॉट कॉम को क्यों निकाला, जबकि पूरी फिल्म इसी के आसपास घूमती है। टाइटल के चक्कर में कई सीन में से आवाज गायब हो गई है। पंजाबी का प्रयोग तो डायरेक्टर ने जमकर किया, लेकिन फिल्म का पटना से आया हीरो अपनी भाषा में कम ही बोलता नजर आया। हां, पंजाब, डलहौजी और पटना की रियल लोकेशन पर की गई शूटिंग फिल्म का प्लस पॉइंट है। इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक पर लौटती है, लेकिन उस वक्त तक बहुत देर हो चुकी होती है। संगीत : प्यार का टेस्ट गाने का फिल्मांकन अच्छा है। क्यों देखें : तापसी के पक्के फैन हैं तो इस बार उनका ठेठ पंजाबी लुक देखने के लिए इस शादी में शरीक हो सकते हैं, वर्ना फिल्म में ऐसा कुछ नहीं जो हम आपको फिल्म देखने की सलाह दें।",0 "'रमन राघव 2.0' सीरियल किलर रमन राघव पर आधारित न होकर उससे प्रेरित है जिसने 60 के दशक में मुंबई में 41 लोगों की हत्याएं की थी। अनुराग कश्यप ने रमन राघव के किरदार को 60 के दशक से उठाकर आज के दौर में फिट किया है। अनुराग की फिल्मों में जीवन का अंधेरा पक्ष देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों के किरदार वहशी किस्म के होते हैं। शायद इसीलिए उन्हें रमन राघव ने आकर्षित किया। फिल्म में रमन राघव की मानसिकता देखने को मिलती है। रमन कभी रमन्ना बन जाता तो कभी सिंधी दलवाई। हिसाब में कमजोर है। उसका दुनिया देखने का नजरिया आम लोग से अलग है। आम लोगों की निगाह में वह मानसिक रूप से बीमार है। वह भगवान से बातें करता है। जब वह चलता है तब उसे शतरंज के सफेद और काले खाने सड़क पर दिखाई देते। वह सिर्फ काले पर चलता है। सफेद पर पैर रख दिया तो आउट। यदि काले पर कोई आदमी बैठा या लेटा हो तो वह उसकी हत्या करने में जरा भी संकोच नहीं करता। अजीब सी उलझन उसके मन में चलती रहती है। जानवरों जैसी प्रवृत्ति है कि बहन का भी बलात्कार करता है और उसके परिवार को भी मौत के घाट उतार देता है। पुलिस ऑफिसर राघव उसके पीछे पड़ा है। यह भी एक तरह से रमन ही है जो पुलिस यूनिफॉर्म पहने हुए है। रमन और राघव एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगते हैं। राघव ड्रग्स लेता है। जिंदगी में इमोशन का कोई स्थान नहीं है। उसके लिए महिलाओं से संबंध सिर्फ जिस्मानी भूख मिटाने के लिए है। रास्ते में आने वाले शख्स की हत्या करने में उसे भी संकोच नहीं है। फिल्म की शुरुआत में इन दो किरदारों में बहुत अंतर दिखाई देता है, लेकिन समय के साथ-साथ दोनों के बीच अंतर करने वाली रेखा पतली होती जाती है, फिर धुंधला जाती है और अंत में रमन और राघव एक हो जाते हैं। इस फिल्म को वासन बाला और अनुराग कश्यप ने लिखा है। वास्त‍विक रमन के साथ काल्पनिक राघव का किरदार गढ़ा गया है। दोनों को तुलनात्मक तरीके से पेश किया गया है। रमन ज्यादा क्रूर है या राघव कहना कठिन है। रमन हत्या करते समय न धर्म की आड़ लेता है न दंगों की। उसे हत्या करने में एक मजा मिलता है। दूसरी ओर राघव का मिजाज भी पाशविक किस्म का है, लेकिन वह जिन लोगों को मारता है उसमें उसका स्वार्थ है। इस छोटी-सी बात को विस्तार देना आसान बात नहीं है और लेखन के मामले में फिल्म कई जगह कमजोर पड़ती है। कुछ ऐसी गलतियां भी हैं जो खलल पैदा करती है। चोर-पुलिस के खेल में थ्रिल पैदा करने के बजाय दोनों किरदारों पर जरूरत से ज्यादा समय खर्च किया गया है। सिनेमैटिक लिबर्टिज़ थोड़ी ज्यादा हो गई हैं, लेकिन लेखन की कमी की पूर्ति अनुराग कश्यप अपने निर्देशन के जरिये पूरा करने की कोशिश करते हैं। हालांकि अभी भी वे क्वेंटिन टेरेंटिनो की छाया से निकल नहीं पाए हैं। अनुराग ने ऐसे कई शॉट्स दिखाए हैं जो दर्शकों को रमन की मानसिकता से परिचित करा देता है। इसमें लोकेशन्स का विशेष महत्व है। तंग बस्तियों की गलियां, खस्ताहाल बिल्डिंग्स, कीचड़ और सड़क पर पसरी गंदगी के बीच घूमते रमन की यह दिमाग की भी गंदगी है। फिल्म का फर्स्ट हाफ तेजी से चलता है, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म खींची हुई लगती है। खासतौर पर जब फिल्म रमन से राघव पर शिफ्ट हो जाती है क्योंकि विकी कौशल अच्छे अभिनेता होने के बावजूद नवाजुद्दीन सिद्दीकी के स्तर तक नहीं पहुंच पाते। यहां पर 15 से 20 मिनट फिल्म को छोटी किया जा सकता था, जिससे फिल्म में कसाव आ जाता। मास्टर स्ट्रोक फिल्म के अंत में खेला गया है जब राघव की गिरफ्त में रमन आ जाता है और रमन-राघव के एक होने के बारे में बताता है। फिल्म में हिंसा का अतिरेक है और निर्देशक ने यह काम दर्शकों की कल्पना पर छोड़ा है। दरवाजे की आड़ से तो कभी परछाई के सहारे रमन को हत्या करते हुए दिखाया है। फर्श पर पसरा खून और पांच दिन पुरानी लाश देख आप दहल सकते हैं। रमन और राघव की क्रूर और निष्ठुर सोच फिल्म में दिखाई हिंसा से ज्यादा हिंसक है। रमन रा घव 2.0 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में कहानी के नाम पर दिखाने को ज्यादा नहीं था और ऐसे वक्त में कलाकारों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। यही पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकार अपना कमाल दिखाते हैं। हत्यारे की भूमिका में न तो वे चीखे-चिल्लाए और न ही ड्रामेटिक तरीके से उन्होंने संवाद बोले। होशो-हवास कायम रख उन्होंने हत्याएं की। अपने किरदार के बेतरतीब स्वभाव को उन्होंने अपना हथियार बनाया। वे कब क्या कर बैठे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है और इसके जरिये ही उन्होंने खौफ पैदा किया है। उनकी संवाद अदायगी गौर करने के काबिल है। कभी वे बुदबुदाते हैं तो कभी स्वर ऊंचा-नीचा होता रहता है। विकी कौशल अपने बाहरी आवरण से अपने आपको क्रूर दिखाने की कोशिश करते नजर आए और उनका अभिनय औसत रहा। सेकंड हाफ में जब फिल्म का बोझ उनके कंधों पर आता है तो फिल्म डगमगाने लगती है। । राम सम्पत ने बैकग्राउंड म्युजिक का इस्तेमाल होशियारी के साथ किया गया है। कुछ दृश्यों में खामोशी ही आपको डराती है। आरती बजाज का सम्पादन प्रभावी है, हालांकि उन्हें फिल्म को छोटा करने की इजाजत शायद निर्देशक ने नहीं दी होगी। साइकोलॉजिकल थ्रिलर 'रमन राघव 2.0' परफेक्ट फिल्म न होने के बावजूद ज्यादातर समय आपको यह बांधकर रखती है। बैनर : फैंटम प्रोडक्शन, रिलायंस एंटरटेनमेंट निर्माता : मधु मंटेना, अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : राम सम्पत कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विकी कौशल, शोभिता धुलिपाला सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट 23 सेकंड ",1 " धूम फ्रेंचाइजी में खलनायक को इस तरह पेश किया जाता है कि दर्शकों की सारी सहानुभूति खलनायक के साथ होती है। हीरो की भूमिका चरित्र कलाकार जैसी होती है। धूम 3 के खलनायक को नायक जैसा पेश किया गया है क्योंकि उसके पास कारण है कि वह गलत काम क्यों कर रहा है। यह कारण दरअसल एक इमोशनल कहानी है और यही बात धूम 3 को इस श्रृंखला की पिछली फिल्मों से अलग करती है। पिछली फिल्मों में इमोशन्स की कमी महसूस की गई थी, जिसे इस कड़ी में पूरा किया गया है। यह निर्देशक की कामयाबी है कि दर्शकों को भावनात्मक रूप से यह फिल्म पहले दस मिनट में ही जोड़ लेती है जब इकबाल (जैकी श्रॉफ) शिकागो स्थित अपने ग्रेट इंडियन सर्कस को बैंक के कर्जे से बचाने की कोशिश करता है। यहीं पर दर्शक इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि साहिर (आमिर खान) के पिता के साथ गलत हुआ है और साहिर बड़ा होकर गलत राह पर क्यों चल रहा है इस बात को अच्छी तरह स्थापित कर दिया गया है। बैंक कर्ज वसूली में सख्ती दिखाता है तो मासूम साहिर के सामने उसके पिता आत्महत्या कर लेते हैं। यही से साहिर और बैंक के बीच दुश्मनी हो जाती है और वह बड़ा होकर बैंक को बरबाद करने के मिशन में जुट जाता है। यह बात पता चल जाती है कि बैंक को बरबाद करने वाला एक भारतीय है तो भारत से दो पुलिस ऑफिसर जय (अभिषेक बच्चन) और अली (उदय चोपड़ा) भेजे जाते हैं। फिर शुरू होता है चोर और पुलिस के बीच चूहे-बिल्ली का खेल। फिल्म की कहानी सामान्य है, लेकिन इसे असाधारण बनाता है महंगे लोकेशन्स, शानदार सेट्स, जबरदस्त सिनेमाटोग्राफी। वैसे भी धूम सीरिज की फिल्मों में कहानी से ज्यादा महत्वपूर्ण स्टाइल और स्टंट्स है। पहला हाफ फिल्म को इतनी ऊंचाइयों पर ले जाता है कि यह स्टंट्स और तकनीकी रूप से हॉलीवुड फिल्मों को टक्कर देती है। एक के बाद एक आइटम्स पेश किए जाते हैं। आमिर खान जबरदस्त तरीके से एंट्री लेते हैं। ऊंची बिल्डिंग की दीवार से वे उतरते हैं और सड़क पर डॉलर्स की बारिश होती है। फिर आता है एक चेजि़ंग सीन जो 'धूम' सीरिज की फिल्मों की खासियत है। अत्याधुनिक बीएमडब्ल्यू बाइक पर बैठ साहिर जब पुलिस को नचाता है तो दर्शकों की सांसें थम जाती हैं। जय और अली की एंट्री के लिए भी एक्शन सीन गढ़ा गया है, जो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। ‍फिल्म की हीरोइन कैटरीना कैफ भी फिल्म में धमाकेदार एंट्री करती हैं। 'कमली' गाने पर उनका डांस काबिल-ए-तारीफ है। जय, अली और साहिर के बीच वाला चेजिंग सीन फिल्म का प्रमुख आकर्षण है। इस सीन को अद्‍भुत तरीके से शूट किया गया है। इसी सीन में जय गोली चलाता है जो साहिर की पीठ पर लगती है। कुछ देर बाद साहिर को गिरफ्तार करने जय उसके सर्कस में पहुंचता है तो यह जान कर दंग रह जाता है कि साहिर की पीठ पर किसी भी किस्म की चोट का निशान नहीं है। जय के साथ दर्शक भी चौंकते हैं कि यह रहस्य क्या है और यही पर इंटरवल होता है। इंटरवल के बाद हांफना ज्यादातर हिंदी फिल्मों की कमजोरी है और धूम 3 भी इसका शिकार है। एक्शन और स्टंट्स से फोकस हट कर ड्रामे पर आ जाता है और स्क्रिप्ट की कमजोरियां उभरने लगती हैं। रहस्य पर से परदा हटाया जाता है जो कई तरह के सवालों को जन्म देता है, जिनके संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते हैं। कहानी में रोमांटिक ट्रेक को जबरन घुसेड़ा गया है जिसकी जगह नहीं बनती है। साहिर का कड़ी सुरक्षा के बीच हर बार आसानी से बैंक में घुसना हैरत में डालता है। फिल्म के दूसरे हाफ में एक्शन की कमी महसूस होती है। इन सब कमियों के बीच एक अच्छी बात यह है कि बोरियत नहीं होती है। ड्रामे में दिलचस्पी बनी रहती है। उम्मीद रहती है कि क्लाइमेक्स में जबरदस्त एक्शन देखने को मिलेगा, लेकिन अपेक्षा से कम देखने को मिलता है। फिल्म का निर्देशन किया है विजय कृष्ण आचार्य ने, जिन्होंने धूम सीरिज के सारे भाग लिखे हैं। 'टशन' जैसी भूला देने लायक फिल्म वे निर्देशित कर चुके हैं इसके बावजूद फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा ने उनको यशराज फिल्म्स की सबसे महंगी फिल्म निर्देशित करने का जिम्मा दिया। विजय का काम एक्शन डायरेक्टर और कोरियोग्राफर ने काफी आसान कर दिया। ड्रामे वाले हिस्से को संभालने में विजय थोड़ा लड़खड़ाए हैं। आमिर खान के फिल्म से जुड़ने दर्शकों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं। आमिर खान के किरदार के बारे में ज्यादा बात इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे फिल्म के रहस्य से परदा हट जाएगा। जहां तक अभिनय का सवाल है तो आमिर ने अपना काम गंभीरता से किया है, लेकिन उनसे और बेहतर की अपेक्षा थी। धूम जैसी फिल्मों के किरदार को जो ग्लैमर चाहिए था, उसमें आमिर थोड़ा कमजोर पड़ गए। कैटरीना कैफ टोंड बॉडी में बेहद खूबसूरत नजर आईं, लेकिन उनका रोल बेहद छोटा है। निर्देशक उनके ग्लैमर का पूरा उपयोग ही नहीं कर पाए। अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा अपने किरदारों को उसी अंदाज में बढ़ाते नजर आए। जैकी श्रॉफ छोटे रोल में छाप छोड़ते हैं। प्रीतम का संगीत औसत किस्म का है, लेकिन गानों का फिल्मांकन आंखों को राहत देता है। 'मलंग' और 'कमली' की कोरियोग्राफी बहुत बढ़िया है। जूलियस पैकिअम का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है। सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है जो फिल्म को भव्य लुक देती है। एक्शन और स्टंट्स हॉलीवुड फिल्मों की टक्कर के हैं। धूम 3 पांच में तीन अंक के लायक है, लेकिन सिनेमाटोग्रफी, लोकेशन्स, और बाइक थ्रिल्स के कारण आधा अंक अतिरिक्त दिया गया है। बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : विजय कृष्ण आचार्य संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : आमिर खान, कैटरीना कैफ, अभिषेक बच्चन, उदय चोपड़ा, जैकी श्रॉफ सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 52 मिनट 21 सेकंड्स ",1 "बॉक्स आफिस पर 'आई एम कलाम' और 'जलपरी' जैसी फिल्में बेशक कुछ खास न कर पाई हो लेकिन इन फिल्मों में डायरेक्टर ने अलग-अलग सब्जेक्ट को पूरी ईमानदारी के साथ पेश करने का जज्बा पेश किया है। उसी जज्बे का नतीजा है कि टिकट खिड़की पर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक भी ना बटोरने वाली इन फिल्मों के डायरेक्टर नीला माधव पांडा को क्रिटिक्स के साथ-साथ दर्शकों के उस क्लास की भी जमकर तारीफें मिली जो फिल्म एंटरटेनमेंट के लिए नहीं बल्कि मुंबइयां फिल्मों की भीड़ से दूर कुछ अलग देखना चाहते है। लंबे अर्से के बाद पांडा अब जब 'कड़वी हवा' के साथ लौटे तो उनसे दर्शकों की इसी क्लास ने कुछ अलग टाइप की फिल्म की आस पहले से लगा रखी थी। इस बार भी वह अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब रहे। इस फिल्म में भी बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले मसाले देखने को नहीं मिलते तो वहीं फिल्म के कई सीन और करीब पौने दो घंटे की फिल्म का क्लाइमेक्स हॉल में बैठे दर्शकों को झकझोर कर रख देता है। क्लाइमेट चेंज पर बनी इस फिल्म को अगर आप देखना भी चाहे तो आपको कहीं दूर जाना पड़ सकता है वजह वहीं है बॉक्स ऑफिस के मसाले न होने और बिना प्रमोशन के रिलीज हुई इस फिल्म को अपने यहां लगाने से ज्यादातर मल्टिप्लेक्स समूहों ने खुद को दूर ही रखा। स्टोरी प्लॉट: दूरदराज के एक छोटे से गांव में अंधा किसान (संजय मिश्रा) ऐसे सूखाग्रस्त गांव रहता है, जहां कभी कभार ही बारिश होती है, इस किसान के बेटे मुकुंद ने भी खेती के लिए बैंक से कर्ज लिया हुआ है जो अब फसल बर्बाद होने की वजह से लौटा नहीं पा रहा है। दरअसल, इस गांव में खेती करने से किसान हिचकिचाते हैं, वजह बैंक से कर्ज लेकर अगर खेती कर भी ली जाए तो बारिश न होने की वजह से पूरी खेती बर्बाद हो जाती है। पिछले कई सालों से इस गांव के किसानों की खेती बारिश ना होने की वजह से चौपट हो चुकी है, इस वजह से यहां के किसान बैंक लोन नहीं चुका पा रहे और इसी दबाव में एक के बाद एक किसान आत्महत्या कर रहा हैं। इस सिंपल सी कहानी में उस वक्त अनोखा टिवस्ट आता है जब मुकुंद का अंधा पिता बैंक का लोन वसूलने गांव में आने वाले गुनू बाबू (रणवीर शौरी) के साथ एक ऐसी अनोखी डील करता है जिससे उसका बेटा कर्ज के बोझ से बाहर आ सके। पूरे गांव के किसान गुनू बाबू को यमराज की तरह मानते है इसकी वजह गुनू बाबू जब भी कर्ज वसूली के लिए गांव आते ही उन्हीं दिनों कई किसान आत्महत्या करते है। संजय मिश्रा इससे पहले भी कई ऐसी बेहतरीन भूमिकाएं कर चुके है जो दर्शकों और क्रिटिक्स को आज भी याद है, इस फिल्म में अंधे किसान का किरदार संजय ने जिस ईमानदारी के साथ निभाया है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है संजय ने अपनी शानदार ऐक्टिंग से इस किरदार को जीवंत कर दिया है। वहीं गुनू बाबू के रोल में रणवीर शौरी की ऐक्टिंग का भी जवाब नहीं, इतना ही नहीं फिल्म के हर कलाकार ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। नीला माधव पांडा की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने क्लाइमेट चेंज के गंभीर मुद्दे पर बॉक्स आफिस की एक बार फिर परवाह किए बिना फिल्म बनाई। नीला पंडा ने तब जबकि पर्यावरण के गंभीर मुद्दे पर जमकर बयानबाजी चल रही है, ऐसे में लोगों को पर्यावरण के बारे में सोचने और जागृत करने के लिए फिल्म बनाई जो बेशक टिकट खिड़की पर कुछ खास न कर पाए लेकिन फिल्म देखने वाले जरूर नीला की जमकर तारीफें करेंगे। पौने दो घंटे की इस फिल्म में गुलजार साहब की एक नज्म के साथ सााथ 'मैं बंजर' गाना भी है जो सब्जेक्ट पर पूरी तरह से फिट बैठता है। अगर आप रिऐलिटी को और करीब से देखना चाहते है तो क्लाइमेट चेंज पर पूरी ईमानदारी के साथ बनी इस फिल्म को एंटरटेनमेंट की परवाह दरकिनार करके देख सकते है।",1 "हैप्पी भाग जाएगी के कई निर्माताओं में से एक आनंद एल. राय भी हैं और उनकी 'तनु वेड्स मनु' की छाप 'हैप्पी भाग जाएगी पर नजर आती है। हालांकि इस फिल्म का निर्देशन मुदस्सर अजीज ने किया है जिन्होंने 'दूल्हा मिल गया' जैसी खरा‍ब फिल्म इसके पहले बनाई थी। पाकिस्तान के एक्स गर्वनर का बेटा बिलाल अहमद (अभय देओल) कांफ्रेंस में हिस्सा लेने अमृतसर आता है। लौटते समय उसे उपहार मिलते हैं जो एक ट्रक द्वारा लाहौर ले जाए जाते हैं। इस ट्रक में हैप्पी ‍(डायना पेंटी) गलती से छिप जाती है। हैप्पी की शादी उसके पिता बग्गा (जिमी शेरगिल) से तय कर देते हैं। हैप्पी को यह रिश्ता पसंद नहीं है। वह गुड्डू (अली फज़ल) से प्यार करती है। शादी वाले दिन घर से भागकर हैप्पी गलती से बिलाल वाले ट्रक में घुस कर लाहौर पहुंच जाती है। हैप्पी को वहां देख बिलाल चकित रह जाता है। वह हैप्पी को वापस भारत भेजना चाहता है, लेकिन हैप्पी तैयार नहीं है। उसे भय है कि भारत लौटते ही उसकी शादी बग्गा से करा दी जाएगी। वह बिलाल को धमकी देती है कि यदि उसने ऐसी कोशिश की तो इससे उसका राजनीतिक करियर खतरे में पड़ सकता है। बिलाल इसका हल ढूंढता है और गुड्डू को पाकिस्तान लाता है ताकि दोनों की शादी करा कर उन्हें भारत लौटा सके। इधर बग्गा को पता चल जाता है कि हैप्पी और गुड्डू पाकिस्तान में हैं। वह और हैप्पी के पिता भी पाकिस्तान पहुंच जाते हैं। इसके बाद भागमभाग होती है और हैप्पी एंडिंग के साथ फिल्म खत्म होती है। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद मुदस्सर अज़ीज़ ने ही लिखे हैं। फिल्म की कहानी पढ़ने में विश्वसनीय नहीं लगती है क्योंकि बहुत सारे झोल इसमें नजर आते हैं, लेकिन मुदस्सर का स्क्रीनप्ले और प्रस्तुतिकरण उम्दा है। मनोरंजन का डोज़ लगातार दर्शकों को मिलता रहता है जिस कारण हम कहानी की खामियों को नजरअंदाज करते चले जाते हैं। फिल्म के मुख्य किरदार हैप्पी को अच्छे तरीके से गढ़ा गया है। हैप्पी कोई भी फैसला लेने में एक सेकंड की देरी नहीं लगाती। कैसी भी परिस्थिति हो वह नहीं घबराती। जो हैप्पी के संपर्क में आता है हैप्पी जैसा बन जाता है। हैप्पी के आने से बिलाल की लव लाइफ और सोच में किस तरह परिवर्तन आता है यह बखूबी दिखाया गया है। हैप्पी भाग जाएगी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें भारत-पाकिस्तान को लेकर अच्छे-खासे मजाक किए गए हैं। एक पाकिस्तान पुलिस ऑफिसर को यही अफसोस होता रहता है कि गांधीजी, गालिब, कपिल देव हमारे पाकिस्तान में क्यों नहीं हुए। वह भारत आकर नमक खाने से परहेज करता है, लेकिन यह जानकर हैरान रह जाता है कि पाकिस्तान में नमक भारत से ही आता है। फिल्म में कुछ मजेदार दृश्य हैं, जैसे बिलाल का अपने पिता को समझाना कि उसकी दिवंगत मां घर में दिखती रहती है, अफरीदी और गुड्डू की उर्दू पर चर्चा, पाकिस्तानी और भारतीय का दूसरे देश में जाकर यह महसूस करना कि हम एक जैसे ही हैं, हंसाते हैं। फिल्म का पहला हाफ उम्दा है। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है क्योंकि कुछ सब-प्लॉट उतने मजेदार नहीं हैं, हैप्पी और गुडडू की लव स्टोरी थोड़ी कच्ची लगती है, लेकिन अंत में फिल्म फिर ट्रैक पर आ जाती है। मुदस्सर अज़ीज़ के लिखे संवाद हंसाते हैं, जैसे एक किरदार का पाकिस्तान में कहना कि 'यहां बंदूक के बिना बात करो तो कोई सुनता ही नहीं।' निर्देशक के रूप में मुदस्सर प्रभावित करते हैं। अपनी कहानी की कमियों को उन्होंने निर्देशन के जरिये छिपा लिया। सिचुएशनल कॉमेडी के जरिये उन्होंने दर्शकों को हंसाया है। हैप्पी के किरदार को उन्होंने दूसरे किरदारों के जरिये विकसित किया है जो थोड़ा अखरता है, इस वजह से हैप्पी को फिल्म में कम जगह मिलती है जबकि दर्शक हैप्पी को ज्यादा परदे पर देखना चाहते थे। शायद अभय देओल के कारण उन्होंने यह समझौता किया है। अभिनेताओं का पूरा सहयोग निर्देशक को मिला है। पिछली बार 'कॉकटेल' में नजर आईं डायना पेंटी ने हैप्पी की भूमिका बढ़िया तरीके से अदा की है। हालांकि उनके अभिनय में थोड़ी गुंजाइश थी, लेकिन तेज-तर्रार किरदार को उन्होंने वो सब कुछ दिया जो जरूरी था। अभय देओल हमेशा की तरह उम्दा रहे। उन्हें कॉमेडी करते देख अच्छा लगता है। जिमी शेरगिल तनु वेड्स मनु वाले अवतार में ही नजर आएं और एक बार फिर उनके हाथ से लड़की निकल गई। अली फज़ल का उपयोग कम ही हुआ। पाकिस्तानी अभिनेत्री मोमल शेख का अभिनय औसत रहा है। पुलिस ऑफिसर अफरीदी के रूप में पियूष मिश्रा ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। फिल्म का संगीत ठीक है। हिट गाने की कमी अखरती है। तकनीकी रूप से फिल्म ठीक है। कुल मिलाकर 'हैप्पी भाग जाएगी' दर्शकों को हैप्पी करती है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर येलो प्रोडक्शन निर्माता : कृषिका लुल्ला, आनंद एल. राय निर्देशक : मुदस्सर अज़ीज़ संगीत : सोहेल सेन कलाकार : अभय देओल, डायना पेंटी, जिमी शेरगिल, मोमल शेख, अली फज़ल, पियूष मिश्रा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 6 मिनट ",1 "छोटे से छोटा धंधा अब बड़ी से बड़ी कंपनियां कर रही हैं और इसका असर छोटे व्यापारियों पर पड़ रहा है। ये कॉरपोरेट कंपनियां व्यवसाय में मोनोपॉली चाहती हैं। इस थीम को लेकर 'सोनाली केबल' का निर्माण किया गया है। यूथ अपील को ध्यान में रखते हुए फिल्म की नायिका को 'ब्रॉण्डबैण्ड कनेक्शन' प्रदान करने वाली बताया गया है, लेकिन उसका यह व्यवसाय कई लोगों के पल्ले नहीं पड़ेगा। सोनाली (रिया चक्रवर्ती) एक नेता ताई (स्मिता जयकर) के साथ मिलकर 'सोनाली केबल' नामक कंपनी चलाती है। कंपनी में 40 प्रतिशत सोनाली की 60 प्रतिशत नेता की भागीदारी है। सोनाली मुश्किल में तब आती है जब एक बड़ा कॉरपोरेशन 'शाइनिंग' राह में आड़े आता है। वाघेला (अनुपम खेर) ब्रॉडबैण्ड इंटरनेट बिजनेस में पूरी मुंबई में अपनी मोनोपॉली चाहता है। वह सोनाली को लालच देता है, लेकिन सोनाली ठुकरा देती है। सोनाली को राह से हटाने के लिए वह साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाता है। सोनाली की पार्टनर ताई को राजी कर लेता है, लेकिन ताई का बेटा रघु (अली फजल) सोनाली का साथ देता है। रघु और सोनाली एक-दूसरे को चाहते हैं, लेकिन रघु की मां इस रिश्ते के खिलाफ है। वाघेला की कंपनी से किस तरह सोनाली-रघु लड़ते हैं, ये फिल्म का सार है। अच्छी शुरुआत के बाद सोनाली केबल रास्ता भटकने में ज्यादा देर नहीं लगाती। असली मुद्दे को छोड़ जब फिल्म के लेखक और निर्देशक चारूदत्ता आचार्य ने लव स्टोरी, राजनीति, दोस्त की मौत, बाप-बेटी का प्यार वाले ट्रेक दिखाना शुरू किए तो फिल्म का सारा असर जाता रहा। हटकर शुरुआत करने के बाद फिल्म चिर-परिचित ट्रेक पर चलने लगती है। रूचि सोनाली बनाम वाघेला युद्ध में रहती है परंतु बेवजह में इन दृश्यों को झेलना पड़ता है। ये सारे सब-प्लॉट्स कहानी में ठीक से फिट नहीं होते या इनकी जगह नहीं बन पाई है, लिहाजा फिल्म कई जगह बहुत ही उबाऊ हो गई है। दरअसल चारुदत्ता एक स्तर तक जाने के बाद खुद कन्फ्यूज नजर आए कि कहानी को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। वे इस सोनाली और वाघेला के युद्ध को भी ठीक तरह से पेश नहीं कर पाए। वाघेला कही भी ऐसा खलनायक नहीं लगता कि दर्शक उससे नफरत करे और उसकी सहानुभूति सोनाली के साथ हो। सोनाली अपनी कंपनी को बचाने की इतनी कोशिश क्यों करती है, ये भी समझ के परे है। एक सीन में वह बताती है कि उसे घरों में जाना अच्छा लगता है, लेकिन ये कारण बहुत ठोस नजर नहीं आता। फिर कंपनी में सोनाली की सिर्फ 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी है और ऐसी कंपनी को बचाने के लिए उसके प्रयास तर्कहीन लगते हैं। फिल्म को जिस तरह से खत्म किया गया है वो एक लेखक की लाचारी को दर्शाता है। सोनाली को एक तेज-तर्रार लड़की बताया गया है जो लड़कों के बीच अपने काम को अंजाम देती है, लेकिन एक दृश्य में वह एक गुंडे को उसकी कायरता के कारण चूड़ी देती है। इस सीन के जरिये वह महिला होकर अपने आपको कमजोर साबित करती है। क्या चुड़ियां पहनने से महिलाएं कमजोर हो जाती हैं? यह सीन सोनाली को मजबूत दिखाने के प्रयास पर पानी फेर देता है। चारुदत्ता के निर्देशन में इस बात के संकेत मिलते हैं कि उनमें संभावनाएं हैं। यदि अच्छी स्क्रिप्ट मिलती है तो वे कुछ कर दिखा सकते हैं, लेकिन लेखक के रूप में वे निराश करते हैं। रिया चक्रवर्ती की कोशिश अच्छी है। कई दृश्य उन्होंने अच्छे से निभाए हैं, लेकिन महाराष्ट्रीय लड़की के रूप में उन्हें दिखाने का प्रयास थोपा हुआ लगता है। अली फजल अब स्टीरियोटाइप होते जा रहे हैं। एक्टर अच्‍छे हैं, लेकिन रोल चुनने में उन्हें सावधानी की जरूरत है। अनुपम खेर को कॉमिक विलेन दिखाया गया है और उन्होंने अपना काम अच्छे से किया गया है। सोनाली के पिता के रूप में स्वानंद किरकिरे प्रभावित करते हैं। सोनाली के दोस्तों में राघव जुयाल का अभिनय अच्छा है। कुल मिलाकर सोनाली केबल में 'कनेक्टिविटी' की समस्या है। बैनर : रमेश सिप्पी एंटरटेनमेंट निर्माता : रमेश सिप्पी, रोहन सिप्पी, रूपा डे चौधरी निर्देशक : चारू दत्ता आचार्य संगीत : अंकित तिवारी, माइक मैकलिअरी कलाकार : रिया चक्रवर्ती, अली फजल, अनुपम खेर, स्मिता जयकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 7 मिनट 47 सेकंड ",0 "खेल में अपने देश के झंडे को एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर लहराते हुए देखने से ज्यादा गर्व की बात और क्या हो सकती है। यह भावना और ज्यादा मजबूत हो जाती है क्योंकि घटना 1948 के लंदन ओलिंपिक्स की है जहां भारत को साबित करना है कि 1936 से 1948 तक खेलों में उसका वर्चस्व सिर्फ चांस की बात नहीं थी। यह घटना ऐतिहासिक भी है क्योंकि भारतीय हॉकी टीम यहां आजादी के सिर्फ एक साल बाद ही खेल रही है।'गोल्ड' जोश से भरे इस टीम के सफर को दिखाती है जिसने ब्रिटेन के 200 सालों की गुलामी के आगे अपना झंडा बुलंद किया। फिल्म की कहानी 1936 से शुरू होती है जब भारतीय हॉकी टीम ने बर्लिन ओलिंपिक्स में लगातार तीसरी बार गोल्ड जीता था। तब यह टीम ब्रिटिश इंडिया टीम कहलाती थी और इसे ब्रिटिश राज चलाता था। टीम के एक बंगाली जूनियर मैनेजर ने आजाद भारत की टीम को गोल्ड दिलाने का संकल्प लिया। उसका सपना 1948 में ब्रिटेन की धरती पर भारतीय ध्वज लहराने का था। रीमा कागती ने गहरे मायनों वाली इस कहानी को मनोरंजक तरीके से पेश किया है। यह फिल्म हमें इतिहास के उस दौर में ले जाती है जिसके बारे में कम ही बात होती है। सभी कलाकारों का प्रदर्शन शानदार है। धोती पहने हुए टीम मैनेजर के रूप में अक्षय कुमार ने अपने किरदार से खूब हंसाया है, वहीं वह तुरंत नाटकीय और इमोशनल सीन पर भी आसानी से स्विच कर जाते हैं। कुणाल कपूर ने पहले हॉकी प्लेयर और फिर हॉकी टीम के कोच के रूप में शानदार प्रदर्शन किया है। विनीत कुमार का काम भी दमदार है। अमित साध का किरदार भी काफी अच्छा है जो टीम के उपकप्तान रहते हुए जिंदगी के पाठ सीखते हैं। एक गुस्सैल प्लेयर के रूप में सनी कौशल ने भी अपना किरदार बखूबी निभाया है। मॉनी राय ने बंगाली पत्नी का अपना छोटा सा किरदार असरदार तरीके से निभाया है। 'गोल्ड' सिर्फ हॉकी पर बनी एक फिल्म नहीं है बल्कि एक पीरियड फिल्म है जो उस दौर को जीवंत करती है जिसे काफी पहले भुलाया जा चुका है। यह विभाजन की दर्दनाक घटना को भी दर्शाती है जिसने बड़ी क्रूरता के साथ देश को दो भागों में बांट दिया। प्रॉडक्शन डिजाइन और कॉस्ट्यूम ने उस दौर को रीक्रिएट करने में अहम भूमिका निभाई है। सिनेमटॉग्रफी और बैकग्राउंड स्कोर तकनीक और गुणवत्ता के मामले में काफी कमाल के हैं। फिल्म में होने वाले हॉकी मैच थ्रिल बनाए रहते हैं। मैच का अंत जानते हुए भी आप पूरे मैच के दौरान रोमांच महसूस करेंगे और भारतीय टीम के लिए चीयर करेंगे। फिल्म की एडिटिंग कुछ बेहतर हो सकती थी और कहानी में 'चढ़ गई' और 'नैनो ने बांधी' गाने की जरूरत नहीं थी। इमोशनल एंड पर फिल्म काफी दमदार है क्योंकि कुछ लोग अपने निजी विरोधों को दूर रखकर भारत की जीत के लिए मिलकर प्रयास करते हैं। आजादी के बाद .यह पहला गेम था इसलिए ग्राउंड पर खेल रही भारतीय टीम के लिए पाकिस्तानी टीम भी चीयर करती है। ",0 "ईरानी फिल्ममेकर माजिद मजीदी का नाम फिल्म प्रेमियों के लिए कोई नया नाम नहीं है। इस फिल्म को माजिद ने जब पिछले साल लंदन फिल्म फेस्टिवल में पहली बार इस फिल्म को पेश किया तो यहां मौजूद मेहमानों, क्रिटिक्स ने फिल्म की स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद फिल्म की तारीफों के पुल बांध दिए। वैसे माजिद ने इस फिल्म को बनाने का प्लान उस वक्त किया जब वह मुंबई फिल्म फेस्टिवल में आए थे। तभी उन्होंने इस फिल्म को बनाने की प्लानिंग करने के बाद सबसे पहले एआर रहमान को अप्रोच किया। वैसे माजिद इससे पहले डॉक्युमेंट्री सहित करीब 20 से ज्यादा फिल्में बनाकर हमेशा मीडिया और क्रिटिक्स में चर्चा का केंद्र बने रहे। लंदन में 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' की स्कीनिंग के बाद इंटरनैशनल मीडिया में फिल्म को मिले पॉजिटिव रिस्पॉन्स देख भारतीय फिल्म दर्शकों को भी इस फिल्म का बड़ी बेसब्री से इंतजार था। ताज्जुब होता है कि अब जब रिलीज हुई है तो फिल्म की डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी को अपने पसंदीदा स्क्रीन्स हासिल करने के लिए लंबी भागदौड़ करने के बाद भी ज्यादा स्क्रीन नहीं मिल पाए तो दिल्ली के किसी एक भी सिंगल स्क्रीन सिनेमा ने इस फिल्म को अपने यहां एक शो में भी लगाने से परहेज किया। स्टोरी: फिल्म की कहानी आमिर (ईशान खट्टर) और उसकी बड़ी बहन तारा (मालविका मोहनन) के इर्द-गिर्द घूमती है। मां-बाप की मौत के बाद आमिर बहन के घर रहने लगा लेकिन तारा का शराबी पति हर रोज तारा के साथ-साथ अक्सर आमिर को भी पीटता। आखिरकार 13 साल की उम्र में आमिर अपनी बहन का घर छोड़कर भाग जाता है। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था, कई साल बाद एक दिन दोनों भाई-बहन एकबार फिर मिले लेकिन अब तक तारा और आमिर की जिंदगी कई ऐसे मुश्किल भरी राहों से गुजर चुकी थी जहां कुछ भी ठीक नहीं था। भाई अब गलत संगत में कुछ भी करके बस पैसा कमाना ही चाहता था, चाहे इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े। धोबी घाट पर 50 साल के करीब का अर्शी (गौतम घोष) हमेशा तारा पर बुरी नजर रखता था। एक दिन अर्शी जब तारा के साथ जबर्दस्ती करता है तो तारा बचाव में अर्शी को बड़े पत्थर से बुरी तरह से मारती है। अर्शी पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में तारा को जेल भेज दिया जाता है। यहीं से कहानी में एक नया मोड़ आता है। ऐक्टिंग: अगर ऐक्टिंग की बात करें तो भाई के रोल में ईशान खट्टर के रूप में एक ऐसा उभरता यंग ऐक्टर नजर आता है जो किरदार में समा जाते हैं। शुरू से अंत तक ईशान की ऐक्टिंग का जवाब नहीं है। ईशान की बहन के रोल में साउथ फिल्मों की ऐक्ट्रेस मालविका मोहनन ने भी अपने किरदार को जीवंत कर दिखाया है। वैसे यह फिल्म दर्शकों को 90 के दशक में रिलीज हुई माजिद मजीदी फिल्म 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन' से मिलती जुलती लग सकती है। फिल्म की शूटिंग मुंबई की कई स्लम कॉलोनियों में की गई है। ईशान ने पहली ही फिल्म से दिखा दिया है कि वह आने वाले कल के स्टार होंगे। मलयालम ऐक्ट्रेस मालविका मोहनन अपने किरदार में दमदार नजर आईं। फिल्म तनिष्ठा चटर्जी के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था।यहां कैमरामैन अनिल मेहता की यहां खास तारीफ करनी होगी कि उन्होंने स्लम कॉलोनियों में भी फिल्म को ऐसे शानदार ढंग से शूट किया है कि आप देखते ही रह जाते हैं। एआर रहमान का संगीत उनकी इमेज के मुताबिक नहीं है। हमारी नजर में 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' एक मस्ट वॉच फिल्म है। ऐसी फिल्म को देखने के लिए अगर आपको घर से कुछ दूर भी जाना पड़े तो जाएं लेकिन अगर आप ऐक्शन, कॉमिडी, रोमांस और हॉट सीन्स के शौकीन हैं तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है।",0 "कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। निर्माता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : राकेश ओमप्रकाश मेहरा संगीत . एआर रहमान कलाकार : अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, ओम पुरी, दिव्या दत्ता, ऋषि कपूर, वहीदा रहमान, पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, तनवी आजमी, केके रैना, अतुल कुलकर्णी सबसे पहली बात ‍तो ये कि ‘देहली 6’ एक प्रेम कहानी नहीं है। यह दिल्ली 6 में रहने वाले लोगों की फिल्म है, जहाँ अलग-अलग धर्म के लोग सँकरी गलियों और पुराने घरों में साथ रहते हैं। ऐसा लगता है कि समय वहाँ अटक गया है या वे लोग समय के हिसाब से नहीं बदले और न ही उनकी सोच बदली। वैसे भारत के लगभग हर बड़े शहर में एक क्षेत्र ऐसा होता है, जिसे हम पुराना कहते हैं। दिल्ली 6 के हर किरदार की अपनी कहानी और सोच है, जिनके जरिये निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भारतीय समाज का चित्रण करने की कोशिश की है। इस फिल्म को देखकर पिछले वर्ष प्रदर्शित श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की याद आना स्वाभाविक है। उस फिल्म में भी बेनेगल ने किरदारों के जरिये देश की नब्ज टटोली थी। वैसे हम शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नाम पर भले ही तरक्की की बात करें, लेकिन अभी भी हमारे देश के ज्यादातर लोगों की सोच दिल्ली 6 में रहने वालों की तरह ही है। वे घर की महिलाओं को दोयम दर्जा देते हैं। बिट्टू (सोनम कपूर) कुछ बनना चाहती है, लेकिन उसके पिता (ओम पुरी) उसकी शादी कर देना चाहते हैं। बिट्टू अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहती है और उसे लगता है कि इंडियन आयडल उसके लिए आयडल है। जलेबी (दिव्या दत्ता) को अछूत माना जाता है। भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (विजय राज) को उसके मंदिर जाने पर आपत्ति है, लेकिन वह उसके साथ रात बिताने के लिए तैयार है। दो भाइयों (ओम पुरी और पवन मल्होत्रा) के बीच नहीं पटती। वे घर के बीच दीवार बना लेते हैं, लेकिन उनकी पत्नियाँ ईंट खिसकाकर बातें करती हैं। कुछ समाज के ठेकेदार हैं, जो मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोगों को भड़काते हैं और उनमें झगड़ा करवाते हैं। इसके अलावा एक ‘काला बंदर’ भी है, जो लोगों को मारता है, चीजें चुराता है। उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें हैं। इन सब बातों का गवाह बनता है फिल्म का नायक रोशन (अभिषेक बच्चन), जो न्यूयॉर्क से दिल्ली अपनी बीमार दादी (वहीदा रहमान) को छोड़ने के लिए आया है। उसकी दादी अपने अंतिम दिन अपने पुश्तैनी घर में गुजारना चाहती है। उसे दिल्ली 6 के लोग किसी अजूबे से कम नहीं लगते। वह मोबाइल से उनके फोटो खींचता रहता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी घटती हैं कि फिल्म के अंत में नायक वापस न्यूयॉर्क नहीं जाना चाहता और उसकी दादी अपने ही लोगों से खफा होकर लौटना चाहती है। राकेश मेहरा ने काला बंदर, संगीत और दिल्ली में चल रही रामलीला के जरिये अपने चरित्रों को जोड़कर फिल्म को आगे बढ़ाया है। संगीत का भी इसमें अच्छा इस्तेमाल किया गया है। कुछ दृश्य बेहतरीन हैं। जैसे ओम पुरी अपनी बेटी के होने वाले पति के पिता से दहेज के लिए बातें करते हैं और पीछे बैठे प्रेम चोपड़ा शेयर के मोलभाव करते हैं। अछूत जलेबी को रामलीला पंडाल के बाहर बैठकर सुनना पड़ती है। काले बंदर के नाम पर सब लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। राकेश का निर्देशन अच्छा है, लेकिन लेखन में कुछ कमियाँ रह गईं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ चरित्रों को उभारने में ही चला गया। किरदार बातें करते रहते हैं, लेकिन फिल्म की कहानी बिलकुल भी आगे नहीं बढ़ती। फिल्म का अंत भी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगा। अभिषेक बच्चन का किरदार भी कमजोर है, जबकि वे फिल्म के नायक हैं। ऊपर से उनके ज्यादातर संवाद अँग्रेजी में हैं और उनका उच्चारण भी उन्होंने विदेशी लहजे में किया है, जिसे समझने में कई लोगों को मुश्किल आ सकती है। सोनम कपूर का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनके चरित्र को उभरने का अवसर नहीं मिला। अभिषेक का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। ज्यादातर दृश्यों में उनके चेहरे पर एक जैसे ही भाव रहे हैं। पवन मल्होत्रा, विजय राज और दिव्या दत्ता ने अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। ओम पुरी, ऋषि कपूर और वहीदा रहमान को सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए लिया गया है। ये भूमिकाएँ उनके जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं करतीं। दिल्ली का सेट देखकर विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह नकली है। एआर रहमान का संगीत ‘देहली 6’ की सबसे बड़ी खासियत है। मसकली, रहना तू, ये दिल्ली है मेरे यार गीत सुनने लायक हैं। गीतकार प्रसून जोशी का काम भी उल्लेखनीय है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्यों में अँधेरा नजर आता है। कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। ",1 "‘फिराक’ उन फिल्मों में से है, जो सोचने पर मजबूर करती है। बैनर : परसेप्ट पिक्चर कंपनी निर्देशक : नंदिता दास संगीत : रजत ढोलकिया और पीयूष कनौजिया कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, रघुवीर यादव, दीप्ति नवल, संजय सूरी, शहाना गोस्वामी, टिस्का चोपड़ा मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म अपनी बात कहने या विचार प्रकट करने का भी सशक्त माध्यम है। 2002 में गुजरात में दंगों की आड़ में जो कुछ हुआ उससे अभिनेत्री नंदिता दास भी आहत हुईं और उन्होंने अपनी भावनाओं को ‘फिराक’ के जरिये पेश किया है। युद्ध या हिंसा कभी भी किसी समस्या का हल नहीं हो सकते। इनके खत्म होने के बाद लंबे समय तक इनका दुष्प्रभाव रहता है। फिराक में भी दंगों के समाप्त होने के बाद इसके ‘आफ्टर इफेक्ट्स’ दिखाए गए हैं। हिंसा में कई लोग मर जाते हैं, लेकिन जो जीवित रहते हैं उनका जीवन भी किसी यातना से कम नहीं होता। इस सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में वे लोग भी आते हैं, जिनका घर जला नहीं या कोई करीबी मारा नहीं गया है। फिल्म में 6 कहानियाँ हैं जो आपस में गुँथी हुई हैं। इसके पात्र हर उम्र और वर्ग के हैं, जिनकी जिंदगी के 24 घंटों को दिखाया गया है। पति (परेश रावल) का अत्याचार सहने वाली मध्यमवर्गीय पत्नी (दीप्ति नवल) को इस बात का पश्चाताप है कि वह दंगों के समय अपने घर के बाहर जान की भीख माँगने वाली महिला की कोई मदद नहीं कर सकी। संजय सूरी एक उच्चवर्गीय और पढ़ा-लिखा मुस्लिम है, जिसने हिंदू महिला से शादी की है। उसका स्टोर दंगों के दौरान लूट लिया गया है और वह डर के मारे गुजरात छोड़कर दिल्ली जाना चाहता है। उसे अपना नाम बताने में डर लगता है क्योंकि धर्म उजागर होने का भय है। शहाना का घर दंगों में जला दिया गया है और उसे अपनी खास हिंदू सहेली के पति पर शक है। उनकी दोस्ती की परीक्षा इस कठिन समय पर होती है। सड़कों पर घूमता एक बच्चा है, जिसके परिवार को मार डाला गया है और वह अपने पिता की तलाश कर रहा है। एक वृद्ध मुस्लिम संगीतकार (नसीरुद्दीन शाह) है, जो इस सांप्रदायिक हिंसा से बेहद दु:खी है। उसका नौकर उससे पूछता है कि क्या आपको इस बात का दु:ख नहीं है कि मुस्लिम मारे जा रहे हैं। वह कहता है कि उसे मनुष्यों के मरने का दु:ख है। कुछ जवान युवक हैं जो हिंदुओं से बदला लेना चाहते हैं। निर्देशक के रूप में ‍नंदिता प्रभावित करती हैं। फिल्म की शुरुआत वाला दृश्य झकझोर देता है। लाशों को अंतिम संस्कार के लिए ट्रक के जरिये लाया जाता है। मुस्लिम व्यक्तियों के बीच एक हिंदू स्त्री की लाश देखकर कब्र खोदने वाला उस लाश को मारना चाहता है। यह दृश्य दिखाता है कि इनसान इतना भी ‍नीचे गिर सकता है। नंदिता ने पुरुषों के मुकाबले महिला किरदारों को सशक्त दिखाया है। बिना दंगों को स्क्रीन पर दिखाए चरित्रों के जरिये दहशत का माहौल पैदा किया है। फिल्म देखते समय इस भय को महसूस किया जा सकता है। फिल्म के जरिये उन्होंने दुष्प्रभाव तो दिखा दिया, लेकिन इसका कोई हल नहीं सुझाया । अंत दर्शकों को सोचना है। फिल्म के अंत में उन्होंने उस बच्चे का क्लोजअप के जरिये चेहरा दिखाया है, जो अपने पिता को ढूँढ रहा है। उसकी आँखों में ढेर सारे प्रश्न तैर रहे हैं। उसका क्या भविष्य होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। आँखों में बच्चे का चेहरा लिए दर्शक जब सिनेमाघर छोड़ता है तो उसके दिमाग में भी कई सवाल कौंधते हैं। फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं। नसीर का किरदार अचानक सकारात्मक हो जाता है। परेश रावल के किरदार को भी ठीक से विकसित नहीं किया गया है। कुछ युवकों द्वारा बंदूक हासिल करने वाले दृश्य विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। बच्चे को हर कहानी से भी जोड़ा जा सकता था। फिल्म में गुजराती, हिंदी और अँग्रेजी संवादों का घालमेल है, जिसे समझने में कुछ दर्शकों को तकलीफ हो सकती है। सभी कलाकारों ने अपने पात्रों को बखूबी जिया है। ऐसा लगता ही नहीं कि कोई अभिनय कर रहा है। रवि के. चन्द्रन की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। ‘फिराक’ उन फिल्मों में से है, जो सोचने पर मजबूर करती है। ",1 " बेटा जवान हो गया। उसे काम से लगाना है। पापा फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं। फौरन एक फिल्म प्लान कर ली गई। वक्त के साथ-साथ सिनेमा बहुत बदल चुका है, ये पापा को पता ही नहीं है। वे अभी भी सोचते हैं कि पांच गाने, पांच फाइट सीन, चार कॉमेडी सीन, तीन इमोशनल सीन डाल दो फिल्म तैयार हो जाती है। ये सारे सीन फिल्मा लिए गए। अरे याद आया, कहानी भी तो चाहिए। कुछ भी लिख डालो, चल जाता है। जो मन में आया लिख दिया गया। निश्चित अंतराल पर गाने, फाइट सीन वगैरह-वगैरह डाल दिए गए। जो फिल्म तैयार हुई उसका नाम रख दिया गया 'कर ले प्यार कर ले'। बेटे की ख्वाहिश की इच्छा बेचारे उन दर्शकों को भुगतना पड़ती है जो ऐसी फिल्म देखने चले जाते हैं। पूरी फिल्म बेसिर-पैर है। यह बात फिल्म की पहली फ्रेम देखने पर ही पता चल जाती है और इसके बाद दो घंटे तक तमाम ऊटपटांग हरकतें जारी रहती हैं जो सिर दर्द पैदा करती हैं। कबीर और प्रीत की यह प्रेम कहानी है। कबीर की मां का मानना है कि जब भी प्रीत उसके बेटे की लाइफ में आती है तो कुछ न कुछ उसके बेटे के साथ गलत होता है। वह ऐसा क्यों मानती है इसके पीछे कोई कारण नहीं है और न ही ऐसे ठोस प्रसंग दिखाए गए हैं। कबीर की मां अपने बेटे को कई शहरों में लेकर घूमती रहती हैं, ऐसा क्यों करती है इसका भी कोई जवाब नहीं है। 12 साल बाद वे फिर उसी शहर में लौटते हैं और कबीर-प्रीत फिर एक बार मिल जाते हैं। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं जहां पढ़ाई का तो पता नहीं, लेकिन फाइट जरूर होती है। यही पर एक विलेन की एंट्री होती है जिसका पिता लोगों के हाथ-पैर काटता रहता है। थोड़ी बहुत मारा-मारी होती है और हैप्पी एंड के साथ फिल्म खत्म। ये कहानी यहां तो फिर भी सलीके से लिखी गई है, लेकिन फिल्म में इस तरह प्रस्तुत की गई है कि कुछ भी समझ में नहीं आता। कभी भी गाना टपक पड़ता है या फाइट सीन आ जाते हैं। किरदार अचानक चीखने-चिल्लाने लगते हैं। फिल्म के टाइटल में लिखा गया है कि राजेश पांडे नामक शख्स ने इसका निर्देशन किया है, लेकिन फिल्म देख कही ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई निर्देशक है। लगता है कि ऐसी कार में बैठे हैं जिसके ब्रेक फेल हो गए हैं और वो कही भी चले जा रही है। फिल्म के हर विभाग की हालत ऐसी ही है। संगीत के नाम पर शोर पैदा किया गया है। कोरियोग्राफी देख गुस्सा आने लगता है। न एडिटिंग ढंग की है और न ही सिनेमाटोग्राफी। शिव दर्शन ने इस फिल्म से बॉलीवुड में शुरुआत की है। उनमें एनर्जी तो भरपूर है, लेकिन अभिनय के मामले में बेहद कच्चे हैं। फाइट और डांस के मामले में भी वे कमजोर रहे। उन्होंने संवाद इतने चीख-चीख कर बोले हैं, जैसे बिना माइक के भीड़ को संबोधित कर रहे हों। इस मामले में उनका दोष कम और निर्देशक का ज्यादा है। हीरोइन हरलीन कौर भी प्रभावित नहीं करती हैं। फिल्म के अन्य कलाकारों का अभिनय भी बेहद घटिया है। कुल मिलाकर 'कर ले प्यार कर ले' से दूरी बनाए रखने में ही भलाई है। बैनर : श्रीकृष्णा इंटरनेशनल निर्माता : सुनील दर्शन निर्देशक : राजेश पांडे संगीत : रशीद खान, प्रशांत सिंह, मीत ब्रदर्स, रेयान अमीन कलाकार : शिव दर्शन, हसलीन कौर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * एक घंटा 56 मिनट ",0 "यह कहानी भारत में आजादी से पहले की है, जिसमें युद्ध के साथ-साथ आपको रोमांस भी देखने को मिलेगा। जैसा कि आपको पता ही है, इस आजादी की लड़ाई में देश के अलग-अलग सपूतों का अपना-अपना अलग तरीका था। महात्मा गांधी ने आजादी के लिए अहिंसा को अपनाया, सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों को देश से बाहर करने के लिए आजाद हिंद फौज का गठन किया। ...और ऐसे ही संघर्ष के बीच दिलेर जूलिया (कंगना) 40 के दशक में कई दिलों पर राज कर रही होती हैं। जहां एक तरफ उनका शादीशुदा प्रड्यूसर रूसी बिलमोरिया (सैफ) उनपर फिदा रहता है, वहीं बॉर्डर पर तैनात जमादार नवाब मलिक (शाहिद) भी उससे बेइंतहां प्यार करता है। रंगून रिव्यू: 'रंगून' एक महत्वकांक्षी कोशिश है, एक ऐसी फिल्म बनाने की जो प्रेम त्रिकोण पर बेस्ड है लेकिन युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित है। 1942 में आई 'कैसाब्लांका; और 2002 में आई 'शिकागो' से इस फिल्म का इतिहास काफी मेल खाता है, लेकिन अगर इस फिल्म का संगीत कुछ और मजेदार होता तो बेहतर होता जो फिल्म के बीच-बीच में आता है। कई भयंकर वॉर सीन के बीच कुछ नाच-गाने के साथ-साथ आपको एक अच्छा रोमांस भी देखने को मिलेगा। इन सब मसालों के बीच फिल्म में एक घुसपैठिए का ऐंगल भी है जो फिल्म में किसी साजिश की ओर इशारा करता है। निर्देशक विशाल भारद्वाज जिनकी फिल्मों के खजाने में 'मकबूल', 'ओमकारा' और 'हैदर' जैसी बेहतरीन फिल्में हैं...उन्होंने इस फिल्म को भी अच्छा बनाया है लेकिन पूरी तरह से नहीं। फिल्म के कुछ सीन जहां बेवजह डाले हुए लगते हैं वहीं कुछ सीन बेहद ऊबाऊ हैं। काफी ज्यादा वॉर सीन, प्यार और धोखे को दिखाने के चक्कर में इसका अंत कुछ बेतरतीब नज़र आ रहा है और दर्शकों के मन में कश्मकश वाली स्थिति रह जाती है। इस फिल्म में सैफ ने जहां अपने व्यापारी के किरदार को बेहद सटीक तरीके से निभाया है वहीं, शाहिद का अभिनय दमदार है। कंगना यकीनन फिल्म में सबसे अहम हैं। उनके लिए दो लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जहां रूसी के लिए जूलिया बेशकीमती हैं, वहीं देशभक्त नवाब के दिलों की धड़कन जो कि उसकी बहादुरी से प्यार करता है। भले ही लव सीन काभी अच्छी तरह से लिखे और काफी खूबसूरती से शूट किए गए हैं, लेकिन उनमें जुनून का अभाव नज़र आ रहा है। शाहिद और कंगना के बीच हुए इतने सारे लिप-लॉक सीन में भी वह जुनून नज़र नहीं आता। फिल्म में एक डायलॉग है, जिसमें सैफ ब्रिटिश ऑफिसर को कहता है, 'हम ऐक्टर्स हैं, हम जानते हैं लोगों को कैसे राजी किया जाता है।' यह यहां पूरी तरह से फिट नहीं। जूलिया फिल्म में बार-बार कहती हैं, 'ब्लडी हेल'...काश इन तीनों अभिनेताओं ने सचमुच इस बात को अपनाकर खुद को इस किरदार में पूरी तरह से डूबो लिया होता तो यह फिल्म हर लिहाज से एक दूसरे ही लेवल पर पहुंच जाती। ",0 " कपूर एंड सन्स इस बात दर्शाती है कि गलतियां सभी से होती हैं। परिवार के सदस्यों के बीच भी तनाव होता है, लेकिन यही ऐसी जगह है जहां सबको आसानी से माफ भी कर दिया जाता है। फिल्म की कहानी दादा (ऋषि कपूर), पापा (रजत कपूर) और उनके दो बेटों राहुल (फवाद खान) और अर्जुन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के इर्दगिर्द घूमती है। राहुल लंदन में तो अर्जुन न्यूजर्सी में हैं। दोनों लेखक हैं। राहुल सफल हो चुका है, लेकिन अर्जुन का संघर्ष जारी है। दादा को दिल का दौरा पड़ता है और दोनों भाई भारत लौटते हैं। रिश्ते के इस मकड़जाल में कुछ रिश्ते तनावपूर्ण है। मसलन अर्जुन को शिकायत है कि राहुल ने जो सफल उपन्यास लिखा है वो उसका आइडिया था जिसे बड़े भाई ने चुराया है। इन दोनों के मां-बाप के रिश्ते में भी कड़वाहट है। पिता की जिंदगी में कोई और महिला है। बिजनेस भी ठीक से नहीं चल रहा है। अर्जुन को शिकायत है कि माता-पिता राहुल को ज्यादा प्यार करते हैं। नर्स के साथ फ्लर्टिंग करने वाले और मंदाकिनी के दीवाने दादा की बीमारी के बहाने सभी इकट्ठा होते हैं। दादा की इच्‍छा है कि एक फैमिली फोटोग्राफ खींचा जाए। उस फोटोग्राफ को खींचने के पूर्व रिश्तों में काफी उथल-पुथल मचती है। कुछ राज खुलते हैं। कुछ गलतफहमियां दूर होती हैं और मन के अंदर जमा बहुत सारा मैल बह जाता है। फिल्म को शकुन बत्रा ने लिखा और निर्देशित किया है। शकुन ने 2012 में एक बेहतरीन रोमांटिक फिल्म 'एक मैं और एक तू' बनाई थी। पारिवारिक फिल्मों की कहानी लगभग एक जैसी होती है, लेकिन शकुन की इस बात के लिए तारीफ करना होगी कि उन्होंने फिल्म को गैर जरूरी भावुकता और गंभीरता से बचाए रखा है। साथ ही उनका प्रस्तुतिकरण इस पुरानी कहानी में भी ताजगी भर देता है। संभव है कि कुछ दर्शकों को 'दिल धड़कने दो' की याद भी आए जो पिछले वर्ष ही रिलीज हुई थी। कपूर परिवार का हर किरदार मजेदार है। किरदार इस तरह से प्रस्तुत किए हैं कि दर्शकों को कपूर परिवार अपना ही परिवार लगने लगता है। ऐसा लगता है मानो हम अदृश्य रूप से उनके घर में मौजूद हैं और सारी बातें सुन और देख रहे हैं। इस परिवार में झगड़े इस तरह के होते हैं कि उनमें प्यार झलकता है। वैसे कहा भी जाता है कि जिस परिवार के सदस्य छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं उनमें आपसी प्यार ज्यादा ही होता है। फिल्म का पहला हाफ मौज-मस्ती से भरा हुआ है, इसमें ऋषि कपूर के कुछ सीन तथा आलिया-सिद्धार्थ-फवाद के बीच के दृश्य बेहतरीन बन पड़े हैं जो आपको हंसाते हैं। अच्छी बात यह है कि कहानी में लगातार ट्विस्ट आते रहते हैं जो आपकी रूचि और उत्सुकता को बनाए रखते हैं। दूसरे हाफ में कहानी गंभीर मोड़ लेती है और यह हिस्सा थोड़ा लंबा लगता है। हालांकि कुछ सीन ऐसे हैं जो आपको भावुक कर देते हैं। कपूर एं ड सन्स के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में शकुन बत्रा का काम अच्छा है। उन्होंने फिल्म को युथफुल लुक देते हुए हास्य, इमोशन और ड्रामे का संतुलन बनाए रखा है। फिल्म में उन्होंने कई खुशनुमा पल रचे हैं। दूसरे हाफ में जरूर वे कुछ सीन कम कर सकते थे। कलाकारों से उन्होंने बेहतरीन अभिनय लिया है। ऋषि कपूर का मेकअप जरूर अटपटा लग सकता है, लेकिन एक जिंदादिल बूढ़े के रूप में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। कपूर फैमिली का आलिया भट्ट हिस्सा नहीं है, लेकिन उनका ट्रेक कहानी में अच्छी तरह से पिरोया गया है। आलिया ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है। अपने पैरेंट्स की मौत के बारे में जब वे सिद्धार्थ को बताती हैं तो उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक हैं। एंग्री यंग नुमा किरदार सिद्धार्थ पर जमते हैं। उन्हें इसी तरह का किरदार यहां भी मिला है लेकिन उनका अभिनय औसत रहा है। सिद्धार्थ पर फवाद खान भारी पड़े हैं। एक 'परफेक्ट सन' के किरदार को जरूरी स्टाइल और एटीट्यूड उन्होंने दिया है। रत्ना पाठक शाह और रतज कपूर का शुमार तो बेहतरीन कलाकारों में होता है और यहां भी उन्होंने अपना काम खूब किया है। फिल्म के संवाद उल्लेखनीय हैं। संगीत अच्छा है और बैकग्राउंड में बजते गाने कहानी को धार देते हैं। कुल मिलाकर 'कपूर एंड सन्स' में इमोशन, कॉमेडी और ड्रामे का मिश्रण बढ़िया तरीके से किया गया है। फिल्म आपका मनोरंजन करती है। कपूर परिवार की हरकतें देखी जा सकती हैं। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर, अपूर्वा मेहता निर्देशक : शकुन बत्रा संगीत : अमाल मलिक, बादशाह, फा‍जि़लपुरिया, आर्को, बेनी दयाल, तनिष्क बागची कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, आलिया भट्ट, फवाद खान, ऋषि कपूर, रजत कपूर, रत्ना पाठक शाह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट ",1 "कहानी: मुंबई पुलिस का एक पुलिसवाला आदी (विजय वर्मा) क्राइम ब्रांच जॉइन करता है और अपने पहले ही केस में वह इस कशमकश में फंस जाता है कि उसे बचकर भागते एक कत्ल के आरोपी को शूट करना चाहिए या नहीं।रिव्यू: क्राइम-ड्रामा फिल्म 'मॉनसून शूटआउट' से डायरेक्शन की शुरुआत करने वाले अमित कुमार ने इस फिल्म की कहानी से ज्यादा स्टाइल पर ध्यान दिया है। फिल्म की पूरी कहानी इस बात पर टिकी है कि आदी का सामना जब कत्ल के आरोपी शिवा (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) से होता है तो उसका एक फैसला कैसे उसकी और शिवा की पूरी जिंदगी बदल सकता है। आदी इस दुविधा में फंसा हुआ है कि उसे सही रास्ता चुनना चाहिए या गलत या फिर जिंदगी में बीच के रास्ते पर चलना चाहिए। हालांकि जब उसका सच से सामना होता है तो उसे महसूस होता है कि जिंदगी आदमी के किसी भी फैसले के ऊपर निर्भर रहने का मौका नहीं देती है। फिल्म की कहानी में दिखाया गया है कि किस तरह एक पुलिसवाले के निर्णय और काम में समझौता, निष्पक्षता और नैतिकता शामिल रहती है। जहां फिल्म की कहानी दर्शकों को बांधे रखती है वहीं इसके साथ किया गया ट्रीटमेंट कमजोर साबित होता है। फिल्म के हीरो के किसी निर्णय के तीन वर्जन से शुरू होने वाली फिल्म का अंत दर्शकों को निराश करता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले अच्छा है लेकिन जब यह पर्दे पर उतारा गया तो इसमें इतनी सटीकता नहीं दिखती है। फिल्म की सिनेमैटॉग्रफी में मुंबई शहर के मिजाज को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। अपनी पहली फिल्म में विजय वर्मा ने अच्छा काम किया है और कातिल के रूप में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने नेगेटिव रोल बेहतरीन तरीके से निभाया है। फिल्म के ऐक्टर्स ऐसे रोल पहले भी निभा चुके हैं जिसके कारण उन्हें अपने कैरक्टर को स्क्रीन पर पूरी तरह जीवंत करने का मौका नहीं मिला है। हालांकि अगर क्राइम-ड्रामा टाइप की फिल्में आपको पसंद हैं तो आप इसे एक बार जरूर देख सकते हैं। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में अक्सर समाज में घटित हो रही घटनाओं पर फिल्में बनाने का ट्रेंड रहा है, लेकिन अगर कंप्लीट होमवर्क और पूरी तैयारी के बाद ऐसी फिल्म बनाई जाती है तो यह यकीनन दर्शकों के साथ अन्याय है। साथ ही खुद मेकर्स के लिए बॉक्स आफिस की दृष्टि से भी यह जोखिम भरा काम ही है। बेशक इस फिल्म के मेकर्स ने अपनी फिल्म के लिए एक ऐसा करंट टॉपिक चुना, जो पिछले कई सालों से मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ है। देश के नंबर वन कॉर्पोरेट घरानों द्वारा सरकारी एंजेंसियों के साथ मिलीभगत करके गरीब किसानों की उपजाऊ भूमि को सस्ती कीमतों पर अधिग्रहित करके उस पर कंकरीट के जंगल खडे़ करना, जबरन जमीन छिनने के बाद गरीब किसानों द्वारा की रही खुदकुशी की घटनाओं जैस गंभीर संवदेनशील सब्जेक्ट इस फिल्म को दूसरी चालू मसाला फिल्मों से अलग करते हों, लेकिन कमजोर निर्देशन, लचर स्क्रिप्ट के साथ सीमित बजट के चलते 'वाह ताज' एक बेहद कमजोर फिल्म है। इस फिल्म को देखने के बाद आप 'वाह ताज' नहीं बल्कि 'आह ताज' करते नजर आएंगे। कहानी: महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से युवा किसान तुकाराम (श्रेयस तलपड़े) अपनी खुबसूरत पत्नी सुनंदा (मंजरी फडनीस) और करीब आठ-दस साल की बेटी के साथ आगरा के ताजमहल के मेन गेट पर धरना देकर बैठ जाता है। तुकाराम का दावा है कि ताजमहल उसके पुरखों की जमीन पर कब्जा करके मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया। अब तुकाराम अपनी इसी पुरखों की जमीन को सरकार से वापस लेने के लिए परिवार के साथ आगरा में पहुंचा हुआ है। तुकाराम अपनी जमीन का कब्जा हासिल करने के लिए परिवार के साथ ताज महल के गेट के बाहर भूखहड़ताल शुरू कर देता है। तुकाराम को कई सामाजिक संगठनों और नेताओं का साथ भी मिलता है। स्टेट का होम मिनिस्टर हेमंत पांडे तुकाराम के इस धरने को समाप्त करवाने की कवायद में लगा है, लेकिन मामला अदालत में पहुंच चुका है। कोर्ट में तुकाराम कुछ पुराने दस्तावेज पेश करता है और अदालत से उसे स्टे ऑर्डर मिल जाता है। इस स्टे के बाद ताजमहल को टूरिस्टों के लिए बंद कर दिया जाता है। देश विदेश में यह खबर आग की तरह फैलती है। ऐसी हालत में सरकार तुकाराम के सामने ताजमहल की जमीन के बदले देश के किसी भी हिस्से में जमीन देने का प्रस्ताव रखती है। ऐक्टिंग: ठेठ मराठी किसान के रोल में श्रेयस तलपड़े ने अच्छी ऐक्टिंग की है। सुनंदा के रोल में मंजरी फडनीस श्रेयस के ऑपोजिट अच्छी लगी हैं। स्टेट के होम मिनिस्टर के रोल में हेमंत पांडे ने ओवर ऐक्टिंग की है तो वहीं विश्वजीत प्रधान छोटे से किरदार में भी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन: यंग डायरेक्टर अजित सिन्हा की यह पहली फिल्म है। कमजोर स्क्रिप्ट के चलते अजित की फिल्म पर कहीं पकड़ नजर नहीं आती। फिल्म की शुरुआत बेहद कमजोर है तो इंटरवल के बाद भी फिल्म कहीं बांध नहीं पाती। श्रेयस खुद मराठी हैं सो उन्होंने तुकाराम के किरदार को अपने दम पर कुछ प्रभावशाली बनाने की कोशिश की है। बेशक फिल्म का सब्जेक्ट अच्छा था, लेकिन अगर स्क्रिप्ट पर होम वर्के करने के बाद इस पर फिल्म बनती तो शायद कुछ असरदार बन पाती। संगीत: फिल्म का संगीत बस ठीक-ठाक है। फिल्म में ऐसा कोई ऐसा गाना नहीं, जो आपको थिएटर से बाहर आने के बाद याद रह पाए। क्यों देखें: ऐसी कोई वजह नहीं कि हम आपसे 'वाह ताज' देखने के लिए कह सकें। अगर सिर्फ दो घंटे का टाइम पास ही करना है तो देख आइए, लेकिन यह फैसला भी आपका ही होगा। ",0 " इस फिल्म का टाइटल देखकर आप इस फिल्म को एक फैमिली एंटरटेनर मूवी समझ रहे हैं तो आप सौ फीसदी गलत हैं। पूरी फिल्म देखने के बाद मैं खुद हैरान हूं कि डायरेक्टर या प्रड्यूसर ने अपनी इस फिल्म का टाइटल सब्जेक्ट के मिजाज के मुताबिक गैंगस्टर या डॉन टाइप क्यों नहीं रखा। हां, टाइटल को अपनी ओर से सही ठहराने के लिए फिल्म में इतना जरूर दिखाया गया है कि गवली को लोग डैडी कहते हैं। वैसे, अंत तक फिल्म में जहां आपको हॉट सेक्सी सीन की भरमार देखने को मिलेगी वहीं अगर फिल्म की मार्केटिग टीम फिल्म को प्रमोट करने के लिए कुछ ऐसा कॉन्टेस्ट रखती है कि बताएं फिल्म में कुल कितनी गोलियां चलीं तो शायद इस सवाल का सही जवाब जानने और कॉन्टेस्ट जीतने के लिए दर्शक इस फिल्म को शायद कई बार देखने थिअटर का रुख करते। वैसे, यह फिल्म मुंबई में 70-80 के दौर में अंडरवर्ल्ड और बाद में पॉलिटिक्स में भी अपनी कुछ अलग पहचान बनाने वाले अरुण गवली की ज़िंदगी पर बनी है। यकीनन, फिल्म में गवली की लाइफ के कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं को भी डायरेक्टर ने अच्छे ढंग से दिखाया है तो वहीं फिल्म में गवली का लीड किरदार निभा रहे ऐक्टर अर्जुन रामपाल भी अपने किरदार को जीवंत बनाने के मकसद से फिल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले और शूटिंग के दौरान कई बार गवली से मिलकर भी आए। शायद यही वजह है कि लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आए अर्जुन अपने किरदार में फिट नजर आते हैं। इतना ही नहीं फिल्म में गैंगस्टर अरुण गवली और अंडरवर्ल्ड डॉन डी कंपनी के हेड दाउद इब्राहिम के साथ के रिश्तों की परत तक भी जाती है। अंत तक यह फिल्म एक ऐक्शन पैक्ड गैंगस्टर फिल्म है जिसमें गवली की 1976 से 2012 तक की जर्नी को डायरेक्टर ने अपने ढंग से दिखाने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन बॉक्स आफिस मसालों और टिकट खिड़की पर बिकाऊ मसालों को कुछ ज्यादा ही परोसने के फेर में ऐसे फंस कर रह गए कि फिल्म एक एवरेज फिल्म से ज्यादा ही बन पाई। स्टोरी प्लॉट : इस फिल्म की शुरुआत 1976 के दौर में शुरू होती है। अरुण एक गरीब मिल मज़दूर का बेटा है जो अपनी दोस्त मंडली के साथ मिलकर सड़कछाप दादागीरी करता है। कुछ अर्से बाद गवली और उसकी टीम की यही दादागीरी गुंडागर्दी में बदल जाती है। अब गवली और उसके दोस्तों ने अपना गैंग बना लिया है। अंडरवर्ल्ड डॉन भाई तक जब गवली ऐंड कंपनी के ऐसे कारनामों की खबर पहुंचती है तो वह अपने आदमी भेजकर गवली और उसके दोस्तों के साथ मीटिंग करता है। इसके बाद गवली और उसके दोस्त भाई के इशारों पर सुपारी किलर का काम शुरू करने लगते हैं। गवली के पीछे पुलिस ऑफिसर विजयकर नितिन (निशिकांत कामत ) लगा हुआ है जो किसी भी कीमत पर गवली को अपनी गिरफ्त में लेना चाहता है। बेशक, इस फिल्म में डायरेक्टर ने न जाने किसी वजह से भाई का कहीं नाम तो नहीं लिया, लेकिन आंखों में रंगीन चश्मा पहले स्क्रीन पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के मैच देख रहे शख्स को देखकर साफ हो जाता है कि यह डी कंपनी का हेड ही है। डी कंपनी के लिए काम कर रहा अरुण गवली अब अपने इन्हीं दोस्तों के साथ अलग से काम करना चाहता है यानी अपना गैंग बनाना चाहता है। गवली की शादी एक मुस्लिम लड़की जुबैदा (ऐश्वर्या राजेश) से हो जाती है। अब गवली ऐंड टीम खुद के लिए काम करना शुरू करती है तो इनकी भाई से दुश्मनी हो जाती है। इसी के साथ साथ फिल्म में गवली की पर्सनल लाइफ और अंडरवर्ल्ड से पॉलिटिक्स तक के सफर को पेश किया गया है। अगर फिल्म में ऐक्टिंग की बात की जाए तो अर्जुन रामपाल ने अरुण गवली के रोल में अच्छी मेहनत की है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि अर्जुन ने अपनी ऐक्टिंग के दम पर अपने किरदार को यादगार बना दिया हो। अगर दो शब्दों में कहा जाए तो पूरी फिल्म में ही उनका फेस एक्सप्रेशन जैसा नजर आता है। डायरेक्टर से ऐक्टर बने निशिकांत कामत ने पुलिस ऑफिसर के किरदार में अच्छी मेहनत की है। अपनी ऐक्टिंग के दम पर कामत ने इस किरदार को जानदार बना दिया है। समझ में नहीं आता कि फरहान जैसे मंझे हुए ऐक्टर ने भाई का ऐसा किरदार फिल्म में क्यों निभाया जिसमें करने के लिए कुछ खास था हीं नहीं। यह समझ से परे है कि हमारे बॉलिवुड मेकर हर फिल्म में चाहे कहानी या माहौल की डिमांड हो या न हो फिल्म में दो तीन गाने क्यों ठूंस देते हैं। कुछ यही हाल 'डैडी' का भी है, गाने इस फिल्म को और स्लो और दर्शकों को हॉल से बाहर भेजने का काम करते हैं। वहीं डायरेक्टर आशीम आहलूवालिया पूरी फिल्म में गवली के किरदार और मारामारी को लेकर कुछ ऐसे उलझे कि फिल्म एक बी सी क्लास रूटीन गैंगस्टर फिल्म बनकर रह गई। अगर आप गैंगस्टर मूवीज़ के पक्के शौकीन हैं और कभी अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके डॉन गवली के बारे में कुछ ज्यादा ही जानना चाहते हैं और अर्जुन के पक्के फैन हैं तो इस फिल्म को देखने जा सकते हैं। ",0 "बैनर : पेन इंडिया प्रा. लि., वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, बाउंडस्क्रिप्ट मोशन पिक्चर्स प्रा. लि. निर्माता : सुजॉय घोष, कुशल गाडा निर्देशक : सुजॉय घोष संगीत : विशाल-शेखर कलाकार :‍ विद्या बालन, परमब्रत चट्टोपाध्याय, नवाजुद्दीन सिद्दकी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 8 मिनट * 7 रील बॉलीवुड में ऐसा कम ही होता है जब लगातार दो सप्ताह तक उम्दा फिल्में देखने को मिले। पिछले सप्ताह रिलीज हुई ‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस सप्ताह की फिल्म ‘कहानी’ भी देखने लायक है। कहानी एक थ्रिलर है, लेकिन बॉलीवुड की तमाम थ्रिलर्स से हटकर। यहां न कार की चेज़िंग सीक्वेंस हैं, न काला चश्मा और लेदर जैकेट्स पहने लोग। न खूबसूरत हसीनाएं हैं और न ही गन हाथ में लिए उनके इर्दगिर्द नाचते स्टार्स। इस फिल्म की कहानी हीरोइन के इर्दगिर्द घूमती है जो कि प्रेग्नेंट हैं। उसके साथ एक सामान्य-सा पुलिस ऑफिसर है और सिटी ऑफ जॉय कोलकाता शहर भी इस फिल्म में अहम भूमिका निभाता है। सेतु ने कोलकाता की गलियों में खूब कैमरा घूमाया है। संकरी गलियां, शानदार मेट्रो, खस्ताहाल ट्रॉम, पीले रंग की टेक्सियां, अस्त-व्यस्त ट्रेफिक और दुर्गा पूजा के लिए सजा हुआ कोलकाता कहानी में एक किरदार की तरह है। कहानी का सबसे मजबूत पहलू इसकी कहानी और स्क्रीनप्ले है। स्टोरी के बारे में ज्यादा बात नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे कई राज खुल जाएंगे जो कहानी को देखते समय आपका मजा किरकिरा कर सकते हैं। सिर्फ इतना ही बताया जा सकता है कि विद्या बागची लंदन से कोलकाता अपने पति अर्णब बागची को ढूंढने के लिए आई है जो दो महीनों से लापता है। वह पुलिस स्टेशन जाती है। उस ऑफिस में जाती है जहां अर्णब अपने प्रोजेक्ट के लिए आया था। उस होटल में जाती हैं जहां वह रूका हुआ था, लेकिन उसका कुछ पता नहीं चलता। सभी कहते हैं कि इस नाम का शख्स कभी भी लंदन से कोलकाता आया ही नहीं। विद्या को कुछ क्लू मिलते हैं, जिनके सहारे वह आगे बढ़ती हैं। इस काम में उसकी मदद करता है राना नामक पुलिस इंसपेक्टर। किस तरह से विद्या का सफर राना के सहारे आगे बढ़ता है यह रोचक तरीके से दिखाया गया है। स्क्रीनप्ले बहुत ही बारीकी से लिखा गया है। कुछ दृश्य या संवाद आपने चूके तो फिल्म समझने में तकलीफ हो सकती है। शुरुआत में कई तरह के प्रश्न दिमाग में उभरते हैं क्योंकि दर्शक की हालत भी विद्या बागची की तरह रहती है, लेकिन धीरे-धीरे एक-एक कर जवाब मिलने लगते हैं और ज्यादातर प्रश्नों के जवाब से संतुष्ट हुआ जा सकता है। विद्या के किरदार पर यदि निगाह रखी जाए तो क्लाइमेक्स के पहले आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म के अंत में क्या होगा। सुजॉय की कहानी में कुछ बातें थोड़ी अविश्वसनीय हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण वास्तविकता के बेहद करीब है इससे ये बातें विश्वसनीय लगती हैं। उनका लोकेशन और कलाकारों का चयन सराहनीय है। यदि फिल्म को वे थोड़ा मनोरंजक बनाते तो इससे उन्हें ज्यादा दर्शक फिल्म के लिए मिलते। आरडी बर्मन के सुजॉय बहुत बड़े फैन हैं और यह बात उन्होंने ‘झंकार बीट्स’ बनाकर जाहिर भी की। इस फिल्म के बैकग्राउंड म्युजिक में भी आरडी बर्मन के हिट हिंदी और बांग्ला गीत बजते रहते हैं। विद्या बालन वर्तमान दौर की नि:संदेह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री हैं। हीरो प्रधान बॉलीवुड में उनके लिए इससे बड़ी क्या बात हो सकती है कि उन्हें ध्यान में रखकर फिल्में लिखी जा रही हैं। पा, इश्किया, नो वन किल्ड जेसिका, द डर्टी पिक्चर के बाद कहानी भी ऐसी फिल्म है जिस पर वे गर्व कर सकती हैं। विद्या के अलावा फिल्म में कई अपरिचित लेकिन सशक्त कलाकार हैं। परमब्रत चट्टोपाध्याय (राना के किरदार में) और नवाजुद्दीन सिद्दकी (खान के किरदार में) का अभिनय बेहतरीन है। कहानी ऐसी फिल्म है जो थिएटर छोड़ने के बाद भी दर्शक के साथ मौजूद रहती है और वो फिल्म की गुत्थी को सुलझाते हुए घर पहुंचता है। इंटेलिजेंट थ्रिलर देखना चाहते हैं तो यह फिल्म आपके लिए है। ",1 " डर @ द माल का सबसे बड़ा आकर्षण निर्देशक पवन कृपलानी है जिनकी पिछली फिल्म 'रागिनी एमएमएस' एक बेहतरीन हॉरर फिल्म थी। पवन अपनी दूसरी फिल्म में निराश करते हैं और बजाय उन्होंने कुछ नया करने के इस हॉरर मूवी में वही मसालों का उपयोग किया है जिन्हें हम सैकड़ों हॉरर मूवीज में देख चुके हैं। दर्शकों को डराने के लिए उन्होंने सब कुछ किया, जिनमें से कुछ कारगर सिद्ध हुए और ज्यादातर बेकार। यूं भी हॉरर फिल्मों की कहानियां और सिचुएशन लगभग एक जैसी ही होती है और सारा दारोमदार प्रस्तुतिकरण पर आ टिकता है। 'डर @ द माल' की न कहानी में दम है और न प्रस्तुतिकरण में। फिल्म में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। ऐसे में हॉरर फिल्म का सारा रोमांच खत्म हो जाता है। कहानी है एक मॉल की जिसके बारे में अफवाह है कि उसमें भूतों का वास है। मॉल के मालिक उसकी रिओ‍पनिंग करते हैं ताकि लोग वहां आने लगे और वे मॉल को बेच सके। सुरक्षा का जिम्मा वे एक नए सिक्यूरिटी ऑफिसर विष्णु (जिमी शेरगिल) को सौंपते हैं। क्या विष्णु रहस्य का पर्दाफाश कर पाएगा या शिकार बन जाएगा? निर्देशक पवन ने इस साधारण सी कहानी को खूब उलझाने की कोशिश की है और फिल्म को लंबा खींचा है, इसका परिणाम ये हुआ कि फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ लगती है। दर्शकों को डराने की उनकी ज्यादातर कोशिशें नाकामयाब हुई हैं। कई दृश्य अन्य फिल्मों से प्रेरित है। फ्लेशबैक सीन का जरूरत से ज्यादा उपयोग है और इन्हें छोटा किया जा सकता था। हॉरर फिल्मों में गाने रखने का कोई अर्थ नहीं है। बैकग्राउंड म्युजिक जरूर ठीक-ठाक है। जिमी शेरगिल अच्छे कलाकार हैं और इस तरह की भूमिकाएं निभाना उनके लिए बेहद आसान है। नुसरत भरूचा और आरिफ जकारिया ने अपना काम गंभीरता से किया है। कुल मिलाकर डर @ द माल प्रभावित करने में नाकाम है। बैनर : मल्टी स्क्रीन मीडिया मोशन पिक्चर्स, कॉन्टिलो एंटरटेनमेंट निर्देशक : पवन कृपलानी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : जिमी शेरगिल, नुसरत भरूचा, आरिफ जकारिया, आसिफ बसरा, नीरज सूद घंटे 4 मिनट ",0 "ऐक्टर कमल हासन की फिल्में हमेशा से ही लीक से हटकर रहती हैं। उनकी फिल्मों की कहानियां आमतौर पर सृजनात्मक खुराक देने के अलावा मुद्दों के साथ डील करती दिखाई देती हैं। 'विश्वरूपम 2' भी आतंकवाद जैसे राक्षस के इर्द-गिर्द घूमती है, मगर इस बार उन्होंने अपनी फिल्म की कहानी बताने का का जो तरीका अपनाया है उससे फिल्म उलझकर रह जाती है। प्रीक्वल और सीक्वल के रूप में कहानी पास्ट और प्रेजेंट में आगे बढ़ती है और अतीत और वर्तमान के दृश्य बुरी तरह से कन्फ्यूज कर देते हैं। 2013 में जब इस फिल्म का पहला पार्ट आया था तो जमकर विवाद हुए थे। इस बार फिल्म में ऐसा कोई विवादस्पद पहलू नजर नहीं आता। कहानी: फिल्म कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पर समाप्त हुई थी। रॉ एजेंट मेजर विशाम अहमद कश्मीरी (कमल हासन) अपनी पत्नी निरूपमा (पूजा कुमार) और अपनी सहयोगी अस्मिता (ऐंड्रिया जेरेमिया) के साथ अलकायदा के मिशन को पूरा करके लौट रहा है। अब उस पर नई जिम्मेदारियां हैं। इस बार भी उसका लक्ष्य कुरैशी (राहुल बोस) द्वारा फैलाए गए आतंकवाद के तांडव को रोकना है। इस मिशन में उसके साथ उसकी पत्नी और सहयोगी के अलावा कर्नल जगन्नाथ (शेखर कपूर) भी हैं। आतंकवाद के नासूर को रोकने की उसकी इस लड़ाई में उसे जान से मारने की कोशिश भी की जाती है और उसकी सहयोगी अस्मिता अपनी जान से हाथ धो बैठती है, मगर इन चुनौतियों से उसके हौसले पस्त नहीं होते। उसे देश में होने वाले 66 बम धमाकों के खौफनाक कारनामे को रोकना है। उसकी हिम्मत को तोड़ने के लिए अल्जाइमर से पीड़ित उसकी मां (वहीदा रहमान) को भी मोहरा बनाया जाता है। सलीम (जयदीप अहलावत) कुरैशी की आतंकी विरासत को आगे बढ़ाता है। क्या विशाम देश को आतंक की आंधी से तहस-नहस होने से बचा पाएगा? इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी। रिव्यू: हमेशा की तरह इस बार भी कमल हासन ने निर्माता, निर्देशक, लेखक, अदाकार जैसी कई जिम्मेदारियों को जिया है। फिल्म का फर्स्ट हाफ स्लो है, मगर सेकंड हाफ में कहानी दिलचस्प हो जाती है। फिल्म के ऐक्शन दृश्यों की तारीफ करनी होगी। ये आपका दिल धड़काने में सक्षम हैं। फिल्म में कमल हासन और वहीदा रहमान के बीच के जज्बाती सीन कहानी को नया रंग देते हैं, मगर फिल्म का नरेटिव आपको सुस्त कर देता है। स्क्रीनप्ले कमजोर है, मगर संवाद दमदार हैं। अभिनय के मामले में फिल्म खरी उतरती है। कमल कमाल के अभिनेता हैं और इसका परिचय यहां भी देखने को मिलता है। कमल एक्प्रेशन से खेलना खूब जानते हैं। नायिकाओं में पूजा कुमार और ऐंड्रिया जेरेमिया ने अच्छा काम किया है। दोनों के बीच की नोक-झोंक फिल्म को राहत देती है। खलनायक के रूप में राहुल बोस कमजोर साबित हुए हैं। उनके किरदार को विस्तार दिया जाना चाहिए था। लंबे अरसे बाद जाने-माने फिल्मकार शेखर कपूर को परदे पर देखना अच्छा लगता है, मगर उनकी भूमिका का समुचित विकास नहीं किया गया। जयदीप अहलावत जैसे सक्षम अभिनेता को जाया कर दिया गया है। संगीत के मामले में 'इश्क किया तो' गाना ध्यान आकर्षित करता है।क्यों देखें: हिंदी के अलावा तमिल-तेलुगू में रिलीज की जानेवाली इस फिल्म को कमल हासन के चाहने वाले देख सकते हैं।",0 " भले ही रफ्तार अत्यंत धीमी हो, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिनका शादी नामक संस्था पर यकीन नहीं है। ‘इश्क इन पेरिस’ के हीरो और हीरोइन भी शादी नहीं करना चाहते हैं। उनका नारा है, नो कमिटमेंट प्लस नो लव इक्वल्स टू नो मैरिज। हीरो इसीलिए एक रात से आगे बात बढ़ने नहीं देता। यहां तक भी ठीक है, लेकिन वे शादी क्यों नहीं करना चाहते हैं, इसके पीछे हीरो के पास कोई ठोस वजह नहीं है और जहां तक हीरोइन का सवाल है उसके पास जो कारण है वो बेहद लचर है। इसलिए फिल्म में न तो ढंग की प्रेम कहानी है और न ही ये किसी बात या मुद्दे को पेश करती है। आकाश (रेहान मलिक) और इश्क (प्रीति जिंटा) की मुलाकात एक रेल में होती है। दोनों पेरिस जा रहे हैं। आकाश अपना नाम अ-कैश या ए-केश बोलता है। आकाश पेरिस से अनजान है। वह इश्क से पेरिस घुमाने को कहता है। ईमेल, मोबाइल नंबर और पता ‍ना देने की शर्त पर इश्क उसे पेरिस घुमाती है। पूरी रात वे साथ घुमते हैं। ड्रिंक करते हैं। डिनर लेते हैं। पब जाते हैं। रात 3 बजे मूवी देखने का मन करता है, लेकिन देर हो चुकी है। इसलिए वे खुद एक रोमांटिक सीन अभिनीत करते हैं। हीरो का मन सेक्स करने का है, लेकिन इश्क आधी फ्रेंच और आधी भारतीय है, इस मामले में भारतीय बन जाती है। घूमते-फिरते सुबह हो जाती है। वे साथ कॉफी पीते हैं और अब कभी न मिलने की शर्त पर अपनी-अपनी राह निकल जाते हैं। आकाश प्यार-मोहब्बत के खिलाफ है, लेकिन इश्क से इश्क कर बैठता है। अचानक उसके विचार बदल जाते हैं, लेखक और निर्देशक ने इसके लिए कोई भूमिका नहीं है। वह इश्क को प्रपोज करता है, लेकिन इश्क इसे ठुकरा देती है। वह शादी के खिलाफ इसलिए है क्योंकि उसके पैरेंट्स ने तलाक लिया था। इसको लेकर लंबी-चौड़ी बातें की गई हैं। इश्क को बुद्धिमान लड़की दिखाया गया है, लेकिन यहां उसके व्यवहार में बुद्धिमत्ता नहीं झलकती है। फिल्म के अंत में वह अचानक शादी के लिए राजी हो जाती है, क्योंकि फिल्म खत्म करना थी। प्रिती जिंटा के लिए कोई फिल्म नहीं लिख रहा है, इसलिए प्रेम राज के साथ मिलकर उन्होंने ने स्क्रिप्ट लिखी है। कुछ दृश्यों और संवादों को छोड़ दिया जाए तो दोनों का काम निराशाजनक है। फिल्म एक अच्छी शुरुआत ‍लेती है, लेकिन जल्दी ही कमजोर कहानी के कारण बिखर जाती है। निर्देशक के रूप में प्रेम राज बिना घटनाक्रमों के भी फिल्म को कुछ देर खींचने में कामयाब हुए हैं, लेकिन इसके बाद उनका नियंत्रण छूट गया। जहां तक अभिनय का सवाल है तो प्रीति जिंटा और रेहान मलिक का काम औसत दर्जे का है। सलमान खान यारों के यार हैं, ये बात ‘इश्क इन पेरिस’ से साबित हो जाती है। प्रीति की खातिर उन्होंने एक ऐसा गाना किया है जिसकी न धुन में दम है और न ही कोरियोग्राफी में। इस बात का इतना फायदा जरूर होता है कि सलमान के नाम पर ऊंघते दर्शकों की नींद कुछ देर के लिए भाग जाती है। सिनेमाटोग्राफर मनुष नंदन ने पेरिस को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। ‘इश्क इन पेरिस’ की सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म 96 मिनट में ही खत्म हो जाती है। बैनर : पीज़ेडएनज़ेड मीडिया प्रोडक्शन्स निर्माता : प्रीति जिंटा, नीलू जिंटा निर्देशक : प्रेम राज संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : प्रीति जिंटा, रेहान मलिक, इसाबेल अडजानी, मेहमान कलाकार- सलमान खान, चंकी पांडे, शेखर कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 36 मिनट ",0 "निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, विशाल भारद्वाज निर्देशक व संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, नसीरुद्दीन शाह, जॉन अब्राहम, नील नितिन मुकेश, इरफान खान, अन्नू कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट उन निर्माता-निर्देशकों को विशाल भारद्वाज से सबक लेना चाहिए जो अच्छी कहानियों के अभाव का रोना रोते रहते हैं। हमारे साहित्य में ढेर सारी उम्दा कहानियाँ मौजूद हैं। विशाल इनमें से ही एक को चुनते हैं और अपने टच के साथ स्क्रीन पर पेश करते हैं। इसलिए विशाल की फिल्मों के प्रति उत्सुकता रहती है कि वे क्या नया इस बार पेश करेंगे। उनकी ताजा फिल्म ‘सात खून माफ’ रस्किन बांड द्वारा लिखी कहानी ‘सुजैन्स सेवन हस्बैंड्स’ पर आधारित है। सुजैन सात शादियाँ करती हैं और अपने आधा दर्जन पतियों को मौत के घाट उतार देती है। कहानी का चयन उम्दा है क्योंकि प्यार, नफरत, सेक्स, लालच जैसे जीवन के कई रंग इसमें नजर आते हैं। इस कहानी को आधार बनाकर जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है, उसमें थोड़ी कसर रह गई वरना एक बेहतरीन फिल्म देखने को मिलती। सुजैन की किस्मत ही खराब थी क्योंकि हर बार बुरे आदमी से ही उसकी शादी होती है। कोई उसकी सेक्स के दौरान पिटाई करता था तो कोई उसे धोखा दे रहा था। एक लालच के कारण उसकी हत्या करना चाहता था तो दूसरा तानाशाह किस्म का था। किसी के लिए सुजैन महज ट्राफी वाइफ थी। इन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए सुजैन को उनकी हत्या का ही उपाय सूझता था। तलाक जैसे दूसरे रास्ते पर वह चलने के लिए तैयार नहीं थी। बचपन से ही वह ऐसी थी। स्कूल जाते समय एक कुत्ता उसे डराता था। स्कूल जाने का दूसरा रास्ता भी था, लेकिन बजाय उसने उस राह को चुनने के कुत्ते का भेजा उड़ाना पसंद किया। ‘सात खून माफ’ एक डार्क फिल्म है, जो सुजैन के नजरिये से दिखाई गई है। उसे सच्चे प्यार की तलाश है, जो उसे नहीं मिल पाता, इसके बावजूद उसका प्यार और शादी से विश्वास नहीं उठता। उसके सारे पति किसी और ही मकसद से उससे शादी करते हैं। विशाल ने इस कहानी को बतौर निर्देशक अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने हर कैरेक्टर को दिखाते समय छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखा है। बेहतरीन तरीके से शॉट्स फिल्माए हैं। रंगों का, लाइट और शेड का तथा लोकेशन्स का चयन उम्दा है। घटनाक्रम किस समय में घट रहा है, ये उन्होंने रेडियो और टीवी में आने वाले समाचारों के जरिये बताया है। इसके बावजूद ‘सात खून माफ’ विशाल की पिछली फिल्मों ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के स्तर की नहीं है क्योंकि स्क्रिप्ट में कसावट नहीं है। कुछ ज्यादा ही संयोग इसमें नजर आते हैं। इरफान, जॉन और नसीर की हत्या करने के बाद सुजैन का बच निकलना हजम करना मुश्किल है। इतनी सारी रहस्यमय मौतों के बाद भी हर बार मामले की जाँच एक ही पुलिस ऑफिसर करता है। अंत में आग से सुजैन का बच निकलना भी थोड़ा फिल्मी हो गया है। प्रियंका चोपड़ा को अपने करियर की सबसे उम्दा भूमिका मिली और उन्होंने अपनी ओर से बेहतरीन अभिनय भी किया है, लेकिन उनके अभिनय की सीमाएँ नजर आती हैं। वे और अच्छा कर सकती थीं या उनके जगह कोई और प्रतिभाशाली अभिनेत्री होती तो सुजैन के किरदार में और धार आ जाती। अधिक उम्र का दिखाने के लिए उनका जो मेकअप किया गया है वो बेहद बनावटी लगता है। नसीरुद्दीन शाह और इरफान के किरदार ठीक से नहीं लिखे गए इसलिए वे अपना असर छोड़ने में नाकामयाब रहे। नील नितिन मुकेश का किरदार तानाशाह किस्म का था इसलिए एक्टिंग को छोड़ उनका सारा ध्यान अकड़ के रहने में था। विवान शाह और हरीश खन्ना का अभिनय सराहनीय है। फिल्म का संगीत अच्छा है और ‘डार्लिंग’ गीत सबसे बेहतरीन है। संपादन में कसावट की जरूरत महसूस होती है। कुल मिलाकर ‘सात खून माफ’ उन लोगों के लिए नहीं है, जो फिल्म में सिर्फ मनोरंजन के लिए जाते हैं। लीक से हटकर कुछ देखना यदि आप पसंद करते हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है। ",1 "बैनर : विधु विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा निर्देशक : राजेश मापुस्कर संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ऋत्विक साहोरे, सीमा पाहवा, परेश रावल, विद्या बालन (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 18 मिनट * 18 रील सचिन तेंडुलकर ने न केवल भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, बल्कि उन्होंने कई बच्चों को सपना भी दिया कि वे उनके जैसे महान क्रिकेटर बनें। आने वाले दिनों में कई खिलाड़ी सामने आ सकते हैं जिन्हें सचिन को खेलता देख क्रिकेट खेलने की प्रेरणा मिली और वे भारतीय टीम तक आ पहुंचे। इसी सपने, सचिन और उनकी फरारी कार को लेकर राजकुमार हिरानी ने ‘फरारी की सवारी’ की कहानी लिखी है। रूसी (शरमन जोशी) के बेटे कायो (ऋत्विक साहोरे) का सपना है कि वह एक दिन बड़ा क्रिकेट खिलाड़ी बने। आरटीओ में क्लर्क होने के बावजूद रूसी के पास पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती है क्योंकि वह ईमानदार तो इतना कि रेड सिग्नल में यदि वह आगे बढ़ जाए तो खुद पुलिस के पास जाकर फाइन भरता है। अपने बेटे के सपने और पैसे की तंगी के बीच जूझ कर हताशा में वह कहता है कि हम जैसे (मिडिल क्लास) लोगों को तो सपने ही नहीं देखना चाहिए। बेटे के सपने को पूरा करने की जद्दोजहद में वह न चाहते हुए भी गलत काम कर बैठता है जिसके कारण कई परेशानियों से घिर जाता है। आखिरकार वह तमाम बिगड़ी हुई स्थिति को सही करता है और थोड़ी देर के लिए पुत्र मोह में बेईमानी के रास्ते पर आगे बढ़ने के बाद वह पुन: ईमानदारी की राह पर आ जाता है। रूसी जैसा किरदार इन दिनों फिल्मों से गायब है। शायद दुनिया में ही ऐसे लोग बहुत कम बचे हैं और इसी वजह से ये फिल्मों में नजर नहीं आते हैं। उसका भोलापन, ईमानदारी और जिंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया एक सुखद अहसास कराता है। हालांकि फिल्म में सहानुभूति बटोरने के लिए दया का पात्र बनाकर पेश किया गया है जो अखरता है। ये दिखाना जरूरी नहीं था कि उसके पास पुराना स्कूटर है। मोबाइल नहीं है। लोन पाने के लिए मोबाइल खरीदने वाला प्रसंग उसकी मासूमियत नहीं बल्कि बेवकूफी दर्शाता है। फिर भी पहली बार मोबाइल खरीदने की खुशी और अपने पिता देबू (बोमन ईरानी) से घर में ही मोबाइल द्वारा बात करने का सीन बढिया है। उम्दा सीन की बात निकली है तो ऐसे कई सीन हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है। इनमें से एक परेश रावल और बोमन ईरानी पर साथ में फिल्माया गया दृश्य है, जिसमें वे 38 वर्ष बाद मिलते हैं। परेश और बोमन की एक्टिंग इस दृश्य में देखने लायक है। इसी तरह सचिन के नौकर और गार्ड के सीन तथा सीमा पाहवा के दृश्य हंसाते हैं। फिल्म को थोड़ा कमजोर करता है इसका स्क्रीनप्ले। यही कारण है कि फिल्म उतनी अच्छी नहीं बन पाई है, जितनी कि इसे होना था। फिल्म सेकंड हाफ में धीमी पड़ती है। मराठी नेता और उसके बेटे वाले ट्रेक को जरूरत से ज्यादा फुटेज दिया गया है, जिसकी वजह से फिल्म काफी लंबी हो गई है। सचिन की फेरारी का उनके घर से ले जाने वाला प्रसंग भी अविश्वसनीय लगता है। इन कमियों के बावजूद फिल्म यदि ज्यादातर समय बांध कर रखती है तो निर्देशन और एक्टिंग के कारण। बतौर निर्देशक राजेश मापुस्कर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह है और उन्हें सिनेमा माध्यम की अच्छी समझ है। उन्होंने न केवल तमाम कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है बल्कि तीन पीढ़ी (दादा-बेटा-पोता) को अच्छी तरह से पेश किया है। सचिन तेंडुलकर के फिल्म में न होने के बावजूद पूरी फिल्म में उनकी उपस्थिति महसूस होती है और इसका श्रेय भी राजेश को जाता है। अभिनय की दृष्टि से शरमन जोशी के करियर की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाएगी क्योंकि इतना बड़ा अवसर उन्हें पहली बार मिला है। यदि वे अपने एक्सप्रेशन में वैरीएशन लाते तो उनका अभिनय और निखर जाता। मूंगफली खाने और दिन भर टीवी देखने वाले बूढ़े के रोल को बोमन ने जीवंत ‍कर दिया। बाल कलाकार ऋत्विक साहोरे को एक रेस्टोरेंट में देख कर निर्देशक ने अपनी फिल्म के लिए चुना था और उन्होंने अपने चयन को सार्थक किया। शरमन के साथ उनकी कैमिस्ट्री खूब जमी और उनके अभिनय में विविधता देखने को मिली। अच्छा कलाकार वहीं होता है जो छोटे से रोल में भी अपना प्रभाव छोड़ दे और परेश रावल यही करते हैं। विद्या बालन के आइटम सांग के लिए सही सिचुएशन बनाई गई है और विद्या ने बिंदास डांस किया है। सीमा पाहवा, दीपक शिरके सहित तमाम कलाकारों ने अपने छोटे-छोटे रोल में प्रभावशाली अभिनय किया है। फरारी की सवारी कही-कही बोर करती है, थीम से भटकती है, लेकिन पूरी फिल्म की बात करें तो इसे अच्छी फिल्म कहा जा सकता है। यह फिल्म उन लोगों की शिकायत भी दूर करती है जो कहते हैं कि आजकल साफ-सुथरी फिल्में नहीं बनती है ं। ",1 "2004 में प्रदर्शित जूली न तो कोई महान फिल्म थी और न ही सुपरहिट कि इसका भाग दो बनाया जाए। चूंकि इस फिल्म के निर्देशक दीपक शिवदासानी पिछले आठ वर्षों से खाली बैठे थे, इसलिए वापसी के लिए उन्होंने जूली फिल्म की सनसनी को चुनते हुए जूली 2 बनाई। वैसे इस फिल्म का नाम है 'दीपक शिवदासानी की जूली 2'। फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि फिल्म की कहानी और पात्र काल्पनिक है। हालांकि दबी जुबां में कहा जा रहा है कि फिल्म अभिनेत्री नगमा के जीवन की कुछ घटनाएं इसमें डाली गई हैं। नगमा और दीपक का भी कनेक्शन है। नगमा ने अपनी पहली बॉलीवुड मूवी 'बागी' (1990) दीपक के साथ ही की थी। बात की जाए फिल्म की, तो यह जूली नामक अभिनेत्री की कहानी है। जूली को सफलता हासिल करने के लिए तमाम तरह के समझौते करने पड़ते हैं। वह नाजायज औलाद है। उसका पिता कौन है, उसे नहीं पता। सौतेला पिता उसे घर से निकाल देता है और जूली किस तरह फिल्मों में सफलता हासिल करती है यह दास्तां बताई गई है। जूली के इस संघर्ष की कहानी में थोड़ा थ्रिल डालने का प्रयास भी किया गया है। जूली को गोली मार दी जाती है। कौन है इसके पीछे और उसका क्या मकसद है, यह फिल्म में दर्शाया गया है। दीपक शिवदासानी की कहानी बहुत ही घटिया है। उन्होंने इस उद्देश्य से जूली के संघर्ष को दिखाया है कि दर्शक उसके दर्द को महसूस कर सके। जूली के प्रति उनकी सहानुभूति हो, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता। जूली के आगे कभी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न नहीं होती कि वह फिल्म निर्माताओं के साथ सोने के समझौते को मान ले। उसके हाथ से फिल्म निकल जाती है और कार की किश्त अदा न कर पाने के कारण बैंक कार जब्त कर लेती है। यह इतना बड़ा दु:ख तो है नहीं कि आप इस तरह का समझौता कर ले। कुल मिलाकर जूली को 'बेचारी' दिखाने के जो सीन लिखे गए हैं वे अत्यंत ही सतही हैं। लिहाजा जूली के संघर्ष की दास्तां बिलकुल भी असर नहीं करती। फिल्म में बार-बार जताया गया है कि सभी जूली के जिस्म से प्यार करते हैं और जूली से कोई प्यार नहीं करता, लेकिन जूली भी जिस तरह से सुपरस्टार, क्रिकेट खिलाड़ी, अंडरवर्ल्ड डॉन की बांहों में तुरंत पहुंच जाती है उससे ऐसा तो कतई नहीं लगता कि वह 'प्यार' चाहती है। थ्रिलर वाले ट्रैक की चर्चा करना बेकार है। खूब सस्पेंस पैदा करने की कोशिश की गई है कि जूली की जान कौन लेना चाहता है, लेकिन अंत में खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात सच हो जाती है। दक्षिण भारतीय फिल्म अभिनेत्री राय लक्ष्मी ने 'जूली 2' के जरिये हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत निराशाजनक रूप में की है। उनका अभिनय औसत से भी निचले दर्जे का है। उनका रोल भी कुछ इस तरह लिखा गया है कि वे दर्शकों से कनेक्ट ही नहीं हो पाती हैं। आदित्य श्रीवास्तव सीआईडी धारावाहिक वाले सीनियर इंस्पेक्टर अभिजीत के मोड से बाहर ही नहीं निकल पाए। अपने आपको सख्त दिखाने की उनकी कोशिश हास्यास्पद है। रवि किशन बेहद बनावटी लगे। रति अग्निहोत्री को तो ऐसे संवाद दिए गए कि वे फाल्तू का 'ज्ञान' बांटते नजर आईं। व्हाट्स एप में तो ऐसे ज्ञान की गंगा बहती है। घटिया निर्देशन और घटिया एक्टिंग का असर पंकज त्रिपाठी जैसे काबिल एक्टर पर भी हो गया और उनके अंदर का अभिनेता भी गुम हो गया। इस जूली 2 को देखने की बजाय मूली खाना बेहतर है। निर्माता : दीपक शिवदासानी, विजय नायर निर्देशक : दीपक शिवदासानी संगीत : विजू शाह कलाकार : राय लक्ष्मी, रवि किशन, आदित्य श्रीवास्तव, रति अग्निहोत्री, पंकज त्रिपाठी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट 55 सेकंड ",0 "निर्माता : क्रिस्टोफर नोलान, चार्ल्स रॉवेन, एमा थॉमस निर्देशक : क्रिस्टोफर नोलान कलाकार : क्रिश्चियन बेल, एने हैथवे, टॉम हार्डी, गेरी ओल्डमैन, माइकल कैने सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 44 मिनट क्रिस्टोफर नोलान की बैटमैन सीरिज का ‘द डार्क नाइट राइज़ेस’ फाइनल पार्ट है। बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट से होते हुए द डार्क नाइट राइसेस तक पहुंचने में नोलान को आठ वर्ष लगे। बैटमैन के दीवानों को इस फिल्म से बहुत उम्मीदें हैं और ये उनकी उम्मीदों पर खरी भी उतरती है। यदि आपने पिछली फिल्में नहीं भी देखी हैं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हर किरदार को डिटेल के साथ पेश किया गया है जिससे यह फिल्म समझने में कोई कठिनाई पैदा नहीं होती है। क्रिस्टोफर नोलान ने डेविड एस. गॉयर और जोनाथन नोलान के साथ मिलकर ऐसी कहानी लिखी है जिसमें ढेर सारे सब-प्लाट हैं, लेकिन कुशल निर्देशन ने कहानी को बिखरने नहीं दिया। बैटमैन (क्रिश्चियन बेल) पर हार्वे डेंट की हत्या का दोष लग चुका है। आठ वर्ष से वह अपने महलनुमा घर से बाहर नहीं निकलता है। केवल बटलर एल्फ्रेड उसके साथ है। बैटमैन कमजोर हो चुका है। पहले जैसी उसमें ताकत नहीं है। अंदर से वह बेहद अकेला है क्योंकि अपना प्यार वह खो चुका है। सामाजिक जीवन से भी वह कट चुका है। लोगों के सामने ब्रूस वेन के रूप में उसकी पहचान है। ब्रूस को आर्थिक रूप से जबरदस्त घाटा होता है। विलेन बेन (टॉम हार्डी) का मकसद है गोथम सिटी को तहस-नहस कर देना। वह एक न्यूक्लियर साइंसटिस्ट का अपहरण कर लेता है और उस पर दबाव डालकर न्यूक्लियर बम से गोथम सिटी को बर्बाद कर देना चाहता है। गोथम शहर पर उसका कब्जा हो चुका है। उसके साथी ने शहर की सारी व्यवस्थाएं भंग कर दी है। उसकी अपनी पुलिस और न्याय प्रणाली है। बेन को रोकने की कोशिश बैटमैन करता है, लेकिन बेन उस पर भारी पड़ता है और कैद में डाल देता है। क्या बेन अपने मकसद में कामयाब हो पाएगा? क्या बैटमैन गोथम शहर की रक्षा कर पाएगा? इन प्रश्नों के जवाब क्लाइमेक्स में सरप्राइज के साथ मिलते हैं। जेम्स बांड नुमा स्टाइल में फिल्म की शुरुआत होती है जिसमें बेन अपने प्लेन के जरिये दूसरे प्लेन में बैठे वैज्ञानिक का हवा में ही अपहरण करता है। यह फिल्म के बेहतरीन दृश्यों में से एक है। इसके बाद कहानी ब्रूस वेन पर आकर थम-सी जाती है। एल्फ्रेड और ब्रूस के बीच के सीन बेहद लंबे हैं। इन दिनों तमाम सुपरहीरो को बेहद तनहा दिखाया जा रहा है, साथ ही वे कई बार विलेन के सामने कमजोर भी पड़ते हैं। सुपरमैन, स्पाइडरमैन के बाद बैटमैन का भी यही हाल है। बीच-बीच में सेक्सी चोर सेलिना (एने हैथवे) आकर फिल्म को गति प्रदान करती रहती है। फिल्म ऊंचाइयों को तब छूती है जब बेन गोथम सिटी में आ धमकता है और अपने साथियों के जरिये शहर को तहस-नहस कर डालता है। दरअसल फिल्म का क्लाइमेक्स 70-80 मिनट तक चलता है जिसमें वेन को काबू में करने के लिए बैटमैन, कमिश्नर और कुछ काबिल पुलिस ऑफिसर पूरी कोशिश करते हैं। क्लाइमेक्स में न्यूक्लियर बम के फटने का खतरा, शहर में अपराधियों का राज, बेन का खून-खराबा, बम को ढूंढ निकालने का रोमांच, बैटमैन का बेन की कैद से निकलकर गोथम सिटी में आना जैसे कई तत्व शामिल हैं जो सीट से हिलने नहीं देते हैं। निर्देशक क्रिस्टोफर नोलान का निर्देशन बेहतरीन है। उन्होंने बैटमैन के एकाकीपन को भी उभारा है और बीच-बीच में बैटमैन का उड़ना, फ्यूचरिस्टिक बाइक और कार का चलाना जैसे रोमांचकारी दृश्यों को डाला है ताकि फिल्म एक ही ट्रेक पर चलती हुई नहीं लगे। जहां तक माइनस पाइंट्स का सवाल है तो बैटमैन को कैद में रखने वाला प्रसंग बहुत लंबा रखा गया है जिसकी वजह से बैटमैन का एक्शन बहुत देर तक देखने को नहीं‍ मिलता है। साथ ‍ही यह फिल्म की लंबाई को भी बढ़ाता है। फिल्म शुरुआत में काफी धीमी भी है। बैटमैन के किरदार में कई शेड्स देखने को मिलते हैं और क्रिश्चियन बेल ने शानदार एक्टिंग से अपने किरदार में इन रंगों को खूब भरा है। दुनिया से मन उचटने वाले इंसान से लेकर बैटमैन के रूप में वापसी वाले किरदार को उन्होंने बेहतरीन तरीके से निभाया है। बेन बने टॉम हार्डी क्रूर लगते हैं। पूरी फिल्म में उनका चेहरा एक बार नजर आता है क्योंकि उन्होंने मास्क लगा रखा है। इस मास्क के कारण उनके द्वारा बोले गए कई संवाद समझ में नहीं आते हैं। एने हैथवे ने फिल्म को ग्लैमरस लुक दिया है। सिनेमाटोग्राफी, एक्शन और स्पेशल इफेक्टस टॉप क्लास हैं। द डार्क नाइट राइज़ेस में वो सारे मसाले हैं जो आप एक सुपरहीरो की फिल्म में देखना पसंद करते हैं। ",1 "बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स निर्माता : कुमार एस. तौरानी, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : मनदीप कुमार संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : रि‍तेश देशमुख, जेनेलिया देशमुख, ओम पुरी, टीनू आनंद, चित्राशी रावत, स्मिता जयकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट * 16 रील स्क्रीनप्ले में मनोरंजन करने वाले मसाले हों, प्रस्तुतिकरण में ताजगी हो, कैरेक्टर को तरीके से पेश किया गया हो और कलाकारों का अभिनय बांधने वाला हो तो घिसी-पिटी कहानी पर बनी फिल्म भी अच्छी लगती है। इसकी मिसाल है ‘तेरे नाल लव हो गया’। इस तरह की कहानी पर बनी सैकड़ों फिल्में आपने देखी होगी। इसे देखते समय कई फिल्में आपको याद भी आएंगी, इसके बावजूद ‘तेरे नाल लव हो गया’ इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि इसमें भरपूर मनोरंजन है, फैमिली ड्रामा है, रोमांस है और किडनेपिंग के ट्विस्ट के साथ रितेश और जेनेलिया की जबरदस्त कैमिस्ट्री भी है। कहानी में कोई नई बात नहीं है। मिनी (जेनेलिया डिसूजा) के पिता जबरदस्ती उसकी शादी करवा रहे हैं। घटनाक्रम कुछ ऐसा घटता है कि टेक्सी ड्राइवर वीरेन (रितेश देशमुख) के साथ मिनी भाग जाती है और बात को ऐसा पेश करती है कि सभी को लगता है कि मिनी का वीरेन ने अपहरण कर लिया है। कुछ दिन वे साथ में रहते हैं और एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। वीरेन बेहद सीधा-सादा इंसान है और मिनी तेज-तर्रार लड़की। एक दिन सचमुच में मिनी और वीरेन का अपहरण हो जाता है। ये अपहरण करवाया है वीरेन के पिता चौधरी (ओम पुरी) ने जिनका तो यह धंधा ही है। चौधरी ने ऐसा क्यों किया? मिनी-रितेश की लव स्टोरी का क्या हुआ? ऐसे प्रश्नों के जवाब फिल्म में कॉमेडी, इमोशन और ड्रामे के जरिये देखने को मिलते हैं। कहानी पंजाब और हरियाणा में सेट है और वहां का लोकल फ्लेवर फिल्म पर छाया हुआ है। पहले हाफ में हल्के-फुल्के दृश्यों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया गया है। यहां पर वीरेन और मिनी की लव स्टोरी पर फोकस किया गया है। कई मजेदार दृश्यो के बीच कुछ ऐसे सीन भी हैं जहां पर लगता है कि हंसाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इनकी संख्या कम है। दूसरे हाफ में फिल्म और बेहतर हो जाती है जब मिनी के साथ वीरेन किडनैप होकर अपने ही घर पहुंच जाता है। यहां पर ओमपुरी की एंट्री होती है। इस हाफ में रितेश की तुलना में ओम पुरी- जेनेलिया को ज्यादा फुटेज मिले हैं और दोनों के बीच कई मजेदार दृश्य हैं। चौधरी के अपहरण के धंधे को कॉमेडी टच के साथ दिखाने के कारण चौधरी बड़ा ही मासूम नजर आता है और इसका फायदा उठाते हुए मिनी उसके दिल में जगह बनाती है। धियो संधू के लिखे स्क्रीनप्ले में कई खामियां भी हैं जैसे अपहरण होने के बावजूद पुलिस कहीं नजर नहीं आती। सभी को पता है कि चौधरी अपहरण करता है, लेकिन उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। मिनी-वीरेन के पास खाने के पैसे नहीं रहते, लेकिन उनकी ड्रेसेस लगातार बदलती रहती हैं। अपने पिता के काम को गलत मानने वाला वीरेन अंत में बड़ी जल्दी अपने पिता की बात समझ जाता है। वीना मलिक के आइटम सांग की भी कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन इन खामियों की उपेक्षा इसलिए की जा सकती है क्योंकि फिल्म का मनोरंजन वाला पक्ष बहुत भारी है। जब स्क्रीन पर चल रहे घटनाक्रम को देख मनोरंजन हो रहा हो तो फिर भला इन बातों पर कौन गौर करना चाहेगा। निर्देशक मनदीप कुमार की यह पहली हिंदी फिल्म है, लेकिन उनका काम अनुभवी निर्देशक की तरह है। उनका प्रस्तुतिकरण उम्दा है। कॉमेडी और इमोशनल सीन को उन्होंने अच्छे से पेश किया है। साथ ही सारे कलाकारों से उन्होंने अच्छा अभिनय भी कराया है। इस फिल्म के निर्माता एक म्युजिक कंपनी के मालिक भी हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने फिल्म का संगीत मधुर होने के बावजूद इनका ठीक से प्रचार नहीं किया है। सचिन-जिगर द्वारा संगीतबद्ध जीने दे, पी पा, तू मोहब्बत है, पिया जैसे गाने सुनने लायक हैं। रितेश-जेनेलिया की जोड़ी ‘क्यूट’ है। अफसोस की बात है कि वे सात साल बाद साथ आए हैं। रितेश का कैरेक्टर दबा हुआ है, लेकिन उनकी एक्टिंग अच्छी है। बबली गर्ल के रोल में जेनेलिया देशमुख हमेशा ही अच्छी लगती हैं और एक बार फिर लगी हैं। इंटरवल के बाद तो निर्देशक ने सारा भार उनके कंधों पर ही डाल दिया है और उन्होंने निराश नहीं किया। अरसे बाद ऐसा लगा कि ओम पुरी को एक्टिंग करने में मजा आ रहा है। चौधरी के रोल में उनका अभिनय प्रशंसनीय है और उनके आने के बाद फिल्म में जान आ जाती है। ‘तेरे नाल लव हो गया’ टिपिकल बॉलीवुड फिल्म है। साफ-सुथरी, हल्की-फुल्की, दिमाग पर जोर नहीं डालने वाली फिल्म देखना चाहते हैं तो इसे देखा जा सकता है। ",1 "बैनर : विधु विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा निर्देशक : राजकुमार हिरानी लेखक : राजकुमार हिरानी, अभिजीत जोश ी, विधु विनोद चोपड़ा गीत : स्वानंद किरकिरे संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : आमिर खान, करीना कपूर, आर. माधवन, शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ओमी, मोना सिंह, परीक्षित साहनी, जावेद जाफरी यू/ए * 20 रील * 2 घंटे 50 मिनट राजकुमार हिरानी की खासियत है कि वे गंभीर बातें मनोरंजक और हँसते-हँसाते कह देते हैं। जिन्हें वो बातें समझ में नहीं भी आती हैं, उनका कम से कम मनोरंजन तो हो ही जाता है। चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पाइंट समवन' से प्रेरित फिल्म '3 इडियट्‌स' के जरिये हिरानी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली, पैरेंट्‌स का बच्चों पर कुछ बनने का दबाव और किताबी ज्ञान की उपयोगिता पर मनोरंजक तरीके से सवाल उठाए हैं। हर विद्यार्थी एक न एक बार यह सोचता है कि जो वो पढ़ रहा है, उसकी क्या उपयोगिता है। वर्षों पुरानी लिखी बातों को उसे रटना पड़ता है क्योंकि परीक्षा में नंबर लाने हैं, जिनके आधार पर नौकरी मिलती है। उसे एक ऐसे सिस्टम को मानना पड़ता है, जिसमें उसे वैचारिक आजादी नहीं मिल पाती है। माता-पिता भी इसलिए दबाव डालते हैं क्योंकि समाज में योग्यता मापने का डिग्री/ग्रेड्स पैमाने हैं। कई लड़के-लड़कियाँ इसलिए डिग्री लेते हैं ताकि उन्हें अच्छा जीवन-साथी मिले। इन सारी बातों को हिरानी ने बोझिल तरीके से या उपदेशात्मक तरीके से पेश नहीं किया है बल्कि मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर उन्होंने अपनी बात रखी है। आमिर-हिरानी कॉम्बिनेशन’ के कारण अपेक्षाएँ इस फिल्म से बहुत बढ़ गई हैं और ये दोनों प्रतिभाशाली व्यक्ति निराश नहीं करते हैं। रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़ का निक नेम रांचो है। इंजीनियरिंग कॉलेज में रांचो (आमिर खान), फरहान कुरैशी (आर माधवन) और राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) रूम पार्टनर्स हैं। फरहान वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनना चाहता है, लेकिन उसके पैदा होने के एक मिनट बाद ही उसे इंजीनियर बनना है ये उसके हिटलर पिता ने तय कर दिया था। वह मर-मर कर पढ़ रहा है। राजू का परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है। भविष्य का डर उसे सताता रहता है। विज्ञान का छात्र होने के बावजूद वह तमाम अंधविश्वासों से घिरा हुआ है। पढ़ाई से ज्यादा उसे पूजा-पाठ और हाथ में पहनी ग्रह शांति की अँगूठियों पर है। वह डर-डर कर पढ़ रहा है। रांचो एक अलग ही किस्म का इंसान है। बहती हवा-सा, उड़ती पतंग-सा। वह ग्रेड, मार्क्स, किताबी ज्ञान पर विश्वास नहीं करता है। आसान शब्दों में कही बात उसे पसंद है। उसका मानना है कि जिंदगी में वो करो, जो तुम्हारा दिल कहे। वह कामयाबी और काबिलियत का फर्क अपने दोस्तों को समझाता है। रांचो के विचारों से कॉलेज के प्रिंसीपल वीर सहस्त्रबुद्धे (बोमन ईरानी) बिलकुल सहमत नहीं है। वे जिंदगी की चूहा-दौड़ में हिस्सा लेने के लिए एक फैक्ट्री की तरह विद्यार्थियों को तैयार करते हैं। पढ़ाई खत्म होने के बाद रांचो अचानक गायब हो जाता है। वर्षों बाद रांचो के दोस्तों को उसके बारे में क्लू मिलता है और वे उसे तलाशने के लिए निकलते हैं। इस सफर में उन्हें रांचो के बारे में कई नई बातें पता चलती हैं। कहानी को स्क्रीन पर कहने में हिरानी माहिर हैं। फ्लेशबैक का उन्होंने यहाँ उम्दा प्रयोग किया है। हीरानी और अभिजात जोशी ने ज्यादातर दृश्य ऐसे लिखे हैं जो हँसने पर, रोने पर या सोचने पर मजबूर करते हैं। अपनी बात कहने के लिए उन्होंने मसाला फिल्मों के फॉर्मूलों से भी परहेज नहीं किया। माधवन का नाटक कर हवाई जहाज रूकवाना, करीना कपूर को शादी के मंडप से भगा ले जाना, जावेद जाफरी से आमिर का पता पूछने वाले सीन देख लगता है मानो डेविड धवन की फिल्म देख रहे हों। पहले हॉफ में सरपट भागती फिल्म दूसरे हाफ में कहीं-कहीं कमजोर हो गई है। खासतौर पर मोनासिंह के माँ बनने वाला सीन बेहद फिल्मी हो गया है। आमिर की फिल्म में एंट्री और रेगिंग वाला दृश्य, चमत्कार/बलात्कार वाला दृश्य, रांचो द्वारा बार-बार साबित करना कि पिया (करीना कपूर) ने गलत जीवन-साथी चुना है, ढोकला-फाफड़ा-थेपला-खाखरा-खांडवा वाला सीन, राजू के घर की हालत को व्यंग्यात्मक शैली (50 और 60 के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की तरह) में पेश किया गया सीन, बेहतरीन बन पड़े हैं। हिरानी पर अपनी पुरानी फिल्मों का प्रभाव नजर आया। वहाँ मुन्ना भाई था, यहाँ रांचो है। वहाँ बोमन ईरानी डीन थे, यहाँ वे प्रिंसीपल हैं। वहाँ मुन्ना भाई डीन की लड़की को चाहता था, यहाँ रांचो प्रिंसीपल की लड़की को चाहता है। हालाँकि इन बातों से फिल्म पर कोई खास असर नहीं पड़ता, लेकिन फिल्मकार पर दोहराव का असर दिखाई देता है। संवाद चुटीले है। 'इस देश में गारंटी के साथ 30 मिनट में पिज्जा आ जाता है, लेकिन एंबुलेंस नहीं', 'शेर भी रिंगमास्टर के डर से कुछ सीख जाता है लेकिन उसे वेल ट्रेंड कहा जाता है वेल एजुकेटेड नहीं’ जैसे संवाद फिल्म को धार प्रदान करते हैं। अभिनय में सभी कलाकारों ने अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। अपनी उम्र से आधी उम्र का किरदार निभाना आसान नहीं था, लेकिन आमिर ने यह कर दिखाया। आज की युवा पीढ़ी के हाव-भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ा। तेज तर्रार और अपनी शर्तों पर जीने वाले रांचो को उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ पर्दे पर जीवंत किया। आमिर खान के फिल्म में होने के बावजूद शरमन जोशी और माधवन अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हालाँकि माधवन फिटनेस के मामले में मार खा गए। एनआरआई चतुर के रूप में ओमी ने बेहतरीन अभिनय किया है। बोमन ईरानी ने फिर साबित किया है कि वे कमाल के अभिनेता हैं। ओवर एक्टिंग और एक्टिंग के बीच की रेखा पर वे कुशलता से चले हैं। आमिर और उनके बीच के दृश्य देखने लायक बन पड़े हैं। करीना कपूर के रोल की लंबाई कम है, इसके बावजूद वे अपनी छाप छोड़ती हैं। शांतुन मोइत्रा का संगीत सुनने में भले ही अच्छा नहीं लगता हो, लेकिन स्क्रीन पर देखते समय अलग ही असर छोड़ता है। 'जूबी-जूबी' गाने का फिल्मांकन उम्दा है। पिछले दो बार से (2007 तारे जमीं पर, 2008 गजनी) वर्ष का समापन बॉलीवुड बेहतरीन फिल्म के जरिये कर रहा है और 2009 में हैट्रिक पूरी हो गई है। अनूठे विषय, चुटीले संवाद और शानदार अभिनय के कारण यह फिल्म देखी जा सकती है। ",1 "निर्देशक : फ्रांसिल लॉरेंस कलाकार : विल स्मिथ, एलिस ब्रागा, डेश मिहोक साइंस फिक्शन हॉलीवुड वालों का प्रिय विषय रहा है। कहीं ना कहीं उनके मन में नई तकनीक और उनका प्रयोग खौफ पैदा करता है। अनजान खतरों की वे कल्पनाएँ करते हैं, जिसमें मानव जाति समाप्त होने का डर रहता है। लेकिन अंत में मानव ही विजेता बनकर उभरता है। इसी श्रेणी के अंतर्गत ‘आई एम लीजेंड’ का निर्माण किया गया है। यह फिल्म रिचर्ड मैथसन के उपन्यास पर आधारित है। भव्य बजट की इस फिल्म की कहानी में 2009 का समय दिखाया गया है। उस वक्त ‘केवी वायरस’ का हर तरफ खौफ है। इंसानों में यह इतनी तेजी से फैलता है कि मानव सभ्यता लगभग समाप्त होने की कगार पर पहुँच जाती है। इस वायरस की चपेट में आने के बाद इंसान हैवान के रूप में बदल जाता है। रोशनी से खौफ खाने वाला यह हैवान रात के अंधेरे में बेहद शक्तिशाली हो जाता है। न्यूयार्क शहर को तत्काल खाली किया जाता है। डॉ. रॉबर्ट नेवल (विल स्मिथ) पर इस वायरस का कोई असर नहीं होता। अपने परिवार को बिदा कर वह अकेला न्यूयार्क में रहने का निर्णय लेता है। वह अनुसंधान करना चाहता है ताकि मानव जाति को बचा सके। पूरे न्यूयार्क में अकेले रहने वाले रॉबर्ट को लगने लगता है कि वह दुनिया में जीवित बचा एकमात्र मनुष्य है। फिर भी वह इस वायरस के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखता है इस उम्मीद में कि कहीं ना कहीं कोई मनुष्य जिंदा होगा और वह अपनी जाति को बचाने में कामयाब होगा। उसे इस वायरस के शिकार हैवानों से भी लड़ाई लड़नी पड़ती है। फिल्म की पटकथा बीच के बीस मिनट को छोड़ एकदम चुस्त है। फिल्म में ज्यादा पात्र नहीं हैं और तीन चौथाई दृश्यों में तो विल स्मिथ अकेले दिखाई देते हैं। बातचीत करने के लिए उसके पास सिर्फ कुत्ता रहता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म बांध कर रखती है। उजाड़ न्यूयार्क वाले दृश्य अद्‍भुत हैं। पूरे न्यूयार्क में जगह-जगह जंगली घास उग आई है। सड़कों पर कार बिखरी पड़ी हैं। शहर में एक ठहराव आ गया है। मानव के बिना एक शहर को देखना एक अनोखा नजारा पेश करता है। दिन के समय विल स्मिथ न्यूयार्क में अकेला घूमता है और रात में हैवानों का राज हो जाता है। हैवानों द्वारा विल और उसके कुत्ते सैम पर आक्रमण के दृश्य शानदार हैं। स्पेशल इफेक्ट इतनी सफाई से फिल्माए गए हैं कि कहीं भी नकलीपन नहीं झलकता। फिल्म निर्माण में पैसा पानी की तरह बहाया गया है। निर्देशक फ्रांसिस लॉरेंस ने डॉ. रॉबर्ट के अनुसंधान पर जोर देने के ‍बजाय एक अकेले इंसान की मुश्किल को ज्यादा दिखाया है। किस तरह एक अकेला इंसान पुराने वीडियो टेप देखता है। शो-रुम पर जाकर कल्पनाएँ करता है। उन्होंने फिल्म के कथानक पर तकनीक को ज्यादा हावी होने से भी बचाया है। पूरी फिल्म में लगभग पूरे समय कैमरा विल स्मिथ पर रहता है। बिना किसी अन्य पात्र के अकेले अभिनय करना मुश्किल है, लेकिन विल स्मिथ ने इसे बड़ी कुशलता से निभाया है। एलिस ब्रागा, डेश मिहोक और चार्ली टाहान का अभिनय भी उम्दा है। तकनीकी स्तर पर फिल्म बेहद सशक्त है। साइंस फिक्शन और हॉलीवुड की भव्य फिल्म देखने वालों को 100 मिनट की यह फिल्म पसंद आएगी। ",1 "इसके बाद शुरू होता है प्यार, वफादारी, गद्दारी, दुश्मनी, राजनीति, षड्यंत्र का खूनी खेल जिसमें हर किरदार अपने स्वार्थ के मुता‍बिक पल-पल बदलता रहता है। स्क्रिप्ट में कुछ कमियां है, खासतौर पर फिल्म का क्लाइमेक्स जल्दबाजी में लिखा गया है, लेकिन साथ ही इतने ज्यादा उतार-चढ़ाव और गति है कि दर्शक फिल्म से बंधा रहता है। उसे उत्सुकता रहती है कि अगले पल क्या होने वाला है। फिल्म के कैरेक्टर इतने डिटेल के साथ लिखे गए हैं कि कमियों को नजरअंदाज किया जा सकता है। साहब, बीवी और गैंगस्टर के किरदार बेहद मजबूती के साथ उभर कर आते हैं। इन तीनों किरदारों के साथ वर्तमान में राजनीति की हालत और गुंडागर्दी का आइना भी फिल्म दिखाती है। ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ जैसी फिल्में भी इस फिल्म को देख याद आती हैं। संवाद किरदारों को धार प्रदान करता है। अच्छे संवाद इन दिनों बहुत कम सुनने को मिलते हैं। निर्देशक तिग्मांशु धुलिया ने फिल्म के विषय के साथ पूरा न्याय किया है। एक चुके हुए नवाब, उपेक्षित स्त्री और मौकापरस्त आम आदमी को उन्होंने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। फिल्म का आर्ट डायरेक्शन की तारीफ के काबिल है। लोकेशन का चुनाव सराहनीय है और हर शॉट पर तिगमांशु की मेहनत नजर आती है। इस फिल्म का अभिनय पक्ष भी इसे देखने की एक वजह है। जिमी शेरगिल ने साहब के किरदार को बेहतरीन तरीके से जिया है। जहां एक ओर उनके चेहरे पर रुतबा दिखता है तो दूसरी ओर खोखली शानो-शौकत के कारण पैदा हुई उदासी भी नजर आती है। माही गिल न केवल तब्बू जैसी दिखती है बल्कि अभिनय के मामले में भी उनके जैसी हैं। पति द्वारा बाहर रात गुजारने को वह अपनी बेइज्जती मानती है और यह बात उनके चेहरे पर नजर आती है। बोल्ड दृश्यों से भी माही ने परहेज नहीं किया है। रणदीप हुडा का अभिनय भी सराहनीय है और एक अतिमहत्वाकांक्षी युवक की भूमिका उन्होंने अच्छे से निभाई है, लेकिन उनकी अभिनय प्रतिभा सीमित है। एक बेहतर अभिनेता इस रोल में जान डाल सकता था। महुआ के रूप में श्रेया सरन अपनी छाप छोड़ती है। गेंदा सिंह के रूप में विपिन शर्मा और दीपल शॉ का अभिनय भी उल्लेखनीय है। फिल्म का संगीत मूड के अनुरूप है। असीम मिश्रा का कैमरावर्क बेहतरीन है और लाइट का उन्होंने अच्छा प्रयोग किया है। बैनर : तिग्मांशु धुलिया फिल्म्स, ब्रैंडस्मिथ मोशन पिक्चर्स, बोहरा ब्रदर्स प्रा.लि. निर्माता : तिग्मांशु धुलिया, राहुल मित्रा निर्देशक : तिग्मांश धुलिया कलाकार : जिमी शेरगिल, माही गिल, रणदीप हुडा, दीपल शॉ, विपिन शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 3 मिनट कहानी में एक नवाब है आदित्य प्रताप सिंह (जिमी शेरगिल) जिन्हें लोग साहब कहकर पुकारते हैं। साहब के पास रुतबा है, लेकिन रुपया नहीं है। अपना खर्च चलाने के लिए उन्हें टुच्चे लोगों का सामना करना होता है। एक टुच्चा बोलता है कि आप हम जैसे लोगों से लड़ते हैं तो साहब कहते हैं कि लड़ने के लिए अब राजा नहीं बचे हैं इसलिए टुच्चों का सामना करने के लिए उन्हें भी टुच्चा बनना पड़ रहा है। बीवी का नाम है माधवी (माही गिल), जिन पर साहब बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं। बीवी को जब वे पूछते हैं कि शहर जा रहा हूं, क्या लाऊं तो वह कहती है कि मुझे मेरी रातें लौटा दो। दरअसल साहब की मुहआ नामक रखैल है जो उन्हें मजा देने के साथ-साथ सुकून भी देती है। उपेक्षा से मायूस बीवी को प्यार दिखता है अपने ड्राइवर बबलू (रणदीप हुडा) में जो हाल ही में उनके यहां नौकरी करने आया है। दरअसल बबलू को साहब के दुश्मन गेंदा सिंह (विपिन शर्मा) ने भेजा है। बबलू जासूसी के लिए आया है ताकि गेंदा सिंह उन्हें रास्ते से हटा सके। साहब बीवी और गैंगस्टर अभिनय, संवाद, कैरेक्टर और कहानी में आने वाले उतार-चढ़ाव की वजह से देखने लायक है। ",1 "एवेंजर्स : एज ऑफ अल्ट्रॉन को हिंदी में 'एवेंजर्स : कलयुग का महायुद्ध' नाम से रिलीज किया गया है और फिल्म की थीम पर यह नाम बिलकुल सटीक बैठता है। मार्वल कॉमिक्स के सुपरहीरो पर आधारित फिल्म का नाम भी कॉमिक्स जैसा ही होना चाहिए। अंग्रेजी के साथ-साथ इसे तमिल, तेलुगु और हिंदी में डब किया गया है और यूएस से एक सप्ताह पहले ही भारतीय दर्शकों को यह फिल्म देखने को मिल रही है। डबिंग आर्टिस्टों ने भी कुछ नया करने की कोशिश की है और फिल्म में दो अंग्रेज किरदारों को हरियाणवी स्टाइल में हिंदी बोलते देखना बड़ा ही मजेदार है। इसके पहले 'फ्यूरियस 7' में भी एक किरदार मुंबइया स्टाइल में हिंदी बोलता है। एवेंजर्स सीरिज की फिल्में मनोरंजन से भरपूर रहती हैं और 'द एवेंजर्स' (2012) का यह सीक्वल भी पहले भाग की तरह उम्दा है। सुपरहीरोज़ फिल्मों की कहानी के बारे में तो सभी को पता रहता है कि ये अच्छाई बनाम बुराई के इर्दगिर्द रहती है, लेकिन संघर्ष का रोमांच और नवीनता दर्शकों को खास आकर्षित करता है। साथ ही तकनीक का साथ फिल्म को और ऊंचाइयों पर ले जाता है। अल्ट्रॉन का एक ही मकसद है, विश्व की तबाही, लेकिन उसके रास्ते में एवेंजर्स टीम है। आयरन मैन (रॉबर्ट डाउनी जूनियर), कैप्टन अमेरिका (क्रिस इवांस), थॉर (क्रिस हेम्सवर्थ), ब्लैक विडो (स्कॉरलेट जोहानसन), हल्क (मार्क रफेलो), हॉक आई (जेरेमी रेनर) अपनी खूबियों के साथ विश्व को बचाने के लिए अपनी जान और परिवार की परवाह किए बिना अल्ट्रॉन से भिड़ जाते हैं। राह इतनी आसानी नहीं है। इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए उनको जम कर मशक्कत करना होती है और उनका संघर्ष फिल्म को देखने लायक बनाता है। एवेंजर्स में भले ही सुपरमैन, स्पाइडरमैन जैसे बड़े सुपरहीरो नहीं हैं, बावजूद इसके आयरन मैन सहित सारे सुपरहीरो के कारनामे रोमांचित करते हैं और आपके अंदर मौजूद बचपन को गुदगुदाते हैं। सभी सुपरहीरो को महत्व दिया गया है, लेकिन आयरन मैन पर निर्देशक की कृपा दृष्टि ज्यादा रही है। वहीं बलशाली हल्क को कम फुटेज मिले हैं। अपनी फड़कती भुजाओं से दुश्मनों को मसल देने वाले हल्क को ज्यादा समय तक देखने की हसरत दर्शकों में रहती है। जॉस व्हेडॉन ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है। एवेंजर्स और अल्ट्रॉन के महायुद्ध के बीच कुछ पारिवारिक दृश्य भी उन्होंने डाले हैं जो इमोशन से भरपूर हैं। आखिरकार सुपरहीरो को भी परिवार की जरूरत महसूस होती है और उनके दिल में भी भावनाओं के ज्वार उमड़ते हैं। हल्क और ब्लैक विडो के एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने को भी बखूबी दिखाया गया है। दोनों के अपने दर्द हैं और भले ही वे अद्वितीय शक्तियों से लैस हों, लेकिन आम इंसान की तरह जीने की तड़प उनमें भी नजर आती है। ब्लैक विडो का दु:ख उस समय उभर कर आता है जब वह हल्क को बताती है कि वह मां नहीं बन सकती क्योंकि ट्रेनिंग के दौरान उसे बांझ बना दिया गया है। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण ट्वीस्ट यह है कि अल्ट्रॉन एवेंजर्स टीम के सदस्यों को आपस में भी लड़ाने की कोशिश करता है। हल्क और आयरन मैन के बीच एक बेहतरीन फाइटिंग सीक्वेंस है जो तालियां बजाने पर मजबूर कर देता है। क्लाइमैक्स की फाइट भी जबरदस्त है। जॉस व्हेडॉन ने फिल्म को उन दर्शकों के अनुरूप बनाने की कोशिश की है जो सुपरहीरोज़ को पसंद करते हैं, हालांकि फिल्म में बीच में ऐसा वक्त भी आता है जब फिल्म ठहरी हुई लगती है। इस तेज गति से भागती फिल्म में कुछ दृश्य स्पीड ब्रेकर का काम करते हैं। फिल्म के अंत में कुछ नए सुपरहीरो की झलक भी दिखाई गई है जो शायद अगले भाग में अपने कारनामे दिखाएंगे। आयरन मैन के रूप में रॉबर्ट डाउनी जूनियर सभी पर भारी पड़े हैं और उन्हें जोरदार संवाद भी मिले हैं। गुस्से से हरा होने वाला हल्क का डॉ. बेनर के रूप में दूसरा रूप भी देखने को मिलता है और इसे मार्क रफेलो ने बेहतरीन तरीके से अदा किया है। कैप्टन अमेरिका के रूप में क्रिस इवांस बेहद फिट नजर आए। स्कॉरलेट जोहानसन ने ‍ब्लैक विडो का किरदार निभाया है। बाइक वाला स्टंट उन्होंने बखूबी किया है और वे सेक्सी भी नजर आईं। क्रिस हेम्सवर्थ, जेरेमी रेनर भी अपनी चमक बिखेरते हैं। सुपरह्यूमन स्पीड वाले टेलर जॉनसन और उनकी बहन स्कॉरलेट विच के किरदार भी प्रभावी हैं। तकनीकी रूप से फिल्म शानदार हैं। स्पेशल इफेक्ट्स इतनी सफाई से पेश किए गए हैं कि बिलकुल वास्तविक लगते हैं। बैकग्राउंड म्युजिक, सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग सहित फिल्म के सारे डिपार्टमेंट मजबूत है। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म को प्रभावी बनाता है। पॉपकॉर्न और कोला के साथ फिल्म का मजा ‍लीजिए। निर्देशक : जॉस व्हेडॉन कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जेरेमी रेनर ",1 "चंद्रमोहन शर्मा संजय गुप्ता बॉलिवुड के उन डायरेक्टर्स में शामिल हैं जिनकी ज्यादातर फिल्में किसी न किसी विदेशी फिल्म का रीमेक होती हैं, या कहानी उस फिल्म से पूरी तरह से प्रेरित होती है। अर्से से वह सस्पेंस, थ्रिलर, एक्शन व मसाला फिल्में बनाते आए हैं। इसी कड़ी में 'जज्बा' भी आती है। 'जज्बा' आठ साल पहले रिलीज हुई साउथ कोरिया की फिल्म 'सेवन डेज' की रीमेक है। इस फिल्म के साथ ऐश्वर्या राय बच्चन का नाम भी जुड़ा है, जो हिंदी फिल्मों में पांच साल बाद लौटी हैं। संजय गुप्ता की 'कांटे', 'जिंदा' और 'शूटआउट ऐट लोखंडवाला' स्टाइल में बनी 'जज्बा' भी उसी स्टाइल में बनी ऐसी थ्रिलर फिल्म है, जो अंत तक बांधती तो जरूर है। लेकिन अगर आप इस फिल्म में कुछ नयापन देखने की चाह में हॉल में जाएंगे, तो यकीनन अपसेट होंगे। कहानी : अनुराधा वर्मा (ऐश्वर्या राय) ऐसी हाई-प्रोफाइल वकील है, जो सिर्फ उन्हीं के केस लड़ती है जो उसकी भारी-भरकम फीस अदा कर सके। उसे इससे कोई लेना-देना नहीं कि वह किस मुजरिम का केस लड़कर उसे कोर्ट से बरी करा रही है। योहान (इरफान खान) अनुराधा का स्कूल टाइम से दोस्त है। योहान अब क्राइम ब्रांच में इंस्पेक्टर है। योहान एक विभागीय जांच में ऐसा फंसता है कि उसे इससे निकलने के लिए अपने आला अफसरों को डेढ़ करोड़ रुपये की घूस देने की नौबत आ जाती है। योहान चाहता है कि अनुराधा उसका केस लड़े, लेकिन उसके पास टाइम नहीं है। इसी बीच अचानक एक दिन अनुराधा की बेटी सनाया (सारा अर्जुन) का अपहरण हो जाता है। किडनैपर उसे अपनी बेटी को बचाने के लिए नियाज शेख (चंदन राय सान्याल) को जेल से छुड़ाने के लिए कहता है। अनुराधा अब चाहती है पुलिस उसकी बेटी के मामले में ज्यादा कुछ न करे। इसकी बड़ी वजह किडनैपर द्वारा उस पर हर वक्त नजर रखना भी है। अनुराधा जब केस की जांच शुरू करती है तो उसे पता चलता है नियाज ने सिया (प्रिया बैनर्जी) का रेप करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी। उस वक्त इंस्पेक्टर योहान ने ही इस केस की जांच की और नियाज को अदालत ने मुजरिम पाकर सजा भी सुना दी थी। योहान को जब सनाया के अपहरण की खबर मिलती है तो वह अनुराधा की मदद करने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : एक मां और लॉयर के रोल में ऐश ने अच्छी एक्टिंग की है। उनके कमबैक के लिए यह फिल्म अच्छा प्लैटफॉर्म रही, पर कुछ सीन्स में वह ओवरएक्टिंग की शिकार रही हैं। इरफान का किरदार और उनकी बेहतरीन एक्टिंग के साथ-साथ उनके डायलॉग इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी हैं। योहान के किरदार में इरफान खूब जमे हैं, वहीं कुछ सीन्स में उनका किरदार सिंघम और चुलबुल पांडे की याद दिलाता है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं शबाना आजमी ने भी बेहतरीन ऐक्टिंग की है। जैकी श्रॉफ एक टिपिकल विलन नजर आए, तो अतुल कुलकर्णी अपने रोल में फिट हैं। यहां देखिए: ऐश्वर्या की फिल्म जज्बा का ऑफिशल ट्रेलर डायरेक्शन : संजय गुप्ता की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म को कहीं भी धीमा नहीं पड़ने दिया। शुरू से अंत तक संजय ने इस फिल्म को एक अनसुलझे केस की तहकीकात की तरह पेश किया है। इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक से कुछ भटकने लगती है, लेकिन क्लाइमेक्स में संजय ने सब कुछ अच्छी तरह से हैंडल कर लिया है। फिल्म का कैमरा वर्क भी इसका सबसे जानदार पक्ष है। संगीत : फिल्म की कहानी में इसकी जरा-भी गुंजाइश नहीं थी, ऐसे में कोई भी गाना आपको हॉल से बाहर आने के बाद याद नहीं रह पाता। क्यों देंखें : इरफान खान का लाजवाब अभिनय, अंत तक बांधते सस्पेंस के साथ अर्से बाद ऐश्वर्या राय की बढ़िया कमबैक मूवी। ",1 स्टोरी विद्या सिन्हा (विद्या बालन) की जिंदगी में सिर्फ एक चाहत है। वह अपनी पैरालाइज्ड (लकवाग्रस्त) टीनेजर बेटी मिनी को फिर से चलते हुए देखना चाहती है। लेकिन क्या यह सब इतना सहज है? या फिर विद्या सिन्या असल में कालीम्पोंग की दुर्गा रानी सिंह है जो किडनैपिंग और मर्डर केस में वॉन्टेड है? रिव्यू सुजॉय घोष ने चार साल पहले दर्शकों को 'कहानी' जैसी शानदार फिल्म दी थी। यह उसी का सीक्वल है। कहानी 2 आपके अंदर कौतूहल और जिज्ञासा तो जरूर पैदा करेगी लेकिन पूरी फिल्म के दौरान शायद आपको जकड़ कर न रख सके। इसमें पहली फिल्म जैसी धार और तीखापन नहीं है। हालांकि आप विद्या सिन्हा के किरदार में डूब जाते हैं। पश्चिम बंगाल के चंदन नगर में एक परेशान कामकाजी मां अपनी पैरालाइज्ड टीनेजर बेटी को संभाल रही है। विद्या सिन्हा का संघर्ष किसी मिडिल क्लास महिला की तरह है जो रोज नई कठिनाइयों से जूझती है। अचानक मिनी गायब हो जाती है और विद्या का एक्सिडेंट हो जाता है। फिर इंद्रजीत (अर्जुन रामपाल) की एंट्री होती है और उसे पता चलता है कि एक महिला का कालीम्पोंग के स्कूल की क्लर्क चेहरा दुर्गा रानी सिंह से मिलता है। विद्या रानी सिंह किडनैपिंग और मर्डर केस में वॉन्टेट है और वह फरार है। यहां यह बताना जरूरी है कि फिल्म इसलिए चलती है क्योंकि विद्या बालन के दोनों रोल यानी विद्या सिन्हा और दुर्गा रानी सिंह असल से लगते हैं। अब चूंकि पुलिस मामले की जांच कर रही है और यह एक मिस्ट्री है इसलिए फिल्म का प्लॉट रिवील करना ठीक नहीं होगा। फिल्म का बड़ा हिस्सा रात को शूट किया गया है और यह रियल लगता है। अगर आपको 2012 की 'कहानी' देखकर कोलकाता से प्यार हो गया था तो आपको कालीम्पोंग भी जरूर पसंद आएगा। बैकग्राउंड स्कोर आपको अंदर तक हिला देगी (थ्रिलर फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर ऐसा ही होना चाहिए) और कैमरा वर्क भी बढ़िया है। फिल्म में विद्या के लुक एकदम सादा और ग्लैमर से दूर है। प्रमोशन पाने की चाहत रखने वाले इंस्पेक्टर के रोल में प्रभावित करते हैं। अगर आपको थ्रिलर मूवीज पसंद हैं और आप विद्या बालन के कायल हैं तो कहानी 2 को एक बार देखना तो बनता है। ,0 "सनी लियोन का क्रेज समाप्त हो गया है। उनकी पिछली फिल्में जिस तरह से बॉक्स ऑफिस पर असफल रही हैं वो दर्शाती है कि दर्शकों को उनकी फिल्मों में कोई रूचि नहीं है। उनकी हालिया फिल्म 'बेईमान लव' का महीनों तक अटक कर अब जाकर प्रदर्शित होना दर्शाता है कि वितरकों और सिनेमाघर वालों में भी उनकी कोई पूछ परख नहीं है। दिवाली के पूर्व 15 दिन फिल्म व्यवसाय के लिए सबसे कठिन दिन रहते हैं। लोग त्योहार की तैयारी में व्यस्त होकर सिनेमाघर का रास्ता भूल जाते हैं। बड़ी फिल्मों का प्रदर्शन नहीं होता और 'बेईमान लव' जैसी फिल्मों को रास्ता मिल जाता है। बेईमान लव में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी चर्चा की जाए। निर्देशन से लेकर एक्टिंग तक हर विभाग में फिल्म कमजोर है। इस फिल्म को झेलना वाकई हिम्मत का काम है। पहले मिनट से ही फिल्म बोर करना शुरू कर देती है और अंत तक इसे देखना सजा से कम नहीं है। गिने-चुने दर्शक इस फिल्म को देखने पहुंचे और थोड़ी देर बाद ही उन्हें समझ आ गया कि वे गलती कर बैठे हैं। फिल्म के बजाय वे बातचीत में व्यस्त हो गए। कुछ ने आधी फिल्म देखने के बाद ही थिएटर छोड़ कर बाहर जाना ठीक समझा। दर्शकों की यह प्रतिक्रिया ही काफी है कि 'बेईमान लव' किस तरह की फिल्म है। कहानी है सुनैना (सनी लियोन) की जो एक सफल व्यवसायी है। उसका सम्मान होता है जिससे केके मल्होत्रा (राजीव वर्मा) और राज (रजनीश दुग्गल) ईर्ष्या से भर जाते हैं। कहानी को पीछे ले जाकर बताया गया है कि सुनैना इन्हीं के ऑफिस में काम करती थी। उसे इन पर बहुत ज्यादा विश्वास था, लेकिन प्यार के बदले में उसे धोखा मिलता है। इस धोखे का बदला लेने के लिए वह व्यवसाय के मैदान में उतर कर मल्होत्रा को नुकसान पहुंचाती है। इस कहानी को लचर तरीके से लिखा और पेश किया गया है। निर्देशक ने बहुत सारी चीजें दिखाने और दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की है, लेकिन किसी भी तरह वे दर्शकों को बांध पाने में सफल नहीं रहे। असल में फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी बुरी तरह लिखी गई है कि निर्देशक राजीव चौधरी के लिए इस पर अच्छी फिल्म बनाना मुश्किल था। राजीव ने सिर्फ फिल्म को 'कूल लुक' देने में ही मेहनत की है और कहानी को दिलचस्प तरीके से वे पेश करने में असफल रहे। सनी लियोन की यह कोशिश साफ नजर आती है कि वे एक्टिंग कर रही हैं। संवाद के अनुरूप उनके चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, जबकि उन्हें इस भूमिका में करने के लिए बहुत कुछ था। रजनीश दुग्गल निराश करते हैं। अन्य सारे अभिनेताओं से भी निर्देशक अच्छा अभिनय नहीं करा पाए। कुल मिलाकर 'बेईमान लव' समय और धन की बरबादी है। बैनर : अवंति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता-निर्देशक : राजीव चौधरी संगीत : अंकित तिवारी, कनिका कपूर, राघव साचर, संजीव दर्शन, असद कलाकार : सनी लियोन, रजनीश दुग्गल, डेनियल वेबर ",0 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com अजब संयोग है कि पिछले सप्ताह रिलीज हुई म्यूजिकल लव-स्टोरी 'सनम तेरी कसम' में भटके हीरो को राह पर लाने के लिए हिरोइन आखिर में एक बहुत बड़ा कदम उठाती है, वहीं दिव्या खोसला की इस म्यूजिकल लव-स्टोरी में हिरोइन की जान बचाने के लिए हीरो ऐसा कुछ करता है जो उसके प्यार को अमर बना देता है। दोनों फिल्मों में सच्चे प्यार को हासिल करने का तरीका काफी हद तक मिलता-जुलता है। फिल्मी खबरों के लिए जुड़े रहिए हमारे साथ, लाइक करें NBT Movies यंग डायरेक्टर दिव्या खोसला की बात करें तो उनकी पहली फिल्म यारियां बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही। दिव्या ने बजट का बड़ा हिस्सा दिल को छू लेने वाली लोकेशन में शूट करने में खर्च किया है। काश दिव्या कमाल की लोकेशन और फिल्म को बेहतर बनाने के लेटेस्ट तकनीक के साथ स्क्रीनप्ले और फिल्म की धीमी रफ्तार पर भी ध्यान देतीं तो यकीनन उनकी यह लव-स्टोरी बॉक्स ऑफिस पर पिछली फिल्म से आगे निकल पाती। कहानी : हिमाचल की बर्फीली वादियों से ढके एक छोटे से कस्बानुमा गांव में आकाश (पुलकित सम्राट) अपने दादा (ऋषि कपूर) के साथ रहता है। बचपन से ही आकाश को सच्चे प्यार की तलाश है, ऐसे में एक दिन आकाश का दादा उसे बताता है कि उसे यहां से 500 कदम की दूरी पर उसका सच्चा प्यार मिलेगा। आकाश को श्रुति से प्यार हो जाता है। हालांकि, आकाश दादा के साथ करियर बनाने के लिए अपना घर छोड़कर शहर चला जाता है। ऐसे में बचपन का प्यार वहीं छूट जाता है। यहां से कहानी में लव-ट्राइएंगल का ट्विस्ट आता है। आकाश को कंपनी का बॉस (मनोज जोशी) विदेश में एक बड़ी डील को फाइनल करने के मकसद के साथ विदेश भेजता है। यहां आकाश की मुलाकात अनुष्का (उर्वशी रातौला) से होती है, वह आकाश से इकतरफा प्यार करने लगती है। यहीं पर आकाश की मुलाकात एक अडवेंचर ट्रिप के दौरान श्रुति (यामी गौतम) से होती है। कुछ मुलाकातों के बाद आकाश को लगता है जैसे उसे उसका सच्चा प्यार यहां मिल गया है, लेकिन अडवेंचर ट्रिप खत्म होने के बाद श्रुति आकाश से कहती है कि उनका साथ बस यहां तक का था, अब वह दोबारा नहीं मिल पाएंगे। देखिए: फिल्म 'सनम रे' का ट्रेलर यहां ऐक्टिंग : 'फुकरे' फेम पुलकित सम्राट ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाने की कोशिश की है। हालांकि, कमजोर डायलॉग डिलीवरी उनकी इस मेहनत को कम करती है। यामी गौतम का किरदार गांव की एक मासूम पहाड़न लड़की का है, लेकिन चेहरे और एक्सप्रेशन से यामी कहीं भी गांव की पहाड़ी लड़की नहीं लगती। वहीं ऑन स्क्रीन पुलकित और यामी की केमिस्ट्री कमजोर और बेहद ठंडी है। एक बार फिर ऋषि कपूर ने अपना किरदार अच्छा निभाया है। उर्वशी कई सीन में जहां यामी पर भारी नजर आईं और कई बार यामी से ज्यादा खूबसूरत भी। निर्देशन : दिव्या ने इस छोटी सी लव-स्टोरी को पेश करने के लिए स्क्रिप्ट पर ज्यादा ध्यान देने की बजाए लोकेशन और गानों को खूबसूरती से फिल्माने में दिया है। ऐसे में दो घंटे की इस फिल्म के साथ भी दर्शक पूरी तरह से बंध नहीं पाते। दिव्या ने ऋषि कपूर जैसे मंझे हुए कलाकार से अच्छा काम लिया, लेकिन यामी गौतम के किरदार को संवारने में ज्यादा फोकस नहीं किया। संगीत : फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले ही यंगस्टर्स की जुबां पर है, फिल्म के कई गाने रिलीज से पहले कई चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। टाइटल सॉन्ग 'सनम रे' का फिल्मांकन गजब और दिल को छूने वाला है। क्यों देखें : अगर आप स्क्रीन पर खूबसूरत लोकेशन पर फिल्माए गानों को देखना चाहते है तो फिल्म एकबार देख सकते हैं। कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से यह छोटी सी लव-स्टोरी आपके दिल को छू नहीं पाती। ",0 "chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के राइटर-डायरेक्टर मिलाप झावेरी को अल्ट्रा बोल्ड और डबल मीनिंग फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखने में महारत हासिल है। बॉक्स ऑफिस पर मिलाप की लिखी लगभग सभी फिल्मों ने प्रॉडक्शन कंपनियों को खासा मुनाफा कमा कर दिया है, लेकिन इस फिल्म की बात करें तो अब जब मिलाप ने इस फिल्म से डेब्यू किया है, तो उनकी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर शायद ही पिछली बार की तरह कोई करिश्मा कर पाए। बॉलिवुड की तमाम खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies 'मस्ती' सीरीज की पिछली दोनों फिल्मों को मिलाप ने लिखा तो एकता कपूर की 'क्या कूल हैं हम' सीरीज की लिखी उनकी दोनों फिल्मों ने पर औसत से ज्यादा बिज़नस कर दिखाया। यह अलग बात है कि मिलाप और सेंसर बोर्ड के बीच खासी रस्साकशी चली। 'क्या कूल हैं हम' पर बोर्ड ने न सिर्फ जमकर कैंची ही चलाई, बल्कि पर्दे तक पहुंचने के लिए फिल्म को ट्रिब्यूनल और रिव्यू कमिटी तक जाना पड़ा। कुछ ऐसा ही हाल बतौर डायरेक्टर मिलाप की इस पहली फिल्म 'मस्तीजादे' का भी रहा। अर्से से बनकर तैयार सनी लियोनी स्टारर इस फिल्म को सेंसर ने ऐसा बोल्ड और डबल मीनिंग डायलॉग से भरपूर समझा कि फिल्म को सेंसर का कोई भी सर्टिफिकेट देने से ही साफ इनकार कर दिया। लम्बे समय तक सेंसर की अलग-अलग कमिटियों से लेकर कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद अब जब 'मस्तीजादे' सिल्वर स्क्रीन पर उतरी है, तो फिल्म की अवधि सिमटते-सिमटते महज पौने दो घंटे के करीब ही रह गई है। अगर सनी लियोनी की बात करें तो एकता कपूर की 'रागिनी एमएमएस' के सीक्वल के बाद सनी की किसी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कामयाबी नहीं पाई। सनी और राम कपूर स्टारर पिछली फिल्म 'कुछ लोचा हो जाए' तो अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक नहीं निकाल पाई थी। ऐसे में मस्तीजादे सनी के करियर के लिए बेहद अहम है, लेकिन फिल्म देखने के बाद नहीं लगता कि इससे सनी के करियर को जरा भी फायदा होने वाला है। कहानी : जहां 'क्या कूल हैं हम' पॉर्न फिल्म और उनके स्टार्स के आसपास घूमती है, वहीं 'मस्तीजादे' की कहानी एक ऐड एजेंसी के आसपास टिकी है। ऐसा लगता है कि हमारे फिल्मकारों को ऐड एजेंसी और फिल्मी बैकग्राउंड पर फिल्में बनाना कुछ ज्यादा ही पसंद है। तभी तो मिलाप ने भी बतौर डायरेक्टर अपनी पहली फिल्म की कहानी का ताना-बाना भी ऐड एजेंसी के इर्द-गिर्द ही बुना। सनी केले (तुषार कपूर) और आदित्य चोटिया (वीर दास) एक ऐड एजेंसी में काम करते हैं। हालात ऐसे बनते हैं कि वीर और तुषार को ऐड एजेंसी से निकाल दिया जाता है। इन दोनों को लगता है कि ऐड फील्ड में इन दोनों को महारत हासिल है, बस यही सोचकर दोनों खुद की एक नई ऐड एजेंसी शुरू करते हैं। इन दोनों की मुलाकात एक जैसी नजर आने वाली अलग-अलग पर्सनैलिटी की दो खूबसूरत लड़कियों लिली लेले (सनी लियोन) और लैला लेले (सनी लियोनी) से होती है। इन दोनों को सनी से प्यार हो जाता है। इसके बाद कहानी में अलग-अलग टि्वस्ट आते हैं। ऐक्टिंग : सनी ने अपने डबल रोल में दोनों किरदारों को ठीक-ठाक निभाया है, लेकिन स्क्रिप्ट और किरदारों में दम न होने के चलते सनी खुद को बेहतरीन ऐक्ट्रेस के तौर पर साबित नहीं कर पाईं। यह कहना गलत होगा कि सनी ने इस बार भी अपने फैंस को लुभाने के लिए ऐक्टिंग पर ध्यान देने से ज्यादा अपनी बोल्ड अदाओं का ही सहारा लिया। वीर दास और तुषार कपूर ने अपने किरदारों को असरदार बनाने के लिए मेहनत तो की, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से ये दोनों भी कहीं असर नहीं छोड़ पाए। अन्य कलाकारों में असरानी, शाद रंधावा और सुरेश मेनन ने प्रभावित किया है, वहीं रितेश देशमुख की एंट्री मजेदार रही। संगीत : पौने दो घंटे की कहानी में बार-बार डाले गए गाने कहानी की पहले से धीमी रफ्तार को और कम करते हैं। अलबत्ता 'लैला तेरी' और 'बसंती' गानों का फिल्माकंन अच्छा हुआ है। क्यों देखें : अगर आप सनी लियोनी के पक्के फैन हैं और सिर्फ सनी की ब्यूटी और उनकी अदाओं को देखने के लिए थिएटर का रुख करते हैं तो इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है, वर्ना फिल्म में और कुछ ऐसा खास नहीं, जिसके लिए यह फिल्म देखी जाए। 50201959 ",0 "कैजाद गुस्ताद। ये नाम है उस शख्स का जिसे अमिताभ बच्चन कभी नहीं भूल पाएंगे। अमिताभ ने अपने करियर की महाघटिया फिल्म 'बूम' कैजाद के साथ ही की थी। फिल्म देखने के बाद बिग-बी के प्रशंसक भी नाराज हो गए थे कि उन्होंने इतनी घटिया फिल्म क्यों की। बूम को रिलीज हुए दस वर्ष हो गए हैं और अभी भी कैजाद फिल्म मेकिंग के गुर नहीं सीख पाए। उनकी ताजा फिल्म 'जैकपॉट' बेहद घटिया फिल्म है। पुरस्कारों का मौसम आने वाला है और संभव है कि 'जैकपॉट' वर्ष की सबसे घटिया फिल्म का अवॉर्ड अपने नाम कर ले। स्कूली बच्चों को अक्सर एक प्रश्न हल करने के लिए दिया जाता है। दस वाक्यों में लिखी गई कहानी में वाक्यों का क्रम ऊपर-नीचे कर दिया जाता है और फिर बच्चों से सही क्रम में करने के लिए कहा जाता है। कैजाद की यह फिल्म भी ऐसी ही है। 92 मिनट की फिल्म में 60 मिनट तो समझ में ही नहीं आता कि स्क्रीन पर क्या चल रहा है। कैजाद इस फिल्म के जरिये क्या बताना चाहते हैं? अंतिम आधे घंटे में कैजाद ने कहानी पर उठाए गए सवालों के जवाब दिए हैं जिन्हें जानकर सिवाय सिर पीटने के और कुछ नहीं किया जा सकता है। कैजाद ने अपनी फिल्म के जरिये ऑडियंस की इंटेलीजेंसी को टेस्ट करने की कोशिश की है, लेकिन इस परीक्षा में परीक्षक (कैजाद) ही फेल हो गया है। एक सीधी-सपाट कहानी को इतना तरोड़-मरोड़ के दिखाने का निर्णय केवल कैजाद ही ले सकते थे। शायद दर्शकों को कन्फ्यूज करना ही कैजाद एक काबिल निर्देशक की निशानी मानते हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट निहायत ही बकवास है। फिल्म में नसीरुद्दीन शाह का कैरेक्टर इतना मूर्ख है कि अपने पैसे वसूलने के लिए वह उसी नाव में छेद कर देता है जिस पर वह खड़ा है। वह इतना भी नहीं जानता कि पैसे मिल जाएंगे तो भी वह ‍जीवित नहीं रह पाएगा। कहानी है बॉस (नसीरुद्दीन शाह) की जो एक केसिनो गोआ में चलाता है। फ्रांसिस (सचिन जोशी), माया (सनी लियोन), एंथनी (भारत निवास) और कीर्ति (एल्विस मैस्केरेनहास) के साथ वह एक प्लान बनाता है कि वे गलत तरीकों से उसके केसिनो में पांच करोड़ रुपये का जैकपॉट जीत जाए। इस रकम की चोरी करवा दी जाएगी और यह रकम वे बीमा कंपनी से वसूलेंगे। दूसरी ओर फ्रांसिस अपने प्लान के जरिये बॉस के साथ फरेब कर देता है, जिसे देख अभिषेक बच्कन अभिनीत 'ब्लफमास्टर' फिल्म की याद आती है। लेकिन 'जैकपॉट' की तुलना में 'ब्लफमास्टर' महान फिल्म थी। कैजाद की काबिलियत पर पैसा लगाने का साहस सचिन जोशी ने किया है। सचिन बेहद पैसे वाले हैं और स्क्रीन पर अपना चेहरा देखने का उन्हें शौक है। लिहाजा खुद पैसा लगाते हैं और फिल्म बनाते हैं। ये एक अमीर व्यक्ति का शौक है, जिससे कैजाद जैसे निर्देशकों को काम मिल जाता है, लेकिन जेब दर्शक की कट जाती है। सचिन अभिनय का 'क ख ग' भी नहीं जानते हैं। न उनकी शख्सियत हीरो जैसी है और आवाज में भी जोर नहीं है। पूरी फिल्म में मिसफिट नजर आए। सनी लियोन को फिल्म में क्यों रखा जाता है, इसका जवाब सभी जानते हैं। अभिनय के मामले में वे अभी भी उतनी ही कच्ची हैं जितनी 'जिस्म 2' में थीं। संवाद बोलते ही उनकी पोल खुल जाती है क्योंकि संवाद के अनुरूप चेहरे पर भाव नहीं आते हैं। कैजाद गुस्ताद की यह बात तो माननी पड़ेगी कि बड़े कलाकारों को अपनी फिल्म में राजी करने की प्रतिभा उनमें हैं। 'बूम' में अमिताभ को राजी कर लिया था तो 'जैकपॉट' में नसीरुद्दीन शाह को। नसीर ने काम तो अच्छा किया है, लेकिन उनके जैसे काबिल अभिनेता को इस घटिया फिल्म में देखना दु:खद है। क्या नसीर को अभी भी कुछ सिद्ध करने की जरूरत है जो उन्होंने 'जैकपॉट' के लिए हामी भरी। जैकपॉट फिल्म हर डिपार्टमेंट में घटिया है। इसका सबसे अच्छा हिस्सा वो है जब स्क्रीन पर 'द एंड' लिखा आता है। बैनर : वाइकिंग मीडिया एंड एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : रैना सचिन जोशी निर्देशक : कैजाद गुस्ताद संगीत : शरीब साबरी, तोशी साबरी कलाकार : सनी लियोन, सचिन जोशी, नसीरुद्दीन शाह, मकरंद देशपांडे सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 32 मिनट ",0 "सुजॉय घोष द्वारा निर्देशित फिल्म 'कहानी' (2012) बॉलीवुड में बनी बेहतरीन थ्रिलर मूवीज़ में से एक है। सुजॉय ने साबित किया कि बिना चेजिंग सीन, गन, स्टाइलिश लुक और लार्जर देन लाइफ के भी एक थ्रिलर फिल्म बनाई जा सकती है। वही सुजॉय, विद्या बालन और बंगाल एक बार फिर 'कहानी 2 : दुर्गा रानी सिंह' में लौट आए हैं। कहानी पार्ट टू में नई कहानी और किरदार हैं। विद्या बागची इस बार विद्या सिन्हा (विद्या बालन) है। कोलकाता से 35 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे चंदननगर में अपनी 14 वर्षीय बेटी मिनी (नायशा खन्ना) के साथ रहती है। मिनी चल नहीं पाती है और उसके इलाज के लिए विद्या पैसा इकट्ठा कर अमेरिका जाना चाहती है। एक दिन मिनी का अपहरण हो जाता है और विद्या बदहवास होकर उसे ढूंढने निकलती है। रास्ते में वह दुर्घटना का शिकार होकर कोमा में पहुंच जाती है। मामले की जांच के लिए इंस्पेक्टर इंद्रजीत सिंह (अर्जुन रामपाल) अस्पताल पहुंचता है और वह विद्या की पहचान दुर्गा रानी सिंह के रूप में करता है। दुर्गा एक अपराधी है जिसकी पुलिस को लंबे समय से तलाश है। उस पर अपहरण और हत्या का आरोप है। क्या विद्या और दुर्गा एक ही है? दुर्गा अपराधी क्यों बनी? इंद्रजीत सिंह उसे कैसे जानता है? जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है गुत्थियां सुलझती जाती हैं। फिल्म की कहानी सुजॉय घोष और सुरेश नायर ने मिलकर लिखी है जबकि स्क्रीनप्ले और निर्देशन सुजॉय घोष का है। फिल्म की शुरुआत बेहतरीन है। अलसाया सा चंदननगर और विद्या बालन का दमदार अभिनय फिल्म के मूड को सेट कर देता है। पहली फ्रेम से ही विद्या साबित कर देती है कि वह अपनी बेटी को कितना चाहती है। शुरुआती पंद्रह-बीस मिनट में जब आप सिनेमाघर की कुर्सी पर अपने आपको एडजस्ट करते हैं तब तक फिल्म में तेजी से घटनाक्रम घट जाते हैं। मिनी का अपहरण, विद्या का एक्सीडेंट और यह प्रश्न भी सामने आता है कि यह विद्या है या दुर्गा? अपनी इस तेज गति से निर्देशक चौंका देते हैं। इसके बाद फिल्म थोड़ा थमती है। कहानी आठ साल पीछे जाती है। विद्या के अतीत से पर्दा हटाती है। कहानी पश्चिम बंगाल के हिल स्टेशन कलिम्पोंग में शिफ्ट हो जाती है। यहां पर कहानी की इमोशन अपील बढ़ जाती है। बाल यौन शोषण वाला मुद्दा दर्शकों को परेशान करता है। आप सिहर जाते हैं। फर्स्ट हाफ तक निर्देशक सुजॉय घोष कमाल करते हैं। स्क्रिप्ट एक दम कसी हुई लगती है, लेकिन जैसे ही दूसरा हाफ शुरू होता है स्क्रिप्ट में क्रैक उभरने लगते हैं और सुजॉय के हाथों फिल्म फिसलने लगती है। स्क्रिप्ट की यहां ज्यादा बात इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे रहस्य की परतें उजागर हो जाएंगी, लेकिन यह कहा जा सकता है कि सेकंड हाफ में 'कहानी 2' फिल्मी होने लगती है और कुछ बातें अधूरी लगती हैं। जैसे- आठ साल तक विद्या कैसे पुलिस से बचती रही? मिनी के अपहरण का मकसद मात्र मिनी और विद्या की हत्या ही था तो उसका अपहरण क्यों किया गया? क्यों विद्या की असली पहचान पुलिस को अपहरणकर्ता ने नहीं बताई? विद्या और इंद्रजीत की शादी वाली बात फिल्म की कमजोर कड़ी है और इसे बहुत हल्के से लिया गया है। बाल यौन शोषण वाला ट्रैक थोड़ा लंबा हो गया है जो दर्शकों में उदासी पैदा करता है। स्क्रिप्ट की खूबियों की बात की जाए तो विद्या और मिनी के रिश्ते को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। मिनी के प्रति विद्या के प्यार को आप महसूस करते हैं। तनाव से भरी और उदास फिल्म में इंद्रजीत तथा उसकी पत्नी के बीच के प्रसंग थोड़ी राहत देते हैं। कहा नी-2 के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें स्क्रिप्ट की कमियों के बावजूद यदि फिल्म आपको बांध कर रखती है तो इसका श्रेय सुजॉय घोष के निर्देशन और विद्या बालन के अभिनय को जाता है। सुजॉय ने रियल लोकेशन पर शूटिंग की है जो कहानी को वास्तविकता के नजदीक ले जाता है। थ्रिलर फिल्म के लिए उन्होंने अच्छा माहौल बनाया है। चंदननगर, कलिम्पोंग, कोलकाता और बांग्ला संस्कृति को आप महसूस करते हैं। सुजॉय का प्रस्तुतिकरण शानदार है। स्क्रिप्ट की कमजोरी के कारण दूसरे हाफ में सुजॉय असहाय हो जाते हैं और फिल्म कही-कही बनावटी हो जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स ऐसा नहीं है जो सभी को अच्छा लगे, इस पर बहस हो सकती है। विद्या बालन ने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। एक ऐसी मां जो अपनी बेटी को बचाने के लिए कुछ भी कर सकती है, अन्याय न सहने वाली और किसी भी हद तक जाने वाली महिला का किरदार उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और वे फिल्म की 'हीरो' हैं। अर्जुन रामपाल भी अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं तो इसका श्रेय निर्देशक सुजॉय घोष को जाता है कि उन्होंने अर्जुन से एक्टिंग करा ली है। नायशा खन्ना, जुगल हंसराज, खरज मुखर्जी, कौशिक सेन और मनिनी चड्ढा अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक तारीफ के काबिल है। पार्श्व में बजते पुराने गीत और वातावरण में होने वाले कोलाहल का अच्छा प्रयोग किया गया है। कहानी 2 एक डार्क मूवी है। जिसमें थोड़ा रहस्य है, थोड़ा रोमांच है, कुछ खूबियां हैं तो कुछ कमजोरियां। फिल्म बहुत अच्छी नहीं है तो इतनी खराब भी नहीं कि देखी भी न जा सके। निर्माता : सुजॉय घोष, जयंतीलाल गढ़ा निर्देशक : सुजॉय घोष संगीत : क्लिंटन केरेजो कलाकार : विद्या बालन, अर्जुन रामपाल, जुगल हंसराज, मनिनी चड्ढा, नायशा खन्ना, कौशिक सेन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 मिनट 55 सेकंड्स ",1 "'उम्मीद पे दुनिया कायम है' और उम्मीद की यही डोर निर्देशक सुदीप बंदोपाध्याय की फिल्म 'होप और हम' में तमाम कलाकारों को एक माला में बांधे रखती है। कहानी में हर किरदार किसी न किसी उम्मीद की आस में है और फिल्म के क्लाइमेक्स में जब हर किसी की उम्मीद पूरी होती है, तो आप खुद उम्मीद के उन टुकड़ों के साथ सिनेमा हॉल से विदा लेते हैं। कहानी बहुत ही सिंपल है। नागेश श्रीवास्तव (नसीरुद्दीन शाह) यूं तो बहुत ही समझदार और जिम्मेदार बुजुर्ग हैं, मगर जब उनकी बाबा आदम के जमाने की फोटोकॉपी मशीन को रिटायर करने की बात आती है, तो वे बच्चों की तरह उसे बचाए रखने की तिकड़म करने लगते हैं। असल में इस फोटोकॉपी मशीन ने उनके संघर्ष के दौर में परिवार को संबल और सुरक्षा दी थी। नागेश का बेटा नीरज (आमिर बशीर) प्रमोशन की जद्दोजहद में लगा है, जबकि उसकी पत्नी (सोनाली कुलकर्णी) चाहती है कि उसके ससुर उस मशीन को अलविदा कहकर उस जगह को बेटी के पढ़ने का कमरा बना दें। फोटोकॉपी मशीन से जुड़े नागेश के जज्बातों को सिर्फ उसका नन्हा पोता अनु (कबीर साजिद) ही समझ पाता है। नागेश को उम्मीद है कि पुरानी मशीन का खराब हो चुका पुर्जा कहीं न कहीं जरूर मिल जाएगा। उसी बीच नागेश का छोटा बेटा नितिन (नवीन कस्तुरिया) दुबई से अपने पिता के लिए नई-नकोर और अडवांस फोटोकॉपी मशीन लाता है और उसी दौरान उसका मंहगा फोन खो जाता है। यहां नानी के घर गए अनु से एक भूल हो जाती है और अब वो उस भूल को सुधारने की उम्मीद लगाए बैठा है। निर्देशक सुदीप बंदोपाध्याय की होप और हम ने कहानी में कई लेयर्स और मुद्दों को गूंथा है। उन्होंने फिल्म में उम्मीद के साथ-साथ किस्मत के फलसफे को भी बयान करने का प्रयास किया है। उनके किरदार सच्चे और सहज नजर आते हैं, मगर फिल्म में कई जगह वे अपनी पकड़ खो देते हैं और कहानी सपाट लगने लगती है। फिल्म को स्क्रीनप्ले की सहायता से और दिलचस्प बनाया जा सकता था, हां फिल्म में कुछ हलके-फुलके पल हैं, जो मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं। नसीरुद्दीन शाह ने हमेशा की तरह अपने किरदार को सहज रखा है। वे नागेश श्रीवास्तव के रोल में विश्वसनीय लगे हैं। वहीं, उनके साथ बाल कलाकार कबीर साजिद ने उम्दा अभिनय किया है। नन्हे कबीर ने अपने बाल मानसिक द्वंद्व को बखूबी दर्शाया है। सोनाली कुलकर्णी के रोल में करने जैसा कुछ नहीं था। उन जैसी सशक्त अभिनेत्री के हिस्से में बेहतर सीन होते, तो कहानी संवर सकती थी। आमिर बशीर और नितिन कस्तुरिया ठीक-ठाक लगे हैं। फिल्म में संगीतकार रूपर्ट फर्नांडिस संगीत पक्ष को कर्णप्रिय नहीं बना पाए। क्यों देखें-पारिवारिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",1 " Made with a whopping 150 crore budget, shivaay is very close to ajay devgan's heart. Ajay started working on shivvay last year and to give his 100 percent to the film, he even said no to two other projects. ajay feels a different connection with lord shiva since his childhood and perhaps this is the reason he left no stone unturned to make this beautiful film. The film has been shot in the scenic paradise of snowy bulgaria. this terrain is so tough that even the native filmmakers hesistate in shooting there. polish sensation Errica Kar is playing the lead actress in shivaay. ajay wanted to shoot the movie in canada initially.it was snowing heavily in canda when he reached there with his crew, and it adversely affected film's budget. after this setback, bulgaria came into the picture. 'शिवाय' का रिव्यू हिन्दी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। As far as the movie is concerned, his role as an actor and producer of the film is worth its part. however, direction of the film seems weak. film begins slowly and takes time to develop. Love connection between the lead pair is ineffective. After the interval, the film focuses on the father-daughter relationship and drastically it turns into a hardcore action thriller. You see blood all around. you as a viwer, somehow fail to absorb this 'action-emotion' complexity. story: Film starts with injured shivvay with three dead bodies around. he is holding a doll and film goes in flashback mode. Shivaay lives in a village of uttarakhand. apart from helping indian army in adverse situation, shivaay takes tourists trekking prjects. Olga (errica kar) comes here on a trekking trip with few of her friends. shivaay comes for her rescue in an avalanche and they come close to each other. Olga stays in the village for quite some time and here she realizes that she is pregnant. Olga wants to return to her family in bulgaria and therefore she is not willing to continue with her pregnancy. Shivaay, on the other side, is too happy with the idea of his own kid and wants volga to give birth to the baby. finally olga gives birth to a girl and goes back to her country. Shivaay names the baby gaura. gaura is unable to speak, but the father-daughter duo are living happily in their small village. One fine day gaura comes to know about her mother and she insisted to go to her. Shivvay finally agrees to this deal and they reach bulgaria. As soon as they reack there, gaura gets kidnapped.",1 "आम आदमी के हीरो पर फिल्में बनाने का ट्रेंड बॉलिवुड में पुराना है, लेकिन भावेश जोशी आम आदमी से सुपरहीरो बनने की कहानी है। यह कोई सुपर पावर वाला सुपर हीरो नहीं है, बल्कि आम आदमी का बिना सुपर पावर वाला सुपर हीरो है, जिसकी ताकत उसका जज़्बा है। फिल्म में भावेश जोशी (प्रियांशु पैन्यूली ) अपने दोस्तों सिकंदर उर्फ सिक्कू ( हर्षवर्धन कपूर) और आशीष वर्मा के साथ कॉलेज में पढ़ता है। फिल्म की शुरुआत अन्ना आंदोलन के बैकग्राउंड में होती है, जहां ये दोस्त भी देश भर के युवाओं की तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरते हैं और भावेश और सिक्कू मिलकर इंसाफ नाम का सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म शुरू करते हैं, लेकिन आंदोलन फेल हो जाता है। जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ने लगती है और सिक्कू इंजिनियर बनकर नौकरी शुरू कर देता है। वहीं भावेश अब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ना चाहता है। सिक्कू को विदेश जाने का ऑफर मिलता है। पासपोर्ट बनवाने के लिए उसे न चाहते हुए भी रिश्वत देनी पड़ती है। वहीं भावेश को मुंबई के पानी माफिया के खिलाफ शिकायत मिलती है। जब भावेश को पता लगता है कि सिक्कू ने रिश्वत दी है, तो उनमें झगड़ा हो जाता है। सिक्कू भावेश का विडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर देता है, तो माफिया के आदमी उसकी पिटाई कर देते हैं। भावेश फिर भी नहीं मानता और पानी माफिया के खिलाफ जुटाने जाता है, तो उसकी हत्या हो जाती है। अपने दोस्त की मौत का बदला लेने के लिए सिक्कू दुनिया की नज़र में विदेश जाकर खुद भावेश जोशी सुपरहीरो का रूप धारण करता है, लेकिन वह विलन बने निशिकांत कामत से बदला ले पाता है या नहीं, यह देखने के लिए आपको सिनेमा घर जाना होगा।भावेश जोशी भ्रष्टाचार के खिलाफ युवा आक्रोश की कहानी कहती है। डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवाने ने लीक से हटकर फिल्म बनाई है। हालांकि ढाई घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई है। एडिटिंग टेबल पर फिल्म को 20-25 मिनट काम किया जा सकता था। हर्षवर्धन कपूर इससे पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा की मिर्जिया में नजर आ चुके हैं, लेकिन फिल्म कुछ खास नहीं कर पाई थी। अबकी बार भी उन्होंने लीक से हटकर फिल्म चुनी है। करियर की शुरुआत में वह एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं। फिल्म में हर्षवर्धन ने ठीकठाक ऐक्टिंग की है। वहीं प्रियांशु पैन्यूली ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म की कहानी अनुराग कश्यप और खुद विक्रमादित्य मोटवाने ने लिखी है, जो कि अपनी लीक से हटकर कहानियों को कहने के लिए जाने जाते हैं। भावेश जोशी देखते वक़्त आपको अक्षय कुमार की गब्बर भी याद आती है। अगर आप लीक से हटकर फिल्में देखना पसंद करते हैं, तो इस फिल्म को देख सकते हैं।",0 "भारत में कई आपराधिक मामले ऐसे हैं जिनमें अपराधी तक पुलिस पहुंचने में नाकाम रही। ऐसा नहीं है कि अपराधी बहुत चालाक है बल्कि पुलिस और जांच कर रही एजेंसी की लापरवाही के कारण भी ऐसा होता है। 2008 में नोएडा में आरूषि तलवार और हेमराज के मर्डर केस पर मेघना गुलजार की फिल्म 'तलवार' आधारित है और फिल्म दर्शाती है कि यदि पुलिस शुरुआत में लापरवाही नहीं बरतती तो मामला उतना उलझता नहीं। प्रारंभिक तौर पर 'ओपन एंड शट केस' मानकर पुलिस अतिआत्मविश्वास का शिकार हो गई। इस दोहरे हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था क्योंकि एक मध्यमवर्गीय परिवार के घर में ये घटना हुई थी। लोग स्तब्ध थे कि कैसे एक डॉक्टर पिता अपनी 14 वर्षीय बेटी की हत्या कर सकता है और उसकी मां भी इस अपराध में शामिल है? लेकिन धीरे-धीरे इस नजरिये में बदलाव आया क्योंकि माता-पिता के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। कोर्ट ने फैसला सुना दिया है, लेकिन इस फैसले के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह शत-प्रतिशत सही है। अभी भी मामला चल रहा है। 'तलवार' फिल्म को बेहद रिसर्च करके लिखा गया है और इस फिल्म के रियल हीरो लेखक विशाल भारद्वाज हैं। उन्होंने हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया और फिर स्क्रिप्ट लिखी। फिल्म में इस मामले से जुड़े हर शख्स के नजरिये को दिखाया गया है। फिल्म में श्रुति नामक लड़की का मर्डर हुआ है। उस रात क्या हुआ इसका विवरण श्रुति के माता-पिता के नजरिये से दिखाया गया, फिर बताया गया कि पुलिस ने जांच कर क्या निष्कर्ष निकाला, और अंत में सीडीआई (सीबीआई की जगह) का पक्ष। सीडीआई का अधिकारी अश्विन (इरफान खान) मामले की जांच करता है और उसे यह साबित करने में सफलता हासिल कर कर जाती है कि मर्डर घर के नौकर खेमराज के दोस्त ने किया है, लेकिन लैब की रिपोर्ट ऐन मौके पर बदल जाती है। फिर वह अपने ही ऑफिस के सहयोगियों की ईर्ष्या का कारण बन जाता है। जांच का जिम्मा दूसरे ऑफिसर को दिया जाता है जो साबित करता है कि श्रुति का मर्डर उसके ही माता-पिता ने किया है। यानी कि यह मामला अधिकारियों के ईगो का प्रश्न बन जाता है और उस लड़की के प्रति उनकी कोई संवेदना नहीं रहती है जो अपनी जान से हाथ धो बैठती है। 'तलवार' सभी पक्ष को दिखाती है, लेकिन फिल्म कही ना कही तलवार दंपत्ति का पक्ष लेती है और इस बात को छिपाया भी नहीं है। तलवार के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें 'तलवार' देखते समय आपके दिमाग में लगातार विचार चलते हैं और यह सि‍लसिला फिल्म खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होता। इसे देख गुस्सा भी आता है और शर्म भी आती है। फिल्म में एक सीन है जिसमें सीडीआई के ऑफिसर्स की दोनों टीमें बैठी हैं जो इस केस को लेकर अलग-अलग निर्णय पर पहुंची हैं। वे इस मामले को लेकर चुटकुले सुनाते हैं और हंसते हैं। यह दृश्य कई बातें बोलता है। मेघना गुलजार के लिए यह फिल्म निर्देशित करना आसान नहीं रहा होगा। कही यह डॉक्यूमेंट्री न बन जाए या ड्रामा रचने में विषय की गंभीरता न खत्म हो जाए, इस दोधारी तलवार से वे बच निकलीं। कुछ बातें ऐसी हैं जो फिजूल की हैं जैसे इरफान और तब्बू वाला ट्रेक, जिसे शायद दर्शकों को राहत देने के लिए रखा गया है जो बिलकुल प्रभावित नहीं करता। कई बार उनकी कल्पनाशीलता का अभाव भी झलकता है, लेकिन कुल मिलाकर यह कठिन फिल्म है जिसे बनाना आसान नहीं है। बावजूद इसके मेघना तारीफ के काबिल हैं। फिल्म के हर कलाकार का अभिनय बेहतरीन है। अफसोस इस बात का है कि नीरज कबी और कोंकणा सेन शर्मा जैसे समर्थ कलाकारों का ज्यादा उपयोग नहीं हो पाया। 'तलवार' हर दर्शक वर्ग के लिए है और इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। बैनर : जंगली पिक्चर्स, वीबी पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विनीत जैन, विशाल भारद्वाज निर्देशक : मेघना गुलजार संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इरफान खान, कोंकणा सेन शर्मा, सोहम शाह, नीरत कबी, तब्बू सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 20 सेकंड ",1 "सीरिज में बनने वाली फिल्में तीसरी-चौथी कड़ी तक बासी लगने लगने लगती है, लेकिन 'मिशन इम्पॉसिबल' इसका अपवाद है। इस सीरिज के पांचवे भाग में भी ताजगी नजर आती है। अंग्रेजी में यह 'मिशन इम्पॉसिपल : रोग नेशन' तथा हिंदी में 'मिशन : इम्पॉसिबल - दुष्ट राष्ट्र' के नाम से रिलीज हुई है। इस बार स्क्रिप्ट की बुनावट बहुत ही अच्छे तरीके से की गई है और यह फिल्म पूरे समय आपको बांध कर रखती है। ट्रेलर में टॉम क्रूज के प्लेन पर लटकने वाला सीन देख लगा कि यह क्लाइमैक्स में होगा, लेकिन फिल्म की शुरुआत ही इससे होती है और फिल्म का स्तर एकदम ऊंचा उठ जाता है। ईथन हंट (टॉम क्रुज) के नेतृत्व में काम करने वाला 'मिशन इम्पॉसिबल फोर्स' बेलारूस के मिंस्क के एयरपोर्ट में घुस जाता है ताकि केमिकल हथियारों की खेप को आने से रोका जा सके। जब तकनीकी विशेषज्ञ बेंजी डन (सिमॉन पेग) प्लेन को उड़ने से रोकने में असफल हो जाता है, तब अचानक ईथन की एंट्री एकदम सुपरहीरो की स्टाइल में होती है और वह प्लेन से लटक जाता है। ईथन प्लेन में घुस जाता है और कार्गो के साथ निकल जाता है। कुछ समय बाद, सीआईए प्रमुख एलन 'मिशन इम्पोसिबल फोर्स' की बुराई कर इसे खत्म कर देना चाहता है। उसके अनुसार यह फोर्स अनियंत्रित है और एक साल पहले क्रेमलिन पर हुए हमले का दोषी है। हालांकि विलियम ब्रैंड्ट (जेरेमी रेनर) इस बात का विरोध करता है, लेकिन मिशन इम्पॉसिबल फोर्स के सारे काम बंद कर दिए जाते हैं। ईथन की खोज शुरू कर दी जाती है जो इस घटना के बाद गायब हो जाता है, लेकिन वह गुपचुप तरीके अपने मिशन में लगा रहता है। ईथन, लुथर, विलियम और बेंजी एक साथ जुड़कर सिंडीकेट (पुराने बदमाशों के एक समूह) के खिलाफ काम करना शुरू कर देते हैं। इस काम में इल्सा (रेबेका फर्ग्युसन) नामक एजेंट उसकी मदद करती है, जिसकी पहचान से ईथन अनजान है। प्लेन के एक शानदार स्टंट के बाद फिल्म थोड़ा उलझाती है। जिस तरह से ईथन को कुछ समझ नहीं आता कि उसके साथ क्या और क्यों हो रहा है, वही हाल दर्शकों का होता है। पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है और परत दर परत राज खुलने लगते हैं, जिससे दर्शकों की रूचि फिल्म में बढ़ने लगती है। स्क्रिप्ट की यह खासियत है कि आगे क्या होने वाला है इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। फिल्म का विलेन, हीरो से एक चाल आगे रहता है। आमतौर पर इस तरह की फिल्मों में महिला किरदार सिर्फ ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखे जाते हैं, लेकिन रेबेका का किरदार इतना बढ़िया तरीके से लिखा गया है कि अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वे ईथन के साथ हैं या उसके खिलाफ। फिल्म में एक्शन कम है, और एक्शन प्रेमियों को इसकी कमी खल सकती है, लेकिन दो सीक्वेंस ऐसे हैं जो एक्शन प्रेमियों को खुश कर देते हैं। इनमें फिल्म की शुरुआत में प्लेन वाला सीन और उसके बाद मोरक्को में फिल्माया गया कार और बाइक का चेज़ सीक्वेंस। पानी के अंदर फिल्माया गया घटनाक्रम इतना रोमांचक है कि ईथन के साथ-साथ दर्शकों की सांस भी रूक जाती है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के अपहरण वाला घटनाक्रम भी जबरदस्त है। निर्देशक क्रिस्टोफर मैक्वरी ने अपने प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह का है कि दर्शक आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा नहीं लगा सके। शुरुआत में उन्होंने दर्शकों को उलझाया है और फिर धीरे-धीरे ईथन के मिशन को दिलचस्प बनाया है। विलेन को यदि और बेहतर तरीके से पेश किया जाता तो बेहतर होता। साथ ही कुछ जगहों पर फिल्म को खींचा गया है। 53 वर्ष की उम्र में भी टॉम क्रूज 35 के नजर आते हैं। गौरतलब है कि प्लेन वाला स्टंट उन्होंने किया है। फिल्म के किरदार को जो लार्जर देन लाइफ वाला करिश्मा चाहिए था, उस कसौटी पर टॉम खरे उतरते हैं। जेरेमी रेन, सिमॉन पेग उम्दा कलाकार हैं और उन्हें भी निर्देशक ने अच्छे फुटेज दिए हैं। रेबेका फर्ग्युसन का रोल और अभिनय प्रभावी है। उन्होंने भी एक्शन और स्टंट्स शानदार तरीके से किए हैं। तकनीकी रूप से भी फिल्म प्रभावी है। सिनेमाटोग्राफी ऊंचे दर्जे की है। टॉम क्रूज, उतार-चढ़ाव से भरपूर कहानी, शानदार अभिनय और स्टाइलिश एक्शन के कारण मिशन इम्पॉसिबल रोग नेशन का देखना बनता है। निर्देशक : क्रिस्टोफर मैक्वरी कलाकार : टॉम क्रूज़, जर्मी रैनर, सिमन पेग, रेबेका फर्ग्युसन, सीन हैरिस ",1 "बैनर : एस. स्पाइस स्टुडियोज़, प्लेटाइम क्रिएशन्स, ग्रेजिंग गोट प्रोडक्शन्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अक्षय कुमार, अश्विनी यार्डी, परेश रावल निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : हिमेश रेशमिया, अंजान-मीत ब्रदर्स, सचिन-जिगर कलाकार : अक्षय कुमार, परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, महेश मांजरेकर, गोविंद नामदेव, सोनाक्षी सिन्हा-प्रभुदेवा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 12 मिनट ओह माय गॉड भ गवान के खिलाफ न होकर उनके नाम पर व्यवसाय चलाने वालों के खिलाफ है। धर्म का भय बताकर धर्म के नाम पर जो लूट-खसोट की जा रही है उन लोगों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें बेनकाब करने की कोशिश की गई है। आस्था के नाम पर अंधे बने हुए लोग भी कम दोषी नहीं हैं। मंदिरों में चढ़ावे के नाम पर पैसे, हीरे-जवाहरात, मुकुट, सिंहासन चढ़ाए जाते हैं जिनकी कीमत सुन हम दंग रह जाते हैं। एक तरफ भोजन के अभाव में लोग भूखे मर रहे हैं तो दूसरी ओर लीटरों दूध भगवान पर चढ़ाया जा रहा है जो मंदिर से निकलकर गटर में मिल जाता है। लोगों को तन ढंकने के लिए चादर नहीं है और दरगाह में चादर चढ़ाई जाती हैं। कुछ साधु-संत भगवान का रूप बने हुए हैं, सोने के सिंहासन पर वे बैठते हैं, लाखों की कार में घूमते हैं और शानो-शौकत में राजा-महाराजाओं को पीछे छोड़ते हैं। इन लोगों के नकाब खींचने का काम ‘ओह माय गॉड’ करती है। धर्मभीरू लोग इतने डरे हुए हैं कि हजारो वर्ष पुरानी परंपराओं का पालन बिना सोचे-समझे अभी भी कर रहे हैं। उन्होंने यह बात अपने माता-पिता से सीखी है और इसे वे अपने बच्चों को भी सिखाते हैं। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि ये परंपराएं उस कालखंड में उस दौर के सामाजिक दशा को देखकर बनाई गई थी, जिनका वर्तमान में कोई महत्व नहीं है। रीतियां कुरीति बन चुकी हैं। भगवान से सौदे किए जाते हैं कि तुम मेरा ये काम कर दोगे तो मैं इतने रुपये चढ़ाऊंगा, उपवास करूंगा। ताबीज पहन कर, अंगुठियों में पत्थर पहन कर समझा जा रहा है कि उनका भविष्य सुधर जाएगा। ताज्जुब की बात तो ये है कि ये अनपढ़ नहीं बल्कि पढ़े-लिखे लोग भी कर रहे हैं जबकि आस्थाएं पाखंड में बदल चुकी हैं और अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं। सभी साधु-संतों को ढोंगी नहीं बताया गया है। फिल्म में एक संत ऐसा है जो ढोंगियों को पोल देखते हुए बहुत खुश होता है। फिल्म में बताया गया है कि गीता, कुरान और बाइबल को समझे बिना लोग धर्म की अपने तरीके से व्याख्या कर रहे हैं। कांजी मेहता के किरदार से इतनी गंभीर बातें बेहद हल्के-फुल्के तरीके से फिल्म में दिखाई गई है। मोटे तौर पर सोचा जाए तो भगवान को मानना भी एक तरह का अंधविश्वास है। लेकिन फिल्म में भगवान को भी दिखाया गया है और इसको लेकर कुछ लोगों को आपत्ति भी हो सकती है। खैर, भगवान यहां खुद खुश नहीं है कि उनके नाम पर किस तरह अंधविश्वास फैल चुका है। कांजी भाई की भूकंप में दुकान बरबाद हो जाती है और इंश्योरेंस कंपनी इसे ‘एक्ट ऑफ गॉड’ करार देते हुए हर्जाना देने से इंकार कर देती है। कांजी भाई भगवान के खिलाफ मुकदमा दायर करते हैं कि यदि उन्होंने उनकी दुकान बरबाद की है तो उन्हें हर्जाना देना पड़ेगा। कोर्ट का ंज ी भाई को कहती है कि वे भगवान होने का सबूत दें। कांजी भाई सभी धर्मों के पंडित, मौलवी और पादरी को लीगल नोटिस भेजते हैं। गुजराती नाटक ‘कांजी विरुद्ध कांजी’ और हिंदी नाटक ‘किशन वर्सेस कन्हैया’ पर यह फिल्म आधारित है। यह एक ऐसा विषय है जिसे ‍एक फिल्म में समेट पाना बेहद मुश्किल काम है। ‘ओह माय गॉड’ में भी कई बातें अनुत्तरित रह जाती है। कई जगह फिल्म दिशा भटक जाती है, लेकिन फिर भी यह फिल्म अपना मैसेज देने में कामयाब रहती है। खुद लेखक इस बात को जानते हैं कि कुछ लोगों की सोच इस फिल्म को देख बदल सकती है, लेकिन ये असर ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएगा। इसीलिए फिल्म के अंत में परेश रावल से संत बने मिथुन चक्रवर्ती कहते हैं कि धर्म और आस्था अफीम के नशे की तरह है, जिन लोगों की सोच तुमने बदली है थोड़े दिनों बाद मेरे आश्रमों में नजर आएंगे। मिथनु, पूनम झावर और गोविंद नामदेव के किरदार रियल लाइफ से प्रेरित हैं। किससे प्रेरित हैं, यह पता करने में ज्यादा देर नहीं लगती है। निर्देशक उमेश शुक्ला के पास नाटक तैयार था और उसको उन्होंने स्क्रीन पर अच्छे से उतारा। कलाकारों का चयन सटीक है जिससे उन्हें फिल्म को बेहतर बनाने में आसानी रही। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां हैं, लेकिन धर्म को लेकर हजारों सालों से बहस चली आ रही है इसलिए लेखक को दोष देना गलत होगा। ‍अंत में परेश रावल को बीमार करना और भगवान के चमत्कार से ठीक होना फिल्म को कमजोर करता है। फिल्म के कुछ संवाद तीखे हैं जो कुछ लोगों को चुभ सकते हैं। परेश रावल इस फिल्म के हीरो हैं। कांजी भाई के रूप में किसी और को सोचना मुश्किल है। परेश की एक्टिंग की खास शैली है और उसी शैली में उन्होंने कांजी भाई का रोल निभाया है। अक्षय कुमार का रोल बेहद छोटा है, लेकिन भगवान के रूप में वे प्रभावित करते हैं। इस रोल के लिए जो सौम्यता और चेहरे पर शांति का भाव चाहिए था वो उनके चेहरे पर नजर आता है। मिथुन चक्रवर्ती ने अपनी ‘अदाओं’ से दर्शकों को हंसाया है और उन्होंने अपने किरदार को अश्लील नहीं होने दिया है। गोविंद नामदेव की एक्टिंग लाउड है, लेकिन उनके किरदार पर सूट होती है। पूनम झावेर को कम फुटेज मिले। सोनाक्षी सिन्हा और प्रभुदेवा पर फिल्माया गया आइटम सांग ‘गो गो गोविंदा’ शानदार कोरियोग्राफी के कारण देखने लायक है। ‘ओह माय गॉड’ धर्मभीरू लोगों को यह बात सिखाती है कि भगवान से डरो नहीं बल्कि उनसे प्यार करो और इंसानियत को ही सबसे बड़ा धर्म मानो। ",1 " बैंड को जोड़ा गया है जेल से। जहां एक प्रतियोगिता के लिए लखनऊ सेंट्रल जेल का बैंड तैयार होता है जिसमें कैदी परफॉर्म करने वाले हैं। कैदियों का प्लान है कि इस तैयारी की आड़ में जेल से भाग निकला जाए। एक हत्या के आरोप में किशन लखनऊ सेंट्रल जेल में सजा काट रहा है और वहां बैंड बनाता है। उसके बैंड में दिक्कत अंसारी, विक्टर चटोपाध्याय, पुरुषोत्तम पंडित और परमिंदर शामिल हैं। किस तरह वे प्लानिंग करते हैं? क्या जेल से भाग निकलने में कामयाब होते हैं? यह फिल्म का सार है। आइडिया अच्छा था, लेकिन इस आइडिये पर लिखी कहानी दमदार नहीं है। रंजीत तिवारी और असीम अरोरा द्वारा लिखी कहानी बहुत फॉर्मूलाबद्ध है। जैसे बैंड में अलग-अलग धर्म के लोग है। जेल में कैदियों का आपसी संघर्ष है। फिल्म में एक हीरोइन भी होना चाहिए तो गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) का किरदार भी रखा गया है, जिसके किरदार को ठीक से फिट करने के लिए सिचुएशन भी नहीं बनाई गई। फिल्म के लेखन में कई कमजोरियां भी हैं। किशन को जिस तरह से जेल में डाला गया और निकाला गया वो बेहद सतही है। जेल के अंदर का ड्रामा भी बेहद बोर है। किरदारों का परिचय कराने और बैंड की तैयारियों में बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं कि यह दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। समझ में नहीं आता कि मुद्दे पर आने में इतना ज्यादा समय क्यों खर्च किया गया? जेल के अंदर रह कर किशन और उसके साथी जेल से भागने की तैयारी करते हैं वो भी विश्वसीनय नहीं है। लखनऊ सेंट्रल जेल का जेलर राजा श्रीवास्तव (रोनित रॉय) को बेहद खूंखार बताया गया है। वह यह बात सूंघ लेता है कि ये कैदी भागने की तैयारी में है, इसके बावजूद वह कड़े कदम क्यों नहीं उठाता समझ के परे है। किशन और उसके साथी बड़ी आसानी से कपड़े जुटा लेते हैं, नकली चाबी बना लेते हैं, कुछ धारदार चीजें प्राप्त कर लेते हैं। फिल्म अंतिम कुछ मिनटों में ही गति पकड़ती है जब ये कैदी जेल से भागने की तैयारी में रहते हैं, लेकिन तब तक फिल्म में दर्शक अपनी रूचि खो बैठते हैं और चाहते हैं कि फिल्म खत्म हो और वे सिनेमाघर की कैद से मुक्त हों। रंजीत तिवारी का निर्देशन औसत है। उन्होंने बात कहने में ज्यादा समय लिया है। फिल्म को वे न मनोरंजक बना पाए और न जेल से भागने का थ्रिल पैदा कर पाए। किसी किरदार के प्रति वे दर्शकों में सहानुभूति भी नहीं जगा पाए। किशन, गायत्री और राजा के किरदारों को भी उन्होंने ठीक से पेश नहीं किया है। रोनित रॉय के किरदार को ऐसे पेश किया मानो वह खलनायक हो, जबकि वह पूरी मुस्तैदी के साथ अपने जेलर होने के फर्ज को निभाता है। हां, वह जेल में शराब जरूर पीता है, लेकिन इसके अलावा कोई कमी उसमें नजर नहीं आती। किशन को बेवजह हीरो बनाने की कोशिश भी अखरती है। फरहान आम कैदी न लगते हुए भीड़ में अलग ही नजर आते हैं। गायत्री का किरदार मिसफिट है। फिल्म में कई बेतहरीन कलाकार भी हैं, लेकिन रंजीत उनका उपयोग ही नहीं ले पाए। कहने को तो ये एक बैंड की फिल्म है, लेकिन संगीत बेहद कमजोर है, जबकि संगीत फिल्म की जान होना था। लगभग पूरी फिल्म जेल के अंदर फिल्माई गई है जिससे राहत नहीं मिलती। फरहान अख्तर का अभिनय औसत है। किशन के रोल में उन्होंने कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की। डायना पेंटी का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया और वैसा ही उनका अभिनय भी रहा है। रोनित रॉय अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। दीपक डोब्रियाल, गिप्पी ग्रेवाल, राजेश शर्मा को ज्यादा कुछ करने का अवसर नहीं मिला। रवि किशन नाटकीय हो गए। कुल मिलाकर लखनऊ सेंट्रल एक उबाऊ फिल्म है। कुल मिलाकर लखनऊ सेंट्रल एक उबाऊ फिल्म है। निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, निखिल अडवाणी, मोनिषा अडवाणी, मधु भोजवानी निर्देशक : रंजीत तिवारी संगीत : अर्जुन हरजाई, रोचक कोहली, तनिष्क बागची कलाकार : फरहान अख्तर, डायना पेंटी, गिप्पी ग्रेवाल, रोनित रॉय, दीपक डोब्रियाल, इनाम उल हक, राजेश शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com प्रकाश झा के नाम के साथ मृत्युदंड, राजनीति, गंगाजल, अपहरण सहित कई बेहतरीन फिल्में जुड़ी हैं। झा अक्सर अपनी हर नई फिल्म में कोई सोशल मेसेज देने की कोशिश करते है। करीब तेरह साल पहले आई झा की अजय देवगन स्टारर 'गंगाजल' ने बॉक्स आफिस पर जबर्दस्त कामयाबी हासिल की थी। अब जब बॉक्स आफिस पर सीक्वल और रीमेक का ट्रेंड चल निकला है, तो झा ने अपनी इस सुपर हिट फिल्म का सीक्वल बनाकर पेश किया। कमजोर स्क्रिप्ट और सतही कहानी के साथ पुराने मसालों को पेश करके झा ने नई फिल्म तो बना डाली, लेकिन मल्टिप्लेक्स कल्चर और बॉक्स आफिस पर वर्चस्व करने वाली यंग जेनरेशन की कसौटी पर ऐसे मसालों पर बनी फिल्में बॉक्स आफिस पर कमजोर मानी जाती हैं। वैसे अगर झा की पिछली तीन फिल्मों चक्रव्यूह, आरक्षण और सत्याग्रह की बात करें तो जबर्दस्त प्रमोशन और बॉक्स आफिस पर बिकाऊ स्टार कास्ट के बावजूद उनकी यह फिल्में अपनी प्रॉडक्शन कास्ट तक बटोर नहीं पाईं। अफसोस, करीब डेढ़ दशक के बाद झा ने जब गंगाजल का सीक्वल बनाया तो कहानी में से नयापन गायब है। मेरीकॉम में अपने अभिनय की हर किसी की प्रशंसा बटोर चुकी प्रियंका चोपड़ा को झा अपनी इस फिल्म में लेडी सिघंम और दबंग की तर्ज पर पेश किया है। कहानी: बांकेपुर के दंबग विधायक बबलू पांडे (मानव कौल) का अपने इलाके में जबर्दस्त दबदबा है। बबलू पांडे को हर गैरकानूनी काम को करने के लिए स्टेट के मिनिस्टर ( किरण करमाकर ) का फुल सपॉर्ट है। विधायक पांडे का भाई डब्लू पांडे (निनाद कुमार ) एक बिजली कंपनी को अपने इलाके में 1600 मेगावॉट बिजली प्रॉजेक्ट लगाने के लिए जमीन उपलब्ध कराने की डील करता है। इलाके में डब्लू पांडे का ऐसा खौफ है कि कोई उसके सामने जुबां खोलने की जुर्रत नहीं कर सकता। ऐसे में डब्लू पांडे इलाके के अधिकांश गरीबों-किसानों की जमीन की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेता है, लेकिन जमीन के एक छोटे से टुकड़े के न मिल पाने की वजह से पावर कंपनी के साथ डब्लू पांडे की डील फाइनल नहीं हो पा रही है और इस डील में पांडे का करोड़ों रूपया अटका पड़ा है। ऐसे माहौल में, बांकेपुर में दबंग एसपी आभा माथुर (प्रियंका चोपडा) की एंट्री होती है। जमीन छीनने और पहले से कर्ज में दबे किसानों का दर्द और डब्लू पांडे के चौतरफा आंतक के साथ साथ पुलिस अफसरों को अपनी मुठ्ठी में रखने के किस्से आभा माथुर तक पहुंचते हैं। वहीं एक के बाद यहां हो रही गरीब किसानों की आत्महत्याओं के पीछे जब आभा माथुर को अपने ही डिपार्टमेंट के सर्कल बाबू भोलानाथ सिंह (प्रकाश झा) और कुछ दूसरे अफसरों के शामिल होने के साथ साथ बबलू पांडे डब्लू पांडे को पूरी तरह से सपॉर्ट करने की जानकारी मिलती है, तब एसपी आभा माथुर अपने डिपार्टमेंट के टॉप अफसरों के अहयोग और राजनीतिक अड़चनों और विरोध के बावजूद बबलू पांडे और उसके भाई से गांव वालों को हमेशा के लिए छुटकारा दिलाने का फैसला करती है। ऐक्टिंग: मेरीकॉम के बाद एकबार प्रियंका चोपड़ा ने इस किरदार को निभाने के लिए जबर्दस्त मेहनत की है। प्रियंका पर फिल्माएं कई ऐक्शन सीन्स खूब बन पड़े हैं। एसपी के चेहरे पर गुस्सा दिखाने की कोशिश करती हैं। बेशक आभा माथुर का किरदार प्रियंका को लेडी सिंघम और दबंग की कैटिगिरी में लाता है, लेकिन अगर हम उनकी ऐक्टिंग की तुलना यश राज बैनर की फिल्म मर्दानी में रानी मुखर्जी के किरदार से करते हैं यहां यकीनन प्रियंका रानी के पीछे नजर आती हैं। समझ नहीं आता प्रियंका के किरदार के बाद कहानी के सबसे अहम किरदार सर्कल आफिसर भोला नाथ सिंह का रोल झा ने खुद करने का फैसला क्यों किया? चलिए मानते है झा ऐक्टिंग के अपने शौक को पूरा करना चाहते थे तो कहानी के किसी हल्के किरदार को ही अपने पास रखते। ऐसे में फिल्म में बार-बार मैडम, सर बोलकर दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेने वाले झा साहब को सुझाव है फिलहाल तो ऐक्टिंग से दूर ही रहें। बबलू पांडे के किरदार मानव कौल ने अच्छा अभिनया किया है, मानव ने बबलू पांडे के नेगेटिव किरदार को कहानी के मुताबिक ऐसा बनाया कि हॉल में बैठे दर्शक इस किरदार से नफरत करने लगते हैं। मुरली शर्मा की ऐक्टिंग बरसों पहले सड़क में सदाशिवराव अमरापुरकर की याद दिलाती है। डब्लू पांडे के रोल में में निनाद कामत ने ओवर ऐक्टिंग की हैं। निर्देशन: आज मल्टिप्लेक्स कल्चर के दौर में ऐसी कहानी आउटडेटेड मानी जाती है। कई सीन्स को जबर्दस्ती खींचा गया है। बार-बार स्क्रीन पर खुद झा का आना भी अखरता है ऐसे में बतौर डायरेक्टर अपनी इस फिल्म में तेरह साल पहले वाला जादू नहीं बिखेर पाए, कहानी की धीमी रफ्तार कई बार आपके सब्र का इम्तिहान लेती है तो कई किरदार ऐसे रखे गए हैं जिन्हें कहानी से आसानी से दूर किया जा सकता था। बेशक झा ने एकबार फिर अपनी इस फिल्म में एकबार फिर सोशल मेसेज देने की कोशिश की है। वैसे झा अगर चाहते तो गरीब किसानों की खेती योग्य जमीनों के अधिग्रहण के पीछे राजनेताओं, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत पर एक अच्छी फिल्म बना सकते थे, लेकिन यहां उनकी कहानी डब्लू और बबलू के आगे-पीछे ही घूमती रही। ऐसे में कहानी को ढाई घंटे तक बेवजह खींचना समझ से परे है। संगीत: ऐसी कहानी में गानों को फिट करना मुश्किल होता है। ऐसे में झा ने गानों का बैकग्राउंड में फिल्माया है, लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की जुंबा पर आए। क्यों देखें: इस फिल्म को देखने की बस दो ही वजह हो सकती है- पहली कि आप प्रकाश झा की फिल्मों को मिस नहीं करना चाहते। दूसरी यह कि आप प्रियंका चोपड़ा के पक्के फैन हैं और अपनी चहेती ऐक्ट्रेस की फिल्में जरूर देखते हैं तो जय गंगाजल आपके लिए पैसा वसूल है। ",1 "पिछले कुछ दिनों से बॉलीवुड में खेल की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनने लगी हैं और सुपरस्टार सलमान खान की फिल्म 'सुल्तान' देसी खेल कुश्ती के इर्दगिर्द बुनी गई प्रेम कथा है। कहानी है हरियाणा के एक गांव की। 30 साल का सुल्तान अली खान (सलमान खान) इस उम्र में भी पतंग लूटता रहता है और जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं है। आरफा हुसैन (अनुष्का शर्मा) एक पहलवान की बेटी है और उसका सपना भारत के लिए कुश्ती में ओलिंपिक में गोल्ड मैडल जीतना है। आरफा को सुल्तान दिल दे बैठता है, लेकिन आरफा उसे उसकी औकात या‍द दिला देती है। इस बेइज्जती से सुल्तान जिंदगी को सीरियसली लेने लगता है और पहलवानी शुरू करता है। कामयाबी उसके कदम चूमती है और आरफा से उसका निकाह हो जाता है। विवाह के बाद एक ऐसी घटना घटती है कि आरफा और सुल्तान के बीच दीवार खड़ी हो जाती है। एक-दूसरे को चाहने के बावजूद दोनों अलग हो जाते हैं। इससे सुल्तान टूट जाता है। हालात ऐसे बनते है कि वह 'प्रो टेक डाउन' स्पर्धा में हिस्सा लेता है। चालीस की उम्र में तोंद के साथ सुल्तान के लिए विश्व के दिग्गज खिलाड़ियों से भिड़ना आसान बात नहीं है। क्या वह सफल वापसी कर पाएगा? क्या आरफा और सुल्तान के बीच की दूरी मिटेगी? इन बातों का जवाब फिल्म में मिलता है। फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद और निर्देशन अली अब्बास ज़फर ने किया है। अली ने अपनी कहानी को दो भागों में बांटा है। एक तरफ सुल्तान, आरफा और पहलवानी है तो दूसरी ओर सुल्तान-आरफा की मोहब्बत है। इन दोनों कहानियों को उन्होंने पिरोकर खूबसूरती से साथ चलाया है। दोनों कहानियों की तुलना की जाए तो खेल पर प्रेम भारी पड़ता है। सलमान की जो पहलवान के रूप में यात्रा दिखाई गई है वो अविश्वसनीय है। अधिक उम्र में एक खिलाड़ी का कुश्ती सीखना आरंभ करना और देखते ही देखते अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में मैडल जीतना, यह बात हजम नहीं होती। यहां कहानी पर सुपरस्टार सलमान भारी पड़ते हैं। खेल को गंभीरता से न लेते हुए निर्देशक ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि सलमान सुपरस्टार हैं, इसलिए उनके लिए यह सब मुमकिन है। फिल्म में जहां-जहां खेल आता है वहां-वहां सलमान मिसफिट लगते हैं। ऐसा लगता है कि उनकी जगह युवा सितारा होना चाहिए था, लेकिन युवा सितारों के स्टारडम में इतना दम नहीं है कि वे सलमान की तरह भीड़ खींच सके। सुल्तान और आरफा की प्रेम कहानी बहुत ही उम्दा तरीके से पेश की गई है। यहां दो प्रेमियों की जिद, अहं का टकराव, जुनून वाला इश्क और अलगाव है। सुल्तान और आरफा के किरदार सीधे दर्शकों से जुड़ जाते हैं। दर्शक उनकी मोहब्बत और जुदाई को महसूस करते हैं। 'सुल्तान' की कहानी पिछले वर्ष रिलीज हुई 'ब्रदर्स' से मिलती-जुलती है, लेकिन 'ब्रदर्स' एक सूखी फिल्म थी जिसमें इमोशन नकली लगे, सुल्तान में इमोशनल की लहर पूरी फिल्म में बहती रहती है और इस लहर के नीचे कहानी और स्क्रिप्ट की कमियां छुप जाती हैं। सुल्तान-आरफा की प्रेम कहानी को धार देते हैं फिल्म के गीत। इरशाद कामिल ने सार्थक बोल लिखे हैं, भले ही गाने हिट नहीं हुए हैं, लेकिन फिल्म देखते समय ये कहानी को आगे बढ़ाने और दर्शकों को फिल्म से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निर्देशक के रूप में अली अब्बास ज़फर ने अपना काम इत्मीनान से किया है। उन्होंने फिल्म को दो घंटे 50 मिनट की बनाया है ताकि सलमान के फैंस परदे पर भरपूर सलमान दर्शन कर सकें। अली ने कमर्शियल फॉर्मेट का ध्यान रखा है, लेकिन साथ ही उन्होंने फिल्म को फॉर्मूलाबद्ध होने से बचाया है। सुल्तान और आरफा के किरदार को गढ़ने में भरपूर समय लिया है और फिर सुल्तान को खेल की दुनिया में उतारा है। सलमान को उन्होंने उसी मासूमियत के साथ पेश किया है जिसे देखना दर्शकों को पसंद है। बेटे-बेटी के उपदेशात्मक जैसे कुछ दृश्यों से बचा जा सकता था। पहले हाफ में फिल्म तेजी से चलती है। दूसरे हाफ के शुरुआत में फिल्म लड़खड़ाती है, लेकिन अंत में फिर संभल जाती है। फिल्म के अंत में क्या होने वाला है, सभी जानते हैं, लेकिन सलमान अपनी उपस्थिति से इस जाने-पहचाने क्लाइमेक्स में जोश भर देते हैं। फिल्म को आर्टर ज़ुरावस्की नामक पोलिश सिनेमाटोग्राफर ने शूट किया है। उन्होंने न केवल हरियाणा बल्कि कुश्ती और मार्शल आर्ट वाले सीन भी उम्दा तरीके से शूट किए हैं। आमतौर पर स्पोर्ट्स वाले सीन फिल्म में बहुत ज्यादा होते हैं तो उनकी एकरसता से दर्शक बोर हो जाते हैं, लेकिन यह आर्टर की सिनेमाटोग्राफी का कमाल है कि उन्होंने हर फाइट को अलग-अलग कोणों से शूट किया है। > > 'सुल्तान' के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म के सभी कलाकारों का काम अच्छा है। सलमान खान ने कुश्ती वाले सीन में काफी मेहनत की है। धोबी पछाड़ वाले दृश्य वास्तविक लगते हैं। दौड़-भाग वाले सीन में वे उतने फुर्तीले नहीं लगते हैं जितना की फिल्म में उन्हें दिखाया गया है। उनका अभिनय अच्छा और ठहराव लिए है। खास बात यह है कि सुल्तान को उन्होंने सलमान खान नहीं बनने दिया। हरियाणवी लहजे में हिंदी बोली है। कहीं-कहीं वे जल्दी बोल गए हैं जिससे कुछ संवाद समझ में नहीं आते हैं। निर्देशक को हरियाणवी के कठिन शब्दों से बचना था। अनुष्का शर्मा ने अपने किरदार को खास एटीट्यूड दिया है। वे महिला पहलवान के रूप में विश्वसनीय लगी हैं और भावनात्मक दृश्यों में उनका अभिनय देखते ही बनता है। रणदीप हुड्डा छोटे रोल में अपना असर छोड़ जाते हैं। सुल्तान के दोस्त के रूप में अनंत शर्मा प्रभावित करते हैं। अमित सध, परीक्षित साहनी सहित अन्य अभिनेताओं की एक्टिंग बेहतरीन है। 'सुल्तान' परफेक्ट फिल्म नहीं है, लेकिन मनोरंजन का झरना फिल्म में निरंतर बहता रहता है इसलिए देखी जा सकती है। यदि आप सलमान के फैन हैं तो कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अली अब्बास जफर संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सलमान खान, अनुष्का शर्मा, रणदीप हुड्डा, अमित सध सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 50 मिनट ",1 "कहानी: इंसिया मलिक (जायरा) एक 15 साल की टैलंटेड स्कूल गर्ल है जो बड़ौदा की रहने वाली है। इंसिया की भावनाएं बहुत आहत होती हैं क्योंकि उसके मां-बाप के रिश्ते अच्छे नहीं है। फिर भी इंसिया अपने गायक बनने के सपने को पूरा करने के लिए जी-जान से कोशिश करती है। इसके अलावा वह अपनी मां को अपने कंजर्वेटिव और हिंसक पिता से दूर करने के प्रयास भी करती है। रिव्यू: जब आमिर खान किसी फिल्म के पीछे हों तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म बेहतरीन होगी। आमिर ने फिल्म में एक अजीब से म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार की भूमिका निभाई है। इस फिल्म से डायरेक्शन में डेब्यू करने वाले डायरेक्टर अद्वैत चंदन हैं जिन्होंने आमिर के साथ काम सीखा है। इस फिल्म में आपको इमोशंस, खुशी, आंसू, जोश और उत्सुकता देखने को मिलेगी।फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। यह एक लड़की की लड़ाई है या एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपनी हिंसक शादी से बाहर निकलना चाहती है। ऐसी कहनियों पर पहले भी फिल्में बन चुकीं हैं लेकिन इस फिल्म को अलग तरह से नैरेट करने का तरीका इसे औरों से अलग करता है जो आपको फिल्म के साथ बांधे रखता है। आप फिल्म मां-बेटी की फ्रस्टेशन को समझ सकते हैं जिनके घर में उनके इमोशंस तक को बंधक बना लिया गया है। जब इंसिया खुद को आजाद कर लेती है तो आप अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे होंगे और उसकी इस जीत के लिए ताली जरूर बजाएंगे। आमिर अपनी अदाकारी से पूरे सीन पर छा जाते हैं। फिल्म में उनका कैरक्टर अमेरिकन आयडल के जज ब्रैश सिमोन कॉवेल और बॉलिवुड के 90 के दशक के म्यूजिक डायरक्टरों का मिला-जुला रूप दिखता है लेकिन फिल्म में आगे आप इस किरदार की बारीकियों को देखते हैं। यह भी देखना अच्छा लगता है कि फिल्म में खुद को लाइम लाइट में लाने के लिए आमिर ने छोटी सी जायरा के साथ कहीं भी अन्याय नहीं किया है। जायरा को फिल्म में देखना खुशी देता है। फिल्म में मां के रोल में नज़मा (मेहर), चिंतन (तीर्थ शर्मा) और चाइल्ड ऐक्टर गुड्डू (कबीर) ने भी अपने किरदार बखूबी निभाए हैं। फिल्म में अमित त्रिवेदी का म्यूजिक आपको सुकून देता है लेकिन फिल्म के लिहाज से यह उतना बेहतरीन नहीं है जैसा इसे होना चाहिए था। कौसर मुनीर के गीत भी ठीकठाक हैं। क्यों देखें: अगर आपकी दुनिया आपकी मां के इर्द-गिर्द घूमती है तो आप इस फिल्म को ज़रूर देखें। लड़कियों को तो यह फिल्म हर हालत में देखनी ही चाहिए। ",1 " गोलमाल सीरिज बेहद पॉपुलर है, लेकिन इसका चौथा भाग (गोलमाल अगेन) इस सीरिज की सबसे कमजोर फिल्म है। लगता है कि इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए रोहित को जो समझ में आया वो बना दिया गया है। रोहित ने सोचा होगा कि चलो यार गोलमाल का चौथा भाग बनाते हैं। गोपाल, माधव, लकी, लक्ष्मण, पप्पी भाई, वसूली भाई, इंस्पेक्टर दांडे के किरदार तो लोगों को याद ही हैं। इन किरदारों को पिरोने के लिए जो कहानी चुनी गई है वो दर्शाती है यह महज 'प्रोजेक्ट' है। पूरी फिल्म में घटिया हरकतें होती रहती है और दर्शक हैरान होते रहते हैं कि क्या ये वही रोहित शेट्टी की फिल्म है जो मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं। फिल्म में बार-बार कहा गया है कि 'लॉजिक' नहीं 'मैजिक' होता है, लेकिन फिल्म में न तो लॉजिक है और न ही मैजिक। पूरी फिल्म खोखली है जिसमें न कहानी है, न कॉमेडी है, न अच्छे गाने हैं, न रोमांस है। फॉर्मूला फिल्म की खूबियों पर भी ये फिल्म खरी नहीं उतर पाती। एक अनाथ आश्रम को बचाने की जद्दोजहद की कहानी है। एक तरफ गोपाल और लक्ष्मण है तो दूसरी तरफ माधव, लकी और लक्ष्मण। ये बचपन में इसी अनाथ आश्रम में पले बढ़े हैं। इस आश्रम को चलाने वाले व्यक्ति तथा इन सबकी दोस्त खुशी की हत्या कर दी गई है। कुछ लोग इस आश्रम पर कब्जा कर करोड़ों की जमीन हथियाना चाहते हैं। खुशी की आत्मा भटक रही है। वह इन सबके साथ एनी को भी नजर आती है। खुशी इन सबको अपनी हत्या वाली बात बताती है और ये बदला लेते हैं। दिखाया गया है खुशी की आत्मा जो चाहे वो कर सकती है। क्लाइमैक्स में विलेन की धुनाई करती है। सवाल यह उठता है कि जब ये वह सब खुद कर सकती है तो गोपाल और इसकी गैंग की जरूरत ही क्या है? क्यों इतना तानाबाना बुना गया है? ये सवाल कहानी को कमजोर करता है जो खुद रोहित शेट्टी ने लिखी है। फिल्म के पहले हाफ में गोपाल-लक्ष्मण बनाम माधव-लकी-लक्ष्मण की तकरार को दिखाया है। हंसाने की भरसक कोशिश की गई है और यह कोशिश साफ नजर आती है। गूंगी फिल्मों के जमाने में जिस तरह की कॉमेडी हुआ करती थी उसकी घटिया नकल करने की कोशिश भी की गई है। गोपाल का किरदार भूत-प्रेत और अंधेरे से डरता है, इसको लेकर की कुछ हास्य सीन रचने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है कि मुस्कान भी आ जाए। गोपाल और खुशी का रोमांस अधूरे मन से रखा गया है। दोनों की उम्र में अंतर दर्शाया गया है। कभी वे रोमांस करते हैं तो कभी उन्हें बाप-बेटी कह कर चिढ़ाया जाता है। आखिर इस सबकी जरूरत ही क्या थी? फिल्म में दो विलेन भी हैं, प्रकाश राज और नील नितिन मुकेश। इनकी एंट्री तब होती है जब इनको मार खानी होती है। गाने, एक्शन सीन खाली स्थान पर भरे गए हैं ताकि फिल्म को लंबा खींचा जा सके। गोपाल और उसकी गैंग की एनर्जी इस फिल्म में मिसिंग है। कुछ ही दृश्यों में वे हंसा पाए हैं और इसमें सारा दोष लेखकों को है जो कुछ भी ढंग का सोच नहीं पाए। बतौर निर्देशक रोहित शेट्टी निराश करते हैं। यह उनकी सबसे कमजोर फिल्म है। उनका 'टच' गायब है। एक रूटीन काम की तरह उन्होंने यह फिल्म बनाई है। लॉजिक को घर पर भी रख कर जाए तो भी यह फिल्म 'मैजिक' नहीं करती। कुछ सीन तो इसलिए रचे गए है ताकि कुछ कंपनियों के विज्ञापन किए जा सके। अजय देवगन, अरशद वारसी और तब्बू को ही कुछ कर दिखाने का मौका मिला है, लेकिन दमदार स्क्रिप्ट के अभाव में ये भी एक सीमा तक ही कुछ कर सके हैं। कुणाल खेमू, तुषार कपूर, परिणीति चोपड़ा, श्रेयस तलपदे भीड़ बढ़ाने के काम आए हैं। जॉनी लीवर जरूर अपने दम पर कुछ सीन में हंसाते हैं। प्रकाश राज और नील नितिन मुकेश के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, मुरली शर्मा जैसे कलाकारों को इसलिए लिया गया क्योंकि ये गोलमाल सीरिज की फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। इनसे ज्यादा तो नाना पाटेकर की आवाज मनोरंजन करती है। फिल्म में कई संगीतकारों ने संगीत दिया है, लेकिन एक भी ढंग का गाना नहीं बना है। दो पुराने हिट गीतों का भी सहारा लेकर काम चलाया गया है। कुल मिलाकर 'गोलमाल अगेन' दिवाली का फुस्सी बम है। बैनर : रोहित शेट्टी प्रोडक्शन्स, रिलायंस एंटरटेनमेंट, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता-निर्देशक : रोहित शेट्टी संगीत : एस. थमन, अमाल मलिक, डीजे चीताज़, अभिषेक अरोरा, न्यू‍क्लिया कलाकार : अजय देवगन, परिणीति चोपड़ा, तब्बू, अरशद वारसी, तुषार कपूर, श्रेयस तलपदे, कुणाल खेमू, मुकेश तिवारी, जॉनी लीवर, संजय मिश्रा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनट 3 सेकंड ",0 "अगर आप मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, लेकिन अगर आप कलाकारों के अभिनय की रैंज और कुशल निर्देशन देखना चाहते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपके लिए ही है। गैंग्स ऑफ वासेपुर 1947 से 2004 के बीच बनते बिगड़ते वासेपुर शहर की कहानी है, जहां कोल और स्क्रैप ट्रेड माफिया का जंगल राज है। कहानी दो बाहुबली परिवारों पर आधारित है, जिसमें बदले की भावना, खून खराबा, लूट मार के साथ ही इसमें प्रेम कहानियों को भी जगह दी गई है। सरदार खान (मनोज वाजपेयी) की जिंदगी का एक ही मकसद है। अपने सबसे बड़े दुश्मन कोल माफिया से राजनेता बने रामधीर सिंह (तिग्मांशु धुलिया) से अपने पिता की मौत का बदला लेना। सरदार खान की प्रेम कहानी के साथ उसका इंतकाम भी चलता रहता है और कहानी दूसरी पीढ़ी पर आ जाती है। सरदार खान का बेटा (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) दुश्मन परिवार की बेटी से प्यार करने लगता है और सरदार के 'बदला' अभियान पर विराम लगाने की कोशिश करता है। फिल्म में किरदारों के ‍ह्रदय परिवर्तन से कहानी के उतार चढ़ाव को समझाया गया है, लेकिन यह फिल्म की कहानी को पेंचीदा बनाता है। कहानी में दहशत है और किसी की जान लेना मामूली बात। इसमें राजनीति, षड्यंत्र, अवैध कमाई और खून के खेल ने पूरे शहर को लहुलुहान बताया गया है। ठेट देसी कहानी फिल्माने के नाम पर फिल्म में गालियों की भरमार है। फिल्म में इंटरटेंमेंट की मात्रा कम और अपशब्द तथा हिंसा को ज्यादा जगह दी गई है। पहला भाग एवरेस्ट की चढ़ाई की तरह थका देने वाला है, इंटरवल से पहले फिल्म की गति बेहद धीमी है। हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म में जान आती है और दर्शकों को कुछ अच्छे सीन (भले ही वे मारधाड़, खून खराबा वाले हों) देखने को मिलते हैं। फिल्म के डायरेक्टर अनुराग कश्यप का निर्देशन सशक्त है। कई सीन देखने लायक हैं, लेकिन उलझी हुई कहानी के बजाय अगर वे एक सामान्य 'रिवेंज स्टोरी' पर फिल्म बनाते तो यह अधिक लोगों को अपील कर सकती थी। कहानी के मुख्य पात्र सरदार खान को अनुराग ने इतनी चतुराई से पर्दे पर उकेरा है कि दर्शकों को वह सिनेमा घर से निकलने के बाद भी याद रहता है। सैयद जि़शान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन लाडिया के साथ अनुराग कश्यप ने पटकथा का जिम्मा संभाला है। कुछ संवाद बेहतरीन हैं, लेकिन दो पीढ़ियों की कहानी के संवाद के जरिये तात्कालिक परिस्थितियों को निर्मित करने की कोशिश में फिल्म बोझिल सी हो गई है। फिल्म के मुख्य किरदारों ने छाप छोड़ने वाला अभिनय किया है। मनोज वाजपेयी ने बेहतरीन अभिनय किया है और अपने अभिनय के दम पर दर्शकों को सिनेमा घरों में रोकने की चुनौती में वे सफल रहे हैं। तिग्मांशु धुलिया‍ ने अपना का अच्छी तरह से अंजाम दिया। नवाजुद्दीन सिद्दकी ने नई उम्र के प्रेमी की भूमिका में सफल प्रयास किए। रीमा सेन और रिचा चड्ढा के लिए करने को बहुत कम था, लेकिन दोनों ही ठीक ठाक रहीं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंग ा निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : स्नेहा खानवलकर कलाकार : मनोज बाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दकी, पीयूष मिश्रा, रीमा सेन, जयदीप अहलावत, रिचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, राजकुमार यादव, तिग्मांशु धुलिया अगर आप मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, लेकिन अगर आप कलाकारों के अभिनय की रैंज और कुशल निर्देशन देखना चाहते हैं तो गैंग्स ऑफ वासेपुर आपके लिए ही है। ",1 " chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म से एक और राइटर ने कैमरे के पीछे की कमान संभाली है तो लंबे अर्से बाद राजीव खंडेलवाल ने साबित किया कि अगर उन्हें दमदार किरदार मिले तो वह ऐसे किरदारों को असरदार ढंग से निभाने का दम रखते हैं। वैसे इस फिल्म के राइटर राजेश झावेरी ने इस फिल्म से पहले बतौर राइटर बॉक्स ऑफिस पर अलग-अलग सब्जेक्ट पर बनी कई हिट और औसत हिट फिल्में दी हैं, लेकिन खुद जब कैमरे के पीछे की कमान संभाली तो अपने लिए ऐसी कहानी चुनी जिसमें सेक्स और सस्पेंस का जमकर तड़का लगाया जा सके। बेशक राजेश की इस फिल्म का क्लाइमैक्स कुछ कमजोर रह गया हो, लेकिन इसके बावजूद फिल्म में इतने मसाले जरूर नजर आते हैं जो किसी फिल्म को बी और सी सेंटरों पर हिट नहीं तो औसत हिट करा सकते हैं। कहानी : कॉन्ट्रैक्ट किलर आर्मिन सेलम (राजीव खंडेलवाल) की एक भीषण ऐक्सिडेंट के बाद याददाश्त चली जाती है। इस ऐक्सिडेंट के बाद आर्मिन को सिर्फ काव्या चौधरी (गौहर खान) के बारे में जानकारी है। दरअसल, काव्या ही इस ऐक्सिडेंट के बाद याददाश्त खो चुके सलेम की देखभाल कर रही है। काव्या इस कोशिश में लगी है, जिससे आर्मिन की याददाशत जल्दी से लौट आए। काव्या का यह काम इतना आसान भी नहीं है। इस सिंपल स्टोरी में टिवस्ट् उस वक्त आता है, जब इस कहानी में एक के बाद एक कई दूसरे किरदारों की एंट्री होती है, जिससे आर्मिन की बीती जिदंगी के बारे में थोड़ा-बहुत पता चलता है तो वहीं इस बीच काव्या भी सलेम को प्यार करने लगती है। ऐक्टिंग : राजीव खंडेलवाल ने अपने किरदार के मुताबिक अच्छी ऐक्टिंग की है। ऐसा लगता है कि याद्दाश्त भूल चुके सलेम के किरदार को निभाने के लिए राजीव ने अच्छा होमवर्क किया। लंबे अर्से बाद किसी फिल्म में गौहर खान को एक पावरफुल किरदार मिला और गौहर ने खुद को ऐसी कलाकार साबित किया, जिन्हें ऐक्टिंग की एबीसी आती है। वहीं कटरीना मुनीरो और अंकिता मखवाना ने जहां अपनी ब्यूटी को कैमरे के सामने जमकर परोसने के साथ दमदार ऐक्टिंग भी की, विक्टर बैनर्जी अपने रोल में फिट रहे। डायरेक्शन : इस फिल्म से पहले झावेरी कुछ अलग किस्म की बनी 'कुछ तो है' और 'ढूंढते रह जाआगे' सहित कुछ और फिल्मों की कहानी लिख चुके हैं, लेकिन बतौर डायरेक्टर उन्होंने इस प्रॉजेक्ट पर कम्प्लीट होमवर्क के बाद ही काम शुरू किया, फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है, कहानी की डिमांड के मुताबिक झावेरी ने फिल्म को स्विट्ज़रलैंड की लोकेशन में शूट हुआ है। लंबे अर्से बाद किसी हिंदी फिल्म में ऐसी बेहतरीन लोकेशन नजर आई, दूसरी और झावेरी दो घंटे की इस फिल्म की गति को ऐसा नहीं रख पाए जो दर्शकों को स्टार्ट टु लास्ट तक पूरी तरह से बांध पाती। इंटरवल के बाद की फिल्म बोझिल लगने लगती है, अगर झावेरी स्क्रिप्ट के साथ-साथ क्लाइमैक्स पर कुछ ज्यादा मेहनत करते तो इस फीवर का नशा दर्शकों पर कुछ ज्यादा ही चढ़ पाता। संगीत : आपको ताज्जुब होगा कि सिर्फ दो घंटे की इस फिल्म के साथ एक दो नहीं बल्कि नौ संगीतकारों का नाम जुड़ा है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म का म्यूजिक केवल सिनेमाहॉल में ही आपको थिरकाने का दम रखता है। वैसे रिलीज़ से पहले फिल्म के दो गाने यंगस्टर्स की जुबां पर आए हुए हैं। डायरेक्टर झावेरी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन गानों को फिल्म की कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया, वर्ना अक्सर सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों में गाने फिल्म की कहानी की रफ्तार को रोकने या कम करने का ही काम करते रहे हैं। क्यों देखें : अगर आप राजीव खंडेलवाल के पक्के फैन हैं और सस्पेंस थ्रिलर, हॉट अडल्ट फिल्मों के शौकीन हैं तो 'फीवर' सिर्फ आपके लिए ही है और हां स्विटजरलैंड की बेहतरीन लोकेशन और गजब फटॉग्रफ़ी इस फिल्म को देखने की एक और वजह हो सकती है।",0 "वर्षों से परंपरा चली आ रही है कि पुरुष बाहर के काम संभाले और स्त्री घर के। परिवर्तन ये हुआ है कि कुछ स्त्रियां भी बाहरी जवाबदारी निभाने लगी हैं और उन्हें घर तथा बाहर की दोहरी भूमिका निभानी पड़ती हैं, लेकिन पुरुष ने कभी घर का जिम्मा नहीं संभाला। यदि कोई पुरुष ऐसा करता है भी है तो उसे ताना दिया जाता है कि वह पत्नी के कमाए टुकड़ों पर पलता है। दरअसल हाउसवाइफ की कोई कीमत ही नहीं है क्योंकि वह पैसा नहीं कमाती है जबकि उसका काम भी कम जवाबदारी वाला नहीं रहता है। पैसा कमाने वाला अपने आपको दूसरे के मुकाबले अधिक आंकता है। जब हाउसवाइफ को ही तवज्जो नहीं दी जाती हो तो हाउसहसबैंड को भला कौन पूछेगा? आर बाल्की की फिल्म 'की एंड का' इसी विचार पर आधारित है जिसमें में स्त्री और पुरुष की भूमिकाओं को पलट दिया गया है। फिल्म का नायक कबीर (अर्जुन कपूर) अपनी मां की तरह बन कर गृहस्थी का भार उठाना चाहता है। दूसरी ओर नायिका किया (करीना कपूर) महत्वाकांक्षी महिला है और पैसा कमाती है। दोनों में प्रेम विवाह होता है। खाना पकाना, साफ-सफाई और घरेलू काम कबीर करता है। वह अपनी पत्नी के लिए सुबह कॉफी बनाता है और शाम को उसके घर आने की बाट जोहता है। फिल्म के निर्देशक और लेखक आर बाल्की ने इंटरवल तक फिल्म को अच्छी तरह से बनाया है। कबीर और किया की बातचीत सुनने लायक है और इस दौरान कुछ ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जिनमें मनोरंजन का स्तर ऊंचा है। इंटरवल के समय उत्सुकता जागती है कि विचार तो बेहतरीन है अब कहानी को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा? दूसरे हाफ में फिल्म लड़खड़ाती है और बढ़ी हुई अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती, इसके बावजूद दर्शकों को बांध कर रखती है। यहां पर नई बात यह देखने को मिलती है कि कमाने वाला चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने आपको सुपीरियर समझता है। कबीर और किया में विवाद होता है और किया के मुंह से ये बातें निकल ही जाती हैं। किया को ऐसी महिला दिखाया गया है जो बच्चा नहीं चाहती। यह सोच सभी की नहीं होती। दरअसल कहानी में तब और गहराई आती जब दिखाया जाता कि किया मां बनती और बच्चों की परवरिश करती तब क्या होता? लेकिन आर बाल्की इतना आगे जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाई है कि यदि ऐसा हो तो कैसा हो। लेखन के बजाय वे ‍अपने निर्देशन से ज्यादा प्रभावित करते हैं। बतौर लेखक उनके पास सिर्फ विचार था जिसे दृश्यों के माध्यम से उन्होंने फैलाया। इस पर उन्हें खासी मेहनत करना पड़ी। कई छोटे-छोटे लम्हें उन्होंने बखूबी गढ़े हैं और फिल्म की ताजगी को बरकरार रखा। की एंड का के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में लीड कलाकारों का अभिनय भी दर्शकों को फिल्म से जोड़ कर रखता है। करीना कपूर का अभिनय बढ़िया है। उन्होंने अपने किरदार को ठीक से समझा और वैसा ही परफॉर्म किया। अर्जुन कपूर के साथ उनकी जोड़ी अच्छी लगती है। अर्जुन कपूर तेजी से सीख रहे हैं। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय अच्छा तो कुछ में कमजोर रहा है। स्वरूप सम्पत लंबे समय बाद नजर आईं और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। अमिताभ बच्चन और जया बच्चन का छोटे से रोल में अच्छा उपयोग किया गया है। फिल्म के संवाद गुदगुदाते हैं। कुछ गाने भी अच्छे हैं। कबीर की रेल के प्रति दीवानगी को भी फिल्म में अच्छे से दिखाया गया है। एक उम्दा विचार पर बनाई गई 'की एंड का' और अच्छी हो सकती थी, बावजूद इसके देखी जा सकती है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, होप प्रोडक्शन्स निर्माता : सुनील लुल्ला, राकेश झुनझुनवाला, आरके दमानी, आर बाल्की निर्देशक : आर बाल्की संगीत : इलैयाराजा कलाकार : अर्जुन कपूर, करीना कपूर खान, स्वरूप सम्पत, रजत कपूर, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट ",1 "बैनर : वॉर्नर ब्रॉस. पिक्चर्स, वाइड फ्रेम फिल्म्स निर्माता : अमिता पाठक, वॉनर ब्रॉस. निर्देशक : अश्वनी धीर संगीत : प्रीतम कलाकार : अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल यू सर्टिफिकेट * 13 रील * एक घंटा 59 मिनट इस बिज़ी लाइफ और महँगाई के दौर में अतिथि किसी को भी अच्छा नहीं लगता। वो जमाना बीत चुका है जब गेस्ट घर में कई दिनों तक डेरा डालकर रखते थे और बुरे नहीं लगते थे। इस बात को लेकर निर्देशक अश्विनी धीर ने ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ बनाई है। वैसे तो इसकी स्टोरी टीवी के लिए ज्यादा फिट है, लेकिन अश्विनी ‍ने फिल्म बना डाली है। लेकिन फिल्म बुरी नहीं है और समय काटने के लिए देखी जा सकती है। मुंबई में रहने वाले पुनीत (अजय देवगन) और मुनमुन (कोंकणा सेन शर्मा) की अपनी-अपनी व्यस्त लाइफ है। पुनीत फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखता है और मुनमुन एक ऑफिस में काम करती है। दोनों का एक बेटा है, जो अक्सर उनसे सवाल करता रहता है कि अपने घर गेस्ट क्यों नहीं आते? आखिरकार एक दिन पुनीत के दूर के रिश्तेदार लम्बोदर (परेश रावल) उनके घर आ धमकता है। उन्हें सब चाचाजी कहते हैं। चाचाजी का अंदाज बड़ा निराला है। घर की बाई से ऐसा काम लेते हैं कि वह नौकरी छोड़कर भाग जाती है। मुनमुन इससे बड़ी निराश होती है। उसका कहना है कि पति यदि छोड़ के चले जाए तो तुरंत दूसरा मिल जाता है, लेकिन बाई नहीं मिलती। चाचाजी के लिए खाना बनाना हो तो नहा कर ही किचन में जाना पड़ता है। ऐसे कई उनके नियम कायदे हैं। एक-दो दिन तो अच्छा लगता है, लेकिन जब चाचाजी जाने का नाम ही नहीं लेते तो पुनीत-मुनमुन उन्हें घर से निकालने के लिए नई-नई तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन चाचाजी के आगे ‍सारी ट्रिक्स फेल हो जाती है। पुनीत अंडरवर्ल्ड के पास भी जाता है, लेकिन फिर भी उसे नाकामी मिलती है। किस तरह वे कामयाब होते हैं और उन्हें चाचाजी का महत्व समझ में आता है ‍यह फिल्म का सार है। अश्विनी धीर ने इसके पहले ‘वन टू थ्री’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें उन्होंने अश्लीलता से परहेज नहीं किया था। लेकिन इस फिल्म को उन्होंने फूहड़ता से बचाए रखा और एकदम साफ-सुथरी फिल्म पेश की है। गणेश जी से अतिथि को जोड़ना और कालिया (विजू खोटे) तथा चाचाजी के वाले कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। फिल्म अंतिम कुछ रीलों में कमजोर पड़ जाती है और कहानी को ठीक से समेटा नहीं गया है। साथ ही कुछ दृश्यों का दोहराव भी है। अंत में जो ड्रामा और उपदेश दिए गए हैं वो बोरियत भरे हैं। चाचा की हरकतों से परेशान पुनीत का किरदार अजय ने अच्‍छी तरह से निभाया है। कोंकणा सेन को निर्देशक ने कम मौके दिए। परेश रावल इस फिल्म के हीरो हैं। गोरखपुर में रहने वाले लम्बोदर चाचा की बारीकियों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पर्दे पर पेश किया है। सतीश कौशिक, विजू खोटे का अभिनय भी उम्दा है। संगीत के नाम पर एकाध गाना है और कुछ पैरोडियाँ हैं, जो नहीं भी होती तो खास फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’ एक साफ-सुथरी हास्य फिल्म है जो देखी जा सकती है। ",1 " बैनर : इरोज इंटरनेशनल मीडिया लि., एक्सेल एंटरटेनमेंट निर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर निर्देशक : ज़ोया अख्तर संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, अभय देओल, फरहान अख्‍तर, कल्कि कोचलिन, नसीरुद्दीन शाह सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 34 मिनट * 17 रील बैचलर पार्टी, रोड ट्रिप, एडवेंचर स्पोर्ट्स, स्कूल-कॉलेज के दोस्तों के साथ गप्पे हांकना ऐसी बाते हैं जो हर उम्र और वर्ग के लोगों को पसंद आती है। कुछ उस दौर से गुजर रहे होते हैं और कुछ को बीते दिन याद आ जाते हैं। इसी को आधार बनाकर जोया अख्तर ने ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ फिल्म बनाई है। कुछ इसी तरह की फिल्म जोया के भाई फरहान अखतर ने भी दस वर्ष पहले ‘दिल चाहता है’ नाम से बनाई थी। जोया की फिल्म अपने भाई की फिल्म के स्तर तक तो नहीं पहुंची है, लेकिन दोस्ती, प्यार, जिंदगी के प्रति नजरिया, जीवन जीने का स्टाइल जैसी बातों को उन्होंने अपनी फिल्म के जरिये अच्छी तरह से पेश किया है। अगर वे अपने द्वारा फिल्माए गए दृश्यों को छोटा करने की या काटने की हिम्मत दिखाती तो दर्शक भी कुछ जगह बोर होने से बच जाते और फिल्म में भी चुस्ती आ जाती। कहानी तीन दोस्तों की है। कबीर (अभय देओल) की नताशा (कल्कि कोचलिन) से शादी होने वाली है। शादी के पहले वह अपने दो दोस्तों इमरान (फरहान अख्तर) और अर्जुन (रितिक रोशन) के साथ स्पेन में लंबी रोड ट्रिप पर जाता है। तीनों का मिजाज, जिंदगी के प्रति नजरिया बिलकुल अलग है। इमरा न अभी भी बड़ा नहीं हुआ है। स्कूल-कॉलेज वाली हरकतें अभी भी जारी है। लगता है कि जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं है। दूसरी ओर अर्जुन परिपक्व हो चुका है। 40 वर्ष की उम्र तक वह ढेर सारा पैसा कमा लेना चाहता है ताकि बाद में रिटायर होकर जिंदगी का मजा लूट सके। कबीर अपने संकोची स्वभाव के कारण परेशान रहता है। इस बाहरी यात्रा के साथ तीनों किरदार आंतरिक यात्रा भी करते हैं। उनकी मुलाकात खुद से होती है। साथ ही वे कुछ लोगों से मिलते हैं, कुछ घटनाएँ उनके साथ घटती है जिसके जरिये उन्हें अपने आपको समझने का अवसर मिलता है। वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं, इस बात से वे रूबरू होते हैं। रितिक रोशन वाला ट्रेक इन सबमें उम्दा है। रितिक का जिंदगी के प्रति नजरिया और उसमें बदलाव तर्कसंगत है। फरहान अख्तर की कहानी में उनके पिता वाला ट्रैक कमजोर है, लेकिन फरहान का मस्तमौला किरदार इस बात को ढंक देता है। अभय देओल की कहानी ठीक है। चंद लाइनों की कहानी में, जिसमें ज्यादा घुमाव-फिराव नहीं होते हैं, स्क्रीनप्ले का रोल बहुत महत्वपूर्ण होता है। कहानी बहुत धीमे आगे बढ़ती है और बीच की जगह को भरने के लिए सशक्त दृश्यों की जरूरत पड़ती है। संवाद भी असरदायक होना चाहिए क्योंकि पात्रों के मन में क्या चल रहा है यह संवादों से ही पता चलता है। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ इस कसौटी पर कुछ हद तक खरी उतरती है। पहले हाफ में कई दृश्य उम्दा बन पड़े हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कई जगह पटरी से उतरती है क्योंकि दृश्यों को लंबा खींचा गया है। खासतौर पर एडवेंचर स्पोर्ट्स के सीन लंबे हो गए हैं। फिल्म का अंत भी कुछ लोगों को चौंका सकता है क्योंकि आकस्मिक रूप से फिल्म खत्म हो जाती है, लेकिन बात को समाप्त करने का यही सबसे उचित तरीका है। निर्देशक के रूप में जोया अख्तर प्रभावित करती हैं। उन्होंने बड़े ही इत्मीनान और ठहराव के साथ अपनी बात सामने रखी है। हर किरदार की खूबी और कमजोरी को उन्होंने बखूबी परदे पर पेश किया है। कुछ सीन उन्होंने शानदार तरीके से फिल्माए हैं खासतौर पर रितिक और कैटरीना कैफ के चुंबन दृश्य के लिए जो उन्होंने सिचुएशन पैदा की है वो लाजवाब है। फिल्म को संपादित करने की हिम्मत वे दिखाती तो फिल्म में पैनापन बढ़ सकता था। रितिक रोशन न केवल हैंडसम लगे बल्कि उन्होंने अपने पात्र की बारीकियों को अच्छे से पकड़ा है। फरहान अख्तर ने अपने अभिनय के जरिये अपने पात्र को बेहद मनोरंजक बनाया है। अभय देओल का किरदार रितिक और फरहान की तुलना में थोड़ा दबा हुआ है, लेकिन उन्होंने अपनी छटपाहट को अच्‍छे से पेश किया है। कैटरीना कैफ की एक्टिंग इस फिल्म का सरप्राइज हैं। उनका स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त है और जब-जब वे स्क्रीन पर नहीं दिखती हैं उनकी कमी महसूस होती है। उनके रोल को लंबा किया जा सकता था। कल्कि और छोटे से रोल में नसीरुद्दीन शाह प्रभावित करते हैं। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत फिल्म के मूड को मैच करता है। कार्लोस कैटेलन ने स्पेन की खूबसूरती को बखूबी कैमरे में कैद किया है। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ जिंदगी के प्रति सोच को सकारात्मक करने में मददगार साबित होती है। बेकार, 2-औसत, 2:5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-शानदार, 5-अद्‍भुत ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आप सेंसर सर्टिफिकेट में इस फिल्म का टाइटल देखेंगे तो इस फिल्म का नाम 'दूरंतो' लिखा नजर आता है। इसी टाइटल से इस फिल्म ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में बेस्ट चिल्ड्रन्स फिल्म का अवॉर्ड हासिल किया था। कमर्शल रिलीज करने के लिए टाइटल बदलकर 'बुधिया सिंह : बॉर्न टु रन' कर दिया गया, ताकि बॉक्स ऑफिस पर बुधिया के नाम का कुछ फायदा मिल सके। यह फिल्म एक ऐसे बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है, जो 9-10 साल पहले तक मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ था। चार-पांच साल के आदिवासी बच्चे बुधिया पर बेस्ड इस फिल्म को डायरेक्टर ने पूरी ईमानदारी के साथ बनाया है। अजीब विडंबना यह है कि दस साल पहले जिस बच्चे को 2016 में ओलिंपिक में भारत की ओर से गोल्ड का दावेदार माना जा रहा था, वह दावेदार अब गुमनामी के अंधेरे में गुम हो चुका है। बुधिया सिंह अब भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम स्पोर्ट्स अथॉरिटी के हॉस्टल में रहता है और उसकी मां भुवनेश्वर की सालियासाही झोपड़पट्टी में रहती हैं। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT MOVIES ​ बुधिया की मैराथन हमेशा के लिए बंद हो गई है, बेशक सरकार बुधिया की पढ़ाई एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल में करवा रही है, लेकिन बुधिया यहां खुद को बंधा हुआ पाता है। कोच अब उसे अधिकतम 1500 मीटर की रेस ही दौड़ने की तैयारी करवाते हैं, लेकिन 65 किलोमीटर में दौड़ चुके बुधिया को यह पसंद नहीं। आज बुधिया दस साल पहले वाला वंडरकिड नहीं रहा और हॉस्टल में रहने वाले दूसरे बच्चों जैसा बन गया है। दूसरी ओर बुधिया को लगता है कि वह आज भी कई किमी दौड़ सकता है, लेकिन उसे अब सरकार की ओर से सही ट्रेनिंग और डाइट नहीं मिलती है। इस फिल्म के बाद खेल संगठनों को बुधिया की थोड़ी भी याद आती है तो यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। कहानी : करीब चार साल के बुधिया सिंह (मास्टर मयूर) को उसकी गरीब मां (तिलोत्तमा शोम ) ने कोच बिरंची दास को 800 रुपये में दे दिया था, क्योंकि वह उसका पेट नहीं पाल सकती थी। जूडो सेंटर चला रहे कोच बिरंची दास (मनोज बाजपेयी) ने बुधिया को अपनी सरपरस्ती में ले लिया। एक दिन बुधिया ने सेंटर के एक बच्चे को गाली दी तो बिरंची ने उसे सजा के तौर पर सेंटर का चक्कर लगाने की सजा दी। उसके बाद वह वाइफ के साथ मार्केट चले गए। घंटों बाद लौटे तो देखा बुधिया वहीं पर घंटों से दौड़ रहा है। इसके बाद बिरंची को लगा बुधिया में दौड़ने की अद्भुत क्षमता है और उन्होंने बुधिया की खास ट्रेनिंग शुरू कर दी। इसी ट्रेनिंग और बुधिया की लगन का ही परिणाम था कि बुधिया ने 65 किमी की दूरी सिर्फ 7 घंटे 2 मिनट में दौड़कर पूरी कर ली। इसके बाद चाइल्ड वेलफेयर सहित कई खेल संगठनों में कब्जा जमाएं नेताओं और अफसरों के होश उड़ गए। बुधिया ने पुरी से भुवनेश्वर तक की जिस दूरी को दौड़कर पूरा किया वह दूरी मैराथन रेस से भी कहीं ज्यादा थी। इस दौड़ में बुधिया और उसके कोच के साथ शहर के हजारों लोग और सीआरपीएफ के जवान भी शामिल हुए। करीब चार साल के बुधिया सिंह का नाम सबसे कम उम्र के मैराथन रेसर के रूप में लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में दर्ज हुआ। इसके बाद ओडिसा सहित देश के हिस्सों में भी लोगों ने इस बच्चे को 2016 में होने वाले ओलिंपिक में स्वर्ण पदक का दावेदार घोषित कर दिया। वहीं ओडिसा के चाइल्ड वेलफेयर डिपार्टमेंट सहित दूसरे खेल संगठनों को यह सब रास नहीं आ रहा था। इस वजह से बुधिया के मेडिकल टेस्ट करवाए जाने लगे। निर्देशन : निर्देशक सौमेन्द्र पढ़ी कहीं भी सब्जेक्ट से नहीं भटके। स्टार्ट टु लास्ट तक उनकी फिल्म और किरदारों पर पूरी पकड़ है। हालांकि, इंटरवल से पहले फिल्म की सुस्त रफ्तार खटकती है तो वहीं फिल्म का कई सवालों का जवाब दिए बिना अचानक खत्म हो जाना दर्शकों पसंद नहीं आया। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल पर फिट है, बैकग्राउंड में फिल्माए गाने कहानी का हिस्सा हैं। क्यों देखें : खेल संगठन और नेता आपसी खींचतान के बीच एक उभरते हुए प्रतिभा सम्पन्न यंग खिलाड़ी के सपनों को कैसे तोड़ते हैं, इस फिल्म में आप देख सकते हैं। मास्टर मयूर की बेहतरीन ऐक्टिंग फिल्म का प्लस पॉइंट है। ",1 "रेमो डिसूजा का नाम जब 'रेस 3' के डायरेक्टर के रूप में घोषित हुआ था तभी कई लोगों ने चिंता जाहिर कर दी थी। एबीसीडी तक तो ठीक है, लेकिन क्या वे रेस जैसी बड़े बजट और सलमान खान जैसे सुपरसितारे की फिल्म को ठीक से हैंडल कर पाएंगे? यह प्रश्न उठा था। 'रेस 3' देखने के बाद लगता है कि यह चिंता जायज थी। यदि रेस 3 अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है तो रेमो अकेले ही जिम्मेदार नहीं हैं। शिराज अहमद ढंग की कहानी नहीं लिख पाए, एक्टर्स और एक्टिंग में छत्तीस का आंकड़ा रहा और करोड़ों रुपये लगाने वाले निर्माता ने भी नहीं देखा कि पैसे का क्या हो रहा है। रेस (2008) और रेस 2 (2013) की कहानियां भी मजबूत नहीं थी, लेकिन अब्बास-मस्तान के प्रस्तुतिकरण, हिट म्युजिक और ग्लैमर के तड़के के कारण टाइम पास फिल्म तो बन ही गई थी, लेकिन रेस 3 इस सीरिज की सबसे कमजोर मूवी साबित हुई है। न माल अच्छा है और न ही पैकेजिंग। फिल्म की शुरुआत में शमशेर सिंह (अनिल कपूर) के परिवार का परिचय दिया जाता है। संजना (डेज़ी शाह) और सूरज (शाकिब सलीम) उसकी जुड़वां संतानें हैं। सिकंदर (सलमान खान) उसका सौतेला बेटा है। यश (बॉबी देओल) सिकंदर का बॉडी गार्ड है। जेसिका (जैकलीन फर्नांडीस) सिकंदर की प्रेमिका है। इन सबका दुश्मन राणा (फ्रेडी दारूवाला) है। शमशेर का अल शिफा में हथियार बनाने का अवैध कारखाना है। रेस सीरिज की फिल्मों की खासियत है कि जो जैसा दिखता है वो वैसा होता नहीं। यह बात रिश्ते से लेकर तो विश्वास तक पर लागू होती है। यहां भी ऐसा ही है। शमशेर के हाथ भारत के कुछ मंत्रियों के फोटो लगते हैं जिनमें वे रंगरेलिया मना रहे हैं। रंगरेलिया मनाने के वीडियो एक हार्ड डिस्क में है जो एक बैंक लॉकर में रखी हुई है। शमशेर चाहता है कि वो हार्ड डिस्क सिकंदर उसके लिए चुराए ताकि वह मं‍त्रियों को ब्लैकमेल कर सके। इस ऊटपटांग कहानी में कई अगर-मगर हैं जो समय-समय पर परेशान करते रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब मंत्रियों के फोटो ही हाथ लग गए हैं तो ही उन्हें ब्लैकमेल किया जा सकता है। हार्ड डिस्क चुराने की मेहनत ही क्यों जाए? इतनी सी बात अरबों की बात करने वालों के दिमाग में नहीं आती जबकि सभी को बेहद चालाक बताया गया है। इंटरवल के बाद सारा घटनाक्रम इसी बात को लेकर है और जब बुनियाद ही इतनी कमजोर है तो इस ड्रामेबाजी में बिलकुल मजा नहीं आता। साथ ही हार्ड डिस्क चुराने वाला ट्रैक इतना बेदम है कि इसमें कोई रोमांच ही नहीं है। शिराज़ अहमद का लेखन बेहद कमजोर है। उन्हें लगा कि कुछ-कुछ देर में दर्शकों को चौंकाया जाना चाहिए, बस काम हो जाएगा। फिल्म में इतने ट्विस्ट एंड टर्न्स डाल दिए कि चौंकने का मजा ही जाता रहा। कारण भी ठोस नहीं होने के कारण ये प्रभावित नहीं करते। फिल्म की स्क्रिप्ट अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखी गई है। जब जो चाहे कर दिया गया और बाद में उसे किसी तरह जस्टिफाई किया गया। लॉजिक की बात करना फिजूल है कि विदेशी धरती पर सड़कों पर मर्डर और बम विस्फोट कैसे हो रहे हैं? जहां तक प्लस पाइंट की बात है तो कुछ एक्शन सीन अच्छे लगते हैं। थ्री-डी में इन्हें देखने से मजा बढ़ जाता है। सिनेमाटोग्राफी शानदार हैं और फिल्म को भव्य लुक देती है। फिल्म के निर्माण में पैसा पानी की तरह बहाया गया है। बैकग्राउंड म्युजिक अच्छा है। फिल्म का संगीत कामचलाऊ है। केवल 'हिरिये' ही अच्छा लगता है। रेमो बेहतरीन कोरियोग्राफर हैं, लेकिन उनकी ही फिल्म में गानों की कोरियोग्राफी दमदार नहीं है। गानों की फिल्म में अधिकता है और ये 'ब्रेक' का काम करते हैं। फिल्म के संवाद अत्यंत साधारण हैं। एक्टिंग डिपार्टमेंट में भी फिल्म निराश करती है। सलमान खान पूरे रंग में नजर नहीं आए। उन्हें वैसे सीन मिले ही नहीं जिसमें वे अपने स्टारडम को साबित कर सके। उनकी एक्टिंग भी कमजोर है। इससे ज्यादा मनोरंजन तो वे बिग बॉस शो में करते हैं। जैकलीन फर्नांडीस और डेज़ी शाह में इस बात की रेस थी कि कौन सबसे घटिया एक्टिंग करता है। दोनों को एक्टिंग की 'एबीसीडी' भी नहीं आती। डेज़ी तो इस तरह से डायलॉग बोलती हैं कि हंसी छूटती है। बॉबी देओल ने जितनी मेहनत बॉडी बनाने में की है उसकी आधी भी एक्टिंग में कर लेते तो काम बन जाता। अनिल कपूर ही पूरी फिल्म में ईमानदारी से काम करते दिखे। राणा के नाम पर पूरी फिल्म में फ्रेडी दारूवाला का खूब डर खड़ा किया गया, लेकिन मुश्किल से चंद सीन उन्हें मिले। साकिब सलीम का रोल नहीं भी होता तो भी फिल्म पर कोई असर नहीं होता। फिल्म में बॉबी देओल एक संवाद बोलते हैं कि यदि रेस में तुम अकेले भी दौड़ो तो भी सेकंड ही आओगे। यही बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है। बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स, सलमान खान फिल्म्स निर्माता : रमेश एस. तौरानी, कुमार एस. तौरानी, सलमा खान निर्देशक : रेमो डिसूजा संगीत : मीत ब्रदर्स, विशाल मिश्रा, विक्की हार्दिक, शिवल व्यास, गुरिंदर सैगल, किरण कामत कलाकार : सलमान खान, जैकलीन फर्नांडीज़, बॉबी देओल, डेज़ी शाह, अनिल कपूर, साकिब सलीम, फ्रेडी दारूवाला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 41 सेकंड ",0 "अगर इस फिल्म के डायरेक्टर साकेत चौधरी की बात करें तो उनके नाम शाहरुख खान की फिल्म 'फिर भी दिल है हिदुस्तानी' भी दर्ज है। अब यह बात अलग है कि साकेत उस वक्त इस फिल्म के डायरेक्टर के सहायक हुआ करते थे। बतौर डायरेक्टर उनके नाम लीक से हटकर बनी फिल्में 'प्यार के साइड इफेक्ट्स' और बाद में इसी फिल्म का सीक्वल 'शादी के साइड इफेक्ट्स' भी दर्ज है। अब अगर उनकी इस नई फिल्म की बात करें तो यकीनन यह फिल्म साकेत की अब तक की पिछली फिल्मों के मुकाबले कहीं दर्जे बेहतर है। उन्होंने इस बार यह भी साबित करने की कोशिश की है कि अगर उनके पास दमदार और अच्छी स्क्रिप्ट हो तो वह एक ऐसी फिल्म बनाने का दम भी रखते हैं जो दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती हो।कहानी- फिल्म की कहानी चांदनी चौक की मेन बाजार में रेडीमेड गार्मेंट्स का शोरूम चलाने वाले पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में रहने वाले राज बत्रा (इरफान खान) की है। राज सरकारी स्कूल में हिंदी मीडियम से पढ़ा हुआ है और उसे टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलनी भी आती है। वहीं, अगर उसकी खूबसूरत वाइफ मीता उर्फ मीठू (सबा कमर) की बात करें तो उसे जमकर अंग्रेजी बोलनी आती है। मीता का बस एक ही सपना है कि उसकी इकलौती बेटी पिया बत्रा शहर के टॉप अंग्रेजी मीडियम में स्टडी करे। राज अपनी वाइफ को बहुत चाहता है और अपनी वाइफ के इस सपने को पूरा करने की कोशिश में लग जाता है। राज और मीता अपनी ओर से बहुत कोशिश करते हैं कि उनकी बेटी का ऐडमिशन अंग्रेजी मीडियम स्कूल में हो जाए। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए दोनों चांदनी चौक से दूर वसंत विहार रहने के लिए जाते है और कई स्कूलों में पूरी तैयारी के साथ इंटरव्यू देने जाते है। लेकिन उनकी सभी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं और तब उन्हें पता चलता है इन टॉप स्कूलों में गरीब कोटे में उनकी बेटी का ऐडमिशन हो सकता है। बस फिर क्या दोनों बेटी को साथ लेकर एक स्लम बस्ती में रहने भी आ जाते हैं। ऐक्टिंग- तारीफ करनी होगी इरफान खान की जिन्होंने चांदनी चौक के एक ऐसे बिजनसमैन के रोल को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है जो सरकारी स्कूल से पढ़ा हुआ है। यकीनन इस किरदार में इरफान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है और इरफान की वाइफ के रोल में सबा कमर का परफॉरमेंस भी तारीफ के काबिल है। इन दो कलाकारों के बीच दीपक डोबरियाल ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के दम पर कम फुटेज मिलने के बावजूद कमाल का अभिनय किया है। स्कूल को अपने कायदे-कानूनों पर चलाने वाली प्रिसिंपल के रोल में अमृता सिंह अपने किरदार में जमीं हैं। निर्देशन- साकेत चौधरी ने एक कसी हुई दमदार स्क्रिप्ट पर पूरी ईमानदारी के साथ काम किया है। वहीं, साकेत ने ऐसे टॉपिक पर बनी फिल्म में कई ऐसे लाइट सीन भी रखे जो दर्शकों को गुदगुदाने का काम करते हैं। दिल्ली की लोकेशन को साकेत ने अच्छे ढंग से पेश किया है। फिल्म में कई बेहतरीन वन लाइनर भी हैं। बेशक इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार कम हो जाती है लेकिन यह साकेत के दमदार निर्देशन का ही कमाल है कि उन्होंने फिल्म को कहीं भी डॉक्युमेंट्री नहीं बनने दिया। संगीत- इस फिल्म की रिलीज से कई हफ्ते पहले ही फिल्म के दो गाने 'सूट-सूट जिंदड़ी' और 'इश्क तेरा तड़पावे' म्यूजिक लवर्स की जुबान पर हैं। वहीं, डायरेक्टर साकेत की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन गानों को ऐसी सिचुएशन पर फिट किया है जहां यह कहानी में रुकावट नहीं बनते।इस फिल्म का रिव्यू गुजराती में पढ़ने के लिए क्लिक करें ",0 "हीरो के डबल रोल वाली फिल्में पिछले कुछ अरसे में कईं रिलीज हो चुकी हैं, लेकिन अब से करीब दो दशक पहले सलमान खान के साथ 'जुड़वा' बना चुके डायरेक्टर डेविड धवन ने एक बार फिर दिखा दिया है कि बात चाहे हीरो को डबल रोल में लेकर डबल एंटरटेनमेंट की हो या फिर डबल मस्ती की, वह इस जॉनर के मास्टर हैं। फिर चाहे उनका हीरो सलमान खान हो या फिर उनका खुद का बेटा वरुण धवन। करीब 20 साल बाद फिर से बनी जुड़वा 2 की कहानी वही पुरानी है और डायरेक्टर भी डेविड धवन ही हैं। लेकिन फिल्म को उन्होंने आज के अंदाज में एकदम नए फ्लेवर में पेश किया है। फिल्म में राजा (वरुण धवन) और प्रेम (वरुण धवन) जुड़वा बच्चे हैं, जिन्हें एक स्मगलर उनके पापा से दुश्मनी की वजह से अलग कर देता है। स्मगलर के गुंडों से बचने के लिए प्रेम के पैरंट्स उसे लेकर लंदन ले जाते हैं। जबकि राजा को मुंबई में एक गरीब औरत ने पाला है। वक्त के साथ दोनों राजा और प्रेम मुंबई व लंदन में जवान होते हैं। वक्त एक बार फिर खुद को दोहराता है, जब राजा उस स्मगलर के बेटे के गुंडों से बचने के लिए लंदन भागता है। लंदन की फ्लाइट में तेज-तर्रार राजा की मुलाकात अलीष्का (जैकलीन फर्नांडिस) से होती है। वहीं सीधा-सादा प्रेम जब कॉलेज पहुंचता है, तो वहां समारा (तापसी पन्नू) उसे रैंगिंग से बचाती है। उसके बाद शुरू होता है फुल मस्ती का दौर। प्रेम और राजा के हमशक्ल होने के चलते उनकी गर्लफ्रेंड्स से लेकर फैमिली, कॉलेज और वर्कप्लेस तक पर कंफ्यूजन होता है और साथ में फुल एंटरटेनमेंट भी।इंटरवल तक फिल्म में फुल मस्ती होती है। उसके बाद वही होता है, जो हिंदी फिल्मों में हमेशा से होता आया है। राजा अपनी बिछड़ी हुई फैमिली से मिल जाता है और साथ ही स्मगलर और उसके बेटे को भी सबक सिखा देता है। प्रेम और राजा का कंफ्यूजन खत्म होता है और दोनों की गर्लफ्रेंड्स भी उनकी हो जाती हैं। इस तरह हैपी एंडिंग पर फिल्म दी एंड होती है। डेविड धवन ने दो दशक बाद दोबारा से जुड़वा बनाने का रिस्क लिया, तो हर किसी को यह आशंका थी कि सलमान खान की जगह कोई और कैसे ले सकता है, लेकिन वरुण धवन ने न सिर्फ इस चैलेंज को स्वीकार किया, बल्कि खूबसूरती से निभाया भी। वहीं फिल्म के क्लाईमैक्स में सलमान खान की डबल रोल में एंट्री दर्शकों के एंटरटेनमेंट को डबल कर देती है। वरुण ने न सिर्फ प्रेम और राजा दोनों के रोल को बखूबी निभाया है, बल्कि शाहरुख से लेकन सलमान तक की हिट फिल्मों के डायलॉग की मजेदार मिमिक्री भी की है, जिन्हें सुनकर दर्शक सिनेमा में ही लोट-पोट हो जाते हैं। वरुण ने दिखा दिया है कि वह लंबी रेस का घोड़ा हैं और उनकी पिछली सफलताएं कोई तुक्का नहीं थीं। पिंक और नाम शबाना में सीरियस रोल करने वाली तापसी पन्नू समारा जैसी कूल लड़की के रोल में बिंदास लगती हैं। उन्होंने दिखा दिया कि वह किसी भी तरह के रोल कर सकती हैं। वहीं जैकलीन फर्नांडिस हमेशा की तरह बिंदास लगी हैं। मानना पड़ेगा कि जैकलीन ने बॉलिवुड में बखूबी अपनी जगह बना ली है। इनके अलावा फिल्म में राजपाल यादव, जॉनी लीवर, अनुपम खेर, पवन मल्होत्रा, उपासना सिंह और अली असगर जैसे कलाकारों की लंबी फौज है, जो कि अलग-अलग रोल्स में दर्शकों को गुदगुदाने का काम करते हैं। तापसी की मम्मी के रोल उपासना सिंह मस्त कॉमेडी करती हैं, तो जैकलीन के पापा के रोल में अनुपम खेर का जवाब नहीं। राजा के दोस्त के रोल में राजपाल यादव ने अच्छी वापसी की है। उधर फर्जी पासपोर्ट एजेंट के रोल में जॉनी लीवर, पुलिस ऑफिसर के रोल में पवन मल्होत्रा और डॉक्टर के रोल में अली असगर ने भी बढ़िया कॉमेडी की है। फिल्म के डायरेक्टर डेविड धवन ने दिखा दिया कि वह कॉमेडी के मास्टर हैं। फिल्म में कुछ चीजें और सीन आपको अटपटे लग सकते हैं, लेकिन असल में यही डेविड धवन का स्टाइल है। डेविड ने पुरानी जुड़वा से न सिर्फ कुछ गाने, बल्कि कुछ सीन भी कॉपी किए हैं। फिल्म के गाने 'गणपति बप्पा मोरिया', 'ऊंची है बिल्डिंग' और 'चलती है क्या 9 से 12' पहले से ही लोगों की जुबान पर हैं। दशहरा लॉन्ग वीकेंड पर अगर फैमिली के साथ फुल मस्ती करना चाहते हैं, तो जुड़वा 2 आपको निराश नहीं करेगी।",1 "निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा निर्देशक : बिजॉय नाम्बियार संगीत : प्रशांत पिल्लई कलाकार : राजीव खंडेलवाल, कल्कि कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, रामकुमार यादव सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट ‘शैतान’ देखते समय अक्षय कुमार वाली ‘खिलाड़ी’ की याद आती है जिसकी कहानी ‘शैतान’ से मिलती-जुलती है, इसके बावजूद शैतान देखने में मजा आता है क्योंकि इस कहानी को निर्देशक बिजॉय नाम्बियार ने अलग ही तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। साथ ही उन्होंने पुलिस डिपार्टमेंट खामियों और खूबियों तथा टीनएजर्स और उनके पैरेंट्स के बीच बढ़ती दूरियाँ वाला एंगल भी जोड़ा है, जिससे फिल्म को धार मिल गई है। एमी, डैश, केसी, जुबिन और तान्या किसी ना किसी वजह से अपने माता-पिता से नाराज है। किसी की अपने पैरेंट्स से इसलिए नहीं बनती क्योंकि उन्होंने दूसरी शादी कर ली तो कोई सिर्फ पैसा कमाने में व्यस्त है। एमी और उसकी गैंग को प्यार नहीं मिलता इसलिए उनके माँ-बाप उनकी जेबें रुपये से भर देते हैं, जिसकी वजह से ये शराब और ड्रग्स के नशे में हमेशा डूबे रहते हैं। टाइम पास करने के लिए तरह-तरह के जोखिम उठाते हैं जिनमें कार रेस भी शामिल है। ऐसी ही एक कार रेस में वे दो लोगों को कुचल देते हैं और इसके बाद उनकी जिंदगी में यू टर्न आ जाता है। अपने अपराध को छिपाने के लिए वे झूठ बोलकर एक नाटक रचते हैं, लेकिन बजाय बचने के पुलिस का फंदा कसता जाता है। परिस्थितियाँ बदलती हैं तो एक-दूसरे पर भरोसा करने वाले ये दोस्त कैसे एक-दूसरे के सामने खड़ा हो जाता है यह निर्देशक बिजॉय ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। जब आदमी को अपनी जान बचाना होती है तो वह नैतिकता, यारी-दोस्ती, कसमें-वादे सब कुछ भूलाकर अपने आपको बचाने में लग जाता है। उसका यह शैतान रूप तभी सामने आता है। पुलिस विभाग की सच्चाई को भी सामने रखा गया है। एक ओर ईमानदार पुलिस ऑफिसर भी हैं जो जान की बाजी लगाकर अपना काम करते हैं तो दूसरी ओर ऐसे ऑफिसर भी हैं जो साढ़े आठ हजार रुपये में ‘नि:स्वार्थ भाव’ से सेवा नहीं कर सकते हैं। अनुराग कश्यप से प्रभावित निर्देशक बिजॉय नाम्बियार की पकड़ फिल्म पर नजर आती है। हालाँकि बुरका वाला सीन ‘जाने भी दो यारो’ और मेडिकल स्टोर पर चोरी करने वाला सीन ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ की याद दिलाता है। बिजॉय ने ना केवल अपने कलाकारों से अच्छा काम लिया है, बल्कि कहानी को तेज रफ्तार से दौड़ाया है जिससे फिल्म का रोमांच बढ़ जाता है। रियल लोकेशन पर शूटिंग करने की वजह से फिल्म में वास्तविकता दिखाई देती है। दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी खींची हुई लगती है, लेकिन इससे फिल्म देखने का मजा खराब नहीं होता है। क्लासिक गीत ‘खोया खोया चाँद’ का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है जो पार्श्व में बजता रहता है और उस वक्त स्क्रीन पर गोलीबारी होती रहती हैं। बिजॉय का शॉट टेकिंग उम्दा है हालाँकि स्लो मोशन का उन्होंने ज्यादा उपयोग किया है। एमी के अतीत का बार-बार दिखाया जाना जिसमें उसकी माँ उसे बाथ टब में डूबा रही है फिल्म की गति को प्रभावित करता है। राजीव खंडेलवाल ‘आमिर’ के बाद एक बार फिर प्रभावित करते हैं। ‘रागिनी एमएमएस’ वाले रामकुमार यादव और कल्कि के अलावा ज्यादातर चेहरे अपरिचित हैं, लेकिन सभी अपने किरदार में डूबे हुए नजर आते हैं। कैमरा वर्क, लाइटिंग और संपादन के मामले में फिल्म सशक्त है। दो-तीन गाने थीम के अनुरुप हैं। अनूठे प्रस्तुतिकरण और रोमांच का मजा लेना चाहते हैं तो ‘शैतान’ को देखा जा सकता है। ",1 "महिलाओं में माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसका भारतीय समाज में बहुत बड़ा हौव्वा बना कर रखा गया है। इस बारे में बात करते समय लोग असहज हो जाते हैं। माहवारी के दिनों में 82 प्रतिशत महिलाएं गंदे कपड़े, राख और पत्तों का इस्तेमाल करती हैं। उन्हें कोई छूता नहीं है। घर या रसोई से उन्हें बाहर बैठा दिया जाता है। सभी उसे हेय दृष्टि से देखते हैं मानो उसने अपराध कर दिया हो। गरीबी और अशिक्षा इसका मूल कारण है। इन कठिन दिनों में सेनिटरी पैड्स के उपयोग से कई बीमारियों से बचा जा सकता है, लेकिन भारत की ज्यादातर महिलाओं ने इसके बारे सुना भी नहीं होगा क्योंकि इस देश में मात्र 18 प्रतिशत इसका इस्तेमाल करती हैं। कुछ करना चाहती हैं, लेकिन गरीबी उनके हाथ रोक देती है क्योंकि इनका उत्पादन करने वाली कं‍पनियां महंगे दामों में इन्हें बेचती है। आश्चर्य की बात है कि सरकार का भी अभी तक इस ओर ध्यान नहीं गया है। अरुणाचलम मुरुगानांथम नामक शख्स से यह नहीं देखा गया कि उनकी पत्नी पैड्स की बजाय घटिया तरीके आजमाए और बीमारियों को आमंत्रित करे। पैसा नहीं था तो खुद ही पैड बनाने की सोची। आठवीं पास इस इंसान ने बड़े इंजीनियरों को भी हैरत में डाल दिया जब उन्होंने पैड बनाने की मशीन का ईजाद किया। उन्होंने मात्र दो रुपये की लागत में पैड उपलब्ध कराए और लाखों महिलाओं को फायदा पहुंचाया। इन्हीं अरुणाचलम का जिक्र ट्विंकल खन्ना ने अपनी किताब 'द लीजैंड ऑफ लक्ष्मी प्रसाद' में किया। ट्विंकल यही नहीं रूकी। उन्होंने अरुणाचलम पर 'पैड मैन' नामक फिल्म भी बना डाली। जिसमें अक्षय कुमार ने लीड रोल निभाया है। यह फिल्म अरुणाचलम के जीवन से प्रेरित है। चूंकि इस पर फिल्म बनाना आसान बात नहीं है इसलिए लेखक और निर्देशक ने अपनी कल्पना के रेशे भी कहानी में जोड़े हैं। महेश्वर में रहने वाले लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) की शादी होती है। जब वह पत्नी को माहवारी के दिनों में गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करते देखता है तो सिहर जाता है। पैड्स खरीदने की उसकी हैसियत नहीं है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला लक्ष्मी दिमाग से तेज है। उसके दिमाग में आइडिए की कमी नहीं है। चीजों को बेहतर बनाकर जिंदगी को वह आसान बनाता है। उसकी पत्नी हनुमानजी के नारियल खाने और प्रसाद देने से चकित है, लेकिन वह जानता है कि हनुमानजी के अंदर एक मशीन काम कर रही है। लक्ष्मीकांत पैड बनाने की सोचता है। कुछ प्रयोग करता है जो असफल रहते हैं। महिलाओं, रिश्तेदारों, गांव वालों की बातें सुनना पड़ती है। यहां तक कि उसकी मां, बहनें और पत्नी भी उसे छोड़ कर चली जाती है, लेकिन वह पैड बनाने की मशीन बनाने की धुन में लगा रहता है और कामयाब होता है। उसकी इस यात्रा को फिल्म में बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। फिल्म को दो भागों में बांटा है। पहले भाग में इस मुद्दे पर लोगों की सोच को बताया है। लक्ष्मी जब पैड्स बनाने का काम शुरू करता है तो उसे 'ढीले नाड़े का आदमी' कह कर ताने मारे जाते हैं। उसे गांव तक छोड़ना पड़ता है। दूसरे भाग में पैड्स बनाने की मशीन को लेकर लक्ष्मीकांत के संघर्ष को दर्शाया गया है कि कैसे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होता है। लक्ष्मी के प्रयोगों को लेकर कई मजेदार सीन रचे गए हैं। वह पैंटी खरीदता है। पैड बनाता है। खुद पैड लगाता है। प्रयोग के लिए बकरे का खून उसमें डालता है। उसकी पैंट पर लगे खून को देख लोग घबरा जाते हैं। पैड के प्रयोग के लिए वह मारा-मारा घूमता है, लेकिन उसे फीडबैक ही नहीं मिलता कि वह सही कर रहा है या गलत। दुकानदार पैड को टेबल के नीचे से देता है मानो चरस-गांजा दे रहा हो। लक्ष्मी और उसकी पत्नी का रोमांस भी दिल को छू जाने वाला है। दूसरे हाफ में परी (सोनम कपूर) की एंट्री फिल्म को ताजगी देती है। परी उसकी पहली ग्राहक रहती है। परी के मुंह से लक्ष्मी का यह सुनना कि उसके द्वारा बनाया गया पैड भी अन्य पैड्स की तरह ही है, वाला सीन बेहतरीन है। इसमें अक्षय कुमार के एक्प्रेशन देखने लायक हैं। परी और उसके पिता की बॉण्डिंग भी प्रभावित करती है, 'पिता बच्चे को मां की तरह पाले तो ही मजा है' वाली बातें दिखाने में बाल्की माहिर हैं। निर्देशक रूप में बाल्की का काम शानदार हैं। एक ऐसा विषय जिस पर लोग बात करना पसंद नहीं करते, उस पर ऐसी फिल्म बनाना जो लोग पसंद करें, ढेढ़ा काम है, लेकिन बाल्की ने यह कर दिखाया। वे विषय की गहराई में गए। दर्शकों को बांधने के लिए मनोरंजक सीन बनाए और अपनी बात दर्शकों के सामने रखने में सफल रहे। बाल्की की तारीफ इसलिए भी की जा सकती है कि उन्होंने न तो फिल्म को डॉक्यूमेंट्री बनने दी और न ही सरकारी भोंपू। पहले हाफ में जरूर कुछ सीन अति नाटकीय हो गए, जैसे पंचायत पूरे गांव के सामने लक्ष्मीकांत को फटकार लगाती है। इस तरह के दृश्यों से बचा जा सकता था जिससे फिल्म की लंबाई भी कम हो जाती। लक्ष्मी और परी का एक-दूसरे की ओर आकर्षित होना भी थोड़ा अखरता है, लेकिन अरुणाचलम ने स्वीकारा है कि वे अपनी अंग्रेजी पढ़ाने वाली टीचर की ओर आकर्षित हो गए थे और उसी रिश्ते यहां पर निर्देशक ने दिखाया है। राधिका आप्टे उम्दा अभिनेत्री हैं। 'पैड मैन' में उन्हें ग्रामीण स्त्री का कैरेक्टर मिला है जिसे लोक-लाज का हमेशा भय सताता रहता है। इस किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। सोनम कपूर फिल्म को अलग ऊंचाई पर ले जाती हैं। परी के रूप में उनका अभिनय देखने लायक है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी का अभिनय उल्लेखनीय है। पी.सी. श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी शानदार हैं। उनके एरियल शॉट्स देखने लायक हैं। गाने थीम के अनुरुप हैं। अरुणाचलम मुरुगानांथम बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ऐसी मशीन बनाई जो सस्ते पैड्स बनाती है। 'पैड मैन' की टीम इसलिए बधाई की पा‍त्र है किइस कठिन विषय पर फिल्म बना कर लोगों का ध्यान इस ओर खींचा है। अब सरकारी की बारी है जो उन 82 प्रतिशत महिलाओं के बारे में सोचेजो पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं। बैनर : मिसेस फनीबोन्स मूवीज़, सोनी पिक्चर्स, क्रिअर्ज एंटरटेनमेंट, होप प्रोडक्शन्स, केप ऑफ गुड फिल्म्स निर्माता : ट्विंकल खन्ना, गौरी शिंदे, प्रेरणा अरोरा, अर्जुन एन. कपूर निर्देशक : आर. बाल्की संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : अक्षय कुमार, सोनम कपूर, राधिका आप्टे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 59 सेकंड ",1 "कहानी: फिल्म की कहानी 1962 के भारत- चीन युद्ध के बैकड्रॉप में कुमायूं के एक कस्बे जगतपुर में रहने वाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की है, जिसे उसके साथी उसकी बेवकूफाना हरकतों के चलते ट्यूबलाइट कहकर पुकारते हैं। रिव्यू: ट्यूबलाइट फिल्म के शुरुआती सीन में गांधी जी लोगों को को उपदेश देते नजर आते हैं, 'अगर मुझे यकीन है, तो मैं वह काम भी कर सकता हूं, जो करने की ताकत मुझमें नहीं है।' शायद इसी यकीन की बदौलत डायरेक्टर कबीर खान ने भी अमेरिकी फिल्म लिटिल बॉय की हिंदी अडप्टेशन में सलमान खान को साइन कर लिया, लेकिन वह भूल गए कि जिस चीज पर उन्हें यकीन है, जरूरी नहीं कि उस पर दर्शकों को भी यकीन होगा। जहां असल फिल्म लिटिल बॉय में एक बच्चा युद्ध में गए अपने पिता को वापस लाने की कोशिश करता है वहीं यहां सलमान खान युद्ध में गए अपने छोटे भाई सोहेल खान को वापस लाने की कोशिशें करते नजर आते हैं। पहले एक भोंदू बच्चे और फिर एक भोंदू आदमी के रोल में सलमान के फैंस उन्हें हजम नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी 1962 के भारत- चीन युद्ध के बैकड्रॉप में कुमायूं के एक कस्बे जगतपुर में रहने वाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की है, जिसे उसके साथी उसकी बेवकूफाना हरकतों के चलते ट्यूबलाइट कहकर पुकारते हैं। हालांकि उसका छोटा भाई भरत सिंह बिष्ट (सोहेल खान) अपने भाई को पूरा सपॉर्ट करता है। अपने मां-बाप के मर जाने के बाद लक्ष्मण और भरत जगतपुर में बन्ने चाचा (ओम पुरी) की सरपरस्ती में रह रहे हैं। इसी बीच भारत-चीन में युद्ध छिड़ जाता है और भरत मोर्चे पर चला जाता है। अपने भाई के बिना साइकल की चेन तक भी नहीं चढ़ा पाने वाला लक्ष्मण उसे बेहद मिस करता है और उसे वापस लाने की कोशिशों में जुट जाता है। इसके लिए लक्ष्मण बन्ने चाचा से गांधी जी की शिक्षाएं सीखता है। इसी बीच उनके कस्बे में चीनी महिला ली लिन (जू जू)और उसका बेटा गूवो (मातिन रे तांगुं) आ जाते हैं। चीन से लड़ाई की वजह से नाराज कस्बे वाले खासकर नारायण तिवारी (मोहम्मद जीशान अय्यूब) उन पर हमला करते हैं, लेकिन लक्ष्मण उनकी मदद करता है। कस्बे में एक जादूगर गोगो पाशा (शाहरुख खान) आता है, जो कि लक्ष्मण को यकीन जगा देता है कि वह चाहे तो कुछ भी कर सकता है। उधर लक्ष्मण को खबर मिलती है कि उसका भाई भरत चीनी फौज की कैद में है। तो क्या लक्ष्मण अपने भाई को वापस लाने में कामयाब हो पाता है? बात अगर डायरेक्शन की करें, तो कबीर खान की फिल्म पर कतई पकड़ नजर नहीं आती। एक अच्छी कहानी पर बनी फिल्म प्लॉट की गड़बड़ी के चलते दर्शकों को निराश करती है। खुद पर यकीन करने के फंडे के चलते कबीर ने फिल्म में सलमान से तमाम अटपटी चीजें कराई हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ कमजोर है, तो सेकंड हाफ में चीजें और भी खराब हो जाती हैं। कईं सीन तो बेहट अटपटे हैं। मसलन एक सीन में सलमान शर्ट-पैंट-स्वेटर और जूते पहनकर नदी में छलांग लगाते नजर आते हैं वहीं एक दूसरे सीन में सोहेल खान को गोली लग जाती है, तो वह अपने साथी को उसके फटे हुए जूतों की बजाय अपने जूते पहनने को कहता है। उसका साथी सोहेल के जूते पहनता है, इतने में उसे भी गोली लग जाती है, लेकिन जब भारतीय सेना के सिपाही उनके पास पहुंचते हैं, तो वहां उन्हें दोनों के पैरों में जूते नजर आते हैं। सलमान खान के फैंस उन्हें दबंग अंदाज वाले रोल्स में देखना पसंद करते हैं, लेकिन इस फिल्म में वह एक निरीह आदमी के रोल में नजर आते हैं, जो कि पूरी फिल्म में दूसरों के सामने रोता-गिड़गिड़ाता ही रहता है। सलमान जितनी बार इमोशनल सीन करते हैं, उतनी बार फैंस हंसते नजर आते हैं। खासकर सेना की भर्ती वाले सीन में और पूरी फिल्म के दौरान अपनी जिप बंद करने के दौरान सलमान फैंस का खूब मनोरंजन करते हैं वहीं रोने के सींस में कई बार सलमान ओवर ऐक्टिंग करते नजर आते हैं। सोहेल खान के पास फिल्म में ज्यादा सीन नहीं हैं, लेकिन कास्टिंग के लिहाज से देखें, तो वह सलमान के छोटे कम और बड़े भाई ज्यादा नजर आते हैं। बन्ने चाचा के रोल में ओम पुरी जमे हैं, तो मोहम्मद जीशान ने भी अच्छा रोल किया है वहीं जू जू और मातिन रे तांगुं फिल्म का सरप्राइज पैकेज हैं। हालांकि शाहरुख खान ने इस फिल्म में बेहद छोटा जादूगर का रोल क्यों साइन किया? इसका जवाब वह खुद ही दे सकते हैं। फिल्म में लद्दाख की वादियां खूबसूरत लगती हैं इंडो-चाइना वॉर को भी दर्शाने की बेहतर कोशिश की गई है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी दर्शकों को बांधने वाला है। बात अगर म्यूजिक की करें, तो रेडियो सॉन्ग पहले से ही फैंस के बीच पॉप्युलर हो चुका है, जिसका पिक्चराइजेशन खूबसूरत तरीके से किया गया है। फिल्म के बाकी गाने भी दर्शकों को बांधते हैं। पहले यह फिल्म 2 घंटे 35 मिनट की शूट हुई थी, लेकिन फिर इसे एडिट करते 2 घंटे 16 मिनट कर दिया गया। अगर कबीर चाहते, तो फिल्म पर 15 मिनट की और कैंची चलाकर इसे और टाइट बना सकते थे। बावजूद इसके अगर आप सलमान के जबर्दस्त फैन हैं, तो ईद पर उनसे मिलने सिनेमाघर जा सकते हैं। रिव्यू गुजराती में पढ़ें ",0 रेणुका व्यवहारेकहानी: पुणे में रहने वाले नेत्रहीन पियानिस्ट आकाश (आयुष्मान खुराना) एक मर्डर के बाद छिपा हुआ है। परिस्थितियां उसे इस मर्डर की शिकायत करने के लिए मजबूर करती हैं। हालांकि टेक्निकली वह मर्डर का 'गवाह' नहीं है लेकिन आंखें नहीं होने के बावजूद इस मर्डर को रिपोर्ट करना उसके लिए जरूरी बन जाता है। रिव्यू: श्रीराम राघवन अपनी थ्रिलर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं और अपने इस हुनर का इस्तेमाल 'अंधाधुन' में उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। बहुत ही कम फिल्म मेकर ऐसे हैं जो इस जॉनर की फिल्में बेहतरीन तरीके से बना पाते हैं। फिल्म बताती है कि जरूरी नहीं कि जो दिखता है वही सच हो। एक नेत्रहीन पियानिस्ट के रूप में आयुष्मान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। यह फिल्म 2010 में आई ऑलिवर ट्रीनर की फ्रेंच शॉर्ट फिल्म 'लैकोकरों' से प्रेरित है। पूरी फिल्म आपको कहानी से बांधे रखती है और आप का दिमाग फिल्म में डूबा रहता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है और कहानी के ट्विस्ट इसे दर्शकों के लिए रोमांचक बना देते हैं। हालांकि कैरक्टर्स के बीच लंबी बातचीत कभी-कभी कहानी को रोक देती है और फिल्म को बोझिल सा बना देती हैं। लेकिन इससे कहानी पर असर नहीं पड़ता है और क्लाइमैक्स आपको चौंका देता है। 'अंधाधुन' में आयुष्मान का रोल उनके करियर का अब तक का सबसे बेहतरीन कैरक्टर है। इस फिल्म से उन्होंने यह साबित कर दिया है कि वह हर तरह का किरदार निभा सकते हैं। तबू हमेशा की तरह अपने रोल में बेहतरीन दिखी हैं जबकि सुपरहिट मराठी फिल्म 'सैराट' में काम कर चुकीं ऐक्ट्रेस छाया कदम और अश्विनी कलसेकर अपनी छाप छोड़ती हैं। अमित त्रिवेदी ने अच्छा म्यूजिक दिया है जो कहानी के साथ मैच करता है। कुल मिलाकर अगर आप थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं तो 'अंधाधुन' आपके लिए एक अच्छा पैकेज है।,0 "वह अपनी पत्नी की 'औरतों वाली बात' यानी मेंस्ट्रुअल हाइजीन के मुद्दे को लेकर इतना ज्यादा विचलित हो जाता है कि उस समस्या का निवारण करने के लिए खुद सैनिटरी पैड बनाने की ठान लेता है, मगर वह जिस दौर में यह निर्णय लेता है, वह है करीब 16 साल पहले यानी 2001 की बात, जब टीवी पर किसी सैनिटरी पैड के विज्ञापन के आने पर या तो चैनल बदल दिया जाता था या पूछे जाने पर उसे साबुन या किसी और ऐड का नाम दिया जाता था। ग्रामीण इलाकों में तो इसे गंदा और अपवित्र मानकर इसके बारे में बात करना भी पाप समझा जाता था। उस परिवेश की अरुणाचलम मुरुगनंथम की सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म पैडमैन के जरिए निर्देशक आर. बाल्की और अक्षय कुमार ने मेंस्ट्रुअल हाइजीन के प्रति लोगों को जागरूक करने की दमदार पहल की है। कहानी: लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) को गायत्री (राधिका आप्टे) से शादी करने के बाद पता चलता है कि माहवारी के दौरान उसकी पत्नी न केवल गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती है बल्कि उसे अछूत कन्या की तरह 5 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है। उसे जब डॉक्टर से पता चलता है कि उन दिनों में महिलाएं गंदे कपड़े, राख, छाल आदि का इस्तेमाल करके कई जानलेवा और खतरनाक रोगों को दावत देती हैं तो वह खुद सैनिटरी पैड बनाने की कवायद में जुट जाता है। जानिए, दर्शकों को कैसी लगी यह फिल्म इस सिलसिले में उसे पहले अपनी पत्नी, बहन, मां के तिरस्कार का सामना करना पड़ता है और फिर गांववाले और समाज उसे एक तरह से बहिष्कृत कर देते हैं, मगर जितना वह जलील होता जाता है उतनी ही उसकी सैनिटरी पैड बनाने की जिद पक्की होती जाती है। परिवार उसे छोड़ देता है, मगर वह अपनी धुन नहीं छोड़ता और आगे इस सफर में उसकी जिद को सच में बदलने के लिए दिल्ली की एमबीए स्टूडेंट परी (सोनम कपूर) उसका साथ देती है। रिव्यू: 'चीनी कम', 'पा', 'शमिताभ' और 'की ऐंड का' जैसी लीक से हटकर फिल्में परोसनेवाले निर्देशक आर. बाल्की ने पूरी कोशिश की है कि वह मेंस्ट्रुअल हाइजीन के मुद्दे को हर तरह से भुना लें। इसमें कोई दो राय नहीं कि मासिक धर्म को लेकर समाज में जितने भी टैबू हैं उनसे पार पाने के लिए यह आज के दौर की सबसे जरूरी फिल्म है, मगर कई जगहों पर बाल्की भावनाओं में बहकर फिल्म को उपदेशात्मक बना बैठे हैं। सैनिटरी पैड को लेकर फैलाई जानेवाली जागरूकता की कहानी कई जगहों पर खिंची हुई लगती है। हालांकि बाल्की ने उसे चुटीले संवादों और लाइट कॉमिक दृश्यों के बलबूते पर संतुलित करने की कोशिश जरूर की है। फिल्म का दूसरा भाग पहले भाग की तुलना में ज्यादा मजबूत है। बाल्की ने दक्षिण के बजाय मध्यप्रदेश का बैकड्रॉप रखा जो कहानी को दिलचस्प बनाता है। अक्षय कुमार फिल्म का सबसे मजबूत पहलू हैं। उन्होंने पैडमैन के किरदार के हर रंग को दिल से जिया है। एक अदाकार के रूप में वह फिल्म में हर तरह से स्वछंद नजर आते हैं और अपने रोल में दर्शकों को निश्चिंत कर ले जाते हैं कि परिवार और समाज द्वारा हीनता का शिकार बनाए जाने के बावजूद वह सैनिटरी पैड क्यों बनाना चाहते हैं? राधिका आप्टे आज के दौर की नैचरल अभिनेत्रियों में से एक हैं और उन्होंने अपने रोल को सहजता से अंजाम दिया है। परी के रूप में सोनम कपूर कहानी ही नहीं बल्कि फिल्म में भी राहत का काम करती हैं। फिल्म की सपॉर्टिंग कास्ट भी मजबूत है। फिल्म में महानायक अमिताभ बच्चन की एंट्री प्रभाव छोड़ जाती है। अमित त्रिवेदी के संगीत में 'पैडमैन पैडमैन', 'हूबहू', 'आज से मेरा हो गया' जैसे गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही हिट हो चुके हैं। क्यों देखें: अक्षय कुमार की ऐक्टिंग के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है। इसके साथ ही अगर आप खास मुद्दों पर बनीं फिल्में देखना पसंद करते हैं तो 'पैडमैन' देखें।",0 "कुछ साल पहले तक दिल्ली सहित कई दूसरे शहरों के सिनेमाघरों में हर वीकेंड सुबह के शोज़ में बच्चों के लिए फिल्में प्रदर्शित हुआ करती थीं। इन फिल्मों में चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी के साथ-साथ दूसरे मेकर की बरसों से रिलीज के लटकती ऐसी फिल्में भी होती थीं, जो खासतौर से बच्चों की पसंद को ध्यान में रखकर बनाई गई हो। अब ऐसा नहीं है कि सिनेमा संचालक अपने यहां बच्चों के लिए बनी फिल्में लगाना सौ फीसदी घाटे का सौदा मानते हैं। पहले इन फिल्मों को सरकार की ओर से टैक्स फ्री किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पूरे साल बच्चों की पंसद को ध्यान में रखकर बनी फिल्मों की बात की जाए तो इन फिल्मों की संख्या साल दर साल कम हो रही हैं। मेकर इसकी बड़ी वजह मल्टिप्लेक्सों में स्क्रीन का न मिलने के साथ-साथ सरकारी रवैया भी मानते हैं। 'ब्लू माउंटेन' भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसमें बच्चों को जीत के साथ हार से कुछ सीखने और आगे बढ़ने का दमदार मेसेज दिया गया है। स्मॉल स्क्रीन पर इन दिनों चल रहे रीऐलिटी शो से ग्लैमर की दुनिया में अपनी पहचान का ख्वाब देख रही जेन एक्स की इस कहानी में जहां इन शोज के पीछे की सच्चाई को ईमानदारी से दिखाया गया है तो वहीं शोज में विनर न बन पाने वालों के लिए भी एक अच्छा दमदार मेसेज है। इस फिल्म को कई फिल्म फेस्टिवल में सराहा गया तो फिल्म ने कई अवॉर्ड भी अपने नाम किए। लगान और मुन्ना भाई एमबीबीएस से सुर्खियों में आई ग्रेसी सिंह लंबे अर्से बाद इस फिल्म में नजर आईं, तो वहीं म्यूजिक डायरेक्टर आदेश श्रीवास्तव की भी यह आखिरी फिल्म है। आदेश ने मृत्यु से पहले इस फिल्म के दो गानों का संगीत तैयार किया। शिमला, कुफरी और नारकंडा की लोकेशन पर शून्य से पांच डिग्री से भी कम तापमान में फिल्म की शूटिंग की गई है, बर्फबारी के बीच और फौरन बाद इन लोकेशन पर फिल्माए फिल्म के कई सीन का जवाब नहीं। कहानी : वाणी शर्मा (ग्रेसी सिंह) एक जानीमानी सिंगर और डांसर हैं। वाणी की सुरीली आवाज का पूरा शहर दीवाना है। संगीत की दुनिया में वाणी की खास पहचान बन चुकी है। वाणी अपने संगीत के इस सफर को अपने प्रेमी ओम (रणवीर शौरी) की खुशी के लिए हमेशा के लिए अलविदा कह देती है। वाणी अब ओम की वाइफ बन चुकी है। वाणी और ओम शिमला में अपने बेटे सोम शर्मा (यथार्थ रत्नम) के साथ रहते हैं। सोम के मन में कभी इंजिनियर तो कभी क्रिकेटर बनने की चाह जगती रहती है। ओम भी यही चाहता है कि सोम स्टडी में हमेशा टॉप आकर आगे की स्टडी के लिए विदेश जाए। सोम एक दिन शहर में हो रहे एक टॉप सिगिंग रिऐलिटी शो के ऑडिशन में हिस्सा लेता है। यहां उसे चुन लिया जाता है। दूसरी ओर ओम को यह पसंद नहीं कि उसका बेटा बोर्ड की परीक्षा की तैयारी छोड़कर किसी टीवी शो के रिऐलिटी शो में हिस्सा लेने मुंबई जाए। वहीं, वाणी को लगता है सोम के दवारा वह अब अपने अधूरे टॉप सिंगर बनने के सपने को साकार होते देख सकती है। वाणी की जिद के सामने ओम हार मान लेता है, वाणी और सोम पूरी तैयारी करने के बाद मुंबई पहुंचते हैं। सोम को इस शो के हर एपिसोड में लगातार कामयाबी मिल रही है। शो के तीनों जज उसकी आवाज की जी भरकर तारीफें करने के साथ-साथ उसे दस में से दस अंक भी दे रहे हैं। सोम अब टीवी का स्टार बन रहा है, लोग उसके ऑटोग्राफ लेने लगे हैं, लेकिन शो के फाइनल एपिसोड में अचानक सोम की आवाज उसका साथ नहीं देती और उसे शो से बाहर कर दिया जाता है। ऐक्टिंग : वाणी शर्मा के किरदार में ग्रेसी सिंह ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। ग्रेसी ने इस किरदार को अपने जीवंत अभिनय से स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है, वहीं ग्रेसी ने खुद को ऐसी बेहतरीन ऐक्ट्रेस भी साबित कर दिखाया जो किसी भी किरदार में फिट हो सकती है। रणवीर शौरी का काम बस ठीकठाक रहा तो सोम शर्मा के रोल में यथार्थ रत्नम ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। घरों में दूध की सप्लाई करने दामोदर के रोल में राजपाल यादव खूब जमे हैं। निर्देशन : सुमन गांगुली ने पूरी ईमानदारी के साथ स्क्रिप्ट पर काम किया है। समीर ने जहां फिल्म के सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया तो वहीं हर किरदारों को दमदार बनाने के लिए होमवर्क भी किया है। इंटरवल के बाद फिल्म की गति अचानक रुक सी जाती है, खासकर शो से बाहर होने के बाद सोम के रुख को कुछ ज्यादा ही अग्रेसिव दिखाया गया है तो वहीं फिल्म का क्लाइमैक्स भी आसानी से हजम नहीं होता। संगीत : फिल्म के गाने, कहानी और माहौल पर पूरी तरह से फिट हैं, लंबे अर्से बाद गानों में क्लासिकल संगीत का अच्छा सामंजस्य नजर आया। 'आई लव यू मॉम' फिल्म का बेहतरीन गाना है। क्यों देखें: शिमला, कुफरी, नारकंडा की ऐसी गजब खूबसूरत बर्फीली लोकेशन जो आपको स्वीटजरलैंड की लोकेशन का एहसास कराएगी। मधुर संगीत, ग्रेसी सिंह की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ बच्चों के लिए अच्छा मेसेज इस फिल्म को देखने की वजह हो सकती है।",1 "एअरलिफ्ट की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया जाता है कि रंजीत कटियाल नामक कोई बंदा है ही नहीं, हालांकि प्रचार में यह बात छिपाई गई थी। 36 वर्ष पूर्व घटी घटना को काल्पनिक चरित्र डालकर पेश किया गया है। रंजीत कटियाल की प्रेरणा मैथ्युज और वेदी नामक दो भारतीयों से ली गई है जिन्होंने 1990 में कुवैत में फंसे एक लाख सत्तर हजार भारतीयों की वापसी में अहम भूमिका निभाई थी, जब वहां पर सद्दाम हुसैन की इराकी सेना ने हमला बोल दिया था। यह ऐसी घटना है जिसमें कई गुमनाम हीरो ने बहादुरी दिखाई और उनकी चर्चा भी नहीं हुई। रंजीत कटियाल कुवैत में बिज़नेस करने वाला भारतीय है जो अपने आपको कुवैती मानता है। हिंदी फिल्मों के गाने सुनने की बजाय अरबी धुन सुनना पसंद करता है। ये बात और है कि अगले सीन में ही वह हिंदी में गाना गाते दिखता है। 'जब चोट लगती है तो मम्मी ही याद आती है', इस बात का उसे तब अहसास होता है जब कुवैत पर हमला हो जाता है और वहां की सरकार कोई मदद नहीं करती। वह अपने परिवार को लेकर भारत जाना चाहता है, लेकिन उसके अंदर का मसीहा तब जाग जाता है जब वह देखता है कि उसके जैसे एक लाख सत्तर हजार लोग हैं जो अपने देश लौटना चाहते हैं। वह सबको इकट्ठा करता है। उनके खाने का इंतजाम कर अपने स्तर पर घर वापसी की कोशिश शुरू कर देता है। रंजीत भारत सरकार के एक ऑफिसर्स से बात करता है। इराक जाकर मंत्री से मिलता है। उसकी इस कोशिश को फिल्म में मुख्य रूप से उभारा गया है। भारत सरकार की सुस्त रफ्तार, मामले को गंभीरता से नहीं लेना, कदम-कदम पर इराकी लड़ाकों से खतरा, चारों तरफ हताश लोग, बावजूद इसके रंजीत हिम्मत नहीं खोता और अंत में भारत सरकार से उसे मदद मिलती है। तारीफ एअर इंडिया के पायलेट्स की भी करना होगी जो पौने पांच सौ से ज्यादा उड़ानों के जरिये वहां फंसे भारतीयों को देश लाते हैं जो कि एक बड़ा बचाव ऑपरेशन था। फिल्म में डिटेल पर खासा ध्यान दिया गया है। कुवैत में शूटिंग, उस दौर के टीवी, फोन, युवा सचिन तेंडुलकर, बालों में फूल लगाकर समाचार पढ़ती सलमा सुल्तान जैसी समा‍चार वाचिका की वजह से हम 90 के दशक में पहुंच जाते हैं। इराकी सैनिकों की बर्बरता और भारतीयों की लाचारी भी दिखाई देती है, लेकिन फिल्म से वो उतार-चढ़ाव नदारद हैं कि दर्शक अपनी सीट से चिपके रहें। अक्षय कुमार फिल्म के हीरो हैं, लेकिन उन्हें हीरोगिरी दिखाने के अवसर नहीं मिलते। ज्यादातर समय वे सिर्फ बात करते रहते हैं और कोई ठोस योजना नहीं बनाते। बातचीत वाले सीन दिलचस्प नहीं हैं, इस वजह से बीच-बीच में बोरियत से भी सामना होता है और फिल्म ठहरी हुई लगती है। निर्देशक राजा कृष्ण मेनन ने भले ही काल्पनिक चरि‍त्र डाले हों, लेकिन घटना को वास्तविक तरीके से दर्शाने के चक्कर में उनकी फिल्म इंटरवल तक सपाट है। इंटरवल के बाद फिल्म में रफ्तार आती है जब परदे पर घटनाक्रम होते हैं। यदि कहानी में थोड़ी कल्पनाशीलता डाली जाती तो फिल्म में थ्रिल पैदा होता। जहां एक ओर भारतीय सरकार की सुस्त शैली दिखाई गई है तो कोहली जैसा सामान्य ऑफिसर भी दिखाया है जो दिल्ली में बैठ कुवैत में फंसे भारतीयों के लिए परेशान होता रहता है। फिल्म से स्पष्ट होता है कि इस ऑपरेशन में सरकार की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी और ऑफिसर्स के दम पर ही यह संभव हो पाया है। एअर लिफ्ट के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में दो किरदार ऐसे हैं जिनका उल्लेख जरूरी है। प्रकाश वेलावडी ने जॉर्ज नामक किरदार निभाया है, जो हर किसी को अपने सवालों से बेहद परेशान करता है। वह करता कुछ नहीं है, लेकिन हर चीज में मीनमेख निकालता है। प्रकाश ने बेहतरीन अभिनय किया है। दूसरा किरदार इराकी मेजर खलफ बिन ज़ायद का है जिसे इनामुलहक ने अदा किया है। उनका हिंदी बोलने का लहजा और बॉडी लैंग्वेज जबरदस्त है। वे जब स्क्रीन पर आते हैं, राहत देते हैं। कुछ किरदार स्टीरियोटाइप लगे हैं जैसे पूरब कोहली और निमरत कौर के किरदार। इन्हें एक-दो सीन इसलिए दे दिए गए हैं ताकि इन्हें अपना हुनर दिखाने का मौका मिले। अक्षय कुमार ने ऐसा चरित्र पहली बार निभाया है। रंजीत ‍कटियाल का गुरूर और फिर हताशा को उन्होंने अच्छे से दर्शाया है। निर्देशक ने उन्हें सिनेमा के नाम पर कोई छूट नहीं लेने दी है और उनके कैरेक्टर को रियलिटी के करीब रखा है। रंजीत के किरदार में अक्षय ऐसे घुसे की कभी भी वह उनकी पकड़ से नहीं छूटा। प्रिया सेठ की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। गाने फिल्म में अड़चन पैदा करते हैं और निर्देशक को इससे बचना चाहिए था। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., केप ऑफ गुड फिल्म्स, क्राउचिंग टाइगर मोशन पिक्चर्स, एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : अरूणा भाटिया, मोनिषा आडवाणी, मधु भोजवानी, विक्रम मल्होत्रा, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार निर्देशक : राजा कृष्ण मेनन संगीत : अमाल मलिक, अंकित तिवारी कलाकार : अक्षय कुमार, निमरत कौर, पूरब कोहली, प्रकाश वेलावडी, इनामुलहक सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 4 मिनट 30 सेकंड ",1 "कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘हरि पुत्तर’ समय और पैसे की बर्बादी है। निर्माता : लकी कोहली, मुनीष पुरी, ए पी पारिगी निर्देशक : लकी कोहली, राजेश बजाज संगीत : आदेश श्रीवास्तव, गुरु शर्मा कलाकार : ज़ैन खान, सारिका, जैकी श्रॉफ़ सौरभ शुक्ला, विजय राज, स्विनी खारा, शमिता शेट्टी (विशेष भूमिका) लंबे-चौड़े सिनेमाघर में ‘हरि पुत्तर’ देखने की हिम्मत पंद्रह-बीस लोग जुटा पाए थे। पहले पाँच मिनट में ही समझ में आ गया कि कितनी घटिया फिल्म आगे झेलना पड़ेगी। थोड़ी देर बाद कुछ दर्शक पैसा बर्बाद होने का रोना रोने लगे थे। इंटरवल होते ही एक दर्शक चिल्लाया इंटरवल हो गया। अरे, भई सबको पता है, इसमें चिल्लाने वाली क्या बात है। लेकिन वह शायद इसलिए खुश था कि थोड़ी देर के लिए वह इस कैद से छूट गया। पॉपकॉर्न लेकर मैं फिर फिल्म देखने के लिए बैठा। फिल्म शुरू हुई तो आधे से ज्यादा दर्शक गायब हो चुके थे। वे समझदार थे। जो बैठे थे उनकी अपनी कुछ मजबूरी होगी। बात की जाए फिल्म की। इस फिल्म से जुड़े लोगों ने अपनी अकल बिलकुल भी खर्च नहीं की। ‘हैरी पॉटर’ से नाम कॉपी कर उसका देशी संस्करण ‘हरि पुत्तर’ कर दिया। कहानी ‘होम अलोन’ नामक फिल्म से उठा ली, लेकिन नकल में भी अकल चाहिए, जो निर्देशकों में नहीं थी। एक नहीं बल्कि दो लोगों (लकी और राजेश) ने इसे निर्देशित किया, पता नहीं एक बनाता तो क्या हाल होता। लगता है कि उन्होंने आज के बच्चों को भी अपने जैसा ही समझ लिया है और ‘हरि पुत्तर’ नामक घटिया फिल्म बना डाली। इस तरह की फिल्म को आज के बच्चे पसंद करेंगे, पता नहीं उन्होंने यह कैसे सोच लिया। हैरत होती है फिल्म पर पैसा लगाने वालों की समझ पर। हरिप्रसाद (ज़ैन खान) उर्फ हरि पुत्तर दस वर्ष का समझदार लड़का है। हाल ही में वह भारत से यूके रहने आया है। उसके पिता प्रोफेसर ढूंडा एक सीक्रेट मिशन पर हैं और उन्होंने घर पर एक चिप में कुछ गोपनीय जानकारी रखी है। उस चिप की तलाश में कुछ भाई किस्म के लोग हैं। हरि के घर पर उसकी आंटी (लिलेट दुबे) और अंकल (जैकी श्रॉफ) ढेर सारे बच्चों के साथ आते हैं। वे बच्चे न केवल ‍हरि को सताते हैं, बल्कि हरि को अपने कमरे से भी हाथ धोना पड़ता है। पूरा परिवार छुट्टियों के लिए दूसरे शहर जाता है, लेकिन वे घर पर हरि पुत्तर और टुकटुक (स्विनी खारा) को भूल जाते हैं। उस चिप की तलाश में दो गुंडे (सौरभ शुक्ला और विजय राज) हरि के घर में घुसते हैं। हरि और टुकटुक उनसे मुकाबला कर उस चिप को बचाते हैं। फिल्म का एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसे अच्छा कहा जा सके। फिल्म की पटकथा इतनी बुरी लिखी गई है कि एक दृश्य दूसरे से मेल नहीं खाता। ऐसा लगता है कि कुछ दृश्यों को फिल्माकर आपस में जोड़ दिया गया है। कई घटनाक्रम ऐसे हैं, जो क्यों रखे गए हैं, समझ के बाहर है। जब भाई के आदमी (सौरभ और विजय) चिप चुराने हैरी के घर जाते हैं तो रास्ते में वे एक दुकान पर महिला से पूछते हैं कि घर में कोई है या नहीं, जबकि उस महिला का उस घर से कोई संबंध नहीं है। निर्देशन नामक कोई चीज है, फिल्म देखकर महसूस नहीं होता। फिल्म की फोटोग्राफी धुँधली है। सौरभ शुक्ला, विजय राज, जैकी श्रॉफ और सारिका ने अपने घटिया अभिनय से खूब बोर किया। ज़ैन खान का काम ठीक-ठाक है, जबकि स्विनी को ज्यादा अवसर नहीं मिला। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘हरि पुत्तर’ समय और पैसे की बर्बादी है। ",0 " बैनर : यूटीवी स्पॉट बॉय निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : अभिषेक कपूर संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, अमित साध, राजकुमार यादव, अमृता पुरी सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 6 मिनट मेल बॉडिंग पर पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्में जैसे रंग दे बसंती, थ्री इडियट्स, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हैं। ‘काई पो छे’ के निर्देशक अभिषेक कपूर की पिछली फिल्म ‘रॉक ऑन’ भी मेल बांडिंग पर आधारित थी और नई फिल्म भी है। रॉक ऑन में बैंड बनाने को लेकर दोस्तों के आपसी संघर्ष को दिखाया गया था, जबकि काई पो छे में गुजरात की पृष्ठभूमि में दोस्तों की कहानी कही गई है। एक अभिनेता के रूप में असफल रहने के बाद अभिषेक कपूर उर्फ गट्टू ने कैमरे के पीछे जाने का निर्णय लिया और रॉक ऑन जैसी फिल्म बनाकर सभी को चौंका दिया। ‘काई पो छे’ देखने के बाद कहा जा सकता है कि उनका यह निर्णय एकदम सही है। एक निर्देशक के रूप में न केवल उन्होंने बेहतरीन कहानी चुनी बल्कि उसे सराहनीय तरीके से परदे पर पेश किया। फिल्म में ऐसे कई घटनाक्रम हैं जहां पर निर्देशक लाउड हो सकता था, ड्रामा क्रिएट कर सकता था, लेकिन अभिषेक ने कहानी को विश्वसनीय रहने दिया और सिनेमा के नाम पर लिबर्टी नहीं ली। कहानी वर्ष 2000 की है। ईशान (सुशांत राजपूत), गोविंद (राजकुमार यादव) और ओमी (अमित साध) की पढ़ाई पूरी हो चुकी है। वे एक औसत विद्यार्थी रहे हैं और उनके मां-बाप का कोई व्यवसाय भी नहीं है। वे निठल्ले बैठ क्रिकेट मैच देखते रहते हैं। जब माता-पिता का दबाव बढ़ता है तो एक मंदिर के पास खेल का सामान बेचने की दुकान और क्रिकेट ट्रेनिंग सेंटर खोलते हैं। ओमी के मामा इस मामले में तीनों की सहायता करते हैं जो खुद एक राजनीतिक पार्टी से जुड़े हैं। गोविंद का नजरिया व्यावसायिक है। वह बच्चों की ट्यूशन भी लेता है और दुकान भी संभालता है। हर काम हिसाब-किताब लगाकर करता है। ईशान का क्रिकेट ही धर्म है और हमेशा दिल से फैसले लेता है। ओमी थोड़ा इमोशनल बंदा है और वह इन दोनों के साथ इसलिए है क्योंकि वह इन्हें पसंद करता है। ईशान की नजर अली नामक एक लड़के पर पड़ती है जो बहुत अच्छी बैटिंग करता है। ईशान उसकी प्रतिभा को निखारने का जिम्मा उठाता है। गुजरात में आए भूकंप, गोधरा कांड और उसके बाद की स्थिति से उनके समीकरण किस तरह बदलते हैं, ये फिल्म का सार है। क्रिकेट, धर्म और राजनीति के इर्दगिर्द भारतीय समाज घूमता है और यही सब कुछ ‘काई पो छे’ की कहानी में देखने को मिलता है। फिल्म देखकर लगता है कि क्रिकेट और सिनेमा ही भारतीयों को एक करते हैं, जबकि राजनीति और धर्म लोगों को बांटते हैं। फिल्म में बहुत सारी बातें हैं, इसके बावजूद कही संतुलन बिगड़ता नहीं है। कई ट्रैक साथ चलते हैं। गोविंद-ईशान-ओमी की दोस्ती, गोविंद की प्रेम कहानी, ईशान का क्रिकेट के प्रति दीवानापन, ओमी का राजनीतिक दल से जुड़ना, धर्म के नाम पर राजनीति, इन सभी बातों को फिल्म में बहुत ही शानदार तरीके से गूंथा गया है। कही कोई फालतू सीन नजर नहीं आता। फिल्म में ढेर सारे ऐसे दृश्य हैं जो बेहतरीन कहे जा सकते हैं। निर्देशक अभिषेक कपूर छोटी-छोटी गैप्स को बहुत अच्छे तरीके से भरते हैं। कई दृश्यों में वे बिना संवाद के भी कई बातें कह जाते हैं। मिसाल के तौर पर ओमी-ईशान-गोविंद जब अली के घर जाते हैं तो वहां ओमी शरबत पीने से मना कर देता है। फिल्म की शुरुआत में निर्देशक ने इस छोटे-से दृश्य ओमी की मानसिकता से परिचय कराया है और बाद में ओमी का सांप्रदायिक रूप हमें देखने को मिलता है। भारत-ऑस्ट्रेलिया के ऐतिहासिक कोलकाता टेस्ट (जिसमें वीवीएस लक्ष्मण और हरभजन सिंह ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था) का पृष्ठभूमि में बेहतरीन उपयोग किया गया है। ये ‍अभिषेक का साहस कहा जाना चाहिए कि उन्होंने नई स्टार कास्ट लेने का साहस किया है और कलाकारों से बेहतरीन अभिनय कराया है। सुशांत राजपूत ने अपने कैरेक्टर को गजब की ऊर्जा दी है। उनके जैसे क्रिकेट के कई दीवाने हमारे इर्दगिर्द मिल जाएंगे। राजुकमार यादव ने अपने कैरेक्टर को दांतों से पकड़कर रखा है। उनकी बॉडी लैंग्वेज बताती है कि वह किस तरह का आदमी है। अमित साध को संवाद कम मिले क्योंकि उनके फैशियल एक्सप्रेशन का निर्देशक ने बखूबी उपयोग किया। विद्या के रूप में अमृता पुरी ने भी शानदार अभिनय किया है। अनय गोस्वामी की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। रंग संयोजन के साथ उन्होंने कलाकारों की क्षमता के अनुरूप उनके चेहरे के भावों को बखूबी पकड़ा है। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म की थीम के अनुरूप है और गाने फिल्म में किसी तरह की बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं। चेतन भगत के उपन्यास ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ’ पर आधारित ‘काई पो छे’ को मिस करना एक मिस्टेक होगी। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "‘रामू पागल हो गया’ ये नाम है उस फिल्म का जिसे हाल ही में एक व्यक्ति ने रजिस्टर्ड कराया है। हो सकता है उसे ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ देखने का मौका पहले मिल गया हो और उसे रामू पर फिल्म बनाने का आइडिया आया हो, क्योंकि ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ देखने के बाद यही खयाल आता है। जिस तरह एक हिट गाने की मधुरता को बिगाड़कर रीमिक्स वर्जन बनाया जाता है, कुछ वैसा ही रामू ने ‘शोले’ के साथ किया है। ‘शोले’ को उन्होंने अपने अंदाज में बनाया है। सलीम-जावेद की पटकथा पर फिल्म कैसे बनाई जाती है, यह रमेश‍ सिप्पी ने ‘शोले’ बनाकर बताया था। उसी तरह रामू ने यह बताया है कि फिल्म कैसे नहीं बनाई जानी चाहिए थी। प्रयोग के नाम पर रामू ने ‘शोले’ के साथ छेड़छाड़ की और उसका बिगड़ा हुआ हुलिया ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ में दिखाई देता है। आप ये उम्मीद लेकर फिल्म देखने मत जाइए कि रमेश सिप्पी की शोले जैसी फिल्म आपको देखने को मिलेगी, क्योंकि रामू ने हूबहू कॉपी नहीं की है। उन्होंने मूल कथा को वैसा ही रखा है और वातावरण को बदल दिया है। गाँव की जगह शहर आ गया और डाकू की जगह भाई। ‘शोले’ के दृश्यों को थोड़े-बहुत फेरबदल कर पेश किया गया है। फिल्म में ‘तेरा क्या होगा कालिया’ या ‘अरे ओ सांबा’ जैसे संवाद नहीं सुनाई देंगे, बल्कि इनकी जगह दूसरे संवाद रखे गए है। कहानी वही है, जो ‘शोले’ की थी। इंस्पेक्टर नरसिम्हा के परिवार के सदस्यों को बब्बन मार डालता है। बब्बन से बदला लेने के लिए नरसिम्हा हीरू और राज को चुनता है। ‘शोले’ में हर किरदार लार्जर देन लाइफ था, लेकिन रामू ने अपनी फिल्म के किरदारों को यथार्थ के नजदीक रखा है। फिल्म में से रोमांस और मस्ती गायब है। अमिताभ और धर्मेन्द्र की जो केमे‍स्ट्री थी, वह प्रशांत और अजय देवगन के बीच कहीं नजर नहीं आती। अजय और निशा के रोमांटिक सीन बिलकुल भी अपील नहीं करते। अजय देवगन का सुसाइड वाला दृश्य तथा राज का हीरू के लिए घुँघरू की माँ से शादी की बात करने वाले दृश्य हास्यास्पद हैं। फिल्म का पहला हाफ तो किसी तरह झेला जाता है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म झेलना मुश्किल हो जाती है। दूसरे हाफ में हिंसात्मक दृश्यों की भरमार है। रामू ने सबसे ज्यादा मेहनत बब्बन (अमिताभ बच्चन) पर की है और अन्य किरदारों को महत्व नहीं दिया है। अमिताभ कुछ दृश्यों में जमे, लेकिन कहीं-कहीं ओवर-एक्टिंग का शिकार हो गए। अजय देवगन और प्रशांत राज अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे, क्योंकि उनके किरदार भी कमजोर थे। सुष्मिता सेन और निशा कोठारी ने अच्छा अभिनय किया है। मोहनलाल का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनका हिंदी बोलने का लहजा अखरता है। राजपाल यादव से तो खीझ पैदा होती है। अमित राय ने फोटोग्राफी के नाम पर काफी प्रयोग किए हैं, लेकिन सारे प्रयोग अच्छे लगें, यह जरूरी नहीं है। उन्होंने फिल्म को कई आड़े-तिरछे कोणों से शूट किया है। कई बार परदे पर आधे-अधूरे चेहरे दिखाई देते हैं। अमिताभ का सेब उछालने वाला शॉट उन्होंने बेहतरीन फिल्माया है। फिल्म में गाने आते-जाते रहते हैं और लोगों को ‘ब्रेक’ मिल जाता है। ‘शोले’ से केवल एक गाना ‘मेहबूबा’ उठाया गया है, जिस पर उर्मिला ने अपने जलवे दिखाए हैं। अभिषेक बच्चन ने भी इस गाने में अपना चेहरा दिखाया है। ‘शोले’ में आउटडोर शूटिंग थी, तेज धूप थी, उजाला था, वीरू-बसंती की मस्ती थी। रामू की फिल्म में अंधेरा है, मटमैलापन है, सीलन है, बदसूरत चेहरे हैं। यदि ‘शोले’ से फिल्म की तुलना नहीं भ ी की जाए और एक नई फिल्म के रूप में भी ‘आग’ को देखा जाए तो भी फिल्म कहीं से प्रभावित नहीं करती। ह ो सकत ा ह ै को ई सिरफिर ा ' शोल े' स े छेड़छाड ़ क े आरो प मे ं राम ू प र मुकदम ा दाय र क र दे। निर्माता : रामगोपाल वर्मा निर्देशक : रामगोपाल वर्मा कलाकार : अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, सुष्मिता सेन, निशा कोठारी, प्रशांत राज, मोहनला ल ",0 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में धर्म और आस्था के नाम पर क्रिमिनल की ऐंट्री और अपराध कर चुके धर्मगुरुओं पर फिल्में बनाने का ट्रेंड बरसों से चला आ रहा है। बेशक ऐसे पाखंडी बाबाओं या धर्मगुरुओं पर बनी अक्षय कुमार की 'ओएमजी' और आमिर खान स्टारर 'पीके' ने बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कमाई करने के साथ हर किसी से जमकर वाहवाही बटोरी, लेकिन ऐसा सिर्फ टॉप ऐक्टर या बैनर की फिल्मों के साथ हुआ है, वर्ना नई स्टार कास्ट के साथ सीमित बजट में बनी ऐसी ज्यादतर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना तो दूर अपनी लागत तक भी वसूल नहीं कर पाती। इस सप्ताह रिलीज हुई ग्लोबल बाबा भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे मेकर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्टार्ट टू लास्ट एक ही ट्रैक पर बनाया है, लेकिन इसके बावजूद कमजोर प्रमोशन और बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ स्टार की गैरमौजूदगी के चलते इस फिल्म को न तो कमाई करने वाले सिनेमाघर मिल पाए। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBTMovies कहानी : क्रिमिनल चिलम पहलवान (अभिमन्यु सिंह) का स्टेट की एक प्रभावशाली एक्स मिनिस्टर भानुमती एनकाउंटर कराना चाहती है। दरअसल, इस बार चुनाव में भानुमती की पार्टी हार गई और भानुमति नहीं चाहती कि उसके इशारों पर काम करने वाला क्रिमिनल आने वाले दिनों में उसके खिलाफत करने लगे। ऐसे में भानुमती अपने एक खास विश्वासपात्र पुलिस अफसर जैकब (रवि किशन) को चिलम पहलवान का एनकाउंटर करने के काम पर लगाती है। चिलम पहलवान जैकब को चकमा देकर भागने में कामयाब हो जाता है। चिलम पहवान पुलिस से बचते बचाते बुरी तरह घायल अवस्था में हरिद्वार पहुंचता है, जहां कुंभ का मेला चल रहा है। यहीं चिलम की मुलाकात डमरू बाबा (पकंज त्रिपाठी) से होती है जो कभी उसी तरह का क्रिमिनल था, लेकिन अब वह यहां मौनी बाबा बनकर भोले भाले लोगों को लूटने में लगा है। डमरू बाबा चिलम पहलवान को समझाता है अगर दिन रात मौजमस्ती करना और बैठे बिठाएं करोड़ों की दौलत और नाम कमाना है तो बाबा बन जाओ। राजनेता और पुलिस भी आपके सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। बस यहीं से अपराध की दुनिया का सरगना चिलम बाबा ग्लोबल बाबा का चोला पहनकर अपना दबदबा बनाना शुरू करता है। ऐक्टिंग : डमरू बाबा उर्फ मौनी बाबा के किरदार में पंकज त्रिपाठी ने बेहतरीन अभिनय किया है। अभिमन्यु सिंह अपने किरदार में पूरी तरह से फिट रहे, वहीं रवि किशन को लंबे अर्से बाद अच्छा किरदार मिला और अपने किरदार को उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। टीवी रिपोर्टर के रोल में संदीपा घर बस ठीक-ठाक रही। प्रदेश के होम मिनिस्टर दल्लु यादव के रोल में अखिलेंद्र मिश्रा का काम परफेक्ट है। डायरेक्शन : तारीफ करनी होगी यंग डायरेक्टर मनोज तिवारी की जिन्होंने स्टार्ट टू लास्ट कहानी को ट्रैक पर रखा। सीमित बजट के बावजूद उन्होंने फिल्म को किसी स्टूडियो में शूट न करके कहानी और माहौल पर फिट लोकेशन पर शूट किया। संगीत : फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं जो थिएटर से बाहर आने के बाद आपको याद रह सके। क्यों देखें : अगर आप समाज में कुकुरमुत्ते की तरह जगह बना रहे पाखंडी बाबाओं और धर्मगुरुओं से जुड़े विषयों पर बनी फिल्में देखना पसंद करते हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं, लेकिन कुछ नया और अलग देखने की चाह में थिऐटर जा रहे हैं तो निराश हो सकते हैं। ",0 "सीक्वल बनाने का सबसे बड़ा फायदा यह रहता है कि कहानी और किरदारों से दर्शक भलीभांति परिचित रहते हैं। फिल्म के सफल होने से दर्शकों की पसंद पता चलती है। नुकसान यह रहता है कि ‍सीक्वल से अपेक्षा बहुत ज्यादा रहती है और यही पर ज्यादातर फिल्मकार मार खा जाते हैं। चार साल बाद 'तनु वेड्स मनु' का सीक्वल 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के नाम से आया है और दूसरा भाग पहले भाग से बढ़कर है। कहानी वही से शुरू होती है जहां पहली खत्म हुई थी। तनु और मनु की शादी को चार वर्ष बीत चुके हैं। लंदन में रहकर तनु (कंगना रनौट) बोर हो चुकी है। उसे लगता है कि पति मनु (आर. माधवन) में स्पार्क नहीं बचा। वह पहले जैसा रोमांटिक नहीं रहा। अदरक की तरह यहां-वहां से फैल गया। मनु को पागलखाने में भरती करवा कर तनु कानपुर लौट आती है। उसके इस कदम से मनु चकित रह जाता है। किसी तरह पागलखाने से छूटकर वह भी भारत आता है और तलाक का नोटिस भिजवा देता है। जिसका जवाब उसी शैली में तनु की ओर से दिया जाता है। नई दिल्ली में मनु की निगाह एक लड़की कुसुम (फिर कंगना रनौट) पर पड़ती है जो दिखने में बिलकुल तनु जैसी है। मनु का दिल आ जाता है। यह हरियाणवी लड़की एथलीट है और मनचलों की हॉकी से धुलाई करना जानती है। मनु और कुसुम में उम्र का अंतर है, लेकिन कुसुम शादी के लिए मान ही जाती है। फिर एंट्री होती है राजा अवस्थी (जिमी शेरगिल) की जिनकी नाक के नीचे से पिछली बार तनु को मनु ले उड़े थे। एक बार फिर राजा भैया और मनु की राहें टकरा रही हैं। इधर मनु और तनु का दिल भी एक-दूसरे के लिए धड़कता है। क्या तनु-मनु फिर मिलेंगे? क्या कुसुम और मनु की शादी होगी? राजा भैया की राह में किस तरह मनु फिर रोड़ा बन गया? इन बातों के जवाब मिलते हैं फिल्म में। कहानी की बुनियाद कमजोर है। तनु और मनु एक-दूसरे को नापसंद क्यों करने लगे इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई। एक बेहद बोरिंग सीन के जरिये यह सब दिखाया गया है जहां पागलखाने में तनु और मनु डॉक्टर्स के सामने एक-दूसरे से बहस करते हैं। यहां कॉमेडी करने की कोशिश की गई है, लेकिन बात नहीं बनती। कुसुम और मनु की उम्र में फासला बताया गया है। कुसुम का भाई दोनों के रिश्ते के लिए मना भी कर देता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कुसुम शादी के लिए क्यों मान जाती है। इसी तरह की कुछ कमजोरियां कहानी में हैं, लेकिन बेहतरीन स्क्रीनप्ले, दमदार अभिनय और शानदार निर्देशन इन कमजोरियों को ढंक लेता है क्योंकि इनके कारण फिल्म मनोरंजक बन पड़ी है। तनु वेड्स मनु रि टर्न्स के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें तनु वेड्स मनु रिटर्न्स शुरुआत के पन्द्रह-बीस मिनट में लड़खड़ाती है, लेकिन धीरे-धीरे पात्रों और प्रसंगों को दर्शक सोख लेता है और फिल्म में मजा आने लगता है। हिमांशु शर्मा की कहानी जरूर कुछ सवाल खड़े करती है, लेकिन स्क्रीनप्ले और संवाद जबरदस्त है। कई संवाद आपको ठहाके लगाने पर मजबूर करते हैं। तनु जैसी दिखने वाली कुसुम का कैरेक्टर फिल्म से जोड़ा जाना मास्टर स्ट्रोक है। कुसुम का किरदार फिल्म में जान फूंक देता है और क्लाइमैक्स तक इसका असर देखने को मिलता है। निर्देशक आनंद एल. राय का प्रस्तुतिकरण तारीफ के योग्य है। उनकी अतिरिक्त मेहनत और कल्पनाशीलता परदे पर झलकती है। छोटे शहर और वहां रहने वाले लोगों के मिजाज को पेश करने में वे मास्टर हैं। उन्होंने छोटे-छोटे सीन से माहौल बनाया है। उदाहरण के लिए कैमरा कंगना पर है और वे संवाद बोल रही है, वहीं पृष्ठभूमि में एक आदमी बिजली के तार से बिजली चोरी करने की कोशिश कर रहा है। फिल्म की कहानी ऐसी है जो हम कई बार देख चुके हैं, लेकिन आनंद एल. राय का प्रस्तुतिकरण इसको जुदा बनाता है। फिल्म बहती हुई प्रतीत होती है और इंटरवल इतनी जल्दी हो जाता है कि अखरता है। उन्होंने कोई भी फालतू सीन नहीं रखा है और किरदारों की भीड़ रखी है, लेकिन हर किरदार हंसाता है। हास्य और इमोशन साथ-साथ चलने से फिल्म के कई सीन दिल को छूते है। कंगना रनौट का अभिनय ऊंचे दर्जे का है। वे लगातार साबित कर रही हैं कि वे अपनी समकक्ष अभिनेत्रियों से कहीं आगे हैं। इस फिल्म में डबल कंगना को देखना डबल मजा देता है। बिंदास, मुंहफट और अनिश्चित तनु के रूप में उनका अभिनय लाजवाब है। कुसुम और मनु की शादी के दौरान उनके हाव-भाव देखने लायक है। एथलीट कुसुम के रूप में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। कंगना अपने अभिनय के जरिये किरदारों को इतना प्रभावी बना देती है कि दर्शक फिल्म की खामियों को भूल जाते हैं। आर माधवन, जिमी शेरगिल, दीपक डोब्रियाल, स्वरा भास्कर, जीशान अय्युब सहित सारे कलाकारों का काम उम्दा है और सभी के किरदार याद रहते हैं। गीत फिल्म की थीम को आगे बढ़ाते हैं। बन्नो, मूव ऑन, ओल्ड स्कूल गर्ल, मत जा रे, सुनने लायक है। आमतौर पर सीक्वल निराश करते हैं, लेकिन तनु वेड्स मनु रिटर्न्स पहले भाग से बेहतर है। कंगना का उत्कृष्ट अभिनय, गुदगुदाने वाले संवाद और मनोरंजक प्रस्तुतिकरण इस रोमांटिक-कॉमेडी को देखने के लिए पर्याप्त कारण हैं। थिएटर से आप कुछ किरदारों को साथ लिए मुस्कुराते हुए बाहर आते हैं। बैनर : इरोज इंटरनेशनल निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, कृषिका लुल्ला निर्देशक : आनंद एल. राय संगीत : कृष्णा सोलो, तनिष्क-वायु कलाकार : कंगना रनौट, आर. माधवन, जिम्मी शेरगिल, दीपिक डोब्रियाल, मोहम्मद जीशान अय्युब, स्वरा भास्कर, एजाज खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 सेकंड ",1 "विदेश में कई तरह के सुपरहीरो पर आधारित फिल्में बनाई जाती हैं जिन्हें हमारे देश में भी काफी पसंद किया जाता है। कुछ निर्माताओं ने देसी सुपरहीरो गढ़ने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर नाकाम रहे हैं। मि. एक्स, मि. इंडिया, कृष, जी.वन जैसे कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं। इनमें से रितिक रोशन अभिनीत कृष ही सफलता हासिल कर पाया। सुपरस्टार शाहरुख खान नाकाम रहे। रेमो डिसूजा ने 'ए फ्लाइंग जट्ट' के जरिये एक प्रयास किया है जिसमें टाइगर श्रॉफ लीड रोल में हैं। टाइगर के पिता जैकी श्रॉफ भी शिवा का इंसाफ में सुपरहीरो बन चुके हैं। सुपरहीरो की कहानी लगभग एक जैसी होती है। सुपर पॉवर हासिल करने के बाद दुनिया को बुरी शक्ति से बचाना होता है और सभी जानते हैं कि सुपरहीरो इस काम में सफल साबित होगा। बात प्रस्तुतिकरण पर आ टिकती है। सुपरहीरो यह कैसे करता है इसमें सभी की दिलचस्पी रहती है। रेमो डिसूजा को हम गरीबों का रोहित शेट्टी मान सकते हैं। वे रोहित शेट्टी जैसी मनोरंजक फिल्में गढ़ते हैं हालांकि रोहित जैसे स्टार्स और बजट उन्हें नहीं मिलते हैं। कम बजट और छोटे सितारों के साथ उन्होंने 'फालतू' और 'एबीसीडी' सीरिज की सफल फिल्में बनाई हैं। ये फिल्में खामियों से भरपूर थीं, लेकिन मनोरंजन का तत्व इन फिल्मों में ज्यादा था, लिहाजा दर्शकों ने इन फिल्मों को सफल बनाया। 'ए फ्लाइंग जट्ट' में रेमो अपनी दिशा भटक गए। बहुत कुछ एक ही फिल्म में समेटने के चक्कर में मनोरंजन पीछे छूट गया। पंजाब में रहने वाला अमन (टाइगर श्रॉफ) डरपोक किस्म का इंसान है जो अपनी मां (अमृता सिंह) के साथ रहता है। इनकी जमीन पर एक पुराना पेड़ है जिसे लोग पूजते हैं। उद्योगपति मल्होत्रा (केके मेनन) को यह जमीन चाहिए क्योंकि इसमें उसका फायदा है। जब पैसे से बात नहीं बनती तो मल्होत्रा अपने गुंडे राका (नाथन जोंस) को पेड़ काटने के लिए भेजता है। अमन और राका की लड़ाई होती है। अमन पेड़ से टकराता है और उसे दिव्य शक्तियां हासिल हो जाती हैं। वह फ्लाइंग जट्ट बन असहाय लोगों की सहायता करता है। इधर राका भी सुपरविलेन बन जाता है। प्रदूषण के जरिये वह शक्ति हासिल करता है। इसके बाद क्या होता है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। रेमो डिसूजा ने इस कहानी को लिखा है जो बहुत ही साधारण है। शुरुआती आधा घंटा किरदारों को जमाने में करने में खर्च किया गया है। इसके बाद जब अमन को जब शक्ति हासिल होती है तब फिल्म थोड़ी रोचक होती है। हालांकि यहां पर लेखक और निर्देशक की कल्पना का अभाव नजर आता है जबकि शक्ति हासिल होने के बाद कई मनोरंजक दृश्य सोच जा सकते थे। इंटरवल तक फिल्म किसी तरह लड़खड़ाते हुए पहुंचती है, लेकिन इंटरवल के बाद वाला हिस्सा दर्शकों को थका देता है। यहां पर से मनोरंजन बैकफुट पर चला जाता है और पर्यावरण का मुद्दा फिल्म को कुछ ज्यादा ही गंभीर बना देता है। रेमो का मजबूत पक्ष मनोरंजक फिल्म बनाना है। संदेश देने वाली फिल्म बनाने की योग्यता उनमें नहीं है। प्रदूषण से ताकत हासिल करने वाला राका और फ्लाइंग जट्ट की भिड़ंत मजा नहीं देती। सुपरहीरो जब ताकतवर लगता है जब विलेन भी ताकतवर हो। यहां पर विलेन के प्रति नफरत पैदा नहीं होती। वह एक मशीन जैसा लगता है इसलिए सुपरहीरो के कारनामे भी रोमांचित नहीं करते। दूसरे हाफ में कई बातों का समावेश फिल्म में किया गया है। फ्लाइंग जट्ट के दोस्त की बेवजह मौत दिखा कर इमोशन पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई है। फिल्म को धार्मिक रंग देने का प्रयास किया गया है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये प्रयास निरर्थक लगता है। फिल्म की शुरुआत में मल्होत्रा को बहुत ताकतवर विलेन के रूप में पेश किया गया है, लेकिन बाद में उसे भूला ही दिया गया है। रोमांस केवल इसलिए डाला गया है कि फिल्म में रोमांस होना चाहिए। अमन और कीर्ति का रोमांस बहुत ही फीका है। सुपरहीरो की फिल्मों में क्लाइमैक्स जबरदस्त होना चाहिए, लेकिन इस मामले में 'ए फ्लाइंग जट्ट' कंगाल साबित होती है। ए फ्लाइं ग जट्ट के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में रेमो डिसूजा तय नहीं कर पाए कि वे किस दर्शक वर्ग के लिए फिल्म बना रहे हैं। उनकी फिल्म न बच्चों को खुश करती है और न वयस्कों को। हास्य सीन पर उनकी पकड़ नजर आती है, लेकिन जब ड्रामा गंभीर होता है तो उनके हाथों से फिल्म फिसल जाती है। साधारण लड़के से सुपरहीरो बनने वाले हिस्से को तो उन्होंने अच्छे से दिखाया, लेकिन इसके बाद वे फिल्म को कैसे आगे बढ़ाएं समझ ही नहीं पाए। मां-बेटा, दोस्त, अमीर विलेन, गोरी चमड़ी वाला ताकतवर गुंडा जैसे चिर-परिचित फॉर्मूले यहां नहीं चल पाएं। फिल्म के अन्य पक्ष भी कमजोर हैं। सचिन-जिगर एक भी ऐसी धुन नहीं दे सके जो याद रह सके। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। रेमो जैसे कोरियोग्राफर होने के बावजूद गानों की कोरियोग्राफी भी औसत दर्जे की रही है। सीजीआई इफेक्ट्स कहानी से मेल नहीं खाते। टाइगर श्रॉफ पूरी फिल्म में बुझे-बुझे नजर आएं। वे खुल कर अभिनय नहीं कर पाएं। न तो वे ऐसे इंसान लगे जो ऊंचाई से घबराता है और न ही सुपरहीरो के रूप में ताकतवर लगे। जैकलीन फर्नांडीस की याद तो निर्देशक को इंटरवल के बाद आती है। जैकलीन तो इस फिल्म को भूल जाना ही पसंद करेगी। टाइगर के दोस्त के रूप में गौरव पांडे जरूर थोड़ी राहत देते हैं। अमृता सिंह ठीक रही हैं। विलेन के रूप में केके मेनन एक ही तरह का अभिनय कर अपनी प्रतिभा को बरबाद कर रहे हैं। नाथन जोंस हट्टे-कट्टे जरूर लगे, लेकिन दहशत पैदा नहीं कर पाए। उनके बोले गए संवाद अस्पष्ट हैं। कुल मिलाकर सुपरहीरो 'फ्लाइंग जट्ट' निराश करता है। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : रेमो डिसूजा संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : टाइगर श्रॉफ, जैकलीन फर्नांडीस, नाथन जोंस, अमृता सिंह, केके मेनन, श्रद्धा कपूर (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 31 मिनट 5 सेकंड ",0 "कॉमेडी कैसे ट्रेजेडी में बदल जाती है इसका सटीक उदाहरण है 'बैंगिस्तान'। फरहान अख्तर ने बतौर निर्माता भी कुछ अच्छी फिल्में बनाई हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि वे 'बैंगिस्तान' पर पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गए। फिल्म के शुरू होने के दस मिनट बाद ही समझ आ जाता है कि आपके अगले कुछ घंटे परेशानी में बितने वाले हैं और फिल्म इस अंदेशे को गलत साबित नहीं करती है। इन दिनों आतंकवाद और धर्म हिंदी फिल्ममेकर्स के प्रिय विषय बन गए हैं। 'बैंगिस्तान' भी इसी के इर्दगिर्द घूमती है। उत्तरी बैंगिस्तान और दक्षिण बैंगिस्तान पृथ्वी पर कहीं मौजूद हैं। उत्तरी बैंगिस्तान में मुसलमान तो दक्षिण बैंगिस्तान में हिंदू रहते हैं। आए दिन इनमें लड़ाई होती रहती है। 13वीं वर्ल्ड रिलिजियस कांफ्रेंस पोलैण्ड में होती है जिसमें उत्तरी बैंगिस्तान के इमाम (टॉम अल्टर) और दक्षिण बैंगिस्तान के शंकराचार्य ‍(शिव सुब्रमण्यम) भी मुलाकात कर बैंगिस्तान में शांति स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन 'मां का दल' और 'अल काम तमाम' ऐसा नहीं चाहते हैं। अल काम तमाम हफीज़ बिन अली उर्फ हेरॉल्ड (रितेश देशमुख) को हिंदू बना कर तथा मां का दल प्रवीण चतुर्वेदी (पुलकित सम्राट) को मुसलमान बना कर पोलैण्ड भेजते हैं ताकि वे वहां पर बम धमाका कर दुनिया में शांति स्थापित करने वालों के मंसूबों पर पानी फेर दे तथा हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई और चौड़ी हो जाए। पोलैण्ड में ये दोनो आतंकवादी साथ में रूकते हैं और इनके इरादे बदल जाते हैं। एक गंभीर विषय को कॉमेडी का तड़का लगाकर निर्देशक करण अंशुमन ने पेश किया है। फिल्म में बिना नाम लिए उन्होंने कई दृश्य ऐसे रचे हैं जिसका अंदाजा दर्शक लगा सकते हैं कि उनका इशारा किस ओर है, लेकिन जिस कॉमिक अंदाज में बात को पेश किया गया है वो बेहूदा है। कॉमेडी के नाम पर कुछ प्रसंग रचे गए हैं वो खीज पैदा करते हैं। न फिल्म के व्यंग्य में धार है और न ही विषय के साथ यह न्याय कर पाती है। जितना खराब निर्देशन है उससे ज्यादा खराब स्क्रिप्ट है। दृश्यों को बहुत लंबा लिखा गया है और हंसाने की कोशिश साफ नजर आती है। कुछ दृश्यों को रखने का तो उद्देश्य ही समझ में नहीं आता है। स्थिति और बदतर हो जाती है जब संवाद भी साथ नहीं देते हैं। दो-तीन दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो पूरी फिल्म इतनी उबाऊ है कि खत्म होने के पहले आपको नींद आ सकती है या आप थिएटर से बाहर निकल सकते हैं। बैंगिस्तान के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें कई बार ऐसा होता है कि खराब फिल्म को अच्छे अभिनेता संभाल लेते हैं, लेकिन इस डिपार्टमेंट में भी फिल्म कंगाल साबित हुई है। रितेश देशमुख को तो फिर भी झेला जा सकता है, लेकिन पुलकित सम्राट का 'सलमान खान हैंगओवर' पता नहीं कब खत्म होगा। वे बहुत ज्यादा प्रयास करते हैं और ये बात आंखों को चुभती है। उनकी खराब एक्टिंग का असर रितेश पर भी हो गया। जैकलीन फर्नांडिस का रोल बहुत छोटा है और उन्हें इसलिए जगह मिली है कि फिल्म में एक नामी हीरोइन भी होना चाहिए। यह रोल इतना महत्वहीन है कि यदि हटा भी दिया जाए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर समय और धन की बरबादी है 'बैंगिस्तान'। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, जंगली पिक्चर्स निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी निर्देशक : करण अंशुमन संगीत : राम सम्पत कलाकार : रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, पुलकित सम्राट, कुमुद मिश्रा, चंदन रॉय सान्याल, आर्य बब्बर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट ",0 " ’उड़ान’ से विक्रमादित्य मोटवाने ने अच्छे सिनेमा की उम्मीद जगाई थी और ‘लुटेरा’ में उन्होंने उम्मीदों को पूरा किया। एक बेहतरीन प्रेम कहानी लंबे समय बाद परदे पर आई है। ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ को आधार बनाकर उसे गुजरे जमाने का टच दिया और अपने शानदार प्रस्तुति के बल पर विक्रम ने ‍’लुटेरे’ को देखने लायक बनाया है। पूरी फिल्म में निर्देशक का दबदबा है। उन्होंने दूसरी चीजों को हावी नहीं होने दिया और अपनी पकड़ बनाए रखी है। कई बार कहानी हिचकोले खाती है, लेकिन विक्रमादित्य ने इन झटकों को भी अच्छी तरह संभाल लिया है। कहानी पचास के दशक में सेट है। माणिकपुर का जमींदार उदास है। वह एक आम आदमी से कहता है कि आजादी तुम्हारे लिए खुशियां लाई हैं, लेकिन हमारी जिंदगी खराब हो गई है। सरकार ने जमींदारों से जमीन और कीमती सामान लेना शुरू कर दिए हैं। उनके दबदबे को खत्म किया जा रहा है। इस बात का फायदा कई लोग उठा रहे हैं और सरकारी ऑफिसर बन जमींदारों के माल पर हाथ साफ कर रहे हैं। मनिकपुर में पुरातन विभाग का अधिकारी वरुण श्रीवास्तव आता है। जमींदार के मंदिर के आसपास खुदाई की इजाजत लेता है। उसका कहना है कि यहां कोई सभ्यता दफन है। युवा वरुण से जमींदार बाबू प्रभावित हो जाते हैं। भरोसा करते हुए इजाजत भी देते हैं। जमींदार बाबू की जान अपनी बेटी पाखी में रहती है। वरुण का जादू पाखी पर भी चल जाता है। पेंटिंग सीखने-सीखाने के बहाने दोनों का मेल-जोल बढ़ता है और वे करीब आ जाते हैं। लेकिन वरूण का असली चेहरा और नाम वो नहीं है जो पाखी और जमींदार बाबू समझ रहे थे। यही पर एक ट्विस्ट आता है। पाखी और जमींदार बाबू के होश उड़ जाते हैं। ‘लुटेरा’ एक धीमी गति की फिल्म है। उसमें एक किस्म का ठहराव है। शुरुआत के कुछ मिनट सुस्ती भरे लगते हैं, लेकिन जैसे ही आप फिल्म की गति से तालमेल बिठाते हैं, फिल्म अच्छीम लगने लगती है। फिल्म दूसरे हाफ में डलहौजी में शिफ्ट होती है, यहां पर जरूर थोड़ी लंबी प्रतीत होती है, लेकिन एक शानदार क्लाइमेक्स के जरिये इसे संभाल लिया गया है। दूसरे हाफ में सोनाक्षी सिन्हा का रोल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। वह वरुण से इतना प्रेम करती है कि अपने साथ किए गए धोखे और इससे पिता की हुई मौत के बावजूद उसे पुलिस के सुपुर्द नहीं करती है। वह समझ नहीं पाती कि वह ऐसा क्यों कर रही है। दरअसल वह प्रेम में इतनी ऊंचाई तक पहुंच जाती है कि हर अपराध के लिए अपने प्रेमी को क्षमा कर देती है। विक्रमादित्य ने ‘लुटेरा’ में पचास के दशक के माहौल को ‍बहुत ही खूबी के साथ पेश किया है। समय जैसा ठहरा हुआ लगता है। उस दौर के सुकून को महसूस किया जा सकता है। इसके लिए बंगाल से बेहतरीन जगह नहीं हो सकती थी। लंबी-चौड़ी‍ हवेली जमींदार के ठाठ-बाट को अच्छी तरह से पेश करती है। जहां तक खामियों का सवाल है तो एक चीज अखरती है। पाखी को जब पता चल जाता है कि वरुण को गोली लगी है तो एक बार ‍भी वह उससे इस बारे में बात नहीं करती। फिल्म में एक जगह देव आनंद पर कमेंट किया गया है कि वे फिल्म में गुंडों से फाइट करते थे, लेकिन उनका जमे बाल कभी नहीं बिखरते थे। ऐसी ही एक गलती विक्रमादित्य ने भी की है। डलहौजी की संकरी गलियों में एक लंबा चेज सीन फिल्माया गया है। गोलियां चलती है, लेकिन एक इंसान भी खिड़की खोलकर यह नहीं देखता कि बाहर क्या हो रहा है। एक सीन में नए जमाने की माचिस भी नजर आती है। कई बार संवाद किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाते। लेकिन ये छोटी-मोटी बातें हैं और इससे फिल्म या कहानी पर ज्यादा असर नहीं होता। सोनाक्षी सिन्हा और ‍रणवीर सिंह जैसे कलाकारों को लेकर विक्रमादित्य ने जोखिम उठाया है। दोनों ने अब तक ऐसी फिल्म नहीं दी है, जिसको उनके ‍अभिनय के लिए याद किया जाए। अब दोनों कह सकते हैं कि ‘लुटेरा’ उनके करियर की बेहतरीन फिल्म है। नि:संदेह ये दोनों के करियर का अब तक सबसे अच्छा काम है, लेकिन इसके बावजूद दोनों की सीमा नजर आती है। यदि दोनों की जगह और बेहतरीन कलाकार होते तो फिल्म का प्रभाव और गहरा हो जाता है। जमींदार के रूप में बरुण चंद्रा ने कमाल का अभिनय किया है। अपनी बुलंद आवाज और शख्सियत के कारण वे रौबदार नजर आते हैं। उन्होंने उस जमींदार की भूमिका बेहतरीन तरीके से जिया है जो यह विश्वास ही नहीं कर पाता कि अब उसका समय जा चुका है। रणवीर के दोस्त के रूप में विक्रम मेसै ने भी अच्छा काम किया है। संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है। संगीतकार अमित त्रिवेदी ने क्वांटिटी के बावजूद क्वालिटी मेंटेन कर रखी है। ‘संवार लूं’ तो हिट हो ही चुका है। अनकही, शिकायतें भी सुनने लायक हैं। क्लाइमेक्स में ‘जिंदा’ का बेहतरीन प्रयोग है। अमिताभ भट्टाचार्य ने उम्दा गीत लिखे हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक भी जबरदस्त है और इसका विक्रमादित्य ने बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया है। कई दृश्य बिना बैकग्राउंड म्युजिक के कारण प्रभावी बने हैं। महेंद्र शेट्टी की सिनेमाटोग्राफी उन्हें कई अवॉर्ड्स दिला सकती है। कलाकारों के मूड और प्राकृतिक सौंदर्य को उन्होंने बखूबी कैद किया। ‘लुटेरा’ शानदार प्रस्तुतिकरण के कारण देखी जानी चाहिए, बस ये थोड़ा धैर्य मांगती है। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर, अनुराग कश्यप, विकास बहल, मधु मटेंना, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : विक्रमादित्य मोटव ान े संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : रणवीर सिंह, सोनाक्षी सिन्हा, बरुण चंद्रा, विक्रम मेसै, आदिल हुसैन, आरिफ जकारिया सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 22 मिनट 44 सेकंड ",1 "पुलिसवालों पर एक से एक मुश्किल केस सुलझाने की जिम्मेदारी होती है लेकिन कई बार केस इतने मुश्किल होते हैं कि वे खुद भी उनमें उलझ जाते हैं। फिल्म 'वोदका डायरीज' भी एक ऐसे ही पुलिस वाले की कहानी है जो एक केस को सुलझाते-सुलझाते खुद उसमें बुरी तरह उलझ जाता है।मनाली के वोदका डायरीज क्लब में एक ही रात में एक के बाद एक कई खून होते हैं, जिन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी एसीपी अश्विनी दीक्षित (के.के. मेनन) पर आती है। अभी छुट्टी से लौटा अश्विनी इस केस तब और बुरी तरह उलझ जाता है जब इस केस की वजह से उसकी पत्नी शिखा (मंदिरा बेदी) भी गायब हो जाती हैं। अश्विनी की पत्नी कविता लिखती हैं। कई बार अश्विनी को अपनी पत्नी पर हमला होने के भी सपने आते थे लेकिन उसके गायब होने से वह काफी परेशान हो जाते हैं। इसी बीच अश्विनी एक रहस्यमय लड़की रोशनी बनर्जी (राइमा सेन) से मिलते हैं जिस पर उसे शक होता है लेकिन इसी बीच चीजें और भी ज्यादा उलझ जाती हैं और अश्विनी एक ऐसे जाल में फंस जाते हैं जिससे निकलना आसान नहीं है। उनके सब अपने पराये हो जाते हैं। बेशक, फिल्म एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। के.के. मेनन हमेशा की तरह की शानदार लगे हैं। उन्होंने बेहतरीन काम किया है। खासकर एसीपी के रोल में वह जंचे हैं। हालांकि मंदिरा बेदी जरूर कई सीन्स में ओवर ऐक्टिंग करती नजर आती हैं। वहीं राइमा सेन ने जरूर रोल की डिमांड के मुताबिक ऐक्टिंग की है। फिल्म की कहानी आपको शुरू से आखिर तक बांधे रखती है। इंटरवल से पहले तक कहानी दिलचस्प है और उसके बाद आपकी जिज्ञासा और बढ़ जाती है। ऐड फिल्म मेकिंग से फिल्म निर्देशन में आए इस फिल्म के निर्देशक कुशल श्रीवास्तव ने अच्छी कोशिश की है। अगर आपको थ्रिलर फिल्में पसंद हैं, तो आप निराश नहीं होंगे। साथ ही मनाली की खूबसूरत लोकेशन आपको पसंद आएंगी।",0 "अगर आपके पास दमदार स्टार्स और एक शानदार स्क्रिप्ट है तो कम बजट में भी आप एक ऐसी फिल्म बना सकते हैं जो दर्शकों को बांधकर रखने का दम रखती है। वैसे इस फिल्म के बैनर और प्रॉडक्शन टीम ने इससे पहले सौ करोड़ के बजट में भी फिल्में बनाई हैं, लेकिन इस बार करीब पौने दो घंटे की ऐसी तीन कहानियों को जो बेशक एक ही जगह से शुरू होती है, लेकिन हर पल तीनों कहानियों का अंदाज़ और इनका सब्जेक्ट पूरी तरह से बदल जाता है। करीब पांच करोड़ से भी कम बजट में बनी इस फिल्म से अर्जुन मुखर्जी ने डायरेक्शन की फील्ड में एंट्री की है, लेकिन अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने साबित कर दिया कि ग्लैमर इंडस्ट्री में उनका सफर काफी लंबा चलना तय है। मुंबई के एक इलाके के एक चॉल के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म की तीनों कहानियों का क्लाइमैक्स आपको चौंकाने का दम रखता है। बेशक चॉल में रहने वाले फिल्म के इन किरदारों का आपस में एक रिश्ता बना हुआ है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे खिसकती है, वैसे-वैसे यह सभी किरदार एक-दूसरे से काफी जुदा नजर आते हैं। कहानी : मुंबई के माया नगर इलाके की एक चॉल में अधेड़ उम्र की विधवा फ्लोरी मेडोसा (रेणुका शहाने) को अपना घर बेचना है, लेकिन फ्लोरी का यह मकान इसलिए बिक नहीं पा रहा है कि फ्लोरी को अपने इस मकान की प्राइस पूरे 80 लाख चाहिए। कई ब्रोकर इस मकान के खरीददार लेकर आते हैं लेकिन कीमत सुनते ही कस्टमर गायब हो जाते हैं। इस बार हैदराबाद से मुंबई में अपना डायमंड जूलरी का बिजनेस जमाने आया यंग बिज़नसमैन सुदीप (पुलकित सम्राट) इस मकान को खरीदने के लिए आया है। सुदीप करीब 20 लाख रुपए की कीमत वाले इस पुराने मकान को 80 लाख में खरीदने की डील फाइनल कर लेता है। आखिर सुदीप ने एक साधारण चॉल के छोटे से मकान की चार गुणा प्राइस क्यों दी, यही इस कहानी का क्लाइमैक्स है। दूसरी कहानी वर्षा (मसुमेह मखीजा) और शंकर वर्मा (शरमन जोशी) की है। इसी चॉल में अपने करीब 7 साल के बेटे के साथ वर्षा अपने शराबी पति के साथ रहती है जो अक्सर उसकी पिटाई करता है। वर्षा खुद कमाती है और पति दिन भर घर पर रहता है। इसी चॉल में वर्षा की सहेली सुहानी भी रहती है, जिसका पति दुबई में बिज़नस के लिए गया हुआ है। वर्षा अक्सर सुहानी से अपनी आपबीती बयां करती है, सुहानी का हज्बंड शंकर वर्मा जब दुबई से वापस लौटता है तब वर्षा और शंकर के पुराने रिश्तों की एक अलग कहानी सामने आती है। तीसरी कहानी रिजवान (दधि पांडे) की है, उसकी चाल में रोजमर्रा के सामान का स्टॉल है। रिजवान का जवान बेटा सुहेल (अंकित राठी) इसी स्टॉल को संभालता है, सुहेल चॉल में रहने वाली मालिनी (आएशा अहमद) से प्यार करता है। दोनों एक-दूसरे को बेइंतहा चाहते हैं, लेकिन मालिनी की ममी और सुहेल के अब्बा को किसी भी सूरत में इनकी शादी कबूल नहीं है। इन कहानियों के बीच लीला (रिचा चड्डा) भी दिखाई देती है और लीला ही इन तीनों कहानियों को अंजाम तक पहुंचाती है। अगर ऐक्टिंग, स्क्रीनप्ले, डायरेक्शन की बात करें तो ऐक्टिंग के मापदंड पर तीनों स्टोरीज दमदार है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर लौटी रेणुका शहाणे की ऐक्टिंग इस फिल्म की यूएसपी है, रेणुका के काम की जितनी तारीफ की जाए कम है। पुलकित सम्राट इस बार अपने रोल को ईमानदारी के साथ निभाने में कामयाब रहे। शरमन जोशी, मसुमेह मखीजा, अंकित राठी, आएशा अहमद हर किसी ने अपने किरदार को दमदार ढंग से निभाया। वहीं रिचा चड्डा का बदला अलग अंदाज आपको पसंद आ सकता है। यंग डायरेक्टर अर्जुन मुखर्जी की कहानी और किरदारों पर अच्छी पकड़ है। गाने बेवजह फिट किए गए जो कहानी की रफ्तार को धीमा करने का काम करते हैं। रेणुका शहाणे की शानदार ऐक्टिंग, कसी हुई स्क्रिप्ट और लीक से हटकर बनी यह फिल्म उन दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती है जो रोमांटिक, मसाला, ऐक्शन फिल्मों की भीड़ से अलग कुछ नया देखना चाहते है, तो इस फिल्म को देख सकते हैं।",1 "मेघना गुलजार की 'राजी' उस हर इंसान को एक खूबसूरत तोहफा है, जिसे अपने वतन से प्यार है। यह फिल्म एक भारतीय अंडरकवर एजेंट की सच्ची कहानी से प्रेरित है। 1971 में जिस दौरान भारत-और पाकिस्तान के बीच जंग के हालात बन रहे थे उस वक्त अंडरकवर एजेंट किस तरह पाकिस्तान से जरूरी जानकारी हासिल कर भारत की मदद करती है, यही फिल्म में दिखाया गया है। रिटायर्ड नेवी ऑफिसर हरिंदर सिक्का के नॉवल 'कॉलिंग सहमत' पर बेस्ड इस फिल्म को जंगली पिक्चर्स और धर्मा प्रॉडक्शन ने मिलकर प्रड्यूस किया है। इस फिल्म में आपको पाकिस्तान की छवि उन सभी फिल्मों से अलग लगेगी जैसा कि अब तक अन्य फिल्मों में दिखाई जा चुकी है। उन्हें देखकर आपको एक पल के लिए मन में यह एहसास जरूर होगा कि पाकिस्तानी भी नरम दिल होते हैं।कहानी: फिल्म की कहानी है 1971 के दौरान भारत-पाक के बीच तनावपूर्ण माहौल को दिखाती है, जो बाद युद्ध में तब्दील होता है। कहानी शुरू होती है पाकिस्तान से जब पाकिस्तान भारत को तबाह करने के मंसूबों को लेकर युद्ध की तैयारी और इसका तान-बाने बुन रह होता है। इसकी भनक एक कश्मीरी बिज़नसमैन हिदायत खान (रजित कपूर) को लग जाती है। हिदायत व्यापार के सिलसिले में अक्सर भारत से पाकिस्तान आया-जाया करता है और उसकी पाकिस्तानी आर्मी में ब्रिगेडियर परवेज सैय्यद (शिशिर शर्मा) से अच्छी दोस्ती है। हिदायत इसी दोस्ती का सहारा लेकर अपने वतन की रक्षा के लिए एक बड़ा फैसला लेता है। वह अपनी बेटी सहमत (आलिया भट्ट) के लिए ब्रिगेडियर से उनके बेटे इकबाल (विकी कौशल) का हाथ मांगता है, जो एक आर्मी ऑफिसर है। सहमत बेहद नाजुक सी एक कश्मीरी लड़की है, जिसे पता तक नहीं कि उसके पिता उसका भविष्य पाकिस्तान में लिख आए हैं। हालांकि वतन के लिए परेशान पिता को देखकर सहमत इस रिश्ते के लिए हां कहने में देर नहीं लगाती है। सहमत अब अपने पिता और वतन के खातिर पाकिस्तान में भारत की आंख और कान बनकर रहने को तैयार है। इससे पहले सहमत खुद को एक जांबाज जासूस बनने की तैयारी में झोंक देती है और उसे पाकिस्तान से इस लड़ाई के लिए तैयार करते हैं रॉ एजेंट खालिद मीर (जयदीप अहलावत)। इकबाल से सहमत की शादी होती है और वह एक बेटी से बहू बनकर भारत की दहलीज पार करती है। एक दुश्मन देश में मौजूद अपने ससुराल और अपने शौहर के दिल में जगह बनाती हुई सहमत इसी के साथ-साथ पाकिस्तान आर्मी में चल रहे षड्यंत्रों की जानकारी भारत तक पहुंचाने में कामयाब होती है। एक आर्मी परिवार के बीच रहकर यह सब कर पाना सहमत के लिए मुश्किल साबित होता है।अपने देश के लिए जासूसी करते हुए आलिया को कुछ ऐसे काम करने पड़ जाते हैं, जिसके लिए उसे बेहद अफसोस भी होता है।। इस पूरी कहानी के बीच एक छोटी से प्रेम-कहानी भी पनपती है, जो सहमत और इकबाल की है। फिल्म में कमी की बात करें तो कहानी काफी तेज रफ्तार से आगे बढ़ती है। फिल्म के साथ-साथ आपको इसकी आगे की कहानी का भी अंदाज़ा आसानी से लगने लगता है। ऐक्टिंग: आलिया ने अपने कंधों पर पूरी कहानी बखूबी संभाल ली है। परदे पर आप सिर्फ आलिया की खूबसूरती नहीं बल्कि उनकी ऐक्टिंग के भी उतने ही कायल होंगे। पाक आर्मी ऑफिसर के किरदार में विकी कौशल लाजवाब लगे हैं। एक रॉयल, संतुलित और बेहद संजीदा शख्स, जो पाक में भारत के खिलाफ होनेवाली बातों से अपनी पत्नी के मन को लगने वाली ठेस को भी समझता है। रॉ एजेंट की भूमिका में जयदीप अहलावत को देखकर आपका दिल खुश हो जाएगा। रजित कपूर, शिशिर शर्मा, आरिफ जकारिया ने अपने-अपने किरदार का सौ फीसदी दिया है। आलिया की मां के रोल में उनकी असली मां सोनी राजदान के सीन काफी कम हैं। 'तलवार' के बाद अब 'राजी'... मेघना गुलज़ार उन निर्देशकों में हैं जिन्हें कहानी और अपने किरदारों पर पकड़ बनाना अच्छी तरह आता है। उनके निर्देशन की कला ही कहिए कि आप पल भर के लिए भी स्क्रीन से बाहर की दुनिया में लौट नहीं सकेंगे। उनके निर्देशन में इतना दम है कि फिल्म की कहानी के साथ-साथ सीमा पार पाकिस्तान की सरहदों के पीछे आप खुद को भी महसूस करने लगेंगे। गीत-संगीतः फिल्म में 'दिलबरो', 'ऐ वतन', 'राजी' और 'ऐ वतन' (फीमेल) चारों गाने बेहद ही उम्दा हैं। 'ऐ वतन' के लिए म्यूजिक डायरेक्टर शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी ने लेजंड्री गीतकार गुलजार के साथ हाथ मिलाया है और अपनी आवाज से इसे और भी खूबसूरत बना दिया है अरिजीत सिंह ने। बेटी की विदाई पर फिल्माया गाना 'दिलबरो' एक बाप-बेटी के इमोशनल रिश्ते के बेहद करीब है। फिल्म का टाइटल ट्रैक 'राजी' आलिया के जासूस बनने तक के सफर को दिखाता है। क्यों देखें: कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की से लेकर पाकिस्तान में रहकर भारत की जासूसी करने वाली एक लड़की की यह कहानी, उन सभी अनजाने-अपरिचित चेहरों की कहानी कहती है जिन्होंने देश की सेवा अपना सबकुछ निसार तो किया लेकिन उनका कहीं कोई जिक्र नहीं हो पाया। ऐसे हीरोज़ की अनकही कहानी कहती यह फिल्म आपको निराश नहीं करती। देखें फिल्म को देखने के बाद दर्शकों का क्या कहना है: ",1 कहानी: फिल्म 'पलटन' एक सत्य घटना पर आधारित है। यह घटना भारत और चीन के बीच लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल पर स्थित नाथु ला दर्रे की है। यह भारत और तिब्बत के बीच जाने का एक अहम रणनीतिक रास्ता है। यह घटना 1965 में हुई थी जब भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट ने अदम्य साहस दिखाते हुए चीनी सेना को धूल चटा दी थी। यह घटना भारत और चीन के बीच हुए युद्ध के केवल 3 साल बाद हुई थी और चीन को ऐसा अंदाजा नहीं था कि उसे भारतीय सेना से ऐसा करारा जवाब मिल सकता है। रिव्यू: डायरेक्टर जेपी दत्ता इससे पहले 'बॉर्डर' और 'एलओसी करगिल' जैसी युद्ध आधारित देशभक्ति वाली फिल्में बना चुके हैं। नाथु ला पास पर हुई यह घटना एक छोटी झड़प से शुरू हुई थी लेकिन यही झड़प बड़ी बन गई। इस बार भारतीय सेना सिक्किम को बचाने के लिए चीनी सेना से भिड़ जाती है। इस बार दत्ता ने यंग और अनुभवी दोनों तरह के कलाकारों को अपनी फिल्म में लिया है जो ऐसे रियल हीरोज का किरदार निभा रहे हैं हैं जिन्हें इतिहास में लगभग भुला दिया गया। अर्जुन रामपाल ने लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह और सोनू सूद ने मेजर बिशन सिंह के किरदारों को अच्छी तरह से जिया है। इनके अलावा हर्षवर्धन राणे और गुरमीत चौधरी जैसे यंग ऐक्टर्स ने भी अच्छी परफॉर्मेंस दी है। लव सिन्हा भी अतर सिंह के किरदार में अच्छे लगे हैं जबकि सिद्धांत कपूर के पास करने के लिए कुछ खास नहीं था। फिल्म में चीनी आर्मी के जवानों का किरदार करने वालों ने अच्छी ऐक्टिंग नहीं की है। खासतौर पर कुछ-कुछ समय में उनके द्वारा 'हिंदी-चीनी भाई भाई' का नारा लगाया जाना और हिंदी में डायलॉग बोलना अजीब सा लगता है। फिल्म की शूटिंग रियल लोकेशन पर हुई है और सेना के हथियारों और यूनिफॉर्म को देखकर ऐसा लगता है कि यह 1965 के समय की कहानी है। जेपी दत्ता ने ही इस फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले लिखा है जो अच्छा है लेकिन जबरन ठूंसी गई आधी-अधूरी बैकस्टोरीज फिल्म को लंबा और बोझिल बनाती हैं। फिल्म बहुत ज्यादा इमोशनल नहीं लगती है लेकिन ओवरऑल फिल्म आपको बोर नहीं करेगी। फिल्म में अच्छा ऐक्शन दिखाया गया है और फिल्म के अंत में जेपी दत्ता अपने सभी मसालों के साथ भारतीय सेना की जीत दिखाने में कामयाब होते हैं। रौनक कोटेचा,1 "'कैश' एक स्टाइलिश एक्शन फिल्म है : अनुभव सिन्हा जो सफलता अनुभव सिन्हा ने ‘दस’ में पाई थी, उसे दोहराने की कोशिश उन्होंने ‘कैश’ में की है। ‘दस’ की तुलना में ‘कैश’ सात भी नहीं है। इस फिल्म को स्टाइलिश बनाने के चक्कर में उन्होंने कहानी को ड्राइविंग सीट के बजाय पिछली सीट पर बैठा दिया। यह एक चोर मंडली की कहानी है, जो पेट भरने के लिए चोरी नहीं करते। वे करोड़ों-अरबों रुपयों की चोरी करते हैं। ये चोर बहुत ही आधुनिक और बुद्धिमान हैं। वे चोरी करते समय अपना तकनीकी कौशल उपयोग में लाते हैं। बहुमूल्य हीरों के पीछे अजय देवगन की गैंग और सुनील शेट्टी पड़े रहते हैं। इन हीरों की रक्षा की जिम्मेदारी शमिता शेट्टी पर रहती है। शमिता और अजय एक-दूसरे को चाहते हैं और शमिता को अजय का राज पता नहीं रहता। शमिता कितनी होशियार पुलिस ऑफिसर है ये इसी बात से पता चल जाता है कि उसे करोड़ों रुपयों के हीरों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, लेकिन वह अपने प्रेमी के बारे में साथ रहते हुए भी कुछ नहीं जानती। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने होशियारी दिखाई है, लेकिन कमियों को छुपाने में। कहानी को कमजोर देखते हुए उन्होंने फिल्म की गति इतनी तेज रखी है कि दर्शक कुछ भी सोच न पाएँ। पहले हाफ में फिल्म इतनी तेज गति से भागती है कि दर्शकों को उस गति से तालमेल बैठाना मुश्किल हो जाता है। दूसरे हाफ में फिल्म की गति थोड़ी कम होती है। दूसरी होशियारी उन्होंने स्टंट दृश्यों में दिखाई है। फिल्म के जो भी स्टंट दृश्य सोचे गए हैं, वे इतने मुश्किल थे कि उनका फिल्मांकन करना कठिन काम था। यदि फिल्माए भी जा सकते हों तो उनमें इतना पैसा लग जाता कि उतने पैसों में तो ‘कैश’ जैसी दस फिल्म बन जाती। इसलिए उन्होंने उन स्टंट दृश्यों को एनिमेशन के घालमेल के साथ दिखाया। अजय देवगन जिन खिलौनेनुमा एअरक्राफ्ट के जरिये पैसे लूटता है वह दृश्य बड़ा हास्यास्पद लगता है। फिल्म में शॉट बदलने की रफ्तार इतनी तेज है कि कोई भी शॉट दस सेकंड से ज्यादा का नहीं है। इतनी तेजी से कट करने की वजह से तमाम बुराइयाँ छिप जाती है। नि:संदेह फिल्म स्टाइलिश है, लेकिन यह स्टाइल तब निरर्थक साबित हो जाती है, जब उसके पीछे कोई ठोस आधार न हो या अति का शिकार न हो। फिल्म में से रोमांस गायब है। कुछ हास्य दृश्य हैं जो हँसाते हैं, खासकर अजय और शमिता वाला वह दृश्य जिसमें शमिता की कार खराब हो जाती है। अजय देवगन अपने रंग में नहीं दिखे। शायद उन्हें भी दृश्य समझने में कठिनाई महसूस हुई होगी। उन्होंने एक चुटकुला दो बार सुनाया, लेकिन दोनों ही बार उनके अस्पष्ट उच्चारण की ‍वजह से शायद ही किसी को समझ में आया हो। रितेश का तो हुलिया ही बिगाड़ दिया। पूरी फिल्म में ऐसा लगता रहा कि वे गहरी नींद से जागकर सीधे सेट पर आ गए हों। ज़ायद ठीक रहे। सुनील शेट्टी हर फिल्म में एक जैसे रहते हैं और बोर करते हैं। नायिकाओं में सबसे ज्यादा फुटेज शमिता को मिला। शमिता ने अपना किरदार अच्छी तरह निभाया। दीया सुंदर दिखाई दीं, लेकिन ईशा का मेकअप खराब था। विशाल-शेखर का संगीत फिल्म के मूड को सूट करता है। ‘माइंडब्लोइंग माहिया’ गीत अच्छा है। रेमो और राजीव गोस्वामी की कोरियोग्राफी उल्लेखनीय है। कुल मिलाकर ‘कैश’ एक ऐसा नोट है, जो देखने में बेहद मूल्यवान लगता है, लेकिन बाजार में इसका कोई मोल नहीं है। निर्माता : अनीष निर्देशक : अनुभव सिन्हा संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : अजय देवगन, रितेश देशमुख, ज़ायद खान, शमिता शेट्टी, ईशा देओल, दीया मिर्जा, सुनील शेट्ट ी ",0 "चंद्रमोहन शर्मा अगर हम बतौर डायरेक्टर बिजॉय नांबियार की बात करें तो बॉलिवुड में अपने करीब दस साल के करियर में उन्होंने सिर्फ दो ही फिल्में बनाई हैं, लेकिन बिजॉय ने अपनी इन दो फिल्मों में दर्शकों और क्रिटिक्स को यह तो बता ही दिया कि वह ग्लैमर इंडस्ट्री में बॉक्स ऑफिस की डिमांड पर फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर्स से अलग हैं। जॉय के निर्देशन में बनी पिछली दोनों फिल्में 'शैतान' और 'डेविड' ने टिकट खिड़की पर बेशक अच्छा बिज़नस नहीं किया, लेकिन इन फिल्मों को देखने वाली क्लास ने जरूर बिजॉय की जमकर तारीफें की। शैतान और डेविड के बीच बतौर प्रड्यूसर बिजॉय की पिछली सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म 'पिज्जा' बॉक्स ऑफिस पर औसत बिज़नस करने में कामयाब रही। बेशक वजीर फिल्म की शुरुआत जबर्दस्त है, कहानी की रफ्तार तेज और पूरी तरह से ट्रैक पर है, लेकिन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म में दर्शकों को अगर एंड से पहले क्लाइमेक्स पता चल जाए तो यह यकीनन डायरेक्टर की कमजोरी है और ऐसा ही कुछ फिल्म के सेकंड पार्ट में नजर आता है। कहानी : दानिश अली (फरहान अख्तर) एक एटीएस अफसर हैं। अपनी खूबसूरत पत्नी रुहाना (अदिति राव हैदरी) और चार साल की बेटी नूरी के साथ खुशहाल जिंदगी जी रहा है। अचानक, एक दिन फैमिली के साथ जा रहे दानिश का सामना आतंकियों से हो जाता है, आतंकी दानिश पर गोलियों की बौछार कर देते हैं। इस एनकाउंटर में दानिश की बेटी नूरी बुरी तरह से घायल होने के बाद अस्पताल में दम तोड़ देती है। नूरी की मौत के बाद रुहाना भी अपनी बेटी की मौत के लिए दानिश को जिम्मेदार समझती है। इस घटना से दानिश पूरी तरह से टूट सा जाता है। इसी बीच एक दिन दानिश को आतंकियों के इसी गिरोह के गाजियाबाद छिपे होने की खबर मिलती है तो वह डिपार्टमेंट के परमिशन के बिना वहां पहुंचकर आतंकियों को मार डालता है। दानिश के आला अफसर उसे लंबी मेडिकल लीव पर भेज देते हैं। इस मुश्किल वक्त में एक दिन दानिश की मुलाकात वील चेयर पर लाइफ काट रहे पंडित ओंकार नाथ धर (अमिताभ बच्चन) से होती है। पंडित जी शतरंज के लाजवाब खिलाड़ी हैं। वील चेयर पर वक्त गुजार रहे पंडित जी घर में छोटे बच्चों को शतरंज सिखा कर अपना वक्त गुजारते हैं। शतरंज का यह स्कूल पंडित जी की बेटी नीना धर ने शुरू किया था, जो अचानक एक हादसे में मारी जाती हैं। पंडित जी को लगता है मिनिस्टर कुरैशी (मानव कौल) ने उनकी बेटी को मरवाया है। पंडित जी वील चेयर पर होने के बावजूद बेटी की हत्या का बदला लेने को बेताब हैं। कुछ मुलाकातों के बाद दानिश पंडित जी का साथ देने का वादा करता है। इस कहानी के साथ इसमें शतरंज का खेल भी चलता है जिसमें राजा है, वजीर है और उसके प्यादे भी मौजूद हैं। ऐक्टिंग : वजीर की सबसे बड़ी खासियत अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर की बेहतरीन ऐक्टिंग है। फिल्म के जिन सीन में भी यह दोनों नजर आए वहीं दर्शकों की रोचकता बढ़ जाती है, वहीं अमिताभ के किरदार में एक खामी भी नजर आई। फिल्म में उन्हें कश्मीरी पंडित दिखाया गया है, लेकिन उनका किरदार कहीं भी कश्मीरी पंडित होने का एहसास नहीं कराता। फरहान की पत्नी के किरदार में अदिति राव हैदरी ने अपने किरदार को ठीक-ठाक निभाया है। मानव कौल को फुटेज कम मिली, लेकिन इन दो दिग्गज कलाकारों के बीच में मानव अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे। नील नितिन मुकेश अपने किरदार में फिट नजर आए। कैमियो किरदार निभा रहे जॉन अब्राहम अपने रोल में फिट लगे। डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर बिजॉय ने फिल्म की जबर्दस्त शुरूआत की, लेकिन इंटरवल के बाद ट्रैक से ऐसे भटके कि आखिर तक सही ट्रैक पर लौट नहीं पाए। यही वजह है कि इंटरवल तक यह वजीर दर्शकों को कहानी के साथ बांधे रखता है, लेकिन इंटरवल के बाद यह वजीर भी दूसरी बॉलिवुड थ्रिलर फिल्मों की तरह एक चालू मसाला फिल्म बनकर रह जाती है और यही बिजॉय की सबसे बड़ी कमजोरी है। हां, बिजॉय ने कहानी के दोनों अहम किरदारों पंडित जी और दानिश अली को कहीं कमजोर नहीं होने दिया। संगीत : फिल्म का एक गाना तेरे बिन पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। इस गाने का फिल्मांकन भी अच्छा बन पड़ा है। मौला, तू मेरे पास और खेल खेल में का फिल्मांकन ठीक-ठाक है। क्यों देखें : स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर की गजब की केमिस्ट्री यकीनन आपको पसंद आएगी। अगर आप बिजॉय के निर्देशन में बनी फिल्में पंसद करते हैं तो एक बार वजीर देखी जा सकती है। वहीं मसाला, टोटली एंटरटेनमेंट की चाह में अलग थिएटर जा रहे हैं तो अपसेट होंगे। ",1 "राजीव ढींगरा ने फिल्म फिरंगी की कहानी लिखी है और निर्देशन भी किया है। कहानी लिखते समय कहीं न कहीं उनके दिमाग में 'लगान' थी। लगान की तरह फिरंगी भी अमिताभ बच्चन की आवाज के साथ शुरू होती है और आजादी के पहले की कहानी को दिखाती है जब फिरंगियों का भारत पर राज था। 1921 का समय फिल्म में दिखाया गया है यानी कि आज से 96 वर्ष पहले की बात है। यदि ये बात नहीं बताई जाए तो लगे कि आज का ही कोई गांव देख रहे हैं क्योंकि फिल्म में अतीत वाला वो लुक और फील ही पैदा नहीं होता है। निर्देशक और लेखक से इस मामले में चूक हो गई और दर्शक फिल्म से कनेक्ट ही नहीं हो पाते हैं। फिरंगी की कहानी भी साधारण है। मंगतराम उर्फ मंगा (कपिल शर्मा) एक अंग्रेज मार्क डेनियल (एडवर्ड सनेनब्लिक) का अर्दली है। उसे गांव की एक लड़की सरगी (ईशिता दत्ता) से प्यार हो जाता है। सरगी के दादा गांधीजी की राह पर चलते हैं और सरगी का विवाह मंगा से इसलिए नहीं होने देते क्योंकि वह अंग्रेजों की नौकरी करता है। राजा (कुमुद मिश्रा) के साथ मिलकर मार्क गांव की जमीन पर शराब की फैक्ट्री डालना चाहता है। गांव के लोगों का दिल जीतने की कोशिश में मंगा, मार्क और राजा से बात करता है, लेकिन वे धोखे में गांव वालों से जमीन बेचने के कागजातों पर अंगूठा लगवा लेते हैं और मंगा फंस जाता है। राजा की तिजोरी से कागज चुराने की योजना मंगा बनाता है जिसमें कुछ गांव वाले उसकी मदद करते हैं। फिल्म की शुरुआत अच्छी है जब सरगी को देख मंगा उसे दिल दे बैठता है। कुछ सीन अच्छे बनाए गए हैं और फिल्म को सॉफ्ट टच दिया गया है। भोले-भाले गांव वाले और खुशमिजाज मंगा को देखना अच्छा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है वैसे-वैसे अपना असर खोने लगती है। मंगा-सरगी की लव स्टोरी से जब फिल्म शराब फैक्ट्री और जमीन के कागजों वाले मुद्दे पर शिफ्ट होती है, हांफने लगती है। जिस तरह से गांव वालों को धोखे में रखकर राजा कागज पर उनके अंगूठे लगवा लेता है वो दर्शाता है कि लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए जबकि यह कहानी का अहम मोड़ है। शरबत में नशे की दवाई मिलाने वाली बात बीसियों बार दोहराई जा चुकी है। फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत लंबा है जब राजा की तिजोरी से मंगा कागज चुराता है, लेकिन इसमें कोई थ्रिल नहीं है। सब कुछ आसानी से हो जाता है। फिल्म की सबसे बड़ी समस्या इसकी लंबाई है। 160 मिनट तक दर्शकों को बांधने का मसाला निर्देशक के पास मौजूद नहीं था और बेवजह फिल्म को लंबा खींचा गया है। कुछ सीन बेहद उबाऊ हैं और लगता है कि फिल्म का संपादन करने वाला ही सो गया। फिल्म को आसानी से 30 मिनट छोटा किया जा सकता है। फिरंगी निर्देशित करते समय निर्देशक राजीव ढींगरा पर कई फिल्मों का प्रभाव रहा। शुरुआत से लेकर अंत तक कई दृश्यों को देख आपको कई बार लगेगा कि इस तरह का सीक्वेंस देख चुके हैं। वे दर्शकों का मनोरंजन करने में भी कामयाब नहीं हुए। जरूरी नहीं है कि कपिल शर्मा हमेशा कॉमेडी करें, लेकिन कपिल की फिल्म है तो दर्शक इस उम्मीद से टिकट खरीदते हैं कि कुछ ठहाके लगाने को मिलेंगे, लेकिन ऐसे मौके नहीं के बराबर आते हैं। कपिल के कॉमेडी पक्ष की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई है जो के फिल्म के हित में ठीक बात नहीं है। कपिल शर्मा अपने अभिनय में उतार-चढ़ाव नहीं ला पाए। ज्यादातर समय उनके चेहरे पर एक जैसे भाव रहे हैं। ईशिता दत्ता को करने को ज्यादा कुछ नहीं था। शुरुआती मिनटों बाद तो उन्हें भूला ही दिया गया। कुमुद मिश्रा, एडवर्ड सननेब्लिक, अंजन श्रीवास्तव, राजेश शर्मा, मोनिका गिली अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अन्य सपोर्टिंग एक्टर्स का काम भी ठीक है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत है। लाइट कम रखने का निर्णय सही नहीं कहा जा सकता है। संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है और गानों के लिए ठीक सिचुएशन भी नहीं बनाई गई है। बैनर : के9 फिल्म्स निर्माता : कपिल शर्मा निर्देशक : राजीव ढींगरा संगीत : जतिंदर शाह कलाकार : कपिल शर्मा, ईशिता दत्ता, एडवर्ड सननेब्लिक, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, अंजन श्रीवास्तव, मोनिका गिल सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 40 मिनट 30 सेकंड ",0 "कहानी: दूसरी दुनिया को एलियन से लड़ने और दुनिया को विनाश से बचाने के लिए शेर दिल, एक बहादुर शूरवीर को प्राचीन हथियार की तलाश है, जो एक किसी गुप्त गुफा में छिपाकर रखा गया है। इसके बाद वह योद्धा और उनके चार सहयोगी मिलकर उन एलियन पर जीत हासिल करते हैं, लेकिन दूसरी दुनिया के ये एलियन एक बार फिर वापस लौटते हैं और इस बार अपनी बड़ी फौज के साथ। रिव्यू: कुछ चीजें बदल नहीं सकतीं, जिनमें से एक एमएसजी फ्रेचाइजी भी है। वाकई इस तरह के उपदेशात्मक फिल्मों को बनाने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। इस फिल्म में बिल्कुल बेपरवाह होकर उन चीजों को दिखाया गया है। फ्लावर प्रिंट वाले जूते, चमकते हुए हुडी टी-शर्ट, तलवार जो कलम में बदल जाता है और भाला, जो कि सनग्लास में तब्दील हो जाता है- और यही हैं यह रॉकस्टार गुरुजी। हवे में उछलकर किए गए उनके स्टंट, कार्डबोर्ड के कवच देख शायद न्यूटन और रजनीकांत के भी पसीने छूट जाएं। यह पूरी फिल्म में नज़र आ रहा है कि किस तरह उनपर अपना खुद का ही जुनून हावी है और संत डॉ. एमएसजी (जी हां, यही नाम है) इस बार और ज्यादा तड़कते-भड़कते अंदाज़ में नज़र आ रहे हैं। इस बार संत डॉ. एमएसजी स्प्रिचुअल गुरु नहीं, बल्कि एक योद्धा लॉयन हार्ट (शेर दिल) की भूमिका में हैं, जो अजर और अमर है। एलियन की हमले से दुनिया खतरे में है, जिसपर लॉयन हार्ट जवाबी हमला करता है। लेकिन, यह केवल एक मौका भर है फ्लैशबैक में जाने का, जब शेरदिल ने 100 साल पहले ऐसे ही एलियन को अपने ताकत के बल पर पस्त किया था। और ध्यान रहे, क्योंकि ये एलियन वैसे रेग्युलर एलियन नहीं, जैसे कि आपने अब तक हॉलिवुड फिल्मों में देखा है। ये इंसान हैं, जिन्हें देख ऐसा लगता है कि इन्होंने अमिताभ बच्चन से उनका लाइट बल्ब वाला कॉस्ट्यूम उधार लिया है, जो उन्होंने 'सारा जमाना' गाने में पहना था। फिल्म में एक सीन है जब यूएफओ दिखने पर लोग पागल हो जाते हैं जो एक औसत फिल्म देखने वाले का एक्सपीरियंस है लेकिन संत डॉ एमएसजी के फैन्स तो इस फिल्म के लिए भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकेंगे। सिनेमा हॉल में बज रही तालियां और सीटियां इस बात का सबूत हैं। फिल्म के प्लॉट में आने वाले एक से बढ़कर एक ट्विस्ट टीवी के डेली सॉप यानी दैनिक धारावाहिक को भी शर्मिंदा होने पर मजबूर कर दें। इन सबके बाद भी फिल्म अचानक ही खत्म हो ही जाती है। क्यों, अगर ऐसा नहीं हुआ तो 'एमएसजी- द वॉरियर लायन हार्ट 2' कैसे बनेगी। ",0 "बाजीराव मस्तानी की कहानी पर फिल्म बनाने का सपना संजय लीला भंसाली वर्षों से संजोये हुए थे जो अब जाकर साकार हुआ। उन्होंने यह फिल्म सलमान खान और ऐश्वर्या राय को लेकर प्लान की थी और अब इसे रणवीर सिंह, प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के साथ बनाया है। फिल्म एक लंबे 'डिस्क्लेमर' से शुरू होती है जो कि किसी तरह के विवाद से बचने की पतली गली है। स्पष्ट है कि यह बाजीराव और मस्तानी की प्रेम कहानी पर आधारित है, लेकिन निर्देशक ने ड्रामे को मनोरंजक बनाने के लिए अपनी ओर से भी बहुत कुछ जोड़ा है। फिल्म एन.एम. इनामदार के उपन्यास 'राउ' पर आधारित है। मराठा शासक बाजीराव पेशवा (रणवीर सिंह) से बुंदेलखंड के राजा अपनी बेटी मस्तानी (दीपिका पादुकोण) के जरिये दु‍श्मन से निपटने के लिए मदद मांगते हैं। बाजीराव अपनी सेना लेकर पहुंच जाते हैं। मस्तानी भी युद्ध में बाजीराव के साथ हिस्सा लेती है। उसके सौंदर्य और बहादुरी से बाजीराव प्रभावित होते हैं। दूसरी ओर मस्तानी, बाजीराव के इश्क में दीवानी हो जाती है। बाजीराव उसे बताते हैं कि वे शादीशुदा हैं। काशी (प्रियंका चोपड़ा) उनकी पत्नी है, एक बेटा है, लेकिन मस्तानी तो इश्क में डूब चुकी थी। युद्ध के बाद बाजीराव पूना अपने नए महल शनिवारवाड़ा में लौट आते हैं। कुछ दिनों बाद मस्तानी भी बुंदेलखंड से पूना आ जाती है। जब बाजीराव और मस्तानी की मोहब्बत की बात बाजीराव की पत्नी काशी और मां (तनवी आजमी) को पता चलती है तो उन्हें दु:ख पहुंचता है। मस्तानी का अपमान किया जाता है। मस्तानी हिंदू पिता और मुस्लिम मां की संतान है, मुस्लिम धर्म को मानती है इस वजह से ब्राह्मण इस रिश्ते का विरोध करते हैं। बाजीराव देखते हैं कि मस्तानी को मान-सम्मान नहीं मिल रहा है तो वे मस्तानी से विवाह रचा लेते हैं और उसके लिए मस्तानी महल बनवा देते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद मस्तानी और बाजीराव का इश्क कम होने के बजाय दिन-प्रतिदिन परवान चढ़ता है और कहानी मुख्यत: काशी, बाजीराव और मस्तानी के इर्दगिर्द घूमती है। फिल्म का स्क्रीनप्ले प्रकाश आर. कपाड़िया, संजय लीला भंसाली और मल्लिका दत्त घारडे ने मिलकर लिखा है। इसमें कितना हकीकत है और कितना फसाना, ये तो वे ही बेहतर जानते हैं, लेकिन स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है कि फिल्म बांध कर रखती है। एक के बाद एक बेहतरीन दृश्य आते रहते हैं और आप बाजीराव-मस्तानी-काशी की दुनिया में खो जाते हैं। फिल्म एक शानदार युद्ध दृश्य से शुरू होती है और फिर बाजीराव-मस्तानी के इश्क पर आ जाती है। ड्रामे में जान तब आती है जब मस्तानी पूना आती है और तमाम विरोध, अपमान सहते हुए बाजीराव के प्रति इश्क जारी रखती है। यहां से तीनों किरदारों की मनोदशा को बेहद सूक्ष्मता के साथ संजय लीला भंसाली ने पेश किया है। एक ओर मस्तानी है, जिसका बिना शर्त वाला इश्क जो उसके लिए इबादत है, खुदा है तो दूसरी ओर महज़ब और रिश्तों के बीच जकड़ा हुआ बाजीराव है, जिसके इश्क को दुनिया समझ नहीं पाती और वह सभी की नजर में खलनायक बन गया है। मस्तानी को मान-सम्मान दिलाने के लिए वह सबसे भिड़ जाता है। इन दोनों के बीच काशी पिसती है जो चुपचाप सब सहती है और बिना अपराध के भी अपने पति को दूसरी स्त्री की बांहों में देखने का दु:ख उठाती है। इन तीनों किरदारों के मन की हलचल, बेहतरीन अभिनय और निर्देशन के कारण सतह पर आ जाती है और दर्शक इसे महसूस करता है। जरूरत है धैर्य के साथ सब कुछ देखने और महसूस करने की। बाजी राव मस्तानी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें किस किरदार से आपको सहानुभूति है ये आपकी सोच और समझ पर निर्भर है, लेकिन एक आम दर्शक की नजर में बाजीराव और मस्तानी की नकारात्मक छवि बनती है क्योंकि शादीशुदा होने के बावजूद बाजीराव ने इश्क फरमाया और बिना कारण अपनी पत्नी काशी को दु:ख पहुंचाया। पर ये इश्क है, उम्र-जाति-महजब-रिश्ते नहीं देखता, कब किससे हो जाए कहा नहीं जा सकता। संजय लीला भंसाली का निर्देशन लाजवाब है। हर सीन को उन्होंने पेंटिंग की तरह पेश किया है। उनका प्रस्तुतिकरण जादुई है जो दर्शकों को अलग दुनिया में ले जाता है। हर सीन को उन्होंने भव्य बनाया है जो कही-कही अतिरेक भी लगता है। जरूरी नहीं है कि हर दृश्य में भीड़ खड़ी कर दी जाए। कुछ प्रसंग जल्दबाजी में भी निपटाए गए हैं, शायद समय का बंधन होगा। बाजीराव को नाचते देखना भी नहीं सुहाता, लेकिन ये फिल्म की छोटी-मोटी कमियां हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन है जिसमें मृत्यु के पूर्व बाजीराव को नदी में दुश्मन की सेना खड़ी नजर आती है और वह हवा में तलवार चलाता है। प्रकाश आर. कापड़िया द्वारा लिखा गया हर संवाद तारीफ के काबिल है और यह ड्रामे का मजा दोगुना कर देते हैं। फिल्म के सेट देखने लायक हैं और सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी में रंग, लाइट, शेड्स का कमाल देखने को मिलता है। संगीत खुद संजय लीला भंसाली का है और फिल्म के मूड के अनुरूप है। 'दीवानी' और 'पिंगा' इसमें से बेहतरीन हैं। इनकी कोरियोग्राफी और फिल्मांकन जबरदस्त है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद मजबूत है और फिल्म के तकनीशियनों की मेहनत नजर आती है। रणवीर सिंह को अपने करियर में इतनी जल्दी ही इतना भारी-भरकम रोल मिल गया। डर था कि क्या वे निभा पाएंगे, लेकिन उन्होंने कर दिखाया। वे कैरेक्टर में घुस गए और बाजीराव के गेटअप में वे जमे हैं। अपने लहजे, फिजिक पर भी उन्होंने खूब मेहनत की और उनका काम शानदार रहा है। हालांकि उनके अभिनय की भी सीमा है, लेकिन अपनी सीमा के भीतर रहते हुए उन्होंने जितना बन बड़ा उससे ज्यादा किया। मस्तानी के किरदार में दीपिका पादुकोण का अभिनय देखने लायक है। वे बेहद खूबसूरत लगी हैं और 'दीवानी' में उनकी खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है। इश्क में दीवानी एक राजकुमारी का किरदार उन्होंने बखूबी जीवंत किया है। प्रियंका चोपड़ा के पास संवाद कम थे और ज्यादातर उन्हें चेहरे के भाव से ही अपने दर्द को बयां करना था और यह काम उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया। 'पिंगा' में उनका डांस दीपिका से बेहतर रहा। बाजीराव की मां के रूप में तनवी आजमी अपने दमदार अभिनय के बूते पर पूरी ताकत के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। 'बाजीराव मस्तानी' को देखने के अनेक कारण हैं और इसे देखा जाना चाहिए। बैनर : इरोज़ इंटरनेशनल, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : किशोर लुल्ला-संजय लीला भंसाली निर्देशक-संगीत : संजय लीला भंसाली कलाकार : रणवीर सिंह, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, तनवी आजमी, महेश मांजरेकर, मिलिंद सोमण सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 38 मिनट ",1 " आखिरकार फैंस के फेवरेट दिलजीत दोसांझ एक बार फिर फिल्म 'सूरमा' के साथ बड़े परदे पर आ ही गए। उम्मीद के मुताबिक फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर तो अच्छा प्रदर्शन कर रही है लेकिन दर्शक इस फिल्म से कुछ असमंजस में हैं। असमंजस यह कि संदीप सिंह की यह बायोपिक 'सूरमा' आखिर उनकी इंस्पिरेशनल कहानी है या उनकी लव स्टोरी। दरअसल, कहानी उनके 'फ्लिकर सिंह' बनने से ज़्यादा उनकी 'लव स्टोरी' बयां करती है। शुरू से शुरू करना बेहतर होगा। दिलजीत दोसांझ स्टारर हॉकी लीजेंड संदीप सिंह की यह बायोपिक 'सूरमा' शुरू होती है संदीप के बचपन से। बचपन से ही पिता ने अपने दोनों बेटों को हॉकी की ट्रेनिंग में लगा दिया था ताकि वे इंडिया टीम में सिलेक्ट होकर कोई सरकारी नौकरी पा लें। सपना ज़्यादा बड़ा नहीं थी लेकिन इस वजह से परिवार में हॉकी का ही माहौल था। संदीप ने बचपन में ही हॉकी छोड़ अपने बड़े भाई बिक्रमजीत सिंह (अंगद बेदी) का सपोर्ट किया। मस्ती करते हुए संदीप बड़े हुए और एक लड़की हरप्रीत (तापसी पन्नू) से सिर्फ आकर्षित होने पर ही हॉकी खेलने की इच्छा रखी। बस यहीं से असली कहानी शुरू होती है। संदीप उस लड़की से मिलने के लिए रोज़ हॉकी मैदान पर जाकर प्रेक्टिस करने लगे। 9 वर्षों से हॉकी छोड़ चुके संदीप की कहानी यूं ही चलती रही और वे अपना टैलेंट दिखाते रहे। लेकिन इस लव स्टोरी में भी हमेशा की तरह एक विलेन था जिसने संदीप को आगे नहीं बढ़ने नहीं दिया और लव स्टोरी पर लग गया ब्रेक। अब कहानी आगे बढ़ाने के लिए संदीप ने अपने बड़े भाई की मदद ली। बड़े भाई के जिक्र से याद आया कि फिल्म में सबसे बेहतरीन इंस्पिरेशन यही था कि चाहे जीवन में कुछ भी हो जाए, परिवार का साथ हमेशा बहुत ज़रुरी होता है। इस बात को निर्देशक ने बहुत अच्छी तरह से दर्शाया है। बड़े भाई ने हर मोड़ पर संदीप का साथ दिया, या ऐसा कह सकते हैं कि उन्हीं की वजह से संदीप इतने बड़े प्लेयर बन पाए हैं। लव स्टोरी और हॉकी दोनों ही बहुत बेहतरीन चल रहा था। संदीप और हरप्रीत का इंडिया टीम में सिलेक्शन भी हुआ और शादी भी तय हुई। ट्रेजेडी तब हुई जब संदीप सिंह को गोली लग गई और उनके जीवन में सब कुछ बिखर गया। निर्देशक ने फर्स्ट हाफ में कहानी को पॉइंट टू पॉइंट दर्शाया, इसलिए यह बेहतर लगी। हालांकि दर्शक कंफ्युस होना शुरू हो चुके थे कि यह इंस्पिरेशनल स्टोरी है या लव स्टोरी। सेकंड हाफ की कहानी सभी को पता है इसलिए इसे कम शब्दों में ही बताया जा सकता है। कोमा से बाहर निकलने के बाद दोबारा अपने पैरों पर खड़े होना और हॉकी में भारत को इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर रिप्रेज़ेंट करना कोई आसान बात नहीं। और यही कहानी है लीजेंड संदीप सिंह की। लेकिन दर्शकों को इसमें सबसे ज़्यादा अखरा कि इस पार्ट में भी लव स्टोरी को ज़्यादा बढ़ावा दिया गया। 'सूरमा' में दिलजीत दोसांझ की एक्टिंग दिल जीतने वाली थी। वे अपने किरदार में पूरी तरह से डुब गए थे। इसके अलावा उनका साथ दिया तापसी पन्नू ने। लव स्टोरी के तौर पर देखें तो तापसी इस फिल्म की दूसरी लीड कास्ट थी लेकिन तापसी के टैलेंट का बेहतर उपयोग निर्देशक फिल्म में नहीं कर पाए। हालांकि दोनों की हॉकी प्रैक्टिस शानदार थी और फिल्म में उन्होंने इसे बहुत अच्छे से प्रदर्शित किया है। बड़े भाई के किरदार में अंगद बेदी शानदार थे। नेहा धूपिया से शादी के बाद यह अंगद की पहली फिल्म थी और वाकई नेहा को अपने पति की एक्टिंग पर बहुत गर्व होगा। सतीश कौशिक ने भी बेहतरीन काम किया है। कोच के रूप में विजय राज़ शानदार थे। फिल्म में थोड़ा ह्युमर देने की बेहे कोशिश की गई जो कि सफल रही। ALSO READ:हनुमान वर्सेस महिरावण : फिल्म समीक्षा ALSO READ:हनुमान वर्सेस महिरावण : फिल्म समीक्षा दर्शकों को इमोशनल करने की कोशिश की गई लेकिन रोना नहीं आया। कहीं सीन को जबर्दस्ती बहुत लंबा खींचा गया तो कहीं बहुत छोटे से सीन दिखाकर अधुरापन रखा गया। हालांकि फिल्म दर्शकों को सवा दो घंटे तक बांधे रखने में कामयाब रही। दर्शक फिल्म के किसी सीन से बोर नहीं हुए। दिलजीत, तापसी और अंगद की शानदार एक्टिंग और संदीप सिंह की पूरी कहानी को दर्शकों तक पहुंचाने का पूरा क्रेडिट जाता है निर्देशक शाद अली को। उन्होंने कहानी को कम समय में दर्शाने की कोशिश की जिसमें वे सफल रहे। फिल्म के गाने और म्युज़िक कुछ खास नहीं है। हालांकि 'सूरमा एंथम' रिलीज़ होते ही बहुत फेमस हो गया था। जिसे गाया है शंकर महादेवन ने। साथ ही 'इश्क दी बाजियां' आजकल यूथ का फेवरेट लव सांग बन चुका है। इसके अलावा इस स्पोर्ट्स फिल्म को शाहरुख खान की 'चक दे इंडिया' से भी कम्पेयर किया गया था लेकिन आपको बता दें कि यह उस कहानी से बिल्कुल मेल नहीं खाती। वीकेंड एंजॉय करने के लिए यह अच्छी और पैसा वसूल पिक्चर है। वेबदुनिया की ओर से फिल्म 'सूरमा' को 3 स्टार। निर्देशक : शाद अली संगीत : शंकर एहसान लॉय कलाकार : दिलजीत दोसांझ, तापसी पन्नू, अंगद बेदी, सिद्धार्थ शुक्ला, कुलभुषण खरबंदा, पितोबश, विजय राज, हैरी तंगीरी, अम्मार तालवाला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com ​बॉलिवुड में चंद ऐसे फिल्म मेकर हैं जो बॉक्स ऑफिस की कमाई का मोह छोड़कर अपने मिजाज की ऐसी ऑफ बीट फिल्में बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते जो उनकी अपनी कसौटी पर खरी उतरती हैं। यकीनन इन फिल्मों की ज्यादा बड़ी मार्केट नहीं होती। सिंगल स्क्रीन थिअटरों और बी-सी क्लास जैसे छोटे सेंटरों पर ऐसी फिल्मों को अक्सर सिनेमा मालिक नहीं लगाते। हंसल मेहता इंडस्ट्री के ऐसे ही चंद गिने चुने मेकर्स में से हैं जो अक्सर अपनी फिल्मों में ऐसा जोखिम उठाते रहे हैं। हंसल की पिछली दो फिल्मों 'शाहिद' और 'सिटी लाइफ' को तारीफें और अवॉर्ड तो बहुत मिले, वहीं बॉक्स ऑफिस पर दोनों ही फिल्मों ने कुछ खास कमाल नहीं किया। अब एक बार फिर हंसल अपने मिजाज की एक और फिल्म 'अलीगढ़' लेकर दर्शकों की उस क्लास के सामने रूबरू हुए हैं। डायरेक्टर हंसल की फिल्म शाहिद ने बॉक्स ऑफिस में कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन नैशनल अवॉर्ड अपने नाम किया। हंसल की यह फिल्म कुछ साल पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई एक घटना पर आधारित है। हंसल की इस फिल्म को रिलीज से पहले बुसान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया, जहां हर किसी ने इस फिल्म को जमकर सराहा तो वहीं मुंबई के अलावा लंदन फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को दिखाया गया। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी: प्रफेसर डॉक्टर एस. आर. सिरस (मनोज बाजपेयी) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी के प्रफेसर हैं। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने डॉक्टर सिरस को करीब 6 साल पहले एक रिक्शा वाले युवक के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में सस्पेंड कर दिया। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने एक लोकल टीवी चैनल के दो लोगों द्वारा प्रफेसर सिरस के बेडरूम में किए एक स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर उन्हें सस्पेंड करके अगले सात दिनों में स्टाफ क्वॉटर खाली करने का आदेश जारी किया। दिल्ली में एक प्रमुख अंग्रेजी न्यूजपेपर की रिर्पोटिंग हेड नमिता (डिलनाज ईरानी) इस पूरी खबर पर नजर रखे हुए हैं। नमिता अपने न्यूजपेपर के यंग रिपोर्टर दीपू सेबेस्टियन (राजकुमार राव) के साथ एक फोटोग्राफर को इस न्यूज की जांच पड़ताल करने के लिए अलीगढ़ भेजती हैं। अलीगढ़ आने के बाद दीपू कुछ मुश्किलों के बाद अंततः डॉक्टर सिरस तक पहुंचने और उनका विश्वास जीतने में कामयाब होता है। इसी बीच दिल्ली में समलैंगिंग के अधिकारों के लिए काम करने और धारा 377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ के लोग प्रफेसर सिरस को अप्रोच करते हैं। प्रफेसर सिरस का केस इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंचता है, जहां सिरस और एनजीओ की ओर से पेश ऐडवोकेट आनंद ग्रोवर (आशीष विधार्थी) इस केस में प्रफेसर सिरस की ओर से बहस करते हैं। हाईकोर्ट प्रफेसर सिरस को बेगुनाह मानकर यूनिवर्सिटी प्रशासन को 64 साल के प्रफेसर सिरस को बहाल करने का आदेश देती है। इसके बाद कहानी में टर्न आता है जो आपको झकझोर देता है। इस फिल्म में बेहद सजींदगी से यह सवाल प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है कि क्या होमोसेक्शुअलिटी अपराध है और ऐसा करने वाले का समाज द्वारा तिरस्कृत करना सही है? ऐक्टिंग: इस फिल्म में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन ऐक्टिंग करके अपने उन आलोचकों को करारा जवाब दिया है जो उनकी पिछली एक-आध फिल्म फलॉप होने के बाद उनके करियर पर सवाल उठा रहे थे। प्रफेसर डॉक्टर सिरस के किरदार की बारीकी को हरेक फ्रेम में आसानी से देखा जा सकता है। यूनिवर्सिटी द्वारा सस्पेंड होने के बाद अपने फ्लैट में अकेला और डरा-डरा रहने वाले प्रफेसर के किरदार में मनोज ने लाजवाब अभिनय किया है। एक साउथ इंडियन जर्नलिस्ट के किरदार को राज कुमार राव ने प्रभावशाली ढंग से निभाया है। ऐडवोकेट ग्रोवर के रोल में आशीष विद्यार्थी ने अपने से रोल में ऐसी छाप छोड़ी है कि दर्शक उनके किरदार की चर्चा करते हैं। फिल्म 'अलीगढ़' का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें। निर्देशन : हंसल ने फिल्म के कई सीन्स को अलीगढ़ की रियल लोकेशन पर बखूबी शूट किया है। वहीं बतौर डायरेक्टर हंसल ने प्रफेसर के अकेलेपन को बेहद संजीदगी से पेश किया है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार सुस्त है, लेकिन ऐसे गंभीर सब्जेक्ट पर बनने वाली फिल्म को एक अलग ट्रैक पर ही शूट किया जाता है, जिसमें हंसल पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। हंसल ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों से अच्छा काम लिया और कहानी की डिमांड के मुताबिक उन्हें अच्छी फुटेज भी दी है। संगीत : ऐसी कहानी में म्यूजिक के लिए कोई खास जगह नहीं बन पाती। बैकग्राउंड म्यूजिक प्रभावशाली है तो वहीं कहानी की डिमांड के मुताबिक फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गानों को जगह दी है जो प्रभावशाली है। क्यों देखें : अगर आप कुछ नया और रियल लाइफ से जुड़ी घटनाओं पर बनी उम्दा फिल्मों के शौकीन हैं तो फिल्म आपके लिए है। वहीं मनोज वाजपेयी के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार को एक बार फिर ऐसे लाजवाब किरदार में देखिए जो शायद उन्हीं के लिए रचा गया। वहीं मसाला ऐक्शन फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ नहीं है। ",0 "बतौर एक्ट्रेस कोंकणा सेन शर्मा ने बॉलीवुड में अपनी खास और अलग पहचान बनाई, लेकिन कोंकणा करियर की शुरूआत से ही अलग टेस्ट की फिल्में करती आ रही हैं और इसी कारण चर्चा में भी रहती हैं। अगर कोंकणा की बात करें तो करियर की शुरूआत में ही उन्होंने साफ किया था कि जब भी उनके पास अच्छी और दमदार स्क्रिप्ट होगी तभी वह निर्देशन की फील्ड में एंट्री करेंगी। कोंकणा ने अपने पिता मुकुल शर्मा की लिखी एक कहानी पर जब इस फिल्म को बनाना शुरू किया तो उस वक्त शायद यह तय ही नहीं कर पाईं कि वह दर्शकों की किस क्लास के लिए फिल्म बना रही हैं। करीब पौने दो घंटे की इस फिल्म का कोई किरदार फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करता है, तो कोई ठेठ हिंदी में बात करता है। ऐसे में फिल्म किसी एक भाषा पर फोकस नहीं करती। वहीं, कोंकणा के निर्देशन में उनकी मां अपर्णा सेन की छाप भी नजर आती है। बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शकों की एक बेहद सीमित क्लास के लिए बनाई गई है। फिल्म देखते वक्त कई बार ऐसा लगता है जैसे आप बांग्ला फिल्म देख रहे हैं, यह बात अलग है कि फिल्म अंग्रेजी में बनी है। कहानी: इस फिल्म की कहानी 1979 से शुरू होती है। रांची शहर के पास एक् छोटा सा कस्बानुमा गांव है मैकलुस्कीगंज। घने जंगल के बीचोंबीच मिस्टर एंड मिसेज बख्शी (ओम पुरी और तनुजा) का एक बड़ा-सा बंगलानुमा घर है। बख्शी साहब के इसी घर में उनके कुछ नजदीकी रिश्तेदार हॉलीडे के लिए डेरा जमाते हैं। बेशक ये सभी बख्शी फैमिली का हिस्सा हैं, लेकिन सभी एक दूसरे पर ना जाने क्यों शक करते हैं और एक दूसरे को हमेशा नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। फिलहाल बख्शी साहब के यहां बिक्रम, बोनी, मिमी, ब्रायन और तानी हैं। इन सभी की अपनी अलग-अलग टेंशन हैं। इनके साथ शुटू भी इन दिनों ठहरा हुआ है। इस बड़ी-सी फैमिली में शुटू हमेशा अपने को हमेशा अलग-थलग पाता है, यहां शुटू को काम बताने वाले तो सभी हैं लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं। बेशक, बख्शी साहब के यहां ठहरे ये सभी लोग इन्जॉय कर रहे है लेकिन इनके जहन में हर वक्त कुछ और ही चल रहा है। ऐक्टिंग: अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो शुटू के किरदार में विक्रांत मेसी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रणवीर शौरी ज्यादातर सीन्स में चीखते-चिल्लाते नजर आए हैं, तो काल्कि हमेशा की तरह इस बार भी अपने बोल्ड और सेक्सी अंदाज से बाहर नहीं निकल पाईं। ओम पुरी की अचानक मृत्यु के बाद रिलीज हुई उनकी यह पहली फिल्म है, औ ओम पुरी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। निर्देशन: कोंकणा सेन शर्मा ने कहानी और किरदारों के साथ पूरी ईमानदारी बरती है। जिस किरदार को जितनी फुटेज मिलनी चाहिए उतनी फुटेज ही उस किरदार को दी गई है। फिल्म शुरू से अंत तक बेहद धीमी गति से चलती है। यह समझ से परे है कि कोंकणा ने फिल्म को किसी एक भाषा पर फोकस न करके तीन भाषाओं का इस्तेमाल क्यों किया है। कोंकणा अगर फिल्म को उत्तर भारत सहित दूसरे हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी सबटाइटल्स के साथ रिलीज करतीं तो ज्यादा अच्छा रहता। क्यों देखें: अगर आप लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं और कुछ अलग देखना चाहते हैं, तभी इस फिल्म को देखने जाएं। विक्रांत मेसी की बेहतरीन ऐक्टिंग इस फिल्म का प्लस पॉइंट है।",1 "कुल मिलाकर ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ बेहद घटिया फिल्म है, जिसे अक्षय कुमार के प्रशंसक भी पसंद नहीं करेंगे। निर्माता : शैलेन्द्र सिंह निर्देशक : नागेश कुकुनूर संगीत : सलीम-सुलैमान, नीरज श्रीधर कलाकार : अक्षय कुमार, आयशा टाकिया, शर्मिला टैगोर, जावेद जाफरी, गिरीश कर्नाड, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी जिन लोगों के परिवार का कोई सदस्य गुम हो जाता है और जिसे ढूँढ पाने में वे नाकाम रहते हैं, उनमें से कुछ लोग ऐसे बाबाओं के पास जाते हैं जो उन्हें बताते हैं कि वो इनसान किस दिशा में है या कौन से शहर में है। कहा जाता है कि उनके पास ऐसी शक्ति (?) रहती है। ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ के नायक जय (अक्षय कुमार) को भी ऐसी विशिष्ट शक्ति प्राप्त है। वह तस्वीर देखकर एकदम सटीक बता देता है कि फलाँ इनसान कहाँ है। लोगों को उस पर विश्वास है क्योंकि वह सब कुछ सही बताता है, लेकिन उसकी प्रेमिका, दोस्त, माँ पता नहीं उस पर क्यों अविश्वास करते हैं। जय अपने पिता से नाराज है क्योंकि उनके व्यवसाय करने के तरीके उसे पसंद नहीं हैं। आखिर तक पता नहीं चलता कि वो तौर-तरीके क्या थे, जिससे दोनों के बीच अनबन थी। जय के पिता (बेंजामिन गिलानी) की जहाज पर से गिरने की वजह से मौत हो जाती है। मरने के ठीक पूर्व वे अपने भाई और दो दोस्तों के साथ फोटो उतरवाते हैं। ये फोटो खींचती हैं जय की माँ (शर्मिला टैगोर)। अचानक एक पुलिस कम जासूस (जावेद जाफरी) टपक पड़ता है, जो जय को बताता है उसके पिता की हत्या हुई है। जय तस्वीर को देखता है। एक-एक कर उन आदमियों की आँखों में चला जाता है जो वहाँ पर मौजूद थे। उसे पता चल जाता है कि कौन लोग उसके पिता की मौत के कारण हैं। आधी से ज्यादा फिल्म तक तो गलत विश्लेषण करता रहता है और अंत में वह सही कातिल तक पहुँचता है। निर्देशक और लेखक नागेश कुकुनूर जब सही कातिल पर से परदा उठाते हैं तो आप लेखक की बेवकूफी पर सिवाय आश्चर्य के कुछ नहीं कर सकते। उस कातिल को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिए गए हैं वे बेहद बेहूदा हैं। आश्चर्य होता है नागेश की समझ पर, उन लोगों की समझ पर जो इस फिल्म से जुड़े हुए हैं। क्यों कातिल अपने पिता की हत्या करता है? वह क्यों अपनी माँ को चाकू मारता है? ऐसे सैकड़ों प्रश्न आपके दिमाग में उठेंगे, जिनका जवाब कहीं नहीं मिलता। अनेक गलतियों से स्क्रीनप्ले भरा हुआ है। कुछ पर गौर फरमाइए। जय की माँ को चाकू मारा गया है। वह जय को कातिल का नाम बताने के बजाय उसे एक बक्सा खोलकर तस्वीर देखने की बात कहती है। जय भी एक बार भी नहीं पूछता कि माँ आपको चाकू किसने मारा है। बताया गया है कि जय तस्वीर देखते समय वहीं पहुँच जाता है जहाँ तस्वीर उतारी गई है। यदि उसी समय कोई तस्वीर को नष्ट कर दे तो वह वर्तमान में वापस नहीं आ सकता है। फिल्म के अंत में कातिल तस्वीर को जला देता है और फिर भी जय वर्तमान में लौट आता है। कैसे? कोई जवाब नहीं है। नागेश कुकुनूर की कहानी का मूल विचार अच्छा था, लेकिन उसका वे सही तरीके से निर्वाह नहीं कर सके और ढेर सारी अविश्वसनीय गलतियाँ कर बैठे। निर्देशक के रूप में भी वे प्रभावित नहीं कर पाए। ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ के बाद उन्होंने लगातार दूसरी घटिया फिल्म दी है, इससे साबित होता है कि कमर्शियल फिल्म बनाना उनके बस की बात नहीं है। अक्षय कुमार के चेहरे के भाव पूरी फिल्म में एक जैसे रहे, चाहे दृश्य रोमांटिक हो या भावनात्मक। आयशा टाकिया को करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। जावेद जाफरी कहीं हँसाते हैं तो कहीं खिजाते हैं। गिरीश कर्नाड, शर्मिला टैगोर, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी और रुशाद राणा ने अपने किरदार अच्छे से निभाए। विकास शिवरमण ने कनाडा और दक्षिण अफ्रीका को बड़ी खूबसूरती के साथ स्क्रीन पर पेश किया। कुल मिलाकर ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ बेहद घटिया फिल्म है, जिसे अक्षय कुमार के प्रशंसक भी पसंद नहीं करेंगे। ",0 "सिमरन की कहानी: प्रफुल पटेल (कंगना) एक 30 साल की तलाकशुदा महिला है और जॉर्जा में अपनी मिडिल क्‍लास फैमिली के साथ रहती है। पेशे से हाउसकीपर प्रफुल क्राइम की दुनिया के लिए उस वक्‍त तैयार हो जाती है जब उसका वास्‍ता लॉस वेगस स्‍थ‍ित एक कसीनो में गैम्‍बल‍िंग से पड़ता है। सिर्फ एक गलत कदम से आगे कई चीजें गलत हो जाती हैं और जब तक आप इस बारे में जानते हैं, प्रफुल एक बड़ी गड़बड़ में फंस चुकी होती है। रिव्‍यू: सिमरन की खास और अच्‍छी बात यह है कि फ‍िल्‍म उस पार्ट से कनेक्‍ट करती है जहां बॉलिवुड हिरोइन बदमाश होने के लिए अपना कोई बचाव नहीं करती है। निडर होकर वह अपनी शर्तों पर जीती है और उसी से प्‍यार करती है। वह ब‍िना प्रोटेक्‍शन के सेक्‍स से इनकार कर देती है और लगातार नए-नए अडवेंचर करती है। वह क्राइम की दुनिया में जा रही है, इस पर वह दो बार सोचती तक नहीं। जैसा है, सही है। उफ्फ! 'सिमरन' में कंगना के कितने सारे अवतार लोकेशन के अलावा फिल्म में सब बिखरा-बिखरा सा है। कहानी कई जगह टूटती सी लगती है। जिस तरह प्रफुल बैंक लूटती है और छूट जाती है वह भी हर जगह अपने फिंगर प्रिंट और लिप्स्टिक से लिखे नोट छोड़ने के बाद, उसपर विश्वास करना नामुमकिन है। मीडिया उसे 'लिपस्टिक लूटेरा' नाम देती है और अटलांटा की पुलिस बैंक के पीड़ित कर्मचारी जैसे पूरी फिल्म में जोकर की तरह नज़र आते हैं, जो चुपचाप उन्हें देखते रहते हैं और वह करीब आधे दर्जन लूट को अंजाम दे देती है। ऐसा लग रहा है जैसे हंसल मेहता ने फालतू कॉमिडी फिल्म बनाई है। इसमें बुरा तो कुछ भी नहीं लेकिन लेकिन अगर सब्जेक्ट जो कि असली कहानी है, इसे लाइटली ट्रीट किया भी गया है तो ऑडियंस को और हंसाने की कोशिश करनी चाहिए थी। फ‍िल्‍म का सबसे अच्‍छा पार्ट कंगना ही हैं। भले वह व‍िनम्र या साहसी हों, पर्दे पर उनका महत्‍व द‍िखता है। हालांक‍ि, कई मौकों पर कंगना का फोकस फ‍िसलता द‍िखता है, लेक‍िन क्‍या इसके ल‍िए उन्‍हें ज‍िम्‍मेदार मानना चाह‍िए? शायद फ‍िल्‍ममेकर के पास कोई दूसरा ऐसा स्‍टार भी नहीं है। फिल्म में स‍िमरन के पैरंट्स, उसके मंगेतर समीर (सोहम) और बाकी देसी-व‍िदेशी कलाकारों ने बहुत ज्‍यादा कमाल नहीं क‍िया है। सच कहें, तो आप 'सिमरन' को लेकर भावुक नहीं हो पाएंगे चाहे जितनी कोशिश कर लें। लेकिन जब आप फिल्म देखेंगे तो कहीं-कहीं उसकी फीलिंग्स को महसूस ज़रूर करेंगे और वह भी कंगना की अदाकारी की वजह से। उनकी तारीफ़ तो बनती है। ",0 "बैनर : 20 सेंचुरी फॉक्स निर्माता-निर्देशक : जेम्स कैमरून संगीत : जेम्स हॉर्नर कलाकार : सैम वर्थिंगटन, सीगोर्नी विवर, स्टीफन लैंग, ज़ो सल्डाना यू/ए * 2 घंटे 43 मिनट ‘अवतार’ की कहानी जेम्स कैमरून ने वर्षों पहले सोची थी, लेकिन वे इसको स्क्रीन पर लंबे समय तक इसलिए नहीं पेश कर सके क्योंकि तकनीक उन्नत नहीं हुई थी। वर्षों उन्होंने इंतजार किया और जब तकनीक ने उनका साथ दिया तब उन्होंने ‘अवतार’ फिल्म बनाई। ‘अवतार’ की कहानी बेहद सरल है और आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा भी आप लगा सकते हैं। लेकिन यह कैसे होगा और फिल्म के विज्युअल इफेक्ट इस फिल्म को खास बनाते हैं। एक ऐसी दुनिया दिखाई गई है, जिसकी कल्पना रोमांचित कर देती है। ये कहानी सन् 2154 की है। पृथ्वी से कुछ प्रकाश वर्ष दूर पेंडोरा नामक ग्रह है। पृथ्वीवासियों के इरादे नेक नहीं है। वे पेंडोरा से कुछ जानकारी जुटाने, उस पर कॉलोनी बनाने के साथ-साथ वहाँ की बहुमूल्य संपदा को ले जाना चाहते हैं, लेकिन उनके रास्ते में वहाँ के स्थानीय निवासी बाधा हैं, जिन्हें वे ‘ब्लू मंकी’ कहते हैं। वैसे उन्हें नावी कहा जाता है और इंसान उन्हें अपने से पिछड़ा हुआ मानते हैं। अवतार प्रोग्राम का जैक सुली (सैम वर्थिंगटन) भी हिस्सा है। इस प्रोग्राम में जैक अपने जुड़वाँ भाई की जगह आया है क्योंकि उसके भाई की मौत हो गई है। मनुष्य और नावी के डीएनए को मिलाकर एक ऐसा शरीर बनाया जाता है, जिसे अवतार कहते हैं। इसे गहरी नींद में जाकर दूर से नियंत्रित किया जा सकता है। जैक सुली का अवतार पेंडोरा के निवासियों के बीच फँस जाता है, लेकिन वह उनसे दोस्ती कर जानकारी जुटाता है। वहाँ उसे प्यार भी हो जाता है और उनकी दुनिया को वह उनकी निगाहों से देखता है। लेकिन जब उसे इंसानों के खतरनाक इरादों का पता चलता है तो वह उनकी तरफ से लड़ता है और पेंडोरा को बचाता है। जेम्स कैमरून ने इस कहानी को कहने के लिए जो कल्पना गढ़ी है वो अद्‍भुत है। चमत्कारी पेड़-पौधे, उड़ते हुए भीमकाय ड्रेगन, घना जंगल, पहाड़, अजीबो-गरीब कीड़े-मकोड़े और पक्षी, खतरनाक जंगली कुत्ते, पेंडोरा के शक्तिशाली नीले रंग के निवासी चकित करते हैं। सन् 2154 में मनुष्य के पास किस तरह के हवाई जहाज और हथियार होंगे इसकी झलक भी फिल्म में देखने को मिलती है। फिल्म का क्लाइमैक्स जबरदस्त है जब दोनों पक्षों में लड़ाई होती है। इसे बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है और एक्शन प्रेमी इसे देखकर रोमांचित हो जाते हैं। फिल्म की कहानी युद्ध के खिलाफ है और शांति की बात करती है। आपसी विश्वास और प्यार के जरिये लोगों का दिल जीतने का संदेश भी इस फिल्म के जरिये दिया गया है। जेम्स कैमरून नि:संदेह इस फिल्म के हीरो है। छोटी-छोटी बातों पर उन्होंने ध्यान रखा है और हर किरदार का ठीक से विस्तार किया है। विज्युअल इफेक्ट, कहानी और एक्शन का उन्होंने संतुलन बनाए रखा है और तकनीक को फिल्म पर हावी नहीं होने दिया है। आमतौर पर महँगी फिल्मों में निर्देशक अपने दृश्यों को काँटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है, इसलिए यह फिल्म भी थोड़ी लंबी हो गई है। तकनीकी रूप से फिल्म लाजवाब है। फोटोग्राफी, स्पेशल/विज्युअल इफेक्ट, कास्ट्यूम डिजाइन, संपादन बेहतरीन है। लाइट और शेड का प्रयोग फिल्म को खूबसूरत बनाता है। इस फिल्म में सीजीआई (कम्प्यूटर जनरेटेड इमेज) के सबसे अत्याधुनिक वर्जन का प्रयोग किया गया है, जिससे फिल्म के ग्राफिक्स की गुणवत्ता और अच्छी हो गई है। सैम वर्थिंगटन, सीगोर्नी विवर, स्टीफन लैंग, ज़ो सल्डाना सहित सारे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है। एक अनोखी दुनिया देखने के लिए ‘अवतार’ देखी जा सकती है। ",1 " बड़ी आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस अक्सर ऐसे कई लोगों को शक के आधार पर जेल में बंद कर देती है ताकि अपनी असफलता को छिपा सके। इनमें से कुछ निर्दोष भी रहते हैं। गरीब, अनपढ़ और असहाय होने के कारण वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं। कई किस्से पढ़ने को मिलते हैं कि निर्दोष को वर्षों तक जेल में बंद रहना पड़ा। ऐसे लोगों का केस लड़ता था शाहिद आजमी नामक नौजवान। शाहिद की जब हत्या की गई तब उसकी उम्र थी मात्र 32 वर्ष। शाहिद के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा था जब 1992 में मुंबई में हुए दंगों के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद वह पाकिस्तान स्थित काश्मीर के ट्रेनिंग केम्प में गया, लेकिन वहां उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि अन्याय के खिलाफ लड़ने का यह सही रास्ता नहीं है। टाडा के कारण उसे सात वर्ष तिहाड़ जेल में बिताना पड़े। जेल में उसे सही सीख मिली कि समाज के व्याप्त अन्याय के खिलाफ लड़ना है तो समाज का हिस्सा बनकर यह काम करना होगा। जेल से ही वह पढ़ाई करता है और वकील बन उन लोगों के लिए लड़ता है जो निर्दोष होकर जेल में सड़ रहे हैं। शाहिद आजमी की कहानी को सेल्युलाइड पर हंसल मेहता नामक निर्देशक ने उतारा है। हंसल की पिछली फिल्म थी ‘वुडस्टॉक विला’। रिलीज के पहले ही हंसल को समझ में आ गया था कि उन्होंने बहुत बुरी फिल्म बनाई है, लिहाजा वे मुंबई छोड़कर चले गए। शाहिद के बारे में उन्होंने पढ़ा तो फिल्म बनाने का विचार जागा। हंसल ने काफी रिसर्च किया है यह फिल्म में झलकता है। फिल्म में उन्होंने शाहिद के जीवन के उत्तरार्ध को ज्यादा दिखाया है। किस तरह से शाहिद 26/11 मुंबई अटैक में आरोपी बनाए गए फहीम अंसारी का केस लड़कर उसे न्याय दिलाते हैं इसे निर्देशक ने अच्छे तरीके से पेश किया है, लेकिन शाहिद के आतंकवादी केम्प में प्रशिक्षण लेने और वासप आने वाले मुद्दे को उन्होंने चंद सेकंड में ही दिखा दिया। जबकि इस मुद्दे पर दर्शक ज्यादा से ज्यादा जानना चाहता है। हंसल ने कोर्ट रूम ड्राम को ज्यादा महत्व दिया। नि:संदेह इससे शाहिद एक काबिल और नेकदिल वकील के रूप में उभर कर आते हैं, लेकिन ये प्रसंग बहुत लंबे हैं। हंसल का निर्देशन अच्छा है, लेकिन इस शाहिद के जीवन की कहानी को और अच्छे तरीके से पेश किया जा सकता था। फिल्म में कई बेहतरीन सीन और संवाद हैं। एक सीन में शाहिद जज से पूछता है ‘अगर इसका नाम डोनाल्ड, मैथ्यु, सुरेश या मोरे होता तो क्या यहां ये खड़ा होता?’ यहां निर्देशक स्पष्ट इशारा देता है कि कुछ लोगों की गलती की सजा पूरी कौम को दिया जाना सही नहीं है। फिल्म कई सवाल खड़े करती हैं जिन पर सोचा जाना जरूरी है। पुलिस, मीडिया और आम जनता पर सवालिया निशान लगाती है कि किसी पर आरोप लगते ही वे उसे आतंकवादी मान लेते हैं। शाहिद के किरदार में राजकुमार यादव इस तरह घुस गए हैं कि कहीं भी वे राजकुमार या अभिनय करते नजर नहीं आते। ऐसा लगता है कि जैसे सामने शाहिद खड़ा हो। प्रभलीन संधु, मोहम्मद जीशान अय्यूब, विपिन शर्मा, बलजिंदर कौर सहित कई अपरिचित चेहरों ने बेहतरीन अभिनय से फिल्म को दमदार बनाया है। कुछ फिल्में मनोरंजन करती हैं। कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं, ‘शाहिद’ भी इनमें से एक है। बैनर : बोहरा ब्रदर्स प्रा.लि., एकेएफपीएल प्रोडक्शन निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर, अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा निर्देशक : हंसल मेहता कलाकार : राजकुमार यादव, प्रभलीन संधु, तिग्मांशु धुलिया, मोहम्मद जीशान अय्यूब, बलजिंदर कौर सेंसर सर्टिफिकेट : ए ",1 "सुपर नानी को देख ऐसा लगता है जैसे वर्षों पुरानी फिल्म देख रहे हो। इस तरह की फिल्मों का जमाना कब का लद चुका है, लेकिन इंद्र कुमार अभी भी 'बेटा' और 'दिल' के जमाने में जी रहे हैं जब अतिनाटकीय फिल्में चल निकलती थी। फिल्म की थीम अच्छी है कि किस तरह से एक हाउसवाइफ जो सबसे ज्यादा काम करती है उसी की घरवाले सबसे ज्यादा उपेक्षा करते हैं। पिछले दिनों 'इंग्लिश विंग्लिश' नामक एक बेहतरीन फिल्म इसी विषय पर आधारित थी। लेकिन 'सुपर नानी' का लेखन और निर्देशन इस तरह का है कि ज्यादातर दर्शक फिल्म खत्म होने तक सरदर्द की शिकायत कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि एकता कपूर के किसी धारावाहिक का सवा दो घंटे का एपिसोड देख रहे हैं जिसमें कलाकार चीख कर संवाद बोल रहे हो और ढेर सारा ज्ञान दिया जा रहा हो। भारती भाटिया (रेखा) का सारा समय अपने परिवार की देखभाल में गुजरता है। पति (रणधीर कपूर) अपने बिजनेस में व्यस्त है। बेटा, बेटी और बहू अपने कामों में व्यस्त हैं। भारती अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाती है इसके बावजूद उसकी हैसियत घर वालों की नजर में डोर-मेट से ज्यादा नहीं है। कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब मन अपनी नानी भारती भाटिया से मिलने आता है। वह भारती का हुलिया बदल देता है और उसके कुछ फोटो उतारकर एड एजेंसी में वितरित करता है। देखते ही देखते भारती प्रसिद्ध हो जाती है। गुजराती नाटक 'बा ऐ मारी बाउंड्री' से प्रेरित 'सुपर नानी' में ऐसा कुछ भी नहीं है जो देखा या सुना न गया हो। इस तरह की ढेर सारी फिल्में बनी हैं। फिल्म में रेखा को अबला नारी दिखाने के चक्कर में अन्य किरदारों को बेवजह विलेन बनाने की कोशिश की गई है। रेखा के प्रति सभी का व्यवहार ऐसा क्यों है इस बारे में कुछ खास नहीं बताया गया है। इंद्र कुमार का सारा ध्यान इस बात पर रहा है कि हर सीन आंसू बहाऊ हो। ज्यादा से ज्यादा रोना-धोना हो। स्क्रीन पर किरदार रोते रहते हैं और दर्शक बेचारे इसलिए आंसू बहाते हैं कि क्यों उन्होंने इस फिल्म को देखने का निर्णय लिया। बैकग्राउंड म्युजिक बहुत ज्यादा लाउड है। संवाद में बहुत ज्यादा ज्ञान बांटा गया है। रेखा ने अपने अभिनय से फिल्म में जान डालने की कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बन पाई। रणधीर कपूर, शरमन जोशी सहित अन्य कलाकार औसत हैं। कुल मिलाकर सुपर नानी निराश करती है। बैनर : मारुति इंटरनेशनल निर्माता : इंद्र कुमार, अशोक ठकेरिया निर्देशक : इंद्र कुमार संगीत : हर्षित सक्सेना, संजीव दर्शन कलाकार : रेखा, शरमन जोशी, श्वेता कुमार, रणधीर कपूर, अनुपम खेर * 2 घंटे 13 मिनट ",0 "बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है जब कलाकार, स्क्रिप्ट और निर्देशन के स्तर से ऊंचे उठ कर फिल्म को देखने लायक बना देते हैं। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर ये कमाल फिल्म '102 नॉट आउट' में कर दिखाते है। पुरानी शराब की तरह इन दोनों के अभिनय में उम्र बढ़ने के साथ-साथ और निखार आता जा रहा है। फिल्म की कहानी साधारण है, लेकिन जो बात उसे अनोखी बनाती है वो हैं इसके किरदार- 102 वर्ष का दत्तात्रय वखारिया (अमिताभ बच्चन) बाप है और उसका 75 वर्षीय बेटा बाबूलाल (ऋषि कपूर), शायद ही पहले ऐसे किरदार हिंदी फिल्म में देखे गए हों। पिता तो कूल है, लेकिन बेटा ओल्ड स्कूल है। बाबूलाल ने बुढ़ापा ओढ़ लिया है और गुमसुम, निराश रहता है। दूसरी ओर दत्तात्रय जिंदगी के हर क्षण का भरपूर मजा लेता है। वह बाबूलाल को सुधारने के लिए एक अनोखा प्लान बनाता है। कथा, पटकथा और संवाद सौम्या जोशी के हैं। बाबूलाल को सुधारने वाले प्लान में कल्पना का अभाव नजर आता है और सब कुछ बड़ी ही आसानी से हो जाता है। यह कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी है, लेकिन कुछ अच्छे सीन और कलाकारों का अभिनय फिल्म को डूबने से लगातार बचाते रहते हैं। निर्देशक उमेश शुक्ला ने बेहद सरल तरीके से कहानी को फिल्माया है। उन्होंने कुछ विशेष करने की कोशिश भी नहीं की है। लेखक की तरह उनका काम भी इसलिए आसान हो गया कि दो बेहतरीन कलाकार का साथ उन्हें मिला। अमिताभ और ऋषि के अभिनय में दर्शक इतने सम्मोहित हो जाते हैं कि खामियों की ओर उनका ध्यान जाता नहीं है। वैसे इस बात के लिए उमेश की तारीफ की जा सकती है कि दो वृद्ध अभिनेताओं को लीड रोल देने का जोखिम उन्होंने उठाया है। दत्तात्रय वखारिया के रूप में अमिताभ बच्चन का अभिनय जबरदस्त है। 102 उम्र के जिंदादिल और 'युवा' वृद्ध के रूप में उन्होंने जान फूंक दी। गुजराती एक्सेंट में उनकी हिंदी सुनते ही बनती है। उन्होंने अपनी संवाद अदायगी में भी खासा बदलाव किया है। बाबूलाल की पत्नी की मृत्यु वाला किस्सा जब वे सुनाते हैं तो उनका अभिनय देखते ही बनता है। ऋषि कपूर भी अभिनय के मामले में अमिताभ से कम नहीं रहे। उन्हें संवाद कम मिले और उनका किरदार एक 'दबा' हुआ व्यक्ति है, लेकिन एक निराश बूढ़े से हंसमुख 'युवा' में आने वाले परिवर्तन को उन्होंने अपने अभिनय से बखूबी दर्शाया है। इन दो दिग्गज कलाकारों के बीच जिमीत त्रिवेदी अपनी जगह बनाने में सफल रहे हैं। बैनर : बेंचमार्क पिक्चर्स, ट्रीटॉप एंटरटेनमेंट, सोनी पिक्चर्स निर्माता-निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : सलीम मर्चेण्ट, सुलेमान मर्चेण्ट कलाकार : अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी ",1 "डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा अमूमन जाने-पहचाने स्टार्स को लेकर फिल्में बनाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने करीब 40 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म में 2 नए कलाकारों को लॉन्च किया है। 'मिर्ज्या' से अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर अपने करियर की शुरुआत कर रहे हैं, तो वहीं उनके ऑपजिट सैयामी खेर की भी यह पहली फिल्म है। फिल्म सदियों पुरानी प्रेम कहानी पर आधारित है। राकेश अगर चाहते तो इस सीधी-सादी कहानी पर एक रोमांटिक और म्यूजिकल लव स्टोरी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे पर्दे पर पेश करते हुए कई प्रयोग किए, जो 'मिर्ज्या' के सबसे बड़े माइनस पॉइंट बनकर रह गए। हालांकि, जबर्दस्त लोकेशन के अलावा कमाल की फटॉग्रफी इस फिल्म की यूएसपी है। कहानी: स्कूल में मुनीश (हर्षवर्धन कपूर) और सूची (सैयामी) साथ पढ़ते हैं। दोनों बेहद अच्छे दोस्त हैं। स्कूल का एक टीचर सूची की गलती पर उसकी पिटाई करता है। मुनीश को यह बात इतनी नागवार गुजरती है कि वह सूची के पुलिस अधिकारी रहे पापा की रिवॉल्वर चुराकर टीचर की हत्या कर देता है। मुनीश को बाल सुधार गृह में सजा काटने के लिए भेजा जाता है। इस बीच सूची के पिता उसे आगे की स्टडी के लिए विदेश भेज देते हैं। इधर मुनीश बाल सुधार गृह से भागने में कामयाब हो जाता है और लुहारों की बस्ती में जा पहुंचता है। इसी बस्ती में रहकर वह आदिल के नाम से बड़ा होता है। सूची विदेश से पढ़कर लौटती है। उसकी शादी प्रिंस करण (अनुज चौधरी) से तय हो जाती है। मुनीश अपनी असलियत सूची को नहीं बताता, लेकिन सूची को पता चल जाता है। प्रिंस चाहता है कि आदिल उसकी होने वाली राजकुमारी को घुड़सवारी सिखाए। सूची आदिल से घुड़सवारी सीखती है और दोनों एक-दूसरे के करीब आते हैं। ऐक्टिंग: अपनी पहली फिल्म के लिहाज से दोनों लीड कलाकारों- हर्षवर्धन कपूर और सैयामी ने अच्छी मेहनत की है। अक्सर स्टार्स के बेटे बॉलिवुड में अपनी एंट्री के लिए बॉक्स आफिस पर भीड़ बटोरने वाली फिल्म चुनते हैं, लेकिन हर्षवर्धन की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक चैलेंजिंग किरदार के साथ अपने करियर की शुरुआत की। सूची के रोल में सैयामी जंची हैं, लेकिन उनकी डायलॉग डिलिवरी में अभी दम नहीं है। प्रिंस के रोल में अनुज चौधरी फिट रहे तो ओम पुरी ने अपने रोल को बस निभा भर दिया। डायरेक्शन: राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने शायद पहले से सोच लिया था कि इस कहानी को वह एक आर्ट फिल्म की तरह पेश करेंगे। कहानी की रफ्तार बेहद सुस्त है, लेकिन फिल्म का कैनवस भव्य है। राजस्थान और लेह-लद्दाख की आउटडोर लोकेशन के दृश्य बेहतरीन हैं। अगर राकेश लोकेशन और सिनेमटॉग्रफी को बेहतर बनाने के साथ-साथ फिल्म की स्क्रिप्ट पर भी कुछ और मेहनत करते तो शायद यह फिल्म युवा दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरती। संगीत: संगीत इस फिल्म का मजबूत पक्ष है। भले ही गानों की भरमार है, लेकिन इन्हें कहानी के साथ जोड़कर पेश करने की अच्छी कोशिश की गई है। शंकर-एहसान-लॉय की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और माहौल के मुताबिक फिल्म में संगीत दिया। क्यों देखें: बेहतरीन फोटॉग्रफी और लोकेशन इस फिल्म को देखने की कुछ वजहें हो सकती हैं। वहीं कमजोर स्क्रिप्ट, फिल्म की सुस्त रफ्तार के अलावा सदियों पुरानी एक प्रेम कहानी को नए प्रयोग के साथ परोसना बॉक्स ऑफिस पर इसके बिजनस पर असर डालेगा। ",1 "बैनर : एसएलबी फिल्म्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशन व संगीत : संजय लीला भंसाली कलाकार : रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, आदित्य रॉय कपूर, मोनिकांगना दत्ता, शेरनाज पटेल, नफीस अली, रजत कपूर ‘हूज लाइफ इज इट एनीवे’ और ‘द सी इनसाइड’ से प्रेरित संजय लीला भसाली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गुजारिश’ एथेन मैस्केरेहास (रितिक रोशन) नामक जादूगर की कहानी है जो क्वाड्रोप्लेजिया नामक बीमारी की वजह से पिछले चौदह वर्षों से बिस्तर पर अपनी जिंदगी गुजार रहा है। बिना किसी की मदद के वह हिल-डुल भी नहीं सकता। नाक पर बैठी मक्खी भी नहीं उड़ा सकता। एक रेडियो शो होस्ट कर सुनने वालों के मन में वह जिंदगी में वह आशा और विश्वास जगाता है। जिंदगी को जिंदादिली से जीता है, लेकिन चौदह वर्ष की परेशानी के बाद अदालत से ‘इच्छा मृत्यु’ की माँग करता है। अपनी जिंदगी से निराश एक आदमी के दर्द को संजय लीला भंसाली ने बहुत ही खूबसूरती से सेल्यूलाइड पर उतारा है। फिल्म शुरू होते ही आप एथेन की दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं। उसके दर्द और असहाय स्थिति महसूस करने लगते हैं। उसकी हालत देख समझ में आता है कि मैदान पर फुटबॉल खेलना या अपने पैरों पर चलना कितनी बड़ी बात है। साथ ही फिल्म देखते समय इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने की कोशिश करते हैं कि उसे इच्छा मृत्यु की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं? मर्सी किलिंग वाली कहानी के साथ-साथ एथेन और सोफिया (ऐश्वर्या राय) की खूबसूरत-सी प्रेम कहानी भी चलती है। ऐसी मोहब्बत जो सेक्स से ऊपर है। बिना कुछ कहे सुने उनकी खामोशी ही सब कुछ बयाँ कर देती है। फिल्म का विषय भले ही गंभीर है, लेकिन भंसाली ने फिल्म को ‍बोझिल नहीं बनने दिया है। वे भव्यता को हमेशा से महत्व देते आए हैं। ‘गुजारिश’ की हर फ्रेम खूबसूरत पेंटिंग की तरह नजर आती है। लाइड, शेड और कलर स्कीम का बेहतरीन नमूना देखने को मिलता है। लेकिन भंसाली की यही भव्यता कई बार कहानी पर भारी पड़ती है। मसलन एक बड़ी-सी हवेली में रहने वाला, चौदह वर्ष से बीमार, जिसके घर में कई नौकर है, आखिर खर्चा कैसे चला रहा है? जबकि फिल्म में दिखाया गया है कि उसकी आर्थिक हालत बेहद खराब है। फिल्म में मर्सी किलिंग की बात जरूर की गई है, लेकिन यह मुद्दा फिल्म में ठीक से नहीं उठाया गया है। इसको लेकर अदालत में जो बहस दिखाई गई है, वो उतनी प्रभावशाली नहीं बन प ाई है। इन कमियों के बावजूद फिल्म बाँधकर जरूर रखती है। कई दृश्य दिल को छू जाते हैं। छत से टपकती बूँदों से अपने को बचाने की कोशिश करता एथेन, एथेन का सोफिया के साथ सेक्स करने की कल्पना करना और सोफिया द्वारा उसका उत्तर देना, 12 वर्ष बाद एथेन का घर से बाहर निकलकर दुनिया देखने वाले दृश्य और फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन बन पड़े हैं। अभिनय इस फिल्म सशक्त पहलू है। रितिक को सिर्फ चेहरे से ही अभिनय करना था और कहा जा सकता है कि ‘गुजारिश’ उनके बेतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। एक ही एक्सप्रेशन में उन्होंने खुशी और गम को एक साथ पेश किया है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ ऐश्वर्या राय खूबसूरत होती जा रही हैं। अपने कैरेक्टर में पूरी तरह डूबी नजर आईं। मोनीकंगना ने इस फिल्म से अपना करियर शुरू किया है, लेकिन उन्हें बहुत कम फुटेज मिला है। शेरनाज पटेल, आदित्य राय कपूर, सुहेल सेठ, नफीसा अली ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं से न्याय किया है। रजत कपूर ने ओवर एक्टिंग की है। पहली बार भंसाली की फिल्म का संगीत कमजोर है। गाने अच्छे लिखे गए हैं, लेकिन उनके साथ न्याय करने वाली धुनें भंसाली नहीं बना पाए। ‘उड़ी’ और ‘जिक्र है’ ही पसंद आने योग्य है। ‘उड़ी’ गाने को बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक पर बहुत मेहनत की गई है। सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी ने फिल्म को दर्शनीय बनाया है। फूहड़ फिल्मों के दौर में ‘गुजारिश’ जैसी फिल्में राहत प्रदान करती हैं। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के लीड किरदार में नजर आ रहे अरविंद स्वामी ने 90 के दशक में 'रोजा' और 'बॉम्बे' जैसी सुपरहिट फिल्मों से पहचान बनाई। बॉक्स आफिस पर इन दोनों फिल्मों ने कामयाबी हासिल की तो वहीं अरविंद ने भी इन फिल्मों में अपने किरदार से खुद को बेहतरीन कलाकार साबित किया। चर्चा है, अरविंद साउथ के जानेमाने डायरेक्टर मणिरत्नम के खास चहेते स्टार्स में शामिल हैं और यही वजह है कि अब जब लंबे अर्से बाद उन्होंने कैमरे को दोबारा सामना किया तो इस बार भी उन्होंने मणिरत्नम की फिल्म 'कादल' के साथ। करीब तीन साल पहले अरविंद ने सिल्वर स्क्रीन पर 'कादल' के साथ वापसी की और उनकी यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर हिट साबित रही। सुनते हैं, इस फिल्म के डायरेक्टर तनुज भ्रमर अपनी इस फिल्म में लीड किरदार में सिर्फ अरविंद को ही लेना चाहते थे, यही वजह रही कि इस फिल्म को बनाने के लिए उन्हें कुछ इंतजार भी करना पड़ा। बता दें कि डायरेक्टर तनुज भ्रमर की बेशक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पहचान न हो, लेकिन तनुज ने विदेश में अलग-अलग तरह के कई प्रॉजेक्ट पर काम किया और अपनी खास पहचान बनाई, अब जब तनुज अपनी पहली हिंदी फिल्म के साथ दर्शकों के सामने हाजिर हैं तो इस फिल्म का बेशक बॉक्स ऑफिस या ट्रेड में क्रेज़ नजर न आए, लेकिन लीक से हटकर कुछ नया देखने वाली क्लास को इस फिल्म का इंतजार है तो इसकी कुछ वजह अरविंद स्वामी की हिंदी फिल्मों में वापसी भी है, बेशक तनुज ने अपनी पहली हिंदी फिल्म के लिए एक अलग सब्जेक्ट चुना है। 'डियर डैड' का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें। कहानी : नितिन स्वामीनाथन (अरविन्द स्वामी) की फैमिली हर एंगल से एक हैप्पी फैमिली नजर आती है। दिल्ली की पॉश कॉलोनी में नितिन का आलीशान बंगला है। नितिन अपनी खूबसूरत वाइफ और अपने बेटे शिवम (हिमांशु शर्मा) और छोटी बेटी के रहता है। शिवम एक नामी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा है, फिलहाल शिवम अपनी फैमिली के साथ छुटिट्यां मनाने दिल्ली आया हुआ है। अब जब शिवम अपने दोस्तों के साथ वापसी कर रहा है तो नितिन चाहता है कि वह अपनी कार से शिवम को छोड़ने जाए, वहीं शिवम अपने दोस्तों के साथ ही जाना चाहता है लेकिन नितिन जब उसे कहता है कि रास्ते में उसे कुछ बेहद जरूरी बातचीत करनी है तो शिवम न चाहते हुए भी डैडी की कार में जाने को राजी हो जाता है। दिल्ली से शुरू हुई इस रोड जर्नी के दौरान नितिन जब शिवम को बताता है कि वह गे है और जल्दी ही अपनी फैमिली से अलग होने वाला है तो शिवम को अपने डैडी से नफरत हो जाती है। कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब शिवम का बेस्ट फ्रेंड उसे बताता है कि गे होना एक बीमारी है और इसका इलाज किया जा सकता है तो शिवम अपने डैडी की इस बीमारी का इलाज कराने के लिए एक बंगाली बाबा के पास जाता है। ऐक्टिंग : लंबे अरसे बाद अरविंद स्वामी ने सिल्वर स्क्रीन पर वापसी की है। अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से अरविंद ने एक बार फिर खुद को ऐसा बेहतरीन कलाकार साबित किया जो हर किरदार को आसानी से निभा सकता है। शिवम के किरदार में हिमांशु शर्मा परफेक्ट हैं, फिल्म के कई सीन में हिमांशु ने बेहतरीन परफोर्मेंस की है। निर्देशन : तनुज ने एक बेहद सिंपल कहानी को एक रोड ट्रिप का प्लॉट बनाकर पेश किया है। तनुज ने एक पिता और बेटे के बीच बनते बिगड़ते रिश्तों को बॉक्स ऑफिस की परवाह किए बना सादगी से पेश किया है। यकीनन तनुज की इस स्क्रिप्ट में नयापन है, लेकिन डेढ घंटे की इस कहानी को उन्होंने इतनी धीमी रफ्तार से पर्दे पर उतारा है कि दर्शक किरदारों के साथ बंध नहीं पाता। फिल्म की फटॉग्रफ़ी का जवाब नहीं। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी की डिमांड के मुताबिक है। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं तो एकबार देख सकते हैं। ",0 "बैनर : बीजीवी फिल्म्स निर्माता : विक्रम भट्ट निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री संगीत : हर्षित सक्सेना कलाकार : गुलशन देवैया, पाउली दाम, निखिल द्विवेदी, मोहन कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * अवधि : 2 घंटे 18 मिनट विक्रम भट्ट अब तक हॉरर बेचते थे, अब उन्होंने सेक्स का सहारा लिया है। हेट स्टोरी की कहानी यही सोच कर लिखी गई है कि इसमें ज्यादा से ज्यादा सेक्स सीन हो। सेंसर बोर्ड ने कुछ काट दिए और कुछ दृश्यों को कम कर दिया। हेट स्टोरी एक रिवेंज ड्रामा है, जिसमें फिल्म की हीरोइन अपना बदला लेने के लिए अपने जिस्म का इस्तेमाल करती है। काव्या (पाउली दाम) एक पत्रकार है जो एक सीमेंट कंपनी के खिलाफ लेख लिखती है, जिससे उस कंपनी की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान पहुंचता है। उस कंपनी के मालिक का बेटा सिद्धार्थ (गुलशन देवैया) इसका बदला लेने के लिए काव्या को अपने प्रेम जाल में फंसाता है। दोनों सारी हदें पार कर जाते हैं। इसके बाद सिद्धार्थ उसे छोड़ देता है क्योंकि उसने अपना बदला ले लिया है। काव्या प्रेग्नेंट हो जाती है और यह बात सिद्धार्थ को बताती है ताकि उसकी आधी जायदाद पाकर वह बदला ले सके। सिद्धार्थ न केवल उसका बच्चा कोख में ही मार देता है बल्कि काव्या की ऐसी हालत कर देता है कि वह कभी मां नहीं बन पाए। इसके बाद काव्या अपने जिस्म का इस्तेमाल करती है। सिद्धार्थ की कंपनी के ऊंचे अफसरों के साथ सोती है ताकि उनसे कंपनी के राज मालूम कर सकें। नेताओं के साथ बिस्तर शेयर कर ऊंचा पद हासिल करती है और अंत में सिद्धार्थ की कंपनी को खत्म कर देती है। फिल्म को इरोटिक थ्रिलर कहा जा रहा है, लेकिन फिल्म में कहीं भी थ्रिल नजर नहीं आता है। सारे किरदार आला दर्जे के बेवकूफ हैं। काव्या ने जिस कंपनी के खिलाफ लेख लिखा है उसी कंपनी के भ्रष्ट मालिक सिद्धार्थ को वह एक ही मुलाकात के बाद अपना दिल कैसे दे देती है? साथ ही वह उसकी कंपनी में नौकरी करने लगती है। सिद्धार्थ भी इतना बड़ा बेवकूफ है कि काव्या से बदला लेने के लिए उसके साथ संबंध बनाता है और सावधानी नहीं बरतता। उसे प्रेग्नेंट कर देता है। काव्या यह बात बताने उसके घर पहुंच जाती है ये जानते हुए ‍भी कि वह खतरनाक इंसान है। कुछ भी कर सकता है। काव्या के सेक्स जाल में नेता और अफसर इतनी आसान फंसते हैं और राज उगलते हैं कि हैरत होती है क्या हजारों करोड़ों रुपयों की बात करने वाले ये लोग इतने मूर्ख हैं। बदले की कहानी का जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है वो बेहद घटिया और सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है। स्क्रीनप्ले की तरह निर्देशन भी कमजोर है। विवेक अग्निहोत्री अपने प्रस्तुतिकरण में वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाए कि दर्शक काव्या की बदले की आग की आंच को महसूस कर सके। फिल्म की गति भी उन्होंने जरूरत से ज्यादा तेज रखी है जिससे फिल्म विश्वसनीय नजर नहीं आती। पाउली दाम अभिनय के मामले में कमजोर हैं, लेकिन बोल्ड सीन उन्होंने बिंदास तरीके से किए हैं। गुलशन देवैया का अभिनय औसत दर्जे का है और हकलाते समय उन्होंने ओवर एक्टिंग की है। निखिल द्विवेदी का किरदार नहीं भी होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। फिल्म को रिच लुक देने की कोशिश की गई है, लेकिन सी-ग्रेड कहानी, घटिया स्क्रीनप्ले, कमजोर निर्देशन और एक्टिंग की वजह से ‘हेट स्टोरी’ हेट करने के लायक ही है। ",0 "तमंचे फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही समझ में आ जाता है आने वाले चंद घंटे बुरे गुजरने वाले हैं और 'तमंचे' कभी भी इस बात को झुठलाती नजर नहीं आती। कुछ दिनों पहले 'देसी कट्टे' नामक फिल्म रिलीज हुई थी, जिसमें एक ताकतवर गुंडे की रखैल पर एक छोटे-मोटे अपराधी का दिल आ जाता है, यही कहानी 'तमंचे' की है। फिल्म का नाम भी मिलता-जुलता है। 'तमंचे' से एक एक्शन फिल्म होने का आभास होता है, लेकिन मूलत: आपराधिक पृष्ठभूमि लिए यह एक प्रेम कहानी है। बाबू (रिचा चड्ढा) और मुन्ना (निखिल द्विवेदी) अपराध जगत से जुड़े हैं। पुलिस वैन में बैठे हुए हैं। कोई जान-पहचान नहीं है। वैन दुर्घटनाग्रस्त होती है। बाबू और मुन्ना भाग निकलते हैं। एक-दूसरे के साथ वे क्यों रहते हैं, ये समझ से परे है। कुछ बकवास से कारण भी बताए गए हैं जो निहायत ही बेहूदा है। निर्देशक और लेखक पूरी कोशिश करते हैं कि दोनों के बीच रोमांस पैदा हो, लेकिन जो परिस्थितियां पैदा की गई है वो बचकानी हैं। रेल के डिब्बे में दोनों सारी हदें भी पार कर देते हैं, लेकिन दर्शकों को तब भी यकीन ही नहीं होता कि दोनों में प्यार जैसा कुछ है। बताया जा रहा है इसलिए मानना पड़ता है कि फिल्म का हीरो और हीरोइन 'लैला-मजनू' से कम नहीं हैं। कहानी की बात न ही की जाए तो बेहतर है। जो सूझता गया वो लिखते गए। न कोई ओर न कोई छोर। परदे पर अजीबोगरीब घटनाक्रम घटते रहते हैं। बैंकों को ऐसे लूटा जाता है मानो बच्चे के हाथ से खिलौना छिनना हो। एक्शन घिसा-पिटा है। हीरो-हीरोइन टमाटरों के बीच और बैंक के लॉकर रूम में रोमांस करते हैं, लेकिन झपकी ले रहे है दर्शक को नींद से नहीं जगा पाते। गाना कभी भी टपक पड़ता है। हीरो अपराध जगत में क्यों है इसका कोई जवाब नहीं है। फिल्म का निर्देशन नवनीत बहल ने किया है। उन्हें शायद पता नहीं हो कि कुछ शॉट्स अच्छे से फिल्मा लेना ही निर्देशन नहीं होता। लोकल फ्लेवर डालने के हर तरह की भाषा अपने किरदारों से बुलवाई गई है। यूपी/बिहार के देहातों के लहजे में हीरो ने हिंदी बोली है तो हीरोइन की हिंदी दिल्ली वाली है, विलेन हरियाणा के ताऊ जैसा बोलता है, लेकिन इससे फिल्म की कहानी या प्रस्तुतिकरण पर असर नहीं पड़ता। रिचा चड्ढा एकमात्र ऐसी कलाकार रहीं जिन्होंने अपना काम गंभीरता से किया है, लेकिन 'तमंचे' जैसी फुस्सी फिल्म में हीरोइन बनने के बजाय 'गोलियों की रासलीला- रामलीला' में छोटा रोल करना ज्यादा बेहतर है। निखिल द्विवेदी ने जमकर बोर किया है। दमनदीप सिंह औसत रहे हैं। यह 'तमंचा' जंग लगा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं है। बैनर : फैशनटीवी फिल्म्स, ए वाइल्ड एलिफेन्ट्स मोशन पिक्चर्स निर्माता : सूर्यवीर सिंह भुल्लर निर्देशक : नवनीत बहल संगीत : कृष्णा कलाकार : निखिल द्विवेदी, रिचा चड्ढा, दमनदीप सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 53 मिनट 37 सेकंड ",0 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com हिमेश रेशमिया के आलोचक बतौर ऐक्टर भले ही उनकी जमकर आलोचना करते रहे हों, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बतौर सोलो ऐक्टर उनकी पिछली फिल्म 'द एक्सपोज' ने बॉक्स ऑफिस पर न सिर्फ अपनी लागत बटोरी, बल्कि अच्छा-खासा मुनाफा भी कमाया। वैसे हिमेश ने इससे पहले 'खिलाड़ी 786' जैसी हिट फिल्म में ऐक्टिंग की है, लेकिन उस फिल्म की कामयाबी का सारा क्रेडिट अक्षय कुमार के नाम गया। हिमेश को ऐसा भी दौर देखना पड़ा जब प्रॉडक्शन कंपनी ने उनकी फिल्म 'कजरारे' को कम्प्लीट होने के बाद सिनेमा घरों पर यह कहकर रिलीज करने से इनकार कर दिया कि मार्केट और बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म का जरा भी क्रेज नहीं है। खैर, किसी तरह रस्म अदायगी के तौर पर वह फिल्म मुंबई के इक्का-दुक्का सिनेमा हॉल में रिलीज की गई। ​लेकिन हिमेश की ऐक्टिंग पर उंगलियां उठाने वाले भी इस बात को मानते हैं कि बतौर म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर वह बेहतरीन हैं। यह दिलचस्प है कि हिमेश की पिछली तीन फिल्मों 'आपका सुरूर', 'कर्ज' और 'रेडियो' ने बॉक्स ऑफिस से कहीं ज्यादा कमाई इस फिल्म के म्यूजिक राइट्स से की। हिमेश 'सुरूर' टाइटल को अपने लिए लकी मानते हैं। इस टाइटल पर बनी उनकी म्यूजिक ऐल्बम सुपरहिट रही है, ऐसे में हिमेश की इस नई फिल्म का म्यूजिक लवर्स में कुछ क्रेज तो जरूर है। कहानी : रघु (हिमेश रेशमिया) के सिर से पिता का साया बचपन में ही छिन चुका है। अपनी बीमार मां का इलाज कराने के लिए उसे दस हजार रुपये चाहिए। रघु को एंथनी दस हजार रुपये इस शर्त पर देता है कि वह एक ड्रग डीलर की हत्या करेगा। रघु ऐसा ही करता है, लेकिन अपनी बीमार मां को नहीं बचा पाता। अब वह जवान हो चुका है और अच्छी-खासी कमाई कर रहा है। रघु को तारा (फराह करीमी) से बेइंतहा मोहब्बत है। रघु अब एक नामी गैंगस्टर बन चुका है, जबकि तारा की नजरों में वह बिज़नसमैन है। रघु तारा से कुछ भी छिपाना नहीं चाहता, लेकिन एक दिन जब वह तारा को बताता है कि उसने एक रात किसी दूसरी लड़की के साथ गुजारी है तो तारा इसे बर्दाश्त नहीं कर पाती और आयरलैंड के शहर डबलिन चली जाती है। डबलिन जाते ही तारा को वहां की पुलिस ड्रग्स तस्करी के आरोप में जेल भेज देती है। अब अपने प्यार को बचाने की खातिर रघु भी डबलिन पहुंच जाता है। यहां आने के बाद रघु का एक ही मकसद है, अपने साथ तारा को किसी तरह वापस लेकर जाना। ऐक्टिंग : हिमेश ने पहली बार इंडस्ट्री के दिग्गजों शेखर कपूर, कबीर बेदी और नसीरुद्दीन शाह के साथ कैमरा फेस किया है। यह जरूर है कि ऐक्टिंग की फील्ड में हिमेश को अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना होगा। इस फिल्म में हिमेश ने भी कई सीन्स में शर्ट उतारे हैं, लेकिन इसकी तुलना सलमान के साथ करना बेईमानी होगा। पहली बार कैमरा फेस कर रही इंटरनैशनल मॉडल फराह करीमी ने किरदार के मुताबिक अच्छा काम किया है। वहीं इंडस्ट्री के तीन दिग्गजों की मौजूदगी ऐक्टिंग के लिहाज से प्लस पॉइंट है। डायरेक्शन : शॉन अरान्हा के कमजोर निर्देशन को फिल्म की शानदार सिनेमटोग्रफ़ी के साथ-साथ बेहतरीन गानों ने काफी हद तक संभाल लिया है। हर पांच-दस मिनट में स्क्रीन पर एक गाना या किसी गाने का अंतरा आता है, लेकिन फिल्म की रफ्तार इतनी सुस्त है कि पौने दो घंटे की फिल्म में दर्शक कहानी से खुद को कहीं बांध नहीं पाते। इंडस्ट्री के दिग्गज अभिनेताओं नसीरुद्दीन शाह, शेखर कपूर और कबीर बेदी की मौजूदगी को निर्देशक ढंग से पेश नहीं कर पाए, तो वहीं इन तीनों का किरदार भी थमा-थमा सा लगता है। इंटरवल के बाद हालांकि कहानी थोड़ी ट्रैक पकड़ती लगती है, लेकिन कुछ ही पल बाद स्क्रीन पर 'द एंड' लिखा नजर आ जाता है। संगीत : हिमेश का म्यूजिक इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है। टाइटल सॉन्ग 'तेरा सुरूर' बेहतरीन बन पड़ा है, वहीं फिल्म के दूसरे गाने भी रिलीज से पहले ही हिट हो चुके हैं, लेकिन इस बार म्यूजिक में 'आपका सुरूर' जैसा जलवा तो नहीं है। क्यों देखें : अगर आपको आयरलैंड की खूबसरती देखनी है और आप बतौर म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर हिमेश रेशमिया के फैन हैं तो अपसेट नहीं होंगे, लेकिन कुछ नया देखने या इस बार हिमेश की ऐक्टिंग में दम देखने की चाह में थिएटर जा रहे हैं, तो अपसेट हो सकते हैं। ",0 "बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : करण जौहर, रॉनी स्क्रूवाला, हीरू जौहर निर्देशक : शकुन बत्रा संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, राम कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 52 मिनट * 15 रील ‘एक मैं और एक तू’ में करीना कपूर की ही हिट फिल्म ‘जब वी मेट’ को महसूस किया जा सकता है। उसमें भी बोरिंग किस्म का लड़का संयोग से जिंदगी के हर सेकंड का आनंद उठाने वाली लड़की के संपर्क में आता है। उससे जिंदगी जीने का अंदाज सीखता है और प्यार कर बैठता है। इसी से मिलती-जुलती स्टोरी ‘एक मैं और एक तू’ में भी देखने को मिलती है। हालांकि ‘एक मैं और एक तू’ में नई बात यह है कि हीरो-हीरोइन में शादी हो जाती है। दोनों शादी तोड़ने की कार्रवाई करते हैं और इस दौरान उनमें दोस्ती हो जाती है। राहुल (इमरान खान) और रिहाना (करीना कपूर) की परवरिश बिलकुल अलग माहौल में हुई है। राहुल अपने डैडी के सामने मुंह नहीं खोल पाता। टाई भी वो अपने पिता से पूछ कर पहनता है। मम्मी के कहने पर हर कौर 32 बार चबा कर खाता है। दिन में तीन बार ब्रश करता है और अंडरवियर भी इस्त्री कर पहनता है। माना कि इनमें से कुछ अच्छी आदते हैं, लेकिन उस पर बहुत ज्यादा मैनर्स लाद दिए गए हैं जिनका वजन ढोते-ढोते वह परेशान हो गया है। वह 25 वर्ष का हो गया है, लेकिन उसके पैरेंट्सं अभी भी उसे दस वर्ष का बच्चा मानते हैं। दूसरी ओर रिहाना अपनी मर्जी की मालकिन है। अपनी तरीके से लाइफ एंजॉय करती है। पैरेंट्स का किसी किस्म का उस पर प्रेशर नहीं है। रिहाना और उसके डैड के संबंध इतने खुले हुए हैं कि वे अपनी बेटी से पूछ लेते हैं कि जिस इंसान से उसने गलती से शादी कर ली है, उसके साथ वह सोई है या नहीं। लास वेगास में रहने वाले ये दोनों बंदे जॉबलेस हैं। क्रिसमस के पहले वाली रात में खूब शराब पी लेते हैं और नशे में वेडिंग चैपल जाकर शादी कर लेते हैं। लास वेगास में आप कभी भी और किसी भी हाल में शादी कर सकते हैं। सुबह नींद खुलती है तो गलती का अहसास होता है। वे अपनी शादी को रद्द (एनल्ड) करने के लिए दौड़ते हैं। इसमें कुछ दिन लगते हैं और इस दौरान दोनों की जिंदगी में कई बदलाव आते हैं। कहानी जानी-पहचानी लगती है, लेकिन शकुन बत्रा का निर्देशन इतना बढिया है कि फिल्म बांध कर रखती है। हल्के-फुल्के तरीके से उन्होंने बात कही है। कहीं भी इमोशनल या ड्रामेटिक सीन का ओवरडोज नहीं है। फिल्म के दोनों कैरेक्टर्स एक-दूसरे से जुदा है और शकुन ने डिटेल के साथ उन्हें पेश किया है। इमरान और करीना के स्वभाव को देख अंदाज लगाया जा सकता है कि उनकी परवरिश किस माहौल में हुई है। आमतौर पर इंटरवल के बाद वाले हिस्से में लव स्टोरीज पर आधारित फिल्में बिखर जाती हैं, लेकिन इस हिस्से को शकुन ने बहुत ही अच्छी तरह संभाला है। कहानी मुंबई शिफ्ट होती है और कुछ करीना के परिवार वाले कुछ उम्दा सीन देखने को मिलते हैं। अभिजात्य वर्ग के बनावटीपन को डिनर टेबल पर फिल्माए गए सीन के जरिये बखूबी पेश किया गया है, जिसमें इमरान का गुस्सा फूट पड़ता है। इमरान और करीना की प्यार को लेकर गलतफहमी वाला सीन और इमरान के पिता द्वारा उसको टाई पहनाने वाले दृश्य भी तारीफ के काबिल हैं। लड़के और लड़की के बीच दोस्ती और प्यार की लाइन बड़ी धुंधली होती है और इसके इर्दगिर्द फिल्म बनाना आसान नहीं है, लेकिन शकुन इसमें सफल रहे हैं और फिल्म का अंत भी ताजगी लिए हुए है। फिल्म में कनवर्सेशन (बातचीत) ज्यादा है और एक्शन कम, इसलिए स्क्रिप्ट और डायलॉग कसे हुए होना चाहिए। इसमें लेखक आयशा देवित्रे और शकुन बत्रा कामयाब रहे हैं क्योंकि इमरान और करीना की बातचीत सुनना अच्छा लगता है। संगीतकार अमित त्रिवेदी और गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य का उल्लेख भी जरूरी है। दोनों ने सुनने लायक और युवा संगीत दिया है। गानों को स्क्रिप्ट में ऐसे गूंथा गया है कि गानों के जरिये कहानी आगे बढ़ती रहती है। गुब्बारे, आंटीजी और एक मैं और एक तू जैसे गाने तो पहली बार सुनने में ही पसंद आ जाते हैं। फिल्म की लीड पेयर करीना कपू र और इमरान खा न की कैमिस्ट्री खूब जमी है। इसका सारा श्रेय उनकी एक्टिंग को जाता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ करीना न केवल सुंदर होती जा रही हैं बल्कि उनका अभिनय भी निखरता जा रहा है। रिहाना की जिंदादिली को उन्होंने जिया है और पूरी फिल्म में उनका अभिनय देखने लायक है। अभिनय के मामले में इमरान भी कम नहीं है। उनके किरदार की अपने पिता के सामने बोलती बंद हो जाती है और इन दृश्यों में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, राम कपूर सहित सारे कलाकारों ने अच्छा काम किया है। ‘एक मैं और एक तू’ स्वी ट रोमांटिक मूवी है। इस फिल्म को देख वेलेंटाइन वीक को बेहतर बनाया जा सकता है। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में अब अलग तरह की फिल्में बनने लगी है, अलग-अलग दमदार सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्में बनने लगी हैं जिन्हें कुछ वक्त पहले बनाने की मेकर सोच तक नहीं सकते थे। इस फिल्म के हीरो विकी कौशल की बात करें तो उनकी पहली फिल्म मसान की कहानी श्मशान घाट के आसपास घूमती है तो यह फिल्म पंजाब और संगीत से जुड़ी है। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies पंजाब और म्यूज़िक का खास रिश्ता है, यहां की वादियों में संगीत बसा है, फिल्म मेकर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्म बनाई जो उन दर्शकों की कसौटी पर यकीनन खरी उतरने का दम रखती है जो लीक से हटकर ऐसी फिल्में देखने के शौकीन हैं, जो इंडस्ट्री के टॉप मंहगे स्टार्स के साथ बनी चालू मसालों पर बनी फिल्मों की भीड़ से दूर ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो दमदार कहानी के दम पर उनके दिल को छूने का दम रखती है। प्रॉडक्शन कंपनी ने स्टोरी की डिमांड पर इस फिल्म को मुंबई के किसी स्टूडियो में सेट लगाकर शूट करने की बजाए पंजाब की रियल लोकेशन पर शूट किया। बॉक्स आफिस पर रिजल्ट की परवाह किए बिना फिल्म को उन्हीं कलाकारों के साथ बनाया जो किरदार की कसौटी पर सौ फीसदी फिट बैठते हैं। आज जब मीडिया में पंजाब की युवा पीढ़ी के नशे की और धीरे-धीरे अग्रसर होने की खबरें आ रही हैं तो ऐसे में वहां संगीत अपना सबसे महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है, इसी मेसेज को जुबान में एक अलग अंदाज में पेश करने की पहल की गई है। कहानी : दिलशेर सिंह (विकी कौशल) अपने पिता के साथ गुरदासपुर के एक गुरुद्वारे में जाकर गुरुबाणी और सबद गाता है। दिलशेर के पिता की सुनने की शक्ति अब धीरे धीरे कम होने लगी है, एक दिन ऐसा आता है जब उन्हें सुनाई देना बंद हो जाता है। संगीत से उनका रिश्ता खत्म हो जाता है, दिलशेर के पिता इस सदमे से हताश होकर अपनी जान दे देते हैं। दिलशेर का भी यहीं से संगीत के साथ रिश्ता खत्म हो जाता है। स्कूली दिनों में दिलशेर को जब स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स पीट रहे थे तो उस वक्त वहां मौजूद गुरुचरण सिकंद (मनीष चौधरी) उसकी मदद नहीं करता। दिलशेर जब पास पड़ा बड़ा सा पत्थर उठाकर उनका सामना करता है तो सभी भाग खड़े होते हैं। दिलशेर उस वक्त सिकंद से पूछता है कि उन्होंने उसकी मदद क्यों नहीं की? उस वक्त गुरुचरण उसे कहता है जो कुछ भी करना है खुद ही करना है, किसी के सहारे की आस रखोगे तो कुछ भी नहीं कर पाओगे, सो हमेशा खुद पर भरोसा करो। पिता की मौत के बाद दिलशेर अपने गांव से दिल्ली जाता है, जहां सिकंद की कई कंपनियों का मालिक बन चुका है। दिल्ली में दिलशेर का मकसद गुरदासपुर के लॉयन यानी सिकंद से मिलना है, क्योंकि दिलशेर भी सिकंद जैसा बनना चाहता है। एक दिन दिलशेर सिकंद तक पहुंचने में कामयाब होता है। दिलशेर जब सिकंद के पास पहुंचता है तो पाता है सिकंद अपनी वाइफ मंदिरा मेंडी (मेघना मलिक) और इकलौते बेटे सूर्या (राघव चानना) से बेइंतहा नफरत करता है। हर बात पर सिकंद बेटे सिकंद को नीचा दिखाना चाहता है, दिलशेर के आने के बाद सिकंद को लगता है मंदिरा और सूर्या दिलशेर से बेहद नफरत करते हैं, ऐसे में वह जानबूझकर दोनों को और जलाने के लिए दिलशेर को तवज्जो देना शुरू कर देता है। इसी बीच दिलशेर की मुलाकात सूर्या की गर्लफ्रेंड अमीरा (सारा जेन डयास) से होती है। हर वक्त म्यूजिक और अपनी बसाई एक अलग दुनिया में रहने वाली अमीरा दिलशेर को एहसास कराती है कि जब वह गाता है तो हकलाता नहीं है। बस यहीं से दिलशेर को लगता है कि उसकी मंजिल कुछ और ही है। ऐक्टिंग : पूरी फिल्म मनीष चौधरी और विकी कौशल के आसपास टिकी है। मसान के बाद एक बार फिर विकी कौशल ने इस फिल्म में अपने किरदार दिलशेर को स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है। कई सीन में विकी ने गजब का अभिनया किया है। लॉयन ऑफ गुरदासपुर, गुरुचरण सिकंद के रोल में मनीष चौधरी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। सारा जेन डयास के हिस्से में कुछ सीन और गाने ही आए है, जन्हें डयास ने बस निभा भर दिया। सिकंद की पत्नी के रोल में मेघना मलिक और इकलौते बेटे के रोल राघव चानना परफेक्ट रहे। संगीत : म्यूजिक फिल्म का प्लस है, बाबा बुल्ले शाह की बाणी का अच्छा प्रयोग किया गया है। फिल्म का एक गाना म्यूजिक इज माई लव, म्यूजिक इज माई होम जुगनू सा जले पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। निर्देशन : निर्देशक मोजेज सिंह ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। ग्लैमर इंडस्ट्री में बतौर डायरेक्टर अपनी पहचान बनाने में लगे मोजेज सिंह की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और किरदारों के साथ पूरा इंसाफ किया। अच्छी शुरुआत के बाद अचानक फिल्म की रफ्तार कुछ सुस्त हो जाती है, वहीं सिकंद के घर दिलशेर की एंट्री और उसके मकसद को निर्देशक सही ढंग से पेश नहीं कर पाए। वहीं उन्होंने फिल्म के सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर फिल्मों के शौकीन हैं तो जुबान एकबार देखी जा सकती है, विकी और मनीष चौधरी की गजब दमदार परफार्मेंस और मधुर संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है। ",1 "कहानी: विद्या चौहान (रवीना टंडन) जो एक स्कूल टीचर हैं उनका और उनकी टीनएज बेटी टीया (अलीशा खान) का रेप होता है, उनके साथ मारपीट होती है और उन्हें बीच सड़क पर छोड़ दिया जाता है। इस घटना के बाद टीया की मौत हो जाती है जबकि विद्या बच जाती है। इस पूरे मामले की जांच में पुलिस जहां अपनी चप्पल घिस रही है वहीं, विद्या आरोपियों से खुद बदला लेने की ठानती है। ये कहानी दिल्ली शहर की है जिसे अक्सर भारत के रेप कैपिटल के तौर पर जाना जाता है। इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ आए दिन हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना है। इसलिए आप इस मकसद के लिए फिल्म की तारीफ कर सकते हैं। लेकिन फिल्म में इस जघन्य अपराध और इसके बाद होने वाली घटनाओं में जरूरत से ज्यादा ड्रामा दिखाया गया है। फिल्म शुरू होने के कुछ ही मिनटों बाद आप देखते हैं कि दोनों मां-बेटी सड़क पर एक गलत टर्न ले लेती हैं और अनजाने में अपूर्व मलिक (मधुर मित्तल) के घर पहुंच जाती हैं जो किसी राजनेता का जिद्दी बेटा है। पैसे और शराब के नशे में चूर अपूर्व और उसके दोस्तों का गैंग बेहद नृशंस तरीके से विद्या और टीया का रेप करते हैं। इस घटना को देखकर ऑडियंस को भी दुख होता है। इससे पहले की आप इस घटना से उबर पाएं विद्या और टीया को निर्भया वाली घटना की तरह कार से बाहर सड़क पर फेंक दिया जाता है। इस पूरी घटना का मकसद लोगों को उनकी नींद से जगाना है लेकिन बेहतर नतीजे पाने के लिए फिल्म के स्क्रीनप्ले और चरित्र चित्रण को और मजबूत बनाने की जरूरत थी। ऐसा नहीं होने की वजह से यह पूरी घटना एक ड्रिल की तरह लगती है। विद्या अस्पताल में भर्ती है लेकिन उसका असंवेदनशील पति अपनी बेटी की मौत का तो शोक मनाता है लेकिन पत्नी के साथ हुई घटना के बाद उसे तलाक देना चाहता है। इस दौरान विद्या की एक दोस्त रितू (दिव्या जगदाले) उसकी मदद करती है। फिल्म में पुलिसवालों का रोल भी घिसा पिटा है जो यह कहते हुए सुने जाते हैं- 'पीएम देश को शेप करने की बात कर रहे हैं और यह रेप की बात कर रही है।' इसके बाद विद्या अपने बैंडेज हटाकर ट्रेडमिल पर दौड़ना शुरू करती है ताकि वह अपने साथ हुई इस घटना का बदला ले सके। एक एक कर वह उन लोगों की हत्या की साजिश रचती है जिसने उसके साथ यह गलत हरकत की थी। चूंकि उसके साथ हुई यह घटना इतनी भयंकर थी कि शुरुआत में तो आप विद्या के साथ हमदर्दी जताते हैं लेकिन बाद में उसके द्वारा की जा रही हिंसा भी उतनी ही ज्यादा परेशान करने वाली बन जाती है। रवीना ने न्याय पाने के जुगत में लगी एक पीड़ित महिला के किरदार को बखूबी निभाया है। लेकिन फिल्म में जितना खून खराबा दिखाया गया है वह आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कि इसमें ज्यादा बुरा क्या था। वह रेप की घटना या फिर उस अपराध को अंजाम देने वाले दोषियों के साथ हुआ खून खराबा। ",1 "सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाले आइडिए पर इतनी फिल्में बनी हैं कि अब इनमें नया दिखाने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया है। गब्बर इज बैक का भी यही विषय है। यह तमिल फिल्म रामना का रीमेक है जो आज से 13 वर्ष पहले बनी थी। गब्बर, फिल्म 'शोले' में विलेन था जिसका नाम सुनकर बच्चे सो जाते थे। 'गब्बर इज बैक' में नाम विलेन का है, पर काम हीरो वाला है। इस गब्बर से रिश्वत लेने वालों के हाथ कांपने लगते हैं और वे बिना पैसा खाए काम करने लगते हैं। हकीकत में ये संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह सुनने या पढ़ने में ये बातें अच्छी लगती हैं, इसी तरह स्क्रीन पर देखते समय भी अच्छी लगती हैं। आम आदमी जो काम कर नहीं पाता है वह हीरो को करते देख खुश हो जाता है। गब्बर इज बैक दर्शकों में यह भावना जगाने में सफल रही है। फिल्म महाराष्ट्र में सेट है। प्रदेश में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला है। पुलिस को समोसे खाने से फुरसत नहीं है। डॉक्टर्स मुर्दे का इलाज कर पैसा कमाने में लगे हुए हैं। नेता जन-सेवा का मतलब भूल गए हैं। अचानक गब्बर का नाम चारों ओर सुनाई देने लगता है। वह भ्रष्ट कर्मचारियों का किडनैप कर उन्हें अपने मुताबिक सजा देता है। जरूरत पड़े तो वह उनकी हत्या करने में भी नहीं हिचकता। फिल्म अपने पहले सीन से ही दर्शकों तैयार कर देती है कि वे किस तरह की फिल्म देखने वाले हैं जब महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों से दस तहसीलदारों का एक साथ अपहरण हो जाता है। गब्बर और उसके जैसी सोच रखने वाले लोग इस काम को अंजाम देते हैं। अफरा-तफरी मच जाती है। फिल्म की कहानी एआर मुरुगदास ने लिखी है। मूल कहानी के समानांतर कुछ ट्रेक चलते रहते हैं। जैसे आदित्य क्यों गब्बर बना? फिल्म में धीरे-धीरे इस राज को खोला गया। पुलिेस के आला ऑफिसर निकम्मे हैं, लेकिन पुलिस में ड्रायवर की नौकरी करने वाले साधु (सुनील ग्रोवर) अपनी बुद्धिमत्ता से गब्बर को ढूंढने की कोशिश करता है और बहुत नजदीक पहुंच जाता है। इस ट्रेक को मूल कहानी के साथ खूबसूरती से लपेटा गया है। फिल्म में दो दमदार किरदार दिग्विजय पाटिल (सुमन तलवार) और सीबीआई ऑफिसर कुलदीप पाहवा (जयदीप अहलावत) की एंट्री से नए उतार-चढ़ाव आते हैं। दिग्विजय से गब्बर को पुराना हिसाब चुकता करना है तो गब्बर को पकड़ने के लिए कुलदीप जाल बिछाता है। फिल्म अच्छाई बनाम बुराई के सरल ट्रेक पर चलती है। आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है, लेकिन निर्देशक कृष का प्रस्तुतिकरण फिल्म को बचा ले जाता है। उन्होंने फिल्म की गति तेज रखी है ताकि दर्शकों को सोचने का वक्त ‍कम मिले। साथ ही बीच-बीच में ताली पीटने और सीटी बजाने वाले सीन उन्होंने रखे हैं जिससे फिल्म न केवल फिल्म में रूचि बनी रहती है बल्कि मनोरंजन का डोज भी लगातार मिलता रहता है। गब्बर इज बैक के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें> अस्पताल में मुर्दे का इलाज कर पैसे लूटने का सीन गजब का है। रियल लाइफ में ऐसे कई किस्से हो चुके हैं इसलिए इसे फिल्मी कहकर टालना उचित नहीं रहेगा। थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर इसे पेश किया गया है बावजूद इसके इस प्रसंग को दर्शकों की तालियां मिलती हैं। अस्पताल और डॉक्टर्स की मिलीभगत की पोल यह प्रसंग खोलता है। इसी तरह दिग्विजय पाटिल को उसके घर से किडनैप करने वाला सीन भी बेहतरीन बन पड़ा है। फिल्म के आखिर में जब गब्बर को गिरफ्तार कर जेल ले जाया जाता है तब गब्बर के प्रशंसक पुलिस वैन को चारों ओर से घेर लेते हैं। गब्बर से पुलिस ऑफिसर कहता है कि वह अपने प्रशंसकों को रास्ता छोड़ने के लिए कहे। पुलिस वैन की छत पर चढ़ने के लिए वह अपनी हथेलियों को आगे करता है ताकि गब्बर ऊपर चढ़ सके। इस सीन के जरिये दिखाया गया है कि एक काबिल अफसर भी गब्बर के विचारों से सहमत है, लेकिन कानून का सेवक होने के कारण वह भी मजबूर है। यह छोटा-सा सीन कई बातें कह जाता है। खामियां भी कई हैं। गब्बर सब कुछ आसानी से कर लेता है। वह कहीं भी कभी भी पहुंच जाता है। भेष बदलना उसके लिए बाएं हाथ का खेल है। दिग्विजय पाटिल जैसे शक्तिशाली आदमी के घर वह ऐसे घुस जाता है जैसे खुद का घर हो। ताज्जुब की बात यह है कि दिग्विजय के घर एक भी आदमी नहीं रहता। गब्बर कैसे अपनी टीम खड़ी कर लेता है इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई जबकि इसके बारे में जानने के लिए उत्सुकता रहती है। श्रुति हासन का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। श्रुति और अक्षय के बीच का रोमांस निर्देशक और लेखक ने अधूरे मन से रखा है। अक्षय की उम्र तब अचानक बढ़ जाती है जब वे श्रुति के साथ होते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह यह लाउड है जिसमें गाने कहीं से भी टपक पकड़ते हैं। चूंकि मनोरंजन का पलड़ा खामियों के पलड़े से भारी है इसलिए फिल्म अच्छी लगती है। दाढ़ी अक्षय ने अमजद खान से उधार ली है और किरदार को अपने तरीके से निभाया है। चूंकि उनका किरदार लार्जर देन लाइफ है इसलिए लटके-झटकों के साथ दर्शकों को खुश करने वाला उन्होंने अभिनय किया है। 'सिस्टम बच्चों के डायपर जैसा हो गया है, कहीं से गीला और कहीं से ढीला' जैसे कुछ दमदार संवाद उन्होंने बोले हैं। श्रुति हासन खूबसूरत लगी, लेकिन उनके किरदार को फिल्म में बिलकुल महत्व नहीं दिया गया है। उनका अभिनय ठीक-ठाक है। 'गुत्थी' के रूप में मशहूर सुनील ग्रोवर ने गंभीर भूमिका बेहद कुशलता के साथ निभाई है। उनका किरदार फिल्म में दिचलस्पी पैदा करता है। विलेन के रूप में सुमन तलवार ठीक-ठाक रहे। दरअसल उनका किरदार ठीक से स्थापित नहीं किया गया और 'ब्रैंड' वाला संवाद बार-बार बोल उन्होंने दर्शकों को पकाया। सीबीआई ऑफिसर के रूप में जयदीप अहलावत प्रभावित करते हैं। कैमियो में करीना कपूर स्क्रीन को जगमगा देती हैं। चित्रांगदा सिंह को पता नहीं क्यों इस तरह के आइटम सांग करने पड़ रहे हैं? रजत अरोरा ने फिल्म के संवाद लिखे हैं, लेकिन ये अपेक्षा के अनुरूप दमदार नहीं हैं। अक्षय-करीना पर फिल्माया गया 'तेरी मेरी कहानी' ही सुनने लायक है। सिनेमाटोग्राफी खास नहीं है। संपादन ढीला है। कम से कम 15 मिनट फिल्म को छोटा किया जा सकता है। खासतौर में क्लाइमैक्स में की गई अक्षय की भाषणबाजी को संक्षिप्त करना अति आवश्यक है। गब्बर इज बैक दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह है जिसमें लाउड ड्रामा, धमाकेदार हीरो, भारी-भरकम डायलॉग्स, तेज बैकग्राउंड म्युजिक, धांसू फाइट सीन जैसे मसाले हैं जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, संजय लीला भंसाली, शबीना खान निर्देशक : कृष संगीत : चिरंतन भट्ट, हनी सिंह कलाकार : अक्षय कुमार, श्रुति हासन, सुनील ग्रोवर, सुमन तलवार, जयदीप अहलावत, मेहमान कलाकार - करीना कपूर, चित्रांगदा सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट ",1 "करीब दो साल पहले डायरेक्टर श्रीजीत मुखर्जी के निर्देशन में बनी बांग्ला फिल्म राजकहिनी बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित रही। मीडिया में इस फिल्म को जबर्दस्त तारीफें मिली, वहीं फिल्म ने धमाकेदार बिज़नस भी किया। बांग्ला की यह फिल्म 70 के दशक में रिलीज़ हुई श्याम बेनेगल की फिल्म मंडी की याद दिलाती थी। उस वक्त श्रीजीत ने अपनी इस फिल्म में लीड किरदार के लिए विद्या बालन को अप्रोच किया, लेकिन बिजी शेडयूल के चलते विद्या चाहते हुए भी इस फिल्म को नहीं कर पाई। पिछले साल महेश भट्ट ने बांग्ला की इस सुपरहिट फिल्म को हिंदी में बनाने के प्रॉजेक्ट की कमान श्रीजीत मुखर्जी को सौंपी। श्रीजीत की इस फिल्म की एक खासयित यह भी है कि फिल्म में एक दो नहीं, बल्कि दस फीमेल आर्टिस्ट हैं। यह फिल्म भारत-पाक विभाजन के उस पहलू को टच करती है जो बॉलिवुड फिल्मकारों से अछूता रहा है। भारत-पाक विभाजन के सब्जेक्ट पर मारकाट के बीच कई प्रेम कहानियां पर फिल्में बनी, लेकिन श्रीजीत की इस फिल्म का ताना-बाना बंगाल के विभाजन के इर्द-गिर्द बुना गया है। फिल्म की लीड किरदार बेगम जान एक ऐसे कोठे की मालकिन हैं जो अंग्रेजों दवारा दोनों देशों के बीच बनाई गई बंटवारे की लाइन के बीचोंबीच आ रहा है। दोनों देशों के बंटवारे के काम का निपटारा करने के लिए बेगम जान के इस कोठे को तोड़ना बेहद जरूरी है। फिल्म में एक से एक मंझे हुए कलाकारों की पूरी फौज है तो भट्ट कैंप ने इस फिल्म में भी बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों को फिट करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अब यह बात अलग है कि सेंसर की प्रिव्यू कमिटी ने फिल्म के कई डबल मीनिंग संवादों और कई लंबे लव मेकिंग सीन पर कैंची चला दी, वहीं सब्जेक्ट की डिमांड के चलते सेंसर ने कई बेहद हॉट सीन और हॉट संवादों को फिल्म से अलग नहीं किया। यह फिल्म उस वक्त एकबार फिर सुर्खियों में आई जब पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड ने भारत-पाक विभाजन के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन करने का फैसला किया। कहानी : बेगम जान (विद्या बालन) एक ऐसे कोठे की मालकिन हैं, जो ऐसी जगह पर बना हुआ है जिसे बंटवारे के बाद भारत-पाक के बीच बंटवारे की लाइन खींचने और इस बॉर्डर पर सीमा चौंकी बनाने के लिए प्रशासन को अपने कब्जे में लेना बेहद जरूरी है। बेगम जान की इस कोठे में एक अधेड़ उम्र की महिला (ईला अरुण) भी रहती है, जिसे इस कोठे पर धंधा करने वाली सभी लड़कियां दादी मां कहती हैं। करीब दस से ज्यादा लड़कियों के इस कोठे की मालकिन बेगम जान पर यहां के राजा जी (नसीरुद्दीन शाह) पूरी तरह से मेहरबान हैं। सो किसी में हिम्मत नहीं जो बेगम जान के इस कोठे की ओर बुरी नजर डाल सके। यहां का कोतवाल (राजेश शर्मा) और इलाके का मुखिया भी अक्सर देर रात को मस्ती के लिए इसी कोठे पर आते हैं। बेगम को किसी की जरा भी परवाह नहीं, कोठे पर रहने वालीं लड़कियों की दुनिया इस कोठे तक ही सीमित है। इस कोठे के सभी कायदे-कानून खुद बेगम जान ही बनाती है और इन कायदे-कानूनों पर कोठे को चलाती भी है। बेगम का एक चेहरा बेशक जालिम है जो यहां रहने वाली लड़कियों से मारपीट करके धंधा कराती है तो वहीं दूसरा चेहरा ऐसा भी है जो इन लड़कियों के दुख के वक्त में हमेशा उनके साथ है। इस कोठे की दुनिया उस वक्त बदलती है जब भारत-पाक को विभाजित करने के लिए सरकारी अफसर दोनों देशों के बीच बंटवारे की लाइन खींचने का काम शुरू करते हैं। बेगम को इस बंटवारे या देश को मिल रही आजादी से कुछ लेना-देना नहीं, उसे तो बस अपने धंधे को और ज्यादा चमकाने और अपने इस कोठे को बचाने के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। बेगम और यहां रहने वाली सभी लड़कियां किसी भी हालात में अपनी इस कोठी (जिसे हर कोई कोठा कहता है) खाली करने को राजी नहीं, बेगम की आाखिरी उम्मीदें राजाजी पर टिकी हैं जिन्होंने उससे दिल्ली जाकर उसके इस कोठे को बचाने का वादा किया है। दूसरी ओर, इस कोठे के आस-पास बंटवारे की कांटेदार लगने का काम शुरू हो चुका है। दो सरकारी ऑफिसर इलियास (रजत कपूर), श्रीवास्तव जी (आशीष विद्यार्थी) यहां के पुलिस कोतवाल और सिपाहियों की टुकड़ी के साथ यह काम कर रहे हैं, लेकिन बेगम जान के कोठे को तोड़कर यहां तार लगाने काम शुरू नहीं हो पा रहा है। बेगम जान की मुश्किलें उस वक्त बढ़ जाती है जब दिल्ली से लौटकर राजाजी उसे कोठा खाली करने की सलाह देते हैं, लेकिन बेगम और यहां रहने वाली लड़कियां इस कोठे को खाली करने के लिए तैयार नहीं। सो दोनों सरकारी ऑफिसर कोठा खाली कराने की डील इलाके के एक शातिर बदमाश कबीर (चंकी पांडे) को सौंपते है, जिसे अब किसी भी कीमत पर बेगम जान के कोठे को खाली कराना है। ऐक्टिंग : फिल्म में मंझे हुए कलाकारों की पूरी फौज है। इन सबके बावजूद फिल्म के लीड बेगम जान के किरदार में विद्या बालन का जवाब नहीं। 'द डर्टी पिक्चर', 'कहानी' जैसी कई हिट फिल्में करने के बाद विद्या ने इस किरदार को जिस बेबाकी और बिंदास अंदाज के साथ कैमरे के सामने जीवंत कर दिखाया है उसका जवाब नहीं। विद्या बालन की इस जानदार परफॉर्मेंस को देखने के बाद उन आलोचकों को भी जवाब मिलेगा जो विद्या की पिछली दो-तीन फिल्मों को मिली नाकामयाबी के बाद विद्या के करियर पर सवाल उठा रहे थे। विद्या के अलावा फिल्म के लगभग सभी कलाकारों ने पूरी ईमानदारी के साथ अपने किरदार को निभाया है। राजाजी के छोटे से किरदार में नसीरुद्दीन शाह अपनी पहचान छोड़ जाते हैं तो लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आए विवेक मुशरान एक अलग लुक में नजर आए। गौहर खान, पल्लवी शारदा, ईला अरुण, रविजा चौहान, मिष्ठी सहित फिल्म के हर आर्टिस्ट ने अपने किरदार को पूरी मेहनत के साथ निभाया। डायरेक्शन : श्रीजीत ने पूरी ईमानदारी के साथ सब्जेक्ट पर काम किया, उनकी तारीफ करनी होगी कि 'बेगम जान' के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी में उन्होंने कहानी के हर किरदार को अपनी पहचान बनाने के लिए दमदार प्लैटफॉर्म दिया। फिल्म का संवाद जानदार है, फिल्म का हर संवाद दिल को छू जाता है, तवायफ के लिए क्या आजादी, लाइट बंद होने के बाद सब एक बराबर। ऐसे कई संवाद हैं जो हॉल में बैठे दर्शकों को कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं, वहीं फिल्म की कहानी में कई झोलझाल भी हैं, इंटरवल से पहले की फिल्म की रफ्तार कुछ सुस्त है, फिल्मकार अगर चाहते तो फिल्म के कई बेहद बोल्ड सीन से बचा जा सकता था। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है, जो बेशक म्यूजिक लवर्स और जेन एक्स की कसौटी पर खरा न उतर पाए, लेकिन क्लासिकल म्यूजिक के शौकीनों की कसौटी पर जरूर खरा उतर सकता है। क्यों देखें : अगर आप विद्या के फैन हैं तो इस फिल्म को बिल्कुल मिस न करें। आजादी के जश्न में विभाजन का दर्द और बंटवारे के बैकग्राउंड पर बनी 'बेगम जान' लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीनों के लिए है। वहीं टोटली एंटरटेनमेंट और वीकेंड पर फैमिली के साथ मौज-मस्ती करने की चाह में थिअटर जा रहे हैं तो अपसेट हो सकते हैं। फिल्म को मिले 'ए' सर्टिफिकेट को देख आप समझ सकते हैं कि 'बेगम जान' फैमिली क्लास के लिए नहीं। ",0 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में रीमेक और सीक्वल बनाने का ट्रेंड कोई नया नहीं हैं। अगर किसी भी मेकर की पिछली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर लागत बटोरने के बाद कमाई करने में कामयाब होती है तो प्रॉडक्शन कंपनी को लगता है कि अब इसका सीक्वल बनाकर कमाई की जाए। दरअसल, मेकर्स को सीक्वल बनाना नई फिल्म की बजाय ज्यादा आसान और कमाई का सौदा लगता है। शायद यही वजह है करीब 6 साल पहले बिना किसी प्रमोशन के लगभग नई स्टार कास्ट के साथ सीमित बजट में बनी तेरे बिन लादेन की प्रॉडक्शन कंपनी अपनी पिछली फिल्म के डायरेक्टर को सीक्वल बनाने के लिए ग्रीन सिग्नल दिया। अब ऐसी कहानी का जो पिछली फिल्म में लगभग पूरी तरह से खत्म सी हो गई हो, उसे आगे खींचना आसान काम नहीं होता लेकिन इस कहानी के साथ इस बार एक प्लस पॉइंट यह नजर आ रहा था कि अमेरिका ने एक सीक्रेट मिलिटरी ऑपरेशन में आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार दिया था। इसी प्लॉट को लेकर स्टोरी राइटर ने इस सीक्वल पर काम शुरू किया। इसकी शुरुआत तो ठीकठाक रही, लेकिन बाद में स्टोरी ट्रैक से ऐसे उतरी कि फिर ट्रैक पर लौट नहीं पाई। कहानी : फिल्म की शुरुआत में पिछली फिल्म का जिक्र करके डायरेक्टर ने अपनी इस फिल्म की कहानी को पिछली फिल्म के साथ जोड़ने के लिए एक प्लॉट पेश किया है। शर्मा (मनीष पॉल) के पिता हलवाई हैं, लेकिन शर्मा नहीं चाहता कि वह अपने पिता के काम को आगे बढ़ाए। शर्मा के अपने कुछ अलग सपने हैं। अपने इन्हीं सपनों को साकार करने के लिए शर्मा मुंबई जाता है। मुंबई में उसकी मुलाकात प्रदीप उर्फ ओसामा (प्रद्युम्न सिंह) से होती है। पीद्दी उर्फ ओसामा शर्मा को बताता है कि उसे पिछली फिल्म में लादेन बनाया गया और फिल्म सुपरहिट रही। शर्मा उसकी पिछली फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला करता है, लेकिन इसी बीच लादेन मारा जाता है। दूसरी ओर अमेरिका के प्रेजिडेंट ओबामा पर विपक्ष और दूसरे नेताओं का दबाव है कि आतंकी लादेन को कैसे मारा गया और उसे कहां दफनाया गया इस बारे में सबूत पेश करे। वहीं, अफगानिस्तान में एक आतंकवादी संगठन का सरगना खलीली (पीयूष मिश्रा) किसी भी सूरत में यह साबित करना चाहता है कि लादेन जिंदा है, क्योंकि लादेन के मारे जाने की खबर के बाद खलीली का गैरकानूनी हथियार बेचने का बिज़नस ठप हो रहा है। ऐसे में इनका ध्यान ड्यूप्लिकेट लादेन पर पड़ता है। ड्यूप्लिकेट लादेन को लेकर जहां यूएसए की ओर से आया डेविड (सिकंदर खेर) एक फिल्म शुरू करता है। इस फिल्म का डायरेक्टर शर्मा है और लादेन का किरदार प्रदुम्मन को सौंपा जाता है। डेविड इस फिल्म को किसी सीक्रेट मकसद को पूरा करने के लिए बना रहा है। डायरेक्शन : ऐसा लगता है फिल्म शुरू करने के बाद कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए इसी को लेकर अभिषेक शर्मा असंमजस में ऐसे फंसे कि कहानी लगातार कमजोर पड़ती गई। ऐसा लगता है अभिषेक यह समझ ही नहीं पाए कि क्लाइमेक्स में क्या किया जाए। हां, इंटरवल से पहले अभिषेक ने कई सीन में अच्छी मेहनत की है। संगीत : फिल्म का कोई ऐसा गाना नहीं जो हॉल से बाहर आने के बाद आपकी जुबां पर आ सके। क्यों देखें : इंटरवल से पहले आपको इस सीक्वल में जहां कॉमिडी का जोरदार पंच मिलेगा तो वहीं इंटरवल के बाद आप अपसेट हो सकते हैं। ",0 "यश राज बैनर का नाम ऐसा है जो दर्शकों में अपनी कुछ अलग पहचान बना चुका है। अब दर्शक भी इस बैनर से ऐसी फिल्में चाहते हैं, जो उनकी कसौटी पर सौ फीसदी ना सहीं कुछ तो खरी उतरने का दम रखती हो। अब अगर आप इस कसौटी पर बैनर की इस फिल्म को रखे तो यकीनन फिल्म आपको अपसेट करने का पूरा दम रखती है। बेशक इस फिल्म का प्रॉडक्शन कंपनी ने बहुत ज्यादा प्रमोशन नहीं किया, लेकिन फिल्म को दर्शकों और ट्रेड में हॉट बनाने के मकसद से फिल्म की रिलीज डेट से पहले चोरी के इंटरव्यू, चोरी का ट्रेलर, औैर चोरी के पोस्टर सहित कई प्रमोशनल कैंम्पेन जरूर चलाए। लेकिन आज जब फिल्म ने सिल्वर स्क्रीन पर दस्तक दी तो बॉक्स आफिस पर छाई वीरानी और हॉल में औसतन 20% की ओपनिंग को देखने के बाद तो यहीं लगता है कि दर्शकों पर मेकर कंपनी के इस प्रमोशन कैम्पेन का खास असर नहीं पड़ा। इस फिल्म के साथ एक और खास बात जुड़ी है फिल्म शुरू करने से पहले प्रॉडक्शन कंपनी ने एक अहम किरदार के लिए कपिल शर्मा को अप्रोच किया था लेकिन ऐन वक्त पर बात बन नहीं पाई। इस फिल्म से यंग डायरेक्टर बम्पी ने बॉलिवुड में डेब्यू किया है। कहानी मुंबई का रहने वाला चंपक (रितेश देशमुख) एक बैंक को लूटने की प्लैनिंग करता है। दरअसल, चंपक को अपने बीमार पापा का इलाज कराने के लिए मोटी रकम चाहिए। बैंक चोरी की अपनी इस प्लैनिंग को अंजाम देने के लिए चंपक अपने दो दोस्तों को दिल्ली से बुलाता है। चंपक की इस चोरी की प्लैनिंग में उसके साथ गेंदा (विक्रम थापा) और गुलाब (भुवन अरोरा) भी शामिल हो जाते हैं। दरअसल, गुलाब और गेंदा बहुत बड़े बेवकूफ हैं, लेकिन खुद को अक्लमंद समझते हैं, फुल प्लैनिंग के बाद तीनों बैंक ऑफ इंडियंस लूटने के लिए निकलते हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि इस बैंक डकैती की मीडिया को पहले से खबर मिल जाती है और बैंक के बाहर पहले से जमावड़ा सा लग जाता है। बेहद कड़क पुलिस इंस्पेक्टर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) भी यहां आ पहुंचता है। इसके बाद मीडिया, राजनीति के साथ पुलिस और चोर का खेल शुरू होता है। ऐक्टिंग अगर ऐक्टिंग की बात करें तो रितेश अब कॉमिडी की फिल्म में मास्टर हो चुके हैं। वहीं फिल्म में उनके साथी चोर बने विक्रम थापा और भुवन अरोड़ा ने अपने किरदारों को बेहतरीन ढंग से निभाया। फिल्म में इन तीनों की केमिस्ट्री गजब की बन पड़ी है। इन तीन अहम किरदारों के बीच जर्नलिस्ट के किरदार में रिया चक्रवर्ती अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। विवेक ओबेरॉय अपने किरदार में 100% फिट नजर आए। निर्देशन फिल्म की कहानी में बेशक नयापन ना हो, लेकिन डायरेक्टर बम्पी ने फिल्म को कहीं ट्रैक से उतरने नहीं दिया। उनके डायरेक्शन की सबसे बड़ी खूबी यही है कि बेजान कहानी के बावजूद पर फिल्म पर उनकी पकड़ बरकरार है। स्क्रीनप्ले पर बम्पी ने अच्छी-खासी मेहनत की है, तो फिल्म की फोटोग्रााफी बेहतरीन है, कैमरामैन ने कई सीन्स को अलग-अलग एंगलों से बेहद शानदार ढंग से शूट किया है। संगीत ऐसी कहानी में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं बचती। फिर भी बैंक चोर का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें अगर आप मांइड को रेस्ट देकर सिर्फ एंटरटेनमेंट के मकसद से थिअटर जा रहे है तो बैंक चोर आपको अपसेट नहीं कर करेगी।",0 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com हर दो तीन साल बाद बॉलिवुड से ऐसी एक फिल्म जरूर आती है जिसमें स्टार बनने की चाह में मुंबई जाने वाले स्ट्रगलर की दास्तां को अलग-अलग नजरिए से पेश किया गया। वैसे भी यह ऐसा टॉपिक है जिसपर मेकर हर बार नए स्टाइल और डिफरेंट किरदारों के साथ नई फिल्म बना सकते हैं, लेकिन अगर हम इस फिल्म की बात करें तो यकीनन प्रॉडक्शन कंपनी की तारीफ करनी होगी कि मेकर ने इस टॉपिक पर पूरी ईमानदारी के साथ एक ऐसी फिल्म बनाई जो कहीं न कहीं हॉल में बैठे दर्शकों को मुंबई में अलग-अलग जगह से आने वाले स्ट्रगलर की दास्तां पेश करती है। बेशक इस फिल्म के तीनों किरदारों में से कोई भी अपना सपना साकार करने के लिए मुंबई तक नहीं पहुंच पाता, लेकिन इन तीनों का अपने शहर में स्टार बनने की अपनी चाह और स्ट्रगल को ऐसे पावरफुल ढंग से पेश किया कि कम बजट और बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ न बटोरने वाले स्टार्स के बावजूद फिल्म अपना मेसेज दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब रही है। अगर देखा जाए तो हर दिन ग्लैमर नगरी में अपने सपनों को साकार करने की चाह में छोटे गांवों और दूर-दराज के कस्बों से स्ट्रगलर मुंबई तक पहुंचते तो जरूर है लेकिन इनमें से ऐसे कम ही मुकद्दर के सिकंदर होते हैं जो अपने सपनों को यहां साकार कर पाते हैं। कहानी : कोलकाता के रेड लाइट एरिया की सेक्स वर्कर इमली (रायमा सेन) का बचपन से बस एक ही सपना है कि एक दिन उसे सिनेमा के बड़े पर्दे तक पहुंचना है। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इमली कुछ भी करने को हरदम तैयार है। वहीं भिलाई के सरकारी डिर्पाटमेंट का बाबू विष्णु श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को स्कूल और कॉलेज के वक्त से ऐक्टिंग का ऐसा जुनून सवार हुआ कि ऐक्टिंग उनके खून में जैसे समा गई। स्टेज पर कई नाटक करने के बावजूद विष्णु अपने ऐक्टर बनने के सपने को इसलिए साकार नहीं पाया क्योंकि फैमिली का सहयोग नहीं मिला और उसे भी शादी करके नाइन टू सिक्स का जॉब करना पड़ा। शादी के बाद विष्णु की पत्नी लता श्रीवास्तव ने उससे वादा किया कि अपनी बेटी की शादी करने के बाद वह ऐक्टर बनने के अपने अधूरे सपने को साकार करने के लिए मुंबई जा सकते हैं। बेटी की शादी के वक्त विष्णु की उम्र करीब 52 साल हो गई, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत जरा भी कम नहीं हुआ। दिल्ली की मिडिल क्लास फैमिली का रोहित गुप्ता (सलीम दीवान) एक कॉल सेंटर में जॉब करता है, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत उस पर सवार है कि अपने ऑफिस में भी अपने इस अधूरे सपने को पूरा में लगा रहता है। मेकर्स के यहां धक्के खाने के बावजूद उसका ऐक्टर बनने का जुनून कम नहीं हो रहा, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इन तीनों को अपने अधूरे सपने को साकार करना है, लेकिन इन सबकी राह अलग है, लेकिन मंजिल एक ही है, जो उन तीनों से अभी भी कोसों दूर है। ऐक्टिंग : आशीष विद्यार्थी ने कमाल का अभिनय किया है। विष्णु के किरदार को आशीष ने जीवंत कर दिखाया है। इमली के रोल में रायमा सेन ने अपने जानदार अभिनय से दर्शकों के दिल को छू लिया। एक स्ट्रगलर ऐक्टर के किरदार में सलीम दीवान ने अच्छा काम किया है। विष्णु की पत्नी के किरदार में करुणा पाण्डेय ने हर सीन में अच्छा अभिनय करके दर्शकों की सहानुभूति पाई। संगीत : इस फिल्म का का एक गाना मन का मिरगा माहौल पर फिट नजर आता है। फिल्म का बैकग्राउंड संगीत भी पावरफुल है। डायरेक्शन : डायरेक्टर सत्यम की इंटरवल से पहले हर सीन पर पूरी पकड़ नजर आती है, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार थम सी जाती है। काश सत्यम अपनी कहानी के किसी एक किरदार को स्ट्रगल के लिए मुंबई तक पहुंचाते तो कहानी में और जान आती। हां, सत्यम ने अपनी कहानी के तीनों किरदारों से अच्छा काम लिया तो स्पोर्टिंग स्टार कास्ट को भी अच्छी फुटेज दी। क्यों देखें : स्टार बनने का जुनून किस को कहां तक और किस हाल में पहुंचा देता है, इस फिल्म में आप रील से रियल में देख सकते हैं। आशीष और राइमा सेन का दिल को छू लेने वाला अभिनय, करुणा पांडे की ऐक्टिंग फिल्म की एक और यूएसपी कही जा सकती है। ",1 "आखिरकार, इस शुक्रवार को श्रीदेवी की बेटी जान्‍हवी कपूर की पहली फिल्म धड़क रिलीज हुई। शाहिद कपूर के भाई ईशान खट्टर इससे पहले इंटरनैशनल फेम डायरेक्टर माजिद की फिल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड' में अपनी प्रतिभा का लोहा दर्शकों और क्रिटिक्स से मनवा ही चुके हैं। यही वजह है कि रिलीज़ से पहले ही इस युवा जोड़ी की इस फिल्म का यंगस्टर्स में जबर्दस्त क्रेज रहा। वहीं, इस फिल्म के डायरेक्टर शशांक खेतान की पिछली दोनों फिल्में 'हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया' और 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' बॉक्स आफिस पर हिट रही। यही वजह रही धड़क से दर्शकों और ट्रेड को कुछ ज्यादा ही उम्मीदें हैं। बता दें कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कलेक्शन करने वाली सुपरहिट मराठी फिल्म 'सैराट' का हिंदी रीमेक है। वैसे, इससे पहले सैराट तमिल और पंजाबी में बन चुकी है और इन दोनों फिल्मों को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। आपको ताज्जुब होगा कि मराठी में बनी फिल्म का बजट कुल 04 करोड़ रहा तो फिल्म ने टिकट खिड़की पर 105 करोड़ के करीब कलेक्शन की। ऐसे में शंशाक ने भी अपनी इस फिल्म को भी लगभग वही लुक दिया है जो मराठी फिल्म में नजर आया। इतना ही नहीं 'धड़क' के म्यूजिक में मराठी टच साफ सुनाई देता है। देश-विदेश में रिलीज हुई इस फिल्म का ट्रेड में क्रेज इसी से लगाया जा सकता है कि मल्टिप्लेक्सों में इस फिल्म के औसतन दस से ज्यादा शोज रखे गए हैं तो अडवांस बुकिंग में भी फिल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। नई दिल्ली के डिलाइट सिनेप्लैक्स पर पहले तीन की 50 फीसदी से ज्यादा टिकटें अडवांस में ही बिक चुकी हैं। स्टोरी प्लॉट: धड़क की कहानी राजस्‍थान के उदयपुर शहर से शुरू होती है। राज परिवार से जुड़ी पार्थवी (जाह्नवी कपूर) न तो अपने राजपरिवार के बंधनों और कायदों को दिल से स्वीकार करती है और न ही उसे अपनी आजादी में भाई चाचा या फिर अपने पिता तक का दखल देना पसंद है। दूसरी ओर पार्थवी के पिता ठाकुर रतन सिंह (आशुतोष राणा) को भी कतई बर्दाश्त नहीं कि कोई उसके किसी भी फैसले के खिलाफ जाए। पार्थवी के कॉलेज में पढ़ने वाले मधुकर (ईशान खट्टर) को पहली नजर में ही पार्थवी से प्यार हो जाता है, मधुकर के पिता को मंजूर नहीं कि उनका बेटा ऊंची जाति और राजघराने की पार्थवी से मिले, लेकिन मधुकर और पार्थवी इन सब की परवाह किए बिना एक-दूसरे से मिलते हैं। दूसरी ओर ठाकुर साहब चुनाव लड़ने की तैयारी में लगे हैं, ऐसे में उन्हें वोटर को रिझाना भी मजबूरी बनता जा रहा है। रतन सिंह को पार्थवी और मधुकर के प्यार के बारे में जब पता लगता है तो मधुकर और उसकी फैमिली पर उनका कहर टूट पड़ता है। ऐसे में दोनों उदयपुर से भाग जाते हैं, अब आगे क्या होगा यह जानने के लिए आपको थिअटर का रुख करना होगा। जानिए, जाह्नवी और ईशान की फिल्म 'धड़क' देख क्या बोले फिल्मी सितारेऐक्टिंग, डायरेक्शन, म्यूजिक: जाह्नवी ने अपनी पहली ही फिल्म में साबित किया कि कैमरा फेस करने से पहले उन्होंने लंबा होमवर्क किया तो ईशान खट्टर एक बार फिर अपने फैन्स की कसौटी पर खरे उतरे। इन दोनों की ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री देखते ही बनती है। वहीं, जाह्नवी क्लोजअप सीन्स में ईशान से बड़ी नजर आईं। ठाकुर रतन सिंह के रोल में आशुतोष राणा का जवाब नहीं। मधुकर के दोस्त बने अंकित बिष्ठ और श्रीधरन अपने अपने रोल में फिट रहे। फिल्म के डायरेक्टर शशांक रायजादा ने इंटरवल से पहले की फिल्म को कुछ ज्यादा ही खींच दिया। खासकर पार्थवी और मधुकर की मुलाकातों के लंबे सीन पर आसानी से कैंची चलाई जा सकती थी। इस फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है तो फिल्म के दो गाने 'धड़क है न' और 'पहली बार' का फिल्मांकन देखते ही बनता है। क्यों देखें : जाह्नवी और ईशान की बेहतरीन केमिस्ट्री, राजस्थान की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म की कहानी में बेशक नया कुछ न हो लेकिन कहानी को ऐसे दिलचस्प ढंग से पेश किया गया है कि आप कहानी से बंधे रहते हैं। क्रिटिक्स की तरफ से इस फिल्म को मिले हैं साढ़े 3 स्टार।",0 "चंद्रमोहन शर्मा ऐक्टर और डायरेक्टर रजत कपूर की बॉलिवुड में अलग इमेज बनी हुई है। विनय पाठक और रजत कपूर की जोड़ी ने बॉक्स ऑफिस पर 'भेजा फ्राई' जैसी सीमित बजट में कई फिल्में भी बनाईं, जिन्हें पब्लिक और क्रिटिक्स का अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला। इस शुक्रवार को रिलीज हो रही रजत स्टारर इस फिल्म में उनके साथ ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी कुछ अलग पहचान बना चुकीं कई ऐक्ट्रेस हैं, लेकिन स्टार्ट टू लास्ट तक फिल्म रजत कपूर के किरदार के आस-पास ही घूमती रहती है। करीब डेढ़ घंटे की इस फिल्म के लिए ग्यारह डायरेक्टरों ने अपनी अलग-अलग कहानी पर काम किया, लेकिन स्क्रिप्ट के नजरिए से फिल्म बिखरी नजर आती है। फिल्म के किरदारों का कहीं कोई सामंजस्य नहीं बन पाता और हर दस बारह मिनट में कहानी में एक नया ऐसा टर्न आता है जो समझ से परे लगता है। कई डायरेक्टर्स ने अपने-अपने हिस्से को बेहद बोल्ड बनाने की कोशिश तो की, लेकिन इसमें नाकामयाब रहे। कहानी : किशन (रजत कपूर) लीक से हटकर अलग टाइप की फिल्में बनाने वाला ऐसा फिल्मकार है, जिसकी जिंदगी में कई महिलाएं आती हैं। वह अब तक करीब पंद्रह-बीस फिल्म बना चुका है, लेकिन उसकी दर्शकों और ट्रेड में अभी तक खास पहचान नहीं बन पाई है। किशन खुद को के कहलाना ज्यादा पंसद करता है। अपनी लाइफ में आने वाली नई लड़की को वह अपना इतना ही परिचय देता है। के को लाइफ में सच्चा प्यार भी हो चुका है। रिजा (राधिका आप्टे) के साथ के ने अपनी लाइफ के बेहतरीन कई साल गुजारे हैं, लेकिन उसके बाद उसे पिछली जिंदगी की उन कड़वी यादों ने परेशान करना शुरू कर दिया जब वह अपनी पहचान बनाने के लिए स्ट्रगल कर रहा था। इस दौर में रजत अपनी अगली फिल्म के लिए हर बार नई कहानी पर काम शुरू करता, लेकिन उसके साथ कई तरह की ऐसी घटनाएं घटती हैं कि अपनी फिल्म की लीड ऐक्ट्रेस के लिए उसकी भागदौड़ उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है। के को तो तलाश थी अपनी नई अलग कहानी के लिए नए चेहरे की, लेकिन उसकी अपनी जिंदगी ही अब तक बिखर कर ऐसे मोड़ पर चुकी थी जहां उसे आगे का कुछ नहीं सूझ रहा है। ऐक्टिंग : के यानी किशन के किरदार में रजत कपूर एकबार उसी लुक में नजर आए, जिसमें आप उन्हें पहले भी कई बार देख चुके हैं, लेकिन रजत ने अपने किरदार की डिमांड के मुताबिक काम जरूर किया। महिला कलाकारों की लंबी भीड़ में स्वरा भास्कर और राधिका आप्टे अपनी पहचान साबित करने में कामयाब रहीं। डायरेक्शन : इस फिल्म के साथ एक दो नहीं, कई यंग डायरेक्टरों के नाम जुड़े हैं। यही वजह है कहानी में कई ऐसे टर्न हैं जो समझ से परे हैं। ऐसा लगता है डायरेक्शन टीम ने पहले से अपनी इस फिल्म को मल्टिप्लेक्स कल्चर की ऐसी फिल्म बनाने का फैसला कर लिया था जो कुछ नया और बॉलिवुड फिल्मों से टोटली डिफरेंट देखने की चाह में थिऐटर का रुख करते हैं, लेकिन कई डायरेक्टर्स ने अपनी-अपनी कहानी को बेहतरीन कैमरा एंगल के साथ शूट किया। फिल्म के कई सीन्स में कैमरा इस फिल्म का हीरो बन जाता है। संगीत : फिल्म के बैकग्राउंड में गाने हैं, लेकिन न तो इनकी जरूरत कहानी में कहीं थी और न ही इनमें दम है कि आप हॉल से बाहर आने के बाद इन गानों का पहला अंतरा भी याद रख पाएं। क्यों देखें : अगर हिंग्लिश कल्चर में बनी कुछ ज्यादा बोल्ड और अलग टाइप की फिल्मों को देखने का आपको जुनून है या रजत कपूर, स्वरा और राधिका आप्टे के पक्के फैन हैं तभी देखने जाएं। ",1 "जॉन अब्राहम स्टारर यह फिल्म ऐसे वक्त रिलीज हुई है जब पांच सौ और 1000 रुपए के पुराने नोट के बंद होने की वजह से लोग परेशान हैं। इसका साइड इफेक्ट् पिछले हफ्ते रिलीज हुई फरहान अख्तर स्टारर 'रॉक ऑन 2' को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा। करीब 50 करोड़ से ज्यादा में बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत का एक तिहाई भी नहीं बटोर पाई। वहीं, नई स्टार कास्ट को लेकर बनी 'डोंगरी का राजा' ने अपनी लागत तो छोड़िए प्रमोशन तक का खर्च भी नहीं निकाल पाई। ऐसे में इस वीक रिलीज हुई 'फोर्स 2' और 'तुम बिन 2' टिकट खिड़की पर टिक नहीं पाती तो मेकर्स अपनी-अपनी फिल्म को मिली नाकामयाबी के लिए नोटबंदी को ही दोष देंगे। जॉन स्टारर इस फिल्म में मेकर्स ने देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले रॉ के गुमनाम एजेंट्स को श्रृदाजलि दी है। अक्सर सरकार इनकी पहचान बताना और इन्हें सम्मानित करना तो दूर, इन्हें अपने देश का नागरिक तक मानने से इनकार कर देती है। चाइना और बुडापेस्ट की लोकेशन में फिल्माई इस इस फिल्म के ऐक्शन सीन हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन सीन की याद दिलाते हैं। 'डेल्ही बेली' से अपनी पहचान बना चुके यंग डायरेक्टर अभिनेव देव ने फिल्म को अंत एक ही ट्रैक पर रखा, जहां हॉल में बैठे दर्शकों को सोचने के लिए एक पल का भी वक्त नहीं मिलता। अगर सूत्रों की माने तो जॉन की यह फिल्म सवा दो घंटे से ज्यादा अवधि की बनी, लेकिन बाद में मेकर्स ने फिल्म की फिर एडिटिंग की और इसे 128 मिनट में समेट दिया, यही वजह है फिल्म की रफ्तार कहीं धीमी नहीं पड़ती। कहानी : चीन के शंघाई शहर से फिल्म की शुरुआत होती है, जहां रॉ के एजेंट हरीश चर्तुवेदी की हत्या कर दी जाती है। इस हत्या के बाद यहां के दो और अलग-अलग शहरों में रॉ के एजेंट की हत्या होने के बाद दिल्ली में रॉ के हेड ऑफिस में इस मुद्दे को लेकर मीटिंग जारी है। चाइना में मारा गया रॉ एजेंट हरीश मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर यशवर्धन (जॉन अब्राहम) का दोस्त हरीश है। हरीश अपनी हत्या से चंद दिनों पहले यश को एक किताब भेजता है। इस किताब में रॉ के कुछ और एजेंट्स को मारे जाने की सूचना कोड में दी गई है। रॉ के हेड क्वार्टर में चल रही मीटिंग में यश को रॉ के इन एजेंट्स की हत्याओं की जांच के लिए एक टीम का भेजने का फैसला होता है। इस टीम यश के साथ रॉ की एजेंट के के उर्फ कंवल जीत कौर (सोनाक्षी सिन्हा) भी जाती है। यश की जांच के बाद शक की सुई बुडापेस्ट स्थित इंडियन एंबेसी के स्टाफ पर टिकती है। यहां पहुंचने के बाद यश और के के इस केस की जांच अपने अपने ढंग से शुरू करते है, यहां पहुंचते ही इन पर जानलेवा हमला होता है, इसके बाद इनकी नजरें इसी एंबेसी में काम करने वाले शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) पर आकर ठहर जाती है। यहीं से शुरू होता है शिव शर्मा को गिरफ्तार करके इंडिया लेकर जाने का मिशन जो आसान नहीं है। अभिनय : ऐक्शन सीन के लिए जॉन को फुल अंक मिलने चाहिए, लेकिन वहीं, भाव विहीन चेहरे के साथ आखिर तक पूरी फिल्म में जॉन का एक जैसे लुक में नजर आना यकीनन जॉन के अभिनय करियर के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता। कैमरे के सामने शर्ट उतारकर जेम्स बॉन्ड स्टाइल जैसा ऐक्शन करते बेशक जॉन जंचते हैं, लेकिन एक साथ बीस तीस को अकेले मारकर निकल जाने का स्टाइल अब पुराना हो चला है, सो जॉन को अब डिफरेंट स्टाइल के किरदार निभाने चाहिए। रॉ एजेंट की भूमिका में सोनाक्षी सिन्हा के ऐक्शन सीन देखकर एकबार फिर उनकी पिछली फिल्म 'अकीरा' की याद आती है। हां सोनाक्षी ने इस बार अपनी और से कुछ नया करने की कोशिश तो की है, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कि उनकी ऐक्टिंग की तारीफ की जाएं। रानी मुखर्जी के साथ 'मर्दानी' में मेन विलेन का किरदार निभा चुके ताहिर राज भसीन ने इस बार भी अच्छी ऐक्टिंग की है, वहीं पारस अरोड़ा, नरेंद्र झा अपने किरदार में जंचे हैं। बेशक, जेनेलिया डिसूजा और बोमन ईरानी एक-आध सीन में नजर आए, लेकिन अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन : अभिनव देव ने ऐक्शन, स्टंट्स और थ्रिल की अच्छी कमान संभाली है तो वहीं बुडापेस्ट की बेहतरीन नयनाभिराम लोकेशन में फिल्म को शूट किया जो फिल्म का प्लस पॉइंट है। वहीं इंटरवल के बाद ऐक्शन के यही सीन ओवरडोज का काम करते हैं, ऐसा लगता है अभिनव ने स्क्रिप्ट और किरदारों को और ज्यादा बेहतर बनाने की बजाए तकनीक को और कैसे बेहतर बनाया जाए इस पर ज्यादा ध्यान दिया। इन्हीं बेहतरीन ऐक्शन सीन के दम पर अभिनव को दर्शकों की एक खास क्लास की यकीनन वाह-वाही मिलेगी। फिल्म में जॉन के दो संवाद जानदार हैं, खासकर 'कभी न कभी तो मिनिस्टरों को भी देश के काम आना चाहिए' और 'अब अपना घर बेच दे, बिना खिड़की के घर में रहने की आदत डाल ले', सहित फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं जिन पर सिंगल स्क्रीन वाले थिअटरों में तालियां बजेंगी। संगीत : फिल्म में गीत-संगीत का ज्यादा स्कोप नहीं था, ऐसे में अभिनव भी इनसे दूर ही रहे। फिल्म के क्लाइमेक्स से ठीक पहले मिस्टर इंडिया के सुपरहिट सॉन्ग 'काटे नहीं कटते ये दिन ये रात' को नए स्टाइल में फिल्माया गया है, जो अखरता नहीं हैं। वहीं, फिल्म के अंत में टाइटिल के साथ शूट किए गए गाने को फिल्म में क्यों रखा गया समझ से परे है। क्यों देखें : अगर आप रॉ एजेंट्स के बारे में कुछ और जानना चाहते हैं, जॉन के पक्के फैन हैं और उनकी पिछली ड्रग माफिया पर बनी 'फोर्स' देखी है तो देश की रक्षा के लिए गुमनाम होने वाले रॉ एजेंट्स पर बनी इस फिल्म को एकबार देखें। लोकेशन, तकनीक के मामले में फिल्म का जवाब नहीं तो वहीं कहानी, स्क्रिप्ट और ऐक्टिंग के मामले में फिल्म बस औसत ही है। ",1 "यंग डायरेक्टर-प्रड्यूसर रेमी कोहली ने जब इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया तो इस फिल्म को एक ऐसे डिफरेंट सब्जेक्ट पर बनाने का फैसला किया जिसमें एक दो नहीं कई ट्रैक एकसाथ चलते हो। बेशक रेमी फिल्म बनाने में तो कामयाब रहे लेकिन करीब दो घंटे की ऐसी फिल्म को एक ट्रैक पर नहीं रख पाए, बेरोजगारी, आरक्षण से होते हुए कहानी सिस्टम की खामियों में जाकर अटक जाती है। यहीं वजह है जमीनी हकीकत के साथ मेल खाती एक कहानी को रेमी ने ऐसी स्टार कॉस्ट के साथ पेश किया जो ऐक्टिंग की फील्ड में तो अपनी अलग पहचान बनाए हुए है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के साथ फिल्म की बेहद धीमी रफ्तार के साथ कहानी और किरदारों के साथ दर्शक वर्ग को जोड़ने में रेमी कामयाब नहीं हो पाए। कहानी के मुताबिक बेहतरीन परफेक्ट आउटडोर लोकेशंस, किरदारों के मुताबिक सही कलाकारों का सिलेक्शन जहां फिल्म का प्लस प्वाइंट है तो वहीं लचर और झोलझाल में फंसी कहानी में फिल्म के लीड किरदार के साथ भी डायरेक्टर का न्याय नहीं कर पाना फिल्म को कमजोर बनाता है। वहीं रेमी ने फिल्म के टाइटिल को कुछ ऐसा डिफरेंट कर दिया कि दर्शकों की बहुत बड़ी क्लास के पल्ले ही नहीं पड़ पाता। स्टोरी प्लॉट : गोलियों की आवाज से शुरू होती इस फिल्म की कहानी एक छोटे से गांवनुमा कस्बे भारतपुर में कुलदीप पटवाल (दीपक डोबरियाल) की है जो अपनी छोटी सी परचून की दुकान चलाता है। कुलदीप कभी रेहड़ी पर गली-गली जाकर सब्जी वगैरह बेचने का काम करता था। वैसे कुलदीप ने भी पढ़ाई करने के बाद नौकरी के लिए बहुत धक्के खाए लेकिन हर बार उसे नाकामी मिली। बेशक इसकी वजह कभी आरक्षण होता तो कभी कुछ और, लेकिन कुलदीप की जब नौकरी पाने की सारी उम्मीदें जवाब दे गईं तब उसने अपनी शॉप पर ही बैठना ठीक समझा। कुलदीप के पिता बेटे पर डिपेंड न होकर ऑटो चलाकर अच्छी खासी आमदनी कर लेते है। ऐसे में इन सभी का गुजारा आराम से चल जाता । कुलदीप की लाइफ में टर्निंग प्वाइंट उस वक्त आता है जब स्टेट के सीएम वरूण चड्डा (परवीन डबास) की एक रैली में गोली लगने के बाद मौत हो जाती है। कुलदीप भी इस रैली में मौजूद था, ऐसे में सीएम के हत्यारों की खोज में लगी पुलिस के शक के घेरे में कुलदीप भी आ जाता है, कुलदीप को इस मुश्किल से निकालने के लिए अडवोकेट प्रदुमन शाहपुरी (गुलशन देवैया) सामने आते हैं तो दूसरी और सीएम की वाइफ सिमरत चड्डा (रायमा सेन) अपने हज्बंड का केस खुद लड़ती है, अगर आप आगे क्या होता है यह भी जानना चाहते हैं तो आपको फिल्म देखनी होगी। अगर फिल्म के सब्जेक्ट की बात करते हैं तो यकीनन रेमी ने फिल्म के लिए एक अच्छा सब्जेक्ट तो चुना लेकिन स्क्रीनप्ले पर भी अगर थोड़ा फोकस करते तो फिल्म शुरू होने के चंद मिनटों बाद ही अपने ट्रैक से यूं ही ना भटक जाती। यहां यह भी अजीब सा है कि फिल्म का टाइटल कुलदीप पटवाल है लेकिन डायरेक्टर ने इस किरदार को पॉवरफुल बनाने पर कतई ध्यान नहीं दिया। वैसे भी अगर दीपक डोबरियाल जैसा उम्दा लाजवाब कलाकार इस किरदार में हो तो किरदार पर ज्यादा वर्क करना बनता है। वहीं कहानी में बार-बार फ्लैश बैक का आना खटकता है तो फिल्म का क्लाइमेक्स भी दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने का दम नहीं रखता। अगर हम ऐक्टिंग की बात करें तो दीपक इस बार फिर बाजी मार गए, कुलदीप के कमजोर किरदार में दीपक ने अपने शानदार अभिनय के दम पर जान डालने की कोशिश की है तो वहीं गुलशन देवैया जब भी स्क्रीन पर नजर आते है वहीं फिल्म दर्शकों को अपनी और खींचती है। पंजाबी में जब गुलशन बात करते हैं तो बस मजा आ जाता है। रायमा सेन अपने किरदार में बस ठीकठाक रहीं तो जमील खान अपने रोल में परफेक्ट रहे। यह अच्छा ही है कि डायरेक्टर रेमी ने फिल्म में कोई गाना नहीं रखा है वर्ना पहले से स्लो स्पीड से आगे खिसकती यह फिल्म दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती नजर आती। कुलदीप पटवाल यकीनन ऐसे सब्जेक्ट पर बनी फिल्म है जिससे नामी मेकर भागते है, बतौर डायरेक्टर रेमी कुछ हद तक जरूर कामयाब रहे हैं। सीमित बजट में बनी इस फिल्म को पहले से थिएटरों में जमी पद्मावत के चलते बेहद कम मिले हैं, ऐसे में मल्टिप्लेक्स थिएटरों में इक्का-दुक्का शोज में चल रही यह फिल्म अगर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट वसूल करने में कामयाब रहती है तो यह रेमी की उपलिब्ध होगी ।",0 "पिंक देखते समय 'नो वन किल्ड जेसिका' याद आती है। वकील के किरदार में अमिताभ बच्चन को देख 'दामिनी' वाले सनी देओल भी याद आते हैं। इन फिल्मों में महिलाओं के साथ हुए अन्याय के खिलाफ न्याय की बातें की गई थी। 'पिंक' भी यही बात करती है, लेकिन अलग अंदाज में। इस फिल्म में समाज में व्याप्त स्त्री और पुरुष के लिए दोहरे मापदंड पर आधारित प्रश्न ड्राइविंग सीट पर है और कहानी बैक सीट पर। 'पिंक' उन प्रश्नों को उठाती है जिनके आधार पर लड़कियों के चरित्र के बारे में बात की जाती है। लड़कियों के चरित्र घड़ी की सुइयों के आधार पर तय किए जाते हैं। कोई लड़की किसी से हंस बोल ली या किसी लड़के के साथ कमरे में चली गई या फिर उसने शराब पी ली तो लड़का यह मान लेता है कि लड़की 'चालू' है। उसे सेक्स के लिए आमंत्रित कर रही है। यह फिल्म उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा जड़ती है जो लड़कियों के जींस या स्कर्ट पहनने पर सवाल उठाते हैं। अदालत में अमिताभ बच्चन व्यंग्य करते हैं कि हमें 'सेव गर्ल' नहीं बल्कि 'सेव बॉय' पर काम करना चाहिए क्योंकि जींस पहनी लड़की को देख लड़के उत्तेजित हो जाते हैं और लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं। फिल्म में ये सीन इतना कमाल का है कि आप सीट पर बैठे-बैठे कसमसाने लगते हैं। कई बातें कचोटती हैं। ये उन लोगों के दिमाग के जाले साफ कर देती है जिनकी सोच रू‍ढ़िवादी है और जो लड़कियों के आर्थिक स्वतंत्रता के हिमायती नहीं है। 'पिंक' में ये सारी बातें बिना किसी शोर-शराबे के उठाई गई है। फिल्म इस बात का पुरजोर तरीके से समर्थन करती है कि लड़कियों को कब, कहां, क्या और कैसे करना है इसके बजाय हमें अपनी सोच बदलना होगी। इस सोच ने लड़कियों की सामान्य जिंदगी को भी परेशानी भरा बना दिया है। वे अपने घर की बालकनी में भी चैन से बैठ नहीं सकती क्योंकि उन्हें घूरने वाले हाजिर हो जाते हैं। कहानी को दिल्ली-फरीदाबाद में सेट किया गया है। यह जगह शायद इसलिए चुनी गई क्योंकि पिछले दिनों यही पर महिलाओं पर हुए अत्याचारों की गूंज पूरे देश में सुनाई दी थी। दिल्ली के नाम से ही कई महिलाएं घबराने लगती हैं। मीनल (तापसी पन्नू), फलक (‍कीर्ति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तारियांग) अपने पैरों पर खड़ी लड़कियां है जो साथ में रहती हैं। एक रात वे सूरजकुंड में रॉक शो के लिए जाती हैं, जहां राजवीर (अंगद बेदी) और उनके साथियों से मुलाकात होती है। मीनल और उसकी सहेलियों का बिंदास अंदाज देख वे अंदाज लगाते हैं कि इन लड़कियों के साथ कुछ भी किया जा सकता है। राजवीर हद पार कर मीनल को छूने लगता है। मीनल अपने बचाव में उसके सिर पर बोतल मार कर उसे घायल कर देती है। राजवीर एक ऐसे परिवार से है जिसकी राजनीति में गहरी दखल है। मीनल से बदला लेने के लिए राजबीर और उसके दोस्त पुलिस में शिकायत दर्ज करा देते हैं कि मीनल ने उन पर जानलेवा हमला किया है। साथ ही वह कॉलगर्ल है। लड़कियों को मुसीबत में देख दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) उनकी ओर से केस लड़ने का फैसला करता है। दीपक सहगल के किरदार के जरिये फिल्म में विचार रखे गए हैं जो थोपे हुए नहीं लगते क्योंकि वो फिल्म की कहानी से जुड़े हुए हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में बदल जाती है। पिछले महीने रिलीज हुई 'रुस्तम' में भी कोर्ट रूम ड्रामा था, लेकिन हकीकत में ये कैसा होता है इसके लिए 'पिंक' देखी जानी चाहिए। पिं क के टिकट बुक करवाने के लिए क्लिक करें फिल्म का निर्देशन अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने किया है। उनके निर्देशन पर सुजीत सरकार का प्रभाव नजर आता है। गौरतलब है कि सुजीत इस फिल्म से जुड़े हैं। अनिरुद्ध की प्रस्तुति में खास बात यह रही कि उन्होंने उस एक्सीडेंट को दिखाया ही नहीं जिसके कारण मामला अदालत तक पहुंचा। उस घटना का जैसा वर्णन अदालत को बताया जाता है वैसा ही दर्शकों को पता चलता है। इस कारण दर्शक की अपनी कल्पना के कारण फिल्म में दिलचस्पी बढ़ती है। फिल्म के अंत में क्रेडिट टाइटल्स के साथ वो घटनाक्रम दिखाया गया है। अनिरुद्ध अपनी बात कहने में सफल रहे हैं जिसके लिए उन्होंने फिल्म बनाई। यह फिल्म केवल महिलाओं या लड़कियों के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी है। मीनल के किरदार के जरिये अनिरुद्ध ने दिखाया है कि महिलाओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अनिरुद्ध ने कई बातें दर्शकों की समझ पर भी छोड़ी है। मसलन उन्होंने अमिताभ को मास्क पहने मॉर्निंग वॉक करते दिखाया है जो दिल्ली के प्रदूषण का हाल बताता है और राजनीतिक प्रदूषण की ओर भी इशारा करता है। फिल्म में एक किरदार मेघालय में रहने वाली लड़की का है जो बताती है कि उसे आम लड़कियों की तुलना में ज्यादा छेड़छाड़ का शिकार बनना होता है और यह हकीकत भी है। फिल्म में दो कमियां लगती हैं। अमिताभ के किरदार के बारे में थोड़ा विस्तार से बताया गया होता तो बेहतर होता। साथ ही फिल्म को थोड़ा सरल करके बनाया जाता तो बात ज्यादा दर्शकों तक पहुंचती। कुछ दिनों बाद अमिताभ बच्चन 74 वर्ष के हो जाएंगे, लेकिन अभी भी उनके पास देने को बहुत कुछ है। 'पिंक' में इंटरवल के बाद वे उन्हें ज्यादा अवसर मिलता है जब फिल्म अदालत में सेट हो जाती है। अमिताभ की स्टार छवि को निर्देशक ने उनके किरदार और फिल्म पर हावी नहीं होने दिया है और बच्चन ने भी अपने अभिनय में इसका पूरा ख्याल रखा है। फिल्म के दो-तीन दृश्यों में तो अमिताभ ने अपने अभिनय से गजब ढा दिया है। खासतौर पर उस सीन में जब वे किसी महिला के 'नो' के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि नहीं का मतलब 'हां' या 'शायद' न होकर केवल 'नहीं' होता है चाहे वो अनजान औरत हो, सेक्स वर्कर हो या आपकी पत्नी हो। तापसी पन्नू का कद 'पिंक' के बाद बढ़ जाएगा और उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में गंभीरता से लिया जाएगा। मीनल की दबंगता और झटपटाहट को उन्होंने अच्छे से पेश किया है। फलक के रूप में कीर्ति कुल्हारी प्रभावित करती हैं। एंड्रिया छोटे रोल में अपना असर छोड़ती है। पियूष मिश्रा वकील के रूप में अमिताभ के सामने खड़े रहे और जोरदार मुकाबला किया। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक उम्दा है और कई जगह खामोशी का अच्छा उपयोग किया गया है। जरूरी नहीं है कि हर फिल्म मनोरंजन के लिए ही बनाई जाए। कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं जो अपनी शानदार स्क्रिप्ट और जोरदार अभिनय के कारण आपकी सोच को प्रभावित करती हैं, 'पिंक' भी ऐसी ही फिल्म है। जरूर देखी जानी चाहिए। बैनर : राइजि़ग सन फिल्म्स प्रोडक्शन निर्माता : रश्मि शर्मा, रॉनी लाहिरी निर्देशक : अनिरुद्ध रॉय चौधरी संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू, पियूष मिश्रा, अंगद बेदी, कीर्ति कुल्हारी, एंड्रिया तारियांग सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 16 मिनट 5 सेकंड ",1 "वन्य जीवन पर बॉलीवुड में कम ही फिल्में बनी हैं। 'जंगल क्वीन' जैसे कई 'सी' ग्रेड प्रयास हुए हैं जिनमें जंगल की आड़ में सेक्सी सीन परोसे गए हैं। 'रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स' में कुछ अलग करने की कोशिश की गई है, लेकिन कमजोर निर्देशन और लेखन ने पूरा मामला बिगाड़ दिया। एक उबाऊ और दिशाहीन फिल्म बना दी गई है जो न रोचक है और न ही मनोरंजक। उदय नाम का एक फोटो जर्नलिस्‍ट सुंदरबन में एक शिकारी के जाल में फंसे सफेद बाघ के बच्‍चे को बचा लेता है और उसे गांव में स्‍थित अपने घर ले आता है। इस शावक को फॉरेस्ट वार्डन ले जाती है। अपने बच्‍चे की तलाश में मादा शावक उसकी गंध को सूंघते हुए उदय के घर तक आ जाती है और उदय को मार डालती है। उदय का भाई पंडित बाघिन से बदला लेना चाहता है। वह अपने निजी कमांडो की टीम लेकर सुंदरबन में उस बाघिन को खोजने निकलता है। फिल्म की कहानी कमल सदानाह और आबिस रिजवी ने लिखी है। इस कहानी पर फिल्म बनाने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लिहाजा ये दोनों ही निर्माता और निर्देशक बन गए। एक छोटी सी बात को बेवजह लंबा खींचा गया है और कहानी में लॉजिक नाम की कोई चीज ही नहीं है। दुनिया में वैसे ही बाघों की संख्या लगातार कम हो रही है, लेकिन यह फिल्म बाघ को विलेन के रूप में प्रस्तुत करती है। पंडित फिल्म को फिल्म का हीरो बताया गया है, लेकिन दर्शक उससे कभी नहीं जुड़ पाते क्योंकि उसका काम विलेन जैसा है। वह उस बाघिन को मारना चाहता है जिसने उसके भाई को मारा है। फिल्म में इस बाघिन की कोई गलती नजर नहीं आती और दर्शक समझ ही नहीं पाते कि आखिर पंडित बदला लेने के लिए क्यों इतना बेसब्र हो रहा है। हद तो तब हो गई जब पंडित को बाघिन को मारने का अवसर मिलता है तो अचानक उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। पंडित के इरादे क्यों बदल जाते हैं इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई है और ढूंढने की कोशिश भी नहीं करना चाहिए। खुले हथियार लिए जंगल में एक दल घूमता रहता है, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। फॉरेस्ट वॉर्डन का किरदार जरूर है, लेकिन नाममात्र के लिए। फिल्म में कई किरदार हैं, लेकिन उनका दर्शकों से परिचय करने की जहमत भी नहीं उठाई गई। लेखकों ने कामचलाऊ काम किया है और रिसर्च भी नहीं की है। निर्देशक के रूप में कमल सदानाह का काम स्तरीय नहीं है। वे खुद ही नहीं तय कर पाए कि क्या दिखाना चाहते हैं और उनका ये कन्फ्यूज पूरी फिल्म में नजर आता है। पूरी फिल्म दिशाहीन है। ऐसा लगता है कि जंगल में जाकर जो दिखा उसे शूट कर लिया और जोड़कर एक फिल्म तैयार कर दी। कहीं वे कमर्शियल फिल्म बनाने की कोशिश करते हैं तो कहीं पर फिल्म डॉक्यूमेंट्री लगने लगती है। ड्रामा मनोरंजनहीन है, इस वजह से परदे पर चल रहे घटनाक्रम बोरियत से भरे हैं। दो-तीन सीन छोड़ दिए जाए तो कहीं भी फिल्म रोमांचक नहीं लगती। अभिनेताओं की टीम ने भी फिल्म को घटिया बनाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। सी ग्रेड कलाकारों की फौज जमा कर ली गई है। ऐसा लगता है कि जिम में तराशा गया शरीर ही कलाकारों के चयन का मापदंड हो। शब्दों के सही उच्चारण तक इन तथाकथित अभिनेताओं से नहीं हो रहे थे। फिल्म में दो महिला पात्र भी हैं जो जंगल में छोटी ड्रेसेस पहन कर घूमती रहती हैं। फिल्म का वीएफएक्स अच्छा है, हालांकि उसका नकलीपन आंखों से छिप नहीं पाता। सिनेमाटोग्राफी उम्दा है। लेकिन केवल इसी वजह से फिल्म का टिकट नहीं खरीदा जा सकता है। बेहतर है कि रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स देखने के बजाय वाइल्ड लाइफ पर आधारित कोई टीवी कार्यक्रम देख लिया जाए। निर्माता : आबिस रिज़वी निर्देशक : कमल सदानाह संगीत : रमोना एरिना कलाकार : अभिनव शुक्ला, हिमर्षा वी, अंचित कौर, अली कुली, सुब्रत दत्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट ",0 "रौनक कोटेचा कहानी: कहानी एक ऐसे वैद्य के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपनी असरकारी दवाओं की वजह से बड़ी-बड़ी दवाइयों की कंपनियों के आंख की किरकिरी बन गया है। कंपनियां उसे डरा-धमका रही हैं। उसके बरसों पुराने फ़ॉर्म्युले 'वज्र कवच' में हर बीमारी का इलाज है। पिंपल से लेकर नपुंसकता दूर करने से लेकर सबकुछ। रिव्‍यू: फिल्‍म में वैद्य पूरन (सनी देओल) बहुत कम बोलते हैं, लेकिन कोई उनकी चुप्‍पी को तुड़वाने का प्रयास करता है तो वह उसको छोड़ते नहीं हैं। फिल्‍म में धर्मेंद्र ने जयंत नाम परमार नाम के शख्‍स का किरदार निभाया है तो बॉबी देओल 'काला' नाम के एक लड़के के रोल में हैं और सनी देओल वैद्य बने हैं। पूरन की पूरे शहर में अच्‍छी खासी इज्‍जत है जबकि उसके भाई काला को कोई नहीं पसंद करता। काला 40 साल का अविवाहित युवक है जो कनैडा (कनाडा) जाने के सपने संजोए बैठा है। दूसरी ओर जयंत रंगीन मिजाज वकील हैं जो ख्‍वाबों में हसीनों का दीदार करते रहते हैं। उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है। वह साइड ट्रॉली वाले स्‍कूटर की सवारी करते रहते हैं। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि 'यमला पगला दीवाना फिर से' ने नई कहानी के साथ पॉप्युलर ब्रैंड को फिर से स्‍थापित करने का काम किया है। इस फिल्‍म ने देओल ब्रैंड को एक अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया है। फिल्‍म काफी हद तक दर्शकों को एक लाइट कमिडी डोज देने में सफल रही है। धर्मेंद्र ने अपने फन पैक को बड़े ईजी वे में दर्शकों के सामने पेश किया है। सनी देओल की वही ढाई किलो के हाथ वाली इमेज इस बार दर्शकों को थोड़ा कॉमिक स्‍टाइल में देखने को मिली है। वहीं बॉबी देओल स्‍क्रीन पर सबसे अधिक समय के लिए दिखे जरूर हैं लेकिन कुछ नया कर पाने में खासे सफल नहीं हो सके। फिल्‍म में कुछ मिनट के लिए सलमान खान भी दिखाई दिए हैं। इस फिल्‍म में देओल परिवार के अलावा कृति खरबंदा भी काफी ग्‍लैमरस लग रही हैं। फिल्‍म में कई मौके ऐसे भी आए हैं जहां कमेडी में जान नहीं लगी है। कुल मिलाकर फर्स्‍ट हाफ में मूवी ठीकठाक रही है, लेकिन सेकंड हाफ में कुछ स्‍लो होती दिखी है। अगर आप भी देओल ब्रैंड के फैन हैं तो एक बार यह मूवी देख सकते हैं। ",0 "निर्माता : विनोद बच्चन, शैलेन्द्र आर.सिंह, सूर्या सिंह निर्देशक : आनंद एल. राय कलाकार : आर.माधवन, कंगना, जिमी शेरगिल, दीपक डोब्रियाल, एजाज खान सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * अवधि : 2 घंटे * 14 रील ज्यादातर फिल्मों में हीरोइन का किरदार वैसा ही पेश किया जाता है, जिस तरह वैवाहिक विज्ञापनों में वधू चाहने वाले लोग अपनी पसंद बताते हैं। सुंदर, सुशील, सभ्य...। हीरोइनों को सिगरेट पीते, शराब गटकते और अपने माँ-बाप से बगावत करते हुए बहुत कम देखने को मिलता है। ‘तनु वेड्स मनु’ की हीरोइन ऐसी ही है, आदर्श लड़की से एकदम अलग। बिंदास, मुँहफट, लगातार बॉयफ्रेंड बदलने वाली और विद्रोही। तनु नामक यही कैरेक्टर फिल्म को एक अलग लुक प्रदान करता है और फिल्म ज्यादातर वक्त बाँधकर रखती है। ‘तनु वेड्स मनु’ देखते समय ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘जब वी मेट’, ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी कई फिल्में याद आती हैं क्योंकि इसकी धागे जैसी पतली कहानी और फिल्म का ट्रीटमेंट इन हिट फिल्मों जैसा है, लेकिन फिल्म के किरदार और यूपी का बैकग्राउंड फिल्म को एक अलग लुक देता है। तनु (कंगना) को अपने माँ-बाप की पसंद के लड़के से शादी नहीं करना है। उधर मनु (माधवन) पर भी उसके माता-पिता शादी का दबाव डालते हैं। दोनों की मुलाकात करवाई जाती है और तनु से मनु प्यार कर बैठता है। शादी के लिए हाँ कह देता है, लेकिन तनु इसके लिए राजी नहीं है। वह किसी और को चाहती है और उसके कहने से मनु शादी से इंकार कर देता है। तनु को मनु भूला नहीं पाता है और पंजाब में अपने दोस्त की शादी के दौरान उसकी मुलाकात फिर तनु से होती है। दोनों में अच्छी दोस्ती हो जाती है, लेकिन तनु अपने बॉयफ्रेंड से शादी करने वाली है। इसके बाद कुछ घटनाक्रम घटते हैं और तनु, मनु की हो जाती है। कुछ लोगों को तनु का शादी और प्यार को लेकर इतना कन्फ्यूज होना अखर सकता है क्योंकि वह बार-बार अपना निर्णय बदलती रहती है और किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच पाती है, लेकिन निर्देशक ने शुरू से ही दिखाया है कि वह है ही ऐसी। जिंदगी के प्रति उसका नजरिया लापरवाह किस्म का है और इसका असर उसके निर्णय लेने पर भी पड़ता है। फिल्म का पहला हिस्सा मजेदार है। चुटीले संवाद और उम्दा सीन लगातार मनोरंजन करते रहते हैं। मध्यांतर ऐसे बिंदु पर आकर किया गया है कि उत्सुकता बनती है कि मध्यांतर के बाद क्या होगा, लेकिन दूसरा हिस्सा अपेक्षाकृत कमजोर है। तनु और मनु की अनिर्णय की स्थिति को लंबा खींचा गया है और मेलोड्रामा थोड़ा ज्यादा ही हो गया है। जिमी शेरगिल वाला ट्रेक ठूँसा हुआ लगता है। वह माधवन की ठुकाई करने का जिम्मा रवि किशन को देता है, इसके बावजूद वह माधवन को नहीं पहचान पाता। लेकिन इन कमजोरियों के बावजूद फिल्म मनोरंजक लगती है क्योंकि तनु और मनु के अलावा कुछ बेहतरीन किरदार फिल्म में देखने को मिलते हैं। इनमें दीपक डोब्रियाल और स्वरा भास्कर का उल्लेख जरूरी है जो तनु और मनु के दोस्त के रूप में नजर आते हैं। निर्देशक आनंद एल. राय ने फिल्म के चरित्रों पर खासी मेहनत की है और इसी वजह से फिल्म रोचक बन पड़ी है। उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि और वहाँ के रहने वाले लोगों के मिजाज को बखूबी पेश किया गया है। दूसरे हाफ में यदि स्क्रिप्ट की थोड़ी मदद उन्हें‍ मिली होती तो फिल्म बेहतरीन बन जाती। कंगना फिल्म की कमजोर कड़ी साबित हुई है। वे लीड रोल में हैं लिहाजा उनका अभिनय फिल्म की बेहतरी के लिए बहुत मायने रखता है, लेकिन कंगना अपने रोल के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाईं। तनु का जो कैरेक्टर है उसमें कंगना चमक नहीं ला पाईं। डायलॉग डिलीवरी सुधारने की उन्हें सख्त जरूरत है। लंदन से लड़की की तलाश में भारत आए मनु के किरदार में माधवन जमे हैं। एक भला इंसान, माँ-बाप का आज्ञाकारी बेटा और सच्चे प्रेमी की झलक उनके अभिनय में देखने को मिलती है। जिमी शेरगिल का रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। हिट नहीं होने के बावजूद फिल्म का संगीत मधुर है। ‘तनु वेड्स मनु’ की कहानी में नयापन नहीं है, लेकिन इसके कैरेक्टर, संवाद और कलाकारों की एक्टिंग फिल्म को मनोरंजक बनाते हैं। ",1 "विक्रम भट्ट उन निर्देशकों में से हैं जो हॉलीवुड की फिल्मों से प्रेरणा लेकर फिल्म बनाते हैं। उनकी ताजा फिल्म ‘स्पीड’ ‘सेल्युलर’ से प्रेरित है। वैसे कई लोगों को यह फिल्म देखते समय अब्बास-मस्तान की ‘बादशाह’ के अंतिम 45 मिनट याद आ सकते हैं, जिसमें शाहरुख खान को मंत्री बनी राखी की हत्या करने का जिम्मा सौंपा जाता है। अब्बास-मस्तान ने उन दृश्यों को बेहद अच्छा फिल्माया था। ‘स्पीड’ में आफताब प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाता है। इस काम के लिए वह एमआय 5 एजेंट संजय सूरी को चुनता है। वह उसकी बीवी उर्मिला और बच्चे का अपहरण कर उसे इस काम के लिए मजबूर करता है। आफताब की गिरफ्त में उर्मिला एक टूटे-फूटे फोन के जरिये अपने पति को फोन लगाने की कोशिश करती है। गलती से वह फोन ज़ायद खान को लग जाता है। उर्मिला उससे सारा मामला बयाँ करती है। उर्मिला फोन कट भी नहीं कर सकती, क्योंकि उसे उम्मीद नहीं है कि उस फोन से दोबारा फोन लगाया जा सकता है। ज़ायद मोबाइल के जरिये लगातार उसके संपर्क में रहता है। वह न केवल उर्मिला और उसके बच्चों को बचाता है, बल्कि उन आतंकवादियों के चंगुल से संजय सूरी को भी छुड़ाता है। प्रधानमंत्री की भी जान बच जाती है। यह सारा घटनाक्रम कुछ घंटों का है, जिसे निर्देशक विक्रम भट्ट ने दो घंटे में समेटा है। फिल्म की कहानी रोचक है, लेकिन पटकथा में कई खामियाँ हैं जिसकी वजह से फिल्म का प्रभाव कम हो जाता है। फिल्म देखने के बाद कई सवाल मन में आते हैं, जिनका जवाब देने की जरूरत नहीं समझी गई। उर्मिला को बचाने के लिए क्यों ज़ायद खान सिर्फ एक ही बार पुलिस के पास जाता है? उर्मिला, ज़ायद को अपने पति का मोबाइल नंबर क्यों नहीं देती? जब ज़ायद उर्मिला को बचा लेता है, इसके बाद उर्मिला अपने पति से फोन पर बात क्यों नहीं करती? लंदन जैसी जगह में आफताब के कैमरे हर जगह लगे हैं, क्या ये संभव है? संजय सूरी पुलिस की मदद क्यों नहीं लेता? ज़ायद को जब भी कार की जरूरत पड़ती है वह फौरन चुरा लेता है। उसे हर कार में चाबी लगी हुई मिलती है। उर्मिला को अपहरण कर आफताब जिस जगह रखता है उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ रहती हैं। उर्मिला फिर भी भागने का प्रयास नहीं करती। जब ज़ायद खान उर्मिला को बचाने पहुँचता है तो वहाँ आफताब की सहयोगी सोफिया उसे मिलती है। आधुनिक तकनीक से लैस सोफिया उसे बजाय बंदूक से मारने के महाभारत के जमाने के हथियार से मारने की कोशिश क्यों करती है? पटकथा लिखते समय हर पहलू पर बारीकी से गौर किया जाना चाहिए, जो नहीं किया गया है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी लंबाई ज्यादा नहीं रखी गई है। विक्रम भट्ट ने फिल्म की गति बनाए रखी है, लेकिन जिस रोचक अंदाज में फिल्म शुरू होती है अंत तक पहुँचते-पहुँचते मामला गड़बड़ हो जाता है। विक्रम अपने कलाकारों से भी अच्छा काम नहीं ले सके। ज़ायद खान को अच्छी भूमिका मिली है, लेकिन वे पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाए। कई दृश्यों में उन्होंने ओवर एक्टिंग की है, खासकर तनुश्री के साथ वाले दृश्यों में। उर्मिला मातोंडकर का अभिनय भी फीका रहा। तनुश्री दत्ता की भूमिका में दम नहीं था। आशीष चौधरी और संजय सूरी का अभिनय ठीक है। आशीष और अमृता अरोरा वाला प्रेम प्रसंग फिल्म में नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आफताब शिवदासानी खौफ पैदा नहीं कर सके। यू/ए) * 12 री ल निर्माता : हैरी बावेजा निर्देशक : विक्रम भट्ट संगीत : प्रीतम कलाकार : ज़ायद खान, उर्मिला मातोंडकर, तनुश्री दत्ता, आफताब शिवदासानी, संजय सूरी, अमृता अरोरा, आशीष चौधरी इस ‍तरह के फिल्म में गीत की सिचुएशन कम बनती है, फिर भी कुछ गीत रखे गए हैं, जिनमें दम नहीं है। पूरी फिल्म लंदन में फिल्माई गई है और ‍प्रवीण भट्ट का कैमरावर्क अच्छा है। कुल मिलाकर ‘स्पीड’ ऐसी फिल्म है, जिसे नहीं भी देखा गया तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ",0 "बमुश्किल पांच वर्ष का होगा बुधिया सिंह। पुरी से भुवनेश्वर के बीच वह दौड़ता है। दूरी 65 किलोमीटर। तापमान 47 डिग्री। सात घंटे और दो मिनट में वह यह दूरी तय करता है, लगातार दौड़ते हुए। फिल्म में जब उसकी यह दौड़ दिखाई जाती है तो आप असहज हो जाते हैं। पसीने में लथपथ दौड़ते हुए बुधिया की सांस की आवाज दर्शकों को विचलित कर देती है। बुधिया का कोच बिरंची जो अब तक फिल्म में भला आदमी लगता है अचानक दर्शकों की नजरों में विलेन बन जाता है। बुधिया पानी मांगता है तो वह पानी नहीं देता। ऐसा महसूस होता है कि वह एक छोटे बच्चे पर जुल्म कर रहा है। दिमाग में प्रश्न उठने लगते हैं कि क्या बिरंची सही है या फिर चिल्ड्रन वेलफेअर वाले जो बुधिया से ऐसी दौड़ लगवाने के खिलाफ हैं। फिल्म का यह सीक्वेंस उलट-पुलट कर रख देता है। ऐसे ही कुछ बेहतरीन दृश्य 'बुधिया सिंह: बोर्न टू रन' नामक फिल्म में देखने को मिलते हैं जो बुधिया नामक उस धावक की कहानी है जिसे कभी उड़ीसा का वंडर बॉय कहा गया था। यह बात लगभग दस वर्ष पुरानी है। बुधिया के नाम 'वर्ल्डस यंगेस्ट मैराथन रनर' के नाम का रिकॉर्ड है। उड़ीसा की गरीबी भी फिल्म में नजर आती है। बुधिया इतने गरीब परिवार में वह पैदा हुआ था कि उसकी मां महज आठ सौ रुपये में उसे बेच देती है। जब बिरंची नामक जूडो कोच को यह बात पता चलती है तो वह बुधिया को अपने पास रख लेता है। 22 अनाथ बच्चों को अपने घर में पनाह देकर बिरंची उन्हें जूडो सिखाता है। बुधिया में बिरंची को एक धावक दिखता है और उसके बाद बुधिया की लोकप्रियता दुनिया में हो जाती है। बिरंची का सपना है कि 2016 के ओलिम्पिक में बुधिया भारत की ओर से दौड़े और पदक लाए, लेकिन सपनों को हकीकत में बदलना इतना आसान कहां है। बुधिया की लोकप्रियता बढ़ते ही अचानक सरकार और संगठन सक्रिय हो जाते हैं। बुधिया को जन्म देने वाली मां उसे अपने पास इस आस से ले जाती है कि शायद बुधिया के बहाने उसकी गरीबी दूर हो जाए, लेकिन उसकी छत से पानी का टपकना फिर भी बंद नहीं होता। मां से बुधिया को सरकार छिन लेती है। बुधिया और बिरंची में दूरियां पैदा कर दी जाती है। बुधिया को तब यह कह कर दौड़ने से रोक दिया था कि उसकी उम्र मैराथन दौड़ने के लायक नहीं है। अब वह 16 वर्ष का है, लेकिन उस पर लगा प्रतिबंध अब तक हटा नहीं है। 2016 के ओलिम्पिक शुरू होने वाले है और बुधिया का नाम उसमें नहीं है। फिल्म पुरजोर तरीके से बुधिया के पक्ष में आवाज उठाकर लोगों से अपील करती है कि बुधिया से अब तो प्रतिबंध हटाया जाना चाहिए। निर्देशक सोमेन्द्र पाढ़ी ने बुधिया की कहानी बेहद खूबसूरती के साथ परदे पर उतारी है। बुधिया को उन्होंने चमत्कारी बालक के रूप में पेश न करते हुए दिखाया है कि कड़े अभ्यास और इच्छाशक्ति के बल पर बुधिया ने यह सफलता हासिल की है। बुधिया के साथ-साथ बिरंची के किरदार को भी बखूबी उभारा है। आश्चर्य होता है कि बिरंची जैसे लोग भी हैं जिनकी कमाई ज्यादा नहीं है लेकिन 22 अनाथ बच्चों को वह पालता है। प्रशिक्षण देता है। बुधिया सिंह- बोर्न टू रन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें बुधिया और बिरंची की खूबसूरत दुनिया में तब खलल पड़ता है जब नेता, अफसर और समाज दखल देते हैं। राजनीति की अमर बेल किस तरह से बुधिया नामक छोटे पौधे को लील जाती है इस बात को फिल्म में अच्छी तरह से उभारा है। आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि किस तरह से हमारा देश पहले तो उभरते सितारे को पूजता है और फिर उसका करियर खत्म करने में भी देर नहीं लगाता। फिल्म को थोड़ा और बेहतर बनाया जा सकता था, लेकिन संभवत: सोमेन्द्र के आगे बजट आड़े आ गया होगा। बुधिया के साथ पिछले दस वर्ष में क्या हुआ, यह जानने की उत्सुकता रहती है, लेकिन फिल्म में इस बारे में ज्यादा बात नहीं की गई है। सोमेन्द्र का निर्देशन उम्दा है। उन्होंने बुधिया की कहानी जस की तस प्रस्तुत कर सवाल दर्शकों के सामने छोड़ दिए हैं। क्या बुधिया की प्रतिभा को पहचाना नहीं गया? क्या खिलाड़ियों की प्रतिभाओं का गला इसी तरह हमारे देश में घोंटा जाता है और इसी कारण हम खेलों में फिसड्डी है? वंडर बॉय के बारे में पीटी उषा, नारायण मूर्ति ने भी बात की है और उनके ओरिजनल फुटेज का इस्तेमाल फिल्म को धार देता है। कलाकारों के अभिनय ने फिल्म को विश्वसनीयता प्रदान की है। इस वर्ष 'अलीगढ' में अपने अभिनय से दिल जीतने वाले मनोज बाजपेयी का 'बुधिया सिंह' में भी अभिनय देखने लायक है। जमीन से जुड़े एक सकारात्मक कोच की भूमिका को उन्होंने बखूबी जिया है। उनके किरदार ने फिल्म को गहराई दी है। मयूर पाटोले तो बिलकुल 5 वर्षीय बुधिया ही लगा है। एक ऐसा बच्चा जो खुद नहीं जानता कि वह क्या कारनामे कर रहा है और किस तरह उसका करियर लोगों ने चौपट कर दिया है। तिलोत्तमा शोम, छाया कदम, श्रुति मराठे का अभिनय भी देखने लायक है। बुधिया सिंह: बोर्न टू रन दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल है, दु:ख तो इस बात का है कि दर्शक ऐसी फिल्मों से दूरी बना लेते हैं। बुधिया सिंह की कहानी को जिस शो में मैंने देखा उसका एकमात्र दर्शक मैं ही था। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, कोड रेड फिल्म प्रोडक्शन्स निर्माता : सुब्रत रे, गजराज राव, सुभामित्रा सेन निर्देशक: सोमेन्द्र पाढ़ी संगीत : सिद्धांत माथुर कलाकार : मनोज बाजपेयी, मयूर पाटोले, तिलोत्तमा शोम, छाया कदम, श्रुति मराठे सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 51 मिनट 22 सेकंड ",1 "पिछले सप्ताह रिलीज हुई महाघटिया फिल्म 'क्या कूल हैं हम 3' के लेखक मिलाप ज़वेरी और मुश्ताक खान इस सप्ताह फिर एक फिल्म लेकर हाजिर हैं। लगता कि बॉलीवुड में सचमुच अच्छे लेखकों का टोटा है या फिर बॉलीवुड निर्माता-निर्देशक अपने कुएं से बाहर ही नहीं झांकते। ये भी हो सकता है कि घटिया फिल्म लिखने के काम ये दो जनाब ही जानते हों और जब समझदारी भरी बातें करने वाला प्रीतिश नंदी जैसा व्यक्ति जब घटिया फिल्म बनाने की इच्छा रखता हो तो इनके पास ही जाता हो। मिलाप ज़वेरी को निर्देशन की बागडोर भी सौंप दी गई है और मिलाप अपने आप पर इतने मोहित हो गए कि एक सीन में अपना चेहरा दिखाने का लालच भी पैदा हो गया। फूहड़ फिल्मों के सुभाष घई बनने का हैंगओवर! सनी लियोन का कहना है कि उन्होंने और उनके पति ने इस फिल्म की स्क्रिप्ट (यदि है तो) सुनी तो हंस-हंस कर लोटपोट हो गए जबकि फिल्म देखते समय मजाल है कि आपके चेहरे पर मुस्कान भी तैर जाए। शायद दोनों को हिंदी समझ नहीं आई होगी। मिलाप को लगा कि सनी लियोन को साइन कर लिया है, अब जैसा मन करे, जो सूझे, शूट कर लो। निकल पड़े कैमरा लेकर। सनी लियोन को डबल रोल सौंप दिए। अब सनी लियोन कोई कंगना रनौट तो है नहीं कि अपने अभिनय से दोहरी भूमिकाओं में अंतर पैदा कर सके। इसलिए एक सनी की आंखों पर चश्मा चढ़ा दिया ताकि दर्शक समझ जाए कि यह लैला लेले है और ये लिली लेले। वैसे सनी को देखने आए दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं है। उनकी निगाहें सनी के चेहरे पर टिकती कहां है? वे तो सनी की देह दर्शन करने आए हैं। मस्ती ज़ादे के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें सनी लियोन के फैंस को खुश किया गया है। वे सुंदर और सेक्सी लगी हैं। फिल्म की हर फ्रेम में सनी को कम कपड़ों में पेश किया गया है। समुंदर किनारे। पुल साइड। बगीचे में। बेडरूम में। घर में। ऑफिस में। हर जगह सनी पर इस तरह के सीन फिल्माने के बाद एक बेवकूफाना किस्म की कहानी लिख दृश्यों को पिरो दिया गया जिसमें ढेर सारे द्विअर्थी संवादों को रखा गया, भले ही उनकी जगह नहीं बनती हो। मिलाप ज़वेरी का दिमाग भी अश्लील सीन और संवाद एक-सा ही सोचने लगा है। ग्रैंड मस्ती हो, क्या कूल हैं हम हो या मस्तीज़ादे, एक सी लगती हैं। वहीं संतरे, जानवर, बड़ा, छोटा, खड़ा, बैठा, गोटी, नामों को लेकर बनाए गए मजाक (खोलकर, आदित्य चोटिया, केले), मर्द-औरत के प्राइवेट पार्ट्स को लेकर अश्लील इशारे और घिस-घिस कर गल गए जोक्स। बस करो यार, कुछ नया सोचो। मिलाप कहते हैं कि भारतीय दर्शक अमेरिकी एडल्ट फिल्म चाव से देखते हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। एडल्ट कॉमेडी से परहेज नहीं है, लेकिन बात कहने का सलीका तो सीखो जनाब, फिर ऐसी बातें करो। एक गे किरदार भी रखा गया है जिसे थुलथुले सुरेश मेनन ने निभाया है। सनी-तुषार से ज्यादा रोमांस तो सुरेश-तुषार का रोमांस दिखाया गया है जिसे देख उबकाइयां आती है। गानों में भी फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल है। शुरुआती आधे घंटे तो आप किसी तरह यह फिल्म झेल लेते हैं, लेकिन ये सिलसिला लंबा चलता है तो फिल्म नॉन स्टॉप नॉनसेंस बन जाती है। थाली में हर प्रकार की वैरायटी होना चाहिए। केवल चटनी से पेट भरता है क्या भला। बैनर : प्रीतिश नंदी कम्यूनिकेशन्स, पीएनसी प्रोडक्शन्स निर्माता : पीएनसी प्रोडक्शन्स निर्देशक : मिलाप ज़वेरी संगीत : अमाल मलिक, मीत ब्रदर्स, आनंद राज आनंद कलाकार : सनी लियोन, तुषार कपूर, वीर दास, शाद रंधावा, गिज़ेल ठकराल, रितेश देशमुख (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 48 मिनट 6 सेकंड ",0 "Rekha.Khan@timesgroup.com फिल्मकारों द्वारा फिल्मों के विषयों को लेकर जिस तरह के नए प्रयोग हो रहे हैं, उनमें 'वेटिंग' सुखद अनुभव है, जहां निर्देशक अनु मेनन ने अस्पताल जैसे दुख और अवसाद वाले माहौल को बैकड्रॉप बनाया, मगर नसीरुद्दीन शाह और कल्कि कोचलिन जैसे समर्थ ऐक्टर्स की सहज जुगलबंदी से फिल्म को उदास नहीं रहने दिया। कहानी: कहानी की शुरुआत होती है तारा (कल्कि कोचीन) से जो बदहवास कोच्चि के एक अस्पताल में प्रवेश करती है। वहां उसका पति रजत (अर्जुन माथुर ) गंभीर दुर्घटना के बाद कोमा जैसी स्थिति में दाखिल है। तारा और रजत की नई-नई शादी हुई है। अस्पताल में तारा की मुलाकात शिव (नसीरुद्दीन शाह) से होती है। शिव की पत्नी पिछले 6 महीनों से कोमा में है और डॉक्टर उसके ठीक होने की उम्मीद छोड़ चुके हैं, मगर शिव को पूरी आशा है कि उसकी पत्नी स्वस्थ हो जाएगी। यही वजह है कि वह लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने नहीं देता। रिटायर शिव की जिंदगी का केंद्र बिंदु उसकी पत्नी ही है, जबकि तारा भी बिलकुल अकेली है। उसके माता -पिता अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं और वह अपनी सास को इस दुर्घटना के बारे में नहीं बताना चाहती। उसे डर है की राहु-केतू में विश्वास करनेवाली उसकी अंधविश्वासी सास कहीं रजत की दुर्घटना के लिए उसे जिम्मेदार न मान ले। तारा को इस बात का दुख है कि फेसबुक और ट्विटर पर हजारों की तादाद में फॉलोवर्स होने के बावजूद इस जरूरत की घड़ी में वह अकेली है। उसकी सहेली इशिता उसे हिम्मत बंधाने आती है, मगर पारिवारिक मजबूरियों के कारण उसे भी लौटना पड़ता है। अब ये दो अजनबी मिलते हैं। दुख और परेशानी के इस माहौल में दोस्ती के रिश्ते में बांधकर जिंदगी से वो पल चुराते हैं, जो उन्हें डिप्रेशन से दूर ले जाता है। फिल्म के क्लाइमैक्स में आते-आते दोनों अपने साथियों की जिंदगी से जुड़े निर्णयों पर आकर रुक जाते हैं, मगर फिर वे जिंदगी को जीने का तरीका ढूंढ ही लेते हैं। देखें: फिल्म 'वेटिंग' का ट्रेलर निर्देशन: निर्देशक अनु मेनन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि कहानी डर, हताशा, बुरे की आकांक्षा में जीनेवाले दो ऐसे किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनके पार्टनर कोमा में हैं, इसके बावजूद उन्होंने फिल्म को कहीं भी भारी या मेलोड्रैमेटिक नहीं होने दिया। उन्होंने मौत जैसे विषय को बहुत ही लाइवली हैंडल किया है। निर्देशक ने रिश्तों का एक अलग संसार रचा है, जहां ये जिंदगी और मौत के बीच एक-दूसरे के लिए सपॉर्ट सिस्टम बनते हैं। निर्देशक अगर अस्पताल और घर के अलावा कोच्चि के आउटडोर लोकेशनों को भी परदे पर उकेरती तो फिल्म और ज्यादा दर्शनीय हो सकती थी। अभिनय: एक लंबे अरसे बाद नसीरुद्दीन शाह को अपने पुराने रंग में रंगा देखकर अच्छा लगा। बीच में उन्होंने कुछ ऐसी निरर्थक भूमिकाएं भी की थी, जिन्हे देखकर उनके चाहनेवालों को निराशा हुई थी। उन्होंने अंदर से टूटे हुए मगर बाहरी तौर पर मजबूत शिव को अपनी अंडर करंट परफॉर्मेंस से एक नया आयाम दिया है। अभिनय के मामले में कल्कि ने उन्हें जबरदस्त टक्कर दी है। ऐक्शन-रिएक्शन के सिलसिले को वे बखूबी निभाती हैं। वे सही मायनों में अपने किरदार की परतों में समाई हुई नजर आती हैं। डॉक्टर की भूमिका में रजत कपूर ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्शाई है। राजीव रविंद्रनाथ, सुहासिनी मणिरत्नम, अर्जुन माथुर सहयोगी भूमिकाओं में अच्छे रहे हैं। संगीत: मिकी मैक्लिरी के संगीत में फिल्म के बैकग्राउंड में बजनेवाला गाना 'तू है तो मैं हूं' फिल्म के विषय के मुताबिक है। क्यों देखें: लीक से हटकर बनी हुई फिल्मों के शौकीन तथा नसीर और कल्कि के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं। ",0 "रॉय के प्रचार में रणबीर कपूर को चोर और फिल्म को थ्रिलर बताया गया है, लिहाजा दर्शक एक रोमांचक फिल्म की अपेक्षा लेकर फिल्म देखने के लिए जाता है, लेकिन फिल्म में थ्रिल की बजाय रोमांस और इमोशनल ड्रामा देखने को मिलता है। इस ड्रामे की रफ्तार इतनी सुस्त है कि आपको झपकी भी लग सकती है। फिल्म का एक किरदार कहता है कि यदि कहानी आगे नहीं बढ़ रही हो तो उसे वही खत्म कर देना चाहिए। अफसोस की बात यह है कि अपनी फिल्म के जरिये यह बात कहने वाले फिल्मकार ने खुद की बात को गंभीरता से नहीं लिया है। 22 लड़कियों से रोमांस कर चुका कबीर ग्रेवाल (अर्जुन रामपाल) एक फिल्ममेकर है। मलेशिया में अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान उसकी मुलाकात लंदन में रहने वाली फिल्म मेकर आयशा आमिर (जैकलीन फर्नांडिस) से होती है। रॉय (रणबीर कपूर) एक मशहूर चोर है जिससे प्रेरित होकर कबीर फिल्म बनाता है। कबीर और आयशा एक-दूसरे के करीब आ जाते हैं और आयशा के जरिये कबीर अपनी कहानी आगे बढ़ाता है। रील लाइफ और रियल लाइफ के किरदार आपस में उलझ जाते हैं और मामला जटिल हो जाता है। विक्रमजीत सिंह ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है। कंसेप्ट अच्छा है, लेकिन स्क्रीन पर इसे पेश करने में निर्देशक खुद ही कन्फ्यूज हो गए, तो दर्शकों की बात ही छोड़ दीजिए। फिल्म की शुरुआत अच्छी है जब एक मूल्यवान पेंटिंग को चुराने के लिए रॉय को कहा जाता है। उम्मीद बंधती है कि एक थ्रिलर मूवी देखने को मिलेगी, लेकिन धीरे-धीरे यह कबीर और आयशा की प्रेम कहानी में परिवर्तित हो जाती है। यह रोमांटिक ट्रेक बहुत ही ठंडा है। कबीर के प्रति आयशा का आकर्षित होने और रुठने को ठीक से पेश नहीं किया गया है। साथ ही इस प्रेम की वजह से कबीर का अपने आपको जान पाने वाला ट्रेक भी प्रभावित नहीं करता। कबीर और उसके पिता के बीच के दृश्य भी फिजूल के हैं और इनका मुख्‍य कहानी से कोई संबंध नहीं है। रॉय का पेंटिंग चुराने वाला प्रसंग बहुत ही सतही है। फिल्म के जरिये क्या कहने की कोशिश की जा रही है, समझ पाना बहुत मुश्किल है। रॉय के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें विक्रमजीत सिंह ने स्क्रिप्ट की बजाय शॉट टेकिंग को ज्यादा महत्व दिया है। किरदारों की लाइफ स्टाइल को बेहतरीन तरीके से पेश किया है लेकिन कहानी को कहने का उनका तरीका बहुत ही उलझा हुआ है। उन्होंने संवादों के जरिये बात कहने की कोशिश ज्यादा की है। कुछ जगह किरदारों की बातचीत अच्छी लगती है, लेकिन कुछ समय बाद यही चीज बोरियत पैदा करती है। फिल्म का उन्होंने जो मूड रखा है उसमें गानों की बिलकुल जगह नहीं बनती। यही वजह है कि हिट गीतों का फिल्मांकन इतना खराब है कि देखने में मजा ही नहीं आता। रॉय का ट्रेलर देखें प्रमुख कलाकारों का अभिनय के मामले में गरीब होना भी फिल्म की कमजोर कड़ी है। अर्जुन रामपाल अपने लुक से प्रभावित करते हैं, एक्टिंग से नहीं। हैट और सिगरेट से उड़ते धुएं के जरिये उन्होंने अपने चेहरे को उन्होंने छिपाने की कोशिश की है। जैकलीन फर्नांडिस एक भूमिका तो ठीक से कर नहीं पाती हैं, ऐसे में दोहरी भूमिका उन्हें सौंपना उनके नाजुक कंधों पर बहुत भारी भार रखने के समान है। मेकअप और हेअर स्टाइल से अंतर पैदा करने की कोशिश की गई है, वरना दोनों किरदारों को जैकलीन ने एक ही तरीके से निभाया है। रणबीर कपूर का रोल छोटा है जिसे पूरी फिल्म में फैलाया गया है। विक्रमजीत सिंह उनके दोस्त हैं शायद इसीलिए रणबीर ने यह फिल्म की है। इसका दु:ख पूरी फिल्म में उनके चेहरे पर नजर आता है। पूरी फिल्म में बोरिंग एक्सप्रेशन लिए वे घूमते रहे। अंकित तिवारी, अमाल मलिक, मीत ब्रदर्स अंजान का संगीत मधुर है। हिम्मन धमीजा की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है। कुछ संवाद भी अच्‍छे हैं, लेकिन एक फिल्म को देखने के लिए ये बातें काफी नहीं हैं। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., फ्रीवे पिक्चर्स निर्माता : दिव्या खोसला कुमार, भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : विक्रमजीत सिंह संगीत : अंकित तिवारी, मीत ब्रदर्स, अमाल मलिक कलाकार : रणबीर कपूर, जैकलीन फर्नांडिज, अर्जुन रामपाल, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट ",0 "कहानी: हाफ गर्लफ्रेंड बिहार के एक छोटे से कस्बे सिमराव के रहने वाले माधव झा (अर्जुन कपूर) की कहानी है जो आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन्स कॉलेज में अंग्रेजी का बोलबाला देखकर माधव ऐडमिशन की उम्मीद छोड देता है लेकिन बास्केटबॉल के स्पोर्ट्स कोटे में न सिर्फ उसका वहां ऐडमशिन हो जाता है बल्कि बास्केटबॉल की बदौलत ही उसकी वहां एक बेहद अमीर फैमिली से आने वाली और फरार्टेदार अंग्रेजी बोलने वाली रिया सोमानी (श्रद्धा कपूर) से भी दोस्ती हो जाती है। दोनों की कॉलेज लाइफ हंसते-खेलते आगे बढ़ती है। उन दोनों के बीच प्यार होता और फिर तकरार भी। अगर आपने चेतन भगत की किताब हाफ गर्लफ्रेंड पढ़ा है तो आप पहले से ही हाफ गर्लफ्रेंड की कहानी से रूबरू होंगे। रिव्यू: माधव अपनी जिंदगी में जब भी मुश्किल में पड़ता है तो वह अपनी मां की सिखाई सीख याद करता है कि 'हार मत मानो, हार को हराना सीखो।' फिर चाहे मामला फरार्टेदार अंग्रेजी बोलने वाली गर्लफ्रेंड पटाने का हो या फिर अपनी मां के स्कूल के लिए विदेशी मदद हासिल करने की खातिर विदेशी मेहमानों के सामने स्पीच देने का। माधव अपनी जिंदगी में कभी हार नहीं मानता। यह फिल्म एक ऐसे लड़के की कहानी है जो खुद को साबित करने के लिए इंग्लिश से जूझता रहता है, तो अपनी दोस्त से ज्यादा और गर्लफ्रेंड से कम हाफ गर्लफ्रेंड को पाने की खातिर भी। ठेठ बिहारी लड़के के रोल में खुद को साबित करने के लिए अर्जुन ने काफी मेहनत की है और अपने रोल को अच्छे से निभाया है लेकिन फिर भी लगता है कि कुछ कसर बाकी रह गई। एक बेहद अमीर फैमिली से ताल्लुक रखने वाली रिया सोमानी के रोल को श्रद्धा कपूर ने बखूबी निभाया है। हाई क्लास सोसायटी से आने वाली रिया को देहाती माधव में एक ऐसा साथी नजर आता है जिसके साथ वह अपनी टेंशन भरी फैमिली लाइफ से दूर सुकून के कुछ पल बिता सकती है। डायरेक्टर मोहित सूरी ने रिया के किरदार के माध्यम से आजकल की लड़कियों की सोच को पर्दे पर उतारा है जिन्होंने अपनी मां को शादी बचाने की खातिर सब कुछ सहन करते देखा है लेकिन वह खुद इसके लिए राजी नहीं हैं। फिल्म आपको दिखाती है कि महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में कोई क्लास पीछे नहीं है, फिर चाहे वह हाई क्लास हो, मिडिल क्लास हो या फिर लोअर क्लास। हर जगह औरतें बस अपनी शादी बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं। फिल्म में मोहित सूरी ने दर्शकों को बांधने के लिए कुछ चेंज भी किए हैं। फिल्म का पहला हाफ मजेदार है, वहीं सेकंड हाफ सीरियस हो जाता है। माधव के दोस्त शैलेश के रोल में विक्रांत मैसी की ऐक्टिंग आपको याद रह जाती है तो माधव की मां के छोटे मगर दमदार रोल में सीमा बिस्वास भी जंची हैं। विष्णु राव की सिनिमटॉग्रफी खूबसूरत है। खासकर इंडिया गेट के उपर से दिल्ली का सीन दिल्लीवालों को जरूर पसंद आएगा। वहीं, डीयू और न्यू यॉर्क के अलावा पटना के सीन भी दर्शकों को खूबसूरत लगेंगे। कॉमनमैन के राइटर माने जाने वाले चेतन भगत इस फिल्म से बतौर प्रड्यूसर जुडे हैं। चेतन की किताबें उन्हें चुनिंदा लोगों तक पहुंचाती हैं लेकिन उनकी किताबों पर बनीं फिल्में उन्हें आम लोगों तक पहुंचाती हैं। हिंदी वर्सेज इंग्लिश से परेशान कॉलेज स्टूडेंट्स खुद को फिल्म से रिलेट कर पाएंगे। यही वजह है कि मॉर्निंग शोज में लड़के-लड़कियों की खासी भीड़ सिनेमा पहुंची हुई थी। फिल्म का संगीत पहले से ही यंगस्टर्स में काफी पॉप्युलर है। खासकर, 'मैं फिर भी तुझको चाहूंगा' और 'तू थोडी देर और ठहर जा' को लोग सिनेमा से बाहर निकल कर भी गुनगुनाते हैं। ",1 "कहानी: कालाकांडी में 3 कहानियां एक साथ चलती हैं। एक व्यक्ति जिसे पता चलता है कि वह बीमार है तो वह अपने सारे नियम-कायदे तोड़कर थोड़ा सा जीने का प्रयास करता है, एक महिला जो एक हिट-ऐंड-रन मामले में दोषी है और इससे बचना चाहती है और 2 गुंडे जिन्हें यह निर्णय लेना है कि वे एक-दूसरे पर विश्चवास करें या नहीं। रिव्यू: 'डेल्ही बेली' जैसी अलग तरह की कॉमिडी फिल्म लिखने के बाद अक्षत वर्मा ने कालाकांडी की कहानी को मुंबई पर केंद्रित किया है जो दर्शकों को काफी आकर्षित करती है। यह उन लोगों के चारों ओर घूमती है जिन्हें हमेशा हर अच्छा-बुरा काम करना चाहिए जिसमें वे शायद ही कुछ ठीक करते हैं। अगर आप कोएन ब्रदर्स के फैन हैं और उनके डार्क ह्यूमर को पसंद करते हैं तो यह नई बात है कि इस जॉनर का प्रयोग अब भारतीय फिल्ममेकर्स भी कर रहे हैं। फिल्म कालाकांडी में बेतुके से मनोरंजन में सैफ अली खान एक सफलता के तौर पर देखे जा सकते हैं। जब एक अच्छे खासे नौजवान (सैफ) को पता चलता है कि उन्हें कैंसर है तो उन्हें बड़ा अफसोस होता है कि उन्होंने इतने सीधे तरीके से अपनी जिंदगी क्यों बिताई। वह बची जिंदगी में सारे काम करना चाहते हैं जिसमें कई अजीब बातें शामिल हैं। केवल सैफ अली खान ही ऐसी द्विअर्थी लाइन ही मार सकते हैं कि 'हमको आपके सामान के बारे में क्युरिऑसिटी है' जो बुरा तो लगता ही नहीं है बल्कि मजाकिया लगता है। एक टूटे हुए आदमी के किरदार में सैफ का किरदार अच्छा लगा है जो हर बंधन से मुक्ति पा लेना चाहता है। आप फिल्म में इस किरदार के दर्द और काफी कुछ खो देने की बेबसी को समझ सकते हैं। फिल्म में सैफ और नैरी सिंह के बीच एक गर्मजोशी भरा बॉन्ड दिखता है जो भारतीय सिनेमा में समलैंगिग संबंधों को ऐतिहासिक कहा जा सकता है। यह दोनों किरदार फिल्म में गर्मजोशी से भरे और छिपे हुए नजर आते हैं जिससे पता चलता है कि हमारे यहां सैक्शुऐलिटी को इतना ओवर-रेटेड क्यों है और दिखता है कि मानव समाज में कितनी असमानता और यह सामाजिक नियमों का अतिक्रमण करता है। सैफ के कजिन के तौर पर अक्षय ओबेरॉय का किरदार खासा महत्वपूर्ण है। विजय राज ने अपनी भूमिका बेहतरी से निभाई है हालांकि ऐसे बोल्ड किरदार के चुनाव के लिए सैफ अली खान की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन कालाकांडी दर्शकों को निराश करती है। शुरुआत में फिल्म काफी थ्रिलर लगती है लेकिन जल्द ही यह अपनी गति खो देती है। सैफ के अलावा जो दो कहानियां हैं वे पटरी से उतर जाती हैं जिसके कारण फिल्म में जो मनोरंजन, मजा और इमोशंस हो सकते थे, वे गायब हैं। लेकिन अगर आप बिना किसी सोच-समझ के धैर्य के साथ फिल्म देखना जारी रखते हैं तो यह फिल्म आपको ठीक लग सकती है।",0 "यह सही बात है कि 1948 में लंदन में हुए ओलिंपिक में स्वतंत्र भारत ने हॉकी में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता था, लेकिन ये कल्पना है कि एक बंगाली बाबू तपन (अक्षय कुमार) ने यह सपना देखा था और टीम बनाने में अहम योगदान दिया था। रीमा कागती द्वारा निर्देशित फिल्म 'गोल्ड' में आधी हकीकत और आधा फसाना को दर्शाया गया है। राजेश देवराज और रीमा ने मिलकर ऐसी कहानी लिखी है जिसमें खेल है, देश प्रेम है और अपने सपने को पूरा करने की जिद है। इस तरह की फिल्में इस समय खासी धूम मचा रही हैं और इन्हीं बातों का समावेश कर शायद एक हिट फिल्म रचने की कोशिश की गई है। फिल्म शुरू होती है 1936 के बर्लिन ओलिंपिक से जब ब्रिटिश इंडिया हॉकी टीम फाइनल में थी और उसका मुकाबला जर्मनी की टीम से था। तानाशाह हिटलर की उपस्थिति में ब्रिटिश इंडिया टीम 8-1 से मैच जीत जाती है। तपन इस टीम से बतौर मैनेजर जुड़ा हुआ रहता है। उसके सहित भारतीय खिलाड़ियों को तब दु:ख होता है जब उनकी जीत के बाद यूनियन जैक ऊपर जाता है और ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजता है। तब तपन सपना देखता है कि एक दिन तिरंगा ऊपर जाएगा और 'जन गण मन' सुनने को मिलेगा। उसका सपना 1948 में लंदन ओलिंपिक में पूरा होता है। इस 12 साल के उसके संघर्ष को फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से वह हॉकी टीम बनाता है और तमाम मुश्किलों का सामना करता है। फिल्म की कहानी बुनियाद थोड़ी कमजोर है। यह 1936 में जीते स्वर्ण पदक की महत्ता को कम करती है। ठीक है उस समय हमारा देश गुलाम था और टीम को ब्रिटिश इंडिया कहा गया था, लेकिन उसमें खेलने वाले अधिकतर खिलाड़ी भारतीय थे और उन्होंने टीम को गोल्ड मैडल दिलाया था। 1948 का स्वर्ण पदक इसलिए खास बन गया क्योंकि यह आजाद भारत का पहला गोल्ड मैडल था, लेकिन इससे 1936 की जीत की चमक फीकी नहीं पड़ जाती। दूसरी कमी यह लगती है कि सपना देखने वाला जो कि फिल्म का लीड कैरेक्टर है, कोच या खिलाड़ी न होकर एक मैनेजरनुमा व्यक्ति है, जो शराब पीकर सपने देखा करता है। उसके योगदान को लेखकों ने बहुत गहराई नहीं दी गई है जिससे फिल्म का असर कम हो जाता है। वह अपनी पत्नी मोनोबिना (मौनी रॉय) के गहने गिरवी रख खिलाड़ियों का खर्चा उठाता है और उन्हें इकट्ठा करता है, लेकिन खेल में कोई योगदान नहीं देता। उसके सपने को फिल्म में बार-बार जोर देकर बताया गया है कि यह बहुत बड़ा सपना था जो पूरा हुआ। यह 'कोशिश' कई बार फिल्म देखते समय अखरती है। तपन के सामने जो मुश्किलें खड़ी की गई हैं वो भी बनावटी लगती है। जैसे फंड की कमी को लेकर तपन-वाडिया और मेहता के बीच का एक प्रसंग डाला गया है वो महज फिल्म की लंबाई को बढ़ाता है। कहानी की इन मूल कमियों पर कम ध्यान इसलिए जाता है कि फिल्म में मनोरंजन का खासा ध्यान रखा गया है। प्रताप सिंह (अमित साध) और हिम्मत सिंह (सनी कौशल) के किरदार बड़े मजेदार हैं। जहां प्रताप में राजसी ठसक है वहीं हिम्मत में देसीपन है। दोनों की नोकझोक बढ़िया लगती है। हिम्मत की प्रेम कहानी भी फिल्म का मूड हल्का-फुल्का करती है। ट्रेनिंग के दौरान बिखरी टीम में एकता लाने के लिए ईंट के ढेर को जमाने से जो बात समझाई गई है वो फिल्म का बेहतरीन सीन है। फिल्म तब दम पकड़ती है जब लंदन ओलिंपिक के लिए खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं और सम्राट ( कुणाल कपूर) खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देना शुरू करता है। इसके बाद सेमीफाइनल और फाइनल मैच का रोमांच फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाता है और आप फिल्म की कमियों को भूल जाते हैं। नंगे पैर खेल कर भारतीय खिलाड़ी जब फाइनल जीतते हैं, जीत के बाद जब तिरंगा ऊपर जाता है और 'जन गण मन' सुनने को मिलता है तो गर्व से सीना फूल जाता है। हॉकी खेलने वाले सीन में खेल धीमा लगता है, लेकिन इस बात की छूट दी जा सकती है कि वे अभिनेता हैं, खिलाड़ी नहीं। हां, ये दृश्य रोमांच पैदा करने में जरूर सफल रहे हैं। अक्षय कुमार की भूमिका थोड़ी अजीब है। उनके पास करने को ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन सबसे लंबा रोल उन्हें मिला। तपन के किरदार में उन्होंने मनोरंजन तो किया है, लेकिन तपन के सपने में वो जुनून नहीं दिखा और इसमें लेखकों का दोष ज्यादा है। मौनी रॉय को ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिला है, लेकिन वे उपस्थिति दर्ज कराती हैं। कुणाल कपूर, विनीत सिंह, अमित साध और सनी कौशल अपने अभिनय से फिल्म को दमदार बनाते हैं। यह फिल्म उन खिलाड़ियों को आदरांजलि देने के लिए देखी जा सकती है जिन्होंने आजादी के तुरंत बाद गोरों के देश में जाकर गोरों को हराकर 'गोल्ड' जीता और 200 वर्ष की गुलामी का छोटा सा हिसाब वसूला था। निर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर निर्देशक : रीमा कागती संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : अक्षय कुमार, मौनी रॉय, कुणाल कपूर, अमित साध, विनीत सिंह, सनी कौशल, निकिता सेंसर सर्टिफिकोट : यूए * 2 घंटे 33 मिनट 42 सेकंड ",1 "रिव्यू: बाल हनुमान पर यूं तो तमाम एनिमेटिड कार्टून फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन फिल्म की प्रड्यूसर-राइटर-डायरेक्टर रुचि नारायण ने एकदम अलग कहानी के साथ गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के मनोरंजन के लिए बढ़िया कोशिश की है। अगर आप बच्चों को मनोरंजन के बहाने खेल-खेल में कुछ संदेश भी देना चाहते हैं, तो यह फिल्म दिखाने ले जा सकते हैं। यकीन मानिए सलमान खान, रवीना टंडन, कुणाल खेमू, विनय पाठक, मकरंद देशपांडे, चंकी पांडे और जावेद अख्तर जैसे बड़े कलाकारों की आवाज में फिल्म के किरदार आपका यानी कि बड़ों का भी भरपूर मनोरंजन करेंगे। बीते साल बच्चों के लिए कई अच्छी डब हॉलिवुड फिल्में रिलीज हुई थीं, लेकिन इस बार हनुमान दा दमदार अकेली ही मैदान में है। जैसा कि फिल्म में हनुमान कहते भी हैं कि जहां ना पहुंचे सुपरमैन, वहां पहुंचे हनुमान। यह तो आपने पढ़ा या सुना ही होगा कि बचपन में हनुमान ने सूर्य को फल समझ कर निगल लिया था, जिसके बाद इंद्र ने उन पर वज्र से प्रहार किया था। इस एनिमेशन फिल्म की कहानी उस घटना के बाद से ही शुरू होती है, जब हनुमान अपने बहादुरी के किस्सों को भूलकर अपनी मां के आंचल में बचपन बिता रहे थे। उनकी मां अंजनी हनुमान को घर में दब्बू बनाकर रखती हैं। हनुमान के पिता केसरी घर लौटते हैं, तो देखते हैं कि उनका बेटा इतना डरपोक बन चुका है कि छोटे-छोटे कीड़ों से भी डरता है। एक दिन एक चक्रवात हनुमान को अपने माता-पिता से जुदा कर देता है और उसके बाद हनुमान निकल पड़ते हैं, अपने दमदार बनने के सफर पर। फिल्म में हनुमान के एक डरपोक बच्चे से दमदार बनने तक के मजेदार और रोमांचक सफर को दिखाया गया है। इंद्र के रोल में कुणाल खेमू ने मजेदार डबिंग की है, तो जंगल आजतक के रिपोर्टर पोपट तोते के रोल में हनुमान के कारनामों की लाइव रिपोर्टिंग करने वाले विनय पाठक की आवाज का जवाब नहीं। वहीं केसरी को आवाज देने वाले सौरभ शुक्ला ने हरियाणवी अंदाज में कमाल कर दिया। हनुमान की मां अंजनी के रोल को रवीना टंडन ने आवाज दी है। वहीं लंका के टूरिस्ट गाइड को चंकी पांडे ने मनोरंजक अंदाज में आवाज दी है। फिल्म में हनुमान के जंगली जानवरों के मुकाबले में हिस्सा लेने और खेल-खेल में सीखकर जीतने के सींस मजेदार हैं, तो जंगल के सीन भी बिग स्क्रीन पर काफी अच्छे लगते हैं। अपने साथी हनुमान की मदद के लिए जंगल की सेना के पहुंचने का सीन भी काफी मजेदार लगता है। इसके अलावा स्क्रीन पर सोने की लंका के सीन भी अच्छे लगते हैं। हनुमान चालीसा समेत फिल्म के बाकी गाने भी फिल्म की थीम को सपोर्ट करता है। अपनी सुपरहिट फिल्म बजरंगी भाईजान में बजरंगी के भक्त का किरदार निभा चुके सलमान खान को रुचि ने हनुमान के किरदार को आवाज देने के लिए अप्रोच किया, तो उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से हां कर दी। हनुमान दा दमदार का ट्रेलर सलमान खान ने अप्रैल में हनुमान जयंती पर लॉन्च किया था। पहले यह फिल्म 19 मई को रिलीज होने वाली थी, लेकिन शायद फिल्म के निर्माता बच्चों की समर वेकेशन का इंतजार कर रहे थे। इसलिए उन्होंने फिल्म की रिलीज डेट चेंज करके 2 जून कर दी गई, जबकि सारे बच्चों की छुट्टियां पड़ जाती हैं। हनुमान के रोल में सलमान खान ने अपने फेमस डायलॉग मारे हैं। खासकर एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी, तो मैं खुद की भी नहीं सुनता और मुझ पर एक अहसान करना कि मुझ पर कोई अहसान मत करना मजेदार लगते हैं। मजे की बात यह है कि यह इंग्लिश के शब्दों का यूज करने वाले मॉडर्न हनुमान की फिल्म है, जिससे बच्चे अपने आपको ज्यादा आसानी से कनेक्ट कर पाएंगे। ",1 "बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों में प्रेमियों को मिलाने की कोशिश की जाती है, लेकिन 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में सोनू अपने भाई से भी बढ़ कर दोस्त टीटू की स्वीटी के साथ जोड़ी तोड़ने की कोशिश में लगा रहता है। सोनू को टीटू के लिए स्वीटी सही लड़की नहीं लगती है जिसके साथ टीटू की शादी होने वाली है। रोमांस बनाम ब्रोमांस का मुकाबला देखने को मिलता है। जब वह यह स्वीकार कर लेता है कि स्वीटी अच्छी लड़की है तब स्वीटी खुद सोनू को बता देती है कि वह चालू लड़की है। वह सोनू को चैलेंज देती है कि अब रिश्ता तोड़ कर दिखाए। क्या स्वीटी सच कह रही है? क्या सोनू यह कर पाएगा? इसके जवाब फिल्म में मिलते हैं। कहानी में कुछ बात खटकती है। यदि स्वीटी 'बदमाश' है और सोनू को उस पर शक है तो वह क्यों आगे रह कर उसे बताती है कि वह 'बदमाश' है। जबकि आधी फिल्म में वह यह जताने की कोशिश करती है कि एक अच्छी लड़की है। स्वीटी यदि अच्छी लड़की नहीं है तो यह दर्शाने के लिए कुछ भी नहीं बताया गया है कि आखिर वह क्यों अच्छी लड़की नहीं है। वह टीटू से शादी कर क्या पाना चाहती है? इसलिए स्वीटी से इतनी नफरत नहीं होती जितनी की कहानी की डिमांड थी। कमियों के बावजूद यदि फिल्म अच्छी लगती है तो इसका श्रेय स्क्रीनप्ले और निर्देशक लव रंजन को जाता है। कई मजेदार सीन रखे गए हैं जो यदि कहानी से ज्यादा ताल्लुक नहीं भी रखते हैं तो भी इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनसे मनोरंजन होता है। सोनू, टीटू और स्वीटी के किरदारों के साथ-साथ आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना सहित अन्य सीनियर सिटीजन्स के किरदारों पर भी मेहनत की गई है। ये किरदार समय-समय पर आकर फिल्म के गिरते ग्राफ को उठा लेते हैं। सोनू के साथ इनके सीन बढ़िया हैं। सोनू और स्वीटी के मुकाबले वाले दृश्य भी अच्छे लगते हैं। निर्देशक के रूप में लव रंजन का काम अच्छा है। वे 'प्यार का पंचनामा' भाग एक और दो बना चुके हैं और उनकी युवा दर्शकों पर अच्छी पकड़ है। 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में भी उन्होंने वही फ्लेवर बरकरार रखा है। उनके द्वारा रचा गया फैमिली ड्रामा सूरज बड़जात्या या करण जौहर की फिल्मों से बिलकुल अलग है और दादी, मां, पिता, चाचा के किरदार बड़े दिलचस्प हैं। हालांकि इन किरदारों का किससे क्या रिश्ता है, यह बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं होता। फिल्म को यदि वे छोटा रखते तो बेहतर होता, खासकर सेकंड हाफ में कुछ प्रसंग गैरजरूरी लगते हैं, जैसे एम्सटर्डम जाने वाली बात। कहानी की कमियों को उन्होंने मनोरंजक प्रस्तुतिकरण के जरिये बखूबी छिपाया है। लव रंजन ने अपने एक्टर्स से भी अच्छा काम लिया है। फिल्म के तीनों मुख्य कलाकार कार्तिक नारायण, नुसरत भरूचा और सनी सिंह का अभिनय बेहतरीन है। तीनों ने अपने किरदारों को बारीकी से पकड़ा और पूरी फिल्म में यह पकड़ बनाए रखी। आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना और अन्य कलाकारों का अभिनय भी लाजवाब है। उनके रोल छोटे हैं, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। म्युजिक फिल्म का प्लस पाइंट है। 'बम डिगी डिगी' जैसे हिट गीत को फिल्म में जगह दी गई है। इसके साथ ही 'दिल चोरी', 'सुबह सुबह', 'तेरा यार हूं मैं' जैसे गीत भी सुनने लायक हैं। कुल मिलाकर 'सोनू के टीटू की स्वीटी' कमियों के बावजूद मनोरंजन करती है। बैनर : लव फिल्म्स, टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : लव रंजन, अंकुर गर्ग, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार निर्देशक : लव रंजन संगीत : हंस राज हंस, जैक नाइट, रोचक कोहली, यो यो हनी सिंह, अमाल मलिक, गुरु रंधावा, सौरभ-वैभव कलाकार : कार्तिक नारायण, नुसरत भरूचा, सनी सिंह निज्जर, आलोकनाथ, वीरेन्द्र सक्सेना, सोनाली सहगल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट 23 सेकंड ",1 "शीर्षक गीत के अलावा नेहा पर फिल्माया गया एक गीत अच्छा है। नेहा पर फिल्माए गए गीत की कोरियोग्राफी में उम्दा है। संपादन बेहद ढीला है, लेकिन रिक्शे के मीटर डाउन करने वाले दृश्य में संपादक ने कल्पनाशीलता दिखाई है। निर्माता : रंजन प्रकाश - सुरेन्द्र भाटिया निर्देशक : एस. चंद्रकांत संगीत : सिद्धार्थ सुहास कलाकार : नेहा धूपिया, राजपाल यादव, अमृता अरोरा, आशीष चौधरी, अनुपम खेर, रति अग्निहोत्री पति-पत्नी का रिश्ता खट्टा-मीठा रहता है और उनमें अकसर नोकझोंक होती रहती है। इस रिश्ते को आधार बनाकर हास्य फिल्म ‘रामा रामा क्या है ड्रामा’ बनाई गई है। यह विषय ऐसा है, जिसमें हास्य की भरपूर गुंजाइश है, लेकिन इस फिल्म में इसका लाभ नहीं लिया गया है। फिल्म में कहानी नाममात्र की है। कहानी के अभाव में फिल्म का हास्य प्रभावशाली नहीं है। छोटे-छोटे चुटकुले गढ़े गए हैं जिनके सहारे फिल्म आगे बढ़ती है। जरूरी नहीं है कि हर दृश्य पर हँसी आए, लेकिन कुछ दृश्यों पर हँसा जा सकता है। निर्देशक ने फिल्म को बेहतर बनाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन सशक्त पटकथा के अभाव में यह प्रयास बेकार गया है। कई दृश्यों में संवाद इतने कम हैं कि एक छोटे संवाद को खींचकर कलाकार को दृश्य लंबा करना पड़ता है। कलाकार भी इतने दमदार नहीं हैं कि वे अपने अभिनय के बल पर इस कमजोरी को छिपा लें। राजपाल यादव चरित्र कलाकार के रूप में तो ठीक लगते हैं, लेकिन नायक बनकर फिल्म का भार ढोने की क्षमता उनमें नहीं है। संतोष (राजपाल यादव) अपने पड़ोसी खुराना (अनुपम खेर) के कहने पर शांति (नेहा धूपिया) से शादी कर लेता है। शादी के बाद शांति को वह वैसा नहीं पाता जैसे कि उसने सपने देखे थे और इस वजह से उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। संतोष का बॉस प्रेम (आशीष चौधरी) भी अपनी पत्नी खुशी (अमृता अरोरा) से खुश नहीं है। इसके बावजूद वह अपनी पत्नी को बेहद चाहता है और दुनिया के सामने ऐसे पेश आता है जैसे वह बेहद खुश है। उधर संतोष को दूसरों की बीवी ज्यादा अच्छी लगती है। कुछ गलतफ‍हमियाँ दूर होती हैं और सुखद अंत के साथ फिल्म समाप्त होती है। संतोष और शांति की लड़ाई सतही लगती है क्यों‍कि बिना ठोस कारण के वे लड़ते रहते हैं। ऐसा लगता है कि दर्शकों को हँसाने के लिए उनके बीच लड़ाई करवाई जा रही है। संतोष को शांति के मुकाबले ज्यादा संवाद और फुटेज ज्यादा दिए गए हैं, जिससे उनके बीच का संतुलन बिगड़ गया है। राजपाल यादव ने अपने अभिनय में कुछ नया करने की कोशिश नहीं की है। जैसा अभिनय वे हर फिल्म में करते हैं, उसी अंदाज में वे यहाँ भी हैं। आँखें बंद कर चेहरे को हथेली से ढँकने वाली अदा इस फिल्म में उन्होंने जरूरत से ज्यादा दोहराई है। वे संतोष की भूमिका के लायक भी नहीं हैं क्योंकि जो भूमिका उन्होंने निभाई है उसके लिए कम उम्र का अभिनेता चाहिए था। नेहा धूपिया इस फिल्म की सबसे बड़ी स्टार हैं, लेकिन उन्हें काफी कम फुटेज दिया गया है। उनके ग्लैमर का भी कोई उपयोग नहीं किया गया। अभिनय अभी भी नेहा की कमजोरी है। यही हाल अमृता अरोरा और आशीष चौधरी का भी है। आश्चर्य तो तब होता है जब अनुपम खेर जैसा अभिनेता भी घटिया अभिनय करता है। शीर्षक गीत के अलावा नेहा पर फिल्माया गया एक गीत अच्छा है। नेहा पर फिल्माए गए गीत की कोरियोग्राफी में उम्दा है। संपादन बेहद ढीला है, लेकिन रिक्शे के मीटर डाउन करने वाले दृश्य में संपादक ने कल्पनाशीलता दिखाई है। ",0 "हैप्पी के भागने की कहानी का पहला भाग आपने साल 2016 में देखा था। फिल्म सफल रही और तय किया गया कि इसका अगला भाग और भी ज्यादा दिलचस्प बनाया जाए। वैसे अगर आपने फिल्म का पहला भाग नहीं देखा है, तब भी दूसरे भाग से आसानी से कनेक्ट हो जाएंगे। पिछली बार हैप्पी पाकिस्तान भाग गई थी और इस बार दो-दो हैप्पी हैं, जो चीन के अलग-अलग शहरों में भाग रही हैं। इस बार उन्हें ढूढ़ने से ज्यादा बचाने की जद्दोजहद भी है। फिल्म भले चीन पर बेस्ड हो, लेकिन वह आपको बहुत ही खूबसूरती से लगातार पटियाला, अमृतसर, दिल्ली, कश्मीर और पाकिस्तान से जोड़ कर रखती हैं। फिल्म के राइटर और निर्देशक मुदस्सर अजीज ने अपनी पूरी फिल्म में बेहतरीन डायलॉग-बाजी से भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच की तनातनी पर व्यंग्य किया है। फिल्म के बहुत से डायलॉग जहां आपको हंसाएंगे, वहीं सोचने पर भी मजबूर करेंगे। 'तनु वेड्स मनु' सीरीज़ और 'रांझणा' के निर्देशक आनंद एल. रॉय इस फिल्म के को-प्रड्यूसर हैं, लेकिन फिल्म में उनकी साफ झलक दिखाई देती है। कहानी: चीन के शांघाई एयरपोर्ट पर अमृतसर की दो बहनें एक साथ उतरती हैं। पहली हैप्पी (डायना पेंटी) अपने पति गुड्डू (अली फजल) के साथ एक म्यूजिक कॉन्सर्ट में आई है और दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) शांघाई की एक यूनिवर्सिटी में प्रफेसर का जॉब जॉइन करने आई है। एयरपोर्ट पर कुछ चीनी किडनैपर पहली हैप्पी (डायना पेंटी) को किडनैप करने आते हैं, लेकिन एक जैसे नाम होने की वजह से वह गलती से दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी) को किडनैप कर लेते हैं। इस अपहरण में किडनैपर पटियाला से दमन बग्गा (जिम्मी शेरगिल) और पाकिस्तान से पुलिस ऑफिसर उस्मान अफरीदी (पियूष मिश्रा) को भी अगवा कर चीन लाते हैं। आगे कहानी क्या मोड़ लेती है, यब जानने के लिए आपको सिनेमा हॉल का रुख करना होगा। अभिनय: पूरी फिल्म दूसरी हैप्पी के ईर्द-गिर्द घूमती है, जिसे सोनाक्षी सिन्हा ने बखूबी निभाया है। लगातार आधी दर्जन से ज्यादा फ्लॉप फिल्मों के बाद, यह फिल्म सोनाक्षी के लिए बड़ी राहत का काम करेगी। सोनाक्षी का अभिनय उभरकर सामने आता है। हिंदी-पंजाबी में अपनी डायलॉग डिलीवरी से सोनाक्षी अमृतसर की हरप्रीत कौर को पर्दे पर जीवंत कर देती हैं। जिम्मी शेरगिल और पियूष मिश्रा के बीच की नोकझोंक और जिम्मी के तकिया-कलाम वाले छोटे-छोटे डायलॉग फील गुड का एहसास देते हैं। जस्सी गिल पहली बार बॉलिवुड फिल्म में नजर आ रहे हैं और वह अपने किरदार के साथ पूरा इंसाफ करते हैं। बाकी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। डायरेक्शन: मुदस्सर अजीज अपने लेखन के लिए मशहूर हैं और इस बार उनकी मेहनत फिल्म के डायलॉग में साफ नजर आती है। जिस तरह की फिल्म है, उस हिसाब से कोई भी सीन या डायलॉग ओवर नहीं लगता है और सिचुएशन के हिसाब से सब सटीक लगता है। उनके निर्देशन की पकड़ भी पहले से और भी ज्यादा मजबूत हुई है। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा लंबा जरूर लगता है, लेकिन उबाऊ नहीं है। संगीत: फिल्म का कोई गाना बहुत ज्यादा चर्चित नहीं हुआ है, लेकिन फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के साथ बिल्कुल फिट बैठता है।क्यों देखें: अच्छे डायलॉग, जिनमें व्यंग्य भी है, एक अच्छी सिचुएशनल कॉमिडी, सोनाक्षी का बदला अंदाज, जिम्मी शेरगिल और पियूष मिश्रा का अभिनय आपको निराश नहीं करेगा। ",0 "फ़िल्म के एक सीन में जब पुलिस इंस्पेक्टर पूछता है कि चाचा ही बोले जा रहा है, लड़की का बाप गूंगा है क्या? तो चाचा जवाब देता है कि हर लड़की का बाप गूंगा होता है। हालांकि इस फ़िल्म में लड़की का बाप गूंगा कतई नहीं है। वहीं उसकी बेटी भी अपने साथ हुए अन्याय पर चुप रहने की बजाय बारात लौटा कर विलन को करारा जवाब देती है, जो सोचता है कि वह अपनी शादी वाले दिन मुंह किस मुंह से खोलेगी।संजय दत्त के जेल से लौटने बाद उनकी कमबैक फिल्म को लेकर फैन्स के बीच जबर्दस्त क्रेज था। कोई संजू बाबा की बायॉपिक फिल्म की बाट जोह रहा था, जिसका एक सीन उन्होंने जेल से निकलते ही शूट किया। वहीं कोई मुन्ना भाई सीरीज़ की अगली फिल्म की बात कर रहा था, लेकिन संजय दत्त ने इन सब फिल्मों को छोड़कर ओमंग कुमार की भूमि को चुना, तो इसके पीछे उनकी अपनी उम्र के मुताबिक रोल करने की चाहत थी। बाप-बेटी की कहानी पर बेस्ड इस फिल्म में लीड रोल कर रहे संजय असल जिंदगी में भी एक बेटी त्रिशला के पिता हैं। पिछले दिनों इस तरह की दो फिल्में मातृ और श्रीदेवी की 'मॉम' रिलीज हो चुकी हैं, जिनमें मां अपनी बेटी के साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ती है। इनमें से श्रीदेवी की मॉम को काफी अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला। संजू की फिल्म की थीम भी कुछ ऐसी ही है, लेकिन यहां बेटी की लड़ाई बाप लड़ता है। हमारी सोसायटी में मां-बेटी के अलावा बाप-बेटी का रिश्ता भी बेहद खास होता है। निश्चित तौर पर संजू की फिल्म को इसका फायदा जरूर मिलेगा।फ़िल्म की कहानी अरुण सचदेव (संजय दत्त) की है, जो अपनी बिना मां की बेटी भूमि (अदिति राव हैदरी) के साथ आगरा में रहता है। अरुण अपनी बेटी को इतना चाहता है कि उसकी शादी पर हर बाराती को अपनी जूतों की दुकान से जूते पहनाता है, लेकिन जब अचानक बारात लौट जाती है, तो उसे पता लगता है कि धौली (शरद केलकर) ने अपने गुंडों के साथ मिलकर उसकी बेटी का रेप किया है। एक आम भारतीय की तरह अरुण और भूमि पुलिस और अदालत के चक्कर भी लगाते हैं, लेकिन वहां भी उन्हें इंसाफ नहीं मिलता। और तो और भूमि और अरुण सब कुछ भुला कर नई जिंदगी जीना चाहते हैं, तो दुनिया उन्हें जीने नहीं देती। आखिर बाप-बेटी अपने साथ हुए अन्याय का बदला कैसे लेते हैं? इसका पता आपको थिएटर में जाकर ही लगेगा।संजय दत्त ने फिल्म से जबर्दस्त वापसी की है। खासकर अपने बेटी के साथ बिताए पलों में बिंदास और विलन को सबक सिखाने के दौरान बेहद खतरनाक, दोनों ही अंदाज में वह पर्दे पर बेहतरीन लगे हैं। एक फ़िल्म जिसका क्लाइमैक्स सबको पता है, उसमें दर्शकों को आखिरी सीन तक सीट पर रोकना आसान नहीं होता। हालांकि फ़िल्म का क्लाइमैक्स खूबसूरती से शूट किया गया है।अदिति राव हैदरी ने फिल्म में संजय दत्त की बेटी का रोल बढ़िया तरीके से निभाया है। संजय दत्त जैसे मंजे हुए ऐक्टर के साथ अपने आपको साबित कर पाना आसान नहीं होता, लेकिन अदिति ने उन्हें पूरी टक्कर दी है। वहीं डायरेक्टर ओमंग कुमार ने अभी तक मैरी कॉम और सरबजीत जैसी बायॉपिक टाइप फिल्मों में अपना टैलंट दिखाया था। लेकिन अबकी एक बढ़िया ऐक्शन थ्रिलर डायरेक्ट करके उन्होंने दिखा दिया कि वह बायॉपिक जॉनर में टाइप्ड नहीं हुए हैं। शरद केलकर ने फिल्म में विलन का रोल दमदार तरीके से किया है। उनके हिस्से में अच्छे डायलॉग भी आए हैं, लेकिन जब संजू अपनी फुल फॉर्म में आते हैं, तो वह किसी भी विलन से ज्यादा बड़े विलन लगते हैं। वही शेखर सुमन ने दोस्त के रोल में संजू का अच्छा साथ दिया है। फ़िल्म के गाने कुछ खास नहीं हैं। खासकर सनी लियोनी के आइटम नंबर को जबर्दस्ती फ़िल्म का हिस्सा बनाने की कोशिश की गई है।अगर आप संजय दत्त के फैन हैं और बाप-बेटी के रिलेशन पर बनी एक इमोशनल कर देने वाली फिल्म देखना चाहते हैं, तो इस वीकेंड भूमि आपको निराश नहीं करेगी।",1 कहानी: भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अरंविद केजरीवाल अपने टीम मेंबर्स के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए एक नई पॉलिटिकल पार्टी का गठन करते हैं। यह पार्टी किस तरह अपने गठन के तुरंत बाद सत्ता में आ जाती है और दोबारा चुनाव होने पर पूर्ण बहुमत में वापसी करते हैं।रिव्यू: एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री की यह खासियत होती है कि वह आपके सामने उन इवेंट्स को सामने रखती है जिन्हें आप भूल चुके हैं और यह इवेंट्स काल्पनिक नहीं होते। ऐन इन्सिग्निफिकंट मैन में बखूबी इसे बढ़चढ़ कर दिखाया गया है। अरविंद केजरीवाल ने इस फिल्म में अपनी ही भूमिका निभाई है। इस फिल्म को बनाने वाले खुशबू रंका और विनय शुक्ला ने इस फिल्म को शूट करने के लिए खुद को इस पूरे हंगामे के बीच रखा है कि किस तरह पॉलिटिकल पार्टी का गठन हुआ। डायरेक्टर्स ने हंगामे के बीच जाने के लिए खुद को दी गई छूट का भरपूर फायदा उठाया है। इस फिल्म की सबसे अच्छी खूबी यह है कि पूरे 96 मिनट में कहानी के साथ पूरी तरह ऑब्जेक्टिविटी बरती गई है। फिल्म में केजरीवाल के सबसे बुरे दौर को भी दिखाया गया है। इसके अलावा पार्टी के एक नेता की मौत और चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच हल्की-फुल्की बातचीत को भी दिखाया गया है। यहां तक कि फिल्म में वह क्षण भी दिखाया गया है जब पार्टी कार्यकर्ता केजरीवाल से यह सवाल पूछ रहे हैं कि उन्होंने आखिर किस आधार पर चुनाव में उम्मीदवारों का चयन किया है। इस पूरी डॉक्यूमेंट्री का सबसे मजबूत पक्ष अभिनव त्यागी और मनन भट्ट की बेहतरीन एडिटिंग है। इसके कारण फिल्म देखते हुए आपको ऐसा लगता है कि आप कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं बल्कि एक थ्रिलर फिल्म देख रहे हैं। इस कारण आप आखिरी पलों तक फिल्म देखने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यह एक ऐसी छोटी भारतीय फिल्म है जो इतनी महत्वपूर्ण है जिसे शायद आप इस वीकेंड पर देखना पसंद करें।,1 "बंद मुठ्ठी तो लाख की, खुल गई तो खाक की। यह कहावत पूनम पांडे के मामले में एकदम खरी है। ऊटपटांग बयान और कम कपड़ों के फोटो के जरिये उन्होंने सुर्खियां बटोर ली। इस वजह से उन्हें ‘नशा’ नामक फिल्म भी मिल गई। जब एक्टिंग की बारी आई तो पूनम चारों खाने चित्त नजर आईं। चलिए, मान लेते हैं कि ‘नशा’ में पूनम की एक्टिंग देखने कोई नहीं जाएगा। दर्शक को इस बात का मतलब भी नहीं है कि पूनम खूबसूरत लगती हैं या नहीं? लेकिन बोल्ड सीन की आस लिए थिएटर गए दर्शकों के हाथ भी कुछ नहीं लगता। इससे तो बेहतर है कि इंटरनेट पर पूनम द्वारा अपलोड किए गए फोटो और वीडियो ही देख लिए जाए। पूनम से यदि एक्टिंग नहीं हुई है या उन्हें सेक्सी तरीके से पेश नहीं किया जा सका है तो इसमें दोष फिल्म के निर्देशक अमित सक्सेना का भी है। अमित ने दस वर्ष पूर्व जिस्म नामक फिल्म बनाई थी, जिसे बॉक्स ऑफिस पर सफलता के साथ सराहना भी मिली थी। अमित को दूसरी फिल्म निर्देशित करने का अवसर दस वर्ष बाद ‍क्यों मिला, ये ‘नशा’ देख समझा सकता है। अब तो शक होता है कि क्या ‘जिस्म’ भी अमित ने ही निर्देशित की थी? ‘नशा’ में न केवल वे कलाकारों से अभिनय ठीक से करवा सके बल्कि शॉट भी ठीक से नहीं ले सके। कहानी को स्क्रीन पर उतारने के मामले में वे पूरी तरह असफल रहे। हीरो दौड़ता रहता है और सोता रहता है, ये शॉट फिल्म में बीसियों बार देखने को मिलते हैं। उन्होंने शॉट्स को बेहद लंबा रखा है जिससे फिल्म बेहद उबाउ हो गई है। हो सकता है कि आप की आंख लग जाए और कुछ मिनट बाद खुले तो वही सीन चल रहा हो। कहानी है साहिल की, जिसकी उम्र अठारह वर्ष के आसपास है। वह अपनी 25 वर्षीय टीचर अनिता जोसेफ से एकतरफा प्यार करने लगता है। अपनी गर्लफ्रेंड को भी भूला देता है। साहिल को जब पता चलता है कि अनिता का सैम्युअल नामक बॉयफ्रेंड भी है तो उसके तन-बदन में आग लग जाती है। साहिल के एकतरफा प्यार का क्या हश्र होता है, ये फिल्म का सार है। कम उम्र के लड़का अपने से उम्र में बड़ी महिला के प्रति आकर्षित होने की बात नई नहीं है, क्योंकि इस बात को इरोटिक तरीके से पेश करने की गुंजाइश बहुत ज्यादा है। प्यार की त्रीवता के साथ कामुक दृश्यों के लिए स्थितियां बनती हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म पूरी तरह असफल है। न तो कहानी बांध कर रखती है और न ही फिल्म में ग्लैमर नजर आता है। साहिल का प्यार दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन यह वासना नजर आती है। उसकी गर्लफ्रेंड टिया का किरदार तो बेहद ही लचर है, जो साहिल से माफी मांगती फिरती है। पूनम पांडे ने टीचर का किरदार निभाया और एक टीचर इतने खुले कपड़े पहन बेशर्मी से स्टुडेंट के बीच कभी नहीं जाता। किसी तरह खींच कर कहानी को पेश किया गया है और फिल्म हर पहलू पर निराश करती है। संवाद से लेकर गीत तक स्तरहीन हैं। तीन-चार लोकेशन पर ही फिल्म पूरी कर दी गई है। ऐसा नहीं है कि कम बजट के कारण निर्देशक की यह मजबूरी थी, बल्कि कल्पनाशीलता का अभाव नजर आता है। पूनम पांडे अभिनय के मामले में निराश करती हैं। अभिनय की कई बेसिक बातें उन्हें नहीं पता हैं। कई दृश्यों में उनका मेकअप भी खराब है। शिवम पाटिल के चेहरे पर कोई भाव नजर नहीं आते। कुल मिलाकर ‘नशा’ ऐसी फिल्म है कि इसे देखो तो चढ़ा नशा भी उतर जाए। बैनर : ईगल होम एंटरटेनमेंट निर्माता : सुरेन्द्र सुनेजा, आदित्य भाटिया निर्देशक : अमित सक्सेना संगीत : सिद्धार्थ हल्दीपुर, संगीत हल्दीपुर कलाकार : पूनम पांडे, शिवम पाटिल ",0 "रेणुका व्यवहारेकहानी: 'मंटो' मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो की लाइफ पर बनी एक बायॉपिक है, जिसमें उनकी ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव से लेकर विवाद और खुशनुमा पलों को खूबसूरती से पिरोया गया है।रिव्यू: लेखकों की ज़िंदगी में एक अजीब सा अकेलापन होता है और उस अकेलेपन का साथी उन्हें काल्पनिक कहानियों और किरदारों में मिलता है, जो कहीं न कहीं सच्चाई से भी मेल खाते हैं। लोगों से घिरे होने के बावजूद वे अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं। या यूं कहें कि उन्हें अपनी असल और काल्पनिक ज़िंदगी के बीच तालमेल बिठाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। उर्दू के महान कवि और लेखक सआदत हसन मंटो को काल्पनिक दुनिया अपने आस-पास की असल दुनिया के मुकाबले कहीं ज़्यादा रियल लगी, बावजूद इसके उनकी कल्पना में समाज की कड़वी हकीकत ही रहती, खासकर वह कड़वी सच्चाई, जो उन्होंने खुद करीब से महसूस की। ऐक्ट्रेस और फिल्ममेकर नंदिता दास ने मंटो की ज़िंदगी में रियल और काल्पनिक समाज के बीच की इसी पृथकता को फिल्मी परदे पर बेहद दिलचस्प और दिल को छू जाने वाले अंदाज़ में उतारा है। मंटो की ज़िंदगी में सेंसर का अहम हिस्सा रहा। उनके लिखे लेखों पर सेंसरशिप से लेकर अश्लीलता तक के केस हुए। सेंसरशिप मंटो की ज़िंदगी में एक ऐसा हिस्सा था, जिसे उन्होंने आजीवन झेला और उस दौरान उनकी कैसी व्यथा, कैसी स्थिति रही होगी, इसे बेहद गहराई और खूबसूरती से नंदिता दास ने फिल्म में दिखाया है। उन्होंने भारत-पाक विभाजन से लेकर पुरुष प्रधान समाज वाली मानसिकता से लेकर धार्मिक असिहष्णुता, बॉम्बे के लिए प्यार जैसे कई वाकयों को दिलचस्प अंदाज़ में दर्शकों के लिए परोसा है। कार्तिक विजय की सिनेमटॉग्रफी और रीता घोष के प्रॉडक्शन डिज़ाइन से आजादी से पहले और उसके बाद का एक पर्फेक्ट सीन उभरकर सामने आता है। देखकर लगता है जैसे फिल्म उसी दौर में जाकर शूट की गई हो। और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के रत्न यानी नवाजुद्दीन सिद्दीकी को भला कैसे भूला जा सकता है। उन्होंने मंटो के किरदार में जान फूंक दी है।",1 " आइडिया अच्छा हो, लेकिन स्क्रिप्ट बुरी हो तो फिल्म बेमजा हो जाती है। बॉलीवुड में ढेर सारी ऐसी फिल्मों के उदाहरण हैं। ‘बजाते रहो’ इसका ताजा उदाहरण है। एक बेईमान और भ्रष्ट उद्योगपति से अपने पन्द्रह करोड़ रुपये वापस लेने के लिए तीन-चार लोग किस तरह तिकड़म लगाते हैं, ये ‘बजाते रहो’ में कॉमेडी और थ्रिल के साथ दिखाया गया है। कॉमेडी ऐसी है कि साफ नजर आता है कि दर्शकों को हंसाने की कोशिश की जा रही है और थ्रिल सिरे से नदारद है। मोहन सभरवाल (रविकिशन) अपनी बैंक में एक स्कीम के जरिये लोगों से पैसा लेने का जिम्मा अपने ईमानदार ऑफिसर बावेजा और एक महिला कर्मचारी को सौंपता है। जब पैसा वापस देने की बात आती है तो वह इन दोनों कर्मचारियों को फंसा देता है। बावेजा सदमा नहीं झेल पाता है और मर जाता है। महिला कर्मचारी को जेल हो जाती है। बावेजा की पत्नी (डॉली अहलूवालिया) और बेटा सुखी (तुषार कपूर) प्रण लेते हैं कि वे सभरवाल से पैसा निकालकर लोगों को चुकाएंगे। इस काम में उनकी मदद महिला कर्मचारी का पति मिंटू (विनय पाठक) और बल्लू (रणवीर शौरी) करते हैं। इस कहानी को निर्देशक और लेखक ने कॉमेडी तड़के के साथ पेश की है। कॉमेडी के नाम पर एसएमएस पर चलने वाले घिसे-पिटे जोक्स का सहारा लिया गया है। यदि एसएमएस के जोक्स ही सुनना है तो भला इतनी महंगी टिकट खरीद कर दर्शक फिल्म देखने के लिए क्यों जाए। जफर ए. खान और संजीव मेहता ने बिना मेहनत किए स्क्रिप्ट लिख दी है, जिसमें मनोरंजन का अभाव है। साथ ही दर्शकों को नासमझ मानते हुए उन्होंने लॉजिक को किनारे पर रख दिया गया है। सभरवाल को जिस तरह से ये बेवकूफ बनाते हैं, उसकी फैक्ट्री पर नकली छापा मारते हैं, उसके घर में घुसकर पन्द्रह करोड़ रुपये चुराते हैं वो अविश्वसनीय है। मजा तो तब आता जब सभरवाल को भी चालाक बताया जाता और उससे दो कदम आगे रहते मिसेस बावेजा एंड कंपनी अपना माल वापस लाने में कामयाब रहती। तुषार कपूर और विशाखा सिंह की प्रेम कहानी को भी बिना जगह बनाए फिल्म में घुसा दिया गया है ताकि हीरो-हीरोइन गाना गा सके। फिल्म का मूल प्लाट भी कमजोर है। कौन सी बैंक ऐसी है जो अपनी कर्मचारी की बेइमानी बता कर पल्ला झाड़ लेती है और कहती है कि कर्मचारी के परिवार से पैसा वसूला जाए। निर्देशक के रूप में शशांक ए. शाह ड्रामे को मनोरंजक नहीं बना पाए। बेहतरीन कलाकारों की उन्होंने टीम तो खड़ी कर ली, लेकिन लेखन की कमजोरी के कारण कलाकार एक सीमा के बाद असहाय नजर आए। विनय पाठक, रणवीर शौरी, डॉली अहलूवालिया जैसे कलाकारों का ठीक से उपयोग नहीं किया गया। तुषार कपूर अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। सबसे ज्यादा फुटेज मिला रवि किशन को और उन्होंने अपना किरदार ठीक से निभाया। गानों में ‘नागिन-नागिन’ गाना ही ठीक कहा जा सकता है। कुल मिलाकर ‘बजाते रहो’ एक ऐसी फिल्म है जिसका मनोरंजन से 36 का आंकड़ा है। बैनर : इरोज इंटरनेशनल, मल्टी स्क्रीन मीडिया निर्माता : कृषिका लुल्ला निर्देशक : शशांत ए. शाह संगीत : जयदेव कुमार कलाकार : तुषार कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, विशाखा सिंह, रवि किशन, डॉली अहलूवालिया सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 47 मिनट ",0 "संन्यास के बाद भी जब सौरव गांगुली ने आईपीएल में खेलना जारी रखा तब उनका स्वर्णिम दौर गुजर गया था और उन्हें नौसिखिए गेंदबाजों के आगे जूझते देख उनके प्रशंसकों भी ऐसा लगा कि उन्हें अब खेलना बंद कर देना चाहिए। कुछ ऐसा हाल सनी देओल का भी हो गया है। सुनहरा दौर बीत चुका है। 58 वर्ष की उम्र में लार्जर देन लाइफ किरदार के लिए वे फिट नज़र नहीं आते। घायल, घातक या गदर का सनी देओल पीछे छूट चुका है जो दहाड़ता था तो सिनेमाघर थर्रा उठता था। वे उस सनी देओल की अब परछाई मात्र हैं। 'घायल' (1990) फिल्म का सीक्वल 'घायल वंस अगेन' लेकर सनी हाजिर हुए हैं और इस फिल्म में 90 के दशक का हैंगओवर उन पर अभी भी है। उस दौर की फिल्मों में किसी लड़की से बलात्कार हो जाता था तो वह अपने आपको मुंह दिखाने लायक नहीं मानते हुए आत्महत्या कर लेती थी। अब फिल्मों में इस तरह के सीन नहीं आते क्योंकि बलात्कार में लड़की की कोई गलती नहीं होती, परंतु 'घायल वंस अगेन' में इस तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं। इस कारण 'घायल वंस अगेन' ऐसी फिल्म नजर आती है जिसकी एक्सपायरी डेट बहुत पहले खत्म हो चुकी है। 'घायल' के अंत में अजय मेहरा (सनी देओल) को सजा हो जाती है। 'घायल वंस अगेन' में दिखाया गया है कि अजय भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ इतना बड़ा नाम हो चुका है कि लोग उसके साथ सेल्फी लेते हैं। चार टीनएजर्स वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी करते हैं। कैमरे में एक मर्डर भी दर्ज हो जाता है। शक्तिशाली बिज़नेसमैन राज बंसल (नरेन्द्र झा) का बेटा यह मर्डर करता है। इन चार किशोरों से टेप ‍छीनने की कोशिश शुरू हो जाती है। इन किशोरों और राज बंसल के बीच अजय मेहरा नामक दीवार खड़ी हो जाती है। फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन स्क्रीनप्ले ने मामला गड़बड़ कर दिया है। सनी देओल और साथियों ने स्क्रीनप्ले और संवाद लिखे हैं। स्क्रीनप्ले 90 के दशक की फिल्मों की याद दिलाता है और इस पर 'घायल' की छाप नजर आती है। घायल में जो रोमांच, दमदार संवाद, सही उतार-चढ़ाव थे वो इसके सीक्वल में नदारद हैं। फिल्म में बहुत सारी बातें कहने की कोशिश की गई है, लेकिन मामला जम नहीं पाता। साथ ही यह दर्शकों को भी कन्फ्यूज करता है। समय का ध्यान ही नहीं रखा गया है। घटना घंटों में है या दिनों में, पता ही नहीं चलता। बस भागम-भाग चलती रहती है। साथ ही फिल्म विलेन को फोकस करती है। दर्शक सनी देओल को देखने आए हैं, लेकिन सनी को बहुत कम संवाद मिले हैं। फिल्म देखते समय कई तरह के प्रश्न भी उठते हैं जिनका जवाब नहीं मिलता। पीछा करने के कुछ दृश्य उबाने की हद तक लंबे है, जैसे शॉपिंग मॉल में इन बच्चों के पीछे बंसल के आदमी लगे रहते हैं। घायल वंस अ गेन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें सनी देओल ने अभिनय के साथ-साथ लेखन और निर्देशन की जिम्मेदारी भी निभाई है। फिल्म को सनी ने लुक तो आ‍धुनिक दिया है, लेकिन फिल्म को वे आउटडेटेट होने से नहीं बचा पाए। घायल से सीक्वल को जोड़ने की कोशिश में जरूर कामयाब रहे हैं, लेकिन फिल्म को वे मनोरंजन नहीं बना पाए। उन्होंने अपनी ही खूबियों का उपयोग नहीं किया। फिल्म का काफी हिस्सा हॉलीवुड एक्शन को-ऑर्डिनेटर डान ब्रेडले ने फिल्माया है क्योंकि फिल्म में लंबे एक्शन सीक्वेंसेस हैं। ड्रामे में बोरियत होने के कारण ये एक्शन सीन भी रोमांचित नहीं करते। सनी देओल एक्शन दृश्यों में फिट नजर नहीं आते। इमोशनल सीन में वे और बुरे लगे हैं। खलनायक के रूप में नरेन्द्र झा अप्रभावी रहे। वे सनी की टक्कर के विलेन नहीं लगते। अमरीश पुरी की तरह वे दहशत पैदा नहीं कर सके। सोहा अली खान का कैरेक्टर फिल्म में न भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ओम पुरी को फिल्म में इसलिए रखा गया ताकि पिछली फिल्म से कड़ी जोड़ी जा सके। मनोज जोशी थोड़ा मनोरंजन करते हैं। 'घायल वंस अगेन' से बेहतर है कि 'घायल' ही दोबारा देख ली जाए। बैनर : विजयेता फिल्म्स निर्माता-निर्देशक : सनी देओल संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : सनी देओल, सोहा अली खान, ओम पुरी, नरेन्द्र झा, शिवम पाटिल, आंचल मुंजाल, ऋषभ अरोरा, डायना खान, टिस्का चोपड़ा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 44 सेकंड ",0 "अपने बाद के सालों में इंग्लैंड की रानी और भारत की महारानी विक्टोरिया (जूडी डेंच) को एक भारतीय मुंशी अब्दुल करीम (अली फजल) की सोहबत में आराम और खुशी मिलने लगती है। आगे चलकर वही क्लर्क महारानी का उर्दू टीचर, धार्मिक सलाहकार और सबसे नजदीकी हमराज और विश्वासपात्र मित्र बन जाता है। श्राबनी बासु की किताब की अद्भुत लेकिन सच्ची कहानी पर आधारित यह फिल्म ढेर सारे भावों को लिए हुए है जो इस दोस्ती के बारे में बताती है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। साथ ही इस दोस्ती की वजह से राजघराने में जो गुस्सा और सनक पैदा होती है उसे भी फिल्म में दिखाया गया है।रिव्यू: स्टीफन फ्रीअर्स अपनी इस फिल्म की शुरुआत में दर्शकों को रानी विक्टोरिया के उस नीरस रूटीन से अवगत कराते हैं जिसमें रानी अपनी स्वर्ण जयंती वर्ष (1887) के दौरान सामाजिक बाध्यता की वजह से लोगों से मिलती-जुलती हैं। इसी तरह के एक राजशाही जलसे के दौरान रानी की नजर अब्दुल पर पड़ती है। बड़ी-बड़ी आंखों वाला भारतीय लड़का जो रानी को तोहफे के रूप में औपचारिक सिक्का यानी मोहर प्रदान करता है। अब्दुल को पहले ही इस बात की चेतावनी दी गई थी कि उसे रानी विक्टोरिया की तरफ बिल्कुल नहीं देखना है। बावजूद इसके अब्दुल ने अपने अंदर मौजूद बचकानी हरकतों के हाथों मजबूर होकर रानी की तरफ देखने लगा और वहां मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त गौरवान्वित लोगों की मौजूदगी के बीच जब रानी से उसकी नजरें मिलीं तो उसने एक हल्की सी मुस्कान दे दी। प्रोटोकॉल की परवाह न करते हुए भी अब्दुल ने जो हल्की सी छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी उससे रानी इमोशनल हो गईं। बेशक एक हिंदू अटेंडेंट के रानी पर बढ़ते प्रभाव से राजघराने के परिवार के सदस्य और नौकर परेशान होने लगते हैं लेकिन बाद में पता चलता है कि वह हिंदू नहीं बल्कि मुस्लिम है। 82 साल की उम्र में जूडी डेंच दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर पाने में पूरी सफल नज़र आ रहीं। स्क्रीन पर केवल उनकी मौजूदगी ही आपका ध्यान नहीं खींचेगी बल्कि उनकी निगाहों से शरारत, उदासी, अकेलापन, तड़प जैसे कई भाव आपको स्पष्ट नज़र आएंगे। उन्होंने बड़ी सहजता से अपने इस किरदार में जान डाल दी है। आपका दिल इस उम्रदराज ऐक्ट्रेस के लिए तब पसीज जाएगा जब वह खुद को लेकर खयालों में खो जाती हैं, तेज हवाएं चल रही और अब्दुल से कहती हैं, 'जिसे भी मैंने प्यार किया वह नहीं रहा, लेकिन मैं आगे बढ़ती रही।' डेंच ही वह वजह हैं जो इस दिलचस्प कहानी को एक 'स्कैंडल' में तब्दील होने से रोकती हैं।इन अविश्वसनीय मौकों का फायदा उठाते हुए अली फज़ल खुद को लेजंड (डेंच) के सामने खड़ा कर पाने में सफल दिख रहे। स्टीफन फ्रीअर्स ने अली की ऐक्टिंग, नर्वस एनर्जी और जोश को अब्दुल के किरदार में बखूबी पिरोया है। हालांकि, उनका मुंशी वाला किरदार आपको काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देगा, जिसे लेकर एक रहस्य अंत तक बरकरार रह जाएगा। एक इंडियन इंग्लैंड की महारानी के लिए इतना समर्पित क्यों, जिसने उसके देश पर राज किया है? यहां तक कि वह खुशी-खुशी उनके पैर पर किस करता है। क्या वह वाकई भोला-भाला है या फिर मौकापरस्त? एक व्यक्ति के रूप में वह क्या चाहता था?फिल्म की कहानी अब्दुल को सिर्फ एक तमाशबीन बना देती है और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है। फिल्म वहां पर डगमगाती दिखती है, जब वह अचानक अपना गियर चेंज करती है यानी जब फिल्म अचानक एक थकाऊ ट्रैजिडी से क्रॉस कल्चर कॉमिडी की तरफ मोड़ ले लेती है।अनियमित कहानी और इतिहास से जुड़ी गलतियों के बावजूद विक्टोरिया और अब्दुल एक दिलचस्प फिल्म है और इसे देखने के लिए जूडी डेंच एक बहुत बड़ी वजह हैं।",0 "वैसे तो एक क्रेज़ी वन-नाइट स्टैंड से शुरू हुआ रिश्ता अंत में रिलेशनशिप पर जाकर खत्म होता है। लेकिन धरम और शायरा काफी जल्दी एक-दूसरे से बोर हो जाते हैं और जिंदगी उन्हें किस मोड़ पर ले आती है, यही है फिल्म की कहानी। रिव्यू: आज से तकरीबन बीस साल पहले निर्माता-निर्देशक आदित्य चोपड़ा 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' जैसी सुपरहिट प्रेम कहानी लेकर आए थे, जिसमें जुनूनी प्रेम के साथ-साथ सशक्त पारिवारिक मूल्यों की बात भी थी। फिल्म में नायिका काजोल जब नायक शाहरुख खान से कहती है, 'मुझे भगाकर ले चलो' तो नायक उसकी इस दुस्साहसी पहल से इनकार कर देता है। उसका मानना है कि वह नायिका के पिता और परिवार का दिल जीतकर ही अपनी दुल्हनियां को ले जाएगा। मगर अब 21 साल बाद न केवल प्रेम की परिभाषा बदल गई है, बल्कि सामाजिक मूल्यों में भी परिवर्तन आ चुका है। आदित्य चोपड़ा की 'बेफिक्रे' में नायिका वाणी कपूर अपने बॉयफ्रेंड रणवीर सिंह को अपने घर ले जाती है और माता-पिता के सामने ऐलान कर देती है कि वह नायक रणवीर के संग लिव इन रिलेशनशिप में रहने जा रही है और इसके लिए वह उनकी आज्ञा नहीं ले रही बल्कि उन्हें सूचित कर रही है। आदित्य की 'बेफिक्रे' आज के उन युवाओं की कहानी है, जिनके लिए प्यार, चुंबन, संभोग, लिव इन, ब्रेकअप सब कुछ इंस्टंट फ़ूड की तरह है। और इस इंस्टंट कॉन्सेप्ट में अपने लिए सही साथी को चुनने का जबरदस्त कन्फ्यूजन भी है। पिछले कुछ अरसे से प्रेम कहानियों के मामले में बॉलिवुड प्यार, दोस्ती और कन्फ्यूजन जैसे मुद्दों पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। 'लव आजकल', 'तामाशा', 'शुद्ध देसी रोमांस', 'ऐ दिल है मुश्किल', 'डियर जिंदगी' जैसी तमाम फिल्मों में इन्हीं मुद्दों को उलटफेर के साथ परोसा गया है। इस बार आदित्य चोपड़ा ने आज के यूथ से अपने कनेक्शन को परखने के लिए 'बेफिक्रे' में दो ऐसे युवाओं को चुना जो प्रेम और विवाह जैसे कमिटमेंट से कोसों दूर हैं। धरम (रणवीर सिंह) और शायरा (वाणी कपूर) का हाल ही में ब्रेकअप हुआ है। कहानी एक गाने के साथ फ्लैशबैक में पहुंचती है। वन नाइट स्टैंड के तहत धरम और शायरा की मुलाकात होती है। दोनों इस बात पर एकमत हैं कि जिस्मानी रूप से एक होने का मतलब यह कतई नहीं कि दोनों में प्यार हों। दोनों ही अपनी तरह के बेफिक्रे हैं। एक-दूसरे को अजीबो-गरीब डेयर देते हुए दोनों करीब आते हैं और फिर अचानक लिव इन का फैसला करते हैं, मगर इस शर्त के साथ कि दोनों उनके बीच प्यार वाली फीलिंग नहीं लाने देंगे। धरम खुद को हवस का पुजारी बताता है और शायरा खुद को फ्रेंच लड़की के रूप में देखती है। एक साल के साथ रहने के दौरान दोनों को अहसास होता है कि वे एक-दूसरे के लिए नहीं बने हैं और तब दोनों आपसी सहमति से ब्रेकअप कर लेते हैं। ब्रेकअप के बाद दोनों अच्छे दोस्त बनने का फैसला करते हैं। एक-दूसरे के आड़े वक्त में काम आकर दोस्ती निभाते भी हैं और इसी सिलसिले में शायरा को एक बैंकर शादी के लिए प्रपोज करता है। धरम एक अच्छे दोस्त की मानिंद उसे अपना घर बसाने की सलाह देता है। यहां धरम भी अपने लिए एक फ्रेंच लड़की को चुनता है। दोनों की शादी तय होती है, मगर जैसे-जैसे शादी की तारीख पास आती है, दोनों के बीच शादी और प्यार को लेकर कन्फ्यूजन पैदा हो जाता है। 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे', 'मोहब्बतें', 'रब ने बना दी जोड़ी' के बाद 'बेफिक्रे' तक आते-आते आदित्य चोपड़ा प्यार-मोहब्बत के मामले में कुछ ज्यादा ही 'बेफिक्रे' नजर आए हैं। हालांकि, अपने बोल्डनेस को जस्टिफाई करने के लिए उन्हें पैरिस का माहौल दर्शाना पड़ा है। कहानी पुरानी है, जहां आदित्य नायिका को उन्मुक्त दर्शाने के बावजूद खांचे से बाहर नहीं निकाल पाए हैं। ब्रेकअप के बाद जहां नायक कई लड़कियों के साथ हमबिस्तर होता है, वहीं नायिका किसी से रिश्ता नहीं बनाती। उन्होंने आज के युवाओं के माइंडसेट की पड़ताल करने की कोशिश की है, मगर कहानी का ढीलापन उन्हें कमजोर कर देता है। इटरनल रोमांस के लिए जाने जानेवाले आदित्य यहां चूक जाते हैं। इंटरवल तक कहानी हॉलिवुड फिल्म का फील देती है, मगर उसके बाद वह यशराज की परंपरा का निर्वाह करती नजर आती है। पैरिस को नए ढंग से दर्शाने के लिए ओनोयामा की दाद देनी होगी। फिल्म के कई दृश्य कमाल के बन पड़े हैं, जो मनोरंजन के साथ-साथ जगह से बांधे रखते हैं। इंटरवल के बाद रणवीर-वाणी के बीच का डांस सीक्वेंस गजब का बन पड़ा है। रणवीर फिल्म में संजीवनी बूटी का काम करते हैं। कई दृश्यों में वे इतने सहज हैं कि महसूस ही नहीं होता कि वह अभिनय कर रहे हैं। उनकी शरारत, बचपना, दुविधा, पागलपन जैसे तमाम भावों को वह बिना किसी मशक्कत के निभा ले जाते हैं। फिल्म के एक दृश्य में रणबीर को न्यूड दर्शाया गया है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। वाणी ने अपने किरदार को सार्थक बंनाने की हरचंद कोशिश की है, मगर उनका लुक और चेहरे के हाव-भाव कहीं कमतर साबित होते हैं। हां नृत्य में वह पारंगत नजर आई हैं। विशाल-शेखर के संगीत में 'नशे में चढ़ गई' और 'उड़े दिल बेफिक्रे' फिल्म की रिलीज से पहले ही लोकप्रिय हो चुके हैं। इनका फिल्मांकन बहुत ही खूबसूरती से हुआ है। ",1 "निर्माता : रमेश एस. तौरानी निर्देशक : राजकुमार संतोषी संगीत : प्रीतम कलाकार : रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, उपेन पटेल, दर्शन जरीवाला, गोविंद नामदेव, स्मिता जयकर, जाकिर हुसैन, सलमान खान ( विशेष भूमिका) * यू सर्टिफिकेट * 16 रील * दो घंटे 34 मिनट ’अंदाज अपना अपना’ जैसी कॉमेडी फिल्म बनाने के कई वर्षों बाद निर्देशक राजकुमार संतोषी ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ के जरिये फिर कॉमेडी की और लौटे हैं। एक फिर उन्होंने साबित किया है कि वे बेहतरीन कॉमेडी फिल्म बना सकते हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ में दर्शकों का हँसना पहली रील से शुरू होता है और वो सिलसिला फिल्म की अंतिम रील तक चलता है। ‍फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शक मुस्कुराते हुए सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं। वीं फेल, बेकार बैठे रहने वाला और जब दिल भर आए तो हकलाने वाला प्रेम (रणबीर कपूर) हैप्पी क्लब का प्रेसीडेंट है। इस क्लब में उसके जैसे कुछ और लड़के हैं, जो अपने पिताओं की डाँट से बचने के लिए टाइम पास करने इस क्लब में आते हैं। हैप्पी क्लब के सदस्य उन छोकरा-छोकरियों को मिलाने की कोशिश करते हैं, जो आपस में प्यार करते हैं। इसके लिए वे लड़की का अपहरण तक कर लेते हैं। प्रेम की मुलाकात जेनी (कैटरीना कैफ) से होती है, जो उसे अपहरणकर्ता समझ लेती है, लेकिन बाद में उसकी गलतफहमी दूर होती है। जेनी भी दिल भर आने पर हकलाती है। प्रेम के दिल को जेनी भा जाती है। जेनी का वह वर्णन करता है ‘बाल सिल्की, गाल मिल्की, अरे ये तो वेनिला आइस्क्रीम है’। प्रेम उसे चाहने लगता है, लेकिन जेनी उसे अपना दोस्त मानती है। जेनी के दिल में तो राहुल (उपेन पटेल) बसा हुआ है। राहुल के माता-पिता अपने बेटे और जेनी की शादी के खिलाफ है। इस मामले में सच्चा प्रेमी बन प्रेम, जेनी और राहुल की मदद करता है। थोड़े नाटकीय दृश्य घटते हैं, कुछ हंगामा होता है और जेनी, प्रेम की हो जाती है। फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। सैकड़ों बार इस तरह की कहानी हम देख चुके हैं। लेकिन जो बात इस फिल्म को खास बनाती है वो है इसका प्रस्तुतिकरण। स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है कि हँसी का सिलसिला थमता ही नहीं है। एक दृश्य को देख हँसी थमती नहीं कि दूसरा आ टपकता है। कॉमेडी का स्तर पूरी फिल्म में एक जैसा बना रहता है। कॉमेडी के लिए दृश्य गढ़े नहीं गए हैं और ना ही इन्हें ठूँसा गया है, बल्कि कहानी इन हल्के-फुल्के दृश्यों के सहारे आगे-बढ़ती रहती है। फिल्म में कई मजेदार दृश्य हैं। रणबीर का चर्च में प्रार्थना करना, रणबीर और उसके पिता के बीच की नोकझोंक, रणबीर का नौकरी पर जाना, सलमान खान वाला प्रसंग, पार्टी वाला दृश्य, क्लाइमैक्स सीन। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने रोमांस और कॉमेडी का संतुलन बनाए रखा है और हास्य को अश्लीलता से दूर रखा है। 80 के दशक में बनने वाली फिल्मों का टच इसमें दिखाई देता है। उन्होंने नया करने के बजाय ये ध्यान में रखकर फिल्म बनाई है कि दर्शकों को क्या पसंद है और उसी चीज को उन्होंने दोहराया है। साथ ही उन्होंने अपने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय कराया है। रणबीर का किरदार उन्होंने इस तरह पेश किया है कि दर्शक उससे जुड़ जाता है। फिल्म की कहानी में कुछ खामियाँ है, लेकिन हास्य के तले वो दब जाती हैं। रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की कैमेस्ट्री गजब ढाती है। दोनों इस समय युवा वर्ग के चहेते हैं और आने वाले दिनों में ये सफल जोड़ी साबित हो सकती है। रणबीर ने प्रेम के किरदार को बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। कॉमेडी करते समय वे लाउड नहीं हुए और न ही उन्होंने तरह-तरह के चेहरे बनाकर दर्शकों को हँसाने की कोशिश की है। दर्शक अब उन्हें बेहद पसंद करने लगे हैं और उन्होंने सुपरस्टार्स की नींद उड़ानी शुरू कर दी है। कैटरीना अब खूबसूरत गुडि़या ही नहीं रही है, अभिनय भी करने लगी हैं। रणबीर के पिता के रूप में दर्शन जरीवाला का अभिनय शानदार है। मेहमान कलाकार के रूप में सलमान खान दर्शकों को खुश कर देते हैं। उपेन पटेल अभिनय के नाम पर चेहरे बनाते हैं, लेकिन संतोषी ने उनकी कमजोरियों को खूबियों में बदल दिया है। प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध कुछ गाने अच्छे हैं तो कुछ बुरे। ‘तेरा होने लगा हूँ’, ‘तू जाने ना’ और ‘प्रेम की नैया’ अच्छे बन पड़े हैं। कुल मिलाकर ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ बच्चे, बूढ़े और नौजवान सभी को पसंद आएगी। ",1 "नैतिकता और कानून देश दर देश बदल जाते हैं। समलैंगिकता को लेकर पूरे विश्व में बहस छिड़ी हुई है। भारत में इसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध माना जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कमेटी इस पर विचार कर रही है कि इसे अपराध की श्रेणी में रखना चाहिए या नहीं? स्वतंत्रता के हिमायती कहते हैं कि उन्हें अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वहीं कई लोग इसे अपनी संस्कृति के खिलाफ मानते हैं। इन्हीं बातों को फिल्म 'अलीगढ़' के माध्यम से निर्देशक हंसल मेहता ने उठाया है। वास्तविक घटनाओं को आधार बनाकर फिल्म बनाई गई है कि किस तरह से समलैंगिक व्यक्ति को समाज हिकारत से देखता है और उसे नौकरी से हटा दिया जाता है मानो वह अपराधी हो। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में डॉ. श्रीनिवास रामचंद्र सिरस (मनोज बाजपेयी) मराठी पढ़ाते हैं। प्रोफेसर सिरस एकदम सामान्य हैं। अपनी एकांत जिंदगी में वे लता मंगेशकर के पुराने गाने सुनते हैं, दो पैग व्हिस्की के पीते हैं और अपनी शारीरिक जरूरत को पूरा करने के लिए अपनी चॉइस से खुश हैं। किसी का बुरा करने में उनका यकीन नहीं है। आसपास के लोगों को उनसे जलन होती है तो वह कहते हैं 'बाहर का आदमी माना जाता हूं। शादीशुदा लोगों के बीच अकेला रहता हूं। उर्दू बोलने वाले शहर में मराठी सीखाता हूं।' साजिश रची जाती है। एक टीवी चैनल उनका स्टिंग ऑपरेशन करता है जिसमें सिरस एक रिक्शा चालक के साथ आलिंगन करते नजर आते हैं। उनके इस कृत्य को यूनिवर्सिटी की छवि पर धब्बा माना जाता है। समलैंगिकता के आरोप में उन्हें रीडर और आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया जाता है। मीडिया इसे 'सेक्स स्कैंडल' मानते हुए चटखारे लेकर खबर को प्रकाशित करता है। हुदड़ंगी लोग प्रोफेसर सिरस का पुतला फूंकते है। दीपू नामक पत्रकार इसमें मानवीय कोण देखता है। उसे सिरस के समलैंगिक होने के बजाय इस बात से ऐतराज है कि कैसे कुछ लोग सिरस के बेडरूम में घुस कर उनके नितांत निजी क्षणों को कैमरे में कैद कर सावर्जनिक कर देते हैं। उनके खिलाफ क्यों कोई एक्शन नहीं लेता? दीपू का लेख छपने के बाद कुछ लोग सिरस की मदद के लिए आगे आते हैं। वे यूनिवर्सिटी के फैसले को अदालत में चुनौती देते हैं कि समलैंगिक होने की वजह से बर्खास्त करना गलत है। फैसला प्रोफेसर सिरस के पक्ष में जाता है। हालांकि अदालत में सिरस को कई चुभने वाले सवालों, जैसे, 64 वर्ष की उम्र में आप सेक्स कैसे कर लेते हैं? या पुरुष की भूमिका में कौन था?, का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें लगता है कि अमेरिका में बस जाना चाहिए जहां इस तरह के लोगों को इज्जत हासिल है। हिंदी फिल्मों में आमतौर पर 'गे' को बहुत हास्यास्पद तरीके से दिखाया जाता है। कानों में बाली पहने, एकदम चिकने, कलाइयों को मोड़ कर बात करने वाले और नजाकत सी चाल वालों को 'गे' दिखाया जाता है जिनकी हट्टे-कट्टे पुरुषों को देख लार टपकती रहती है। 'अलीगढ़' में जिस तरह से इस किरदार को पेश किया गया है, हिंदी सिनेमा के इतिहास में शायद ही पहले कभी देखने को मिला हो। फिल्म इस पक्ष को जोरदार तरीके से रखती है कि 'समलैंगिकों' को देखने की दृष्टि में अब बदलाव की जरूरत है। साथ ही यह फिल्म मीडिया की भूमिका और नितांत क्षणों को कैमरे में कैद करने वाले तथाकथित पत्रकारों के खिलाफ भी आवाज उठाती है। सिरस की जिंदगी को थोड़ा विस्तार के साथ दिखाया जाता तो बेहतर होता। आखिर क्यों वे महाराष्ट्र छोड़कर अलीगढ़ आए? विद्यार्थियों के साथ उनके रिश्ते कैसे थे? इससे फिल्म में और गहराई आ सकती थी। अली गढ़ के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें शाहिद और सिटीलाइट जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले निर्देशक हंसल मेहता एक बार फिर दमदार फिल्म लेकर हाजिर हुए हैं। सिरस के किरदार पर निर्देशक ने खासी मेहनत की है। समलैंगिक होने पर समाज उन्हें हिकारत से देखता है और इससे सिरस अवसाद में चले जाते हैं। उनके अवसाद, दु:ख और एकाकीपन को निर्देशक ने लोकेशन और लाइट्स के इफेक्ट्‍स से बखूबी दिखाया है। किरदारों से ज्यादा सेट और बेजान चीजें बोलती हैं। फिल्म में उन्होंने बैकग्राउंड म्युजिक और संवादों का बहुत ही कम उपयोग किया है। खामोशी और वातावरण के जरिये उन्होंने बखूबी माहौल तैयार किया है जो सिरस के अंदर चल रही हलचल को सामने लाता है। फिल्म के आखिर में एक कमाल का सीन हंसल मेहता ने रचा है जिसमें श्मशान घाट में पत्रकार दीपू रोती हुई महिला से सवाल-जवाब करता है और उसी समय उसे प्रोफेसर सिरसा की मौत की खबर मिलती है। मनोज बाजपेयी ने अपने अभिनय के उच्चतम स्तर को छूआ है। उनका अभिनय हिला कर रख देता है। उनकी आंखे और चेहरे के भाव संवाद से ज्यादा बोलते हैं। अपने अंदर की उदासी और अकेलेपन को वे अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिये बखूबी पेश करते हैं। नि:संदेह अभिनय के स्तर पर यह फिल्म उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। राजुकमार राव खुद बड़ा नाम बन गए हैं, लेकिन हंसल मेहता से रिश्तों के चलते उन्होंने सहायक भूमिका निभाई है। हालांकि उनके ऑफिस का माहौल नकली लगता है, लेकिन अलग सोच रखने वाले पत्रकार की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई है, जो मोटर चालू/बंद करने की छोटी बात भूल जाता है, लेकिन मुद्दे की बात बखूबी पकड़ता है। एक पेइंग गेस्ट की मुसीबतों को राजकुमार के किरदार के माध्यम से अच्छे से दिखाया गया है। छोटे रोल में आशीष विद्यार्थी भी प्रभावित करते हैं। समलैंगिकता ऐसा मुद्दा है जिस पर बहस की जाए तो खत्म ही न हो। आप इसके पक्ष में हो या विपक्ष में, लेकिन 'अलीगढ़' इस मुद्दे को कुछ ऐसे सुलगते अंदाज में पेश करती है कि आप सोचने को मजबूर हो जाते हैं। बैनर : कर्मा पिक्चर्स, इरोज़ इंटरनेशनल निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, संदीप सिंह, हंसल मेहता निर्देशक : हंसल मेहता संगीत : करण कुलकर्णी कलाकार : मनोज बाजपेयी, राजकुमार राव, आशीष विद्यार्थी सेंसर सर्टिफिकेट : ए ",1 "वेड विल्सन यानी कि डेडपूल (रेयान रेनॉल्डस) कई इंटरनैशनल गैंग्स का खात्मा कर देता है और उसके बाद अपनी गर्लफ्रेंड के साथ फैमिली शुरू करने की प्लानिंग करता है, लेकिन गुस्साए गुंडे उस पर हमला करते हैं, जिसमें उसकी गर्लफ्रेंड की मौत हो जाती है। जिंदगी से निराश डेडपूल उसके नए मायने तलाश रहा है। तभी उसकी जिंदगी में नए 14 साल के बच्चे की एंट्री होती है, जिस पर भविष्य से आए एक आदमी केबल (जोश ब्रोलिन) का अटैक होता है। डेडपूल अपनी गर्लफ्रेंड की प्रेरणा से उस बच्चे को बचाने और सही राह पर लाने के लिए एक्स फोर्स तैयार करता है। उसकी खातिर वह किसी भी खतरे का मुकाबला करने को तैयार है। हालांकि अपनी फोर्स के साथ डेडपूल अपने मकसद में कामयाब हो पाता है या नहीं यह देखने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। अभी तक हॉलिवुड फिल्मों को भारतीय दर्शक उनके बेहतरीन ऐक्शन की वजह से पसंद करते रहे हैं, लेकिन अब उनकी बॉलिवुड स्टार्स द्वारा मजाकिया अंदाज में की गई हिंदी डबिंग भी हिंदी फिल्मों के दर्शकों के लिए हॉलिवुड फिल्मों को देखने की एक वजह बन गई है। वहीं हॉलिवुड के निर्माता भी इंडियन मार्केट पर विशेष फोकस कर रहे हैं कि खासतौर पर हिंदी बॉलिवुड स्टार्स से डबिंग करा रहे हैं। 'डेडपूल 2' में डेडपूल के लिए हिंदी में डबिंग करने वाले रणवीर सिंह की मजेदार डबिंग आपको न सिर्फ पूरी फिल्म के दौरान हंसाती रहती है, बल्कि उसको पूरी तरह से भारतीय अंदाज में बदल देती है। फिल्म की डबिंग में आपको 'बाहुबली 2' से लेकर 'दंगल', 'सुल्तान' और 'गीता-बबीता' तक का जिक्र मिलेगा, तो उम्मीद है कि 'डेडपूल 2' आपको आपको अपनी फिल्म लगेगी। अगर आपने इंग्लिश में 'डेडपूल 2' देखी है और फिर उसको हिंदी में देख रहे हैं, तो यकीनन फिल्म आपको एकदम बदली हुई लगेगी। रणवीर सिंह ने अपने अंदाज के मुताबिक, मजेदार और कहीं-कहीं अश्लील अंदाज में डबिंग की है, जो दर्शकों को गुदगुदाती है, तो कहीं-कहीं वे झेंप भी जाते हैं। बहरहाल सुबह के शोज में मल्टीप्लेक्स से लेकर सिंगल स्क्रीन तक भारी मात्रा में पहुंचे दर्शक इस बात की गवाही दे रहे थे कि डेडपूल का भारतीय दर्शकों में खासा क्रेज है। फिल्म में उम्मीद के मुताबिक, जबर्दस्त ऐक्शन सीन हैं, जो आपको हिलाकर रख देंगे। अगर आप गर्मियों की छुट्टियों में कुछ मजेदार देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी बशर्ते कि आप फिल्म के कुछ भद्दे और अश्लील डायलॉग को झेलने का दम रखते हों। साथ ही फिल्म देखने जाते वक्त अपने साथ बच्चों को भी सोच-समझकर ही लेकर जाएं।",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आपको राम गोपाल वर्मा की बॉक्स ऑफिस पर पिछली सुपरहिट फिल्म का नाम बताने के लिए कहा जाए तो यकीनन आपको थोड़ा वक्त जरूर लगेगा, पिछले कुछ समय से रामू बॉलिवुड में अपनी फिल्मों से ज्यादा अलग-अलग सोशल नेटवर्किंग साइट्स अपने अजीबोगरीब ट्वीट्स को लेकर सुर्खियों में रहे हैं। रामू की इस फिल्म की बात करें तो बेशक यह फिल्म बस ठीक-ठाक है। लोकेशन और लीड किरदार के सिलेक्शन में रामू ने बाजी मारी तो फिल्म के दूसरे अहम किरदार एसटीएफ ऑफिसर कानन के रोल में सचिन जोशी का सिलेक्शन यकीनन रामू की मजबूरी लगती है। दरअसल, सचिन की वाइफ रैना जोशी इस फिल्म की को-प्रड्यूसर हैं, ऐसे में सचिन को फिल्म में एक अहम किरदार देना कहीं न कहीं रामू की मजबूरी रही होगी। बेशक, रामू ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी धमाकेदार एंट्री के लिए उसी फिल्म को हिंदी में बनाने के लिए चुना, जिसने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया था, साउथ में रामू ने किलिंग वीरप्पन बनाई और फिल्म हिट रही। इस बार रामू ने इस फिल्म को हिंदी में बनाकर अपनी वापसी की। कहानी : करीब तीस साल तक कर्नाटक और तमिलनाडु के जंगलों में अपना राज स्थापित कर चुके चंदन तस्कर वीरप्पन (संदीप भारद्वाज) जंगल के एक-एक कोने को इस तरह से जानता है कि पुलिस कभी उसके पास तक भी नहीं आ पाती। अगर कभी पुलिस की कोई टुकड़ी वीरप्पन के पास पहुंचने में कामयाब हो भी जाती तो वीरप्पन ने पुलिस के जवानों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। बारह-चौदह साल की उम्र में वीरप्पन फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के सिपाहियों को चाय पिलाता है। इसी उम्र में वीप्पन ने पहली बार बंदूक भी फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के इन्हीं सिपाहियों से सीखी। जंगल में डयूटी करने वाले यही सिपाही वीरप्पन से हाथियों का शिकार करवाते। वीरप्प्न हाथियों को मारता है और पुलिस वाले हाथी दांत से होने वाली मोटी कमाई में से सौ-दो सौ रुपये उसे भी दे देते है। कुछ दिनों बाद जब पुलिस वाले वीरप्पन को ऐसा करने से रोकते हैं तो वह उन्हें ही मारकर जंगल में भाग जाता है। कुछ दिनों बाद उसके कुछ दोस्त भी उसके गिरोह में शामिल हो जाते हैं। शुरुआत में पुलिस वीरप्पन को हल्के में लेती है, लेकिन जब उसका आंतक बढ़ने लगता है तो उसे पकड़ने के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक की सरकारें स्पेशल टास्क का गठन करती है। टास्क फोर्स की टुकड़ी हर बार घने जंगलों में उसे पकड़ने निकलती है, लेकिन नाकाम होकर लौटती है। ऐसे में, टास्क फोर्स का अफसर कानन (सचिन जोशी) वीरप्पन को पकड़ने के लिए एक प्लान बनाता है। इस प्लान में कानन एसटीएफ के उस ऑफिसर की पत्नी को भी शामिल करता है, जिसे वीरप्पन ने बड़ी बेरहमी के साथ मार डाला था। कानन उसी ऑफिसर की पत्नी प्रिया (लीज़ा रे) को प्लान में शामिल करके वीरप्पन की पत्नी मुथुलक्ष्मी (उषा जाधव) तक पहुंचता है। देखें, 'वीरप्पन' का ट्रेलर ऐक्टिंग : संदीप भारद्वाज ने वीरप्पन के किरदार को अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। स्क्रीन पर संदीप को देखकर नब्बे के दशक का वीरप्पन दर्शकों के जेहन में घूमने लगता है। संदीप की डायलॉग डिलीवरी उसके हाव-भाव और बोलने का स्टाइल जानदार है। वहीं फिल्म में एसटीएफ ऑफिसर कानन के किरदार में सचिन जोशी की ऐक्टिंग को देखकर लगता है जैसे डायरेक्टर उनसे जबरन ऐक्टिंग करवा रहे हैं। लीज़ा रे कहीं प्रभावित नहीं कर पाती हैं। वहीं वीरप्पन की पत्नी के किरदार में उषा जाधव को बेशक रामू ने कम फुटेज दी, लेकिन इसके बावजूद उषा ने अपने किरदार को अपनी दमदार ऐक्टिंग से पावरफुल बना दिया। निर्देशन : रामू की तारीफ करनी होगी कि वह वीरप्पन के खौफ को पर्दे पर उतारने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं। रामू ने नब्बे के दौर में मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे वीरप्पन की चालाकियों और उसके काम करने के तरीके के साथ-साथ उसके शातिरपना अंदाज़ को पर्दे पर ईमानदारी के साथ उतारा। वहीं, वीरप्पन के साथ साथ फिल्म में सचिन जोशी यानी एसटीएफ ऑफिसर कानन को उनके कद से कहीं ज्यादा फुटेज देकर फिल्म की रफ्तार को कम कर दिया। इस बार रामू ने स्क्रिप्ट पर ध्यान दिया, लेकिन वीरप्पन के साथ जुड़े कुछ खास प्रसंगों को उन्होंने न जाने क्यों टच तक नहीं किया, यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। संगीत : आइटम सॉन्ग का फिल्मांकन अच्छा है, लेकिन फिल्म में ऐसा दूसरा कोई गाना नहीं जो हॉल से बाहर आकर आपको याद रह पाए। क्यों देखें : अगर रामू के फैन हैं और एडल्ट तो इस फिल्म को देखा जा सकता है, वीरप्पन के किरदार में संदीप भारद्वाज इस फिल्म की यूएसपी है तो वहीं सचिन जोशी कमजोर कड़ी हैं। ",0 "आम टीचर पढ़ाता है, अच्छा टीचर समझाता है और बहुत अच्छा टीचर करके दिखाता है, लेकिन कोई खास टीचर आपकी प्रेरणा बन जाता है, जिसे आप पूरी जिंदगी नहीं भूल पाते। ऐसी ही प्रेरणा देने वाले अपने टीचर मिस्टर खान से प्रेरित फिल्म 'हिचकी' की नैना माथुर (रानी मुखर्जी) की जिंदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। नैना टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित है, जिस वजह से उसे बार-बार हिचकी आती है। इसी वजह से उसे बचपन में 12 स्कूल बदलने पड़े। पिछले 5 सालों में 18 स्कूलों से रिजेक्ट होने के बाद भी वह टीचिंग में करियर बनाना चाहती है। कई बार नकारे जाने के बाद आखिरकार नैना को अपने ही स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिल हुए गरीब बच्चों को पढ़ाने का चैलेंज मिलता है। शुरुआत में नैना को उन बच्चों को पढ़ाने में तमाम दिक्कतें आती हैं। बच्चे भी नैना की जमकर हूटिंग करते हैं। नैना उन बच्चों को सुधारने में कामयाब होती है या नहीं, यह तो आपको सिनेमा जाकर ही पता लगेगा, लेकिन इतना तय है कि इस तरह की फिल्में समाज में टॉरेट सिंड्रोम जैसी बीमारियों को लेकर जागरूकता लाने का काम करती हैं, जिन्हें आमतौर पर हम हंसी में उड़ा देते हैं। इस फिल्म में रानी का किरदार अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन से प्रेरित है, जो कि टॉरेट सिंड्रोम के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी कामयाब टीचर बने। उन्होंने अपनी लाइफ पर एक किताब लिखी, जिस पर 2008 में फ्रंट ऑफ द क्लास नाम से अमेरिकन फिल्म भी आई। 'हिचकी' इसी फिल्म पर आधारित है। रानी की पिछली फिल्म 'मर्दानी' आदित्य चोपड़ा से शादी के बाद 2014 में आई थी। इस फिल्म में भी रानी की ऐक्टिंग को काफी पसंद किया गया था। अपनी बेटी अदिरा के जन्म के चलते 4 साल के लंबे गैप के बाद रानी ने सिल्वर स्क्रीन पर वापसी के लिए एक मजबूत कहानी पर बनी 'हिचकी' जैसी फिल्म चुनी है। रानी ने अपने किरदार के साथ पूरी तरह न्याय भी किया। उन्होंने टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित नैना माथुर के रोल को पूरी तरह जिया है। साथी कलाकारों के आवश्यक सहयोग के बावजूद फिल्म को रानी पूरी तरह अपने कंधों लेकर चलती हैं और यह पूरी तरह उनकी फिल्म है। ब्लैक जैसी दमदार फिल्म कर चुकी रानी ने दिखा दिया कि वह इमोशनल रोल को पूरे दमखम के साथ कर सकती हैं। वहीं फिल्म के डायरेक्टर सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा ने इस इमोशनल स्टोरी को खूबसूरती से पर्दे पर उतारा है। खासकर वह आपको शुरुआत से लेकर आखिर तक बांधे रखते हैं। इसके अलावा फिल्म का क्लाइमैक्स भी दमदार है।फिल्म के गाने कहानी से मैच करते हैं। अगर आप रानी के फैन हैं और कुछ लीक से हटकर देखना चाहते हैं, तो इस वीकेंड आपको यह फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए। ...और हां, जिंदगी के असली सबक सिखाने के लिए अपने बच्चों को जरूर अपने साथ सिनेमा ले जाएं।",0 "बैनर : एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड निर्माता : एकता कपूर निर्देशक : सचिन यार्डी संगीत : सचिन-जिगर, शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : तुषार कपूर, रितेश देशमुख, नेहा शर्मा, सारा जेन डायस, अनुपम खेर, चंकी पांडे, रोहित शेट्टी (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 16 मिनट 30 सेकंड क्या सुपर कूल हैं हम बनाने वालों का कहना है कि उनकी फिल्म एडल्ट कॉमेडी है, लेकिन एडल्ट कॉमेडी का मतलब केवल डबल मीनिंग डायलॉग ही नहीं होता है। एक एडल्ट थीम वाली कहानी भी जरूरी है जिस पर ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा जाए जो वयस्क मन को गुदगुदाए। क्या सुपर कूल हैं' देख ऐसा लगता है कि इससे जुड़े लोगों को यही नहीं पता है कि एडल्ट कॉमेडी क्या होती है। एसएमएस में चलने वाले थके हुए जोक्स, द्विअर्थी संवाद और फूहड़ता को कॉमेडी के नाम पर पेश ‍किया गया है। फिल्म देखते समय सचिन यार्डी नामक शख्स की सोच पर हैरत होती है। उन्होंने अपने मानसिक दिवालियेपन के ढेर सारे सबूत दिए हैं। अनुपम खेर वाला ट्रेक तो इतना घटिया है कि उसे देख सी-ग्रेड फिल्म बनाने वाले भी गर्व महसूस कर सकते हैं। अनुपम खेर को थ्री जी नामक बाबा एक कुतिया देकर बोलता है तुम्हारी स्वर्गवासी मां लौट आई है। अनुपम उसे मां बोलते हुए बड़े प्यार से रखते हैं। उस कुतिया से एक कुत्ता संबंध बना लेता है तो बाबा अनुपम से कहते हैं कि यह तुम्हारा बाप है। करोड़पति अनुपम उस कुत्ते को भी पाल लेता है और उनकी शादी कराते हैं। इसमें प्रसंग में जो संवाद बोले गए हैं वो स्तरहीन हैं। अनुपम खेर इतने गरीब तो नहीं हुए हैं कि उन्हें पेट भरने के लिए ऐसे रोल करना पड़ रहे हैं। वे एक्टिंग सिखाते हैं और यह फिल्म उन्हें अपने स्टुडेंट्स को जरूर दिखाना चाहिए ये बताने के लिए कि एक्टिंग कभी भी ऐसे नहीं करना चाहिए। सचिन यार्डी फिल्म के निर्देशक होने के साथ लेखक भी हैं और निर्देशक पर लेखक हावी है। पहले उन्होंने ऐसे शब्द चुनें जिनके आधार पर डबल मीनिंग डायलॉग लिखे जा सके। फिर डायलॉग लिखकर उन्होंने दृश्य बनाए और इनकी एसेम्बलिंग कर फिल्म तैयार की गई। कहानी का फिल्म में कोई मतलब ही नहीं है, सिर्फ बेहूदा हरकतों और घटिया संवादों के सहारे फिल्म पूरी की गई है। तुतलाने वालों का, काले रंग वालों का तथा कई नामों का मजाक उड़ाया गया है, जैसे फखरू, फखरी, पेंटी, मेरी रोज़ मार्ले, लेले। इनका कई बार इस्तेमाल किया गया है जिससे ऐसा लगता है कि लेखक को कुछ नया नहीं सूझ रहा है। निर्देशक के रूप में सचिन का काम सिर्फ अपनी लिखी कहानी को फिल्माना था। उनके डायरेक्शन में इमेजिनेशन नहीं है। न गानों के लिए अच्छी सिचुएशन बनाई गई है और न ही दृश्यों के बीच कोई लिंक है। इमोशन डालने की कोशिश फिजूल नजर आती है। इंटरवल के बाद जरूर कुछ ऐसे सीन हैं जिन्हें देख हंसा जा सकता है वरना ज्यादातर दृश्यों को देख ऐसा लगता है कि हंसाने की फिजूल कोशिश की जा रही है। तुषार कपूर का अभिनय अच्छे से बुरे के बीच झूलता रहता है। रितेश देशमुख बुझे-बुझे से रहे। नेहा शर्मा ने ओवर एक्टिंग की। सारा जेन डियास आत्मविश्वास से भरपूर नजर आईं। चंकी पांडे और अनुपम खेर ने एक्टिंग के नाम पर जोकरनुमा हरकतें कीं। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर लगती है। डबल मीनिंग डायलॉग या फूहड़ता आटे में नमक बराबर हो तो अच्छी लगती है, लेकिन जब पूरा ही नमक हो तो स्वाद बेमजा हो जाता है। यदि आप पूरी‍ फिल्म में मारो, लेले, चाट, पेंटी, देदे.... जैसे ढेर सारे शब्द सुनना पसंद करते हैं तो ही यह फिल्म आपको मजा दे सकती है। ",0 "बैनर : सार्थक मूवीज, ज़ेड 3 पिक्चर्स प्रोडक्शन कहानी-निर्देशक : मिलिन्द गडकर कलाकार : सुदीप, अमृता खानविलकर, एहसास चान्ना, नीरू सिंह, ज़ाकिर हुसैन * केवल वयस्कों के लिए * एक घंटा 52 मिनट कम लागत की होने की वजह से ‘फूँक’ का नाम सफल फिल्मों की सूची में शामिल हो गया और इस फिल्म का सीक्वल ‘फूँक 2’ बनाने का कारण रामगोपाल वर्मा को मिल गया। इस फिल्म का निर्माण ही इसीलिए किया गया है ताकि ‘फूँक’ की सफलता का फायदा उठाया जाए। कुछ डरावने सीन फिल्मा लिए गए और उन्हें एक अधूरी कहानी में पिरोकर ‘फूँक 2’ का नाम दे दिया गया। नि:संदेह कुछ दृश्य डरात े हैं, लेकिन अच्छी कहानी का साथ इन्हें मिलता तो बात ही कुछ और होती। फिल्म का अंत इसका सबसे बड़ा माइनस पाइंट है। ऐसा लगता है कि अभी कहानी में कुछ बातें बाकी हैं, लेकिन ‘द एंड’ हो जाता है। मधु की मौत के साथ ही ‘फूँक’ खत्म हुई थी, जिसने राजीव (सुदीप) की बेटी रक्षा (एहसास चान्ना) पर काला जादू कर दिया था। राजीव अब नई जगह पर रहने के लिए आ गया है। समुद्र किनारे और घने जंगल के बीच उसका घर है। रक्षा को एक दिन जंगल में गु‍ड़िया मिलती है, जिसे वह घर ले आती है। इसके बाद पूरे परिवार के साथ रहस्मय और डरावनी घटनाएँ घटने लगती हैं। राजीव की पत्नी आरती (अमृता खानविलकर) के शरीर में मधु का भूत आ जाता है और वह पूरे परिवार को मार डालने की धमकी देता है। राजीव को तांत्रिक मंजा (जाकिर हुसैन) की याद आती है, जिसने पिछली बार उसकी बेटी को मधु के काले जादू से बचाया था। वह उसके पास पहुँचे इसके पहले ही मंजा मारा जाता है। इधर मधु का भूत आरती के अंदर प्रवेश कर राजीव की बहन, नौकरानी, गॉर्ड की हत्या कर देता है और रक्षा को मारना चाहता है। फिल्म के अंत में रक्षा को राजीव बचा लेता है और आरती के अंदर से भूत निकल जाता है। लेकिन वह कहाँ गया? राजीव के सामने क्यों नहीं आया? रक्षा को मारने का उसने दोबारा प्रयास क्यों नहीं किया? ऐसे ढेर सारे सवाल दर्शक के मन में उठते हैं जिनका जवाब नहीं दिया गया। साथ ही फिल्म का अंत इस तरह से किया गया है कि शैतानी ताकत की विजय का आभास होता है, जबकि सभी उसे पराजित होता देखना चाहते थे। ‘फूँक’ का निर्देशन रामगोपाल वर्मा ने किया था, जबकि सीक्वल को निर्देशित किया इस फिल्म के लेखक मिलिंद गडकर ने। मिलिंद पर रामगोपाल वर्मा का प्रभाव साफ नजर आता है। कुछ डरावने और चौंकाने वाले दृश्य उन्होंने अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन सारे दृश्यों के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती, खासतौर पर मध्यांतर के पूर्व वाला हिस्सा बोरिंग है। कहानी इतनी धीमी गति से आगे बढ़ती है कि नींद आने लगती है। कुछ दृश्यों में निर्देशक की कमजोरी झलकती है। इंटरवल के बाद जब भूत की एंट्री होती है उसके बाद घटनाक्रम में तेजी आती है और ‍कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। लेकिन मिलिंद ने फिल्म का अंत बेहद घटिया और अधूरे तरीके से किया है। एक राइटर के रूप में वे निराश करते हैं। एक्टिंग डिपार्टमेंट की बात की जाए तो सुदीप, अमृता और बाल कलाकारों ने अच्छा काम किया है। नीरू और अमित निराश करते हैं। कैमरा मूवमेंट रामगोपाल वर्मा की फिल्मों जैसा है। बैक ग्राउंड म्यूजिक के जरिये जरूरत से ज्यादा डराने की कोशिश की गई है। आमतौर ‍पर ‍सीक्वल को एक कदम आगे होना चाहिए, लेकिन ‘फूँक 2’ ‘फूँक’ से दो कदम पीछे है। ",0 "डांस को लेकर भारत में जो दीवानगी इस समय है, पहले कभी नहीं देखी गई। टीवी पर प्रसारित होने वाले डांस रियलिटी शो ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। टीनएजर्स में इस दीवानगी को देखते हुए गली-गली में डांस सिखाने वाले स्कूल खुल गए और यह कमाई का बड़ा जरिया बन गया। डांस पसंद करने वालों का एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हो गया जिसे ध्यान में रख कर कोरियोग्राफर रेमो डिसूजा ने 'एनी बडी केन डांस एबीसीडी' निर्देशित की थी। यह कमजोर फिल्म थी, लेकिन डांस के कारण यह फिल्म सफल सिद्ध हुई। यही वजह है कि इसके सीक्वल 'एबीसीडी2' में रेमो को बड़ा बजट मिला। लास वेगास में फिल्म का बड़ा हिस्सा शूट किया गया। वरुण धवन और श्रद्धा कपूर जैसे सितारे इसमें काम करने के लिए राजी हो गए। एबीसीडी में रेमो ने अपने संघर्ष के अनुभव के आधार पर बनाई थी तो 'एबीसीडी 2' बनाने की प्रेरणा उन्हें नालासोपारा के एक डांस ग्रुप से मिली जो अपने ऊपर लगे 'चीटर्स' के दाग को धोकर लास वेगास का हिपहॉप प्रतियोगिता जीतना चाहते हैं। सुरेश (वरुण धवन) इस ग्रुप का लीडर है। विष्णु (प्रभुदेवा) कई मिन्नतों के बाद इस ग्रुप का गुरु बनता है। पहले वे बंगलौर में क्वालीफाई राउंड में हिस्सा लेते हैं। बाद में लास वेगास जाने के लिए 25 लाख रुपये का इंतजाम कर वहां पहुंचते हैं जहां कई देशों के दिग्गज डांसर्स से उनका मुकाबला होता है। कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब विष्णु रुपये लेकर गायब हो जाता है। इसके अलावा कई बाधाएं उनके रास्ते में आती हैं जिनका वे डटकर मुकाबला करते हैं। रेमो डिसूजा ने कोरियोग्राफी, लेखन और निर्देशन की तिहरी जिम्मेदारी निभाई है। कहानी उनकी ही है और स्क्रीनप्ले उन्होंने तुषार हीरानंदानी के साथ मिलकर लिखा है। 'एबीसीडी 2' का सबसे कमजोर पक्ष इसका लेखन ही है। रेमो को लिखने का मोह छोड़ देना चाहिए क्योंकि वे नया नहीं सोच पा रहे हैं। 'एबीसीडी 2' में कहानी जैसी कोई बात है नहीं और यह लगभग 'एबीसीडी' की तरह है। इंटरवल तक तो उन्होंने किसी तरह खींच लिया, लेकिन बाद में यह फिल्म बिखर जाती है और फिर क्लाइमैक्स में ही संभलती है। रेमो का लेखन एक पैकेज की तरह है कि तीन इमोशनल सीन, चार कॉमेडी सीन और डांस डालकर दर्शकों को खुश कर दो। विष्णु के पैसे लेकर गायब होना और उसकी पर्सनल लाइफ वाला ट्रेक निहायत ही कमजोर साबित हुआ है। ऐन मौके पर विनी (श्रद्धा कपूर) के पैर में चोट लगना और उसकी जगह लॉरेन को लाना भी केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। रेमो ने बार-बार डांसर्स के सामने मुसीबत खड़ी की और तुरंत ही उसका समाधान हाजिर किया। यह सारी बातें इतनी सतही हैं कि दर्शकों को छूती नहीं है। अच्छा तो यह होगा कि रेमो फिल्म किसी और से लिखवाए और खुद निर्देशन करें। पिछली फिल्मों से तुलना की जाए तो निर्देशक के रूप में रेमो का विकास हुआ है। अब वे कलाकारों से अच्छा अभिनय लेने लगे हैं और फिल्म पर पकड़ भी बनाने लगे हैं। सीन को बेहतर तरीके से फिल्माने लगे हैं। अपने लेखन की कमजोरी को उन्होंने कुशल निर्देशन से बचाने की कोशिश भी की है। जहां फिल्म कमजोर पड़ी वहीं पर उन्होंने एक बेहतरीन डांस डालकर दर्शकों को खुश किया है। साथ ही उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह का है कि बीच-बीच में मनोरंजन का डोज देकर दर्शकों को उन्होंने पूरी फिल्म से जोड़ कर रखा है। क्लाइमैक्स में उन्होंने 'वंदे मातरम' को जोड़ देशभक्ति वाला कार्ड कुशलता से खेला है। रेमो मूलत: कोरियोग्राफर हैं और कोरियोग्राफी इस फिल्म का मजबूत पक्ष है। उन्होंने प्रभुदेवा, वरुण, धर्मेश, पुनीत, लॉरेन जैसे कलाकारों की एंट्री एक बेहतरीन डांस के साथ रख दर्शकों को खुश किया है। 'हैप्पी ऑवर' में प्रभुदेवा का डांस देखने लायक है। 'बेजुबान फिर से' और 'वंदे मातरम' की कोरियोग्राफी बेहतरीन है। भव्य सेट होने के कारण आंखों को गाने देखने में अच्छे लगते हैं। ए बी सी डी 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। कहा जा सकता है कि बॉलीवुड में 'एबीसीडी 2' के पहले इतने बेहतरीन थ्री-इफेक्ट्स कभी नहीं देखे गए। कई सीन थ्री-डी इफेक्ट्स के कारण प्रभावित करते हैं। इसके लिए तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। यदि आप फिल्म देखना चाहें तो थ्री-डी में ही देखे, इससे मजा निश्चित रूप से बढ़ जाता है। चूंकि फिल्म एक ग्रुप की कहानी है, इसलिए लीड रोल में होने के बावजूद वरुण धवन को ज्यादा फुटेज नहीं दिया गया है। वे ग्रुप का एक हिस्सा ही नजर आते हैं। एक्टिंग से ज्यादा वे डांस के द्वारा प्रभावित करते हैं। श्रद्धा कपूर को ज्यादा अवसर नहीं मिले हैं। यूं भी रेमो की फिल्मों में महिला किरदार के लिए कम ही जगह रहती है। डांस ग्रुप में वे एकमात्र महिला सदस्य रहती हैं। बाद में लॉरेन आकर जुड़ती हैं। लॉरेन के डांस तारीफ के काबिल हैं। प्रभुदेवा ने खुल कर अभिनय नहीं किया है। शायद भाषा की समस्या उनके सामने रहती है। धर्मेश, पुनीत, राघव को डांस और अभिनय का अवसर भी मिला है। 'एबीसीडी 2' में कुछ दिक्कते हैं, इसके बावजूद यह फिल्म अपनी टारगेट ऑडियंस को खुश करती है। बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, वाल्ट डिजनी पिक्चर्स निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक : रेमो डिसूजा संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : वरुण धवन, श्रद्धा कपूर, प्रभुदेवा, राघव जुयाल, पुनीत पाठक, धर्मेश येलांदे, लॉरेन, प्राची शाह सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 34 मिनट ",1 "किसी भी फिल्म को देखते समय यदि घड़ी पर निगाह जाए तो यह लक्षण फिल्म के लिए अच्छा नहीं रहता। इंद्र कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' देखते समय तो लगता है कि घड़ी बंद ही हो गई है। मस्ती तो दूर फिल्म देखते समय सुस्ती छा जाती है और दो घंटे कैद से कम नहीं लगते। यह इस सीरिज की तीसरी फिल्म है। पहली फिल्म 'मस्ती' सही मायनो में एडल्ट मूवी थी। दूसरा भाग बहुत ज्यादा वल्गर था और एडल्ट कॉमेडी के नाम पर कचरा दिखाया गया था। ग्रेट ग्रैंड मस्ती में कॉमेडी के साथ हॉरर जोड़ दिया गया है और यह दर्शकों के साथ ट्रेजेडी है। फिल्म में वही तीन किरदार हैं, अमर (रितेश देशमुख), प्रेम (आफताब शिवदासानी) और मीत (विवेक ओबेरॉय)। सेक्स लाइफ से अंसतुष्ट हैं। अमर की बीवी हाथ नहीं लगाने देती। प्रेम की साली और मीत का साला कबाब में हड्डी है। परेशान होकर ये दूधवाडी गांव जाने का फैसला करते हैं जहां पर अमर की पुरानी हवेली है। उस भू‍तिया हवेली कहा जाता है और अमर उसे बेचना चाहता है। हवेली में तीनों दोस्तों की मुलाकात शबरी (उर्वशी रौटेला) से होती जो बेहद खूबसूरत और सेक्सी है। शबरी को देख अमर, प्रेम और मीत की लार टपकने लगती है। तीनों के यह जान कर होश उड़ गए कि शबरी एक चुड़ैल है। तीनों में से किसी एक के साथ संबंध बना कर वह मुक्ति चाहती है। साथ ही वह जिसके साथ संबंध बनाएगी उसकी मृत्यु हो जाएगी। किस तरह से चुड़ैल के चंगुल से ये मनचले मुक्त होते हैं यह फिल्म का सार है। कहानी पढ़कर आप जान ही गए होंगे कि कितनी बेतुकी और बेसिर-पैर कहानी है। लिखने वाले का नाम भी जान लीजिए- तुषार हीरनंदानी। दर्शकों को बेवकूफ समझ कर यह कहानी उन्होंने लिख डाली। दूसरा आश्चर्य यह है कि निर्देशक इंद्र कुमार इस पर फिल्म बनाने को तैयार हो गए और निर्माता पैसा लगाने को। द अनुपम खेर शो की बात याद आ गई- कुछ भी हो सकता है। मधुर शर्मा और अभिषेक कौशिक ने ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा है कि लॉजिक तो छोड़िए जरा सा भी दिमाग नहीं लगाया गया। घटिया चुटकलों से कहानी को आगे बढ़ाया गया है। इससे बेहतर चुटकुले तो व्हाट्स एप पर पढ़ने को मिल जाते हैं। हर किरदार बेवकूफ है और बेवकूफी करता रहता है। इसे ही हास्य समझ लिया गया है। थोड़े समय बाद ही यह कहानी हांफने लगती है और किसी तरह आगे बढ़ा कर करवा चौथ जैसी परंपरा का तड़का लगा कर इसे खत्म किया गया है। दो कौड़ी की कहानी और स्क्रीनप्ले पर इंद्र कुमार ने बकवास फिल्म बना डाली है। अपने निर्देशन के जरिये वे फिल्म को मनोरंजक नहीं बना पाए। एक हवेली में ही उन्होंने फिल्म को पूरा कर डाला। ऐसा लगा मानो 'सुपर नानी' के पिटने का बदला वे दर्शकों से गिन-गिन कर ले रहे हों। ग्रेट ग्रैंड मस्ती के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें सारे कलाकारों ने घटिया अभिनय किया है। विवेक ओबेरॉय मिसफिट लगे। उनका अभिनय देख लगा कि उन्हें खुद अपने रोल पर यकीन नहीं है। द्विअर्थी संवादों और हरकतों वाली फिल्मों में सदैव रितेश देशमुख की डिमांड रहती है। यहां भी उन्होंने जानी-पहचानी हरकतें अभिनय के नाम पर की है। आफताब शिवदासानी की गाड़ी इसी तरह की फिल्मों के जरिये चल रही है। एक्टिंग करना तो वे कब के भूल गए। उर्वशी रौटेला हॉट लगी हैं, लेकिन एक्टिंग से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं है। अन्य कलाकार चीखते-चिल्लाते नजर आए। गीतों के नाम पर शोर है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। निर्माता ने जहां-तहां से पैसे बचाए हैं। फिल्म का एक पात्र बोलता रहता है कि ये क्या 'भूतियापा' है... फिल्म देखने के बाद दर्शकों के मुंह से भी इससे मिलता-जुलता शब्द निकलता है। बैनर : मारूति इंटरनेशनल, एएलटी एंटरटेनमेंट, श्री अधिकारी ब्रदर्स निर्माता : समीर नायर, अमन गिल, अशोक ठाकेरिया, आनंद पंडित, एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : इन्द्र कुमार संगीत : शरीब साबरी, तोषी साबरी कलाकार : विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी, उर्वशी रौटेला, पूजा बैनर्जी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट 18 सेकंड ",0 "अपनी पिछली फिल्म्स 'देव डी' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से दर्शकों की एक खास क्लास के साथ मीडिया में अपनी अलग पहचान बना चुके डायरेक्टर श्लोक शर्मा की यह फिल्म करीब 3 साल पहले रिलीज होनी चाहिए थी। पिछले तीन साल से तैयार इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी ने भारत में इस फिल्म को रिलीज करने से पहले इसे कुछ नामी फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाने का फैसला किया। जिसका कंपनी को फायदा भी मिला। इस फिल्म ने 'लॉस ऐंजिलिस फिल्म फेस्टिवल इंडिया कैटेगिरी' में अवॉर्ड हासिल करने के साथ कई और फेस्टिवल में अवॉर्ड जीते। न्यू यॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी को बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड मिला तो इस फिल्म से पहले 'मसान' और 'त्रिष्णा' में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवा चुकी श्वेता त्रिपाठी को भी बेस्ट ऐक्ट्रेस का अवॉर्ड मिला। वहीं, अगर इंडियन बॉक्स ऑफिस पर हम हरामखोर के भविष्य की बात करें तो ऐसा नहीं लगता कि इतने अवॉर्ड मिलने के बावजूद फिल्म बॉक्स आफिस पर कोई करिश्मा कर पाएगी। दरअसल, लंबे इंतजार के बाद अब जाकर रिलीज हुई इस फिल्म का क्रेज ज्यादा नजर नहीं आ रहा है। वैसे भी यह फिल्म दीपिका पादुकोण की हॉलिवुड ऐक्शन फिल्म xx और आदित्य रॉय कपूर-श्रद्धा कपूर की रोमांटिक फिल्म 'ओके जानू' के साथ रिलीज हो रही है। ऐसे में 'हरामखोर' सीमित और अलग क्लास की फिल्म के शौकीनों के बीच ही सिमटकर रह जाएगी। कहानी: मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव के सरकारी स्कूल में श्याम टेकचंद (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) मैथ टीचर हैं, सुबह स्कूल में पढ़ाने के बाद शाम को वह अपने घर में भी स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स को टयूशन देते हैं। श्याम शुरू से ही कुछ रंगीले स्वभाव का रहा है, कुछ अर्सा पहले उसने अपनी ही एक स्टूडेंट सुनीता से शादी कर ली थी। अब श्याम की क्लास में संध्या शर्मा (श्वेता त्रिपाठी) नाम की एक करीब पंद्रह साल की स्टूडेंट भी पढ़ती है, संध्या खूबसूरत है, काफी अर्से से श्याम की उस पर खास नजर है। स्कूल के बाद शाम को संध्या के साथ दो लड़के कमल और मिंटू के अलावा कुछ और स्टूडेंट्स भी श्याम से पढ़ते हैं। कमल दिल ही दिल में संध्या को चाहता है और छोटी उम्र के बावजूद उससे शादी करने का ख्याली पुलाव पका रहा है। कमल का बेस्टफ्रेंड मिंटू इसमें उसकी मदद कर रहा है। दूसरी और श्याम भी संध्या के साथ संबध बनाना चाहता है। संध्या के पिता पुलिस इंस्पेक्टर हैं और ज्यादातर नशे में धुत रहते हैं। पिता के साथ रह रही संध्या इस सच को भी जानती है कि उसके पिता किसी और के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में है। श्याम अक्सर संध्या को ट्यूशन पढ़ाने के बाद उसके साथ घर तक छोडने चल देता है, ऐसे ही एक दिन इन दोनों के बीच नाजायज रिश्ता बन जाता है, वहीं कमल अब भी संध्या के साथ शादी करने का प्लान बनाने में लगा है, एक स्कूल टीचर और नाबालिग स्टूडेंट के बीच पनपती नाजायज रिश्तों की यह कहानी एक बेहद खतरनाक मोड़ पर जाकर खत्म होती है । ऐक्टिंग: फिल्म के दोनों लीड कलाकारों नवाजुद्दीन सिद्दीकी और श्वेता त्रिपाठी ने किरदारों को अपने जीवंत अभिनय से लाजवाब बना दिया है। गांव के एक छोटे से स्कूल के टीचर के किरदार में नवाजुद्दीन ने एक बार फिर साबित किया कि उनमें हर किरदार को बेहतरीन तरीके से निभाने की क्षमता है। वहीं श्वेता त्रिपाठी का भी जवाब नहीं । साथ ही तारीफ करनी होगी फिल्म में कमल और मिंटू का किरदार निभाने वाले दो बाल कलाकारों मास्टर इरफान खान और मोहम्मद समद की। दोनों जब भी स्क्रीन पर आते है, तभी दर्शक सुस्त रफ्तार से आगे खिसकती इस डार्क फिल्म में रिलैक्स महसूस करते है। निर्देशन: ऐसा लगता है रीयल लोकेशन पर शूट इस फिल्म की स्क्रिप्ट पर कंपलीट काम नहीं हुआ। फिल्म की एडिटिंग काफी बिखरी बिखरी है तो फिल्म का सब्जेकट कुछ ज्यादा ही बोल्ड होने की वजह से सेंसर बोर्ड ने फिल्म को कई डिस्क्लेमर के साथ पास किया है। जो फिल्म के बीच बीच में स्क्रीन पर दिखाई देकर दर्शकों को डिस्टर्ब करने का काम करते है। वहीं संध्या के पिता के किरदार पर ज्यादा काम नहीं किया गया, रात को शराब के नशे में धुत होकर घर वापस आने के कुछ सीन्स के अलावा पिता पुत्री के बीच चंद संवाद तक सिमटे इस किरदार पर अगर फुल होमवर्क किया जाता तो पिता -पुत्री के बीच का रिश्ता भी इस कहानी का अहम हिस्सा बन पाता। ऐसी फिल्मों की खास ऑडियंस होती है और इस सिमटी ऑडियंस को श्लोक शर्मा की इस फिल्म में कुछ अलग नजर आ जाएगा। संगीत: बैकग्राउंड में सिर्फ एक गाना है जिसका कहानी से कहीं दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है। क्यों देखें: अगर आपको कुछ अलग और लीक से हटकर बनी फिल्म देखना पसंद है जो विदेशी फेस्टिवल में अवॉर्ड जीतकर आती है, तो इस फिल्म को देखने जरूर जाएं। ",1 "कुदरत का नियम है कि आप जिस चीज से जितना दूर भागते हैं, वह आपके उतना ही नजदीक आती जाती है। विशाल भारद्वाज की राजस्थान के एक छोटे से गांव में बेस्ड फिल्म 'पटाखा' भी ऐसी ही दो बहनों चंपा उर्फ बड़की (राधिका मदान) और गेंदा उर्फ छुटकी (सान्या मल्होत्रा) की कहानी है, जो एक दूसरे से दूर होना चाहती हैं, लेकिन किस्मत उन्हें फिर साथ ले पटकती है। छुटकी और बड़की बचपन से ही आपस में बिना बात के खूब लड़ती हैं। गांव में ही रहने वाला डिपर (सुनील ग्रोवर) ना सिर्फ दोनों बहनों में लड़ाई लगवाने का कोई मौका नहीं गंवाता, बल्कि उनको लड़ते देख खूब मजे भी करता है। दोनों बहनों का बापू (विजय राज) अपनी दोनों बेटियों को बहुत चाहता है। इसी वजह से उसने दूसरी शादी भी नहीं की। लेकिन अपनी बेटियों के बीच रोजाना होने वाले युद्ध से वह भी आजिज आ जाता है। गांव का एक अमीर आदमी पटेल (सानंद वर्मा) बापू की दोनों लड़कियों पर लट्टू है। एक बार किसी मजबूरी में फंस कर बापू अपनी बड़की की शादी पटेल से करने के बदले उससे मोटी रकम ले लेता है। लेकिन बड़की शादी से पहले दिन अपने बॉयफ्रेंड जगन के साथ भाग जाती है। बेचारा बापू छुटकी की शादी पटेल से तय करता है, तो वह भी बड़ी बहन की तरह अपने बॉयफ्रेंड के साथ भाग जाती है। वह तो उन्हें ससुराल जाकर ही पता लगता है कि उनके पति सगे भाई हैं और उनकी किस्मत उन्हें फिर से एक साथ ले आई है। एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन बहनें आगे की जिंदगी में क्या गुल खिलाती हैं? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा।देसी अंदाज की फिल्मों के महारथी माने जाने वाले विशाल भारद्वाज अब तक कई उपन्यासों पर फिल्में बना चुके हैं। लेकिन इस बार विशाल ने फिल्म बनाने के लिए चरण सिंह पथिक की शॉर्ट स्टोरी दो बहनें को चुना है। विशाल को यह कहानी इतनी पसंद आई कि उन्होंने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने से लेकर निर्देशन तक का जिम्मा खुद उठा लिया। लेकिन अफसोस कि विशाल इस कहानी से दर्शकों के लिए एक अदद मनोरंजक फिल्म नहीं बना पाए। यह देसी कहानी इतनी ज्यादा देसी हो जाती है कि शहरी दर्शकों का इससे इत्तेफाक रख पाना आसान नहीं होगा। कुछ सीन को छोड़ दें, तो फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको काफी बोर करता है। आप इस उम्मीद में सेकंड हाफ की फिल्म को झेलते हैं कि शायद कुछ मनोरंजक देखने को मिले, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान ने अपने रोल्स को ठीक-ठाक निभाया है। हालांकि विजय राज और सुनील ग्रोवर ने बढ़िया एक्टिंग की है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से वे भी दर्शकों को फिल्म से जोड़ नहीं पाते। फिल्म का संगीत भी औसत है। अगर आप देसी फिल्मों और विशाल भारद्वाज के फैन हैं, तो अपने रिस्क पर फिल्म देखने जाएं। देखिए, फिल्म के बारे में क्या कहते हैं दर्शक: ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड के किंग खान को सिल्वर स्क्रीन के साथ-साथ रीयल लाइफ में भी खुद को सुपरस्टार के तौर पर देखना और अपनी फिल्मी इमेज को रीयल लाइफ के साथ जोडना कुछ ज्यादा ही पसंद है, करीब 6 साल पहले किंग खान ने बतौर प्रड्यूसर अपनी कंपनी के बैनर तले बिल्लू टाइटिल से फिल्म बनाई, इस फिल्म में भी किंग खान ने सिल्वर स्क्रीन के सुपरस्टार साहिर खान का किरदार किया, जिसमें फैन एक छोटे से गांव मे अपने चहेते सुपरस्टार की एक झलक पाने के लिए घंटों धूप में तपते रहते हैं तो सहिर खान की फिल्म की शूटिंग देखने के लिए एक ऊंचे पेड की टहनी पर जोखिम लेकर बैठे रहते हैं। बेशक बिल्लू की कहानी एक सुपरस्टार और उसके बिछड़े गरीब दोस्त के इर्दगिर्द घूमती थी, वहीं फैन सुपरस्टार के एक ऐसे फैन की कहानी है जो अपने चहेते सुपरस्टार से मिलने और उसके साथ चंद मिनट बिताने की खातिर कुछ भी कर सकता है। इस फिल्म में किंग खान ने सुपरस्टार आर्यन खन्ना का किरदार निभाया है जो कामयाबी की बुलंदियों पर है। उसके लाखों फैन हैं लेकिन आर्यन अपने सबसे बड़े फैन के लिए चंद मिनट का वक्त भी नहीं निकालता। यश राज फिल्म्स कैंप के साथ इससे पहले बैंड बाजा बारात, लेडीज़ वर्सेज रिकी बहल के बाद शुद्ध देसी रोमांस जैसी औसत हिट फिल्म बना चुके डायरेक्टर मनीष शर्मा ने यकीनन इंडस्ट्री के सुप स्टार के साथ एक ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया जो कहीं ना कहीं सिंगल स्क्रीन थिएटरों के साथ-साथ बी और सी सेंटरों के बॉक्स आफिस के लिए जोखिम भरा हो सकता है। अगर इंटरवल तक फैन आपको किंग खान पर एक बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म होने का भ्रम कराती है तो इंटरवल के बाद जब डायरेक्टर को कुछ नया और अलग दिखाना चाहिए था तब वहीं मनीष शर्मा कुछ ऐसे भटके कि आखिर तक ट्रैक पर नहीं लौट पाए। कहानी: दिल्ली की एक कॉलोनी में रहने वाला गौरव चानना (शाहरुख खान, डबल रोल ) बचपन से ही बॉलिवुड के सुपरस्टार सुपर आर्यन खन्ना (शाहरुख खान) का जबर्दस्त फैन है। रीयल लाइफ में गौरव खुद को सुपरस्टार जैसा ही मानता है। आर्यन के प्रति गौरव की दीवानगी का आलम यह है कि उसका सारा रूम किंग खान की फिल्मों के पोस्टरों वगैरह से भरा पड़ा है। दूसरी ओर, गौरव चानना की शक्ल कुछ हद तक सुपरस्टार शाहरुख खान से मिलती है। ऐसे में गौरव एक दिन शहर में होने वाले एक कॉम्पिटिशन में अपने चहेते सुपरस्टार शाहरुख जैसी ऐक्टिंग करके कॉम्पिटिशन का विनर बन जाता है। गौरव को विनर के तौर पर एक ट्रोफी के साथ मोटी रकम मिलती है। विनर की ट्रोफी हासिल करनके के बाद गौरव अब मुंबई जाकर आर्यन से मिलना चाहता है। दिल्ली में गौरव के पापा (योगेंद्र टिक्कू) का जमाजमाया साइबर कैफे का बिज़नस है, लेकिन गौरव अपने इस फैमिली बिज़नस को छोड़ किसी भी तरह से आर्यन तक पहुंचना चाहता है। अब जब गौरव के पास अपने चहेते सुपरस्टार से मिलने की वजह यानी विनर ट्रोफी भी है तो वह राजधानी एक्सप्रेस से मुंबई पहुंचकर उसी होटेल में उसी कमरा नंबर 205 में ठहरता है, जहां दिल्ली से आने के बाद शाहरुख खान पहली बार ठहरे थे। इसी बीच हालात ऐसे बनते हैं कि आर्यन इंडस्ट्री के एक साथी को थप्पड़ मारने के विवाद में फंस जाता है, वहीं गौरव लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने चहेते सुपरस्टार से नहीं मिल पा रहा है। मुंबई में कुछ वक्त गुजारने और आर्यन से मिलने में नाकाम रहने की वजह से गौरव को आर्यन से नफरत हो जाती है। यहीं से कहानी में नया टर्न आता है। जब गौरव चानना का मकसद यहीं है कि उसका सुपरस्टार आर्यन उससे माफी मांगे। ऐक्टिंग: एकबार फिर शाहरुख खान ने साबित किया क्यों उन्हें ग्लैमर इंडस्ट्री में किंग खान का मुकाम हासिल है। आर्यन खन्ना और गौरव चानना के किरदारों में शाहरुख खान ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है, खासकर गौरव के किरदार को कैमरे के सामने उन्होंने अपने जीवंत अभिनय के दम पर यादगार बना दिया है। इस किरदार के लिए जहां शाहरुख ने वजन घटाया तो मेकअप करने के लिए हर रोज घंटों मेकअप रूम में गुजारे। शाहरुख की डायलॉग डिलीवरी की तारीफ नहीं, कुछ सीन्स में शाहरुख अपनी सुपरहिट फिल्म डर में अपने किरदार की कॉपी करते भी नजर आए। गौरव चानना के पिता के रोल में योगेन्द्र टिक्कू प्रभावित करते हैं। गौरव की मां के रोल में दीपिका अमीन ने अच्छी ऐक्टिंग की है। फिल्म इन्हीं किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है। स्पोर्टिंग कॉस्ट कम फुटेज के बावजूद निराश नहीं करती। डायरेक्शन: मनीष शर्मा ने इंटरवल से पहले की फिल्म को कहीं कमजोर नहीं होने दिया लेकिन इंटरवल के बाद अचानक फिल्म आपके सब्र का इम्तहान लेने लगती है। आर्यन खन्ना को परेशान करने और उससे बदला लेने के लिए गौरव चानना जो रास्ता अपनाता है उस पर हंसी आती है। वहीं, फिल्म में कई ऐसे डायलॅाग भी हैं, जो किंग खान के फैंस की भावनाओं को आहत कर सकते है। लंदन की लोकेशंस में मनीष ने कैमरामैन से अच्छा काम लिया है लेकिन क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फैन का ट्रैक ही बदल जाता है और कई सारी काल्पनिक घटनाएं घटने लगती है। बेशक स्क्रिप्ट में नयापन है लेकिन प्रस्तुतीकरण और बेहद कमजोर क्लाइमेक्स और बेवजह के लंबे ऐक्शन सीन्स किंग खान के रीयल फैन को अपसेट कर सकते हैं। संगीत: आमतौर से किंग खान की फिल्मों में म्यूजिक कहानी का अहम पार्ट होता है लेकिन ना जाने क्यूं इस फिल्म में कोई गाना नहीं है। फिल्म की रिलीज़ से पहले प्रमोशनलस सॉन्ग जबरा शूट किया जो फिल्म में नहीं है। क्यों देखें: बस अगर आप शाहरुख खान के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार का यह बदला रूप भी देख आए।",0 "बिजली नहीं होने के बावजूद बिजली बिल की मोटी रकम से पीड़ित यूं तो आपको देश के किसी भी इलाके में मिल जाएंगे, लेकिन फिल्म 'बत्ती गुल मीटर चालू' की कहानी उत्तराखंड के इंडस्ट्रियल इलाके में बिजली कंपनियों की मनमानी पर आधारित है। फिल्म में हल्के-फुल्के अंदाज में आम लोगों से जुड़ी बिजली के मोटे बिल की बड़ी समस्या पर चोट की गई है। वहीं सरकारी 'विकास' और 'कल्याण' के दावों पर भी मजेदार व्यंग्य किया गया है।फिल्म की कहानी के मुताबिक, सुशील कुमार पंत उर्फ एस.के. (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल उर्फ नौटी (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंदु शर्मा) तीनों दोस्त हैं, जो उत्तराखंड के नई टिहरी में रहते हैं। एस.के. एक चालू किस्म का वकील है, जो किसी भी तरह से पैसा कमाने की जुगत में रहता है और लोगों को झूठे केस में फंसाने की धमकी देकर उगाही करता है। वहीं नौटी एक लोकल फैशन डिजाइनर है, जबकि त्रिपाठी ने इंडस्ट्रियल इलाके में एक प्रिंटिंग प्रेस लगाई है। आम हिंदी फिल्मों की तरह यहां भी दोनों दोस्त एक ही लड़की को चाहते हैं, लेकिन नौटी आखिरकार त्रिपाठी को पसंद कर लेती है, जिससे उनकी दोस्ती में दरार पड़ जाती है। नाराज एस.के. अपने दोस्तों से दूर हो जाता है। उधर त्रिपाठी की प्रिंटिंग प्रेस में बिजली बहुत कम टाइम आने के बावजूद पहले ही महीने उसका डेढ़ लाख का बिजली बिल आ जाता है। वह शिकायत करता है, तो उसकी कोई सुनवाई नहीं होती। उल्टे उसका बिल 54 लाख पर पहुंच जाता है। सिस्टम की नाकामी से हताश होकर त्रिपाठी एस.के. के पास जाता है, लेकिन उससे भी मदद नहीं मिल पाने पर वह टिहरी झील में कूद कर आत्महत्या कर लेता है। अपने दोस्त के दुनिया से चले जाने से परेशान एस.के. ने पहले भले ही त्रिपाठी की मदद करने से इनकार कर दिया था, लेकिन अब वह उसे इंसाफ दिलाने के लिए हाईकोर्ट जाता है, जहां उसका सामना बिजली कंपनी की वकील गुलनार (यामी गौतम) से होता है। क्या एस.के. अपने दोस्त को इंसाफ दिला पाता है? यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा। डायरेक्टर श्री नारायण सिंह ने 'टॉयलेट एक प्रेम कथा' में खुले में शौच का मुद्दा उठाने के बाद एक बार फिर बिजली कंपनियों की मनमानी की कहानी चुनी है। फिल्म उत्तराखंड के टिहरी में बेस्ड होने के चलते इसके किरदार कुमाऊंनी भाषा बोलते हैं, लेकिन इसके नाम पर बहुत ज्यादा 'बल' और 'ठहरा' शब्दों का इस्तेमाल हिंदी भाषी दर्शकों को हजम नहीं हो पाता। हालांकि फिल्म आम दर्शकों को पहाड़ की संस्कृति की झलक जरूर दिखाती है। फिल्म की करीब तीन घंटे की लंबाई बहुत ज्यादा है। इसे एडिटिंग टेबल पर आधा घंटे कम किया जा सकता था। शुरुआती एक घंटे में फिल्म आपको जबर्दस्त तरीके से बोर करती है। अगर आप उस दौरान खुद को सिनेमा में रोकने में सफल हो जाते हैं, तो फिर आगे की फिल्म आपको सिनेमा में थामने का दम रखती है। खासकर सेकंड हाफ में कोर्ट रूम ड्रामा मजेदार है। शाहिद कपूर ने फिल्म में अच्छी ऐक्टिंग की है। खासकर कोर्ट रूम के सीन्स में यामी गौतम के मुकाबले में वह काफी जमे हैं। वहीं श्रद्धा कपूर ने भी ठीक-ठाक ऐक्टिंग की है। उधर दिव्येन्दु शर्मा भी अपने रोल में जमे है। फिल्म का संगीत भी पसंद किया जा रहा है। अगर आप शाहिद कपूर के फैन हैं और बिजली के भारी-भरकम बिल से परेशान हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं।",1 " कुछ फॉर्मूला फिल्में क्या हिट हुईं इस तरह की फिल्मों की बाढ़ आ गईं। मसाला फिल्मों के बनाने का भी एक सलीका होता है, लेकिन इन दिनों निर्माता-निर्देशक तो ये मानने लगे हैं कि कुछ भी दर्शकों के सामने परोस दो वे स्वीकार कर लेंगे... गंदी बात... इन दिनों हर हीरो को सलमान खान बनने का भूत सवार है। सलमान खान की दक्षिणनुमा हिंदी फिल्में इसलिए चलती हैं क्योंकि सलमान सुपरस्टार हैं। दर्शक उनकी अदाओं के दीवाने हैं। वे दर्जन भर गुंडों की धुलाई करते हैं तो विश्वसनीय लगता है, लेकिन ये काम शाहिद कपूर करते हैं तो बाल नोंचने के सिवाय कुछ नहीं किया जा सकता है। शाहिद पूरी फिल्म में अविश्वसनीय नजर आए हैं। ऐसा लगा कि जरूरत से ज्यादा बोझ उनके नाजुक कंधों पर लाद दिया गया है। भारी-भरकम सोनाक्षी के सामने वे फीके नजर आएं। ऊपर से फिल्म में उनके इतने फाइट सीन हैं कि जितने उन्होंने अपने कुल जमा करियर में भी नहीं किए होंगे। फटा पोस्टर निकला हीरो में भी उन्होंने यही सब करने की कोशिश की थी और मुंह की खाई थी। देखना है कि राजकुमार का क्या होता है। वैसे लगातार ‍फ्लॉप फिल्म देने के बावजूद शाहिद कपूर अब तक खाली नहीं बैठे हैं। लगातार सोलो हीरो वाली फिल्में उनको मिल रही हैं। शायद फिल्म इंडस्ट्री हीरो की तंगी से गुजर रही है और इस पर सोच-विचार नहीं कर रही है... गंदी बात... वांटेड और राउडी राठौर जैसी सफल फिल्म देने के बाद प्रभुदेवा से उम्दा मसाला फिल्मों की उम्मीद जागी थी, लेकिन लगता है कि प्रुभ माया के फेर में पड़ गए हैं और ऊटपटांग फिल्में बना रहे हैं। ‘रमैया वस्तावैया’ की बात ज्यादा पुरानी नहीं है और उन्होंने ‘र... राजकुमार’ नामक घटिया फिल्म बना कर रिलीज कर दी है। कहानी और स्क्रीनप्ले नदारद है और तमाम घटिया हरकतों से फिल्म को प्रभु ने खींचा है। प्रभु का प्रस्तुतिकरण बहुत ही बुरा है... गंदी बात... कहानी है धरतीपुर नामक गांव की, जहां अफीम की स्मगलिंग करने वाले शिवराज और परमार का राज चलता है। दोनों की आपस में बिलकुल नहीं बनती। एक अपने बदन की मालिश करवाता रहता है तो दूसरा खुले में नहाता है और औरतें उसे साबुन मलती रहती हैं। राजकुमार की गांव में एंट्री होती है जिसे अंतरराष्ट्रीय स्मगलर ने भेजा है। राजकुमार का दिल चंदा पर आ जाता है जो परमार की भतीजी है। शिवराज भी चंदा पर फिदा हो जाता है। परमार और शिवराज हाथ मिला लेते हैं और दोनों से टकराता है राजकुमार। फिल्म के विलेन इतने मूर्ख हैं कि हर बार हीरो को अधमरा छोड़ देते हैं और वह बार-बार वापस आ जाता है। कब्र से ‍भी निकल आता है। फिल्म में दिखाया गया है कि शिवराज हर काम पंडित से पूछ कर करता है। पंडित उसकी शादी का मुहूर्त दशहरे पर निकालता है। दशहरे के आसपास शादी का काम तो बंद रहता है, लेकिन फिल्म के लेखकों को यह बात पता ही नहीं है। ऐसे कई किस्से फिल्म में हैं जिनमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया है... गंदी बात... फिल्म में हर चीज लाउड है। अभिनय के नाम पर हर कलाकार चीखा-चिल्लाया है। बैकग्राउंड म्युजिक ऐसा है कि कान पकने लगते हैं। ‘साइलेंट हो जा वरना वाइलेंट हो जाऊंगा’ जैसे संवाद हैं। गाने कभी भी टपक पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि फिल्म खत्म होने वाली है अचानक ‘कद्दू कटेगा’ जैसा गाना आ जाता है। क्लाइमेक्स इतना लंबा खींचा गया है कि नींद आने लगती है। वैसे ये बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है.... गंदी बात... र... राजकुमार जैसी फिल्म बनाकर प्रभुदेवा ने धन की बरबादी तो की है और कई लोगों का समय भी खराब किया है... गंदी बात... बैनर : इरोज इंटरनेशन ल, नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्श न निर्माता : सुनील ए. लुल्ल ा, विकी राजान ी निर्देशक : प्रभुदेव ा संगीत : प्रीतम चक्रवर्त ी कलाकार : शाहिद कपू र, सोनाक्षी सिन्ह ा, सोनू सूद, आशीष विद्यार्थी, असरान ी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 26 मिनट 30 सेकण्ड ",0 " बॉलीवुड में पॉलिटिकल थ्रिलर मूवी नहीं के बराबर बनी हैं क्योंकि सेंसर के परे हुल्लड़बाजों से भी निपटना पड़ता है जो इस तरह की फिल्मों को प्रदर्शित नहीं होने देते हैं। सरकार से ज्यादा उनकी चलती है। करोड़ों रुपये दांव पर लगाकर भला जोखिम कौन उठाएगा? मद्रास कैफे के निर्माताओं की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने इस तरह की फिल्म पर पैसे लगाना मंजूर किए और दर्शकों के लिए एक शानदार फिल्म पेश की। मद्रास कैफे में इतिहास के पन्नों को पलटकर उस षड्यंत्र को पेश किया गया है जिसके कारण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री की जान चली गई थी। 80 के दशक के मध्य में श्रीलंका में जातिवाद को लेकर हुए हिंसक संघर्ष के कारण कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। ऐसे में भारत की ओर से शांति बहाल करने के लिए सेना भेजी गई, जिससे एक गुट नाराज हो गया था। मेजर विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम) को रॉ के कवर्ट ऑपरेशन के तहत श्रीलंका भेजा जाता है। वहां उसे अपने सहयोगी बाला की मदद से विद्रोही एलटीएफ ग्रुप के मुखिया अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) को शांति के लिए राजी करना है या उसके ग्रुप को तोड़ना है ताकि उसकी ताकत आधी रह जाए। यह एक कठिन कार्य था, लेकिन विक्रम उस वक्त हैरान रह जाता है जब उसे पता चलता है कि यह ऑपरेशन इसलिए सफल नहीं हो रहा है क्योंकि अपने ही कुछ लोग दुश्मनों से मिले हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र रचा जा रहा है। फिल्म में न आइटम नंबर है, ना कॉमेडी और न ही रोमांस। निर्देशक शुजीत सरकार ने फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखते हुए उन सब बातों को भूला दिया है जो कमर्शियल फिल्म की सफलता के आवश्यक अंग माने जाते हैं। इसका ये मलतब नहीं है कि फिल्म देखते समय ऐसा महसूस हो कि हम आर्ट मूवी या डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं बल्कि यह एक थ्रिलर मूवी जैसा मजा देती है। सोमनाथ डे और शुभेंदु भट्टाचार्य ने फिल्म की कहानी लिखी है। उनका काम बताता है कि उन्होंने काफी रिसर्च किया है। बहुत ही स्मार्ट तरीके से उन्होंने का‍ल्पनिक किरदारों को वास्तविक घटना से जोड़ा है। दो घंटे 10 मिनट में श्रीलंका में अशांति क्यों हुई से पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या तक के सारे घटनाक्रमों को समेटा गया है और यह काम आसान नहीं था। शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित ‘मद्रास कैफे’ की शुरुआत थोड़ी गड़बड़ है। बढ़ी हुई दाढ़ी और शराब के नशे में चूर जॉन अब्राहम को सपने में श्रीलंका की हिंसा ‍नजर आती है। वह चर्च में जाकर पादरी के सामने सारी बात कहता है और फिल्म फ्लेशबैक में जाती है। यह प्रसंग कुछ खास जमता नहीं है। फिर शुरू होता है लंबा वॉइस ओवर जिसमें इतिहास सुनाया जाता है। स्टॉक शॉट दिखाए जाते हैं। ढेर सारे नाम और प्रसंगों के कारण थोड़ी परेशान होती है, लेकिन कहानी जब परत दर परत खुलती है तो फिल्म में पकड़ आ जाती है। करीब पैंतालीस मिनट बाद तो फिल्म सरपट दौड़ती हुई एक थ्रिलर का मजा देती है। फिल्म का क्लाइमैक्स सीट पर चिपक कर बैठने के लिए मजबूर करता है। यहां पर किसी का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन इशारा किस ओर है ये स्पष्ट है। शुजीत सरकार ने किसी का पक्ष न लेते हुए अपनी बात कही है। इस फिल्म में एक्शन की बहुत ज्यादा गुंजाइश थी, लेकिन उन्होंने इस एक्शन को मानसिक तनाव के रूप में दिखाया है। शुजीत ने दिखाया कि उग्रवादियों को हमारे यहां से भी मदद मिली थी, जिसका भयानक परिणाम सामने आया। जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखे गए ज्यादातर संवाद अंग्रेजी में हैं। फिल्म के शुरुआत में तो बीच-बीच में हिंदी सुनाई देती है, ऐसा लगता है कि अंग्रेजी फिल्म देख रहे हों। इस वजह से अंग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को समझने में तकलीफ होती है। हालांकि हिंदी में सबटाइटल्स दिखाए गए हैं, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। नरगिस फाखरी और जॉन अब्राहम का वार्तालाप बनावटी लगता है। नरगिस अंग्रेजी में बोलती हैं और जॉन हिंदी में। यदि नरगिस भी टूटी-फूटी हिंदी बोल लेती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। निर्देशक ने देश की रक्षा के में लगे लोगों की पारिवारिक जिंदगी कितनी कठिन होती है, इसकी एक झलक भी दिखलाई है। मद्रास कैफ में जॉन का अभिनय उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। उनसे जितना बेहतर हो सकता था उन्होंने किया। नरगिस फाखरी का किरदार पत्रकार अनिता प्रताप से प्रेरित है और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। सिद्धार्थ बसु फिल्म का सरप्राइज है और उन्होंने एक सरकारी ऑफिसर का किरदार बेहतरीन तरीके से जिया है। बाली के रूप में प्रकाश बेलावादी का अभिनय उल्लेखनीय है। जॉन की पत्नी के रूप में राशि खन्ना के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था। कमलजीत नेगी की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। समुंदर, सूर्योदय, सूर्यास्त और जंगल को उन्होंने बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। फिल्म का संपादन चुस्त है। नाच, गाने, फूहड कॉमेडी और स्टीरियो टाइप कहानी/किरदारों के बिना भी एक अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है, ये मद्रास कैफे साबित करती है। निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, जेए एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स निर्देशक : शुजीत सरकार संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, सिद्धार्थ बसु, अजय रत्नम, प्रकाश बेलावादी, राशि खन्ना सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट ",1 "रजनीकांत की हर फिल्म रिलीज होने के पहले उनके फैंस पर रजनी का बुखार चढ़ जाता है। वे दीवानगी की सारी हद पार कर जाते हैं। आखिर रजनीकांत महानायक जो ठहरे। स्क्रीन पर उन्होंने भौतिक शास्त्र (फिजिक्स) के नियमों को उलट-पुलट कर रख दिया, लेकिन उनकी यही अदाएं तो दिल जीतती हैं। किसी भी निर्देशक का सपना रहता है कि रजनीकांत को लेकर कमर्शियल फिल्म बनाई जाए। रजनीकांत के रूप में उसे ऐसा कलाकार मिलता है जिससे वह जो चाहे करवा सकता है क्योंकि वे अगर-मगर, किंतु-परंतु जैसे तर्कों से परे हैं। यदि रजनीकांत चलती ट्रेन को भी पकड़ कर रोक दें तो कोई प्रश्न नहीं करेगा। लेखक और निर्देशक पी. रंजीत को यह सुनहरा अवसर मिला। अफसोस की बात है कि उन्होंने यह अवसर बरबाद कर दिया है। आश्चर्य होता है कि रजनीकांत को लेकर कोई इतनी खराब फिल्म भी बना सकता है। उड़ने के लिए उनके पास खुला आसमान था। महानायक, बड़ा बजट और रजनीकांत के अनगिनत फैंस, इसके बावजूद वे उड़ान भी नहीं भर सके। पहली रील से ही फिल्म प्रभावित नहीं कर पाती। उम्मीद बंधी रहती है कि अब गाड़ी पटरी पर आएगी, अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और फिल्म खत्म हो जाती है। रजनीकांत कबाली नामक गैंगस्टर बने हैं। जिनके कुछ उसूल है। वे देह व्यापार और ड्रग्स के खिलाफ हैं। मलेशिया में उनका साम्राज्य है। '43 गैंग्स' को कबाली की यह बातें पसंद नहीं आती। वे कबाली की गर्भवती पत्नी रूपा (राधिका आप्टे) को मार देते है और कबाली को 25 साल की जेल हो जाती है। कबाली 25 वर्ष बाद छूटता है और '43 गैंग्स' से अपना बदला लेता है। मनमोहन देसाई की फिल्मों की तरह उसे पता चलता है कि न केवल उसकी पत्नी जिंदा है बल्कि उसकी अपनी बेटी भी है। कबा ली के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें इस साधारण से रिवेंज ड्रामे को रंजीत ने लिखा है। उतार-चढ़ाव विहीन स्क्रीनप्ले में इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि हाथी भी निकल जाए। मलेशिया की सड़कों पर खून-खराबा होता रहता है और पुलिस फिल्म की शुरुआत और अंत में ही नजर आती है। कबाली की पत्नी अपने पति से मिलने की कोशिश क्यों नहीं करती? इस तरह के कई प्रश्न दिमाग में उठते हैं। चलिए, महानायक रजनीकांत की फिल्म है इसलिए तर्क-वितर्क की बातें जाने देते हैं, लेकिन रजनीकांत की फिल्म में जो स्टाइल, एक्शन, रोमांच होता है वो भी यहां से नदारद है। क्लाइमैक्स में ही रजनीकांत को हाथ खोलने का मौका मिला है। फिल्म में फैमिली ड्रामा को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया है और दर्शकों को भावुक करने की गैर जरूरी कोशिश की गई है। निर्देशक के रूप में भी रंजीत असफल रहे हैं। वे कहानी को ठीक से परदे पर नहीं उतार पाए। रजनीकांत के स्टारडम का उपयोग नहीं कर पाए। बजाय अपने लेखन और निर्देशन के उन्होंने स्लो मोशन शॉट्स और बैकग्राउंड म्युजिक के जरिये रजनीकांत के किरदार को स्टाइलिश बनाने की कोशिश की है। रजनीकांत की चमक से ही वे चौंधिया गए और यह बात भूल गए कि मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए क्या जरूरी होता है। फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती। फिल्म की गति इतनी धीमी है कि सिनेमाहॉल से आप दस मिनट बाहर घूम भी आएं तो आपको कहानी जहां की तहां मिलेगी। चाहें तो आप झपकी भी निकाल सकते हैं। रंजीत का प्रस्तुतिकरण किसी बी ग्रेड फिल्म की तरह है। हां, एक काम उन्होंने अच्छा किया कि ज्यादातर समय उन्होंने रजनीकांत को उनकी उम्र के अनुरूप दिखाया। रजनीकांत पर उम्र हावी हो गई है। वे कमजोर भी नजर आएं। हर दृश्य को उन्होंने स्टाइलिस्ट बनाने की कोशिश की है। वर्षों बाद अपनी पत्नी से मिलने वाले सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। राधिका आप्टे का रोल ज्यादा लंबा नहीं है, बावजूद इसके वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। टोनी ली के रूप में विंस्टन चाओ अपनी खलनायकी दिखाते हैं। धंसिका ने फिल्म में कबाली की बेटी का किरदार निभाया है। उनकी फिल्म में एंट्री जोरदार है, लेकिन बाद में उनके रोल का ठीक से विस्तार नहीं किया गया है। सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। संपादन बहुत ढीला है और कई जगह निर्देशक पर संपादक हावी लगता है। गाने याद रखने लायक नहीं हैं। बैकग्राउंड म्युजिक से कान और सिर में दर्द हो सकता है। कबाली का तकिया कलाम है 'बहुत खूब', लेकिन मजाल है जो आपके मुंह से ये शब्द फिल्म देखते समय एक बार भी निकल जाएं। बहुत ही निराश करती है 'कबाली'। निर्माता : कलईपुली एस. थानु निर्देशक : पी. रंजीत कलाकार : रजनीकांत, राधिका आप्टे, विंस्टन चाओ, धंसिका सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 30 मिनट 10 सेकंड * डब ",0 "बात जब भव्य फिल्मों की आती है तो कहानी अतीत में जाती है या भविष्य में। निदेँशक एसएस राजमौली की फिल्म 'बाहुबली - द बिगिनिंग' अतीत में ले जाती है। किस दौर की कहानी है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन तीर कमान से लड़ते योद्धा के जरिये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। लेखक वी. विजयेन्द्र प्रसाद ने एक नया किरदार बाहुबली गढ़ा है जिसमें सैकड़ों हाथियों जितनी शक्ति है। जिस विशालकाय सोने की मूर्ति को सैकड़ों मजदूर उठा नहीं सकते, वह अपनी दो भुजाओं के बल पर उठा लेता है। कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है। रामायण में सीता का रावण अपहरण कर लेता है, यहां पर शिवा (प्रभास) की मां दुश्मनों के कैद में हैं। महाभारत में सिंहासन को लेकर भाइयों में जंग छिड़ी थी, यहां बाहुबली (प्रभास, डबल रोल) और उसके ताऊ के लड़के भल्लाला देवा (राणा दग्गुबाती) में महीषमति के राजा बनने को लेकर होड़ है। रामायण और महाभारत के प्रसंगों को लेकर एक नई कहानी बनाई गई है जिसमें आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है और यह समस्या इस तरह की फिल्मों के साथ अक्सर होती है। भव्यता पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन कहानी में नयापन नहीं होता। फिल्म का पहला हिस्सा शिवा को महानायक दिखाने में खर्च किया गया है। उसकी ताकत और पराक्रम के दृश्य गढ़ कर दर्शकों में रोमांच पैदा किया गया है। इसमें शिवलिंग उखाड़ कर दूसरी जगह स्थापित करने वाला सीन कमाल का है। इस हिस्से में अवंतिका (तमन्ना भाटिया) और शिवा में रोमांस भी दिखाया गया है, लेकिन यह रोमांस अपील नहीं करता। अवंतिका की अपनी कहानी है जो देवसेना (अनुष्का शेट्टी) को भल्लाला की कैद से आजाद कराना चाहती है। अवंतिका के लक्ष्य को शिवा अपना लक्ष्य बना लेता है और महीषमति पहुंच जाता है। वहां उसे बाहुबलि कह कर पुकारा जाता है और लोग उसके सामने झुकने लगते हैं, यह देख उसे आश्चर्य होता है। तब उसे अपने अतीत से जुड़े कुछ रहस्य पता चलते हैं। उसे मालूम होता है कि वह बाहुबलि का बेटा है। बाहुबलि की मौत क्यों हुई इसके लिए 'बाहुबलि' के दूसरे भाग का इंतजार करना होगा जो अगले वर्ष रिलीज होगी। फिल्म का अंत ऐसे मोड़ पर किया गया है ताकि दूसरे भाग को लेकर उत्सुकता बनी रहे। बाहुबली के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें बाहुबली के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें 'बाहुबलि' में इंटरवल के बाद ज्यादा मजा आता है। एक लंबा युद्ध दिखाया गया है जिसमें स्पेशल इफेक्ट्स लाजवाब है। इसकी रणनीति को लेकर बढ़िया सीन बनाए गए हैं। इसे युद्ध में बाहुबलि और भल्लाला अपना पराक्रम दिखाते हैं और उनके प्रशंसकों को यह सीन बहुत ही पसंद आएंगे। निर्देशक एसएस राजामौली ने ऐसे कई दृश्य रचे हैं जो लार्जर देन लाइफ फिल्म पसंद करने वालों को ताली बजाने पर मजबूर करेंगे। उन्होंने हर कैरेक्टर के लिए खास दृश्य बनाए हैं। राजामौली की तारीफ इसलिए भी बनती है कि एक ऐसी कहानी जिसमें ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं है, बावजूद इसके वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। चूंकि फिल्म का बजट बहुत ज्यादा है इसलिए कई बार वे सुरक्षित दांव चलते भी नजर आएं। जैसे कुछ गानों की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें जगह दी गई। सुदीप वाला सीन भी केवल स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए रखा गया। बाहुबली की वीएफएक्स टीम भी बधाई की पात्र है। हॉलीवुड फिल्मों से पार तो नहीं निकले हैं, लेकिन नजदीक जरूर पहुंच गए हैं। इस टीम ने प्राकृतिक छटाएं, झरने और महीषपति शहर को बहुत ही भव्यता के साथ पेश किया गया है और कई तकनीकी गलतियों को भी छिपाया गया है। यह फिल्म हिंदी में डब की गई है इसलिए संवादों का स्तर ऊंचा नहीं है। इसी तरह फिल्म के गाने में अपील नहीं करते। ऐसा लगता है मानो अनुवाद किए गाने सुन रहे हो। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी ऊंचे स्तर की है। सेट भव्य हैं। फाइट सीन उल्लेखनीय हैं। प्रभाष और राणा अपने रोल के लिए एकदम फिट नजर आएं। उनका डील-डौल देख लगता है कि उनकी बाजुओं में फौलादी ताकत है। प्रभाष का स्क्रीन प्रजेन्स जोरदार है और वे हीरो की परिभाषा पर खरे उतरे। राणा का किरदार नकारात्मक है और दूसरे भाग में उन्हें शायद ज्यादा अवसर मिलेगा। यही हाल अनुष्का शेट्टी का है। उन्हें पहले भाग में ज्यादा अवसर नहीं मिला है, लेकिन दूसरे भाग में यह कमी पूरी हो जाएगी। तमन्ना भाटिया बेहद खूबसूरत नजर आईं और एक योद्धा के रूप में वे प्रभावित करती हैं। सत्यराज, नासेर, रामया कृष्णन अनुभवी कलाकार हैं और उन्होंने काम बखूबी किया है। फिल्म कैसी है ये तो दूसरा भाग देखने पर ही तय होगा, लेकिन पहला भाग प्रभावित करता है और दूसरे भाग को देखने के ‍लिए उत्सुकता पैदा करता है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, एए फिल्म्स, आरको मीडिया वर्क्स प्रा.लि. निर्देशक : एसएस राजामौली संगीत : एमएम करीम कलाकार : प्रभाष, राणा दग्गुबाती, अनुष्का शेट्टी, तमन्ना भाटिया, रामया कृष्णन, सत्यराज, नासेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट ",1 "'एनएच 10' एक थ्रिलर मूवी है, जिसमें चतुराई से भारत में महिलाओं की स्थिति, पुरुष प्रधान समाज की विसंगतियां, ऑनर किलिंग और भारत में कानून की स्थिति को दर्शाया गया है। हाईवे पर अपनी गाड़ी से सफर करने पर मन में आशंकाएं पैदा होती हैं। इस सफर में कानून का असर कम और जंगल राज का दबदबा बढ़ता हुआ महसूस होता है। हर शख्स संदेह पैदा करता है। न्यू एज कपल मीरा (अनुष्का शर्मा) और अर्जुन (नील भूपलम) वीकेंड मनाने के लिए गुड़गांव से दूर निकलते हैं और एनएच 10 उनके लिए मुसीबत लेकर आता है। रास्ते में वे ढाबे पर चाय पीने रूकते हैं। यहां एक लड़की और लड़के को कुछ लोग पीट रहे हैं। अर्जुन दखल देता है और जंगली किस्म के ये लोग मीरा-अर्जुन के पीछे पड़ जाते हैं। अर्जुन और मीरा के लिए आगामी कुछ घंटे नरक के समान होते हैं। जंगलों और गांवों में भटकते हुए उनका सामना एक ऐसे भारत से होता है जहां जंगल राज चल रहा है। फिल्म के एक संवाद से भारत के अंदरुनी इलाकों की भयावह स्थिति की झलक मिलती है जब एक किरदार कहता है 'गांव में पानी और बिजली तो पहुंचे नहीं है तो संविधान कैसे पहुंचेगा?' एक और मीरा है, जो पढ़ी-लिखी और नौकरीपेशा महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी शर्तों पर जीवन जीती है और जिसे खुलेआम सिगरेट पीने में हिचक नहीं है। उसके लिए चमचमाते माल्स और मेट्रो सिटी ही भारत है। जहां शहरों के शॉपिंग मॉल्स समाप्त होते हैं वही से भारत का दूसरा चेहरा सामने आता है। यहां महिलाओं की स्थिति भयावह है। वे अपने निर्णय नहीं ले सकती। दूसरी जाति में शादी करने पर अपने ही अपनों की हत्या कर देते हैं और इसे सम्मानजनक बात माना जाता है। लेडिस टॉयलेट की दीवारों पर महिलाओं के प्रति असम्मानजनक बातें लिखी जाती हैं जो पुरुषों की स्त्री के प्रति विकृत सोच को बयां करती है। > एनएच10 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें एनएच10 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें गुंडों से भागती हुई जब मीरा पुलिस के पास पहुंचती है तो मदद के बजाय पुलिस उसे गुंडों को सौंप देती है। पुलिस वालों को भी डर है कि गांव वाले उनका हुक्का-पानी बंद नहीं कर दे आखिर उन्हें भी तो अपनी संतानों की शादी करनी है। बड़े शहर में रहने वाली मीरा पहली बार इस तरह की स्थिति का सामना करती है। इन सारी बातों के बीच मीरा-अर्जुन के पीछे भागते गुंडों के जरिये थ्रिल पैदा किया गया है। फिल्म की स्क्रिप्ट सुदीप शर्मा ने लिखी है और उन्होंने संक्षिप्त कहानी पर बेहद टाइट स्क्रिप्ट लिखी है। मीरा और अर्जुन के साथ जिस तरह की घटनाएं घटती हैं उससे दर्शक हिल जाता है। मीरा को उन्होंने हीरो की तरह पेश किया है। क्लाइमेक्स में फिल्म अनुष्का शर्मा की 'बदलापुर' बन जाती है, लेकिन यहां स्क्रिप्ट का फिल्मी हो जाना अच्छा लगता है। मीरा अपने दुश्मन को मारने के पहले सिगरेट के कश लगाती है और गुंडे की आंखों में भय देख उसे सुकुन मिलने वाला दृश्य बेहतरीन बन पड़ा है। निर्देशक नवदीप सिंह ने कहानी को रियलिटी का टच दिया है जिससे फिल्म में जान आ गई। रियल लोकेशन्स फिल्म को तीखा बनाते हैं। हिंसात्मक दृश्यों से निर्देशक ने परहेज नहीं किया है। कुछ कमियां भी हैं। फिल्म में मारकाट, खूनखराबे और क्रूरता के दृश्य विचलित कर सकते हैं। अर्जुन का गुंडों के पीछे जाने की वजह को ठीक से पेश नहीं किया गया है। शायद यह मेल ईगो वाली प्रॉब्लम है। क्लाइमैक्स में गांव का सूनापन भी अखरता है। क्या पूरा गांव तमाशा देखने गया था? दर्द सहती हुई, खून से सनी, हिम्मत नहीं हारने वाली मीरा का किरदार अनुष्का शर्मा ने बेहतरीन तरीके से जिया है। उनकी आंखों में बदला लेने की चमक साफ देखने को मिलती है। उन्होंने हर भाव को बखूबी पेश किया है। मैरी कॉम में दर्शन कुमार ने आदर्श पति की भूमिका निभाई थी, लेकिन यहां पर वे क्रूर हरियाणवी युवक के रोल में है जिसे देख सिरहन पैदा होती है। नील भूपलम, दीप्ति नवल सहित तमाम कलाकारों ने अपना काम संजीदगी से किया है। एनएच 10 पर सफर किया जा सकता है। बैनर : फैंटम प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल, क्लीन स्लेट फिल्म्स निर्माता : कृषिका लुल्ला, अनुष्का शर्मा, कर्नेश शर्मा, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने, अनुराग कश्यप निर्देशक : नवदीप सिंह कलाकार : अनुष्का शर्मा, नील भूपलम, दर्शन कुमार सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटे 55 मिनट 9 सेकंड ",1 "हाउसफुल बॉलीवुड की लोकप्रिय सीरिज है। इसके पिछले दोनों सफल भागों का निर्देशन साजिद खान ने किया था, जबकि तीसरे भाग की बागडोर साजिद-फरहाद को सौंपी गई है। इस सीरिज में ऐसा हास्य दर्शकों के आगे परोसा जाता है जिसमें दिमाग को सिनेमाघर के बाहर रखिए और फिल्म का मजा ‍लीजिए। फिल्म के पिछले दोनों भाग ठीक-ठाक थे और मनोरंजन करने में सफल रहे थे, लेकिन 'हाउसफुल 3' इस सीरिज की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई है। साजिद-फरहाद को भव्य बजट और बड़ी स्टार कास्ट मिली, लेकिन वे फिल्म को संभाल नहीं पाए और तीर निशाने पर नहीं लगा। बटुक लाल (बोमन ईरानी) अपनी तीन बेटियों गंगा (जैकलीन फर्नांडिस), जमुना (लिसा हेडन) और सरस्वती (नरगिस फाखरी) के साथ लंदन में रहता है। वह नहीं चाहता कि उसकी जवान बेटियां शादी करें। गंगा का बॉयफ्रेंड सैंडी (अक्षय कुमार) है तो जमुना का टैडी (रितेश देशमुख) और सरस्वती का बंटी (अभिषेक बच्चन)। बटुक पटेल को जब यह बात पता चलती है तो वह अपनी बेटियों को कहता है कि यदि गंगा ने शादी की तो उसके पति का पहला कदम घर में रखते ही वह (बटुक) मर जाएगा। यदि जमुना के पति ने बटुक को देखा और सरस्वती के पति ने पहली बार कुछ बोला तो बटुक की मृत्यु निश्चित है। तीनों लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड्स को यह बात बताती है। तीनों पैसे के लालची दिमाग लड़ाते हैं। एक अंधा बन जाता है तो दूसरा गूंगा, तीसरा कहता है कि उसके पैर चलने के काबिल ही नहीं है। वे बटुक के घर में ही उसके साथ रहने लगते हैं। बटुक वर्षों पहले ऊर्जा नागरे (जैकी श्रॉफ) के साथ काम करता था। ऊर्जा मुंबई का डॉन था और 18 वर्ष की जेल काटने के बाद वह बटुक से मिलने लंदन आता है। कहानी में उसके आने से कुछ उतार-चढ़ाव आते हैं और हैप्पी एंडिंग के साथ फिल्म खत्म होती है। हाउसफुल 3 की कहानी घटिया है। सारा ध्यान इसी बात पर लगाया गया है कि कैसे हर दृश्य में हास्य पैदा किया जाए। तीनों लड़के बटुक के घर में क्यों रहने लगते हैं, यह बात फिल्म में स्पष्ट ही नहीं है। ऐसी कई बातें हैं जो अतार्किक हैं। स्क्रीनप्ले में जरा सी भी कसावट नहीं है। कॉमेडी सीन दोहराव के शिकार हैं। वन लाइनर्स पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है और एक समय बाद ये अखरने लगते हैं। फिल्म की हीरोइनों की हिंदी बहुत कमजोर है और वे अंग्रेजी को अनुवाद कर हिंदी में बोलती है, जैसे- लेट्स गो फॉर हैंग आउट को वे बोलती हैं चलो बाहर लटकते हैं या लाइम लाइट को नींबू की रोशनी। एक-दो बार तो इन संवादों को सुन हंस सकते हैं, लेकिन बार-बार नहीं। लेखक के रूप में साजिद-फरहाद कुछ नया नहीं सोच पा रहे हैं। आखिर कब तक वे थके-मांदे चुटकुलों से दर्शकों का मनोरंजन करेंगे? इससे बेहतरीन चुटकले तो व्हाट्स एप पर पढ़ने को मिल जाते हैं। बतौर निर्देशक भी साजिद-फरहाद का काम औसत से नीचे है। उनके लिए निर्देशन का मतलब है लिखे हुए को फिल्मा देना। इस गंभीर काम को उन्होंने हल्के से लिया है और एक बड़ा मौका उन्हें मिला था जिसे उन्होंने गंवा दिया। फिल्म की शुरुआत बेहद ठंडी है। अक्षय, अभिषेक और रितेश के परिचय वाले सीन निहायत ही कमजोर है और कॉमेडी के नाम पर ट्रेजेडी है। दूसरे हाफ में ही फिल्म थोड़ी ठीक है। फिल्म में बहुत से संवाद अंग्रेजी में रखकर गलती की गई है क्योंकि जिस दर्शक वर्ग के लिए 'हाउसफुल 3' बनाई गई है उसे अंग्रेजी समझ में ही नहीं आएगी। हाउसफुल 3 में सबसे बड़े स्टार अक्षय कुमार हैं जो कि कॉमेडी माहिर हैं, लेकिन उनको अभिषेक और रितेश के बराबर दृश्य मिले हैं जबकि वे इससे ज्यादा के हकदार थे। अक्षय की पूरी क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाया है। उन्हें जो भी सीन मिले हैं उसमें उन्होंने अच्छा काम किया है और थोड़ा-बहुत दर्शकों को अपने दम पर हंसाया है। इस तरह की कॉमेडी फिल्मों के रितेश देशमुख अनिवार्य अंग हैं और वे अब टाइप्ड हो गए हैं। अभिषेक बच्चन और एक्टिंग में छत्तीस का आंकड़ा है। उन्हें एक रैपर की भूमिका दी है जिसमें वे जरा भी नहीं जमे। बेवकूफ लड़कियों के किरदार में जैकलीन फर्नांडिस, लिसा हेडन और नरगिस फाखरी में होड़ इस बात की थी कि कौन बुरी एक्टिंग करता है। विजेता को चुनना बहुत ही मुश्किल है। बोमन ईरानी को सबसे ज्यादा फुटेज मिले हैं। अजीब सी विग पहने वे एक्टिंग और ओवर एक्टिंग के बीच की लाइन पर घूमते रहे। फिल्म का संगीत बहुत बड़ा माइनस पाइंट है। प्यार की मां की, बहन की मां की, टांग उठा के को क्या गाने कहा जा सकता है। हाउसफुल 3 'हाउसफुल' सीरिज की सबसे कमजोर फिल्म है। हंसने के लिए इससे बेहतर कई विकल्प मौजूद हैं। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट निर्माता : साजिद नाडियाडवाला, सुनील ए. लु्ल्ला निर्देशक : साजिद--फरहाद संगीत : तोशी-शरीब, सोहेल सेन, मीका सिंह, तनिष्क बागची, मिलिंद गाबा कलाकार : अक्षय कुमार, जैकलीन फर्नांडिस, अभिषेक बच्चन, नरगिस फाखरी, रितेश देशमुख, लिसा हेडन, बोमन ईरानी, जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 21 सेकंड ",0 "संजू फ़िल्म के एक सीन में संजय दत्त की गर्लफ्रेंड रूबी का पिता कहता है कि नोट दो तरह के होते हैं, पहला खरा जिसे आप जितना भी खींच लो उसका कुछ नहीं बिगड़ता और दूसरा खोटा, जो कि जरा सा भी खींचने पर फट जाता है। संजय दत्त की असल जिंदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। दुनिया ने उनको खोटा बताया, लेकिन वह खुद को खरा मानते हैं। बेशक खुद को दुनिया की नज़रों में सही साबित करने के लिए ही उन्होंने अपनी लाइफ को बतौर फिल्म, दुनिया के सामने रखा है। हालांकि अब उनके पिता सुनील दत्त यह फिल्म देखने के लिए इस दुनिया में नहीं हैं।फिल्म की शुरुआत में संजय दत्त (रणबीर कपूर) एक फिल्मी राइटर से अपनी बॉयॉग्रफी लिखवाता है, लेकिन बात नहीं बन पाती है। इसी दौरान संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट से जेल की सजा हो जाती है। उस रात तनाव में संजय आत्महत्या की कोशिश करता है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि कोई उसके बच्चों को आतंकवादी का बच्चा कहे। तब उसकी वाइफ मान्यता दत्त (दीया मिर्ज़ा) उसकी मुलाकात एक बड़ी राइटर विनी (अनुष्का शर्मा) से कराती है। दरअसल संजय और मान्यता चाहते हैं कि उसकी लाइफ का सच सामने आए और दुनिया उसे आतंकवादी ना समझे। विनी को संजय अपनी कहानी सुनाता, इससे पहले संजय का पुराना दोस्त जुबिन (जिम सरभ) उससे संजय की बुराई करता है। तब संजय उसे जुबिन समेत अपने अजीज दोस्त कमलेश (विकी कौशल) की कहानी सुनाता है। वह उसे बताता है कि किस तरह उनके एक दोस्त जुबिन ने उसे ड्रग्स की दुनिया से रूबरू कराया और किस तरह दूसरे दोस्त कमलेश ने उसे उस अंधेरी दुनिया से बाहर निकाला। किस तरह उनके पिता सुनील दत्त (परेश रावल) ने हर परेशानी सह कर भी उसका साथ नहीं छोड़ा, लेकिन अफसोस कि वह आखिरी दम तक भी उन्हें शुक्रिया नहीं कह पाया। किस तरह उनकी मां नरगिस (मनीषा कोइराला) ने मरने के बाद भी उसका साथ नहीं छोड़ा और मुश्किल समय में प्रेरणा बन कर साथ रहीं। हालांकि, संजय दत्त की जिंदगी की कहानी विस्तार से जानने के लिए आपको सिनेमा का रुख करना होगा।फ्लाइट में बहनों के साथ जा रहे संजय दत्त ने जूते में छिपाया था 1 किलो हेरोइन फिल्म देखकर आप समझ जाएंगे कि जिस तरह रील लाइफ संजू ने विनी को अपनी असल जिंदगी की कहानी दुनिया को बताने की जिम्मेदारी दी, उसी तरह रियल लाइफ संजय दत्त ने मुश्किल समय में 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी फिल्म बना कर उनकी नैया पार लगाने वाले राजकुमार हिरानी को अपनी जिंदगी पर फिल्म बनाकर उनका सच दुनिया को बताने की जिम्मेदारी दी। राजू हिरानी और उनके सह लेखक अभिजात जोशी ने संजय दत्त की जिंदगी की कहानी को खूबसूरत कहानी लिखी और हिरानी ने उस पर बेहतरीन फिल्म बनाई है। वाकई हिरानी इस दौर के एक बेहतरीन स्टोरी टेलर हैं, जो किसी भी कहानी को दिलचस्प अंदाज़ में पेश कर सकते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको बांध कर रखता है, लेकिन सेकंड हाफ में संजय मीडिया के मत्थे अपना सारा दोष मढ़कर खुद को निर्दोष साबित करते नज़र आते हैं। संजू का रोल कर रहे रणबीर कपूर ने तो जैसे इस रोल को जी लिया। फिल्म देखते वक्त कई बार आप खुद गच्चा खा जाएंगे कि स्क्रीन पर संजय दत्त हैं या रणबीर। बेशक बतौर ऐक्टर संजू रणबीर के करियर की बेहतरीन फिल्मों में से एक होगी। वहीं परेश रावल ने भी बतौर सुनील दत्त जबरदस्त ऐक्टिंग की है। फ़िल्म में वह बाप-बेटे की इमोशनल रिलेशनशिप को खूबसूरत अंदाज़ में जीते हैं। नरगिस के रोल में मनीषा कोइराला भी बेहतरीन लगी हैं। संजय के अमेरिकी दोस्त कमलेश के रोल में नज़र आए विकी कौशल ने साबित कर दिया कि वह बॉलिवुड में लंबी पारी खेलने वाले हैं। संजू के ड्रगिस्ट दोस्त जुबिन के रोल में जिम सरभ कमाल लगे हैं। संजय की वाइफ मान्यता के रोल में दीया मिर्जा और राइटर विनी के रोल में अनुष्का शर्मा भी अच्छी लगी हैं। हालांकि उनके पास ज्यादा कुछ करने को नहीं था। फ़िल्म का संगीत भी खूबसूरती से पिरोया गया है। खासकर हर मैदान फतह गाना आपको इमोशनल कर देता है। अगर आप संजू बाबा या रणबीर कपूर के फैन हैं, तो इस वीकेंड यह फ़िल्म मिस मत कीजिए।",1 "बॉक्स आफिस पर बेशक मनीष मुंदरा की फिल्मों को अच्छा रिस्पॉन्स न मिला हो, लेकिन उनकी फिल्मों को हर बार दर्शकों की एक खास क्लास के साथ क्रिटिक्स की जरूर जमकर वाहवाही मिली है। अगर मनीष की पिछली राजकुमार रॉव स्टारर फिल्म 'न्यूटन' की बात करें तो इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर न सिर्फ अपनी लागत ही वसूली बल्कि फिल्म ने अच्छी-खासी कमाई भी की। वहीं मनीष के बैनर तले बनी 'आंखिन देखी' और 'मसान' ने भी दर्शकों की एक खास क्लास में अपनी पहचान जरूर छोड़ी। इस बार मनीष ने अपनी इस फिल्म में एक मर्डर मिस्ट्री को टोटली डिफरेंट ऐंगल से पेश किया है। एक ऐक्सिडेंट में अपने पिता को खो चुके एक बेटे को पुलिस की जांच पर भरोसा नहीं, उसे हर बार यही लगता है कि उसके पिता की मौत एक रोड ऐक्सिडेंट में नहीं हुई बल्कि उन्हें पूरी प्लानिंग के साथ मरवाया गया है। इसी प्लॉट पर घूमती करीब पौने दो घंटे की यह फिल्म दर्शकों की उसी क्लास की कसौटी पर ही खरा उतरने का दम रखती है जो सिनेमाहॉल में मुबइया मसाला, ऐक्शन और सिर्फ टाइमपास के मकसद से नहीं आते बल्कि ऐसी फिल्म की तलाश में थिअटर का रुख करते हैं जो अलग हो। फिल्म की स्पीड अंत तक इस कदर धीमी है कि कई बार हॉल में बैठे दर्शकों का सब्र लेने लगती है। वैसे निर्देशक अतानु का दावा है कि उनकी यह फिल्म एक सच्ची घटना पर बेस्ड है, लेकिन इस घटना के बारे में उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं बताया।स्टोरी प्लॉट : दिवाकर माथुर (मनोज वाजपेयी) का लेदर का कारोबार है, उसकी अपनी फैक्ट्री है, लेकिन जबर्दस्त आर्थिक तंगी के चलते वह इसे ठीक ढंग से चला नहीं पा रहा है। दिवाकर की पत्नी नंदिनी माथुर (स्मिता तांबे) को अपने हज्बंड से शिकायत है कि वह अपनी फैक्ट्री में कुछ इस कदर उलझे रहते हैं कि न तो अपने इकलौते बेटे ध्रुव माथुर (आदर्श गौरव) और न ही अपनी फैमिली के लिए वक्त निकाल पा रहे हैं। इसी बीच दिवाकर का दोस्त रॉबिन (कुमुद मिश्र) उसकी मदद करता है और फैक्ट्री को चलाने के लिए मोटी रकम देकर दिवाकर के साथ फैक्ट्री में पार्टनर बन जाता है। वहीं स्कूल में पढ़ रहे ध्रुव को अक्सर यही महसूस होता है कि पापा दिवाकर के पास उसके लिए वक्त नहीं है। ऐसे में ध्रुव कुछ ज्यादा ही गुस्सैल बन जाता है, स्कूल में एक स्टूडेंट के साथ मारपीट के बाद उसे जब सीनियर सेकंडरी स्कूल से निकाल दिया जाता है तो दिवाकर उसे एक बोर्डिंग स्कूल में भेज देता है। तभी एक दिन ध्रुव को खबर मिलती है कि दिवाकर की एक रोड ऐक्सिडेंट में मौत हो गई है। ध्रुव बोर्डिंग छोड़ अपने घर लौट आता है, लेकिन ध्रुव को हर बार यही लग रहा है कि उसके पिता की मौत एक ऐक्सिडेंट में नहीं हुई बल्कि उनका एक सोची समझी प्लानिंग के साथ मर्डर किया गया है।बेशक फिल्म एक मर्डर मिस्ट्री है लेकिन डायरेक्टर ने फिल्म को स्क्रिप्ट की डिमांड पर एक ही सिंगल ट्रैक पर पेश किया है। अतानु की कहानी और किरदारों पर तो अच्छी पकड़ है, लेकिन स्क्रिप्ट पर उन्होंने ज्यादा काम नहीं किया। यही वजह है कि फिल्म की गति बेहद धीमी है। अगर पौने दो घंटे की फिल्म में भी दर्शक कहानी और किरदारों के साथ बंध नहीं पाए तो यह कहीं न कहीं डायरेक्शन की खामी ही कहा जाएगा। अलीगढ़ जैसी कई फिल्मों में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवा चुके मनोज बाजपेयी पूरी फिल्म में अपने किरदार में जीते नज़र आ रहे तो वहीं स्मिता तांबे की खामोशी के बीच उनका फेस एक्सप्रेशन जबर्दस्त है। ध्रुव के किरदार में आदर्श गौरव डायरेक्टर की राइट चॉइस रही तो कुमुद मिश्रा ने रॉबिन के किरदार को दमदार ढंग से निभाया है। फिल्म में बैकग्राउंड में गाने हैं, लेकिन यह गाने फिल्म की पहले से स्लो स्पीड को और स्लो ही करते हैं।क्यों देखें : अगर आपको लीक से हटकर बनी फिल्में पसंद हैं तो इसे एकबार देखा जा सकता है। एंटरटेनमेंट, ऐक्शन और कॉमिडी के शौकीनों के लिए इस फिल्म को देखने की कोई वजह नहीं है। ",0 "म्यूजिक और डांस पर फिल्में बनाने का सिलसिला बॉलिवुड में नया नहीं है, 60-70 के दौर में वी. शांताराम जैसे नामी मेकर ने इन्हीं सब्जेक्ट पर 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली' सहित कई सुपरहिट फिल्में बनाई। पिछले कुछ अर्से में ग्लैमर नगरी के कोरियॉग्राफर गणेश आचार्य, रेमो डिसूजा ने भी बतौर डायरेक्टर अपनी फिल्मों को डांस और म्यूजिक के आसपास ही रखा। रणबीर कपूर स्टारर रॉक स्टार का सब्जेक्ट भी कुछ ऐसा ही रहा और यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई। अब अगर हम रितेश देशमुख स्टारर बैंजो की बात करें तो इस फिल्म के डायरेक्टर रवि जाधव मराठी फिल्म इंडस्ट्री के बेहद कामयाब और ऐसे मेकर माने जाते हैं जो दर्शकों की नब्ज पकड़ने की कला अच्छी तरह से जानते हैं। काश, रवि कुछ ऐसा ही करिश्मा हिंदी फिल्म दर्शकों के साथ भी कर दिखा पाते, लेकिन उनके निर्देशन में बनी इस पहली हिंदी फिल्म को देखकर यही लगता है कि हिंदी में फिल्म शुरू करने के बावजूद जाधव अपनी इस फिल्म का ट्रीटमेंट मराठी फिल्मों की तर्ज पर ही करते रहे। चूंकि फिल्म मुंबई की लोकल स्लम कॉलोनी के बैकड्रॉप पर फिल्माई गई है तो जाधव को अपनी इस फिल्म को मराठी माहौल के इर्दगिर्द रखने की एक बड़ी वजह मिल गई, लेकिन मराठी माहौल के बीच रवि ने गणपति उत्सव के सीन को न जाने क्यों बार-बार अपनी कहानी का हिस्सा बनाया, यह समझ से परे है। यही वजह है कि इस फिल्म में म्यूजिक के साथ-साथ इमोशन को कुछ ज्यादा पेश किया गया, जो यकीनन जेन एक्स और मल्टिप्लेक्स कल्चर के इस दौर में बॉक्स ऑफिस पर कमजोर साबित हो सकता है। कहानी : मुंबई की एक स्लम बस्ती में रहने वाला नंद किशोर उर्फ तरात (रितेश देशमुख) अच्छा बैंजो प्लेयर है। इसी स्लम बस्ती के एक लोकल लीडर के लिए तरात हफ्ता वसूली का काम करता है। बस्ती में तरात की इमेज किसी मवाली से कम नहीं है, तरात ने अपने तीन दोस्तों के साथ मिलकर एक म्यूजिक ग्रुप बनाया हुआ है। तरात और उसके इस ग्रुप के तीनों साथी पेपर, ग्रीस और वाजा अपनी बस्ती के अलावा आसपास की बस्तियों में होनेवाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में परफॉर्म भी करते हैं। इस बार तरात के ग्रुप को गणपति के सालाना फंक्शन में खूब सराहा गया और सम्मानित भी किया गया, सो तरात ने अपने ग्रुप की फीस डबल कर दी। तरात और उसके दोस्तों की इस ग्रुप में परफॉर्म करने की वजह कुछ एक्स्ट्रा आमदनी का होना है, वर्ना पेपर हर रोज सुबह न्यूजपेपर्स बांटता है तो ग्रीस एक मोटर गैराज में काम करता है, वाजा अपने पिता के साथ शादी और खुशी के दूसरे कार्यक्रमों में वाद्ययंत्र बजाने का काम करता है। इन चारों की जिंदगी में उस वक्त टर्निंग पॉइंट आता है जब न्यू यार्क से क्रिस (नरगिस फाखरी) मुंबई आती है। क्रिस के यहां आने काम मकसद न्यू यॉर्क में होनेवाले एक म्यूजिक कॉन्टेस्ट के लिए मुंबई के एक अनजान बैंजो प्लेयर्स के साथ मिलकर दो गाने रेकॉर्ड करना है। दरअसल, क्रिस ने विदेश में तरात और उसके ग्रुप द्वारा बनाई एक म्यूजिक धुन सुनने के बाद अपने दो गाने इस ग्रुप के साथ बनाने का फैसला किया। क्रिस न्यू यॉर्क से मुंबई की उसी स्लम बस्ती में आती है जहां तरात और उसके साथी रहते है। यहीं पर पहली बार तरात और क्रिस मिलते हैं। तरात यहां क्रिस के लिए लोकल गाइड का काम करता है, लेकिन अपनी बैंजो प्लेयर वाली पहचान क्रिस से छुपाता है। ऐक्टिंग : मुंबई की लोकल स्लम बस्ती में एक लीडर के लिए हफ्तावसूली करने भाई टाइप मवाली और बैंजो आर्टिस्ट के किरदारों में रितेश देशमुख ने मेहनत की है। बैंजो बजाते हुए सीन्स में रितेश के एक्सप्रेशन्स बहुत खूब बन पड़े हैं, वहीं क्रिस के रोल में नरगिस फाखरी ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया, अगर नरगिस के फिल्मी करियर की बात करें तो उनके साथ हर बार विदेशी युवती का टैग लग रहा है। बैंजो में नरगिस का क्रिस वाला किरदार भी इससे अछूता नहीं है। अन्य कलाकारों में धर्मेंद्र यावडे ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से अपनी मौजूदगी का एहसास कराया है। डायरेक्शन : इंटरवल से पहले तक रवि जाधव अपनी इस सिंपल सी कहानी का प्लॉट बनाने में कुछ ज्यादा ही उलझ गए। एक म्यूजिक मंडली पर फोकस करती इस कहानी में उन्होंने न जाने क्यों बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले दूसरे चालू मसालों को फिट किया, यही वजह है कि म्यूजिक पर बनी इस फिल्म में फाइट सीन, इमोशनल सीन के साथ-साथ कॉमिडी सीन भी फिट किए गए जो कहानी को ट्रैक से भटकाने का काम करते है। वहीं 'बैंजो' टाइटल पर बनी इस फिल्म में बैंजो को ही कम फुटेज मिल पाई। हां, इंटरवल के बाद कहानी रफ्तार पकड़ती है, जाधव की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ समाज में बैंजो आर्टिस्ट की स्थिति को पेश किया तो लीड जोड़ी रितेश-नरगिस के अलावा कहानी के बाकी तीन अहम किरदारों पेपर, ग्रीस और वाजा को भी अच्छी फुटेज दी। संगीत : विशाल शेखर का म्यूजिक कहानी और माहौल पर पूरी तरह से फिट है, चूंकि फिल्म बैंजो की पृष्ठभूमि पर है तो संगीतकार जोड़ी ने फिल्म के म्यूजिक में बैंजो को अलग प्राथमिकता दी और फिल्म के म्यूजिक को अलग ट्रैक से तैयार करने में अच्छी-खासी मेहनत की है। इंटरवल से पहले फिल्म में ज्यादा गानें हैं जो फिल्म की रफ्तार सुस्त करने काम करते है। क्यों देखें : अगर आपको म्यूजिक पर बनने वाली फिल्में पसंद हैं और रितेश के आप पक्के फैन हैं तो 'बैंजो' एकबार देखी जा सकती है, अगर आप कहानी में कुछ नया और अलग सोचकर जाएंगे तो अपसेट हो सकते हैं। ",1 "एक्शन, आइटम नंबर, बड़े सेट और विदेश में शूटिंग जैसे चिर-परिचित फॉर्मूलों के बिना भी एक अच्छी तथा मनोरंजन फिल्म बनाई जा सकती है, ये बात डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने फिल्म 'ज़ेड प्लस' बना कर साबित की है। ज़ेड प्लस एक साधारण आदमी की कहानी है जो पुलिस, महंगाई और बीवी से डरता है तथा असाधारण परिस्थितियों में फंस जाता है। उस आम आदमी का नेता, अफसरशाही, पुलिस किस तरह इस्तेमाल करती है यह बात व्यंग्यात्मक तरीके से पेश की गई है। राजस्थान के छोटे से शहर स्थित पीपल वाले पीर की दरगाह पर प्रधानमंत्री अपनी गठबंधन की सरकार बचाने के लिए 'चादर' चढ़ाने आते हैं। पीएम की इस यात्रा पर एक ग्रामीण कहता है कि लगता है तीर तो याद आते हैं पीर। पीएम जिस दिन दरगाह पर आते हैं उस दिन दरगाह का खादिम एक पंक्चर पकाने वाला शख्स असलम था। प्रधानमंत्री हिंदी नहीं जानते और असलम को शायद अंग्रेजी में एक-दो शब्द मालूम होंगे। गलतफहमी होती है और असलम को ज़ेड प्लस की सिक्यूरिटी मिल जाती है। असलम के टूटे-फूटे घर के आगे दर्जन भर हट्टे-कट्टे जवान आधुनिक हथियार के साथ खड़े हो जाते हैं। असलम शौच के लिए जंगल जाता है तो जवान वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। कुछ दिन अच्छे लगने वाली यह सिक्यूरिटी असलम के लिए जी का जंजाल बन जाती है। वह अपनी माशूका से मिलने भी नहीं जा सकता है क्योंकि उसे अपनी पोल खुलने का डर है। ज़ेड सिक्यूरिटी के कारण असलम मीडिया की निगाह में भी आ जाता है। मीडिया को बताया जाता है कि उसे पड़ोसी मुल्क से जान का खतरा है। पड़ोसी देश के आतंकवादी भी हरकत में आ जाते हैं कि यह ऐसा कौन-सा शख्स है जिसे भारत में सुरक्षा दी जा रही है। वे भी असलम की जान लेने के लिए उसके पीछे पड़ जाते हैं ताकि ज़ेड सिक्यूरिटी से घिरे आदमी की हत्या कर अपनी ताकत साबित कर सके। असलम की लोकप्रियता इतनी बढ़ जाती है कि राजनीतिक दल उसका फायदा उठाना चाहते हैं। तमाम दुष्चक्रों के बीच असलम का जीना मुश्किल हो जाता है। फिल्म में राजनीतिक और प्रजातंत्र की विसंगतियों को बारीकी से पेश किया गया है। बातें गंभीर हैं, लेकिन हल्के-फुल्के तरीके से कही गई हैं। शुरुआती हिचकोले के बाद फिल्म धीरे-धीरे दर्शकों को अपनी गिरफ्त में लेती है और इसका असर देर तक रहता है। फिल्म में दिखाया गया है कि नौकरशाही और नेता किस तरह से काम करते हैं। उनके लिए आम आदमी की अहमियत क्या है। किस तरह चुनाव जीतने के लिए लोकप्रिय चेहरे तलाश किए जाते हैं क्योंकि जनता भी इसी के आधार पर वोट देती है। नेता बनने के लिए मेकओवर किया जाता है। घर में गांधी और आंबेडकर की तस्वीरें लगाई जाती हैं। जब असलम को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया जाता है तो वह हिचकता है क्योंकि वह एक पंक्चर पकाने वाला आम आदमी है। उसे मुख्यमंत्री का पिठ्ठू समझाता है कि राजनीति करना और पंक्चर बनाना एक जैसे ही हैं। नेता जानता है कि कब बड़ी योजनाओं को पंक्चर करना है और कब इन पंक्चरों को ठीक करना है। असलम को भी बात समझ में आती है। जब उसे पता चलता है कि उससे भी गंवार लोग संसद सदस्य हैं तो वह भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। फिल्म में कई गहरी बातें संवादों और दृश्यों के जरिये पेश की गई हैं जो दर्शक अपनी समझ के मुताबिक ग्रहण करते हैं। फिल्म में कई हल्के-फुल्के दृश्य भी हैं जो दर्शकों को गुदगुदाते हैं। प्रधानमंत्री का दरगाह पर चादर चढ़ाने वाला सीन कमाल का बना है। जेड सिक्यूरिटी के कारण उत्पन्न हुई परेशानियां और फायदों को भी हास्य के रंग में पेश किया गया है। फिल्म से एक ही शिकायत रहती है कि यह बहुत लंबी हो गई है, इसलिए बात का असर कम हो जाता है। आतंकवादियों वाला हिस्सा खींचा गया है। फिल्म कम से कम 20 मिनट छोटी की जा सकती थी। निर्देशक के रूप में चंद्रप्रकाश‍ द्विेवेदी ने सीधे-सीधे तरीके से फिल्म को पेश किया है और वे विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए। तकनीक पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं है, लेकिन मजबूत कंटेंट ने उनके निर्देशन की कमियों को कुछ हद तक छिपा लिया है। एक छोटे शहर की बारीकियों को उन्होंने अच्छी तरह पकड़ा और पेश किया है। अपने किरदारों को भी वे दर्शकों से जोड़ने में असफल रहे हैं। असलम का रोल आदिल हुसैन ने निभाया है। फिल्म में उनका अभिनय बेहतरीन है लेकिन वे अपने किरदार में पूरी तरह घुस नहीं पाए। अनपढ़ या जाहिल लगने की बजाय वे पढ़े-लिखे शहरी व्यक्ति लगते हैं। कुलभूषण खरबंदा लंबे समय बाद दिखाई दिए और प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। मोना सिंह, मुकेश तिवारी, केके रैना, रवि झांकल, संजय मिश्रा बेहतरीन अदाकार हैं और इस फिल्म में उनका अभिनय इस बात को पुख्ता करता है। ज़ेड प्लस उन लोगों को अवश्य देखनी चाहिए जिन्हें नए विषय और किरदार वाली फिल्मों की तलाश रहती है। बैनर : मुकुंद पुरोहित प्रोडक्शन प्रा.लि., विस्डम ट्री प्रोडक्शन्स प्रा.लि. निर्माता : मुकुंद पुरोहित, मंदिरा कश्यप निर्देशक : चंद्रप्रकाश द्विवेदी संगीत : सुखविंदर सिंह, नायब कलाकार : आदिल हुसैन, मोना सिंह, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, कुलभूषण खरबंदा, राहुल सिंह, केके रैना सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट ",1 "फिल्म 'काला' में क्या है: तिरुनेलवेली का एक गैंगस्टर, जो कि बाद में धारावी का किंग बन जाता है और फिर वह ताकतवर नेताओं और भू माफिया से जमीन को सुरक्षित रखने की लड़ाई लड़ता है।काला रिव्यू: इस बार डायरेक्टर पा. रंजीत ने अपना मेसेज (भूमि आम आदमी का अधिकार है) दर्शकों तक पहुंचाने के लिए रजनीकांत के स्टारडम का इस्तेमाल किया है। कहानी सिंपल है, जिसमें तमिलनाडु से आया एक प्रवासी मुंबई की फेमस झुग्गी बस्ती धारावी में सेटल हो जाता है और फिर इसे बेहतर बनाने में लग जाता है, इसके साथ ही वह अब शहर को भी चलाने का काम कर रहा है। तभी एक दुष्ट नेता जो कि एक भू माफिया भी है, उसकी नज़र उसके जमीन पर पड़ जाती है, जिसके लिए उनके बीच जंग शुरू हो जाती है। क्या भू माफिया इसमें सफल हो जाता है? काला की कहानी शुरू होती एक एनिमेटेड स्टोरी कहने वाली डिवाइस से, ठीक वैसा ही जैसा 'बाहुबली' में नज़र आया था। यहां जमीन की अहमियत के साथ-साथ ताकत के भूखों द्वारा गरीबों का दमन दिखाया गया है। फिल्म की कहानी तेजी से मौजूदा समय में आ पहुंच आती है। दुष्ट औैर भ्रष्ट नेता व भू माफिया हैं, जो धारावी को तबाह कर उसे डिजिटल धारावी और मेन मुंबई के रूप में तब्दील करना चाहते हैं। सुपरस्टार रजनीकांत का 'काला' के नाम से एक कैजुअल सा लेकिन प्यारा सा इंट्रोडक्शन दिया गया है, जिसका पूरा नाम कारीकालन है। कहानी में रफ्तार तब पकड़ती है जब यह तय हो जाता है कि काला धारावी का किंग बन चुका है और कोई उससे टकराने का दम नहीं रखता। ज़रीना (हुमा कुरैशी) और काला के बीच लव ट्रैक ठीक उसी अंदाज़ में पेश किया जाता है जैसा कि कबाली-कुमुदावली में दिखाया गया था, लेकिन जल्द ही रजनीकांत को अपनी इस बेवकूफी का एहसास हो जाता है और फिर एक्स-लवर्स के साथ खूबसूरत डिनर सीन में नज़र आते हैं जहां काला अपनी प्राथमिकताओं के बारे में स्पष्टीकरण दे रहा होता है। यहां दोनों शानदार ऐक्टर का परफॉर्मेंस देखने लायक है। 'काला' रिलीज, फैन्स ने रजनीकांत के पोस्टर को दूध से नहलायाइंटरवल से पहले का हिस्सा टिपिकल मसाला स्टंट सीक्वेंस से भरा है, जिसमें कि मुंबई फ्लाईओवर (जहां कुछ वीएफएक्स तकनीक का इस्तेमाल किया गया है) के सीन हैं। यह सीन आपको पुराने रजनीकांत की याद दिला देगा, जो उनके फैन्स के लिए एक बड़े ट्रीट की तरह है। धमाल मचना तो तब शुरू होता है जब दुष्ट हरि दादा ( इस किरदार में खूब जमे हैं नाना पाटेकर यानी हरिनाथ देसाई) की सीन में एंट्री होती है। इंटरवल के बाद कहानी का बहुत कुछ अंदाज़ा आपको पहले ही लग जाता है, जिसमें हरी दादा बदला लेना चाहता है और वह काला से उसका प्यार छीन लेता है, लेकिन धीरे-धीरे रजनीकांत फिल्म में अपनी स्टाइल लेकर आते हैं। वह इस बारे में बात करते हैं कि जब तक विरोध न करें तो कैसे तब तक गरीबों को दबाया जाता है। वह अपने लोगों से अपने शरीर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की सलाह देता है। वह अपने लोगों से हड़ताल पर जाकर मुंबई को ठप्प करने का आदेश देता है, क्योंकि झुग्गियों में रहने वाले ज्यादातर लोग शहर चला रहे, जिनमें टैक्सी ड्राइवर्स, म्युनिसिपैलिटी स्टाफ, हॉस्पिटल स्टाफ जैसे लोग शामिल हैं। ...और फिर मुंबई की रफ्तार अचानक खामोश हो जाती है। हरि दादा बदला लेना चाहता है।फिल्म में नाना पाटेकर और रजनीकांत का मुकाबला देखने लायक है। दोनों के बीच के सीन बस पैसा वसूल लगेंगे, इतना ही समझिए। रजनी को हिन्दी और मराठी में सुनकर उनके फैन्स जरूर खुश होंगे।यहां जिक्र करना जरूरी है कि काला की पत्नी सेल्वी के रूप में ईश्वरी राव और काला के बेटे की गर्लफ्रेंड के रूप में पुयल यानी अंजली पाटील ने इतनी खूबसूरती से अपने किरदार को निभाया है कि उनसे आपको प्यार हो जाएगा। थीम सॉन्ग पहले से ही फेमस हो चुका है, जिसमें रजनीकांत ने बतौर राइटर डायरेक्टर शानदार परफॉर्म दिया है। रजनीकांत की फिल्मों की बात करें तो इस फिल्म का क्लाइमैक्स बेहतरीन है। रजनीकांत के टेक्निकल क्रू (सिनेमटॉग्रफर मुरली, म्यूज़िक डायरेक्टर संतोष नारायण, एडिटर श्रीकर प्रसाद और आर्ट डायरेक्टर रामालिंगम) ने बेहतरीन काम किया है।",0 " Chandermohan.sharma@timesgroup.com यकीनन, डायरेक्टर विक्रम भट्ट का नाम स्क्रीन पर देखते ही हॉल में बैठे दर्शक यही सोचने लगते हैं कि इस बार ऐसा क्या स्क्रीन पर दिखाने वाले हैं जिसे देखते ही डर के मारे हाथ-पांव फूलने लगे। दरअसल, भट्ट कैंप के साथ-साथ विक्रम ने जब अपने बैनर तले भी फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू किया तो हर बार उन्होंने अपनी प्रॉडक्शन कंपनी की फिल्मों को सेक्स या हॉरर के करीब ही रखा। विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी हॉरर, सेक्सी फिल्म राज बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित रही तो इस फिल्म के बाद जहां भट्ट ब्रदर्स ने सेक्सी हॉरर फिल्में बनने का ऐसा ट्रेंड शुरू हुआ जो आज भी बरकरार है, इस सीरीज की तीन फिल्में बना चुकी भट्ट कंपनी अब इस सीरीज की चौथी फिल्म Raaz Reboot लेकर हाजिर है। अगर इस सीरीज की हिट और बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्मों की बात की जाए तो इस सीरीज की बिपाशा बसु स्टारर दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित रही। Raaz Reboot में एकबार फिर विक्रम ने कुछ नया करने की बजाए फिर वहीं भूतियां सब्जेक्ट चुना है, इस बार फिल्म को स्टार्ट टु फिनिश रोमानिया में शूट किया गया है, सो लोकेशन और स्पेशल इफेक्ट्स और तकनीक के मामले में फिल्म में नयापन नजर आता है। कहानी : पहली बार शायना खन्ना (कृति खरबंदा) और रेहान खन्ना (गौरव अरोड़ा) रोमानिया में मिलते हैं, यहीं पर इन दोनों का प्यार परवान चढ़ता है और फिर दोनों यहीं शादी भी कर लेते हैं। शादी के बाद दोनों मुंबई चले गए, रेहान को मुंबई में ही अच्छी नौकरी भी मिल जाती है, लेकिन शायना को लगता है कि अगर रेहान को कामयाबी के शिखर तक पहुंचना है तो उसे रोमानिया में जाकर बसना चाहिए। आखिरकार, रेहाना शायना की बात मान लेता है और दोनों एकबार फिर रोमानिया लौट आते हैं। रोमानिया में रेहान को कंपनी की ओर से एक बड़ा सा बंगला मिलता है, इस बंगले में आने के बाद शायना को हर पल यही लगता है कि बंगले में कोई और भी है। रोमानिया आने के बाद रेहान अब शायना से दूर- दूर रहने लगता है। शायना को लगता है कि रेहान उससे कोई राज छुपा रहा है। दूसरी ओर शायना को बंगले में हर रात किसी और के होने की आहट सुनाई देती है। शायना जब भी रेहान को बंगले में किसी और के होने की बात करती है तो रेहान को लगता है यह सब शायना का वहम है। कहानी में ट्विस्ट उस वक्त आता है जब इंटरवल से चंद मिनट पहले आदित्य (इमरान हाशमी) की एंट्री होती है। आदित्य रोमानिया में ही रहता है, शादी से पहले शायना और आदित्य दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों की राहें जुदा हो गईं। अब बरसों बाद एकबार फिर आदित्य शायना से मिलता है। ऐक्टिंग : शायना के किरदार में कृति खरबंदा ने अच्छी ऐक्टिंग की है। कम फुटेज के बावजूद इमरान हाशमी अपने रोल में जमे। वहीं रेहान खन्ना के रोल में गौरव अरोड़ा ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए अच्छा होमवर्क किया है। निर्देशन : Raaz Reboot की सबसे बड़ी खामी यही है कि करीब दो घंटे की इस हॉरर फिल्म में हॉरर सीन न के बराबर है। फिल्म के क्लाइमैक्स में विक्रम ने कुछ असरदार हॉरर सीन्स पेश किए, लेकिन यह सीन भी इतने हॉरर नहीं कि हॉरर फिल्मों के शौकीनों को डरा सके। इस फिल्म की स्क्रिप्ट विक्रम भट्ट ने लिखी है लेकिन स्क्रिप्ट में नयापन कतई नहीं है। लेकिन विक्रम ने रोमानिया की बेहतरीन लोकेशंस पर फिल्म के सीन्स शूट किए। इंटरवल से पहले की फिल्म काफी सुस्त है, न जाने क्यों विक्रम ने फिल्म में अंग्रेजी का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया है, हॉरर फिल्में अक्सर सिंगल स्क्रीन और बी सी सेंटरों पर अच्छा बिज़नस करती है, लेकिन करीब तीस फीसदी से ज्यादा अंग्रेजी डायलॉग वाली यह फिल्म इन सेंटरों पर टिक नहीं पाएगी। फिल्म की खबरें फेसबुक पर पढ़ने के लिए लाइक करें NBT Movies ऐक्टिंग : शायना के किरदार में कृति खरबंदा ने अच्छी ऐक्टिंग की है, कम फुटेज के बावजूद इमरान हाशमी अपने रोल में जमे, वहीं रेहान खन्ना के रोल में गौरव अरोड़ा ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए अच्छा होमवर्क किया है। संगीत : इस फिल्म राज रीबूट के साथ म्यूजिक कंपनी टी सीरीज का नाम जुड़ा है सो फिल्म का संगीत इस फिल्म का प्लस पॉइंट है, फिल्म के कई गाने पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। क्यों देखें : अगर हॉरर फिल्मों के पक्के शौकीन हैं तो इस फिल्म को भी देखा जा सकता है, लेकिन कुछ नया या खास होने की आस लेकर न जाएं वर्ना अपसेट होंगे। इमरान हाशमी के फैन्स को अपने चहेते स्टार के चंद सीन्स ही इस पूरी फिल्म में नजर आएंगे। Read Raaz Reboot Movie Review here in english",0 "अगर हम यंग डायरेक्टर नीरज पांडे की पिछली चंद फिल्मों की बात करते हैं तो उनकी लगभग सभी फिल्मों को दर्शकों ने सराहा तो क्रिटिक्स ने भी उनकी फिल्मों की वाहवाही की। नीरज के निर्देशन में कम बजट में बनी 'वेडनस डे' एक ऐसी फिल्म थी जिसमें न तो इंडस्ट्री का कोई नामचीन स्टार था और न ही फिल्म का बजट करोड़ों में था। अनुपम और नसीर के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म ने टिकट खिड़की पर जबर्दस्त बिज़नस किया तो क्रिटक्स से भी फिल्म को कमाल का रिस्पॉन्स मिला। वहीं नीरज की अगली फिल्में 'बेबी', 'स्पेशल 26' के बाद आई मेगा बजट एम एस धोनी की बायॉपिक फिल्म, जो उनकी हिट मूवी लिस्ट में शामिल रही। अगर हम नीरज की फिल्मों के सब्जेक्ट की बात करें तो उनकी फिल्में अक्सर लीक से हटकर बनती हैं और इनमें हर बार कुछ नया सब्जेक्ट सामने आता है। नीरज के निर्देशन में बनी 'अय्यारी' भी मेगा बजट फिल्म है जिसका बजट प्रमोशन सहित 65 करोड़ के करीब आंका जा रहा है। नीरज ने इस फिल्म में पहली बार मनोज बाजपेयी और सिद्धार्थ मल्होत्रा को एकसाथ पेश किया। रिलीज से पहले फिल्म की रिलीज डेट टली तो बाद में सेंसर कमिटी ने फिल्म के संवेदनशील सब्जेक्ट को देखते हुए इसे डिफेंस मिनिस्ट्री की एक कमिटी के पास भी भेजा। आइए जानते है नीरज की इस फिल्म में क्या है खास स्टोरी प्लॉट: कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी) और यंग मेजर जय बख्शी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) दोनों आर्मी की एक स्पेशल यूनिट के लिए काम करते हैं। बेशक इन दोनों के बीच अच्छी और जबर्दस्त ट्यूनिंग है, लेकिन अक्सर किसी न किसी बात को लेकर इन दोनों के बीच अच्छी-खासी बहस होती रहती है। अब यह बात अलग है कि जय बख्शी शुरू से कर्नल अभय सिंह को अपना गुरू मानता है। अचानक कुछ ऐसी घटनाएं होने लगती है जिनके बाद जय बख्शी दिल्ली से कहीं दूर जाने की प्लानिंग में लग जाता है। जय की इन अजीबोगरीब घटनाओं और उसके व्यवहार को देखकर अभय खुद हैरान है कि जय क्या कर रहा है। इसी बीच एक दिन अचानक जय गायब हो जाता है और यहीं से कहानी डिफेंस डील से लेकर देश की सुरक्षा के मुद्दे और सेना के आला अफसरों और इंटेलिजेंस ब्यूरों के साथ राजनीति के गलियारों तक घूमती है। नीरज अक्सर अपनी फिल्म की कहानी में हिरोइन के लिए जगह निकाल ही लेते हैं। 'स्पेशल 26' में भी उन्होंने कहानी में हिरोइन का प्लॉट जैसे फिट किया कुछ ऐसा ही हाल इस फिल्म का भी है। डिफेंस की इस कहानी में सोनिया यानी रकुल प्रीत की प्रेम कहानी भी साथ-साथ चलती है। फिल्म का क्लाइमैक्स चौंका देने वाला है। A post shared by Sidharth Malhotra (@s1dofficial) on Feb 12, 2018 at 5:50am PST The critics can't stop raving about #Aiyaary. Book your tickets now. #AiyaaryOutNow Book tickets here:… https://t.co/EGdsQBbZon— Aiyaary (@aiyaary) 1518769492000 फिल्म की फटॉग्रफी का जवाब नहीं। दिल्ली से शुरू हुई 'अय्यारी' की कहानी कश्मीर की बेहद खूबसूरत घाटियों से गुजरती हुई लंदन की नयनाभिराम लोकेशन तक पहुंचती है। नीरज के निर्देशन में इस बार पिछली फिल्मों जैसी कसावट और कहानी में ऐसी रफ्तार नहीं जो अंत तक दर्शकों को बांध कर रख सके। हालांकि कैमरामैन ने पूरी फिल्म में ऐसी खूबसूरत फटॉग्रफी की है जो आपको नजरें स्क्रीन से लगाए रखने को विवश करती हैं। वहीं नीरज ने फिल्म के कुछ खास सीन को रियल लोकेशंस पर शूट किया, जो देखने लायक है। निर्देशक नीरज पांडे अपनी इस फिल्म को एक सच्ची घटना से जुड़ी फिल्म बताते हैं, लेकिन इस बारे में उन्होंने ज्यादा डीटेल कहीं नहीं दी। वहीं नीरज ने फिल्म के कई सीन को बेवजह इस कदर खींचा कि फिल्म की रफ्तार बेहद धीमी है और फिल्म के सब्जेक्ट के मुताबिक ठीक नहीं कहीं जा सकती। वहीं नीरज ने बेवजह फिल्म में गाने फिट किए जो दर्शकों को हॉल से बाहर जाने का मौका देते हैं। न जाने क्यों नीरज ने रकुल और सिद्धार्थ की लव स्टोरी को इस फिल्म का हिस्सा बनाया। अगर ऐसा न होता तो नीरज आसानी से फिल्म को सव दो घंटे में पूरा कर पाते और यह फिल्म के बिज़नस के लिए भी अच्छा रहता। अगर हम ऐक्टिंग की बात करें तो बेशक मनोज बाजपेयी अंत तक पूरी फिल्म में दर्शकों को अपने किरदार से बांधे रखने में कामयाब रहे हैं। मनोज की ऐक्टिंग फिल्म का सबसे मेजर प्लस पॉइंट है तो वहीं सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिए भी यह फिल्म खास है। जय बख्शी के किरदार को सिद्धार्थ ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। रकुल प्रीत के लिए करने के लिए यूं भी कुछ खास नहीं था तो वहीं अनुपम और नसीर दोनों अपने रोल में परफेक्ट रहे।बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट Day 1 Rs 3.25 crore Day 2 Rs 4.25 crore Day 5 Rs 1.20 crore Total Rs 14.45 crore approx ",0 "chandermohan.sharma@timesgroup.com बतौर डायरेक्टर सोहेल खान की पिछली फिल्म 'जय हो' बेशक उनके भाई सलमान खान के नाम और उनके दम पर सौ करोड़ क्लब में एंट्री कराने में कामयाब रही, लेकिन सोहेल की इस फिल्म को न तो दर्शकों की और से और न ही क्रिटिक्स की ओर से ही अच्छा रिस्पांस मिला। इतना ही नहीं, जय हो को मिले कमजोर रिस्पांस के बाद खुद सलमान खान भी इस कदर अपसेट हुए कि उन्होंने अपने फैमिली बैनर के तले बनने वाली फिल्मों से खुद को कुछ अर्से के लिए अलग करने का फैसला किया। शायद यहीं वजह रही बतौर डायरेक्टर सोहेल ने लंबे अर्से बाद एकबार फिर जब डायरेक्शन करने का फैसला किया तो ऐसी फिल्म के साथ जिसका बजट ज्यादा ना हो, इतना ही नहीं सोहेल ने अपनी इस फिल्म के लिए भाई को अप्रोच तक नहीं किया। सोहेल ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी को कास्ट करने के बाद जब उन्हें कहानी डिस्कस करने के लिए बुलाया तो उस वक्त सलमान भी वहीं मौजूद थे। सोहेल ने बडे भाई की मौजूदगी में नवाज को कहानी और उनका किरदार सुनाई तो सलमान ने कहा सोहेल अगर तुम मुझे पहले इस कहानी को सुनाते तो मैं इस फिल्म को करता। बॉक्स आफिस पर नवाज की फिल्मों को इन दिनों अच्छा रिस्पांस मिल रहा है, उनकी ऐक्टिंग की फैंस ही नहीं, बल्कि क्रिटिक्स भी जमकर तारीफें करने में लगे है। ऐसे में रिलीज हुई इस फिल्म का नवाज और उनके फैंस में पहले से जमकर क्रेज है। फिल्म में नवाज के लीड किरदार को देखकर खुद सलमान ने उनकी जमकर तारीफें कीं, तो वहीं सोहेल की इस फिल्म के साथ अपने बैनर का नाम भी जोडा। कहानी : मुंबई की एक स्लम बस्ती में अपनी मौसी (सीमा बिस्वास) के साथ रहने वाला अली (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) गली गली में घूमकर चड्ढी-बनियान बेचने का काम करता है। अली के मां-बाप नहीं हैं, और मौसी ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया। अली इसी बस्ती में रहने वाले मकसूद (अरबाज खान) के साथ हफ्ता वसूली का भी काम करता है। मकसूद लोकल डॉन डेंजर भाई (निकितन धीर) के गिरोह के साथ जुडा है, जो डेंजर भाई के लिए रईस लोगों से वसूली का धंधा करता है। एक दिन मकसूद के साथ अली गोल्फ कोर्स में सेठ सिंघानिया से वसूली के लिए जाता है। सिंघानिया सेठ बडी देर से गोल्फ खेलने में बिजी है। मकसूद और अली दोनो ग्राउंड के एक कोने में बैठकर उससे रकम लेने का इंतजार करते हैं। लंबे इंतजार के बाद जब अली सिघांनिया के पास जाकर जल्दी रकम देने लिए कहता है, तो सिंघानिया उसे गोल्फ खेलने के लिए चैलेंज करता है। ग्राउंड में गोल्फ की जिस गेंद को सिंघानिया बहुत देर से गड्ढे में नहीं डाल पा रहा था उसे अली पहली बार में ही गड्ढे में डाल देता है। यहीं अली की मुलाकात मेघा (एमी जैक्सन) से होती है जो गोल्फ चैंपियन विक्रम (जस अरोरा) की मैनेजर है। अली को मेघा से पहली नजर में प्यार हो जाता है। गोल्फ ग्राउंड में बरसों से काम करने वाला किशन लाल भी अली के पड़ोस में ही रहता है। किशन लाल जब अली को बेहतरीन गोल्फ खेलते देखता है तो उसे अली के अंदर छिपा एक बेहतरीन गोल्फर नजर आता है, और किशन लाल अली को गोल्फ सिखाने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : अली के किरदार में एकबार फिर नवाजुद्दीन ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। मौसी के रोल में सीमा बिस्वास दर्शकों में प्रभाव छोडने में कामयाब है तो मकसूद के रोल में अरबाज खूब जमे है। डेंजर भाई के रोल में निकितन धीर छा गए। ऐसा लगता है एमी जैक्सन को महज हिरोइन की खानापूर्ति के लिए लिया गया। कहानी के क्लाइमैक्स में नजर आए जैकी श्रॉफ अपना असर छोडने में कामयाब रहे। निर्देशन : फिल्म की स्क्रिप्ट काफी सिंपल और सीधी-सादी है। सोहेल ने फिल्म की शुरूआत बेहद मजेदार अंदाज में की है। एक के बाद एक कई पंच आपको हंसाते है, लेकिन इस सिंपल शुरूआत के बाद सोहेल गोल्फ के मैदान में जाकर कुछ ऐसे उलझे कि इंटरवल के बाद की फिल्म बेवजह खींची हुई लगने लगती है। अली और अरबाज के बीच वन लाइनर पंच दिलचस्प है। संगीत : फिल्म के गाने महज 2 घंटे की इस फिल्म की रफतार को रोकने काम करते हैं। क्यों देखें : अगर नवाजुद्दीन सिद्दीकी के पक्के फैन हैं, तो आप फ्रीकी अली से मिल आएं। अपसेट नहीं होंगे। ",1 "आज के समय में भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग जैसी थीमों पर फिल्में सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं। ऐक्शन थ्रिलर 'सत्यमेव जयते' एक ऐसे आदमी की कहानी है जो काफी गुस्से और हिंसा के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ता है। फिल्म की कहानी ठीकठाक है लेकिन इसका प्रदर्शन सत्यता से कहीं दूर है। इस मसाला फिल्म में कई तत्व 70 और 80 के दशक की फिल्मों से लिए गए लगते हैं। फिल्म में हाई बैकग्राउंड म्युजिक, जरूरत से ज्यादा ड्रामा और बेशुमार ऐक्शन इसे कहीं-कहीं थकाऊ बना देती है। फिल्म की शुरूआत में वीर (जॉन अब्राहम) एक पुलिस वाले को जिंदा जला देता है। यह बाकी की फिल्म के लिए एक जमीन तैयार करती है और अगले 2 घंटे से ज्यादा समय तक फिल्म एक ही ढर्रे पर चलती रहती है। वीर हर उस जगह पहुंच जाता है जहां कोई पुलिस वाला कोई अपराध कर रहा होता है। फिल्म के बीच में एक ट्विस्ट जरूर आता है लेकिन इसके बाद भी फिल्म का फोकस भ्रष्ट पुलिसवालों को आग के हवाले कर देने पर ही रहता है। पूरी फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई और देशभक्ति के कुछ पाठ पढ़ाते हुए आगे बढ़ती है। फिल्म के लिए भारी-भरकम डायलॉग्स लिखे गए हैं लेकिन वे फिल्म पर ही भारी पड़ रहे हैं। मनोज बाजपेई और जॉन अब्राहम के किरदार की लड़ाई को कहीं बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था लेकिन स्क्रिप्ट इसमें फेल हो गई। डायरेक्टर मिलाप जावेरी के नजरिए के मुकाबले कलाकारों का प्रदर्शन काफी बेहतर है। जॉन अब्राहम ने लीड के रूप में कमान संभाली है। टायर फाड़ते हुए और बुरे लोगों की पिटाई करते हुए उन्होंने एक ऐंग्री यंग मैन की भूमिका पूरी लगन और ऊर्जा के साथ निभाया है। मनोज बाजपेई अपने टॉप फॉर्म में हैं। एक दृढ़ और ईमानदार पुलिस वाले की उनकी ऐक्टिंग फिल्म को थोड़ा मजबूत बनाती है। न्यूकमर आयशा शर्मा कैमरे पर काफी कॉन्फिडेंट नजर आईं, हालांकि डायलॉग्स पर उन्हें थोड़ा और मेहनत करने की जरूरत है। 'सत्यमेव जयते' इंतकाम और अच्छाई के सालों पुराने आइडिया को बेचने की कोशिश कर रही है लेकिन इसका अतिनाटकीय प्रदर्शन के कारण इसे हजम करना मुश्किल होता है। जॉन अब्राहम के होने की वजह से आप इसमें अच्छे ऐक्शन की अपेक्षा कर सकते हैं लेकिन कभी-कभी यह काफी भयानक हो जाता है। सच यह है कि फिल्म की कहानी आज के समय में काफी प्रासंगिक है लेकिन फिल्म में इस कहानी को कहने का तरीका इसे कमजोर बनाता है। ",0 "बॉलिवुड की हॉरर फिल्मों में अक्सर हीरो अपनी हीरोइन को भूत के चंगुल से बाहर निकालने में मदद करता है। इनके अलावा फिल्म में कोई तांत्रिक या पादरी या मौलवी भी होते हैं जो भूत पर काबू पाने में हीरो की मदद करते हैं। राज और 1920 सीरीज की भूतिया फिल्में देखने के बाद अगर आप किसी टिपिकल भूत की तलाश में दोबारा जैसी फिल्म देखने जाएंगे तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी। यहां आपको डराने वाला कोई टिपिकल भूत नहीं है बल्कि जैसा कि फिल्म के नाम से ही साफ हो रहा है कि इसमें आपके भीतर के पापी की बात की गई है। दरअसल यह बॉलिवुड टाइप की हॉरर फिल्म नहीं बल्कि 2013 में आई एक अमेरिकन हॉरर फिल्म की ऑफिशल रीमेक है। इसे हॉरर के बजाय आप एक साइकॉलजिकल थ्रिलर भी कह सकते हैं, जहां फिल्म के करैक्टर खुद की अनजानी यादों से जूझते नजर आते हैं। कहानी: फिल्म की कहानी लंदन में रहने वाले एलेक्स मर्चेंट (आदिल हुसैन), उसकी वाइफ लीजा मर्चेंट (लीजा रे) और उनके दोनों बच्चों नताशा मर्चेंट (हुमा कुरैशी) और कबीर मर्चेंट (साकिब सलीम) की है। जब कबीर 11 साल का था तो घर पर हुए एक हादसे में उसके माता-पिता की मौत हो गई थी। उसके बाद कबीर को सुधारगृह में भेज दिया गया था जबकि नताशा ने बाहर रहकर उस सारे वाकये पर रिसर्च की। नताशा का मानना है कि उनके घर में मौजूद एक एंटीक आईना इस सारे फसाद की जड़ है जिसने उसके पापा के हाथों उसकी मां का कत्ल करा दिया जबकि सुधारगृह में रहकर लौटे उसके भाई कबीर का मानना है कि उसके पिता ने मां को गोली मारी और उसके बाद उसने अपने पिता को गोली मार दी। इस उलझन से पार पाने के लिए नताशा कबीर को एक बार फिर उस आईने के साथ अपने पुराने घर में लेकर आती है जहां उसने बाकायदा कैमरा रिकॉर्डिंग का इंतजाम किया हुआ है। इसके बाद दोनों अपने बचपन की यादों को याद करते हैं और अपनी-अपनी यादों के सहारे खुद को सही ठहराने कोशिश करते हैं। इस बीच उनके साथ कुछ अजीब घटनाएं होती हैं। हालांकि उस आइने के रहस्य को जानने के लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी। रिव्यू: असल जिंदगी में भाई-बहन हुमा और साकिब ने फिल्म में भाई-बहन के किरदार को संजीदगी से निभाया है और अपने लिए एक नए जॉनर की तलाश भी की है। वहीं, उनके पिता का रोल करने वाले आदिल हुसैन हमेशा की तरह ऐक्टिंग के मामले में लाजवाब रहे हैं जबकि लीजा रे ने भी अपने किरदार को बखूबी निभाया है। इनके अलावा, नताशा और कबीर के बचपन का रोल करने वाले बाल कलाकारों ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा बोझिल है तो सेकंड हाफ में फिर भी कहानी की परतें खुलती हैं। हालांकि कहानी इतनी बार मौजूदा दौर से फ्लैश बैक में जाती है कि कई बार आप उससे रिलेट भी नहीं कर पाते। अगर आप स्क्रीन से नजरें हटाएंगे तो हो सकता है कि आप कुछ मिस भी कर दें। वहीं लंदन बेस्ड कहानी होने के चलते फिल्म में इंग्लिश के डायलॉग भी काफी हैं। बावजूद इसके कहा जा सकता है कि डायरेक्टर प्रवाल रमन ने नया एक्सपेरिमेंट किया है और बॉलिवुड में हॉरर फिल्मों के नाम पर महज भूत-प्रेत से कुछ हटकर दिखाने की कोशिश की है। ",0 "फिल्म जग्गा जासूस की शुरुआत में बजने वाली लाइनें 'सामने वाली सीट पर पैर न रखना, फेसबुक- वॉट्सऐप ऑफ रखना। म्यूजिकल कहानी है, दिल से बनाई है, दिल से सुनानी है' आपको इशारा दे देती है कि अब तीन घंटे आपको सारा ध्यान पर्दे पर फोकस करना होगा। वरना आप कुछ मिस कर देंगे। इससे पहले 'बर्फी' जैसी सुपरहिट फिल्म बना चुके अनुराग ने इस बार भी अलग अंदाज में म्यूजिकल सिनेमा रचा है, जिसे बनाने में उन्होंने अपनी जिंदगी के कई साल लगा दिए। 2014 में शुरू हुई इस फिल्म की शूटिंग बीते साल पूरी हुई। उसके बाद कई बार रिलीज़ डेट टलने के बाद आखिरकार 'जग्गा जासूस' रिलीज़ हो ही गई। फिल्म एक अनाथ और हकले बच्चे जग्गा (रणबीर कपूर) की कहानी है, जिसे एक हॉस्पिटल की नर्स ने पाला था। बचपन से जासूसी का शौक रखने वाले जग्गा की जिंदगी हॉस्पिटल में आए एक मरीज बादल बागची उर्फ टूटी-फ्रूटी (शाश्वत चटर्जी) से मिलकर बदल जाती है। वह न सिर्फ उसे गाकर अपनी बात बोलना सिखाता है, बल्कि उसे हॉस्पिटल से उसे अपने घर भी ले जाता है। दोनों हंसी-खुशी अपनी जिंदगी बिता रहे थे, लेकिन एक दिन पुलिस ऑफिसर सिन्हा (सौरभ शुक्ला) उनके घर पर छापा मारता है। उसे देखकर बागची जग्गा को लेकर भाग जाता है और उसका ऐडमिशन मणिपुर के एक बोर्डिंग स्कूल में करा देता है। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें दरअसल, कोलकाता के प्रफेसर बादल बागची का कनेक्शन 1995 में वेस्ट बंगाल के पुरुलिया में गिराए गए हथियारों से भी था, जिसकी वजह से वह दुनिया की नजरों से छिपता घूम रहा था, लेकिन वह जग्गा को हर साल अलग-अलग लोकेशन से उसके बर्थडे पर एक विडियो कसेट भेजना नहीं भूलता था, जिसमें वह उसे जिंदगी के फलसफे बताता था। अपनी स्कूलिंग के दौरान कई जासूसी केस सुलझाने वाले जग्गा की मुलाकात इसी दौरान खोजी पत्रकार श्रुतिसेन गुप्ता (कटरीना कैफ) से होती है, जो कि एक मामले की खोजबीन के सिलसिले में वहां आई थी। अपने बैड लक की वजह से तमाम मुसीबतों में फंसने वाली श्रुति में जग्गा को अपने खोए हुए बाप की झलक दिखती है, इसलिए वह मुसीबत में फंसी श्रुति की मदद करता है। अपने 18वें जन्मदिन पर जब जग्गा को अपने पापा की ओर से भेजी जाने वाली विडियो कसेट नहीं मिलती, तो वह बेचैन हो उठता है। इसी बीच उसे पता चलता है कि उसका बाप जिसे वह टूटी-फ्रूटी कहता है, वह असल में कोलकाता का प्रफेसर बादल बागची है। उसकी तलाश में वह कोलकाता पहुंच जाता है। वहां उसकी मुलाकात सिन्हा से होती है, जिससे उसे अपने खोए हुए पिता का सुराग मिलता है। इसके बाद खोजी दिमाग का जग्गा श्रुति की मदद अपने पिता को खोजने के मिशन पर निकल पड़ता है, जहां उसका मुकाबला हथियारों की स्मगलिंग करने वालों के बड़े गैंग से होता है, जिसे बागची दुनिया के सामने लाना चाहता था। जग्गा जासूस पूरी तरह रणबीर कपूर की फिल्म है, जिन्होंने 18 साल के बच्चे के रोल में कमाल की ऐक्टिंग की है। खासकर हकले के रोल में गाकर अपनी बात बताते वक्त वह अच्छे लगते हैं। वहीं जग्गा के बचपन का रोल करने वाला बच्चा भी बेहद क्यूट लगता है। हालांकि, फिल्म की शूटिंग के दौरान रणबीर और कैट का ब्रेकअप हो गया था, लेकिन फिल्म में दोनों की केमिस्ट्री बढ़िया है और उस पर ब्रेकअप का असर कतई नजर नहीं आता। बादल बागची के रोल में शाश्वत चटर्जी ने कमाल कर दिया। कटरीना कैफ ने अपने रोल को बखूबी निभाया है। वहीं सौरभ शुक्ला ने भी करप्ट पुलिस ऑफिसर के रोल में बढ़िया ऐक्टिंग की है। डायरेक्टर अनुराग बसु ने प्रीतम के खूबसूरत संगीत की मदद से जग्गा जासूस बनाई है, जो कि पौने तीन घंटे आपका एंटरटेनमेंट करती है और एक अलग दुनिया की सैर कराती है। अनुराग ने हथियार स्मगलिंग के सीरियस टॉपिक के बैकग्राउंड में मजेदार फिल्म बनाई है। यह एक अलग जॉनर की फिल्म है, जो कि बॉलिवुड की रूटीन मसाला फिल्मों से अलग है। रणबीर के संवाद म्यूजिकल अंदाज में हैं, लेकिन वे बोझिल नहीं लगते। वहीं गाने भी फिल्म का हिस्सा लगते हैं। खासकर 'दिल उल्लू का पट्ठा' है और गलती से मिस्टेक फैन्स के बीच पहले से ही पॉपुलर हो चुके हैं। केपटाउन, थाईलैंड, मोरक्को और दार्जिलिंग की खूबसूरत लोकेशन पर रवि वर्मन की कमाल की सिनेमटॉग्रफी स्क्रीन पर आपको रोमांचित कर देती है। फैमिली फिल्म जग्गा जासूस के फर्स्ट हाफ में कटरीना कॉमिकल अंदाज में जग्गा की कहानी से रूबरू कराती हैं। वहीं सेकंड हाफ भी मजेदार है। हालांकि दो-सवा दो घंटे की फिल्मों के दौर में अनुराग फिल्म को थोड़ा एडिट करके इसे ढाई घंटे तक जरूर समेट सकते थे। ",1 "बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : राघव डार संगीत : अजय गोगावले, अतुल गोगावले, शमीर टंडन, कविता सेठ, हितेश सोनिक कलाकार : प्रतीक बब्बर, कल्कि कोएचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 1 घंटा 42 मिनट * 12 रील ‘माई फ्रेंड पिंटो’ किस उद्देश्य से बनाई गई है, यह शायद इससे जुड़े लोगों को भी पता नहीं होगा। कुछ फिल्में मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन ये तो बोरियत से भरी है। मनोरंजन और इसमें छत्तीस का आंकड़ा है। कुछ फिल्में संदेश देने के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन इस फिल्म को देख यह संदेश मिलता है कि अपने दिल की बात सुनो, जुआ खेलते वक्त दिल जो बोले उस नंबर पर दांव लगाओ तो मालामाल हो जाओगे। फिल्म के नाम में दोस्त शब्द आया है, लेकिन दोस्ती-यारी जैसी कोई बात सामने नहीं आती है। लगता है कि निर्देशक राघव डार पर राज कपूर का प्रभाव है। राज कपूर की फिल्मों में नायक बहुत भोला-भाला रहता है, शहर आता है, लोगों की भलाई करता है और लोग उसे ही ठग लेते हैं। ‘माई फ्रेंड पिंटों’ का नायक माइकल पिंटो भी ऐसा ही है। सीधा-सादा, दिल की बात सुनने वाला। कुत्तों से उसे भी प्यार है। उसका गेटअप भी कहीं-कहीं राज कपूर की याद दिलाता है। ऐसे किरदारों के जरिये जो राज कपूर जो फिल्में बनाते थे, वो बात ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में कहीं नजर नहीं आती है। मां की मौत के बाद माइकल पिंटो अपने बचपन के दोस्त समीर से मिलने मुंबई चला आता है। समीर को उसने कई खत लिखे जिसका उसने कोई जवाब नहीं दिया। पिंटो के साथ-साथ हमेशा कोई न कोई गड़बड़ी होती रहती है। वह टकराता रहता है और टूट-फूट होती रहती है। समीर की बीवी पिंटो को बिलकुल नहीं चाहती। न्यू ईयर की पार्टी मनाने के लिए पति-पत्नी पिंटों को घर में बंद कर निकल पड़ते हैं। पिंटो किसी तरह बाहर निकलता है और सूखे पत्ते की तरह जहां हवा ले जाती है इधर-उधर घूमता रहता है। कई मजेदार लोगों से उसकी मुलाकात होती है, जिसमें जुआरी भी है और डॉन भी। सब उसके दोस्त बनते जाते हैं क्योंकि पिंटो की संगत उनकी जिंदगी बदल देती है। इस तरह की फिल्में पहले भी बन चुकी है और पिंटो में नयापन नजर नहीं आता है। साथ ही फिल्म में मनोरंजन का अभाव है। जो सीन दर्शकों को हंसाने के लिए, उनका मनोरंजन करने के लिए गढ़े गए हैं, वो बेहद ऊबाऊ हैं। डॉन वाला ट्रेक तो बोरियत से भरा है। कई ट्रेक निर्देशक ने एक साथ चलाए हैं, लेकिन किसी में भी दम नहीं है। कुछ गाने भी फिल्म में डाले गए हैं, जो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। प्रतीक और कल्कि के रोमांटिक ट्रेक को ज्यादा फुटेज दिए जाने थे, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया। प्रतीक बब्बर ने पिंटो के भोलेपन को अच्छे तरीके से अभिनीत किया है। कल्कि का रोल छोटा है, लेकिन वे अपना असर छोड़ती हैं। राज जुत्शी और मकरंद देशपांडे ने जमकर बोर किया है। दिव्या दत्ता का अभिनय बेहतर है। कुल मिलाकर ‘माई फ्रेंड पिंटो’ से दोस्ती करने में कोई मतलब नहीं है। ",0 "कुल मिलाकर ‘न्यूयॉर्क’ देखना बुरा सौदा नहीं है। निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : कबीर खान कहानी : आदित्य चोपड़ा पटकथा-संवाद-गीत : संदीप श्रीवास्तव संगीत : प्रीतम कलाकार : जॉन अब्राहम, कैटरीना कैफ, नील नितिन मुकेश, इरफान यू/ए सर्टिफिकेट /11 की घटना के बाद लोगों में अविश्वास बढ़ा है। अमेरिकन संघीय एजेंसी एफबीआई ने डिटेंड के तहत अमेरिका में बसे 1200 एशियाई लोगों को अमानवीय यातनाएँ दीं। 1000 को सबूतों के अभाव में कुछ वर्षों बाद छोड़ा गया। इनमें से अधिकांश की आज भी दिमागी हालत खराब है। इन संदर्भों को लेकर निर्देशक कबीर खान ने शक, अविश्वास और अत्याचार का हाईटेक ड्रामा फिल्म न्यूयॉर्क के जरिये प्रस्तुत किया है। सैम (जॉन अब्राहम) एशियाई मूल का अमेरिकी नागरिक है। उसे अमेरिकन होने पर गर्व है। माया (कैटरीना कैफ) कॉलेज में उसके साथ पढ़ती है। उमर (नील नितिन मुकेश) दिल्ली से आगे की पढ़ाई करने के लिए न्यूयॉर्क जाता है। ये तीनों युवा कॉलेज लाइफ का पूरा मजा लेते हैं। अचानक 9/11 की घटना घटती है और उसके बाद तीनों ‍की जिंदगी में बदलाव आ जाता है। माया को उमर चाहने लगता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि माया, सैम को पसंद करती है तो वह उनकी जिंदगी से चला जाता है। सैम एफबीआई की चपेट में आ जाता है और उसे कई तरह की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। बाद में उसे रिहा किया जाता है। कहानी वर्ष 2009 में आती है। एफबीआई एजेंट रोशन (इरफान खान) उमर को पकड़ लेता है। उसे शक है कि सैम आतंकवादियों से मिला हुआ है। वह उमर को सैम के घर भेजता है ताकि उसके खिलाफ सबूत जुटाए जा सकें। क्या सैम आतंकवादी है? क्या वह अपने दोस्ती की जासूसी करेगा? जैसे प्रश्नों का सामना उमर को करना पड़ता है। आदित्य चोपड़ा ने कहानी में रोमांस और थ्रिल के जरिये अपनी बात कही है। आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता पूरी फिल्म में बनी रहती है। निर्देशक कबीर खान ने आदित्य की कहानी के जरिये बहुत ही उम्दा विषय उठाया है। इस विषय पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी, लेकिन कमर्शियल फॉर्मेट में प्रस्तुत करने की वजह से कहीं-कहीं विषय की गंभीरता कम हो गई है। ‘काबुल एक्सप्रेस’ को डॉक्यूमेंट्री कहा गया था, शायद इसीलिए कबीर ने फिल्म को मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। बड़ा बजट भी इसका एक कारण हो सकता है। इस फिल्म के जरिये उन्होंने बताया है कि आम मुसलमान अमेरिकी नागरिक के खिलाफ नहीं है। उसका गुस्सा एफबीआई या ऐसी सरकारी संस्थाओं के खिलाफ है, जिन्होंने जाँच की आड़ लेकर बेगुनाह लोगों को सताया है। एफबीआई एजेंट रोशन जो कि मुसलमान है, के संवादों (ये अमेरिका में ही हो सकता है कि एक मुसलमान के बच्चे को बेसबॉल की टीम में शामिल किया जाए और उसे हीरो की तरह कंधों पर उठाया जाए/ अब मुसलमानों को आगे आकर अपनी खोई इज्जत को कायम करना होगा) के जरिये उन्होंने अमेरिका की तारीफ भी की है। दूसरे हॉफ में फिल्म पर से कबीर का नियंत्रण छूट सा गया। कई गैरजरूरी दृश्यों ने फिल्म की लंबाई को बेवजह बढ़ाया। 37 वर्षीय जॉन को विद्यार्थी के रूप में देखना अटपटा लगता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी को भी उसी अंदाज में दिखाया गया है, जैसा कि भारतीय कॉलेजों को फिल्मों में दिखाया जाता है। फिल्म में अंग्रेजी के कई संवाद हैं, लेकिन हिंदी उप-शीर्षक दिए गए हैं, ताकि अँग्रेजी नहीं जानने वालों को तकलीफ न हो। अभिनय के लिहाज से जॉन अब्राहम की यह अब तक की बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है। सैम का किरदार उन्होंने उम्दा तरीके से निभाया है। दो फिल्म पुराने नील नितिन मुकेश भी जॉन से किसी मामले में कम नहीं रहे। कैटरीना से जब वे सात साल बाद मिलते हैं और कैटरीना उन्हें बताती है कि उन्होंने जॉन से शादी नहीं की है तब उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं। कैटरीना कैफ ने साबित किया है कि वे अभिनय भी कर सकती हैंं, लेकिन पुरानी फिल्मों की तुलना में वे कम खूबसूरत लगीं। इरफान (खान सरनेम उन्होंने हटा लिया है) एक नैसर्गिक अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपने अभिनय का कमाल दिखाया है। असीम मिश्रा की फोटोग्राफी ऊँचे दर्जे की है। जूलियस पैकिअम का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है। संगीतकार प्रीतम फॉर्म में नजर आए। है जुनून, मेरे संग और तूने जो कहा था लोकप्रिय हो चुके हैं। कुल मिलाकर ‘न्यूयॉर्क’ देखना बुरा सौदा नहीं है। ",1 " शादी का लड्डू ऐसा है जो खाए पछताए और जो न खाए वो भी पछताए। ज्यादातर लोग इसे खाकर ही पछताना पसंद करते हैं। कुछ लोगों का दो-तीन बार भी इस लड्डू खाने के बावजूद मन नहीं भरता। हालांकि अब ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ रही है जिन्हें शादी नामक संस्था पर विश्वास नहीं है। शादी के बाद बच्चा आता है तो अक्सर पति-पत्नी के बीच के समीकरण उलट-पुलट जाते हैं। पति को लगता है कि उसकी बीवी पर बच्चे की मां हावी हो गई है। उनकी लाइफ में रोमांस नहीं बचा है। सेक्स लाइफ भी डिस्टर्ब हो जाती है क्योंकि पति-पत्नी के बीच बच्चा सोने लगता है। जवाबदारी बहुत बढ़ जाती है। लांग ड्राइव, होटल में डिनर, दोस्तों के साथ पार्टी, खेल का आनंद लेना अब सब कुछ 'बेबी' की मर्जी से तय होता है। इसी के इर्दगिर्द बुनी गई है 'शादी के साइड इफेक्ट्स' की कहानी। सिड रॉय (फरहान अख्तर) और त्रिशा मलिक रॉय (विद्या बालन) की जिंदगी में सब कुछ सही चलता रहता है, जब तक कि वे दो से तीन नहीं होते। अपने रोमांस में तड़का लगाने के लिए वे अक्सर पब में जाते हैं, अनजानों की तरह मिलते हैं और फिर रोमांस करते-करते होटल के कमरे में चले जाते हैं। उनका रोमांस देख होटल का सिक्यूरिटी वाला सिड को बुलाकर कहता है कि हमारे होटल में इस तरह की हरकतें बर्दाश्त नहीं की जाएगी, लेकिन जब सिड उसे बताता है कि वह पति-पत्नी हैं तो सिक्यूरिटी वाला आश्चर्यचकित रह जाता है। सिड उसे सफल शादी-शुदा जिंदगी का राज बताता है कि जब पति गलती करे तो पत्नी को 'सॉरी' कहो और जब पत्नी की गलती हो तो भी पति ही 'सॉरी' बोले। दीवार पर सिड और त्रिशा के लगे फोटो कम होते जाते हैं और उनकी जगह लेता है उनके बच्चे का फोटो। उसी तरह सिड और त्रिशा की जिंदगी में भी बच्चा आकर उनमें दूरियां पैदा करता है। अब दोनों के लिए एक-दूसरे के पास वक्त नहीं है। सारी बातें बेबी के इर्दगिर्द घूमती है और इससे सिड परेशान हो जाता है। इंटरवल तक फिल्म बेहतरीन है। एक शादी-शुदा कपल के रिश्ते को आधार बनाकर बेहतरीन हास्य और रोमांस का ताना-बाना बुना गया है। इस दौरान कई ऐसे दृश्य आते हैं जब हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है। शादी-शुदा लोगों को सिड और त्रिशा में अपना अक्स नजर आता है तो कुंआरों को कुछ सीखने को मिलेगा। दूसरे हाफ में पहले हाफ जैसी कसावट नजर नहीं आती है। फिल्म खींची हुई लगती है क्योंकि कुछ गैर-जरूरी प्रसंगों को फिल्म में डाल दिया गया है। त्रिशा का जीजा (राम कपूर) सिड को सलाह देता है कि उसे झूठ बोलकर हर दस-पंद्रह दिनों में दो-तीन होटल में बिताने चाहिए, जहां वह मनमाफिक जिंदगी जी सके। सिड ऐसा ही करता है, लेकिन जब पैसे कम पड़ने लगते हैं तो वह पेइंग गेस्ट बन कर रहने लगता है। पेइंग गेस्ट बन कर रहने वाला प्रसंग और वीर दास द्वारा निभाया गया किरदार स्क्रिप्ट में बेवजह ठूंसा गया है। स्क्रिप्ट कई बार कमजोर पड़ती है। ऐसा लगता है कि पति-पत्नी के बीच यदि कुछ ठीक नहीं है तो इसका जवाबदार पत्नी की ही है। वह अपने पति पर ध्यान नहीं दे रही हैं कसूरवार वही है। पति ये समझने की कोशिश नहीं करता कि अब उसकी पत्नी मां भी है। फिल्म के लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी इस मुद्दे पर भटक गए हैं, हालांकि क्लाइमैक्स में उन्होंने पत्नी को भी होशियार दिखाकर न्याय करने की कोशिश की है। सिड को एक स्ट्रगलर दिखाया गया है, त्रिशा बच्चे के बाद नौकरी छोड़ चुकी है, लेकिन जिस तरीके से वे जीते हैं, उसे देख प्रश्न उठता है कि उनके पास इतने पैसे कहां से आ रहे हैं? इला अरुण का आंटी वाला किरदार भी अपनी छाप छोड़ नहीं पाया। फिल्म के दूसरे हिस्से में यदि स्क्रिप्ट पर थोड़ी मेहनत की गई होती बेहतर होता। स्क्रिप्ट राइटर ने नए किरदारों को जोड़ा, लेकिन वे खास असर नहीं छोड़ पाएं। साकेत चौधरी का निर्देशन अच्छा है। उन्होंने भावुकता से भरी प्रस्तुति के बजाय हास्य के साथ कहानी को प्रस्तुत किया है। इमोशन सही मात्रा में डाला गया है और अतिभावुकता से बचे हैं। अपने सारे कलाकारों से उन्होंने अच्छा काम लिया है और कॉमेडी दृश्यों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। फरहान अख्तर का नाम यदि फिल्म से जुड़ा है तो यह इस बात की गारंटी हो गई है कि फिल्म में कुछ हटकर देखने को मिलेगा। 'शादी के साइड इफेक्ट्स' में उनकी कॉमिक टाइमिंग देखने लायक है। सिड के किरदार में उन्हें भावना, कुंठा, रोमांस और हास्य जैसे भाव दिखाने को मिले और फरहान कही भी कमजोर साबित नहीं हुए। फरहान की तुलना में विद्या का रोल थोड़ा कमजोर है, लेकिन विद्या अपनी बेहतरीन एक्टिंग से दबदबा साबित करती हैं। फरहान के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी है। दोनों का अभिनय ही फिल्म को देखने लायक बना देता है। राम कपूर, वीर दास, गौतमी कपूर, इला अरुण और पूरब कोहली ने भी अपने हिस्से का काम बखूबी किया है। रति अग्निहोत्री को सीन ज्यादा संवाद कम मिले। प्रीतम का संगीत निराश करता है। अरशद सईद के संवाद उल्लेखनीय हैं और कई बार दृश्य पर संवाद भारी पड़ता है। खासतौर पर फरहान की बीच-बीच में जो कमेंट्री है वो बेहद गुदगुदाने वाली है। 'मेरी खामोशी भी अब झूठ बोलने लगी है' और 'चुप रहता हूं तो घुटन होती है और बोलता हूं तो झगड़ा होता है' जैसे गंभीर संवाद भी सुनने को मिलते हैं। शादी के साइड इफेक्ट्स में बेहतरी की गुंजाइश थी, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि यह अच्छी फिल्म नहीं है। कुछ कमियों के बावजूद ये फिल्म मनोरंजन करने में कामयाब होती है। बैनर : प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशन्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : रंगिता प्रीतीश नंदी, प्रीतीश नंदी, एकता कपूर निर्देशक : साकेत चौधरी संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : फरहान अख्तर, विद्या बालन, राम कपूर, वीर दास, इला अरुण, पूरब कोहली, रति अग्निहोत्री सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट ",1 "विवादों में रही फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा' हमारे समाज में महिलाओं की आजादी को जकड़ने वाली बेड़ियों पर किस हद तक वार करती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहली बार फिल्म देखने के बाद सेंसर बोर्ड ने इसे सेंसर सर्टिफिकेट देने से ही इनकार कर दिया था। उसके बाद अपीलेट ट्राइब्यूनल से इस फिल्म को जैसे-तैसे कुछ कट्स और 'ए' सर्टिफिकेट के साथ रिलीज़ की मंजूरी मिली। डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने फिल्म में दिखाया है कि हमारे समाज में औरतों के दुखों की कहानी एक जैसी ही है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाली हो, चाहे कुवांरी हो, शादीशुदा हो या फिर उम्रदराज। कोई जींस और अपनी पसंद के कपड़े पहनने की लड़ाई लड़ रही है, कोई उसे सेक्स की मशीन समझने वाले पति से अपने पैरों पर खड़ी होने की लड़ाई लड़ रही है, कोई अपनी मर्जी से सेक्स लाइफ जीने आजादी चाहती है, तो कोई उम्रदराज होने पर भी अपने सपनों के राजकुमार को तलाश रही है। दरअसल, वे सब अपनी फैंटसी को सच होते देखना चाहती हैं। फिल्म के एक सीन में एक लड़की कहती है, 'हमारी गलती यह है कि हम सपने बहुत देखते हैं।' दरअसल, यह फिल्म लड़कियों और महिलाओं को उन सपनों को हकीकत में तब्दील करने का हौसला देती है, फिर नतीजा चाहे जो हो। 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा' चार अलग-अलग उम्र की महिलाओं की कहानी है, जो अपनी जिंदगी को बिंदास अंदाज में अपने मुताबिक जीना चाहती हैं, लेकिन अलग-अलग रूप में मौजूद नैतिकता के ठेकेदार बार-बार उनकी राह में रोड़ा बनते हैं। अपने टाइटल के मुताबिक भोपाल बेस्ड इस फिल्म की शुरुआत एक सीन से होती है, जिसमें एक बुर्क़ा पहने एक लड़की रिहाना (प्लाबिता) एक मॉल से लिपस्टिक चुराती है और फिर वॉशरूम में जींस-टीशर्ट चेंज करके और लिपस्टिक लगाकर कॉलेज में अपने फ्रेंड्स के बीच जाती है। फिल्म में ऊषा परमार (रत्ना पाठक) एक 55 साल की एक विधवा औरत के रोल में हैं जो अपने भांजों के साथ रहती हैं। वह धार्मिक किताबों में छिपाकर फैंटसी नॉवल पढ़ती है और उसकी नायिका रोजी की तरह अपनी जिंदगी में भी किसी हीरो की तलाश कर रही है। इसी चाहत में वह सत्संग के बहाने एक हैंसम कोच से स्विमिंग सीखना शुरू कर देती हैं। तीसरी शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) एक सेल्सवुमन है जो अपने पति की चोरी से घर-घर जाकर सामान बेचती है। लेकिन एक दिन जब वह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ घूमते देख लेती है तो उसे बड़ा झटका लगता है। जबकि चौथी लीला (अहाना कुमार) मेकअप आर्टिस्ट है जो अपने फटॉग्रफर बॉयफ्रेंड से शादी रचाना चाहती है लेकिन वह उसे भाव नहीं डालता और बस उसका इस्तेमाल करता है। इंटरवल तक यह चारों अपने सपनों को सजाती रहती हैं और इंटरवल के बाद उन्हें सच करने की कोशिश करती हैं। हालांकि वे अपने सपनों को सच कर पाने में कितना कामयाब हो पाती हैं यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने बेहद जोरदार अंदाज में महिलाओं की समस्याओं को पर्दे पर उतारा है और फिल्म में समाज की कड़वी सच्चाई से रूबरू कराया है, जहां औरत को महज एक भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता। वहीं नॉवल की हीरोइन रोजी की फैंटेसी को बेहद खूबसूरत अंदाज में चारों मुख्य किरदारों की कहानी में पिरोया गया है। बैकग्राउंड स्कोर में रोजी की कहानी पढ़ने वाली रत्ना पाठक ने अपनी जिंदगी जीने को अपने अंदाज में जीने की चाहत रखने वाली एक उम्रदराज औरत के रोल में एक बार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग की है। आपको उस पर हंसी भी आती है, तो कभी तरस भी। वहीं अपने पति से आजादी की लड़ाई लड़ रहीं कोंकणा सेन शर्मा ने दिखा दिया कि क्यों उन्हें बॉलिवुड की बेहतरीन अदाकाराओं में से एक माना जाता है। अहाना कुमार ने मेकअप आर्टिस्ट लड़की के रोल में अच्छा काम किया है। खासकर कई हॉट सीन्स को उन्होंने बेहद सहजता से शूट किया है। साथ ही इतनी सीनियर ऐक्टर्स के बीच प्लाबिता ने भी अपने रोल को बखूबी जिया है। घर से बुर्क़ा पहनकर अपने सपनों को जीने की चाहत में निकलने वाली प्लाबिता से नई उम्र की लड़कियां अपने आपको बखूबी कनेक्ट कर पाएंगी। वैसे, अलंकृता ने हर उम्र की महिलाओं के लिए फिल्म के किरदारों से खुद को कनेक्ट करने की खूब गुजाइंश रखी है। ",1 "स्टीरियो टाइप कैरेक्टर्स और घिस चुके फॉर्मूलों को लेकर सोहेल खान ने 'फ्रीकी अली' फिल्म बनाई है। निरुपा रॉय नुमा मां, गरीबों की बस्ती, अमीर-गरीब का भेद, हिंदू-मुसलमान का भाईचारा, गोरी चिट्टी हीरोइन, सड़कछाप हीरो को अब कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। अफसोस की बात तो यह है कि इन फॉर्मूलों को भी सोहेल ठीक से पेश नहीं कर पाए। कहानी में नई बात यह डाली कि बस्ती में रहने वाला अली (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) अमीरों का खेल समझे जाने वाले गोल्फ में चैम्पियन बन जाता है। आइडिया तो अच्‍छा था, लेकिन इस कहानी को कहने के लिए जिस तरह का माहौल, किरदार और घटनाएं बनाई गई है वो फिल्म को चालीस साल पीछे ले जाती है। कहानी भी सोहेल खान ने ही लिखी है, लेकिन वे समझ ही नहीं पाए कि बात को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। कहानी को थोड़ा आगे बढ़ाने के बाद वे दिशा भूल गए और किसी तरह उन्होंने फिल्म को खत्म किया। फिल्म को दिलचस्प बनाने के लिए उन्होंने कई ट्रैक डाले, लेकिन फिल्म को उबाऊ होने से नहीं बचा पाए। यह एक अंडरडॉग की कहानी है, लेकिन कोई रोमांच इसमें नहीं है। दोस्त और मां वाले ट्रेक में इमोशन नहीं है। रोमांस को कहानी में बेवजह फिट करने की कोशिश की गई है। फिल्म में कॉमिक अंदाज में खलनायक भी है जो न डराता है और न ही हंसाता है। ये तमाम ट्रैक्स अधपके हैं इसलिए बेस्वाद लगते हैं। क्लाइमैक्स को धमाकेदार बनाने के लिए जैकी श्रॉफ को लाया गया है, लेकिन उनके लिए न ढंग की लाइनें लिखी गई हैं और न ही अच्छे दृश्य। जैकी ने इतना घटिया काम शायद ही पहले कभी किया हो। सोहेल खान फूहड़ कॉमेडी शो में जज की भूमिका चुके हैं। इन शो की तरह कॉमेडी फिल्म में भी रखी गई है। भला जब मुफ्त में दिखाई जा रही कॉमेडी लोग देखना पसंद नहीं करते तो पैसे खर्च कर कौन ऐसी बकवास कॉमेडी देखना पसंद करेगा। फिल्म का दूसरा हाफ तो इतना बुरा है कि, घर जाने, सोने, पॉपकॉर्न खाने, जैसे विकल्पों पर आप विचार करने लगते हैं। यह हिस्सा गोल्फ को समर्पित है। भारत में बमुश्किल चंद प्रतिशत लोग यह खेल समझते हैं। दर्शकों को समझ ही नहीं आता कि विलेन जीत रहा है या हीरो, तो भला रोमांच कैसे आएगा। भला होता यदि इस खेल के कुछ नियम कायदे दर्शकों को बता दिए जाते। सोहेल का निर्देशन रूटीन है। उन्होंने कहानी को ऐसा पेश किया है मानो स्कूल/कॉलेज का कोई नाटक देख रहे हों। गली-गली चड्‍डी बेचने वाले से गोल्फर बनने वाले किरदार को नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने निभाया है। वे फिल्म को मजेदार बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन स्क्रिप्ट से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। अरबाज खान ने बेमन से अपना काम किया है। एमी जैक्सन को तो ज्यादा अवसर ही नहीं मिले हैं। निकितिन धीर ने बोर किया है। जस अरोरा प्रभावित नहीं कर पाए। फिल्म के गीत-संगीत में कोई दम नहीं है। फ्रीकी अली में एक भी ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए टिकट खरीदा जाए। यह बिलकुल फीकी फिल्म है। बैनर : सलमान खान फिल्म्स निर्माता : सलमान खान निर्देशक : सोहेल खान संगीत : साजिद अली-वाजिद अली कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, एमी जैक्सन, अरबाज खान, निकितिन धीर, जस अरोरा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए ",0 "बॉलीवुड में हर सप्ताह 'कचरा' फिल्में भी रिलीज होती हैं। फिल्म समीक्षक इन्हें समीक्षा करने के लायक नहीं मानते हैं और अधिकांश लोग इनके बारे में जानने के इच्छुक भी नहीं होते। इन घटिया फिल्मों को तब थोड़ी-बहुत चर्चा मिलती है जब किसी शुक्रवार कोई बड़ी या बेहतर कलाकार/निर्देशक की कोई फिल्म रिलीज नहीं होती है। 26 सितंबर वाला शुक्रवार कुछ ऐसा ही है। आधा दर्जन से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई हैं और इनमें से ज्यादातर फिल्मों के नाम लोगों ने सुने भी नहीं होंगे। इनमें से एक है देसी कट्टे। इसे सी-ग्रेड फिल्म के चश्मे से भी देखे तो भी यह मजा नहीं देती। पूरी फिल्म बेहद उबाऊ है और इसे देखना किसी सजा से कम नहीं है। देश भर में अवैध पिस्तौल कम दाम में उपलब्ध है, जिन्हें देसी कट्टा कहा जाता है। फिल्म की शुरुआत को देख लगता है कि इस देसी कट्टे के इर्दगिर्द यह फिल्म घूमेगी, लेकिन आरंभिक चंद रीलों के बाद यह फिल्म अपना रास्ता बदल लेती है। देसी कट्टे का रंग छोड़ इस पर दोस्ती, खेलकूद और बाहुबलियों के खूनी खेल का रंग चढ़ जाता है। यह सब कुछ इतने बचकाने और सतही तरीके से दिखाया गया है कि आप उस घड़ी को कोसने लगते हैं जब इस फिल्म को देखने का आपने निर्णय लिया था। निर्देशन कमजोर है या लेखन। अभिनय कमजोर है या संवाद। तय कर पाना मुश्किल है। ज्ञानी (जय भानुशाली) और पाली (अखिल कपूर) बचपन के दोस्त हैं। अपराध की दुनिया में वे जज साहब (आशुतोष राणा) की तरह नाम कमाना चाहते हैं। देसी कट्टों का अवैध व्यापार करने वाले ये दोस्त निशानेबाजी में बेहद माहिर हैं। इन पर मेजर सूर्यकांत राठौर (सुनील शेट्टी) की नजर पड़ती है। मेजर किसी कारणवश पिस्टल चैम्पियनशिप जीतने का ख्वाब पूरा नहीं कर पाए। वे ज्ञानी और और पाली को प्रोशनल शूटर की कोचिंग देते हुए शूटिंग प्रतियोगिता के लिए तैयार करते हैं। इसी बीच जज साहब ज्ञानी और पाली को अपने पास बुलाते हैं। पाली अपराध की दुनिया में नाम कमाने का इसे स्वर्णिम अवसर मानते हुए जज साहब के लिए काम करने लगता है जबकि ज्ञानी खेल की दुनिया में प्रसिद्धी पाना चाहता है। दोनों की राहें जुदा हो जाती हैं। क्या ये दोस्त फिर एक होते हैं? क्या ज्ञानी शूटिंग स्पर्धा में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीत पाता है? अपराध की दुनिया में पाली का क्या होता है? इनका जवाब फिल्म का सार है। फिल्म की स्क्रिप्ट बेहद लचर है। इसमें ऐसे कई प्रसंग हैं जिनका कोई मतलब नहीं है। लेखक ने ट्वीस्ट देने की दृष्टि से इन्हें रखा है, लेकिन ये सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आए हैं। जैसे, ज्ञानी को उसके अतीत में अपराधी होने के कारण खेल प्रतियोगिता में भाग लेने से रोक दिया जाता है, लेकिन एक पुलिस ऑफिसर का अचानक हृदय परिवर्तन होता है और ज्ञानी प्रतियोगिता में भाग लेता है। यह बात पूरी तरह से अनावश्यक लगती है। ज्ञानी और पाली का शूटिंग खेल में हिस्सा लेने वाला पूरा ट्रेक निहायत ही घटिया है। इसे न अच्छा लिखा गया है और न ही फिल्माया गया है। लेखन और निर्देशन इतना रूटीन है कि अगले शॉट में क्या होने वाला है या कौन सा संवाद बोला जाएगा, इसका पता आसानी से लगाया जा सकता है। यदि पत्नी समुंदर किनारे अपने पति को शरमा कर बता रही है कि वह मां बनने वाली है तो समझा सकता है कि अगले शॉट में इसको गोली लगेगी। शराब पीकर एक दोस्त ज्यादा ही बहक रहा है या इमोशनल हो रहा है तो अंदाजा लगाने में देर नहीं लगती कि अब दो दोस्त लड़ने वाले हैं। फिल्म की कहानी ऐसी है कि हीरोइन की जगह नहीं बनती, फिर गानों के लिए उन्हें जगह दी गई है। फिल्म की एक हीरोइन एक बाहुबली से डरती है, लेकिन दूसरे अपराधी किस्म के लड़के को दिल देने में चंद सेकंड नहीं लगाती। फिल्म का निर्देशन आनंद कुमार ने किया है। उन्होंने कुछ शॉट अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन कही-कही कल्पनाशीलता नजर नहीं आती। अभी भी वे भागते हुए बच्चों को दौड़ते हुए जवान हीरो के रूप में परिवर्तित होते दिखा रहे हैं जो सत्तर के दशक का फॉर्मूला हुआ करता था। जब निर्देशक को समझ में नहीं आया कि फिल्म को कैसे आगे बढ़ाया जाए तो गाने डाल दिए गए। जय भानुशाली ने भले ही दाढ़ी बढ़ाकर रफ-टफ लुक अपनाने की कोशिश की हो, लेकिन एक्शन रोल में उन्हें देखना हास्यास्पद लगता है। वे जब क्रोधित होते हैं तो उन्हें देख हंसी आती है। अखिल कपूर ने खूब कोशिश की है, लेकिन सार यही निकलता है कि उन्हें अभिनय सीखना होगा। सुनील शेट्टी ने अपने अभिनय से जम कर बोर किया है। उनको देख सुस्ती छाने लगती है। साशा आगा ने अभिनय के नाम पर चेहरे बनाए हैं जबकि टिया बाजपेयी औसत रही। आशुतोष राणा ही एकमात्र ऐसे अभिनेता रहे जिन्होंने दमखम दिखाया, हालांकि इस तरह के रोल वे न जाने कितनी बार कर चुके हैं। फिल्म का एक किरदार बार-बार कहता है कि 'हमार खोपड़िया सटक गई'। शायद उसने यह विश्लेषण पहले ही कर लिया था कि 'देसी कट्टे' देखने के बाद दर्शक यही बोलते नजर आएंगे। निर्माता-निर्देशक : आनंद कुमार संगीत : कैलाश खेर कलाकार : सुनील शेट्‍टी, जय भानुशाली, अखिल कपूर, साशा आगा, टिया बाजपेयी, आशुतोष राणा ",0 "रौनक कोटेचाकहानी: अपनी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) के बढ़ावा देने पर मौजी (वरुण धवन) अपने परेशान करने वाले मालिक को छोड़कर अपना बिजनस शुरू करने का फैसला करता है, लेकिन बिना घरवालों की मदद और बेईमान रिश्तेदारों के बीच क्या मौजी अपना बिजनस जमा पाएगा और एक सफल बिजनसमैन बन पाएगा?रिव्यू: अपने रोजाना की परेशानियों के बीच एक औसत आदमी मौजी हमेशा कहता है 'सब ठीक है'। फिल्म में आपको एंटरटेनमेंट का पूरा मसाला मिलेगा। चाहे मौजी की निजी समस्याएं हों, उसकी नौकरी हो, मालिक की डांट हो, बीमार मां हों या मौजी पर हमेशा गुस्सा करने वाले उसके पिता। मौजी की पत्नी को घर के कामों के बीच कभी भी अपने पति से प्यार करने का टाइम नहीं मिलता। 'सुई धागा' एक आम आदमी की सामान्य जिंदगी की संघर्ष की कहानी है। फिल्म कई किरदारों के आसपास घूमती है। वरुण धवन ने पूरी ईमानदारी के साथ अपना किरदार निभाया है जबकि अनुष्का ने भी आसानी से अपने कैरक्टर को जी लिया है। साधारण साड़ी और कम मेकअप में अनुष्का हमेशा अपना किरदार जी जाती हैं। फिल्म में इन दोनों के किरदारों के बीच बिना रोमांस के भी प्यार दिखाई देता है। सपॉर्टिंग किरदारों में रघुवीर यादव आपको मौजी के पिता के रूप में जरूर इम्प्रेस करेंगे। मौजी की मां के रूप में आभा परमार को देखना भी सुखद है क्योंकि वह स्क्रीन पर हर समय अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं। डायरेक्टर शरद कटारिया ने फिल्म को काफी रियल रखा है। फिल्म के फर्स्ट हाफ में सारे किरदार अपनी समस्याओं के साथ स्थापित हो जाते हैं। डायलॉग्स को ऐसे अंदाज में लिखा गया है जो रोजाना कि समस्या के बीच भी आपको गुदगुदाते हैं। फिल्म का संगीत और गाने कहानी से जुड़ते दिखाई देते हैं। फिल्म उपदेश देती हुई नहीं दिखती है और आपको अंत का अंदाजा भी नहीं लगता है। हालांकि फिल्म कभी-कभी इतनी सीरियस हो जाती है कि बोर करने लगती है। फिर भी अच्छी कहानी और अनुष्का-वरुण की बेहतरीन ऐक्टिंग के लिए आप इस फिल्म को देख सकते हैं। देखें, दर्शकों को कैसी लगी यह फिल्म: ",0 "शादी के बाद अपनी पहली ही फिल्म में अनुष्का शर्मा सिल्वर स्क्रीन पर अपने फैन्स से एक ऐसे डरावने किरदार में नजर आएंगी जो उनके फैन्स को बस डराता रहेगा। ऐसा तो शायद अनुष्का के फैन्स ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। पिछले साल बतौर प्रडयूसर अनुष्का ने इस फिल्म को बनाने का ऐलान किया तो फिल्म के टाइटल को देख उनके फैन्स ने यही सोचा होगा कि अपनी पिछली फिल्म 'फिल्लौरी' में एक खूबसूरत और नेक भूतनी बन चुकीं अनुष्का इस बार परियों वाली सफेद ड्रेस में नजर आएंगी, लेकिन इस फिल्म मे ऐसा कुछ भी नहीं है। अलबत्ता, सवा दो घंटे की इस पूरी फिल्म को देखने के बाद हमारा सुझाव है कि कमजोर दिल वाले इस परी से दूरियां ही बनाकर रखें तभी अच्छा है। बता दें, यह कोई परियों की कहानी नहीं है, अलबत्ता अंत तक यह फिल्म ऐसी हॉरर मूवी है जो दर्शकों की हर क्लास को डराने में काफी हद तक कामयाब है। बेशक, सेंसर बोर्ड की प्रिव्यू कमिटी ने फिल्म को ए सर्टिफिकेट के साथ पास किया है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म में कई ऐसे खौफनाक सीन्स हैं जिन पर सेंसर को कैंची चलानी चाहिए थी। इस पूरी फिल्म में अनुष्का बेहद डरावने और ऐसे लुक में नजर आती है जो अपने फैन्स को डराती है, फिल्म के ज्यादातर सीन में चेहरे से लेकर हाथों और पांवों पर खून के निशान और खरोचों के साथ नजर आती अनुष्का फिल्म में जब भी नेल कटर से अपने हाथों और पांवों के नाखूनों से काटती हैं,उन सीन में ज्यादातर दर्शक समझ ही नहीं पाते कि आगे क्या होने वाला है। कोलकाता और बांग्ला देश के ढाका शहर के इर्दगिर्द घूमती फिल्म के ज्यादातर हिस्से को डायरेक्टर ने डॉर्क शेड में शूट किया है तो वहीं बॉलिवुड की भूतिया हॉरर फिल्मों से अपनी इस फिल्म को टोटली डिफरेंट बनाने की चाहत में डायरेक्टर प्रोसित रॉय ने कई सीन को अलग-अलग एंगल से शूट किया है। स्टोरी प्लॉट : अर्नब (परमब्रत चैटर्जी) और पियाली (रिताभरी चक्रवर्ती) की शादी फाइनल हो चुकी है, दोनों की फैमिली इस शादी के लिए रजामंद है। शादी से पहले दोनों एक-दूसरे से मिलते हैं, ताकि एक-दूसरे के बारे में कुछ जान पाए। कोलकाता के एक पार्क में इसी मुलाकात के साथ इस फिल्म की शुरुआत होती है। इस मुलाकात के बाद अर्नब अपनी फैमिली के साथ कार से घर लौट रहा है, इसी दौरान अर्नब की आंखों के सामने रोड पर एक अजीबोगरीब घटना होती है। इसी घटना के बाद अर्नब पहली बार जब रुखसाना खातून (अनुष्का शर्मा) से मिलता है तो उस वक्त उसकी हालत बेहद दयनीय होती है। रुखसाना के हाथों और पैरों पर चोट के निशान हैं, जरा सी लाइट और अगरबत्ती की खुशबू से भी बुरी तरह डरने वाली रुखसाना से अर्नब की हमदर्दी हो जाती है। अपनी मां की नाराजगी के बावजूद अब रुखसाना को अपनी कार से उसके घर छोड़ने जाता है, लेकिन रुखसाना एक घने जंगल में कार से उतरकर अपने घर जाना चाहती है। अर्नब उसे घर तक छोड़ने के लिए कहता है तो वह इनकार कर देती है। इतना ही नहीं उसे अर्नब जब कुछ पैसे रखने के लिए देता है तब भी रुखसाना इनकार कर देती है। घने जंगल के बीचोबीच एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रुखसाना रहती है, लेकिन जब रुखसाना की तलाश में लगा प्रफेसर हासिम अली (रजत कपूर) अपने आदमियों के साथ वहां भी पहुंच जाता है तो रुखसाना वहां से भाग जाती है। अगले ही दिन बेहद डरी हुई हालत में गंदे कपड़े पहने रुखसाना अर्नब के घर पहुंच जाती है। अर्नब के घर रुखसाना खुद को सुरक्षित महसूस करती है तो अर्नब भी उसका पूरा ध्यान रखता है, लेकिन रुखसाना को जगह-जगह तलाश करता हासिम अली अपने आदमियों के साथ अर्नब के ऑफिस पहुंचकर उसे रुखसार के बारे में ऐसा कुछ बताता है कि अर्नब के पैरों तले जमीन खिसक जाती है। परी' के लुक के लिए इस तरह हुआ अनुष्का का मेकअपयंग डायरेक्टर प्रोसित रॉय की यह पहली फिल्म है। अंत तक प्रोसित की फिल्म और सभी किरदारों पर अच्छी पकड़ है। बेशक शुरुआती 20 मिनट की फिल्म की स्पीड बेहद स्लो है, लेकिन स्क्रीन पर अनुष्का की मौजूदगी और हर सीन में उनका बेहतरीन दिल को छू लेने वाला अभिनय इस खामी को छुपा लेता है। फिल्म का कैमरा वर्क गजब का है तो वहीं फिल्म का बैकग्राउंड संगीत आपको ही सीन में हिलाकर रखने का दम रखता है। बेहतरीन वीएफएक्स फिल्म की एक और यूएसपी है। अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो बेशक अनुष्का के अब तक के फिल्मी करियर की यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। इस फिल्म में अनुष्का ने बेहद डरी सहमी सी गंदे कपड़ों में लिपटी लड़की रुखसाना के किरदार को अपने शानदार अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। परमब्रत चैटर्जी ने किरदार के मुताबिक, ऐक्टिंग की है तो वहीं हासिम अली के किरदार में रजत कपूर की जितनी तारीफ की जाए कम रहेगी। वहीं, फिल्म के कई सीन बेहद डरावने हैं। ऐसे में हम अपने पाठकों को यह सलाह भी देंगे कि अगर इस फिल्म को देखने जा रहे हैं तो दिल को मजबूत करके जाएं, क्योंकि इंटरवल के बाद फिल्म में ऐसे कई सीन है जो कमजोर दिल वालों के लिए यकीनन नहीं है। अच्छा रहता सेंसर की प्रिव्यू कमिटी इन सीन की लंबाई को कम करती, लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट और कहानी की डिमांड के चलते ऐसा शायद नहीं किया गया। फिर भी, अगर आप हॉरर फिल्मों के दीवाने हैं तो बॉलिवुड हॉरर फिल्मों की पुरानी लीक से हटकर बनी यह फिल्म जरूर देखें। अनुष्का की दिल को छूती ऐक्टिंग उनके फैन्स को लंबे अर्से तक याद रहेगी, लेकिन देंखे अपने रिस्क पर ही।",0 "निर्माता : फॉक्स स्टार स्टुडियो निर्देशक : गौतम मेनन संगीत : एआर रहमान कलाकार : प्रतीक, एमी जैक्सन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 16 रील सचिन कुलकर्णी (प्रतीक) मलयाली लड़की जेस्सी (एमी जैक्सन) को चाहता है। सचिन के मुताबिक जेस्सी से शादी में कुछ अड़चने हैं। जैसे लड़का हिंदू है तो लड़की ईसाई। उम्र में लड़की एक साल उससे बड़ी है। लड़की के माता-पिता रूढ़िवादी हैं। वे फिल्म नहीं देखते और न ही अमिताभ बच्चन को पहचानते जबकि लड़का फिल्मों में अपना करियर बनाना चाहता है। लड़की का भाई भी एक बड़ी रूकावट है। इसी तरह की कुछ रूकावटें दर्शक और मनोरंजन के बीच है। जैसे कहानी ठीक से लिखी नहीं गई है। स्क्रीनप्ले की बात करना बेकार है। निर्देशन बेहद साधारण है। कलाकारों की एक्टिंग भी खास नहीं है। फिल्म इतनी लंबी और उबाऊ है कि नींद आने लगती है। आश्चर्य की बात तो ये है कि इस फिल्म को गौतम मेनन ने निर्देशित किया है जो दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम है। गौतम की इस फिल्म से दर्शक कभी जुड़ नहीं पाता। साथ ही तकनीकी रूप से भी फिल्म बेहद कमजोर है। आधी से ज्यादा फिल्म में कैमरा एंगल और एडिटिंग बेहद घटिया है। एक लव स्टोरी में जो इमोशंस और स्पार्क चाहिए वो पूरी फिल्म में मिसिंग है। अंतिम कुछ रीलों में फिल्म गति पकड़ती है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी रहती है। इस फिल्म को दो अंत के साथ रिलीज किया गया है। सचिन और जेस्सी के कैरेक्टर्स को ठीक से नहीं लिखा गया है। वे पूरी तरह कन्फ्यूज नजर आते हैं क्योंकि कब क्या प्रतिक्रिया देंगे, कहा नहीं जा सकता। अच्छे से बात करते हुए वे अचानक चिल्लाने लगते हैं। सचिन पहली नजर में ही जेस्सी को दिल दे बैठता है। प्यार के इजहार में भी जल्दबाजी कर देता है। जेस्सी उसे साफ बता देती है कि वह उसे नहीं चाहती, लेकिन धीरे-धीरे उस पर सचिन का जादू चलने लगता है। जेस्सी को इतना हिम्मतवाली बताया गया है कि वह चर्च में दूसरे शख्स से शादी करने से इंकार कर देती है, लेकिन यह बात घरवालों को बताने की उसमें हिम्मत नहीं है कि वह सचिन से शादी करना चाहती है। सचिन से संबंध तोड़ कर उसका यूके चले जाना भी समझ से परे है। वह सचिन से इतनी सी बात से नाराज हो जाती है कि सचिन ने उसे वहां मिलने नहीं आने दिया जहां वह शूटिंग कर रहा था। सचिन ने भी उसे क्यों नहीं आने दिया, इसका भी कोई जवाब नहीं मिलता। फिल्म और फिल्म इंडस्ट्री को लेकर किए गए सचिन के मजाक भी बेहद बुरे हैं। पूरी फिल्म ऐसी लगती है ‍जैसे किसी लेख का खराब अनुवाद किया गया हो। शायद गौतम मेनन ठीक से हिंदी समझते नहीं हैं और इसी कारण हिंदी रीमेक में गड़बड़ी नजर आती हैं। वे अपने कलाकारों के भावों को ठीक से पेश नहीं कर पाए, जबकि लव स्टोरी में एक्सप्रेशन का सही होना बेहद जरूरी होता है। प्रतीक बब्बर पूरी तरह से डायरेक्टर्स एक्टर हैं। अच्छा निर्देशक मिलता है तो उनका काम निखर कर आता है। ‘एक था दीवाना’ में वे निराश करते हैं। उनके अभिनय में विविधता नजर नहीं आती। एमी जैक्सन सुंदर हैं, लेकिन उम्र में वे प्रतीक से एक वर्ष नहीं बल्कि चार-पांच साल बड़ी दिखाई देती हैं और हैं भी। उनका अभिनय कहीं ठीक है तो कहीं बुरा। एमी का किरदार को ठीक से पेश नहीं किया गया है जिसका असर उनके अभिनय पर पड़ा है। प्रतीक के दोस्त बने मनु रिषी वाले सीन थोड़ा मनोरंजन करते हैं। शोले बनाने वाले रमेश सिप्पी भी चंद सीन में नजर आते हैं। फिल्म के संगीत से जावेद अख्तर और एआर रहमान के नाम जुड़े हुए हैं। उनका काम अच्छा है, लेकिन उनकी ख्याति के अनुरूप नहीं है। कुल मिलाकर ‘एक था दीवाना’ में दीवानगी नदारद है। ",0 "चंद्रमोहन शर्मा फिल्म के नाम में कूल है, लेकिन कहानी के मामले में यह बहुत ही हॉट है। अडल्ट कॉमिडी इस फिल्म में ढेर सार डबल मीनिंग डायलॉग्स हैं। अगर सेंसर बोर्ड द्वारा गठित सेंसर बोर्ड की प्रिव्यू कमिटी की चलती तो एकता कपूर की यह फिल्म पर्दे तक पहुंच ही नहीं पाती। बॉलिवुड की खबरें अपने फेसबुक पर पाना हो तो लाइक करें Nbt Movies कमिटी ने इस फिल्म की कहानी को घटिया करार देकर इस फिल्म को सेंसर का सर्टिफिकेट जारी करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद एकता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उन्हें राहत मिली। हालांकि, फिल्म के कुछ सीन्स पर कट्स लगे तो कई डबल मीनिंग डायलॉग्स को म्यूट कर दिया गया। देखें, फिल्म का ट्रेलर इस सीरीज की पहली दोनों फिल्में हिट रही हैं और इस फिल्म का बजट 15 करोड़ बताया जा रहा है। फिल्म के लिए यह हफ्ता महत्वपूर्ण रहेगा, क्योंकि अगले हफ्ते सनी लियोनी की ‘मस्तीजादे’ रिलीज हो रही है। कहानी: रॉकी (आफताब शिवदासानी) और कन्हैया (तुषार कपूर) दोनों अच्छे दोस्त हैं। दोनों को बैंकॉक में रहने वाला उनका दोस्त मिकी (कृष्णा अभिषेक) वहां आने के लिए कहता है। मिकी की बात मानकर दोनों बैंकॉक पहुंचते हैं। वहां रॉकी और कन्हैया पॉर्न फिल्मों में काम करने लगते हैं। इस बीच कन्हैया को वहीं रहने वाली एक खूबसूरत लड़की शालू (मंदाना करीमी) से प्यार हो जाता है। अब कन्हैया किसी भी हालत में शालू से शादी करके उसे अपना बनाना चाहता है। इस सीधी सादी हॉट कहानी में उस वक्त टर्न आता है जब शालू के घरवाले कन्हैया की फैमिली वालों से मिलने की जिद पकड़ लेते हैं। बस इसके बाद कहानी में एक के बाद एक कई मजेदार हॉट टि्वस्ट आते हैं। ऐक्टिंग: कृष्णा अभिषेक स्मॉल स्क्रीन पर कॉमिडी में अपनी अलग जगह बना चुके हैं। बोल बच्चन के बाद कृष्णा को एक अच्छी फुटेज वाला किरदार मिला जिसे उन्होंने असरदार ढंग से निभाया। तुषार कपूर और आफताब शिवदासानी अपने किरदार में फिट नजर आए। शक्ति कपूर अपने रोल में खूब जमे। ऐसा लगता है कि उन्होंने कैमरे के सामने ऐक्टिंग करने की बजाय मस्ती ज्यादा की। फिल्म की फीमेल एक्ट्रेस ने ऐक्टिंग छोड़ कैमरे के सामने एक्सपोज किया है। डायरेक्शन: यंग डायरेक्टर उमेश घडगे ने मिलाप झावेरी के लिखे बेहद हॉट डबल मीनिंग संवादों और हॉट कहानी को बस पर्दे पर उतारने का काम किया है। ऐसा लगता है उमेश ने फिल्म के सभी किरदारों को कैमरे के सामने मस्ती करने और अपनी मर्जी से काम करने की छूट देने के अलावा और कुछ नहीं किया। संगीत: साजिद-वाजिद ने ऐसा संगीत दिया है, जो यंग जेनरेशन को पसंद आ सकता है। वैसे फिल्म में कई गाने ठूंस दिए गए हैं, जिनकी कहानी में कतई जरूरत नहीं थी। क्यों देखें: अगर आपको अडल्ट कॉमिडी फिल्में पसंद हैं, तो फिल्म देख सकते हैं। फिल्म की कहानी में कुछ नयापन नहीं है। आपको बस पर्दे पर एक के बाद एक हॉट सीन्स के अलावा जमकर डबल मीनिंग संवाद सुनने को मिलेंगे। ",0 "स्टोरी- इस स्पोर्ट्स डॉक्युमेंट्री कम ड्रामा फिल्म में सचिन तेंडुलकर अपना ही किरदार निभा रहे हैं जिसमें सचिन की लाइफ के साथ ही विश्व क्रिकेट के इतिहास की सबसे बड़ी घटना को दिखाया गया है। रिव्यू- जब कोई शख्स क्रिकेट की अंतरात्मा और देश के लोगों की सामूहिक आवाज हो तो उस शख्स को फिल्म का मुख्य किरदार बनाकर उस पर फिल्म बनाना मुश्किल काम है। लिहाजा जेम्स अर्स्किन सचिन को मूर्ति के तौर पर सामने रखकर एक ऐसी कहानी कहते हैं जिसमें अस्वाभाविक और बनावटी भक्ति और श्रद्धा दिखती है। सचिन के बचपन के बारे में देखना और जानना मजेदार है। वैसे फुटेज जिसमें सचिन अपने पर्सनल स्पेस में अपनी पत्नी अंजली, बच्चे अर्जुन, सारा और बाकी परिवार के सदस्यों और दोस्तों के साथ दिख रहे हैं, यह उस तरह का पल है जब फैन्स जोर जोर से सचिन का नाम चिल्ला रहे हों। सचिन को इस फिल्म के सूत्रधार के रूप में देखना अतिरिक्त बोनस की तरह है जो दर्शकों को अपनी जीत के साथ ही चोट के सफर पर भी लेकर जाते हैं। तेंडुलकर के लिए पागल उनके फैन्स के लिए वह क्षण भी दिल थाम लेने वाला है जब क्रिकेट के इतिहास में सचिन की शुरुआत का दृश्य दिखाया जाता है। वह क्षण जब 1989 में हुए एक एग्जिबिशन मैच में सचिन ने पाकिस्तान के अब्दुल कादिर के 1 ओवर में 4 छक्के जड़े थे। इसके अलावा फिल्म में एक और कभी न मिटने वाली याद को भी ताजा किया गया है जब 1998 में चेन्नै टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सचिन ने शेन वॉर्न की इतनी धुनाई की थी कि वह पंचिंग बैग की तरह महसूस कर रहे थे। हालांकि सचिन की उपलब्धियां इतनी ज्यादा हैं कि उसे एक फिल्म में समेटना मुश्किल है। निंदा करने वाले यह बात भी कह सकते हैं कि ये सारे फुटेज तो यूट्यूब पर मौजूद है जिसे कभी भी देखा जा सकता है लेकिन वैसे लोग जिनके लिए सचिन एक इमोशन है उनके लिए इस तरह के सभी फुटेज को बड़े पर्दे पर एक साथ बिना सर्च बटन को दबाए देखना बेशकीमती है। रुकिए, इस फिल्म का झटका देने वाला पक्ष भी है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंडुलकर से जुड़े सभी विवादों को इस फिल्म में चमक-दमक के साथ दिखाया गया है। सचिन के डाई हार्ड फैन्स इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि हो सकता है उनके भगवान की भी कोई कमजोरी रही हो। लेकिन इस फिल्म में इस तरह का कोई चांस नहीं लिया गया। कुछ बेहद अहम मैचों में सचिन का खराब प्रदर्शन और अपने असभ्य सीनियर्स पर किसी तरह का कोई कमेंट न करना, इस तरह की कुछ घटनाएं हैं जिन्हें क्षण भर के लिए बस छूआ गया है। सचिन की इस कहानी में कमेंटेटर्स, क्रिटिक्स और उनके साथी खिलाड़ी धोनी, कोहली, गांगुली, सहवाग और हरभजन सभी मास्टर ब्लास्टर की स्तुति करते नजर आते हैं। शैक्षणिक दृष्टि से देखें तो यह फिल्म बेहद अहम है क्योंकि एक ऐसा देश जिसकी आत्मा में क्रिकेट बसता है वहां यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि विलक्षण प्रतिभा के धनी लोग भले ही पैदा होते हों लेकिन वह अपनी दृढ़ता, धैर्य और तैयारी से ही सचिन तेंडुलकर बनते हैं।इस खबर को ગુજરાતી में पढ़ें।",1 "1980 में महान फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी ही फिल्म 'बावर्ची' को थोड़ा उलट-पुलट कर 'खूबसूरत' बनाई थी। रेखा की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाती है। इसी का रीमेक निर्देशक शशांक घोष ने 'खूबसूरत' के नाम से ही बनाया है। शशांक ने ऋषिदा की कहानी का मूल तो यथावत रखा है, लेकिन अपने मुताबिक कुछ बदलाव कर दिए हैं। शशांक जानते हैं कि ऋषिकेश मुखर्जी जैसी फिल्म बनाना उनके बस की बात नहीं है इसलिए बदलाव कर ही बनाया जाए तो बेहतर है। यह सीधे तौर पर तुलना से बचने की पतली गली भी है। अस्सी में बनी 'खूबसूरत' मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी थी, जिसे बदलते हुए 'एलीट क्लास' में ले जाया गया है। राजा-रजवाड़े से बेहतर 'क्लास' और क्या हो सकता है। वैसे भी उनमें परंपरा और शिष्टचार के नाम पर बहुत कुछ ऐसा होता है जो सामान्य परिवारों में नहीं होता। डॉ. मृणालिनी चक्रवर्ती उर्फ मिली (सोनम कपूर) फिजियोथेरेपिस्ट है। आईपीएल में कोलकाता नाइट राइडर्स टीम के लिए वह काम करती है। उसे राजस्थान के संभलगढ़ की रॉयल फैमिली के शेखर राठौर (आमिर रजा) के इलाज के लिए बुलाया जाता है। शेखर के पांव के इलाज के लिए मिली को उनके घर में ही कई दिनों तक रूकना होता है। शेखर की पत्नी रानी निर्मला (रत्ना पाठक शाह) अति शिष्ट और अनुशासन प्रिय है, लेकिन यह अच्छाई इतनी ज्यादा है कि घर के सदस्यों को कैद की तरह लगता है। शेखर और निर्मला का बेटा युवराज विक्रम (फवाद खान) भी मां का अंधभक्त है। मिली के इस रॉयल फैमिली में आते ही कायदे-कानून टूटने लगते हैं। वह बेहद लाउड है। जो मन में आता है बोल देती है। उसका मानना है कि सच को फिल्टर की जरूरत नहीं होती। बेवजह की रोक-टोक भी उसे पसंद नहीं है। धीरे-धीरे निर्मला को छोड़ परिवार के अन्य सदस्यों को मिली की हरकतें अच्छी लगने लगती हैं। शशांक घोष ने इस 'खूबसूरत' में निर्मला के किरदार के प्रभाव को कम कर दिया है और मिली-विक्रम के रोमांस को ज्यादा फुटेज दिए है। साथ ही बैकड्रॉप बदलने से फिल्म का कलेवर अलग हो गया है। शुरुआत में मिली की शरारतें अच्छी लगती हैं, लेकिन जब इन्हें हद से ज्यादा खींचा जाता है तो फिल्म ठहरी हुई लगती है। कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। मिली की हरकतें कहीं-कहीं कुछ ज्यादा ही हो गई। पहले ही दिन डाइनिंग टेबल पर आकर वह निर्मला की बेटी से पूछती है कि क्या उसका कोई बॉयफ्रेंड है? मिली के किरदार को बिंदास दिखाने के चक्कर में निर्देशक कुछ जगह ज्यादा ही बहक गए। कहानी में कुछ कमजोर पहलू और भी हैं। जैसे मिली के अपहरण वाला किस्सा सिर्फ फिल्म की लंबाई को बढ़ाता है और इस प्रसंग का कहानी से कोई संबंध नजर नहीं आता। विक्रम की एक लड़की (अदिति राव हैदरी) से शादी भी तय हो जाती है और उस प्रसंग को भी हल्के से निपटाया गया है। साथ ही फिल्म के अंत में निर्मला का हृदय परिवर्तन अचानक हो जाना भी अखरता है। यह फिल्म घटना प्रधान नहीं है। कहानी में कुछ अगर-मगर भी हैं, बावजूद इसके यह बांध कर रखती है। मिली और राठौर परिवार की अलग-अलग शख्सियत के कारण जो नए रंग निकल कर आते हैं वे अच्छे लगते हैं। मिली की वजह से किरदारों के व्यवहारों में परिवर्तन तथा मिली और विक्रम के बीच पनपते रोमांस को देखना अच्छा लगता है। डिज्नी का प्रभाव शशांक के निर्देशन में नजर आता है। फिल्म के शुरुआत में ‍ही डिज्नी ने दर्शकों को बता दिया कि किस तरह की फिल्म वे देखने जा रहे हैं। पूरी फिल्म में सॉफ्ट लाइट, सॉफ्ट कलर स्कीम का उपयोग कर हर फ्रेम को खूबसूरत बनाया गया है। फिल्म में कूलनेस और परफ्यूम की सुगंध को भी महसूस किया जा सकता है। हर कलाकार सजा-धजा और फैशनेबल है। फिल्म में गंदगी का कोई निशान नहीं है, यहां तक कि मिली का अस्त-व्यस्त कमरा भी बड़े ही व्यवस्थित तरीके से बिखरा हुआ लगता है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। खासतौर पर किरदारों के मन में जो चल रहा है उसे वाइस ओवर के जरिये सुनाया गया है और इसके जरिये कई बार हंसने का अवसर मिलता है। मिली और उसकी मां के बीच जोरदार संवाद सुनने को मिलते हैं। मिली अपनी मां को उसके पहले नाम से बुलाती है और दोनों के बीच बेहतरीन बांडिंग देखने को मिलती है। सोनम कपूर को दमदार रोल निभाने को मिला है, लेकिन उनका अभिनय एक जैसा नहीं रहता। कई सीन वे अच्छे कर जाती हैं तो कई दृश्यों में उनका अभिनय कमजोर लगता है। फिर भी बबली गर्ल के रूप में वे प्रभावित करती हैं। प्रिंस के रोल में फवाद खान ने अपने चयन को सही ठहराया है। एक प्रिंस की अकड़, स्टाइल को उन्होंने बारीकी से पकड़ा। रत्ना पाठक शाह के बेहतरीन अभिनय किया है, उनके रोल को और बढ़ाया जाना था। लाउड पंजाबी मां का किरदार किरण खेर कई बार निभा चुकी हैं और इस तरह के रोल निभाना उनके बाएं हाथ का खेल है। खूबसूरत एक उम्दा पैकिंग की गई शकर चढ़ी लालीपॉप की तरह है, जिसका स्वाद सभी को पता है, बावजूद इसका मजा लेना अच्छा लगता है। बैनर : वाल्ट डिज्नी पिक्चर्स, अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी निर्माता : रिया कपूर, सिद्धार्थ रॉय कपूर, अनिल कपूर निर्देशक : शशांक घोष संगीत : स्नेहा खानवलकर कलाकार : सोनम कपूर, फवाद खान, रत्ना पाठक, आमिर रजा, किरण खेर, अदिति राव हैदरी (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट ",1 "'गोलमाल अगेन' की स्टोरी: पांच लड़कों का ग्रुप- गोपाल (अजय देवगन), माधव (अरशद वारसी), लकी (तुषार कपूर), लक्ष्मण (श्रेयष) और लक्ष्मण (कुणाल) अनाथ हैं, जो ऊटी के सेठ जमनादास अनाथालय से पले-बढ़े होते हैं। अनाथालय के गुरु की मौत के बाद वे सब वापस इस अनाथालय में पहुंचते हैं और वहां उन्हें पता चलता है कि वासु रेड्डी नाम का कोई बिल्डर (प्रकाश राज) और उसके साथी निखिल (नील) उस आश्रम और उसके साथ लगे कर्नल चौहान (सचिन केलकर) के प्लॉट को हथियाना चाहते हैं। हालांकि, उन्हें एहसास होता है कि उनकी गैर-मौजूदगी में कुछ फ्रेंडली भूत वहां रहने लगे हैं और अन्ना मैथ्यू (तब्बू), जो कि आत्माओं से बात कर सकती हैं, वह उन लड़कों को गाइड करने का काम करती हैं।'गोलमाल' एक ऐसी सनकी हुई कॉमिडी की फ्रैंचाइजी है जिसे पिछले 11 सालों से जिंदा रखा गया है। टीवी चैनल पर जब भी 'गोलमाल' सीरीज की फिल्मों का प्रसारण होता है तो लोग अपनी हंसी रोक नहीं पाते। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप फिल्म शुरुआत से देखते हैं या बीच से। अपनी पिछली फिल्मों की ही तरह 'गोलमाल अगेन' में भी आपको विशुद्ध कॉमिडी और मस्ती देखने को मिलेगी। फिल्म की हास्यकथा कई जगहों पर सचमुच आपको हंसाती है तो कई जगहों पर औसत है, लेकिन पूरी फिल्म के दौरान आप पेट पकड़कर हंसते रहेंगे क्योंकि फिल्म के हर अभिनेता को देखना अपने आपमें मजेदार अनुभव है। बात चाहे तुतलाने वाले लक्षमण (श्रेयस) की हो या फिर दबंग गोपाल की जो भूतों से हद से ज्यादा डरता है, फिल्म का हर किरदार इतना अनुभवी और दक्ष है कि आप उनकी हरकतों को देखकर अपनी हंसी रोक ही नहीं पाएंगे। वैसे तो फिल्म के डायलॉग बेहद मामूली और नीरस हैं लेकिन हास्य से भरपूर हैं।फिल्म में हॉरर के ऐंगल को भी जोड़ा गया है। साउथ की फिल्म कंचन से प्रेरणा लेते हुए इस फिल्म में भी एक ऐसे भूत को दिखाया गया है जो बदला लेना चाहता है। हालांकि इन डरावने पलों को भी बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में फिल्माया गया है। फिल्म में कई सीन ऐसे हैं जिन्हें आपने पहले कई बार देखा होगा बावजूद इसके आप उन सीन को देखकर ठहाका लगाए बिना रह नहीं पाएंगे। हालांकि फिल्म के दूसरे भाग में जब वास्तविक कहानी का खुलासा होता है तो तब फिल्म थोड़ी उबाऊ और नीरस हो जाती है।यहां कहना पड़ेगा कि रोहित शेट्टी आपको कभी बहुत बेचैन नहीं होने देते। यहां मस्ती-मजाक, लड़ाइयां, गाने, ठहाके, भूत सब का एक बफे है जिससे आपको ओवरडोज भी हो सकता है। कई बार, आप इन बेवकूफियों पर हंसने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। परफॉर्मेंस की बात करें तो तांत्रिक के किरदार में तबू ने जान डाल दी है, कोई और करता तो यह किरदार बहुत फूहड़ भी हो सकता था। बाकी एक्स्ट्रा रोल जैसे वसूली भाई (मुकेश) और पप्पी (जॉनी लीवर) को भी अच्छा फुटेज मिला है। लेकिन श्रेयस तलपड़े ने कमाल कर दिया है। परिणीति (खुशी/दामिनी) का इस्तेमाल सिर्फ ध्यान भटकाने के लिए किया गया है, जो वह करती हैं। अजय, अरशद, तुषार और कुणाल ने भी अपना काम बखूबी किया है।अगर आप इसमें कुछ ठोस ढूंढ रहे हैं, तो यहां कोई लॉजिक नहीं मिलेगा बस मैजिक मिलेगा। लेकिन, अगर आप सिर्फ हंसना चाहते हैं, तो गोलमाल अगेन देखने जा सकते हैं।इसे गुजराती में पढ़ें...",0 "आज के दौर में प्यार, रोमांस, इश्क-विश्क भले ही डिजिटल हो गया है, मगर आज का युवा भी कहीं न कहीं पुराने दौर के रोमांस की ओर आकर्षित जरूर होता है। माय ब्रदर निखिल, आई एम, चौरंगा, शब जैसे गंभीर और सोचप्रेरक सिनेमा के लिए जाने जानेवाले निर्देशक ओनीर ने इस बार अपनी फिल्म को इसी डिजिटल यानी वॉट्सऐप रोमांस के इर्द-गिर्द बुना, मगर साथ ही वे प्यार के एसेंस को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं। अपनी पिछली फिल्मों में मुद्दों की बात कहने वाले ओनीर इस बार डिजिटल रोमांस के बहाने प्यार की कई परतें खोलते हैं। कहानी: अल्फाज (जैन खान दुर्रानी ) एक बेहद मशहूर, मगर अपनी असल पहचान को छिपाकर रखने वाला रेडियो जॉकी है। वह बेहद ही नम्र, सीधा-सादा, उदास तबीयत और लोगों से दूर रहने वाला युवा है। उसकी शायरी और शानदार आवाज ने उसके शो के सुनने वालों को दीवाना बना रखा है। दूसरी और अपनी मां (मोना अंबेगांवकर) के साथ रहने वाली आर्ची (गीतांजलि थापा) एक मीम आर्टिस्ट है, जो ल्युकेमेनिया जैसे त्वचा रोग के कारण कई लड़कों द्वारा नकारी जा चुकी है। वह भी अल्फाज की आवाज, अंदाज और शायरी की मुरीद है। वह टिंडर जैसी डेटिंग साइट्स पर लगातार ब्लाइंड डेट्स में उलझी रहती है, मगर अंदरूनी तौर पर कहीं न कहीं ऐसे सच्चे प्यार की तलाश में है, जो उसे उसके वास्तविक रूप में स्वीकारे। आर्ची के साथ काम करने वाला अप्पू ( श्रेय राय तिवारी) उससे प्यार करने लगता है, मगर आर्ची उसे अपना सच्चा दोस्त मानती है। एक रॉन्ग नंबर के जरिए आर्ची अल्फाज के संपर्क में आती है और फिर सिलसिला वॉट्सऐप की मजेदार बातों से आगे बढ़कर कॉल तक पहुंचता है। आर्ची इस बात से अंजान है कि जिसे वह मिस्टर इत्तेफाक के नाम से जानती है, असल में वही अल्फाज है। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगते हैं, मगर अल्फाज का एक अतीत भी है, जिसकी घुटन और अपराधबोध से निकलकर ही वह आर्ची तक पहुंच सकता है। रिव्यू: निर्देशक के रूप में ओनीर ने मॉडर्न रोमांस को दर्शाने के लिए प्यार करने वाली मां, सच्चे दोस्त के रूप में दिल देने वाला आशिक, प्यार-मोहबत में रिजेक्शन का शिकार हुई नायिका जैसे आजमाए हुए नुस्खे डाले हैं, मगर कहानी को मुख्य पात्रों के जरिए वह फिल्म को आज के दौर की बना ले जाते हैं। फिल्म की लंबाई छोटी है, इसके बावजूद फर्स्ट हाफ स्लो है और कई दृश्य अस्पष्ट हैं। इंटरवल के बाद फिल्म न केवल रफ्तार पकड़ती है, बल्कि कहानी का विस्तार होता है और पहले भाग के अनकहे पहलू खुलने लगते हैं। फिल्म के कई दृश्य और संवाद 'टंग इन चीक' स्टाइल में दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। क्लाइमेक्स आप पहले ही भांप जाते हैं। अल्फाज के रूप में जैन खान दुर्रानी और आर्ची की भूमिका में गीतांजलि थापा अपने किरदारों में याद रह जाते हैं। जैन खान दुर्रानी की यह पहली फिल्म है, मगर अपने किरदार को उन्होंने अपनी प्रभावशाली आवाज और अभिनय अदायगी से दर्शनीय बनाया है, हालांकि कुछ जगहों पर डायलॉग डिलिवरी और हाव-भाव में कच्चापन झलकता है, मगर वह उनके किरदार को सूट करता है। नैशनल अवॉर्ड विनर रहीं गीतांजलि इस फिल्म में भी आर्ची की असुरक्षा, हीनता, सच्चे प्यार की लालसा और खुशी को बखूबी निभा ले गईं हैं। मोना अंबेगांवकर और श्रेय राय तिवारी अपने चरित्रों में अच्छे साबित हुए हैं। सपोर्टिंग कास्ट ठीक-ठाक है। फिल्म में जुबिन नौटियाल और पलक द्वारा रीक्रिएट किया गया गाना 'पहला नशा' ताजगीभरा है। रोमांटिक फिल्म होने के नाते फिल्म का संगीत पक्ष और सबल हो सकता था। क्यों देखें: प्यार- मोहब्बत और हल्की-फुल्की फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",1 " भारत में अदालतों का काम बेहद सुस्त रफ्तार से चलता है। करोड़ों केस पेंडिंग हैं। जो लोग शक्तिशाली हैं, अमीर हैं, वे इस व्यवस्था का दुरुपयोग करते हैं। कानून की पतली गलियां उनके काम आती हैं क्योंकि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की दीमक लग गई है। आम आदमी अदालत जाने से बचता है क्योंकि एक दिहाड़ी मजदूर यदि एक दिन के लिए भी अदालत जाएगा तो शाम को उसके पास भोजन के लिए पैसे नहीं होंगे। यही कारण है कि कुछ लोग समय और धन की बर्बादी से बचने के लिए अन्याय सहना पसंद करते हैं। जॉली एलएलबी के जरिये लेखक और निर्देशक सुभाष कपूर ने इस दुनिया पर अपना कैमरा घुमाया है। दरअसल यह विषय इतना व्यापक है कि एक फिल्म में समेट पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन जॉलीएलएलबी में छोटे-छोटे दृश्यों के सहारे ये सब दिखाने की कोशिश की गई है। अपनी बात कहने के लिए एक केस का सहारा लिया गया है। एक अमीरजादा शराब के नशे में फुटपाथ पर सोए मजदूरों को अपनी कार से कुचल डालता है। उसे बचाने के लिए एक स्टार वकील राजपाल (बोमन ईरानी) की सेवाएं ली जाती हैं जो अपनी ‘सेटिंग’ के जरिये साबित करता है कि वे मजदूर कार से नहीं बल्कि एक ट्रक से कुचले गए हैं और वह अमीरजादे को बचा लेता है। उसका कहना है कि फुटपाथ सोने की जगह नहीं है और उस पर सोए तो मरने का जोखिम हमेशा रहेगा। इसका जवाब देता है एक अदना-सा वकील, जगदीश त्यागी उर्फ जॉली (अरशद वारसी) कि ‍फुटपाथ कार चलाने के लिए भी नहीं हैं। इस हाई प्रोफाइल केस को वह पीआईएल के जरिये फिर खुलवाता है क्योंकि उसे भी स्टार वकील बनना है। इसके बाद यह मुकदमा पूरी फिल्म में कुछ टर्न और ट्विस्ट के सहारे चलता है। जॉली एलएलबी की कहानी और स्क्रीनप्ले की बात की जाए तो उसमें स्मूथनेस नहीं है और आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इंटरवल के पहले कई बोरिंग सीन आते हैं, लेकिन इंटरवल के पहले एक शानदार ट्विस्ट फिल्म के प्रति उत्सुकता बढ़ा देता है। इंटरवल के बाद फिल्म पटरी पर आती है और कोर्टरूम ड्रामा उम्दा है। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां हैं और कुछ बातें भी स्पष्ट नहीं हैं। अलबर्ट पिंटो नामक गवाह को पूरी तरह भूला दिया गया जबकि जॉली इस केस में अलबर्ट का अच्छी तरह उपयोग कर अपने केस को मजबूत बना सकता था। सुभाष कपूर ने लेखक और निर्देशक की दोहरी जिम्मेदारी ली है। उन्होंने कैरेक्टर लिखने में काफी मेहनत की है और बारिकियों का ध्यान रखा है, लेकिन उनके लिखे स्क्रीनप्ले में इतनी सफाई नहीं है। कई गैर जरूरी दृश्यों को हटाया जा सकता था। साथ ही जिस आसानी से जॉली सबूत जुटाता है वो ड्रामे को कमजोर करता है। फिल्म में गाने सिर्फ लंबाई बढ़ाने के काम आए हैं और व्यवधान उत्पन्न करते हैं। इसके बावजूद इन कमियों को इसलिए बर्दाश्त किया जा सकता है क्योंकि अपनी बात कहने के लिए सुभाष ने हास्य का सहारा लिया है और कुछ उम्दा दृश्य, संवाद लिखे हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं। निर्देशक के रूप में सुभाष तकनीकी रूप से कोई खास कमाल नहीं दिखाते हैं और कहानी कहने के लिए उन्होंने सपाट तरीका ही चुना है। खास बात ये कि वे अपने विषय से भटके नहीं हैं और न्याय प्रणाली की तस्वीर को अच्छे से पेश करने में सफल रहे हैं। फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट है। बोमन ईरानी ने एक शातिर वकील का किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया है। उनकी संवाद अदायगी, फेशियल एक्सप्रेशन और बॉडी लैंग्वेज जबरदस्त है। अरशद वारसी ने भी बोमन को जबरदस्त टक्कर दी है और ओवर एक्टिंग से अपने आपको बचाए रखा है। लेकिन बाजी मार ले जाते हैं सौरभ शुक्ला, जिन्होंने पेटू जज की भूमिका निभाई है। सौरभ ने कई यादगार भूमिकाएं निभाई हैं और उनमें अब यह भी शामिल हो गई है। अमृता राव का रोल दमदार नहीं है, इसके बावजूद वे अपनी उपस्थि‍ति दर्ज कराती हैं। जॉली एलएलबी खामियों के बावजूद मनोरंजन करने और अपनी बात कहने में सफल है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्देशक : सुभाष कपूर संगीत : कृष्णा कलाकार : अरशद वारसी, अमृता राव, बोमन ईरानी, सौरभ शुक्ला सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 131 मिनट बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "आज का युवा भले प्यार के लिए किसी भी हद तक चला जाए, मगर आम भारतीय मध्यमवर्गीय सोच यही कहती है कि प्यार-व्यार एक चोंचला है। असल प्यार वह होता है, जो शादी के बाद होता है। अब जरूरी नहीं कि शादी के बाद प्यार हो ही जाए। अगर ऐसा होता है, तो परिणाम यह होता कि कई विवाहित लोग बिना प्यार के शादी को जिम्मेदारी मानते हुए उसे निभा ले जाते। कई बार प्यार हो भी जाता है, मगर वे यह सोचकर व्यक्त नहीं करते कि यह भी कोई कहने की बात है? उसे तो पता होगा ही। वैसे प्यार का इजहार जरूरी होता है और क्यों जरूरी होता है, इसका खूबसूरत चित्रण हरीश व्यास की फिल्म अंग्रेजी में कहते हैं, में देखने को मिलता है। वाराणसी में रहने वाले यशवंत बत्रा (संजय मिश्रा) और किरण बत्रा (एकवली खन्ना) पिछले 25 साल से विवाहित हैं। उनकी जवान बेटी प्रीति (शिवानी रघुवंशी) पड़ोस के लड़के जुगनू (अंशुमान झा) से प्यार करती है। सरकारी नौकरी करने वाले यशवंत का मानना है कि मर्द का काम बाहर जाकर कमाना होता है और औरत का काम घर संभालना। वह अपनी बेटी प्रीति की शादी भी इसी सोच के तहत करना चाहता है। 25 सालों के लंबे वैवाहिक जीवन में उसने कभी अपनी पत्नी से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले। प्रीति अपने पिता की परंपरावादी सोच के खिलाफ जुगनू से मंदिर में छुप कर शादी कर लेती है। इसी बीच यशवंत और किरण में दूरियां बढ़ती जाती है और एक दिन झगड़े में वह अपनी पत्नी से कह देता है कि जिस तरह प्रीति ने अपनी मनमर्जी की, किरण भी उसे छोड़कर जा सकती है। किरण पति के रूखे और उपेक्षित रवैये से दुखी होकर मायके चली जाती है। इसी बीच कहानी में दो नए किरदारों, फिरोज (पंकज त्रिपाठी) और सुमन (इप्शिता चक्रवर्ती ) की एंट्री होती है। दोनों ने धार्मिक बंधनों को तोड़कर शादी की, लेकिन अब सुमन जानलेवा बीमारी से जूझते हुए अस्पताल में भर्ती है। किरण के घर छोड़ जाने के बाद प्रीति और जुगनू यशवंत को अहसास दिलाते हैं कि ढाई दशकों में यशवंत ने किरण से कभी प्यार-मोहब्बत की बातें नहीं की। यशवंत को भी अपनी गलती का अहसास होता है। फिरोज और सुमन के निश्चल प्यार से भी वह सबक लेता है। अब वह खुद को बदलकर किरण से वापस बुलाना चाहता है। क्या उसने देर कर दी? किरण लौट कर आएगी? इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। निर्देशक हरीश व्यास ने मध्यमवर्गीय परंपरा और मर्दवादी सोच को बहुत ही बारीकी से दर्शाया है, मगर मध्यांतर के बाद यशवंत के प्यार के इजहार की कोशिशों में कहानी फिल्मी हो जाती है। फिल्म में फिरोज और सुमन की प्रेम कहानी को और ज्यादा विस्तार दिया जाना चाहिए था। फिल्म बॉलिवुड की आम फिल्मों से भिन्न है, लेकिन कहानी फिर अपनी हद में बंधी हुई नजर आने लगती है और अपना आकर्षण खो देती है। संजय मिश्रा हमेशा की तरह अपने रोल के प्रति ईमानदार रहे हैं। उन्होंने यशवंत की भूमिका की हर परत को बखूबी जिया है। एकवली खन्ना अपनी भूमिका में गहराई तक उतरती हैं। पंकज त्रिपाठी की एंट्री फिल्म को राहत देती है। शिवानी रघुवंशी, अंशुमान झा, इप्शिता चक्रवर्ती और बृजेंद्र काला अपनी भूमिकाओं में फबे हैं। ओनीर-आदिल और रंजन शर्मा के संगीत में 'मेरी आंखें' और 'पिया मोसे रूठ गए' गाने मधुर और मखमली बन पड़े हैं। क्यों देखें- प्रेम कहानियों और अलग तरह के विषयों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",0 "After directing films like Kuch kuch hota hai, Kabhi khushi kabhi gham and Student of the year, director Karan Johar now brings to you a grown up modern day love story which is a bit complicated at times but potrays the different phases of relationship. Ranbir kapoor, Anushka Sharma and Aishwarya Rai Bachchan are in the lead role but there are some surprising elements too in the film. It is a beautiful looking film which does have some logic. Story Film is about Ayan(Ranbir Kapoor) and Alizeh's(Anushka Sharma) friendship. During the course of their friendship Ayan falls in love with Alizeh, but she doesn’t reciprocate the feeling becuase Alizeh is still reeling from her break-up with Ali (Fawad Khan). In a chance encounter Alizeh again slips back into Ali's arms, leaving Ayan distraught. Ayan then finds solace in a relationship with Saba (Aishwarya), who helps him get a new perspective on one-sided love. Sometimes it seems there is a genuine chemistry between the lead actors. The laughter and the sadness comes from real consequences. Anushka Sharma is remarkable and stands out in her role. Ranbir kapoor's portrayal of a one sided lover is heartbreaking.His chemistry works well with both the leading ladies. Watching Aishwarya Rai in a seduction role is a welcome change.",0 "बैनर : रामगोपाल वर्मा प्रोडक्शन्स, उबेरॉय लाइन प्रोडक्शन्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता-निर्देशक : रामगोपाल वर्मा संगीत : धरम संदीप, बप्पा लाहिरी, विक्रम नागी कलाकार : अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, राणा दग्गुबती, अंजना सुखानी, मधु शालिन ी, ‍विजय राज, नतालिया कौर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 12 मिनट रामगोपाल वर्मा को कुछ नया नहीं सूझता तो वे अपना पुराने माल की धूल साफ कर फिर परोस देते हैं। पुलिस, अंडरवर्ल्ड, एनकाउंटर को लेकर वे इतनी फिल्में बना चुके हैं कि इस बारे में उनकी सोच अब जवाब दे गई है। ‘डिपार्टमेंट’ में वे कुछ भी नया नहीं पेश कर पाए। अब तो उनके एक्सपरिमेंट भी टाइप्ड हो गए हैं। हर फिल्म वे शॉट आड़े-तिरछे कोणों से शूट करते हैं और हर बार यह प्रयोग अच्छा लगे जरूरी नहीं है। दरअसल रामू को चीज बिगाड़ कर पेश करने की आदत है, लेकिन कितना बिगाड़ना है इस पर उनका नियंत्रण नहीं है, इस वजह से फिल्म पर से उनकी पकड़ छूट जाती है। डिपार्टमेंट की कहानी में एकमात्र अनोखी बात ये है कि पुलिस विभाग के अंदर भी एक डिपार्टमेंट बनाया जाता है ताकि अंडरवर्ल्ड पर शिकंजा कसा जा सके। इस डिपार्टमेंट के अंदर काम करने वाले महादेव भोसले (संजय दत्त) और शिवनारायण (राणा दग्गुबाती) में शुरू में तो अच्छी पटती है, लेकिन दोनों के काम करने के तौर-तरीकों में काफी फर्क है, जिससे उनके बीच दूरियां बढ़ने लगती है। वे गैंगस्टर्स को मारने के लिए दूसरी गैंग्स के लिए काम करने लगते हैं। इन दोनों के बीच आता है गैंगस्टर सर्जेराव गायकवाड़ (अमिताभ बच्चन) जो अब मंत्री है और इन दोनों पुलिस अफसरों का उपयोग कर वह अपना मतलब निकालता है। स्क्रीनप्ले ठीक-ठाक है। हर किरदार को समझना और उसके अगले कदम के बारे में अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन बतौर निर्देशक रामू ने स्थिति स्पष्ट करने में बहुत ज्यादा वक्त ले लिया। साथ ही उन्होंने कहानी को स्क्रीन पर इस तरह उतारा है कि फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ लगती है। खासतौर पर इंटरवल के पहले ‍वाला हिस्सा बहुत ही धीमा और दोहराव से भरा है। महादेव और शिव गैंगस्टर्स को मारते हैं, घर पर जाकर बीवी या गर्लफ्रेंड से बातें करते हैं और गैंगस्टर (विजय राज) अपने लोगों पर चिल्लाता रहता है, बस यही तीन प्रसंग बारी-बारी से परदे पर आते-जाते रहते हैं और कहानी बमुश्किल आगे खिसकती है। इंटरवल के बाद कहानी में गति आती है और घटनाक्रम तेजी से घटते हैं, लेकिन बीच में कई बोरियत भरे पल आते हैं जिसके कारण फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है और फिल्म खत्म होने का इंतजार शुरू हो जाता है। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जो सिर्फ लंबाई बढ़ाने के काम आते हैं, जैसे अमिताभ बच्चन का पहला दृश्य, जिसमें लालचंद और वालचंद नामक दो भाइयों के बीच वे समझौता कराते हैं। यह सीक्वेंस दर्शकों को हंसाने के लिए रखा गया है, लेकिन जमकर बोर करता है। गैंगस्टर डी.के. और नसीर को जरूरत से ज्यादा फुटेज दिए गए हैं। बतौर रामू निर्देशक के रूप में बिलकुल प्रभावित नहीं करते। बजाय फिल्म को मनोरंजक बनाने के उनका सारा ध्यान कैमरा एंगल्स और एक्शन सीन्स पर रहा। एक्शन दृश्य तो फिर भी औसत हैं, लेकिन जर्की कैमरा मूवमेंट्स फिल्म देखने में व्यवधान पैदा करते हैं। फिल्म की एडिटिंग भी खराब है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है, जब भी डिपार्टमेंट शब्द आता है तो उसके बाद खास किस्म का बैकग्राउंड म्युजिक सुनने को मिलता है, ऐसा लगता है मानो बताया जा रहा हो कि आप डिपार्टमेंट नाम की फिल्म देख रहे हैं। फाइट सीन में दीवार कार्डबोर्ड की नजर आती है। एक-दो सीन सिंक साउंड में हैं तो बाकी फिल्म डब की गई है। इस तरह की फिल्मों में गानों की जगह बमुश्किल बनती है और हैरानी की बात तो ये है कि रामू ने इस फिल्म में शादी का भी एक गीत डाल दिया है। नमक हलाल के गीत ‘थोड़ी सी जो पी ली है’ को बहुत ही बुरे तरीके से गाया और पेश किया गया है। अमिताभ बच्चन के किरदार को मनोरंजक बनाने के लिए उन्हें कुछ उम्दा संवाद दिए हैं, जो उनके प्रशंसकों को अच्छे लगेंगे, जैसे- ‘भारत में लोग पांच सौ करोड़ रुपये का गुटखा खाकर थूक देते हैं’ या ‘जैसे गौतम बुद्ध को पेड़ के नीचे साक्षात्कार हुआ था वैसा मुझे धारावी के सिग्नल के नीचे हुआ’। बिग बी ने अपना काम ठीक से किया और वे कुछ राहत के पल देते हैं। संजय दत्त कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ते और वे मोटे नजर आए। राणा दग्गुबती, मधु शालिनी और विजय राज का अभिनय ठीक कहा जा सकता है। डिपार्टमेंट में एक संवाद है कि अंडरवर्ल्ड और फिल्म सिर्फ पब्लिसिटी से चलते हैं, शायद इसीलिए रामू ने फिल्म की बजाय पब्लिसिटी पर ज्यादा ध्यान दिया, लेकिन डिपार्टमेंट को पब्लिसिटी भी बचा नहीं पाएगी। ",0 " कांची एक बेहद खराब फिल्म है और इसका पूरा दोष सुभाष घई को ही दिया जा सकता है क्योंकि उन्होंने लेखन, संपादन और निर्देशन जैसे महत्वपूर्ण काम किए हैं। दरअसल सुभाष घई एक ओवर रेटेड फिल्मकार हैं और अब तक उन्होंने ऐसी फिल्म नहीं बनाई है जो बरसों तक याद की जाए। ये बात ठीक है कि अस्सी और नब्बे के दशक में उन्होंने व्यावसायिक रूप से कई सफल फिल्म बनाईं, लेकिन ये बात भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने युवराज, किस्ना और यादें जैसी घटियां फिल्में भी बनाई हैं। अब इस सूची‍ में कांची का नाम भी जोड़ लीजिए। सुभाष घई की सुई अभी भी बीस वर्ष पहले अटकी हुई है और कांची तो इतनी बुरी है कि पच्चीस वर्ष पहले भी रिलीज होती तो बुरी तरह पिटती। पहले सीन से ही फिल्म कमजोर साबित हो जाती है। साइकिल रेस चल रही है और बैकड्रॉप में कौशम्पा गांव के लोग लोग 'कांची-कांची' का गाना गा रहे हैं। कांची एक सामान्य लड़की है और पता नहीं लोग उसे इतना महामंडित क्यों कर रहे हैं। जो देखो कांची की बात कर रहा है। बिंदा और कांची एक-दूसरे को चाहते हैं। कौशम्पा गांव पर कांकड़ा ब्रदर्स श्याम (मिथुन) और झूमर (ऋषि कपूर) नजर है। मुंबई में रहने वाले ये राजनेता और अमीर भाई इस गांव का औद्योगिकरण करना चाहते हैं। श्याम के बेटे सुशांत का दिल कांची पर आ जाता है, लेकिन कांची उसके प्रेम के प्रस्ताव को ठुकरा देती है। सुशांत को यह बात बुरी लगता है और वह कांची के प्रेमी बिंदा की हत्या कर देता है। किस तरह से कांची बदला लेती है यह फिल्म का सार है। कहानी बेहद लचर है और इसमें बिलकुल भी नयापन नहीं है। ऊपर से इस कहानी में देशप्रेम और राजनेताओं के खिलाफ युवा आक्रोश का एंगल ‍बेमतलब घुसा दिया गया है। कांची के पिता फौजी थे और बिंदा भी एक स्कूल चलाता है जिसमें बच्चों को वह लड़ने का प्रशिक्षण देता है। बिंदा देश प्रेम का भाषण देते रहता है और हाथ में तिरंगा लिए लोग उसे सुनते हैं। ये दृश्य बचकाने हैं क्योंकि इनकी कहानी में कोई जगह ही नहीं बनती। ऐसा लगता है कि ये सब जबरदस्ती थोपा जा रहा है। हाथ में मोमबत्ती लिए सड़कों पर निकले युवा दिखाकर शायद सुभाष घई ने युवाओं को अपनी फिल्म से जोड़ने का प्रयास किया है। युवाओं को ध्यान में रख उन्होंने कांची और बिंदा के बीच किसिंग सीन रखे हैं, जो कहानी में फिट नहीं होते। कांची के मुंह से गालियां निकलवाई है जबकि फिल्म में उसका जो कैरेक्टर दिखाया गया है उस पर ये कही सूट नहीं होता। कई दृश्यों में बेवजह भीड़ रखी गई है, हो सकता है कि निर्देशक का ऐसा मानना है कि इससे फिल्म भव्य लगती हो। स्क्रिप्ट में भी ढेर सारी खामियां हैं। कांची नदी में कूद जाती है और पता नहीं कैसे बचकर मुंबई पहुंच जाती है। वहां जाकर जिस तरीके से वह कांकड़ ब्रदर्स से अपना बदला लेती है वह हास्यास्पद है। ऐसा लगता है कि सिर्फ कांची होशियार है और कांकड़ा ब्रदर्स निरे मूर्ख। कांची की मदद उसका दोस्त करता है, जो कि पुलिस वाला है और ऐसा लगता है कि वह कांकड़ ब्रदर्स के बंगले पर ही चौकीदारी करता हो। सुभाष घई निर्देशक के रूप में चुक गए हैं। अपने सुनहरे दिनों की वे परछाई मात्र रह गए हैं। उनका फिल्म मेकिंक का स्टाइल आउटडेटेट हो चुका है। कैमरा एंगल से लेकर तो बैकग्राउंड म्युजिक दर्शाता है कि घई पुराने दौर की जुगाली कर रहे हैं। फिल्म का संगीत और गानों का पिक्चराइजेशन 'ब्रेक' लेने के काम आते हैं। 'चोली के पीछे' की तर्ज पर 'कंबल के नीचे' गाना बनाकर घई ने दिखा दिया है कि वे चाह कर भी अपने अतीत से छुटकारा नहीं पा रहे हैं। इस गाने में घई ने अपनी ही पुरानी फिल्मों के हिट गीतों को दोहराया है और अपने द्वारा पेश की गई महिमा चौधरी से भी ठुमके लगवा दिए हैं। ये बात और है कि आज का युवा महिमा को पहचानता भी नहीं होगा। निर्देशन बुरा हो तो एक्टर भी बुरे हो जाते हैं। ऋषि कपूर इस समय बेहद फॉर्म में हैं, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बेहद घटिया एक्टिंग की है। उनका लुक विजय माल्या से प्रभावित है। मिथुन चक्रवर्ती ने भी ओवर एक्टिंग कर ऋषि को जोरदार टक्कर दी है। मिष्टी नामक हीरोइन को इस फिल्म के जरिये पेश किया गया है। मिष्टी बेहद खूबसूरत हैं, लेकिन अभिनय के मामले में उन्हें बहुत कुछ सीखना है। कई दृश्यों में वे रानी मुखर्जी जैसी दिखाई देती हैं। कार्तिक आर्यन का बतौर हीरो रोल बेहद छोटा है। चंदन रॉय सान्याल भी ओवरएक्टिंग करते नजर आए। सुशांत के रूप में ऋषभ सिन्हा प्रभावित करते हैं। मिष्ठी और लोकेशन्स की खूबसूरती के अलावा 'कांची' में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। बैनर : मुक्ता आर्ट्स लि. निर्माता-निर्देशक : सुभाष घई संगीत : सलीम मर्चेण्ट, इस्माइल दरबार कलाकार : मिष्टी, कार्तिक आर्यन, ऋषि कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, चंदन रॉय सान्याल, आदिल हुसैन, मीता वशिष्ठ सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनट 27 सेकंड ",0 "रौनक कोटेचाउम्मीदों, सपनों और रिश्तों के बीच बुनी गई है 'फन्ने खान' की कहानी। यह एक ऐसे पिता की कहानी है, जो अपनी बेटी को भारत का अगला सिंगिंग सेंसेशन बनाने और उसे एक बड़ा मंच देने के लिए किसी भी हद तक जाता है।रिव्यू: वह खुद मोहम्मद रफी तो नहीं बन पाता लेकिन अपनी बेटी को लता मंगेशकर बनाने के सपने जरूर देखता है। सुपरस्टार बनने का ख्वाब देखने वाला प्रशांत शर्मा (अनिल कपूर) जो कि अपने दोस्तों के बीच फन्ने खां के नाम से ज्यादा चर्चित है, अपने सपने को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है। वह बॉलिवुड ऐक्टर शम्मी कपूर की पूजा तक करता नजर आता है और बस ऐसा लगता है कि जैसे वह सिर्फ सुपरस्टारडम के अपने सपने को पूरा करने के लिए ही जिंदा है। हालांकि, वह अपने इस ख्वाब को पूरा नहीं कर पाता और उसकी उम्मीदें अपनी नवजात बच्ची से बंध जाती हैं। यहां तक कि वह उसका नाम भी लता (पीहू सैंड) ही रखता है। लता बड़ी होती है और वह न केवल अच्छा गाती है बल्कि डांस भी अच्छा करती है। हालांकि, प्लस साइज़ होने की वजह से वह स्टेज पर लगातार बॉडी शेमिंग का शिकार भी होती है। प्रशांत अपनी बेटी को स्टार बनाने के लिए सबकुछ करता है और यहां तक कि अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए जो उसपर जुनून सवार है उसके लिए अपनी ही बच्ची से फटकार भी सुनता है। उन्होंने मुंबई के एक मिडल क्लास व्यक्ति को लेकर बेहतरीन बैलंस बनाने की कोशिश की है जो कि अपने सपने और सच के बीच खूब मशक्कत करता है। उसकी वाइफ कविता (दिव्या दत्ता) भी उसके इस सपने को सच करने में हमेशा उसके साथ होती है। बतौर डेब्यू ऐक्टर पीहू ने अपने किरदार को काफी संवेदनशीलता के साथ जीया है, लेकिन जो चीज समझ से परे है वह है लगातार उसका उसके पापा से शिकायत। हॉट सिंगर बेबी सिंह के किरदार में ऐश्वर्या राय बच्चन काफी गॉरजस दिख रही हैं, लेकिन उनकी कहानी पर ज्यादा मेहनत नहीं ही की गई। टैलंटेड ऐक्टर राजकुमार राव प्रशांत का काफी अच्छा दोस्त है। राजकुमार राव के साथ उनकी केमिस्ट्री अस्वाभाविक नज़र आती है, जो कि कॉमिडी वाले सीन में छिप जाती है। फिल्म की कहानी की राह सेकंड हाफ में थोड़ी भटकती हुई दिखने लगती है। जैसे कि बेबी सिंह की कोई रियल बैकस्टोरी नहीं है और उनकी लाइफ में केवल उनका एक मैनेजर है जो बस यही चाहता है कि एक रिऐलिटी शो में स्टेज पर वह (बेबी) वॉरड्रोब मैलफंक्शन का शिकार हो जाए। फिल्म का सेकंड हाफ काफी लंबा और कठिन नज़र आता है। 'अच्छे दिन' को छोड़कर म्यूज़िकल फिल्म 'फन्ने खां' का साउंड ट्रैक उतना शानदार नहीं बन पड़ा है। कुल मिलाकर 'फन्ने खां' सितारों से भरी एक म्यूज़िकल ड्रामा फिल्म है, जिसमें सितारे अपनी आवाज का जादू बिखेरते दिखते हैं। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे कोई पैरंट्स अपने सपनों को अपने बच्चों के जरिए सच कर दिखाना चाहता है। इस फिल्म के शो स्टॉपर साफ तौर पर अनिल कपूर हैं, जिन्होंने अपने बेहतरीन अदाकारी का परिचय दिया है और जिसके लिए आपको 'फन्ने खां' एक बार जरूर देखनी चाहिए। ",1 "डरना बुरी बात नहीं होती। कभी-कभी बहादुर बनने के लिए डरना जरूरी होता है। फिल्म 'स्काईस्क्रैपर' के एक सीन में ड्वेन जॉनसन अपने बेटे को यह शिक्षा देता है, तो खुद भी मुश्किल परिस्थितियों में इस पर अमल करते हैं। यह फिल्म स्वायर (ड्वेन जॉनसन) की कहानी है, जो कि एफबीआई एजेंट था। 10 साल पहले एक ऑपरेशन में लोगों की जान बचाने के दौरान वह अपनी टांग गवां देता है। अब वह ऊंची इमारतों की सिक्यॉरिटी को चेक करने वाली एक कंपनी चलाता है। उसकी पत्नी और दो जुड़वा बच्चे उसके साथ ही रहते हैं।स्वायर का एक दोस्त उसकी मुलाकात हांगकांग में दुनिया की सबसे ऊंची इमारत पर्ल के मालिक से कराता है, जो कि उससे अपनी बिल्डिंग की सेफ्टी चेक कराना चाहता है। वह स्वायर को अपनी बिल्डिंग के तमाम सिक्यॉरिटी एक्सेस से जुड़ा टैबलेट देता है। दरअसल, पर्ल का मालिक बिल्डिंग के रेसिडेंशल फ्लोर भी खोलना चाहता है। इस दौरान स्वायर की फैमिली भी एक फ्लोर पर ही रुकती है। अपनी फैमिली को जू भेज कर स्वायर अपने दोस्त के साथ बिल्डिंग की सिक्यॉरिटी चेक करने कंट्रोल रूम जाता है। इसी बीच उस पर हमला होता है और हमलावर उसका बैग छीन कर भाग जाता है। दरअसल वह हमलावर वह टैबलेट छीनना चाहता था। लेकिन वह स्वायर के जेब में ही था। तब स्वायर को पता लगता है कि वह बड़ी साजिश का शिकार हो गया है और उसको बिल्डिंग के मालिक से मिलवाने वाले उसके दोस्त ने उसका इस्तेमाल उसका टैबलेट लेने के लिए किया है। दरअसल वह एक गैंग से जुड़ा है, जो पर्ल के मालिक से बदला लेना चाहते हैं। इसी बीच गैंग के लोग स्वायर पर हमला करके उससे टैबलेट छीन लेते हैं। वहीं गैंग के बाकी लोग बिल्डिंग का सिक्यॉरिटी सिस्टम फेल करके वहां आग लगा देते हैं। स्वायर को पता चलता है कि उसकी पत्नी और बच्चे भी पर्ल में लौट चुके हैं, तो वह उन्हें बचाने के लिए अपनी जान पर खेल कर आग लगी हुई बिल्डिंग में घुस जाता है। स्वायर अपनी फैमिली को बचा पता है या नहीं? यह जानने के लिए आपको सिनेमा घर जाना होगा।यूं तो यह फिल्म महज एक बिल्डिंग की कहानी है, लेकिन डायरेक्टर ने अनोखी बिल्डिंग दिखाई है। फिल्म कहीं भी आपको बोर नहीं होने देती। दुनिया की सबसे ऊंची बिल्डिंग होने के साथ वह सिक्यॉरिटी के मामले में भी आगे है। स्वायर ने अपनी फैमिली को बचाने के लिए कई हैरतअंगेज सीन किए हैं। ड्वेन जॉनसन ने फिल्म में बेहतरीन ऐक्टिंग की है। वहीं उनके साथी कलाकारों ने भी अपने रोल्स को ठीकठाक निभाया है। फिल्म का फर्स्ट हाफ कसा हुआ है, तो सेकंड हाफ और भी रोमांचक है। फिल्म के कुछ सीन सिहरन पैदा करते हैं। अगर वीकेंड पर कुछ रोमांचक देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं।",1 "बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू जौहर निर्देशक : करण मल्होत्रा संगीत : अजय गोगावले, अतुल गोगावले कलाकार : रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त, ऋषि कपूर, ओम पुरी, चेतन पंडित, आरीष भिवंडीवाला, कनिका तिवारी कैटरीना कैफ ( मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 20 रील * 2 घंटे 53 मिनट अग्निपथ (1990) का रीमेक सही समय पर रिलीज हुआ है। इस समय दर्शकों की रूचि में बदलाव आया है। 80 और 90 के दशक में जिस तरह की फिल्में बनती थीं, वैसी फिल्में पसंद की जा रही हैं। सिंघम, दबंग, वांटेड, बॉडीगार्ड इसका सबूत हैं। इन्हें हम ठेठ देसी फिल्म कह सकते हैं। सीधे हीरो और विलेन की लड़ाई इनमें होती है। पहली रील में ही पता चल जाता है कि हीरो का टारगेट है बदला लेना। ये भी पता रहता है कि वह इसमें कामयाब होगा। दिलचस्पी सिर्फ इसमें होती है कि कैसे? मुकुल एस. आनंद निर्देशित फिल्म अग्निपथ (1990) फ्लॉप रही थी। अमिताभ बच्चन ने आवाज बदलकर संवाद डब किए थे, जो दर्शकों की समझ में ही नहीं आए और इसे फिल्म के पिटने का मुख्य कारण माना गया। किसी ‍फ्लॉप फिल्म का रीमेक बनना बिरला उदाहरण है। दरअसल अमिताभ वाली अग्निपथ को बाद में टीवी पर देख दर्शकों ने काफी सराहा। करण जौहर को लगा कि उनके पिता यश जौहर की फिल्म के साथ दर्शकों ने ठीक इंसाफ नहीं किया, इसलिए उन्होंने एक बार और इस फिल्म को बनाया ताकि इसकी सफलता के जरिये वे साबित कर सकें कि उनके पिता द्वारा बनाई गई फिल्म उम्दा थी। अग्निपथ (2012) एक बदले की कहानी है। इसमें थोड़े-बहुत बदलाव किए गए हैं, लेकिन फिल्म की मूल कहानी 1990 में रिलीज हुई फिल्म जैसी ही है। मांडवा में रहने वाला बालक विजय दीनानाथ चौहान (मास्टर आरीष भिवंडीवाला) की आंखों के सामने उसके सिद्धांतवादी पिता (चेतन पंडित) को कांचा चीना (संजय दत्त) बरगद के पेड़ से लटका कर मार डालता है क्योंकि कांचा के बुरे इरादों की राह में मास्टर रुकावट थे। विजय अपनी मां (जरीना वहाब) के साथ मुंबई जा पहुंचता है, जहां उसकी मां एक बेटी को जन्म देती है। विजय का एक ही लक्ष्य रहता है कि किसी तरह अपने पिता की मौत का बदला लेना। वह गैंगस्टर रऊफ लाला (‍ऋषि कपूर) की शरण लेता है। अब विजय (रितिक रोशन) बड़ा हो चुका है। अपराध की दुनिया का बड़ा नाम है। रऊफ लाला के जरिये वह कांचा तक जा पहुंचता है और किस तरीके से बदला लेता है यह फिल्म का सार है। फिल्म का स्क्रीनप्ले (इला बेदी और करण मल्होत्रा) बहुत ही ड्रामेटिक है। हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। बारिश, आग, त्योहार के बैकड्रॉप में कहानी को आगे बढ़ाया गया है। ये चीजें अच्छी इसलिए लगती हैं क्योंकि कहानी लार्जर देन लाइफ है और ड्रामे में दिलचस्पी बनी रहती है। बाल विजय और उसके पिता वाले हिस्से को लंबा फुटेज दिया गया है और यह हिस्सा बेहद ड्रामेटिक है। यहां पर दोनों लेखकों ने विजय के कैरेक्टर को बेहतरीन तरीके से दर्शकों के दिलो-दिमाग में बैठा दिया है। इंटरवल के पहले वाला हिस्सा बेहद मजबूत है। इंटरवल के बाद फिल्म की गति सुस्त होती है। कुछ गाने और दृश्य रुकावट पैदा करते हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है। क्लाइमेक्स में फिर एक बार फिल्म गति पकड़ती है, हालांकि क्लाइमेक्स थोड़ा जल्दबाजी में निपटाया गया है। फिल्म समीक्षा का अगला हिस्सा पढ़ने के लिए अगले पृष्ठ पर क्लिक करें) ",1 "बैनर : श्री अष्टविनायक सिनेविजन लिमिटेड, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : ढिलीन मेहता निर्देशक : इम्तियाज अली संगीतकार : ए.आर.रहमान कलाकार : रणबीर कपूर, नरगिस फखरी, पियूश्र मिश्रा, अदिति राव हैदरी, श्रेया नारायणन शम्मी कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 39 मिनट * 18 रील जनार्दन जाखड़ (रणबीर) थोड़ा ठस दिमाग है। उसके भेजे को यह बात समझ में नहीं आती कि वह जिम मॉरिसन जैसा स्टार क्यों नहीं बन पा रहा है। खटारा अंकल उसे बातों-बातों में बताते हैं कि जितने भी सफल संगीतकार हैं, गायक हैं, कलाकार हैं, उनकी जिंदगी में कोई ना कोई दर्द है, इसलिए उनके अंदर से इतनी बेहतरीन कला बाहर आती है। जनार्दन परेशान हो जाता है कि उसके जीवन में तो कोई दु:ख नहीं है। मां-बाप अभी तक जिंदा है। वह गोद लिया हुआ बच्चा भी नहीं है। वह स्वस्थ है और उसे कोई गंभीर बीमारी नहीं है। गरीब इतना भी नहीं है कि रोटी खाने के लाले पड़े। मोहब्बत में उसका दिल टूट जाए इसलिए कॉलेज की सबसे खूबसूरत लड़की हीर (नरगिस फखरी) को वह आई लव यू कह देता है। बदले में उसे हीर की कई बातें सुनना पड़ती है। उसे लगता है कि उसका दिल टूट गया है। अब वह रॉक स्टार बन जाएगा। इस प्रसंग के बाद हीर और जनार्दन, जिसे अब हीर, जॉर्डन कहने लगी है अच्छे दोस्त बन जाते हैं। फिर शुरू होता है जॉर्डन के रॉक स्टार बनने का सफर जिसमें कई उतार-चढ़ाव आते हैं और जिस दर्द की उसे तलाश थी वो भी उसके जीवन में आता है। दरअसल रॉकस्टार की कहानी उस लोकप्रिय बात को आधार बनाकर लिखी गई है जिसके मुताबिक यदि कलाकार के दिल को ठेस पहुंची हो। उसके जीवन में कोई दर्द हो तो उसकी कला निखर कर सामने आती है। इ स कहान ी प र बन ी फिल् म क ो देखत े सम य कुछ सवाल पैदा होते हैं? हीर की शादी कही और तय हो चुकी है। शादी के पहले वह मौज-मस्ती करना चाहती है (यह प्रसंग ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ की याद दिलाता है)। घूमने-फिरने के दौरान उसे जॉर्डन से प्यार हो जाता है। इसके बावजूद वह दूसरे इंसान से शादी करने के लिए तैयार क्यों हो जाती है। उस पर घरवालों का कोई दबाव नहीं है। वह बोल्ड है क्योंकि ‘जंगली जवानी’ जैसी फिल्म थिएटर में जाकर देखती है। देशी शराब पीती है। फिर वह जॉर्डन से शादी करने में क्यों हिचकती है? शादी के बाद वह प्रॉग रहने चली जाती है। उसके पीछे-पीछे जॉर्डन भी जा पहुंचता है। वहां दोनों के बीच रोमांस शुरू हो जाता है। आखिर हीर यह कदम क्यों उठाती है? क्या वह अपनी शादी से खुश नहीं है? हालांकि फिल्म देखते समय ये प्रश्न ज्यादा परेशान नहीं करते हैं, लेकिन इम्तियाज ये बातें स्पष्ट करते तो फिल्म की अपील बढ़ जाती। निर्देशक के रूप में इम्तियाज अली प्रभावित करते हैं। रंगों का संयोजन, ओवरलेपिंग दृश्यों के जरिये कहानी को कहना और जॉर्डन के दर्द को जिस पॉवरफुल तरीके से परदे पर उन्होंने उभारा है वह प्रशंसनीय है। इम्तियाज ने कई दृश्यों को पेंटिंग की तरह प्रस्तुत किया है। इंटरवल के पहले फिल्म में हल्के-फुल्के प्रसंग है, लेकिन बाद में फिल्म थोड़ी लंबी और खींची हुई लगती है क्योंकि इम्तियाज कुछ दृश्यों को रखने का मोह नहीं छोड़ पाए। रणबीर कपूर का अभिनय फिल्म की जान है। उनके किरदार के बारे में फिल्म में शम्मी कपूर एक संवाद बोलते हैं ‘यह बड़ा जानवर है। पिंजरे में इसे कैद करना मुश्किल है। यह अपनी दुनिया खुद बनाएगा।‘ और इस जानवर को रणबीर ने बड़ी खूबी से बाहर निकाला है। ठस जनार्दन से कुंठित, आक्रामक और दर्द से छटपटाते जॉर्डन को उन्होंने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। कहा जा सकता है कि अपनी पीढ़ी के कलाकारों में रणबीर सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली हैं। नरगिस फखरी में आत्मविश्वास तो नजर आता है लेकिन उनका अभिनय एक जैसा नहीं है। कुछ दृश्यों में उनकी एक्टिंग अच्छी है तो कई ऐसे दृश्य भी हैं जहां उनकी अभिनय करने की कोशिश साफ नजर आती है। शम्मी कपूर, अदिति राव हैदरी, श्रेया नारायणन, पियूष मिश्रा मंजे हुए कलाकार हैं और बड़ी सरलता से उन्होंने अपना काम किया है। ए.आर. रहमान भी इस फिल्म के स्टार हैं। अरसे बाद रहमान ने इतना सुरीला संगीत दिया है। साडा हक, कतिया करूं, हवा-हवा जैसे कई बेहतरीन गाने सुनने को मिलते हैं। इरशाद कामिल ने रहमान की धुनों के साथ न्याय करने वाले शब्द लिखे हैं। फिल्म की एडिटर आरती बजाज का उल्लेख भी जरूरी है जिन्होंने इस तरह से दृश्यों को जोड़ा है कि दर्शक को अलर्ट रहना पड़ता है। कहानी के मामले में ‘रॉकस्टार’ थोड़ी कमजोर है, लेकिन रणबीर के अभिनय, रहमान के संगीत और इम्तियाज के निर्देशन की वजह से फिल्म देखी जा सकती है। ",1 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com सनी लियोनी स्टारर 'वन नाइट स्टैंड' में भी उनकी पिछली मूवी की तरह ही हॉट और बोल्ड सीन्स पर ज्यादा फोकस किया गया है। फिल्म में कुछ नया नहीं है, वहीं स्टोरी की स्पीड भी काफी स्लो है। मूवी में कैमरा वर्क काफी क्लासी है, जिसकी वजह से कई सीन्स काफी शानदार दर्शाए गए हैं। सेंसर बोर्ड ने बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म पर भी काफी कैंची चलाई है। पूरी मूवी 97 मिनट की होने की वजह से ज्यादा कुछ इम्पैक्ट नहीं छोड़ पाई है। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी: सेलिना (सनी लियोनी) और उर्विल (तनुज वीरवानी) की मुलाकात एक पब में होती है। पहली ही मुलाकात में कुछ देर एक दूसरे से मुखातिब होने के बाद दोनों एक-दूसरे के बेहद करीब आ जाते हैं। इसके बाद वन नाइट स्टैंड के बाद दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। इस मुलाकात के बाद एक ओर जहां सेलिना उर्विल को पूरी तरह से भूलाकर अपनी लाइफ इंजॉय कर रही हैं, वहीं उर्विल अभी भी सेलिना के साथ बिताए लम्हों को चाहकर भी भुला नहीं पाता। इसी को लेकर उर्विल और उसकी पत्नी सिमरन (नायरा बैनर्जी) की जिदंगी भी प्रभावित हो रही है। सेलिना के बारे में और उसके साथ बिताए वक्त को सोच-सोचकर उर्विल अब शराब के नशे में धूत रहने लगता है। कहानी में टिवस्ट उस वक्त आता है जब उर्विल एकबार फिर सेलिना के साथ वन नाइट स्टैंड चाहता है। ऐक्टिंग : सनी ने सेलिना के किरदार में अच्छी ऐक्टिंग की है। ऐसा लगता है कि सनी अब जान चुकी हैं कि अगर बॉलिवुड में लंबी पारी खेलनी है तो यहां सिर्फ कैमरे के सामने सेक्सी अदाओं को दिखाकर काम नहीं चलेगा। तनुज ने अपने किरदार के मुताबिक अच्छा अभिनय किया है। अन्य कलाकारों में नायरा बनर्जी, खालिद सिद्दीकी भी निराश नहीं करते। निर्देशन : भवानी अय्यर की लिखी कहानी में नयापन और दम तो है, लेकिन डायरेक्टर जैसमीन इस कहानी को असरदार ढंग से स्क्रीन पर पेश करने में नाकाम रही हैं। डायरेक्टर ने स्क्रिप्ट की बजाय ज्यादा ध्यान सनी की खूबसूरती और उनकी अदाओं को कैमरे के सामने उतारने में लगा दिया। फिल्म में सनी पर फिल्माए हॉट, सेक्सी सीन्स की भरमार है, लेकिन स्क्रिप्ट में दम नहीं होने और कहानी के बाकी किरदारों पर ज्यादा फोकस नहीं करने की वजह से दर्शक कहानी के साथ कहीं बंध नहीं पाता। संगीत : रिलीज से पहले ही फिल्म का एक गाना 'दो पेग मार' हिट हो चुका है। क्यों देखें : अगर सनी के पक्के फैन हैं तो इस बार उनकी ऐक्टिंग स्किल्स को देखने जाएं।",0 "अगर हम डायरेक्टर अनीस बज़्मी की बात करें तो इंडस्ट्री और दर्शकों में उनकी इमेज बॉक्स ऑफिस पर लाइट कॉमिडी और मसाला फिल्में बनाने वाले मेकर की बनी हुई है। अनीस के नाम 'नो एंट्री', 'वेलकम', 'थैंक यू' और 'वेलकम बैक' जैसी कई फिल्में हैं, जो बॉक्सआफिस पर हिट रहीं। अब करीब दो साल के इंतजार के बाद अनीस की नई फिल्म रिलीज़ हुई है तो यकीनन उनके फैन्स और ट्रेड में भी अच्छा-खासा क्रेज होगा। वैसे, अनीस इस फिल्म में अर्जुन कपूर के ऑपोज़िट सोनाक्षी सिन्हा को लेना चाहते थे, लेकिन विदेश में शूटिंग के लंबे शेडयूल और एक-दूसरी फिल्म की शूटिंग में बिजी होने की वजह से सोनाक्षी इस फिल्म को नहीं कर पाई तो उन्होंने सुनील शेट्टी की बेटी अथिया शेट्टी को साइन किया। अनीस की इस फिल्म का माइनस या प्लस पॉइंट फिल्म के अहम किरदारों अनिल कपूर, अर्जुन कपूर, पवन मल्होत्रा, रत्ना पाठक की बीच की कॉमिडी है, लेकिन तीन सिख परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी में पंजाबी भाषा का बोलबाला है। यही वजह है कि अगर आप पंजाबी की एबीसी भी नहीं जानते तो फिल्म को पूरा इंजॉय नहीं कर पाएंगे। अनीस ने अपनी पिछली फिल्मों की तर्ज पर इस फिल्म में भी एकबार फिर उन्हीं पुरानी मसालों को आजमाया जो 80-90 के दशक से बॉक्स आफिस पर हॉट रहे हैं, लेकिन मल्टिप्लेक्स कल्चर और लीक से हटकर बनी फिल्मों को चाहने वाली दर्शकों की क्लास के लिए इस फिल्म में ऐसा कुछ नया नहीं है जो उनकी कसौटी पर सही उतर सके। वहीं लंदन और चंडीगढ़ बेस्ड चार पंजाबी फैमिली के इर्दगिर्द घूमती यह फिल्म इंटरवल से पहले और क्लाइमैक्स में आपके सब्र का इम्तिहान लेती है। खासकर फिल्म के क्लाइमैक्स को बेवजह कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा गया लगता है। न जाने क्यूं हमारे फिल्म मेकर्स को पंजाबी फैमिली के बारे में बस यही लगता है कि यह लोग आपस में बात करते हुए भी जरूरत से ज्यादा लाउड रहते हैं, शायद यही वजह है कि अनीस की इस फिल्म के चार अहम किरदार अनिल कपूर, अर्जुन कपूर, पवन मल्होत्रा, रत्ना पाठक स्क्रीन पर ज्यादा वक्त चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं। स्टोरी प्लॉट : करण (अर्जुन कपूर), चरण (अर्जुन कपूर) की शादी के लिए इन दोनों की फैमिली वालों को खूबसूरत और पंजाबी लड़कियों की तलाश है। करण की मां (रत्ना पाठक) को मालूम नहीं उनका मॉर्डन बेटा करण पहले से ही स्वीटी (इलियाना) को अपना दिल दे चुका है। वहीं चंडीगढ़ में अपने पापा (पवन मल्होत्रा) और ममी के साथ रह रहे चरण (अर्जुन) का दिल उस वक्त बिंकल (अथिया शेट्टी) पर आ जाता है जब वह लंदन में अपने पापा और चाचा करतार सिंह बाजवा (अनिल कपूर) के साथ बिंकल को देखने उनके घर जाता है, लेकिन यहां हालात कुछ बिगड़ते हैं कि बिंकल और चरण की शादी की बात बनते-बनते ऐसी बिगड़ती है कि चरण के पिता एक महीने में अपने बेटे की शादी कराने का अल्टिमेटम देकर लंदन से चंडीगढ़ लौट आते हैं। अब खुद को हर मामले में जीनियस और हर मुश्किल को हल करने का आइडिया तलाशने में और खुद को परफेक्ट मानने वाला करतार सिंह इस मामले को सुलझाने के चक्कर में और ज्यादा उलझा देता है। अनीस बज़्मी ने एकबार फिर इस फिल्म का निर्देशन भी अपनी पिछली फिल्मों के स्टाइल में ही किया है। इंटरवल के बाद कहानी को बेवजह खींचा गया है, अनीस अगर बीस मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म की रफ्तार कहीं सुस्त नहीं होती, पूरी फिल्म कुछ पंजाबी परिवारों के आस-पास घूमती है, कई कॉमिडी पंच जानदार हैं, अनिल कपूर और अर्जुन कपूर के बीच की केमिस्ट्री अच्छी बन पड़ी है, लेकिन अनिल और अर्जुन के कंधों पर टिकी इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी भी कई सीन में इन दोनों की ओवर ऐक्टिंग है। अथिया शेट्टी और इलियाना को कुछ खास करने का मौका नहीं मिला, हां चरण के पापा के रोल में पवन मल्होत्रा की ऐक्टिंग का जवाब नहीं। फिल्म का संगीत रिलीज़ से पहले ही कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है, टाइटल सॉन्ग मुबारकां, एक शरारती, और हसन जहांगीर के गाए गाने हवा हवा का फिल्मांकन गजब का है। अगर आप टाइम पास बॉलिवुड मसाला टाइप कॉमिडी फिल्में पंसद करते हैं तो मुबारंका आपको अपसेट नहीं करेगी। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें ",0 "निर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तर निर्देशक : विवेक ललवानी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : फरहान अख्तर, दीपिका पादुकोण, राम कपूर, विवान, विपिन शर्मा, शैफाली शाह यू/ए * 16 रील * दो घंटे 15 मिनट कल्पना कीजिए कि यदि आपको आपका ही फोन आए तो क्या हो? आइडिया मजेदार है। इसी आइडिया को लेकर विजय ललवानी ने ‘कार्तिक कॉलिंग कार्तिक’ बनाई है। कार्तिक नारायण (फरहान अख्तर) एक लूज़र है। ऑफिस में सबसे ज्यादा काम करने के बावजूद उसे बॉस की बातें सुननी पड़ती है। कोई उसका दोस्त नहीं है। साथ में काम करने वाली शोनाली मुखर्जी (दीपिका पादुकोण) को वो चाहता है। हजार से भी ज्यादा मेल उसने शोनाली के लिए टाइप किए हैं, लेकिन आत्मविश्वास नहीं है इसलिए सेव करके रखे हैं। पुरानी क्लासिकल हिन्दी फिल्म ‘छोटी सी बात’ यदि आपको याद है तो उसमें अमोल पालेकर ने जो किरदार निभाया था, कार्तिक भी उसी तरह का है। कार्तिक के पास एक दिन घर पर उसके बॉस का फोन आता है। जोरदार डाँट खाने के बाद वह फोन फेंक कर तोड़ देता है। फिर नया इंस्ट्रुमेंट लाता है और उसके बाद रोजाना सुबह पाँच बजे कार्तिक के फोन आने शुरू हो जाते हैं। घबराकर कार्तिक टेलीफोन एक्सचेंज से पता लगवाता है, लेकिन वहाँ से उसे बताया जाता है कि उसे उसके द्वारा बताए गए वक्त पर कोई कॉल्स नहीं आ रहे हैं। फोन वाला कार्तिक कुछ ऐसी बातें बताता हैं कि कार्तिक की जिंदगी बदल जाती है। उसमें गजब का आत्मविश्वास आ जाता है। जिस ऑफिस से उसे निकाला गया था उसी ऑफिस में उसे चार गुना सैलेरी पर रखा जाता है। जो शोनाली उसकी तरफ देखती भी नहीं थी, वो उसकी गर्लफ्रेंड बन जाती है। फोन वाला कार्तिक चेतावनी देता है कि यह बात किसी को बताना नहीं है, इसके बावजूद कार्तिक अपनी गर्लफ्रेंड को यह बात बता देता है। गर्लफ्रेंड उसे डॉक्टर के पास ले जाती है। कार्तिक की इस हरकत से फोन वाला कार्तिक उसकी जिंदगी बरबाद कर देता है। जॉब और गर्लफ्रेंड दोनों उससे संबंध तोड़ लेते हैं। फोन वाला कार्तिक कौन है? वह ऐसा क्यों कर रहा है? यह सस्पेंस है। जब यह राज खुलता है तो कुछ दर्शक इसे डाइजेस्ट कर सकते हैं लेकिन कुछ के लिए इसे एक्सेप्ट करना आसान नहीं होगा। विजय ललवानी फिल्म के राइटर भी हैं और डायरेक्टर भी। बतौर डायरेक्टर उन्होंने कहानी को स्क्रीन पर अच्छे से पेश किया है। फिल्म बाँधकर रखती है और दर्शक का फिल्म में इंट्रेस्ट बना रहता है। फिल्म का लुक यूथफुल है और मेट्रो कल्चर को कैरेक्टर अच्छी तरह से पेश करते हैं। फरहान और दीपिका के रोमांस को बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है। दोनों की कैमेस्ट्री अच्छी लगती है। एक हॉट तो दूजा कूल। दोनों के कैरेक्टर को उम्दा तरीके से स्टेबलिश किया है। डॉयलॉग्स बेहतरीन हैं। राइटर के रूप में विजय को थोड़ा हार्ड वर्क करना था, खासतौर पर सेकंड हाफ में लिखे गए कुछ दृश्य कमजोर हैं। इस हिस्से में फिल्म ‍सीरियस हो गई है। दो गाने बेवजह ठूँसे गए हैं। सस्पेंस को लेकर दर्शकों में वो थ्रिल पैदा नहीं कर पाए। कार्तिक को कौन कॉल कर रहा है इस नतीजे पर भी फिल्म अचानक पहुँच जाती हैं। फिल्म को समेटने में जल्दबाजी की गई है। फरहान अख्तर ने उम्दा अभिनय किया है। कार्तिक के किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है। उनका साथ दीपिका पादुकोण ने बेहतरीन तरीके से निभाया है। सेकंड हाफ में दीपिका को कम अवसर मिले हैं और उनकी कमी खलती है। राम कपूर और शैफाली ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। फिल्म का संगीत मधुर है और तीन गाने सुनने लायक हैं। कार्तिक कॉलिंग कार्तिक के अंत से आप भले ही सहमत ना हो, लेकिन उम्दा प्रस्तुतिकरण और बेहतरीन अभिनय के कारण यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है। ",1 "बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंगा निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : स्नेहा खानवलकर कलाकार : मनोज बाजपेयी, नवाजुद्दीन शेख, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, रीमा सेन, राजकुमार यादव सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 39 मिनट 30 सेकंड गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों भाग एक साथ ही देखे जाने चाहिए, वरना किरदारों को याद रखने में परेशानी हो सकती है। जिन लोगों को पहला भाग देखे हुए लंबा समय हो गया है उन्हें कठिनाई महसूस हो सकती है क्योंकि फिल्म का दूसरा भाग ठीक वही से शुरू होता है जहां पहला खत्म होता है। पहले भाग का रिकेप होता तो शायद बेहतर होता। गैंग्ग ऑफ वासेपुर दो परिवारों की आपसी दुश्मनी की कहानी है, जिसमें अपना वर्चस्व साबित करने के लिए एक-दूसरे के परिवार के लोगों की हत्या की जाती है। ‘बदला’ बॉलीवुड का पुराना फॉर्मूला है और जब अनुराग कश्यप ने अपनी पहली कमर्शियल फिल्म (जैसा की वे कहते हैं) बनाई तो इसी फॉर्मूले को चुना। अनुराग का बचपन उत्तर भारत के एक छोटे शहर में बीता है। बी और सी ग्रेड फिल्म देख कर वे बड़े हुए और उन्होंने अपनी उन यादों को फिल्म में उतारा है। वासेपुर की युवा पीढ़ी संजय दत्त और सलमान बनने के सपने देखती रहती है। एक रूटीन रिवेंज ड्रामा इसलिए दिलचस्प लगता है क्योंकि छोटे शहर की आत्मा कहानी और किरदारों में नजर आती है, साथ ही धनबाद और वासेपुर के माहौल से भी बहुत कम दर्शक परिचित हैं। भले ही कहानी में काल्पनिक तत्व हों, लेकिन उनकी प्रेरणा वहां घटे वास्तविक घटनाक्रमों से ली गई है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अनुराग कश्यप की महाभारत है, जिसमें ढेर सारे किरदार हैं और उन्हें बड़ी सफाई से आपस में गूंथा गया है। हर किरदार की अपनी कहानी है। एक पीढ़ी द्वारा की गई गलती को कई पी‍ढ़ियां भुगतती रहती है। पहले भाग की जान मनोज बाजपेयी थे तो दूसरे की नवाजुद्दीन। नवाजुद्दीन भी बेहतर अभिनेता हैं, लेकिन मनोज जैसा प्रभाव वे नहीं छोड़ पाए। दूसरा भाग पहले का दोहराव लगता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पर कहानी शिफ्ट होती है और वही खून-खराबा होता रहता है। सब का क्या हाल होने वाला है, ये पहले से ही दर्शक को मालूम रहता है, दिलचस्पी इसमें रहती है कि यह कैसे होगा। कुछ जगह फिल्म में ठहराव महसूस होता है क्योंकि गोलियों की बौछार कुछ ज्यादा ही हो गई है। दूसरे भाग में कुछ अच्छे किरदार देखने को मिलते हैं। जैसे फैजल का छोटे भाई परपेंडिकुलर का किरदार बड़ा मजेदार है। काश उसे ज्यादा फुटेज मिलते। फैजल के रोमांस में एक अलग ही तरह का हास्य है। उसकी प्रेमिका उसे डांट लगाती रहती है कि उसे हाथ लगाने के पहले फैजल को इजाजत लेनी चाहिए। वो सीन बेहद उम्दा है जिसमें फैजल अपनी प्रेमिका से सेक्स करने की इजाजत मांगता है। गैंग्स ऑफ वासेपुर देखने का सबसे बड़ा कारण है निर्देशक अनुराग कश्यप। उनका प्रस्तुतिकरण लाजवाब है। ‍बतौर निर्देशक उन्होंने छोटे से छोटे डिटेल का ध्यान रखा है। कुछ सेकंड्स के दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं। सुल्तान का पीछा कर उसकी हत्या करने वाला सीन तो उन्होंने लाजवाब फिल्माया है। ऐसे कई दृश्य हैं। लाइट, शेड और लोकेशन का अनुराग ने बेहतरीन तरीके से उपयोग किया है। हर एक्टर से उन्होंने ऐसा काम निकलवाया है कि लगता ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहा है। सभी अपने किरदार में डूबे नजर आते हैं। बैकग्राउंड म्युजिक, म्युजिक, सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग टॉप क्लास है। गैंग्स ऑफ वासेपुर की कहानी भले ही रूटीन हो, लेकिन जबरदस्त अभिनय और निर्देशन इस फिल्म को देखने योग्य बनाते हैं। ",1 "यह 'रेस' जिंदगी की रेस है, किसी की जान लेकर ही खत्म होगी। फिर चाहे वह दर्शकों की जान ही क्यों न हो! इतने सारे सितारों की फिल्म में आप कुछ मज़ेदार देखने की उम्मीद लगाते हैं, लेकिन अफसोस कि आपको निराशा ही हाथ लगती है। रेस फिल्म की पिछली दोनों हिट फ्रैंचाइजी के बाद इस बार रेस की स्टारकास्ट काफी बदल गई है। पिछली फिल्मों से सिर्फ अनिल कपूर ही ऐसे हैं, जो इस बार भी रेस में हैं, जबकि जैकलीन फर्नांडिस 'रेस 2' के बाद 'रेस 3' में भी हैं। वहीं डायरेक्टर अब्बास-मस्तान की बजाय 'रेस 3' को रेमो डिसूजा ने डायरेक्ट किया है। आपको बता दें कि इस 'रेस 3' का पिछली दोनों फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं है।फिल्म की कहानी शमशेर सिंह (अनिल कपूर ) से शुरू होती है, जो करीब 25 साल पहले भारत से एक साजिश का शिकार होकर अल शिफा आइसलैंड आ जाता है। वह अवैध हथियारों का डीलर है। उसके बड़े भाई रणछोड़ सिंह का बेटा सिकंदर (सलमान खान) उसका दायां हाथ है। बड़े भाई की एक एक्सिडेंट में मौत के बाद शमशेर ने अपनी भाभी से शादी कर ली थी, जिससे उसके दो जुड़वा बच्चे सूरज (साकिब सलीम) और संजना (डेजी शाह) हैं। फिल्म का एक और किरदार यश (बॉबी देओल) सिकंदर का बॉडीगार्ड है। वहीं जेसिका (जैकलीन फर्नांडिस) पहले सिकंदर की गर्लफ्रेंड थी, लेकिन फिर वह यश के साथ आ जाती है। सिकंदर अपनी फैमिली के लिए जान देता है, लेकिन उसके सौतेले भाई-बहन उससे नफरत करते हैं। वे यश को भी भड़का कर अपनी ओर मिला लेते हैं। शमशेर वापस अपने वतन भारत जाना चाहता है और किस्मत से उसे एक मौका मिल जाता है। उसके इस मिशन को पूरा करने सिकंदर के साथ सूरज, संजना, यश और जेसिका कंबोडिया जाते हैं, जहां सूरज, संजना और यश मिलकर सिकंदर को फंसा देते हैं, लेकिन वह जेसिका की मदद से बच निकलता है। उसके बाद खुलते हैं कई ऐसे राज़ जिन्हें जानने के लिए आपको सिनेमा देखना होगा।सलमान खान ने फिल्म में सैफ अली खान की जगह ली है। बेशक, वह काफी स्मार्ट लग रहे हैं और उन्होंने कई अच्छे ऐक्शन सीन भी किए हैं, लेकिन सैफ के चाहने वाले रेस में उन्हें जरूर मिस करेंगे। ईद पर सलमान खान के फैन्स को भाई के जबर्दस्त ऐक्शन की डोज चाहिए होती है। उनके लिए शुरुआत और आखिर में कुछ सीन हैं, लेकिन कहानी के लेवल पर फिल्म एकदम बकवास है। फिल्म आगे बढ़ने के साथ आप उम्मीद करते हो कि अब कुछ होगा, अब कुछ होगा, लेकिन तब तक दो घंटे बीत चुके होते हैं। खासकर फिल्म का फर्स्ट हाफ देखकर आप खुद को लुटा-पिटा महसूस करते हो। सेकंड हाफ में जरूर कुछ ट्विस्ट हैं, लेकिन ऐसे नहीं कि आपको रोमांचित करे। समझ नहीं आता कि दो घंटे की फिल्मों के दौर में रेमो डिसूजा ने पौने तीन घंटे की फिल्म बनाने का रिस्क क्यों लिया। बाकी कलाकारों की अगर बात करें, तो अनिल कपूर हमेशा की तरह लाजवाब हैं। वहीं जैकलीन और डेजी शाह ने ठीक-ठाक स्टंट सीन किए हैं। साकिब सलीम ने अपने रोल को निभा भर दिया है। लंबे समय बाद स्क्रीन पर वापसी करने वाले बॉबी देओल ने शर्ट उतार कर जरूर कुछ ऐक्शन सीन किए हैं, लेकिन उनका भाव हीन चेहरा ऐक्टिंग के मामले में उनका साथ नहीं देता। वहीं विलन का रोल करने वाले फ्रेडी दारूवाला ने पता नहीं यह फिल्म साइन ही क्यों की है। रेस फैमिली में खुद ही इतने विलन हैं कि उनके लिए कोई स्कोप ही नहीं है। वहीं फिल्म के कलाकारों को भोजपुरी में बात करते देख कर भी आपको हैरानी ही होगी। इलाहाबाद से आए शमशेर की तो फिर भी बात समझ में आती है, लेकिन पेईचिंग में पला-बढ़ा सिकंदर क्यों भोजपुरी में बात करता है, यह समझ नहीं आता।हालांकि फिल्म की सिनेमटॉग्रफी लाजवाब है। बैंकॉक और अबू धाबी की बेहतरीन लोकेशंस पर की गई फिल्म की शूटिंग बेशक आपको पसंद आएगी। वहीं 3डी में ऐक्शन और फाइट सीन भी अच्छे लगते हैं। लेकिन एक-दो को छोड़कर बाकी गाने फिल्म में जबरदस्ती ठूंसे हुए लगते हैं। खासकर सेल्फिश सॉन्ग तो समझ से परे है। हालांकि निर्माताओं ने आखिर में साफतौर पर सीक्वल की गुंजाइश छोड़ी है। ध्यान रहे कि यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ सलमान के फैन्स के लिए है, जो दिल में आते हैं समझ में नहीं। बाकी दर्शक अपने रिस्क पर फिल्म देखने जाएं। ",0 "मयंक दीक्षित जब ट्रेलर में दिखाए गए 'सपनों' यानी कुछ सीन्स पर सेंसर की कैंची चल जाती है, तो फिल्म देखने के लिए उठे उत्साह और उकसावे में थोड़ी कमी आ जाती है। मैं इसी कम हुए उत्साह के साथ फिल्म 'ऐंग्री इंडियन गॉडेसेज' देखने के लिए सिनेमाघर में दाखिल होता हूं। निर्देशक पान नलिन फिल्म में अश्लीलता और बोल्डनेस के बीच की पतली डोर टूटने नहीं देते, बल्कि सीन दर सीन उसका अहसास करवाते चलते हैं। फिल्म में पांच लड़कियों का झुंड है, जो मस्ती करता है, हंसता है, रोता है, गाता है, बजाता है। इसी बीच चुपके से ईसाइयत के घेरे में समलैंगिक शादी के मुद्दे का ताना-बाना बुन दिया जाता है, और आम दर्शकों में से ज्यादातर को इसकी भनक तक नहीं लगती। चूंकि पोप फ्रांसिस प्राइम टाइम में नहीं आते, भारत की 'मीडिया मंडी' में उनका दखल कम से कम ही रहता है, तो फिल्म गोवा में समलैंगिक जोड़े के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रखकर कहानी रचना शुरू कर देती है। अमृत मघेरा ने जोआना के किरदार में और इसी तरह राजश्री देशपांडे ने मेड के रोल में गजब फूंकी है, जिससे कहानी में तीन अन्य अभिनेत्रियों के अभिनय को रफ्तार मिलती है। थोड़ी स्लो, थोड़ी तेज स्पीड में गोवा के बीच पर फिल्म फिसलती भी है तो ऐसा लगता है कि ऐसा कहानी में जरूरी था या डिमांड थी। अपनी जिंदगी, अपने पति, अपने बॉयफ्रेंड, अपने सास-ससुर के घेरे से निकलकर पांच लड़कियां कॉलेज लाइफ के अरसों बाद गोवा में मिलती हैं। बीच, समंदर और आबोहवा में की गई ओवर मस्ती भारी पड़ जाती है और उनमें से एक लड़की के साथ गैंगरेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है। इस बीच फिल्म में समलैंगिक मुद्दों पर क्रिस्टिऐनिटी के रुख को टटोला जाता है। होमोसेक्शुअलिटी पर बिशप सम्मेलनों से निकले विचार, सुझाव और सीखें याद आने लगती हैं। कभी फिल्म 377 पर तंज कसती है तो कभी दामिनी रेप केस पर दी गई 'सामाजिक' दलीलों के तमाचे जड़ती है। दर्शकों में बैठे प्रेमी/शादीशुदा जोड़ों ने कई बार फिल्म के अलग-अलग सीन देख नजरें नीचे की होंगी। कभी खुद के लिए, कभी पार्टनर के लिए। अभिनय की कसौटी पर अभिनेत्रियां खरी उतरी हैं तो मर्दों की सीमित एंट्री ने डायरेक्टर पान नलिन की बेहतर और अलग सोच को दर्शाया है। स्क्रीनप्ले रोचक है, सिनेमेटॉग्रफी की दाद इसलिए देनी होगी कि समंदर के किनारे एक आम जिंदगी पर्यटन और पर्यटकों जैसी न लगे, इसका खास ध्यान रखा गया है। फिल्म के बीच कोई पति, कोई सास-ससुर टाइप किरदार नहीं है, पर फिर भी निर्देशक और कहानी लिखने वाले ने उन्हें जमकर घसीटा है। घरेलू हिंसा से लेकर आत्मनिर्भरता और आत्मसंतुष्टि का पुट फिल्म को मजबूत करता है। एक सबसे जरूरी बात, कि फिल्म बोरिंग नहीं है, जिस बात का सबसे ज्यादा डर आम भारतीय दर्शक को रहता है। किसी न किसी चीज में दर्शक उलझे रहते हैं और फिल्म आखिर में रोमांस, हास्य, ह्यूमर, सीख और समलैंगिकता परोस कर खत्म हो लेती है और सेंसर के 12 सीन कट होने के बाद भी निराश होने की एक-दो से ज्यादा वजह नहीं छोड़ती। एक और जरूरी मुद्दे को फिल्म उठाती है। कहानी उस विचार और विचारधारा की नाक काटती है कि बीच पर पार्टी करने वाली लड़कियों के साथ होने वाले जुल्म लड़कियों की अपनी गलतियों से ही होते हैं। पुलिस पीड़ित को दोषी और दोषी को पीड़ित बताकर पल्ला झाड़ लेती है। फिर कहानियां दबती जाती हैं। हम सब जीते रहते हैं। पान नलिन जैसे संवेदनशील सोच रखने वाले निर्देशक इस पर फिल्म बनाते रहते हैं। मुझे नहीं पता बिशप सम्मेलनों में समलैंगिक शादी और चर्च में उनके 'दखल' का मसला कहां तक पहुंचा है, लेकिन 'ऐंग्री इंडियन गॉडेसेज' फिल्म वहां तक पहुंची है, जहां तक इसे बनाने वाले ने पहुंचाने की उम्मीद की होगी। मेरी तरफ से फिल्म को साढ़े तीन स्टार। ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर आपने डायरेक्टर मनीष झा के निर्देशन में मातृभूमि और अनवर जैसी लीक से हटकर बनी फिल्में देख रखी हैं तो इस फिल्म को देखकर आपको लगेगा जैसे इसका निर्देशन मनीष ने नहीं किया या फिर उन्होंने बस निर्देशन की खानापूर्ति की है। इस फिल्म के पहले सीन से आखिरी तक कहीं नहीं लगता कि मनीष इस फिल्म को डायरेक्ट कर रहे हैं। ऐसा लगता है मनीष की टीम के किसी दूसरे या तीसरे नंबर के असिस्टेंट ने फिल्म की कमान संभाल रखी हो। वहीं, 'मुन्नाभाई' सीरीज की फिल्मों के अलावा 'जॉली एलएलबी' में अपनी ऐक्टिंग से हर किसी को हैरान कर चुके बोमन ईरानी और अरशद वारसी ने ऐसी फिल्म को क्यों चुना जिसमें उनके करने के लिए कुछ था ही नहीं, समझ से परे नजर आता है। बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म की कहानी बेशक पटना शहर से जुड़ी हो, लेकिन मुंबई के किसी स्टूडियो में पटना का सेट लगाकर मनीष पूरी फिल्म में कहीं भी इस बात का एहसास नहीं करा पाए कि उनकी फिल्म एक बिहारी किडनैपर से जुड़ी है। कमजोर स्क्रिप्ट, सतही निर्देशन और ऐसी कहानी जो शायद ही किसी क्लास के पल्ले पड़ सके, यह फिल्म यकीनन मनीष झा के अब के करियर की सबसे कमजोर फिल्म कही जा सकती है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT MOVIES कहानी : पटना शहर में किडनैपर माइकल मिश्रा (अरशद वारसी) के नाम का डंका बजता है। सारा शहर उसे सल्यूट ठोकता है तो गली मुहल्ले में ड्यूटी करने वाला पुलिसवाला भी माइकल को सल्यूट करता है। माइकल किसी को भी किडनैप करके अपने बड़े से उस अड्डे पर लाकर रखता है जहां उसने सफेद ड्रेस में हाथ में मोमबत्ती थामे एक लड़की को सिर्फ इसलिए रखी हुई है जिससे पुलिसवाले और दूसरे लोग उसके अड्डे को भूतिया अड्डा समझकर वहां न आएं। माइकल मिश्रा ने एक दिन एक युवक को एक गहरे गड्डे से निकालकर उसकी जान बचाई और उसे हाफ पैंट (कायोज ईरानी) का नाम दिया। उसी दिन से हाफ पैंट माइकल मिश्रा का दायां हाथ बन गया और माइकल के गिरोह में शामिल हो गया। माइकल को सालों से एक आवाज की तलाश है। हेलो शब्द सुनने के मकसद से माइकल शहर की कई लड़कियों को जबरन रोकता और उनकी आवाज में हेलो सुनता है, लेकिन माइकल को वह आवाज नहीं मिली जिसकी उसे तलाश थी। अचानक एक दिन माइकल की मुलाकात वर्षा शुक्ला (अदिति राव हैदरी) से हुई। चंद मुलाकातों के बाद माइकल को लगने लगा वर्षा वही लड़की है, जिसकी उसे बरसों से तलाश थी। वर्षा से मिलने के बाद माइकल की जिंदगी का मकसद ही बदल गया। माइकल ने वर्षा के लिए खुद को बदलने का फैसला किया और थाने जाकर आत्मसर्मपण कर दिया। निर्देशन : खुद बिहार के रहने वाले मनीष झा बिहार के पटना शहर के इर्द-गिर्द केंद्रित इस फिल्म को सही ट्रैक पर नहीं रख पाए। दरअसल, फिल्म की स्क्रिप्ट में जरा भी दम नहीं था, वहीं फिल्म के ज्यादातर किरदारों को बिहारी लुक देने के चक्कर में मनीष खुद ऐसे उलझकर रह गए कि ज्यादातर किरदार कहीं भी गिरोह के गुंडे तो नहीं लगे, लेकिन अजीबोगरीब पोशाक पहने कमीडियन जरूर लगे। वहीं इंडस्ट्री के दो दिग्गज स्टार अरशद और बोमन से भी मनीष उनके टैलंट के मुताबिक काम नहीं ले पाए। अगर प्रॉजेक्ट शुरू करने से पहले मनीष कहानी पर कुछ ज्यादा मेहनत करते तो फिल्म कम से कम सिंगल क्लास सेंटर्स पर अच्छा बिज़नस जरूर कर पाती। ऐक्टिंग : अरशद वारसी और अदिति राव हैदरी दोनों ने खुद को ठेठ बिहारी लुक में दिखने और बिहारी स्टाइल में बोलने की अच्छी कोशिश की है, दोनों अपने रोल में कई जगह ओवर एक्टिंग के भी खूब शिकार हुए। वहीं, बोमन ईरानी के बेटे कायोज ईरानी ने हाफ पैंट के किरदार को सही ढंग से निभाया। बोमन ईरानी को फिल्म में बेहद कम फुटेज मिली। दरअसल, बोमन के किरदार को फिल्म में एक सूत्रधार के तौर पर पेश किया गया और उन्होंने इस किरदार को अच्छे ढंग से निभाया। संगीत : बिहार के बैकग्राउंड पर होने के बाद फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं है जो म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरा उतर सके। हां, फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें : अगर दूसरा कोई विकल्प नहीं है और दो सवा दो घंटे का टाइम कैसे भी पास करना है तो इन माइकल साहब से मिल आएं। ",0 "न जाने क्यों इस फिल्म के निर्माताओं ने क्या सोचकर अपनी इस फिल्म का ऐसा टाइटल चुना जो एक खास क्लास को सिर्फ टाइटल की वजह से ही इस फिल्म से दूर कर सकता है। वैसे हम सबकी पर्सनल लाइफ में यह शब्द अक्सर किसी न किसी मोड़ पर यूज होता ही रहता है। ऐसा नहीं इस फिल्म में डायरेक्टर ने जिस सब्जेक्ट को चुना उस पर बॉलिवुड में इससे पहले फिल्में न बनी हों। फैमिली क्लास और साफ-सुथरी फिल्मों की गारंटी माने जाने वाले राजश्री बैनर ने भी 70 के दशक में कुछ ऐसी ही कहानी पर जया भादुड़ी को लीड रोल में लेकर 'पिया का घर' बनाई तो अमोल पालेकर स्टारर 'घरोंदा' में भी महानगरों के तंग छोटे बदहाल फ्लैटों में गुजरती जॉइंट फैमिली की समस्याओं को पर्दे पर पेश करने की अच्छी कोशिश की। इस फिल्म में डायरेक्टर सुनील पर कहानी को सही ढंग से कैमरे के सामने उतारने से कहीं ज्यादा बोझ बॉक्स ऑफिस पर बिक रहे चालू मसालों के साथ इस कहानी को कुछ तोड़मरोड़ कर पेश करने का रहा। डायरेक्टर की यह मजबूरी स्क्रीन पर भी दिखती है। कहानी : मोहन मिश्रा (शुभम) ने बनारस की गलियां छोड़ते वक्त ग्लैमर नगरी मुंबई के बारे में जैसा सोचा था, मुंबई आकर उसने देखा यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। दिन-रात बेतहाशा भाग रहे इस शहर में रहने वाले लोगों को अपने सिवा कोई और दिखाई नहीं देता, शुभम भी अपने परिवार के साथ एक रूम में रह रहा है। अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो फैमिली के सभी लोग इसी रूम को आपस में शेयर करके अपना गुजारा चला रहे हैं। शुभम की फैमिली के सभी लोग महानगर में रहने वाले दूसरे लोगों की तरह किसी तरह से गुजारा चला रहे हैं। हालात, उस वक्त खराब होते हैं जब शुभम की शादी शालिनी (स्वाति कपूर) से होती है। एक छोटे से कमरे को फैमिली के दूसरे लोगों के साथ अजस्ट करना शुभम की वाइफ को गवारा नहीं है। शालिनी शादी के बाद शुभम और अपने रिश्तों को लेकर भी खुश नहीं, उसे लगता है जैसे शुभम उसे छोड़कर ज्यादा वक्त दूसरों के बीच गुजारने लगा है। यहीं से शुभम और उसके बीच आपसी टकराव शुरू होता है, जिसके चलते एक दिन शालिनी घर छोड़कर चली जाती है। वाइफ के घर छोड़कर जाने के बाद शुभम की अपनी फैमिली के लोगों को भी लगने लगता है कहीं शुभम में ही कुछ गड़बड़ी तो नहीं जो वह अपनी खूबसूरत वाइफ से अक्सर दूर रहता है। ऐसे हालात में बेचारे शुभम को फैमिली और वाइफ दोनों के बीच खुद को मर्द साबित करने तक की नौबत आ जाती है। ऐक्टिंग : बिग स्क्रीन पर बेशक शुभम की अभी कुछ पहचान न हो, लेकिन अपने इस किरदार को पर्दे पर जीवंत बनाने के लिए शुभम ने अच्छी मेहनत की है। शालिनी के रोल में स्वाति कपूर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहीं। स्मॉल स्क्रीन पर पहले से पहचान बना चुकीं स्वाति कपूर ने इस फिल्म में इतना तो साबित किया अगर मौका मिले तो बिग स्क्रीन पर भी वह दम दिखा सकती हैं। फिल्म में कई जानेमाने स्टार कैमियो रोल में नजर आते हैं। उनकी मौजूदगी हॉल में बैठे दर्शकों को एनर्जी पैदा करने का काम करती है। डायरेक्शन : सुनील ने इस सीधी-सादी कहानी को ग्लैमर और चालू मसालों का तड़का लगाकर पेश करने की कोशिश की है। अगर सुनील बॉक्स ऑफिस का मोह छोड़कर स्क्रिप्ट के साथ न्याय करते तो महानगरों में तेजी से पनपती एक समस्या की ओर दर्शकों का ध्यान गंभीरता से खींच सकते थे, लेकिन उन्होंने बॉक्स ऑफिस को ऐसी प्राथमिकता दी कि कहानी और किरदार कहीं गुम होकर रह गए। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल पर फिट है, फिल्म में एक रैप सहित कुल दस गाने हैं। गौहर खान, सनी लियोनी का आइटम नंबर भी है जो फ्रंट क्लास दर्शकों को तालियां बजाने का मौका देता है। क्यों देखें : महानगरों में तेजी से फैलती एक समस्या पर बनी फिल्म जो आपका मनोरंजन करने का दम तो रखती है, लेकिन कहानी में कुछ नयापन या अलग तलाश करने की कोशिश नहीं करें तो अच्छा है। ",0 "लीक से हटकर कुछ अलग ऐसे टॉपिक पर बनी फिल्में आपको पंसद आती है तो यकीनन यह फिल्म आपके लिए है। इस शुक्रवार को दीपेश जैन के निर्देशन में बनी 'गली गुलियां' रिलीज़ हो रही है। चंद मेजर सेंटरों के जिन मल्टिप्लेक्सों में यह फिल्म रिलीज़ हो भी रही है तो यह इक्का-दुक्का स्क्रीन पर ही रिलीज होगी। जहां इस फिल्म को मेलबर्न फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिल चुका है तो भी मेकर्स को अपनी इस फिल्म के लिए स्क्रीन तलाशने में काफी जोर लगाने के बाद भी चंद स्क्रीन ही मिल पाए।स्टोरी प्लॉट : पुरानी दिल्ली की तंग गलियों के बीच एक छोटे से मकान में खुद्दूस (मनोज बाजपेयी) अकेले अपनी ही बसाई दुनिया में रहता है। खुद्दूस बिजली का अच्छा कारीगर है, लेकिन वह एक छोटे से कमरे में रहना पसंद करता है। इस अकेले में खुद्दूस का खास दोस्त और उसके पड़ोस में रहने वाला रणवीर शौरी ही उसका खास हमदर्द या साथी है जो उसके लिए लंच डिनर तक का इंतजाम करता है। खुद्दूस के पड़ोस में ही रहने वाला लियाकत (नीरज काबी) कसाई का काम करता है और अपनी खूबसूरत बीवी (सुहाना गोस्वामी) के साथ रहता है। लियाकत का बड़ा बेटा करीब 12 साल का है। लियाकत चाहता है कि उसका बेटा भी कसाई बने, इसीलिए वह उसे अपने साथ अपनी दुकान में बैठाता है। अक्सर लियाकत घर में उसे बुरी तरह से पीटता है, यह बात खुद्दूस को कतई पसंद नहीं। वैसे भी खुद्दूस ने अपनी गली के लगभग सभी मकानों में गुप्त कैमरे लगा रखे हैं जिनकी मदद से खुद्दूस अपने बंद कमरे में बैठकर यह देखता रहता है कि किस के घर में क्या हो रहा है और यह बात खुद्दूस के दोस्त को पंसद नहीं, लेकिन इसके बावजूद वह उसका हर मुश्किल में साथ देता है। खुद्दूस अब किसी तरह से लियाकत के घर तक पहुंचकर वहां भी अपना सीक्रेट कैमरा लगाना चाहता है, जिससे उसको पता चल सके कि वहां क्या हो रहा है। न चाहते हुए भी इस बार भी उसका साथ देता है। क्या खुद्दूस उस मासूम बच्चे को उस पर रोजाना हो रहे जुल्म से बचा पाता है, क्या वजह है कि खुद्दूस ने खुद को तंग गलियों के बीच बने एक छोटे से कमरे में कैद करके रखा हुआ है, अगर आप इन सवालों का जवाब चाहते हैं तो आपको 'गली गुलियां' देखनी होगी। ऐक्टिंग और डायरेक्शन: तारीफ करनी होगी दीपेश जैन की, जिन्होंने एक अलग टाइप की बेहतरीन कहानी को शानदार ढंग से पेश किया है। फिल्म की कहानी आम मुंबइया फिल्मों से बिल्कुल डिफरेंट है। अंत तक दर्शक कुछ न कुछ जानने को बेताब रहते हैं, फिल्म का क्लाइमैक्स गजब का है। दीपेश ने कहानी के मुताबिक ही फिलम की लोकेशन का चयन किया है। यकीनन दीपेश ने दिल्ली की तंग गलियों और वहां रहने वालों की लाइफ को बेहतरीन ढंग से पेश किया है। सिनेमटॉग्रफी गजब की है। स्क्रीनप्ले दमदार है जो पूरी फिल्म को एक ही ट्रैक पर रखता है। तारीफ करनी होगी कि मनोज बाजपेयी ने जिन्होंने इस बार भी अपने किरदार को अपनी लाजवाब ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है, एक बेरहम पिता और कसाई के रोल में नीरज काबी ने अपने किरदार में जान डाली है। चाइल्ड आर्टिस्ट ओम सिंह अपने रोल में परफेक्ट लगे, अन्य कलाकारों में सुहाना गोस्वामी और रणवीर शौरी ने अपने रोल को ठीकठाक निभाया है।क्यों देखें : पहली बात यह बॉलिवुड मसालों से भरी फिल्म नहीं है और यही वजह है कि फिल्म एक खास क्लास के लिए सटीक है। इनकी कसौटी पर फिल्म खरा उतरने का दम रखती है। अगर आप मनोज के फैन हैं तो इस फिल्म को एक बार जरूर देखें।",0 "बॉक्स ऑफिस के पैमाने पर हर साल अगर हम लीक से हटकर बन रही सीमित बजट में नई स्टार कॉस्ट या टिकट खिड़की पर भीड़ बटोरने की गांरटी ना समझे जाने वाले स्टार्स के साथ बनी फिल्मों की बात करें तो ताज्जुब होता है ऐसी ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर मुनाफा कमाना तो दूर रहा, अक्सर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक भी नहीं निकाल पाती। हां, इन फिल्मों को देश-विदेश में होने वाले फिल्म फेस्टिवल्स और मीडिया में जमकर तारीफें मिलती हैं एक खास क्लास के दर्शक इन फिल्मों की तारीफें करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोडते, सोशल साइट्स पर ऐसी फिल्मों पर जमकर लिखा जाता है, काश, इन फिल्मों पर कॉमेंट करने वाली क्लास लीक से हटकर बनी इन फिल्मों को देखने अगर थिएटर तक जाए तो यकीनन ऐसी फिल्में बनाने वाले मेकर्स की भी कुछ कमाई हो। इस हफ्ते रिलीज हुई यह फिल्म भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे शायद चंद फिल्म क्रिटिक्स की और से फुल बट्टा फुल रेटिंग भी मिल जाए लेकिन इन टॉप रेटिंग के बावजूद क्या यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फिल्म दर्शकों की भीड़ बटोर पाएगी। बॉलिवुड मेकर्स के लिए बनारस, काशी की पृष्ठभूमि हमेशा से उनका चहेता सब्जेक्ट रहा है, बरसों पहले काशी के पंडितों को लेकर दिलीप कुमार स्टारर संघर्ष बनी तो अब बॉलिवुड की फिल्मों में कहीं ना कहीं आपको बनारस की लोकेशन नजर आ जाएगी। यह फिल्म एक ऐसी सच्चाई पर पूरी ईमानदारी के साथ बनाई ऐसी फिल्म है जो आज की भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच जब हर कोई सिर्फ अपने सपनों को साकार करने की दौड़ में लगा हुआ है, एक हमारी यंग जेनरेशन को एक बेहतरीन मेसेज देने की अच्छी पहल कही जा सकती है। कहानी: फिल्म एक मीडिल क्लास फैमिली के इर्दगिर्द घूमती है। राजीव (आदिल हुसैन) के पिता दया (ललित बहल) को अब लगने लगा है कि उनका अंत समय अब नजदीक आ रहा है, दूसरी ओर अब राजीव जहां अपनी बिजी लाइफ के चलते चाहकर भी पिता को ज्यादा वक्त नहीं दे पाता तो वहीं दया को लगने लगा है राजीव की वाइफ यानी उनकी बहू लता (गीतांजलि कुलकर्णी) का रवैया भी उनके प्रति पहले जैसा नहीं रहा, दया की उम्र अब ज्यादा हो चुकी है, बढ़ती उम्र के चलते अब वह अक्सर बीमार रहने लगे हैं। वहीं अब बेटे राजीव की फैमिली के बीच दया खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगे हैं। ऐसी भी नहीं कि राजीव की पूरी फैमिली में दया साहब को कोई अपना नहीं लगता, राजीव की बेटी और अपनी पोती सुनीता (पालोमी घोष) को दया अपने नजदीक महसूस करते हैं। कुछ वक्त बाद दया को लगने लगता है कि अब उनके दिन करीब आ गये हैं। बेटे राजीव की फैमिली में खुद को अकेला महसूस कर रहे दया एक दिन अपने बेटे से कहते हैं उनकी आखिरी ख्वाहिश यही है कि अपनी आखिरी बची सांसे वह काशी के मुक्ति भवन में जाकर लें, अपने ऑफिस वर्क और डेली रूटीन में बेहद बिजी राजीव ना चाहते हुए भी अपने बूढे़ बीमार पिता की यह आखिरी इच्छा पूरी करने का फैसला करता है, बेशक उसके इस फैसले में उसकी वाइफ लता भी शामिल नहीं है। राजीव किसी तरह अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर अपने पिता के साथ काशी पहुंचता है, यहां के एक मुक्ति भवन में उसे पंद्रह दिनों के लिए अपने पिता के साथ रहने की अनुमति मिलती है। यहां अपने पिता की सेवा में राजीव खुद को तैयार कर रहा है, दूसरी ओर, उसे मन ही मन काशी से वापस लौटने का इंतजार है। ऐक्टिंग: राजीव के रोल में आदिल हुसैन पूरी तरह से फिट है, राजीव के अंदर की टेंशन अपने बेहद बिजी रूटीन और ऑफिस की टेंशन के बीच अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने वाले एक पुत्र के किरदार को आदिल ने कैमरे के सामने जीवंत कर दिखाया है। राजीव के पिता दया के किरदार में ललित बहल ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है तो वहीं दया की पोती के किरदार में पालोमी घोष अपने सिमटें किरदार के बावजूद अपनी पहचान छोडने में कामयाब रही है। डायरेक्शन: तारीफ करनी होगी डायरेक्टर शुभाशीष भूटियानी की जिन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर एक साफ सुथरी और बॉक्स् ऑफिस से समझौता किए बिना एक दमदार फिल्म बनाई जो दर्शकों को एक मेसेज तो देती ही है साथ ही उन्हें कहीं ना कहीं बुर्जुगों के प्रति अपने जिम्मेदारी का एहसास भी कराने का दम रखती है। वहीं भूटियानी ने पूरी फिल्म को कहानी और स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक काशी की लोकेशन पर फिल्माया, फिल्मांकन गजब का है, फिल्म के कई सीन्स आपकी आंखें नम करते है तो वहीं फिल्म के सभी किरदारों का जीवंत अभिनया इस फिल्म की सबसे बडी यूसपी है, बेशक फिल्म की गति सुस्त है, सौ मिनट की फिल्म में भी अगर हॉल में बैठा दर्शक खुद को कहानी और किरदारों के साथ ना बांध पाए तो यकीनन इसकी जिम्मेदारी भी डायरेक्टर पर ही जाती है। क्यों देखें: अगर जिदंगी के सच को नजदीक से देखने का जुनून है तो फिल्म आपके लिए है। आदिल हुसैन की बेहतरीन ऐक्टिंग, काशी की लोकेशन के साथ फिल्म में जेन एक्स् के लिए एक सार्थक संदेश भी है। मुंबइंया मसालों और मौज मस्ती के लिए टाइम पास करने के लिए थिएटर जाने वालों के लिए इस मुक्ति भवन में कुछ खास नहीं। ",0 "कॉरेलिया की शोरगुलवाली सड़कों पर फैली क्रूरता और अराजकता से मुक्त होने की चाह रखनेवाला हैन सोलो (एल्डन) एक महत्त्वाकांक्षी पायलट है। वह अपनी गर्लफ्रेंड क्यूरा (एमीलिया क्लार्क) के साथ उस जगह से छुटकारा पाने की योजना बनाता है, मगर उसे साथ ले जाने में नाकाम रहता है। इसी वजह से वह कॉरेलिया के बाहर अपना सफर सोलो यानी अकेले ही शुरू करता है। अब तीन साल बाद भी हालात कुछ ज्यादा बदले नहीं हैं और हैन एक बार फिर काबिल पायलट के रूप में नजर आता है। वह पैसे कमाकर कॉरेलिया जाने की फिराक में है, मगर इसी सिलसिले में उसकी भिंडत कई बदमाशों से होती है, जिसमें वह कुछ लोगों से दोस्ती का हाथ भी बढ़ाता है। इस सफर में वह अपने सबसे विश्वसनीय और प्यारे साथी च्युबाका से मिलता है और उसके बाद च्युबाका के साथ उसकी कभी न खत्म होनेवाली ऐसी बॉन्डिंग बनती है, जिसे हम कई स्टार वॉर्स की फिल्मों में देख चुके हैं। टोबियाज बैकेट (वुडी हैरेलसन), वैल (थैंडी न्यूटन) और रियो (जॉन फेवरू) के साथ, हैन एक एयर ट्रेन को लूटने की योजना बनाता है, जिसमें बेशकीमती हाइपर फ्यूल है। उनके इरादे नाकाम साबित होते हैं और इसी बीच ड्राइडेन वॉस (पॉल बैटनी) की एंट्री होती है। फिल्म में आगे चलकर हैन और क्यूरा का बड़े ही फिल्मी अंदाज में मिलन होता है। स्टार वॉर फिल्मों की फ्रेंचाइजी से अलग है यह कड़ी, जिसमें हैन सोलो अपराध की दुनिया से दो-चार होता है। निर्देशक रॉन हॉवर्ड ने फिल्म के सुर को सही तरीके से पकड़ा है। चेज सीक्वेंस और ऐक्शन दृश्यों में आपकी सांसे थम जाती हैं। अजब-गजब उड़ती गाड़ियां, चक्रवात की गति वाली एयर ट्रेन और हैरतअंगेज किरदार फिल्म को नयापन देते हैं। स्टार वॉर्स की पिछली फिल्म 6 महीने पहले प्रदर्शित हुई थी, जिसका नाम था ‘द लास्ट जेडी'। अब इस फिल्म की एक स्पिन ऑफ सीरीज शुरू हो चुकी है, जिसका पहला भाग था 'रोग वन' जो 2016 में रिलीज हुई थी। स्टार वॉर देखने वाली नई ऑडियंस के लिए इस फिल्म को समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, मगर फिल्म का पेस और उत्तेजना दर्शकों को बांधे रखता है। हां, अगर आप स्टार वॉर सीरीज के फैन्स नहीं रहे हैं, तो यह फिल्म आपको आकर्षित नहीं कर पाएगी। फिल्म के सभी किरदार खास हैं और उन्हें कलाकारों ने अपने विशिष्ट अंदाज से निभाया है। बेटनी और हैरलसन ने अपने-अपने किरदार में दम दिखाया है, जबकि सोलो उर्फ एल्डन के बारे में जो सबसे खास बात है वह ये कि इस फिल्म को आप क्लासिक स्टार वॉर्स के करीब पाएंगे। उन्होंने अपने रोल में जान डाल दी है। हैरिसन फोर्ड के साथ उनकी तुलना बेमानी है। उन्होंने सोलो के किरदार को अपने ढंग से निभाकर मनोरंजक बना दिया है। क्यूरा के रूप में एमीलिया क्लार्क खूबसूरत लगने के साथ-साथ दमदार भी लगी हैं। डोनाल्ड ग्लोवर के हिस्से में ज्यादा दृश्य नहीं आए हैं, मगर उन्होंने अपनी मौजूदगी बखूबी दर्ज कराई है। थैंडी न्यूटन और पॉल बेटनी ने अपने किरदारों के मुताबिक अभिनय किया है। जॉन पॉवेल का संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है और जॉन विलियम्स की पुरानी धुनों का इस्तेमाल इसे कर्णप्रिय बना देता है। क्यों देखें- स्टार वॉर सीरीज के चाहनेवालों के लिए यह फिल्म मस्ट वॉच है।",1 "कहानी- रोमांटिक कॉमिडी 'मेरी प्यारी बिंदु' हॉरर नॉवेल लिखने वाले राइटर अभिमन्यु रॉय (आयुष्मान खुराना) और बचपन से सिंगर बनने की चाहत रखने वाली बिंदु शंकरनारायणन (परिणीति चोपड़ा) की प्रेम कहानी है, जो कि अस्सी के दशक में शुरू होकर तमाम खट्टे-मीठे मोड़ लेती हुई मौजूदा दौर तक जारी रहती है। सीधे-सादे अभिमन्यु और अपनी धुन में मस्त रहने वाली चुलबुली बिंदु की प्रेम कहानी पर सवार होकर फिल्म की कहानी कोलकाता से शुरू होकर ऑस्ट्रेलिया, मुंबई, पेरिस और बेंगलुरु जाती है और आखिरकार कोलकाता लौट आती है। जहां फिल्म के दौरान बार-बार मिलते-बिछड़ते प्रेमियों का आखिरकार जुदा अंदाज में मिलन होता है। रिव्यू- अस्सी के दशक में दो छोटे बच्चों के बीच शुरू हुई यह खूबसूरत प्रेम कहानी नाइनटीज में उनके बीच प्यार, फिर इनकार और फिर इकरार के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहती है। असल जिंदगी में भी बिंदास नजर आने वाली परिणीति चोपड़ा ने फिल्म में अपने अंदाज के मुताबिक चुलबुली और मस्त लड़की के किरदार को शिद्दत से निभाया है, जो कि यंग जेनरेशन की तमाम लड़कियों की तरह अपनी लाइफ के टारगेट को लेकर कंफ्यूज नजर आती है। खुद को प्रपोज करने वाले लड़के के साथ शादी बनाकर उसके बच्चे पालना उसे समझ नहीं आता, क्योंकि वह बचपन से सिंगर बनना चाहती है। एक ऐक्सिडेंट में अपनी मां की मौत का सदमा नहीं भुला पा रही बिंदु अपने सिंगिंग एलबम के फ्लॉप हो जाने का झटका सह नहीं पाती और अपने प्रेमी और उसकी फैमिली का प्यार भरा शादी का प्रपोजल भी ठुकरा देती है। फिल्म में टोमेटो कैचप के साथ ब्रेड खाते हुए लैपटॉप के जमाने में टाइप राइटर पर तीन सालों से अपना लवस्टोरी नॉवेल लिखने के लिए जूझ रहे राइटर के रोल में आयुष्मान ने अच्छा काम किया है। खुद आयुष्मान इस रोल को अपने रीयल बचपन से रिलेट करते हैं। एक ऐसा आशिक जो बचपन से लेकर जवानी तक अपनी प्रेमिका की एक हां की खातिर पेड़ पर चढ़कर उसकी छत पर पहुंचने से गुरेज नहीं करता। बेशक आज के दौर में अभिमन्यु रॉय जैसे आशिक कम ही होते हैं, जो अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाते। जैसा कि वह कहता भी है कि प्यार करना सब सिखाते हैं, लेकिन भूलना कोई नहीं। फिल्म के क्लाईमैक्स के दौरान अभिमन्यु बिंदु को अपनी लवस्टोरी नॉवेल की स्क्रिप्ट दिखाते हुए कहता है कि यह मेरा वर्जन है। हैपी एंडिंग वाली स्क्रिप्ट ज्यादा बिकती हैं। लेकिन फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर का वर्जन शायद बिंदु वाला था। फर्स्ट टाइम डायरेक्टर आकाश रॉय ने सुप्रतिम सेनगुप्ता की स्क्रिप्ट पर बीते साल कोलकाता में मेरी प्यारी बिंदु की शूटिंग शुरू की, तो लगा था कि फिल्म में कोलकाता भी महत्वपूर्ण किरदार होगा, लेकिन फिल्म देखने के बाद ऐसा कुछ खास नजर नहीं आया। फिल्म के फर्स्ट हाफ में अभि और बिंदु की लवस्टोरी दर्शकों को ज्यादा रोमांचित नहीं करती। खासकर इंटरवल से पहले अभिमन्यु और बिंदु का साल दर साल का चिट्ठा बोझिल लगता है। सेकंड हाफ में जरूर कहानी थोड़ा ट्रैक पर आती है। फिल्म का संगीत सचिन-जिगर ने दिया है। फिल्म में एक गाना माना कि हम यार नहीं खुद परिणीति चोपड़ा ने भी गाया है। थिएटर से बाहर आने के बाद आपको इस गाने के अलावा शायद ही कोई और गाना याद रहेगा। ",0 "सरकार राज एक फिल्म न होकर एक विचार है, जिसमें व्यवस्था और उसकी विरोधी ताकतें शिद्दत के साथ उभरती हैं। निर्माता : रामगोपाल वर्मा, प्रवीण निश्चल निर्देशक : रामगोपाल वर्मा कलाकार : अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, तनीषा, गोविंद नामदेव, सयाजी शिंदे, दिलीप प्रभावलकर, उपेन्द्र लिमये, विक्टर बैनर्जी *यू/ए * 8 रील ‘बैक टू बेसिक्स’। जब क्रिकेट खिलाड़ी से रन नहीं बन रहे हों तो वह इस वाक्य का अनुसरण करता है। निर्देशक रामगोपाल वर्मा भी अपनी पिछली कुछ फिल्मों में फॉर्म में ‍नहीं दिखाई दिए क्योंकि असाधारण फिल्म बनाने के चक्कर में वे घटिया फिल्म बना गए। ‘सरकार राज’ के जरिये वे अपनी मजबूत बुनियाद की तरफ फिर लौटे हैं। आपराधिक, अंडरवर्ल्ड और डरावनी फिल्म बनाने में उन्हें महारत हासिल है। अपनी इसी खूबी को उन्होंने पहचाना और ‘सरकार’ का अगला भाग ‘सरकार राज’ दर्शकों के सम्मुख बखूबी पेश किया। ‘सरकार राज’ महाराष्ट्र के चर्चित एवं विवादास्पद पॉवर प्रोजेक्ट एनरॉन और कथित रूप से ठाकरे परिवार की पृष्ठभू‍मि पर आधारित है। अपनी शर्तों पर जीने वाले और हमेशा अपने को सही समझने वाले सरकार अपने जोश के दिनों में इस बात का होश खो बैठते हैं कि एक न ‍एक दिन उन्हें अपने तमाम कामों की कीमत इसी जिंदगी में चुकानी होगी। जब उनका अपना बेटा राजनीतिक साजिश का शिकार होकर मार दिया जाता है तब सिवा आँसू बहाने के उनके पास बचता क्या है? पॉवर प्लांट स्थापित करने के पीछे ओछी राजनीति, साजिश और खूनी खेल रचे जाते हैं। राजनीति की शतरंज पर सबका इस्तेमाल मोहरे की तरह किया जाता है। यहाँ कोई वफादार नहीं होता और कोई गद्दार नहीं होता। वफादारी और गद्दारी के बीच एक पतली लक्ष्मण रेखा होती है जिसे कभी भी मिटाया जा सकता है। ‘सरकार राज’ में राजनीतिक चालों का घिनौना चेहरा और बैर-बदले की कहानी हत्यारों के माध्यम से चलती है। यहाँ तक कि सरकार अपने बेटे की मौत के बाद अपने रिश्तेदार चीकू को नागपुर से बुलवाकर अगली पीढ़ी तैयार करने की बात करते हैं। इसे निर्देशक ने खूबसूरती के साथ अंत में दर्शाया है कि जब अनीता यानी ऐश्वर्या राय एक कप चाय लाने का ऑर्डर देती है। इसका मतलब साफ है कि सरकार के समांतर सरकार चलाने वालों के लिए व्यक्ति एक वस्तु से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। ‘सत्या’ और ‘कम्पनी’ के बाद रामू ने एक बार फिर फिल्म माध्यम पर अपनी पकड़ मजबूत की है। उन्होंने ‘सरकार राज’ फिल्म की पटकथा कम पात्रों के जरिये कसावट के साथ परदे पर पेश की है। फिल्म में नाच-गाने अथवा मनोरंजन की गुंजाइश न रखते हुए उन्होंने पात्रों के माध्यम से दर्शकों को सवा दो घंटे बाँधे रखा। फिल्म के संवाद अँगूठी में नगीने की तरह जड़े हुए लगते हैं। संवाद अमिताभ बोल रहे हों या अभिषेक या फिर राव साहब, दर्शकों को जज्बात और साजिश के रंग साफ समझ में आते हैं। रामगोपाल वर्मा ने किसी भी कलाकार को जरूरत से ज्यादा फुटेज नहीं दिया है। अमिताभ बच्चन, अभिषेक और ऐश्वर्या ने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है। फिल्म के चरित्र कलाकारों दिलीप प्रभावलकर, गोविंद नामदेव, सयाजी शिंदे और रवि काले ने भी बेहतरीन अभिनय किया है। फिल्म के लेखक प्रशांत पांडे का उल्लेख करना भी जरूरी है, क्योंकि उन्होंने रामगोपाल वर्मा का काम आसान किया है। रामगोपाल वर्मा की फिल्म तकनीकी रूप से हमेशा सशक्त रही है और यही बात इस फिल्म में भी नजर आती है। अमित रॉय की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। लाइट और शेड का उन्होंने उम्दा प्रयोग किया है। आड़े-तिरछे कोणों से फिल्म को शूट कर उन्होंने पात्रों की बेचैनी को परदे पर उतारने की कोशिश की है। अमर मोहिले का बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है और फिल्म का अहम हिस्सा है, हालाँकि कहीं-कहीं वो लाउड हो गया है। सरकार राज एक फिल्म न होकर एक विचार है, जिसमें व्यवस्था और उसकी विरोधी ताकतें शिद्दत के साथ उभरती हैं। ",1 "Chandermohan.Sharma@timesgroup.com मराठी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खास पहचान बनाने और बॉक्स ऑफिस पर कई सुपर हिट फिल्म देने के बाद निशिकांत कामत ने कम ही वक्त में बॉलिवुड में भी अपनी खास पहचान बना ली है, बॉलिवुड में कामत के निर्देशन में बनी पिछली फिल्मों मुंबई मेरी जान, फोर्स और दृश्यम ने बॉक्स आफिस पर औसत से अच्छा बिजनस किया। जॉन एक बार फिर कामत के निर्देशन में इस फिल्म में जबर्दस्त दिल दहला देने वाले बेहतरीन गजब ऐक्शन सीन्स करते नजर आएंगे, जॉन पर फिल्माए यहीं ऐक्शन सीन्स इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। जॉन ने इन ऐक्शन सीन्स को असरदार करने के मकसद से विदेशी ट्रेनर से करीब एक महीने तक मार्शल आर्ट (सियाट) की खास ट्रेनिंग भी ली। कामत के निर्देशन में बनी यह फिल्म कोरियन फिल्म द मैन फ्रॉम नोवेयर से पूरी तरह से प्रेरित है, 2010 में रिलीज हुई इस कोरियन फिल्म ने बॉक्स आफिस पर वर्ल्डवाइड बेहतरीन बिजनेस किया। वैसे अगर जॉन की बात करें तो उन्हें शायद डार्क सब्जेक्ट और कोरियन फिल्म के रीमेक में काम करना कुछ ज्यादा ही पसंद है, करीब दस साल पहले भी जॉन ने संजय गुप्ता के निर्देशन में बनी फिल्म जिंदा में लीड किरदार निभाया, जिंदा भी कोरियन फिल्म ओल्ड बॉय की सीन टू सीन कॉपी थी, अब यह बात अलग है कि जहां ओल्ड बॉय ने दुनिया भर में जबर्दस्त कामयाबी हासिल करने के साथ साथ बॉक्स ऑफिस पर बेहतरीन बिजनस करने के साथ-साथ 28 अवॉर्ड भी अपने नाम किए, वहीं जिंदा बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई। जॉन स्टारर इस फिल्म को सेंसर ने अडल्ट सर्टिफिकेट के साथ पास किया है, इसकी वजह शायद फिल्म में जॉन पर फिल्माएं कुछ ऐसे ऐक्शन स्टंट सीन है जो कमजोर दिल वालों और बच्चों को विचलित कर सकते है। कहानी: इस फिल्म की कहानी कबीर उर्फ रॉकी हैंडसम (जॉन अब्राहम), रूशीदा (श्रुति हासन) और छोटी बच्ची नाओमी (दिया) के इर्द-गिर्द घूमती है। कबीर अपना अतीत भुलाकर अब गोवा में नई जिंदगी शांति और खामोशी के साथ गुजार रहा है। कबीर के पड़ोस में ही एक छोटी सी प्यारी लडकी नाओमी रहती है, नन्हीं नाओमी कबीर को रॉकी हैंडसम कहकर बुलाती है। अचानक एक दिन नाओमी का किडनैप हो जाता है, यहीं से कहानी में टर्निंग प्वाइंट आता है और कहानी में मानव तस्करों और अंगों की खरीद-फरोख्त के धंधे का खुलासा होता है। अब कबीर उर्फ रॉकी की जिंदगी का मकसद नाओमी को किडनैपर की गिरफ्त से छुड़ाना है, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है क्योंकि नाओमी को किडनैप करने वाले गिरोह तक पहुंचना आसान नहीं। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें Nbt Movies ऐक्टिंग : कबीर उर्फ रॉकी के किरदार में जॉन अब्राहम ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है, फिल्म में जॉन पर फिल्माएं एक्शन सीन्स की तुलना हॉलिवुड फिल्मों के एक्शन सीन्स के साथ की जा सकती है, जॉन ने अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए विदेशी ट्रेनर से करीब एक महीने की एक खास मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी ली, ऐक्शन के अलावा कुछ भावुक सीन में भी जॉन ने अच्छी ऐक्टिंग की है। नाओमी के रोल में बेबी दीया ने अपने किरदार को पॉवरफुल बनाने के लिए मेहनत की है। फिल्म में जॉन की वाइफ बनी श्रुति हासन को बेशक फिल्म में कम फुटेज मिली, लेकिन उनका रोल कहानी का अहम और टर्निंग पॉइंट है, इस बार डायरेक्टर निशिकांत कामत ने भी फिल्म में विलेन के किरदार को असरदार ढंग से निभाया है। देखें ट्रेलर- डायरेक्शन: ऐसा लगता है कामत ने इस फिल्म को साउथ कोरियन फिल्म की तर्ज पर बनाने की कोशिश की है, यही वजह है कि स्क्रिप्ट और किरदारों पर ज्यादा ध्यान देने की बजाएं कामत ने फिल्म के ऐक्शन स्टंट सीन्स को हॉलिवुड स्टाइल में पेश किया है, फिल्म के ऐक्शन सीन्स और कैमरा ऐंगल पर कामत ने अच्छा काम किया है, अगर कामत इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने से पहले स्क्रिप्ट में मल्टिप्लेक्स कल्चर और जेन एक्स की पसंद को ध्यान में रखकर कुछ बदलाव करते तो सब्जेक्ट में ताजगी का पुट भी नजर आता, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के चलते फिल्म की कहानी अस्सी और नब्बे के दौर में बनी फिल्मों के क्लाइमेक्स की याद दिलाती है। संगीत: श्रेया घोषाल का गाया गाना रहनुना पहले से कई म्यूजिक चार्टस में टॉप फाइव में शामिल है, अंकित तिवारी की आवाज में अल्फाजों की तरह और बॉम्बे रॉकर्स का गाना रॉक द पार्टी भी म्यूजिक लवर्स की जुबां पर पहले से है। क्यों देखें: अगर जॉन के पक्के फैन है तो अपने चहेते स्टार को इस बार हॉलिवुड फिल्मों की तरह ऐक्शन सीन्स करते देख आपके पैसे वसूल हो जाएंगे, बेबी दीया की असरदार एक्टिंग, बेहतरीन कैमरावर्क के साथ साथ गोवा पूणे की नयनाभिराम लोकेशन आपको पसंद आएगी, फैमिली क्लास और टोटली मुंबइयां मसाला फिल्मों के शौकीनों को रॉकी हैंडसम से मिलना अपसेट कर सकता है। कलाकार: जॉन अब्राहम, श्रुति हासन, बेबी दीया, नतालिया कौर, निशिकांत कामत और शरद केलेकर, आइटम नंबर नूरा फतेरी, निर्माता : सुनील खेत्रपाल, जॉन अब्राहम, निर्देशक : निशिकांत कामत, गीत : सचिन पाठक, सागर संगीत : अंकित तिवारी, सनी बावरा, इंद्र बावरा, सेंसर सर्टिफिकेट : अडल्ट, अवधि : 125 मिनट ",0 "इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने के बाद आप अपने दिल में पवित्र भावनाओं को महसूस करेंगे। यू*18रील निर्माता-निर्देशक : आमिर खान गीत : प्रसून जोशी संगीत : शंकर-अहसान लॉय कलाकार : आमिर खान, दर्शील सफारी, टिस्का चोपड़ा, विपिन शर्मा, सचेत इंजीनियर बच्चें ओस की बूँदों की तरह एकदम शुद्ध और पवित्र होते हैं। उन्हें कल का नागरिक कहा जाता है, लेकिन दु:ख की बात है बच्चों को अनुशासन के नाम पर तमाम बंदिशों में रहना पड़ता है। आजकल उनका बचपन गुम हो गया है। बचपन से ही उन्हें आने वाली जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया जाता है। हर घर से टॉपर्स और रैंकर्स तैयार करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि उनके मन में क्या है? वे क्या सोचते हैं? उनके क्या विचार है? इन्हीं सवालों और बातों को आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में उठाया है। यह कोई बच्चों के लिए बनी फिल्म नहीं है और न ही वृत्तचित्रनुमा है। फिल्म में मनोरंजन के साथ गहरे संदेश छिपे हुए हैं। बिना कहें यह फिल्म बहुत कुछ कह जाती है। हर व्यक्ति इस फिल्म के जरिए खुद अपने आपको टटोलने लगता है कि कहीं वह किसी मासूम बच्चे का बचपन तो नहीं उजाड़ रहा है। आठ वर्षीय ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) का मन पढ़ाई के बजाय कुत्तों, मछलियों और पेंटिंग करने में लगता है। उसके माता-पिता चाहते हैं कि वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता। ईशान घर पर माता-पिता की डाँट खाता है और स्कूल में शिक्षकों की। कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि ईशान पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है। इसके बजाय व े ईशान को बोर्डिंग स्कूल भेज देते हैं। खिलखिलाता ईशान वहाँ जाकर मुरझा जाता है। वह हमेशा सहमा और उदास रहने लगता है। उस पर निगाह जाती है आर्ट टीचर रामशंकर निकुंभ (आमिर खान) की। निकुंभ उसकी उदासी का पता लगाते हैं और उन्हें पता चलता है कि ईशान बहुत प्रतिभाशाली है, लेकिन डिसलेक्सिया बीमारी से पीडि़त है। उसे अक्षरों को पढ़ने में तकलीफ होती है। अपने प्यार और दुलार से निकुंभ सर ईशान के अंदर छिपी प्रतिभा को सबके सामने लाते हैं। कहानी बेहद सरल है, जिसे आमिर खान ने बेहद प्रभावशाली तरीके से परदे पर उतारा है। पटकथा की बुनावट एकदम चुस्त है। छोटे-छोटे भावनात्मक दृश्य रखे गए हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं। ईशान का स्कूल से भागकर सड़कों पर घूमना। ताजी हवा में साँस लेना। बिल्डिंग को कलर होते देखना। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को आजादी से खेलते देख कर उदास होना। बरफ का लड्डू खाना। इन दृश्यों को देख कई लोगों को बचपन की याद ताजा हो जाएगी। आमिर की यह फिल्म उन माता-पिता से सवाल पूछती है कि जो अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों के नाजुक कंधों पर लादते हैं। आमिर एक संवाद बोलते हैं ‘बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षा लादना बालश्रम से भी बुरा है।‘ हर किसी को परीक्षा में पहला नंबर आना है। 95 प्रतिशत से कम नंबर लाना मानो गुनाह हो जाता है। ईशान का भाई टेनिस प्रतियोगिता के फाइनल में हार जाता है तो उसके पिता गुस्सा हो जाते हैं। अव्वल नंबर आना बुरा नहीं है, लेकिन उसके लिए मासूम बच्चों को प्रताडि़त कर उनका बचपन छिन लेना बुरा है। सवाल तो उन माता-पिताओं से पूछना चाहिए कि क्या उन्होंने बच्चे अपने सपने पूरा करने के लिए पैदा किए हैं? क्या वे जिंदगी में जो बनना चाहते थे वो बन पाएँ? यदि नहीं बन पाएँ तो उन्हें भी कोई हक नहीं है कि वे अपनी कुंठा बच्चों पर निकाले। क्या हम कभी ढाबों या चाय की दुकानों में काम कर रहे छोटे-छोटे बच्चों के बारे में सोचते हैं? क्या हमें यह खयाल आता है कि जो बच्चा हमें खाना परोस रहा है उसका पेट भरा हुआ है या नहीं? अनुशासन और नियम का डंडा दिखलाकर बच्चों को डराने वाले शिक्षक अपनी जिंदगी में कितने अनुशासित हैं? वे कितने नियमों का पालन करते हैं? सभी बच्चों का दिमाग और सीखने की क्षमता एक-सी नहीं होती है। क्या सभी बच्चों को भेड़ की तरह एक ही डंडे से हांका जाना चाहिए? बिना संवादों के जरिए ये बातें आमिर खान ने चंद मिनटों के दृश्यों से कहीं है। कहीं उपदेश या फालतू भाषण नहीं। फिल्म देखते समय हर दर्शक इस बात को महसूस करता है। हर माता-पिता और शिक्षकों को यह फिल्म देखना ही चाहिए। शायद वे बच्चों से ज्यादा प्यार करने लगेंगे। उन्हें समझने लगेंगे। ईशान बने दर्शील सफारी इस फिल्म की जान है। विश्वास ही नहीं होता कि यह बच्चा अभिनय कर रहा है। मासूम से दिखने वाले इस बच्चे ने भय, क्रोध, उदासी और हास्य के हर भाव को अपने चेहरे से बोला है। शायद इसीलिए उसे संवाद कम दिए गए हैं। आमिर खान मध्यांतर में आते हैं और छा जाते हैं। टिस्का चोपड़ा (ईशान की मम्मी) ने एक माँ की बैचेनी को उम्दा तरीके से पेश किया है। विपिन शर्मा (ईशान के पापा), सचेत इंजीनियर और सारे अध्यापकों का अभिनय भी अच्छा है। बिना तैयारी के निर्देशन के मैदान में उतरे आमिर खान ने दिखा दिया है कि फिल्म माध्यम पर उनकी समझ और पकड़ अद्‍भुत है। इस फिल्म में न फालतू का एक्शन है, न फूहड़ कॉमेडी और न अंग प्रदर्शन। इन सारे तत्वों के बिना भी एक उम्दा फिल्म बनाई जा सकती है ये आमिर ने बता दिया है। एक बच्चे की जिंदगी पर फिल्म बनाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। फिल्म थोड़ी लंबी जरूर है। प्रसून जोशी द्वारा लिखे गीत बहुत कुछ कहते हैं और परदे पर उनको देखते समय उसका प्रभाव और बढ़ जाता है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी अच्छा है। फिल्म की फोटोग्राफी उल्लेखनीय है। इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने के बाद आप अपने दिल में पवित्र भावनाओं को महसूस करेंगे। ",1 " सी ग्रेड फिल्मों के भी सीक्वल बनने लगे हैं। 'हेट स्टोरी' बोल्ड कंटेंट और कम लागत के कारण सफल रही थी तो फौरन इसका दूसरा भाग तैयार कर रिलीज कर दिया गया। इस तरह की फिल्मों में बोल्ड सीन दिखाने के बहाने ढूंढे जाते हैं, लेकिन सेंसर का मिजाज इन दिनों बेहद सख्त है लिहाजा जिस दर्शक वर्ग के लिए ये फिल्म बनाई गई है उसे निराशा हाथ लगती है। महिला द्वारा अपने अपमान का बदला लेने की फिल्में 'जख्मी औरत' और 'खून भरी मांग' के जमाने से भी पहले से बनती आ रही है। 'हेट स्टोरी 2' की भी यही कहानी है। इस घिसी-पिटी कहानी को भी न ठीक से लिखा गया है और न ढंग की फिल्म बनाई गई है। लॉजिक की बात करना बेकार है। लगता है कि लेखक और निर्देशक ने बिना दिमाग के काम किया है या फिर दर्शकों को बेवकूफ समझ बैठे हैं। युवा और आधुनिक लड़की सोनिका (सुरवीन चावला) एक ताकतवर और भ्रष्ट नेता मंदार (सुशांत सिंह) की रखैल है। मंदार को सोनिका बिलकुल नहीं चाहती है, लेकिन उससे डरती है। सोनिका का मंदार शारीरिक शोषण करता है और मानसिक रूप से परेशान करता है। सोनिका की एक दादी वृद्धाश्रम में है। उस दादी को जान से मारने की धमकी देते हुए सोनिका का मंदार शोषण करता है। सोनिका को अक्षय (जय भानुशाली) से प्रेम हो जाता है। वह उसके साथ गोआ भाग जाती है। मंदार को जब पता चलता है तो वह भी अपने साथियों के साथ गोआ पहुंच जाता है और अक्षय की हत्या कर देता है। सोनिका को वह जिंदा गाड़ देता है। किस तरह से सोनिका बच निकलती है और मंदार एंड कंपनी से अपना बदला लेती है ये फिल्म का सार है। हेट स्टोरी 2' का निर्देशन विशाल पंड्या ने किया है और माधुरी बैनर्जी ने लिखा है। फिल्म की शुरुआत में मंदार को सोनिका पर अत्याचार करते हुए दिखाया गया है। सोनिका यह सब क्यों सहती है, इस पर रहस्य का आवरण रखा है। लगता है कि कुछ ठोस वजह सामने आएगी, लेकिन दादी को मार डालने की धमकी वाला बौना कारण बताया जाता है, जो इतना अत्याचार सहने के लिए कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है। सोनिका आधुनिक लड़की है, पढ़ी-लिखी है, शहर में घूमती है, वह पुलिस की या किसी और की मदद क्यों नहीं लेती, ये बात समझ से परे है। सोनिका के अतीत के बारे में भी ज्यादा नहीं बताया गया है कि वह मंदार के चंगुल में कैसे फंसी? मंदार उसका शोषण क्यों करता है? केवल एक जगह सोनिका की दादी से एक संवाद बुलवा दिया गया है कि सोनिका के मां-बाप के मरने के बाद मंदार ने उसे पाला, लेकिन कहानी की मुख्य बात को इतना चलताऊ तरीके से निपटाना अखरता है। ब‍दला लेने वाली सोनिका एकदम बदली हुई नजर आती है। मंदार के सामने सहम कर कांपने वाली सोनिका अचानक साहसी महिला बन जाती है और मंदार के साथियों का मर्डर करती है। अचानक सोनिका में आई यह तब्दीली जंचती नहीं है। सोनिका एकदम से डाकू रामकली की तरह बन जाती है। बदले से उसकी आंखें अंगारों की तरह सुलगती हैं। वह सरेआम सड़क पर गुंडों को जला देती है। पुलिस कुछ नही करती। वह मोबाइल से पुलिस और मंदार से बातें करती हैं, लेकिन कोई भी उसके पास नहीं पहुंच पाता। उसके पास पिस्तौल कहां से आ जाती है, इसका जवाब भी नहीं मिलता। दादी को पकड़ कर सोनिका को काबू में करने का आइडिया मंदार के दिमाग में बाद में आता है और दर्शकों के दिमाग में पहले। अक्षय का मरने के बाद सोनिका को नजर आने वाले सीन हास्यास्पद हैं। ढेर सारी गलतियां स्क्रिप्ट में हैं, जिनकी ओर ध्यान नहीं दिया गया। समझदार दर्शकों की रूचि आधी फिल्म देखने के बाद ही खत्म हो जाती है और मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को भी निराशा हाथ लगती है। विशाल पंड्या ने कहानी को बेहद लंबा खींचा है। गाने फिल्म की स्पीड में ब्रेकर का काम करते हैं। सनी लियोन के गाने को जिस तरह से बेकार किया गया है वो फिल्म मेकर की समझ को दिखाता है। एक्टिंग डिपार्टमेंट भी निराश करता है। जय भानुशाली में हीरो मटेरियल नहीं है। वे बीमार से लगे हैं और अभिनय भी उनका बेदम है। सुरवीन चावला का सबसे मजबूत रोल है, लेकिन उनके अभिनय में वो बात नजर नहीं आई जो रोल की डिमांड थी। वे जय से बड़ी भी नजर आईं। फिल्म में सुशांत सिंह एकमात्र ऐसे एक्टर हैं जिन्होंने अपना काम ढंग से किया है। आज तुमपे प्यार आया है' फिल्म की एकमात्र अच्‍छी बात है, लेकिन यह गाना भी उधार लिया गया है। बाकी सारे कारण इस फिल्म से 'हेट' करने लायक ही हैं। बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : भूषण कुमार‍ निर्देशक : विशाल पंड्या संगीत : मिथुन, रशीद खान, आर्को कलाकार : सुशांत सिंह, सुरवीन चावला, जय भानुशाली, सनी लियोन (आइटम नंबर) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 9 मिनट 30 सेकंड ",0 "तनुजा चंद्रा ग्लैमर इंडस्ट्री की चंद उन चर्चित नामी डायरेक्टर्स की लिस्ट में शामिल होती है, जो बॉक्स आफिस की परवाह किए बिना ऐसी फिल्में बनाते आए है जो टिकट खिडकी पर बेशक खास कामयाब ना रही हो लेकिन इन्होंने अपनी फिल्मों के लिए एक खास क्लास जरूर तैयार की है। कभी भट्ट कैंप के लिए तमन्ना, संघर्ष, दुश्मन जैसी बेहतरीन फिल्में बना चुकी तनुजा ने इस बार लंबे गैप के बाद जब इस फिल्म के निर्देशन की कमान संभाली तो तभी यह साफ हो गया है कि यह फिल्म भी तनुजा की पिछली फिल्मों की तरह बॉलीवुड मसाला फिल्मों की भीड़ से दूर हटकर होगी। अब जब यह फिल्म दर्शकों के सामने है तो इसे देखकर सत्तर के दशक में कमल हासन, रति अग्निहोत्री की 'एक दूजे के लिए', साथ ही अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट की फिल्म '2 स्टेटस' की याद जरूर आती है। दरअसल, तनुजा की इस फिल्म में भी एक नॉर्थ इंडियन और साउथ इंडियन की प्रेम कहानी है। अब यह बात अलग है कि तनुजा ने इस कहानी को बिल्कुल अलग अंदाज में पिछली दोनों फिल्मों से हटकर पेश किया है। कहानी की डिमांड पर तनुजा ने फिल्म की दिल्ली, अलवर, ऋषिकेश और गगंटोक तक की लोकेशन पर शूट किया, और तनूजा का अपनी इस सिपंल लव और अलग टाइप की कहानी को इन लोकेशन तक मेन किरदारों की जर्नी को पहुंचाना ही इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी बन गई है।कहानी: जया (पार्वती) दक्षिण भारतीय है और उसकी उम्र अब करीब पैंतीस साल की है। कुछ साल पहले उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। सिंगल जया अब कई साल के बाद अपनी जिदंगी को नए सिरे से शुरू करने के लिए लाइफ पार्टनर की तलाश में है। जया की पसंद दूसरों जैसी नहीं है, उसे अपने व्यवहार को समझने वाला ऐसा लाइफ पार्टनर चाहिए जो कुछ-कुछ उसके जैसा हो। जया ने अपना प्रोफाइल एक साइट पर डाली हुई है लेकिन उसे अपनी साइट से अक्सर कुछ ऐसे घटिया रिस्पॉन्स मिलते रहते है लेकिन जया को इनकी परवाह नहीं। इसी बीच जया को अपनी प्रोफाइल पर योगी (इरफान खान) का प्रोफाइल भी मिलती है। योगी की उम्र भी जया के आसपास है। योगी मनमौजी और अपनी बसाई दुनिया में फुल मस्ती के साथ जीने वाला इंसान है। योगी एक कवि है लेकिन उसकी पहचान नहीं बन पाई है। योगी की प्रोफाइल देखने के बाद जया उससे मिलने का फैसला करती है। योगी अतरंग और बहुमुखी है, अपने अंदर कुछ भी रखना उसे गवारा नहीं सो वह अपने दिल की हर बात जया को बेहिचक कह देता है। जया उस वक्त हैरान होती है जब योगी उसे अपनी पिछली प्रेमिकाओं के बारे में पूरी ईमानदार के साथ बताते हुए जया को उनसे अपने साथ मिलने जाने का न्यौता भी देता है। योगी के स्टाइल और उसकी सोच को देखकर जया हैरान है। योगी उसे जब अपनी प्रेमिकाओं से मिलने के लिए अपने साथ ऋषिकेश, अलवर और गंगटोक साथ चलकर मिलने और उनसे अपने खुद के बारे में जानने के लिए साथ चलने के लिए बार-बार कहता है तो जया भी उसके साथ इस खास टूर में साथ चलती है। योगी उस वक्त हैरान रह जाता है जब ऋषिकेश में उसकी पहली प्रेमिका का पति उसे अपना साला और उसके बच्चे उसे मामा जी कहकर बुलाते है। यहां से फ्लाइट, ट्रेन और टैक्सी से योगी और जया की इस जर्नी के आसपास पूरी फिल्म घूमती है।रिव्यू: इरफान और पार्वती दोनों ही अपने अपने किरदारों में 100 फीसदी फिट रहे हैं। पार्वती साउथ की जानी मानी ऐक्ट्रेस हैं, उन्होंने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। इरफान जब भी स्क्रीन पर आते है तो हॉल में बैठे दर्शकों को कुछ पल हंसने का मौका मिलता है। नेहा धूपिया, ईशा श्रवणी, नवनीत निशान और कैमियो रोल में ब्रिजेंद्र काला ने अपनी छाप छोड़ी है। तारीफ करनी होगी तनुजा की जिन्होंने फिल्म में गानों का कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया है। 'जाने दो' और 'खत्म कहानी' गानों का फिल्मांकन शानदार है तो फिल्म की लोकेशन की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। टैक्सी से लेकर हवाई जहाज और ट्रेन की लग्जरी क्लास से लेकर स्लीपर क्लास के सीन्स जानदार बन पड़े हैं तो ऋषिकेश की लोकेशन के बाद गगंटोक की लोकेशन दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने का काम करती है। क्यों देखें: इस फिल्म को देखने की दो वजह हैं। लंबे अर्से बाद तनुजा चंद्रा के स्टाइल की बनी फिल्म देखना। अब यह बात अलग है कि इस बार तनुजा पिछली फिल्मों जैसा जादू नहीं चला पाईं। साउथ की ऐक्ट्रेस पार्वती के साथ इरफान खान की गजब केमेस्ट्री भी देखने लायक है। हालांकि कहानी का बेहद धीमी रफ्तार से आगे खिसकना और लंबे सीन्स फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी हैं। इसके अलावा दर्शकों को पहले से क्लाइमैक्स का आभास हो जाना भी निर्देशन की खामी ही कहा जाएगा। ",0 "कुल मिलाकर ‘बैड लक गोविंद’ पैसे और समय की बर्बादी है। निर्माता : हिमांशु एच. शाह, चिराग शाह, वरुण खन्ना, तरुण अरोरा कहानी, संवाद, पटकथा और निर्देशन : वरुण खन्ना संगीत : अबू मलिक कलाकार : वीजे गौरव कपूर, हृषिता भट्ट, व्रजेश हीरजी, जाकिर हुसैन, परमीत सेठी, ललित मोहन तिवारी, गोविंद नामदेव, अर्चना पूरनसिंह ‘बैड लक गोविंद’ में दिखाया गया है कि नायक गोविंद किस्मत का मारा है। वह भैंस के पास खड़ा होता है तो वह दूध देना बंद कर देती है। लेकिन फिल्म इतनी खराब है कि गोविंद से ज्यादा खराब किस्मत सिनेमाघर में उपस्थित गिने-चुने दर्शकों को अपनी लगती है कि क्यों वे ये फिल्म देखने के लिए आ गए। हीरो गोविंद की परछाई जिस पर पड़ती है उसके साथ कुछ न कुछ बुरा होता है। वह हारकर दिल्ली से मुंबई जा पहुँचता है। मुंबई में उसकी एक व्यक्ति से पहचान हो जाती है जो उसे अपने घर ले आता है। यहाँ पर उसके साथ कुछ अपराधी भी रहते हैं, जिनकी कुछ लोगों से दुश्मनी है। जब उन्हें गोविंद के बैड लक के बारे में पता चलता है तो वे फायदा उठाने का सोचते हैं। वे उसे जब-तब दुश्मनों के घर भेजते रहते हैं, ताकि उनका नुकसान हो। इसी बीच गोविंद को प्यार हो जाता है और उसका बैडलक गुडलक में बदल जाता है। फिल्म की कहानी इतनी घटिया है कि उन लोगों की अक्ल पर तरस आता है कि जो इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए। कहानी में न लॉजिक है और न मनोरंजन। स्क्रीनप्ले भी बेहद उबाऊ है। दृश्य इतने लंबे हैं कि संवाद लेखक को संवाद लिखना मुश्किल हो गया। फिल्म के एडिटर ने दृश्यों को जोड़-तोड़ कर खाली जगहों को भरा। फिल्म के अधिकांश दृश्यों में बहुत ज्यादा अँधेरा है। मल्टीप्लैक्स में ही बमुश्किल फिल्म दिखाई देती है। ठाठिया सिनेमाघरों में तो केवल आवाज सुनाई देगी। वैसे भी इस फिल्म को छोटे शहर के टॉकीज वाले शायद ही लगाएँगे क्योंकि बड़े शहरों में ही इस फिल्म की पहले शो से ही हालत पतली है। गोविंद के रूप में वीजे गौरव कपूर का अभिनय ठीक कहा जा सकता है। हृषिता भट्ट निराश करती हैं। गोविंद नामदेव, जाकिर हुसैन, परमीत सेठी और व्रजेश हीरजी ने अपने चरित्रों को असरदायक बनाने की पूरी कोशिश की है। एक-दो गाने भी हैं, जिनकी धुनें अबू मलिक ने बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘बैड लक गोविंद’ पैसे और समय की बर्बादी है। ",0 "इसमें कोई दो राय नहीं कि सिनेमा एक बेहतरीन दौर से गुजर रहा है। एक दशक पहले तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि बिना किसी हिरोइन, नाच-गाने और फाइट सीक्वंस के 60 की उम्र पार कर चुके दो कलाकारों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई जा सकती है। पिछले 10 वर्षों में दर्शक बदला और यह बदलाव सिनेमा पर भी प्रतिबिंबित हुआ।हाल ही में रिलीज हुईं हिचकी, अक्टूबर, बियॉन्ड द क्लाउड्स जैसी कई फिल्में हैं जिन्होंने प्रचलित फॉर्म्‍युला फिल्मों के बने-बनाए खांचे को तोड़कर कॉन्टेंट प्रधान फिल्मों का जलवा दिखाया। निर्देशक उमेश शुक्ला की '102 नॉट आउट' उसी शृंखला की फिल्म है। सौम्य जोशी के लिखे गुजराती लोकप्रिय नाटक पर आधारित यह फिल्म बुजुर्गों के एकाकीपन की त्रासदी को दर्शाती है। 75 साल का बाबूलाल वखारिया (ऋषि कपूर) घड़ी की सुइयों के हिसाब से चलने वाला सनकी बूढ़ा है। उसकी नीरस जिंदगी में डॉक्टर से मिलने के अलावा अगर कोई खुशी और उत्तेजना का कारण है तो वह है उसका एनआरआई बेटा और उसका परिवार। हालांकि, अपने बेटे और उसके परिवार से वह पिछले 17 वर्षों से नहीं मिला है। बेटा हर साल मिलने का वादा करके ऐन वक्त में उसे गच्चा दे जाता है। वहीं, दूसरी ओर बाबूलाल का 102 वर्षीय पिता दत्तात्रेय वखारिया (अमिताभ बच्चन) उसके विपरीत जिंदगी से भरपूर ऐसा वृद्ध है जिसे आप 102 साल का जवान भी कह सकते हैं। एक दिन अचानक दत्तात्रेय अपने झक्की बेटे बाबूलाल के सामने शर्तों का पिटारा रखते हुए कहता है कि अगर उसने ये शर्तें पूरी नहीं कीं तो वह उसे वृद्धाश्रम भेज देगा। असल में दत्तात्रेय, धमकी देकर और शर्तों को पूरा करवाकर बाबूलाल की जीवनशैली और सोच को बदलना चाहता है। अब 102 साल की उम्र में वह अपने 75 वर्षीय बेटे को क्यों बदलना चाहता है, इसके पीछे एक बहुत बड़ा राज है। इस राज का पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। डायरेक्‍टर उमेश शुक्ला इससे पहले भी गुजराती नाटक पर आधारित 'ओह माय गॉड' बना चुके हैं। इस बार भी उन्होंने वही राह चुनी। फिल्म के जरिए उमेश ने विदेश में रहने वाले एनआरआई बच्चों के लिए तड़पते माता-पिता को बहुत ही स्ट्रॉन्ग मेसेज दिया है। हालांकि, फिल्म का फर्स्ट हाफ धीमा है और घटनाक्रम में पुनरावृत्ति का अहसास होता है। अन्य सहयोगी किरदारों की कमी खलती है लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म गति पकड़ती है और क्लाइमेक्स आपको जज्बाती करने के साथ-साथ एक ऐसी जीत का अहसास करवाता है मानो उस भावनात्मक लड़ाई में अगर किरदार शिकार हो जाता तो आप बहुत कुछ हार जाते।अभिनय की बात करें तो एक बात साफ हो जाती है कि बिग बी को सदी का महानायक क्यों कहा जाता है। फिल्म में दत्तात्रेय की भूमिका में वह आपको लुभाते हैं, चौंकाते हैं, अचंभित करते हैं और आप उनकी भूमिका के प्रवाह में उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति के साथ डूबते-उतराते रहते हैं। उन्होंने किरदार की नब्ज को इस सही अंदाज में पकड़ा है कि आप उस किरदार को अपने साथ महसूस करने लगते हैं। वहीं, तकरीबन 27 साल बाद ऋषि कपूर भी बिग बी के साथ पर्दे पर नजर आए हैं और उनके 75 वर्षीय बेटे बाबूलाल को वह बेहद सहजता और संयम से जी गए। बाप-बेटे की यह जोड़ी आपको अपनी रिश्तेदारी या आस-पड़ोस के किसी दादा-चाचा से जोड़ देती है। दो बूढ़े पिता-पुत्र के बीच की चुटीली और मजेदार रस्साकशी आपको बांधे रखती है। अभिनय के मामले में तीसरे किरदार जिमित त्रिवेदी ने लाजवाब अभिनय किया है। उन्होंने कहीं भी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर जैसे दिग्गजों के साथ अभिनय कर रहे हैं। संगीतकार सलीम-सुलेमान संगीत पक्ष को सबल बना सकते थे। 'बच्चे की जान' और 'कुल्फी' अपना रंग नहीं जमा पाए। जॉर्ज जोसफ का बैकग्राउंड स्कोर ठीक-ठाक रहा। क्यों देखें: स्ट्रॉन्ग मेसेज वाली इस भावनात्मक फिल्म को पारिवारिक सिनेमा प्रेमी देख सकते हैं।",0 "बॉलिवुड में बरसों से प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाने का ट्रेंड रहा है। हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट, शीरी-फरहाद, सोहनी-महीवाल या फिर लैला-मजनू की प्रेम कहानी के साथ कई फिल्मों का नाम तो जुड़ा, लेकिन अगर टिकट खिड़की पर कलेक्शन की बात की जाए तो ज्यादातर फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर औसत ओपनिंग तक नहीं मिल पाई। अगर आप फिल्म के टाइटल को देखकर रोमियो-जूलियट जैसी कोई लव स्टोरी देखने की चाह लिए थिअटर जा रहे हैं तो ऐसा इस फिल्म में कुछ नजर नहीं आएगा। सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म के कई हॉट सीन पर कैंची चलाकर फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट दिया, लेकिन वहीं फिल्म के बेहद बोल्ड संवादों के साथ छेड़छाड़ नहीं की। फिल्म के कुछ संवाद ज्यादा ही बोल्ड हैं जो उस माहौल में फिट नहीं बैठते। कहानी : दबंग बाहुबली धर्मराज शुक्ला (प्रियांशु चटर्जी) की बहन जूली शुक्ला (पिया बाजपेयी) अपने भाइयों की चहेती है। जूली का बड़ा भाई धर्मराज शुक्ला अपनी बहन के लिए कुछ भी कर सकता है और यही हाल जूली के दूसरे भाइयों नकुल और भीम का भी है। तीनों भाई अपनी बहन को बस हमेशा हर हाल में खुश देखना चाहते हैं। जूली के तीनों भाइयों का शहर में दबदबा है। सभी भाइयों ने बचपन से जूली को राजकुमारी की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया है। अपने भाइयों की दबंगई का कुछ असर जूली में भी आ गया है, जूली भी कुछ ज्यादा ही बिंदास और मुंहफट है। दिल में आई बात फौरन बोल देती है। जूली किसी से नहीं डरती और अपने साथ रहने वालों को भी किसी से न डरने की सीख देती है। जूली के भाइयों ने अपनी बहन की शादी शहर के दबंग सत्ता तक पहुंच रखने वाले नेता, विधायक के बेटे राजन (चंदन रॉय सान्याल) के साथ तय कर दी है। जूली इस शादी के पक्ष में नहीं, लेकिन अपने भाइयों की खुशी की खातिर खुलकर शादी का विरोध भी नहीं कर पा रही। इस सिंपल कहानी में टिवस्ट उस वक्त आता है जब शादी से पहले राजन अपने घर में हो रही शादी से पहले के एक फंक्शन के दौरान वहां भाइयों के साथ पहुंची जूली से जबरन संबंध बनाता है। जूली राजन के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहती है, लेकिन यहां उसके अपने भाई भी जब उसका साथ नहीं देते। ऐसे में मिर्जा (दर्शन कुमार) जूली का साथ देता है। मिर्जा दिल ही दिल जूली से प्यार करता है। दरअसल, बोल्ड, बिंदास जूली ने कभी राजन को जलाने के लिए मिर्जा के साथ वक्त बिताया और उसके साथ रिश्ते भी बनाए, लेकिन मिर्जा को जब पता चला जूली की शादी राजन के साथ होने वाली है तो उसने जूली से दूरियां बनाने का फैसला कर लिया। कुछ अर्से बाद जूली को भी मिर्जा से सच्चे प्यार का एहसास होता है। मिर्जा और जूली शुक्ला की यह अजीबोगरीब लव स्टोरी बंदूक की गोलियों, खूनखराबे के साए में इलाहाबाद से निकलकर नेपाल तक पहुंच जाती है। ऐक्टिंग : जूली शुक्ला के किरदार को पिया बाजपेयी ने अपनी ओर से बेहतरीन बनाने की अच्छी कोशिश की है। दूसरी ओर इस लव स्टोरी में दर्शन कुमार का भाव विहीन चेहरा माइनस पॉइंट बनकर रह गया है। बेशक दर्शन ऐक्शन सीन में दर्शन खूब जमे तो मिर्जा के किरदार में अनफिट नजर आए। हां, फिल्म में धर्मराज बने किरदार में प्रियांशु चटर्जी खूब जमे हैं। इस फिल्म से प्रियांशु के रूप में ग्लैमर इंडस्ट्री को अच्छा विलन जरूर मिल गया है। निर्देशन : यंग डायरेक्टर राजेश राम सिंह की बेशक स्क्रिप्ट पर पकड़ अच्छी रही, लेकिन न जाने क्यों उन्होंने कहानी को नॉर्थ बेल्ट की पंसद को ध्यान में रखकर आगे बढ़ाया है। कहानी और किरदारों पर उनकी राजेश ने जरूर पकड़ बनाए रखने के साथ-साथ यूपी और नेपाल की बेहतरीन लोकेशन पर फिल्म को शूट किया है। वहीं फिल्म की कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। बरसों से बाहुबली दबंग भाइयों की चहेती बहन और उसके प्रेमी को लेकर फिल्में बनती रही हैं। इस फिल्म में भी एकबार फिर यही सब दिखाया गया है। वहीं फिल्म में धर्म के नाम पर दंगे के सीन फिल्म में जबरन डाले हुए लगते हैं। इनका फिल्म की कहानी से कहीं कनेक्शन नहीं है, फिर भी इन्हें फिल्म का हिस्सा बनाया गया। संगीत : फिल्म में कई गाने हैं, लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की कसौटी पर खरा उतर सके। क्यों देखें : दर्शन कुमार के ऐक्शन सीन, कभी रोमांटिक हीरो रहे प्रियांशु चटर्जी के अलग अवतार को देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। ",1 "सुभाष नागरे या सरकार (अमिताभ बच्चन) महाराष्ट्र के एक बेहद पावरफुल पॉलिटिकल फैमिली का एक वृद्ध सदस्य, जिनके आधिपत्य का लोग आज भी लोहा मानते हैं। सरकार फिल्म के मुख्य आकर्षण हैं, क्योंकि उनकी विशाल ताकत दर्शकों को उनसे जोड़ती है। 'सरकार' फैंचाइज़ी की इस फिल्म में सरकार के साथ उनके पोते शिवाजी नागरे (अमित साध) नज़र आ रहे हैं, जो कि अपने दादा से जितना प्यार करता है, उतनी ही नफरत भी। क्या शिवाजी सुभाष को धोखा देता है? या फिर वह अपने दादा के ही षड्यंत्र का शिकार हो जाता है? रिव्यू: हम इस फ्रैंचाइज़ी के लीड किरदार और उससे जुड़ी चीजों से पिछले 12 साल से जुड़े हैं, जिससे इस फिल्म को देखते हुए आपको सब देखा हुआ सा लगेगा। साथ ही यह शुरुआत से लेकर अब तक सरकार की मौजूदगी का महत्व भी दर्शकों को बताता है। पिछली फिल्म में अपने दोनों बेटों विष्णु (के.के. मेनन) और शंकर (अभिषेक बच्चन) को खोने के बाद उनकी उम्र तो बढ़ी नज़र आ रही है, लेकिन स्वभाव में आज भी वह उतने ही सख्त दिख रहे। अब वह कई चीजों से खुद को अलग कर चुके हैं, क्योंकि उनका काम उनके दोनों सहयोगी गोकुल (रॉनित) और रमन (पराग) देखते हैं। उनकी पत्नी पुष्पा (सुप्रिया) बीमार रहा करती हैं और वह पूरी तरह उनकी देखभाल में लगे रहते हैं। कहानी सरकार के पोते शिवाजी उर्फ चीकू की एंट्री के साथ आगे बढ़ती है। उसे गोकुल में उन गद्दारों के बारे में पता लग जाता है, जो गुपचुप तरीके से डॉन बनने की तैयारी में है। यहां तक कि सत्ता के संघर्ष के लिए नागरे की चारदीवारी के बाहर भी गोविंद देशपांडे (मनोज बाजपेयी), सत्ता का भूखा और नेता बनने की इच्छा रखने वाले दुबई बेस्ड बिज़नसमैन माइकल (जैकी) और गांधी (बजरंगबली) जैसे लोग सरकार को बर्बाद करने के लिए अपना-अपना दांव लगाते हैं।इस रिव्यू को ગુજરાતી में पढ़ेंः अब सबसे अहम सवाल- क्या 'शिवा', 'सत्या', 'कंपनी' और 'सरकार' का पहला पार्ट बनाने वाले रामगोपाल वर्मा अपनी पुरानी फॉर्म में लौट आए हैं? इस फिल्म में आपको फिल्ममेकर रामगोपाल वर्मा की इन्टेंसिटी की कुछ झलक दिखती है। उनकी महाभारत रूपी कथा या राजमहल की राजनीति भी आप कह सकते हैं, वह बिना किसी रुकावट के पर्दे पर चलती है। हालांकि फिल्म की हर साजिश को लेकर आप बड़ी आसानी से अंदाज़ा लगा लेते हैं। फिल्म के कई डायलॉग काफी अर्थपूर्ण हैं, लेकिन यह फिल्म को बहुत ज्यादा असरदार नहीं बना पाते। इस फ्रैंचाइजी की बाकी फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी लाइट और शैडो का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है, जो फिल्म का ट्रेडमार्क है। साथ ही गोविंदा-गोविंदा वाला बैकग्राउंड स्कोर, इस फिल्म में शानदार है। बच्चन द्वारा गाई गई गणेश आरती आपको मंत्रमुग्ध करने वाला है। इसके अलावा अमिताभ की ऐक्टिंग और अंदाज़ भी आपको अभिभूत करने के लिए काफी हैं। उनके फैन्स के लिए इसे एक शानदार तोहफा कह सकते हैं। अमित मनोज, जैकी और रॉनित ने काफी शानदार अभिनय का परिचय दिया है तो वहीं अभिनेत्रियां यामी, सुप्रिया और रोहिनी का रोल बेहद छोटा है और वह कुछ समय के लिए ही पर्दे पर नज़र आती हैं। ",1 "चंद्रमोहन शर्मा इस फिल्म के टाइटल को प्रॉडक्शन कंपनी ने एक खास क्लास और लीक से हटकर बनी फिल्मों को पंसद करने वाली क्लास को टारगेट करके ही रखा है। फिल्म का प्रेस शो खत्म होने के बाद इस फिल्म के पीआरओ से जब कई क्रिटिक्स ने फिल्म के टाइटल की वजह पूछी तो खुद पीआरओ साहब को ही इस बारे में कुछ पता नहीं था। आठ साल के अंतराल में ही एक शहर में टोटली एक ही स्टाइल में हुई किडनैपिंग की दो अलग-अलग घटनाओं को एक अलग और रोमांचक ढंग में पेश किया है। वैसे, अगर दो किडनैपिंग की घटनाओं की बात करें तो फिल्म का टाइटिल दो होना चाहिए, तीन नहीं। एक सीनियर क्रिटिक्स की माने तो चूंकि फिल्म की पूरी कहानी तीन लीड किरदारों अमिताभ बच्चन, नवाजुद्दीन सिद्दकी और विद्या बालन के इर्द-गिर्द घूमती है। इसी के चलते प्रॉडयूसर ने फिल्म का टाइटल कुछ अलग ढंग से तीन रखा, लेकिन फिल्म में तीन नहीं बल्कि चार अहम किरदार है, कहानी में बिग बी यानी जॉन के अलावा एक और दादाजी भी है और यह किरदार इस फिल्म का महत्वपूर्ण किरदार है। फिल्म का ट्रेलर- इससे पहले विद्या बालन के कंधों पर कहानी जैसी रोमांचक, थ्रिलर सुपर हिट फिल्म बना चुके डायरेक्टर सुजॉय घोष ने इस फिल्म के निर्देशन की कमान खुद संभालने के बजाए रिभु दास गुप्ता को दी, बेशक रिभु ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक न्याय किया, लेकिन बेवजह इंटरवल से पहले फिल्म के कई सीन्स को बेवजह लंबा खींचा तो क्लाइमेक्स में वैसा दम दिखाई नहीं दिया जो सुजॉय की कहानी में नजर आया था। कोलकाता के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म की शूटिंग रिभु ने कोलकात्ता की पहचान बन चुकी ट्रॉम ट्रेन, हावडा ब्रिज आदि कई लोकेशन्स पर की तो वहीं कुछ सीन्स को देख ऐसा लगता है जैसे रिभु स्टार्ट टू फिनिश बिग बी के किरदार को कुछ ज्यादा ही प्रमुखता भी दी। कहानी : फिल्म की शुरूआत जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) से होती है जो हमेशा की तरह इस बार भी कोलकाता के एक पुलिस स्टेशन में अपनी पोती एंजेला को किडनैप करने वाले उन अज्ञात किडनैपर के बारे में पूछताछ करने पहुंचा हुआ है, जिन्होंने आठ साल पहले उसकी पोती एंजेला का किडनैप किया और इसी दौरान एंजेला की एक ऐक्सीडेंट में मौत हो गई। पुलिस भी मानती है कि आठ साल पहले एंजेला का किडनेप हुआ और उसकी मौत हुई। उस वक्त एंजेला के किडनैप की जांच इंस्पेक्टर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दकी) को सौंपी लेकिन मार्टिन लाख कोशिशों के बावजूद किडनैपर को पकड़ नहीं पाया, इस केस में असफल होने के बाद मार्टिन को एहसास हुआ कि उसकी वजह से एंजेला की जान चली गई, पुलिस अफसरों ने इस केस में नाकामयाब रहने पर मार्टिन को खूब खरी खोटी सुनाई और इसके बाद मार्टिन पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में प्रीस्ट फादर बन गया। दूसरी ओर, जॉन की बीवी नेंसी इस सदमे के बाद वील चेयर पर पहुंच चुकी हैं। बेशक, इन आठ सालों में बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन जॉन को अब भी आस है कि एक दिन वह एंजेला के किडनैपर को सजा दिलाने में जरूर कामयाब होगा। अस्सी की उम्र के करीब पहुंच चुके जॉन ने हिम्मत नहीं हारी है। मार्टिन के इस केस से हटने के बाद आगे की जांच की कमान सरिता सरकार (विद्या बालन) कौ सौंपी जाती है। सरिता चाहती है कि इस केस की जांच में मार्टिन उसका साथ दे, लंबी जांच पड़ताल के बाद मार्टिन और सरिता अपने अलग ढंग से इस केस की गुत्थी को सुलझाने में लग जाते हैं, इसी दौरान एक मासूम बच्चे का किडनैप उसके नाना (सब्यसांची मुखर्जी) के सामने हो जाता है जब वह अपने नाना के साथ फुटबॉल खेल रहा होता है। ऐक्टिंग: पूरी फिल्म चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, अपनी पोती के किडनैपर को सजा दिलाने के लिए भटकते दादाजी का किरदार यकीनन बिग बी से अच्छी तरह से कोई दूसरा निभा नहीं पाता। इंस्पेक्टर मार्टिन के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दकी खूब जमे तो विद्या बालन अपने किरदार में सौ फीसदी फिट है, नाना जी के किरदार में सब्यसांची मुखर्जी को बेशक फुटेज कम मिली लेकिन तीन दिग्गज कलाकारों की मौजूदगी में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग का लोहा मनवाया। निर्देशन: रिभु दास गुप्ता ने स्क्रिप्ट के साथ काफी हद तक इंसाफ किया है, रिभु जहां कोलकाता के माहौल को फिल्म में उतारने में पूरी तरह से कामयाब रहे तो उन्होंने फिल्म के हर कलाकार से अच्छा काम लिया, ना जाने क्यूं इस तेज रफ्तार से आगे बढ़ती कहानी में गाने क्यों ठूंसे, बेशक, बैकग्राउंड में फिल्माए ये गाने फिल्म का हिस्सा बनाकर पेश किए गये लेकिन कहानी की रफ्तार को जरूर कम करते हैं, क्लाइमेक्स बेवजह खींचा गया। संगीत: फिल्म के गाने माहौल के मुताबिक है, बिग बी की आवाज में यह गाने कहानी का बेशक हिस्सा बनाकर पेश किये गए। क्यों देखें: बिग बी की बेहतरीन एक्टिंग, कोलकाता की बेहतरीन लोकेशन के साथ कुछ अलग और नया देखने वाले दर्शकों की कसौटी पर यह फिल्म खरा उतर सकती है। ",1 "कहानी: यह कहानी है इंडियन नेशनल आर्मी के तीन ऑफिसर की, जिन पर देशद्रोह के लिए मुकदमा चल रहा है। इनके साहस के परिणाम का सामना करने में एक बीमार वकील इनकी मदद करता है। रिव्यूः इस समय हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जब राष्ट्रीय गौरव की भावना बहुत प्रबल हो रही है। अगर आपकी देशभक्ति आपके ऐटिट्यूड, आपके खाने, फिल्म थिऐटर में आपके शिष्टाचार और आपके ट्विटर फीड में नहीं दिखाई देती तो इससे आपके अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो जाता है। जब हम 'भारत' कहने से भी ज्यादा तेजी से निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं, तो हम अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्होंने अपने खून का बलिदान देकर युद्ध किया और जिनकी वजह से आज हम यहां हैं। 'राग देश' हमें इन्हीं देशभक्त हीरो की ओर वापस ले जाता है। इस फिल्म में मेजर जनरल शाहनवाज़ खान (कुणाल कपूर), लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (अमित साध) और कर्नल प्रेम सेहगल (मोहित मारवा) की कहानी बताई गई है। सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नैशनल आर्मी के ये तीन अधिकारी, दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों को भगाकर भारत में फिर से प्रवेश के लिए सैनिकों को इकट्ठा करते हैं। खान, ढिल्लों और सहगल को ब्रिटिश भारतीय सेना के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया जाता है। वहीं, उनके वकील भुलाभाई देसाई (केनेथ देसाई) आरोपों को सुलझाने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ पेश करने की कोशिश करते हैं। लेखक-निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने आजादी से लड़ने के इस जंग की कहानी को बड़े ही शानदार तरीके से बयां किया है। भले ही यह फिल्म 1992 में आई 'अ फ्यू गुड मैन' जैसी लगती हो, लेकिन इस फिल्म के पीछे जिन चार लोगों की रिसर्च टीम और दो सदस्यों की राइटिंग टीम ने मेहनत की है वह साफ नज़र आ रही। कहानी को अलग अंदाज़ से कहा जाना था या नहीं इसपर बहस हो सकती है, लेकिन अधिकतर यह स्पष्ट संदेश देने में सफल होती है। कई बार यह फिल्म आपको उस वक्त के सामाजिक-राजनैतिक पहलुओं की जानकारी देगी। यहां तक कि धूलिया ने फिल्म में सत्यता को साबित करने के लिए काफी मेहनत की और रिसर्च कॉस्ट्यूम, सेट और एंप्लॉयी की भाषा (जापानी लोग जापानी भाषा में, ब्रिटिश इंग्लिश में बात कर रहे थे, जिसके लिए कोई डबिंग नहीं की गई) आदि के बल पर वह आजादी से पहले के माहौल को ठीक उसी तरह से रीक्रिएट कर पाने में सफल रहे। हालांकि, फिल्म में तारीख, नंबरों और फैक्ट्स की भरमार है और अचानक लीड ऐक्टर के कुछ रिश्तेदार भी बीच में कूद पड़ते हैं, जिनकी अपनी एक अलग कहानी है। कहें तो जानकारियों की इतनी भरमार है, जिनकी वैसी जरूरत नहीं थी। ",1 "हॉलीवुड में एक्शन फिल्म बनाने वालों को कुछ नया नहीं सूझ रहा है। पिछले कुछ एक्शन फिल्मों की कहानी मिलती-जुलती है। एक खतरा पैदा होता है। दुश्मन से भिड़ना होता है। हीरो अपनी टीम बनाता है और लड़ाई करता है। 'xXx: रिटर्न ऑफ ज़ेंडर केज' की भी यही कहानी है। 'पैंडोरा बॉक्स' के जरिये सैटेलाइट्‍स को पृथ्‍वी पर कही भी गिराया जा सकता था। यह पैंडोरा बॉक्स उन लोगों के हाथ है जिनके इरादे खतरनाक है। उन लोगों से लड़ने के लिए एक काबिल शख्स की जरूरत है। ऐसे में जेंडर केज (विन डीजल) सामने आता है जिसे मृत मान लिया गया था। वह अपनी टीम बनाता है और पैंडोरा बॉक्स हासिल करता है। कहानी ऐसी है कि आगे क्या होने वाला है ये कोई भी बता दे, लेकिन जो बात फिल्म को देखने लायक बनाती है वो ये कि यह किस तरह होगा। हैरतअंगेज स्टंट्स, जबरदस्त एक्शन, धड़कन बढ़ाने वाले चेज़ सीक्वेंसेस, ताकतवर विन डीज़ल, खूबसूरत दीपिका पादुकोण के जरिये जब बात को आगे बढ़ाया जाता है तो फिल्म में समय तो अच्‍छी तरह से कट ही जाता है। हॉलीवुड मूवीज़ में हर किरदार की एंट्री मजेदार तरीके से दिखाने का चलन है और यहां भी वहीं बात देखने को मिलती है। हर किरदार की कुछ खासियत और आदतें हैं। विन डीज़ल की एंट्री भी जोरदार तरीके से होती है और स्क्रिप्ट उनकी इमेज के अनुरूप लिखी गई है ताकि उनके फैंस का पैसा वसूल हो सके। विन डीज़ल ने स्टाइलिश तरीके से अपने किरदार को निभाया है और एक्शन दृश्यों में धमाके पर धमाके करते रहे। पानी में बाइक चलाने वाले चेज़ सीक्वेंस तो शानदार है। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा धीमा है और एक्शन फिल्म की गरमाहट महसूस नहीं होती है। सेकंड हाफ में फिल्म ऐसी लय पकड़ती है कि आप सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। लंबा क्लाइमैक्स है और एक्शन प्रेमियों के लिए यहां पर भरपूर मसाला है। विन डीज़ल को ताकतवर और बहादुर दिखाने के लिए सिनेमा के नाम पर भरपूर छूट ली गई है। सैकड़ों गोलियां उन पर दागी जाती है, लेकिन वे बच निकलते हैं, खरोंच भी नहीं आती। सैटेलाइट्स से हवाई जहाज की टक्कर करवा देते हैं और चंद सेकंड पहले हजारों फीट ऊपर से कूद जाते हैं, लेकिन ये दृश्य इतनी सफाई से शूट किए गए हैं कि विश्वसनीय लगते हैं। फिल्म के लिए कलाकारों का चयन सटीक है। विन डीज़ल के इर्दगिर्द पूरी फिल्म घूमती है, फिर भी अन्य कलाकारों को अवसर मिलते हैं। दीपिका खूबसूरत लगी हैं। हालांकि उनका रोल लंबा नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण जरूर है। नीना डोबरेव ने एक्शन के बीच हंसने का अवसर दिया है। निर्देशक डी.जे. करुसो ने बजाय कुछ नया करने के उन्हीं आजमाए फॉर्मूलों को अपनाया है जिन्हें देख दर्शक खुश होते हैं। उनकी टारगेट ऑडियंस वे लोग हैं जो एक्शन फिल्म देखना पसंद करते हैं और इसका भरपूर डोज़ उन्होंने दिया है। कुल मिलाकर 'xXx: रिटर्न ऑफ ज़ेंडर केज' एक्शन और स्टंट्स के बल पर मनोरंजन करने में सफल है। निर्माता : विन डीज़ल, जो रोथ, सामंथा विसेंट निर्देशक : डी.जे. करुसो संगीत : ब्रायन टेलर कलाकार : विन डीज़ल, डॉनी येन, दीपिका पादुकोण, क्रिस वू, रूबी रोज़ ",1 "इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com राजकुमार संतोषी की शुरुआती फिल्मों की थीम अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाना थी। ‘घायल’, ‘घातक’ और ‘दामिनी’ में उन्होंने यही बात उठाई थी और उन्हें सफलता भी मिली थी। इसके बाद संतोषी भटक गए और कई खराब फिल्में उन्होंने बनाईं। ‘हल्ला बोल’ के जरिये संतोषी ‍एक बार फिर अपने पुराने ट्रैक पर लौटे हैं। आज के जमाने में व्यक्ति को अपने पड़ोसी से कोई मतलब नहीं रहता। यदि कोई उसे मार रहा हो तो वह बचाने की कोशिश नहीं करता, लेकिन वह यह भूल जाता है कि अगली बारी उसकी हो सकती है। इसी को आधार बनाकर राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ का निर्माण किया है। अशफाक (अजय देवगन) एक छोटे शहर में रहने वाला युवक है। फिल्मों में काम करना उसका ख्वाब है और इसलिए वह सिद्धू (पंकज कपूर) के साथ नुक्कड़ नाटक करता है। सिद्धांतवादी और सच बोलने वाला अशफाक अभिनय की बारीकियाँ ‍सीखने के बाद मुंबई पहुँच जाता है और फिल्मों में काम पाने की उसकी शुरुआत झूठ से होती है। धीरे-धीरे वह सफलता की सीढि़याँ चढ़ता जाता है और अशफाक से समीर खान नामक सुपरस्टार बन जाता है। अपनी सुपरस्टार की इमेज को सच मानकर वह अपना वजूद खो देता है। सफलता का नशा उसके दिमाग में चढ़ जाता है। इस वजह से उसके गुरु सिद्धू, पत्नी स्नेहा (विद्या बालन) और माता-पिता उससे दूर हो जाते हैं। एक दिन एक पार्टी में उसके सामने एक लड़की का खून हो जाता है। खूनी को पहचानने के बावजूद समीर इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझता है क्योंकि उसे डर रहता है कि वह पुलिस और अदालतों के चक्कर में उलझा तो उसकी सुपरस्टार की छवि खराब हो सकती है। सुपरस्टार समीर और अशफाक में अंतर्द्वंद्व चलता है और जीत अशफाक की होती है। वह पुलिस के सामने जाकर उन दो हत्यारों की पहचान कर लेता है। वे दोनों हत्यारे बहुत बड़े नेता और उद्योगपति के बेटे रहते हैं। वह नेता और उद्योगपति समीर को धमकाते हैं, लेकिन वह नहीं डरता। अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए वह नेता अदालत में समीर को झूठा साबित कर देता है। समीर को अहसास होता है कि परदे पर हीरोगीरी करने में और असल जिंदगी में कितना फर्क है। वह अपने गुरु सिद्धू की मदद से ‘हल्ला बोल’ नामक नाटक का सड़कों पर प्रदर्शन करता है और जनता तथा मीडिया की मदद से हत्यारों को सजा दिलवाता है। राजकुमार संतोषी ने इस कहानी को बॉलीवुड के हीरो के माध्यम से कही है। उनके मन में आमिर खान का आंदोलन को समर्थन देना, मॉडल जेसिका लाल और सफदर हाशमी हत्याकाँड था। उन्होंने इन घटनाओं से प्रेरणा लेकर कहानी लिखी। पहले हॉफ में उन्होंने बॉलीवुड के उन तमाम सुपरस्टार्स की पोल खोली जो पैसों की खातिर बेगानी शादियों में नाचते हैं। एक संवाद है ‘यदि पैसा मिले तो ये मय्यत में रोने भी चले जाएँ।‘ एक सुपरस्टार खुद अपनी इमेज में ही किस तरह कैद हो जाता है, इस कशमकश को उन्होंने बेहतरीन तरीके से दिखाया है। समीर खान का सड़क पर आकर न्याय माँगने के संघर्ष को उन्होंने कम फुटेज दिया, इस वजह से फिल्म का अंत कमजोर हो गया है। मध्यांतर के बाद फिल्म को संपादित कर कम से कम बीस मिनट छोटा किया जा सकता है। फिल्म में कई दृश्य हैं जो दर्शकों को ताली पीटने पर मजबूर करते हैं। विद्या बालन का प्रेस के सामने आकर अजय का साथ देना। अजय का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड जीतने के बाद भाषण देना। अजय का मंत्री के घर जाकर उसका घर गंदा करना। अल्पसंख्यक होने के बावजूद समीर खान का मुस्लिम समुदाय से मदद लेने से इनकार करना। संवाद इस फिल्म का बेहद सशक्त पहलू हैं। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अधिकांश दृश्यों की समाप्ति एक लाइन के उम्दा संवादों से की है। एक निर्देशक के रूप में राज संतोषी ‘दामिनी’ या ‘घायल’ वाले फॉर्म में तो नहीं दिखे, लेकिन पिछली कई फिल्मों के मुकाबले उनकी यह फिल्म बेहतर है। खासकर फिल्म का मध्यांतर के बाद वाला भाग और सशक्त बनाया जा सकता था। सुपरस्टार की इमेज में कैद समीर की बेचैनी और सफलता पाने के लिए कुछ भी करने वाले इनसान को अजय देवगन ने परदे पर बेहद अच्छी तरह से पेश किया है। अजय बेहद दुबले-पतले हो गए हैं और उनका चेहरा पिचक गया है। उन्हें अपने लुक पर ध्यान देना चाहिए। विद्या बालन के लिए अभिनय का ज्यादा स्कोप नहीं था, लेकिन दो-तीन दृश्यों में उन्होंने अपनी चमक दिखाई। पंकज कपूर ने सिद्धू के रूप में गजब ढा दिया। पता नहीं यह उम्दा अभिनेता कम फिल्मों में क्यों दिखाई देता है। दर्शन जरीवाला, अंजन श्रीवास्तव के साथ अन्य कलाकारों से भी संतोषी ने अच्छा काम लिया है। कुल मिलाकर ‘हल्ला बोल’ में वे तत्व हैं जो दर्शकों को अच्छे लगे। एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है। निर्माता : अब्दुल सामी सिद्दकी निर्देशन-कथा-पटकथा-संवाद : राजकुमार संतोषी संगीत : सुखविंदर सिंह कलाकार : अजय देवगन, विद्या बालन, पंकज कपूर, दर्शन जरीवाला (विशेष भूमिका - करीना कपूर, सयाली भगत, तुषार कपूर, श्रीदेवी, बोनी कपूर, जैकी श्रॉफ) इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com ",1 "इन फुकरों से आप पहले भी मिल चुके हैं और आपने इन्हें पंसद भी किया। यही फुकरे अब एकबार फिर आपके सामने हैं, पहली फिल्म की तरह इस फिल्म में भी यह फुकरे किसी काम के नहीं हैं, लेकिन इनके सपने राजकुमारों जैसे हैं। बतौर प्रड्यूसर फरहान अख्तर सोलो हीरो फिल्म बनाना शायद पसंद नहीं करते, तभी तो उनकी पिछली फिल्में 'दिल चाहता है' और 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' कई किरदारों को लेकर बनाई थीं। ग्लैमर इंडस्ट्री में माना जाता है कि अगर आप करोड़ों के बजट में फिल्म बना रहे हैं तो किसी एक हीरो पर डिपेंड रहने की बजाए दो तीन किरदारों को लेकर फिल्म बनाना फायदे का सौदा है।स्टोरी प्लॉट : स्कूल स्टडी करने के बाद हनी ( पुलकित सम्राट ) और चूचा (वरुण शर्मा) की दोस्ती कम नहीं हुई। इनकी दोस्ती अभी भी पहले की तर्ज पर बरकरार है। वैसे, चूचा की मां को इनकी दोस्ती कतई पसंद नहीं हैं। चूचा पहले से दिल ही दिल में लेडी डॉन भोली पंजाबन ( रिचा चड्डा ) को दिल दे चुका है। अब यह बात अलग है भोली को उसकी शक्ल तक पसंद नहीं। चूचा का सपना है कि वह भी अपने दोस्त हनी की तरह खूबसूरत लड़कियों को पटाने में एक्सपर्ट बन जाए। इनकी मंडली के तीसरे मेम्बर लाली (मनजोत सिंह) को न चाहकर भी अपने पापाजी की हलवाई की दुकान पर काम करना होता है। फुकरा टीम का मेम्बर जफर (अली फजल) अपनी प्रेमिका के साथ शादी करके खुशहाल जिंदगी गुजारना चाहता है। इस टीम के साथ पंडित जी (पकंज त्रिपाठी) भी है जो हर मुश्किल से अक्सर इस टीम को बाहर निकालता है। पिछली फिल्म के क्लाइमैक्स में भोली पंजाबन को इसी फुकरा टीम की वजह से मोटा नुकसान होता है और इतना हीं नहीं भोली को जेल जाना पड़ता है। अब एक साल गुजर चुका है, भोली जेल से बाहर आती है। उसके गैंग के दो वफादार अफ्रीकन मेम्बर उसके साथ हैं। भोली जेल से बाहर आकर सबसे पहले इन फुकरों को सबक सिखाने का फैसला करती है। भोली के खास आदमी इन फुकरों को लेकर भोली के अड्डे पर आते हैं। भोली इन सभी को जमकर टॉर्चर करती है। चूचा के पास एक खास वरदान है, जिसके चलते चूचा सपने में जो भी देखता है वह बाद में सही साबित होता है। भोली पंजाबन का नुकसान चुकाने के मकसद से फुकरा टीम भोली से कुछ और रकम लेकर लॉटरी का नंबर निकालने का काम शुरू करते हैं, जिसमें चूचा पहले ही इन्हें सही नंबर बता देता है। शहर के लोग फुकरा टीम की लॉटरी में अपनी जमा-पूंजी लगाते हैं। पैसा लगाने वालों को डबल रकम मिलती है। चूचा की खास शक्ति के चलते फुकरा टीम का यह बिज़नस खूब चल निकलता है। पंडित जी अब इस बिज़नस में इनके साथ हैं। तभी दिल्ली और बॉर्डर के इलाके में लॉटरी के बिज़नस से जुड़े मिनिस्टर का धंधा फुकरा टीम के लॉटरी के बाद बंद होने की कगार पर पहुंच जाता है। ऐसे में मिनिस्टर एक ऐसी चाल चलता है जिससे फुकरा टीम को लॉटरी में करोड़ों का घाटा हो जाता है।'फुकरे' की कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। ऐसी फिल्म को आप रिऐलिटी के तराजू के पैमाने पर रखकर नहीं देख सकते। वहीं अगर आपने पिछली फिल्म देखी है तो आपको बार-बार यही महसूस होगा कि पिछली फिल्म इससे कहीं ज्यादा अच्छी थी। दरअसल, इस बार डायरेक्टर लांबा ने बेशक किरदारों पर तो काफी मेहनत की, लेकिन स्टोरी और स्क्रीनप्ले पर ध्यान नहीं दिया। हनी (पुलकित), चूचा (वरुण) और पंडित जी (पकंज त्रिपाठी) की गजब की केमिस्ट्री है। इन तीनों ने अपने किरदारों को पावरफुल बनाने के लिए बहुत मेहनत की है। पंडित जी के किरदार में पंकज त्रिपाठी का जवाब नहीं। वहीं भोली पंजाबन का जो बिंदास बेबाक अंदाज पिछली फिल्म में नजर आया, वह इस बार नदारद है। वरुण शर्मा की ऐक्टिंग लाजवाब है, वह जब भी स्क्रीन पर आते हैं तभी हॉल में हंसी के ठहाके सुनाई देते हैं। पुलकित ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया, लेकिन पुलकित की ऐक्टिंग पर सलमान खान का असर इस फिल्म में भी नजर आता है। अली जफर और मनजोत सिंह के पास इस बार करने के लिए बहुत कम था। अगर क्लाइमैक्स की बात करें तो ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने ट्रैक से उतरती फिल्म को ट्रैक पर लौटाने के लिए को जल्दबाजी में निपटा दिया। डायरेक्टर मृगदीप सिंह लांबा के पास एक कमजोर कहानी थी, जिसे उन्होंने बॉक्स आफिस पर बिकाऊ मसालों का तड़का लगाकर पेश कर दिया। टाइटल सॉन्ग को छोड़ दें तो 'ओ मेरी महबूबा' गाने को फिल्म में वेस्टर्न अंदाज में अच्छे ढंग से फिट किया गया है। 'तू मेरा भाई नहीं है' गाना स्क्रीन पर देखने में अच्छा लगेगा इसके बावजूद फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं है जो हॉल से बाहर आने के बाद म्यूजिक लवर्स की जुंबा पर रहे।क्यों देखें : इस फुकरा टीम के साथ आपकी मुलाकात तभी मजेदार हो सकती है जब आप पिछली फिल्म को भुलाकर इनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखकर मिलेंगे तो आपको फिल्म पैसा वसूल लगेगी।कलाकार : रिचा चड्डा, पुलकित सम्राट, मनजोत सिंह, वरुण शर्मा, पकंज त्रिपाठी, अली फजल, विशाखा सिंह, प्रिया आनंदनिर्माता : रितेश सिधवानी, फरहान अख्तरनिर्देशन : मृगदीप सिंह लांबा",1 "जगदीश्वर मिश्रा उर्फ जॉली (अक्षय कुमार) कानपुर में प्रसिद्ध वकीलों के सहायक के तौर पर अपने काम की शुरुआत करता है। अपनी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए वह एक प्रग्नेंट लेडी हिना सिद्दीकी (सैयानी गुप्ता) के साथ छल भी कर जाता है, जो कि एक विधवा है और न्याय की आस में है। उसके पास हिना के पति का मर्डर केस आता है, लेकिन जब हिना को पता चलता है कि वह एक धोखेबाज वकील है तो दुखी हिना खुद को ही खत्म कर लेती है। अब जॉली को इस बात का आत्मग्लानि होती है और उसके हाथ रह जाता है एक अनसुलझा केस। अब वह इस केस के लिए न्याय पाने में वाकई जुट जाता है। रिव्यू: फिल्म की शुरुआत में जॉली एक नौसिखिया है जो अपना काम चलाने के लिए छोटे-मोटे अपराध भी करता है क्योंकि उसे कानून की खामियों का पता है। घर पर वह अपनी पत्नी के आगे-पीछे डोलने वाला या यूं कहें कि जोरू का गुलाम पति है। जॉली की बीवी पुष्पा पांडे (हुमा कुरैशी) को व्हिस्की, महंगे ब्रैंड के कपड़े और अपने गोल-मोलू बेटे से बहुत प्यार है। लेकिन ये सारी बातें फिल्म का अलग हिस्सा हैं। फिल्म का मुख्य भाग कोर्ट रूम का परिसर और वहां होने वाला ड्रामा है और यह फिल्म भी साल 2013 में आई इस सीक्वल की पहली फिल्म 'जॉली एलएलबी' के आदर्शों पर चलती है। अब अक्षय कुमार की फिल्म है तो ऐक्शन तो होगा ही। लिहाजा कोर्टरूम के अंदर और बाहर फिल्म में अच्छे-खासे ऐक्शन सीन भी हैं। पुलिसवाले विलन बन जाते हैं और आतंकवादी अपना धर्म बदल लेते हैं। तो वहीं जॉली खुद भी कानपुर, लखनऊ और मनाली (जिसे कश्मीर दिखाने की कोशिश की गई है) की गलियों में गोलियां खाते और उनसे बचते हुए नजर आता है। ऐसा लगता है इंटरवल के बाद फिल्म कई जगहों पर रुक सी जाती है। फिल्म मेकर्स लखनऊ कोर्टरूम में जॉली और विपक्षी वकील प्रमोद माथुर (अनु कपूर), जज (सौरभ शुक्ला, हमेशा की तरह बेहतर) के बीच की कानूनी बहस में काफी अंदर तक उलझ जाते हैं। हालांकि, उनके बीच हो रही प्रभावशाली बहस आपको जानकारियों के साथ मनोरंजन भी कराएंगे, लेकिन कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जो वास्तविक नज़र नहीं आते। फिल्म में अक्षय के किरदार में अचानक बदलाव होता नज़र आता है। पहले तो उन्हें एक आम वकील की तरह पेश किया जाता है, जिसने भले कानूनी पोथियां न पढ़ी हो, लेकिन कोर्टरूम कॉरिडोर से टिप्स ले लेकर वह आज जॉली एलएलबी बन गया है। हुमा और अनु की ऐक्टिंग शानदार नज़र आ रही है। इन मंजे हुए कलाकारों की ऐक्टिंग ने इस फिल्म में जान डाल दी है। ",1 "बदलापुर में नवाजुद्दीन सिद्दकी ने इतना उम्दा अभिनय किया है कि वे फिल्म को नुकसान पहुंचा गए। हीरो, स्क्रिप्ट, निर्देशक पर तो वे भारी पड़े ही हैं, साथ ही खलनायक होने के बावजूद वे दर्शकों की सहानुभूति हीरो के साथ नहीं होने देते। दर्शक नवाजुद्दीन की अदायगी का कायल हो जाता है और फिल्म के हीरो के गम को वह महसूस नहीं करता जिसके बीवी और बच्चे को खलनायक ने मौत के घाट उतार दिया है। दृश्यों को चुराना क्या होता है वो नवाजुद्दीन के अभिनय से महसूस होता है। साधारण संवादों को भी उन्होंने इतना पैना बना दिया कि तालियां सुनने को मिलती हैं। काया उनकी ऐसी है कि जोर की हवा चले तो वे गिर पड़े, लेकिन उनके तेवर को देख डर लगता है। इन सबके बीच वे हंसाते भी हैं। बात की जाए 'बदलापुर' की, तो यह बदले पर आधारित मूवी है। बदले पर बनी फिल्मों की संख्या हजारों में है, लेकिन यह फिल्म इस विषय को नए अंदाज में पेश करती है। उम्दा प्रस्तुतिकरण की वजह से यह डार्क मूवी दर्शक को बांध कर रखती है। रघु (वरुण धवन) की पत्नी (यामी गौतम) और बेटा एक बैंक डकैती के दौरान मारे जाते हैं। रघु इस घटना से उबर नहीं पाता। इस डकैती में पुलिस लायक (नवाजुद्दीन सिद्दकी) को पकड़ लेती है और वह इस अपराध में अपने पार्टनर (विनय पाठक) का नाम पुलिस को नहीं बताता। लायक को 20 वर्ष की सजा होती है। बीमारी के कारण वह 15 वर्ष की सजा काट बाहर आ जाता है और रघु को बदला लेने का मौका मिलता है। श्रीराम राघवन ने साधारण कहानी को अपने निर्देशकीय कौशल से देखने लायक बनाया है। उन्होंने एक हसीना थी और जॉनी गद्दार जैसी उम्दा फिल्में बनाई हैं, लेकिन अब तक बड़ी सफलता उनसे दूर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे प्रतिभाशाली निर्देशक हैं। 'बदलापुर' के किरदारों की यह खूबी है कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है इसे पढ़ना आसान नहीं है। राघवन ने दर्शकों के सामने सारे कार्ड्स खोल दिए और इन कार्ड्स को किरदार कैसे खेलते हैं इसके जरिये रोमांच पैदा किया है। दर्शक को फिल्म से जोड़ने में निर्देशक ने सफलता पाई है और दर्शकों के दिमाग को उन्होंने व्यस्त रखता है। फिल्म देखते समय कई सवाल खड़े होते हैं और ज्यादातर के जवाब मिलते हैं। > > बदलापुर के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। खासतौर पर सेकंड हाफ में फिल्म थोड़ी बिखरती है और क्लाइमैक्स में फिल्म के विलेन के रूख में आया परिवर्तन हैरान करता है। दिव्या दत्ता का किरदार भी फिल्म में मिसफिट लगता है, लेकिन ये कमियां फिल्म देखने में बाधक नहीं बनती है। वरुण धवन ने लवर बॉय का चोला उतार फेंकने का साहस दिखाया है। एक बच्चे के पिता और फोर्टी प्लस का किरदार निभाने में उन्होंने हिचक नहीं दिखाई है। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय कमजोर भी रहा है, लेकिन उनके प्रयास में गंभीरता नजर आती है। यामी गौतम के लिए ज्यादा करने को नहीं था। हुमा कुरैशी का अभिनय अच्छा है। दिव्या दत्ता असर नहीं छोड़ पाती। पुलिस ऑफिसर के रूप में कुमुद मिश्रा प्रभावित करते हैं और उनका रोल फिल्म की अंतिम रीलों में कहानी में नया एंगल बनाता है। राधिका आप्टे का अभिनय जबरदस्त है। एक सीन में रघु उसे कपड़े उतारने को कहता है और इस सीन में उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। सचिन जिगर का संगीत बेहतरीन है। निर्देशक की तारीफ करना होगी कि उन्होंने गानों को फिल्म में बाधा नहीं बनने दिया। 'बदलापुर' की कहानी जरूर साधारण है, लेकिन बेहतरीन अभिनय और उम्दा निर्देशन फिल्म को देखने लायक बनाता है। बैनर : मैडॉक फिल्म्स, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : दिनेश विजान, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : श्रीराम राघवन संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : वरुण धवन, यामी गौतम, हुमा कुरैशी, नवाजुद्दीन सिद्दकी, दिव्या दत्ता, राधिका आप्टे सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 15 मिनट ",1 "बैनर : पेन इंडिया प्रा.लि., लोटस पिक्चर्स निर्माता : मोहम्मद असलम निर्देशक : अजय चंडोक संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : संजय दत्त, अमीषा पटेल, सुरेश मेनन, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, गुलशन ग्रोवर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए हास्य फिल्में बनाना आसान काम नहीं है, लेकिन अजय चंडोक जैसे निर्देशकों को इस बात पर यकीन नहीं है और वे कॉमेडी के नाम पर ट्रेजेडी बना देते हैं। ‘चतुर सिंह टू स्टार’ जैसी फिल्म देखते समय शायद ही किसी के चेहरे पर मुस्कान भी आए। निर्देशन, स्क्रिप्ट, एक्टिंग सभी घटिया स्तर की है। पता नहीं संजय दत्त ने ये फिल्म कैसे साइन कर ली। वर्षों से अटकी यह फिल्म रिलीज ही नहीं होती तो बेहतर होता। चतुर सिंह (संजय दत्त) एक मूर्ख पुलिस ऑफिसर है। कृषि मंत्री वाय.वाय. सिंह (गुलशन ग्रोवर) अस्पताल में भर्ती है और उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी चतुर सिंह और पप्पू (सुरेश मेनन) पर है। सोनिया (अमीषा पटेल) जो कि वाय.वाय. सिंह की सेक्रेटरी है के जीजा का अपहरण हो जाता है। अपहरणकर्ता उस पर दबाव डालते हैं कि वह मंत्री को अस्पताल की बालकनी में लाए ताकि वे उसे मार सके। ऐसा ही होता है। इसके बाद कहानी दक्षिण अफ्रीका में शिफ्ट हो जाती है और तमाम बेवकूफी भरी हरकतें होती हैं। जितनी घटिया कहानी है उतनी ही घटिया रूमी जाफरी की स्क्रिप्ट। पता नहीं किन दर्शकों को ध्यान में रखकर उन्होंने यह काम किया है। लॉजिक नाम की कोई चीज ही नहीं है। दिमाग घर पर रख कर आओ तो भी खीज पैदा होती है। कॉमेडी के नाम पर ऐसे दृश्य हैं कि हंसने के बजाय रोना आता है। तमाम मूर्खतापूर्ण हरकतें स्क्रीन पर लगातार होती रहती हैं। चतुर सिंह कभी जासूस बन जाता है तो कभी पुलिस ऑफिसर। वह अपने आपको जासूस क्यों कहता है, इसका कोई जवाब नहीं मिलता। ऐसे कई प्रश्न हैं जिनके जवाब नहीं मिलते। किसी तरह यह फिल्म पूरी की गई है क्योंकि दृश्यों को बिना कन्टीन्यूटी के जोड़ा गया है। पता नहीं अजय चंडोक जैसे लोगों को कैसे फिल्म निर्देशित करने को मिल जाती है। लगता ही नहीं कि इस फिल्म का कोई निर्देशक भी है। कॉमेडी करना संजय दत्त के बस की बात नहीं है। ये फिल्म उनके घटिया कामों में से एक है। जोकरनुमा हरकतें वे पूरी फिल्म में करते रहें। अमीषा पटेल निराश करती हैं। कहने को तो फिल्म में शक्ति कपूर, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, रति अग्निहोत्री, गुलशन ग्रोवर, संजय मिश्रा जैसे कलाकार हैं, लेकिन सबने किसी तरह काम निपटा दिया है। साजिद-वाजिद ने बेसुरी धुनें बनाई हैं। चतुर सिंह ‘टू स्टार’ सिर्फ ‘आधे स्टार’ के लायक है। ",0 "बैनर : रिलायंस एंटरटेनमेंट निर्देशक : रोहित शेट्टी संगीत : अजय-अतुल कलाकार : अजय देवगन, काजल अग्रवाल, प्रकाश राज, सोनाली कुलकर्णी, सचिन खेड़ेकर, अशोक सराफ सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 25 मिनट पिछले कुछ वर्षों में ग्रे-शेड और रियल लाइफ जैसे हीरो ने बॉलीवुड पर अपना कब्जा जमा लिया और व्हाइट तथा ब्लेक कलर वाले किरदार हाशिये पर आ गए। दर्शकों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिन्हें ऐसे हीरो पसंद है जो चुटकियों में बीस गुंडों को धूल चटा दे, लड़कियों को छेड़ने वाले को सबक सिखाए, बड़ों की इज्जत करे, रोमांस करने में शरमाए। ऐसे हीरो को पसंद करने वाले टीवी पर साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों को देख अपना मनोरंजन करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीवी पर दिखाई जाने वाली इन फिल्मों की टीआरपी में काफी इजाफा हुआ है। इस वाकिये और गजनी, दबंग, वांटेड और वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई की सफलता ने फिल्मकारों का ध्यान उन दर्शकों की पसंद की ओर खींचा है जो अस्सी के दौर के हीरो को अभी भी पसंद करते हैं, लिहाजा इस तरह की कई फिल्मों का निर्माण बॉलीवुड में चल रहा है। दक्षिण में अभी भी इन फिल्मों का चलन है इसलिए उन फिल्मों के रीमेक बॉलीवुड स्टार्स के साथ बनाए जा रहे हैं। ‘सिंघम’ तमिल में इसी नाम से बनी सुपरहिट फिल्म का हिंदी रिमेक है। शुरुआत के चंद मिनटों बाद ही पता चल जाता है कि इस फिल्म का अंत कैसा होगा, लेकिन बीच का जो सफर है वो फिल्म को मनोरंजन के ऊँचे स्तर पर ले जाता है। तालियों और सीटियों के बीच गुंडों की पिटाई देखना अच्छा लगता है। बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) शिवगढ़ का रहने वाला है और वहीं पर पुलिस इंसपेक्टर है। गांव वालों का वह लाड़ला है क्योंकि हर किसी को वह न्याय दिलाता है। उसका रास्ता जयकांत शिक्रे (प्रकाश राज) से टकराता है, जिसका गोआ में दबदबा है। जयकांत राजनीति में इसीलिए आया है ताकि पॉवर के सहारे वह मनमानी कर सके। जब शिवगढ़ में उसकी नहीं चलती है तो वह सिंघम का ट्रांसफर गोआ में उसे सबक सिखाने के लिए करवा देता है। गोआ जाकर सिंघम को समझ में आता है कि जयकांत कितना शक्तिशाली है। नेता, अफसर और पुलिस के बड़े अधिकारी या तो उसके लिए काम करते हैं या फिर डरते हैं। कानून की हद में रहकर अन्य पुलिस वालों के साथ सिंघम किस तरह जयकांत का साम्राज्य ध्वस्त करता है, यह फिल्म में ड्रामेटिक, इमोशन और एक्शन के सहारे दिखाया गया है। युनूस सजवाल की लिखी स्क्रिप्ट में वे सारे मसाले मौजूद हैं जो आम दर्शकों को लुभाते हैं। हर मसाला सही मात्रा में है, जिससे फिल्म देखने में आनंद आता है। बाजीराव सिंघम में बुराई ढूंढे नहीं मिलती तो जयकांत में अच्छाई। इन दोनों की टकराहट को स्क्रीन पर शानदार तरीके से पेश किया गया है। फिल्म इतनी तेज गति से चलती है कि दर्शकों को सोचने का अवसर नहीं मिलता है। लगभग हर सीन अपना असर छोड़ता है, जिसमें से जयकांत का भाषण देते वक्त सामने खड़े सिंघम को देख हकलाना, सिंघम और जयकांत की पहली भिड़त, पुलिस वालों की पार्टी में जाकर सिंघम का उन्हें झकझोरना, जयकांत को कैसे मारा जाए इसकी योजना जयकांत के सामने बनाना, हवलदार बने अशोक सराफ का ये बताना कि कितने कम पैसों में पुलिस वाले दिन-रात ड्यूटी निभाते हैं, सिनेमाघर के सामने काव्या को छेड़ने वालों की पिटाई करने वाले सीन उल्लेखनीय हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स भी दमदार है। एक्शन सीन में मद्रासी टच है और देखने में रोमांच पैदा होता है। ‘जिसमें है दम वो है फक्त बाजीराव सिंघम’ तथा ‘कुत्तों का कितना ही बड़ा झुंड हो, उनके लिए एक शेर काफी है’, जैसे संवाद बीच-बीच में आकर फिल्म का टेम्पो बनाए रखते हैं। कई संवाद मराठी में भी हैं ताकि लोकल फ्लेवर बना रहे, लेकिन ये संवाद किसी भी तरह से फिल्म समझने में बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं। निर्देशक रोहित शेट्टी ने नाटकीयता को फिल्म में हावी होने दिया है और इससे फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू बढ़ी है। एक्शन, रोमांस और इमोशन दृश्यों का क्रम सटीक बैठा है और इसके लिए फिल्म के एडिटर स्टीवन एच. बर्नाड भी तारीफ के योग्य हैं। एक सीधी-सादी और कई बार देखी गई कहानी को रोहित ने अपने प्रस्तुतिकरण से देखने लायक बनाया है। फिल्म मुख्यत: दो किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, इसके बावजूद बोरियत नहीं फटकती है। बाजीराव सिंघम के सिद्धांत, ईमानदारी, गुस्से को अजय देवगन ने अपने अभिनय से धार प्रदान की है। उनके द्वारा बनाई गई बॉडी किरदार का प्लस पाइंट लगती है। वे जब गुर्राते हैं तो लगता है कि सचमुच में एक सिंह दहाड़ रहा है। हीरो जब ज्यादा दमदार लगता है जब विलेन टक्कर का हो। प्रकाश राज एक बेहतरीन अभिनेता है और ‘सिंघम’ इस बात का एक और सबूत है। उन्होंने अपने किरदार को कॉमिक टच दिया है और कई दृश्यों को अपने दम पर उठाया है। काजल अग्रवाल के हिस्से कम काम था, लेकिन वे आत्मविश्वास से भरपूर हैं और अच्छी एक्टिंग करना जानती हैं। इनके अलावा मराठी फिल्म इंडस्ट्री के कई नामी कलाकार भी फिल्म में हैं। संगीत फिल्म का माइनस पाइंट है। एकाध गाने को छोड़ दिया जाए तो बाकी सिर्फ खानापूर्ति के लिए रखे गए हैं। यदि दो-तीन हिट गाने होते तो फिल्म का व्यवसाय और बढ़ सकता था। ‘सिंघम’ ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बाद लगता है कि पैसे वसूल हो गए। ",1 "कहानी: जैसा कि हम जानते हैं कि अमरेंद्र बाहुबली (प्रभास) और भल्लाल देव (राणा दग्गुबाती) चचेरे भाई हैं, लेकिन दोनों का लालन-पोषण एक ही मां शिवगामी देवी (रमैया कृष्णन) ने किया है। रानी शिवगामी देवी महिष्मति का शासन भी संभालती हैं। शिवकामी भले ही भल्लाल देव की सगी मां है, लेकिन चाहती है कि महिष्मति का राजा अमरेंद्र बाहुबली ही बने जो मां-पिता की मौत के बाद अनाथ हो चुका है। शिवगामी देवी को लगता है कि बाहुबली में अच्छे शासक बनने के सारे गुण हैं। रानी को लगता है कि बाहुबली दयालु है, जबकि उनका अपना बेटा भल्लाल देव निर्दयी है। इसी के बाद कहानी में मोड़ आता है। भल्लाल अपने पिता के साथ मिलकर बाहुबली को उखाड़ फेंकने की साजिश करता है। दोनों इस साजिश में कटप्पा (सत्यराज) और शिवगामी को मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के मुख्य सिनेमाघरों में 'बाहुबली 2' के शुरुआती शो रद्द रिव्यू: यह फिल्म भले ही बाहुबली 1 का सीक्वल है लेकिन इसकी कहानी पहले हिस्से के प्रीक्वल जैसी ही ज्यादा है। आगे की काफी कहानी पहले हिस्से में बताई जा चुकी है। इस फिल्म में महेंद्र बाहुबली को अपने पिता के बारे में पता चलता है, जो महिष्मति के राजा बनने वाले थे। इसके बाद कहानी अमरेंद्र बाहुबली और देवसेना (अनुष्का शेट्टी) की प्रेम कथा के इर्द-गिर्द घूमती है। देवसेना ही महेंद्र बाहुबली की मां है, जो पहली फिल्म में हमेशा बेड़ियों में बंधी दिखी हैं। कहानी साधारण है जिसमें अंत में बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। फिल्म में साजिश के कुछ बचकाने प्लॉट हैं और क्लाइमैक्स थोड़ा लंबा है। इसकी ड्यूरेशन को करीब 10 मिनट तक कम किया जा सकता था। 'बाहुबली 2' पब्लिक रिव्यू: ऐक्टिंग, स्क्रीनप्ले से लेकर विजुअल इफेक्ट्स को बताया शानदार The day is finally here, get ready to enter the world of #Baahubali2! @BaahubaliMovie @ssrajamouli @Shobu_ @karanjohar @apoorvamehta18 pic.twitter.com/JenpNHezbT — Dharma Productions (@DharmaMovies) April 28, 2017 लेकिन इस फिल्म में दिमाग मत लगाइए। सिर्फ इसका आनंद लीजिए। फिल्म के दृश्य इतने खूबसूरत हैं कि आप देखते रह जाएं। पार्ट-2 द कन्क्लूज़न पहले पार्ट की लेगसी को अपने कंधों पर कैरी करती है और हीरोइजम का दर्जा काफी बढ़ा देती है। बाहुबली को ताकत और हिम्मत के सिम्बल के रूप में गढ़ा गया है इसलिए आप उस कैरक्टर को उसी तरह से देखना चाहते हैं। प्रभास ने पिता और पुत्र दोनों की भूमिकाओं को बहुत अच्छे से निभाया है। खास बात यह, कि यह पार्ट उस सवाल का जवाब आखिरकार दे देगा जो सबको सालभर से परेशान किए हुए है। यानी 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?' Long queues at ticket counters in Hyderabad as #Bahubali2 released today pic.twitter.com/8iJ5zlnGDu — ANI (@ANI_news) April 28, 2017 'बाहुबली 2' का टिकट पाने के लिए लगी 3 किलोमीटर लंबी लाइन भारतीय सिनेमा प्रेमियों को राजामौली को उनके विज़न और लक्ष्य के लिए उन्हें जरूर सल्यूट करना चाहिए। एक बार फिर से उन्होंने 'बेन-हर' और 'टेन कमांडेंट्स' की याद को ताजा कर दिया है। जी हां, फिल्म में CGI और VF के इस्तेमाल से क्रिएट किए गए सीन आपको अपनी सीट से बांधकर रखने की ताकत रखते हैं और बाहुबली भी आपको इमोशनल उतार-चढ़ाव में कैद कर पाने में सफल होता है। देवसेना और अमरेंद्र के बीच रोमांस के सीन काफी भव्यता के साथ फिल्माए गए हैं। बाकी किरदारों का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक है। हॉलिवुड ऐक्शन डायरेक्टर पीटर हिन की मेहनत फिल्म में प्रभास के ऐक्शन में नज़र आ रही है और यही इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। ",1 "हिंदी फिल्मों में शत-प्रतिशत सफलता का रिकॉर्ड रखने वाले निर्देशक प्रभुदेवा की ताजा फिल्म 'एक्शन जैक्सन' उनकी सबसे कमजोर फिल्म है। ऐसा लगता है कि बिना किसी तैयारी के उन्होंने यह फिल्म महज पैसों के लिए बनाई है। निर्माता से पैसा लिया और अगले दिन से शूटिंग शुरू। जो मन में आया बना डाला। प्रभुदेवा ने राउडी राठौर और वांटेड के रूप में दो बेहतरीन मसाला फिल्म बनाई हैं, लेकिन 'एक्शन जैक्सन' मसाला फिल्मों की परिभाषा पर भी खरी नहीं उतरती। सी-ग्रेड मूवी की तरह है 'एक्शन जैक्सन' जिससे प्रभुदेवा, अजय देवगन, सोनाक्षी सिन्हा जैसे ए-ग्रेड के स्टार और निर्देशक जुड़े हुए हैं। फिल्म में बेहूदा बातों से मनोरंजन करने की कोशिश की गई है। मसलन, अपने आपको बदकिस्मत मानने वाली लड़की को लगता है कि वह फलां लड़के को नग्न देख लेती है तो उसकी किस्मत बदलने लगती है, लिहाजा वह उस लड़के को नग्न देखने के लिए ही उसके आसपास घूमती रहती है। अब बताइए, इस तरह तरह की बातों से भला कैसे मनोरंजन हो सकता है। तरस आता है फिल्म के लेखक और निर्देशक की बुद्धि पर। कहानी है विशी (अजय देवगन) नामक एक छोटे-मोटे बदमाश की। अचानक उसके पीछे पुलिस और एक इंटरनेशनल डॉन जेवियर (आनंद राज) पड़ जाते हैं। उसे समझ में नहीं आता है कि आखिर हो क्या रहा है। माजरा समझ में आने के बाद इस स्थिति से निपटने के लिए वह जेवियर से मिलने बैंकॉक जाता है। इस बचकानी सी कहानी पर निर्माताओं ने करोड़ों रुपये लगा दिए क्योंकि उन्हें प्रभुदेवा के ‍प्रस्तुतिकरण पर विश्वास था। प्रभुदेवा की फिल्मों की कहानी बेहद साधारण होती है, लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण इतना मनोरंजक होता है कि दर्शक खुश हो जाते हैं। 'एक्शन जैक्सन' में प्रभुदेवा का प्रस्तुतिकरण बेहद लचर है। उन्होंने सारा काम वीएफएक्स और ‍एडीटर के जिम्मे छोड़ दिया है, जिन्होंने फिल्म की वाट लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। फिल्म में इतने कट लगाए गए हैं कि आंखों में दर्द होने लगता है। फिल्म में रंगों को इतना चटक किया गया है कि आंखें चौंधियाने लगती है। एक्श न जैक्सन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की स्क्रिप्ट एकदम लचर है। शुरुआत के पन्द्रह-बीस मिनट में ही समझ में आ जाता है कि आगामी कुछ घंटे परेशानी में गुजरेंगे। विशी के पीछे पुलिस और डॉन क्यों लगे हैं इस बात पर रहस्य का पर्दा इतने लंबे समय तक डाला है कि इंटरवल हो जाता है। तब तक बकवास दृश्यों के सहारे फिल्म को खींचा गया है। कॉमेडी ट्रेक न हंसाता है और न ही रोमांटिक ट्रेक दिल को छूता है। हीरो-हीरोइन का जब मूड होता है तो वे नाचने के लिए विदेश चले जाते हैं। फिल्म में हर बात को जबरन थोपा गया है चाहे वो डांस हो, एक्शन सीन हो या संवाद। कही से भी कुछ भी टपक पड़ता है। बैकग्राउंड म्युजिक इतना तेज है कि सर दर्द की शिकायत हो सकती है। अजय देवगन आउट ऑफ फॉर्म नजर आए। डांस करते समय असहजता उनके चेहरे पर नजर आती है और उनके इस फिल्म के चयन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। सोनाक्षी सिन्हा तो आधी फिल्म से ऐसे गायब हो जाती हैं कि दर्शक भूल जाते हैं कि वे इस फिल्म में हैं। करने के लिए उनके पास इस फिल्म में कुछ भी नहीं था। यामी गौतम निराश करती हैं। मनस्वी ममगई ने निगेटिव किरदार सेक्स अपील के साथ पेश किया है। आनंदराज खलनायक के रूप में डराने में नाकामयाब रहे। कुणाल राय कपूर ने जरूर थोड़ा-बहुत हंसने का अवसर दिया है। फिल्म का तकनीकी पक्ष भी बेहद लचर है। फिल्म के एक-दो गाने ठीक है बाकी दर्शकों को ब्रेक देने का काम करते हैं। एक भी ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए 'एक्शन जैक्सन' का टिकट खरीदा जाए। बैनर : बाबा फिल्म्स, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : गोर्धन तनवानी, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : प्रभुदेवा संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : अजय देवगन, सोनाक्षी सिन्हा, यामी गौतम, कुणाल रॉय कपूर, मनस्वी ममगई, आनंद राज, शाहिद कपूर (अतिथि कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 24 मिनट 39 सेकण्ड ",0 "देओल्स के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे समय के हिसाब से बदलने को तैयार ही नहीं हैं। वे अपनी परछाई से ही बाहर नहीं निकलना चाहते हैं जबकि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा और उसके दर्शक बहुत बदल गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में भी उनको लेकर सही फिल्में नहीं बन पा रही है। सात वर्ष पहले धर्मेन्द्र, सनी देओल और बॉबी देओल को लेकर 'यमला पगला दीवाना' नामक हास्य फिल्म बनी थी जो पसंद की गई थी। बस, देओल्स को लगा कि उनके हाथ सफलता का फॉर्मूला लग गया है और उसे उन्होंने दोबारा और तिबारा आजमाया। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस सीरिज की दूसरी फिल्म असफल रही थी इसके बावजूद उन्होंने तीसरी कड़ी बनाई। यहां तक भी ठीक है, लेकिन गलतियों से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा और 'यमला पगला दीवाना फिर से' को देख घोर निराशा होती है। पैसा, समय, मेहनत सब व्यर्थ हो गया। पूरन (सनी देओल) एक वैद्य है जो अपने निकम्मे भाई काला (बॉबी देओल) के साथ अमृतसर में रहता है। परमार (धर्मेन्द्र) एक वकील है और पूरन का किराएदार है। पूरन द्वारा बनाई गई 'वज्रकवच' एक ऐसी आयुर्वेदिक दवाई है जिससे सभी स्वस्थ रहते हैं। मारफतिया (मोहन कपूर) सूरत में एक दवाई कंपनी चलाता है और वह वज्रकवच का फॉर्मूला हासिल कर करोड़ों रुपये कमाना चाहता है। वह पूरन को फॉर्मूला बेचने के करोड़ों रुपये ऑफर करता है, लेकिन पूरन नहीं मानता। चीकू (कृति खरबंदा) नामक लड़की को मारफतिया, पूरन के पास आयुर्वेद सीखने को भेजता है। इस दौरान चीकू उस फॉर्मूले को चुरा लेती है। मारफतिया वज्रकवच को रजिस्टर्ड करवा लेता है और पूरन को नोटिस भेजता है कि वह उसकी दवाई का गलत उपयोग कर रहा है। पूरन, काला और परमार गुजरात जाकर उसके खिलाफ मुकदमा लड़ते हैं। धीरज रतन नामक शख्स ने यह बचकानी कहानी लिखी है जिसे बच्चे भी पसंद नहीं करे। खास बात तो धीरज के इस टैलेंट में है कि उनकी कहानी पर करोड़ों रुपये लगाने वाले तैयार हो गए। 'चूज़ी' कलाकार इस पर काम करने को तैयार हो गए और 'यमला पगला दीवाना फिर से' नामक फिल्म बनकर रिलीज भी हो गई। किसी ने भी इस घटिया कहानी पर सवाल नहीं उठाए? कॉमेडी के नाम पर इस घटिया कहानी को बर्दाश्त किया जा सकता है यदि स्क्रीनप्ले ढंग का हो। हंसने लगाने की गुंजाइश हो। लेकिन स्क्रीनप्ले भी कमजोर है। काला का रोजाना रात को दस बजे दारू पीकर बहक जाना, परमारको अप्सरा नजर आना, परमारका पुराने हिट गाने सुनना, जैसे सीन पहली बार हंसाते हैं, लेकिन यही सीन फिल्म में बार-बार दोहराए जाते हैं तो खीज पैदा होती है। ऐसा महसूस होता है कि राइटर्स का खजाना बहुत जल्दी खाली हो गया और उसके पास अब देने को कुछ नहीं है। पंजाब से फिल्म गुजरात शिफ्ट होती है तो दर्शकों का धैर्य जवाब देने लगता है। अदालत में जो हास्य पैदा करने की कोशिश की है उसे देख फिल्म से जुड़े लोगों की अक्ल पर तरस आता है। आखिर वे क्या दिखाना चाहते हैं? आखिर वे कैसे मान सकते हैं कि इस तरह के सीन/संवाद से दर्शक हंसेंगे? नवनीत सिंह निर्देशक के रूप में बुरी तरह असफल रहे। उनके द्वारा फिल्माए गए दृश्य बेहद लंबे और उबाऊ हैं। एक घटिया से टीवी सीरियल जैसा उन्होंने फिल्म को बनाया है। दर्शकों को वे फिल्म से बिलकुल भी नहीं जोड़ पाए। सलमान खान जैसे सुपरस्टार तक का वे ठीक से उपयोग नहीं कर पाए। सनी देओल इस फिल्म के सबसे बड़े सितारे हैं, लेकिन उन्हें फिल्म में कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। लोग सनी को देखने के लिए आए थे और उनसे ज्यादा फुटेज बॉबी पर खर्च किया गया। फाइट सीन सनी की यूएसपी है और सनी की इस खासियत को भी उभारा नहीं गया है। धर्मेन्द्र को इस तरह के बचकाने रोल से बचना चाहिए। बॉबी देओल ने रोमांस किया, गाने गाए और कॉमेडी के नाम पर तरह-तरह के चेहरे बनाए। कृति खरबंदा ठीक-ठाक रहीं। सतीश कौशिक, शत्रुघ्न सिन्हा के रोल नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। सिनेमाटोग्राफी में कोई खास बात नहीं है। गाने 'ब्रेक' का काम करते हैं। संपादन बेहद ढीला है। कम से कम आधा घंटा फिल्म को कम किया जा सकता था। उम्मीद की जानी चाहिए कि 'यमला पगला दीवाना' सीरिज का यहीं 'द एंड' हो जाएगा और देओल्स कुछ नया सोचेंगे। बैनर : पेन इंडिया लि., सनी साउंड्स प्रा.लि., इंटरकट एंटरटेनमेंट निर्माता : कामायनी पुनिया शर्मा, गिन्नी खनूजा, आरूषी मल्होत्रा, धवल जयंतीलाल गढ़ा, अक्षय जयंतीलाल गढ़ा निर्देशक : नवनीत सिंह संगीत : संजीव-दर्शन, सचेत-परम्परा, विशाल मिश्रा, डी सोल्जर कलाकार : धर्मेन्द्र, सनी देओल, बॉबी देओल, कृति खरबंदा, असरानी, सतीश कौशिक, राजेश शर्मा, मेहमान कलाकार- सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, रेखा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए ",0 "अगर रणबीर कपूर की बॉक्स ऑफिस पर पिछली सुपरहिट फिल्म का नाम याद करें तो करण जौहर के बैनर तले बनी ये जवानी है दीवानी ही उनकी पिछली सुपरहिट फिल्म थी। लंबे अर्से से एक अदद हिट को तरस रहे रणबीर कपूर की हिट की तलाश शायद इसबार फिर करण जौहर के बैनर से ही पूरी हो जाए। बतौर डायरेक्टर स्टूडेंट ऑफ द ईयर के बाद करण ने दोबारा डायरेक्शन की कमान संभाली तो एक बार फिर उन्होंने इमोशन और म्यूजिक का सहारा लेकर फिल्म बनाई। बेशक फिल्म को रिलीज से पहले सेंसर और पाक कलाकारों को लेकर उठे विवादों का सामना करना पड़ा लेकिन इसका सीधा फायदा आज फिल्म की रिलीज के दिन बॉक्स ऑफिस पर नजर आया। फिल्म को कई सिंगल स्क्रीन थिएटरों में 80 से 90 फीसदी की ओपनिंग मिली तो नॉर्थ इंडिया के मल्टिप्लेक्सों में पचास से सत्तर फीसदी तक ऑक्यूपेंसी मिली। करण ने इस फिल्म पर करीब 85 करोड़ से ज्यादा का बजट लगाया। ऐसे में ढाई हजार से ज्यादा स्क्रीन पर रिलीज हुई यह फिल्म अगर अगले 5 दिन करीब 60 से 70 फीसदी की ऑक्यूपेंसी करती है तो फिल्म प्रॉफिट में आ जाएगी। रिलीज से पहले मीडिया में रणबीर कपूर और ऐश्वर्या रॉय बच्चन के अंतरंग सीन्स को लेकर बहुत अटकले लगाई जा रही थीं, लेकिन अब फिल्म देखने के बाद लगता है सेंसर ने इनमें से ज्यादातर सीन्स पर अपनी कैंची चला दी है। पाक ऐक्टर फवाद खान की वजह से विवादों में रहने की वजह से फिल्म का यंगस्टर्स में क्रेज इस कद्र बढ़ा कि बॉक्स ऑफिस पर यंगस्टर्स का जमघट नजर आया। कहानी: अयान (रणबीर कपूर) बेशक अच्छा नहीं गाता लेकिन उसका सपना मोहम्मद रफी जैसा नामी सिंगर बनना है। अपने पापा के डर से अयान ने सिंगर बनने का सपना दिल में दबाकर लंदन में एमबीए की स्टडी कर रहा है। बिंदास टाइप की अपनी अलग दुनिया में रहने वाली अलीजा के बॉयफ्रेंड डॉक्टर अब्बास (इमरान अब्बास) का मिजाज अलीजा के ठीक उलट है। उसे डांस, पार्टीबाजी पसंद नहीं है। इसी बीच एक दिन अयान और अलीजा मिलते हैं और उन्हें लगता है जिनके साथ वह दोनों डेटिंग कर रहे हैं वह उन जैसे बिल्कुल हैं। सो अलीजा अपने बॉयफ्रेंड और अयान अपनी लवर को छोड़कर मौजमस्ती करने पैरिस निकलते हैं। पैरिस में अयान को अहसास होता है कि वह अलीजा से बेइंतहा प्यार करता है, लेकिन अलीजा अयान को अपने दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं समझती। देखिए, आपको दीवाना बना देंगी ऐश्वर्या और रणबीर की ये हॉट तस्वीरेंअलीजा का कुछ अर्सा पहले डीजे अली (फवाद खान) के साथ ब्रेकअप हो चुका है। ऐसे में ब्रेकअप के सदमे से उभरने के लिए अलीजा अपना ज्यादा वक्त अयान के साथ गुजारती है। अचानक एक दिन अली फिर अलीजा की जिंदगी में लौट आता है। अलीजा अब अयान को छोड़ अली के साथ उसके शहर लखनऊ जाकर उससे निकाह कर लेती है। यहीं कहानी में सबा खान (ऐश्वर्या राय बच्चन) की एंट्री होती हैं जो शेरोशायरी करती है। सबा बेइंतहा खूबसूरत है। अयान भी अब अच्छा सिंगर बन चुका है। सबा की एंट्री के बाद कहानी में ऐसा टर्निंग पॉइंट आता है जो दर्शकों को झकझोर देता है।रणबीर-अनुष्का के किसिंग सीन पर चली सेंसर की कैंचीऐक्टिंग: पूरी फिल्म रणबीर कपूर और अनुष्का शर्मा के इर्दगिर्द घूमती है। रॉक स्टार के बाद रणबीर इस फिल्म में एकबार फिर सिंगर और लवर के रोल में हैं। अयान के किरदार में यकीनन रणबीर ने अच्छी ऐक्टिंग की है। वहीं बिंदास अलीजा के किरदार को अनुष्का शर्मा ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। इंटरवल से पहले और बाद अनुष्का टोटली डिफरेंट शेड में नजर आई और अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के दम पर छा गई। फवाद खान और ऐश्वर्या को बेशक ज्यादा फुटेज नहीं मिली, लेकिन इन दोनों ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। शाहरूख खान और आलिया भट्ट की फिल्म में सरप्राइज एंट्री है जो दर्शकों के बीच एनर्जी लाती है। निर्देशन: अगर बतौर डायरेक्टर करण जौहर की बात की जाए तो स्टूडेंट ऑफ द ईयर के करीब चार साल बाद एकबार फिर उन्होंने निर्देशन की कमान संभाली है। म्यूजिकल और इमोशनल सीन्स को फिल्माने में करण की गजब मास्टरी है। इंटरवल से पहले जहां उन्होंने फिल्म में मौज मस्ती का ऐसा पुट रखा जो यंगस्टर्स की कसौटी पर सौ फीसदी खरा उतरता है तो वहीं इंटरवल के बाद करण ने इमोनश का तड़का लगाया है, स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक करण ने फिल्म की शूटिंग लंदन, पैरिस, ऑस्ट्रिया में भी की। इंटरवल से बाद फिल्म की रफ्तार कुछ थम जाती है, लेकिन करण ने सुरीले म्यूजिक और खूबसूरत लोकेशन का सहारा फिल्म को कहीं कमजोर नहीं होने दिया।पढ़ें: ऐश्वर्या-रणबीर के इंटीमेट सीन पर पड़ ही गई सेंसर बोर्ड की नज़र पढ़ें: अनुष्का ने 'ऐ दिल है मुश्किल' के लिए पहना 17 किलो का लहंगासंगीत: रिलीज से पहले ही इस फिल्म के कई गाने म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके है, करण ने इन गानों को पूरी भव्यता के साथ ऐसे ढंग से फिल्माया हैं जो यंगस्टर्स की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरते है। बुलया, ब्रेकअप और टाइटिल सॉन्ग ए दिल है मुश्किल पहले से यंगस्टर्स की जुबां पर है। वहीं करण ने फिल्म में सत्तर-अस्सी के दशक के कई सुपरहिट गानों को फिल्म में अलग ढंग से फिल्माया है। क्यों देखें : अगर आप रणबीर कपूर और अनुष्का के फैन हैं तो अपने पसंदीदा इन दोनों स्टार्स की बेहतरीन परफार्मेंस को देखने और सुरीले संगीत का आनंद लेने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। बेहद खूबसूरत विदेशी लोकेशन और सुरीला संगीत फिल्म की एक और यूएसपी है। मुंबई पुलिस से करण जौहर की फिल्म को सुरक्षा मिलना 'मुश्किल' वर्जिन करण जौहर पर रणबीर ने किया यह खुलासा! 'ऐ दिल है मुश्किल' का विरोध जारी रखेगी MNS",0 "उड़नतश्तरी और एलियन हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। यही वजह है कि हॉलिवुडवाले इस विषय पर ढेरों फिल्में बनाते रहते हैं। फिल्म 'प्रेडेटर' सीरीज की चौथी फिल्म 'द प्रेडेटर' भी उड़नतश्तरी और एलियन की ही कहानी है। हालांकि इस बार इन खतरनाक एलियंस का मिशन कुछ और है। फिल्म की कहानी की शुरुआत में एक मिलिट्री स्नाइपर अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन पर है। तभी वहां पर एक उड़नतश्तरी उतरती है और वह उसमें से उतरने वाला जीव (प्रेडेटर) उसके साथियों को मार देता है। अपनी जान बचाने के लिए स्नाइपर उसे मार गिराता है। अपनी सुरक्षा के लिए वह स्नाइपर उस खतरनाक जीव के मुंह और हाथ का कवच अपने घर भेज देता है। वहां गलती से उसका बेटा उस कवच को एक्टिव कर देता है। उसके बाद उसकी खोज में दूसरा बेहद खतरनाक प्रेडेटर आ पहुंचता है। इसके बाद शुरू होती है मनुष्यों और प्रेडेटर के बीच की खौफनाक जंग। इस जंग में कौन जीतता है? और क्या है प्रेडेटर्स का खतरनाक मंसूबा? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। इस फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट दिया गया है, क्योंकि इसमें जबर्दस्त हिंसक सीन दिखाए गए हैं। खासकर प्रेडेटर लोगों को बेहद बेरहमी से मारता है। हालांकि बेहद खतरनाक प्रेडेटर की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह तभी हमला करता है, जबकि आप उस पर हमला करते हो। अगर आप निहत्थे हो, तो वह आप पर हमला नहीं करता। दो घंटे से भी कम टाइम में फिल्म प्रेडेटर आपको कहीं भी स्क्रीन से नजर हटाने का मौका नहीं देती। इंटरवल से पहले फिल्म आपको चीजों से रूबरू कराती है और दूसरे हाफ में प्रेडेटर के और नजदीक ले जाती है। डायरेक्टर शेन ब्लैक ने बेहतरीन स्क्रिप्ट पर अच्छी फिल्म बनाई है, जोकि ऐक्शन और अडवेंचर के शौकीनों को बेहद पसंद आएगी। फिल्म में खतरनाक उड़न तश्तरियां और खतरनाक एलियंस यानी कि प्रेडेटर दिखाए गए हैं जो कि दर्शकों को रोमांच से भर देते हैं। खासकर क्लाइमैक्स में इंसानों और प्रेडेटर के बीच जोरदार जंग दिखाई गई है। वहीं फिल्म मंदबुद्धि माने जाने वाले लोगों के प्रति भी एक अलग नजरिया देती है कि मंदबुद्धि लोगों में कई बार ऐसी क्वॉलिटी हो सकती हैं जो कि अपने आपको होशियार समझने वालों की जान बचाने में भी काम आ सकती है। हिंदी में डब फिल्म में हिंदीभाषी दर्शकों के लिए बढ़िया कॉमिडी से भरपूर डबिंग भी की गई है। अगर आपको एलियंस और उड़नतश्तरियों से जुड़ी साइंस फिल्में देखना पसंद है, तो आपको यह फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए। वहीं प्रेडेटर सीरीज की फिल्मों के फैंस तो इस फिल्म को कतई मिस नहीं करना चाहेंगे।",0 "करीब बारह साल पहले पूरब कोहली के साथ होमोसेक्शुअलिटी पर 'माय ब्रदर निखिल' बना चुके डायरेक्टर ओनिर बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्में बनाने वाले मेकर्स की लिस्ट में शामिल नहीं सके और इसकी खास वजह फिल्में बनाने को लेकर उनका अपना नजरिया है। ओनिर को दूसरों से अलग किस्म की ऐसी फिल्में बनाने का हमेशा जुनून रहता है जो रिऐलिटी के करीब होती है। 'शब' भी रियल इंसिडेंट से इंस्पायर ऐसी फिल्म है जिसकी स्क्रिप्ट पर करीब सत्रह साल पहले काम शुरू किया और अपनी इस स्क्रिप्ट को सबसे पहले रवीना टंडन को सुनाया। रवीना को स्क्रिप्ट पसंद आई और रवीना ने तभी इस फिल्म में काम करने की ख्वाहिश जता दी। हालात ऐसे बने कि रवीना इस बीच दूसरे प्रॉजेक्ट में बिज़ी हुईं और फिर उनकी शादी भी हो गई। इसी बीच ओनिर ने कई और फिल्में बनाई, लेकिन 'शब' पर काम करने की प्लानिंग में लगे रहे। सत्रह साल पहले कहानी का बैकग्राउंड मुंबई था, लेकिन अब फिल्म की कहानी और किरदार मुंबई की बजाए दिल्ली से दिखाए गए। ओनिर को सेंसर से फिल्म क्लियर कराने के लिए जद्दोहद करनी पड़ी, सेंसर की कैंची चलने के बाद फिल्म को अडल्ट सर्टिफिकेट मिला। ओनिर ने अपनी इस फिल्म को सच के और नजदीक लाने के मकसद से साउथ दिल्ली में कई दिन गुजारे तो फिल्म की सत्तर फीसदी से ज्यादा शूटिंग भी दिल्ली में की इतना ही नहीं फिल्म की कहानी को भी दिल्ली के बदलते मौसम की तरह पेश किया। प्लॉट : फिल्म की कहानी मोहन और अफजर (आशीष बिष्ट) के आसपास घूमती है, मोहन हैंडसम है, खुद की नजरों में खूबसूरत और स्मार्ट भी है। कुमाऊं के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले मोहन पर मॉडल बनने का जुनून है। मोहन को लगता है कि वह ग्लैमर वर्ल्ड के लिए पूरी तरह से फिट है और उसे मॉडिलंग की फील्ड में अपनी पहचान बनानी होगी। ग्लैमर वर्ल्ड में एंट्री का यहीं चकाचौंध सपना उसे दिल्ली ले आता है। यहां एक मॉडल टैलंट हंट में वह ग्लैमर सोशल, मॉडलिंग और फैशन से जुडी कई नामचीन हस्तियों दवारा लिए गए इंटरव्यू के दौरान फेल हो जाता है, लेकिन कॉन्टेस्ट की एक जज और शहर के एक नामी रईस की खूबसूरत वाइफ और सोशल फील्ड में ऐक्टिव सोनल ( रवीना टंडन) का दिल मोहन पर आ जाता है। सोनल अब मोहन को यूज करना चाहती है, मोहन को मॉर्डन सोसायटी का हिस्सा बनाने के लिए सोनल उसे अपना ट्रेनर बना लेती है, लेकिन मोहन का असली काम सोनल की सभी जरूरतों को पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं है। सोनल के रूम में मोहन का जैसा भी रिश्ता हो लेकिन पब्लिक लाइफ में उसे सोनल को मैडम ही बुलाना होता है। इस कहानी के साथ फिल्म में कुछ और किरदारों की कहानियां भी है। रैना (अर्पिता चटर्जी) मसूरी से अपनी छोटी बहन अनुपमा के साथ दिल्ली शिफ्ट हुई है। अनुपमा मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ती है। स्कूल की छुट्टियां है सो अनु भी अपनी बहन के साथ दिल्ली आई हुई है। अर्पिता एक नामी रेस्ट्रॉन्ट में काम करती है और अपने फ्लैट के सामने रहने वाले एक पड़ोसी को चाहती है और उसके साथ अपनी नई दुनिया बनाना चाहती है। एक रेस्ट्रॉन्ट का मालिक भी इस फिल्म का अहम किरदार है जो गे है और उसे अपनी अलग इसी दुनिया में रहना पंसद है। डायरेक्टर ओनिर ने अंत तक अपनी स्क्रिप्ट को ईमानदारी के साथ काम किया है, सभी अहम किरदारों को उन्होनें कहानी के मुताबिक ठीक-ठाक फुटेज दी है। फिल्म दो किरदारों सोनल और मोहन के इर्द-गिर्द घूमती है। इन किरदारों में रवीना टंडन और मोहन आशीष बिष्ट ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रैना के किरदार में अर्पिता चटर्जी की ऐक्टिंग बेहतरीन है। करीब दो घंटे से भी कम की इस फिल्म में कई गाने हैं जो कहानी की रफ्तार को कम करने का काम ही करते हैं। बॉक्स ऑफिस पर ऐसी लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए दर्शकों की एक बेहद सीमित क्लास रहती है, यही वजह है दिल्ली में चुनिंदा मल्टिप्लेक्सों पर ही इस फिल्म को एक से शो में रिलीज किया गया है। अगर आप रीऐलिटी के नाम पर कुछ अलग देखने के शौकीन हैं और ओनिर की स्टाइल और उनकी फिल्में आपको पसंद हैं तभी 'शब' देखने जाएं। मुंबइंया मसाला फिल्मों के शौकीन और एंटरटनमेंट के लिए साफ-सुथरी फिल्में देखने के शौकीन इस फिल्म से यकीनन अपसेट ही होंगे। ",1 "कुल मिलाकर ‘सी कंपनी’ भी उन हास्य फिल्मों की तरह है, जिन्हें देखकर हँसने के बजाय रोना आता है। निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : सचिन यार्डी संगीत : आनंद राज आनंद, बप्पा लाहिरी कलाकार : तुषार कपूर, अनुपम खेर, राजपाल यादव, रायमा सेन, मिथुन चक्रवर्ती, (विशेष भूमिकाओं में - महेश भट्ट, एकता कपूर, करण जौहर, संजय दत्त, सेलिना जेटली) निर्देशक सचिन यार्डी ने बॉलीवुड की कुछ पुरानी फिल्म देखी और ‘सी कंपनी’ तैयार कर दी। दो-चार हास्य फिल्में क्या चल गई, सभी हास्य फिल्म बनाने लगे। सचिन ने भी बाजार की हवा को देख हास्य फिल्म बना डाली। एकता कपूर को भी भ्रम है कि उनके ‘असफल’ भाई तुषार कपूर को दर्शक हास्य भूमिकाओं में पसंद करते हैं, इसलिए वे पैसा लगाने के लिए तैयार हो गईं। वे इस फिल्म में चंद मिनटों के लिए हैं, लेकिन पूरी फिल्म में उनके बारे में बातें होती रहीं। उनके धारावाहिक और उनके कलाकारों के कई किस्से दिखाए गए हैं। मसलन उनके धारावाहिकों में सारे किरदार एक जैसे दिखाई देते हैं और दादा, पिता और बेटे में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। उन कलाकारों की उम्र जोड़ी जाए तो वे तीन सौ वर्ष के हो जाते हैं। आए दिन उनके धारावाहिकों में प्लास्टिक सर्जरी होती है। एकता अपने कलाकारों को कम पैसा देती हैं और खूब काम करवाती हैं। शायद निगेटिव पब्लिसिटी के जरिए एकता लोकप्रिय होना चाहती हैं। एकता के इस गैर जरूरी हिस्से (क्योंकि अधिकांश दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं है) के बाद फिल्म का एक बहुत बड़ा भाग चरित्रों का परिचय देने में बर्बाद हुआ है। बिल्डिंग की छत पर बैठ शराब पीकर फूहड़ संवादों के जरिए दर्शकों को हँसाने के चक्कर में निर्देशक ने बहुत सारे फुटेज बर्बाद किए हैं। इसके बाद जो हिस्सा बचता है वो फिल्म की मुख्य कहानी है। अक्षय (तुषार कपूर) एक क्राइम रिपोर्टर है। टीवी चैनल पर काम करता है, फिर भी वो असफल (?) है। उसके पास इतने पैसे नहीं है कि वो अपनी प्रेमिका जो कि डॉन (मिथुन चक्रवर्ती) की बहन (राइमा सेन) है को लेकर दुबई भाग सके। पैसे तो उसकी प्रेमिका भी ला सकती थीं, लेकिन इस बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं। मिस्टर जोशी (अनुपम खेर) अपने बेटे से परेशान हैं। इसके पीछे भी कोई ठोस कारण नहीं है। लंबोदर (राजपाल यादव) को आर्थिक तंगी है। तीनों एक दिन ‘सी कंपनी’ का नाम लेकर जोशी के बेटे को धमकाते हैं और उनकी धमकी असर दिखाती है। इस सफलता से खुश होकर वे बड़े-बड़े लोगों को धमकाते हैं और अंडरवर्ल्ड की दुनिया के रॉबिनहुड बन जाते हैं। चैनल वाले इस पर रियलिटी शो आरंभ कर देते हैं। जिसमें लोग अपनी समस्याएँ बताते हैं और ‘सी कंपनी’ उनकी समस्या सुलझाती है। ‘सी कंपनी’ के पीछे कौन लोग हैं, ये किसी को भी पता नहीं है। निर्देशक सचिन यार्डी सिर्फ इसी हिस्से पर फिल्म बनाते तो बेहतर होता, लेकिन उन्होंने बेवजह कहानी को लंबा खींचा। एक भी दृश्य ऐसा नहीं है, जिस पर दिल खोलकर हँसा जाए। एक गाना सेलिना पर एक संजय दत्त पर फिल्माकर डाल दिए गए। करण जौहर और महेश भट्ट भी बीच में फिल्म की वैल्यू बढ़ाने के लिए नजर आए, लेकिन इनका ठीक से उपयोग नहीं किया गया। अभिनय की बात की जाए तो तुषार के अंदर सीमित प्रतिभा है और वे एक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकते। राइमा सेन के चंद दृश्य हैं। अनुपम खेर भी एक जैसा अभिनय करने लगे हैं। राजपाल यादव की हँसाने की कोशिशें नाकाम रहीं। मिथुन चक्रवर्ती ने एकता कपूर के धारावाहिकों की तरह बोर किया। सेलिना पर फिल्माया गया गाना ठीक है। कुल मिलाकर ‘सी कंपनी’ भी उन हास्य फिल्मों की तरह है, जिन्हें देखकर हँसने के बजाय रोना आता है। ",0 "अगर हम साउथ में बनी फिल्मों की तुलना बॉलिवुड फिल्मों के साथ करें तो पाएंगे कि साउथ में बनी फिल्मों में बॉक्स ऑफिस पर बिकने वाले सभी चालू मसालों को कुछ ज्यादा ही परोसा जाता है। साउथ के एवरग्रीन सुपर स्टार रजनीकांत की बेटी सौंदर्या रजनीकांत के निर्देशन में बनी 'वीआईपी 2: ललकार' भी इसी कैटिगरी की फिल्म है। अफसोस बस इतना है कि न जानें क्यों अंत तक सौंदर्या ने इस फिल्म को फ्रंट लाइनर दर्शकों की पसंद को जेहन में रखकर बनाया और अपने इसी मकसद में कुछ हद तक कामयाब भी रहीं, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट है जो मसाला मूवीज के शौकीनों को भी फिल्म की कहानी और किरदारों के साथ कतई नहीं बांध पाता है। स्टोरी प्लॉट : वसुंधरा (काजोल) शहर की सबसे बड़ी आर्टिटेक्ट कंपनी की बेहद गुस्सैल और खुद की बनी दुनिया में रहने वाली मालकिन है। वसुंधरा अपने फैसले और अपनी पसंद को हमेशा सौ फीसदी मानती है और उसे न सुनना बिल्कुल भी पसंद नहीं। वहीं, शहर की एक दूसरी आर्टिटेक्ट कंपनी में इंजिनियर रघुवरन (धनुष) को अपनी फील्ड में महारत हासिल है। एक अवॉर्ड फंक्शन में जहां सबसे ज्यादा अवॉर्ड वसुंधरा की कंपनी को मिलते हैं, वहीं बेस्ट इंजिनियर ऑफ द इयर का अवॉर्ड रघुवरन को मिलता है। इस फंक्शन के बाद वसुंधरा किसी भी कीमत पर रघुवरन को अपनी कंपनी जॉइन करने की ऑफर देती है, लेकिन रघुवरन के अपने उसूल हैं और वह अपनी कंपनी और मालिक को छोड़ना नहीं चाहता और इसकी एक वजह यह है कि मालिक के रघुवरन पर बहुत अहसान हैं। अब जब रघुवरन किसी भी कीमत पर वसुंधरा की कंपनी जॉइन करने को राजी नहीं तो वसुंधरा इसे अपनी पर्सनली हार मानकर रघुवरन को अब हर हाल में नीचा दिखाने पर आमादा है। वसुंधरा इसके बाद ऐसे हालात बना देती है जिसके चलते रघुवरन को कंपनी से इस्तीफा देकर अपने कुछ इंजिनियर दोस्तों के साथ मिलकर 'वीआईपी कंस्ट्रक्शन्स' कंपनी शुरू करता है, लेकिन वसुंधरा अब भी हार मानने को तैयार नहीं है। ऐक्टिंग और डायरेक्शन : अगर ऐक्टिंग की बात की जाए वसुंधरा के किरदार में काजोल के फेस पर आपको अंत तक एक जैसा ही एक्सप्रेशन नजर आता है, इसकी वजह तो डायरेक्टर ही बता सकती हैं। धनुष ने अपनी किरदार को बस ठीकठाक ढंग से निभाया तो फिल्म में धनुष की झगड़ालू वाइफ के रोल में साउथ की नामी ऐक्ट्रेस अमृता पॉल अपने रोल में कुछ खास नहीं कर पाईं। मजे की बात यह है कि धनुष ने ही इस फिल्म की कहानी को लिखा है, लेकिन कहानी में कुछ भी नया नहीं है। साउथ की इस डब फिल्म में गाने ठूंसे हुए लगते हैं। अगर आप सिर्फ चालू मसाला और बेसिर-पैर की कहानी वाली फिल्में भी देखने के शौकीन हैं तो इस फिल्म को एकबार देख सकते हैं। ",0 "निर्देशक विशाल पंड्या ने एक फॉर्मूला बना लिया है जिस पर चलते हुए उन्हें 'हेट स्टोरी 2' और 'हेट स्टोरी 3' में सफलता भी मिली। वे फ्रंट बेंचर्स के मनोरंजन के लिए सिनेमा बनाते हैं। उनके किरदार करोड़ों की बातें करते हैं, फाइव स्टार लाइफस्टाइल जीते हैं। कहानी में अपराध के बीज होते हैं। थोड़ा सस्पेंस होता है। पुराने हिट गीतों और हॉट सीन का तड़का लगाकर फिल्म तैयार की जाती है। यही बातें उन्होंने अपनी ताजा फिल्म 'वजह तुम हो' में भी दोहराई है। इसका नाम हेट स्टोरी 4 भी रख देते, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इस फिल्म की कहानी भी 'बदले' पर आधारित है। > राहुल ओबेरॉय (रजनीश दुग्गल) के ग्लोबल टाइम चैनल को किसी ने हैक कर एसीपी सरनाइक की हत्या का सीधा प्रसारण कर दिया। एसीपी कबीर देशमुख (शरमन जोशी) राहुल को ही अपराधी मानता है क्योंकि वह गिरती टीआरपी के लिए ऐसा कदम उठा सकता है। मामला अदालत पहुंचता है जहां राहुल की ओर से वकील सिया (सना खान) है तो पुलिस की ओर से रणवीर (गुरमीत चौधरी)। संयोग से सिया का रणवीर बॉयफ्रेंड भी है। इसी बीच इस केस से जुड़े करण की भी हत्या कर दी जाती है और उसका भी सीधा प्रसारण किया जाता है। कबीर के सामने नई चुनौती खड़ी हो जाती है। सरनाइक, करण और राहुल की कड़ियों को जोड़ते हुए वह उस शख्स को बेनकाब करता है जो यह सब कर रहा है और इसके पीछे उसकी 'वजह' क्या है। फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन खराब स्क्रीनप्ले, दिशाहीन निर्देशन और घटिया अभिनय ने पूरी फिल्म का कबाड़ा कर दिया। स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि जरा सा दिमाग पर जोर डाला जाए तो फिल्म बताए उसके पहले ही आप 'राज' जान सकते हैं। कई गलतियां स्क्रीनप्ले में छोड़ी गई है और सहूलियत के हिसाब से यह लिखा गया है। दर्शकों को चौंकाने की खूब कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म में नकलीपन इतना हावी है कि दर्शक इससे जुड़ नहीं पाते। विशाल पंड्या का निर्देशन कमजोर है। वे स्टाइलिंग और फिल्म के लुक पर ही ध्यान देते नजर आए। उन्होंने हर सीन को भव्य बनाने और किरदारों को महंगी ड्रेसेस में पेश करने में ही सारा जोर लगा दिया है। कहानी के प्रस्तुतिकरण पर ध्यान न देने की वजह से कही भी फिल्म पर उनकी पकड़ नजर नहीं आती। बीच-बीच में पुराने हिट गीत और हॉट सीन डालकर उन्होंने दर्शकों का ध्यान बंटाने की कोशिश की है। कुछ दृश्य ऐसे हैं जहां पर उनसे बड़ी‍ चूक हुई है। मसलन राहुल को बीच सड़क से उठा लेने का सीन है, लेकिन आसपास परिंदा भी नजर नहीं आता। दिन-दहाड़े बीच शहर में ये कैसे संभव है? क्लाइमैक्स की फाइटिंग तो दयनीय है। एक तरफ फिल्म में चैनल हैकिंग जैसी आधुनिक तकनीक की बातें की गई हैं तो दूसरी ओर राहुल के घर सिया इस्तीफा देने जाती है मानो ईमेल करना ही नहीं जानती हो। वजह तुम हो के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म के संवाद इतने भारी भरकम है कि उन्हें बोलने के लिए अमिताभ बच्चन, राजकुमार या सलमान खान जैसे दमदार स्टार चाहिए, जिसका रुतबा या स्टार पॉवर हो। रजनीश दुग्गल, गुरमीत चौधरी या शरमन जोशी जैसे पिद्दी स्टार जब इस तरह के संवाद बोलते हैं तो हंसी छूटती है। अभिनय डिपार्टमेंट में भी फिल्म कंगाल है। दिखने में सब मॉडल हैं, लेकिन एक्टिंग के नाम पर ज़ीरो। रजनीश दुग्गल और गुरमीत चौधरी ने ऐसी एक्टिंग की है मानो किसी ने सिर पर भारी पत्थर रख दिया हो। सना खान को तो पता ही नहीं अभिनय किस चिड़िया का नाम है। इन खरबूजों को देख शरमन जोशी ने भी अपना रंग बदल दिया और वे भी एक्टिंग करना भूल गए। ज़रीन खान एक गाने में नजर आईं। उनके डांस पर कम और बढ़े हुए वजन पर ज्यादा ध्यान जा रहा था। कुल मिलाकर 'वजह तुम हो' को देखने की कोई वजह नजर नहीं आती है। नोटबंदी का माहौल है, इसलिए नोट ही बचाइए। > निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार निर्देशक : विशाल पंड्या संगीत : मिथुन, अभिजीत वाघानी, मीत ब्रदर्स कलाकार : शरमन जोशी, सना खान, रजनीश दुग्गल, गुरमीत चौधरी, ज़रीन खान (आइटम सांग) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 16 मिनट 21 सेकंड्स ",0 "इस फिल्म की रिलीज से बहुत पहले ही फिल्म का ट्रेलर उस वक्त सोशल मीडिया में वायरल हो गया, जब फिल्म में लेडी मांउटबेटन और देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू के बीच संबंधों को लेकर अटकलों का बाजार गरम हो गया। शायद यही वजह रही कि भारत में इस फिल्म को रिलीज करने से पहले फिल्म की डायरेक्टर गुरिंदर चड्ढा कई मेजर सेंटरों पर मीडिया से रूबरू हुईं और उन्होंने इन अटकलों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। एक सवाल के जवाब में गुरिंदर ने कहा, 'मेरी फिल्म भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लेडी माउंटबेटन के संबंधों पर आधारित नहीं है।' दरअसल, इस फिल्म की कहानी ब्रिटेन से भारत आए आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के दौर को दर्शाती है। इस फिल्म को बनाने के लिए गुरिंदर को काफी वक्त लगा। उन्होंने फिल्म के एक-एक सीन पर पूरा होमवर्क करने के बाद भारत आकर कई इतिहासविदों के साथ लंबी बातचीत करने के बाद ही इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया। जब आप करीब दो घंटे की इस फिल्म को देखने के लिए बैठते हैं तो फिल्म के आखिरी सीन तक कहानी और किरदारों के साथ बंधकर रह जाते हैं। यहां खास तौर से चड्डा ने माउंटबेटन के किरदार को सशक्त बनाने के लिए काफी मेहनत की है। दरअसल आज की युवा पीढ़ी लॉर्ड मांउटबेटन के बारे में बहुत कम जानती है। इसके अलावा देश किन हालातों में आजाद हुआ, इस बारे में भी युवा पीढ़ी को ज्यादा जानकारी नहीं है। ऐसे में चड्ढा ने अपनी इस फिल्म की कहानी को हल्के अंदाज में बयां करने और दर्शकों की हर क्लास को किरदारों के साथ बांधने के लिए लव स्टोरी को भी फिल्म का हिस्सा बनाया है। स्टोरी प्लॉट: फिल्म की शुरुआत अंग्रेजी शासन के आखिरी कुछ दिनों से होती है, जब ब्रिटिश सरकार लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजती है। दरअसल, यह सरकार चाहती थी कि भारत को दो हिस्सों में बांटने के बाद ही आजाद किया जाए। जहां माउंटबेटन को बंटवारे से पहले हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच टकराव रोकने का था, वहीं उन्हें उस वक्त मुस्लिम लीग नेता के जिन्ना और कांग्रेस के नेता जवाहर लाल नेहरू के बीच की अनबन सामना भी करना था। आखिरी वायसराय व्यक्तिगत तौर पर नहीं चाहते थे कि भारत को दो भागों में बांटा जाए। इसके साथ ही फिल्म में आलिया (हुमा कुरैशी) और जीत (मनीष दयाल) की प्रेम कहानी भी चलती है। ये दोनों अलग-अलग धर्म से हैं और एक दूसरे को काफी प्यार करते हैं, दोनों ही वायसराय के ऑफिस में काम करते हैं। हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को देश के विभाजन के बाद अलग होना पड़ता है। फिल्म में विभाजन से पहले के दिनों में वायरराय हाउस में होने वाली गतिविधियों और वहां के हालात को डायरेक्टर ने दमदार तरीके से पेश किया है। गुरिंदर चड्ढा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म में गानों को भी ऐसे ढंग से फिट किया है कि वो कहानी का अहम हिस्सा बन गए हैं। फिल्म में ओम पुरी ने भी एक अहम किरदार निभाया है। हुमा कुरैशी की यह पहली अंतरराष्ट्रीय फिल्म है। आलिया के किरदार में हुमा ने शानदार ऐक्टिंग की है। भारत में रिलीज होने से पहले यह फिल्म 67वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में 'वायसराय हाउस' टाइटल से पेश की गई। फिल्म का संगीत ए.आर. रहमान ने दिया है, फिल्म के माहौल पर रहमान का संगीत पूरी तरह से फिट है। अगर आप भारत-पाकिस्तान विभाजन के पीछे के हालातों के साथ-साथ माउंटबेटन के बारे में अच्छे से जानना चाहते हैं तो इस फिल्म को एक बार जरूर देखें। ",0 "इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com पर मेल कर सकते हैं। यू/ए * 14 रील बैनर : मुक्ता सर्चलाइट फिल्म्स निर्देशक : नागेश कुकुनूर कलाकार : श्रेयस तलपदे, लेना, विजय मौर्या, मनमीत सिंह, विक्रम इनामदार, नसीरुद्दीन शाह (मेहमान कलाकार) फिल्म में भले ही नामी कलाकार नहीं हैं, परंतु निर्देशक के रूप में नागेश कुकुनूर का नाम देख फिल्म के अच्छे होने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ में नागेश पूरी तरह निराश करते हैं। पिछले दिनों ‘बॉम्बे टू गोवा’, ‘धमाल’ और ‘गो’ जैसी फिल्में आई थीं, जिसमें पात्र एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा करते हैं और उनके साथ घटनाएँ घटती हैं। ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ भी उसी तरह की फिल्म है, जिसमें हास्य पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई है। शंकर (श्रेयस तलपदे) मुंबई में बावर्ची का काम करता है। पैसों के लालच में वह एक डॉन के पैसे चुरा लेता है। जब डॉन के साथी उसके पीछे भागते हैं तो वह उन डॉक्टरों के दल में शामिल हो जाता है जो थाईलैंड जाने वाला रहता है। शंकर अपना पैसों से भरा बैग दवाइयों से भरे बॉक्स में डाल देता है। थाईलैंड पहुँचने पर वह मसाज गर्ल जस्मिन (लेना) को पसंद करने लगता है, लेकिन दोनों को बात करने में परेशानी महसूस होती है क्योंकि शंकर हिंदी और जस्मिन थाई भाषा बोलती है। इस काम में वह अपने दुभाषिए दोस्त रचविंदर (मनमीत सिंह) की मदद लेता है। शंकर को पता चलता है कि उसका बैग बैंकॉक में है, वह ‍जस्मिन की सहायता से वहाँ पहुँचता है। इसी बीच शंकर के पीछे वो डॉन भी आ पहुँचता है जिसके शंकर ने पैसे चुराए थे। थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव के साथ फिल्म समाप्त होती है। फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है। ढेर सारी खामियों से भरी पटकथा अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखी गई है। लेखक ने कहानी के बजाय चरित्रों पर ज्यादा मेहनत की है। शंकर पैसे चुराने के बाद सभी को आसानी से चकमा देता रहता है। डॉक्टरों के दल में शामिल होकर वह मरीजों का इलाज करता है और उसे कोई पकड़ नहीं पाता। जिस बॉक्स में वह पैसे छिपाता है उसके ऊपर वह कोई निशान या पहचान भी नहीं बनाता, जबकि सारे बॉक्स एक जैसे रहते हैं। निर्देशक और लेखक के रूप में नागेश कहीं से भी प्रभावित नहीं करते। फिल्म में बहुत ही सीमित पात्र है और बार-बार वहीं चेहरों को देख ऊब होने लगती है। फिल्म का अंत जरूरत से ज्यादा लंबा है। कहने को तो फिल्म हास्य है, लेकिन हँसने के अवसर बेहद कम आते हैं। शंकर और जस्मिन की प्रेम कहानी में से प्रेम गायब है। पूरी फिल्म बोरियत से भरी हुई है। श्रेयस तलपदे का अभिनय अच्छा है, लेकिन पूरी फिल्म का भार वे नहीं ढो सकते। जस्मिन की भूमिका के लिए थाई अभिनेत्री लेना उपयुक्त लगी। रचिंदर बने मनमीत सिंह और जैम के की भूमिका निभाने वाले विजय मौर्या राहत पहुँचाते हैं। नसीरुद्दीन शाह मात्र एक दृश्य के लिए परदे पर नजर आते हैं। फिल्म बहुत ही सीमित बजट में बनाई गई है और इसका असर परदे पर दिखाई देता है। फिल्म के नाम में बैंकॉक जरूर है, लेकिन बैंकॉक लगभग नदारद है। सुदीप चटर्जी ने कहानी को फिल्माते हुए इतना कम प्रकाश रखा है कि ज्यादातर परदे पर अँधेरा नजर आता है। गानों में ‘सेम-सेम बट डिफरेंट’ ही याद रहता है। कुल मिलाकर ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ का यह सफर बेहद उबाऊ और थकाऊ है। इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com पर मेल कर सकते हैं। ",0 "निर्माता : मुकुल देओरा निर्देशक : सागर बेल्लारी संगीत : इश्क बेक्टर, स्नेहा खानवलकर, सागर देसाई कलाकार : विनय पाठक, मिनिषा लांबा, अमोल गुप्ते, केके मेनन, सुरेश मेनन सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 9 मिनट ‘भेजा फ्राय 2’ के किरदार भारत भूषण जैसे संगीत प्रेमी आपको अपने आसपास मिल जाएँगे। हिंदी सिनेमा के संगीत पर लिखने वालों से ज्यादा ज्ञान इनके पास रहता है। यह गाना कौन सी फिल्म का है, किसने लिखा है, किसने संगीत दिया है, मुँहजबानी इन्हें याद रहता है। भारत भूषण तो हेमंत कुमार, बर्मन दा और मन्ना डे जैसे महान संगीतकारों का इतना दीवाना है कि अपने ब्रीफकेस का कोड, बैंक अकाउंट का नंबर और एटीएम कार्ड का पिन नंबर इनके जन्मदिन या पुण्यति‍थि की तारीखों के आधार पर रखता है। एक निर्जन टापू पर जब वह अपने साथी के साथ अकेला फँस जाता है तो रेत पर ‘हेल्प’ लिखने के बजाय एक पुराना हिट गाना ‘अकेले हैं चले आओ जहाँ हो’ लिखता है। कैसी भी परिस्थिति हो बजाय घबराने के सिचुएशन के मुताबिक उसे गाने सूझते रहते हैं। उच्च वर्ग के लोग उसकी शुद्ध हिंदी, जिंदगी के प्रति उसके सकारात्मक दृष्टिकोण और मध्यमवर्गीय मूल्यों का मजाक उड़ाता है, लेकिन इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वह कभी बुरा नहीं मानता। उसे अपने बचपन के किस्से और पिताजी की सीखें याद हैं। इसी बचपन को उसने अब तक सहेज रखा है और उसकी यही मासूमियत को निर्देशक ने बार-बार उभारा है। भेजा फ्राय में एक और दिलचस्प किरदार है रघु बर्मन का। उसे रेडियो से, आरडी बर्मन से प्यार है। टीवी चैनलों की भरमार और अनचाही खबरों के हमलों से घबरा कर वह एक टापू में जा बसता है ताकि अकेला रहकर अपने साथ वक्त बिता सके। रेडियो पर गाने सुन सके। कुछ ऐसे ही किरदारों के कारण ‘भेजा फ्राय 2’ देखते समय अच्छी लगती है। निश्चित रूप से भेजा फ्राय का यह सीक्वल पिछली फिल्म की तुलना में उन्नीस है, लेकिन मनोरंजक है। फिल्म थोड़ा धैर्य माँगती है। जैसे ही कैरेक्टर स्थापित होते हैं और उनकी हरकतों को आप पकड़ लेते हैं, फिल्म मजा देने लगती है। भेजा फ्राय के संवाद बेहद उम्दा थे और ठहाका लगाने के लगातार मौके अवसर आते रहते थे। सीक्वल का स्क्रीनप्ले इस लिहाज से कमजोर है। कई जगह फिल्म खींची हुई लगती है। मुस्कराने के दो अवसरों में दूरी है और संवादों में भी वैसी बात नहीं है। लेकिन दिलचस्प कैरेक्टर्स होने की वजह से फिल्म में रूचि बनी रहती है। निर्देशक सागर बेल्लारी ने उच्चवर्गीय और मध्यमवर्गीय मूल्यों के द्वंद्व को अच्‍छी तरह पेश किया है। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें बिज़नेस टायकून एक लड़की को बिस्तर पर ले जाने की कोशिश करता है। जब लड़की मना कर देती है तो वह उसे ‘बहनजी टाइप’ नाम देता है। मानो बहनजी टाइप होना गुनाह हो गया है। एक और दृश्य है जिसमें भारत भूषण स्विमिंग पूल में डूबता रहता है और सारे सूट-बूटधारी उसकी बचने की कोशिश का मजा लेते हैं बजाय उसे बचाने के। भारत भूषण के किरदार को विनय पाठक से बेहतर शायद ही कोई निभा सकता था। ऐसा लगता है कि जैसे वे इस रोल के लिए ही बने हो। थोड़ी-सी ओवर एक्टिंग खेल बिगाड़ सकती थी, लेकिन विनय ने वो सीमा पार नहीं की। के के मेनन पिछली फिल्म के रजत कपूर जैसा प्रभाव नहीं जगा पाए। सुरेश मेनन और मिनिषा लांबा ने अपना काम अच्छे से किया है। अमोल गुप्ते एक बार फिर बतौर अभिनेता अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। ",1 "सुलोचना को प्यार से सुलु कहा जाता है। 12वीं भी पास नहीं कर पाई। उसका एक बेटा और पति है। मध्यम उम्र और मध्यमवर्गीय परिवार में रहने वाली सुलु की दो बहनें नौकरी करती हैं और घर बैठ कर रेडियो सुनने वाली सुलु को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती। लेकिन सुलु को इस बात को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है। वह हंसमुख हैं और अपनी जिंदगी से खुश है। उसका पति तो एकदम 'गाय' है। सुलु की जिंदगी में तब बदलाव आता है जब वह अपना इनाम लेने रेडियो स्टेशन जाती है और कुछ दिनों में आरजे बन जाती है। उसका शो रात में प्रसारित होता है और लोगों को वह अपनी बातों से खुश करने की कोशिश करती है। आरजे बन कर सुलु की खुशियां ज्यादा दिनों कायम नहीं रह पाती क्योंकि इसका असर उसकी निजी जिंदगी पर पड़ने लगता है। सुरेश त्रिवेणी द्वारा लिखी कहानी बेहद सरल है, इसमें आगे क्या होने वाला है यह पता करना मुश्किल नहीं है, इसके बावजूद यह फिल्म आपको बांध कर रखती है तो इसका श्रेय सुलु के किरदार और ऐसे कई दृश्यों को जाता है जो आपको हंसाते और इमोशनल करते हैं। फिल्म की शुरुआत दमदार नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगता है फिल्म की पकड़ मजबूत होती जाती है। एक मध्यमवर्गीय परिवार की मुश्किलों को बेहद बारीकी से दिखाया गया है। सुलु और उसकी बहनों वाले और सुलु तथा उसके पति के बीच के दृश्य बढ़िया बने हैं। रेडियो स्टेशन जाकर सुलु का आरजे के लिए ऑडिशन देना, सेक्सी स्टाइल में 'हैलो' बोलना, श्रोताओं से बातें करने वाले दृश्य बहुत‍ अच्छे लिखे गए हैं। साड़ी पहने सुलु कहती हैं कि वह आरजे बनना चाहती है तो सबसे पहले उसके हुलिए को देखा जाता है, मानो आरजे के लिए अच्‍छी आवाज जरूरी नहीं है बल्कि लुक है। इस तरह के सीन लेखक और निर्देशक के कौशल को दर्शाते हैं। फिल्म में सबसे अच्छी बात यह है कि सुलु किसी के लिए अपने अंदर कोई परिवर्तन नहीं करती। उसका वजन ज्यादा है, वह साड़ी पहनती है, उसका लुक आम भारतीय महिला की तरह है, लेकिन इसमें कोई बदलाव किए बिना जैसी है वैसी ही बनी रहती है, जबकि उसके साथ काम करने वाले लोग 'हाई-फाई' नजर आते हैं। इंटरवल तक तो फिल्म बेहतरीन है। हल्के-फुल्के दृश्यों के कारण बहती हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी दरारें पैदा होती हैं। जैसे सुलु के कारण उसके पति का असुरक्षित महसूस करना। यहां पर थोड़ी जल्दबाजी की गई है। साथ ही सुलु के बेटे को लेकर जो ड्रामा गढ़ा गया है वो सतही है। यहां पर लेखकों के हाथ से फिल्म फिसल जाती है। ऐसा लगता है कि एक हल्की-फुल्की फिल्म में फैमिली ड्रामा घुसेड़ने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ये रुकावटें फिल्म पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालती। निर्देशक के रूप में सुरेश त्रिवेणी को अपनी लिखी कहानी को ज्यादा करीब से जानते थे, इसलिए उनका काम आसान रहा। उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण को सिम्पल रखा है। सुलु के पति का एक डांस है जिसमें वह बॉलीवुड हीरो की तरह शर्ट निकाल कर घूमाता है और जेब में रखी चिल्लर गिर जाती है, एक महिला ड्राइवर का पाकिस्तानी गायकों के गीतों को इसलिए नहीं सुनना कि कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए, ऐसे दृश्य निर्देशक की पकड़ को दिखाते हैं। विद्या बालन ने लगे रहो मुन्नाभाई में भी आरजे की भूमिका निभाई थी, लेकिन यहां पर उनका रोल रियलिटी के ज्यादा करीब है। उनका अभिनय लाजवाब है। ऐसा लगता है कि सुलु के किरदार को वही निभा सकती थी। उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। एक गृहिणी से आरजे बनने का उनका सफर शानदार है। नौकरी छोड़ते समय नेहा धूपिया के साथ उनका जो दृश्य है उसमें उनका अभिनय देखने लायक है। एक साथ घुमड़ते कई भावों को उन्होंने चेहरे के जरिये दर्शाया है। मानव कौल भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्शाते हैं। एक सीधे-सादे पति के रूप में उन्होंने बढ़िया अभिनय किया है। उनके ऑफिस वाले कुछ दृश्य बढ़िया हैं जहां मानव को छोड़ सारे लोग सत्तर पार हैं। रेडियो स्टेशन की हेड के रूप में नेहा धूपिया परफेक्ट लगीं। क्रिएटिव प्रोड्यूसर और कवि के रूप में विजय मौर्या हंसाते हैं। विद्या बालन का शानदार अभिनय और सुरेश त्रिवेणी का कुशल निर्देशन 'तुम्हारी सुलु' को देखने लायक बनाता है। बैनर : एलिप्सिस एंटरटेनमेंट, टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, तनुज गर्ग, अतुल कस्बेकर, शांति शिवराम मणिनी निर्देशक : सुरेश त्रिवेणी संगीत : गुरु रंधावा, रजत नागपाल, तनिष्का बागची, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल कलाकार : विद्या बालन, मानव कौल, नेहा धूपिया, विजय मौर्या, आरजे मलिष्का, अभिषेक शर्मा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 20 मिनट ",1 "फास्ट एंड फ्यूरियस सीरिज का सातवां भाग 'फ्यूरियस 7' नाम से रिलीज हुआ है। हिंदी में इसे 'रफ्तार का जुनून' नाम से रिलीज किया गया है। इस सीरिज की भारत में लोकप्रियता को देखते हुए 'फ्यूरियस 7' को पहले ही दिन 'बी' और 'सी' सेंटर्स में भी रिलीज किया गया है। भले ही भारतीय इनमें से ज्यादा कलाकारों को नहीं पहचानते हो, लेकिन इस सीरिज की बेहताशा रफ्तार के रोमांच का मजा वे भी लेते हैं। इस सीरिज में कहानी को कभी महत्व नहीं दिया गया। सारा फोकस स्टंट्स पर किया जाता है। फिल्म में दिखाई जाने वाली कारें अद्‍भुत होती है और ये फिल्म की हीरोइनों से ज्यादा सेक्सी नजर आती हैं। एक्सीलेटर को पैरों तले पूरी तरह दबा दिया जाता है तो कार मानो हवा में उड़ने लगती है। इसका फिल्मांकन इतने उम्दा तरीके से किया जाता है कि दर्शक कार चलाने का मजा ले लेते हैं। यही वजह है कि यह मोटर-मूवी सीरिज टीनएजर्स में बेहद लोकप्रिय है। ऑवेन शॉ और उसकी टीम को हराने के बाद, डोमिनिक टोरेटो (विन डीजल), ब्रायन ओ'कॉनर (पॉल वाकर) और बाकी के साथी अब सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं, जैसा कि वे हमेशा से चाहते थे, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी घटती हैं कि वे चकित रह जाते हैं। ल्यूक हॉब्स (ड्वायने जॉनसन) पर हमला होता है और वह अस्पताल पहुंच जाता है। हेन की मृत्यु हो जाती है। डोमिनिक का घर विस्फोट से उड़ा दिया जाता है। ऑवेन का बड़ा भाई डेकार्ड शॉ (जैसन स्टेथम) अपने भाई की मौत का बदला लेने के इरादे से डोमिनिक और उसकी टीम के पीछे पड़ा है। हेन की मौत के विषय में जानने के बाद डोमिनिक की टीम अब उस आदमी की खोज में जुट जाती है जिसने उनके साथी को मारा है। वे डेकार्ड को ढूंढ निकालना चाहते हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें एक काम करना होता है। उन्हें मेगन रेमसे नामक हैकर को छुड़ाना होता है जिसे कुछ लोगों ने पकड़ रखा है। फिल्म की कहानी साधारण है और सारा ध्यान इस बात पर रखा गया है कि हर पल एक्शन का रोमांच बरकरार रहे। हालांकि एक बात लगातार अखरती है कि जिस डेकार्ड की डोमिनिक और उसके साथियों को तलाश है वो बार-बार उनके सामने आता है और उनके काम में परेशानियां पैदा करता है, लेकिन वे उसे पकड़ने की कोशिश नहीं करते। निर्देशक जेम्स वान ने अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर फिल्म बनाई है और वे इस काम में कामयाब रहे हैं। दस-पंद्रह मिनट बाद फिल्म रफ्तार पकड़ती है और फिर अंत तक दौड़ती रहती है। इस दौरान हैरतअंगेज स्टंट्स देखने को मिलते हैं। रेमसे को छुड़ाने वाला सीक्वेंस आधे घंटे से भी ज्यादा लंबा होगा, लेकिन उस दौरान रोमांच अपने चरम पर होता है। पहाड़ियों के बीच एक बड़ी बस में रेमसे को ले जाया जा रहा है। चूंकि वहां तक पहुंचना आसान नहीं है इसलिए हवाई जहाज से पैराशूट के सहारे कारों को नीचे उतारा जाता है और फिर गोलियों की बौछारों के बीच रेमसे को बचाया जाता है। हालांकि फिल्म के नाम पर खूब छूट ली गई है, लेकिन इस सीक्वेंस का रोमांच दर्शकों को सीट से हिलने नहीं देता। मिडिल ईस्ट में स्कायस्क्रेपर्स के बीच कार का छलांग लगाना अतिश्योक्ति पूर्ण है, लेकिन रोमांच के दीवानों को यह सीन पसंद आएगा। क्लाइमैक्स में एक बार फिर रोमांचक एक्शन देखने को मिलता है जब रेमसे को मारने के लिए मिसाइल्स का प्रयोग किया जाता है, लेकिन डोमिनिक और उसके साथी सूझबूझ के साथ हर बार इस वार को विफल करते हैं। फिल्म एक्शन के बीच इमोशन्स और हास्य सीन भी डाले गए हैं। हालांकि परिवार की बातें कर भावुक होना इन रफ-टफ कलाकारों पर जमता नहीं है। वैसे भी पॉल वाकर के कारण दर्शक भावुक होते हैं। फिल्म के अंत में पॉल और विन डीजल के बीच कुछ ऐसे संवाद सुनने को मिलते हैं जिसके कारण भावुकता की लहर दौड़ती है। स्टंट्स सीन बच्चों की कल्पना लगते हैं, लेकिन इन्हें इतनी सफाई के साथ पेश किया गया है कि ये विश्वसनीय लगते हैं। ये सीन एक्शन पसंद करने वालों को जरूर अच्छे लगेंगे। रफ-टफ विन डीजल थोड़े धीमे लगते हैं, लेकिन उनकी टफनेस उन्हें भीड़ में अलग ही खड़ा करती है। वे ऐसे हीरो लगते हैं जो अपनी ताकत से किसी को भी चकनाचूर कर दे। ड्वायने जॉनसन का रोल छोटा है, लेकिन क्लाइमैक्स में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। पॉल वाकर की इस फिल्म की शूटिंग के दौरान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। बाद में उनके जैसे दिखने वाले और उनके भाइयों को लेकर तकनीक की मदद से उनका रोल फिल्म के अंत तक बढ़ाया गया। दर्शक उन्हें जरूर मिस करेंगे। जेसन स्टेथम ने विन डीजल को कड़ी टक्कर दी है। भारतीय कलाकार अली फजल भी एक छोटे-से रोल में नजर आएं। निर्माता: नील एच मोरिट्ज़, विन डीजल निर्देशक : जेम्स वान कलाकार : विन डीजल, पॉल वाकर, ड्वायने जॉनसन, मिशेल रोडरीगुएज़, जॉरडाना ब्रुस्टर, टायरिज़ गिब्सन, क्रिस ब्रिजेस, लुकास ब्लैक, जैसन स्टेथम सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 14 मिनट ",1 "कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो शुद्ध मनोरंजन की कसौटी पर खरी उतरती हैं। इन्हें पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखने का मजा ही कुछ और होता है। अवेंजर्स सीरिज की फिल्में इसी तरह हैं जिनमें कई सुपरहीरो को एक साथ देखने का सुकून मिलता है। कॉमिक्स से निकल कर बिग स्क्रीन पर जब ये अपने कारनामे दिखाते हैं तो रोमांच का मजा कई गुना बढ़ जाता है। अवेंजर्स इन्फिनिटी वॉर में तो इस बार सुपरहीरोज़ की भरमार है। निर्देशक रूसो ब्रदर्स ने तमाम सुपरहीरो को जमा कर अपेक्षाओं को बेहद ऊंचा कर दिया। इतनी अपेक्षाएं कई बार फिल्म पर भारी पड़ जाती हैं, लेकिन एंथनी रूसो और जो रूसो इन अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं और दर्शकों को भरपूर मनोरंजन देते हैं। जब इतने सारे सुपरहीरो जमा हों तो फिल्म के विलेन का दमदार होना जरूरी है। लगना चाहिए कि इससे टक्कर लेने के लिए कई सुपरहीरो की जरूरत है। थेनोस के इरादे नेक नहीं है। उसे उन स्टोन्स की तलाश है जिसे पाकर वह पूरे ब्रह्मांड पर राज करना चाहता है और पृथ्वी भी सुरक्षित नहीं है, लेकिन स्टोन्स और थेनोस के बीच आयरनमैन, स्पाइडरमैन, हल्क, थोर, कैप्टन अमेरिका, स्टीव रोजर्स, ब्लैक विडो जैसे तमाम योद्धा हैं जो पृथ्वी को सर्वनाश से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। एक लाइन की कहानी पर ढाई घंटे तक दर्शकों को थिएटर में बैठाए रखना निर्देशक एंथनी रूसो और जो रूसो की कामयाबी मानी जाएगी। इतने सारे सुपरहीरोज़ के बीच उन्होंने संतुलन बनाए रखा और कहीं भी दर्शकों को कन्फ्यूज नहीं होने दिया। उनका कहानी कहने का तरीका इतना सटीक है कि दर्शक को हर बात समझ में आती है और इतने सारे किरदारों के होने के बावजूद वह भ्रमित नहीं होता। एक्शन और स्पेशल इफेक्ट्स के धमाकों के बीच इन दिग्गज हीरो के आपसी संवाद मजेदार हैं। इनमें से कई को एक-दूसरे की मौजूदगी का अहसास भी नहीं है। वे आपस में ही टकरा जाते हैं, लेकिन जब पता चलता है कि सभी की लड़ाई थेनोस के विरुद्ध है तो वे एक हो जाते हैं। फिल्म बहुत तेज गति से चलती है और ज्यादा सोचने के लिए समय नहीं देती। कुछ जगह इधर-उधर भटकती है, कुछ दृश्य अनावश्यक रूप से लंबे भी हो गए हैं, जैसे थेनोस और उसकी बेटी गमोरा के बीच के दृश्य। फिल्म की शुरुआत थोड़ी गड़बड़ है, ऐसा लगता है मानो हम किसी फिल्म को बीच से देख रहे हैं, लेकिन 149 मिनट की अवधि वाली फिल्म में ज्यादातर समय इसकी चमक बरकरार रहती है। फिल्म का संपादन कमाल का है। इतने सारे कलाकारों और एक्शन सीक्वेंस को बेहद सफाई के साथ जोड़ा गया है कि पूरी फिल्म बहती हुई लगती है। फिल्म की हर बात भव्य है। बजट, स्टार्स, सेट और इफेक्ट्स पर खूब पैसा बहाया गया है। सीजीआई कही भी बनावटी या नकली नहीं लगते। फिल्म का क्लाइमैक्स जरूर चौंकाता है। इस तरह के अंत की उम्मीद नहीं थी। फिल्म खत्म होने के पहले जो एक्शन सीक्वेंस है वो कमाल का है। फिल्म में रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जोश ब्रुलिन, टॉम हॉलैंड जैसे दमदार कलाकार हैं जो अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। सभी को ठीक-ठाक स्क्रीन टाइम देने की कोशिश निर्देशक ने की है, हालांकि सुपरहीरो के कुछ फैंस को शिकायत हो सकती है कि उनके प्रिय कैरेक्टर को कम समय दिया गया है, लेकिन इसमें निर्देशक की कोई गलती नहीं है। वैसे विलेन जोश ब्रुलिन ज्यादा समय तक स्क्रीन पर नजर आते हैं। अवेंजर्स : इन्फिनिटी वॉर की की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ढाई घंटे बाद भी मन नहीं भरता तथा थोड़ा और पाने की ख्वाहिश रहती है। निर्माता : केविन फीज निर्देशक : एंथनी रूसो, जो रूसो संगीत : एलन सिल्वेस्ट्री कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जोश ब्रुलिन, टॉम हॉलैंड 2 घंटे 29 मिनट ",1 "नितिन भावे रईस आलम (शाहरुख) गुजरात में गैर-कानूनी तरीके से शराब का धंधा करता है, जो कि वहां बैन है। अब एसीपी मजमुदार को इसे खत्म करने की जिम्मेदारी दी जाती है। क्या रईस की नेकी उसे बचा पाती है? रिव्यू: तैयार हो जाइए 70 के दशक की सलीम-जावेद की किसी ब्लॉकबस्टर फिल्म के अंदाज़ को दोबारा देखने के लिए, जिसमें फिल्म का हीरो ऐक्शन के बीच पला-बढ़ा होता है और उसके डायलॉग की हर दूसरी लाइन उसके दमदार किरदार की अकड़ को दर्शाती है और जिसमें हेलेन के गाने टेंशन और ऐक्शन सीक्वेंस में ठहराव लाती हैं, जो इस फिल्म में सनी लियोनी करती नज़र आती हैं। इसी लेगसी को आगे बढ़ाया गया है 'रईस' में। शाहरुख खान एक ऐसे गुंडे का किरदार निभा रहे हैं जिसे बैटरी कहलाने से सख्त नफरत है।शराब के धंधे में एक छोटी से शुरुआत धीरे-धीरे एक बड़ा रैकेट का रूप ले लेता है और फिर वह शहर का सबसे बड़ा शराब तस्कर बन जाता है। ...और फिर एसीपी मजमुदार (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की पोस्टिंग उसके इलाके में हो जाती है। रईस की सांठ-गांठ नेताओं से होती है, जिससे उसका काम काफी फलता-फूलता है, लेकिन बहुत जल्द ही उसके इस काम में बड़ी बाधा आ खड़ी होती है। फिल्म के फर्स्ट हाफ की बात करें तो यह बिल्कुल कसी हुई दिख रही है। नवाज के वन लाइनर और म्यूज़िक आपका जबरदस्त मनोरंजन करते हैं और 'लैला मैं लैला' गाना शानदार बन पड़ा है। ...लेकिन फिल्म का सेकंड हाफ हिस्सा आपको अजीब से रॉबिल हुड ज़ोन में पहुंचा देता है, जहां अचानक ऐंटी हीरो का विचार बदलता है वह बिल्कुल मसीहा की तरह बर्ताव करने लग जाता है। तेजी से बढ़ती फिल्म यहां आपको हिचकोले लेती लगेगी। शाहरुख फिल्म में काफी शानदार नज़र आ रहे हैं। रोष और फुर्ती से भरे शाहरुख इस बार अपनी बाहें फैलाते नहीं, बल्कि दूसरों के तोड़ते नज़र आते हैं। पूरी फिल्म उनके कंधों पर टिकी नज़र आ रही है और कई बार पूरी फिल्म का बोझ लिए दिख भी रहे हैं।...और जहां पर वह पीछे रहे वहां नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपने शानदार परफॉर्मेंस से जान डाल दी है। शाहरुख के साथ टॉम ऐंड जेरी की रेस में नवाज ने अपने ट्रेड मार्क कॉमिक स्टाइल का भी परिचय दिया है। माहिरा कुछ गाने और इमोशनल सीन तक ही बंध कर रह गई हैं। फिल्म थोड़ी लंबी भले नज़र आ रही हो, लेकिन यदि आप अपने चहेते शाहरुख का परफॉर्मेंस और पॉपकॉर्न एंटरटेनमेंट के लिए फिल्म देखने जा रहे हैं तो 'रईस' शानदार है। ",0 "विलियम शेक्सपीअर की रचनाएं निर्देशक विशाल भारद्वाज को काफी पसंद हैं। मैकबेथ पर आधारित 'मकबूल' और ओथेलो पर आधारित 'ओंकारा' वे बना चुके हैं। उनकी ताजा फिल्म 'हैदर' हेमलेट से प्रेरित है। शेक्सपीअर की रचनाओं को वे भारतीय पृष्ठभूमि से बखूबी जोड़ते हैं और 'हैदर' को 1995 के कश्मीर के हालात की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है। अलीगढ़ में पढ़ रहे हैदर मीर (शाहिद कपूर) को तब कश्मीर अपने घर लौटना पड़ता है जब उसके पिता डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) को आर्मी पकड़ लेती है। हिलाल ने एक आतंकवादी का अपने घर में ऑपरेशन किया था। अचानक हैदर के पिता लापता हो जाते हैं। पूरे कश्मीर को कैदखाना मानने वाला हैदर उनकी तलाश शुरू करता है। हैदर की तकलीफ तब और बढ़ जाती है जब उसे पता चलता है कि उसकी मां ग़ज़ला मीर (तब्बू) उसके चाचा खुर्रम मीर (केके मेनन) के बीच संबंध है। अपने पिता के बारे में हैदर को रूहदार (इरफान खान) के जरिये ऐसा सुराग मिलता है कि वह हिल जाता है। क्या हैदर अपने पिता को ढूंढ पाता है? उसके पिता को गायब करने में किसका हाथ है? क्या हैदर की मां और चाचा के संबंध टूटते है? इनके जवाब हैदर में मिलते हैं। ‍फिल्म का स्क्रीनप्ले विशाल भारद्वाज और बशरत पीर ने मिलकर लिखा है। कश्मीर के राजनीतिक हालात को उन्होंने कुशलता के साथ कहानी में गूंथा है। जहां एक ओर हैदर पारिवारिक स्तर पर अपनी समस्याओं से जूझता रहता है वहीं दूसरी ओर कश्मीर की समस्याएं भी उसके आड़े आती हैं। फिल्म में एक संवाद है कि जब दो हाथी लड़ते हैं तो कुचली घास ही जाती है। दो बड़े मु्ल्कों की लडाई का नतीजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। कई लोग लापता हैं जिनके बारे में कोई नहीं जानता। ऐसी महिलाएं जिनके पति लापता हैं उन्हें आधी बेवा कहा जाता है और हैदर की मां भी आधी बेवा है। ऐसी कई बातों को इशारों में दर्शाया गया है और बहुत कुछ दर्शक की समझदारी पर लेखक और निर्देशक ने छोड़ा है। निर्देशक विशाल भारद्वाज ने पूरी फिल्म पर ऐसा कश्मीरी रंग चढ़ाया है कि लगता ही नहीं कि हेमलेट और कश्मीरी पृष्ठभूमि दो अलग चीज हैं। बदला, राजनीति, रोमांस, आतंकवाद जैसे वो सारे तत्व कहानी में मौजूद हैं जो कमर्शियल फिल्मों के भी आवश्यक अंग माने जाते हैं, लेकिन विशाल का प्रस्तुतिकरण फिल्म को अलग स्तर पर ले जाता है। हालांकि फिल्म की गति को उन्होंने बेहद धीमा रखा है और कई बार तो धैर्य आपकी परीक्षा लेने लगता है। विशाल की पिछली फिल्मों को देखा जाए तो वे बात को आक्रामक तरीके से पेश करते हैं, लेकिन 'हैदर' में उनका प्रस्तुतिकरण अलग मिजाज लिए हुए हैं। सेकंड हाफ में हैदर की मनोदशा का चित्रण विशाल ने बखूबी किया है। एक सीन तो कमाल का है जिसमें हैदर भीड़ के सामने तमाशा पेश करता है। 'हैदर' की अनोखी बात यह भी है कि कहानी में आगे क्या होने वाला है, कौन सा किरदार किस करवट बैठेगा, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। विशाल खुद संगीतकार भी हैं इसलिए वे गानों के माध्यम से कहानी को कहना खूब जानते हैं। एक गाने में कुछ बूढ़े लोग कब्र खोदते हैं और गाते हुए लोगों का इंतजार करते हैं ताकि उन्हें दफना सके। कश्मीर की बेबसी इस गाने में झलकती है। 'बिस्मिल' गाना भी पूरी कहानी का निचोड़ है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक भी उम्दा है। शाहिद कपूर को कठिन रोल मिला है, जिसका निर्वाह उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। हैदर एक ऐसा किरदार है जिसको अपने ही छलते हैं, इससे उसका मानसिक संतुलन तक बिगड़ने लगता है, उसके इस दर्द को शाहिद ने अच्छे से पेश किया है। तब्बू का किरदार सबसे सशक्त है और पूरी कहानी उनके इर्दगिर्द घूमती है। तमाम दृश्यों में वे अपने साथी कलाकारों पर भारी पड़ती हैं। एक अच्छा कलाकार किस तरह से फिल्म में जान डाल देता है, इसका उदाहरण इरफान खान है। इरफान की एंट्री के पहले फिल्म बहुत ही स्लो लगती है, लेकिन उनके आते ही फिल्म का स्तर ऊंचा उठ जाता है। ऐसा लगता है कि काश इरफान का रोल और लंबा होता। केके मेनन और श्रद्धा कपूर का अभिनय भी प्रभावित करने वाला है। 'हैदर' कई रंग लिए हुए हैं और इसे देखा जाना चाहिए। बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर, विशाल भारद्वाज निर्देशक-संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, तब्बू, के.के. मेनन, इरफान खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट 50 सेकंड ",1 "बैनर : स्टुडियो 18, बर्मनवाला पार्टनर्स निर्देशक : अब्बास-मस्तान संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु, सोनम कपूर, बॉबी देओल, नील नितिन मुकेश, ओमी वैद्य, सिकंदर खेर, विनोद खन्ना सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 20 रील * 2 घंटे 48 मिनट दो सप्ताह पूर्व डॉन 2 और इस सप्ताह रिलीज हुई ‘प्लेयर्स’ में काफी कुछ समानता है। डॉन नोट छापने की प्लेट्स चुराने के लिए टीम बनाता है। कामयाब होता है, लेकिन ऐन वक्त पर उसके साथी गद्दारी करते हैं। इस सप्ताह रिलीज हुई ‘प्लेयर्स’ में दस हजार करोड़ रुपये का सोना चुराना है, जो ट्रेन द्वारा रशिया से रोमानिया ले जाया जा रहा है। एक टीम बनाई जाती है, जिसमें जादूगर है, कम्प्यूटर का जानकार है, एक विस्फोट विशेषज्ञ है। यह टीम भी कामयाब होती है और उसके तुरंत बाद ही एक साथी गद्दारी करता है। निर्देशक का काम होता है कि अविश्वसनीय कहानी को विश्वसनीय बनाना। डॉन 2 के निर्देशक फरहान अख्तर कुछ हद तक इसमें कामयाब रहे, लेकिन ‘प्लेयर्स’ के निर्देशक अब्बास-मुस्तान इस मामले में बुरी तरह फ्लॉप रहे। पहली से आखिरी फ्रेम तक स्क्रीन पर जो चलता रहता है वो कही से भी विश्वसनीय नहीं लगता। थ्रिलर फिल्म बनाने में माहिर अब्बास-मस्तान की यह सबसे बुरी फिल्मों में से एक है। चोरी-छिपे हॉलीवुड फिल्मों से प्रेरणा लेकर जब तक उन्होंने फिल्में बनाईं, उनका काम बेहतर रहा। पहली बार ‘द इटालियन जॉब’ के अधिकार खरीदकर इसका हिंदी संस्करण बनाया तो मामला बुरी तरह गड़बड़ा गया। भारतीय दर्शकों का ध्यान रखते हुए इमोशन्स डाले गए, विलेन के अड़डे पर हीरोइन का सेक्सी गाना रखा गया, अनाथों के लिए स्कूल खोलने का सपना देखा गया, लेकिन इनके लिए पर्याप्त सिचुएशन नहीं बन पाने से ये सब बड़े ही नाटकीय लगते हैं। चार्ली (अभिषेक बच्चन) को उसका एक दोस्त एक सीडी भेजता है, जिसमें रशिया से रोमानिया ले जाने वाले सोने, जिसकी कीमत दस हजार करोड़ रुपये है, का प्लान है। चार्ली के बस का यह काम नहीं है। अपने गुरु विक्टर (विनोद खन्ना) की मदद से वह एक टीम बनाता है जो इस चोरी को अंजाम देती है। सोना चुराने के बाद टीम के एक मेंबर का लालच जाग जाता है और वह गद्दारी करते हुए खुद सोना ले भागता है। अब चार्ली और उसकी टीम के बचे हुए सदस्य उससे अपना सोना वापस लाते हैं। कहानी बेहतरीन हैं और इस पर मसालेदार फिल्म बनने की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन रोहित जुगराज और सुदीप शर्मा ने इतना खराब स्क्रीनप्ले लिखा है कि हैरत होती है फिल्म के निर्माता और निर्देशकों पर कि वे कैसे इस पर करोड़ों रुपये लगाने के लिए राजी हो गए। स्क्रीनप्ले अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है। चार्ली और उसकी टीम जो चाहती है, जब चाहती है, बिना किसी मुश्किल के उन्हें वो चीज हासिल हो जाती है। दस हजार करोड़ रुपये का सोना वे इतनी आसानी से चुरा लेते हैं जैसे ये बच्चों का काम हो। ट्रेन से चोरी वाला सीक्वेंस बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है, लेकिन अविश्वसनीय होने के कारण यह प्रभावी नहीं लगता। इसके बाद कई ट्विस्ट और टर्न्स डाले गए हैं जो बहुत बनावटी हैं। दर्शकों को चौंकाने की कई असफल कोशिशें की गई हैं, लेकिन इस लंबे और उबाऊ ड्रामे में इंटरवल तक आते-आते दर्शक अपनी रूचि खो बैठता है। फिल्म का क्लाइमेक्स भी निराश करता है। नया कुछ करने की कोशिश में निर्देशक अब्बास-मस्तान अपने काम में बुरी तरह असफल रहे हैं। स्क्रिप्ट की खामियों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और न ही अपने कलाकारों से वे ठीक से काम ले पाएं। उनका कहना है कि इस फिल्म को एडिट करने में छ: महीने का वक्त लगा तो ये सच माना जाना चाहिए। असल में उनके शूट किए गए हिस्से को ‍‍एडिट करने के चक्कर में एडिटर भी चकरा गया होगा। एडिट करने के बाद भी फाइनल प्रिंट 20 रील के साथ तैयार हुआ है। फिल्म के कुछ कैरेक्टर्स को ठीक से डेवलप नहीं किया गया है। अभिषेक, बिपाशा को चाहते हैं या सोनम को ठीक से स्पष्ट नहीं है। बॉबी देओल का किरदार भी ठीक से नहीं लिखा गया है। रशिया से लूटा गया टनों वजनी सोना न्यूजीलैंड कैसे ले जाया गया इसका जवाब भी नहीं मिलता। फिल्म में फ्लॉप कलाकारों का जमावड़ा है। ऐसे कलाकार हैं जिनके पास न स्टार वैल्यू है और न ही प्रतिभा, जिससे फिल्म देखने में और बुरी लगती है। अभिषेक बच्चन पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन लिए घूमते रहे। बतौर टीम लीडर उनमें कोई उत्साह नहीं दिखा तो टीम में जोश कैसे नजर आता। बॉबी देओल का भी यही हाल रहा और उनका रोल आधा-अधूरा-सा है। उनकी बेटी और उनका ट्रेक ठूंसा हुआ है। सिकंदर खेर और सोनम कपूर निराश करते हैं। ओमी वैद्य जरूर कुछ जगह अपने संवादों से हंसाते हैं। बिपाशा बसु की सेक्स अपील का अच्छा उपयोग किया गया और उनका अभिनय औसत है। विनोद खन्ना थक चुके हैं। उनका और सोनम वाला ट्रेक बेहद उबाऊ है। इन सबके बीच नील नितिन मुकेश का काम अच्छा है। कुल मिलाकर प्लेयर्स का हाल भारतीय क्रिकेट टीम के प्लेयर्स की तरह है, जो खेल के दौरान शुरू से ही हथियार डाल देते हैं। ",0 "खतों के आदान-प्रदान से उपजी प्रेम कथा पर आधारित कुछ फिल्में बॉलीवुड में पहले भी बनी है। ‘सिर्फ तुम’ और ‘माय जापानीज वाइफ’ जैसे कुछ ताजे उदाहरण हैं। ईमेल और एसएमएस के युग में चिट्ठियों के जरिये प्रेम करने की बात फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ में इसलिए विश्वसनीय लगती है क्योंकि अभी भी उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो इंटरनेट की दुनिया से भलीभांति परिचित नहीं हैं। ‘द लंचबॉक्स’ के मुख्य किरदारों में एक मिडिल एज की गृहिणी इला और रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़ा साजन फर्नांडिस हैं और इसी इसी उम्र और वर्ग के ज्यादातर लोग ईमेल और एसएमएस जैसी सुविधाओं का उपयोग बहुत कम करते हैं। मुंबई में डब्बावाले (लंचबॉक्स बांटने वाले) डिलीवरी में कभी गलती नहीं करते हैं, लेकिन एक गलत डिलीवरी से इला और साजन में एक मधुर में एक मधुर रिश्ता पनपता है। फिल्म में एक डब्बा वाला कहता है कि इंग्लैंड का राजा भी हमारी तारीफ करके गया है और हमारे से कभी चूक नहीं होती। खैर, कहानी का मूल आधार ही यह छोटी-सी गलती है। इला की एक सात-आठ वर्ष की बेटी है। पति को इला में कोई रूचि नहीं है। इला अपने तरीके से उसका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करती है, लेकिन असफल रहती है। इला पेट के जरिये पति का दिल जीतने की कोशिश करती है और स्वादिष्ट व्यंजन बनाती है। पति को पहुंचाया गया लंचबॉक्स साजन को मिल जाता है और उससे रिश्ता बन जाता है। साजन और इला एक-दूसरे को लंच बॉक्स के जरिये चिठ्ठी लिखते हैं और अपने सुख-दु:ख को बांटते हैं। निर्देशक ने कई छोटे-छोटे दृश्यों से उनके रिश्तो को विकसित होते दिखाया है। साजन की पत्नी वर्षों पहले गुजर चुकी है और वह नितांत अकेला है। लोकल ट्रेन और बस में धक्के खाते हुए ऑफिस जाना, बोरिंग -सा रूटीन काम करना और घर लौटकर पत्नी को याद करना उसकी दिनचर्या है। अपने दिल की बात कहने के लिए उसे इला मिल जाती है। अपनी खुशी और नाराजगी का इजहार वे लंच बॉक्स के जरिये करते हैं। जैसे इला कभी खाने में मिर्च ज्यादा कर देती है तो कभी खाली टिफिन पहुंचा देती है। खतों के जरिये इला को साजन बताता है कि वह उम्र में उससे काफी बड़ा है, लेकिन इला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल उनका खूबसूरत रिश्ता देह और उम्र की सीमाओं से परे है। इस रिश्ते को निर्देशक रितेश बत्रा ने बहुत ही खूबसूरती से परदे पर उतारा है। फिल्म में संवाद बेहद कम है और बिना संवाद वाले दृश्यों के सहारे कहानी को आगे बढ़ाया गया है। रितेश के प्रस्तुतिकरण में एकव किस्म का ठहराव है जो मन को सुकून तो देता ही है साथ ही कलाकारों के मन में क्या चल रहा है उसे दर्शक महसूस करता है। फिल्म में मुंबई भी एक किरदार की तरह है। ठहरा हुआ ट्रेफिक, लोकल और बसों में भीड़, लंबा इंतजार एक किस्म का तनाव और थकान पैदा करता ‍जिसे किरदारों के साथ-साथ आप भी महसूस कर सकते हैं। इस फिल्म में कुछ मजेदार किरदार भी हैं, जो आपके चेहरे पर मुस्कान लाते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दकी का कैरेक्टर उन लोगों जैसा है जो न चाहते हुए भी और हमारे उनके प्रति रुखे व्यवहार के बावजूद हमारी जिंदगी में घुसे चले आते हैं। रिटायर होने वाले साजन की जगह वह लेने वाला है और उससे काम सीखता है। एक आंटी का किरदार है जिसकी सिर्फ आवाज सुनाई देती है। यह आवाज भारती आचरेकर की है और वह इला के ऊपर वाले फ्लैट में रहती है। इला अपने किचन की खिड़की से उससे बातें करती हैं। इला, उसकी मां और आंटी की अपनी उलझनें हैं। इला का पति उसकी ओर ध्यान नहीं देता, आंटी का पति पिछले पन्द्रह वर्ष से कोमा में है और वह उसी प्यार से उसकी सेवा कर रही है जितना प्यार पहले था। इला की मां के पति को कैंसर है और वह मन मारकर उनकी सेवा कर रही है। इन महिलाओं की रिश्तों में बंधे होने की अपनी-अपनी मजबूरी है। इला जब पहली बार मुलाकात के लिए साजन को बुलाती है तो वह तैयार होकर रेस्तरां में मिलने के लिए निकलता है। रेस्तरां पहुंच कर भी वह इला से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। अपने से उम्र में कई वर्ष छोटी इला के सामने वह अपने आपको बूढ़ा पाता है। उसकी इस सोच को निर्देशक ने दो दृश्यों के जरिये दिखाया है। निर्देशक ने फिल्म का ओपन एंड रखा है ताकि दर्शक अपने-अपने मतलब निकाले। फिल्म खत्म होने के बाद लंच बॉक्स के किरदार आपका पीछा नहीं छोड़ते हैं और यही इसकी कामयाबी भी है। फिल्म में सभी का अभिनय ऊंचे दर्जे का है। इरफान खान ने कई बार अवॉर्ड विनिंग परफॉर्मेंस दिए हैं इस लिस्ट में ‘द लंचबॉक्स’ भी जुड़ गई है। अकेला, उम्रदराज और थक चुका साजन का किरदार उन्होंने अद्भुचत तरीके से निभाया है। निम्रत कौर और नवाजुद्दीन शेख ने अपने-अपने किरदारों को जिया है। यह लंचबॉक्स स्वादिष्ट व्यंजनों से भरपूर है। बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, धर्मा प्रोडक्शन्स, डार मोशन पिक्चर्स, सिख्या एंटरटेनमेंट निर्माता : गुनीत मोंगा, करण जौहर, अनुराग कश्यप, अरुण रंगाचारी निर्देशक : रितेश बत्रा कलाकार : इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दकी, निम्रत कौर, संजीव कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 50 मिनट ",1 "निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी निर्देशक : अभिनय देव संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : अभिषेक बच्चन, कंगना, सेरा जेन डिएस, जिमी शेरगिल, गौहर खान, शहाना गोस्वामी, बोमन ईरानी, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 10 मिनट थ्रिलर और मर्डर मिस्ट्री फिल्म बनाना हर किसी के बस की बात नहीं है। राज खुलने तक दर्शक को बाँधकर रखना और कातिल के चेहरे से परदा हटने के बाद दर्शक को संतुष्ट करना कठिन काम है क्योंकि सभी को अपने प्रश्नों का ठोस उत्तर ‍चाहिए। इसके लिए कसी हुई स्क्रिप्ट और चुस्त निर्देशन की आवश्यकता होती है। ‘गेम’ इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरती और एक उबाऊ फिल्म के रूप में सामने आती है। हैरत इस बात की होती है कि इस फिल्म से फरहान अख्तर का नाम जुड़ा है जिनका बैनर अच्छी फिल्मों के लिए जाना जाता है। फिल्म से जुड़े सारे लोगों का ध्यान केवल स्टाइलिश फिल्म बनाने की ओर रहा। सारे कलाकार स्टाइलिश नजर आते हैं, हत्या के बाद हत्यारे की खोज आधुनिक तरीकों से की जाती है, पाँच देशों की शानदार लोकेशन पर भागम-भाग होती है, लेकिन ठोस कहानी और स्क्रीनप्ले के अभाव में ये सभी चीजें खोखली नजर आती हैं। कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) अपने प्राइवेट आयलैंड पर ओपी रामसे (बोमन ईरानी), नील मेनन (अभिषेक बच्चन), तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) और विक्रम कपूर (जिम्मी शेरगिल) को बुलाता है। इनमें से एक नेता है, दूसरा कैसिनो मालिक है, तीसरा पत्रकार है और चौथा फिल्म स्टार। कबीर की एक नाजायज बेटी थी जिसकी जिंदगी को बरबाद करने में इन चारों का हाथ है। वह इनसे अपना बदला लेना चाहता है। लेकिन इसके पहले ही एक ऐसी घटना घटती है और एक ऐसा राज खुलता है जिसका असर सभी की जिंदगियों पर होता है। सिया (कंगना) नामक ऑफिसर इस मामले की जाँच करती है। लगता है कि फिल्म की स्क्रिप्ट एक बार लिखकर ही फाइनल कर दी गई है। इतने सारे अगर-मगर हैं, प्रश्न हैं, जिनका जवाब देने की कोई जरूरत नहीं समझी गई है। कबीर गहरी छानबीन कर इन चारों को अपने आयलैंड पर बुलाता है, लेकिन एक व्यक्ति के बारे में वह यह नहीं जान पाता कि वह पुलिस इंसपेक्टर है और उसकी बेटी को चाहता था। पुलिस इंसपेक्टर अपनी पहचान क्यों छिपाकर रखता है यह भी समझ से परे है। साथ ही मामले की पड़ताल के दौरान वह अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपना बदला भी लेता है। कई सवाल ऐसे हैं, जिनके बारे में यहाँ बात की गई तो कहानी के राज खुल सकते हैं। फिल्म का अंत बेहद खराब है और एकदम फिल्मी है। निर्देशक अभिनय देव ने कहानी के बजाय शॉट्स कैसे फिल्माए जाए, फिल्म को रिच लुक कैसे दिया जाए, इन्हीं बातों पर गौर किया है। कहानी का उन्होंने इस तरह फिल्मांकन किया है उससे दर्शक कभी जुड़ नहीं पाता है। मनोरंजक दृश्यों की फिल्म में कमी है और एक भी ऐसा सीन नहीं है कि दर्शकों में रोमांच पैदा हो। ‍फिल्म में दो-तीन गाने भी हैं, जिनकी न धुन अच्छी है और न ही फिल्मांकन। लगता है कि सारे कलाकारों को भी स्क्रिप्ट समझ में नहीं आई, जिसका असर उनके अभिनय पर दिखता है। अभिषेक बच्चन भावहीन (एक्सप्रेशन लेस) रहे, हालाँकि ये उनके किरदार पर सूट करता है। बोमन ईरानी ने ओवर एक्टिंग की है। जिमी शेरगिल और शहाना गोस्वामी जैसे कलाकार भी रंग में नजर नहीं आए। पहली फिल्म में सेरा जेन डिएस प्रभावित नहीं कर पाईं। कंगना को तुरंत हिंदी और अँग्रेजी के उच्चारण सीखने की की जरूरत है। उनका अभिनय भी बनावटी है। इनकी तुलना में अनुपम खेर का अभिनय ठीक है। कुल मिलाकर इस गेम को ना खेलना ही बेहतर है। ",0 "दोस्ती और लड़की में हमेशा जीत लड़की की होती है, यह कहावत प्यार और दोस्ती के टकराव के लिए आम है और इसी पंचलाइन पर लेखक-निर्देशक लव रंजन ने अपनी नई फिल्म सोनू के टीटू की स्वीटी की कहानी बुनी है। प्यार का पंचनामा सीरीज के लिए मशहूर रहे लेखक-निर्देशक लव रंजन ने इस बार रोमांस और ब्रोमांस के बीच टक्कर को तरजीह दी है। टीटू (सनी सिंह) एक ऐसा लड़का है, जो बार-बार प्यार में पड़ता है, लेकिन हर बार गलत लड़की के चक्कर में पड़कर उसका दिल टूट जाता है। दिल टूटने पर उसका बचपन का भाई सरीखा दोस्त सोनू (कार्तिक आर्यन) न केवल उसे रोने के लिए कंधा देता है, बल्कि उसे गलत लड़की के चंगुल से बचाता भी है। 13 साल की उम्र में मां के गुजर जाने के बाद सोनू को टीटू के परिवार ने ही पाला है और वह उसी परिवार को अपना परिवार समझता है। इस परिवार में दादा घसीटे (आलोक नाथ), दादी, मम्मी, पापा और मामा ( वीरेंद्र सक्सेना) हैं। ये सभी सदस्य सोनू को अपने बेटे और वारिस की तरह ही प्यार करते हैं। लव और ब्रेकअप की झंझट से तंग आकर आखिरकार टीटू शादी करने का फैसला करता है। अरेंज मैरिज के तहत उसे स्वीटी (नुसरत भरूचा) का रिश्ता आता है। टीटू और पूरे परिवार को स्वीटी शादी के लिए आदर्श और परफेक्ट लड़की लगती है, मगर बचपन से ही टीटू के संरक्षक का रोल निभानेवाले सोनू को लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है। स्वीटी एक परफेक्ट लड़की है। वह एक अच्छी बहू है, अच्छी बेटी है और परफेक्ट गर्लफ्रेंड है। ट्रेलर देखें वह इतनी अच्छी और परफेक्ट कैसे हो सकती है? अब वह नहीं चाहता कि टीटू स्वीटी से शादी करे। वह स्वीटी को गलत और झूठी साबित करने की तमाम तिकड़में लड़ाता है। स्वीटी भी सोनू को ईंट का जवाब पत्थर से देती है, मगर क्या स्वीटी वाकई झूठी और बुरी लड़की है? क्या वाकई दोस्ती और लड़की में स्वीटी की जीत होगी? यह देखने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। अपनी पिछली फिल्मों की तरह लव रंजन ने यहां भी कॉमिडी के फ्लेवर को बनाए रखा है। उनके संवादों का चुलबुलापन कई दृश्यों में हंसाता है और वह मनोरंजक बन पड़े हैं। कहानी में जोड़े गए किरदार बड़े मजेदार हैं। वे दर्शकों को जोड़े रखते हैं। आम तौर पर उनकी फिल्में पुरुष के नजरिए से होती है। उनकी फिल्मों में नायक, नायिकाओं द्वारा सताए हुए होते हैं और नायक बेचारा होता है। इस बार भी लव रंजन ने उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए हीरोइन को परंपरावादी नायिका से हटकर अपनी चिरपरिचित शैली में दर्शाया है, जहां वह एक से बढ़कर एक दांव आजमाती है, मगर उसके चरित्र चित्रण में उसका जस्टिफिकेशन नहीं मिलता कि वह वैसी क्यों है? और यह बात आपको सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के बाद भी खटकती है, मगर निर्देशक ने इस बात की कत्तई परवाह नहीं की है। सोनू के रूप में कार्तिक आर्यन और टीटू की भूमिका में सनी सिंह का ब्रोमांस और केमिस्ट्री फिल्म का मजबूत पहलू है। कार्तिक आर्यन ने अपने किरदार को हर तरह से दमदार बनाया है। नुसरत ने स्वीटी के रूप में कार्तिक को अच्छी टक्कर दी है। उन दोनों की टशनबाजी के दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। नुसरत खूबसूरत लगने के साथ-साथ अभिनय के मामले में भी आगे रही हैं। भोले-भाले टीटू के रोल में सनी सिंह ने अपनी भूमिका सहजता से निभाई है। एक अरसे बाद दादा के रूप में आलोकनाथ अपने पुराने कॉमिक अंदाज में नजर आए हैं। वीरेंद्र सक्सेना, दीपिका अमीन और सोनू कौर जैसे कलाकरों को अच्छा-खासा स्क्रीन स्पेस मिला है, जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया है। कई संगीतकारों की मौजूदगी में 'दिल चोरी', 'स्वीटी स्लोली', 'लक मेरा हिट', 'तेरा यार हूं मैं' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। उनकी कोरियॉग्रफी भी देखने लायक है। क्यों देखें-कॉमिडी के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",0 "बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अली अब्बास जफर संगीत : सोहेल सेन कलाकार : इमरान खान, कैटरीना कैफ, अली जफर, तारा डिसूजा, कंवलजीत सिंह, परीक्षित साहनी सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 20 मिनट शादी की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्में लगातार देखने को मिल रही हैं और दर्शकों द्वारा पसंद भी की जा रही हैं। बैंड बाजा बारात ने सफलता के झंडे गाड़े और तनु वेड्स मनु को भी सराहा गया। यशराज फिल्म्स की ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ पर भी शादी का रंग चढ़ा हुआ है। शादी की तैयारियां चल रही हैं, मेहमान आ रहे हैं, रस्म अदायगी हो रही है और इसी बीच कुश (इमरान खान) को अपने भाई लव (अली जाफर) की मंगेतर डिम्पल (कैटरीना कैफ) से प्यार हो जाता है। वैसे इस तरह की कहानी पर आधारित फिल्म ‘सॉरी भाई’ कुछ वर्ष पहले आई थी। ‘तनु वेड्स मनु’ से भी ट्रीटमेंट के मामले में यह फिल्म काफी मिलती-जुलती है। फर्क इतना है कि यहां भाई की होने वाली पत्नी से इश्क हो जाता है। किरदार भी तनु वेड्स मनु जैसे हैं। कंगना जैसी बोल्ड और बिंदास यहां कैटरीना भी हैं। वह भी शराब गटकती है और बीड़ी फूंकती है। माधवन को उस फिल्म में सीधा-सादा नौजवान दिखाया गया था और ऐसा ही किरदार इमरान खान का है। दरअसल ‍निर्देशक अली अब्बास जाफर पुरानी कई फिल्मों से प्रभावित हैं और उन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ की स्क्रिप्ट लिखी है। कई जगह उन्होंने पुराने गानों का उपयोग किया है और कई फिल्मों के दृश्यों का उल्लेख भी किया है। शाहरुख खान ने ‘माई नेम इज खान’ में जो किरदार निभाया था वैसा ही किरदार कैटरीना के भाई के रूप में देखने को मिलता है। वह अभिनय भी शाहरुख की तरह करता है। कुल मिलाकर अली अब्बास जाफर एक मनोरंजक फिल्म बनाना चाहते थे और उसमें पूरी तरह वे कामयाब रहे हैं। कुश की डिम्पल से एक छोटी-सी मुलाकात पांच वर्ष पहले हुई थी। जब उसे वह फैशनेबल जानवर नजर आई थी। अपने लंदन में रहने वाले भाई लव के लिए वह दुल्हन तलाशने निकलता है और संयोग से डिम्पल से भी उसकी मुलाकात हो जाती है। डिम्पल अब काफी बदल चुकी है और कुश को वह अपने भाई के लिए परफेक्ट लगती है। शादी की तैयारियां चल रही हैं। लव लंदन से आने वाला है। उसके आने के पहले डिम्पल का ज्यादातर वक्त कुश के साथ गुजरता है। शादी के पहले वह दो दिन मौज-मस्ती के साथ जीना चाहती है। कुश उसका साथ देता है। फिर लव आता है। डिम्पल, लव के साथ समय व्यतीत करती है, लेकिन कुश को मिस करती है। ऐसा ही हाल कुश का भी है। दोनों को समझ में आता है कि वे एक-दूसरे को चाहने लगे हैं। डिम्पल चाहती है कि वह और कुश भाग कर शादी कर ले, लेकिन कुश तैयार नहीं है। वह मध्यमवर्गीय परिवार से है। पिता की इज्जत, होने वाली भाभी के साथ भागने का लांछन, बदनामी के कारण वह तैयार नहीं है। वह और डिम्पल मिलकर एक प्लान बनाते हैं ताकि लव अपने आप रास्ते से हट जाए। परिस्थितियां ऐसी पैदा हो कि सभी की मर्जी से उनकी शादी हो। किस तरह उनकी योजना कामयाब होती है, ये फिल्म में कॉमेडी के सहारे दिखाया गया है। कुछ लोगों को इस बात पर ऐतराज हो सकता है कि कैसे आप अपने होने वाली भाभी के साथ इश्क लड़ा सकते हैं। अपने ही सगे भाई को धोखा दे सकते हैं, लेकिन फिल्म देखते समय इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं जाता क्योंकि स्क्रीनप्ले कसा हुआ और मनोरंजन से भरपूर है। ज्यादा सोचने का वक्त नहीं मिलता। इंटरवल तक तो फिल्म में इतनी तेजी से सब कुछ घटित होता है कि उत्सुकता बढ़ती है कि इसके बाद अब क्या देखने को मिलेगा। इंटरवल के बाद थोड़े ‘डल सीन’ आते हैं, लेकिन फिल्म फिर रफ्तार पकड़ लेती है। फिल्म में कई सीन बेहतरीन बन पड़े हैं, जैसे- कैटरीना का इमरान को भगा कर ले जाना, एअरपोर्ट पर इमरान और कैटरीना का अली को लेने जाना, अली का इमरान के सामने स्वीकारना कि वह कैटरीना से शादी नहीं कर सकता, कैटरीना और इमरान का भेष बदल कर घूमना। चुटीले संवाद और सिचुएशनल कॉमेडी होने से फिल्म में बेहद मनोरंजक है। बतौर निर्देशक अली अब्बास जफर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह लगता है। चूंकि स्क्रीनप्ले भी उनका लिखा हुआ है इसलिए फिल्म पर उनकी पकड़ और मजबूत है। फिल्म के मूड को ध्यान में रखते हुए अली ने सभी कलाकारों से थोड़ी-सी ओवर एक्टिंग करवाई है, जो अच्छी लगती है। कैटरीना कैफ को अपने करियर की बेहतरीन भूमिकाओं में से एक मिली है, जिसका उन्होंने अच्छा फायदा उठाया है। पूरी फिल्म उनके किरदार के इर्दगिर्द घूमती है। उनकी एक्टिंग प्रभावी है, लेकिन वे और अच्छा कर सकती थीं। इमरान खान इस तरह के रोल पहले भी कर चुके हैं। उनके लिए कुश का किरदार नई बात नहीं है। अली जाफर ने अपने किरदार को स्टाइलिश लुक दिया है। फिल्म का संगीत भी इसका प्लस पाइंट है। सोहेल सेन ने ‘मधुबाला’, धुनकी’, ‘छूमंतर’ और ‘इश्क रिस्क’ की अच्छी धुनें बनाई हैं। इरशाद कामिल के बोल भी उम्दा है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है। ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ एक हल्की-फुल्की और मनोरंजक फिल्म है, जिसे देखा जा सकता है। ",1 "‘अगर’ देखने के बाद कई फिल्मों के नाम याद आते हैं, जो इससे मिलती-जुलती है। निर्देशक अनंत महादेवन ने उन फिल्मों को मिलाकर ‘अगर’ बनाई है। इस फिल्म में मानसिक बीमारी से ग्रस्त प्रेमी, जायदाद हड़पने का षड्‍यंत्र, अनैतिक संबंध, बेवफा प्रेमिका जैसे थ्रिलर फिल्म के सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं, लेकिन इसके बावजूद फिल्म वैसा असर नहीं छोड़ पाती, जिसकी तलाश एक थ्रिलर फिल्म में होती है। आर्यन (तुषार कपूर) अपनी प्रेमिका की बेवफाई सहन नहीं कर पाता और मा‍नसिक संतुलन खो बैठता है। उसकी प्रेमिका की मौत हो जाती है। डॉक्टर अदि मर्चेण्ट (श्रेयस तलपदे) उसका इलाज करता है और उसे फिर से जीना स‍िखाता है। अदि की पत्नी जाह्नवी (उदिता गोस्वामी) एक सफल महिला है। करोड़ों रुपयों की उसकी कंपनी है। जाह्नवी को शक है कि अदि की जिंदगी में कोई महिला है। आर्यन ठीक होकर जाह्नवी की कंपनी में नौकरी करता है। इस बात से अदि बेखबर है। अदि से परेशान होकर जाह्नवी आर्यन की तरफ आकर्षित हो जाती है। दोनों सारी हदों को पार कर देते हैं। जल्द ही जाह्नवी को अपनी गलती का अहसास होता है और वह आर्यन से संबंध नहीं रखना चाहती। एक लड़की की बेवफाई झेल चुका आर्यन जाह्नवी की बेरूखी से परेशान हो जाता है। एक बार फिर उसका दिमागी संतुलन बिगड़ने लगता है। वह जाह्नवी को मार डालना चाहता है। आखिर में कुछ राज खुलते हैं और फिल्म समाप्त होती है। फिल्म तब तक अच्छी लगती है, जब तक असली मुजरिम सामने नहीं आता। उसके सामने आने के बाद कई प्रश्न खड़े होते हैं, जिनका कोई जवाब नहीं दिया गया। इस कारण दर्शक अपने आपको ठगा-सा महसूस करता है। जो साजिश अपराधी ने रची है, वो बेहद लचर और बचकानी लगती है। रहस्य और रोमांच से भरी फिल्म का अंत बेहद ठोस होना चाहिए। दर्शकों को अपने सारे प्रश्नों का जवाब मिलना चाहिए, लेकिन निर्देशक ने अंत में सारे तर्कों को एक तरफ रख दिया है। लेखक और निर्देशक अपनी कहानी को अंत में ठीक तरह से समेट नहीं पाए। फिल्म अदि, आर्यन और जाह्नवी के इर्दगिर्द घूमती है। आर्यन और जाह्नवी के चरित्र रंग बदलते रहते हैं। आर्यन कभी समझदारी भरी बातें करता है तो कभी नासमझी भरी। जाह्नवी को एक आधुनिक और समझदार महिला बताया गया है। वह अपने पति पर शक करती है और आर्यन से संबंध बना लेती है। अपने पति को वह जिस गलती से रोकना चाहती है, वहीं गलती वह खुद करती है, ये समझ से परे है। निर्देशक अनंत महादेवन ने एक कमजोर कहानी पर फिल्म बनाई है और सिनेमा के नाम पर कहानी में खूब छूट ली है। ‍उन्होंने फिल्म को मॉडर्न लुक देने की कोशिश की है। निर्माता ने फिल्म पर कम पैसे खर्च किए हैं और बजट की तंगी का असर फिल्म पर दिखाई देता है। तुषार कपूर के अभिनय की पोल उन दृश्यों में खुल जाती है, जिसमें अभिनय करना पड़ता है। पूरी फिल्म में वे बीमार से लगते हैं। श्रेयस का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनका चरित्र उनकी उम्र को सूट नहीं करता। चश्मे और दाढ़ी के जरिये निर्देशक ने उन्हें मैच्योर दिखाने की कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बनती। उदिता गोस्वामी का अभिनय अच्छा है और उन्हें काफी फुटेज भी मिला है। निर्माता : नरेन्द्र बजाज-श्याम बजाज निर्देशक : अनंत महादेवन संगीत : मिथुन कलाकार : तुषार कपूर, उदिता गोस्वामी, श्रेयस तलपदे, सोफी सईद कादरी ने अच्छे बोल लिखे हैं, लेकिन मिथुन द्वारा बनाई गई धुनें निराश करती है। फिल्म में अच्छे गानों की कमी अखरती है। ",0 "बैनर : सहारा वन मोशन पिक्चर्स, बीएसके फिल्म्स निर्माता : बोनी कपूर निर्देशक : प्रभुदेवा संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : सलमान खान, आयशा टाकिया, महेश मांजरेकर, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, इन्दर कुमार, महक चहल, मेहमान कलाकार - गोविन्दा, अनिल कपूर, प्रभुदेवा * केवल वयस्कों के लिए * 155 मिनट * 18 रील वन...टू...थ्री...सिनेमाघर में अंधेरा होते ही सलमान खान का शो शुरू हो जाता है। सलमान की एंट्री होती है एक्शन सीन से। एकदम ‘दीवार’ के अमिताभ की स्टाइल में सलमान शटर गिराते हैं और उस पर ताला गुंडे लगाते हैं। इसके बाद उन बीस-पच्चीस आदमियों की सल्लू जोरदार तरीके से धुलाई करते हैं। धाँसू एक्शन सीन के तुरंत बाद धाँसू गाना। गणेश जी की मूर्ति के सामने सलमान ‘जलवा’ गाने पर ठुमके लगाते हैं। एक्शन और गाने से निर्देशक ने दिखा दिया कि राधे किस तरह का आदमी है। वह लोगों को गाजर-मूली की तरह काटता है और भगवान के आगे सिर झुकाता है। राधे (सलमान खान) एक शूटर है। उसके चमचे उसे ब्रूसली का नाना और रैम्बो का चाचा कहते हैं। ‘तुम जिस स्कूल में पढ़े हो उसका हेडमास्टर मेरे से ट्यूशन लेता है’ जैसे घिस-पिटे डॉयलॉग भी वह बोलता है। पैसे के लिए वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन ठहरिए... उसके भी कुछ उसूल हैं। औरतों और बच्चों पर वह हाथ नहीं उठाता। जो काम पसंद आता है वही करता है। शराब और खून जब इच्छा हो तब पीता है और वो भी दबा के। गुटखे को वह मौत का सामान मानता है। एक बार कमिटमेंट कर दिया तो फिर वह अपनी भी नहीं सुनता। एक्शन के बीच रोमांस भी जरूरी है। इस गुंडेनुमा शख्स की स्टाइल पर लड़कियाँ मरती है क्योंकि ‘हथियार’ से वह बहुत अच्छी तरह खेलता है। ‘तुम गुंडे हो, लेकिन दिल के अच्छे हो’ कहकर इस हत्यारे पर जाह्नवी (आयशा टाकिया) फिदा हो जाती है, लेकिन राधे के क्रूर रूप को देख वह भी सिहर उठती है। मोटी-ताजी जाह्नवी पर दो लोग और फिदा है। अधेड़ उम्र का मकान मालिक (मनोज पाहवा), जो बीच-बीच में दर्शकों को हँसता है और इंसपेक्टर तलपदे (महेश मांजरेकर), जिसकी हरकतों पर दर्शकों को गुस्सा आता है। गनी भाई (प्रकाश राज) के लिए राधे काम करता है और उनके दुश्मनों को ठिकाने लगता है। गनी भाई के खास आदमी का मर्डर हो जाता है और लड़कियों की कुश्ती देखने के शौकीन गनी भाई विदेश से भारत चले आते हैं। यहाँ आकर उन्हें एक खास राज मालूम पड़ता है, जिससे उनकी और राधे की दुश्मनी हो जाती है। कहानी में ट्विस्ट आता है और खून-खराबे के पीछे राधे का मकसद क्या है, ये सभी को पता चलता है। तमिल फिल्म ‘पोकिरी’ पर आधारित ‘वॉन्टेड’ की कहानी धागे जैसी पतली है। उसमें नयापन भी नहीं है। आगे क्या होने वाला है ये सभी को पता रहता है। क्लाइमेक्स के थोड़ा पहले तक कहानी आगे खिसकती भी नहीं है। फिर भी फिल्म में रूचि बनी रहती है क्योंकि निर्देशक प्रभुदेवा ने दृश्यों की असेंबलिंग बहुत ही उम्दा तरीके से की है। एक्शन, हास्य और रोमांस का मिश्रण बिलकुल बराबर मात्रा में किया है। साथ ही उन्होंने सलमान खान को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। सलमान के ढेर सारे प्रशंसक उन्हें इसी रूप में देखना पसंद करते हैं। सलमान की जो इमेज है वह राधे के किरदार से बिलकुल मेल खाती है। अक्खड़, थोड़ा बिगड़ैल लेकिन दिल का हीरा, बेखौफ, लार्जर देन लाइफ सी शख्सियत, अपनी मर्जी से जीने वाला, स्टाइलिश, औरतों की इज्जत करने वाला। लगता ही नहीं कि सलमान एक्टिंग कर रहे हैं। पूरी फिल्म में सलमान का प्रभुत्व है। सल्लू की हीरोगिरी दिखाने के लिए स्क्रिप्ट की खामियों को भी नजरअंदाज कर दिया गया है। सलमान के कारण दर्शक उन गलतियों को पचा लेते हैं। सलमान पर सैकड़ों गोलियाँ चलती हैं और उन्हें खरोंच तक नहीं आती। ‘वॉन्टेड’ देखते समय दर्शक इन बातों की परवाह नहीं करते क्योंकि उनके हीरो को गोली छू भी नहीं सकती। एक्शन इस फिल्म का प्रमुख आकर्षण है। कई एक्शन/स्टंट बेहतरीन बन पड़े हैं, जिनमें सलमान की एंट्री वाला सीन, आयशा को ट्रेन में छेड़ने वाले गुंडों की पिटाई वाले सीन और फिल्म का क्लायमैक्स उल्लेखनीय हैं। संगीत की बात की जाए तो ‘जलवा’ और ‘लव मी’ उम्दा है। हर गाने का फिल्मांकन खूबसूरत लोकेशन्स पर भव्य तरीके से किया गया है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है। आयशा टाकिया ने सलमान का साथ उम्दा तरीके से निभाया है। गनी भाई के रूप में प्रकाश राज ने अपनी छाप छोड़ी है। पुलिस की गिरफ्त रहकर उन्होंने खूब हँसाया है। महेश मांजरेकर को देख नफरत पैदा होती है और यही उनकी कामयाबी है। विनोद खन्ना प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। यदि आप एक्शन फिल्म पसंद करते हैं और सलमान खान के प्रशंसक हैं तो ‘वॉन्टेड’ आपके लिए है तीखे मसालों के साथ। ",1 "निल बटे सन्नाटा के निर्माता-निर्देशक ने ये साहस का काम किया है कि एक बाई के किरदार को लीड में लेकर फिल्म बनाई है। ये फिल्म उस वर्ग का प्रतिनिधित्व रखती है जिसे समाज में खास महत्व नहीं दिया जाता है। भारत के श्रेष्ठि वर्ग में 'बाई' के बिना कोई काम नहीं होता। ये महिलाएं अपने घर का काम करने के बाद अन्य घरों का काम भी करती हैं और सपने देखने का हक इन्हें भी है। फिल्म की नायिका चंदा सहाय चाहती है कि उसकी किशोर बेटी अपेक्षा पढ़ लिख कर कुछ बन जाए, लेकिन अपेक्षा का मन पढ़ाई में नहीं लगता। चंदा उसे डांटती है तो वह कहती है कि जब डॉक्टर की संतान डॉक्टर बनती है तो बाई की बेटी भी बाई बनेगी। यह सुन चंदा के पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाती है, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती। अपेक्षा को गणित से डर लगता है। यह जान कर चंदा भी उसकी कक्षा में दाखिला ले लेती है। अपेक्षा को छोड़ कोई भी नहीं जानता कि चंदा ही अपेक्षा की मां है। चंदा गणित सीखती है ताकि वह अपेक्षा को सीखा सके, लेकिन चंदा के इस कदम से अपेक्षा बेहद नाराज हो जाती है। आखिर में उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह पढ़ाई में मन लगाती है। नितेश तिवारी ने उम्दा कहानी लिखी है। कहानी उपदेशात्मक या नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली है, लेकिन स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि लगातार दर्शकों का मनोरंजन होता रहता है। मनोरंजन के आड़ में कई बातें दर्शकों के अवचेतन में उतारी गई है। जैसे- सपने देखने पर हर किसी का हक है, गणित को लेकर विद्यार्थी बेवजह का हौव्वा बना लेते हैं, बेटी पढ़ाओ, सपने को पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। फिल्म में मां-बेटी के रिश्ते को भी बहुत ही उम्दा तरीके से दिखाया गया है। आमतौर पर किशोर उम्र के बच्चे मां-बाप के खिलाफ विद्रोही तेवर अपना लेते हैं। अपेक्षा को भी शिकायत रहती है कि उसकी मां बाई है और उसे ज्यादा पढ़ा नहीं सकती है, लेकिन चंदा इसे गलत साबित करती है। निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने फिल्म को सरल तरीके से पेश किया है। सरकारी स्कूल का माहौल और समाज के कमजोर तबके का फिल्मांकन प्रशंसा के योग्य है। फिल्म के लगभग सारे किरदार बहुत ही भले हैं, चाहे वो स्कूल प्रिंसिपल (पंकज त्रिपाठी) हो, कलेक्टर (संजय सूरी) हो या लेडी डॉक्टर (रत्ना पाठक शाह) हो। हमेशा मदद के लिए तत्पर ये दिखाई देते हैं। फिल्मों के साथ-साथ असल जिंदगी में से भी ऐसे लोग गायब हो गए हैं। फिल्म में बहुत सारा घटनाक्रम नहीं है, इसलिए निर्देशक की जवाबदारी बढ़ जाती है। कई छोटे-छोटे दृश्य गढ़ कर कहानी को आगे बढ़ाना पड़ता है और इसमें निर्देशक सफल रहे हैं। स्कूल के कई दृश्य बहुत अच्छे हैं और मनोरंजन करते हैं। इन्हें देख वयस्कों को अपने स्कूली दिनों की याद आ जाएगी। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां रह गई है, जैसे चंदा इसलिए स्कूल में दाखिला लेती है ताकि वह अपनी बेटी की गणित संबंधी समस्या को दूर कर सके, लेकिन ‍उसे ऐसा करते दिखाया नहीं गया। कुछ इस तरह के दृश्य फिल्म में होने थे। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इसमें कोई शक नहीं है कि स्वरा भास्कर कितनी उम्दा एक्ट्रेस हैं। 'निल बटे सन्नाटा' में एक बार फिर वे ये बात साबित करती हैं। चंदा के रोल को उन्होंने जिया है। अपेक्षा के रोल में रिया शुक्ला एकदम फिट नजर आती हैं। कभी भी लगता नहीं कि वह अभिनय कर रही है। स्कूल प्रिंसीपल के रूप में पंकज त्रिपाठी ने खूब हंसाया है। उन्होंने एक खास तरह की बॉडी लैंग्वेज अपनाई और ओवर एक्टिंग भी की, लेकिन किरदार को एक अलग ही लुक दिया। रत्ना पाठक शाह का ज्यादा उपयोग नहीं हो पाया। छोटे से रोल में संजय सूरी प्रभावित करते हैं। 'निल बटे सन्नाटा' एक फील गुड सिनेमा है जिसे देखने के बाद आप थोड़ी खुशी महसूस करते हैं। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, कलर येलो प्रोडक्शन्स, जर पिक्चर्स निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, आनंद एल. राय, अजय जी. राय, संजय शेट्टी, नितेश तिवारी, एलन मैक्लेक्स निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी कलाकार : स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला, रत्ना पाठक शाह, पंकज त्रिपाठी, संजय सूरी ",1 "चाहे कोई इंसान अपनी जिंदगी में कहीं भी पहुंच जाए, लेकिन उसके जेहन में बचपन की कुछ ऐसी यादें जरूर होती हैं, जो उसे हमेशा याद रहती हैं। कुछ बुरी यादें इंसान को हमेशा परेशान करती हैं, तो कुछ अच्छी यादें उसे हमेशा खुशनुमा एहसास कराती हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्व प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' पर बेस्ड 'बायोस्कोपवाला' इसका मॉडर्न अडॉप्टेशन है। फिल्म के डायरेक्टर देब मधेकर का कहना है कि उन्होंने आज के दौर का काबुलीवाला बनाने की कोशिश की है। फिल्म में फैशन स्टाइलिस्ट मिनी बासु (गीतांजलि थापा) अपने पापा रोबी बासु (आदिल हुसैन) के साथ कोलकाता में रहती है, जो कि जाने-माने फैशन फटॉग्रफर हैं। बाप-बेटी के बीच संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। एक दिन रोबी की कोलकाता से काबुल जाने वाले एक हवाई जहाज की दुर्घटना में मौत हो जाती है। मिनी पिता की मृत्यु से संबंधित औपचारिकताएं पूरी कर ही रही थी कि घरेलू नौकर भोला (ब्रिजेंद्र काला) उसे घर आए नए मेहमान रहमत खान (डैनी डेन्जोंगपा) से मिलवाता है। मिनी को पता लगता है कि उसके स्वर्गीय पापा ने हत्या के मुकदमे में जेल में बंद रहमत को कोशिश करके जल्दी छुड़वाया है। शुरुआत में मिनी भोला को तुरंत घर से बाहर कर देने के लिए कहती है, लेकिन अपने पापा के रूम को खंगालते वक्त मिनी को पता लगता है कि यह रहमत और कोई नहीं, बल्कि वह उसके बचपन में उनके घर आने वाला बायोस्कोपवाला ही है, जिसकी सुनहरी यादें अभी भी उसके जेहन में ताजा हैं। और तो और एक बार तो रहमत ने अपनी जान पर खेलकर मिनी की जान भी बचाई थी। दरअसल, वह मिनी में अपनी पांच साल की बेटी की झलक देखता था, जिसे कि वह मुश्किल दिनों में अफगानिस्तान छोड़ आया था। रहमत के रूप में अचानक अपने बचपन की यादों का पिटारा खुल जाने से उत्साहित मिनी कोलकाता में तमाम लोगों से मिलकर उसके जेल जाने से की सच्चाई का पता लगाती है और उसके खोए परिवार को तलाशने अफगानिस्तान भी जाती है। आखिरकार क्या है रहमत की सच्चाई? क्या वह निर्दोष है? और क्या मिनी रहमत को उसके परिवार को मिलवा पाने में कामयाब हो पाती है? बहरहाल, इन सवालों का जवाब तो आपको थिएटर में जाकर ही मिल जाएगा। अर्से बाद बड़े पर्दे पर नजर आए डैनी डेन्जोंगपा ने बेहतरीन ऐक्टिंग से दिखा दिया है कि उनमें अभी काफी दम बाकी है। बड़े पर्दे पर डैनी का खूबसूरत अवतार देखकर एक बार को आपको रश्क हो सकता है कि बॉलिवुडवालों ने अभी तक डैनी को सिर्फ नेगेटिव रोल ही क्यों दिए। वहीं नैशनल अवॉर्ड विनर गीतांजलि थापा ने मिनी के रोल को खूबसूरती से जिया है। आदिल हुसैन हमेशा की तरह पर्दे पर लाजवाब लगे हैं। वहीं ब्रिजेंद्र काला ने भी बढ़िया ऐक्टिंग की है। विज्ञापन की दुनिया से फिल्मों की दुनिया में आए देब मधेकर की यह बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म है। फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले भी उन्होंने खुद लिखा है। वहीं फिल्म की सिनेमटॉग्रफी भी कमाल है। बड़े पर्दे पर बीते दौर का कोलकाता और अफगानिस्तान दोनों ही खूबसूरत लगते हैं। बढ़िया एडिटिंग के दम पर फिल्म महज डेढ़ घंटे में सिमट गई है। वहीं फिल्म का संगीत भी आपको लुभाता है। आजकल फिल्मों की भागदौड़ में राहत देने वाला लीक से हटकर सिनेमा देखना चाहते हैं, तो बायोस्कोपवाला आपके लिए ही है। ",0 "जरूरी नहीं है कि थ्रिलर फिल्म के लिए तेज भागती कारें हो, पीछा करने के दृश्य हों, सनसनाती गोलियां चले या युवा हीरो-हीरोइन हों। इनके बिना भी एक थ्रिलर फिल्म बनाई जा सकती है। 'तीन' इसका उदाहरण है। इसमें कैमरा ज्यादा मूवमेंट नहीं करता, फिल्म का केन्द्रीय पात्र एक झुके कंधों वाला उम्रदराज आदमी है, जो खटारा स्कूटर पर धीमी रफ्तार से चलता है। कलकत्ता की आंकी-बांकी गलियां के साथ फीके पड़ चुके घर हैं, जिनमें सुस्ती पसरी है। ये परिस्थितियां किसी थ्रिलर फिल्म की नहीं लगती, लेकिन निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने अपनी फिल्म के लिए ऐसे ही पात्र और माहौल को चुना है और ज्यादातर समय दर्शकों को सीट पर जकड़ने में वे कामयाब रहे हैं। 'तीन' कोरियन फिल्म 'मोंताज' का ऑफिशियल रिमेक है, जिसे भारतीय परिवेश में बखूबी ढाला गया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता की ही कहानी हो। कोलकाता में रहने वाले जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) की नातिन एंजेला का आठ वर्ष पहले अपहरण हुआ था। अपहरणकर्ता के पास जॉन पैसे लेकर पहुंचा, लेकिन पैसों के बदले उसे एंजेला की लाश मिलती है। अपहरणकर्ता को अब तक पुलिस नहीं पकड़ पाई है। यह केस पुलिस ऑफिसर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के जिम्मे था। मार्टिन, जो अब पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में फादर बन गया है, को भी इस बात की टीस है कि वह न एंजेला को बचा सका और न कातिल का पता लगा सका। जॉन ने उम्मीद नहीं छोड़ी है और पुलिस स्टेशन इस उम्मीद के साथ रोजाना जाता है कि शायद उसे कुछ अच्‍छी खबर सुनने को मिले। जॉन अपनी तरफ से भी कातिल का सुराग पता लगाने की कोशिश करता है। इसी बीच एक बच्चे का अपहरण उसी तरीके से होता है जैसे जॉन की नातिन का हुआ था। अपहरणकर्ता वही दांवपेंच अपनाता है जो उसने एंजेला के समय आजमाए थे। इस बार मामले की तहकीकात सविता सरकार (विद्या बालन) कर रही है वह मार्टिन को मदद के लिए बुलाती है। दो अपहरण की घटनाओं की दो समानांतर जांच चलती है, एक तरफ जॉन आठ वर्ष पुराने मामले को सुलझाने में लगा हुआ है तो दूसरी ओर सविता-मार्टिन नए केस की गुत्थी सुलझा रहे हैं। क्या इन दोनों केसेस में कोई समानता है? ती न के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की कहानी रोचक है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात की उत्सुकता लगातार बनाए रखती है। फिल्म देखते समय दिमाग में कई तरह की बातें उठती रहती हैं और दर्शक लगातार फिल्म से जुड़ा रहता है। सुदेश नायर और ब्रिजेश जयराज ने स्क्रीनप्ले लिखा है और दक्षिण कोरियाई कहानी को पूरी तरह भारतीय बना दिया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता से बेहतर जगह फिल्म की कोई हो ही नहीं सकती थी। छोटे से छोटे डिटेल्स पर ध्यान दिया गया है और आप एक संवाद या दृश्य मिस करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। पूरा ध्यान लगाकर फिल्म देखना पड़ती है क्योंकि कुछ भी मिस हुआ तो फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। फिल्म का मुख्य पात्र जॉन अवसाद से भरा हुआ है। उसकी कुंठा को फिल्म निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने फिल्म की गति और कलर स्कीम से जोड़ा है। फिल्म का पहला हाफ बहुत स्लो है। कही-कही झपकी भी लग सकती है, लेकिन चौकन्ना इसलिए रहना पड़ता है कि कही कुछ ऐसा न घट जाए कि आगे फिल्म समझने में दिक्कत हो। ऐसे कुछ पल निकाल लिए तो फिर पलक झपकना मुश्किल हो जाता है। इंटरवल ऐसे मोड़ पर किया है कि फिर से फिल्म शुरू होने का आप ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म तेज गति से चलती है। क्लाइमैक्स‍ में थोड़ी निराशा इसलिए हाथ लगती है कि फिल्म रहस्य से परदा उठाए उसके पहले आप रहस्य जान जाते हैं। फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। इसकी धीमी गति आपको कही-कही उबाती है। फिल्म अवधि थोड़ी ज्यादा है। स्क्रीनप्ले की कुछ बातें भी अखरती हैं। सड़कों पर ब्लैक हुडी पहने एक आदमी घूमता है और कोई उसे देख नहीं पाता। उम्रदराज और थके हुए जॉन से कुछ ऐसी बातें करा दी गई जिसके लिए बहुत ताकतवर होना जरूरी है। जॉन के लिए कुछ बातें बहुत ही आसान दिखा दी गई हैं, पर इनसे फिल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं होता। निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने इस परतदार कहानी को अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने बातों को थोड़ा कठिन रखा है ताकि दर्शक हर समय अलर्ट रहे। तीन चौथाई फिल्म में वे रहस्य को बरकरार रखने में सफल रहे हैं, अंत में थोड़ा गड़बड़ा गए। अमिताभ बच्चन, विद्या बालन और नवाजुद्दीन सिद्दीकी नामक तीन एक्टिंग के पॉवरहाउस फिल्म से जुड़े हैं, इस वजह से एक्टिंग डिपार्टमेंट में फिल्म बहुत अमीर है। अमिताभ बच्चन लगातार चौंका रहे हैं। अभी भी उनके अंदर कितना कुछ बाकी है। जॉन बिस्वास के किरदार वे इस तरह घुल-मिल गए कि लगता ही नहीं कि यह अमिताभ है। जॉन के अंदर घुमड़ रही सारी भावनाओं को वे पूरी तरह बाहर ले आए हैं। विद्या बालन को ज्यादा अवसर नहीं थे, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। उस शख्स की मनोदशा दिखाने में नवाजुद्दीन सिद्दीकी सफल रहे हैं जो कभी पुलिस वाला था और अब फादर है। पुलिस वाला रौब उसका गया नहीं है और फादर जैसी नम्रता उसमें अभी आई नहीं है। उनके कुछ दृश्य मनोरंजक है। सब्यासाची चक्रवर्ती का अभिनय देखना हमेशा अच्‍छा लगता है। तुषार कांति रे की सिनेमाटोग्राफी का विशेष उल्लेख जरूरी है। कलर शेड का उन्होंने बेहतरीन इस्तेमाल किया है। ग्रे कलर का इस्तेमाल अधिक है जो जॉन बिस्वास के मिजाज को दिखाता है। 'तीन' की कामयाबी इसी में है कि फिल्म देखने के बाद भी आप इसके किरदारों और कहानी को लेकर खुद से सवाल जवाब करते रहते हैं। इसे धैर्य और ध्यान से देखना जरूरी है, तभी आप इसका मजा ले सकेंगे। बैनर : एंडेमॉल इंडिया, रिलायंस एंटरटनमेंट, सिनेमा पिक्चर्स, क्रॉस पिक्चर्स, ब्लू वॉटर मोशन पिक्चर्स निर्माता : सुजॉय घोष निर्देशक : रिभु दासगुप्ता संगीत : चिंतन सरेजो कलाकार : अमिताभ बच्चन, विद्या बालन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सब्यासाची चक्रवर्ती सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 16 मिनट 54 सेकंड ",1 "चंद्रमोहन शर्मा करीब आठ साल पहले रॉक ऑन से डेब्यू करने वाले यंग डायरेक्टर अभिषेक कपूर की फितूर चार्ल्स डिकेन्स की किताब द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स से प्रेरित है। हॉलिवुड मेंचार्ल्स की इस बुक पर बेस्ड कई फिल्में बनी, लेकिन पहली बार इस कहानी को कुछ बदलाव के साथ बॉलिवुड में पेश किया गया है। काई पो चे जैसी बड़ी हिट देने के बाद अभिषेक फितूर लेकर आए हैं। अभिषेक बेगम हजरत के किरदार में रेखा को साइन करना चाहते थे, लेकिन डेट्स प्रॉब्लम की वजह से जब रेखा से बात नहीं बन पाई तो उन्होंने तब्बू को अप्रोच किया, आज इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी तब्बू की काबिलेतारीफ ऐक्टिंग है। वहीं घाटी में बर्फ के बीच फिल्माए गए फिल्म के कई सीन्स फितूर की दूसरी यूएसपी है। कहानी करीब पंद्रह साल पहले घाटी में आतंकवाद चरम पर है, ऐसे माहौल में कश्मीर की बफीर्ली वादियों के बीच बेगम हजरत (तब्बू) अपने आलीशान बंगले में बेटी फिरदौस(कटरीना कैफ) के साथ रहती है। करीब दस साल की फिरदौस बेहद खूबसूरत है। बेगम हजरत को बरसों पहले प्यार में ऐसा धोखा हुआ कि उन्हें प्यार शब्द से ही नफरत हो गई। यहीं वजह है बेगम नहीं चाहती कि फिरदौस के साथ भी ऐसा कुछ हो। बेगम हजरत के बंगले में रिपेयर के अलावा आर्ट का काम करने के लिए नूर (आदित्य रॉय कपूर) अपने जीजा के साथ आता है। नूर डल लेक के पास एक शकीरे में अपनी बहन रुखसार और जीजा के साथ रहता है। नूर बचपन से अच्छा कारीगर और कमाल का आर्टिस्ट है। बंगले में आर्ट का काम करने के दौरान नूर और फिरदौस अच्छे दोस्त बन जाते है। नूर दिल ही दिल में फिरदौस को बेइंतहा चाहने लगता है। दूसरी ओर, बेगम हजरत को पसंद नहीं एक मामूली कारीगर की जुबां पर फिरदौस का नाम तक भी आ पाए। फिल्म में बेहद खूबसूरत लगी हैं कटरीना बेगम को लगने लगता है कि नन्हीं फिरदौस के दिल में भी अब धीरे-धीरे नूर को लेकर कुछ होने लगा है। ऐसे में बेगम नूर को अपनी पहचान बनाने के लिए कहती है। वहीं, बेटी फिरदौस को पढ़ने के लिए लंदन भेज देती है। बड़ा होने पर नूर आर्ट की दुनिया में किसी स्टार से कम नहीं है, इसी बीच फिरदौस भी लंदन से दिल्ली पहुंचती है, यहां एक बार फिर दोनों मिलते हैं। आपको फिल्म फितूर कैसी लगी? — Navbharat Times (@NavbharatTimes) February 13, 2016 फिरदौस नूर को बताती है कि बचपन की बात अलग थी लेकिन अब उन दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। थोड़े ही दिनों में बेगम हजरत की पसंद के लड़के पाकिस्तान के एक मिनिस्टर के बेटे से फिरदौस की सगाई होने वाली है, जो कुछ दिन बाद पाकिस्तान में मिनिस्टर बनने वाला है। वहीं, नूर हार मानने वालों में नहीं है, नूर पर तो बस एक ही फितूर सवार है कि किसी भी सूरत में उसे अपना प्यार हासिल करना है। ऐक्टिंग हजरत बेगम के किरदार में तब्बू ने गजब की ऐक्टिंग की है। कटरीना कैफ एक बार फिर बेहद खूबसूरत गुड़िया जैसी नजर आईंं (फिल्म के कई सीन्स में तब्बू कैट को गुड़िया की कहती है)। कई सीन्स में आदित्य आशिकी 2 में अपने किरदार की कॉपी करते नजर आए। यंग हजरत बेगम के किरदार में अदिति राव हैदरी ने अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराई । चंद मिनट स्क्रीन पर नजर आए अजय देवगन प्रभावित करते हैं। फिल्म में तब्बू की ऐक्टिंग है दमदार निर्देशन ऐसा लगता है अभिषेक ने बिखरी स्क्रिप्ट के साथ इस फिल्म को स्टार्ट कर दिया। शायद, इंडस्ट्री की दो टॉप एक्ट्रेस कटरीना और तब्बू की ओर से मिली डेट्स और कश्मीर घाटी में सर्दी के दौरान फिल्म की शूटिंग निबटाने का अभिषेक पर कुछ ऐसा फितूर सवार हुआ कि करीब दो घंटे की फिल्म दर्शकों को बांध नहीं पाती। कमजोर स्क्रिप्ट के चलते अभिषेक फिल्म के अहम लीड किरदारों की मौजूदगी को कैश नहीं कर पाए। अभिषेक ने घाटी की खूबसूरती को गजब अंदाज में पेश किया है। संगीत अमित त्रिवेदी ने कहानी और माहौल के मुताबिक स्वानंद किरकिरे के लिखे गीतों को कश्मीरी टच देते हुए पेश किया है। होने दो बतियां, पश्मीना, और ये फितूर मेरा जैसे सॉन्ग कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में है। क्यों देखें अगर आप कश्मीर की खूबसूरती के साथ तब्बू की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ कटरीना की ब्यूटी को देखना चाहते हैं तो यह फिल्म जरूर देखें। कटरीना और आदित्य की फिल्म फितूर का ट्रेलर देखने के लिए क्लिक करें ",1 "आप थोड़ा डरना चाहते हैं, चौंकना चाहते हैं तो ’13 बी’ आपके लिए है। बैनर : बिग पिक्चर्स निर्देशक : विक्रम के. कुमार संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : आर माधवन, नीतू चन्द्रा, सचिन खेड़ेकर, मुरली शर्मा, पूनम ढिल्लो, दीपक डोब्रियाल, धृतमान चटर्जी * ए-सर्टिफिकेट जिन चीजों से इनसान को डर लगता है, उनसे वह दूर भागता है, लेकिन हॉरर फिल्मों की बात होती है तो वही इनसान पैसे खर्च कर सिनेमाघर में डरने के लिए जाता है। वह उम्मीद करता है कि उसे खूब डराया जाए, ताकि उसके पैसे वसूल हों। ’13 बी- फियर हेज़ ए न्यू एड्रेस’ इस मामले में कामयाब मानी जा सकती है। यह फिल्म न केवल कई जगह चौंकाती है, बल्कि डराती भी है। भारत में हमेशा हॉरर फिल्मों के नाम पर डरावने चेहरे, भूतहा महल, सफेद चादर या साड़ी में लिपटा हुआ भूत, अमावस की रातें दिखाई जाती हैं, लेकिन ये सब ’13 बी’ में नदारद है। यहाँ आम वस्तुएँ जैसे टीवी, बल्ब, लिफ्ट, मोबाइल फोन से डराया गया है। परिस्थितियों के जरिये डर पैदा किया गया है। मनोहर (आर. माधवन) अपने परिवार के साथ नए फ्लैट 13-बी में रहने के लिए आता है। उसका परिवार राजश्री प्रोडक्शन की फिल्मों में दिखाए जाने वाले परिवार की तरह खुशहाल है। घर की महिलाएँ टीवी धारावाहिकों की शौकीन हैं। वे नया धारावाहिक ‘सब खैरियत है’ देखना शुरू करती हैं। उस धारावाहिक में जो दिखाया जाता है, वो सब मनोहर के परिवार के साथ घटने लगता है। मनोहर का परिवार बिलकुल उस धारावाहिक के परिवार जैसा है। पहले-पहले तो सब शुभ घटनाएँ होती हैं, लेकिन अचानक धारावाहिक के परिवार के साथ बुरा होने लगता है। ये देख मनोहर सहम जाता है। वो इस बात का पता लगाना चाहता है कि आखिरकार उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? इस समानता के पीछे आखिर क्या राज है? विक्रम के. कुमार ने निर्देशन के साथ-साथ कहानी भी लिखी है। फिल्म के मध्यांतर तक उन्होंने अजीबोगरीब घटनाओं के जरिये सस्पेंस बनाकर रखा है। मनोहर लिफ्ट में बैठता है, तो लिफ्ट नहीं चलती। पड़ोसी का कुत्ता उसके घर में घुसने से डरता है। घर में उसका जब मोबाइल से फोटो खींचा जाता है तो फोटो डरावना आता है। इन तमाम दृश्यों से उन्होंने दर्शकों को डराया गया है। फिल्म के दूसरे भाग में उन्होंने सस्पेंस परत-दर-परत खोला है कि आखिर वजह क्या है। फिल्म के इस हिस्से में जबरदस्त उतार-चढ़ाव, तनाव और भय है। कई दृश्य रोंगटे खड़े कर देते हैं। आमतौर पर हॉरर या सस्पेंस फिल्म का अंत कमजोर रहता है, लेकिन ’13 बी’ में यह कमी नहीं है। ऐसा क्यों हुआ है, इस बात का पूरा स्पष्टीकरण दिया गया है जो दर्शक को संतुष्ट करता है। विक्रम कुमार का प्रस्तुतिकरण उम्दा है और बाँधकर रखता है। कुछ कमियाँ भी हैं। दो गाने निर्देशक ने अधूरे मन से रखे हैं, जो कहानी में फिट नहीं बैठते। फिल्म की लंबाई भी ज्यादा है। आधा घंटा फिल्म छोटी होती तो एकदम कसी हुई लगती। टीवी धारावाहिक और जिंदगी में समानता वाली बात सिर्फ मनोहर ही महसूस करता है, परिवार का कोई और सदस्य यह महसूस क्यों नहीं करता, यह समझ के परे है। फिल्म में दिखाया गया है कि बच्चे घर के आँगन में एक फोटो एलबम गाड़ देते हैं। ऐसा क्यों करते हैं, इसका जवाब नहीं है। उसी जगह एक ऊँची बिल्डिंग बनती है, फिर भी एलबम जहाँ का तहाँ रहता है। लेकिन इन कमियों पर फिल्म की खूबियाँ भारी पड़ती हैं। माधवन, नीतू चन्द्रा, सचिन खेड़ेकर, धृतमान चटर्जी, मुरली शर्मा, दीपक डोब्रियाल और पूनम ढिल्लो ने अपना-अपना किरदार बखूबी निभाया है। पी.सी. श्रीराम ने कैमरे से कमाल दिखाया है। आमतौर पर हॉरर फिल्मों का बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत ज्यादा लाउड होता है, लेकिन तब्बी-पारिक ने संतुलन बनाए रखा है। आप थोड़ा डरना चाहते हैं, चौंकना चाहते हैं तो ’13 बी’ आपके लिए है। ",1 " बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) वर्किंग गर्ल है, जिसे ब्रेक डांस और इंग्लिश फिल्में देखना पसंद है और स्मोकिंग भी करती है। इस कारण उसकी शादी नहीं हो पा रही है। मां परेशान है जबकि पिता को उम्मीद है कि कुछ न कुछ हो जाएगा। एक बार 'बरेली की बर्फी' नामक कहानी की किताब बिट्टी के हाथ लगती है। इस कहानी में जिस लड़की का वर्णन है वो हूबहू बिट्टी जैसी है। यह पढ़ कर बिट्टी इसके लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) से मिलना चाहती है और इस सिलसिले में इस किताब को छापने वाले प्रिंटिंग प्रेस के मालिक चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) से मिलती है। बिट्टी को यह पता नहीं रहता है कि यह किताब चिराग ने ही लिखी है, लेकिन नाम प्रीतम का दे दिया है। बिट्टी को वह प्रीतम का पता नहीं बताता। चिराग को बिट्टी चिठ्ठी लिख कर प्रीतम तक पहुंचाने का कहती है। चिराग वह अपने पास रख लेता है और प्रीतम बन कर जवाब देता है। बिट्टी को मन ही मन चिरागचाहने लगता है। जब बात बहुत आगे बढ़ती है तो बिट्टी से मिलाने के लिए वह प्रीतम को बुलाता है। उसके पहले चिराग, प्रीतम को अकड़ू और रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देता है ताकि बिट्टी उसे नापसंद करे। चिराग की यह चाल उलटी पड़ जाती है। बिट्टी को प्रीतम पसंद आने लगता है। परेशान होकर चिराग इस रिश्ते की तोड़ने की सारी कोशिश करता है। इस कहानी में कई उतार-चढ़ाव देने की कोशिश की गई है, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर ट्विस्ट और टर्न अच्छे ही हों। कहानी में कुछ बातें अजीब लगती है, जैसे बिट्टी को चिराग क्यों नहीं बताता कि उसी ने 'बरेली की बर्फी' लिखी है? अपने प्रेम का इजहार करने में वह क्यों घबराता है? प्रीतम से मिलने के बाद बिट्टी क्यों नहीं पूछती कि उसके जैसा किरदार आखिर कैसे लिखा गया है, जबकि इसी बात को पूछने के लिए वह उसे ढूंढ रही थी? फिल्म के आखिर में कुछ प्रश्नों के जवाब मिलते भी हैं, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म देखते समय ये परेशान करते हैं, जिस कारण दर्शक फिल्म का पूरा मजा नहीं ले पाता। कहानी की कमजोरियों को कुछ हद तक स्क्रीनप्ले ढंक लेता है। ये बहुत ही मजेदार तरीके से लिखा गया है। प्रीतम और बिट्टी की पहली मुलाकात, प्रीतम को रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देना, बिट्टी के पिता का पंखे से बात करना जैसे कई दृश्य हैं जो थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद आते रहते हैं और मनोरंजन करते रहते हैं। दो दृश्यों को अच्छे से कनेक्ट भी किया गया है। संवाद इस मामले में अहम रोल निभाते हैं। 'दाल तुम्हारी गल गई, सीटी किसी और की बज गई' जैसे गुदगुदाने वाले संवाद लगातार सुनने को मिलते हैं, जिससे दर्शकों का फिल्म में मन लगा रहता है। साथ ही इस बात की उत्सुकता भी बनी रहती है कि अंत में होगा क्या? निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान रखा कि फिल्म हल्की-फुल्की और मनोरंजक लगे। कॉमेडी के नाम पर फिल्म को 'चीप' होने से उन्होंने बचाया है। हालांकि कहानी और भी बेहतर तरीके से पेश की जा सकती थी। ये भी संभव था कि दर्शकों के लिए राज पहले ही खोल दिया जाता। अश्विनी ने अच्छी लोकेशन ढूंढी और दृश्यों को अच्छी तरह से गढ़ा। कुछ जगह जरूर उनके साथ से फिल्म फिसलती है, लेकिन जल्दी ही पटरी पर आ जाती है। संगीत फिल्म का माइनस पाइंट है। एक-दो हिट गीत इस तरह की फिल्मों में जरूरी होते हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और कसावट लाई जा सकती थी। एक्टिंग डिपार्टमेंट में यह फिल्म अमीर है। कृति सेनन का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। यूपी के लहजे को उन्होंने अच्छे से पकड़ा और बिंदास बिट्टी की भूमिका अच्छे से निभाई। आयुष्मान खुराना ने अपना सौ प्रतिशत दिया, हालांकि उनका सामना राजकुमार राव जैसे अभिनेता से हुआ और कुछ सीन में वे राजकुमार के आगे फीके भी पड़े। एक घोंचू किस्म के इंसान से तेजतर्रार इंसान में बदलने की प्रक्रिया को राजकुमार राव ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया। बिट्टी के पिता के किरदार में पंकज त्रिपाठी और मां के किरदार में सीमा पाहवा का चयन एकदम सटीक रहा। यदि आप हल्की-फुल्की, रोमांटिक और कॉमेडी फिल्म देखने के मूड में है तो यह 'बरेली की बर्फी' खाई जा सकती हैं। बैनर : जंगली पिक्चर्स, बीआर स्टुडियोज़ निर्माता : विनीत जैन, रेणु रवि चोपड़ा निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी संगीत : तनिष्क बागची, वायु, आर्को, समीरा कोप्पिकर कलाकार : आयुष्मान खुराना, कृति सेनन, राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, सीमा पाहवा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 2 मिनट 49 सेकंड ",1 "यह मिशन इम्पॉसिबल सीरिज की लोकप्रियता का ही कमाल है कि छठी फिल्म आ गई और अभी भी रोमांच और ताजगी बरकरार है। टॉम क्रूज का स्टारडम इस सीरिज की फिल्मों को एक अलग ही लेवल पर ले जाता है और उनको खतरनाक स्टंट्स करते देखने का एक अलग ही मजा है। हर बार डर लगता है कि सीरिज की अगली फिल्म स्तर को ऊंचा उठाएंगी या नहीं, लेकिन 'मिशन इम्पॉसिबल : फॉलआउट' (हिंदी में इसे मिशन इम्पॉसिबल तबाही नाम से रिलीज किया गया है) तो इस सीरिज की बेहतरीन फिल्मों में से एक है। 'फॉलआउट' को 'रोग नेशन' का सीक्वल कह सकते हैं क्योंकि इसकी कहानी उस फिल्म की कहानी खत्म होने के बाद शुरू होती है। हालांकि जिन्होंने 'रोग नेशन' नहीं देखी है वे भी इसका मजा ले सकते हैं, लेकिन जिन्होंने पांचवां भाग देखा है उन्हें छठे भाग में ज्यादा मजा आएगा। सोलोमॉन लेन की करतूत अभी भी जारी है। उसके एजेंट्स अभी भी काम कर रहे हैं। ईथन हंट को खबर मिलती है कि आतंकियों के एक ग्रुप ने तीन प्लूटोनियम कोर्स चुरा लिए हैं जिनका इस्तेमाल न्यूक्लियर हथियारों में होना है। हंट को बेंजी और लुथर के साथ इन प्लूटोनियम को वापस लाने का मिशन मिलता है। यह मिशन इतना आसान नहीं है जितना लगता है। दोस्त को बचाने के चक्कर में हंट प्लूटोनियम गंवा बैठता है और यह उसके लिए अब बड़ा चैलेंज हो जाता है। मिशन में ऐसी चुनौती मिलती हैं जिनके बारे में हंट ने कभी सोचा भी नहीं था। कदम-कदम पर खतरा, षड्यंत्र और विश्वासघात से उसका सामना होता है। कड़ी दर कड़ी जोड़ते हुए वह आगे बढ़ता है। क्रिस्टोफर मैकक्वेरी का स्क्रीनप्ले कमाल का है। यह फिल्म आपको दिमाग लगाने पर मजबूर करती है और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। हर कड़ी इतनी बारीकी से जोड़ी गई है कि दर्शकों को हर पल चौकन्ना रहना पड़ता है। हर संवाद सुनना पड़ता है। पलक झपकाने में भी डर लगता है कि कहीं कुछ छूट न जाए। हर सीन आपको चौंकाता है और आप जो सोचते हैं उससे कुछ अलग देखने को मिलता है। कहानी में जबरदस्त टर्न और ट्विस्ट दिए गए हैं। शुरुआती डेढ़ घंटा कहानी में आए उतार-चढ़ाव मजा देते हैं। जैसे-जैसे हंट आगे बढ़ता है मिशन उसके लिए कठिन होताा जाता है। वह प्लान कुछ बनाता है और होता कुछ है। इस वजह से उसे सिचुएशन के अनुसार फैसले लेने पड़ते हैं। कहानी बर्लिन, पेरिस होते हुए लंदन जा पहुंचती है। कहानी के बीच में एक्शन सीन के लिए भी गुंजाइश भी रखी गई है जो मजा और बढ़ा देती है। फिल्म का आखिरी का एक घंटा एक्शन को दिया गया है। इस दौरान कहानी बैकफुट पर आ जाती है और फिल्म थोड़ा नीचे आती है क्योंकि दर्शकों के सामने सारे पत्ते खुल जाते हैं। दिलचस्पी इस बात में रहती है कि हंट अब अपने मिशन को कैसे अंजाम देता है। क्लाइमैक्स में बर्फीली पहाड़ियों पर हेलिकॉप्टर द्वारा पीछे किया जाने वाला सीक्वेंस फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाता है। नि:संदेह फॉलआउट लार्जर देन लाइफ एक्शन मूवी है। इस तरह की फिल्में तब मजा देती हैं जब इसमें ऐसा सुपरस्टार हो जो दर्शकों को यकीन दिला सके कि जो वह कर रहा है वह विश्वसनीय है, एक्शन को जस्टिफाई करने वाला कारण हो और स्टोरी में लॉजिक हो। और, इन सारी अपेक्षाओं पर फिल्म खरी उतरती है। निर्देशक के रूप में क्रिस्टोफर मैकक्वेरी का काम बेहतरीन है। उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह का है कि स्क्रीन पर से आंख नहीं हटा सकते हैं। आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। उन्होंने हर सीन को भव्य बनाया है जिसका मजा बिग स्क्रीन पर देखने में मिलता है। एक्शन और कहानी में उन्होंने अच्‍छा संतुलन बनाया है। मनोरंजन का भी ध्यान रखा है और हर किरदार को उसकी जरूरत के मुताबिक स्क्रीन टाइम दिया है। टॉम क्रूज को उसी इमेज में पेश किया है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। फिल्म को यदि वे 15 मिनट छोटा रखते तो बेहतर होता। आखिरी आधे घंटे में टाइट एडिटिंग की जा सकती थी। रॉब हार्डी की सिनेमाटोग्राफी फिल्म को भव्य लुक देती है। उन्होंने पूरी फिल्म को शानदार तरीके से फिल्माया है चाहे एरियल शॉट हो, एक्शन सीन हो या संकरी गलियां हो। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक एक सुपरस्टार की एक्शन फिल्म देखने का फील देता है। 56 साल की उम्र में भी टॉम क्रूज फिट लगते हैं। उन्होंने खतरनाक स्टंट्स को अंजाम देकर बताया है कि उम्र महज एक नंबर है। उनका अभिनय बेहतरीन है और स्टारडम बरकरार है। एक्शन दृश्यों में वे बेहद स्टाइलिश नजर आए। हेनरी केविल ने वॉकर के किरदार में टॉम का भरपूर साथ दिया है। हेनरी को हम सुपरमैन के रूप में देख चुके हैं। साइमन पेग, रेबेका फर्ग्युसन, विंग रेम्स सहित अन्य कलाकारों का भी अभिनय उम्दा है। फास्ट, स्लीक और फन के लिए यह सीरिज जानी जाती है और 'फॉलआउट' में ये सारी बातें भरपूर हैं। थ्रिलिंग स्टंट्स और शानदार लेखन इस फिल्म को देखने लायक बनाते हैं। निर्माता : टॉम क्रूज, जेजे अबराम्स, डेविड एलिसन, डैन गोल्डबर्ग, डॉन ग्रेंजर, क्रिस्टोफर मैकक्वेरी, जैक मेयर्स निर्देशक : क्रिस्टोफर मैकक्वेरी कलाकार : टॉम क्रूज, साइमन पेग, रेबेका फरगस, हेनरी केविल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट 55 सेकंड ",1 "बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, रिलायंस एंटरटेनमेंट निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, शाहरुख खान निर्देशक : फरहान अख्तर संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : शाहरुख खान, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता, बोमन ईरानी, ओम पुरी, कुणाल कपूर, रितिक रोशन (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट * 17 रील में फरहान अख्तर द्वारा निर्देशित ‘डॉन’ अमिताभ बच्चन वाली डॉन का रीमेक थी। उसमें ज्यादा करने को कुछ नहीं था क्योंकि सामने एक फिल्म मौजूद थी। पांच वर्ष बाद ‘डॉन 2’ में कहानी को आगे बढ़ाना उनके लिए चुनौती थी क्योंकि अब सब कुछ उनकी कल्पना पर निर्भर था। सामने कोई फिल्म नहीं थी। बॉलीवुड न सही तो हॉलीवुड ही सही। इस बार फरहान और उनके साथी लेखकों (अमित मेहता - अंबरीष शाह) ने कुछ हॉलीवुड फिल्मों जैसे डाई हार्ड या मिशन इम्पॉसिबल से मसाला उधार लेकर डॉन का सीक्वल लिखा। कहानी में जरूरी उतार-चढ़ाव, सस्पेंस और थ्रिल है, लेकिन बहुत सारी तकनीकी बातें (जैसे कम्प्यूटर हैकिंग) भी हैं, जो युवाओं को तो अच्छी लगेगी, पर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर के दर्शकों के सिर पर से गुजरेगी। साथ ही कई जगह मुश्किल कामों को डॉन के लिए बहुत ही आसान बना दिया गया है। लेकिन फिल्म का स्टाइलिश लुक, शाहरुख खान का अभिनय, जबरदस्त एक्शन और सस्पेंस भरा क्लाइमेक्स इन कमियों को पर भारी पड़ता है और फिल्म को एक बार देखने लायक बनाता है। एशिया पर कब्जा जमाने के बाद डॉन (शाहरुख खान) की निगाह अब यूरोप पर है। इसके लिए उसे वर्धान (बोमन ईरानी) की सहायता चाहिए जो मलेशिया की जेल में बंद है। इंटरपोल के डिटे‍क्टिव मलिक (ओम पुरी) और रोमा (प्रियंका चोपड़ा) के सामने डॉन आत्मसर्पण कर उसी जेल में जाता है जहां वर्धान है। वर्धान और डॉन के पास एक-एक चाबी है जिसके जरिये एक लॉकर खुलता है। उस लॉकर में एक टेप है जिसकी सहायता से डॉन, जेके दीवान और बर्लिन स्थित बैंक के प्रेसिडेंट को ब्लैकमेल करना चाहता है। डॉन और वर्धान जेल से भाग निकलते हैं। दोनों जेके दीवान को टेप दिखाकर बैंक में रखी यूरो करंसी छापने की प्लेट्स का एक्सेस कोड चाहते हैं। डॉन उन प्लेट्स की सहायता से यूरो छापकर अमीर बनना चाहता है। दीवान, जब्बार (नवाब शाह) नामक गुंडे को डॉन को खत्म करने की जिम्मेदारी सौंपता है, लेकिन डॉन उसे अपने साथ मिला लेता है। एक्सेस कोड पाने के बाद डॉन को ऐसे तकनिशियन की जरूरत पड़ती है जो कम्प्यूटर हैकर हो। जो भारी सुरक्षा में रखी गई प्लेट्सस को चुराने में उसकी मदद कर सके। समीर अली (कुणाल कपूर) को वह अपने साथ मिलाता है और प्लेट्स चुराने में कामयाब होता है। प्लेट्स पाते ही जब्बार और वर्धान मिल जाते हैं और डॉन से वे प्लेट्स ले लेते हैं। समीर भी पुलिस को बुलाकर डॉन को पकड़वा देता है, लेकिन शातिर दिमाग डॉन के इरादे कुछ और ही हैं। इसके बाद शुरू होता है डॉन का जबरदस्त खेल। फिल्म के पहले हॉफ में बहुत ज्यादा प्लानिंग है, इसलिए कही-कहीं फिल्म खींची हुई और बोर लगती है। इस हॉफ में डॉन और वर्धान का जेल से भागना, जब्बार द्वारा पीछा करने पर डॉन का बिल्डिंग से कूद जाना तथा डॉन और रोमा का कार चेजिंग सीन उम्दा बन पड़े हैं। फिल्म स्पीड पकड़ती है सेकंड हाफ में जब बनाए गए प्लान पर एक्शन लिया जाता है। इंटरवल के थोड़ी देर बाद ही क्लाइमेक्स शुरू हो जाता है जो फिल्म के खत्म होने तक चलता है। इसमें डॉन और उसके साथी प्लेट्स चुराने के लिए बैंक में जाते हैं। यहां पर वर्धान और जब्बार का डॉन के खिलाफ हो जाना चौंकाता है। कई रहस्य उजागर होते हैं जो फिल्म को दिलचस्प बनाते हैं। फरहान अख्तर ने स्टाइलिश तरीके से कहानी को परदे पर पेश किया है। मलेशिया, स्विट्जरलैंड और जर्मनी की लोकेशन का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है। डॉन का किरदार उन्होंने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है कि नकारात्मक होने के बावजूद दर्शकों का समर्थन मिलता है। डॉन जब पुलिस की पकड़ से निकलता है तो उन्हें खुशी मिलती है। फिल्म सिंगल ट्रेक पर चलती है और रोमांस या कॉमेडी की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं थी। अंतिम रीलों में रोमा और डॉन की नोक-झोक अच्छी लगती है। फिल्म की लंबाई पर फरहान नियंत्रण रखते और फर्स्ट हाफ बेहतर बनाते तो बात ही कुछ और होती। शाहरुख खान फिल्म की जान है। डॉन के एटीट्यूड को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। उनके चलने और बोलने का स्टाइल उनके फैंस को बहुत अच्छा लगेगा। ‘मलिक साहब, आप मेरी मां को नहीं जानते’ यह संवाद बोलते समय उनके चेहरे के एक्सप्रेशन देखने लायक है। फिल्म में उन्हें कई अच्छी लाइनें मिली हैं, जैसे - ‘दुश्मन अपनी चाल चले उसके पहले डॉन अपनी चाल चल देता है’, ‘दोस्तों का हाल भले ही डॉन ना पूछे लेकिन दुश्मनों की हर खबर वह जरूर रखता है’ और बार-बार सुनने लायक लाइन ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।‘ प्रियंका चोपड़ा के कैरेक्टर को ठीक से पेश नहीं किया गया है। डॉन को पकड़ने के लिए दिन-रात एक करने वाली रोमा, डॉन को मारने का मौका आसानी से छोड़ देती है। हालांकि इसकी वजह डॉन के करिश्मे को बताया गया है, लेकिन यह बात हजम नहीं होती है। रोमा खुद कन्फ्यूज है और नहीं जानती कि वह डॉन से प्यार करती है नफरत। लेकिन प्रियंका ने अभिनय अच्छा किया है। लारा दत्ता के ग्लैमर का ठीक से उपयोग नहीं हुआ है। बोमन ईरानी, अली खान, नवाब शाह और कुणाल कपूर का अभिनय उल्लेखनीय है। रितिक रोशन वाला प्रसंग जबरदस्ती ठूंसा गया है। फिल्म का संगीत सबसे बड़ा माइनस पाइंट है। एक भी ढंग का गाना नहीं है। जेसन वेस्ट की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। फिल्म के अंतिम दृश्य में डॉन एक मोटरबाइक चलाता है जिसका नंबर DON 3 दिखाया गया है। यह नंबर बताता है कि इसका तीसरा भाग भी बनाया जा सकता है। कुल मिलाकर डॉन 2 शाहरुख के फैंस के साथ स्टाइलिश और एक्शन मूवी पसंद करने वालों को अच्छी लगेगी, लेकिन फिल्म देखते समय जो सिर खपाना नहीं चाहते, उनके लिए इसमें कुछ नहीं है। ",1 "अपने पिता, मां और सौतेली मां के जीवन के कुछ प्रसंग लेकर फिल्मकार महेश भट्ट ने 'हमारी अधूरी कहानी' लिखी है। इसमें उन्होंने 'अस्थि कलश' और 'मंगलसूत्र' वाले चिर-परिचित फॉर्मूलों को भी जगह न होने के बावजूद घुसाया है। जब कहानीकार को अपनी कहानी पर भरोसा नहीं रहता तब वह इस तरह की कोशिश करता है और परिणामस्वरूप 'हमारी अधूरी कहानी' जैसी सुस्त और उबाऊ फिल्म देखने को मिलती है। वसुधा (विद्या बालन) अपने पिता के कहने पर हरी (राजकुमार राव) से विवाह करती है। वसुधा को हरी अपनी मिल्कियत समझता है। दोनों को एक बेटा होता है और शादी के एक साल बाद ही हरी गायब हो जाता है। पुलिस से वसुधा को पता चलता है कि हरी आतंकवादियों के समूह से जुड़ गया है और उसने कुछ लोगों की हत्या कर दी है। पांच वर्ष बीत जाते हैं और वसुधा किसी तरह अपने बेटे की देखभाल करती है। वसुधा की मुलाकात आरव रुपरेल (इमरान हाशमी) से होती है जो 108 होटलों का मालिक है। आरव का बचपन भी कुछ उसी तरह बीता जैसा वसुधा के बेटे का बीत रहा है। इस वजह से वसुधा के प्रति आरव आकर्षित होता है और शादी करना चाहता है। वसुधा मान जाती है, लेकिन ऐन मौके पर हरी आ धमकता है। हरी को वसुधा और अराव के रिश्ते के बारे में पता चल जाता है। वह वसुधा से नाराज होता है कि वसुधा के मन में शादी का खयाल आया ही कैसे? साथ ही वह अपने आपको बेकसूर बताता है। कुछ नाटकीय घटनाक्रम होते हैं और फिल्म समाप्ति की ओर पहुंचती है। फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं जिसके आधार पर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी, लेकिन स्क्रिप्ट ठीक से नहीं लिखी गई। उदाहरण के लिए, वसुधा का किरदार अजीब व्यवहार करता है। एक ओर उसे परंपरावादी दिखाया गया है जो मंगलसूत्र को अपने से अलग नहीं करते हुए पति का इंतजार करती है तो दूसरी ओर इतनी आधुनिक हो जाती है कि आरव के साथ सोने पर उसे ऐतराज नहीं रहता। हरी को फिल्म में विलेन के तौर पर दिखाया गया है, लेकिन इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं मिलती। उसके किरदार को स्थापित करने के लिए पर्याप्त सीन नहीं गढ़े गए हैं। वह अपनी पत्नी की बांह पर अपना नाम गुदवा देता है, लेकिन यह कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है कि उससे संबंध खत्म कर लिए जाए। इस वजह से वसुधा के प्रति दर्शकों को सहानुभूति नहीं होती। आरव के पास पैसा है, शोहरत है, गरीबी से उठकर मेहनत के बलबूते पर उसने अपना मकाम बनाया है, लेकिन न जाने उसके चेहरे पर हमेशा उदासी क्यों छाई रहती है? ऐसा लगता है जैसे वह मरघट से चला आ रहा हो। वैसे फिल्म का हर किरदार ऐसा ही नजर आता है मानो सारे जहां का दु:ख उनके सिर पर हो। कोई हंसता ही नहीं। फिल्म का पूरा माहौल ही उदास है। हमारी अधूरी कहानी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें स्क्रिप्ट में वसुधा और आरव की प्रेम कहानी पर बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं। यह ट्रेक इतना ठंडा और सुस्त है कि इंटरवल तक कहानी बमुश्किल आगे बढ़ती है। यही हाल इंटरवल के बाद का है। संभव है कि आपको झपकी भी लग जाए। फिल्म के किरदारों के मुंह से जो संवाद बुलवाए गए हैं वो उन पर सूट नहीं होते हैं। हालांकि संवाद कई जगह अच्छे लिखे गए हैं, लेकिन उनके लिए स्क्रिप्ट में ठीक से सिचुएशन नहीं बनाई गई है। मंगलसूत्र को लेकर फिल्म में इतना बनावटी हौव्वा खड़ा किया गया मानो मंगलसूत्र नहीं पहना हो तो महिला ने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। निर्देशक मोहित सूरी का ध्यान इसी बात रहा कि हर दृश्य में फिल्म के पात्र दु:खी नजर आए, लेकिन किरदारों के दु:ख को वे दर्शकों को महसूस नहीं करा पाए और यह उनकी सबसे बड़ी असफलता है। कुछ दृश्य तो इसलिए रखे गए जिससे फिल्म खूबसूरत लगे भले ही वे अतार्किक हो। मसलन, दुबई में वसुधा होटल छोड़कर सुनसान रेगिस्तान में सूटकेस लिए पैदल जा रही है। मोहित का प्रस्तुतिकरण भी बीते दौर की फिल्मों जैसा है। विद्या बालन एक अच्छी अभिनेत्री हैं और उन्होंने अपने किरदार को गहराई से पकड़ने की पूरी कोशिश की है। इमरान हाशमी में इतनी काबिलियत नहीं है कि वे गहराई में उतरे। उन्होंने सीधे-सीधे अपने संवाद बोले हैं और कई दृश्यों में ऐसा लगा कि वे खुद बोर हो रहे हैं। राजकुमार राव को फुटेज कम मिला है, लेकिन जितना मिला है उन्होंने अच्छे से किया है। फिल्म का संगीत उल्लेखनीय है। कुछ गाने बेहतरीन लिखे और संगीतबद्ध किए गए हैं। महेश भट्ट, मोहित सूरी, विद्या बालन, राजकुमार राव, शगुफ्ता रफीक जैसे दिग्गज के जुड़े होने के बावजूद 'हमारी अधूरी कहानी' निराश करती है। बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्माता : मुकेश भट्ट निर्देशक : मोहित सूरी संगीतकार : जीत गांगुली, मिथुन, अमि मिश्रा कलाकार : इमरान हाशमी, विद्या बालन, राजकुमार राव, मधुरिमा तुली सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 11 मिनट 40 सेकंड ",0 "इस सीरीज की यह पहली ऐसी फिल्म है जिसमें पॉल वॉकर न तो नजर आए और न ही पूरी फिल्म में उनकी मौत का कहीं जिक्र किया गया। 'फास्ट ऐंड फ्यूरियस' सीरीज की इस 8वीं फिल्म के शुरू होने से पहले ही यह तय हो गया था कि पॉल वॉकर के भाई को फिल्म में कास्ट नहीं किया जाएगा। इस सीरीज की पिछली लगभग सभी फिल्मों ने दुनिया भर में कामयाबी के साथ कलेक्शन का भी बेहतरीन रेकॉर्ड बनाया। लेकिन 'फास्ट ऐंड फ्यूरियस 7', दुनिया की पहली ऐसी फिल्म थी जिसने सबसे कम वक्त में 100 करोड़ डॉलर कमाने का नाम अपने काम किया था। कहानी: डॉम (विन डीजल) और लेटी (मिशेल रोडरिग्रेज) के साथ हवाना में हनीमून पर हैं। यहीं पर डॉम की मुलाकात एक बेहद खूबसूरत लड़की साइफर (शार्लीज थेरन) से होती है। डॉम, साइफर की खूबसूरती पर फिदा होकर लेटी और अपने परिवार से अलग हो जाता है। दरअसल, साइफर एक बेहद चालाक साइबर टेररिस्ट है जो एक प्लानिंग के तहत डॉम को अपनी खूबसूरती के जाल में फंसाती है। डॉम उसके जाल में कुछ ऐसा फंसता है कि उसकी खातिर अपनी टीम के साथियों से भी न सिर्फ अलग हो जाता है बल्कि टीम को धोखा देने लगता है। दूसरी ओर साइफर की प्लानिंग बेहद खतरनाक है। साइफर कुछ वक्त बाद अपनी पहचान बदलती रहती है। ऐक्टिंग: पिछली फिल्में जहां पॉल के आसपास घूमती रहीं, वहीं यह फिल्म शुरुआत से अंत तक विन डीजल के किरदार पर टिकी रही। विन, फिल्म में एक सुपरहीरो के तौर पर नजर आते हैं। इस फिल्म में उन्होंने अपनी दमदार एंट्री दर्ज कराई है। ऐक्शन सीन्स और कारों की रेस के सीन्स इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। फास्ट ऐंड फ्यूरियस की पहली महिला विलन के तौर पर शार्लीज थेरन की परफॉर्मेंस क्लासी है। अन्य कलाकारों में ड्वेन जॉनसन, टाइरिस गिब्सन, नैथली इमैनुअल और मिशेल रोडरिग्रेज सभी ने अपने किरदार में जान डाली है। क्यों देखें: आखिर के करीब 50 मिनट की फिल्म बेहद रोमांचक है। फिल्म में शहर की हजारों कारों को हैक करने वाले सीन के अलावा क्यूबा की अलग-अलग खूबसूरत लोकेशन से लेकर न्यू यॉर्क और आर्कटिक ओशन के बर्फ से ढके मैदानों में फिल्म का क्लाइमैक्स फिल्माया गया है जो हॉल में बैठे दर्शकों के दिल की धड़कने बढ़ाने का काम करता है।",0 "बॉलीवुड में खेलों पर आधारित 'लगान', 'चक दे इंडिया','पान सिंग तोमर', 'भाग मिल्खा भाग' और 'मैरीकॉम' जैसी सफल फिल्में बन चुकी हैं। 'बदलापुर बॉयज' भी इसी श्रृंखला में एक कड़ी मानी जा सकती है। 'बदलापुर बॉयज' एक सफल तमिल फिल्म की रिमेक है। दूसरी फिल्मों से अलग 'बदलापुर बॉयज' घरेलू खेल कबड्डी पर केंद्रित है। एक पिता अपनी जान दे देता है और मां पूरे समय आंसू बहाती रहती है। रोचकता कबड्डी खेल के शुरू होने पर पैदा होती है और यह खेल फिल्म में रोमांच भर देता है। फिल्म में कबड्डी पर ही पूरा ध्यान केंद्रित होता तो फिल्म और मनोरंजक बन सकती थी। इस फिल्म का शो बुक करने के लिए यहां क्लिक करें> > 'बदलापुर बॉयज' में 'लगान' के समान भोलेभाले ग्रामीण, धोखेबाज खलनायक हैं। गांव के लोगों को एक जीत की दरकार है जिस पर इनकी खुशियां और इज्जत दांव पर लगी हुई है। फिल्म में कबड्डी सिर्फ एक खेल न होकर एक छुपा हुआ गंभीर सामाजिक और आर्थिक मुद्दा है। फिल्म का निर्देशन शैलेश वर्मा ने किया है। फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। फिल्म की कहानी प्रभावी है, लेकिन निर्देशन और पटकथा में फिल्म कमजोर साबित होती है। फिल्म में ड्रामेबाजी है। फिल्म में बिना मतलब के गाने भी विषय से भटकाते हैं। अन्नू कपूर ने इसमें कबड्डी कोच की भूमिका निभाई है। उन्होंने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। निशान सरन्या मोहन, शंशाक उदापुरकर, पूजा गुप्ता, अनुपम मानव, किशोरी शहाने, मजहर खान, अंकित शर्मा, विनित और अमन वर्मा जैसे नए चेहरे फिल्म में हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से फिल्म में प्रभावित किया है। बैनर : कर्म मूवीज निर्माता : सतीश पिल्लंगवाड निर्देशक : शैलेश वर्मा लेखक: शैलेश वर्मा संगीत : समीर अंजान, समीर टंडन, सचिन गुप्ता, राजू सरदार। कलाकार : अन्नू कपूर, अनुपम मानव, सारान्या मोहन, पूजा गुप्ता। टाइम : 2 घंटे, 3 मिनट ",0 "'दंगल' कहानी है हरियाणा के एक छोटे से गांव के भूतपूर्व नैशनल रेसलिंग चैंपियन महावीर सिंह फोगाट (आमिर खान) की। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से अपने रेसलिंग के करियर पर विराम लगा नौकरी चुनने वाले महावीर के सीने में देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने की चाहत उसे हमेशा कचोटती है। अपनी गोल्ड मेडल जीतने की चाहत को वह अपनी बेटियों से पूरा करवाता है। पुरुष प्रधान समाज में बेटियों से पहलवानी करवाना और अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेटियों के गोल्ड मेडल जीतने की इस दिलचस्प कहानी में प्रेरणादायक मनोरंजन हैं। कहानी: महावीर फोगाट की शादी शोभा कौर (साक्षी तंवर) से होती है। महावीर की चाहत है कि उसे एक बेटा हो, जो उनके लिए किसी इंटरनैशनल इवेंट से गोल्ड मेडल जीतकर ला सके। इसी चाहत में उन्हें चौथी बार भी बेटी ही होती है, जिसके बाद वह काफी दुखी हो जाता है। अचानक एक दिन उनकी दोनों बेटियां गीता (बचपन का किरदार में ज़ायरा वसीम और बड़ी होकर फातिमा सना शेख) और बबीता ( बचपन के किरदार में सुहानी भटनागर और बड़ी होकर सान्या मल्होत्रा) पड़ोस के बच्चों को बुरी तरह पीटकर आती हैं और यहीं से महावीर के मन में जगती है अपनी बेटियों को बेटा बनाने की चाहत। वह कहते नज़र आते हैं, 'म्हारी छोरियां छोरों से कम है के?' यहीं से शुरुआत होती है उस लगन और मेहनत की जो महावीर को उसके मंजिल तक पहुंचाती है। हालांकि, यह सब कर पाना इतना आसान नहीं होता, काफी मुश्किलें सामने हैं, लेकिन महावीर हर परिस्थितियों पर बिल्कुल पहाड़ की तरह भारी नज़र आते हैं। उन्हें अपने चारों तरफ अपनी बेटियां और गोल्ड मेडल के आलावा कुछ और नहीं सूझता। निर्देशन: नितेश तिवारी ने महावीर फोगाट की बेटियों गीता और बबीता की ऐतिहासिक जीत की जगजाहिर कहानी के बावजूद फिल्म का बेहतरीन निर्देशन किया है। इसका स्क्रीनप्ले, डायलॉग और ट्रीटमेंट आपको पूरे समय बांधे रखता है। फिल्म के कई सीन जहां आपकी आंखों को नम कर देते हैं, वहीं बीच-बीच में इमोशन से भरपूर हरियाणवी डायलॉग हंसी और खुशी का सामंजस्य बना कर रखते हैं। ऐक्टिंग: दंगल में आमिर खान ने महावीर फोगाट के रूप में जवान बेटियों के पिता बनने का किरदार बेहतरीन ढंग से निभाया है, उनकी बेटियों के किरदार में फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, ज़ायरा वसीम और सुहानी भटनागर ने भी कमाल का अभिनय किया है। साक्षी तंवर और अपारशक्ति खुराना ने अपनी सहज अदाकारी से हर सीन में जान फूंक दी है। लोकेशन: जहां फिल्म के पहले भाग में ज्यादातर शूटिंग आउटडोर की है, वहीं दूसरे भाग में अधिकतर सीन स्टेडियम के हैं। स्टेडियम में रेसलिंग के लंबे-लंबे सीन आपको किसी भी समय बोझिल नहीं लगते। पहलवानी के खेल से वाकिफ न रहने वाले दर्शक भी फिल्म में बड़ी ही आसानी से रेसलिंग के दांव-पेंच को समझ लेते हैं, इसलिए फिल्म रोचक लगती है। कई बार तो रेसलिंग के सीन पर हर जीत के बाद सिनेमा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। संगीत: फिल्म के गीत-संगीत को प्रीतम ने इस तरह पिरोया है कि हर गाना फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाता है। गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य के गीत कहानी में डूबकर साथ चलते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर विषय से भटकता नहीं है, कई बार जब रेसलिंग के दांव-पेंच शुरू होते हैं तब बैकग्राउंड स्कोर पर कोई संगीत नहीं है, बैकग्राउंड स्कोर की यही बात फिल्म को और मजबूत बनाती है। क्यों देखें: भारत में जहां पहलवानी पुरुष प्रधान खेल रहा है, वहीं रेसलिंग के इस खेल पर महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई यह बायॉपिक एक सराहनीय प्रयास है। इस फिल्म को बेहिचक पूरे परिवार के साथ देखा जा सकता है। शुरू में आमिर खान की 'दंगल' की तुलना सलमान खान की फिल्म सुल्तान के साथ की जा रही थी, जबकि सच यह है कि दोनों ही फिल्मों के बीच कोई तुलना नहीं है। ",0 " बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल मीडिया लिमिटे ड निर्माता-निर्देशक : प्रकाश झा संगीत : सलीम-सुलेमान, विजय वर्मा, संदेश शांडिल्य, शांतनु मोइत्रा, आदेश श्रीवास्तव कलाकार : अभय देओल, अर्जुन रामपाल, ईशा गुप्ता, ओम पुरी, मनोज बाजपेयी, अंजलि पाटिल, चेतन पंडित, समीरा रेड्डी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * सेंसर सर्टिफिकेट नंबर : डीआईएल/2/62/2012 * 2 घंटे 32 मिनट भारत के दो सौ से अधिक जिलों में नक्सलवाद फैल चुका है और कोई दिन भी ऐसा नहीं जाता जब इस आपसी संघर्ष में भारत की धरती खून से लाल नहीं होती है। नक्सलवाद दिन पर दिन फैलता जा रहा है। कई प्रदेश इसके चपेट में हैं, लेकिन अब तक इसका कोई हल नहीं निकल पाया है। एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जिसे भेदना मुश्किल होता जा रहा है। इस मुद्दे को लेकर प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ फिल्म बनाई है। ठोस कहानी, शानदार अभिनय और सुलगता मुद्दा प्रकाश झा के सिनेमा की खासियत हैं और यही बातें ‘चक्रव्यूह’ में भी देखने को मिलती है। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था। गंगाजल से प्रकाश झा ने कहानी कहने का अपना अंदाज बदला। बड़े स्टार लिए, फिल्म में मनोरंजन की गुंजाइश रखी ताकि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचे। इसका सुखद परिणाम ये रहा कि प्रकाश झा की‍ फिल्मों को लेकर आम दर्शकों में भी उत्सुकता पैदा हो गई। अब तो आइटम नंबर भी झा की फिल्म में देखने को मिलते हैं। चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं और इनकी लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहे हैं। एसपी आदिल खान (अर्जुन रामपाल) के जरिये पुलिस का एक अलग चेहरा नजर आता है। उसे इस बात के लिए शर्म आती है कि अब तक सरकार भारत के भीतरी इलाकों में सड़क, पानी और बिजली जैसी सुविधाएं नहीं पहुंचा पाई है। उन लोगों को बहका कर उनके आक्रोश का माओवादी गलत इस्तेमाल कर रहा है। वह आदिवासियों के मन से माओवादियों का डर निकालना चाहता है। उसका मानना है कि बंदूक के जरिये कभी सही निर्णय नहीं किया जा सकता है। उसे अपने उन पुलिस वाले साथियों की चिंता है जो माओवादी की तलाश में जंगलों की खाक छान रहे हैं। अपने परिवार से दूर अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं। कुछ पुलिस वालों का मानना है कि ये मिली-जुली कु‍श्ती है और सिर्फ मुर्गे लड़ाकर अपनी-अपनी रोटियां सेंकी जा रही हैं। नेता, उद्योगपतियों को बढ़ावा देकर इंडस्ट्री लगाना चाहते हैं और इसके लिए वे नक्सलियों के साथ-साथ आदिवासियों का भी अहित करने के लिए तैयार हैं। दूसरी ओर माओवादी के अपने तर्क हैं। उनकी अपनी समानांतर सरकार और अदालत है। वे वर्षों से शोषित और उपेक्षित हैं। उनका मानना है कि ये लुटेरी सरकार है जो सिर्फ पूंजीवादियों के हित में सोचती है। जब बात से बात नहीं बनी तो उन्होंने हथियार उठा लिए। अलग-अलग किरदारों के जरिये सभी का पक्ष रखा गया है। गंभीर मसले होने के बावजूद भी प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ को डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है। भले ही तकनीकी रूप से फिल्म स्तरीय नहीं हो, लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है। फिल्म बांधकर रखती है। अपनी बात कहने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी की ‘नमक हराम’ से प्रकाश झा ने प्रेरणा ली है। कबीर (अभय देओल) अपने दोस्त आदिल खान की मदद के लिए माओवादियों के साथ जा मिलता है और उनकी हर खबर अपने एसपी दोस्त तक पहुंचाता है, लेकिन धीरे-धीरे उसकी सोच बदल जाती है और वह भी माओवादी बन जाता है। ये बात उसके लिए दोस्ती से भी परे हो जाती है और वह आदिल पर बंदूक तानने से भी हिचकिचाता नहीं है। कबीर और आदिल के जरिये पुलिस और माओवादियों की कार्यशैली नजदीक से देखने को मिलती है। कमियों की बात की जाए तो कबीर का तुरंत माओवादियों में शामिल होने का निर्णय लेना, उनका विश्वास जीत लेना और आदिल से जब चाहे मिल लेना या बात कर लेना थोड़ा फिल्मी है। आइटम सांग भी जरूरी नहीं था। फिल्म की लंबाई को भी नियंत्रित किया जा सकता था। अर्जुन रामपाल का चेहरा भावहीन है, जिससे वे एक सख्त पुलिस ऑफिसर के रूप में जमते हैं। यह उनका अब तक सबसे बेहतरीन अभिनय है। यदि उम्दा अभिनेता इस रोल को निभाता तो बात ही कुछ और होती। कबीर के रूप में अभय देओल का अभिनय प्रशंसनीय है। अर्जुन रामपाल को गोली मारने जा रहे मनोज बाजपेयी की पीठ में गोली मारते वक्त उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं। जूही के रूप में अं‍जलि पाटिल ने आक्रोश को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। ईशा गुप्ता से तो प्रकाश झा भी एक्टिंग नहीं करवा पाए। मनोज बाजपेयी, ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपने-अपने रोल में प्रभाव छोड़ा है। चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति विकराल हो जाएगी। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "नितिन भावेबेशक बॉलिवुड में अब लीक से हटकर कम बजट की बेहतरीन फिल्में बनने लगी हैं और ऐसी फिल्मों को अब दर्शक हाथोंहाथ ले भी रहे हैं। 'राब्ता' से निर्देशन की फील्ड में एंट्री कर रहे दिनेश विजान की बतौर प्रड्यूसर उनकी पिछली फिल्म 'हिंदी मीडियम' भी कुछ इसी स्टाइल की फिल्म थी। लेकिन, अब जब दिनेश ने बतौर डायरेक्टर 'राब्ता' बनाई तो इसको देखने के बाद हॉल में बैठे दर्शक भी हैरान रह जाते हैं कि वह इस फिल्म में क्या कहना चाहते हैं। वैसे, बॉलिवुड में बरसों से पुर्नजन्म का फॉर्म्युला बॉक्स आफिस पर हमेशा हिट रहा है। बात अगर सत्तर के दशक की करें तो सुनील दत्त, नूतन स्टारर ‘मिलन' ने उस दौर में टिकट खिड़की पर कामयाबी और कमाई का इतिहास रचा तो इस दौर में किंग खान ने 'ओम शांति ओम' बनाई और यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर रेकॉर्ड कामयाबी हासिल करने में सफल रही। लगता है यही वजह रही होगी कि दिनेश ने भी जब डायरेक्टर बनने का फैसला किया तो पुर्नजन्म के सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने का फैसला किया। हालांकि, जब मल्टिप्लेक्स कल्चर पूरे देश में अपनी जड़ें जमा चुका है और बॉक्स ऑफिस पर जेन एक्स छा रहा है ऐसे दौर में अब पुनर्जन्म की कहानी दर्शकों की इस क्लास को अपनी और खींच पाएगी ऐसा आसान नहीं लगता। शायद खुद दिनेश भी इस सच को जानते थे तभी तो उन्होंने इस फिल्म के हीरो सुशांत सिंह राजपूत और कृति सेनन की बेहतरीन केमिस्ट्री के साथ विजुअल इफेक्टस पर ज्यादा ध्यान दिया है। अगर हम पुनर्जन्म पर बनीं चंद सुपरहिट फिल्मों की बात करें तो इनकी सबसे बड़ी यूएसपी हॉल में बैठे दर्शकों की आंखों को नम करने के फॉर्म्युला फिट करना रहा करता था। लेकिन, इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी यही है ढाई घंटे से ज्यादा देर की इस फिल्म में एक भी ऐसा सीन नहीं है, जो हॉल में बैठे दर्शकों की आंखें नम करने का दम रखता हो। कहानी: राब्ता की कहानी है दो ऐसे प्रेमियों- शिव और सायरा की जो पिछले जन्म में भी प्रेमी थे, लेकिन हालात दोनों को एक-दूसरे से अलग कर देते हैं। इस जन्म में भी दोनों एक-दूसरे से मिलते हैं, प्यार करते हैं लेकिन फिर वही हालात बनते हैं कि दोनों बिछड़ जाते हैं। पिछले जन्म की अधूरी प्रेम कहानी नए जन्म में पूरी होती है या नहीं, यही है फिल्म राब्ता।शिव कक्कड़ (सुशांत सिंह राजपूत) बूडापेस्ट में बैंकर है। शिव कुछ ज्यादा ही बतियाने वाला रोमांटिक मिजाज का है। यहीं पर एक दिन उसकी मुलाकात चॉकलेट स्टोर चलाने वाली सायरा (कृति सेनन) से होती है। जैसा कि बॉलिवुड फिल्मों में होता है पहले नोकझोंक और फिर चंद मुलाकातों के बाद शिव और सायरा एक-दूसरे से प्यार करने लगते है। इंटरवल से ठीक पहले इस सिंपल कहानी में एक बिजनेस टायकून जाकिर मर्चेंट (जिम सरभ) की बड़े शानदार स्टाइल से एंट्री होती है।अचानक शिव को कुछ दिनों के लिए वियना में बैंकर्स की कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए जाना पड़ता है। इसी बीच सायरा की जिंदगी में बदलाव शुरू होने लगता है और कुछ पुरानी यादें उसका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही हैं। वह धीरे-धीरे जाकिर की ओर आकर्षित होने लगती है। कहानी में नया टर्न आता है सायरा, शिव को छोड़कर चली जाती है। पुनर्जन्म के प्यार की इस कहानी में हालात इस बार भी वही बनते हैं, जिनके चलते पिछले जन्म में दोनों बिछड़ जाते हैं। ऐक्टिंग: इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी सुशांत और कृति की बेहतरीन केमिस्ट्री है। इन दोनों ने अपने किरदार को ऐसे जोशीले और अलग अंदाज के साथ निभाया है कि जिस-जिस सीन में भी यह जोड़ी दिखाई देती है दर्शक वहीं फुल एन्जॉय करते हैं। बेशक, सुशांत के अपोजिट कृति कुछ सीन्स में उनसे कमजोर नजर आईं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि कृति ने कहीं दर्शकों को निराश किया हो। इंटरवल से चंद मिनट पहले कहानी में जिम सरभ की एंट्री जबर्दस्त और शानदार ढंग से होती है, लेकिन कुछ देर बाद लगने लगता है जिम कुछ नया नहीं कर रहे हैं। फिल्म में राजकुमार राव का किरदार कुछ ऐसा है कि आप उन्हें जबर्दस्त मेकअप के चलते शायद पहचान भी ना पाएं। हालांकि, उन्हें कुछ अलग करने का मौका भी नहीं मिल पाया। निर्देशन: दिनेश ने पुर्नजन्म कहानी पेश की, लेकिन यह भावनात्मक तौर पर कमजोर है। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। पूरी फिल्म में दमदार विजुअल्स, शानदार लोकेशन्स और बेहतरीन कॉस्टयूम जरूर देखने को मिलते है। दिनेश ने सुशांत और कृति के किरदारों को बेहतरीन बनाने के लिए अच्छी मेहनत की है, वहीं जहां इंटरवल से पहले तक की फिल्म जेन एक्स का एंटरटेनमेंट करती है तो इंटरवल के बाद जब पुर्नजन्म की कहानी शुरू होती है तो दर्शकों की यही क्लास खुद को असहाय महसूस करती है। फिल्म में ना जाने कौन सा युग दिखाया है जहां कबीलों में रहने वालों की ड्रेसिंग समझ से परे है। ऐसा लगता है दिनेश ने इस और ध्यान नहीं दिया। संगीत: फिल्म में कई गाने है और हर गाने को बेहतरीन लोकेशन पर शूट किया गया है। रिलीज से पहले ही फिल्म के दो गाने- इक वारी आ, मैं तेरा बॉयफ्रेंड कई म्यूजिक चार्ट्स में शामिल हो चुके है। बरसों पुराने गाने इक लड़की भोली-भाली-सी का फिल्मांकन गजब का बन पड़ा है। क्यों देखें: बुडापेस्ट की शानदार लोकेशन्स और सुशांत सिंह राजपूत और कृति की एनर्जीटिक बेहतरीन केमिस्ट्री, इस फिल्म को देखने की यही दो वजहें हो सकती हैं। ",0 "इस शुक्रवार को बॉलिवुड की चार फिल्में रिलीज़ हुईं। एकसाथ दो से ज्यादा फिल्मों का आना यकीनन उन फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस पर घाटे का सबब बन जाता है जो कम बजट में बनी हो या फिर ऐसे स्टार्स को लेकर बनी हो जिनकी कुछ खास पहचान नहीं इंडस्ट्री में। कुछ ऐसी ही बात इस हफ्ते दो फिल्मों के साथ नजर आ रही है, ओम पुरी की 'कबाड़ी' और 'रांझना' सहित कई फिल्मों में इंडस्ट्री के दिग्गज स्टार्स के छक्के छुड़वा चुके जीशान अयूब स्टारर 'समीर' के साथ नजर आ रही है। इन दोनों ही फिल्मों का खास प्रमोशन नहीं हो पाया। अगर टोटल शो और कुल स्क्रीन्स की बात की जाए तो बेशक समीर को कुछ ज्यादा स्क्रीन मिल पाए हों, लेकिन 'कबाड़ी' इस मामले में भी बहुत पीछे रह गई। 'समीर' एक ऐसी फिल्म है जो लीक से हटकर कुछ अलग और नया देखने के शौकीन दर्शकों की क्लास की पंसद को ध्यान में रखकर बनाई गई है। बेशक इस फिल्म में एक बार फिर गुजरात के दंगों की कड़वी यादें ताजा होती हैं, लेकिन यंग डायरेक्टर ने फिल्म में अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर समाज में इन दिनों अपने अधिकारों की जंग को लेकर हो रही बहस के इस दौर में एक ऐसी फिल्म बनाई है जो हमें जहां सत्ता में बैठे राजनेताओं का असली चेहरा दिखाती है। फिल्म में लंबे अर्से बाद गांधी जी और मंटो की कुछ अच्छी बातों और कविताओं को भी डायरेक्टर ने अपनी फिल्म की कहानी का हिस्सा बनाकर पेश तो कर दिया, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे माइनस पॉइंट भी बनकर रह जाता है। ऐसा लग रहा कि डायरेक्टर बेफिजूल की भाषणबाजी सुनवाने पर आमादा हैं। स्टोरी प्लॉट: हैदराबाद के एक छोटे से इलाके में हुए भीषण बम विस्फोट में करीब चौदह बेगुनाह मारे जाते हैं। सरकारी एजेंसियां जब इसकी जांच को शुरू करती है तो उस वक्त इस धमाके में में यासीन दर्जी का नाम सामने आता है। एटीएस की स्पेशल टीम यासीन के साथ कॉलेज में पढ़ने वाले उसके रूममेट समीर मेमन (जीशान अयूब) को अपनी कस्टडी में लेती है। समीर इंजिनियरिंग का स्टूडेंट है। एटीएस के ऑफिसर किसी भी सूरत में यह मानने को तैयार नहीं कि समीर अपने रूममेट यासीन के बारे में कुछ नहीं जानता, सो एटीएस की टीम समीर को कहीं से भी यासीन का पता लगाने के काम पर लगा देती है। एटीएस टीम के लोग समीर को धमकी देते हैं कि अगर उसने यासीन का पता नहीं लगाया तो बहुत बुरा होगा। दूसरी ओर किसी भी शहर में बम धमाके करने से पहले यासीन जर्नलिस्ट आलिया (अंजलि पाटील) को एक मेसेज भेजता है, क्योंकि यासीन आलिया की लेखनी का का फैन है। इसी बीच बेंगलुरु और अहमदाबाद में भी बम धमाके होते हैं तो समीर की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स', 'रईस' और 'सलमान खान' के साथ टयूबलाइट में नजर आए जीशान अयूब पहली बार इस फिल्म में लीड किरदार में नजर आए और अपने किरदार को अपनी जबर्दस्त ऐक्टिंग के दम पर जीवंत कर दिखाया। फिल्म में कहीं नहीं लगता कि जीशान ऐक्टिंग कर रहे हैं बल्कि उन्होंने खुद को अपने किरदार में पूरी तरह से ढाल लिया। फिल्म में नजर आई नाटक मंडली में रॉकेट का किरदार निभा रहे चाइल्ड आर्टिस्ट ने भी अपने रोल को बहुत खूबसूरती के साथ निभाया है। यंग डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह त्याग कर 'समीर' को एक ऐसी फिल्म बनाकर पेश किया जो अंत तक अपने ट्रैक पर चलती है। फिल्म की कहानी इंटरवल से पहले सौ फीसदी ट्रैक पर तेज रफ्तार से चलती है तो क्लाइमैक्स कुछ ज्यादा ही जल्दी में निपटा दिया गया। फिल्म में गाने तो हैं, लेकिन यह फिल्म की गति को धीमा करने के अलावा और कुछ नहीं करते। 'समीर' दर्शकों की उस क्लास के लिए मस्ट वॉच मूवी है जो चालू मसालों से दूर कुछ अलग और ऐसी फिल्म देखने के लिए थिअटर जाते हैं जिसमें समाज का आईना नजर आता हो। एंटरटेनमेंट और टाइम पास के लिए फिल्म देखने जा रहे हैं तो 'समीर' आपकी कसौटी पर खरी नहीं उतर पाएगी। ",1 "बाबू बिहारी (नवाजुद्दीन) और बांके बिहारी (जतिन), दोनों यूपी के कॉन्ट्रैक्ट किलर्स हैं। फिल्म में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब दोनों के टारगेट एक हो जाते हैं। यानी दोनों को किसी खास शख्स की हत्या की सुपारी मिल जाती है। दोनों यह तय करते हैं कि जो ज्यादा लोगों को मारेगा वही नंबर वन किलर कहा जाएगा। हालांकि दोनों इस बात से अनजान रहते हैं कि उनकी प्रतिस्पर्धा के बीच एक खेल और खेला जा रहा है। फिल्म में जहां गोलियों की आवाज का शोर है वहीं सेक्स सीन्स भी जमकर परोसे गए हैं। रिव्यू: यह गैंग्स ऑफ वासेपुर टाइप की फिल्म है। यह बात मन में बैठाकर थियेटर जाइए। बाबू 10 साल की उम्र से ही हत्याएं करने का काम कर रहा है। पहली हत्या उसने खाने के लिए की थी। बांके बाबू का फैन है और वह सुपारी किलर बनने का सपना देखता है। बांके की गर्लफ्रेंड यास्मीन (श्रद्धा) बॉलिवुड रीमिक्स पर डांस करती है और उसके लिए कॉन्ट्रैक्ट लाती है। बाबू की गर्लफ्रेंड फुलवा (बिदिता) उसे खत्म कर देने के लिए कहती है। पूरी फिल्म में आपको गोलियों की आवाज सुनाई देगी। फिल्म में दो और किरदार हैं, सुमित्रा ( दिव्या) और दुबे (अनिल)। दोनों नेता की भूमिका में हैं और अपने फायदे के लिए इन दोनों बंदूकबाजों का इस्तेमाल करते हैं। इस खेल में स्थानीय पुलिस भी शामिल हो जाती है। बाबू अपनी गर्लफ्रेंड फुलवा के साथ मजे में रह रहा होता है लेकिन बांके की उस पर नजर पड़ती है और वह भी फुलवा की तरफ आकर्षित हो जाता है। स्क्रीनप्ले थोड़ी और टाइट करने की गुंजाइश थी। इसके बावजूद कुशन नंदी ने अच्छी फिल्म बनाई है। नवाजुद्दीन का एक खतरनाक किलर से प्रेमी में ट्रांसफॉर्म होना भी देखते ही बनता है। जतिन ने भी प्रभावित किया है और उनकी आवाज स्क्रीन अपील को बढ़ाती है। यह कहा जाए कि बॉलिवुड ने इस फिल्म के जरिए बिदिता की खोज की है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वह कामोत्तेजक सीन्स में तो दमदार नजर आईं ही हैं, कुछ इमोशनल फ्रेम में भी बेजोड़ दिख रही हैं। हाय रे हाय मेरा घुंघटा में घुंघराले बालों वाली श्रद्धा ने पूरा बवाल काटा है। लोकल बहनजी के रोल में दिव्या दत्ता ने भी ठीक ठाक काम किया है।इस खबर को गुजराती में पढ़ें। ",1 " समाज जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। बंद दरवाजे के पीछे शराफत के नकाब उतर जाते हैं और तमाम नैतिकता और मूल्य धराशायी हो जाते हैं। निर्देशक अजय बहल ने फिल्म ‘बी.ए. पास’ के जरिये इसी समाज की पड़ताल की है। सेक्स और अपराध के तड़के के साथ उन्होंने अपनी बात एक थ्रिलर मूवी की तरह पेश की है। फिल्म का नायक मुकेश (शादाब कमल) बीए फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट है। बीए करना उसकी मजबूरी है क्योंकि वह इतने नंबर नहीं ला सका है कि बढ़िया कोर्स कर सके। अपने माता-पिता को खो चुका है। बुआ के घर ताने सुनते हुए रहता है। इतना पैसा भी नहीं है कि मनचाहा कोर्स कर सके। दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी भी उस पर है। मुकेश उन करोड़ों भारतीय युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो हर बात में औसत से भी नीचे हैं और दर-दर की ठोकरें खाना उनकी नियति है। उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए रसूखदार लोग उनका शोषण करते हैं। मुकेश के फुफा के बॉस की पत्नी सारिका (शिल्पा) की नजर मुकेश पर है। बॉस की पत्नी घर का काम करवाने के लिए मुकेश को बुलवाती है। बॉस को खुश करने के लिए भेजा जाता है। सारिका उन गृहिणियों का प्रतिनिधित्व करती है जिनके पतियों को पैसा कमाने से फुर्सत नहीं है। रोमांस और सेक्स तो दूर की बात है। डरा और सहमा हुआ मुकेश अपनी आंटी की उम्र की सारिका के जाल में उलझ जाता है। सेक्स के साथ उसे पैसा मिलता है, लेकिन वह इस बात से अनजान है कि वह दलदल में फंसता जा रहा है। कब वह जिगेलो (पुरुष वेश्या) बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता। फिल्म के अंत में दर्शाया गया है कि गलत राह पर चलने का अंजाम कभी अच्छा नहीं होता। वास्तविकता की जमीन इतनी सख्त होती है कि विश्वास और प्यार की बातें इससे टकराकर चकनाचूर हो जाती है। इसको दो प्रसंगों से रेखांकित किया गया है। जानी भाई मुकेश का दोस्त है, जो शतरंज के खेल में माहिर है। मुकेश को भी शतरंज का शौक है। कारपोव और कास्पारोव के दीवाने आपस में खेलते हैं, लेकिन जिंदगी की शतरंज में जानी भाई ऐसा दांव चलता है कि मुकेश चारो खाने चित्त हो जाता है। पैसा आने पर व्यक्ति की सोच और समझ किस तरह यू टर्न लेती है, ये जानी भाई के किरदार से समझा जा सकता है। दीप्ति नवल का पति सालों से कोमा में है। तनहाई का दर्द उससे बर्दाश्त नहीं होता है और वह चाहती है कि उसका पति मर जाए। रोजाना के संघर्ष से उसका प्यार हार जाता है। इन किरदारों के जरिये ‘बीए पास’ में हमें जिंदगी के रंग देखने को मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें अब तक परदे पर दिखाई नहीं गई है, लेकिन निर्देशक अजय ने मोहन सिक्का द्वारा लिखी गई गई कहानी ‘रेलवे आंटी’ को परदे पर अच्छे से उभारा है। नई दिल्ली में उन्होंने कहानी को सेट किया और उनके द्वारा चुने गए लोकेशंस सराहनीय है। अजय ने अपने निर्देशन में उतनी आक्रामकता नहीं दिखाई जितनी कहानी की डिमांड थी। सेक्सी दृश्यों को उन्होंने बखूबी शू‍ट किया, लेकिन उनमें दोहराव नजर आया। फिल्म के शुरुआती हिस्से में भी यदि घटनाक्रमों में तेजी दिखाई जाती तो यह फिल्म और बेहतर होती। मासूम और संकोची मुकेश को शादाब कमल ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया। राजेश शर्मा, दीप्ति नवल और दिव्येन्दु भट्टाचार्य ने अच्छा सहयोग दिया। लेकिन शिल्पा शुक्ला पूरी फिल्म में छाई रही। कामुक, कुटील और कुंठित महिला को उन्होंने बखूबी जिया। डार्क सिनेमा के शौकीनों को ‘बीए पास’ पसंद आएगी। बैनर : टोंगा टॉकीज निर्माता : अजय बहल निर्देशक : अजय बहल कलाकार : शिल्पा शुक्ला, राजेश शर्मा, दिव्येंदु भट्टाचार्य, दीप्ति नवल सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 41 मिनट 40 सेकंड ",1 " गांव से शहरों की ओर पलायन को लेकर कुछ फिल्में पहले भी बनी हैं। मुजफ्फर अली की 'गमन' इस विषय पर बनी बेहतरीन फिल्म है जिसका एक गाना 'सीने में जलन' आज भी सुना जाता है। '‍शाहिद' फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले हंसल मेहता ने अपनी अगली फिल्म 'सिटीलाइट्स' में इसी विषय को चुना है, जिसमें उनके प्रिय कलाकार राजकुमार राव ने लीड रोल निभाया है। सिटीलाइट्स 2013 में रिलीज हुई फिल्म 'मेट्रो मनीला' पर आधारित है, जिसका भारतीयकरण हंसल मेहता ने बखूबी किया है। दरअसल गांव से शहरों की ओर काम की तलाश में जाने वाली बात आम है, इसलिए यह भारतीय फिल्म लगती है। गांव से लोग इस आशा के साथ महानगरों में जाते हैं कि कुछ न कुछ काम तो मिल ही जाएगा और उनकी दाल-रोटी निकल जाएगी। बड़े शहरों में काम तो मिलता है, लेकिन इसके साथ कई विषम परिस्थितियों और चुनौतियों से भी दो-दो हाथ करना होते हैं। सिटीलाइट्स का मुख्य पात्र दीपक (राजकुमार राव) की राजस्थान में कपड़ों की दुकान है। परिवार में बीवी और चार-पांच साल की एक बेटी है। दीपक का व्यवसाय नहीं चलता और कर्ज ना चुका पाने के कारण उसे दुकान बंद करना पड़ती है। बिना ज्यादा सोच-विचार किए दीपक अपने परिवार के साथ मुंबई चला आता है। सीधे-सादे दीपक को मकान के नाम पर ठग लिया जाता है और उसके सारे पैसे चले जाते हैं। किसी तरह वह मजदूरी करता है ताकि उसकी बेटी को भूखा न सोना पड़े। दीपक की पत्नी राखी (पत्रलेखा) पैसों के अभाव में बार गर्ल बन जाती है। यहां पर निर्देशक और लेखक थोड़ी जल्दबाजी कर गए। राखी का अचानक बार गर्ल बनने का फैसला अजीब लगता है, साथ ही यह ट्रेक फिल्म की कहानी में ठीक से जुड़ नहीं पाता। दीपक को पता ही नहीं चलता कि उसकी पत्नी बार गर्ल बन गई है, यह भी हैरत की बात लगती है। एक दिन दीपक अपने दोस्तों के साथ बार जाता है और वहां उसे राखी नजर आती है। यह भी बहुत बड़ा संयोग है और इसके बजाय कुछ और सोचा जाना था जिससे राखी के इस काम के बारे में दीपक को पता चले। फिल्म में यहां तक दीपक और उसके परिवार को चुनौती के आगे संघर्ष करते दिखाया गया है, जिसमें कुछ बेहतरीन दृश्य भी देखने को मिलते हैं। दीपक को एक अंडर कंस्ट्रक्शन मकान में सौ रुपये रोज पर सिर छिपाने की जगह मिलती है। जगह देने वाला कहता है कि तुम तीन करोड़ रुपये के मकान में रह रहे हो यह घर पूरा होते ही तीन करोड़ रुपये का हो जाएगा। यहां तक निर्देशक हंसल मेहता ने फिल्म को आर्ट फिल्म के सांचे में ढाल कर बनाया है। धीमी गति, कम रोशनी में शूटिंग और बैकग्राउंड में धीमी गति में बजते हुए गीत, लेकिन इसके बाद फिल्म की गति बढ़ती है एक नए कैरेक्टर के जरिये। नौकरी की तलाश में दीपक एक सिक्यूरिटी एजेंसी में जाता है और वहां उसकी मुलाकात विष्णु नामक एक शख्स से होती है जो उसे नौकरी दिलाने में मदद करता है। दीपक के सुपरवाइजर विष्णु का यह रोल मानव कौल ने निभाया है और उनके आते ही फिल्म में एक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। दीपक को इस कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिलती है। वेतन है पन्द्रह हजार रुपये। उसे अमीर और अपराधी किस्म के लोगों के काले धन के बॉक्स को इधर से उधर करना होता है। ईमानदार दी‍पक खुश है, लेकिन जिंदगी ने उसके लिए कुछ और ही सोच रखा था। विष्णु से दीपक की अच्छी दोस्ती हो जाती है। दोनों के बीच कुछ बेहतरीन दृश्य देखने को मिलते हैं। मसलन नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए दीपक एक चुटकुला सुनाकर नौकरी हासिल करता है। सुपरवाइजर के घर जाकर दीपक का खाना खाने वाला दृश्य। सुपरवा भी अच्छा है। विष्णु नौकरी से खुश नहीं है। उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा है। वह दीपक से कहता है गरीबी एक बीमारी है जो जोक की तरह चिपक जाती है। वह चोरी करना चाहता है, लेकिन दीपक तैयार नहीं है। विष्णु उसे अपने जाल में फंसा लेता है और यही से फिल्म एक थ्रिलर बन जाती है। फिल्म का आखिरी पौन घंटा बांध कर रखता है। फिल्म का क्लाइमेक्स आपको चौंकाने के साथ-साथ इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करता है किस तरह से कुछ लोगों के लिए जीवन-यापन करना कितना मुश्किल हो जाता है। निर्देशक हंसल मेहता बिना संवाद के दृश्यों के सहारे अपनी बात कहने में यकीन रखते हैं। पहले हाफ में यदि वे ज्यादा गानों का इस्तेमाल नहीं करते तो फिल्म की गति बढ़ जाती। हंसल ने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम भी लिया है और अपने लीड कलाकार की परेशानियों को छटपटाहट को दिखाने में कामयाब रहे हैं। दीपक के दर्द को दर्शक महसूस करते हैं। फिल्म के सिनेमाटोग्राफर देव अग्रवाल ने बहुत ही कम लाइट्स का उपयोग किया है ताकि फिल्म वास्तविक लगे, लेकिन इस चक्कर में कई बार स्क्रीन पर अंधेरा नजर आता है। राजकुमार राव ने दीपक के किरदार को बारीकी से पकड़ा है। पहली ही फ्रेम में उन्होंने दीपक को जो मैनेरिज्म और बॉडी लैंग्वेज दी है वह पूरी फिल्म में नजर आती है। पत्रलेखा ने उनका साथ अच्छी तरह निभाया है। मानव कौल फिल्म का सरप्राइज है। विष्णु के किरदार में वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जीत गांगुली ने फिल्म के मूड के अनुरूप गीतों की धुनें बनाई हैं। फिल्म का निर्माण मुकेश और महेश भट्ट ने किया है। अच्छी बात यह है कि सेक्स और अपराध की बी और सी ग्रेड फिल्म बनाने वाले भट्ट ब्रदर्स ने 'सिटी लाइट्स' जैसी फिल्म में भी अपना पैसा लगाया है। शाहिद' के बाद हंसल मेहता का फॉर्म जारी है और 'सिटीलाइट्स' को भी उन्होंने देखने लायक बनाया है। बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो निर्माता : मुकेश भट्ट निर्देशक : हंसल मेहता संगीत : जीत गांगुली कलाकार : राजकुमार राव, पत्रलेखा, मानव कौल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 55 सेकंड ",1 "कहानी: बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) बरेली की एक बिंदास लड़की है, जो प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) के प्यार में पागल हो जाती है। प्रीतम एक लेखक है, जिसके खुले विचार की कायल हो जाती है बिट्टी। अब इतने लोगों की भीड़ में उसे ढूंढने के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता है। बिट्टी अपने इस प्यार की तलाश के लिए वहीं के एक लोकल प्रिंटिंग प्रेस मालिक, चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना) की मदद लेती हैं। रिव्यू: 'बरेली की बर्फी' हिन्दी सिनेमा में एक शानदार पड़ाव है। यह रोमांटिक कॉमिडी फिल्म उत्तर भारत के एक छोटे से शहर बरेली पर बेस्ड है, जिसके किरदार आपको बिल्कुल रियल लगेंगे और आपका दिल जीत लेंगे। लेखक नितेश तिवारी ( ब्लॉकबस्टर 'दंगल' के डायरेक्टर और राइटर) ने श्रेयष जैन के साथ मिलकर एक ऐसी कहानी गढ़ी है जो लेखन, निर्देशन, ऐक्टिंग और म्यूजिक हर मामले में लोगों का दिल जीत लेगी। वजहें, जो कहती हैं कि 'बरेली की बर्फी' को मिस न करें जहां तक परफॉर्मेंस की बात है तो राजकुमार राव ने दर्शकों का दिल जीत लिया है। चाहे वह सेल्समैन के रूप में अपने ऊपर साड़ी लपेट रहे हों या फिर गली का गुंडा नज़र आ रहे हों, हर किरदार में वह फिट आकर्षक दिख रहे। कृति सेनन इस फिल्म में प्यारी बिट्टी ही नहीं, बल्कि बेहद प्यारी-सी एक बेटी भी हैं, वहीं आयुष्मान की नीयत इतनी सहजता से बदलती है कि आपको एहसास ही नहीं होता कि उनका किरदार कब अच्छे से बुरा हो गया। पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा ने भी शानदार अभिनय किया है, जिसके बाद आप इन्हें दोबारा देखना चाहेंगे। 'बरेली की बर्फी' देख क्या बोले बॉलिवुड सिलेब्रिटीज़ अपनी डायरेक्टोरियल डेब्यू 'नील बटे सन्नाटा' से दर्शकों का दिल जीत चुकीं अश्विनी अय्यर तिवारी ने एक बार फिर शानदार परफॉर्म किया है। उन्होंने इस कॉमिडी में अपना दिल और जान पूरी तरह से लगा दिया और फिल्म की शानदार कहानी ने इसे और भी जानदार बना दिया। फिल्म में लीड और सपॉर्टिंग कलाकारों की हरकतें हर बार आपको ठहाका लगाकर हंसने पर मजबूर कर देंगी। इसे देखकर एहसास होगा कि हमारी रोज की जिंदगी में भी बहुत सी मजेदार चीजें हैं जिसका आनंद लेना हम भूल चुके हैं। फिल्म की हिरोइन बिट्टी पर वापस आते हैं, वह एक मिठाई की दुकान के मालिक (पंकज) और उसकी रूढ़िवादी पत्नी (सीमा) की इकलौती बेटी है। उसके पिता ने उसे एक बेटे की तरह बड़ा किया है, यहां तक की उसे सिगरेट और शराब पीने की भी अनुमति दे रखी है। वहीं, इसके विपरीत उसकी छोटे शहर की मां सिर्फ उसे शादी करते देखना चाहती है। ट्रेन में यात्रा के दौरान, बिट्टी 'बरेली की बर्फी' नाम के एक नॉवल को पढ़कर खत्म करती है और इसके बाद ही कहानी में नया मोड़ आता है। वह न सिर्फ किताब के लीड कैरक्टर को पहचान जाती है बल्कि उसके लेखक की तलाश में भी पूरी तरह से जुट जाती है। वह चिराग के साथ ज्यादा समय बिताने लगती है और वे दोनों अच्छे दोस्त भी बन जाते हैं। चिराग बिट्टी से वादा करता है कि वह प्रीतम-प्यारे को ढूढ़ने में उसकी मदद करेगा। जावेद अख्तर के वॉइस ओवर के साथ फिल्म के कलाकारों और परिस्थितियों से परिचित कराया जाता है जो काफी दमदार है, इसके लिए एक फिर मजाकिया पंचों का धन्यवाद। 'तनु वेड्स मनु' और इसके सीक्वल फिल्म की तरह इस फिल्म में भी आप इसके बारिश और खुले पलों में खो जाएंगे। साथ ही बोनस में आापको पेपी 'स्वीटी तेरा ड्रामा' और 'ट्विस्ट कमरिया' गाने सुनने को मिलेंगे। एक बार इस बर्फी को जरूर खाएं क्योंकि यह आपके उत्साह को बढ़ा देगी। ",1 "बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद, निर्देशन : परमीत सेठी संगीत : प्रीतम कलाकार : शाहिद कपूर, अनुष्का शर्मा, वीर दास, मियांग चैंग, अनुपम खेर, किरण जुनेजा, पवन मल्होत्रा, जमील खान * यू/ए * 2 घंटे 24 मिनट कम समय में अधिक पैसा कमाना हो तो बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। तेज दिमाग का दुरुपयोग कर लोगों को बेवकूफ बनाना पड़ता है। इस तरह की बातों पर ‘बदमाश कंपनी’ के अलावा भी कई फिल्मों का निर्माण हुआ है क्योंकि मनोरंजन की इसमें भरपूर गुंजाइश रहती है। ‘बदमाश कंपनी’ की सबसे बड़ी प्रॉब्लम इसकी स्क्रिप्ट है। परमीत सेठी ने इसे अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा है। मन मुताबिक कहानी को ट्‍विस्ट दिए हैं, भले ही वो विश्वसनीय और सही नहीं हो। इससे दर्शक स्क्रीन पर दिखाए जा रहे घटनाक्रमों से जुड़ नहीं पाते। मनोरंजन की दृष्टि से भी देखा जाए तो फिल्म में बोरियत भरे क्षण ज्यादा हैं। कहानी 1990 के आसपास की है जब इम्पोर्टेड वस्तुओं का बड़ा क्रेज था क्योंकि ये आसानी से उपलब्ध नहीं थी। बॉम्बे के चार युवा करण (शाहिद कपूर), बुलबुल (अनुष्का शर्मा), चंदू (वीर दास) और जिंग (मियांग चैंग) मिलकर एक बिजनेस शुरू करते हैं। वे इम्पोर्टेड वस्तुएँ बैंकॉक से लाकर भारत में बेचते हैं। करण अपना दिमाग इस तरह लड़ाता है कि कम समय में वे अमीर हो जाते हैं। सरकारी नीतियों के कारण उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ता है। करण अपने साथियों के साथ अपने मामा के यहाँ यूएस जा पहुँचता है और वहाँ वे ठगी करने लगते हैं। आखिरकार एक दिन वे पुलिस की गिरफ्तर में आ ही जाते हैं और उनकी दोस्ती में दरार भी आ जाती है। इधर करण के मामा को व्यवसाय में जबरदस्त नुकसान होता है। करण इस बार सही रास्ते पर चलते हुए अपने तेज दिमाग और साथियों की मदद से उनकी कंपनी को हुए नुकसान को फायदे में बदल देता है और वे सही रास्ते पर चलने में ही अपनी भलाई समझते हैं। फिल्म शुरुआत में तो ठीक है, जब फिल्म का हीरो करण कानून की खामियों के जरिये खूब पैसा कमाता है। लेकिन उसके अमेरिका पहुँचते ही फिल्म में बोरियत हावी हो जाती है। कई दृश्य बेहद लंबे हैं और उनमें दोहराव भी है। यहाँ से ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो विश्वसनीय नहीं है। करण के लिए सारी चीजें बड़ी आसान हैं। यूएस के लोगों को वह ऐसे बेवकूफ बनाता है, जैसे वे कुछ जानते ही नहीं हो। ऐसा लगता है कि पुलिस नाम की चीज वहाँ पर है ही नहीं। जब लेखक को लगता है कि करण को पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए तब वह पुलिस के हत्थे चढ़ता है। चारों दोस्तों में विवाद को ठीक से जस्टिफाई नहीं किया गया है। बस उन्हें लड़ते हुए दिखाना था, इसलिए वे लड़ पड़ते हैं। क्लाइमैक्स में उन्हें एक होना था, इसलिए वे साथ हो जाते हैं। उनके अलग होने या साथ होने पर किसी किस्म का दु:ख या खुशी नहीं होती। दोस्तों की कहानी में जो मौज-मस्ती होना चाहिए वो फिल्म से नदारद है। निर्देशक के रूप में परमीत सेठी ने कुछ अच्छे दृश्य फिल्माए हैं, लेकिन अपनी ही लिखी स्क्रिप्ट की खामियों को वे छिपा नहीं पाए। शाहिद और अनुष्का जैसी जोड़ी उनके पास होने के बावजूद उन्होंने रोमांस को पूरी तरह इग्नोर कर दिया। उन्होंने कहानी को इस तरह स्क्रीन पर पेश किया है कि दर्शक इन्वाल्व नहीं हो पाता है। शाहिद कपूर का अभिनय ठीक है, लेकिन वे इतने बड़े स्टार नहीं बने हैं कि इस तरह की कमर्शियल फिल्मों का भार अकेले खींच सके। अनुष्का शर्मा को भले ही कम अवसर मिले, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रहीं। वीर दास और मियांग चैंग ने शाहिद का साथ बखूबी निभाया है। प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध ‘चस्का-चस्का’ और ‘जिंगल-जिंगल’ सुने जा सकते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है और 90 के दशक की याद दिलाता है। कुल मिलाकर इस ‘बदमाश कंपनी’ के प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट में लॉस ज्यादा है। ",0 " कई बार सिर्फ सफर में ही मजा आता है। जहां से हम चले थे वहां वापस जाना नहीं चाहते हैं और न ही मंजिल तक पहुंचना, ऐसा लगता है कि सफर कभी खत्म नहीं हो। कुछ ऐसे ही हालात हैं इम्तियाज अली की फिल्म 'हाईवे' के। इस फिल्म की शुरुआत और अंत थोड़ा गड़बड़ है, लेकिन बीच का सफर मजेदार है। इम्तियाज भारत के मशहूर पर्यटन स्थलों पर नहीं गए हैं। उन्होंने अपने नजरिये से खेत, रोड, नदियां और पहाड़ इतनी खूबसूरती से दिखाए हैं कि उन लोगों की आंखें खुल जाएगी जो सुंदर लोकेशन के लिए विदेश भागते हैं। फिल्म की कहानी ऐसी नहीं है कि आपने पहली बार देखी हो। अपहरणकर्ता और अपहृत के बीच बनते रिश्ते पर आधारित फिल्में पहले भी आई हैं, लेकिन इम्तियाज का प्रस्तुतिकरण 'हाईवे' को देखने लायक बनाता है। वीरा (आलिया भट्ट) एक अमीर और शक्तिशाली इंसान की बेटी है। उसे तथाकथित तमीज और तहजीब से नफरत है। वह अपने घर में कैद महसूस करती है। खुली हवा में वह सांस लेना चाहती है। शादी के ऐन पहले रात में वह अपने मंगेतर के साथ हाईवे पर घूमने जाती है। अशिष्ट गंवई किस्म का इंसान महाबीर भाटी (रणदीप हुडा) वीरा का अपहरण कर लेता है। जब उसके साथियों को पता चलता है कि वह वीरा को उठा लाया है जिसका पिता बहुत पॉवरफुल है तो वे महाबीर को उसे छोड़ने का कहते हैं, लेकिन अड़ियल महाबीर नहीं मानता और वीरा को ट्रक में लेकर राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर घूमता रहता है। अपहरण होने के बावजूद बीरा एक किस्म की आजादी महसूस करती है। उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। दो अलग पृष्ठभूमि से आए और अलग मिजाज के वीरा और महाबीर इस सफर में एक-दूसरे के निकट आते हैं। दोनों पर एक-दूसरे की सोहबत का असर भी होता है। फिल्म के दोनों किरदारों का भयावह बचपन रहा है। वीरा का उसके पिता का दोस्त बचपन में यौन-शोषण करता था तो महाबीर का पिता उसकी मां से बुरा व्यवहार करता था। साथ में घूमते हुए उनके भीतर की ये कड़वाहट निकलती है। एक-दूसरे के साथ रहते हुए दोनों किरदारों में हुए बदलाव को इम्तियाज ने बेहद सूक्ष्मता के साथ दिखाया है। अक्खड़ महाबीर को चापलूसी या किसी के लिए कार का दरवाजा खोलना पसंद नहीं है, लेकिन जब उसके मन में वीरा के प्रति कोमल भाव जागते हैं तो वह ट्रक का दरवाजा वीरा के लिए खोलता है। इसी तरह महाबीर के साथ रहते-रहते वीरा अपने गुस्से और नाराजगी का इजहार करना सीख जाती है और घर वापस लौटने पर उस अंकल को जलील करती है जो बचपन में उसके साथ यौन-शोषण करता था। इंटरवल तक फिल्म जबरदस्त है। इम्तियाज अली ने बिना संवाद, बैकग्राउंड म्युजिक, गाने या एक्शन के जरिये कई बेहतरीन दृश्य पेश किए हैं। वैसे तो फिल्म शोर-शराबे से दूर है और पूरी फिल्म में प्रकृति का स्वर बैकग्राउंड में नदियों की कल-कल और चिड़ियों की चहचहाट के जरिये सुनने को मिलता है। कई दृश्यों में पिन ड्रॉप साइलेंस भी है। इंटरवल के बाद फिल्म हाईवे छोड़कर कभी-कभी उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलती है, लेकिन इसका कोई खास असर समग्र फिल्म पर नहीं होता है। इंटरवल के बाद एक सीन बेहद कमजोर है जिसमें महाबीर के लिए वीरा खाना बनाती है और रोते हुए महाबीर को संभालती है। वीरा और महाबीर के बीच कई बेहतरीन और हल्के-फुल्के सीन हैं। अंग्रेजी गाने पर डांस वाला सीन बहुत ही अच्छी तरह रचा गया है। जहां तक शुरुआत का सवाल है तो वीरा का अचानक अपहरण होना और उसके बाद के सीन में जल्दबाजी नजर आती है। ऐसा लगा कि ये प्रसंग निर्देशक जल्दी से निपटाना चाहता है। साथ ही कई दृश्य इतने अंधेरे में फिल्माए कि स्क्रीन पर कुछ भी नजर नहीं आता। फिल्म का अंत ठीक है, लेकिन इससे बेहतर भी सोचा जा सकता था। कुछ दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें महज खूबसूरती के कारण रखा गया है। यदि इनका मोह नहीं होता तो फिल्म की लंबाई कम होती और यह फिल्म के लिए बेहतर भी होता। जब वी मेट, लव आज कल और रॉकस्टार जैसी फिल्म बनाने वाले इम्तियाज का अलग ही अंदाज 'हाईवे' में नजर आता है और अच्छी बात यह है कि उन्हें एक ही तरह की फिल्म बनाने से परहेज भी है। इम्तियाज की फिल्म में सफर और लोकेशंस महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और हाईवे में यह बात और भी निखर कर आती है। कहानी की बजाय उन्होंने किरदारों पर जोर दिया है और किरदारों के सहारे ही कहानी को उम्दा तरीके से आगे बढ़ाया है। अपने किरदारों को स्टीरियोटाइप होने से उन्होंने बचाया है। एक फिल्म पुरानी आलिया भट्ट ने शानदार अभिनय किया है, लेकिन ये किरदार उनसे और ज्यादा की मांग करता था। अपहरण होने के बाद उनके चेहरे पर डर या खौफ के जो भाव नजर आने थे, वो नदारद थे। मासूमियत वाले भाव वे अच्छी तरह से ले आती हैं। क्लाइमेक्स सीन में आलिया का अभिनय देखने लायक है। इस लंबे सीन को आलिया ने अच्छी तरह से निभाया है। 'हाईवे' के बाद निश्चित रूप से आलिया के करियर में उछाल आएगा। रणदीप हुडा का चयन फिल्म में उनके लुक के कारण हुआ है। उनका देशी लुक किरदार की डिमांड था और रणदीप इस मामले में खरे उतरे। अक्खड़ और भाव हीन महाबीर का किरदार उन्होंने खूब निभाया। सिनेमाटोग्राफर अनिल मेहता ने 'हाईवे' को बेहद खूबसूरती के साथ निभाया है। भारत की खूबसूरती और मिट्टी की गंध उनके कैमरे के जरिये दर्शक महसूस कर सकते हैं। एआर रहमान ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत रचा है और इम्तियाज ने गानों का फिल्म में अच्छा उपयोग किया है। रोड मूवी को पसंद करने वाले और फिल्मों में कुछ अलग देखने की चाह वालों को 'हाईवे' जरूर पसंद आएगी। बैनर : नाडियाडवाला ग्रेंडसन एंटरटेनमेंट, यूटीवी मोशन पिक्चर्स, विंडो सीट फिल्म्स निर्माता : इम्तियाज अली, साजिद नाडियाडवाला निर्देशक : इम्तियाज अली संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : रणदीप हुडा, आलिया भट्ट सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 13 मिनट 12 सेकंड ",1 "इयान फ्लेमिंग ने 1952 में जेम्स बांड के किरदार को केन्द्र में रखकर उपन्यास लिखना शुरू किए। इस किरदार की लोकप्रियता के बाद डॉक्टर नो (1962) से जेम्स बांड के किरदार को लेकर फिल्म बनना शुरू हुई। सिलसिला 53 वर्षों से जारी है जो इस सीरिज की विश्वव्यापी लोकप्रियता का सबूत है। 'स्पेक्टर' इस श्रृंखला की 24वीं फिल्म है और डेनियल क्रेग चौथी बार जेम्स बांड बन खतरों से खेल दुश्मनों का मुकाबला कर रहे हैं। हॉट हसीनाएं, हैरत अंगेज एक्शन, खूबसूरत लोकेशन्स, आधुनिक कार और अपनी बहादुरी के ‍चिरपरिचित गुणों के साथ सूटेड-बूटेड जेम्स बांड इस सीरिज की फिल्मों की खासियत है और निर्देशक सेम मेंडेस ने अपनी फिल्म को इन्हीं खासियत के इर्दगिर्द रखा है। फिल्म शुरू होती है मेक्सिको सिटी से जहां 'द डे ऑफ द डेड' मनाया जा रहा है। एक लंबा सिंगल शॉट लिया गया है जो सिनेमाटोग्राफी का उत्कृष्ट नमूना है। आमतौर पर जेम्स बांड की फिल्मों का पहला सीक्वेंस ऐसा होता है कि दांतों तले अंगुली दबाने वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है और 'स्पेक्टर' का यह प्री क्रेडिट सीक्वेंस भी कमाल का है। इस सीक्वेंस के खत्म होते ही लगता है कि इसे दोबारा देखा जाना चाहिए। जेम्स बांड की फिल्म से बहुत उम्मीद लिए बैठे दर्शकों की उम्मीद इस सीक्वेंस को देखने के बाद आसमान छूने लगती है, लेकिन वैसी गति फिल्म में बाद में कायम नहीं रह पाती। एक अनऑफिशियल मिशन का ऑर्डर जेम्स को अपनी मौत के पहले एम ने दिया था। मेक्सिको में जेम्स दो आदमियों को मार देता है जो एक स्टेडियम को उड़ाने की तैयारी में थे। लंदन वापसी के बाद जेम्स को सस्पेंड कर दिया जाता है और वहां घमासान मच जाता है। नए 'एम' के 'सी' के साथ अधिकारों को लेकर तनावपूर्ण रिश्ते हैं और 'सी' डबल ओ सेक्शन को बंद करना चाहता है क्योंकि यह सेक्शन पुराना और निष्प्रभावी हो गया है। जेम्स बांड दो मोर्चों पर जूझता है। उसकी हर हरकत पर उसके प्रमुख नजर रखे हुए हैं जिनसे छिपकर उसे स्पेक्टर (स्पेशल एक्ज़ीक्यूटिव फॉर काउंटर इंटेलीजेंस, टेरररिज्म, रिवेंज एंड एर्क्सोशन) के प्रमुख फ्रांज ओबरहाउजर को ढूंढ निकालना है जिसे दुनिया मृत मान चुकी है। इस मिशन को उसे अकेले ही अंजाम देना है। कदम-कदम पर उसे सुराग मिलते जाते हैं जिनके सहारे वह मैक्सिको, लंदन, रोम, मोरक्को, ऑस्ट्रिया की खाक छानता है। मनीपेनी, लुसिया और मैडेलाइन स्वान जैसी महिलाओं का उसे साथ मिलता है। 'स्पेक्टर' में नया कुछ नहीं पेश करते हुए यह फिल्म जेम्स बांड के चिर-परिचित अंदाज या कहें कि इस सीरिज के फैंस को ध्यान में रखकर बनाई गई है जो जेम्स बांड की हर फिल्म में उसका वही अंदाज देखना पसंद करते हैं। कार, चेज़िंग, स्टंट्स, वूमैन और वाइन इस फिल्म की भी खासियत है, लेकिन कहानी के मामले में यह फिल्म थोड़ी कमजोर साबित होती है। कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। कहानी का फैलाव बहुत किया और इसे समेटने में खासा समय लिया गया। इसे जेम्स बांड सीरिज की सबसे लंबी फिल्म बताया जा रहा है। लंबाई तब अखरती है जब फिल्म में कुछ सुस्त दृश्यों से पाला पड़ता है और 'स्पेक्टर' में बीच-बीच में ऐसे क्षण आते हैं जब फिल्म ठहरी हुई लगती है। इन सुस्त क्षणों की याद आप तब भूला देते हैं जब बीच-बीच में रोमांचक क्षणों से सामना होता है। शुरुआती सीक्वेंस के बाद ऑस्ट्रिया में बर्फ के बीच दिखाया गया स्टंट भी गजब का है। कही कोई कंजूसी नजर नहीं आती है और बांड फिल्मों की भव्यता को ध्यान में रख पानी की तरह पैसा बहाया गया है। ढेर सारी कारें उड़ाई गई हैं। क्लाइमैक्स जरूर कमजोर लगता है क्योंकि यहां उम्मीद थी कि जबरदस्त स्टंट देखने को मिलेगा। जेम्स बांड के रूप में डेनियल क्रेग का आत्मविश्वास देखने लायक है। वे सभी पर भारी पड़ते हैं और फिल्म को अपने कंधों पर खींचकर देखने लायक बनाते हैं। सारे ऑर्डर को ताक पर रखकर अपने मिशन में जुट जाने वाले शख्स के रूप में वे बेहद जमे हैं। क्रिस्टोफर वाल्ट्ज़ अपने पहले सीन में ही खौफ पैदा कर देते हैं और डेनियल क्रेग से जम कर टक्कर लेते हैं। 50 वर्ष की मोनिका बेलूची को सबसे ज्यादा उम्र में बांड गर्ल बनने का मौका मिला है, लेकिन वे अपना जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं। लिया सेडक्स को बेहतरीन अवसर मिला है जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की जितनी तारीफ की जाए कम है। एरियल शॉट्स का जवाब नहीं है। सिनेमाटोग्राफी फिल्म को विराट लुक देती है। लोकेशन्स आंखों को सुकून देती है। फिल्म के हर किरदार को स्टाइलिश लुक में पेश किया गया है जो जेम्स बांड की फिल्मों का खास गुण है। 'स्पेक्टर' की आप 'स्कायफॉल' से तुलना करेंगे तो कमतर पाएंगे, लेकिन 'स्पेक्टर' में वो तत्व मौजूद हैं जिनके लिए जेम्स बांड की फिल्में जानी जाती हैं और इसके लिए थिएटर जाया जा सकता है। निर्देशक : सेम मेंडेस निर्माता : माइकल जी विल्सन, बारबरा ब्रोकोली कलाकार : डेनियल क्रेग, क्रिस्टोफर वाल्टज़, ली सेडक्स, नाओमी हैरिस, मोनिका बेलुची सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * अवधि : 2 घंटे 28 मिनट ",1 "निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, आमिर खान, किरण राव, जिम फरगेले निर्देशक : अभिनय देव संगीत : राम सम्पत कलाकार : इमरान खान, पूर्णा जगन्नाथ, शेनाज़ ट्रेजरीवाला, राहुल पेंडकालकर, वीर दास, कुणाल रॉय कपूर, विजय राज सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 96 मिनट * 10 रील अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी’ के बाद हिंदी सिनेमा में बोल्डनेस बढ़ गई है। अब तक डरते-डरते बोल्ड सीन और संवाद रखने वाले फिल्मकारों में ‍भी हिम्मत आ गई। सेंसर की सोच भी वयस्क हो गई और उसने भी एडल्ट फिल्म की थीम को समझते हुए इस तरह के संवादों और दृश्यों को पास किया। इसका ही नतीजा है कि देल्ही बैली जैसी फिल्म सामने आई। इस फिल्म में जिस तरह के दृश्य और संवाद हैं शायद ही पहले हिंदी फिल्मों में नजर आए हों या सुनाई दिए हों। हर दूसरे संवादों में अपशब्दों का प्रयोग है। गालियाँ हैं। दरअसल फिल्म के किरदार ही ऐसे हैं कि यकीन किया जा सकता है कि वे इस तरह के संवाद बोलते होंगे। यूँ भी आजकल फिल्मों को ऐसा लुक दिया जाता है कि वो सच्चाई के नजदीक लगे। फिल्म की कहानी एकदम साधारण है। ये डेविड धवन की फिल्म की कहानी भी हो सकती है और प्रियदर्शन की भी। सवाल प्रस्तुतिकरण का है। डेविड धवन इसे अपने अंदाज में बनाते। उनके हास्य दृश्यों में द्विअर्थी संवाद हो सकते थे। प्रियदर्शन यदि इस कहानी पर फिल्म बनाते तो उसमें गलतफहमियों की भरमार होती। अभिनय देव का प्रस्तुतिकरण और अक्षत वर्मा की लिखी स्क्रिप्ट इस मायने में अलग है क्योंकि इसमें पॉटी ह्यूमर है, दोस्तों के बीच होने वाली बातचीत है जिसमें की आमतौर पर गालियों का आदान-प्रदान होता है और टॉयलेट जोक्स हैं। हर घटना को और किरदार को इनसे ऐसे जोड़ा गया है कि ये चीज ठूँसी हुई नहीं लगती हैं। कुछ दृश्यों या गानों को आपत्तिजनक माना जा सकता है, लेकिन इन्हें छोड़ दिया जाए तो बाकी का आप आनंद उठा सकते हैं। कुछ दृश्य तो इतने मजेदार हैं कि उनके खत्म होने के मिनटों बाद तक भी हँसा जा सकता है। जैसे ऑरेंज ज्यूस वाले दृश्य, सीलिंग फैन और छत का गिरना, ताशी और मेनका का होटल रूम वाला दृश्य, बुर्का पहन कर दोनों का किस करने वाला दृश्य और नितिन के पेट से तरह-तरह की आवाज निकलने वाले दृश्य। स्क्रिप्ट बेहद कसी हुई है जिससे साधारण कहानी भी अच्छी लगती है और फिल्म तेजी से भागती है। ये आमिर खान का ही कमाल है कि 96 मिनट की ‍इस फिल्म में वे इंटरवल के लिए राजी नहीं हुए वरना मल्टीप्लेक्सेस वालों की कमाई टिकट बेचने से ज्यादा समोसे बेचने में ही होती है। कहानी है ताशी, अरुप और नितिन नामक दोस्तों की, जो बहुत ही गंदे मकान में जानवरों की तरह रहते हैं। पता नही ताशी जैसे इंसान को कोई गर्लफ्रेंड कैसे मिल सकती है। तीनों के रास्ते अपराधियों के रास्ते से टकरा जाते हैं और उसके बाद शुरू होता है भागादौड़ी का खेल। भले ही ये तीनों गालियाँ बकते रहते हैं, लेकिन दिल से बड़े अच्छे इंसान हैं। अरुण तो अपनी गर्लफ्रेंड, जिससे वह शादी नहीं करना चाहता है, को बचाने के लिए अपनी जिंदगी तक दाँव पर लगा देता है और उसका साथ दोनों दोस्त भी देते हैं। फिल्म में विजय राज भी हैं और एक खतरनाक अपराधी की भूमिका उन्होंने क्या खूब निभाई है। कब बोलना और कब पॉज़ लेना है ये उनसे सीखा जा सकता है। इमरान खान इस फिल्म के एकमात्र सितारा कलाकार हैं, लेकिन न्याय सभी किरदारों के साथ हुआ है। इमरान का अभिनय भी अच्छा है और उन्होंने दिखाया है कि चॉकलेटी भूमिका के अलावा भी वे कुछ और कर सकते हैं, लेकिन उनके दोस्त के रूप में कुणाल रॉय कपूर और वीर दास भारी पड़े हैं। कुणाल रॉय की टाइमिंग और संवाद अदायगी बेहतरीन है। मेनका के रूप में पूर्णा जगन्नाथ प्रभावित करती है। राम सम्पत ने बेहतरीन धुनें बनाई हैं, लेकिन जो गीत लिखे गए हैं वो डबल मिनिंग वाले हैं। फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट देकर कम उम्र वाले दर्शकों को रोका जा सकता है, लेकिन गानों को सुनने से रोकना संभव नहीं है। इसलिए इस तरह के गानों से बचा जा सकता था। निर्देशक के रूप में अभिनय देव प्रभावित करते हैं। लगता ही नहीं है कि इसी शख्स ने ‘गेम’ नामक महाफ्लॉप फिल्म भी बनाई थी। शायद आमिर की संगति का असर है। उनका साथ मिलते ही साधारण भी असाधारण हो जाता है। ‘देल्ही बैली’ को वयस्क सोच के साथ देखा जाए तो इसका मजा आप उठा सकते हैं। फिल्म के अंत में आमिर खान कहते हैं कि चौका जब उड़ता हुआ जाए तो उसे छक्का कहते हैं। वे छक्का लगाने में कामयाब हुए या कैच आउट इसका फैसला दर्शक करेंगे। ",1 "वर्किंग कपल की रोजमर्रा की लाइफ ऑफिस से शुरू हुई टेंशन इनकी पर्सनल लाइफ में अनजाने में ही सही अक्सर एंटर कर ही जाती है और यहीं से शुरू होता है इनमें एक ऐसा तकरार जो इन्हें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या करियर और पर्सनल लाइफ को लेकर लिया उनका हर फैसला सही है! इस हफ्ते रिलीज़ हुई रिबन में डायरेक्टर राखी ने इस टॉपिक को ईमानदारी के साथ सिल्वर स्क्रीन पर पेश करने की अच्छी कोशिश की है। हालांकि चालू-मसाला और टाइम पास करने के मकसद से थिअटर का रुख करने वाले दर्शक निराश हो सकते हैं। मुंबई की एक मिडल क्लास कपल के इर्दगिर्द घूमती इस कहानी में डायरेक्टर ने जहां वर्किंग कपल के मुद्दे को पेश करने के साथ बच्चों के यौन उत्पीड़न के मुद्दे को भी कहानी का अहम हिस्सा बनाकर पेश किया है। स्टोरी प्लॉट: करण मेहरा (समित व्यास), साहना मेहरा (कल्कि कोचलिन) अब पूरी तरह से मुंबई में सेट हो चुके हैं। करण एक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कंपनी में साइट इंजिनियर है तो वहीं साहना भी एक कॉर्पोरेट कंपनी में स्ट्रैटिजी मैनेजर है। मुंबई की एक सोसाइटी के एक फ्लैट में अपनी लाइफ जी रहे इस हैप्पी कपल की लाइफ उस वक्त डिस्टर्ब हो जाती है जब सहाना को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है। सहाना से यह खबर सुनकर जहां करण बेहद खुश होता है वहीं सहाना अपनी प्रेग्ननेंसी की खबर से अपसेट है। दरअसल, सहाना को लगता है कि लाइफ के जिस मोड़ पर अब वह और करण हैं उन्हें बच्चे के लिए अभी कम से दो से तीन साल का इंतजार करना चाहिए। ऐसे में सहाना सबसे पहले अबॉर्शन के बारे में सोचती है। करण सहाना को समझाता है कि आने वाले बच्चे की जिम्मेदारियां वह दोनों एकसाथ आपस में हैंडल कर लेंगे, तब जाकर साहना मां बनने का फैसला करती हैं। सहाना अपने ऑफिस से तीन महीने की छुट्टी लेती है, लेकिन सहाना को अंदर ही अंदर यह डर भी सता रहा है कि प्राइवेट क्या इन तीन महीनों में कंपनी में उसकी जॉब और पोजिशन बरकरार रह पाएगी! इसी बीच सहाना एक प्यारी सी बच्ची की मां बन जाती है। तीन महीने की मैटरनिटी लीव के बाद जब सहाना ऑफिस लौटती है तो ऑफिस में अब सब कुछ पहले जैसा नहीं है। इन तीन महीनों में सहाना की पोजिशन बॉस ने किसी दूसरे को दे दी है, इन हालात में काम कर पाना सहाना को मंजूर नहीं, सो वह अपनी नई जॉब की तलाश में लग जाती है। सहाना को अब एक दूसरे ऑफिस में अच्छी नौकरी मिली जाती है, लेकिन तभी करण को अपनी जॉब के सिलसिले में मुंबई से दूर शिफ्ट होना पड़ता है। खैर किसी तरह सहाना इन हालात का सामना करती है। सहाना की बेटी अब स्कूल जाने लगी है। एक दिन स्कूल बस का कंडक्टर जब बेबी को लेने नहीं आता तो करण बेटी को स्कूल बस में छोड़ने लिफ्ट में आता है, लिफ्ट में नन्हीं अर्शी एक चॉकलेट की चाह में कुछ ऐसा करके दिखाती है कि सुमित भौंचक्का रह जाता है। जल्दी ही उसकी समझ में आ जाता है कि उनकी करीब चार साल की बेटी के साथ कोई बहुत गलत कर रहा है। ऐक्टिंग: कल्कि कोचलिन ने एकबार फिर कमाल की ऐक्टिंग की है, सहाना के किरदार को कल्कि ने अपने लाजवाब अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। वहीं एक फैमिली के लिए समर्पित हज्बंड और पिता के किरदार में सुमित व्यास खूब जमे हैं। पूरी फिल्म में सुमित और कल्कि की गजब की ऐक्टिंग है। 'चरखा घूम रहा है' कई म्यूजिक चार्ट में टॉप टेन में शामिल हो चुका है। डायरेक्टर राखी ने बेशक कहानी और स्क्रिप्ट से कहीं समझौता नहीं किया, लेकिन इंटरवल से पहले फिल्म की बेहद स्लो दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती है, वहीं फिल्म का क्लाइमैक्स सवालिया है जो दर्शकों की बड़ी क्लास को पसंद नहीं आएगा। क्यों देखें: मुंबई जैसे महानगर में वर्किंग कपल की जिंदगी को डायरेक्टर ने असरदार ढंग से पेश किया है, वहीं अंत तक पूरी फिल्म एक ट्रैक पर है। अगर आपको चालू-मसाला फिल्मों की भीड़ से दूर हटकर बनी अलग जॉनर की फिल्में पसंद आती हैं तो इस फिल्म को मिस न करें।",1 "निर्माता : विजय गलानी निर्देशक : अनिल शर्मा गीत : गुलजार संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : सलमान खान, ज़रीन खान, सोहेल खान, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्रॉफ, लिसा, पुरु राजकुमार यू/ए * 10 रील * दो घंटे 39 मिनट बॉलीवुड में बनने वाली वर्तमान फिल्मों में से वह हीरो गायब हो गया जो लार्जर देन लाइफ हुआ करता था। जिसका शरीर फौलाद का और दिल सोने का हुआ करता था। जो अपनी बात का पक्का हुआ करता था। अपना हर वादा निभाता था। कमजोर पर अपनी ताकत का जोर नहीं दिखाता था। उसके कुछ सिद्धांत हुआ करते थे। लोग जिसे पूजते थे। उस हीरो को निर्देशक अनिल शर्मा ‘वीर’ में वापस लाए हैं। अनिल शर्मा को लार्जर देन लाइफ फिल्म बनाना पसंद है। धर्मेन्द्र (हुकूमत) और सनी देओल (गदर) के साथ सफल फिल्म वे दे चुके हैं। इस बार वे सलमान खान के साथ हैं। इस तरह की फिल्में सुपरस्टार के साथ ही बनाई जा सकती है तभी विश्वसनीयता पैदा होती है और दर्शक आँख मूँदकर विश्वास कर लेते हैं कि उनका हीरो कुछ भी कर सकता है। इस फिल्म की कहानी सलमान खान ने लिखी है और वो भी लगभग 20 बरस पहले। फिल्मों में आने के पहले ‘धरमवीर’, ‘राजतिलक’, ‘मर्द’ जैसी मसाला फिल्में उन्होंने देखी होगी, जिनमें नायक सर्वेसर्वा होता था। शायद सलमान खान पर भी इस तरह की फिल्मों का असर हुआ और उनकी लिखी ‘वीर’ में इन फिल्मों की झलक मिलती है। कहानी पिंडारी नामक समूह की है, जिनके साथ माधवगढ़ का राजा (जैकी श्रॉफ) अँग्रेजों के साथ मिलकर धोखा करता है। अपने पिता के अपमान का बदला वीर (सलमान खान) लेना चाहता है। अँग्रेजों के छल, कपट सीखने के लिए वह लंदन पढ़ने भी जाता है। लेकिन इसी बीच उसे माधवगढ की राजकुमारी यशोधरा (ज़रीन खान) से प्यार हो जाता है। एक तरफ प्यार और दूसरी ओर कर्तव्य। वीर और यशोधरा दोनों इस दुविधा में फँस जाते हैं। कैसे वे इस परिस्थिति से बाहर निकलते हैं ये फिल्म का सार है। अनिल शर्मा ने इस फिल्म का निर्माण पूरी तरह सलमान खान के प्रशंसकों को ध्यान में रखकर किया है। सल्लू के प्रशंसक के बीच जो उनकी इमेज है, उसी को ध्यान में रखकर सीन गढ़े गए हैं। हर दृश्य इस तरह लिखे और फिल्माए गए हैं ताकि सलमान बहादुर, नेक दिल, बलवान, निडर, देशभक्त और स्वाभिमानी लगे। सलमान के मुँह से ‘जहाँ पकड़ूँगा पाँच सेर माँस निकाल लूँगा’ और ‘जब राजपूतों का खून उबलता है तो उसकी आँच से गोरी चमड़ी झुलस जाती है’ जैसे संवाद बुलवाए गए हैं ताकि उन्हें पसंद करने वाले तालियाँ पीटे। रेल से खजाना लूटने वाला दृश्य, लंदन के स्कूल में टीचर और सलमान वाला दृश्य, सलमान और मिथुन के बीच तलवारबाजी वाले दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। निर्देशक अनिल शर्मा ने मनोरंजक तत्व और सलमान पर अपना सारा ध्यान दिया है ताकि दर्शक स्क्रिप्ट की कमियों पर ध्यान नहीं दें या उसकी उपेक्षा कर दें और इसमें उन्होंने काफी हद तक कामयाबी भी पाई है। वीर और यशोधरा के रोमांस को भी अच्छा फिल्माया गया है। इंटरवल तक फिल्म मनोरंजक है, लेकिन दूसरे भाग में यह कमजोर पड़ गई है क्योंकि इसे जरूरत से ज्यादा खींचा गया है। स्क्रिप्ट में कई खामियाँ भी हैं। लंदन में यशोधरा के भाई की हत्या कर वीर का बड़ी आसानी से भारत आ जाना। यशोधरा से भारत में मुलाकात के बाद संयोग से वीर का उसी कॉलेज में एडमिशन लेना, जहाँ यशोधरा पढ़ती है और वीर का माधवगढ़ में जाकर यशोधरा से संबंध बनाना जैसे प्रसंग अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखे गए हैं। सलमान ने अपना काम बखूबी किया है और एक प्रकार से यह उनका ही शो है। पूरी फिल्म में उनका दबदबा है। गुस्से को उन्होंने काफी अच्छी तरह व्यक्त किया है। ज़रीन खान राजकुमारी की तरह दिखाई दीं, लेकिन उनका अभिनय औसत रहा। चेहरे के जरिये भावों को व्यक्त करना उन्हें सीखना होगा। मिथुन चक्रवर्ती को लंबे समय बाद अच्छा रोल मिला और उन्होंने अपना काम बखूबी किया। सोहेल खान ने हँसाने की नाकाम कोशिश की। पुरु राजकुमार भी फिल्म में नजर आएँ। साजिद-वाजिद ने कुछ अच्छी धुनें बनाई हैं। ‘सुरील अँखियों वाली’, ‘मेहरबानियाँ’ और ‘सलाम आया’ अच्छे बन पड़े हैं। गुलजार ने उम्दा बोल लिखे हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। गोपाल शाह का फिल्मांकन फिल्म को भव्यता प्रदान करता है। टीनू वर्मा के एक्शन सीन ठीक हैं। ‘वीर’ पुराने दौर की मसाला फिल्मों की तरह है और यदि आप सलमान के प्रशंसक हैं तो इसे पसंद करेंगे। ",1 "एनएच-10 बतौर प्रड्यूसर ऐक्ट्रेस अनुष्का शर्मा की प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले बनी पहली फिल्म थी, कुछ साल पहले तक इंडस्ट्री के कलाकर उस वक्त प्रॉडक्शन से जुड़ते थे, जब बतौर कलाकर उनके करियर को लेकर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाते थे। देव आनंद, राज कपूर, मनोज कुमार सहित ऐसे कई नाम भी हैं जिन्होंने फिल्म प्रॉडक्शन की फील्ड में उस वक्त एंट्री ली जब बतौर ऐक्टर उनका करियर कामयाबी के शिखर पर था। अब वक्त बदल रहा है, इंडस्ट्री के नामचीन स्टार्स ने अब अपनी अपनी फिल्म प्रॉडक्शन कंपनियां बना रखी है। अक्सर इंडस्ट्री के नामी स्टार अपने बैनर की फिल्मों में खुद ही ऐक्टिंग करते है। अनुष्का भी ऐक्ट्रेस से प्रड्यूसर बनी तो अपने बैनर की पहली एनएच-10 में लीड किरदार निभाया। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म जबर्दस्त हिट रही। 10 करोड़ से भी कम बजट में बनी इस फिल्म ने 32 करोड़ की कलेक्शन की। पहली फिल्म को मिली कामयाबी के बाद अनुष्का ने दूसरी फिल्म बनाने में अच्छा खासा वक्त लिया। फिल्लौरी की स्क्रिप्ट पर काम शुरू करने से पहले ही अनुष्का ने लीड रोल में पंजाब के सुपरस्टार और सिंगर दिलजीत दोसांझ के साथ इस प्रोजेक्ट पर बात फाइनल की। इस फिल्म को लेकर इंडस्ट्री में ऐसी अटकलें भी रहीं कि अगर दिलजीत इस फिल्म को नहीं करते तो शायद यह प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला जाता। बतौर डायरेक्टर अंशाई लाल की यह पहली फिल्म है जिसमें एक ऐसी आधी-अधूरी लव स्टोरी है जिसे परवान चढ़ने में करीब 100 साल का वक्त लग गया। पंजाब की अलग-अलग लोकेशन पर शूट हुई इस फिल्म का स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स वर्क कमाल का है। कहानी: करीब तीन साल पहले पंजाब के अमृतसर शहर से कनन गिल (सूरज शर्मा) अपनी बचपन की फ्रेंड अनु ( मेहरीन पीरज़ादा) के सहयोग से सिंगर बनने के सपने को साकार करने कनाडा गया। दरअसल, कनन की फैमिली उसे कनाडा भेजने के लिए राजी नहीं थी लेकिन अनु ने फैमिली वालों को राजी किया। अब 3 साल बाद कनन कनाडा से शादी के लिए अमृतसर लौटा है। कनन के घर में शादी का माहौल है। जल्दी ही अनु और कनन की शादी होने वाली है लेकिन पंडित जी जब इन दोनों की कुंडलियां को मिलाया, तो पता चलता है कनन मांगलिक है। मांगलिक दोष समाप्त करने के लिए पंडित जी एक उपाय बताते हैं कि कनन की शादी पहले एक पेड़ के साथ कर दी जाए। रीति-रिवाज़ के मुताबिक कनन से शादी के बाद उस पेड़ को काट दिया जाता है। पेड़ से शादी के बाद कनन की जिंदगी में शशि (अनुष्का शर्मा) नाम की एक खूबसूरत भूतनी की एंट्री होती है। कनन को अपने घर में हर जगह यह खूबसरत भूतनी अपने पीछे खड़ी दिखाई देती है। एक दिन शशि सूरज को बताती है जिस पेड़ को उसकी शादी के बाद काट दिया गया वह बरसों से वहीं रह रही थी। अब जब पेड़ की शादी कनन से हो गई है तो शशि यही मानती है कि उसे अब कनन के साथ ही जिंदगी गुजारनी है। एक दिन शशि सूरज को बताती है बरसों पहले वह फिल्लौर गांव के गायक रूप लाल (दिलजीत दोसांझ) से प्यार करती थी। दोनों की शादी भी तय हो चुकी थी। शादी का मंडप सज चुका था लेकिन तभी ऐसा कुछ हुआ कि रूप लाल फिल्लौरी के साथ उसकी शादी नहीं हो सकी। ऐक्टिंग: अनुष्का शर्मा ने खूबसूरत भूतनी शशि के किरदार के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। दिलजीत दोसांझ का किरदार बेशक उनकी सिंगर वाली इमेज से जुड़ा हो, लेकिन दिलजीत अपने किरदार में पूरी तरह से फिट हैं। हॉलिवुड मूवी लाइफ ऑफ पाइ के लंबे अर्से बाद इस फिल्म में नजर आए सूरज शर्मा ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। कनन की मंगेतर अनु के रोल में मेहरीन पीरज़ादा जंची है। मेहरीन के चेहरे की मासूमियत और उनकी डॉयलॉग डिलीवरी जानदार है। निर्देशन: निर्देशक अशंई लाल ने बेशक एक ऐसी अच्छी कहानी को लेकर फिल्म बनाई है जो समाज में फैली एक कुरीति पर व्यंग्य करती है। करीब सवां 2 घंटे की फिल्म में बार-बार फ्लैश बैक का आना कहानी को अलग ट्रैक पर ले जाने काम करता है। आज और करीब 100 साल पहले की 2 प्रेम कहानियों पर बनी इस फिल्म के स्क्रीनप्ले पर काम करना चाहिए था। वहीं, अंशई लाल ने शशि की अधूरी लव स्टोरी का क्लाइमेक्स दमदार ढंग से पेश किया। वीएफएक्स वर्क कमाल का है और बेहतरीन लोकेशन पर फिल्म शूट की गई है। संगीत: फिल्म का संगीत सब्जेक्ट और माहौल पर सौ फीसदी फिट है, सभी गानों का फिल्मांकन बेहतरीन बन पड़ा है। खासकर दो गाने दम-दम और साहिबा के फिल्मांकन की जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी। क्यों देखें: अगर आप दिलजीत दोसांझ के फैन हैं तो फिल्म बिल्कुल मिस ना करें। खूबसूरत भूतनी के वीएफएक्स इफेक्ट्स गजब के हैं। कहानी में नयापन जरूर है लेकिन अगर डायरेक्टर कुछ होमवर्क करने के बाद इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू करते तो फिल्म शुरू से आखिर तक आपको सीट से बांधे रख पाती। ",1 "‘शौर्य’ उन लोगों को पसंद आएगी जो आम फार्मूला फिल्मों से हटकर कुछ अलग देखना चाहते हैं। निर्देशक : समर खान संगीत : अदनान सामी कलाकार : राहुल बोस, मिनिषा लांबा, के.के. मेनन, दीपक डोब्रियाल, जावेद जाफरी, सीमा बिस्वास, रोजा केटेलानो, अमृता राव सेना की पृष्ठभूमि वाली फिल्म ‘शौर्य’ एक गंभीर और विचारोत्तेजक फिल्म है। इस फिल्म के जरिये गंभीर मुद्दों को निर्देशक ने दर्शकों के सम्मुख रखा है और फैसला उनके विवेक पर छोड़ दिया है। उन्होंने सेना और मनुष्य स्वभाव के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को दिखाया है। सेना की पृष्ठभूमि होने के बावजूद इस फिल्म में युद्ध या खून-खराबा नहीं है। कैप्टन जावेद खान पर अपने साथी की हत्या का आरोप है और वह अपने बचाव में कुछ भी नहीं कहना चाहता है। उसका केस लड़ने का जिम्मा आकाश और सिद्धांत नामक दो दोस्तों को मिलता है। आकाश हर काम को पूरी गंभीरता से करता है, जबकि सिद्धांत और गंभीरता में छत्तीस का आँकड़ा है। दोनों दोस्त कोर्टरूम में आमने-सामने हैं, लेकिन इससे उनकी दोस्ती पर कोई असर नहीं होता। सिद्धांत जावेद खान की तरफ से केस लड़ता है, किंतु उसे इस मामले में कोई रुचि नहीं है। सिद्धांत की सोच बदलने का काम पत्रकार काव्या करती है, जो इस मामले की गंभीरता से उसे परिचित करवाती है। जावेद मामले का जब सिद्धांत अध्ययन करता है तो उसे उसकी चुप्पी के पीछे कई छिपे हुए राज पता चलते हैं। उसे जिंदगी में कुछ करने का मकसद मिल जाता है। जावेद की चुप्पी का राज भयावह सच के रूप में सामने आता है। /11 के बाद प्रत्येक मुसलमान को शक ‍की निगाह से देखा जाता है और यह फिल्म इस बात को गलत ठहराती है कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। एक मुस्लिम नौकर ब्रिगेडियर प्रताप की पत्नी पर 35 बार चाकू से वार करता है, आठ वर्षीय बच्ची से बलात्कार करता है और 70 वर्षीय माँ को जिंदा जला डालता है। इस हादसे के बाद प्रताप को हर मुसलमान अपना दुश्मन नजर आता है। सरहद पर देश की रक्षा करते हुए प्रताप अपने साथियों के साथ पद का दुरुपयोग करता है। वहीं दूसरी ओर कैप्टन जावेद जैसा मुस्लिम भी है जो इंसानियत का पक्षधर होने के साथ-साथ देशभक्त भी है। सेना के भी अच्छे-बुरे दोनों पहलू दिखाए गए हैं। एक तरफ ब्रिगेडियर प्रताप और राठौर जैसे बुरे पात्र हैं, जो इस वर्दी की बेइज्जती कर रहे हैं, तो दूसरी जावेद, सिद्धांत और आकाश जैसे लोग हैं। लेकिन बुरा पहलू कुछ ज्यादा उभरकर सामने आता है। फिल्म के आखिर में निर्देशक ने अखबारों में सैनिकों के बारे में छपे अच्छे-बुरे शीर्षकों को भी दिखाया है। जिसमें जहाँ एक ओर उन्हें देश की रक्षा करने के लिए सलाम किया गया है वहीं दूसरी ओर उन्होंने बलात्कार जैसे घिनौने काम भी किए हैं। निर्देशक समर खान ने कहानी को उम्दा तरीके से पेश किया है। हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू हुई फिल्म में धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगता है और जबरदस्त क्लाइमैक्स के साथ फिल्म समाप्त होती है। फिल्म का क्लाइमैक्स हिलाकर रख देता है और दर्शक इस उधेड़बुन में खो जाता है कि क्या सही है और क्या गलत? जयदीप सरकार, अपर्णा मल्होत्रा और समर खान द्वारा मिलकर लिखी गई कथा और पटकथा बेहद प्रभावशाली है। अपर्णा मल्होत्रा के संवाद इस फिल्म की जान हैं। सिर्फ संवादों के जरिये ही चरित्र की मानसिकता पता चल जाती है और चरित्र की स्थापना के लिए निर्देशक को विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती। संवादों में कई गहरे अर्थ छिपे हुए हैं। अभिनेताओं ने भी निर्देशक का काम आसान कर दिया है। राहुल बोस का अभिनय देखना हमेशा आनंददायक रहता है। हल्के-फुल्के दृश्यों में तो वे कमाल कर देते हैं। फिल्म के अंतिम मिनटों में केके मेनन का अभिनय दर्शकों को स्तब्ध कर देता है। शुक्र है कि जावेद जाफरी ने ओवर एक्टिंग नहीं की। दीपक डोब्रियाल, मिनिषा लांबा, सीमा बिस्वास और छोटे रोल में अमृता राव ने भी अपना काम बखूबी निभाया है। अदनान सामी का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। रोजा केटेलानो पर फिल्माया गया गाना चंद मिनट का है और उसमें अभिनेता पवन मल्होत्रा भी दो सेकंड के लिए नजर आए। कार्लोस केटेलान की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। लाइट, शेड और रंगों का उन्होंने अच्छा उपयोग किया है। ‘शौर्य’ उन लोगों को पसंद आएगी जो आम फार्मूला फिल्मों से हटकर कुछ अलग देखना चाहते हैं। ",1 "टॉयलेट- एक प्रेम कथा में निर्देशक श्री नारायण सिंह ने गांव में शौचालय की शोचनीय स्थिति पर फिल्म बनाई थी। अब उन्होंने बिजली समस्या और बिजली के बढ़े हुए बिलों का मुद्दा 'बत्ती गुल मीटर चालू' में उठाया है। इस मुद्दे के साथ उन्होंने प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती/दुश्मनी का चिर-परिचित फॉर्मूला भी डाला है। मनोरंजन और सोशल इश्यु का यह मेल इस बार काम नहीं कर पाया है। टिहरी (उत्तराखंड) में रहने वाले सुशील कुमार उर्फ एसके (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (द्वियेंदु शर्मा) बहुत अच्छे दोस्त हैं। एसके एक छोटा-मोटा वकील है। ललिता फैशन डिजाइनर है। सुंदर लोन लेकर प्रिंटिंग प्रेस खोलता है। ललिता को दोनों चाहते हैं। ललिता को दोनों में से एक को चुनना है। दोनों ललिता के साथ एक सप्ताह बारी-बारी से डेटिंग करते हैं और आखिरकार सुंदर को ललिता चुन लेती है। इस बात का एसके को बहुत बुरा लगता है। सुंदर की प्रिटिंग प्रेस का बिजली का बिल 54 लाख रुपये आ जाता है। वह बिजली विभाग के चक्कर लगाता है, लेकिन कोई हल नहीं निकलता। बिजली काट दी जाती है और इससे उसका नुकसान होने लगता है। वह एसके से मदद मांगता है, लेकिन जला-भुना एसके मदद नहीं करता। इस प्रेम- त्रिकोण का क्या होता है? सुंदर 54 लाख रुपये के बिल से कैसे छुटकारा पाता है? यह फिल्म का सार है। सिद्धार्थ-गरिमा ने मिलकर यह फिल्म लिखी है। इन लोगों ने पहले मुद्दा सोचा और फिर उस पर कहानी बनाई। कहने को इनके पास ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती-दुश्मनी वाला एंगल फिल्म में डाला, जो केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो निहायत ही फालतू हैं और इनका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। जैसे फिल्म की शुरुआत में जलते टायर के बीच से निशाने पर तीर लगाने की प्रतियोगिता, जो सिर्फ शाहिद को हीरो के रूप में स्थापित करने के लिए है, लेकिन फिल्म से कोई खास ताल्लुक नहीं रखता। श्रद्धा को देखने आने वाला लड़के का दृश्य, श्रद्धा-शाहिद के बीच विवाद होने के बाद शाहिद से श्रद्धा के मिलने जाने वाला सीन जैसे कई दृश्य हैं जो बेमतलब के हैं। सुंदर-ललिता-एसके की कहानी बस में एक मुसाफिर दूसरे को सुनाता है। ये भी बीच-बीच में आते रहते हैं। ये ट्रैक निहायत ही उबाऊ है और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। फिल्म का असल मुद्दा है 'बिजली प्रदान करने वाली कंपनी का भ्रष्टाचार', लेकिन यह मुद्दा भी बेहद ही हौले से छुआ गया है। बिजली की मांग और उत्पादन में होने वाले अंतर, बिजली की चोरी, बिजली विभाग के कर्मचारी और उद्योगपति में सांठ-गांठ जैसी कई मुद्दों के बारे में बात ही नहीं की गई। 54 लाख के बिल का मुद्दा जब अदालत में जाता है तब भी फिल्म में गंभीरता नहीं आती। मनोरंजन के नाम पर अदालत वाले सीन हल्के हैं। साथ ही यह मुद्दा इतनी आसानी से सुलट जाता है कि आप हक्के-बक्के रह जाते हैं। लेखकों ने सारी सहूलियत लेते हुए कोर्ट रूम ड्रामा लिखा है। फिल्म में कई बातों को अधूरा छोड़ दिया गया है। जैसे- शाहिद के पिता फिर से शादी करना चाहते हैं, इस बात को बाद में भूला ही दिया गया। कहने का मतलब यह है कि फिल्म का लेखन बेहद कमजोर है। न तो मुद्दा ठीक से उठाया गया है और न ही फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। फिल्म के सारे किरदार इतना ज्यादा बोलते हैं और इतने लाउड हैं कि कान पक जाते हैं। ऐसा लगता है कि फिल्म की बजाय रेडियो पर नाटक सुन रहे हैं। फिल्म में लोकल फ्लेवर डालने के लिए कुमाऊं भाषा का खूब प्रयोग किया गया है जिससे इस भाषा को न समझने वालों को संवाद समझने में तकलीफ होती है। खासतौर पर फिल्म के पहले घंटे में इनका इस्तेमाल बहुत ज्यादा है। 'ठहरा' और 'बल' शब्दों का हद से ज्यादा प्रयोग किया गया है। निर्देशक के रूप में श्री नारायण सिंह प्रभावित नहीं कर पाए। वे समझ ही नहीं आए कि फिल्म को कहां गंभीर रखना है। साथ ही वे फिल्म के एडिटर भी हैं इसलिए फिल्म को छोटा करने का साहस भी नहीं जुटा पाए। 2 घंटे 55 मिनट की यह फिल्म बेहद लंबी है जबकि कहने के लिए निर्देशक और लेखक के पास पर्याप्त मसाला ही नहीं था। शाहिद कपूर का अभिनय ठीक-ठाक है। खुद के किरदार को 'चलता-पुर्जा' दिखाने में वे कई बार कुछ ज्यादा ही बहक गए। श्रद्धा कपूर और द्वियेन्दु शर्मा का अभिनय ठीक है, लेकिन आधी फिल्म के बाद इन्हें भूला ही दिया गया है। यामी गौतम को कमजोर संवाद मिले ताकि उनके सामने शाहिद कपूर भारी वकील लगे। फरीदा जलाल और सुप्रिया पिलगांवकर ने यह फिल्म क्यों की, समझ के परे है। सुधीर पांडे, समीर सोनी के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। फिल्म का संगीत अच्छा है। 'गोल्ड तांबा' और 'हर हर गंगे' अच्छे बन पड़े हैं। गीतों को अच्‍छा लिखा गया है, लेकिन इनका फिल्मांकन खास नहीं है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी और अन्य तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं। बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : नितिन चंद्रचूड़, श्री नारायण सिंह, कुसुम अरोरा, निशांत पिट्टी, कृष्ण कुमार, भूषण कुमार निर्देशक : श्री नारायण सिंह संगीत : अनु मलिक, संचेत टंडन, परम्परा बैंड, नुसरत फतेह अली खान, रोचक कोहली कलाकार : शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, यामी गौतम, दिव्येंदु शर्मा, फरीदा जलाल, सुधीर पांडे, सुप्रिया पिलगांवकर‍ सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 55 मिनट 35 सेकंड ",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस हफ्ते रिलीज हुई 'द लेजेंड ऑफ टारजन' ने भारतीय बाजार में रिलीज़ डेट से पहले ही अपना क्रेज बना चुकी है। फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी वॉर्नर ब्रदर्स को इस फिल्म के लिए इंडियन मार्केट से ही जब अच्छी-खासी प्राइस ऑफर हुई तो उन्होंने दिल्ली, यूपी में अपना डिस्ट्रिब्यूशन ऑफिस होने के बावजूद अपने ऑफिस से फिल्म को रिलीज करने की बजाय दूसरी कंपनी को डिस्ट्रिब्यूशन का जिम्मा दे दिया। फिल्म को यूएसए सहित दूसरे देशों के साथ ही देश में इस शुक्रवार को रिलीज किया। थ्रीडी और आइमैक्स तकनीक पर बनी इस फिल्म के प्रति दर्शकों के जबर्दस्त क्रेज़ को देखते हुए कंपनी ने फिल्म को अंग्रेजी, हिंदी के अलावा साउथ में तमिल तेलुगू में भी एक साथ रिलीज किया। कहानी : कभी कोंगो के घने जंगलों में रहने वाला टारजन (अलेग्जेंडर स्कार्सगार्ड) अब इन जंगलों को छोड़कर शहर में जॉन क्लेटन लॉर्ड ग्रेस्टोक के नाम से अपनी खूबसूरत वाइफ जेन (रॉबी) के साथ शराफत की जिंदगी जी रहा है। अचानक क्लेटन उर्फ टारजन को एक दिन संसद के बिज़नस राजदूत की हैसियत से एकबार फिर कोंगो जाने का न्योता मिलता है। क्लेटन इस बार अकेले ही कॉन्गो जाना चाहता है, लेकिन जब जेन भी उसके साथ चलने की जिद करती है, तो वह इनकार नहीं कर पाता। टारजन और जेन को खुशी है कि वह एकबार फिर कॉन्गो में अपने बिछड़ों के साथ कुछ दिन गुजार सकेंगे। इन दोनों को नहीं मालूम कि वह एक ऐसी साजिश और बर्बादी की साजिश का मोहरा बन रहे हैं, जिसे बेल्जियन और लोओन रोम (वॉल्ट्ज) ने रचा है। दूसरी ओर इन लोगों को भी नहीं मालूम कि आने वाले वक्त में उनका सामना किस से होगा। फिल्म के साथ एक नहीं, कई ऑस्कर विनर के नाम जुड़े हैं। 'आइरिस' के लिए ऑस्कर हासिल कर चुके जिम ब्रॉडबैंट और 'इनग्लोरिअस बास्टर्ड' और 'जैंगो अन्चेंज्ड' के लिए ऑस्कर हासिल कर चुके क्रिस्टफ वॉल्ट्ज इस फिल्म के साथ जुड़े हैं। 'हैरी पॉटर' सीरीज की आखिरी चार फिल्में डायरेक्ट कर चुके डेविड येट्स ने इस फिल्म को लेटेस्ट तकनीक और कम्प्यूटर ग्राफिक्स के दम पर अपनी पिछली फिल्मों से आगे ले जाने की अच्छी कोशिश की है। थ्री डी तकनीक में जंगल में वॉर के सीन्स के अलावा समुद्री बोट पर जंगल के सैकड़ों जानवरों के साथ टारजन के अटैक सीन का जवाब नहीं। फिल्म की शुरुआत कुछ धीमी रफ्तार से होती है। खासकर बंद कमरों में टारजन के साथ बैठकों के सीन कुछ ज्यादा ही लंबे हो गए हैं, लेकिन आखिरी पंद्रह मिनट की फिल्म का जवाब नहीं। घने जंगलों में आसमां को छूते पहाड़ों, झरनों और पेड़ों के ऊपर से रस्सी के बल पर टारजन का अपनी मदद के लिए जंगल में अपने दोस्त जानवरों को एकत्र करने वाला सीन इस फिल्म की यूएसपी है। जंगल में खूंखार शेरों के साथ टारजन लाड़-प्यार का सीन गजब बन पड़ा है। बेशक फिल्म की कहानी और क्लाइमैक्स कुछ कमजोर है, लेकिन अडवेंचर और कुछ नया देखने वाले दर्शकों की क्लास पर 'टारजन' खरा उतरने का दम रखती है। इस वीकेंड पर जब नई फिल्मों की भीड़ में ऐेसी कोई फिल्म नहीं, जिसे फैमिली के साथ देखा जा सके तो आप टारजन से मिलने की प्लानिंग कर सकते हैं। ",0 "कुल‍ मिलाकर ‘मि.व्हाइट और मि. ब्लैक’ मि.जीरो साबित होते हैं। निर्देशक : दीपक शिवदासानी संगीत : जतिन-ललित, शमीर टंडन, तौसिफ अख्तर कलाकार : सुनील शेट्टी, अरशद वारसी, संध्या मृदुल, महिमा मेहता, रश्मि निगम, अनिष्का खोसला, आशीष विद्यार्थी * यू/ए * 16 रील ’मि.व्हाइट मि. ब्लैक’ चूके हुए लोगों की फिल्म है। दीपक शिवदासानी ने वर्षों पहले कुछ सफल फिल्में बनाई थीं। बदलते दौर के साथ वे अपने आपको नहीं बदल पाए और उनकी यह फिल्म भी उसी दौर की लगती है। फिल्म के नायक सुनील शेट्टी और अरशद वारसी का सफर नायक के रूप में कब का समाप्त हो गया है। इन दिनों वे चरित्र भूमिकाएँ निभाते हैं। इन चूके हुए अभिनेताओं को फिल्म का नायक बनाया गया है। इनकी नायिका कौन बनना चाहेगी? इसलिए कुछ फ्लॉप अभिनेत्रियों को इनके साथ पेश किया गया है। फिल्म के लेखक ने सारे चूके हुए फार्मूलों को फिर से आजमाया है। हँसाने के लिए दो नायक, एक बेवकूफ डॉन, मूर्ख पुलिस ऑफिसर, हीरों की चोरी और कुछ जोकरनुमा चरित्र। इन सभी को लेकर सारे तत्व हँसाने के लिए डाले गए हैं। अफसोस की बात यह है कि उनकी इतनी मेहनत के बावजूद एक बार भी हँसी नहीं आती। किशन (अरशद वारसी) की तलाश में होशियारपुर से गोपी (सुनील शेट्टी) गोवा आता है। वह किशन को होशियारपुर ले जाना चाहता है ताकि उसे जमीन देकर वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाए। किशन एक चलता-पुर्जा इंसान है। लोगों को बेवकूफ बनाकर और चोरी कर वह अपना खर्चा चलाता है। वह गोपी के साथ जाने से इंकार कर देता है। केजी रिसोर्ट के मालकिन की बेटी गोपी की अच्छी दोस्त बन जाती है। तीन लड़कियाँ पच्चीस करोड़ रुपए के हीरे चुराकर केजी रिसोर्ट में छिप जाती है। जब यह बात किशन को पता चलती है तो वह उन हीरों को चुराने के लिए केजी रिसोर्ट जाता है और उसके पीछे-पीछे गोपी। कई उपकथाएँ शुरू हो जाती हैं और ढेर सारे चरित्र कहानी में शामिल हो जाते हैं। सभी हीरों के पीछे लग जाते हैं। इस तरह की कहानी हाल ही में परदे पर कई बार दिखाई जा चुकी है। दीपक शिवदासानी की कहानी मध्यांतर के बाद अपना सारा असर खो देती है। दीपक और पटकथा लेखक संजय पंवार और निशिकांत कामत ने ढेर सारे चरित्र कहानी में डाल तो दिए हैं, किंतु बाद में उन्हें समझ में नहीं आया कि इन सबको समेटा कैसे जाए। फिल्म के क्लाइमैक्स में भी नयापन नहीं है। हीरे चुराने वाली लड़कियों की क्या पृष्ठभूमि है? किशन को गोपी होशियारपुर क्यों ले जाना चाहता है, ये स्पष्ट नहीं किया गया। जबकि यह कहानी का अहम हिस्सा है। कहानी और पटकथा ऐसी है कि ढेर सारे प्रश्न दिमाग में आते हैं, जिनका उत्तर देने की जवाबदारी निर्देशक और लेखक महाशय ने नहीं समझी। निर्देशक दीपक शिवदासानी ने फिल्म को स्टाइलिश लुक देने की असफल कोशिश की। कमजोर पटकथा की वजह से भी वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। फिल्म चार वर्ष में बनी है और इसका असर नजर आता है। सुनील शेट्टी और अरशद वारसी को भी समझ में आ गया था कि फिल्म में दम नहीं है, इसलिए उन्होंने बेमन से अपना काम किया है। सुनील शेट्टी को ज्यादा अवसर ‍नहीं मिले हैं। शरत सक्सेना, मनोज जोशी, आशीष विद्यार्थी, अतुल काले, उपासना सिंह, सदाशिव अमरापुरकर ने हँसाने की असफल कोशिश की है। फिल्म की नायिकाएँ (रश्मि निगम, अनिष्का खोसला, महिमा मेहता) न दिखने में सुंदर हैं और न ही उन्हें अभिनय करना आता है। संध्या मृदुल ने पता नहीं क्या सोचकर यह फिल्म में काम करना मंजूर किया। गीत-संगीत औसत है और तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर। निर्माता : बिपिन शाह कुल‍ मिलाकर ‘मि.व्हाइट और मि. ब्लैक’ मि.जीरो साबित होते हैं। ",0 " सरकार 2005 में प्रदर्शित हुई थी और सरकार राज 2008 में। नौ वर्ष बाद उन्होंने तीसरा भाग बनाया है, लेकिन ढंग की कहानी भी नहीं चुन पाए। केवल सरकार सीरिज की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश उन्होंने की है कि इसी बहाने कुछ दर्शक उनकी फिल्म को मिल जाए। सरकार सीरिज की पिछली दो फिल्मों में जो तनाव, तिकड़मबाजी, राजनीति और गुंडागर्दी दिखाई गई थी वो तीसरे भाग में नदारद है। पूरा ड्रामा अत्यंत ही उबाऊ है और परदे पर चल रहे घटनाक्रम में जरा भी रूचि पैदा नहीं होती। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह इस सीरिज की आखिरी फिल्म होगी। सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) उर्फ सरकार की कहानी को आगे बढ़ाया गया है। सरकार के बढ़ते प्रभाव से उनके कई दुश्मन भी पैदा हो जाते हैं। वे अपने दम पर सरकार का बाल भी बांका नहीं कर पाते तो एकजुट हो जाते हैं। इनके साथ सरकार का पोता चीकू (अमित सध) भी मिल जाता है जो अपने पिता की मौत का दोषी सरकार को पाता है। इस थकी-मांदी कहानी में कुछ भी नया नहीं है। लचर कहानी का स्क्रीनप्ले भी लचर है। किस तरह कहानी को आगे बढ़ाया जाए यह स्क्रिप्ट राइटर्स को सूझा ही नहीं। सरकार के विरोधी ज्यादातर समय सिर्फ प्लान बनाते रहते हैं और कुछ करते ही नहीं। उनकी बातें ऊब पैदा करती है। ऐसा लगता है कि यह सब क्यों हो रहा है? कहने को तो यह थ्रिलर फिल्म है, लेकिन इसमें जरा भी थ्रिल नहीं है। हो सकता है कि आप ऊंघने भी लगे। रामगोपाल वर्मा निर्देशक के रूप में बुरी तरह निराश करते हैं। उनका प्रस्तुतिकरण बेहद सतही है। लगता ही नहीं कि किसी अनुभवी निर्देशक ने इस फिल्म को निर्देशित किया है। साधारण दृश्यों को बेहद ड्रामेटिक तरीके से पेश किया गया है मानो उस सीन में बहुत बड़ी बात हो गई हो। फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए कुछ सीनों को च्युइंगम की तरह खींचा गया है। इस फिल्म को देख कर अमिताभ बच्चन से पूछा जा सकता है कि उन्होंने यह फिल्म क्यों की? उनके अभिनय में दोष नहीं है, दोष फिल्म के चयन में है। उनकी सारी मेहनत व्यर्थ गई है। अमित सध को बड़ा अवसर मिला है। उनका अभिनय ठीक है, लेकिन उनकी स्टार वैल्यू नहीं होने के कारण वे मिसफिट लगते हैं। यामी गौतम, रोहिणी हट्टंगडी और मनोज बाजपेयी से भी सवाल पूछा जा सकता है कि इतने महत्वहीन रोल करने के पीछे उनकी क्या मजबूरी थी? जैकी श्रॉफ ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। दाढ़ी, गॉगल और दुपट्टे में वे चेहरा छिपाकर अपने अभिनय की कमजोरी को ढंकते रहते हैं। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी कमजोर है। बेवजह अजीब से कोणों से फिल्म को शूट किया गया है। बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है। सरकार 3 देखने की बजाय रामगोपाल वर्मा के ट्वीट्स पढ़ लीजिए। वो ज्यादा मजेदार होते हैं। बैनर : एलम्बरा एंटरटेनमेंट, इरोस एंटरटेनमेंट, वेव सिनेमा, एबी कॉर्प निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, राहुल मित्रा, आनंद पंडित, गोपाल शिवराम दलवी, कृष्ण चौधरी निर्देशक : रामगोपाल वर्मा संगीत : रवि शंकर, निलाद्री कुमार कलाकार : अमिताभ बच्चन, मनोज बाजपेयी, यामी गौतम, जैकी श्रॉफ, अमित सध, रोनित रॉय, रोहिणी हट्टंगड़ी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 2 सेकंड ",0 "दम लगा के हईशा ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी का सिनेमा याद दिलाती है। इन महान निर्देशकों की फिल्में बहुत ही सरल और हल्की-फुल्की हुआ करती थीं। 'दम लगा के हईशा' के किरदार अत्यंत सहज है जो जिंदगी को छोटी-मोटी परेशानियों से अपने स्तर पर जूझ रहे हैं। हरिद्वार में प्रेम (आयुष्मान खुराना) अपने पिता के साथ प्रेम ऑडियो एंड वीडियो सेंटर चलाता है जहां कैसेट्स बेची जाती हैं और गाने रिकॉर्ड किए जाते हैं। प्रेम अपने पिता से बेहद डरता है और अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण दसवीं कई प्रयास के बावजूद पास नहीं कर पाया। शादी की उसकी उम्र हो गई है। संध्या (भूमि पेडनेकर) नामक लड़की प्रेम के पिता को पसंद आ जाती है और वे पर दबाव डालकर प्रेम की शादी संध्या से करवा देते हैं। संध्या को प्रेम पसंद नहीं करता क्योंकि वह बहुत मोटी है। प्रेम से संध्या होशियार है। बीएड कर चुकी है। संध्या का प्रेम एक बार दोस्तों के आगे अपमान कर देता है तो वह घर छोड़ कर चली जाती है। तलाक के लिए आवेदन कर देती है। अदालत दोनों को साथ में 6 महीने रहने को कहती है। इसी बीच वे एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हैं जिसमें पत्नी को पीठ पर लाद कर पति रेस में हिस्सा लेता है। यह रेस दोनों की दूरियां मिटा देती है। कहानी 1995 की है। जब कुमार सानू के गाने गली-गली गूंजते थे। ऑडियो कैसेट्स का प्रचलन था। लोग कैसेट्स खरीदने के बजाय अपने पसंदीदा गाने रिकॉर्ड करवाते थे। वीसीआर पर फिल्में देखी जाती थीं। इस माहौल को निर्देशक और लेखक शरत कटारिया ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। छोटे-छोटे डिटेल्स का ध्यान रखा है। संवादों में भी उस दौर के झलक मिलती है। बैकग्राउंड म्युजिक में 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' सुनने को मिलता है जो उस दौर में दूरदर्शन पर बहुत दिखाया जाता था। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनशैली का भी बारीकी से चित्रण किया गया है। घर के कमरे कुछ इस तरह के होते थे कि दूसरे कमरे में क्या हुआ है ये बाहर वाले जान लेते हैं। इसकी मिसाल एक सीन में मिलती है जब प्रेम और संध्या के कमरे से आती आवाज सुन कर प्रेम की मां कहती है कि उनका बेटा सयाना हो गया है। दम लगा के हईशा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें दम लगा के हईशा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में इस तरह के कई बेहतरीन दृश्य हैं। लाइब्रेरी में जाकर दबी आवाज में संध्या और प्रेम का विवाद करना तथा ऑडियो कैसेट्स बदल-बदल कर गानों के जरिये लड़ने वाले सीन मनोरंजक हैं। प्रेम की मनोस्थिति को भी अच्छे तरीके से दिखाया गया है। वह दिल का अच्छा है। संध्या का दिल नहीं दुखाना चाहता है, लेकिन उसके मोटापे पर वह शर्मिन्दा होता है। उसे दोस्तों और लोगों की फिक्र रहती है कि वे उसकी मोटी बीवी के बारे में क्या सोचते हैं। एक सीन उसकी मनोदशा को अच्छी तरह दिखाता है। स्कूटर पर संध्या और प्रेम जाते हैं। संध्या का सैंडल गिर जाता है। प्रेम के चेहरे पर नाराजगी झलकती है, लेकिन वह जाकर सैंडल लेकर आता है, जिससे साबित होता है कि वह संध्या को पसंद भी करता है। संध्या और प्रेम के माता-पिता वाले दृश्य भी उम्दा हैं। फिल्म के क्लाइमेक्स में प्रेम-संध्या की जीत न भी दिखाई जाती तो भी बात बन सकती थी। यह जीत स्वाभाविक नहीं लगती। अच्छी बात यह है कि इस प्रतियोगिता पर ज्यादा फुटेज खर्च नहीं किए गए। इसी तरह संध्या के तलाक लेने वाला निर्णय चौंकाता है। यह बात ठीक है कि प्रेम उसका अपमान करता है, लेकिन बात इतनी बड़ी भी नहीं थी कि तलाक ले लिया जाए। चूंकि स्क्रीनप्ले मनोरंजक है कि इसलिए ये कमियां नहीं अखरती हैं। निर्देशक के रूप में शरत कटारिया प्रभावित करते हैं। उनके काम की ईमानदारी परदे पर झलकती है। फिल्म को उन्होंने बैलेंस रखा और कही भी जरूरत से ज्यादा इमोशन थोपने की कोशिश नहीं की। फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइन टीम प्रशंसा की हकदार है जिन्होंने फिल्म को विश्वसनीय बनाया। आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर की जोड़ी बेमेल है, लेकिन उनकी केमिस्ट्री बेहतरीन रही। निखट्टू, निरुरद्देश्य तथा पिता से डरने वाले किरदार को आयुष्मान ने विश्वसनीय बनाया। भूमि पेडनेकर का आत्मविश्वास देखने लायक है और वे अपने किरदार में पूरी तरह डूबी नजर आई। संजय मिश्रा सहित फिल्म के तमाम कलाकारों का काम प्रशंसा के योग्य है। 'दम लगा के हईशा' को देखने के लिए टिकट खरीदा जा सकता है। बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : मनीष शर्मा निर्देशक : शरत कटारिया संगीत : अनु मलिक कलाकार : आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, संजय मिश्रा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 51 मिनट ",1 "हेट स्टोरी सीरिज का तीखापन और बोल्डनेस अब कम होती जा रही है। इस सीरिज की फिल्में अब महिला अत्याचार पर बातें करे तो हंसी आना स्वाभाविक है क्योंकि इन फिल्मों की कहानी का आधार ही महिला के जिस्म के इर्दगिर्द घूमता है। हेट स्टोरी 4 के अंत में कुछ आंकड़े दिखाए गए हैं कि हमारे देश में इतना महिलाओं पर अत्याचार होता है। इसके पहले फिल्म की दो हीरोइनों कम कपड़ों में इस तरह दिखाया गया है कि दर्शकों को रिझाया जा सके। यानी कुछ भी चिपकाया जा रहा है। हेट स्टोरी की कहानी दो लम्पट भाइयों राजवीर (करण वाही) और आर्यन (विवान भटेना) की है। ताशा (उर्वशी रौटेला) मॉडलिंग की दुनिया में बड़ा नाम कमाना चाहती है और उसकी खूबसूरती से प्रभावित होकर राजवीर उसकी मदद करता है। आर्यन की निगाह भी ताशा पर है जिसकी पहले से ही गर्लफ्रेंड है। ताशा को राजवीर मोहब्बत करता है जबकि आर्यन का इरादा सिर्फ रात बिताने का है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब आर्यन की गर्लफ्रेंड की मौत हो जाती है। इसके बाद कुछ राज खुलते हैं जो बेहद बचकाने हैं। लड़कियों को देख लार टपकाने वाला राजवीर का जब मोहब्बत में देवदास जैसा हाल हो जाता है तो हंसी ही छूटती है। ताशा का किरदार तो और भी कन्फ्यूजिंग है। वो दोनों भाइयों को बड़ी‍ आसानी से मूर्ख बनाती रहती है। ये भाई न केवल भारत में बल्कि इंग्लैंड में भी मर्डर कर बड़ी आसानी से घूमते रहते हैं। सीधी-सादी मध्यमवर्ग की लड़की ताशा के पास इतना पैसा कहां से आ गया कि वह इंग्लैंड पहुंच कर बड़ी आसानी से अपने मिशन को कामयाब करती है। और भी स्क्रिप्ट में कई छेद हैं जो फिल्म की हवा निकाल देते हैं। फिल्म के तीनों नॉन एक्टर्स को इतने भारी-भरकम डॉयलॉग्स दिए हैं कि उनका बोझ उनसे उठाए नहीं बनता। कई बार उच्चारण गलत किए हैं। फिल्म को मॉडर्न लुक देने के लिए कई संवाद अंग्रेजी में रखे गए हैं और उनके सबटाइटल हिंदी में दिए गए हैं ताकि अंग्रेजी न समझने वाले हिंदी पढ़ कर समझ सके। यहां हिंदी लिखने में कई गलतियां की गई हैं। इतनी जद्दोजहद से तो बेहतर है कि सरल हिंदी में ही संवाद रखे जाते। विशाल पंड्या का निर्देशन भी कमजोर है। लोकेशन, सेट और कलाकारों को तो स्टाइलिस्ट तरीके से पेश किया है, लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण कमजोर है। बात को उन्होंने बहुत लंबा खींचा है। इंटरवल के बाद तो 'द एंड' का ही इंतजार रहता है। बदले वाली बात को वे ठीक से दर्शा नहीं पाए। दर्शकों को उन्होंने खूब चौंकाने की कोशिश की है, लेकिन पकड़ने वाले तो बहुत पहले ही जान जाते हैं कि आगे क्या होने वाला है। वे फिल्म में थ्रिल पैदा नहीं कर पाए और लॉजिक को किनारे पर रख दिया। अभिनय के मामले में भी यह फिल्म कंगाल है। उर्वशी रौटेला को सेंट्रल कैरेक्टर मिला है। वे खूबसूरत लगी हैं, लेकिन अभिनय के मामले में उन्हें बहुत कुछ सीखना पड़ेगा। ड्रामेटिक सीन में तो उनसे कुछ करते ही नहीं बनता। विवान भटेना के चेहरे पर हमेशा गुस्से वाला भाव ही रहता है। रोमांस करते समय में भी वे गुस्से से भरे लगते हैं। फिल्म की वे सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। करण वाही भी प्रभावित नहीं करते। इन दोनों कमजोर कलाकारों से अच्छा काम कर वे जरूर खुश हो सकते हैं। गुलशन ग्रोवर की तो ऐसे एंट्री की गई कि फिल्म में उनका रोल बहुत महत्वपूर्ण होगा, लेकिन वे सिर्फ गरजते ही रहे। इहाना ढिल्लो को ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया। सनी-इंदर का बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है। गानों के नाम पर पुराना गीत 'आशिक बनाया आपने' ही ठीक-ठाक है बा‍की गाने तो फिल्म देखते समय अखरते हैं। कुल मिलाकर 'हेट स्टोरी 4' से हेट करने के कई कारण हैं। बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार निर्देशक : विशाल पंड्या संगीत : मिथुन, आर्को प्रावो मुखर्जी, तनिष्का बागची, टोनी कक्कड़ कलाकार : उर्वशी रौटेला, करण वाही, विवान भटेना, गुलशन ग्रोवर, इहाना ढिल्लो सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 10 मिनट 41 सेकंड ",0 "पिछले कुछ अर्से से इंडियन मार्केट में हॉलिवुड स्टूडियो की मेगा बजट मल्टिस्टारर फिल्मों का बिज़नस लगातार बढ़ रहा है। शायद यही वजह है कि कुछ साल पहले तक यूरोप सहित दूसरे देशों में रिलीज होने के बाद ही हॉलिवुड के नंबर वन स्टूडियो की फिल्में यहां आती थीं, लेकिन अब यह नजारा पूरी तरह बदल चुका है। अक्सर अब हॉलिवुड स्टूडियो की चर्चित फिल्में यूएसए में रिलीज़ होने से पहले भारत में रिलीज होने लगी हैं। वार्नर ब्रदर्स ने अपनी इस फिल्म को देश-विदेश में एकसाथ रिलीज किया है। अगर इंडियन बॉक्स ऑफिस की बात करें तो यहां बरसों से डरावने भयावह राक्षसों और धरती पर कभी दिखाई न देने वाले अकल्पनीय जीवों के ऐक्शन सीन वाली फिल्में सिंगल स्क्रीन्स के साथ-साथ मल्टिप्लेक्सों में भी अच्छा बिज़नस करती हैं। इस फिल्म के क्रेज का अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि फिल्म का ट्रेलर जब यूट्यूब पर आया तो पहले ही दिन करीब 19 लाख लोगों ने इसे देखा। करीब 17 हजार लोगों ने इसे लाइक भी किया। कहानी : इस फिल्म की कहानी का प्लॉट 70 के दशक का है। टॉम हिडलस्टन एक ऐसे टापू का सौदा करते हैं, जिसके बारे में उसे ज्यादा कुछ मालूम नहीं है। टॉम के द्वारा किए गए इस सौदे में इस बात का कहीं जिक्र तक नहीं है कि एक भयावह राक्षस बरसों से इस टापू पर राज कर रहा है। यहीं से शुरू होता है एक ऐसी जांबाज टीम का ऐक्शन, जिसमें सैनिक हैं, साइंटिस्ट हैं। वे इस बेहद खतरनाक टापू पर जाते हैं, जहां इन सभी का सामना ऐसे दैत्यकारी, खूंखार जीवों के साथ होता है, जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। दिल्ली-एनसीआर में यह फिल्म हिंदी आइमैक्स तकनीक के अलावा 3-D और 2-D तकनीक में भी रिलीज हुई है। सुनसान वीरान टापू पर इस टीम की दैत्यकारी जीव के साथ भिड़ंत के सीन इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। डायरेक्टर ने करीब 1.27 अरब के मोटे बजट में फिल्म के आइमैक्स और 3-D सीन को बेहतरीन बनाने पर बजट का करीब 70 फीसदी हिस्सा खर्च किया है। क्यों देखें : अगर आपको गॉडजिला और किंग कॉन्ग जैसी ऐक्शन थ्रिलर फिल्में पसंद हैं, तो कॉन्ग आपको यकीनन पसंद आएगी। फिल्म को इंजॉय करना चाहते हैं, तो इसे आइमैक्स या 3-D तकनीक में ही देखें। ",0 "बैनर : आमिर खान प्रोडक्शन्स निर्माता : आमिर खान, किरण राव निर्देशक : किरण राव कलाकार : प्रतीक, मोनिका डोगरा, कृति मल्होत्रा, आमिर खान सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 35 मिनट * 10 रील आमिर खान नहीं चाहते कि प्रशंसक उनकी कोई फिल्म देखने आए और निराश हो। इसलिए वे दूसरे फिल्मकारों की तरह झूठ नहीं बोलते हुए अपनी फिल्म के बारे में सच बोलना पसंद करते हैं। ‘धोबी घाट’ के रिलीज होने के पहले ही उन्होंने कह दिया था कि यह मेनस्ट्रीम सिनेमा नहीं है। इसमें वो लटके-झटके नहीं हैं जो आम मसाला फिल्मों में होते हैं। यह एक प्रयोगत्मक और वास्तविकता के निकट की फिल्म है, जिसका ट्रीटमेंट एक आर्ट फिल्म की तरह है। ‘धोबी घाट’ की कहानी चार किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, जो अलग-अलग पृष्ठभूमि से मुंबई आए हुए हैं। चारों की अलग-अलग कहानी है जो एक-दूसरे से कहीं ना कहीं जुड़ी हुई है। अरुण (आमिर खान) एक पेंटर है, जो कम बोलना और अकेले रहना पसंद करता है। उसे किसी भी किस्म की रिलेशनशिप पसंद नहीं है। उत्तर प्रदेश से ब्याह कर मुंबई आई यास्मिन (कृति मल्होत्रा) पति की बेरुखी से परेशान है। वह एक वीडियो कैमरे के जरिये मुंबई को शूट कर मन बहलाती है और अपने दिल की बातें कैमरे को बताती है। शाई (मोनिका डोगरा) शौकिया रूप से कैमरे की आँख से मुंबई दर्शन करती है। इसमें उसका साथ देता है बिहार से आया मुन्ना (प्रतीक) जो धोबी है, लेकिन फिल्मों में हीरो बनना उसका सपना है। इनके अलावा अनोखी भूमिका में मुंबई है, जो चुपचाप इन किरदारों की गतिविधियों को देखता रहता है। उनकी उत्कंठा, अकेलापन, अनुभव और प्यार के जरिये इस शहर का फ्लेवर दिखाया गया है। किरण राव ने एक निर्देशक के रूप में अच्छी शुरुआत की है। उनकी फिल्म और किरदार रियल लाइफ के बेहद करीब हैं। उनका दु:ख, दर्द, हँसी, खुशी आम लोगों जैसी लगती है। फिल्म में उत्सुकता इसलिए बनी रहती है कि कहानी अगले मोड़ पर क्या करवट लेगी यह पता लगाना मुश्किल है। कहानी कहने के लिए उन्होंने जटिल तरीका अपनाया है जिसकी वजह से एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। किरण ने दर्शक की समझदारी पर भी काफी कुछ छोड़ा है और प्रस्तुतिकरण ऐसा रखा है कि दर्शक भी सक्रिय होकर फिल्म देखें। उदाहरण के लिए फिल्म की शुरुआत में मुन्ना हाथ में टॉर्च और लाठी लिए निकलता है और उसका दोस्त कहता है अपने गंदे काम के लिए जा। उस वक्त यह सीन निरर्थक जान पड़ता है। फिल्म के आखिर में दिखाया गया है कि मुन्ना रात को चूहे मारता है तब पता चलता है कि वह गंदा काम क्या था। फिल्म में अधिकांश अपरिचित या नए चेहरे हैं, जो कि इस कहानी को परफेक्ट सूट करते हैं। मोनिका डोगरा ने शाई के किरदार को बखूबी निभाया है। अरुण और मुन्ना के बीच में फँसी शाई की उलझन को चेहरे के जरिये उन्होंने बयाँ किया है। प्रतीक ने एक कम पढ़े-लिखे लड़के की भूमिका को बखूबी निभाया है। उनकी डॉयलॉग डिलेवरी और हावभाव देखने लायक हैं। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय कमाल का है। यास्मिन बनी कृति मल्होत्रा भी प्रभावित करती हैं। आमिर खान के अभिनय में कोई खोट नहीं है, लेकिन उनकी जगह नया चेहरा होना चाहिए था, क्योंकि उनकी सुपरस्टार की छवि लगातार परेशान करती रहती है। तुषार कांति रे की सिनेमॉटोग्राफी उल्लेखनीय है। मुंबई की वास्तविक लोकेशन्स को उम्दा कोणों से उन्होंने गजब का शूट किया। मुंबई की सँकरी गलियाँ, समुद्र, धोबी घाट, पुराने मकान और बाजार, ब्लैक एंड व्हाइट फोटोग्राफ्स, वीडियो डायरी और पेंटिंग के जरिये देखने को मिलती है। यास्मिन की वीडियोग्राफी की अपरिपक्वता को भी उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक ‍कहानी के मूड के अनुरूप है। कुल मिलाकर ‘धोबी घाट’ उन लोगों के लिए है जो धैर्य के साथ कला फिल्म का आनंद उठाना पसंद करते हैं। ",1 "बैनर : ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स फिल्म कॉर्पोरेशन निर्देशक : जो कार्नाहन कलाकार : लियाम नीसन, ब्रेडले कूपर, जेसिका बिएल, शार्लटो कॉपले, पेट्रिक विल्सन ए सर्टिफिकेट * 118 मिनट ‘द ए-टीम’ का निर्माण एक्शन प्रेमियों के लिए किया गया है। कहानी और स्क्रीनप्ले कुछ इस अंदाज में लिखा गया है कि ज्यादा से ज्यादा एक्शन दृश्यों की गुंजाइश हो और इसके लिए कई बातों को भी नजरअंदाज किया गया है। जो दर्शक एक्शन फिल्म के शौकीन हैं, उन्हें यह फिल्म जरूर पसंद आएगी। टीवी शो ‘ए टीम’ पर आधारित यह फिल्म चार किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, जो सही मायनो में खतरों के खिलाड़ी हैं। जितना ज्यादा जोखिम हो, कठिन काम हो उतना ही उन्हें मजा आता है। सेना में ये उन कामों को भी कर दिखाते हैं जिनका इन्हें ऑर्डर नहीं है और इस वजह से अन्य लोग इनसे ईर्ष्या करते हैं। इराक से वापसी के दौरान ‘द ए टीम’ षड्यंत्र का शिकार हो जाती है। कर्नल जॉन स्मिथ (लियाम नीसन), फेसमैन पैक (ब्रेडले कूपर), बीए बारकस (क्विंटन जैकसन) और मडरॉक (शार्लटो कॉपले) को अलग-अलग जेल में बंद कर दिया जाता है। चारिसा सोसा (जेसिका बिएल) जो कि एक सैनिक है को इन पर निगाह रखने का जिम्मा सौंपा जाता है। फेसमैन और सोसा कभी एक-दूसरे को पसंद करते थे। इस टीम को जेल में ज्यादा दिन नहीं रखा जा सका और चारों जेल से भाग निकलते हैं ताकि उस आदमी का पता लगा सके, जिसके कारण उन्हें सजा हुई। उनका प्लान सफल रहता है और अंत में वे कामयाब हो जाते हैं। फिल्म की कहानी बेहद साधारण है और एक्शन दृश्यों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। निश्चित रूप से ये एक्शन दृश्य फिल्म का प्रमुख आकर्षण हैं और बेहतरीन तरीके से शूट किए गए हैं। निर्देशक जो कार्नाहन फिल्म की गति बेहद तेज रखी गई है ताकि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिले। हालाँकि स्क्रीनप्ले में खामियाँ हैं। कई दृश्य अविश्वसनीय हैं, लेकिन मनोरंजन पक्ष भारी होने के कारण इन्हें अनदेखा किया जा सकता है। एक्शन की भरमार होने के बावजूद फिल्म को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया गया है और राहत प्रदान करने वाले दृश्य लगातार बीच में आते रहते हैं। चारों किरदारों पर मेहनत की गई है। हर किसी का मिजाज एक-दूसरे से जुदा है। जॉन स्मिथ इस टीम के कैप्टन हैं जो धीर-गंभीर हैं और हर योजना को ठीक से लागू करते हैं। फेसमैन रंगीन मिजाज हैं और लड़कियाँ उसकी कमजोरी। दिमाग के बजाय हाथ-पैर ज्यादा चलाने वाला बीए फिल्म के मध्य में गाँधीजी से प्रभावित होकर अहिंसा पर विश्वास करने लगता है। मडरॉक एक पॉयलट है और दर्शकों को हँसाने के लिए वे कई हरकतें करता है। उसकी और बीए की नोंकझोक बेहतरीन है। सभी कलाकारों ने अपना काम बेहतरीन तरीके से किया है। कम्प्यूटर ग्राफिक्स के मामले में फिल्म कमजोर नजर आती है और कई दृश्यों में बनावटीपन झलकता है, खासतौर पर क्लाइमैक्स में, जो कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। कुल मिलाकर ‘द ए टीम’ में इतना दम है कि दर्शकों को बाँधकर उनका मनोरंजन करे। ",1 "बैनर : नाडियाडवाला ग्रेंडसन एंटरटेनमेंट, इरोज़ इंटरनेशनल, साजिद नाडियाडवाला प्रोडक्शन्स-यूके निर्माता : साजिद नाडियाडवाला निर्देशक : साजिद खान संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : अक्षय कुमार, असिन, जॉन अब्राहम, जैकलीन फर्नांडिस, रितेश देशमुख, जरीन खान, श्रेयस तलपदे, शाज़ान पद्मसी, ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, बोमन ईरानी, जॉनी लीवर, चंकी पांडे, मलाइका अरोरा खान सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 16 रील साजिद खान पर सत्तर और अस्सी के दशक की मसाला फिल्मों का प्रभाव है। उस दौर की उन्होंने तमाम अच्छी-बुरी फिल्में देखी हैं और उन्हें उन फिल्मों के ढेर सारे संवाद और सीन याद हैं। साजिद की फिल्म मेकिंग पर भी उन फिल्मों का प्रभाव नजर आता है। उस दौर की कमर्शियल फिल्में मल्टीस्टारर होती थी। उनमें चार-पांच गाने, तीन-चार धांसू फाइट सीन, एक कैबरेनुमा आइटम सांग, थोड़ी बहुत मस्ती, गलतफहमियां और हैप्पी एंडिंग होती थीं। यह बात साजिद की हाउसफुल में भी नजर आई और हाउसफुल 2 में भी। हाउसफुल 2 में हाउसफुल की कहानी को थोड़ा-बहुत उलट-पुलट कर, और मसाले (कलाकार) डालकर जायकेदार बना दिया गया है। साजिद कहते हैं कि ‍वे फिल्म आम दर्शकों के लिए बनाते हैं न कि फिल्म समीक्षकों के लिए। महंगे टिकट खरीदकर सिनेमाघर आए दर्शक का मनोरंजन करना उनका उद्देश्य है और इस बार वे अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं। हाउसफुल 2 में ढेर सारे ऐसे पल है जो गुदगुदाते हैं और भरपूर मनोरंजन करते हैं। फिल्म की कहानी बेहद सामान्य है। थोड़ी-सी गलतफहमियां पैदा कर दी गई हैं और उसके सहारे पूरी कहानी को खींचा गया है। कहानी जब सामान्य हो तो स्क्रिप्ट, अभिनय, संवाद और निर्देशन दमदार होना चाहिए वरना फिल्म को बिखरते देर नहीं लगती। हाउसफुल 2 की स्क्रिप्ट कुछ ऐसी लिखी गई है कि एक के बाद एक मजेदार सीन आते रहते हैं। लॉजिक पर या इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि कहानी आगे बढ़ रही है या नहीं। खासतौर पर पहले घंटे में तो फिल्म बहुत ही मनोरंजक है। ऋषि-रणधीर के बीच के सारे दृश्य, अक्षय कुमार का पहला सीन, मगरमच्छ वाला दृश्य हास्य से भरपूर हैं। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए कुछ सब-प्लाट भी रखे गए हैं जो अच्छे हैं, जैसे सनी (अक्षय कुमार) और मैक्स (जॉन अब्राहम) कॉलेज में अच्छे दोस्त थे। फिर उनके बीच कैसे दुश्मनी हुई? कैसे फिर एक हुए? जेडी (मिथुन चक्रवर्ती) का अतीत और जेडी नाम रखने की कहानी भी दिलचस्प है। इंटरवल के बाद कुछ देर के लिए फिल्म में मनोरंजन का ग्राफ नीचे की ओर आता है। विंदू दारा सिंह के गुंडों के साथ अक्षय-जॉन-रितेश और श्रेयस की फाइटिंग वाला सीन केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। वहीं बोमन ईरानी वाला प्रसंग भी बोर करता है, लेकिन अंत में फिल्म फिर ट्रेक पर आ जाती है। निर्देशक साजिद खान ने अपनी टारगेट ऑडियंस को खुश करने के लिए तमाम मसाले जुटाए हैं। आइटम सांग रखा है, हीरोइनों की ड्रेस छोटी रखी है, फाइट सीन रखा है, साथ ही कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है और हंसाने वाली कई पंच लाइनें रखी हैं। रंजीत, जो कि सत्तर और अस्सी के दौर की फिल्मों में ‘रेपिस्ट’ के नाम से मशहूर थे, को अक्षय कुमार का पिता बनाया है, जिससे अक्षय का कैरेक्टर एक अलग ही टच लिए हुए हैं। रंजीत की जो अदा अक्षय ने अपनाई है वो देखते ही बनती है। यह साजिद के दिमाग की ही उपज हो सकती है। कुछ ऐसे सीन हैं जो फिल्मों के बारे में ज्यादा जानकारी रखते हैं उन्हें ज्यादा मजेदार लगेंगे। मसलन एक सीन में रणधीर कपूर को अक्षय कुमार पोंगा पंडित कहते हैं। रणधीर ने पोंगा पंडित नामक एक फिल्म में काम किया है। साजिद ने बौने, काले और बहरे लोगों का कुछ जगह मजाक बनाया है जो अखरता है। फिल्म की लंबाई पर भी साजिद का नियंत्रण नहीं है और कुछ फाल्तू के दृश्य हटाए जा सकते हैं। फिल्म का संगीत फिल्म की थीम के अनुरूप है। कुछ गाने अच्छे हैं तो कुछ ब्रेक लेने के काम आते हैं। ‘पप्पा तो बैंड बजाए’, ‘राइट नाऊ’ और ‘अनारकली’ की कोरियोग्राफी और फिल्मांकन उम्दा है। अनारकली के लिए अच्छी सिचुएशन बनाई गई है। साजिद-फरहद के लिखे संवाद उम्दा हैं। अक्षय कुमार बेहतरीन फॉर्म में नजर आए। उनकी टाइमिंग, डायलॉग डिलेवरी और एक्सप्रेशन बढ़िया हैं। जॉन अब्राहम की एक्टिंग खराब है, लेकिन इस कॉमेडी फिल्म में उनकी इस कमी को खूबी बनाया गया है। रितेश देशमुख अच्छे हास्य कलाकार हैं, लेकिन उनका पूरा उपयोग नहीं किया गया है। श्रेयस तलपदे सिर्फ गिनती बढ़ाने के लिए हैं। हीरोइनों में असिन और जैकलीन को ज्यादा फुटेज मिला है और जैकलीन की तुलना में असिन बेहतर रही हैं। जरीन और शाजान को सिर्फ ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया है। मिथुन चक्रवर्ती भी रंग में नजर आए। उनके तथा अक्षय के बीच के सीन अच्छे लिखे गए हैं। डब्बू (रणधीर कपूर) और चिंटू (ऋषि कपूर) हंसाने में सफल रहे हैं। बोमन ईरानी ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। आखिरी पास्ता के रूप में चंकी पांडे और जॉनी लीवर ने भी अपना काम बखूबी किया है। ‘हाउसफुल 2’ माइंडलेस कॉमेडी होने के बावजूद मनोरंजन करती है। इसे दिमाग के साथ नहीं बल्कि कोला और पॉपकॉर्न के साथ देखा जाना चाहिए। ",1 "अक्सर सीक्वल अपने पहले भाग की तुलना में कमजोर रहते हैं, लेकिन 'जॉली एलएलबी 2' इस मामले में अपवाद है। अक्षय कुमार अभिनीत यह फिल्म अपने पहले भाग (जो अच्छा था) से आगे है। 'जॉली‍ एलएलबी' में भारत की न्याय व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर व्यंग्य किया गया था। साथ ही दिखाया गया था कि किस तरह वकील मुकदमों की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं। 'जॉली एलएलबी 2' में भी यही सब बाते हैं, लेकिन फर्जी एनकाउंटर वाला प्रकरण और अक्षय कुमार इस फिल्म को अलग लुक देते हैं। कानपुर का रहने वाला वकील जगदीश्वर मिश्रा उर्फ जॉली (अक्षय कुमार) लखनऊ में एक वकील का सहायक है। वह अपना चेम्बर चाहता है, लेकिन उसकी काबिलियत देखते हुए उसका बॉस उससे घरेलू काम करवाता है। अपना चेम्बर खरीदने के चक्कर में वह एक विधवा हिना सिद्दीकी को धोखा देता है। हिना आत्महत्या कर लेती है और जॉली अपने आपको कसूरवार मान कर हिना का मुकदमा खुद लड़ने का फैसला करता है, जहां उसका मुकाबला शहर के नामी वकील माथुर (अन्नू कपूर) से होता है। हिना के मामले का जब जॉली अध्ययन करता है तो उसे पता चलता है कि यह मुकदमा आसान नहीं है। उसे कई शक्तिशाली लोगों से लड़ाई मोल लेना होगी। किस तरह से जॉली जूझता है, यह फिल्म का सार है। फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद और निर्देशन सुभाष कपूर का है। उनकी लिखी कहानी ठीक है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने स्क्रीनप्ले और संवाद का कलेवर कहानी पर चढ़ाया है वो फिल्म को खास बना देता है। सुभाष के स्क्रीनप्ले में तमाम तरह के उतार-चढ़ाव हैं जो फिल्म के शुरू होने से लेकर तो अंत तक दर्शकों को बांध कर रखते हैं। > जॉली एलएल बी 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें> जॉली एलएल बी 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें> आधी फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा है और एक कमरे से कैमरा बाहर नहीं निकलता है, यहां पर दर्शक बोर हो सकते थे, लेकिन फिल्म में कोर्ट रूम ड्रामा इतने मनोरंजक तरीके से पेश किया गया है ‍कि दर्शकों का ध्यान कही नहीं भटकता। दर्शकों को अक्षय कुमार की 'रुस्तम' भी याद होगी जिसमें भी कोर्ट रूम ड्रामा था, लेकिन जॉली एलएलबी 2 का कोर्ट रूम ड्रामा ज्यादा रियल लगता है। फर्जी एनकाउंटर कर प्रमोशन हासिल करने वाले पुलिस ऑफिसर्स की पोल भी फिल्म खोलती है और इस तरह के कई किस्से हम पढ़ और सुन चुके हैं। इस बात को कहानी में अच्छे से गूंथा गया है। फिल्म यह भी बताती है कि किस तरह व्यवस्थाएं ईमानदार को बेईमान और बेईमान को ईमानदार के रूप में पेश करती है। स्क्रिप्ट में कमियां भी हैं, जैसे, कुछ बातें जॉली के लिए बेहद आसान कर दी गई है। उसे आसानी से सबूत हाथ लग जाते हैं और वह मुख्य अपराधी तक भी पहुंच जाता है। कहीं बात को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर बता दिया गया है, लेकिन मनोरंजन के बहाव में ये बातें छिप जाती हैं। दर्शक इनकी उपेक्षा कर देता है। निर्देशक के रूप में भी सुभाष कपूर प्रभावित करते हैं। जॉली सीरिज की टोन को उन्होंने बरकरार रखा है। उत्तर भारत के मिजाज को प्रस्तुत करने में आनंद एल राय और सुभाष कपूर का जवाब नहीं है। पूरी फिल्म में उत्तर प्रदेश का मिजाज उभर कर सामने आता है। फिल्म का पहला सीन ही यहां की चरमराई व्यवस्था पर करारा तंजा है। अदालत के भीतर और अंदर की बातों को भी बारीकी से पेश किया गया है। अंधेरे बदबूदार कमरों में किस तरह न्याय किया जाता है फिल्म यह बात दर्शाने में सफल रही है। सुभाष कपूर ने फिल्म में मनोरंजन का ग्राफ कभी की गिरने नहीं दिया है और इसके लिए उनकी तारीफ की जा सकती है। फिल्म में कुछ इमोशनल सीन भी है जो दिल को छूते हैं। फिल्म से कुछ वकील नाराज बताए जा रहे हैं, लेकिन फिल्म देखने के बाद उनकी नाराजगी दूर हो जाएगी। आखिर किस पेशे में बुरे लोग नहीं होते? यदि यहां माथुर जैसा खुर्राट वकील है जो पैकेज बताकर काम करता है तो दूसरी ओर जॉली जैसा अच्छे वकील भी है जो सच्चाई के लिए किसी से भी भिड़ जाता है। फिल्म जजों के दर्द को भी बयां करती है। तीन करोड़ मुकदमे पेडिंग पड़े हैं और इक्कीस हजार जज हैं, तो देर तो होनी ही है। अच्छे वकील, बुरे वकील और एक जज की जुगलबंदी बहुत कुछ फिल्म में बयां करती है। अक्षय कुमार के करियर की बेहतरीन फिल्मों में जॉली एलएलबी 2 का नाम शामिल रहेगा। अपने किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है। एक मस्तमौला इंसान से एक संजीदा इंसान में तब्दील होने वाली बात को उन्होंने अपने अभिनय से दर्शाया है। उनकी कॉमिक टाइमिंग भी बढ़िया रही है। अन्नू कपूर ने एक नामी वकील के रूप में वह सब किया है कि दर्शक उनसे नफरत करें और यही उनकी कामयाबी है। सौरभ शुक्ला ने जज के रूप में दर्शकों को खूब हंसाया है। उनका नजदीक से पढ़ना, पौधे को पानी डालना, बिटिया की शादी का टेंशन और कोर्ट के माहौल को हल्का करने की कोशिश करना दर्शकों को खूब हंसाता है। हुमा कुरैशी का रोल बड़ा तो नहीं है, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। हिना के रूप में सयानी गुप्ता ने बहुत उम्दा एक्टिंग की है। उनका वो सीन कमाल का है जब उन्हें पता चलता है कि जॉली ने उसके साथ धोखा किया है। फिल्म के अन्य कलाकार भी मंजे हुए हैं। फिल्म के संवाद चुटीले हैं। 'गो पागल' और 'बावरा मन' गाने सुनने में अच्छे लगते हैं। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो निर्देशक : सुभाष कपूर संगीत : मीत ब्रदर्स, विशाल खुराना, मंज मौसिक, चिरंतन भट्ट कलाकार : अक्षय कुमार, हुमा कुरैशी, अन्न कपूर, सौरभ शुक्ला, कुमु‍द मिश्रा, सयानी गुप्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 31 सेकंड ",1 "बैनर : हरी ओम एंटरटेनमेंट कं., थ्रीज़ कंपनी, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : फराह खान, अक्षय कुमार, शिरीष कुंदर निर्देशक : शिरीष कुंदर संगीत : गौरव डगाँवकर कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, श्रेयस तलपदे, मिनिषा लांबा, असरानी, चित्रांगदा सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 45 मिनट जोकर फिल्म से अक्षय कुमार इतने नाराज हुए कि फिल्म में अपना पैसा लगा होने के बावजूद उन्होंने फिल्म का प्रमोशन ही नहीं किया जिससे फिल्म के रिलीज होने के पहले ही फिल्म के प्रति नकारात्मक माहौल बन गया। इस पर फिल्म के निर्देशक शिरीष कुंदर ने एक इंटरव्यू में कहा कि उनका काम बोलेगा। ‘जोकर’ देख कर उनका काम ये बोलता है कि फिल्म ऐसी नहीं बनाया जाना चाहिए। ‘जोकर’ के नाम पर उन्होंने जो तमाशा दिखाया है वो बेहद बचकाना है। शायद शाहरुख खान ने इसीलिए जोकर करने से मना कर दिया था, लेकिन शिरीष को अपनी‍ स्क्रिप्ट पर विश्वास था और उन्होंने जिद पर आकर अक्षय को लेकर फिल्म बना डाली। शिरीष ये तय ही नहीं कर पाए कि ये फिल्म वे बच्चों को ध्यान में रखकर बना रहे हैं या बड़ों के लिए। दोनों उम्र के वर्गों को फिल्म पसंद आए इसकें लिए सही तालमेल जरूरी होता है, लेकिन शिरीष इसमें बुरी तरह असफल रहे। जब फिल्म का निर्देशक कमजोर हो तो इसका असर फिल्म के हर डिपार्टमेंट पर पड़ता है। जोकर के साथ भी यही हुआ। अभिनय, स्क्रिप्ट, संगीत सहित हर मामले में फिल्म बुरी है। भारत के मैप में पगलापुर नामक गांव को स्थान नहीं‍ मिलने के लिए जो तर्क दिया है वो बेहद लचर है। भारत के आजाद होने के कुछ महीने पहले एक अंग्रेज ने भारत का नक्शा बनाया। वह पगलापुर जाकर अपने नक्शे को पूरा करना चाहता था, लेकिन उस गांव पर पागलखाने से भागे पागलों ने कब्जा कर लिया। वह अंग्रेज पगलापुर नहीं जा पाया और उस गांव को भारत के नक्शे में दिखाए बिना उसने भारत का नक्शा पास कर दिया। बिना गांव में जाए भी वह मैप में पगलापुर को दर्शा सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। सवाल ये भी उठता है कि नक्श बनाने के लिए क्या वह अंग्रेज भारत के हर गांव में गया था? पगलापुर गांव में न बिजली है और न पानी। आजादी के वर्षों बाद भी उस गांव के बारे में कोई नहीं जानता। वहां के लोग पागल जैसी हरकतें करते हैं। कोई अपने आपको लालटेन समझ कर उलटा लटका रहता है तो कोई हवाई जहाज को देख यह समझ बैठता है कि हिटलर ने हमला कर दिया है। पगलापुर में सिर्फ मर्द ही नजर आते हैं, औरतें ढूंढे नहीं मिलतीं। इन पागलों के बीच एक नौजवान अगस्त्य (अक्षय कुमार) अमेरिका जाकर वैज्ञानिक (?) बन जाता है। गांव में आकर वहां की हालत देख बड़ा निराश होता है। पगलापुर को इंटरनेशनल मेप पर लाने के लिए वह ऐसी फिजूल हरकत करता है कि दुनिया भर का मीडिया, पुलिस, सेना, एफबीआई और नासा के वैज्ञानिक तक वहां पहुंच जाते हैं, लेकिन कोई भी पगलापुर के पागलों की चालाकी समझ नहीं पाते। कद्दू, तरबूज, पपीते, करेले और मिर्च से बनाए गए एलियंस के झूठ को वे पकड़ नहीं पाते। टैंक और हाथ में बंदूक लिए खड़े सैनिक बस एलियंस को निहारते रहते हैं। वे आगे बढ़कर उन्हें पकड़ते भी नहीं। स्क्रिप्ट में इस तरह की इतनी खामियां हैं कि एक किताब लिखी जा सकती है। फिल्म के निर्देशक और लेखक ने दर्शकों को भी पगलापुर के निवासियों की तरह मान लिया और यह समझ कर माल परोसा कि दर्शक सब कबूल कर लेंगे। शिरीष कुंदर ने कई फिल्मों से प्रेरणा ली, फिर भी अच्छा काम नहीं कर सके। उनका आइडिया अच्छाष है, लेकिन उसको फिल्म में उतारने में वे नाकाम रहे। फिल्म का नाम जोकर क्यों रखा, इसके पक्ष में उन्होंने कुछ संवाद और सीन डाल दिए, जो कि स्क्रिप्ट में फिट नहीं बैठते। आधी से ज्यादा फिल्म में अक्षय कुमार ने अनमने ढंग से काम किया है। उन्हें अपनी गलती शायद समझ में आ गई थी, इसलिए किसी तरह उन्होंने फिल्म पूरी की। हर ‍हीरो रिलीज के पहले अपनी फिल्म के बारे में कई झूठी बातें बोलता है, लेकिन अक्षय इस फिल्म को लेकर इतने शर्मिंदा हैं कि झूठ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। सोनाक्षी सिन्हा के हिस्से में एक दमदार डायलॉग तक नहीं आया और पूरी फिल्म में वे अपने मोटापे को छिपाते हुए नजर आईं। श्रेयस तलपदे एक अजीब सी भाषा पूरी फिल्म में बोलते रहे। क्यों? इसका जवाब नहीं मिलता। उनकी भाषा सिर्फ एलियंस ही समझते हैं। मिनिषा लांबा, संजय मिश्रा, असरानी, आर्य बब्बर जैसे कई कलाकार फिल्म में हैं, लेकिन उनका पूरी तरह उपयोग नहीं‍ किया गया। फिल्म के गाने ऐसे हैं कि सिनेमाघर छोड़ने के बाद एक भी गाना याद नहीं रहता। चित्रांगदा सिंह पर फिल्माया गया आइटम सांग एकदम ठंडा है। कुल मिलाकर ‘जोकर’ समय और धन की बर्बादी है। ",0 "कहानी: बद्रीनाथ को अपने लिए एक टिपिकल दुल्हन की तलाश है, वैदेही को इंडिपेंडेंट लाइफ पसंद है। उन्हें मिलकर परम्परा को तोड़ना है और अपने किरदार को दोबारा परिभाषित करना है। रिव्यू: 'बद्रीनाथ की दुल्हनियां' एक ऐसी फिल्म है, जिसमें सामाजिक मुद्दों की भरमार है और जिसे धर्मा प्रॉडक्शन ने पूरी सावधानी के साथ हैंडल किया है। लेकिन यहां हैंडल यानी संभालने का काम काफी चालाकी से किया गया है। झांसी और कोटा जैसे छोटे से शहर की पृष्ठभूमि पर है इस फिल्म की कहानी, जहां पितृसत्तात्मक समाज का ही बोलबाला है। यह फिल्म बद्रीनाथ (वरुण धवन) नामक एक एक लड़के की कहानी है, जो किसी साहूकार का बेटा और अपने लिए दुल्हन की तलाश में लगा हुआ है। उसकी मुलाकात किसी शादी में वैदेही नाम की एक लड़की से होती है और फिर बद्री शादी के लिए उसके पीछे ही पड़ जाता है। लेकिन, वैदेही शादी को लेकर समाज के प्रेशर के आगे झुकने से इनकार कर देती है। वह छोटे शहर की लड़की जरूर है, लेकिन उसके अपने विचार हैं, महत्वकांक्षाएं हैं और सबसे अहम किसी मुद्दे पर स्टैंड लेने की उसमें एक अलग हिम्मत है। वैदेही का किरदार कहानी का मुख्य आधार है। वह बेहद गुस्से वाली लेकिन सच्ची लड़की है। उसे पीछे धकेल दिया जाता है, लेकिन वह फिर उठकर आगे आ जाती है। वह अपने सपनों को सुरक्षित रखती है और कोई उसे बेवकूफ नहीं बना सकता। उसके पिता को दिल की बीमारी भी है। वैदेही के जरिए, फिल्म ने कई अहम मुद्दों को उठाया है, जिसमें लिंगभेद से जुड़े मुद्दे, महिलावाद, सहमति जैसे मुद्दे शामिल हैं। लेकिन कहानी को जिस तरह से दिखाया गया है (विस्तार से भरे सॉन्ग सीक्वंस, फ्लैशबैक और सिनेमैटिक मोमेंट्स), ये फिल्म की रफ्तार को कम करते हैं। एक वक्त तो ऐसा लगता है कि सभी किरदार पब्लिक सर्विस अनाउंसमेंट कर रहे हों, जो कि काफी काल्पनिक सा लगता है। यह एक ऐसी कहानी है, जिसके क्लाइमैक्स का अंदाज़ा आप बड़ी आसानी से लगा लेते हैं। तो लगभद दो घंटे सीट पर बैठकर उस चीज का इंतज़ार करना, जिसके बारे में आपको पहले से ही पता हो यह काफी असहज करता है। लेकिन, फिल्म की चकाचौंध और इसके मजेदार व फनी डायलॉग आपको बांधे रखते हैं। वरुण और आलिया स्क्रीन पर दमदार लगे हैं। इनकी खूबसूरत जोड़ी आपके चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती है। बद्री के रूप में धवन काफी प्यारे लगे हैं। उन्होंने कुछ हाई ड्रामा सीन को भी काफी प्रभावशाली तरीके से निभाया है। आलिया ने भी बेहतरीन प्रदर्शन किया है, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि फिल्म में उनकी बोली और भाषा जुहू और झांसी के बीच फंस कर रह गई हो। ",0 " फिल्म में हरक्यूलिस के अपने गम हैं। अपने परिवार को खोने का दु:ख है और उसकी कोई आरजू नहीं है। ताकतवर होने के बावजूद वह खुश नहीं है। 'हरक्यूलिस' नामक फिल्म देखने के लिए दर्शक इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि उन्हें हरक्यूलिस की दमदार बाजुओं के कमाल देखने को मिलेंगे, लेकिन फिल्म में इस तरह के दृश्यों की कमी है। बावजूद इसके टाइम अच्छी तरह से कट जाता है। एम्फीरस, आटोलाइकस, टाइडियस, एटलांटा नामक योद्धाओं का हरक्यूलिस लीडर है। ईसा से 358 वर्ष पूर्व के ये लोग सोने के सिक्कों के लिए काम करते हैं। लॉर्ड कोटिस की ओर से अर्गेनिया नामक महिला हरक्यूलिस से संपर्क कर कहती है कि वह (हरक्यूलिस) जालिम सिपाहसालार से उनके साम्राज्य को बचाने में उनकी मदद करे। हरक्यूलिस को उसके वजन बराबर सोना देने पर बात पक्की हो जाती है। व्यापारी और किसानों को युद्ध लड़ने का हरक्यूलिस प्रशिक्षण देता है। इस लड़ाई को लेकर फिल्म में बहुत माहौल बनाया गया है, लेकिन जब लड़ाई होती है तो बड़ी आसानी से हरक्यूलिस अपने से तीन गुना बड़ी सेना पर विजय हासिल कर लेता है। यहां दर्शकों को अपेक्षा से कम एक्शन देखने को मिलता है। इस विजय के बाद हरक्यूलिस को महसूस होता है कि उनका गलत उपयोग किया गया है और यही से फिल्म में नया टर्न देखने को मिलता है जिसका अंत एक जबरदस्त क्लाइमैक्स के साथ होता है। इमोशन और एक्शन का संतुलन बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर दर्शक इस संतुलन को पसंद करे। फिल्म की कहानी सीधी है और इसमें खास उतार-चढ़ाव नहीं है, लेकिन फिल्म की गति को इतना तेज रखा गया है कि दर्शक को ज्यादा सोचने का समय नहीं मिलता। उस दौर दौर के माहौल को बेहतरीन तरीके से परदे पर उतारा गया है। फिल्म के सेट और एक्शन देखने लायक है, लेकिन थ्री-डी इफेक्ट्स उतने प्रभावी नहीं है। दृश्यों को ज्यादा लंबा खींचा नहीं गया है और फिल्म की एडिटिंग प्लस पाइंट है। दूसरा प्लस पाइंट है ड्वेन जॉनसन जिन्होंने हरक्यूलिस का किरदार निभाया है। इस रोल को निभाने के लिए जो उन्होंने बॉडी बनाई है वो देखने लायक है। उनकी फिजिक देख विश्वास होता है कि इस बंदे में हाथियों से ज्यादा ताकत है। ड्वेन जॉनसन ने एक्शन के साथ-साथ इमोशनल सीन भी अच्छे से निभाए हैं। जॉनसन के होते हुए दूसरे कलाकारों को ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिले हैं, लेकिन कोटिस के रूप में जॉन हर्ट अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। कुल मिलाकर यह एडवेंचर मूवी कुछ कमियों के बावजूद दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब रहती है। निर्माता : ब्रेट रेटनर, बैरी लेविन, ब्यू फ्लि न निर्देशक : ब्रेट रेटनर कलाकार : ड्वेन जॉनसन, इयॉन मैकशेन, जॉन हर्ट, जोसेफ फिंनेस, पीटर मूलन अवधि : 1 घंटा 38 मिनट राजा कोटिस अपने सैनिकों को कहता है कि हरक्यूलिस कोई देवता नहीं आम इंसान है, आगे बढ़ो और उसे पकड़ लो। हजारों सैनिकों के खिलाफ मुट्ठी भर साथियों के साथ लड़ रहा हरक्यूलिस तब कई मीटर ऊंची और सैकड़ों टन वजनी पत्थर से बनी मूर्ति को उखाड़ कर गिरा देता है। यह नजारा देख सारे सैनिकों के हौंसले पस्त हो जाते हैं। वे मान लेते हैं कि भले ही यह इंसान हो, लेकिन आम नहीं है। क्लाइमेक्स में इस सीन के जरिये हरक्यूलिस की ताकत का प्रदर्शन किया गया है। दर्शक सोचते हैं कि काश ऐसे और सीन देखने को मिलते जिसमें यह ग्रीक हीरो अपनी ताकत का इजहार करता। ब्रेट रेटनर द्वारा निर्देशित 'हरक्यूलिस' में दिखाया गया है कि हरक्यूलिस के कारनामों के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर सुनाए गए हैं। नि:संदेह उसने नेमिन नामक शेर को मार डाला था, नौ सिर वाले नाग की हत्या कर दी थी, इनके सहित बारह ऐसे कारनामे किए थे जो आम इंसान के बस में नहीं थे, लेकिन आखिरकार वह भी एक इंसान है। उसके कारनामों को इसलिए बढ़ा कर बताया गया ताकि दुश्मनों के मन में खौफ पैदा हो। ",1 " बस, इस सीरिज को आगे बढ़ाना था इसलिए यह फिल्म बना दी गई। इस सीरिज की खासियत रहस्य, षड्यंत्र, डबल क्रॉस, धोखा है, लेकिन तीसरे पार्ट में सिर्फ बोरियत है। उन्हीं किरदारों को लेकर एक कमजोर सी कहानी लिख दी गई जो बिलकुल भी अपील नहीं करती। हैरत तो इस बात पर है कि इस तरह की कहानी पर फिल्म बनाने की हिम्मत ही कैसे की गई? साहेब और बीवी के किरदार तो तय हैं, गैंगस्टर बदलता रहता है और यही किरदार अलग रंग लिए रहता है। पहले पार्ट में यह किरदार रणदीप हुड्डा ने निभाया था और दूसरे भाग में इरफान खान ने। तीसरे पार्ट में संजय दत्त 'गैंगस्टर' के रूप में नजर आए हैं। इस किरदार को ठीक से नहीं लिखा गया है और संजय दत्त ने भी बहुत ही बुरी एक्टिंग कर मामले को और बिगाड़ दिया है। दो घंटे बीस मिनट की इस फिल्म में दो घंटे बोरियत से भरे हुए हैं। स्क्रीन पर चल रहे ड्रामे में बिलकुल भी रूचि पैदा नहीं होती। न यह मनोरंजक है और न ही इसमें कोई उतार-चढ़ाव। क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? इस बात में दर्शकों की कोई रूचि नहीं रहती। निर्देशक और लेखक क्या बताना चाहते हैं, समझ ही नहीं आता। आखिरी के बीस मिनट में जरूर थोड़ा रोमांच पैदा होता है, लेकिन तब तक फिल्म देखने की इच्छा ही खत्म हो जाती है। बीस मिनट के रोमांच के लिए दो घंटे तक बोर होना महंगा सौदा लगता है। फिल्म की कहानी में भी कई झोल हैं। संजय दत्त और उनके पिता के संबंध क्यों खराब हैं, यह बताया ही नहीं गया है। संजय दत्त की अपने भाई से भी क्यों नहीं बनती, इसका जवाब भी नहीं मिलता। क्लाइमैक्स में 'रशियन रौलेट' नामक खेल के आधार पर जीत-हार का फैसला करना भी समझ से परे है। इतनी बड़ी समस्या न तो जिमी शेरगिल के सामने रहती है और न ही संजय दत्त के सामने की वे जिंदगी को दांव पर लगा दें। वो भी उस शख्स के कहने पर जो धोखा देने के लिए बदनाम है। इस तरह की कमियां फिल्म को और कमजोर बनाती है। संजय चौहान के साथ मिलकर तिग्मांशु न तो ढंग की स्क्रिप्ट लिख पाए और निर्देशक के रूप में भी उन्होंने निराश किया है। तीसरे पार्ट में वे अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं दे पाए। फिल्म का पहला घंटा उन्होंने बरबाद किया और अपनी बात कहने में बहुत ज्यादा समय लगाया। उन्हें बड़ा बजट और बड़ा सितारा मिला, लेकिन यह फिल्म की बेहतरी के कुछ काम नहीं आया। कबीर बेदी, नफीसा अली, दीपक तिजोरी, सोहा अली खान के किरदारों पर उन्होंने कोई मेहनत नहीं की और ये सब अधूरे से लगते हैं। अभिनय में जिमी शेरगिल और माही गिल ने अपनी चमक दिखाई। साहेब के रोल में जो एटीट्यूड चाहिए उसे जिमी ने हर फिल्म में सही पकड़ा है। बीवी के रूप में माही गिल ने एक बार फिर दमदार अभिनय किया है। संजय दत्त के अभिनय को देख ऐसा लगा कि उनकी यह फिल्म करने में कोई रूचि नहीं थी। चित्रांगदा सिंह का रोल महत्वहीन है। दीपक तिजोरी, कबीर बेदी और नफीसा अली निराश करते हैं। सोहा अली खान सिर्फ नाम के लिए फिल्म में थीं। फिल्म का संगीत बेदम है। एडिटिंग बेहद लूज़ है। सिनेमाटोग्राफी और अन्य तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं। साहेब बीवी और गैंगस्टर 3 देखने से बेहतर है इसका पहला पार्ट फिर एक बार देख लिया जाए। निर्माता : राहुल मित्रा, तिग्मांशु धुलिया निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया संगीत : राणा मजूमदार, अंजन भट्टाचार्य, सिद्धार्ध पंडित कलाकार : संजय दत्त, माही गिल, जिमी शेरगिल, चित्रांगदा सिंह, सोहा अली खान, कबीर बेदी, नफीसा अली, दीपक तिजोरी, ज़ाकिर हुसैन सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 20 मिनट 12 सेकंड ",0 "कुछ वक्त पहले काजोल और शाहरुख की सुपरहिट जोड़ी 'दिलवाले' में नजर आई, लेकिन फिल्म बॉक्स आफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई। इस फिल्म के बाद काजोल ने एकबार फिर लंबा ब्रेक लिया और अब अपनी होम प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले बनी बनी इस फिल्म में यकीनन साबित कर दिखाया कि ऐक्टिंग के मामले में काजोल का जवाब नहीं। हम आपसे इस फिल्म को देखने की सिफारिश सिर्फ इसलिए कर रहे है कि इस फिल्म में काजोल अपनी शानदार दमदार ऐक्टिंग के दम पर आपका दिल जीत सकती है। काश, इस प्रोजेक्ट पर फिल्म के डायरेक्टर और राइटिंग टीम भी थोड़ी ज्यादा मेहनत करती तो फिल्म की सुस्त रफ्तार और कमजोर कहानी में कुछ रफ्तार आ पाती। हेलिकॉप्टर ईला को एक ऐसी फिल्म की कैटेगिरी में रखा जा सकता है जो मां-बेटे के बीच इमोशनल रिश्ते के साथ साथ सिंगल मदर की मुश्किलें और उसका दर्द भी शेयर करती है। अपने बेटे की की बेहतरीन परवरिश और उसे अपना पूरा वक्त देने की चाह में मां ने अपने कामयाब करियर को अलविदा कर दिया, लेकिन डायरेक्टर सरकार एक सिंगल मदर के इस स्ट्रगल और उसके ख्वाबों को पूरी ईमानदारी के साथ पर्दे पर पेश करने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाए। करीब दो घंटे की फिल्म के साथ अगर दर्शक पूरी तरह से बंध नहीं पाता तो इसकी वजह कमजोर स्क्रीनप्ले और सुस्त निर्देशन। बता दें, प्रदीप सरकार के निर्देशन में बनी यह फिल्म आनंद गांधी के गुजराती नाटक बेटा कागदो पर आधारित है, काजोल अपने पहले सीन से लेकर आखिर तक फिल्म में ऐक्टिंग से जान भरने का काम लिया, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट ने पूरा खेल बिगाड़ दिया. वहीं फिल्म मे काजोल के बेटे का रोल निभा रहे ऋद्धि सेन ने अपने किरदार को भरपूर तरीके से जिया। कहानी: सिंगल मदर ईला रायतुरकर (काजोल) अपने बेटे विवान (ऋद्धि सेन) की बेहतर परवरिश के लिए अपने कामयाब सिंगर बनने के सपने का उस वक्त छोड़ देती है जब उसका सपना साकार होने वाला है। उस वक्त ईला कामयाबी के बेहद पास है, लेकिन वह चाहती है कि करियर शुरू करने से पहले शादी करके घर बसा लिया जाए, अपने ब्वॉय फ्रेंड अरुण (तोता राम चौधरी) के साथ मैरेज करके ईला सिंगर बनने के सपने को साकार करने में लग जाती है, इसी बीच ईला मां बन जाती है, हालात कुछ ऐसे बनते है कि अरुण एक दिन अचानक गायब हो जाता है, ईला अब सिंगर बनने का सपना त्याग कर अपने बेटे विवान की बेहतरीन परवरिश और उसके साथ पूरा वक्त गुजारने के लिए खुद को विवान और घर के बीच समेट लेती है। विवान को पसंद नहीं कि हर वक्त उसकी मां उसका साया बनकर रहे, कहानी में टर्निंग प्वाइंट उस वक्त आता है जब विवान के साथ और ज्यादा वक्त गुजारने की चाह में ईला अपनी अधूरी स्टडी पूरी करने का फैसला करके उसी के कॉलेज में ऐडमिशन लेती है और यहां भी दोनों एक ही क्लास रूम में आमने सामने हैं।ऐक्टिंग: यकीनन, काजोल ने फिल्म के पहले सीन से लेकर आखिर सीन तक अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से जान डाली है। काजोल के बेटे विवान के रोल में ऋद्धि सेन ने परफेक्ट ऐक्टिंग की है। अन्य कलाकारों में तोता राय चौधरी अपने रोल में जमे है। डायरेक्शन/स्क्रिप्ट: डायरेक्टर प्रदीप सरकार ने फिल्म की शुरुआत तो काफी अच्छी की लेकिन 15-20 मिनट के बाद ही फिल्म बोझिल लगने लगती है। इंटरवल से पहले की फिल्म ईला के आसपास घूमती है.वहीं इंटरवल के बाद कहानी को जबरन ऐसे खींचा गया कि दर्शक बोरियत महसूस करने लगते है। हां, इस दौरान भी काजोल ने अपनी लाजवाब ऐक्टिंग से कई बार हंसाया और कई बार आंखें नम भी कीं। डायरेक्टर प्रदीप सरकार ने एक कमजोर स्क्रिप्ट पर एक कमजोर फिल्म बनाई जो टिकट खिड़की पर शायद ही टिक पाए। फिल्म का एक गाना यादों की अलमारी हॉल से बाहर आने के बाद भी याद रहता है।क्यों देखें: अगर आप काजोल के पक्के फैन हैं तो आप इस फिल्म को सिर्फ अपनी चहेती ऐक्ट्रेस की शानदार ऐक्टिंग के लिए ही देखने जाएं।",0 "बैनर : जेएमजे एंटरटेनमेंट प्रा.लि., एलकेमिआ फिल्म्स निर्देशक : प्रशांत चड्ढा संगीत : सलीम मर्चेण्ट- सुलेमान मर्चेण्ट कलाकार : सचिन जोशी, केंडिस बाउचर, आर्य बब्बर, रवि किशन, दलीप ताहिल, सचिन खेड़ेकर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 5 मिनट * 13 रील ‘अजान’ पर अंग्रेजी फिल्मों का प्रभाव है। शॉट टेकिंग और स्टाइल में ये इंग्लिश फिल्मों का मुकाबला करती है, लेकिन बारी जब स्क्रीनप्ले की आती है तो मामला बिगड़ जाता है। स्क्रीनप्ले ऐसा लिखा गया है कि क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है, कुछ समझ में नहीं आता। सारे किरदार एक दौड़ते रहते हैं, देश बदलते रहते हैं, तकनीक को लेकर बातें होती रहती है, लेकिन पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक फिल्म दर्शकों पर अपनी पकड़ नहीं बना पाती। एक डॉक्टर जो कि पूर्व सीआईए एजेंट है, एबोला नामक वायरस के जरिये तबाही मचाना चाहता है। उसके निशाने पर भारत है। इस वायरस को वह भारतीयों के बीच फैलाकर उन्हें मौत की नींद सुलाना चाहता है। रॉ में काम करने वाला आर्मी ऑफिसर अजान खान (सचिन जोशी) उसके खिलाफ लड़ता है और उसके मंसूबों को नाकामयाब करता है। इस छोटी-सी कहानी को स्क्रीनप्ले के जरिये कई देशों में फैलाया गया है, कई किरदार और तकनीक घुसाई गई है, लेकिन यह सब इतना कन्फ्यूजिंग है कि स्क्रीन पर जो तमाशा चलता है उसमें कोई दिलचस्पी नहीं जागती। फिल्म की गति कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है जिससे कन्टीन्यूटी भी प्रभावित हुई है। ऐसा लगता है मानो एक सीन से दूसरे सीन पर कूदा जा रहा हो। किरदारों के बीच के संबंधों को भी ठीक से जोड़ा नहीं गया है। अजान की प्रेम कहानी भी बिलकुल प्रभावित नहीं करती है और जो सपना वह बार-बार देखता है उसके बारे में भी विस्तृत रूप से कुछ बताया नहीं गया है। फिल्म का क्लाइमेक्स सीन अजान की बुद्धि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। वह एक ऊँची पहाड़ी पर दुश्मनों से घिर गया है। उसके साथ एक छोटी लड़की है, जिसके खून के जरिये इबोला नामक वायरस से लड़ा जा सकता है। अजान उस लड़की को पैराशूट के सहारे नीचे फेंक देता है और खुद दुश्मनों से लड़कर जान दे देता है, जबकि वह खुद लड़की को गोद में लेकर पैराशूट के जरिये नीचे छलांग लगा सकता था। फिल्म की कहानी विश्वसनीय इसलिए भी नहीं लगती है क्योंकि फिल्म के हीरो सचिन जोशी में स्टारों वाली बात नहीं है। इस कहानी के लिए बड़ा स्टार चाहिए था। सचिन न दिखने में स्टार जैसे हैं और न ही उन्हें एक्टिंग आती है। शायद इसीलिए निर्देशक ने उन्हें बहुत कम संवाद बोलने के लिए दिए हैं। रविकिशन और आर्य बब्बर ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। केंडिस बाउचर का रोल छोटा है, लेकिन वे प्रभावित करती हैं। निर्देशक के रूप में प्रशांत चड्ढा ने फिल्म को स्टाइलिश लुक दिया है। शॉट बेहतरीन तरीके से फिल्माए हैं, लेकिन फिल्म के हीरो के चयन और कहानी कहने के तरीके में वे बुरी तरह मार खा गए। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है। विदेशी लोकेशन को ‍बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म के स्टंट्स विशेष रूप से उल्लेखनीय है, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले इन सभी विशेषताओं को बौना बना देता है। ",0 "'हम आपके हैं कौन' के बाद शादी की पृष्ठभूमि पर आधारित कई फिल्में बनी हैं और 'क्वीन' जैसी उम्दा फिल्म बनाने वाले विकास बहल ने भी 'डेस्टिनेशन वेडिंग' की पृष्ठभूमि पर 'शानदार' बनाई है जो किसी परी कथा की तरह लगती है। यह विकास बहल की 'हम आपके हैं कौन' है जो अपने बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के कारण दर्शकों को बांध कर रखती है। अरोरा और फंडवानी परिवार दिवालिया हो गए हैं, लेकिन यह बात वे एक-दूसरे के बारे में नहीं जानते। अपने कारोबार को चमकाने के लिए वे एक शादी की डील करते है जिसके तहत बिपिन अरोरा (पंकज कपूर) की बेटी ईशा (सना कपूर) की शादी हैरी फंडवानी (संजय कपूर) के भाई से तय हो जाती है। यह एक डेस्टिनेशन वेडिंग है जिस पर जम कर पैसा बहाया जा रहा है। शादी को ऑर्गेनाइज करने का जिम्मा जगजिंदर जोगिंदर (शाहिद कपूर) के हाथों में है। जगजिंदर जोगिंदर का दिल बिपिन की नाजायज बेटी आलिया (आलिया भट्ट) पर आ जाता है। जगजिंदर जोगिंदर को बिपिन बिलकुल पसंद नही करता, लेकिन नींद नहीं आने की बीमारी से पीड़ित आलिया को जगजिंदर अच्छा लगने लगता है। इस प्रेम कहानी के साथ शादी के नाम पर पैसे का भौंडा प्रदर्शन और अमीरों की हर बात को व्यवसाय के चश्मे से देखने की आदत को भी दिखाया गया है जिसके तहत एट पैक एब्स वाला लड़का 90 किलो ग्राम वाली एक लड़की से शादी के इसलिए तैयार हो जाता है क्योंकि उतने वजन का उसे सोना मिलेगा। मोटापे और फिटनेस को लेकर भी फिल्म में अच्‍छा खासा व्यंग्य किया गया है। फिल्म की कहानी बहुत ही साधारण है और इस तरह की कहानी कई बार हिंदी सिनेमा में दिखाई जा चुकी है, लेकिन निर्देशक का प्रस्तुतिकरण और कलाकारों का अभिनय फिल्म में आपकी रूचि जगाए रखता है। नसीरुद्दीन शाह के वाइस ओवर और शानदार एनिमेशन के साथ फिल्म शुरू होती है। फिल्म का पहला दृश्य जो कि शाहिद कपूर और पंकज कपूर के बीच फिल्माया गया है, फिल्म के मूड को सेट कर देता है। शाहिद, पंकज और आलिया के किरदारों को आप तुरंत ही पसंद करने लगते हैं। फिल्म परी कथा जैसा आभास देती है जिसमें हर चीज़ खूबसूरत नजर आती है। पंकज-शाहिद-आलिया के बीच के मजेदार दृश्यों से फिल्म लगातार मनोरंजन करती है और इंटरवल तक बहती हुई चलती है। इंटरवल के बाद फिल्म फिल्म खींची हुई लगती है और थोड़ी बोरियत महसूस होती है क्योंकि कहने के लिए निर्देशक के पास कुछ बाकी नहीं रहता। 'सिंड्रेला' की कहानी अचानक 'दम लगा के हईशा' बन जाती है। यदि दूसरे भाग में जगजिंदर-आलिया की प्रेम कहानी को ज्यादा फुटेज दिया जाता तो बेहतर रहता, लेकिन इस हिस्से में रोमांस को लगभग भूला ही दिया गया है। बावजूद इन कमियों के फिल्म में ऐसे दृश्यों की भरमार है जो मनोरंजन करते रहते हैं, जैसे मशरूम-ब्राउनी वाला सीक्वेंस, करण जौहर का मेहंदी विद करण और ईशा का शादी में अपने कपड़े उतारना वाले दृश्य। निर्देशक विकास बहल ने 'डिज़्नी' की तरह खूबसूरत, रंगीन और सॉफ्ट फिल्म बनाने की कोशिश की है। उनका प्रस्तुतिकरण लाजवाब है, लेकिन दमदार कहानी न होने के कारण फिल्म उतनी प्रभावी नहीं बन पाई। हालांकि कहानी की कमी को उन्होंने अपनी कल्पनाशीलता से काफी हद तक ढंक कर खुशनुमा फिल्म बनाई है। उन्होंने रोमांस और पिता-पुत्री के रिश्ते को ताजगी के साथ पेश किया है। शानदार के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म का संगीत और बैकग्राउंड म्युजिक इसके प्लस पाइंट्स हैं और इसका सारा श्रेय संगीतकार अमित त्रिवेदी को जाता है। 'गुलाबो', 'शाम शानदार' और 'सेंटी वाली मेंटल' सुनने लायक हैं। इसके अलावा दो पुराने गानों 'नींद न मुझको आए' और 'ईना मीना डिका' को नए स्वरूप में पेश करने वाला प्रयोग भी अच्‍छा है। गीतों का फिल्मांकन आंखों को सुकून देता है। बैकग्राउंड म्युजिक पर खासी मेहनत की गई है। कलाकारों का चयन एकदम सटीक है। फिल्म के मूड के अनुरूप सभी ने थोड़ी ओवरएक्टिंग की है, लेकिन लाइन क्रास नहीं की है। वेडिंग प्लानर के रूप में शाहिद कपूर जमे हैं और अपने किरदार की स्मार्टनेस को उन्होंने बेहतरीन तरीके से जिया है। आलिया भट्ट राजकुमारी की तरह लगी हैं और उनकी एक्टिंग इतनी नेचुरल है कि लगता ही नहीं कि वे अभिनय कर रही हैं। पंकज कपूर के लिए इस तरह के रोल करना बाएं हाथ का खेल है। पंकज-शाहिद, पंकज-आलिया, शाहिद-आलिया की केमिस्ट्री बेहतरीन रही है। सना कपूर की शुरुआत अच्छी है। सुषमा सेठ ने मुंहफट दादी के रूप में कमाल किया है। संजय कपूर ने सिंधी बिजनेसमैन के रूप में लाउड एक्टिंग की है जो किरदार की डिमांड थी। कुल मिलाकर त्योहारों के मौसम में इस खुशमिजाज फिल्म को देखा जा सकता है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : अनुराग कश्यप, मधु मंटेना, विक्रमादित्य मोटवाने, करण जौहर निर्देशक : विकास बहल संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : शाहिद कपूर, आलिया भट्ट, पंकज कपूर, सना कपूर, संजय कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट 32 सेकंड ",1 "चंद्रमोहन शर्मा दो-तीन सप्ताह से 'उड़ता पंजाब' लगातार विवादों में था। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से गुजरने के बाद अब जब यह फिल्म दर्शकों की अदालत में आ चुकी है। इस फिल्म के केंद्र में पंजाब और नशे की लत है और इस बुराई को काफी हद तक ईमानदारी के साथ पेश किया गया है। फिल्म में गालियों की भरमार और आलिया भट्ट पर फिल्माए गए कई सीन्स पर यकीनन बहस हो सकती है। औसतन तीन-चार सीन्स के बाद आपको फिल्म में एक गाली सुनाई देगी। कोर्ट ने भी फिल्म को तीन डिस्क्लेमर और ए सर्टिफिकेट के साथ रिलीज करने का निर्देश दिया था। अगर आप डार्क अंदाज में रिऐलिटी से जुड़ी फिल्मों के शौकीन है तो दोस्तों के साथ एकबार देख सकते हैं। कहानी : पंजाब पुलिस में एएसआई सरताज सिंह (दिलजीत दोसांझ) अपने अफसरों के साथ मिलकर सीमापार से पंजाब में आने वाले ड्रग्स के ट्रक को अपने एरिया में बने बॉर्डर नाके से पार कराता है। पुलिस के आला अफसर जानते हैं कि सीमापार से आने वाले ये ट्रक लोकल एमएलए पहलवान के हैं। ऐसे में किसी में इन ट्रकों को रोकने का दम नहीं है। पहलवान अपने इन ट्रकों को नाके से पार कराने के एवज में पुलिस को मोटी रकम भी देता है। अचानक एक दिन सरताज को पता लगता है उसका छोटा भाई बल्ली भी ड्रग्स का आदी हो चुका है। ज्यादा नशा करने की वजह से उसकी हालत लगाातर बिगड़ रही है। सरताज अपने भाई को डॉक्टर प्रीति साहनी (करीना कपूर खान) के सेंटर में इलाज के लिए लाता है। अपने भाई की हालत देखकर सरताज भी डॉक्टर प्रीति के एनजीओ द्वारा नशे के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम का हिस्सा बन जाता है। हमेशा नशे में धुत रहने वाला टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) विदेश से पंजाब आकर बसा मशूहर पॉप सिंगर और यंग जेनरेशन का हीरो है। हर वक्त नशे में चूर रहने वाले टॉमी सिंह को पुलिस अरेस्ट कर लेती है, सात दिनों बाद टॉमी सिंह को जमानत मिलती है। हालांकि, इन सात दिनों में टॉमी बदल चुका है। बिहार से पंजाब में मजदूरी के लिए आई पिंकी (आलिया भट्ट) को खेतों में काम करते हुए एक दिन ड्रग्स का एक पैकेट मिलता है, जो बार्डर पार से खेतों में आकर गिरा है। यही पैकेट इस पिंकी को एक के बाद एक बड़ी मुसीबत में डाल देता है। ऐक्टिंग : गबरू टॉमी सिंह के किरदार में शाहिद कपूर ने कमाल की ऐक्टिंग की है। 'हैदर' के बाद शाहिद ने एक बार फिर खुद को बेहतरीन ऐक्टर साबित किया है। पंजाब पुलिस में एएसआई सरताज के रोल में दिलजीत ने निराश नहीं किया। करीना कपूर भी अपने रोल में फिट रहीं। तारीफ करनी होगी आलिया भटट की, जिन्होंने अपनी जीवंत और बेहतरीन ऐंक्टिंग से खुद को मौजूदा दौर की बेहतरीन ऐक्ट्रेस साबित किया। बिहार की मजूदर के किरदार में आलिया की गजब ऐक्टिंग इस फिल्म की नंबर वन यूएसपी है। 'हाईवे' के बाद आलिया ने एक बार फिर अपने फैन्स का दिल जीता। निर्देशन : डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने शुरू से अंत तक इस फिल्म को एक खास मुद्दे पर केंद्रित करके रखा है। अभिषेक ने पूरी ईमानदारी के साथ बॉक्स ऑफिस की परवाह किए बना इस प्रॉजेक्ट पर काम किया और कहानी के सभी किरदारों को पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया। स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक फिल्म कुछ ज्यादा डार्क शेड में है, वहीं अभिषेक ने पंजाब की कई रीयल लोकेशन्स पर फिल्म शूट की है जो कहानी का प्लस पॉइंट है। बेशक फिल्म में गालियों की जमकर भरमार है, लेकिन कहानी और किरदारों को माहौल के साथ जोड़ने के लिए यह शायद डायरेक्टर की मजबूरी रही होगी। डायरेक्टर अगर इन बेहद भद्दी गालियों से बचते तो ड्रग्स की बुराई को दर्शाती फिल्म एक खास टारगेट ऑडियंस के लिए ना होकर सिंगल स्क्रीन से मल्टिप्लेक्स कल्चर पर फिट बैठती। फिल्म का सेकंड हॉफ में दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेता है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का गाना 'चिट्टा वे' और इक कुड़ी मशहूर हो चुका है। बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के माहौल पर फिट बैठता है। क्यों देखें : अगर आप आलिया भट्ट के फैन है तो इस फिल्म को जरूर देखें। शाहिद और करीना कपूर को एक साथ किसी सीन में देखने जाएंगे तो अपसेट होंगे। पूरी फिल्म में दोनों किसी फ्रेम में नजर नहीं आते। 'हैदर' के बाद एकबार फिर शाहिद कपूर ने खुद को बेहतरीन ऐक्टर साबित किया। अगर आप हकीकत को बोल्ड अंदाज में पेश करतीं फिल्मों के शौकीन है तो फिल्म देखी जा सकती है। ",1 "चंद्रमोहन शर्मा अगर सूरज बड़जात्या और सलमान खान की पहली फिल्म 'मैंने प्यार किया' की बात की जाए तो बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के नए रेकॉर्ड बनाने वाली इस फिल्म से पहले बॉलिवुड में इन दोनों की कोई पहचान नहीं थी। आलम यह था राजश्री जैसे टॉप बैनर के तले बनी यह फिल्म बनने के कई महीने बाद तक रिलीज के इंतजार में डिब्बे में पड़ी रही थी। फिल्म जब रिलीज हुई तो पहले दिन पहले शो में बीस से तीस फीसदी की बेहद कमजोर ऑक्यूपेंसी रही, लेकिन पहले शो के बाद फिल्म ने राजश्री बैनर के तले बनी पिछली सभी फिल्मों की कलेक्शन और कामयाबी के रेकॉर्ड ब्रेक कर दिए। बस यहीं से सूरज और सलमान की जोड़ी को कामयाबी की गारंटी माना जाने लगा, लेकिन तीन घंटे लंबी इस फिल्म की कहानी इतनी ही छोटी है और सीन दर सीन देखकर ऐसा लगता है जैसे सूरज बेवजह फिल्म के हर सीन को लंबा करने पर तुले हैं। अगर सिनेमा हॉल के हाउसफुल शो में दर्शक इन लंबे सीन्स को पसंद करके ताली बजा रहे थे तो यकीनन यह सलमान के स्टारडम का कमाल ही कहा जाएगा। इस बार सूरज ने अपनी फिल्म पर दिल खोलकर पैसा लगाया। शीशमहल का सेट भव्य और गजब का नजर आता है। फिल्म और टीवी की खबरें सीधें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : प्रेम एक बड़े दिलवाला लेकिन सीधा-साधा राम भक्त है, जो संजय मिश्रा की राम-लीला कंपनी से जुड़ा है। रामलीला का मालिक बेशक कंजूस है, लेकिन उसका अपनी रामलीला को करने का स्टाइल बेहद फैशनेबल और भव्य है। रामलीला में प्रेम जो भी कमाता है उसका बड़ा हिस्सा रानी मैथिली (सोनम कपूर) के एनजीओ में दान करता है। राजकुमारी मैथिली के सोशल कामों का प्रेम इस तरह दीवाना है कि किसी भी सूरत में एक बार राजकुमारी से मिलना चाहता है। प्रेम की इस कहानी के साथ फिल्म में प्रीतमपुर के युवराज विजय सिंह (सलमान खान) की कहानी भी चलती है। विजय का कुछ दिन बाद राजतिलक होने वाला है, विजय सिंह की सगाई राजकुमारी मैथिली से उसके परिवार वालों ने बहुत पहले ही तय कर दी थी। युवराज विजय का छोटा भाई अजय सिंह (नील नितिन मुकेश) अपने मैनेजर चिराज ( अरमान कोहली) और युवराज की सेक्रेटरी के साथ मिलकर एक साजिश रचकर युवराज पर जानलेवा हमला करवाता है। इस हमले में विजय सिंह किसी तरह से बच जाता है ,राजघराने के वफादार दीवान साहब (अनुपम खेर) एक खूफिया किले में युवराज का इलाज करवाते हैं। विजय पर अटैक उसकी अपनी फैमिली के लोगों ने किया, इस साजिश को बेनकाब करने के लिए दीवान साहब प्रेम को युवराज बनाकर पेश करते हैं। ऐक्टिंग : फिल्म में सलमान फुल फॉर्म में नजर आते हैं। प्रेम और विजय के किरदार में सलमान खूब जमे हैं। सलमान की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कई ऐसे सीन्स को भी अपनी मौजूदगी से दमदार बना दिया जो बेवजह डाले गए लगते हैं। सलमान के फैंस के लिए फिल्म परफेक्ट दिवाली गिफ्ट है। राजकुमारी मैथिली के किरदार में सोनम कपूर इस फिल्म की कमजोर कड़ी लगती हैं, सोनम को सूरज ने शायद इसीलिए कम डायलॉग दिए हैं। अनुपम खेर दीवान साहब के रोल में खूब जमे हैं। दीपक डोबरियाल को जो करने के लिए दिया उसे उन्होंने निभा भर दिया। नील नीतिन मुकेश का किरदार कमजोर लिखा गया तो अरमान कोहली सत्तर अस्सी के दशक की फिल्मों में नजर आने वाले विलन लगे। स्वरा भास्कर बस ठीकठाक रहीं, लेकिन संजय मिश्रा ने कम सीन्स के बावजूद अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। डायरेक्शन : फिल्म की शुरुआत में स्क्रीन पवित्र श्लोक और रामलीला देखकर समझ आ जाता है सूरज क्या दिखाने वाले हैं। हां, इस बार उन्होंने आज बॉक्स आफिस के बादशाह सलमान खान के माध्यम से पूर्ण नैतिकता और प्रेम की परिभाषा को दिखाया है। फिल्म में पारिवारिक मूल्यों, रिश्ते वाले सीन बेवजह लंबे किए गए हैं। ऐसा लगता है कि कमज़ोर स्क्रिप्ट की वजह से सूरज ने फिल्म के लगभग हर सीन में सलमान को फिट कर डैमेज कंट्रोल किया। सोनम कपूर के सीन्स उसी वक्त अच्छे लगते हैं जब सलमान स्क्रीन पर उनके साथ नजर आते हैं। सूरज इस फिल्म में हिरोइन का किरदार पावरफुल नहीं बना पाए। संगीत : सलमान के साथ कई हिट फिल्म कर चुके हिमेश रेशमिया ने इस फिल्म के लिए पूरे दस गाने बनाए, लेकिन अगर टाइटिल ट्रैक को छोड़ दिया जाए तो फिल्म का हर गाना ज़बरदस्ती ठूंसा हुआ लगता है। क्यों देखें : अगर आप सलमान खान के दीवाने हैं तो उनका डबल किरदार ही आपके लिए काफी होगा। फैमिली ड्रामा है, लेकिन इस बार 'हम आपके हैं कौन' या 'हम साथ साथ हैं' वाली फैमिली नहीं है। वहीं फिल्म की कमजोर स्क्रिप्ट और जरूरत से ज्यादा लंबाई कई सीन्स में आपके सब्र की परीक्षा ले सकती है। ",0 "'हीरो वर्दी से नहीं इरादे से बनते हैं' निर्देशक अभिषेक शर्मा और जॉन अब्राहम की 'परमाणु : द स्टोरी ऑफ पोखरण' बिना वर्दी वाले उसी हीरो की दास्तान बयान करती है, जिसने अमेरिका की नाक के नीचे 1998 में पोखरण में न केवल 5 सफल परमाणु परीक्षण करवाए बल्कि देश को दुनिया भर में न्यूक्लियर एस्टेट का दर्जा देकर भारत को दुनिया के शक्तिशाली देशों में शामिल करवाया। कहानी की शुरुआत 1995 के दौर से होती है, जहां इरादों का पक्का और देशभक्त अश्वत रैना (जॉन अब्राहम) अनुसंधान और विश्लेषण विभाग का एक ईमानदार सिविल सेवक है। वह प्रधानमंत्री के कार्यालय में भारत को न्यूक्लियर पावर बनाने की पेशकश करता है। मीटिंग में पहले उसका मजाक उड़ाया जाता है फिर उसका आइडिया चुरा लिया जाता है। अश्वत की गैरजानकारी में किया गया वह परीक्षण नाकाम जो जाता है और भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ़ाकर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया है। हताश और निराश अश्वत अपने परिवार के साथ मसूरी चला जाता है, जहां उसके साथ उसकी पत्नी सुषमा(अनुजा साठे) और उसका बेटा भी है। 3 साल बाद, सत्ता में बदलाव के बाद अश्वत को नए प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव हिमांशु शुक्ला (बमन ईरानी) द्वारा वापस बुलाकर एक सीक्रेट टीम गठित करने के लिए कहा जाता है, जिसके बलबूते पर वह दोबारा परमाणु परीक्षण कर सके। अश्वत खुद को कृष्णा नाम देकर पांडव नाम की एक गुप्त टीम बनाता है। उसकी इस टीम में कैप्टन अंबालिका उर्फ नकुल (डायना पेंटी) के अलावा विकास कुमार, योगेंद्र टिंकू, दर्शन पांडेय, अभीराय सिंह,अजय शंकर जैसे सदस्यों को छद्म नाम देकर परमाणु परीक्षण की अलग-अलग अहम जिम्मेदारी दी जाती है। काबिल वैज्ञानिकों और आर्मी जवानों की इस टीम के साथ अश्वत निकल पड़ता है भारत का गर्व बढ़ाने के लिए, लेकिन उसके रास्त में रोड़ा बनते हैं अमेरिकी सेटेलाइट्स, पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस और मौसम की मार। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए यह टीम परमाणु परीक्षण को कैसे गजब ढंग से अंजाम देती है, इसे देखने के लिए आपको सिनेमा हॉल जाना होगा। फिल्म सत्य घटना पर आधारित है और अभिषेक शर्मा ने परमाणु परीक्षण जैसी गौरवशाली घटना को दर्शाते हुए निर्देशक के रूप में अपनी जिम्मेदारी का वहन किया है। जहां तक संभव हो सके उन्होंने किरदारों से लेकर लोकेशन तक हर चीज को रियल रखने की कोशिश की है। फिल्म का थ्रिल एलिमेंट आपको बांधे रखता है और उसी के साथ फिल्म के बीच-बीच में 90 के दशक की रियल फुटेज कहानी को और ज्यादा विश्वसनीय बनाते हैं। मध्यांतर तक फिल्म धीमी है, मगर सेकंड हाफ में यह गति पकड़ती है और क्लाइमैक्स में गर्व की अनुभूति करवाती है। बता दें कि 90 के दशक में जहां एक तरफ दुनिया के कई देश भारत के खिलाफ थे, वहीं परमाणु परीक्षण के बाद एक-एक करके भारत एक और शक्तिशाली देशों की संख्या में गिना जाने लगा। देशभक्ति से ओतप्रोत चुटीले संवादों के लिए लेखक सेवन क्वाद्रस, संयुक्ता चावला शेख और अभिषेक शर्मा को श्रेय दिया जाना चाहिए। परमाणु परीक्षण के दौरान सुरक्षा प्रक्रिया की बारीकियों को नजरअंदाज किया गया है। अभिनय के मामले में जॉन अब्राहम इस बार बाजी मार ले गए हैं। अश्वत के रोल में कहीं भी ऐक्शन हीरो और माचो मैन जॉन नजर नहीं आए। फिल्म में उन्होंने कदाचित पहली बार मार भी खाई है। डायना पेंटी अपनी भूमिका में दमदार लगी हैं। अनुजा साठे जॉन की पत्नी की भूमिका में खूब जमी हैं। विकास कुमार, योगेंद्र टिंकू, दर्शन पांडेय, अभीराय सिंह,अजय शंकर जैसे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है। एक लंबे अरसे बाद हिमांशु शुक्ला की भूमिका में बोमन ईरानी अपने पुराने रंग में नजर आए हैं। फिल्म में उनकी मौजूदगी मजेदार साबित हुई है। सचिन-जिगर और जीत गांगुली जैसे संगीतकारों की अगुवाई में फिल्म का संगीत पक्ष और मजबूत हो सकता था।क्यों देखें: देश को गौरवान्वित करनेवाली इस सत्य घटनात्मक फिल्म को बिलकुल भी मिस न करें।",0 "पिंक मूवी उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ एक कड़ा संदेश देती है, जिसमें महिला और पुरुष को अलग-अलग पैमानों पर रखा जाता है। इस फिल्म की कहानी बताती है कि यदि कोई पुरुष ताकतवर परिवार से होता है तो किस तरह से पीड़ित महिला के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कठिन हो जाता है। मूवी समाज की उस सोच पर सवाल खड़े करती है, जो लड़कियों की छोटी स्कर्ट और पुरुषों के साथ ड्रिंक करने पर उनके चरित्र को खराब बताती है। फिल्म यह भी बताती है कि भले ही कोई महिला सेक्स वर्कर हो या फिर पत्नी हो, लेकिन यदि वह 'न' कहती हो तो किसी भी पुरुष को उसे छूने और उसके साथ जबरदस्ती करने का अधिकार नहीं है। कहानी: दिल्ली के पॉश इलाके में किराए पर रहने वाली तीन कामकाजी लड़कियों मीनल (तापसी), फलक (कीर्ति) और आंद्रिया (आंद्रिया) की कहानी है। मिडिल क्लास फैमिली की ये तीनों लड़कियां एक रात में फन के लिए निकलती हैं। रॉक कन्सर्ट के बाद वे राजवीर और दो अन्य युवकों की ओर से सूरजकुंड के एक रिजॉर्ट में डिनर का इन्विटेशन स्वीकार कर लेती हैं। लेकिन, कुछ ड्रिंक्स लेने के बाद यह रात उनके लिए मुसीबत का सबब साबित होती है। आंद्रिया महसूस करती है कि डंपी (राशुल टंडन) उसे गलत तरीके से छूने की कोशिश करता है और ताकत के नशे में चूर राजवीर (अंगद बेदी) मीनल के ऐतराज के बावजूद उससे छेड़खानी की कोशिश करता है। इसी बीच आत्मरक्षा करते हुए मीनल एक बोतल से राजवीर पर हमला कर देती है, जो उसकी आंख में लगती है और खून बहने लगता है। तीनों लड़कियां इस उम्मीद के साथ घर लौट आती हैं कि बात आई-गई हो जाएगी। लेकिन, उनके लिए जिंदगी कठिन हो जाती है, जब तीनों युवक उन लड़कियों को बदनाम करने और डराने की कोशिश करते हैं। तीनों लड़कियों पर उस वक्त गाज ही गिर जाती है, जब छेड़खानी की कोशिश करने वाला राजवीर अपने ताकतवर लिंक्स का इस्तेमाल कर इनके खिलाफ प्रॉस्टिट्यूशन का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करा देता है। इसके बाद तीनों को फरार होना पड़ता है और मुश्किलों की शुरुआत होती है। मामला कोर्ट में पहुंचता है, जहां वकील दीपक सहगल (अमिताभ), जो खुद मेन्टल डिसऑर्डर का शिकार है, लड़कियों का केस लड़ता है। फिल्म में ड्रामे की शुरुआत यहीं से होती है। कोर्ट रूम में सुनवाई के दौरान मीनल से उसकी वर्जिनिटी और ड्रिंकिंग हैबिट्स पर सवाल पूछे जाते हैं। इन सवालों के जरिए यह दिखाने की कोशिश की गई है, समाज किस तरह से दोहरे मानकों पर लड़के और लड़कियों को रखता है। कोर्ट रूम के सवाल-जवाब जोनाथन काप्लन की ड्रामा फिल्म 'द एक्यूज्ड' से प्रभावित हैं। क्यों देखें: अमिताभ बच्चन समेत सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका से न्याय किया है। क्रिएटिव प्रड्यूसर कहे जाने वाले शुजित सरकार के खाते में विक्की डोनर, मद्रास कैफे और पीके के बाद एक और शानदार फिल्म जुड़ गई है। ",0 "chandermohan.sharma@timesgroup.com कुछ अर्से पहले तक हमारे बॉलिवुड मेकर्स को अगर किसी खेल पर फिल्म बनाना पसंद था तो वह खेल क्रिकेट ही था। आने वाले दिनों में भी अजहरुद्दीन और एमएस धोनी को लेकर भी फिल्में बन रही हैं। हालांकि, 'चक दे', 'मैरी कॉम' और 'भाग मिल्खा भाग' की सफलता के बाद अब मेकर्स दूसरे खेलों पर भी फिल्में बनाना पंसद कर रहे हैं। बॉक्स ऑफिस पर बतौर निर्देशक हर बार कामयाबी का नया इतिहास रच चुके डायरेक्टर राज कुमार हिरानी ने बेशक इस फिल्म में अपने चहेते स्टार आर. माधवन की इमेज को चेंज करने की कुछ ज्यादा ही कोशिश की है। यह फिल्म खेल फेडरेशन और खेलों के दिग्गजों के बीच चलती गुटबाजी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति और युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रताड़ित करने जैसी समस्याओं पर ध्यान खिंचती है। बॉलिवुड की तमाम खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आदि तोकर ( आर माधवन) अच्छा बॉक्सर और कोच है, लेकिन बॉक्सिंग चीफ कोच देव खतरी (जाकिर हुसैन) की वजह से उसे कई बार बेवजह प्रताड़ित होना पड़ता है। देव खतरी हर बार खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश करता है। लंबे अर्से से आदि को एक ऐसे युवा खिलाड़ी की तलाश है जो बॉक्सिंग की फील्ड में अपना और अपने कोच का नाम देश-विदेश में रोशन करे। तभी उसका ट्रांसफर हरियाणा के हिसार शहर से चेन्नै भेज दिया जाता है।चेन्नै में बॉक्सिंग का खेल ज्यादा पॉप्युलर नहीं है, ऐसे में आदि वहां रहकर ऐसे युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ी को कैसे खोज कर सकेगा। हालांकि, चेन्नै जाकर अपनी इस तलाश में लग जाता है, यहीं उसकी मुलाकात बेहद गुस्सैल मछली बेचने वाली एक लड़की मादी (रीतिका सिंह) से होती है। मादी को बचपन से बॉक्सिंग का जुनून है, मादी की बहन मुमताज सरकार अच्छी बॉक्सर है। मादी से मिलने के बाद आदि को लगता है जैसे उसकी तलाश पूरी हो गई है। आदि अब मादी को बेहतरीन बॉक्सर बनाने के मिशन में लग जाता है, जो उसका बरसों पुराना सपना साकार कर सके। ऐक्टिंग : आपको बता दें रीयल लाइफ में रीतिका सिंह अच्छी बॉक्सर हैं और बॉक्सिंग की कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती रही हैं। ऐसे में रीतिका ने अपने किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। इस फिल्म में रीतिका की बेहतरीन ऐक्टिंग देखकर नहीं लगता कि जैसे यह उसकी पहली फिल्म हो। वहीं आर. माधवन ने अपने किरदार को गजब ढंग से निभाया है। इस फिल्म में माधवन का किरदार उनकी पिछली फिल्मों से टोटली डिफरेंट है। कुछ सीन्स में माधवन के चेहरे के हाव-भाव देखकर 'चक दे इंडिया' में कोच बने शाहरुख की याद आती है। जाकिर हुसैन और मुमताज दोनों ने अपने रोल को अच्छा निभाया। डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर सुधा कोंगरा ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है, लेकिन उनका माइनस पॉइंट बस एक है कि फिल्म शुरू होने के बाद हॉल में बैठा दर्शक अगले सीन से लेकर कहानी के क्लाइमेक्स तक का अंदाज लगा लेता है। वहीं फिल्म बार-बार 'चक दे इंडिया' और 'मैरीकॉम' की याद दिलाती है, लेकिन सुधा ने हर किरदार से अच्छा काम लिया। खेल की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में कोच के साथ खिलाड़ी और फेडरेशन में चलती गुटबाजी तक को दिखाने की कोशिश की, लेकिन माधवन और रीतिका के लव एंगल को फिल्म में अगर नहीं रखा जाता तो यकीनन फिल्म और जानदार बन पाती। संगीत : स्वानंद किरकरे के गाने कहानी और माहौल के मुताबिक है, इन गानों को माहौल के मुताबिक बनाने में म्यूजिक डायरेक्टर संतोष नारायण ने काफी मेहनत की है, लेकिन हॉल से बाहर आने के बाद आपको शायद ही फिल्म को कोई गाना याद रह पाए। क्यों देखें : अगर खेल पर बनी फिल्में पसंद हैं तो जरूर देखिए। रीतिका सिंह की बेहतरीन ऐक्टिंग, आर माधवन का नया बदला लुक, बॉक्सिंग को लेकर ईमानदारी के साथ बनी इस फिल्म में माइनस पॉइंट बस यही है कि कहानी में नयापन नहीं है । ",0 "बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : रामगोपाल वर्मा, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : रामगोपाल वर्मा संगीत : इमरान, बपी, टुटुल कलाकार : नितिन रेड्डी, प्रियंका कोठारी, गौतम रोडे, इशरत अली * यू/ए * 12 रील मान लीजिए आप आइसक्रीम खाने जाते हैं। आपसे पहले पैसे लेकर खाली कोन पकड़ा दिया जाता है। आइसक्रीम के बारे में आप पूछते हैं तो जवाब मिलता है कि इसके लिए आपको अगले सीजन में आना पड़ेगा। यह सुनकर आप जैसा महसूस करेंगे कुछ वैसी ही ठगे जाने की भावना ‘अज्ञात’ देखने के बाद भी महसूस होती है। आधी-अधूरी फिल्म को प्रदर्शित कर दिया गया और कहा गया कि रहस्य ‘अज्ञात 2’ में खोला जाएगा। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि इस फिल्म का दूसरा भाग बनेगा या नहीं। अगर आधी फिल्म ही बनाई गई है तो यह बात दर्शकों को पहले बताई जानी चाहिए कि फिल्म को दो हिस्सों में बनाया जाएगा और ‘अज्ञात’ दूसरे भाग में ज्ञात होगा। एक तरह से ये सरासर धोखाधड़ी है। कहानी है एक जंगल की, जिसमें फिल्म की यूनिट शूटिंग कर रही है। कैमरे में खराबी आ जाती है। नए कैमरे को पहुँचने में दो-तीन दिन का समय लगेगा। समय बिताने के लिए यूनिट के लोग घने जंगल में जाते हैं। सिर्फ सेतु ही जंगल का रास्ता जानता है। एक अजीब-सी आवाज सब सुनते हैं। सेतु यह जानने जाता है कि यह किसकी आवाज है, लेकिन वह मारा जाता है। घबराए हुए सभी लोग जंगल में फँस जाते हैं और निकलने की कोशिश करते हैं। दो-तीन और लोग रहस्यमय परिस्थितियों में मारे जाते हैं। कुछ घबराकर आत्महत्या कर लेते हैं ताकि सिर्फ नायक और नायिका ही बचें। अंत में चमत्कारिक तरीके से वे जंगल से बाहर निकलते हैं। सभी जानने के लिए बेचैन रहते हैं कि वो ‘अज्ञात’ कौन है, लेकिन तभी स्क्रीन पर लिखा आता है कि इसके बारे में आपको ‘अज्ञात 2’ में बताया जाएगा। शायद निर्देशक रामगोपाल वर्मा और उनके लेखकों ने सोचा होगा कि फिल्म की शूटिंग शुरू करो, थोड़े समय बाद वे अंत लिख लेंगे। लेकिन वे क्लाइमैक्स सोच नहीं पाए और उन्होंने अधूरी फिल्म को ही प्रदर्शित कर दिया। माना कि वे सीक्वल बनाना चाहते हैं, लेकिन कम से कम उस अज्ञात शक्ति के बारे में तो बताना उनका फर्ज है। प्रयोग के नाम पर कुछ भी कर लेने की छूट नहीं होती है। कहने को तो फिल्म थ्रिलर है, लेकिन थ्रिल इसमें से नदारद है। सैकड़ों बार इस तरह की परिस्थितियाँ फिल्म या टीवी में दोहराई जा चुकी हैं। थ्रिलर फिल्म में निर्देशक की कल्पनाशीलता का बहुत महत्व होता है, लेकिन रामू इसमें मार खा गए। एक-दो दृश्यों को छोड़ वे कहीं भी प्रभावी नहीं दिखे। उनके पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए कैमरे की आँख से वे जंगल और प्रियंका कोठारी की देह दिखाते रहे। प्रियंका कोठारी को छोड़ ज्यादातर उन कलाकारों को लिया गया है, जिनसे हिंदी फिल्म देखने वाले परिचित नहीं हैं। तेलुगू फिल्म के स्टार नितिन रेड्डी ने हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत की है और उनका अभिनय प्रभावी है। प्रियंका कोठारी और अभिनय में छत्तीस का आँकड़ा है। गौतम रोडे और इशरत अली थोड़े लाउड हो गए हैं। रवि काले और अन्य कलाकारों ने अपना काम ठीक से किया है। सुरजोदीप घोष ने जंगल को खूब फिल्माया है। अमर-मोहिले का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। गीत-संगीत के नाम पर कुछ घटिया गाने फिल्म में जबरन ठूँसे गए हैं। रामगोपाल वर्मा कुछ फिल्में पूरी लगन से बनाते हैं और कुछ को बनाते समय उनके अंदर बैठा निर्देशक मक्कार हो जाता है। ‘अज्ञात’ में तो उन्होंने पैसा लेकर दर्शकों को मूर्ख बनाया है। अब उन्हें क्या कहा जाए, ये आप बताइए। ",0 "चंद्रमोहन शर्मा अगर क्रिकेट पर बनी फिल्मों की बात की जाए, तो सिल्वर स्क्रीन पर ऐसी फिल्म वैसा जादू नहीं बिखेर पाई, जो असली मैदान में नजर आता है। इमरान हाशमी स्टारर 'अजहर' फ्लॉप रही, भले ही वह एक बायोपिक फिल्म रही हो। वहीं क्रिकेट थीम पर बनी दूसरे नामी स्टार्स की भी आधा दर्जन के करीब फिल्में भी कुछ खास नहीं कर पाईं। शायद यही वजह है कि भारी बजट में बनी इस फिल्म में डायरेक्टर ने क्रिकेट में मैच फिक्सिंग से लेकर करप्शन सहित ऐसे तमाम मसालों को फिट किया है, जो बॉक्स ऑफिस पर इसे हिट कराने का दम रखते हैं। यह फिल्म जॉन अब्राहम के करियर के लिए भी खास है। 'वेलकम बैक' के बाद जॉन लंबे अर्से से एक अदद हिट को तरस रहे हैं। वहीं, करीब चार साल पहले आई 'गली गली में चोर है' की नाकामी के बाद अब सिल्वर स्क्रीन पर नजर आए अक्षय खन्ना भी 'ढिशूम' से अपनी सेकंड इनिंग शुरू कर रहे हैं। अक्षय खन्ना एकबार फिर खलनायक के किरदार में होंगे। इससे पहले वह 'हमराज' में नेगेटिव किरदार निभा चुके हैं। जहां तक 'ढिशूम' की बात है तो यूएई के शानदार लोकेशन्स, हेलिकॉप्टर पर जॉन अब्राहम और वरुण धवन के साथ फिल्माए गए कई हैरतअंगेज ऐक्शन सीन्स इस फिल्म की यूएसपी हैं। परिणीति चोपड़ा अपना वजन घटाने के बाद इस फिल्म में वरुण के साथ डांस करती नजर आती तो हैं, लेकिन उनकी एंट्री बेहद हल्की और कमजोर रही है। कहानी: यूएई में भारतीय क्रिकेट टीम के नंबर वन बैट्समैन विराज शर्मा (साकिब सलीम) की किडनैपिंग हो जाती है। दिल्ली से स्पेशल टास्क फोर्स के जांबाज अफसर कबीर शेरगिल (जॉन अब्राहम) को वहां विराज को किडनैपर से सुरक्षित रिहा कराने के सीक्रिट मिशन पर भेजा जाता है। यूएई में कबीर वहां की पुलिस में ड्यूटी कर रहे जुनैद अंसारी (वरुण धवन) को अपने साथ इस मिशन में शामिल करता है। यूएई पुलिस के आला अफसरों की नजर में जुनैद किसी काम का नहीं, लेकिन कबीर को पहली ही मुलाकात में लगता है कि जुनैद उसके लिए काम का आदमी हो सकता है, इसलिए वह उसे अपने इस सीक्रिट मिशन में शामिल कर लेता है। दरअसल, कबीर विराज का पता लगाने के साथ-साथ वहां 36 घंटे बाद होने वाले एक क्रिकेट मैच में शामिल फिक्सिंग गिरोह को भी अपनी गिरफ्त में लेना चाहता है। अबुधाबी में कबीर और जुनैद की मुलाकात इशिका (जैक्लीन फर्नांडिज) से होती है, जो मोबाइल उड़ाने वाले गिरोह से जुड़ी है। इशिका को पूछताछ के लिए कबीर और जुनैद पुलिस कस्टडी में लेते हैं। कहानी में टर्निंग पॉइंट तब आता है, जब इस केस में लगे कबीर पहले अल्ताफ (राहुल देव) और उसके बाद केस की कड़ियों को जोड़ते-जोड़ते राहुल (अक्षय खन्ना) तक पहुंचते हैं। ऐक्टिंग: अक्षय खन्ना कई साल बाद इस फिल्म में नजर आए और अपने जीवंत अभिनय से छा गए। वहीं जॉन अब्राहम और वरुण धवन के इर्द-गिर्द घूमती कहानी में जॉन ऐक्शन सीन्स में वरुण पर भारी नजर आए। वरुण धवन पहले भी ऐसे कई किरदार निभा चुके हैं। फर्क बस इतना है इस बार वह पुलिसवाले बनकर सामने आए हैं, वर्ना उनकी ऐक्टिंग में नया कुछ नहीं है। कहानी में जैकलीन के किरदार के लिए कुछ खास नहीं है। वहीं अक्षय कुमार ने अपने दोस्त जॉन अब्राहम की खातिर इस फिल्म में चंद मिनट का कैमियो किया है। डायरेक्शन: रोहित धवन को इस फिल्म के लिए कमजोर स्क्रिप्ट मिली। ऐसा लगता है कि 'ढिशूम' के स्क्रिप्ट राइटर यशराज बैनर की 'धूम' के जादू में उलझे रहे और किरदारों व स्क्रिप्ट को दमदार बनाने पर ध्यान ही नहीं दे पाए। क्यों देखें: जॉन अब्राहम पर फिल्माए गए ऐक्शन और स्टंट सीन्स, वरुण धवन की मस्ती, जैकलीन और नरगिस फाखरी की खूबसूरत अदाओं के साथ-साथ अक्षय खन्ना का दमदार कमबैक फिल्म की यूएसपी है। कहानी में नयापन नहीं है। ",1 " दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे को प्रदर्शित हुए 19 वर्ष बीत गए हैं। इन वर्षों में डीडीएलजे से प्रेरित सैकड़ों फिल्में बनी हैं और 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' जैसी फिल्में अभी भी बन रही हैं। इन दिनों ज्यादातर फिल्मकार पुरानी फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हैं और नए माहौल में ढाल कर फिल्मों को पेश कर रहे हैं। हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' के निर्माता करण जौहर खुद डीडीएलजे का हिस्सा रह चुके हैं इसलिए उन पर भी इस फिल्म का नशा अब तक चढ़ा हुआ है। 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' शाहरुख-काजोल अभिनीत 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का रीमेक तो नहीं है, लेकिन उस फिल्म से खास घटनाओं को लेकर वर्तमान दौर के रंग में इसे पेश किया गया है। फिल्म के दूसरे हिस्से में डीडीएलजे का असर ज्यादा नजर आता है। डीडीएलजे एक बेहतरीन फिल्म है और उसकी बराबरी करना हम्प्टी के लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन हम्प्टी मनोरंजन करने में जरूर सफल रहती है। राज की जगह राकेश शर्मा उर्फ हम्प्टी शर्मा (वरूण धवन) ने ले ली है, जो एक स्टेशनरी की दुकान चलाने वाले का बेटा है। सिमरन की जगह अंबाला की लड़की काव्या प्रताप सिंह (आलिया भट्ट) नजर आती है, जिसने अपनी गर्दन पर 'पटाका' लिखा टैटू बना रखा है और बीअर पीने के मामले में लड़कों को भी मात दे देती है। सिमरन यूरोप भ्रमण के लिए निकली थी तो काव्या अंबाला से नई दिल्ली आती है। काव्या का ब्याह एनआरआई लड़के अंगद (सिद्धार्थ शुक्ला) से तय हो चुका है, लेकिन नई दिल्ली की यात्रा के दौरान उसे हम्प्टी शर्मा से इश्क हो जाता है। कुछ दिनों बाद काव्या अंबाला लौट जाती है और उसके पीछे-पीछे हम्प्टी भी उसके घर पहुंच जाता है। चौधरी बलदेव सिंह की जगह आशुतोष राणा नजर आते हैं जो हम्प्टी के आगे एक शर्त रखते हैं। पांच दिन में वे अंगद की एक भी बुराई बता दे तो वे अपनी बेटी का हाथ हम्प्टी को सौंप देंगे। अंगद गुड लुकिंग है, फिट है, बढ़िया खाना बना लेता है, डॉक्टर है, शराब-सिगरेट से दूर रहता है। अंगद यदि पेड़ है तो उसके सामने हम्प्टी एक छोटा-सा पौधा। क्या काव्या को हम्प्टी अपनी दुल्हनिया बना पाएगा? फिल्म का लेखन और निर्देशन शशांक खेतान ने किया है। कहानी के रूप में शशांक दर्शकों के सामने कुछ नया तो नहीं पेश कर पाए, लेकिन जिस तरीके से इस कहानी पर स्क्रिप्ट लिखी गई है और निर्देशन किया गया है उससे फिल्म दर्शकों का लगातार मनोरंजन होता रहता है। यह फिल्म कहानी से नहीं बल्कि किरदारों के कारण अच्छी लगती है। हम्प्टी और काव्या के किरदारों से दर्शक पहली फ्रेम से ही जुड़ जाते हैं और उनकी हर हरकत अच्छी लगती है। फिल्म का पहला हाफ भरपूर मनोरंजन करता है। फिल्म के इस हिस्से में हम्प्टी-काव्या, हम्प्टी और उसके दोस्त, हम्प्टी द्वारा काव्या की सहेली को ब्लैकमेलर से बचाना, अपनी दुकान में हम्प्टी और काव्या का दोस्तों के साथ पार्टी करने वाले जैसे कुछ शानदार सीन देखने को मिलते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म बिखरती है, लेकिन बोर नहीं करती क्योंकि फिल्म की गति को काफी तेज रखा गया है। फिल्म की स्क्रिप्ट परफेक्ट नहीं है और इसमें गलतियां हैं, कई जगह लॉजिक की अनदेखी की गई है, क्लाइमेक्स बहुत ही साधारण है और लेखक ने इसे अपनी सुविधानुसार लिखा है। चूंकि फिल्म दर्शकों को एंटरटेन करती है इसलिए इन कमियों को भुलाया जा सकता है। इस मामले में शशांक लेखक के बजाय निर्देशक ज्यादा अच्छे साबित होते हैं। उन्होंने माहौल को हल्का रखा है और इमोशनल दृश्यों को भी हास्य की चाशनी में डूबो कर पेश किया है। कहानी चिर-परिचित होने के बावजूद फिल्म में ताजगी का एहसास होता है। फिल्म के संवाद मनोरंजन करने में अहम भूमिका निभाते हैं और कई जगह हंसाते हैं। कलाकारों का उम्दा अभिनय भी फिल्म पसंद आने का एक महत्वपूर्ण कारण है। वरूण धवन पूरी तरह से अपने किरदार में घुसे नजर आए। एक दिलफेंक और लापरवाह लड़के का रोल उन्होंने बखूबी निभाया। इमोशनल सीन भी वे अच्छे से कर गए। उनकी ऊर्जा पूरी फिल्म में एक जैसी नजर आई। आलिया ने बिंदास काव्या के रोल को ताजगी के साथ पेश किया। आशुतोष राणा तो अनुभवी एक्टर है। पोपलू और शोंटी के रूप में साहिल वैद और गौरव पांडे ने दर्शकों को खूब हंसाया। सिद्धार्थ शुक्ला का रोल छोटा है और वे खास प्रभावित नहीं करते। फिल्म का संगीत अच्छा है और दो-तीन गाने उम्दा हैं । हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' कुछ नया तो पेश नहीं करती, लेकिन शानदार संवाद, दमदार अभिनय और भरपूर मनोरंजन के कारण इस हल्की-फुल्की रोमांटिक मूवी को देखा जा सकता है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू यश जौहर निर्देशक : शशांक खेतान संगीत : सचिन-जिगर, शरीब-तोषी कलाकार : वरूण धवन, आलिया भट्ट, आशुतोष राणा, सिद्धार्थ शुक्ला, साहिल वैद, गौरव पांडे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 16 सेकंड ",1 "‘टशन’ की टैग लाइन है, द स्टाइल, द गुडलक, द फार्मूला, लेकिन फिल्म में सिर्फ बेअसर हो चुका फार्मूला ही नजर आता है। निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : विजय कृष्ण आचार्य संगीत : विशाल शेखर कलाकार : अक्षय कुमार, करीना कपूर, सैफ अली खान, अनिल कपूर यू/ए* 17 रील और 80 के दशक में बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में फार्मूला का जोर था। एक फार्मूला था बदले का। बचपन में मासूम बच्चे के पिता की हत्या कर दी जाती है। हत्यारे को सिर्फ बच्चा पहचानता है और वह बड़ा होकर बदला लेता है। एक फार्मूला होता था प्रेम का। बचपन में लड़का-लड़की में प्रेम हो जाता है और उसके बाद दोनों जुदा हो जाते हैं। वे जवान हो जाते हैं पर बचपन का प्यार भूला नहीं पाते। बड़े होने के बाद जिंदगी उन्हें फिर साथ कर देती है, लेकिन वे एक-दूसरे को पहचानते नहीं। फिल्म समाप्त होने के पूर्व घटनाक्रम ऐसा घटता है कि उन्हें सब कुछ याद आ जाता है। उन दिनों फिल्म का क्लायमैक्स अक्सर विलेन के अड्‍डे पर फिल्माया जाता था। जहाँ बड़े-बड़े खाली डब्बे और पीपे पड़े रहते थे। नायक और खलनायक वहाँ मारामारी करते थे और वे खाली डब्बे धड़ाधड़ गिरते थे। लड़ते-लड़ते अचानक आग भी लग जाती थी। खलनायक हजारों गोलियाँ चलाता था, लेकिन उसका निशाना हमेशा कमजोर रहता था। हीरो को एक भी गोली नहीं लगती थी। हीरो को बेवकूफ पुलिस ऑफिसर ढूँढते हुए आता था, तो वह भेष बदलकर गाना गाने लगता था। यहाँ इन फार्मूलों को याद करने का मकसद फिल्म ‘टशन’ है। इन चुके हुए फार्मूलों का उपयोग निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य ने ‘टशन’ में किया है, जिनका उपयोग अब फार्मूला फिल्मकार भी नहीं करते हैं। विजय, जिन्होंने कि फिल्म की कहानी और पटकथा भी लिखी है, का सारा ध्यान चरित्रों को स्टाइलिश लुक देने में रहा है। उन्होंने दोयम दर्जे की कहानी लिखी है, जिसमें ढेर सारे अगर-मगर हैं। फिल्म इतनी स्टाइलिश भी नहीं है कि दर्शक सारी कमियाँ भूल जाए। कहानी है पूजा सिंह (करीना कपूर) की जो अपने पिता की हत्या का बदला भैयाजी (अनिल कपूर) से लेना चाहती है। भैय्याजी के पच्चीस करोड़ रुपए चुराने के लिए वह जिमी (सैफ अली खान) का सहारा लेती है। जिमी से प्यार का नाटक रचाकर वह पच्चीस करोड़ रुपए लेकर फुर्र हो जाती है। भैयाजी रुपए वसूलने का जिम्मा कानपुर में रहने वाले बच्चन पांडे (अक्षय कुमार) को सौंपते हैं। बच्चन को पूजा अपने प्यार के जाल फंसाकर बेवकूफ बनाना चाहती है, लेकिन वो उसके बचपन का प्यार है। अंत में जिमी, पूजा और बच्चन मिलकर भैयाजी और उनकी गैंग का सफाया कर देते हैं। पूजा पच्चीस करोड़ रुपए चुराने के बाद उन्हें पूरे भारत में अलग-अलग जगहों पर रख देती है। झोपडि़यों में ग्रामीण उसके करोड़ों रुपए संभालते हैं। इस बहाने ढेर सारी जगहों पर घूमाया गया है। फिल्म की शूटिंग लद्दाख, केरल, हरिद्वार और ग्रीस में की गई है। लोकेशन अद्‍भुत हैं, लेकिन हरिद्वार और राजस्थान जाते समय बीच में ग्रीस के लोकेशन आ जाते हैं। फिल्म के क्लायमैक्स में कई दृश्य हास्यास्पद हैं। जमीन पर चीनी लोगों से अक्षय की लड़ाई होती रहती है। अगले दृश्य में वे बिजली के खंबे पर लड़ने लगते हैं। सैफ अली खान बोट पर आकर अनिल की पिटाई करता है तो अगले दृश्य में अनिल साइकिल रिक्शा पर आ जाता है। फिल्म में भैयाजी की पेंट बार-बार खिसकती रहती है और भैया जी उसे ऊपर खींचते रहते हैं। यही हाल कहानी का भी है। बार-बार यह पटरी से उतर जाती है और इसे बार-बार पटरी पर खींचकर लाया जाता है। मध्यांतर के बाद फिल्म की गति बेहद धीमी हो जाती है। फिल्म का सकारात्मक पहलू है अक्षय कुमार और करीना कपूर का अभिनय। करीना इस फिल्म की हीरो हैं और पटकथा उनको केन्द्र में रखकर ही लिखी गई है। करीना ने इस फिल्म के लिए विशेष रूप से ज़ीरो फिगर बनाया और उसे खूब दिखाया। उनका चरि‍त्र कई शेड्स लिए हुए हैं जिन्हें करीना ने बखूबी जिया। अक्षय कुमार खिलंदड़ व्यक्ति की भूमिका हमेशा शानदार तरीके से निभाते हैं। इस फिल्म में भी उनका अभिनय प्रशंसनीय है। करीना से प्यार होने के बाद उनके शरमाने वाला दृश्य देखने लायक है। उन्होंने अपने चरित्र की बॉडी लैग्वेंज को बारीकी से पकड़ा है। सैफ का चरित्र थोड़ा दबा हुआ है, लेकिन उनका अभिनय और संवाद अदायगी उम्दा है। अनिल कपूर ने हिंग्लिश में ऐसे संवाद बोले कि आधे से ज्यादा समझ में ही नहीं आते। अनिल का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनका चरित्र बोर करता है। विशाल शेखर का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘छलिया’, दिल डांस मारे’ और ‘फलक तक’ का फिल्मांकन भव्य है। ‘टशन’ की टैग लाइन है, द स्टाइल, द गुडलक, द फार्मूला, लेकिन फिल्म में सिर्फ बेअसर हो चुका फार्मूला ही नजर आता है। ",0 "पिछले साल टोरंटो फिल्म फेस्टिवल के बाद मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों और क्रिटिक्स की जमकर वाहवाही बटोरने के बाद इस 'मुक्काबाज' को सिनेमाघरों तक पहुंचने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया। बेशक, पिछले कुछ अर्से में बॉलिवुड में क्रिकेट को छोड़कर दूसरे खेलों पर भी फिल्में बनने लगी हैं तो दर्शकों की एक बड़ी क्लास इन फिल्मों को पसंद भी कर रही है, तभी तो हॉकी पर बनी 'चक दे इंडिया' से लेकर रेसलर मिल्खा सिंह पर बनी 'भाग मिल्खा भाग' और प्रियंका चोपड़ा स्टारर 'मैरीकॉम' के बाद कुश्ती पर बनी दोनों फिल्मों 'सुल्तान' और 'दंगल' बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कलेक्शन करने में कामयाब रही। इसी कड़ी में अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी 'मुक्काबाज' को आप खेल पर बनी एक ऐसी फिल्म है कह सकते हैं, जो आपको कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इस फिल्म की कहानी खुद फिल्म के लीड हीरो विनीत कुमार सिंह ने करीब चार साल पहले लिखी और कई प्रडयूसर से इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए अप्रोच किया, लेकिन विनीत खुद इस फिल्म में लीड किरदार निभाने की शर्त पर अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की बात कर रहे थे सो उन्हें इसके लिए कुछ ज्यादा ही लंबा इंतजार करना पड़ा। अनुराग ने जब विनीत और मुक्ति सिंह की लिखी कहानी पर फिल्म बनाने के लिए हामी भरी तभी विनीत को साफ कह दिया पहले आप रिंग में जाकर मुक्केबाजी में परफेक्ट हो जाओ, प्रोफेशनल मुक्केबाजों के साथ रिंग में उतरकर मुक्केबाजी करो... उसके बाद ही फिल्म में लीड किरदार कर पाओगे। पहली बार अनुराग ने इस फिल्म में कई बॉक्सिंग टूर्नामेंट खेल चुके मुक्केबाजों को लिया। फिल्म में विनीत जहां इनके साथ रिंग में भिड़ते नज़र आ रहे हैं वहीं इन सबसे विनीत ने शूटिंग से पहले ट्रेनिंग ली। फिल्म के क्लाइमैक्स में विनीत भारत के पूर्व बॉक्सिंग चैंपियन रह चुके दीपक राजपूत से भिड़ते हैं तो वहीं टेक्निकल राउंड में वह, नीरज गोयत से जैसे नामी मुक्केबाजों के साथ भिड़ते नज़र आते हैं। इतना हीं नहीं अनुराग ने फिल्म को रिऐलिटी के और नजदीक रखने के मकसद से बॉक्सिंग के सीन की शूटिंग के लिए किसी कोरियॉग्रफर या ऐक्शन एक्सपर्ट की मदद नहीं ली और बॉक्सिंग मुकाबलों के सीन में विनीत रिंग के नामचीन मुक्केबाजों के साथ भिड़े जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। शूटिंग के दौरान विनीत कई बार चोटग्रस्त हुए जिसके चलते फिल्म की शूटिंग रोकनी पड़ी।स्टोरी प्लॉट : बरेली की छोटी गलियों में अपने बड़े भाई के साथ रह रहे श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) का बस एक ही सपना है कि उसने मुक्केबाजी में अपना नाम कमाना है। गरीब तंग हाल फैमिली का श्रवण मुक्केबाजी की ट्रेनिंग लेने के मकसद से फेडरेशन में प्रभावशाली और दबंग भगवानदास मिश्रा (जिम्मी शेरगिल) के यहां जाता है, जहां भगवान दास बॉक्सर उसे बॉक्सिग की ट्रेनिंग देने की बजाए अपने घर के कामकाज में लगा देता है। श्रवण को यह मंजूर नहीं और एक दिन वह जब भगवान दास के चेहरे पर मुक्का जड़ देता है तो इसके बाद भगवान दास उसका करियर तबाह करने का मन बनाकर उसके रास्ते में रोड़े अटकाने में लग जाता है। वहीं भगवान दास की भतीजी सुनैना (जोया हुसैन) है, जो सुन तो सकती है लेकिन बोल नहीं सकती। पहली नजर में देखते ही श्रवण उस पर मर मिटता है। भगवान दास के होते जब श्रवण बरेली की ओर से टूर्नामेंट में हर बार खेलने से रोक दिया जाता है तो वह बनारस का रुख करता है, जहां कोच (रवि किशन) उसके टैलंट को पहचानता है। कोच को लगता है कि अगर मेहनत की जाए तो श्रवण नैशनल चैंपियन बन सकता है। जिला टूर्नामेंट जीतने के बाद श्रवण को रेलवे में नौकरी मिल जाती है। भगवान दास की मर्जी के खिलाफ श्रवण और सुनैना की शादी हो जाती है, लेकिन भगवान दास को यह मंजूर नहीं, इसलिए नैशनल चैंपियनशिप के मुकाबले से श्रवण को बाहर करने के लिए भगवान दास एक साजिश रचता है।मुक्केबाज श्रवण के किरदार में विनीत कुमार सिंह का जवाब नहीं। बॉक्सिंग रिंग में नामी मुक्केबाजों के साथ विनीत के फाइट्स सीन फिल्मी न होकर रिऐलिटी के बेहद करीब लगते हैं। विनीत की डायलॉग डिलीवरी किरदार के अनुरूप है तो वहीं अपनी हर बात को इशारों में रखने वाली सुनैना के रोल में जोया हुसैन ने मेहनत की है। जिम्मी शेरगिल की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने भगवान दास मिश्रा के किरदार को ऐसे घिनौने और खतरनाक अंदाज के साथ पेश किया कि दर्शकों को इस किरदार से नफरत हो जाती है और इसका क्रेडिट यकीनन जिम्मी की बेहतरीन ऐक्टिंग को जाता है। वहीं कोच के रोल में रवि किशन अपने किरदार में खूब जमे हैं। अपने मिजाज के मुताबिक, अनुराग कश्यप फिल्म में गुंडाराज व जातिवाद पर उभरते खिलाड़ियों के संघर्ष को भी पेश करने में कामयाब रहे हैं। बेशक अनुराग की इस फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर की है, लेकिन कहानी पेश करने का अंदाज उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि हर उस राज्य का है जहां अभी भी बॉक्सिंग की पहचान है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। फिल्म के संवादों में उत्तर प्रदेश की बोली की महक आती है। फिल्म के लीड किरदार श्रवण सिंह का यह डायलॉग 'माइक टायसन हैं हम उत्तर प्रदेस के', 'एक ठो धर दिए न तो प्राण पखेरू हो जाएगा आपका' दर्शकों को तालिया बजाने को मजबूर करता है। रचिता सिंह का संगीत टोटली फिल्म के मिजाज के मुताबिक है, वहीं फिल्म का माइनस पॉइंट फिल्म की सुस्त रफ्तार के साथ बेवजह कहानी को खींचना है। इंटरवल से पहले कई सीन लंबे किए गए। अगर अनुराग 15-20 मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म की रफ्तार दर्शकों को कहानी के साथ पूरी तरह बांधकर रखती।",1 "पाकिस्तान फिल्मकारों का प्रिय विषय रहा है। हिना से लेकर तो गदर, फिल्मिस्तान, तेरे बिन लादेन, वार छोड़ो ना यार, डी-डे और वेलकम टू कराची की कहानी इस देश के इर्दगिर्द घूमती है। इनमें से कुछ फिल्म गंभीर किस्म की हैं तो कुछ फिल्मों में दोनों देशों के संबंधों को लेकर कॉमेडी की गई है। सुनते हैं सलमान खान की आगामी फिल्म 'बजरंगी भाईजान' की कहानी में भी पाकिस्तान है। बात की जाए वेलकम टू कराची की। इस फिल्म में किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया है। हर दृश्य में दर्शकों को हंसाने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है कि आप मुस्कुरा भी दें। पूरी फिल्म बेवकूफाना हरकतों से भरी हुई हैं और फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के दिमाग में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्यों यह फिल्म बनाई गई है? अगर निर्माता वासु भगनानी अपने बेटे को बॉलीवुड में स्थापित करने के लिए यह कोशिश कर रहे हैं तो इस तरह की फिल्मों से जैकी भगनानी का नफा नहीं बल्कि नुकसान ही होगा। दर्शकों को सजा भुगतना पड़ती है, सो अलग। कहानी है शम्मी (अरशद वारसी) और केदार पटेल (जैकी भगनानी) की। केदार, मिथेश पटेल (दलीप ताहिल) का बेटा है जो गुजरात में इवेंट मैनेजर है। शम्मी एक्स नेवी ऑफिसर है जिसने पनडुब्बी का संधि विच्छेद कर यह समझा कि पन (पानी) में इसे डूबो दो इसलिए उसे नौकरी से हटा दिया गया। केदार के साथ मिलकर शम्मी, मिथेश के लिए काम करता है। चार्टर्ड बोट पर शादी कराने का जिम्मा मिथेश, केदार तथा शम्मी को सौंपता है। ये दोनों बिना बारातियों के बोट लेकर निकल पड़ते हैं। तूफान आता है और ये पहुंच जाते हैं कराची। पाकिस्तान पहुंचते ही मुसीबतों का पहाड़ उन पर टूट पड़ता है। वहां से भागने का रास्ता नहीं सूझता। इसी दौरान आईएसआई, तालिबान, इंटेलीजेंस ब्यूरो, आतंकवादियों, लोकल गुंडों से उनका पाला पड़ता है। इन सब घटनाक्रमों से हंसाने की कोशिश की गई है, लेकिन सारे चुटकुले और संवाद इतने सपाट हैं कि हंसी आने के बजाय कोफ्त होती है। वेलकम टू कराची के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की शुरुआत में ही यह अंदाजा लगाना आसान है कि आपके अगले कुछ घंटे मुश्किल से भरे हैं। पहले सीन से यह डर पैदा होता है और फिल्म खत्म होने पर आशंका सही साबित होती है। लेखक ने जो मन में आया वो लिख दिया। किसी भी बात का कोई ओर है न कोई छोर। लॉजिक की तो बात ही छोड़ दीजिए। कमियां बताने लग जाएं तो सुबह से शाम हो जाए। मनोरंजन का फिल्म में नामो-निशान नहीं है। एक-दो जगह हंसी आ जाए तो बड़ी बात है। फिल्म कही से भी दर्शक को अपने से जोड़ नहीं पाती है। थोड़ी ही देर में परदे पर चल रही फिल्म से आपकी रूचि खत्म हो जाती है। इस दौरान आप झपकी ले सकते हैं या ब्रेक के लिए बाहर जा सकते हैं। फिल्म के ज्यादातर किरदार स्टीरियोटाइप हैं। गुजराती है तो हमेशा पैसे के बारे में ही सोचेगा। गरबे की ही बात करेगा। पाकिस्तान ऐसा दिखाया गया है मानो वहां हर कोई बंदूक लिए घूम रहा है और जान का प्यासा है। निर्देशक आशीष आर. मोहन ने इसके पहले 'खिलाड़ी 786' फिल्म बनाई थी, जिसमें दर्शकों के हंसने के लिए काफी मसाला था, लेकिन 'वेलकम टू कराची' में वे निराश करते हैं। उनका निर्देशन इस तरह का है मानो बिना ड्राइवर के कार चल रही हो। फिल्म पर उनका कोई नियंत्रण नहीं दिखा। जैकी भगनानी एक्टिंग कर रहे हैं ये साफ दिखाई देता है। अरशद वारसी अपनी कॉमिक टाइमिंग से थोड़ी राहत प्रदान करते हैं, लेकिन ज्यादातर दृश्यों में उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या कर रहे हैं। लॉरेन गॉटलिएब का अभिनय बुरा और डांस अच्छा है। फिल्म में कुछ गाने भी हैं, जिनका होना कोई मायने नहीं रखता। वीएफएक्स ऐसे हुआ है कि कई दृश्य नकली लगते हैं। वेलकम टू कराची फिल्म से बेहतर इसका ट्रेलर है, जिसे देख काम चलाया जा सकता है। बैनर : पूजा एंटरटेनमेंट इंडिया लि. निर्माता : वासु भगनानी निर्देशक : आशीष आर. मोहन संगीत : जीत गांगुली, रोचक कोहली, अमजद नदीम कलाकार : जैकी भगनानी, अरशद वारसी, लॉरेन गॉटलिएब सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 45 सेकण्ड ",0 "अगर हम बीते वक्त में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई वॉर की बात करें तो हमें चार जंग याद आएगी। इन चार जंगों के अलावा इन दोनों देशों के बीच एक और जंग भी हुई, लेकिन इस जंग के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। 1971 में भारत पाक के बीच हुई जंग से पहले गहरे समुद्र में ढाई सौ से तीन सौ मीटर पानी के नीचे एक ऐसी जंग लड़ी गई, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। जहां यूरोपीय देशों में अक्सर वॉर सब्जेक्ट पर फिल्में बनती रहती हैं, वहीं हमारे यहां बरसों में कभी-कभार ही कोई वॉर फिल्म बनती है और अगर बन भी जाए तो अक्सर बॉक्स ऑफिस पर ऐसी फिल्में अपनी लागत तक नहीं बटोर पाती। जे.पी. दत्ता ने वॉर पर बॉर्डर सहित कई बेहतरीन फिल्में बनाई, लेकिन करगिल में लड़ी जंग पर बनी मेगा बजट मल्टिस्टारर फिल्म 'एलओसी कारगिल' बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना तो दूर जब अपनी लागत तक भी नहीं बटोर पाई तो वॉर फिल्में बनाने से मेकर्स कतराने लगे। करन जौहर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक ऐसी वॉर को लेकर पूरी ईमानदारी के साथ फिल्म बनाने का जोखिम उठाया जिस जंग के बारे में हर कोई नहीं जानता। बांग्ला देश बनने से पहले भारत पाक के बीच 1971 में हुई जंग के बारे में हम जानते हैं, लेकिन इस जंग से पहले समुद्र के नीचे गहरे पानी के बीच एक ऐसी जंग भी हुई जिस जीत ने 71 की जंग को हमारी सेना के लिए आसान बना दिया। पानी के अंदर लड़ी गई इसी जंग पर बनी यह फिल्म एक ऐसी बेहतरीन फिल्म है जिसे देखते वक्त आप भारतीय होने पर गर्व महसूस कर सकेंगे। कहानी : नवंबर 1971 में दुनिया के नक्शे में आज के बांग्ला देश की पहचान ईस्ट पाकिस्तान के नाम से हुआ करती थी। उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में दमन और नरसंहार का दौर चल रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाला हर शख्स पाकिस्तानी सेना के जुल्म का शिकार था। पूर्वी पाकिस्तान में आजादी की मांग करने वाले बेगुनाह नागरिकों पर पाकिस्तानी सेना ने ऐसा दमन चक्र चला रखा था, जिसकी हर देश में जमकर आलोचना हो रही थी। इसी दौर में17 नवंबर 1971 को इंडियन नेवी के हेडक्वॉर्टर में एक सीक्रेट जानकारी आती है कि पाकिस्तानी नेवी बीच समुद्र में देश की रक्षा में तैनात भारत के सबसे बड़े समुद्री बेड़े आईएनएस विक्रांत पर हमला कर सकती है। नेवी हेडक्वॉर्टर के आला अफसर नंदा (ओम पुरी) इस सूचना की पूरी जांच कर लेना चाहते हैं। इसी मकसद से नंदा एक ऑपरेशन सर्च लैंड टीम बनाते हैं। इस सर्च टीम की कमान पनडुब्बी एस 21 के कैप्टन रणविजय सिंह (के.के. मेनन) के साथ साथ लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन (राणा दग्गुबाती) को सयुंक्त रूप से दी जाती है। दरअसल, नंदा जानते हैं कि कैप्टन रणविजय सिंह कुछ ज्यादा ही अग्रेसिव और गुस्सैल हैं, दुश्मन को सामने पाते ही सिंह दुश्मन को वहीं खत्म करना ठीक समझते हैं। एस 21 पनडुब्बी की इस सर्च टीम में इनके साथ एक और ऑफिसर देवराज (अतुल कुलकर्णी) भी हैं। समुद्र के करीब तीन सौ मीटर नीचे जाकर इस टीम का मुकाबला पाकिस्तानी नेवी के अति आधुनिक और जंग की सभी सुविधाओं और तकनीक से सुसज्जित पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस गाजी के साथ होता है। समुद्र में कैप्टन रणविजय दुश्मन की पनडुब्बी को सामने पाकर उसे खत्म करना चाहते हैं, वहीं लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन का मानना है जब तक हेडक्वॉर्टर से आदेश न आ जाए उस वक्त तक कुछ नहीं करना चाहिए। ऐक्टिंग : डायरेक्टर संकल्प और प्रडयूसर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाले स्टार्स का मोह छोड़कर इस फिल्म के लिए उन्हीं कलाकारों का चयन किया जो किरदारों की डिमांड पर सौ फीसदी फिट हो। कैप्टन रणविजय सिंह के किरदार में के.के. मेनन, देवराज के रोल में अतुल कुलकर्णी के साथ-साथ लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन के किरदार में राणा दग्गुबाती सभी ने अपने जीवंत अभिनय से अपने किरदार में जान डाली है। ओम पुरी अपने किरदार में सौ फीसदी फिट रहे। काश पुरी साहब, अपनी इस फिल्म बेहतरीन फिल्म को देख पाते। रिफ्यूजी डॉक्टर बनी अनन्या (तापसी पन्नू) का किरदार बेशक छोटा है, लेकिन तापसी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। निर्देशन : बतौर डायरेक्टर संकल्प रेड्डी की यह पहली फिल्म है, इसके बावजूद उनकी स्क्रिप्ट पर पूरी पकड़ है। कसी स्क्रिप्ट और जानदार निर्देशन का असर है कि अंत तक आप पूरी फिल्म के साथ बंध जाते हैं। संकल्प ने वीएफएक्स और बैकग्राउंड स्कोर को बेहतरीन बनाने के लिए मेहनत की है। के.के. मेनन और दग्गुबाती के बीच संवाद सटीक हैं। संकल्प की यह फिल्म एक ऐसी जंग के बारे को बताने की ईमानदार कोशिश है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। संकल्प की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पूरी रिसर्च और कम्प्लीट होम वर्क के बाद इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरु किया। यह यकीनन रेड्डी के बेहतरीन निर्देशन का ही कमाल है कि करीब सवा दो घंटे की यह फिल्म देखते वक्त आप इमोशनल भी हैं तो खुद को भारतीय कहलाने पर गर्व भी महसूस करते हैं। वहीं संकल्प ने समुद्र के बीच पनडुब्बी के अंदर और बाहर की घटनाओं को अच्छे ढंग से पेश किया है। क्यों देखें : बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक आ रही चालू मसाला फिल्मों को देखकर आप यह सोचने लगे हैं कि अब अच्छी और नए सब्जेक्ट पर फिल्में बननी बंद हो चुकी है तो 'द गाजी अटैक' एकबार जरूर देखें। एक ऐसी जंग जिसके बारे में शायद आप नहीं जानते उस जंग को देखने का अच्छा मौका है।",0 "राजकुमार राव की पिछली कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत बटोरने के साथ अच्छी-खासी कमाई करने में भी कामयाब रही हैं। रॉव की पिछली फिल्म 'न्यूटन' ऑस्कर में एंट्री पाने में कामयाब रही तो 'बहन होगी तेरी', 'बरेली की बर्फी' को क्रिटिक्स और दर्शकों ने सराहार। अगर 'शादी में जरूर आना' की बात करें तो इस फिल्म में बेशक रत्ना सिन्हा ने अपनी ओर से एक बेहतरीन कॉन्सेप्ट उठाया तो लेकिन डायरेक्टर ने इस सिंपल कहानी को बेवजह इस तरह खींचा कि इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों का इम्तिहान लेने लगती है। फिल्म की रिलीज़ से पहले डायरेक्टर ने अपनी इस फिल्म को मीडिया और दर्शकों में हॉट करने के मकसद से कुछ विवादों का सहारा भी लिया तो फिल्मी मैगज़ीन्स में रॉव और कृति को लेकर जमकर गॉशिप भी आई, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को इनका कुछ खास फायदा मिलने वाला नहीं है। अलबत्ता राव की पिछली तीन फिल्मों में दमदार ऐक्टिंग का फायदा फिल्म को कहीं न कहीं मिल सकता है। वैसे भी इस फिल्म को देखने की यही दो खास वजहें हैं, एक कहानी का रिऐलिटी के नजदीक होना और दूसरा लीड किरदार सत्तु में रॉव की बेहतरीन ऐक्टिंग। स्टोरी प्लॉट: कहानी कानपुर शहर से शुरू होती है। एक दफ्तर में कर्ल्क सत्येंद्र मिश्रा उर्फ सत्तु (राजकुमार राव) को उसके मामा शादी के लिए एक लड़की की फोटो दिखाते हैं। लड़की की फोटो को देखते ही सत्तु की फैमिली पसंद कर लेती है, लेकिन आरती शुक्ला (कृति खरबंदा) की मां चाहती है कि उसकी बेटी शादी से पहले अपने होने वाले पति से एक बार मिल ले। शुरुआत में आरती शादी के लिए हां नहीं करती और इसकी वजह उसे अपना करियर बनाकर अपने सपनों को साकार करना है, लेकिन अपने पापा की जिद के चलते आरती शादी करने के लिए राजी हो जाती है। सत्येंद्र और आरती को इस अरेंज मैरिज के लिए मिलवाया जाता है और पहली ही मुलाकात में आरती और सत्तु एक-दूसरे को दिल दे बैठते हैं। इसके बाद दोनों की फैमिली इनकी शादी की तैयारियों में लग जाती है, लेकिन ठीक शादी वाले दिन दुल्हन आरती मंडप से गायब हो जाती है। सत्तु को लगता है कि आरती ने उसके साथ धोखा किया है और वह अब उसका मकसद आरती से बदला लेना है। सीधा-सादा सत्तु अब एंग्रीमैन बन जाता है।'शादी में जरूर आना' के लीड किरदारों से खास बातचीतअगर ऐक्टिंग की बात करें तो मानना होगा कि राव अब हर तरह के किरदार करने में एक्सपर्ट हो चुके हैं, यहां भी सत्तु के किरदार में रॉव का जवाब नहीं है। कृति खरबंदा अपने रोल में बस ठीक-ठाक रही हैं। वैसे भी यह रॉव के इर्दगिर्द घूमती कहानी है सो बाकी कलाकारों को वैसे भी कुछ ज्यादा करने का मौका ही नहीं मिला। डायरेक्टर ने इस सीधी कहानी को इंटरवल से पहले तो सही ट्रैक पर रखा, लेकिन इंटरवल के बाद क्लाइमैक्स को न जाने क्यों मुंबइया फिल्मों की तर्ज पर करने के लिए फिल्म को बेवजह खींचा है। फिल्म में गाने हैं, शादी के इस सीजन में फिल्म का 'पल्लू लटके' गाना इस बार खूब बज सकता है। इस गाने को नए स्टाइल में पेश किया गया है, बेशक यह गाना माहौल और फिल्म में पूरी तरह से फिट है लेकिन बाकी गाने फिल्म की स्पीड को कम करने का काम करते हैं, वहीं किसी गाने में इतना दम नहीं कि हॉल से बाहर आकर आपको याद रहे। क्यों देखें : अगर आप राजकुमार राव के फैन है और अपने चहेते ऐक्टर की सभी फिल्में देखते हैं तो इस शादी में भी जाएं, लेकिन इस शादी में इतना भी दमखम नहीं है कि शादी में जरूर ही जाना है। ",1 "निर्माता : विशाल भारद्वाज, रमन मारू निर्देशक : अभिषेक चौबे संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी, विद्या बालन, सलमान शाहिद केवल वयस्कों के लिए * एक घंटा 57 मिनट ‘इश्किया’ देखते समय ‘ओंकारा’ की याद आना स्वाभाविक है। ‘ओंकारा’ की ही तरह इस फिल्म के किरदार के मन में क्या चल रहा है जानना कठिन होता है। लालच, प्यार और स्वार्थ के मायने उनके लिए हर पल बदलते रहते हैं। निर्देशक अभिषेक चौबे लंबे समय से विशाल भारद्वाज के साथ जुड़े हुए हैं इसलिए उन पर विशाल का असर होना स्वाभाविक है। हालाँकि ‘इश्किया’ में ‘ओंकारा’ जैसी धार नहीं है, लेकिन अभिषेक का प्रयास सराहनीय है। फिल्म शुरू होती है कृष्णा (विद्या बालन) और उसके पति के अंतरंग दृश्यों से। कुछ ही पलों में एक विस्फोट होता है और कृष्णा का पति मारा जाता है। इधर खालूजान (नसीरुद्दीन शाह) का मुँहबोला जीजा मुश्ताक उसे और बब्बन (अरशद वारसी) को उनकी एक गलती के लिए जिंदा दफनाना चाहता है। मौका मिलते ही दोनों बदमाश भाग निकलते हैं और मुश्ताक के लाखों रुपए भी ले उड़ते हैं। मुश्ताक से छिपते हुए वे अपने दोस्त (कृष्णा के पति) के घर रूकने का फैसला करते हैं जहाँ उनकी मुलाकात उसकी विधवा से होता है। उनके पैरों के तले की जमीन तब खिसक जाती है जब कृष्णा के घर छिपाए पैसे चोरी हो जाते हैं। मुश्ताक पीछा करते हुए उन्हें पकड़ लेता है और रुपए लौटाने के लिए कुछ दिनों की मोहलत देता है। कृष्णा के यहाँ रहते हुए दोनों को उससे इश्क हो जाता है। कृष्णा रोमांस खालूजान से करती है और संबंध बब्बन से बनाती है। कृष्णा को भी पैसों की जरूरत है और उसका नया रूप सामने आता है। तीनों मिलकर एक अमीर व्यापारी का अपहरण करते हैं। कृष्णा को लेकर खालूजान और बब्बन की टकराहट, पैसों को लेकर सभी का लालच और कृष्णा के अतीत के सामने आने से कई विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे हर किरदार की सोच और भावनाओं में परिवर्तन देखने को मिलता है। फिल्म आरंभ होने के दस मिनट बाद आप पूर्वी उत्तर प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि का हिस्सा बन जाते हैं। शहर की चकाचौंध और आधुनिकता से यह फिल्म दूर ले जाती है। देहाती किरदार, उनकी भाषा और रहन-सहन को निर्देशक अभिषेक चौबे ने बखूबी फिल्माया और ड्रामे को जटिलता के साथ पेश किया। साथ ही सीमा के नजदीक चलने वाली हलचल को भी उन्होंने दिखाया है कि हथियार कितनी आसानी से उपलब्ध हैं। जातिवाद किस तरह चरम पर पहुँच गया है उसे एक संवाद से दर्शाया गया है। खालूजान को बब्बन कहता है ‘यह जगह बहुत खतरनाक है। अपने यहाँ तो सिर्फ शिया और सुन्नी हैं यहाँ तो यादव, पांडे, जाट हर किसी ने अपनी फौज बना ली है।‘ हालाँकि उन्होंने इन विषयों को हल्के से छूआ है। फिल्म का स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि किरदारों के मन में क्या चल रहा है या आगे क्या होने वाला है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इस वजह से फिल्म दर्शकों को बाँधकर रखती है। क्लाइमैक्स के थोड़ा पहले कसावट कमजोर पड़ जाती है। ऐसा लगता है कि जल्दबाजी में काम किया गया है। इस हिस्से में फिल्म का संपादन भी ठीक नहीं है और कनफ्यूजन पैदा होता है। फिल्म का संगीत बेहतरीन है और यह भी फिल्म देखने का एक कारण है। गुलजार और विशाल की जोड़ी ने ‘इब्ने बतूता’ और ‘दिल बच्चा है’ जैसे बेहतरीन गीत दिए हैं। मोहन कृष्णा की सिनेमेटोग्राफी शानदार है। अभिनय में फिल्म के तीनों मुख्य कलाकारों ने बेजोड़ अभिनय किया है। नसीरुद्दीन शाह कभी खराब अभिनय कर ही नहीं सकते हैं। उनकी संगति का असर अरशद वारसी पर भी हुआ और नसीर के साथ उनकी जुगलबंदी खूब जमी। निर्देशक ने उन पर नियंत्रण रखा और उन्होंने ओवरएक्टिंग नहीं की। ‘पा’ के बाद विद्या बालन ने एक बार फिर अपना रंग जमाया। उनके चरित्र में कई शेड्स हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है। अगर रूटीन मसाला फिल्मों से हटकर आप कुछ देखना चाहते हैं तो ‘इश्किया’ देखी जा सकती है। ",1 "कहानी: विंस्टन चर्चिल (गैरी ओल्डमैन) को यह निर्णय लेना है कि युनाइटेड किंगडम को अडोल्फ हिटलर से समझौता करना है या दूसरे विश्व युद्ध में लड़ते रहना है। रिव्यू: 'डार्केस्ट आवर' की शुरुआत में किंग जॉर्ज VI (बेन मेंडलसन) झिझकते हुए चर्चिल को प्रधानमंत्री बनाते हैं क्योंकि डनकर्क के बीच पर 3,00,000 ब्रिटिश सैनिकों को नाजी सैनिकों ने बंधक बना रखा है जबकि नाजियों ने लगभग पूरे यूरोप पर कब्जा कर रखा है। जहां क्रिस्टफर नोलन की 'डनकर्क' केवल बीच से इन सैनिकों को बचाए जाने पर आधारित है वहीं 'डार्के्सट आवर' इन दिनों के डॉक्युमेंट्स पर आधारित है जिसमें खासतौर से चर्चिल ने अपने देश के भविष्य के लिए किस तरह फैसले लिए थे, यह दर्ज है।चर्चिल की भूमिका निभाना काफी कठिन था लेकिन गैरी ओल्डमैन ने इसे बखूबी निभाया है और शायद अपनी सबसे अच्छी परफॉर्मेंस दी है। ओल्डमैन ने उस दौरान की स्थितियों के हिसाब से चर्चिल पर पड़े भारी बोझ को बखूबी दिखाया है। संभव है कि इस भूमिका के लिए ओल्डमैन को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिल जाए। ओल्डमैन के साथ ही इस फिल्म लिली जेम्स जैसी स्ट्रॉन्ग कास्ट है जिन्होंने उसकी सेक्रटरी एलिजाबेथ का किरदार निभाया है। बेन मेंडलसन ने हकलाते हुए किंग जॉर्ज की भूमिका को बखूबी निभाया है। स्टीफन डिलेन ने एडवर्ड वुड का किरदार निभाया है जो चर्चिल के सबसे बड़े विरोधी थे। इसके अलावा क्रिस्टन स्कॉट थॉमस ने क्लेमेंटाइन चर्चिल की भूमिका निभाई है जो अपने पति का साथ देती हैं।डायरेक्टर जो राइट ने फिल्म के मोमेंटम को पैशन के साथ बनाए रखा है साथ ही इसमें भारी बैकग्राउंड म्यूजिक और टॉप ऐंगल शॉट्स का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है। स्क्रीनप्ले सधा हुआ है जिसके कारण उस दौर की ऐतिहासिक घटनाओं को एक बार फिर देखने का मौका मिलता है। फिल्म के कई सीन दर्शकों को रिस्पॉन्स देने के लिए उकसाते हैं। अगर आप ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी और बेहतरीन परफॉर्मेंस से सजी फिल्म देखना पसंद करते हैं तो 'डार्केस्ट आवर' को मिस न करें। ",1 "फिल्म का संगीत एक और निराशाजनक पहलू है। साजिद-वाजिद ने एक से एक घटिया धुनें बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘पेइंग गेस्ट्‍स’ में मनोरंजन के लायक कुछ भी नहीं है। निर्माता : राजू फारुकी निर्देशक : पारितोष पेंटर संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : श्रेयस तलपदे, सेलिना जेटली, आशीष चौधरी, रिया सेन, जावेद जाफरी, नेहा धूपिया, चंकी पांडे, सयाली भगत, वत्सल सेठ, जॉनी लीवर, पेंटल, असरान ी ’पेइंग गेस्ट्‍स’ प्रदर्शित होने के कुछ घंटों पहले ही इस फिल्म से जुड़े सुभाष घई ने कह दिया कि यह फिल्म देखने लिए दिमाग घर रखकर आइए। चलिए घई साहब की बात मान ली, लेकिन इसके बावजूद ‘पेइंग गेस्ट्‍स’ देख निराशा होती है। दिमाग घर पर रखकर आने की बात कहकर आप जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। माना कि इस तरह की फिल्मों में लॉजिक ढूँढने की कोशिश नहीं करना चाहिए, लेकिन कम से कम फिल्म तो ढंग की होनी चाहिए जबकि लॉजिक को साइड में रखने से लेखक और निर्देशक को ज्यादा स्वतंत्रता मिल जाती है। फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। सैकड़ों बार दोहराए गए दृश्य इस फिल्म में भी नजर आते हैं। चार युवा (श्रेयस तलपदे, जावेद जाफरी, आशीष चौधरी और वत्सल सेठ) मौज-मस्ती के साथ जिंदगी जीना पसंद करते हैं। इनकी नौकरी चली जाती है और मकान मालिक घर से निकाल देता है। नए घर की तलाश करते हुए इनकी मुलाकात मकान मालिक बल्लू (जॉनी लीवर) से होती है। बल्लू उनके आगे भारी-भरकम शर्त रख देता है। वो उन्हें ही पेइंग गेस्ट रखेगा, जिसकी शादी हो चुकी हो। शर्त सुनकर चारों का दिमाग घूमने लगता है। वे ठहरे कुआँरे, पत्नी कहाँ से लाएँगे? आखिरकार दो दोस्त (श्रेयस और जावेद) महिला का भेष धारण करते हैं और बल्लू को बेवकूफ बनाते हैं। इस हास्य फिल्म में अपराध की कहानी भी जोड़ी गई है। रोनी (चंकी पांडे) बल्लू का भाई है और वह उसे परेशान करता है। बल्लू की तरफ से चारों दोस्त उससे निपटते हैं। कहानी के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं है। फिल्मकार का सिर्फ एक ही उद्देश्य है दर्शकों को हँसाना। छोटे-छोटे हास्य दृश्य रचे गए हैं। ज्यादातर का कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। इन दृश्यों को देख हँसी नहीं आती है। स्क्रीनप्ले में इतना दम नहीं है कि बिना कहानी के वो दर्शकों को बाँधकर रखे। फिल्म में हास्य की बहुत गुंजाइश थी, लेकिन नया सोच पाने में निर्देशक और लेखक पारितोष पेंटर बुरी तरह नाकाम रहे। फिल्म का अंत तो सीधे-सीधे ‘जाने भी दो यारों’ से उठा लिया गया है, जिसमें एक नाटक का मंचन होता रहता है और सारे पात्र उस नाटक का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन फिल्म के इस हिस्से में भी हँसी तो दूर चेहरे पर मुस्कान तक नहीं आती। अभिनय में श्रेयस तलपदे और जावेद जाफरी प्रभावित करते हैं। आशीष चौधरी और वत्सल सेठ के अभिनय में सुधार दिखाई देता है। हीरो की तुलना में सेलिना जेटली, नेहा धूपिया, रिया सेन जैसे भारी नाम हैं, लेकिन इन्हें दृश्य भी कम मिले और इनके ग्लैमर का भी उपयोग नहीं किया गया। सयाली भगत सिर्फ भीड़ बढ़ाने के लिए हैं। जॉनी लीवर, पेंटल, असरानी और चंकी पांडे के हँसाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए। फिल्म का संगीत एक और निराशाजनक पहलू है। साजिद-वाजिद ने एक से एक घटिया धुनें बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘पेइंग गेस्ट्‍स’ में मनोरंजन के लायक कुछ भी नहीं है। ",0 "निर्माता : हीरू यश जौहर, गौरी खान निर्देशक : करण जौहर कहानी-स्क्रीनप्ले : शिबानी बाठिजा गीत : निरंजन आयंगार संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : शाहरुख खान, काजोल, जिमी शेरगिल, ज़रीना वहाब यू/ए * दो घंटे 40 मिनट ज्यादातर लोग धर्म के आधार पर राय बनाते हैं कि वह इंसान अच्छा है या बुरा है। 9/11 के बाद इस तरह के लोगों की संख्‍या में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। अमेरिका और यूरोप में एशियाई लोगों के प्रति अन्य देशों के लोगों में नफरत बढ़ी है। ‘ट्विन टॉवर्स’ पर हमला करने वाले मुस्लिम थे, इसलिए सारे मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। जबकि व्यक्ति का अच्छा या बुरा होना किसी धर्म से संबंध नहीं रखता है। ‘माई नेम इज खान’ में बरसों पुरानी सीधी और सादी बात कही गई है। ‘दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं अच्छे या बुरे।‘ इस लाइन के इर्दगिर्द निर्देशक करण जौहर और लेखिका शिबानी बाठिजा ने कहानी का तानाबाना बुना है। उपरोक्त बातें यदि सीधी-सीधी कही जाती तो संभव है कि ‘माई नेम इज खान’ डॉक्यूमेंट्री बन जाती और ज्यादा लोगों तक बात नहीं पहुँच पाती। इसलिए मनोरंजन को प्राथमिकता देते हुए लवस्टोरी को रखा गया और बैकड्रॉप में 9/11 की घटना से लोगों के जीवन और नजरिये पर क्या प्रभाव हुआ यह दिखाया गया। कहानी है रिज़वान खान (शाहरुख खान) की। वह एस्पर्गर नामक बीमारी से पीड़ित है। ऐसा इंसान रहता तो बहुत होशियार है, लेकिन कुछ चीजों से वह डरता है। घबराता है। इसलिए आम लोगों से थोड़ा अलग दिखता है। रिज़वान पीला रंग देखकर बैचेन हो जाता है। अनजाने लोगों का साथ और भीड़ से उसे घबराहट होती है। शोर या तेज आवाज वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। लेकिन वह खूब किताबें पढ़ता है। उसकी याददाश्त बेहद तेज है। टाइम-टेबल से वह काम करता है। रिजवान पर अपनी माँ (जरीना वहाब) की बातों का गहरा असर है, जिसने उसे बचपन में इंसानियत के पाठ पढ़ाए थे। माँ के निधन के बाद रिज़वान अपने छोटे भाई जाकिर (जिमी शेरगिल) के पास अमेरिका चला जाता है। अपने भाई की कंपनी के प्रोडक्ट्स वह बाजार में जाकर बेचता है और उसकी मुलाकात मंदिरा (काजोल) से होती है। मंदिरा अपने पति से अलग हो चुकी है और उसका एक बेटा है। रिजवान और मंदिरा एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। जाकिर नहीं चाहता कि रिजवान हिंदू लड़की से शादी करे, लेकिन रिजवान उसकी बात नहीं मानता। शादी के बाद रिजवान और मंदिरा खुशहाल जिंदगी जीते हैं, लेकिन 9/11 की घटना के बाद उनकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है। एक ऐसी घटना घटती है कि रिजवान को मंदिरा अपनी जिंदगी से बाहर फेंक देती है। मंदिरा को फिर पाने के लिए रिजवान अमेरिका यात्रा पर निकलता है और किस तरह वह उसे वापस पाता है यह फिल्म का सार है। कहानी में रोमांस और इमोशन का अच्छा स्कोप है और करण जौहर ने इसका पूरा फायदा उठाया है। उन्होंने कई छोटे-छोटे ऐसे दृश्य रचे हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं। काजोल और शाहरुख के रोमांस वाला भाग बेहतरीन है। इसमें करण को ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ी होगी क्योंकि शाहरुख-काजोल में गजब की कैमेस्ट्री है। ‘बाजीगर’ को रिलीज हुए बरसों हो गए लेकिन इस गोल्डन कपल में अभी भी ताजगी नजर आती है। समुद्र किनारे खड़े होकर शहर की ओर देखते हुए रिजवान कामयाब होने की बात कहता है। यह दृश्य शाहरुख की जिंदगी से लिया गया है। फिल्मों में आने के पहले मुंबई में समुद्र किनारे खड़े होकर उन्होंने इस शहर पर छा जाने का ख्‍वाब देखा था। मध्यांतर के पहले वाला हिस्सा शानदार है। फिल्म की पहली फ्रेम से ही दर्शक रिजवान और मंदिरा के परिवार का हिस्सा बन जाता है और उनके दर्द और खुशी को वह महसूस करता है। फिल्म के दूसरे हिस्से में कुछ गैर-जरूरी दृश्य हैं और कहीं-कहीं फिल्म अति नाटकीयता का शिकार हुई है, लेकिन ये कमियाँ फिल्म की खूबियों के मुकाबले बहुत कम है। फिल्म के मुख्य किरदार को एस्पर्जर सिंड्रोम से ग्रस्त क्यों दिखाया गया? इसके दो कारण है। पहला, फिल्म कुछ अलग दिखे, शाहरुख को कुछ कर दिखाने का अवसर मिले। और दूसरा कारण ये कि इंसानियत, धर्म, अच्छाई और बुराई को वो इंसान उन भले-चंगे लोगों से ज्यादा अच्‍छी तरह समझता है, जिसे लोगों को समझने में कठिनाई होती है। शाहरुख खान के आलोचक अक्सर कहते हैं कि वे हर किरदार को शाहरुख बना देते हैं, लेकिन यहाँ वे रिजवान वे ऐसे घुल गए कि शाहरुख याद ही नहीं रहते। रिजवान की बॉडी लैंग्वेज, चलने और बोलने का अंदाज, उसकी कमियाँ, उसकी खूबियाँ को उन्होंने इतनी सूक्ष्मता से पकड़ा है कि लगने लगता है कि उनसे बेहतरीन इस किरदार को कोई और नहीं निभा सकता था। खासतौर पर रिजवान जब शरमाकर हँसता है तो उन दृश्यों में शाहरुख का अभिनय देखने लायक है। उन्होंने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। जो लोग ‍कहानी से सहमत नहीं भी हो, उन लोगों को भी शाहरुख का अभिनय बाँधकर रखता है। काजोल में चंचलता बरकरार है। मंदिरा के रूप में उनकी एक्टिंग देखने लायक है। कई दृश्यों में उनकी आँखें संवाद से ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी बात कहती है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी ने अपना काम बखूबी किया है। रवि के चन्द्रन की सिनेमेटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। फिल्म का संपादन उम्दा है। शंकर-अहसान-लॉय ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत दिया है। ‘माई नेम इज खान’ में कई मैसेजेस हैं, जिसमें अहम ये कि धर्म का चश्मा पहनकर व्यक्ति का आँकलन न किया जाए। शाहरुख-काजोल का अभिनय, करण का उम्दा निर्देशन और मनोरंजन के साथ संदेश य े बाते ं फिल्म को देखने लायक बनात ी है। ",1 "कुल मिलाकर ‘भूतनाथ’ एक साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। वयस्क भी अगर बच्चा बनकर ‍इस फिल्म को देखें तो उन्हें भी यह फिल्म पसंद आ सकती है। निर्माता : बी.आर.चोपड़ा-रवि चोपड़ा निर्देशक : विवेक शर्मा संगीत : विशाल शेखर कलाकार : अमिताभ बच्चन, अमन सिद्दकी, जूही चावला, शाहरुख खान, सतीश शाह, राजपाल यादव, प्रियांशु चटर्जी भूत-प्रेत की फिल्मों के लिए आवश्यक होती है सुनसान जगह पर एक विशालकाय पुरानी हवेली। ‘भूतनाथ’ में भी इसी तरह की हवेली है, जिसमें एक माँ अपने सात वर्षीय बेटे के साथ रहती है। हवेली में एक भूत भी रहता है। यहाँ तक तो ‘भूतनाथ’ आम भूत-प्रेत पर बनने वाली फिल्मों की तरह है, लेकिन जो बात इस फिल्म को अन्य फिल्मों से जुदा करती है वो ये कि इस फिल्म का भूत डरावना नहीं है। उसमें मानवीय संवेदनाएँ हैं। उसका भी दिल है, जिसके जरिये वह खुशी और गम को महसूस करता है। ‘भूतनाथ’ की कहानी काल्पनिक, सरल और सीधी है। ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हैं लेकिन इस कहानी को निर्देशक विवेक शर्मा ने परदे पर खूबसूरती के साथ पेश किया है, जिससे एक साधारण कहानी का स्तर ऊँचा उठ गया है। बंकू (अमन सिद्दकी) के परिवार में पापा (शाहरुख खान) और मम्मी (जूही चावला) हैं। गोवा में उन्हें कंपनी की तरफ से कैलाशनाथ की हवेली रहने को मिलती है। इस हवेली के बारे में कहा जाता है कि इसमें भूत रहता है। कैलाशनाथ भूत बन चुका है और उसे अपने घर में किसी का रहना पसंद नहीं है। वह बंकू को डराने की कोशिश करता है, लेकिन बंकू पर इसका कोई असर नहीं होता। बंकू उसे भूतनाथ नाम से पुकारने लगता है और दोनों के बीच दोस्ती हो जाती है। वे साथ में मिलकर खूब मौज-मस्ती करते हैं। भूतनाथ सिर्फ बंकू को दिखाई देता है। एक दिन कैलाशनाथ का बेटा अमेरिका से आकर हवेली को बेचने का प्रयास करता है। यहाँ से कहानी में घुमाव आता है। निर्देशक ने छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये कई संदेश दिए हैं। स्पोर्ट्‍स-डे के दिन बंकू खेल के मैदान पर लगातार हारता रहता है। वह चाहता है कि भूतनाथ चमत्कार दिखा दे और वह जीत जाए। चींटी का उदाहरण देते हुए भूतनाथ उससे कहता है कि चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती, सिर्फ कड़ी मेहनत के जरिये ही सफलता पाई जा सकती है। दूसरों के लिए कुआँ खोदने वाला खुद कुएँ में गिरता है और क्षमा के महत्व को भी फिल्म में दर्शाया गया है। नई पीढ़ी अपने करियर को हद से ज्यादा महत्व देती है और करियर के कारण अपने माता-पिता को भी उपेक्षित करती है। इस तथ्य को भी ‘भूतनाथ’ में रेखांकित किया गया है। जब कैलाशनाथ का बेटा करियर की खातिर अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध अमेरिका जाने का निर्णय लेता है तो कैलाशनाश इसे अपनी गलती मानते हैं कि उनकी प‍रवरिश में कोई गलती रह गई है। इस दृश्य के जरिये दो पीढि़यों की सोच के अंतर को दिखाया गया है। निर्देशक विवेक शर्मा की फिल्म माध्यम पर पकड़ है। फिल्म देखकर महसूस नहीं होता कि यह उनकी पहली‍ फिल्म है। उन्होंने फिल्म इस तरह बनाई है कि दर्शक फिल्म में खो जाता है। फिल्म में पात्र बेहद कम हैं, लेकिन इसके बावजूद एकरसता नहीं आती है। कुछ कमियाँ भी हैं। मध्यांतर के पहले वाला भाग बेहद मनोरंजक है लेकिन बाद में गंभीरता आ जाती है और इस हिस्से में बच्चों के बजाय वयस्कों का ध्यान रखा गया है। इस भाग में भी हल्के-फुल्के दृश्यों का समावेश किया जाना था। फिल्म का अंत भी ऐसा नहीं है जो सभी दर्शकों को संतुष्ट कर सके। फिल्म का आख‍िरी घंटा थोड़ा लंबा है। कुछ गीत और दृश्य कम कर इसे छोटा किया जा सकता है। फिल्म का संगीत औसत किस्म का है। जावेद अख्तर ने अर्थपूर्ण गीत लिखे हैं, लेकिन विशाल शेखर स्तरीय धुन नहीं बना सके। ‘छोड़ो भी जाने दो’ फिल्म का श्रेष्ठ गाना है। अमिताभ बच्चन ने फिल्म का केन्द्रीय पात्र निभाया है और एक बार फिर उन्होंने दिखाया है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। अमन सिद्दकी ने अमिताभ को कड़ी टक्कर दी है। उनका अभिनय आत्मविश्वास से भरा और नैसर्गिक है। शाहरुख खान की भूमिका प्रभावशाली तो नहीं है, लेकिन पूरी फिल्म में वे बीच-बीच में आते रहते हैं। जूही चावला ने बड़ी आसानी से अपने किरदार को निभाया। प्रिंस‍िपल बने सतीश शाह बच्चों को खूब हँसाते हैं। राजपाल यादव को ज्यादा अवसर नहीं मिला। कुल मिलाकर ‘भूतनाथ’ एक साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। वयस्क भी अगर बच्चा बनकर ‍इस फिल्म को देखें तो उन्हें भी यह फिल्म पसंद आ सकती है। ",1 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने अब के करियर में कई ऐड फिल्में बनाने के बाद इस फिल्म को कम बजट और बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ न माने जाने वाली स्टार कास्ट के साथ बनाया। यह फिल्म देखने वालों को एक अच्छा मेसेज देती है। ताज्जुब होता है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देकर सत्ता में आने वाले हमारे लीडर कुर्सी मिलने के बाद इस बात को भूल जाते हैं, तभी तो ऐसी बेहतरीन मेसेज देने वाली लीक से हटकर बनी फिल्मों को अक्सर देश भर में बॉक्स ऑफिस पर पहले से चल रही मेगा बजट, मल्टिस्टारर फिल्मों के चलते सिनेमाघर अपने यहां प्रदर्शित करने से हिचकिचाते हैं। अगर रिस्क लेकर सिनेमा मालिक ऐसी फिल्म लगा भी ले तो महंगी टिकट दरों के चलते बॉक्स आफिस पर ऐसी बेहतरीन फिल्में पहले ही दिन दम तोड़ देती हैं। हालांकि, दिल्ली सरकार ने इस फिल्म को एंटरटेनमेंट टैक्स में सौ फीसदी छूट देने का फैसला किया है। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आगरा शहर की एक छोटी सी कॉलोनी के कुछ घरों में सफाई वगैरह का काम करने वाली कामवाली बाई चंदा सहाय (स्वरा भास्कर) बेशक खुद दसवीं पास नहीं कर पाईं, लेकिन चंदा चाहती है कि उसकी बेटी अपेक्षा सहाय (रिया शुक्ला) दिल लगाकर पढ़े और एक दिन डॉक्टर, इंजिनियर बनकर अपना नाम रोशन करे। दूसरी ओर अपेक्षा की सोच मां की सोच से अलग है। अपेक्षा का मानना है दसवीं पास करने के बाद भी उसे मां की तरह घरों में कामवाली बाई का काम ही तो करना है, सो अपेक्षा भी पढ़ाई से ज्यादा वक्त घर में टीवी पर सीरियल या फिल्में देखने या फिर घर के बाहर बच्चों के साथ खेलने में गुजारती है। अब अपेक्षा दसवीं क्लास में पहुंच चुकी है। चंदा अच्छी तरह से जानती है कि उसकी बेटी मैथ में निल बट्टे सन्नाटा यानी जीरो है। अपेक्षा मैथ सीखने की बजाए उससे दूर ही भागती है। चंदा को चिंता है कि अपेक्षा इस बार मैथ में बेहद कमजोर होने की वजह से परीक्षा में फेल हो सकती है। चंदा कॉलोनी में डॉक्टर मैडम (रत्ना शाह पाठक) के घर में सफाई का काम करती है और उनके साथ अपनी हर बात शेयर करती है। डॉक्टर मैडम जानती है कि अपेक्षा मैथ मे जीरो है, ऐसे में एक दिन डॉक्टर मैडम एक अनोखी सलाह देती है। इस सलाह को मानकर चंदा उसी स्कूल की उसी क्लास में ऐडमिशन लेती है। स्कूल में जाकर चंदा देखती है कि क्लास में मैथ टीचर (पकंज त्रिपाठी) अक्सर अपेक्षा का मैथ में कम नंबर लाने की वजह से दूसरे स्टूडेंट के सामने मजाक उड़ाता रहता है। एक ही क्लास में होने के बावजूद मां- बेटी एक दूसरे से अनजान बनी रहती हैं। अपेक्षा को जरा भी पसंद नहीं कि उसकी मां भी स्कूल में आए, लेकिन चंदा अपनी बेटी को सही राह पर लाने के लिए अपना फैसला नहीं बदलती। अब स्कूल में एग्ज़ाम शुरू होने वाले हैं, घर में मां-बेटी के बीच एक डील होती है कि अगर अपेक्षा मैथ के एग्ज़ाम में चंदा से ज्यादा नंबर लाएगी तो चंदा स्कूल जाना बंद कर देगी। ऐक्टिंग : चंदा सहाय के लीड किरदार में स्वरा भास्कर ने बेहतरीन ऐक्टिंग करके साबित किया है कि ऐक्टिंग के मामले में वह ग्लैमर इंडस्ट्री की किसी भी टॉप ऐक्ट्रेस से पीछे नहीं। घर में काम करने वाली ऐसी बाई जो अपनी बेटी के लिए आसमां को छूते सपने देखती है, इस किरदार को स्वरा ने कैमरे के सामने बखूबी जिया है। चंदा की बेटी अपेक्षा बनी रिया शुक्ला ने किरदार के मुताबिक दमदार ऐक्टिंग की है, चंदा को अपनी दीदी की तरह समझाने वाली डॉक्टर के रोल में रत्ना पाठक शाह परफेक्ट हैं। स्कूल प्रिंसिपल और मैथ टीचर के रोल में पकंज त्रिपाठी का जवाब नहीं, पकंज जब भी स्क्रीन पर आते हैं तभी आपके चेहरे पर हंसी मुस्कान भी आ जाती है। निर्देशन : तारीफ करनी होगी डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी की, जिन्होंने स्क्रिप्ट पर कहीं समझौता नहीं किया और एक गरीब मां के सपनों को पूरी ईमानदारी के साथ पर्दे पर पेश किया। मां-बेटी के बीच तनाव और उनके बीच विचारों के टकराव को डायरेक्टर ने कहानी का अहम हिस्सा बनाया तो फिल्म के चार प्रमुख किरदारों मां-बेटी, मैथ टीचर और डॉक्टर मैडम को पूरी फुटेज देते हुए हर कलाकार से बेहतरीन काम लिया। स्कूल में मां-बेटी के बीच की टसन और एक कामवाली बाई के घर और आस-पास के माहौल को पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया। बेशक फिल्म की शुरुआत सुस्त है, लेकिन क्लाइमैक्स आपकी आंखें नम करने का दम रखता है। संगीत : डब्बा गुल गाने का फिल्मांकन बेहतरीन है, बैकग्राउंड म्यूजिक जानदार है। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं और चाहते है बॉलिवुड मेकर ऐसी फिल्में बनाए तो इस फिल्म को फैमिली के साथ देखने जाएं, दिल्ली में फिल्म टैक्स फ्री है तो मिस न करें। ",0 "अतीत हमेशा दफन नहीं रहता और यह पहला मौका मिलते ही आपके सामने आ खड़ा होता है। टॉम क्रूज, रसेल क्रो, सोफिया बुटेला और अनाबेल वेलिस जैसे नामी हॉलिवुड सितारों सजी फिल्म द ममी आपको कुछ यही सबक देती है। सबसे पहले आपको बता दें कि इस फिल्म द ममी का इससे पहले आईं ममी फ्रैंचाइजी की तीनों फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं है। इस फिल्म से द ममी फ्रेंचाइजी को एक नई कहानी के साथ फिर से शुरू किया गया है। कहानी: फिल्म की शुरुआत में लंदन में मेट्रो की खुदाई के दौरान एक मकबरा मिलता है। उसमें निकली ममी देखकर वहां के लोग हैरान रह जाते हैं कि आखिर मिस्र की विरासत यहां कैसे आ पहुंची? दूसरी ओर इराक में अमेरिकी सेना के लिए काम कर रहे निक मॉर्टन (टॉम क्रूज) और पुरानी चीजों पर रिसर्च करने वाली जेनी (अनाबेल वेलिस) को प्राचीन मिस्र की राजकुमारी आहमानेट (सोफिया बुटेला) का मकबरा मिलता है। करीब पांच हजार साल पहले जन्मी आहमानेट मिस्र के राजा फैरो की बेटी थी, जिसे उसके पिता के बाद वहां की रानी बनना था। लेकिन अपने पिता के बेटा यानी उसके भाई का जन्म होने के बाद उसकी रानी बनने की सारी उम्मीदें टूट गईं। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उसने अपने मां-बाप और भाई को मार दिया और बुराई के देवता सेट से समझौता कर लिया। लेकिन उसकी इच्छा पूरी होने से पहले ही वहां के लोगों ने उसे जिंदा ही इस मकबरे में कैद कर दिया था। निक अनजाने में उसे आजाद कर देता है। उसके बाद शैतान रानी जिंदा हो जाती है और अपनी बुरी ताकतों के साथ एक बार फिर अपने बुराई के मिशन को पूरा करने में जुट जाती है। आहमानेट को मकबरे से आजाद करने की वजह से निक भी उसके मिशन को पूरा करने के लिए शापित हो जाता है। हालांकि मिस्र की शैतान रानी अपने मिशन में कामयाब हो पाती है या नहीं यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। मौजूदा द ममी में भी पुरानी ममी फ्रैंचाइजी की फिल्मों की तरह कीड़ों, मकड़ियों और चूहों की फौज के फिल्म के किरदारों पर हमला बोलते हुए दिलचस्प सीन दिखाए गए हैं, लेकिन फिर भी ये पहली फिल्मों जैसा डर पैदा नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी भी दर्शकों में वह रोमांच नहीं पैदा कर पाती है। आहमानेट फिल्म में कभी बेहद शक्तिशाली नजर आती है, तो कभी निरीह कैदी की तरह जंजीरों में जकड़ी हुई, जोकि आसानी से हजम नहीं होता। उसकी सेना में शामिल ममी भी उतना इफेक्ट नहीं छोड़ पातीं और कमजोर नजर आती हैं। हालांकि उसकी कौवों की सेना के हमला वाला सीन जरूर जोरदार नजर आता है। क्लाइमैक्स में भी आहमानेट फुल फॉर्म में नजर आई हैं। खासकर बीते जमाने के मिस्र और रेगिस्तान के सीन भी रोमांचक बन पड़े हैं। इंटरवल से पहले फिल्म आपको कहानी से रूबरू कराती है, तो सेकंड हाफ में चीजें तेजी से घटती हैं। ऐक्टिंग: फिल्म में टॉम क्रूज औसत ऐक्टिंग करते नजर आए हैं। अगर आप टॉम क्रूज के फैन के तौर पर फिल्म देखने जा रहे हैं, तो वह एक शैतान राजकुमारी से बचते इंसान के रोल में उतने दमदार नहीं लगते, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। जेनी के रोल में अनाबेल वेलिस के पास ज्यादा कुछ करने को नहीं था। हालांकि रानी आहमानेट के रोल में सोफिया बुटेला जरूर दिलचस्प लगी हैं। खासकर उनकी आंखें दर्शकों पर डरावना प्रभाव छोड़ती हैं। वहीं डॉक्टर हेनरी का रोल कर रहे रसेल क्रो को फिल्म का सरप्राइज कहा जा सकता है, जो कि आपको हैरान करते हैं। फिल्म का असली मजा लेना है, तो इसे थ्रीडी में देखें। ज्यादातर हॉलिवुड फिल्मों की तरह डायरेक्टर ने क्लाईमैक्स में फिल्म के सीक्वल की गुंजाइश छोड़ दी है। ",0 " कोच्चडयान 3डी मोशन कैप्चर्स तकनीक से बनी हुई फिल्म है। इस तकनीक में फिल्म के मुख्य कलाकार विशेष ड्रेस और तकनीक से लैस एक कमरे में सारे शॉट्स देते हैं। उन्हें वहीं रोमांस करना होता है और स्टंट्स भी। अकेले लड़ते हुए उन्हें महसूस करना होता है कि उनके इर्दगिर्द ढेर सारे सैनिक युद्ध कर रहे हैं। उनके एक्सप्रेशन और बॉडी लैंग्वेज को कैद कर एनिमेशन का रूप दिया जाता है, जिससे एनिमेशन एकदम जीवंत लगते हैं। कोच्चडयान' हॉलीवुड फिल्म 'अवतार' की तर्ज पर बनी है, लेकिन 'अवतार' से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है। निश्चित रूप से अवतार ज्यादा बेहतर फिल्म है क्योंकि हजार करोड़ से भी ज्यादा बजट में वह बनी है, जबकि 'कोच्चडयान' लगभग सवा सौ करोड़ रुपये की फिल्म है। 'अवतार' जितने बजट में भारतीय भी उम्दा फिल्म बना सकते हैं, लेकिन भारतीय फिल्मों का बाजार हॉलीवुड फिल्मों की तुलना में बेहद सीमित होता है। कोच्चडयान जैसी फिल्मों के लिए आप बजट की ज्यादा चिंता किए बगैर अपनी कल्पना को ऊंची उड़ान दे सकते हैं। इसीलिए इसकी कहानी अतीत की है जब भारत में राजाओं का राज था। विशाल सेना, ऊंचे महल, गहने और शानदार ड्रेसेस को एनिमेशन के जरिये आसानी से दिखाया जा सकता है। कोच्चडयान' की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी कहानी है क्योंकि यह बेहद सपाट है। जो उतार-चढ़ाव होने चाहिए वो इसमें मिसिंग है। राजा-रानी की बरसों पुरानी कहानी को दोहराया गया है। कोट्टइपटनम का सेनापति कोच्चडयान की लोकप्रियता से वहां का राजा ईर्ष्या से जल उठता है। अवसर पाते ही एक मामले में वह कोच्चडयान (रजनीकांत) को दोषी ठहरा कर मौत की सजा सुना देता है। कोच्चडयान का बेटा राणा (रजनीकांत) किस तरह से अपनी पिता की मौत बदला लेता है और उनका गौरव लौटाता है, यह फिल्म का सार है। इस दरमियान वह एक खूबसूरत राजकुमारी से इश्क भी लड़ाता है। फिल्म में राणा (रजनीकांत) का बखान करने में लंबा वक्त लिया गया है। कोच्चडयान (रजनीकांत) के आने से फिल्म में थोड़ी दिलचस्पी जागती है और आखिरी के आधे घंटे में घटनाक्रम तेजी से घटते हैं। बीच में युद्ध और कोच्डयान के तांडव के अच्छे सीन भी हैं, लेकिन इतना काफी नहीं है। फिल्म का शुरुआती घंटा बोरियत से भरा है और ढेर सारे गाने इस बोरियत को और बढ़ाते हैं। एआर रहमान का संगीत पहले जैसा मधुर नहीं रह गया है कि दर्शकों को गाने ही सीट पर बैठा रखे। फिल्म की कहानी राणा के इर्दगिर्द घूमती है और इसलिए फिल्म का नाम 'कोच्चडयान' क्यों रखा गया है, यह समझ से परे है। फिल्म का निर्देशन रजनीकांत की बेटी सौन्दर्या ने किया है। निश्चित रूप से सौन्दर्या के प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने भारत में इस तकनीक के जरिये फिल्म बनाई है। अपनी कल्पना को स्क्रीन पर तकनीक के जरिये साकार करना उनके लिए आसान नहीं होगा। एनिमेशन की गुणवत्ता कई जगह स्तरीय नहीं है, लेकिन प्रयास प्रशंसनीय है। रजनीकांत की इमेज को ध्यान में रखते हुए उन्होंने राणा और कोच्चडयान के किरदार उसी तरह गढ़े हैं। फिल्म में कई जगह अच्छे संवाद सुनने को मिलते हैं। कहानी पर अगर थोड़ी और मेहनत की जाती तो बात कुछ और होती। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या रजनीकांत के फैन उन्हें एनिमेटेड रूप में देखना चाहते हैं। जब हमारे पास वास्तविक रजनीकांत मौजूद है तो काल्पनिक दुनिया में जाने की क्या जरूरत है। वास्तविक दुनिया में सुपरहीरो जैसी हरकत करने वाला रजनीकांत देखना ज्यादा रोचक है। हमें वो रजनीकांत चाहिए जो स्टाइल से सिगरेट पिए। जो ऐसी गति से दौड़े कि प्रकाश पीछे छूट जाए। जो अपनी ओर आती गोली को चाकू की मदद से दो हिस्से में बांट दे। बदलाव के रूप में तकनीक से बना रजनीकांत भी बुरा नहीं है। निर्माता : सुनील लुल्ला, सुनंदा मुली मनोहर, प्रशिता चौधरी निर्देशक : सौन्दर्या रजनीकांत अश्विन संगीत : एआर रहमान कलाकार : रजनीकांत, दीपिका पादुकोण, जैकी श्रॉफ, नासेर ",1 " गरीबों की बस्ती पर बिल्डर की नजर। ये एक लाइन की कहानी है जिस पर 166 मिनट की फिल्म बना डाली है। फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले कभी नहीं देखा गया हो। हजारों बार दोहराई गई बातों को बिना किसी नवीनता के फिर दोहराया गया है, लिहाजा फिल्म देखते समय आप थक और पक जाते हैं। काला करिकालन (रजनीकांत) धारावी का राजा है। धारावी की कीमती जमीन पर भ्रष्ट नेता हरी दादा (नाना पाटेकर) की नजर है। वह मुंबई को स्वच्छ बनाना चाहता है और धारावी उसे गंदा दाग नजर आती है। वह इस जमीन को लेकर झोपड़ियों की जगह बिल्डिंग खड़ी करना चाहता है। काला उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा है। काला और हरी की खींचतान को फिल्म में दिखाया गया है। यह बात इतनी लंबी खींची गई है कि बेमजा हो जाती है। काला के अतीत की प्रेम कहानी को भी फिल्म में जगह दी गई है। ज़रीन (हुमा कुरैशी) से काला शादी करना चाहता था, लेकिन नहीं हो पाई। जो कारण दिए गए हैं वो बचकाने हैं। काला और ज़रीन ने बाद में दूसरों से शादी क्यों की, यह भी बताया नहीं गया है। बिना मतलब के इस बात को ढेर सारे फुटेज दे डाले हैं। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिनकी लम्बाई बहुत ज्यादा है, जो देखते समय बेहद अखरते हैं। इससे फिल्म ठहरी हुई लगती है। वैसे भी फिल्म को आगे बढ़ाने के मजबूत घटनाक्रम नहीं है। इससे फिल्म आगे बढ़ती हुई महसूस नहीं होती और बोरियत हावी हो जाती है। बीच-बीच में बेसिर-पैर गाने आकर इस बोरियत को और बढ़ा देते हैं। घिसी-पिटी कहानी में मनोरंजन का भी अभाव है। रोमांस, कॉमेडी, एक्शन सभी की कमी महसूस होती है। मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए भी लुभाने वाले मसाले नहीं हैं। रजनीकांत की स्टाइल भी फिल्म से गायब है। छाते के जरिये दुश्मनों को मारने वाला सीन, नाना पाटेकर को बस्ती में घेरने वाला सीन और क्लाइमैक्स को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में सीटी और ताली बजाने वाले दृश्यों की कमी खलती है जो रजनीकांत की फिल्मों की जान होते हैं। निर्देशक पा रंजीत का सारा ध्यान रजनीकांत पर ही रहा। उन्होंने मसीहा के रूप में रजनीकांत को पेश किया, लेकिन ढंग की कहानी नहीं चुनी। रजनीकांत को भी वे उस अंदाज में पेश नहीं कर पाए जिसके लिए रजनी जाने जाते हैं। पा रंजीत ने फिल्म को बेहद लाउड बनाया है। हर कलाकार चीखता रहता है। गाने भी चीख-चीख के गाए गए हैं। बैकग्राउंड म्युजिक आपके कान के परदे फाड़ देता है। फिल्म को वे रस्टिक लुक देने में सफल रहे हैं और उनके इस काम को सिनेमाटोग्राफर ने आसान बना दिया है। मुरली जी का कैमरा धारावी की संकरी गलियों में खूब घूमा है और उन्होंने क्लाइमैक्स बेहतरीन तरीके से शूट किया है जिसमें रंगों का खूब इस्तेमाल होता है। फिल्म में देखने लायक एकमात्र रजनीकांत हैं। 67 वर्ष की उम्र में भी उनमें सुपरस्टार वाला करिश्मा बाकी है। कई बोरिंग दृश्यों को भी वे अपने करिश्मे से बढ़िया बना देते हैं। उनके एक्शन दृश्यों की संख्या फिल्म में ज्यादा होनी चाहिए थी। अफसोस इस बात का भी है कि उनके स्टारडम के साथ फिल्म न्याय नहीं कर पाती। रजनीकांत की पत्नी के रूप में ईश्वरी राव का काम बेहतरीन है और वे हल्के-फुल्के क्षण फिल्म में देती हैं। नाना पाटेकर का वह अंदाज नहीं दिखा जिसके लिए वे जाने जाते हैं। शायद रजनी का कद बढ़ा करने के चक्कर में उनका कद छोटा कर दिया गया। हुमा कुरैशी मुरझाई हुई दिखीं। पंकज त्रिपाठी फिल्म देखने के बाद सोचेंगे कि वह इस फिल्म में कर क्या रहे थे। यही हाल अंजली पाटिल का है। काला देख कर लगता है कि रजनी ने इसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को हवा देने के लिए बनाई है जो उन्हें जनता के बीच गरीबों के मसीहा के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। निर्माता : धनुष निर्देशक : पा रंजीत संगीत : संतोष नारायणन कलाकार : रजनीकांत, नाना पाटेकर, ईश्वरी राव, हुमा कुरैशी, पंकज त्रिपाठी, अंजलि पाटिल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 46 मिनट 53 सेकंड ",0 " बैनर : रमेश सिप्पी एंटरटेनमेंट, टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि. निर्माता : रमेश सिप्पी, भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : रोहन सिप्पी कलाकार : आयुष्मान खुराना, कुणाल रॉय कपूर, पूजा साल्वी, अभिषेक बच्चन (मेहमान कलाकार) फ्रेंच फिल्म एप्रेस वूस का का नौटंकी साला हिंदी रिमेक है। निर्देशक रोहन सिप्पी ने रेस्तरां का बैकड्रॉप बदल कर थिएटर कर दिया है और भारतीय दर्शकों की रूचि के मुताबिक कुछ बदलाव‍ किए हैं। थिएटर का बैकड्रॉप फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि फिल्म के लीड कलाकार रामायण को स्टेज पर प्ले करते हैं और इसे कहानी के साथ बहुत ही बढ़िया तरीके से जोड़ा गया है। राम परमार उर्फ आरपी (आयुष्मान खुराना) थिएटर में रावण का रोल निभाता है, लेकिन रियल लाइफ में वह राम जैसा है। अपनी गर्लफ्रेंड के साथ वह लिव इन रिलेशनशिप में हैं और जरूरतमंदों की मदद में वह बहुत आगे रहता है। मंदार लेले (कुणाल रॉय कपूर) को वह आत्महत्या करते देखता है तो उसे बचा लेता है और अपने घर लाता है। उसकी नानी के पुणे वाले घर ले जाता है। अस्पताल के बिल चुकाता है। अपने थिएटर में राम की भूमिका दिलवाता है। मंदार का नंदिनी से ब्रेक अप हो गया है और वह उदास है। नंदिनी से आरपी मिलता है और कोशिश में लग जाता है कि नंदिनी और मंदार फिर एक हो जाएं। इस कोशिश में वह खुद नंदिनी को चाहने लगता है और उसे महसूस होता है कि रावण का किरदार निभाते-निभाते वह निजी जीवन में भी रावण बन गया है। रोहन सिप्पी ने इस कहानी को हास्य की चाशनी में लपेट कर पेश किया है। निर्देशक के रूप में वे प्रभावित करते हैं। उन्होंने न केवल कलाकारों से अच्छा काम लिया है बल्कि हर दृश्य पर मेहनत भी की है। हालांकि ड्रामा स्टाइल में पेश करने का उनका यह तरीका जरूरी नहीं है कि सभी को अच्छाह लगे। साथ ही फिल्म की रफ्तार बेहद धीमी है, जिससे शुरुआती रीलों में थोड़ी बोरियत पैदा होती है, लेकिन जैसे ही इस धीमी रफ्तार से एक बार दर्शक तालमेल बैठा लेते हैं तो फिल्म धीरे-धीरे आनंद देने लगती है। थिएटर बैकड्रॉप का रोहन ने बेहतरीन उपयोग किया है और रियल लाइफ कैरेक्टर्स को रामायण के साथ बेहतरीन तरीके से जोड़ा है। फिल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा फिल्मी, लेकिन अच्छा है। 1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत जहां तक स्क्रीनप्ले का सवाल है तो उसमें कुछ किरदारों को ठीक से नहीं लिखा गया है। खासतौर पर नंदिनी का किरदार। उसका एक बॉयफ्रेंड ‍अतीत बन चुका है, दूसरा वर्तमान है और तीसरे के प्रति वह आकर्षित होती है जिसमें उसे अपना फ्यूचर नजर आता है। सभी उसका दिल जीतने की कोशिश करते हैं और वह इधर से उधर होती रहती है। आरपी और उसकी गर्लफ्रेंड के रिश्ते को भी ठीक से पेश नहीं किया गया है। राम का स्क्रीन टेस्ट, आरपी और चित्रा की रेस्तरां में मुलाकात, नंदिनी की बालकनी में आरपी का जाना और वहां मंदार का पहुंच जाना, आरपी-नंदिनी का किसिंग सीन, जैसे कुछ बेहतरीन दृश्य लिखे गए हैं जो दर्शकों को गुदगुदाते हैं। फिल्म के सभी कलाकारों का अभिनय शानदार है। विकी डोनर से आयुष्मान खुराना ने उम्मीदें जगाईं और ‘नौटंकी साला’ में वे उन उम्मीदों पर खरे उतरें। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है। कुणाल राय कपूर ने एक आलसी और उनींदे इंसान का रोल बेहतरीन तरीके से किया। नंदिनी के रूप में पूजा साल्वी प्रभावित करती हैं, लेकिन उनका रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। थिएटर के प्रोड्यूसर चंद्रा के रूप में संजीव भट्ट का अभिनय भी उल्लेखनीय है। अभिषेक बच्चन सिर्फ दोस्ती की खातिर चंद मिनटों के लिए फिल्म में दिखते हैं और उनका काम फिल्म से निकाल भी दिया जाए तो कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा। फिल्म का संगीत थीम के अनुरुप है। साडी गली और मेरा मन कहने लगा सुनने लायक हैं। मनोज लोबो का कैमरावर्क, फिल्म का आर्ट डायरेक्शन और बैकग्राउंड म्युजिक उल्लेखनीय हैं। नौटंकी साला के स्क्रीनप्ले में एक शानदार फिल्म बनने की पूरी संभावना थी, जिसका पूरी तरह दोहन नहीं हो पाया, इसके बावजूद यह शानदार अभिनय, कॉमेडी और निर्देशन के कारण देखी जा सकती है। सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट 16 सेकंड बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "बैनर : फिल्मक्रॉफ्ट प्रोडक्शंस प्रा.लि. निर्माता : राकेश रोशन निर्देशक : अनुराग बसु संगीत : राजेश रोशन कलाकार : रितिक रोशन, बारबरा मोरी, कंगना, निक ब्राउन, कबीर बेदी, यूरी सूरी यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 8 मिनट काइट्‌स' की कहानी पर यदि आप गौर करें तो यह बहुत ही साधारण है। इसमें कोई नयापन नहीं है। हजारों फिल्में इस तरह की कहानी पर हम देख चुके हैं। इसके बावजूद यदि फिल्म देखने लायक है तो इसकी असाधारण प्रस्तुतिकरण के कारण। निर्देशक अनुराग बसु इस मामूली कहानी को एक अलग ही स्तर पर ले गए हैं और फिल्म को उन्होंने इंटरनेशनल लुक दिया है। आधुनिक तकनीक, शार्प एडिटिंग और भव्यता का इतना उम्दा पैकिंग किया गया है कि पुराना माल (कहानी) भी खप जाता है। लास वेगास में रहने वाला जे (रितिक रोशन) पैसा कमाने के लिए उन लड़कियों से भी शादी कर लेता है जो ग्रीन कार्ड चाहती हैं। ऐसी ही 11 वीं शादी वह नताशा/लिंडा (बार्बरा मोरी) से करता है जो मैक्सिको से लास वेगास पैसा कमाने के लिए आई है। अरबपति और कैसिनो मालिक (कबीर बेदी) की बेटी जिना (कंगना) को जे डांस सिखाता है। जिना उस पर मर मिटती है। जे की नजर उसके पैसों पर है, इसलिए वह भी उससे प्यार का नाटक करने लगता है। उधर नताशा भी जिना के भाई टोनी (निक ब्राउन) से शादी करने के लिए तैयार हो जाती है ताकि उसकी गरीबी दूर हो सके। नताशा और जे की एक बार फिर मुलाकात होती है और उन्हें महसूस होता है कि वे एक-दूसरे को चाहने लगे हैं। शादी के एक दिन पहले जे के साथ नताशा भाग जाती है। टोनी और उसके पिता अपमानित महसूस करते हैं और वे जे-नताशा को तलाश करते हैं ताकि उनकी हत्या कर वे अपना बदला ले सके। टोनी कामयाब होता है या जे? यह फिल्म में लंबी चेजिंग के जरिये दिखाया गया है। इसमें कोई शक नहीं है कि फिल्म की कहानी बहुत ही सिंपल है। बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव भी नहीं हैं। कुछ खामियाँ भी हैं कि कैसे अमीर, शक्तिशाली और बिगड़ैल परिवार के दो सदस्य सड़कछाप लोगों से शादी करने के लिए तैयार हो जाते हैं या पैसे के पीछे भागने वाले जे और नताशा अचानक प्यार की खातिर सब कुछ ठुकरा देते हैं। लेकिन निर्देशक अनुराग बसु ने इस कहानी को इतने उम्दा तरीके से फिल्माया है कि इन बातों को इग्नोर किया जा सकता है। कहानी को सीधे तरीके से कहने के बजाय उन्होंने इसे जटिलता के साथ कहा है, जिससे फिल्म में रोचकता पैदा हो गई। फ्लेशबैक का उन्होंने बेहतरीन प्रयोग किया है। एक फ्लेशबैक शुरू होता है और इसके पहले कि वो पूरा हो दूसरे घटनाक्रम आरंभ हो जाते हैं। फिर आगे चलते हुए पुराने फ्लेशबैक को पूरा किया जाता है। अलर्ट रहते हुए दर्शक को सब याद रखना पड़ता है। फिल्म में इमोशन डालने के लिए संवादों का सहारा नहीं लिया गया है क्योंकि फिल्म के दोनों कैरेक्टर एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते हैं, इसके बावजूद जे और नताशा के प्यार को आप महसूस कर सकते हैं। टोनी से बचते हुए उन्हें ये पता नहीं रहता कि कल वे जीवित रह पाएँगे या नहीं, इसलिए वे हर लम्हें में पूरी जिंदगी जी लेना चाहते है। इस बात को अनुराग ने खूबसूरती से पेश किया है। फिल्म की एडिटिंग चुस्त है जिससे फिल्म की गति में इतनी तेजी है कि ज्यादा सोचने का मौका दर्शकों को नहीं मिलता। 'काइट्‌स' को इंटरनेशनल लुक देने में इसकी एडिटिंग ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। रितिक रोशन हैंडसम लगे हैं। जहाँ तक अभिनय का सवाल है तो फिल्म की शुरुआत में कैरेक्टर के मुताबिक लंपटता वे नहीं दिखा पाए, लेकिन इसके बाद प्यार में डूबे प्रेमी का रोल उन्होंने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। रितिक की तुलना में खूबसूरत बारबरा बड़ी लगती हैं, लेकिन उनकी कैमेस्ट्री खूब जमी है। बारबर ा क ी एक्टिंग इतनी नेचुरल है कि लगता ही नहीं कि वे अभिनय कर रही हैं। कंगना और कबीर बेदी के पास करने को ज्यादा कुछ नहीं था। निक ब्राउन ने खलनायकी के तीखे तेवर दिखाए हैं। राजेश रोशन ने दो गीत 'जिंदगी दो पल की' और 'दिल क्यूँ ये मेरा' सुनने लायक बनाए हैं। फिल्म के संवाद अँग्रेजी, स्पैनिश और हिंदी में हैं। मल्टीप्लेक्स में अँग्रेजी और सिंगल स्क्रीन में हिंदी सब टाइटल दिए गए हैं। भारतीय दर्शक इस तरह के सब-टाइटल पढ़ने के आदी नहीं है। अँगरेजी में भी ढेर सारे संवाद हैं। ये बातें फिल्म के खिलाफ जा सकती हैं और व्यवसाय पर इसका असर पड़ सकता है। तकनीकी रूप से फिल्म हॉलीवुड के स्तर की है। अयनंका बोस की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है। सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। ‘काइट्‍स’ की कहानी पर यदि मेहनत की जाती तो इस फिल्म की बात ही कुछ होती। फिर भी आर्डिनरी कहानी को एक्स्ट्रा आर्डिनरी तरीके से पेश किया गया है और इस वजह से 'काइट्‌स' देखी जा सकती है। ",1 "अपने आपको जाहिर करने का साहस बहुत कम में होता है और संसार में लगभग हर व्यक्ति तरह-तरह के मुखौटे लगाए घूमता है। मुखौटे की आड़ में उसके अंदर का मूल इंसान गुम हो जाता है और इस नकलीपन को ही वह असली मान लेता है। कुछ मुखौटे हमें सामाजिक दबाव के तहत लगाना पड़ते हैं। मसलन ज्यादातर सवाल पूछा जाता है कि आप कैसे हैं? भले ही आप बुरे दौर से गुजर रहे हों, लेकिन शिष्टाचार के मुखौटे के कारण यह जानते हुए भी सामने वाला केवल औपचारिकता निभा रहा है कहना पड़ता है कि मैं अच्छा हूं। इसी विचार को निर्देशक इम्तियाज अली ने 'तमाशा' में प्रस्तुत किया है। दिल और दुनिया के बीच की जगह कोर्सिका में दो अजनबी मिलते हैं। वे अपना असली परिचय नहीं देते हैं। लड़का अपने आपको डॉन बताता है और लड़की मोना डार्लिंग। तय करते हैं कि वे अपने बारे में झूठ बोलेंगे और यहां के बाद जिंदगी में फिर कभी नहीं मिलेंगे। इस झूठ के चक्कर में लड़के का असली रूप उजागर होता है और लड़की उसे चाहने लगती है। कुछ दिन साथ गुजारने के बाद वे भारत अपने-अपने घर लौट जाते हैं। चार वर्ष बाद उनकी फिर मुलाकात होती है। इस बार असली परिचय होता है। लड़का अपना नाम वेद (रणबीर कपूर) औल लड़की तारा (दीपिका पादुकोण) बताती है। वेद को तारा कोर्सिका वाले डॉन से बिलकुल अलग पाती है। वह कुछ ज्यादा ही शिष्ट है और बोर किस्म का है। घड़ी के मुताबिक जीता है और उसमें से वो मस्ती-रोमांच गायब है। तारा को वेद प्रपोज करता है, लेकिन उसे यह बात बताकर वह रिजेक्ट कर देती है। इससे वेद को चोट पहुंचती है। उसे समझ नहीं आता कि असल में वह है क्या? वह डॉन उसकी असलियत है जिसका वह किरदार निभा रहा था या वह वेद का किरदार निभा रहा है जिसे वह असलियत समझता है। उसकी भीतरी यात्रा शुरू होती है। वह अपने को खोजता है। इम्तियाज अली द्वारा चुना गया विषय दुरुह है और इस पर मनोरंजक फिल्म गढ़ना बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन इस पर एक अच्छी फिल्म गढ़ने में इम्तियाज सफल हो गए हैं। इंटरवल तक फिल्म बहती हुई लगती है। रणबीर और दीपिका के रोमांस में ताजगी महसूस होती है। एक-दूसरे से झूठ बोलकर मनचाहा करने वाला आइडिया लुभाता है। इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है जब वेद की अंदर की यात्रा शुरू होती है। इसमें थ्री इडियट्स वाला ट्रेक भी शामिल हो जाता है जब वेद को उसके पिता इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दबाव डालते हैं जबकि वह कुछ और करना चाहता है। यह ट्रेक इतना असरदायक नहीं है। त माशा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म कहती है औसत किस्म के लोग अपने सपनों को तिलांजलि देकर एक ऐसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिन्हें पता ही नहीं होता कि वे कहां जा रहे हैं। वे एक मशीन बन जाते हैं और मन मारते हुए रूटीन लाइफ जीते हैं। खैर, फिल्म के नायक में तो एक टैलेंट छिपा हुआ था, लेकिन ज्यादातर लोगों में तो किसी किस्म का हुनर नहीं होता और पैसे कमाने के लिए उन्हें रूटीन लाइफ की मार झेलना पड़ती है। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी मर्जी का काम कर पाते हैं। इम्यिाज अली का निर्देशन बेहतरीन है। वेद की कहानी को उन्होंने पौराणिक कथाओं से लेकर तो आधुनिकता से जोड़ा। उनके प्रस्तुतिकरण में स्टेज पर चलने वाले तमाशे का मजा भी मिलता है। उन्होंने सिनेमा के स्क्रीन को विभिन्न रंगों से संवारा है और गीतों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया है। एक अलग तरह के विचार और प्रेम कहानी को स्क्रीन पर दिखाना सराहनीय है। उन्होंने न कहते हुए भी बहुत कुछ कहा है। रवि वर्मन, इरशाद कामिल और एआर रहमान का काम उल्लेखनीय है। इरशाद कामिल ने बेहतरीन बोल लिखे हैं जो कहानी को आगे बढ़ाते हुए पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करते हैं। रहमान की धुनें भी तारीफ के काबिल हैं। मटरगश्ती, अगर तुम साथ हो, चली कहानी, सफरनामा सुनने लायक हैं। रवि वर्मन का कैमरावर्क जोरदार है और उन्होंने फिल्म को दर्शनीय बनाया है। रणबीर कपूर की अदाकारी बेहतरीन है। आजाद पंछी और लकीर के फकीर वाले दोहरे व्यक्तित्व को उन्होंने बिलकुल अलग तरीके से दर्शाया है। दर्शकों को लगता है कि दीपिका पादुकोण का रोल और लंबा होना चाहिए था और यह दीपिका की तारीफ ही है। रणबीर से एक रेस्तरां में दोबारा मिलने वाले शॉट में उनके खुशी के भाव देखने लायक हैं। रंगों से सराबोर, संगीतमय और उम्दा प्रस्तुतिकरण के कारण यह तमाशा देखने लायक है। बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट निर्माता : साजिद नाडियाडवाला निर्देशक : इम्तियाज अली संगीत : एआर रहमान कलाकार : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनिट 28 सेकंड ",1 " अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया' देख तिग्मांशु धुलिया की 'साहेब बीवी और गैंगस्टर' की सीरिज की याद आ जाती है क्योंकि छोटा शहर, खस्ताहाल नवाब, बेरंग हवेलियां और उनमें होने वाले षड्यंत्रों के इर्दगिर्द 'डेढ़ इश्किया' की कहानी भी घूमती है। 'इश्किया' के किरदार बब्बन (अरशद वारसी) और खालूजान (नसीरुद्दीन शाह) को लेकर इसका सीक्वल 'डेढ़ इश्किया' नई कहानी के साथ बनाया गया है। ये दोनों चोर-उचक्के 'मेहमूदाबाद' पहुंच जाते हैं जहां की बेगम पारा (माधुरी दीक्षित) सालाना जलसा करवा रही हैं। उन्हें शादी के लिए ऐसा शौहर चाहिए जो कवि हो, शेरो-शायरी की समझ रखता हो क्योंकि उनके पहले पति मरने के पहले कह गए थे कि दूसरा निकाह करो तो तुम्हारे पति में ये गुण होना जरूरी है। ढेर सारे लोग इकट्ठा हैं और तमाशा शुरू होता है। खालूजान भी अपनी शायरी से पारा को प्रभावित करते हैं, लेकिन पारा के इरादे कुछ और ही हैं। डेढ़ इश्किया पहली फ्रेम से ही दिखा देती है कि ये किस मिजाज की फिल्म है। फिल्मों से गायब हो चुका उर्दू लहजा इसमें नजर आता है। कई संवादों में गाढ़ी उर्दू उपयोग में लाई गई है और जिन्हें समझ में नहीं आए उनके लिए अंग्रेजी में सब-टाइटल्स भी दिए गए हैं। हालांकि संवाद इतने भी कठिन नहीं हैं कि समझ में ही नहीं आए। नजाकत, तमीज और तहजीब का लबादा ओढ़े इन किरदारों के नकाब को धीरे-धीरे परत-दर-परत उघाड़ा गया है। जब सबके नकाब उतरते हैं तो सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं। अभिषेक चौबे ने छोटे शहर के माहौल और वहां रहने वालों की जो बारीकी पकड़ी है वो तारीफ के काबिल है। भारत के अंदरुनी इलाकों को उन्होंने अच्छी तरह से दिखाया है। इसके लिए आर्ट डायरेक्टर की तारीफ भी करना पड़ेगी। अभिषेक का प्रस्तुतिकरण उस पान की तरह है जिसे आप मुंह में दबाए रखते हैं और धीरे-धीरे उसके रस का आनंद लेते रहते हैं। जरूरत है कि आप धैर्य रखें। शास्त्रीय संगीत और नृत्य के जरिये उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया। फिल्म में कई मजेदार सीन हैं। बब्बन-मुनिया का सेक्स वाला प्यार, खालू-बेगम पारा का सेक्स रहित प्यार, इतावली शायर तथा बब्बन-खालू और जान मोहम्मद के बीच चूहे-बिल्ली वाले ट्रेक बेहतरीन बन पड़े हैं। पुरुष किरदारों पर खूब मेहनत की गई है। बब्बन और खालू के साथ-साथ जान मोहम्मद (विजय राज) का किरदार फिल्म में बखूबी जोड़ा गया है, लेकिन महिला किरदारों में उतनी मेहनत नहीं की गई है। 'इश्किया' में विद्या बालन का किरदार तेज-तर्रार होने के साथ-साथ चौंकाता था। 'डेढ़ इश्किया' में भी पारा और मुनिया के किरदारों के जरिये चौंकाने की कोशिश निर्देशक ने की है, लेकिन यह आधा-अधूरा प्रयास नजर आता है। दोनों को खूबसूरत पेश करने में ही निर्देशक का ध्यान ज्यादा रहा है। फिल्म के सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त हैं। रंगों का संयोजन और लाइट्स का बेहतरीन उपयोग फिल्म में देखने को मिलता है। विशाल भारद्वाज का संगीत और गुलजार के लिखे गीत उच्च स्तर के हैं। 'दिल का मिजाज इश्किया', 'जगावे सारी रैना', 'हमारी अटरिया' जैसे गीत उनको पसंद आएंगे जो गंभीर किस्म का संगीत पसंद करते हैं। विशाल भारद्वाज के संवाद कैरेक्टर्स के मिजाज के अनुरूप हैं। गालियों के साथ-साथ दिल को सुकून देने वाले शब्द भी सुनने को मिलते हैं। नसीरुद्दीन शाह को क्यों भारत के बेहतरीन एक्टर्स में से एक माना जाता है, ये 'डेढ़ इश्किया' में उनके अभिनय को देख समझा जा सकता है। जैकपॉट जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा को बरबाद करने वाले नसीर को इसी तरह की फिल्मों का हिस्सा बनना चाहिए। अरशद वारसी के लिए कम स्कोप था, लेकिन वे पूरी तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। माधुरी दीक्षित ने अपना काम बखूबी निभाया है, हालांकि उनका रोल और भी बेहतर लिखा जा सकता था। हुमा कुरैशी, विजय राज, मनोज पाहवा सहित सारे कलाकारों का काम उम्दा है। फिल्म में इश्क के सात चरण बताए गए हैं और इन्हीं सात चरणों के बीच इस फिल्म की कहानी घूमती है। बैनर : विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि., शेमारू एंटरटेनमेंट निर्माता : विशाल भारद्वाज, रमन मारू निर्देशक : अभिषेक चौबे संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : नसीरुद्दीन शान, अरशद वारसी, माधुरी दीक्षित, हुमा कुरैशी, विजय राज, मनोज पाहवा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 32 मिनट 26 सेकंड ",1 "बैनर : रे‍ड चिलीज़ एंटरटेनमेंट, इरोज एंटरटेनमेंट निर्माता : गौरी खान निर्देशक : अनुभव सिन्हा संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : शाहरुख खान, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, मास्टर अरमान वर्मा, शहाना गोस्वामी, टॉम वू, दलीप ताहिल, सुरेश मेनन, सतीश शाह, संजय दत्त और प्रियंका चोपड़ा ( मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 35 मिनट * 16 रील बॉलीवुड इतिहास की सबसे महंगी फिल्म। सुपरस्टार शाहरूख खान और करीना कपूर। हॉलीवुड के स्तर की फिल्म बनाने का दावा। पिछले 6 माह से आधे से ज्यादा भारत और दुनिया के कई देशों में शाहरुख का अपनी फिल्म के बारे में बढ़ा-चढा कर बात करना। इन सब बातों से ‘रा.वन’ के प्रति लोगों की अपेक्षाएं ऊंचाई छूने लगी कि पता नहीं किंग खान क्या कमाल करने जा रहे हैं? सबसे अहम सवाल यही उठता है कि क्या रा.वन इन अपेक्षाओं पर खरी उतरती है? इसका जवाब है कुछ हद तक। विजुअल और स्पेशल इफेक्ट्स की बात की जाए, तकनीक की बात की जाए तो फिल्म का स्तर बहुत ऊंचा है। लेकिन खेलने के लिए बनाया गया गेम आपसे ही खेलने लगे वाला जो विचार है उसे समझने में कई लोगों को दिक्कत आ सकती है। जो वीडियो गेम के दीवाने हैं। गेमिंग के बारे में जानते हैं उन्हें यह फिल्म शानदार लगेगी। हालांकि फिल्म की अपील को यूनिवर्सल बनाने के लिए इसमें इमोशन, रोमांस और गाने डाले गए हैं, लेकिन कहानी का जो आधार है वो तकनीक आधारित है जिसे समझना आम आदमी के लिए मुश्किल है। अच्छाई बनाम बुराई की कहानियां सदियों से चली आ रही है और रा.वन में भी यही देखने को मिलती है। शेखर सुब्रमण्यम (शाहरुख खान) एक वीडियो गेम डिजाइनर है। अपने आठ वर्ष के बेटे प्रतीक (मास्टर अमन वर्मा) की नजर में वह जीरो है, डरपोक है। प्रतीक को हीरो बोरिंग लगते हैं। विलेन उसे पसंद है क्योंकि विलेन के लिए कोई कायदा-कानून नहीं होता है। अपने बेटे की फरमाइश पर शेखर एक ऐसा वीडियो गेम बनाता है जिसमें रा.वन नामक सुपरविलेन जी.वन नामक सुपरहीरो से ज्यादा शक्तिशाली होता है। शेखर, उसकी पत्नी और बेटे की‍ जिंदगी में तब भूचाल आ जाता है जब रा.वन गेम से बाहर निकलकर उनकी जिंदगी में चला आता है। कैसे वे इस स्थिति से निपटते हैं यह फिल्म में जबरदस्त उतार-चढ़ाव के साथ दिखाया गया है। फिल्म का फर्स्ट हाफ बेहतरीन है। शेखर का जिंदगी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, अपने बेटे के प्रति प्यार, पत्नी सोनिया से रोमांस, गेम डिजाइन करने का रोमांच, रा.वन का वीडियो गेम से निकल जिंदगी में चले आना जैसी कई घटनाएं एक के बाद एक घटती हैं जो फिल्म की गति बनाए रखती है। इस दौरान कई उम्दा सीन, जैसे रा.वन का असल जिंदगी में आना, रा.वन का सड़क पर प्रतीक और सोनिया का पीछा करना, जी.वन का अचानक पहुंच कर दोनों की रक्षा करना, रा.वन और जी.वन की पहली भिड़ंत, रा.वन का टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर जाना जबरदस्त रोमांच पैदा करते हैं। आमतौर पर सुपरहीरो की कहानी रूखी रहती है, लेकिन रा.वन में इमोशन और रोमांस को भी महत्व दिया गया है। फिल्म बिखरती है दूसरे हाफ में जब सोनिया अपने बेटे प्रतीक के साथ भारत आती है। यहां मुंबई एअरपोर्ट पर टेक्सी वालों से जी.वन का फाइटिंग सीन बेमतलब का है। सतीश शाह वाले दृश्य ठूंसे हुए लगते हैं। इस हिस्से में रा.वन की कमी महसूस होती है क्योंकि दर्शक रा.वन और जी.वन की ज्यादा से ज्यादा भिड़ंत देखना चाहते हैं। साथ ही थ्रिलिंग सीन इस पार्ट में बेहद कम है। जब आप एक सुपरहीरो की फिल्म देख रहे होते हैं तो कुछ-कुछ देर में एक्शन दृश्यों का स्क्रीन पर नजर आना जरूरी होता है। बेलगाम भागती ट्रेन का पटरी से सड़क पर आने वाला सीन इस हिस्से का खास आकर्षण है। क्लाइमेक्स में एक बार फिल्म कमजोर पड़ जाती है। रा.वन और जी.वन की लड़ाई में अपेक्षा होती है कि हैरत-अंगेत स्टंट्स, इफेक्ट्सी देखने को मिलेंगे, लेकिन निराशा हाथ लगती है क्योंकि यहां पर तकनीक ज्यादा हावी हो गई है। निर्देशक अनुभव सिन्हा का यह अब तक का सबसे बेहतरीन काम है। कहानी भी उन्होंने लिखी है। लेकिन सुपरहीरो के कारनामे दिखाने वाले दृश्यों व एक्शन दृश्यों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए थे। कहीं ना कहीं वे शाहरुख की रोमांटिक इमेज से ज्यादा प्रभावित हो गए। नि:संदेह फिल्म में कई मनोरंजक और रोमांच से भरे क्षण हैं, लेकिन बोरियत वाले क्षण भी हैं। शाहरुख खान ने बेहतरीन अभिनय किया है। शेखर के रूप में उन्होंने मसखरी की है तो जी.वन के रूप में एक्शन। जी.वन वाला उनका लुक बेहतरीन है। करीना कपूर के हिस्से में कम काम था। उन्हें फिल्म का ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया है और वे बेहद खूबसूरत नजर आईं। रा.वन के रूप में अर्जुन रामपाल को ज्यादा फुटेज दिए जाने थे। उन्हें अपनी खलनायकी दिखाने के ज्यादा अवसर नहीं मिले और यह बात अखरती है। मास्टर अरमान वर्मा ने पहली ही फिल्म में अनुभवी कलाकार की तरह काम किया है। सतीश शाह, सुरेश मेनन, दलीप ताहिल और शहाना गोस्वामी को ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं था। रजनीकांत एक सीन में आते हैं और अपनी सिग्नेचर स्टाइल में प्रभाव छोड़ जाते हैं। संजय दत्त और प्रियंका चोपड़ा को भी लेकर एक प्रसंग रचा गया है जो सभी को अच्छा लगे यह जरूरी नहीं है क्योंकि यह काफी लाउड है। विशाल शेखर ने ‘छम्मक छल्लो’ और ‘दिलदारा’ जैसे दो सुपरहिट गाने दिए हैं, लेकिन बाकी गाने सामान्य हैं। उनका पार्श्व संगीत फिल्म को रिच लुक देता है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है और हर फ्रेम पर जमकर पैसा बहाया गया है। कुल मिलाकर रा.वन में कई खूबियां हैं तो कुछ कमजोरियां भी हैं। एक्शन सीन कम हैं, लेकिन जबरदस्त हैं। काश कुछ ऐसे दृश्य और रखे जाते। क्लाइमेक्स को और बेहतर बनाया जाता तो बात कुछ और ही होती। बावजूद इसके एक बार फिल्म देखी जा सकती है। ",1 " करीब डेढ़ सौ करोड़ के भारी भरकम बजट में बनी निर्माता, निर्देशक, अभिनेता की बहुचर्चित फिल्म 'शिवाय' अजय देवगन के दिल के बेहद करीब है। पिछले साल अजय ने इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया, इस दौरान उन्होंने दो नई फिल्मों की शूटिंग इसलिए शुरू नहीं की ताकि वह इस फिल्म को अपना सौ फीसदी दे सकें। अजय के मुताबिक, बचपन से वह भगवान शिव से ज्यादा कनेक्ट महसूस करते है और यही वजह है कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फिल्म को बुल्गारिया की ऐसी उस दुर्गम बफीर्ली लोकेशन में फिल्माया गया है, जहां अक्सर वहां के मेकर भी जाने से कतराते हैं। फिल्म में एक सीन के लिए अजय ने देश-विदेश के करीब दो हजार से ज्यादा अलग-अलग खिलौनों का इस्तेमाल किया तो फिल्म में उनके ऑपोजिट नजर आईं पोलिश ऐक्ट्रेस एरिका कार, जिनके साथ फिल्म शुरू होने से करीब दो महीने पहले हिंदी सीखने के लिए हर रोज दो घंटे तक हिंदी में डायलॉग डिलीवरी को लेकर वर्कशाप की। कॉन्ट्रोवर्सी: अजय देवगन की 'शिवाय' के खिलाफ KRK का ऑडियो टेप वायरलअजय इस फिल्म को कनाडा में शूट करना चाहते थे, लेकिन अजय कनाडा में फिल्म के पहले शूटिंग के लिए पहुंचे तो अगले कई दिन तक वहां जमकर बर्फबारी हुई, जिसका असर फिल्म के बजट पर पड़ा। आखिरकार, अजय ने फिल्म को बुल्गारिया में शूट किया। यकीनन अजय ने बतौर निर्माता, अभिनेता अपनी ओर से इस प्रॉजेक्ट पर जमकर मेहनत की है, लेकिन वहीं अगर बतौर डायरेक्टर फिल्म पर उनकी पकड़ की बात की जाए तो करीब पौने तीन घंटे की इस फिल्म पर उनकी कसी हुई पकड़ नजर नहीं आती। यही वजह है कि उत्तराखंड में बर्फीले पहाडों के बीच बसे एक छोटे से गांव से शुरू हुई 'शिवाय' की शुरुआती रफ्तार बेहद धीमी है तो वहीं अजय और एरिका कार की लव केमिस्टि्री का एंगल भी बेहद कमजोर है। इंटरवल के बाद पिता-पुत्री के रिश्ते पर फोकस करती 'शिवाय' टोटली ऐक्शन, थ्रिलर फिल्म में बदल जाती है जहां हर दूसरे सीन में जमकर मारकाट और लाशों का ढेर नजर आता है। इमोशन और ऐक्शन का ऐसा संगम भी कुछ अजीब लगता है।'ऐ दिल है मुश्किल' और 'शिवाय' में मुकाबला, उम्मीद से ज्यादा करेगी कमाई? कहानी : पहले सीन में चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच तीन लाशों के साथ बुरी तरह से घायल शिवाय (अजय देवगन) नजर आते हैं। शिवाय के पास ही एक गुड़िया का खिलौना नजर आता है, यहीं से फिल्म की कहानी करीब नौ साल पीछे फ्लैशबैक में पहुंचती है। शिवाय उत्तराखंड में बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच बसे एक गांव में रहता है और यहीं अपना होश संभाला है। शिवाय यहां इंडियन आर्मी के लिए भी अक्सर मुश्किल वक्त में मदद करने का काम करने के साथ यहां आने वाले पर्यटकों को हिमालय की ट्रैकिंग पर ले जाने का काम करता है। ओल्गा (एरिका कार) यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ ट्रैकिंग के लिए आती हैं, ट्रैकिंग के दौरान एक भीषण बर्फीले तूफान में शिवाय ओल्गा और उसके दोस्तों को बचाता है, इसी तूफान में फंसे होने के दौरान इनके बीच शारीरिक रिश्ता बन जाता है। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि ओल्गा को अगले कुछ वक्त के लिए शिवाय के गांव में रुकना पड़ता है, यहीं उसे पता चलता है कि वह मां बनने वाली है। ओल्गा अपनी फैमिली के पास बुल्गारिया जाना चाहती है, सो उसे बच्चा नहीं चाहिए। दूसरी ओर, शिवाय चाहता है कि ओल्गा उसके बच्चे को जरूर जन्म दे, ताकि वह ओल्गा के चले जाने के बाद अपनी बाकी जिंगदी उसी बच्चे के साथ गुजार सके। कुछ अर्से बाद ओल्गा को एक बेटी को जन्म देकर अपने देश लौट जाती है। ओल्गा और शिवाय की बेटी बोल नहीं पाती, लेकिन सुन सकती है। शिवाय अब अपनी बेटी गौरा (एबीगेल एम्स) के साथ गांव में खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है, अचानक एक दिन गौरा को अपनी मां के बारे में पता लगता है जो बुल्गारिया में रह रही है। ओल्गा अपनी मां से मिलने की जिद करती है, लेकिन शिवाय नहीं चाहता कि गौरा अपनी मां से मिलने जाए जिसने जन्म देने बाद उसका मुंहू तक नहीं देखा, लेकिन गौरा की जिद के सामने शिवाय को झुकना पड़ता है। शिवाय बेटी गौरा को उसकी मां से मिलाने बुलगारिया पहुंचता है, लेकिन यहां आने के दूसरे ही दिन गौरा का किडनैप हो जाता है। ऐक्टिंग : 'शिवाय' के लीड किरदार में अजय देवगन ने एक बार फिर गजब ऐक्टिंग की है, बर्फीले पहाड़ों और बुल्गारिया की सड़कों पर अजय पर फिल्माए ज्यादातर ऐक्शन सीन हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन सीन को टक्कर देते हैं, बेशक एरिका के साथ रोमांटिक सीन में अजय नहीं जमे, लेकिन इमोशन सीन में उनका गजब अभिनय हैं। ओल्गा के किरदार में एरिका कार सिल्वर स्क्रीन पर बेहद खूबसूरत तो लगती हैं, लेकिन अपनी ऐक्टिंग से कहीं इम्प्रेस नहीं कर पाती। शिवाय की बेटी गौरा के रोल में एबीगेल एम्स ने मेहनत की है, लेकिन सायशा सहगल ने बस अपने किरदार को निभा भर दिया। सायशा ने अगर इंडस्ट्री में लंबी पारी खेलनी है तो उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है, वहीं वीर दास, सौरभ शुक्ला और गिरीश कर्नाड निराश करते हैं और कुछ ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ते। निर्देशन : अगर बतौर डायरेक्टर अजय की बात करें तो इस फील्ड में अजय ने निराश किया है। अजय ने एक ऐसी कमजोर कहानी पर फिल्म बनाई, जिस पर इससे पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। वहीं, उन्होंने फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर रख दिया है, अगर इंटरवल से पहले की बात करें तो फिल्म बाप-बेटी के बीच की कहानी है तो इंटरवल के बाद फिल्म टोटली सौ फीसदी ऐक्शन फिल्म बनकर रह जाती है, जिससे कहानी की रफ्तार थम जाती है तो वहीं ऐक्शन सीन के सामने इमोशनल सीन बौने पड़ जाते हैं। अजय अगर चाहते तो आसानी से ऐक्शन सीन को कम कर सकते थे, वहीं करीब पौने तीन घंटे से ज्यादा अवधि की फिल्म में 10-15 मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म ज्यादा जानदार बन पाती। हां, अजय ने हर ऐक्शन सीन में जबर्दस्त मेहनत की तो वहीं उन्होंने बाप-बेटी के सीन जानदार ढंग से फिल्माए हैं। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है। टाइटिल सॉन्ग 'वही शून्य है वही इकाई, जिसके भीतर छिपा शिवाय' रिलीज से पहले ही कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है, लेकिन फिल्म के बाकी सभी गाने बस औसत ही हैं। क्यों देंखें : अगर आप अजय देवगन के पक्के फैन हैं तो शिवाय को देखें, क्योंकि आपके चहेते स्टार की इस फिल्म में कई ऐक्शन सीन दिल दहलाने वाले हैं तो वहीं बर्फीले पहाड़ों पर फिल्म की सिनेमटॉग्रफी कमाल की हैं। अगर कहानी की खामियों को नजर अंदाज कर दिया जाए तो अजय की यह ऐसी मेगा बजट फिल्म है, जिसमें आप ऐक्शन और इमोशन को इंजॉय कर सकते हैं।",1 "बैनर : एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी मोशन पिक्चर्स निर्माता : एकता कपूर, शोभा कपूर निर्देशक : राज निदिमोरू, कृष्णा डीके संगीत : सचिन-जिगर कलाकार : तुषार कपूर, प्रीति देसाई, राधिका आप्टे, सेंधिल राममूर्ति, संदीप किशन सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 12 रील मुंबई शहर बड़ा अनोखा है। कई फिल्मकारों को इसने लुभाया है और ढेर सारी फिल्में इस पर बनी हैं। लेकिन अभी भी बहुत कुछ दिखाया जाना बाकी है। ‘शोर इन द सिटी’ फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि में मुंबई है और तुषार कांति रे ने क्या खूब फिल्माया है इस शहर को। इस शहर के लोगों को। मुंबई को आप इस फिल्म के जरिये महसूस कर सकते हैं। फिल्म के प्रचार में कहा गया है कि इस शहर में अच्छे या बुरे बनने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती है, खासतौर पर बुरा बनने के लिए और इस लाइन के साथ फिल्म पूरा न्याय करती है। एक मास अपीलिंग कहानी को क्लास अपीलिंग तरीके से पेश करने चलन इन दिनों बॉलीवुड में बढ़ता जा रहा है। कमीने, दम मारो दम के बाद शोर इन द सिटी इसका उदाहरण है। समानांतर तीन कहानियाँ चलती रहती हैं, जिसके तार कहीं ना कहीं आपस में जुड़े हुए हैं, इन्हें बेहतरीन तरीके से परदे पर पेश किया गया है। कहानी में नई बात नहीं है, लेकिन इनका प्रस्तुतिकरण इसे देखने लायक बनाता है। अभय (सेंदिल राममूर्ति) एक एनआरआई है जो भारत आकर बिजनैस शुरू करना चाहता है, लेकिन स्थानीय गुंडे उसे परेशान करते हैं और वह मुंबई जैसे शहर में अपने आपको अकेला पाता है। तिलक (तुषार कपूर), रमेश (निखिल द्विवेदी) और मंडूक (पितोबाश त्रिपाठी) तीन दोस्त हैं जो पाइरेटेड किताब छापते हैं, लेकिन लालच के चलते अपराध की दुनिया में घुस जाते हैं। सावन (संदीप किशन) एक उभरता हुआ क्रिकेटर है, लेकिन जूनियर टीम में चयन के लिए उसे चयनकर्ता को दस लाख रुपये की रिश्वत देना होगी। साथ ही उसकी गर्लफ्रेंड सेजल (गिरिजा ओक) की शादी उसके घर वाले किसी और से कर रहे हैं क्योंकि सावन कुछ कमाता नहीं है। तीनों कहानियों में तिलक-रमेश-मंडूक वाला ट्रेक बेहद मजबूत है। इसमें थ्रिल है, मनोरंजन है और कुछ बेहतरीन दृश्य हैं। खासतौर पर वह दृश्य जब वे देखना चाहते हैं कि बम कैसे फूटता है। बैंक लूटने वाला दृश्य। हालाँकि तुषार और राधिका वाले ट्रेक में कुछ कमी-सी लगती है। क्यों तुषार अपनी बीवी के बारे में कुछ नहीं जानता, ये ठीक से स्पष्ट नहीं है। अभय वाली कहानी ठीक-ठाक है, हालाँकि यह पूरी तरह से अँग्रेजी में है और अँग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को इसे समझने में कठिनाई महसूस होगी। इसमें अभय के कानून को हाथ में लेने वाली बात जँचती नहीं है। सावन वाली कहानी कमजोर है। तारीफ करना होगी निर्देशक राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की जिन्होंने इन आम कहानियों को परदे पर दिलचस्प तरीके से उतारा है। फिल्म देखते समय रोमांच को महसूस किया जा सकता है। फिल्म पर उनकी पकड़ बेहद मजूबत है और उन्होंने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। उनकी शॉट टेकिंग जबरदस्त है। अश्मित कुंदर का संपादन भी उल्लेखनीय है और उन्होंने तीनों कहानियों को बखूबी जोड़ा है। फिल्म के कलाकारों का चयन एकदम परफेक्ट है और सभी ने बेहतरीन अभिनय किया है। मंडूक के किरदार में पितोबाश त्रिपाठी सब पर भारी पड़े हैं। उन्होंने कई दृश्यों को मजेदार बनाया है। तुषार और निखिल द्विवेदी अपने किरदारों में डूबे नजर आते हैं। सेंधिल राममूर्ति, जाकिर हुसैन, अमित मिस्त्री, संदीप किशन अपना प्रभाव छोड़ते हैं। छोटे-से रोल में राधिका आप्टे, प्रीति देसाई और गिरिजा ओक उपस्थिति दर्ज कराती हैं। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सचिन-जिगर का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। शोर इन द सिटी उन लोगों के लिए नहीं है जो गाने, रोमांस या बेसिर-पैर वाली कॉमेडी फिल्में देखना पसंद करते हैं। ये उन लोगों के लिए है जो दिमाग लगाने के साथ-साथ बेहतरीन अभिनय और दमदार निर्देशन देखना चाहते हैं। ",1 "बैनर : श्री अष्टविनायक सिने विज़न लिमिटेड निर्माता : ढिलिन मेहता निर्देशक : एंथनी डिसूजा संगीत : ए.आर. रहमान कलाकार : अक्षय कुमार, संजय दत्त, लारा दत्ता, ज़ायद खान, राहुल देव, काइली मिनॉग, कैटरीना कैफ (विशेष भूमिका) यह बात हजार बार दोहराई जा चुकी है कि फिल्म बनाते समय सबसे ज्यादा ध्यान कहानी और स्क्रीनप्ले पर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये किसी ‍भी फिल्म की सफलता का मुख्य आधार होते हैं। बड़े फिल्म स्टार्स साइन करने से, स्टंट और गानों से, पानी के अंदर या आसमान में करोड़ों रुपए खर्च कर फिल्माए दृश्यों से कुछ नहीं होता है। लेकिन ये बुनियादी बात अभी तक कई लोगों के समझ में नहीं आई है। करोड़ों रुपए खर्च कर बनाई गई ‘ब्लू’ इसका ताजा उदाहरण है। पैसा उस जगह खर्च किया गया जहाँ बचाया जा सकता था और उस जगह बचाया गया जहाँ खर्च किया जाना था। एक ढंग की कहानी इससे जुड़े निर्माता-निर्देशक नहीं खोज पाए। वर्षों पहले खजाने से लदा एक जहाज डूब गया था। आरव (अक्षय कुमार) उसे ढूँढकर अमीर होना चाहता है। इस काम में उसे सागर (संजय दत्त) की मदद चाहिए, जो उसके लिए काम करता है। सागर इसके लिए तैयार नहीं है। बचपन में सागर और उसके पिता ने उस डूबे जहाज को ढूँढ लिया था, लेकिन सागर की गलती से उसके पिता की मौत हो गई थी। सागर उस सदमे से उबर नहीं पाया। सागर का एक भाई सैम (ज़ायद खान) है, जिसे रिस्क उठाने का नशा है। गैर कानूनी काम के दौरान वह फँस जाता है और कुछ लोग उसकी जान के पीछे है। वे उससे पैसा चाहते हैं। अपने भाई को मुसीबत में देख आरव की बात सागर मान लेता है और वे उस छिपे खजाने को ढूँढ निकालते हैं। अंत में राज खुलता है कि सैम को फँसाने के पीछे आरव का ही हाथ था ताकि सागर खजाने को ढूँढ निकालने में उसकी मदद करे। यह कहानी ऐसी है, जिसे कोई भी लिख सकता है। इसे भी निर्देशक एंथनी डिसूजा स्क्रीन पर मनोरंजक तरीके से पेश नहीं कर पाएँ। अक्षय कुमार सुपर स्टार हैं, लेकिन अंत तक उनका रोल दमदार नहीं लगता। जब उनके चेहरे से नकाब हटता है तो दर्शक हैरान नहीं होता क्योंकि बीच फिल्म में ही उसे समझ में आ जाता है कि संजय दत्त को जाल में फँसाने वाला अक्षय ही है। अक्षय के किरदार को रहस्य के पर्दे में छिपाने का कोई मतलब नहीं है। अक्षय को यदि शुरुआत से ही खलनायक दिखाया जाता तो ज्यादा बेहतर होता, इससे दर्शकों की सहानुभूति संजय दत्त के साथ होती और अक्षय को भी कुछ कर दिखाने का अवसर मिलता। फिल्म का अंत भी अपनी सहूलियत के हिसाब से किया गया। अंत में जो बातें बताईं गई है उन्हें सुनकर दर्शक हँसते हैं। फिल्म का लेखन इतना कमजोर है कि लेखक ऐसे दृश्य नहीं गढ़ पाएँ, जिससे पता चले कि खलनायक कौन है। अक्षय को सारा किस्सा अपने मुँह से सुनाना पड़ता है। एंथोनी डिसूजा ने सारा ध्यान स्टाइल पर दिया है। एक दृश्य में संजय दत्त के घर पर गुंडे हमला करते हैं। संजू बाबा पहले रंगीन चश्मा पहनते हैं, फिर लड़ने जाते हैं। बाइक चेजिंग सीन भी जबरन ठूँसे गए हैं। खजाने की खोज में जो रोमांच होना चाहिए वो फिल्म से नदारद है। फिल्म के प्रचार में अंडर वॉटर एक्शन की काफी बात की गई हैं, लेकिन ये खासियत फिल्म में कहीं नजर नहीं आती। समुद्र के भीतर जो दृश्य दिखाए गए हैं, वैसे दृश्य दर्शक टीवी पर कई बार देख चुके हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है और ‘आज दिल’, ‘चिगी विगी’ तथा ‘फिकराना’ प्रसिद्ध हो चुके हैं। इनका फिल्मांकन भव्य तरीके से किया गया है। संजय दत्त को इस फिल्म में चुनना एक और बड़ी गलती है। हर जगह से गोल-मटोल हो चुके संजय की अब तोंद भी निकल आई है। बॉक्सिंग भी उन्हें जैकेट पहन कर करना पड़ी। लारा के साथ उनके प्रेम-प्रसंग के दृश्य अटपटे लगे। अभिनय भी उन्होंने अनमने ढंग से किया है। अक्षय कुमार का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनकी जो स्टार वैल्यू है, उससे उनका किरदार न्याय नहीं कर पाता। लारा दत्ता ने समुद्र के अंदर गोते लगाकर अपनी काया का प्रदर्शन किया। अभिनय के नाम पर करने को उनके पास कुछ नहीं था। कैटरीना कैफ और कबीर बेदी संक्षिप्त रोल में नजर आए। राहुल देव प्रभावित करते हैं। फिल्म में एक संवाद है ‘लड़की के दिल पर, समुंदर की मछली पर और करंसी के नोट पर किसी का नाम नहीं लिखा होता है, जिसके हाथ लग जाता है उसी का हो जाता है।‘ कहा जा सकता है कि घटिया फिल्म का टिकट भी जिसके हाथ लगता है उसे भुगतना पड़ता है। ",0 "बैनर : ईशाना मूवीज़, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : सिद्धार्थ राय कपूर, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : अनुराग बसु संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : रणबीर कपूर, प्रियंका चोपड़ा, इलियाना डीक्रूज, सौरभ शुक्ला, आशीष विद्यार्थी सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 30 मिनट हास्य में करुणा और करुणा में हास्य, यह महान चार्ली चैपलिन के सिनेमा का मूलमंत्र है। इससे प्रेरणा लेकर पूरे विश्व में कई फिल्में बनी हैं। खुद राज कपूर पर चार्ली का गहरा प्रभाव रहा है और उनके सिनेमा में यह झलकता है। ‘बर्फी’ भी चैपलिन सिनेमा से प्रभावित है, खासतौर पर बर्फी/मर्फी का किरदार जो राज कपूर के पोते रणबीर ने निभाया है। चार्ली चैपलिन की फिल्मों में संवाद नहीं हुआ करते थे। बिना संवाद के गहरी बात चैपलिन बयां कर देते और सभी अपने मतलब निकाल लेते, शायद इसीलिए निर्देशक अनुराग बसु ने भी अपने हीरो को बोलने और सुनने में असमर्थ तथा हीरोइन को मंदबुद्धि बताया है। हीरो-हीरोइन ने पूरी फिल्म में अंगुली पर गिनने लायक शब्द बोलेंगे, लेकिन उनके अंदर क्या चल रहा है इसे अनुराग बसु ने इतने बेहतरीन तरीके से पेश किया है कि सारी बातें बिना कहे समझ आ जाती हैं। इन दिनों सिल्वर स्क्रीन पर ग्रे और ब्लैक किरदार का बोलबाला है और नि:स्वार्थ भावनाएं और निश्चल प्रेम नजर नहीं आता। बर्फी में ये सब बातें अरसे बाद देखने को मिली हैं और इन्हें देख ऋषिकेश मुखर्जी का सिनेमा याद आ जाता है जिसमें भले लोग नजर आते थे। बर्फी (रणबीर कपूर) और झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) साधारण इंसान भी नहीं हैं क्योंकि उनमें शारीरिक और मानसिक विकलांगता है। श्रुति (इलियाना डीसूजा) में कोई कमी नहीं है। इन तीनों के इर्दगिर्द जो कहानी गढ़ी गई है वो भी साधारण है। दरअसल किरदार पहले सोच लिए गए और फिर कहानी लिखी गई, लेकिन बर्फी को देखने लायक बनाता है अनुराग बसु् का निर्देशन, सभी कलाकारों की एक्टिंग और सशक्त किरदार। कहानी कहने की अनुराग की अपनी शैली है। उनकी फिल्मों में कहानी अलग-अलग स्तर पर साथ चलती रहती है जिसे वे आपस में लाजवाब तरीके से गूंथ देते हैं। काइट्स और मेट्रो में हम यह देख चुके हैं और बर्फी में भी उन्होंने इसी शैली को अपनाया है। लेकिन जरूरी नहीं है कि यह शैली सभी को पसंद आए। फिल्म में 1972, 1978 और वर्तमान का समय दिखाया गया है। सभी दौर की कहानी साथ चलती रहती है, जिसे कई लोग सुनाते रहते हैं। इस वजह से यह फिल्म देखते समय दिमाग सिनेमाघर में साथ लाना पड़ता है। दार्जिलिंग में रहने वाला बर्फी एक ड्राइवर का बेटा है और उसे सम्पन्न परिवार की श्रुति (इलियाना) चाहती है, जिसकी सगाई किसी और से हो चुकी है। श्रुति यह बात अपनी मां (रूपा गांगुली) को बताती है। मां द्वारा अपनी बेटी को समझाने वाला जो दृश्य बेहतरीन है। श्रुति को उसकी मां ऐसी जगह ले जाती है जहां कुछ लोग लकड़ी काटते रहते हैं। उसमें से एक की ओर इशारा कर मां कहती है कि जवानी में वे उसे चाहती थी, लेकिन यदि उसके साथ शादी करती तो ऐशो-आराम और सुविधा भरी जिंदगी नहीं जी पाती। इस तरह के कई शानदार दृश्य फिल्म में हैं, जिसमें क्लाइमेक्स वाले दृश्य का उल्लेख जरूरी है। अनाथालय में झिलमिल को ढूंढते हुए बर्फी आता है, लेकिन वो उसे नहीं मिलती। जब वह श्रुति के साथ वापस जा रहा होता है तब पीछे से झिलमिल उसे आवाज लगाती है, लेकिन सुनने में असमर्थ बर्फी को पता ही नहीं चलता कि उसकी पीठ पीछे क्या हो रहा है। श्रुति यह बात अच्छे से जानती है कि यदि बर्फी को झिलमिल का पता लग गया तो वह बर्फी को खो देगी। यहां पर श्रुति की प्रेम की परीक्षा है कि वह स्वार्थी बन चुप रहेगी या उसके लिए अपने प्रेमी की खुशी ही असली प्यार है और वह बर्फी को यह बात बता देगी। फिल्म की कहानी से थोड़ी छूट लेकर यह सीन लिखा गया है, लेकिन ये फिल्म का सबसे उम्दा सीन है। फिल्म के पात्र आधे-अधूरे हैं, लेकिन इससे फिल्म बोझिल नहीं होती। साथ ही उनके प्रति किसी तरह की हमदर्दी या दया उपजाने की कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में कई-कई छोटे-छोटे दृश्य हैं, जिनमें हास्य होने के साथ-साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि बर्फी को अपनी कमियों के बावजूद किसी किस्म की शिकायत नहीं है और वह जीने का पूरा आनंद लेता है। झिलमिल का कैरेक्टर स्टोरी में जगह बनाने में काफी समय लेता है और यहां पर फिल्म थोड़ी कमजोर हो जाती है, लेकिन धीरे-धीरे फिल्म में फिर पकड़ आ जाती है। उसके अपहरण वाले किस्सा थोड़ा लंबा हो गया, यदि यहां फिल्म को थोड़ा एडिट कर दिया जाए तो इससे फिल्म में चुस्ती आ जाएगी। इसके अलावा भी कहानी में कुछ कमियां हैं, लेकिन इन्हें इग्नोर किया जा सकता है। रणबीर कपूर ने बहुत जल्दी एक ऐसे एक्टर के रूप में पहचान बना ली है जिसके लिए रोल सोचे जाने लगे हैं। वे हर तरह के जोखिम उठाने और प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। संवाद के बिना अभिनय करना आसान नहीं है, लेकिन रणबीर ने न केवल इस चैलेंज को स्वीकारा बल्कि सफल भी रहे। बर्फी की मासूमियत, मस्ती और बेफिक्री को उन्होंने लाजवाब तरीके से परदे पर पेश किया है। श्रुति के घर अपना रिश्ता ले जाने वाले सीन में उनकी एक्टिंग देखने लायक है। कमर्शियल और मीनिंगफुल सिनेमा में संतुलन बनाए रखना प्रियंका चोपड़ा अच्छे से जानती हैं। जहां एक ओर वे ‘अग्निपथ’ करती हैं तो दूसरी ओर उनके पास ‘बर्फी’ के लिए भी समय है। ग्लैमर से दूर एक मंदबुद्धि लड़की का रोल निभाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। कुछ दृश्यों में तो पहचानना मुश्किल हो जाता है कि ये प्रियंका है। प्रियंका की एक्टिंग भी सराहनीय है, लेकिन उनके किरदार को कहानी में ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है। रणबीर और प्रियंका जैसे कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद इलियाना डिक्रूज अपना ध्यान खींचने में सफल हैं। उनका रोल कठिन होने के साथ-साथ कई रंग लिए हुए है, और इलियाना ने कोई भी रंग फीका नहीं होने दिया है। बॉलीवुड में उनका कदम स्वागत योग्य है। एक पुलिस ऑफिसर के रूप में सौरभ शुक्ला टिपिकल बंगाली लगे हैं। उनके साथ सभी कलाकारों ने अपने-अपने रोल बखूबी निभाए हैं। रवि वर्मन ने दार्जिलिंग और कोलकाता को खूब फिल्माया है और सभी कलाकारों के चेहरे के भावों को कैमरे की नजर से पकड़ा है। फिल्म के गीत अर्थपूर्ण हैं, लेकिन उनकी धुनें ऐसी नहीं है कि तुरंत पसंद आ जाएं। हो सकता है कि ये धीरे-धीरे लोकप्रिय हों। यह बर्फी बेहद स्वादिष्ट है और इससे कोई नुकसान भी नहीं है। ‘बर्फी’ देखना यानी अच्छी फिल्मों को बढ़ावा देना है। ",1 " ग्लैमर इंडस्ट्री में यकीनन बायॉपिक फिल्मों का ट्रेंड नया नहीं है। बरसों से बायॉपिक फिल्में बन रही हैं और ऐसा नहीं कि बॉक्स ऑफिस पर हर बायॉपिक फिल्म ने अच्छा बिज़नस किया हो। अगर हम क्रिकेटर पर बनी दो लेटेस्ट फिल्मों की बात करें तो अजहरुद्दीन पर फिल्म 'अजहर' जहां बॉक्स ऑफिस पर सुपर फ्लॉप रही, वहीं कैप्टन कूल धोनी पर बनी फिल्म जबर्दस्त हिट रही। दरअसल, ग्लैमर नगरी में नामी हस्तियों या ऐसे चंद चेहरों को लेकर बायॉपिक फिल्म बनाने का ट्रेंड है, जिनकी अपनी अलग पहचान हो। यही वजह है कि बॉलिवुड में बनी ज्यादातर बायॉपिक फिल्में क्रिकेटर, स्टार या राइटर पर बनी है। वहीं अगर हम 'पूर्णा' की बात करें तो इसके लिए हमें राहुल बोस की तारीफ करनी होगी जिन्होंने बतौर प्रडयूसर, डायरेक्टर और ऐक्टर एक ऐसी शख्सियत पर फिल्म बनाई जिसकी अचीवमेंट किसी से कम नहीं, लेकिन इनकी पहचान नहीं बन पाई। वहीं, दिल्ली बेस्ड फिल्म के युवा कास्टिंग डायरेक्टर मयंक दीक्षित ने दिल्ली से हैदराबाद तक कई शहरों में अपनी इस फिल्म की पूर्णा की तलाश की और करीब पांच सौ लड़कियों में से पूर्णा को चुना और उन्हें करीब दो महीने की खास ट्रेनिंग दी। बतौर प्रडयूसर राहुल बोस ने करीब तीन साल पहले 25 मई 2014 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली सबसे कम आयु की लड़की पूर्णा मालावत की महान उपलब्धि पर अपने दमखम पर यह फिल्म बनाई, जिसे शायद ही ग्लैमर इंडस्ट्री का कोई जाना-पहचाना बैनर कभी नहीं उठाता। कहानी : करीब तेरह साल की पूर्णा मालावत (अदिति इनामदार) हैदराबाद (अब तेलंगाना) के एक दूर-दराज बेहद पिछड़े हुए छोटे से गांव की लड़की है। बेहद पिछड़् हुए इस गांव में रहने वालीं पूर्णा और उसकी चचेरी बहन प्रिया के घर की माली हालत बेहद खराब है। हालात ऐसे हैं कि दोनों को स्कूल की फीस न देने की वजह से स्कूल की क्लास में नहीं बैठने दिया जाता और दोनों को स्कूल की सफाई करनी पड़ती है। एक दिन प्रिया पूर्णा के साथ घर से भागने का प्लान बनाती है। प्रिया और पूर्णा घर से भागने की वजह गांव से थोड़ी दूर बने सरकारी स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ खाना-पीना भी फ्री मिलता है, लेकिन दोनों घर से भागने में कामयाब नहीं हो पाती हैं और एक दिन प्रिया की शादी कर दी जाती है। प्रिया की शादी के बाद पूर्णा के पिता बेटी की जिद के चलते उसे सरकारी स्कूल में दाखिल कराते हैं जहां उसे पढ़ने के साथ वहीं रहना भी है। आईपीएस ऑफिसर प्रवीण कुमार (राहुल बोस) पुलिस की ड्यूटी लेने की बजाए एजुकेशन फील्ड में जाना पसंद करता है। एक दिन प्रवीण को पता चलता है कि सरकारी स्कूलों में ठीक खाना नहीं मिलता और एक सरकारी स्कूल की पूर्णा इसी वजह से स्कूल छोड़कर भाग गई है। प्रवीण किसी तरह पूर्णा को समझाकर वापस स्कूल लाते हैं। पूर्णा स्कूल के बच्चों के साथ पहाड़ चढ़ने के एक स्पेशल टूर पर जाती है तो कोच को लगता है कि पूर्णा एक दिन बेहतरीन पर्वतारोही बन सकती है। अब पूर्णा पर्वतारोहण की ट्रेनिंग शुरू करती है। ऐक्टिंग : छोटी लड़की पूर्णा के रोल में अदिति इनामदार ने अपनी बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। अदिति ने इस किरदार को निभाने के लिए न सिर्फ लंबी ट्रेनिंग ही ली, बल्कि टीम के साथ कई दिन की वर्कशॉप भी की। अगर दो शब्दों में कहा जाए तो पूर्णा यकीनन अदिति के नन्हें कंधों पर टिकी एक अच्छी फिल्म है। राहुल बोस ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। निर्देशन : तारीफ करनी होगी राहुल बोस की जिन्होंने सीमित बजट और सीमित साधनों के साथ एक ऐसी मेसेज देने वाली बेहतरीन फिल्म बनाई है जिसे ग्लैमर इंडस्ट्री के नंबर वन मेकर भी बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएं। इंटरवल के बाद की फिल्म दर्शकों को सीटों से बांधने में कामयाब है तो राहुल ने फिल्म की लोकेशन ऐसी चुनी है जहां ग्लैमर नगरी के नंबर वन मेकर भी जाने से इसलिए कतराएंगे कि वहां शून्य से कम तापमान के बीच शूटिंग करना आसान नहीं होता। स्क्रीनप्ले दमदार है और सिनेमटॉग्रफी का जवाब नहीं है। फिल्म का क्लाइमैक्स लाजवाब है जो आपकी आंखों को नम करने का दम रखता है। पिछले दिनों जब राष्ट्रपति भवन में इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग की गई तो फिल्म देखकर महामहिम की आंखें भी नम हो गईं। संगीत : फिल्म के गाने कहानी का हिस्सा हैं। बैकग्राउंड स्कोर बेहतरीन है। क्यों देखें : एक बेहतरीन फिल्म है, एक अच्छे मेसेज, गजब की फटॉग्रफी के साथ एक ऐसी फिल्म जिसे आप अपनी फैमिली के साथ देख सकते हैं, लेकिन अगर टाइम पास करने या फिर सिर्फ एंटरटेनमेंट ही पंसद करते हैं तो 'पूर्णा' आपके लिए शायद नहीं है। ",0 "आज से 19 साल पहले प्रदर्शित हुई सायकॉलजिकल थ्रिलर 'कौन' दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देनेवाली फिल्म साबित हुई थी। राम गोपाल वर्मा की इस फिल्म में उर्मिला मातोंडकर के साथ मनोज बाजपेयी के अभिनय की शानदार बानगी देखने को मिली थी। मनोज बाजपेयी की हालिया रिलीज 'मिसिंग' भी उसी परंपरा का निर्वाह करती नजर आती है, मगर यह फिल्म 'कौन' की तुलना में कहीं से भी बीस साबित नहीं होती। कहानी: फिल्म बड़े दिलचस्प अंदाज से शुरू होती है, जहां सुशांत दुबे (मनोज बाजपेयी) अपनी पत्नी अपर्णा (तब्बू) और 3 साल की बीमार बच्ची तितली के साथ रात के एक बजे मॉरीशस के एक रिजॉर्ट में चेक इन करता है। सुबह जब पति-पत्नी की आंख खुलती है, तो पता चलता है कि रिजॉर्ट के उनके कमरे से तितली गायब है। काफी खोजबीन के बाद वहां के पुलिस अफसर (अन्नू कपूर) को बुलाया जाता है। पुलिस की पड़ताल में इस दंपति के बारे में अजीबो-गरीब बातें सामने आती हैं। सुशांत पुलिस को बताता है कि तितली का कोई अस्तित्व नहीं है और उसकी पत्नी अपर्णा मानसिक बीमारी की शिकार है। उसी मनोदशा के कारण उसने एक काल्पनिक तितली की कहानी गढ़ ली है। इतना ही नहीं जैसे-जैसे पुलिस की तफ्शीश आगे बढ़ती जाती है, कहानी उलझती जाती है और एक पॉइंट ऐसा आता है जब पुलिस को इस पति-पत्नी के आपसी संबंधों पर भी शक होने लगता है। क्या वाकई तितली नाम की कोई बच्ची है ही नहीं? अगर है, तो वह कहां गायब हो गई? इस दंपति के संबंधों और बातों में ऐसा क्या झमेला है, जो पुलिस इन्हें भी शक की निगाह से देखने लगती है? ये तमाम बातें देखने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। रिव्यू: टेलिविजन की दुनिया से ताल्लुक रखनेवाले निर्देशक मुकुल अभ्यंकर की फिल्म निर्देशक के रूप में पहली फिल्म है। थ्रिलर फिल्म के लिहाज से उन्होंने अच्छी कोशिश की है, मगर दिक्कत यह है कि फिल्म के शुरू होने के कुछ देर बाद ही दर्शक आगे होनेवाले घटनाक्रम के बारे में जान जाता है। प्रेडिक्टिबल होने के बावजूद निर्देशक ने इसे ग्रिपिंग बनाया है, मगर टुकड़ों में। ज्यादातर जगहों पर यह फिल्म अपनी पकड़ खो देती है। मुकुल के लेखन-निर्देशन में उथलापन है। सस्पेंस-थ्रिलर में कई जगहों पर हंसी आती है, जो फिल्म के हित में नहीं है। स्क्रीनप्ले बहुत कमजोर है। क्लाइमैक्स तक आते-आते आप फिल्म की परिणति जान जाते हैं और रोमांच खो देते हैं। फिल्म में सुदीप चटर्जी का कैमरावर्क कमाल का है। एडिटिंग और शार्प हो सकती थी। मनोज बाजपेयी ने एक औरतखोर किरदार के चालाकी, डरे, सहमे वाले तमाम भावों को बेहतरीन ढंग से पेश किया है। परिस्थितियों के बीच फंस जाने के बाद कई जगहों पर उनकी बेचारगी पर हंसी भी खूब आती है। खोई हुई बच्ची की मां की भूमिका को तब्बू ने दिल से निभाया है। पुलिस अफसर के रोल में अन्नू कपूर कुछ पल राहत के जरूर देते हैं। सहयोगी कास्ट ठीक-ठाक है। संगीतकार एम एम करीम का संगीत थ्रिलर फिल्म के अनुसार सामान्य ही है। 'लोरी' गीत जरूर प्रभावशाली लगा है। क्यों देखें: सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों के शौकीन और मनोज बाजपेयी-तब्बू के फैंस यह फिल्म देख सकते हैं।",0 "एंग्री बर्ड्स एक अत्यंत ही लोकप्रिय गेम है जिसके 6 साल के बच्चे से लेकर तो 80 साल के बूढ़े भी दीवाने हैं। इस खेल में अलग-अलग गुणों वाले वाले बर्ड्स के जरिये ग्रीन पिगीज़ को मारा जाता है। इस खेल में कई लेवल्स होते हैं और इन लेवल्स को जब तक आप पार नहीं कर लेते तब तक चैन से बैठना मुश्किल है। खेलने में यह सरल और मजेदार है। इस खेल में रेड, ब्लैक, येलो बर्ड्स काफी पसंद की जाती हैं और इनके इर्दगिर्द कहानी रच कर 'द एंग्री बर्ड्स मूवी' बनाई गई है। कम्प्यूटर एनिमेटेड इस फिल्म में एक्शन, एडवेंचर और कॉमेडी है। बर्ड आयलैंड में रहने वाला रेड बर्ड अक्सर नाराज रहता है। उसके साथी उसे आंखों के ऊपर मूंछ वाला कह कर चिढ़ाते हैं। रेड के गुस्से से परेशान होकर उसे एंगर मैनेजमेंट सीखने के लिए भेजा जाता है, जहां उसी की तरह चक (येलो बर्ड), बॉम्ब (ब्लैक बर्ड) और बिग रेड बर्ड भी अपने गुस्से को काबू में रखना सीख रहे हैं। इनमें अच्छी दोस्ती हो जाती है। उसी दौरान आयलैंड पर ग्रीन पिगीज़ आते हैं जिनके खतरनाक इरादे रेड और उसके साथी भांप जाते हैं, लेकिन बर्ड आयलैंड वाले उनका कहा नहीं मानते और पिगीज़ की लुभावनी बातों में फंस जाते हैं। बर्ड्स के सारे अंडे पिगीज़ ले भागते हैं। रेड और उसके साथी किस तरह से ये अंडे वापस लाते हैं ये फिल्म का सार है। द एंग्री बर्ड्स मूवी की शुरुआत बेहतरीन है। जिन्होंने ये गेम खेला है उन्हें इन बर्ड्स का बातें करना और एक्शन अच्छा लगता है। रेड बर्ड तो आपका दिल जीत लेता है। इनके कारनामे रोमांचित करते हैं। ग्रीन पिग्स के आने के बाद उम्मीद बंधती है कि कहानी में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा, लेकिन थोड़ी निराशा होती है क्योंकि कहानी सीधी और सपाट है। ग्रीन पिग्स से अंडे वापस लाने वाली बात रोमांचक नहीं है और क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना आसान है। क्लाइमैक्स थोड़ा बेहतर हो सकता था यदि इसमें बर्ड्स के कुछ और कारनामे देखने मिलते। इसके बावजूद फिल्म आपको दिलचस्प किरदारों के कारण ज्यादातर समय बांध कर रखती है। फिल्म का एनिमेशन आंखों को सुकून देता है। रंग-बिरंगी बर्ड्स को एक साथ देखना मनोहारी है। रेड, येलो और ब्लैक बर्ड्स भरपूर मनोरंजन करते हैं। माइटी ईगल वाले सीन आपको गुदगुदाते हैं। निर्देशक क्ले केटिस और फेरगल रिली ने इस बात का ध्यान रखा है कि यह केवल बच्चों का ही नहीं बल्कि वयस्कों का भी मनोरंजन करे। 'द एंग्री बर्ड्स मूवी' उन लोगों को ज्यादा पसंद आएगी जिन्होंने ये गेम खूब खेला है। निर्देशक : क्ले केटिस, फेरगल रिली थ्रीडी 1 घंटा 37 मिनट ",1 "जब बात दिल और दिमाग के बीच फंसी हो, तो हमेशा दिल की सुनो। फिल्म 'बागी 2' का नायक कैप्टन रणवीर प्रताप सिंह उर्फ रॉनी (टाइगर श्रॉफ) भी कुछ ऐसा ही करता है। रॉनी और नेहा (दिशा पाटनी) कॉलेज में साथ पढ़ते हैं और एक-दूसरे को प्यार करते हैं, लेकिन नेहा के पिता रॉनी को पसंद नहीं करते। रॉनी और नेहा भाग कर शादी करने जाते हैं, लेकिन फिर कुछ ऐसा होता है कि नेहा और रॉनी अलग हो जाते हैं और नेहा की किसी और से शादी हो जाती है। वहीं रॉनी आर्मी में कमांडो बन जाता है। 4 साल बाद नेहा रॉनी से अपनी किडनैप हुई बेटी के बारे में मदद मांगती है। रॉनी को नेहा के देवर सनी (प्रतीक बब्बर) पर शक है, लेकिन नेहा का पति शेखर (दर्शन कुमार) रॉनी को बताता है कि उनकी कोई बेटी थी ही नहीं। इस तरह चीज़ें काफी उलझ जाती हैं। आखिर रॉनी इस मिस्ट्री को सुलझाने में कामयाब हो पाता है या नहीं? यह तो आपको सिनेमा जाकर ही पता लग पाएगा। अपने फिल्मी करियर की दूसरी फिल्म 'बागी' से 100 करोड़ क्लब में एंट्री करके टाइगर श्रॉफ ने दिखा दिया था कि वह लंबी रेस के घोड़े हैं। फिल्म के निर्माताओं ने उसी वक्त 'बागी' का सीक्वल अनाउंस कर दिया था। वहीं अब 'बागी 2' की रिलीज़ से पहले 'बागी 3' अनाउंस हो गई है। 'बागी 2' तेलुगु फिल्म 'क्षणम' की रीमेक है। टाइगर श्रॉफ के ऐक्शन का दर्शकों में कितना क्रेज है, इसकी गवाही सुबह-सुबह का हाउसफुल शो दे रहा था। देशभर में 3.5 हजार स्क्रीन पर रिलीज हुई 'बागी 2' टाइगर श्रॉफ की सबसे बड़ी रिलीज़ है। रियल लाइफ कपल टाइगर और दिशा की जोड़ी ऑनस्क्रीन काफी जमी है। खासकर उनकी पर्सनल केमिस्ट्री बेहतर होने की वजह से स्क्रीन पर यह कपल खूब जमा है। हालांकि दिशा और बेहतर कर सकती थीं। वहीं खुद टाइगर ने अपने फैन्स को हैरान कर देने वाले ढेरों ऐक्शन सीन किए हैं, जो कि सिनेमाघरों में फैन्स को सीटियां बजाने के लिए मजबूर देंगे। वह वन मैन आर्मी के रोल के अंदाज़ में फबते हैं। अपने एक टॉर्चर सीन में टाइगर पूरी तरह बिना कपड़ों के नजर आए हैं। उन्होंने फिल्म के लिए खासतौर पर हॉन्गकॉन्ग में मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग ली है। फिल्म का फर्स्ट हाफ आपको बांध कर रखता है, लेकिन सेकंड हाफ में डायरेक्टर अहमद खान फिल्म को संभाल नहीं पाए और आखिरी आधे घंटे में टाइगर के बेहतरीन ऐक्शन सीन्स के बावजूद कहानी के लेवल पर फिल्म पटरी से उतर जाती है।प्रतीक बब्बर ने विलन के रोल से बड़े पर्दे पर वापसी की है। यह बात और है कि इस कहानी का असली रावण कोई और निकलता है। डी आई जी के रोल में मनोज वाजपेयी हमेशा की तरह जमे हैं। वहीं एसीपी के रोल में रणदीप हुड्डा ने भी बढ़िया ऐक्टिंग की है। दीपक डोबरियाल ने भी अपने उस्मान लंगड़ा के रोल को बखूबी निभाया है। फिल्म की शूटिंग मनाली, थाईलैंड, गोवा और लद्दाख की खूबसूरत लोकेशन पर हुई है। फिल्म का संगीत ठीकठाक है, लेकिन जैकलिन फर्नांडिस पर फिल्माए गए माधुरी दीक्षित के गाने एक, दो, तीन...की पहले ही काफी फजीहत हो चुकी है। हालांकि, अगर आप हैरतअंगेज ऐक्शन सीन वाली फिल्मों के शौकीन हैं, तो टाइगर श्रॉफ आपको कतई निराश नहीं करेंगे। दर्शकों को कैसी लगी फिल्म: ",0 "निर्माता : प्रसार विज़न प्रा.लि. निर्देशक : अश्विनी चौधरी संगीत : सलीम-सुलेमान कलाकार : आर. माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य, मिलिंद सोमण, दी‍पान्निता शर्मा, मृणालिनी शर्मा, हेलन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट * 14 रील बैंड बाजा बारात में जोड़ियों की शादी करवाने वाले थे। जोड़ी ब्रेकर्स में जोड़ियां तोड़ने वाले हैं। वहां शादी करवाते-करवाते प्रेम हो जाता है तो यहां यह काम जोड़ियां तोड़ते हुए होता है। लेकिन बैंड बाजा बारात का निर्देशन, अभिनय, संवाद, हीरो-हीरोइन की कैमिस्ट्री बेहतरीन थी। जोड़ी ब्रेकर्स मे यह सब मिसिंग है। जोड़ी ब्रेकर्स की कहानी दो ट्रेक पर चलती है। एक जिसमें सिड और सोनाली अपना काम करते हैं और दूसरा ट्रेक उनकी खुद की लव स्टोरी का है। एक ट्रेक में कॉमेडी रखी गई है तो दूसरे में रोमांस। लेकिन स्क्रीनप्ले कुछ ऐसा लिखा गया है कि दर्शक न तो हंस पाता है और न ही फिल्म के हीरो-हीरोइन का रोमांस उसके दिल को छूता है। सिड (माधवन) और सोनाली (बिपाशा बसु) मिलकर उन लोगों के लिए काम करते हैं जो अपनी पति या पत्नी से तलाक चाहता है। इसके लिए वे तमाम तरह की हरकत करते हैं। एक केस में सोनाली को बताए बिना सिड धोखे से एक जोड़ी (मार्क और मैगी) को तोड़ देता है कि ताकि वह ( सिड) अपनी तलाकशुदा पत्नी से कार और बंगला वापस पा सके। सोनाली को जब इस मामले की असलियत मालूम होती है तो वह सिड से अलग हो जाती है। सिड को भी पश्चाताप होता है और वह अपनी गलती सुधारने के लिए उस जोड़ी को फिर एक करना चाहता है। इस काम में सोनाली उसकी मदद करती है। किस तरह से वे मार्क और मैगी को एक करते हैं ये लंबे और उबाऊ ड्रामे के जरिये दिखाया गया है। जोड़ी ब्रेकर्स की सबसे बड़ी कमजोरी है इसका स्क्रीनप्ले। गलतियां तो इसमें हैं ही साथ ही मनोरंजन की कमी भी है। पहले बात की जाए सिड और सोनाली के व्यवसाय वाले ट्रेक की। निर्देशक और लेखक ये तय नहीं कर पाए कि इसे हल्के-फुल्के तरीके से फिल्माया जाए या गंभीरता रखी जाए जाए। यह दुविधा साफ नजर आती है। जोड़ी तोड़ने के नाम पर कुछ फूहड़ किस्म की हरकतें हैं। ओमी वैद्य का बाबा बनकर भाषण देने वाला सीन तो बड़ा ही बेहूदा है और ‘थ्री इडियट्स’ के उस सीन की कमजोर कॉपी है जिसमें उनके स्पीच वाले पेपर्स बदल दिए गए थे। यहां भी पेपर्स बदल जाते हैं और शराब बनाने वाली कंपनियों के नामो ं को जोड़कर वे भाषण देते हैं। मार्क और मैगी की जोड़ी तोड़ने के लिए सिड-सोनाली ग्रीस जा पहुंचते हैं। होटल में मार्क-मैगी के कमरे तक पहुंचने वाले दृश्य से लेकर उनका पीछा करने वाले दृश्यों तक को लेखक ने अपनी सहूलियत के मुताबिक लिखा है। बड़ी ही आसानी से मार्क-मैगी के कमरे में सिड-सोनाली दाखिल हो जाते हैं। उनके फोटो उतारते हैं। फिल्म ग्रीस से गोवा शिफ्ट होती है क्योंकि अब मार्क और मैगी को फिर मिलाना है। ये पार्ट बहुत ही धीमा है। दोनों को मिलाने की कोशिश में कई नाटक रचे जाते हैं, जिसमें मार्क की नानी को भी शामिल किया जाता है। चर्च ले जाया जाता है। दोनों को साथ रुकवाया जाता है। खाने में दवाई मिलाकर तबियत तक बिगाड़ दी जाती है, लेकिन एक भी ऐसा सीन नहीं लिखा गया जिससे लगे कि दोनों फिर से एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो रहे हों। अंत में सिड ही उनके सामने कबूल करता है कि वह ही दोनों के ब्रेकअप का जिम्मेदार है। अगर सिड स े ही गलती मनवाना थी तो फिर इतनी ड्रामेबाजी क्यों की गई? दूसरा ट्रेक सोनाली और सिड के रोमांस का है जो कि पूरी तरह से बैंड बाजा बारात में रणवीर-अनुष्का के रोमांटिक ट्रेक से मेल खाता है, लेकिन वैसा स्पार्क यहां महसूस नहीं होता। सोनाली का अचानक सिड के प्रति आकर्षित हो जाना चौंकाता है। साथ ही दोनों के बीच फिल्माए गए सीन बेहद लंबे हैं। अश्विनी चौधरी का निर्देशन अच्छा है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के कारण वे असहाय नजर आए। फिल्म का संगीत प्लस पाइंट है। कुंआरा, दरमियां, मुझे तेरी जरूरत है जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। ‘बिपाशा’ का फिल्मांकन उम्दा है। यदि आप कमर्शियल फिल्म के हीरो हैं तो आपका फिट रहना जरूरी है, लेकिन माधवन मोटे नजर आएं। ओवरसाइट शर्ट्स और जैकेट्स उन्होंने पहने, शर्ट आउट रखा, लेकिन अपने मोटापे को नहीं छिपा पाए। उनका अभिनय बेहतर है। दीपान्निता शर्मा और मृणालिनी शर्मा प्रभावित करते हैं, जबकि बिपाशा बसु, हेलन और मिलिंद सोमण का अभिनय औसत दर्जे का है। ओमी वैद्य अब तक ‘थ्री इडियट्स’ के हैंगओवर में चल रहे हैं। कुल मिलाकर जोड़ी ब्रेकर्स मनोरंजन करने में असफल है। ",0 "स्त्रियों के हित में भले ही भारत में कितनी बात की गई हो, लेकिन लोगों की सोच में थोड़ा-सा ही फर्क पड़ा होगा। अभी भी बेटे को हथियार और बेटी को सिर पर लटकती तलवार माना जाता है। बेटी होते ही उसके माता-पिता दहेज की रकम जोड़ना शुरू कर देते हैं क्योंकि समाज की कुरीतियां ही ऐसी हैं। इस वजह से लड़कियों को लड़कों की तुलना में कमतर आंका जाता है। पुरुष शासित समाज में कई स्त्रियां योग्य होने के बावजूद न चाहते हुए रसोई संभालती है और उनसे आगे बढ़ने के अवसर गृहस्थी के नाम पर ‍छीन लिए जाते हैं। इन सब बातों को निर्देशक-लेखक शशांक खेतान ने 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' में समेटा है। यह विषय काफी पुराना है और कई फिल्मकार इस पर अपनी फिल्म बना चुके हैं। विषय पुराना होने के बावजूद शशांक का लेखन और निर्देशन फिल्म को देखने लायक बनाता है। युवाओं की पसंद के अनुरूप उन्होंने कॉमेडी, डांस, गाने के जरिये उन्होंने अपनी बात को पेश किया है। 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' से प्रेरित होकर बनाई थी, लेकिन दूसरी फिल्म में वे अपनी पिछली फिल्म से आगे निकल गए। फिल्म की कहानी झांसी में रहने वाला बद्रीनाथ बंसल (वरुण धवन) की है जो अमीर बाप का बेटा है। उसे इस बात का थोड़ा-सा घमंड भी है। बद्री के पिता रूढि़वादी हैं। अपनी बड़ी बहू को वे काम करने की इजाजत नहीं देते हैं। कोटा में रहने वाली वैदेही त्रिवेदी (आलिया भट्ट) पर बद्री का दिल आ जाता है। वैदेही की बड़ी बहन भी अविवाहित है और उसके पिता को दिन-रात बेटियों के विवाह की चिंता सताती रहती है। बद्री को वैदेही पसंद नहीं करती, लेकिन जब बद्री उसकी बड़ी बहन के लिए लड़का ढूंढ देता है तो वह शादी के लिए तैयार हो जाती है। यहां तक फिल्म में मनोरंजन की धारा बहती रहती है। कई ऐसे सीन हैं जो दर्शकों को हंसाते हैं। इंटरवल ऐसे मोड़ पर होता है कि दर्शक आगे की कहानी जानने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म में इमोशन हावी हो जाता है और उठाए गए मुद्दों के प्रति फिल्म गंभीर हो जाती है। क्लाइमैक्स थोड़ा ड्रामेटिक जरूर है, लेकिन अच्छा लगता है। बद्रीनाथ की दुल्हनिया को बहुत अच्छे से लिखा गया है। चिर-परिचित फिल्म होने के बावजूद ताजगी महसूस होती है। फिल्म में कई उम्दा सीन हैं, जैसे बद्री और उसके दोस्त की लड़ाई और फिर समुंदर में बद्री का दोस्त को मनाना, बद्री और वैदेही के बीच बस वाला दृश्य, माता की चौकी में बद्री का वैदेही की बहन के लिए लड़का ढूंढना, वैदेही का बद्री को कहना कि वह अपने पिता के सामने क्या मुंह खोलने की हिम्मत कर सकता है। शशांक ने फिल्म में दिए गए संदेशों को थोपा नहीं है। मनोरंजन की आड़ में उन्होंने अपनी बात इतने चुपके से कही है कि महसूस की जा सकती है। फिल्म में एक छोटा सा सीन है जिसमें आलिया अपने पिता को लड़के के पिता के सामने झुकता हुआ महसूस करती है और उनके चेहरे के भाव इस सीन को धार देते हैं। हालांकि कुछ सीन अखरते भी हैं जैसे वैदेही का बद्री द्वारा लगातार पीछा करना। इस तरह के दृश्य इस बात को बल देते हैं कि लड़कियों को पटाना है तो लगाता उनका पीछा करो, हालांकि स्क्रिप्ट में इसे जस्टिफाई किया गया है, लेकिन फिर भी इस तरह के दृश्यों से बचा जा सकता था। फिल्म में एक सीन में वैदेही को पकड़ कर बद्री कार की डिक्की में बंद कर देता है और यह भी फिल्म में जंचता नहीं है। सेकंड हाफ में फिल्म कही-कही थोड़ा कमजोर पड़ती है, खासतौर पर सिंगापुर वाला प्रसंग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है, लेकिन अच्छी बात यह है कि इसके बावजूद फिल्म में दर्शकों की रूचि बनी रहती है। शशांक निर्देशक के रूप में प्रभावित करते हैं। उन्होंने अपने सारे कलाकारों से अच्छा काम लिया है। गीतों का सही इस्तेमाल किया है। उनका प्रस्तुतिकरण हल्का-फुल्का है और फिल्म में मैसेज होने के बावजूद मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा है। झांसी, कोटा और सिंगापुर में उन्होंने फिल्म को फिल्माया है और हर जगह का अच्छा उपयोग किया है। फिल्म के संवाद भी इस काम में उनकी खासी मदद करते हैं। वरुण धवन और आलिया की केमिस्ट्री शानदार रही है। फिल्म वरुण को भरपूर असवर देती है जिसका उन्होंने पूरी तरह उपयोग किया है। वे हरफनमौला कलाकार हैं और कॉमेडी, इमोशन और रोमांटिक दृश्यों में अपनी छाप छोड़ते हैं। डांस उनकी खासियत है और इसका भी निर्देशन ने खासा उपयोग किया है। वरुण की ऊर्जा से फिल्म भागती हुई महसूस होती है। आलिया भट्ट का किरदार ठहराव लिए हुए है। उन्हें कुछ कठिन दृश्य भी दिए गए हैं और वे बखूबी उन्हें निभा ले गई हैं। बद्रीनाथ के दोस्त के रूप में साहिल वद ने भी शानदार अभिनय किया है। फिल्म की कास्टिंग अच्छे से की गई है और हर किरदार में कलाकार फिट लगता है। > > फिल्म के विषय को देखते हुए सवाल उठाया जा सकता है कि क्या ये अच्छा नहीं होता कि फिल्म का नाम शशांक 'वैदेही का दूल्हा' रखते? पर बॉलीवुड भी नायक प्रधान है। होली के त्योहार पर प्रदर्शित हुई 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' मनोरंजन के कई रंग समेटे हुई है और साथ में संदेश भी है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, धर्मा प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, हीरू जौहर, अपूर्वा मेहता निर्देशक : शशांक खेतान संगीत : तनिष्क बागची, अमाल मलिक, बप्पी लाहिरी कलाकार : वरुण धवन, आलिया भट्ट, साहिल वेद, गौहर खान, श्वेता बसु सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 25 सेकंड ",1 " बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो, वाइड फ्रेम पिक्चर्स, विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विशाल भारद्वाज, कुमार मंगत पाठक निर्देशक व संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इमरान खान, अनुष्का शर्मा, पंकज कपूर, शबाना आजमी, आर्य बब्बर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटा 30 मिनट 35 सेकंड विशाल भारद्वाज उन फिल्मकारों में से हैं जो अपनी फिल्मों के ड्रामे और कल्पनाशीलता के लिए जाने जाते हैं। उनकी कल्पना थोड़ा पागलपन लिए होती है, इसलिए कई बार दर्शकों को यह पसंद नहीं आती है क्योंकि उनके किरदार ऊटपटांग हरकतें किया करते हैं। मटरू की बिजली का मंडोला में भी मटरू और मंडोला की ऐसी ही हरकतें हैं। मसलन शराब के नशे में उनकी बाइक कुएं से टकरा जाती है और दोनों नशे में रस्सी के सहारे कुआं हटाने की कोशिश करते हैं। नशे में दोनों हवाई जहाज उड़ाते हैं। मंडोला को लैंडिंग नहीं आती लिहाजा पैराशूट के सहारे कूदकर दोनों जान बचाते हैं। मंडोला की तमाम हरकतें पागलपन से भरी हैं। हरफूल मंडोला शराब पीते ही हैरी मंडोला हो जाता है। अंग्रेजी में बात करने लगता है। दिमाग पर दिल हावी हो जाता है। गांव में किसानों को जमीन देने की सोचने लगता है। नशा उतरते ही वह सूट-बूट धारी बिज़नेस मैन बन जाता है और किसानों से जमीन छिन कर उस पर इंडस्ट्री, मॉल बनाने की सोचता है। इसी तरह के व्यंग्यात्मक दृश्यों के सहारे कहानी को आगे बढ़ाया गया है। राजनेता, किसान, पॉवर, पुलिस, सरकारी अधिकारियों के इर्दगिर्द कहानी घूमती है। ये शक्तिशाली लोग, गरीब किसानों की जमीन छीनना चाहते हैं। गांव का सबसे पैसे वाला व्यक्ति मंडोला, जिसके नाम पर गांव का नाम है, नेताओं से हाथ मिला लेता है। पैसों की भूख मिटाने के लिए वह अपनी बेटी बिजली की शादी भी एक नेता के बेटे से तय कर देता है ताकि उसे लाभ हो। इनके बीच बनते-बिगड़ते रिश्ते किस तरह से मटरू, बिजली और मंडोला की जिंदगी में परिवर्तन लाते हैं, ये कहानी का सार है। विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे ने मिलकर स्क्रिप्ट लिखी है और कही ना कही उन पर ‘जाने भी दो यारों’ का असर है। भ्रष्टाचार पर उन्होंने व्यंग्यात्मक चोट करने की कोशिश की है, लेकिन इस तंज में तीखापन नहीं है। दरअसल इंटरवल के बाद फिल्म अपना फोकस खो बैठती है और लव स्टोरी हावी हो जाती है। कई बातें स्पष्ट नहीं हैं। मटरू के प्रति अचानक बिजली का आकर्षित हो जाना या क्लाइमेक्स में अचानक मंडोला के हृदय परिवर्तन के लिए कोई ठोस कारण का न होना अखरता है। इमरान का माओ बनकर किसानों के लिए लड़ने वाला ट्रेक भी अधूरे मन से लिखा गया है। लेखन की कमियों का असर निर्देशक के मजेदार प्रस्तुतिकरण के कारण कम हो जाता है। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं, जिनका मजा लिया जा सकता है और इसका श्रेय विशाल को जाता है। उन्होंने हर सीन को बेहतर बनाने की कोशिश की है, संगीत का सहारा भी लिया है और फिल्म का मूड हल्का-फुल्का रखा है। शबाना को पंकज जो सपना सुनाते हैं वो सीन बेहतरीन बन पड़ा है। गुलाबी भैंस वाले सीन भी मजेदार हैं, लेकिन लगातार दोहराव होने के कारण ये दृश्य अपना असर खो देते हैं। यदि कहानी पर थोड़ा और काम किया जाता तो निश्चित रूप से फिल्म कहीं अधिक चुटीली और तीखी बनती। बॉलीवुड में पंकज कपूर एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें मन मुताबिक काम न मिले तो वे घर बैठना पसंद करते हैं। यही वजह है कि वे बेहद कम नजर आते हैं। मंडोला के किरदार में उन्होंने जान फूंक दी है। एक्टिंग के साथ-साथ उन्होंने गाने गाए, डांस किया और स्विमिंग पुल में छलांग तक लगाई। उनके और शबाना आजमी के बीच जो दृश्य हैं उनमें एक्टिंग का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है। इमरान खान ने गेटअप और हरियाणवी लहजे में बोलकर कुछ अलग करने की कोशिश की है, लेकिन ये बदलाव वे अपनी एक्टिंग में नहीं कर पाए। अनुष्का शर्मा नै‍सर्गिक अभिनेत्री हैं और उनका चुलबुलापन किरदार को नए आयाम देता है। एक भ्रष्ट नेता के रूप में शबाना बेहद खतरनाक लगती हैं। आर्य बब्बर ने उनके बेटे के रूप में दर्शकों को हंसाया है। कार्तिक विजय त्यागराजन की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है, लेकिन उन्होंने लाइट का कम उपयोग किया है। शायद यह विशाल भारद्वाज का दबाव होगा क्योंकि वे परदे पर अंधेरा रखना पसंद करते हैं। ‘ओए बॉय चार्ली’ सुनने और देखने में बेहतरीन है। ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है, बावजूद इसके देखी जा सकती है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत ",1 "बैनर : रिलायंस बिग पिक्चर्स निर्देशक : श्याम बेनेगल संगीत : शांतनु मोइत्रा कलाकार : बोमन ईरानी, मिनिषा लांबा, समीर दत्तानी, रवि किशन, इला अरुण, रजित कपूर, यशपाल शर्मा, रवि झांकल सेंसर सर्टिफिकेट :यू/ए * 16 रील * 2 घंटे 20 मिनट श्याम बेनेगल का कहना है कि वे युवाओं को गाँव से जोड़ना चाहते हैं क्योंकि भारतीयों का एक बहुत बड़ा हिस्सा गाँवों में बसता है जो शाइनिंग इंडिया से बहुत दूर है। इसलिए उन्होंने ‘वेल डन अब्बा’ में चिकटपल्ली नामक गाँव को दिखाया है। ग्रामीण जीवन और उनकी समस्याओं को यह फिल्म बारीकी से दिखाती है। इस फिल्म के जरिये उन्होंने उन सरकारी योजनाओं पर प्रहार किया है जो गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के लिए बनाई जाती है। मुफ्त का घर, मुफ्त का कुआँ, मुफ्त की शिक्षा, चिकित्सा जैसी योजनाएँ सरकार से गरीब तक पहुँचने में कई लोगों के हाथ से गुजरती है और लाख रुपए सैकड़े में बदल जाते हैं। अरमान अली (बोमन ईरानी) मुंबई में ड्रायवर है। छुट्टी लेकर वह अपनी बेटी मुस्कान (मिनिषा लांबा) के लिए लड़का ढूँढने चिकटपल्ली जाता है। मुस्कान अपने चाचा-चाची के साथ रहती है जो मस्जिद से जूते भी चुराते हैं और बावड़ियों से पानी भी क्योंकि गाँव में पानी का संकट है। अरमान को पता चलता है कि कपिल धारा योजना के अंतर्गत सरकार गरीबों को बावड़ी के लिए मुफ्‍त में धन दे रही है। वह अपनी जमीन पर बावड़ी बनवाना चाहता है ताकि थोड़ी-बहुत फसल पैदा कर सके। गरीबी रेखा के नीचे होने का वह झूठा प्रमाण-पत्र बनवाता है और बावड़ी के लिए आवेदन करता है। उसका सामना भ्रष्ट अफसर, बाबू, मंत्री और इंजीनियर से होता है जो उसे मिलने वाले अनुदान में से अपना हिस्सा माँगते हैं। आखिर में अरमान के हाथों में चंद हजार रुपए आते हैं जिससे बावड़ी नहीं बनाई जा सकती। उदास अरमान को उसकी 12 वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मुस्कान अनोखा रास्ता बताती है। वे बावड़ी की चोरी की रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। उ नका साथ वे लोग भी देते हैं जिनके साथ भी बावड़ी के नाम पर हेराफेरी की गई। मामला विधानसभा तक पहुँच जाता है और सरकार बचाने के लिए रातो-रात बावड़ी बना दी जाती है। इस कहानी को ‘नरसैय्या की बावड़ी’ (जीलानी बानो), ‘फुलवा का पुल’ (संजीव) और ‘स्टिल वॉटर्स’ को आधार बनाकर तैयार किया गया है। इस तरह की कहानी पर कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में भी फिल्म बनी है और कुछ दिनों पहले ‘लापतागंज’ टीवी धारावाहिक के एक एपिसोड में भी ऐसी कहानी देखने को मिली थी। लेकिन श्याम बेनेगल का हाथ लगने से यह कहानी ‘वेल डन अब्बा’ में और निखर जाती है। बेनेगल ने सरकारी सिस्टम और इससे जुड़े भ्रष्ट लोगों को व्यंग्यात्मक और मनोरंजक तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है कि किस तरह इन योजनाओं को मखौल बना दिया गया है और गर ीबों का हक अफसर/मंत्री/पुलिस छ ीन रहे हैं। कई ऐसे दृश्य हैं जो चेहरे पर मुस्कान लाते हैं साथ ही सोचने पर मजबूर करते हैं। ये सारी बातें बिना लाउड हुए दिखाई गई हैं। मुख्‍य कहानी के साथ-साथ मुस्कान और आरिफ का रोमांस और शेखों द्वारा गरीब लड़कियों को खरीदने वाला प्रसंग भी उल्लेखनीय है। फिल्म की धीमी गति और लंबे क्लायमेक्स से कुछ लोगों को शिकायत हो सकती है, लेकिन इसे अनदेखा भी किया जा सकता है। गाँव की जिंदगी में एक ठहराव होता है और इसे फिल्म के किरदारों के जरिये महसूस किया जा सकता है। फिल्म में कई ऐसे कैरेक्टर हैं जो फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रहते हैं। चाहे वो भला आदमी अरमान हो, उसकी तेज तर्रार बेटी मुस्कान हो या इंजीनियर झा हो जिसके दिमाग में हमेशा सेक्स छाया रहता है। अरमान अली के रूप में बोमन ईरानी की एक्टिंग बेहतरीन है, लेकिन अरमान के जुड़वाँ भाई के रूप में उन्होंने थोड़ी ओवर एक्टिंग की है। मिनिषा लांबा का यह अब तक सबसे उम्दा अभिनय कहा जा सकता है। रवि किशन, रजत कपूर, इला अरुण, समीर दत्ता, राजेन्द्र गुप्ता ने भी अपना काम अच्छे से किया है। सोनाली कुलकर्णी को ज्यादा अवसर ‍नहीं मिल पाए। ‘वेल डन अब्बा’ एक वेल मेड फिल्म है और इसे देखा जा सकता है। ",1 "सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार करती अनेक फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं और इस लिस्ट में 'मदारी' का नाम भी जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के कारण एक पुल ढह गया जिसमें कई लोगों के साथ एक सात वर्षीय बालक भी मारा गया। इस बालक के पिता निर्मल कुमार (इरफान खान) की तो मानो जिंदगी ही खत्म हो गई। गृहमंत्री के आठ वर्षीय बेटे का अपहरण वह इसलिए कर लेता है ताकि उसे अहसास हो कि बेटे पर जब कोई मुसीबत आती है तो कैसा महसूस होता है। साथ ही वह इंजीनियर, डिजाइनर, ठेकेदार, नेताओं की पोल खोलना चाहता है। फिल्म को शैलजा केजरीवाल और रितेश शाह ने लिखा है और निशिकांत कामत ने निर्देशित किया है। हिंदी में निशिकांत फोर्स, दृश्यम, मुंबई मेरी जान और रॉकी हैंडसम जैसी फिल्में बना चुके हैं। 'मदारी' के लेखकों ने भ्रष्टाचार विषय तो तय कर लिया, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस विषय के इर्दगिर्द कहानी की बुनावट की है वो प्रभावित नहीं करती। फिल्म की शुरुआत में ही गृह मंत्री के बेटे का निर्मल अपहरण कर लेता है। इंटरवल और उसके बाद भी वह उस लड़के को लेकर अलग-अलग शहरों में घूमता रहता है। यहां चोर-पुलिस के खेल पर फोकस किया गया है, लेकिन यह रोमांचविहीन है। कभी भी लगता ही नहीं कि ऑफिसर नचिकेत वर्मा (जिम्मी शेरगिल) निर्मल को पकड़ने के लिए कुछ ठोस योजना बना रहा है। दूसरी ओर निर्मल बहुत ही आसानी के साथ बालक को लेकर घूमता रहता है। आठ साल का बालक बहुत ही स्मार्ट दिखाया गया है, वह स्टॉकहोम सिंड्रोम की बातें करता है, लेकिन कभी भी भागने की कोशिश नहीं करता। फिल्म के सत्तर प्रतिशत हिस्से में बस यही दिखाया गया है कि निर्मल अपहृत बालक के साथ यहां से वहां भटक रहा है। वह ऐसा क्यों कर रहा है, ये बताने की जहमत निर्देशक ने नहीं उठाई। सिर्फ उसका बेटा खोया है, इतना ही बताया गया है। राज पर से परदा उठने का इंतजार करते-करते दर्शक उब जाता है। फिल्म उसके धैर्य की परीक्षा लेने लगती है। अंतिम बीस मिनटों में ही फिल्म में तेजी से घटनाक्रम घटते हैं और यहां तक पहुंचने का जो सफर है वो काफी कष्टप्रद है। निर्देशक के रूप में निशिकांत कामत निराश करते हैं। उनका कहानी को कहने का तरीका कन्फ्यूजन को बढ़ाता है। क्लाइमैक्स में निशिकांत ने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है। अचानक एक आम आदमी हीरो की तरह कारनामे करता है। 'सरकार भ्रष्ट नहीं है, भ्रष्टाचार के लिए सरकार है' जैसे कुछ संवाद यहां सुनने को मिलते हैं। हालांकि इन बातों में कुछ नयापन नहीं है और कई बार इस तरह की भ्रष्टाचार विरोधी बातें हम देख/सुन चुके हैं। दुर्घटनाओं में कई लोग लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण मारे जाते हैं। चूंकि इन आम लोगों के पास लड़ने के लिए न पैसा होता है न पॉवर इसलिए ये जिम्मेदार लोग बच निकलते हैं। फिल्म के जरिये ये बात उठाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये दर्शकों के मन पर स्क्रिप्ट की कमियों के चलते असर नहीं छोड़ती। फिल्म के क्लाइमैक्स में ये सारी बातें की गई हैं तब तक दर्शक फिल्म में रूचि खो बैठते हैं। अविनाश अरुण की सिनेमाटोग्राफी दोयम दर्जे की है। कैमरे को उन्होंने खूब हिलाया है जिससे आंखों में दर्द होने लगता है। आरिफ शेख का सम्पादन भी स्तर से नीचे है। स्टॉक इमेजेस की क्वालिटी बेहद खराब है। एक हद तक अपने अभिनय के बल पर इरफान खान फिल्म को थामे रहते हैं, लेकिन वे अकेले भी कब तक भार उठाते। स्क्रिप्ट की कोई मदद उन्हें नहीं मिली। उनकी एक्टिंग का नमूना अस्पताल के एक शॉट में देखने लायक है जब उनका बेटा मर जाता है और वे रोते हैं। अन्य कलाकारों में जिम्मी शेरगिल और बाल कलाकार विशेष बंसल प्रभावित करते हैं। कुल मिलाकर 'मदारी' का यह खेल न मनोरंजक है और न ही यह भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को ठीक से उठा पाई। बैनर : परमहंस क्रिएशन, डोरे फिल्म्स, सप्तर्षि सिनेविज़न निर्माता : शैलेष आर सिंह, सुतापा सिकदर, शैलजा केजरीवाल निर्देशक : निशिकांत कामत संगीत : विशाल भारद्वाज कलाकार : इरफान खान, जिम्मी शेरगिल, तुषार दलवी, विशेष बंसल * दो घंटे 13 मिनट 42 सेकंड ",0 "'लव ऐंड रिलेशनशिप्स आर कॉम्प्लिकेटेड' यानी प्यार और रिलेशनशिप जटिल होते हैं, ये स्टेटस आपने दसियों बार कहीं न कहीं पढ़ा होगा। अनुराग कश्यप निर्देशित और आनंद एल. राय निर्मित 'मनमर्जियां' में इसी स्टेट्स को बहुत खूबसूरती और मच्योरिटी के साथ डील किया गया है। फिल्म की कहानी भले प्रेम त्रिकोण जैसे पुराने आइडिया के इर्द-गिर्द घूमती हो, मगर इन फिल्मकारों की स्टोरी टेलिंग का अंदाज नया और अनोखा है, जो हो सकता है कि परंपरागत सोच वाले दर्शकों के गले न उतरे, मगर फिर आपको समझना होगा कि अनुराग कश्यप जैसे बागी फिल्मकार ने परंपरा का निर्वाह कब किया है? कहानी एक सरल नोट पर शुरू होती है, जहां रूमी (तापसी पन्नू) और विकी (विकी कौशल) एक-दूसरे के प्यार में गले तक इस कदर डूबे हैं कि जब भी मौका मिलता है, वे एक-दूसरे में समा जाने को आतुर रहते हैं। उनका प्यार देह की सीमाओं को पार कर चुका है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब एक दिन तापसी के बेडरूम में दोनों को घरवाले रंगे हाथों पकड़ लेते हैं। अब हालात ऐसे बन जाते हैं कि रूमी के घरवाले उस पर शादी का दबाव बनाते हैं। खिलंदड़ी और बेबाक रूमी मस्तमौला और गैरजिम्मेदार विकी के सामने फरमान जारी कर देती है कि वह अगले दिन अपने घरवालों को लेकर शादी की बात करने आए, मगर विकी इस स्थिति के लिए मच्योर नहीं हुआ है। वह रूमी को गच्चा दे जाता है और नहीं आता। रूमी और विकी में इस बात को लेकर खूब लड़ाई होती है, मगर इस बीच विदेश से शादी के लिए आए हुए रॉबी (अभिषेक बच्चन) को जब रूमी का रिश्ता दिखाया जाता है, तो वह उसकी फोटो देखते ही उसके प्यार में पड़ जाता है। विकी से नाराज रूमी रॉबी के साथ शादी करने की हामी भर भी लेती है, मगर फिर विकी उसे अपने प्यार शिदद्त का वास्ता देकर मना लेता है और उसे घर से भागने के लिए मना लेता है। कमिटमेंट फोबिक विकी अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ कि शादी जैसी जिम्मेदारी को निभा सके, इसलिए वह बार-बार जिम्मेदारी की बात आने पर मुंह मोड़ लेता है। अंततः रूमी रॉबी के नाम की मेहंदी लगा लेती है और अगले दिन उसकी शादी है, मगर अब विकी किसी भी हाल में रूमी को किसी और का नहीं होने देना चाहता। वे दोनों फिर भागने का प्लान बनाते हैं, मगर एक बार फिर विकी अपने वादे से पलट जाता है। रूमी और रॉबी की शादी हो जाती है, मगर कहानी खतम नहीं होती। इन किरदारों का अंजाम क्या होता है, इसे जानने के लिए आपको सिनेमा हॉल जाना होगा। आनंद एल. राय निर्मित और अनुराग कश्यप निर्देशित मनमर्जियां आज के दौर के प्यार की उस व्याख्या को चित्रित करती है, जिससे कमोबेश आज का युवा गुजरता है। किरदारों के बोल्डनेस के मामले में आनंद एक कदम आगे बढ़े हैं, तो अनुराग उन्हें ट्रीट करते हुए नर्मी से पेश आए हैं। अनुराग ने किरदारों को सीक्वेंस और दृश्यों के साथ इस खूबी से गूंथा है कि आप उन्हें जज करने के बजाय उनके साथ बहते चले जाते हैं। अमृतसर की रहनेवाली रूमी और विकी का दैहिक प्यार आपको चौंकाता जरूर है, मगर कहीं न कहीं आप उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं। निर्देशक के रूप में अनुराग इस फिल्म में एक अलग अंदाज में दिखे हैं। उन्हें कनिका ढिल्लन जैसी लेखिका का भी खूब साथ मिला है। फिल्म के कई दृश्य ऐसे हैं, जो बेहद ही मजेदार बन पड़े हैं। वे आपको मल्टिपल इमोशंस का अहसास कराते हैं। आपको आखिर तक पता नहीं चल पाता कि रूमी किस तरफ जाएगी? क्लाइमैक्स बहुत ही प्यारा है। अभिनय के मामले में 'मनमर्जियां' हर तरह से बीस साबित होती है। तापसी पन्नू आज के दौर की संवरी हुए अभिनेत्री हैं, मगर इस फिल्म को उनके करियर की उत्कृष्ट फिल्म कहना गलत न होगा। उन्होंने एक अनकन्वेंशनल किरदार को इतने कन्विंसिंगली जिया है कि आप उसके प्यार में पड़ जाते हैं। अभिषेक बच्चन की संयमित परफॉर्मेंस कहानी को खास बनाती है। शराब पीकर बार में नाचनेवाला दृश्य और क्लाइमैक्स में अभिषेक और तापसी का संवाद फिल्म का हाई पॉइंट साबित होता है।विकी कौशल ने विकी के अपने किरदार को बखूबी जिया है, जिसे प्यार तो समझ में आता है, मगर जिंदगी और जिम्मेदारी नहीं। उनका फंकी लुक उनके किरदार को बल देता है। फिल्म की सहयोगी कास्ट भी मजबूत है। संगीत के मामले में सभी गाने सोलफुल हैं। अमित त्रिवेदी के संगीत में 'हल्ला', 'ग्रे वाला शेड', 'डराया' जैसे सभी गाने अच्छे बन पड़े हैं। क्यों देखें: नए दौर की अनकन्वेंशनल रोमांटिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।",1 " 2015 में जुरासिक वर्ल्ड से इस सीरिज को रीबूट किया गया और अब इसका सीक्वल 'जुरासिक वर्ल्ड: फॉलन किंगडम' रिलीज हुआ है, जिसे हिंदी में डब कर 'जुरासिक वर्ल्ड: दहशत में सल्तनत' नाम से रिलीज किया गया है। डायनासोर्स की सल्तनत दहशत में इसलिए है क्योंकि इस्ला नुबलर आइलैंड जहां पर डायनासोर्स को रखा गया है वहां पर एक ज्वालामुखी फट पड़ा है। डायनासोर्स को बचाने से सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है इससे डायनासोर्स के विनाश का खतरा है। यह प्रजाति विलुप्त हो सकती है। डायनासोर्स को बचाने के लिए ओवेन और क्लेयर अपने दो और साथियों के साथ मिशन पर निकलते हैं। वहां पहुंचने पर उन्हें पता चलता है कि डायनासोर्स को बेचने के लिए बचाया जा रहा है। ऐसे में ओवेन और क्लेयर को न केवल डायनासोर्स की जान बचाना है बल्कि उनकी तस्करी को भी रोकना है। इस दोहरे मिशन में उन्हें लगातार कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है। फिल्म की कहानी ठीक-ठाक है। जब तक डायनासोर्स को बचाने का मिशन चलता है, तब तक पटरी पर रहती है, लेकिन जानवरों की नीलामी वाली बात ठीक तरह से दर्शाई नहीं गई है। क्यों इन खतरनाक जानवरों को लोग खरीदना चाहते हैं? उनका क्या मकसद है? इनके जवाब संतुष्ट नहीं करते। इसके बावजूद यदि फिल्म बांध कर रखती है तो अपने भरपूर एक्शन के कारण। लगातार स्क्रीन पर ऐसा कुछ चलता रहता है जिससे उत्सुकता बनी रहती है। तरह-तरह के डायनासोर्स, धधकता ज्वालामुखी, खाक कर देने वाला लावा, डायनासोर्स की नई प्रजाति, डायनासोर्स की नीलामी, षड्यंत्र, छोटी बच्ची की मासूमियत जैसे कई प्रसंग आपको फिल्म से जोड़ कर रखते हैं। ज्वालामुखी के फटने के बाद भागते जानवर और इंसान के दृश्य आपको रोमांचित कर देते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स लंबा है, लेकिन बढ़िया है। अंत खुला हुआ है ताकि जुरासिक वर्ल्ड की ट्रॉयोलॉजी तीसरे भाग के जरिये पूरी हो। सबसे अहम बात यह कि इस फिल्म में आप जिस तरह के दृश्यों की उम्मीद लेकर जाते हैं वो भरपूर देखने को मिलते हैं इस वजह से खामियों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं जाता। फिल्म के निर्देशक जे.ए. बायोना ने कहानी की कमियों को अपने उम्दा प्रस्तुतिकरण से कवर किया है। यह फिल्म उन्होंने अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर बनाई है। उन्होंने कुछ नए प्रयोग भी किए हैं, दर्शकों को चौंकाया और डराया भी है। पूरी फिल्म क्रिस प्रैट और ब्राइस डलास हॉवर्ड के कंधों पर टिकी हुई है और उन्होंने अपनी दमदार शख्सियत और अभिनय से फिल्म को विश्वसनीय बनाया है। कुछ नए एक्टर्स को भी जोड़ा गया है, लेकिन इससे फिल्म को विशेष फायदा नहीं हुआ है। फिल्म के सीजीआई और स्पेशल इफेक्ट्‍स लाजवाब हैं। एकदम वास्तविक लगते हैं, कहीं भी नकलीपन नजर नहीं आता। इसके लिए तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। जुरासिक वर्ल्ड: फॉलन किंगडम में भले ही नवीनता न हो, लेकिन यह फिल्म भरपूर रोमांच और मजा देती है। निर्देशक: जे.ए. बायोना कलाकार: क्रिस प्रैट, ब्राइस डलास हॉवर्ड, जस्टिस स्मिथ, जैफ गोल्डबल्म, जेम्स क्रोमवेल ",1 "अगर हम साठ के दौर के आखिर में बनी बी आर चोपड़ा प्रॉडक्शन की फिल्म इत्तेफाक का जिक्र करें तो उस फिल्म में पहली बार डायरेक्टर ने एक-साथ कई ऐसे प्रयोग किए थे जो उस वक्त बॉक्स आफिस के लिए घातक माने जाते थे। बेशक, उसी दौर में टिकट खिड़की पर कानून जैसी ऑफ बीट फिल्में कामयाब रहीं थीं लेकिन साठ-सत्तर के दौर के सुपरस्टार राजेश खन्ना को लेकर बिना गाने सिर्फ डेढ़ घंटे की फिल्म बनाना रिस्की थी। उस दौर में जब तीन घंटे की फिल्में चला करती थी इस फिल्म को कुल 90 मिनट की अवधि का बनाया गया। बॉक्स आफिस पर फिल्म हिट कराने के लिए ऐक्शन, कॉमिडी और म्यूजिक का तड़का लगाना जरूरी माना जाता था लेकिन चोपड़ा बैनर की उस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था लेकिन इसके बाद बावजूद फिल्म टिकट खिड़की पर कामयाब रही। वैसे, चोपडा के बैनर तले बनी यह फिल्म भी अमेरिकन मूवी 'साइनपोस्ट: टू मर्डर' की रीमेक थी तो इस शुक्रवार को आई इत्तेफाक राजेश खन्ना की फिल्म का रीमेक है, प्रॉडक्शन कंपनी ने रिलीज से पहले इस फिल्म के सस्पेंस को पूरी तरह से छिपाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, मुंबई सहित कहीं भी इस फिल्म की प्रिव्यू स्क्रीनिंग नहीं रखी गई तो फिल्म की स्टारकॉस्ट और क्रू मेम्बर्स को सख्त हिदायत दी थी कि क्लाइमेक्स का कहीं जिक्र ना करें। हद तो उस वक्त हो गई जब प्रॉडक्शन कंपनी ने फिल्म को बिना प्रमोशन ही रिलीज करने का फैसला लिया। स्टोरी प्लॉट: विक्रम सेठी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक नामी राइटर हैं। अचानक एक हादसे में विक्रम की वाइफ कैथरीन सेठी की मौत हो जाती है, दूसरी ओर इसी दिन माया (सोनाक्षी सिन्हा) के हज्बंड एडवोकेट शेखर सिन्हा की भी हत्या हो जाती है। पुलिस की जांच के दौरान कैथरीन की मौत शक की दायरे में नजर आती है, हालात ऐसे बनते हैं, इन दोनों मर्डर केस की जांच कर रहे इंस्पेक्टर देव (अक्षय खन्ना) को लगता है कि इन हत्याओं के पीछे कैथरीन के हज्बंड विक्रम सेठी का हाथ है सो मर्डर का चार्ज विक्रम पर लगता है।दरअसल, विक्रम रात को हुए ऐक्सिडेंट के बाद माया के घर मदद मांगने गया था। एडवोकेट शेखर सिन्हा के मर्डर केस में देव का शक शेखर की वाइफ माया सिन्हा पर भी है। इंस्पेक्टर देव इन मर्डर की गुत्थी को अपने ढंग से सुलझाने में लगा हुआ है इसलिए वह विक्रम और माया को अपनी-अपनी बात कहने का मौका देता है। बेशक देव के शक के घेरे में पहला नाम विक्रम ही है लेकिन माया भी शक की सुइयां रुकती हैं, ऐसे में देव के जेहन में एक ही सवाल है कि कातिल का मकसद क्या है और कातिल कौन है ? रिव्यू में अगर हम इस बारे में कुछ भी बताते है तो आपका फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाएगा।यंग डायरेक्टर अभय चोपड़ा ने इस डार्क शेड मर्डर मिस्ट्री को कुछ ऐसे असरदार ढंग से पेश किया है कि आप एंड तक जान नहीं पाते कि हत्यारा कौन है, यही वजह है करीब पौने दो घंटे की फिल्म आपको सीट से बांधे रखती है। अभय ने कहानी को कुछ इस एंगल से पर्दे पर उतारा है कि फिल्म में हुए दो मर्डर होते हैं और दर्शक एंड तक अपनी अपनी सोच से हत्यारे का अंदाजा लगाते रहते है। जॉन अब्राहम स्टारर 'ढिशूम' के बाद से अक्षय खन्ना ने अपना स्टाइल बदला है, इस फिल्म में अक्षय ने गजब की ऐक्टिंग की है, इंस्पेक्टर देव के रोल में अक्षय खूब जमे है तो वहीं सिदार्थ मल्होत्रा ने अपने रोल को कुछ अलग ढंग से पेश करने की अच्छी कोशिश की है। वहीं माया के रोल में सोनाक्षी सिन्हा ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया है, अगर सोनाक्षी सिन्हा और सिदार्थ के किरदारों पर और ज्यादा काम किया जाता तो यह दोनों किरदार फिल्म को और ज्यादा पावरफुल बना सकते थे।क्यों देखें: अक्षय खन्ना की शानदार ऐक्टिंग और यंग डायरेक्टर अभय की कहानी पर पकड़ फिल्म की यूएसपी है। अगर आपको सस्पेंस थ्रिलर फिल्में पंसद है तो इत्तेफाक आपको अपसेट नहीं करेगी।",0 "Chandermohan.sharma@timesgroup.com ग्लैमर इंडस्ट्री में आर. बाल्की को बिग बी का ऐसा पक्का फैन माना जाता है जो उनके बिना फिल्म बनाने की कल्पना तक नहीं करता। 2007 में बिग की को लीड किरदार में लेकर बाल्की ने 'चीनी कम' बनाई। इस फिल्म के बाद बाल्की और बिग की का साथ 'पा' और 'शमिताभ' में फिर देखने को मिला। अब जब, बाल्की ने करीना और अर्जुन कपूर को लीड किरदार में लेकर फिल्म बनाई तो इस बार भी उन्होंने अपने चहेते स्टार अमिताभ बच्चन के साथ जया बच्चन को भी अपनी फिल्म में अहम किरदार बनाकर पेश किया। वैसे, अगर हम इस फिल्म की कहानी और किरदारों पर जरा गौर करें तो फिल्म डायरेक्टर बाल्की की पर्सनल लाइफ से कुछ ज्यादा ही प्रभावित नजर आती है। गौरी उम्र में बाल्की से करीब बारह-तेरह साल छोटी हैं। गौरी टोटली करियर ओरियंटेड वुमन हैं, दूसरी ओर बाल्की को रियल लाइफ में घर संभालना कुछ ज्यादा ही रास आता है। गौरी जब बतौर डायरेक्टर श्रीदेवी स्टारर फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' बना रही थीं उस दौरान बाल्की ने पूरा घर संभाला। गौरी खुद को खुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें भगवान ने एक एक पत्नीव्रता हज्बंड दिया। खुद, बाल्की का भी मानना है कि हमेशा पत्नी ही क्यों किचन वगैरह संभाले? पति ऐसा क्यों नहीं करते? अब जब 'की ऐंड का' दर्शकों के सामने है तो ऐसा लगता है इस फिल्म बनाने की प्रेरणा बाल्की को अपनी पर्सनल लाइफ और घर से ही मिली है। कहानी : कबीर (अर्जुन कपूर) और कीया (करीना कपूर खान) की पहली मुलाकात चंडीगढ़-दिल्ली की फ्लाइट में होती है। दोनों दिल्ली से हैं। कबीर के पिता (रंजीत कपूर) शहर के टॉप बिल्डर हैं। कबीर ने एमबीए में टॉप किया है, लेकिन उसे अपने पिता के बिज़नस में कतई दिलचस्पी नहीं। कबीर की मां आर्टिस्ट होने के साथ-साथ हाउसवाइफ थीं। कबीर को अपनी मां से बेइंतहा प्यार था, लेकिन पिता द्वारा मां की बार-बार उपेक्षा किए जाने से कबीर हमेशा अपसेट रहता। पिता-पुत्र के बीच की टसन की एक और वजह कबीर का फैमिली बिज़नस को न संभालने का फैसला था। दिल्ली में कीया और कबीर की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता है। कीया एक कॉर्पोरेट ऐड कंपनी में ऊंचे पद पर काम करती हैं तो वहीं कबीर नकारा। चंद मुलाकातों के बाद कीया यह जानते हुए कि कबीर सर्विस वगैरह जॉइन करने की बजाए घर संभालना चाहता है और उम्र में उससे छोटा है, उससे शादी करने का फैसला करती है। कीया की मां (स्वरूप संपत) को इस शादी से कोई ऐतराज नहीं, सो दोनों कोर्ट मैरिज कर लेते हैं। शादी के बाद कीया रूटीन से ऑफिस जाती है तो कबीर घर में किचन वगैरह का काम संभालता है। कुछ अर्से बाद कीया कंपनी में वीपी बन जाती है। कीया की कंपनी के बॉस और कुलीग को मालूम है कि उसका हज्बंड कबीर घर का सारा काम संभालता है। एक दिन कीया कबीर को एक टीवी चैनल में घर संभालने के अपने फैसले के बारे में इंटरव्यू देने को कहती है, इस इंटरव्यू के बाद कबीर की लोकप्रियता बढ़ने लगती है। अब वह सिलेब्रिटी बन चुका है। मुंबई में उसे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के घर से बुलावा आता है तो कीया की कंपनी का बॉस अब कबीर को लेकर टीवी ऐड बनाता है, इसी के बाद कीया और कबीर के रिश्तों में ऐसा तनाव शुरू होता है जो उनके बीच की दूरियां बढ़ाता है। ऐक्टिंग: अगर एक हाउस हज्बंड के तौर पर हम अर्जुन कपूर की ऐक्टिंग की बात करें तो यकीनन अर्जुन ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। पिता के साथ तनाव के बीच घर में कीया की मां के साथ वक्त काटने वाले कुछ सीन्स में अर्जुन की ऐक्टिंग देखने लायक है। यकीनन स्क्रीन पर वाइफ के लिए अलग-अलग टेस्ट का खाना बनाने और किचन से लेकर घर का सारा काम संभालने वाले कबीर का किरदार यकीनन लडकियों को कुछ ज्यादा ही पसंद आ सकता है। किया के किरदार में करीना कपूर परफेक्ट हैं। करीना ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से कीया के किरदार को स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है और हां, स्क्रीन पर सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और जया बच्चन की ऐंट्री दर्शकों के लिए एक सरप्राइज़ ट्रीट ही कहा जा सकता है। कीया की मां के किरदार में स्वरूप संपत ने अच्छा काम किया है। रंजीत कपूर निराश नहीं करते। डायरेक्शन : यकीनन, आर. बाल्की ने इस फिल्म को एक नए नजरिए और मल्टप्लेक्स कल्चर के साथ-साथ जेन एक्स की पसंद को ध्यान में रखकर बनाने का कोशिश की, लेकिन इंटरवल से पहले फिल्म की बेहद सुस्त रफ्तार और की ऐंड का की मुलाकातों के सीन्स को भी बेवजह खींचा गया। करीना-अर्जुन के बीच कई लिप लॉक सीन्स से बचा जा सकता था। हां, बाल्की ने अपने चहेते सुपर स्टार अमिताभ बच्चन और जया बच्चन का पैकेज फिल्म में दर्शकों को सरप्राइज के तौर पर दिया है, जो कहानी का अहम हिस्सा भी बन जाता है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म के दो गाने 'हाई हील' और 'जी हुजूरी' म्यूजिक लवर्स में हिट हो चुका है। बाल्की की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने 'जी हुजूरी' गाने को फिल्म के माहौल के मुताबिक बार-बार सही सिचुएशन पर फिट किया है। क्यों देखें : एक नया सब्जेक्ट, अर्जुन और करीना की अच्छी केमिस्ट्री। अगर आप बाल्की की फिल्मों को मिस नहीं करते हैं तो इस बार उनकी रियल लाइफ से मिलती-जुलती इस फिल्म को मिस न करें। फिल्म की सुस्त रफ्तार और कमजोर स्क्रिप्ट माइनस पॉइंट है। ",1 "निर्माता : सुनीता गोवारीकर, अजय बिजली, संजीव के. बिजली निर्देशक : आशुतोष गोवारीकर संगीत : सोहेल सेन कलाकार : अभिषेक बच्चन, दीपिका पादुकोण, सिकंदर खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 18 रील * 2 घंटे 55 मिनट इतिहास को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने वाले आशुतोष गोवारीकर ने इस बार उन शहीदों की कहानी चुनी है‍ जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपनी जान दी है और जो गुमनाम से हैं। आजादी की लड़ाई में इनका योगदान किसी से भी कम नहीं है। अप्रेल 1930 को चिटगाँव में सुरज्य सेन के नेतृत्व में किशोरों ने अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर एक साथ हमला बोला था और इसकी गूँज लंदन तक पहुँची थी। मानिनि चटर्जी की पुस्तक ‘डू एंड डाई - द चिटगाँव अराइजिंग 1930-34’ पर यह फिल्म आधारित है और जिस सत्य घटना को दिखाया गया है उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। सूर्ज्या सेन (अभिषेक बच्चन) और उसके साथियों का आजादी पाने का रास्ता गाँधीजी से अलग था। उनके द्वारा गठित भारतीय गणतंत्र सेना गाँधीजी के आह्वान पर एक वर्ष तक हिंसा का रास्ता नहीं चुनती। एक वर्ष होते ही वे अपने गाँव को अँग्रेजों से मुक्त कराने की योजना बनाते हैं। इसमें उन्हें साथ मिलता है 56 किशोरों का जिनके उस मैदान पर अँग्रेजों ने कब्जा कर‍ लिया जहाँ वे फुटबॉल खेलते थे। वे सुरज्य के पास मैदान आजाद कराने के लिए जाते हैं और देश की आजादी के आँदोलन से जुड़ जाते हैं। कल्पना दत्ता (दीपिका पादुकोण) और प्रीति नामक दो महिलाएँ भी साथ हो जाती हैं। ये सब मिलकर एक ही रात अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर हमला करते हैं। टेलीग्राम ऑफिस ध्वस्त कर देते हैं। रेलवे लाइन अवरुद्ध कर देते हैं। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब तो नहीं होती है, लेकिन वे भारतीयों में आजादी की लड़ाई जोश भरने में कामयाब होते हैं। भ्रष्टाचार और घोटाले के इस दौर में आशुतोष की प्रशंसा इसलिए की जा सकती है कि उन्होंने याद दिलाने की कोशिश की है इस आजादी के लिए हमारे पूर्वजों ने कितना खून बहाया है। आशुतोष के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी बात कहने में लंबा वक्त लेते हैं। सीन को बहुत लंबा रखते हैं। ‘खेलें हम जी जान से’ को भी अंतिम 40 मिनटों में फिजूल ही खींचा गया है। सिपाहियों द्वारा क्रांतिकारियों को घेरने वाले दृश्य दोहराए गए हैं। कायदे से तो हमलों के बाद ही फिल्म को खत्म किया जा सकता था और चंद मिनटों में ये बताया जा सकता था कि सभी का क्या हुआ। क्रांतिकारियों द्वारा एक साथ किए गए हमलों को और भी बेहतर तरीके से पेश किया जा सकता था क्योंकि इनमें से थ्रिल गायब है और कौन क्या कर रहा है, ये समझना थोड़ा मुश्किल हो गया है। इन कमियों के बावजूद भी फिल्म बाँधकर रखती है क्यों यह अपनी मूल थीम से यह नहीं भटकती है। फिल्म को बांग्लादेश के बजाय गोआ में फिल्माया गया है, लेकिन यह फर्क नजर नहीं आता। कलाकारों की ड्रेसेस, मकान, सामान, कार हमें 80 वर्ष पीछे ले जाते हैं। फिल्म के अंत में क्रांतिकारियों के मूल फोटो दिखाकर भी एक सराहनीय काम किया गया है। फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पाइंट है अभिषेक बच्चन। एक क्रांतिकारी में जो जोश, तेवर, आँखों में अंगारे, जुनून दिखाई देना चाहिए था, वो सब अभिषेक में से नदारद है। नीरस तरीके से उन्होंने अपनी भूमिका निभाई है और ज्यादातर उनका चेहरा सपाट नजर आता है। उनसे अच्छा अभिनय तो उनके साथियों के रूप में मनिंदर, सिकंदर खेर, फिरोज वाहिद खान ने किया है। नॉन ग्लैमरस रोल में दीपिका और विशाखा सिंह प्रभावित करती हैं। फिल्म की थीम के अनुरुप कुछ गाने भी हैं, जो नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। बांग्ला टच लिए हुए डॉयलॉग्स साधारण हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और समझा जा सकता है कि निर्देशक ने सीन नहीं काटने के लिए दबाव बनाया होगा। कुल मिलाकर ‘खेलें हम जी जान से’ में एक सत्य घटना को ईमानदारी के साथ पेश करने की कोशिश की गई है और देशभक्ति को बनावटी तथा नाटकीयता से दूर रखा गया है। वंदे मातरम। ",1 "फोर्स 2 उन अंडरकवर एजेंट्स को समर्पित है जो समय आने पर देश के लिए अपनी जान देते हैं और उन्हें 'शहीद' का दर्जा भी नहीं मिलता। इस थीम को लेकर चिर-परिचित कहानी बुनी गई है। एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) ने पांच वर्ष पूर्व अपनी पत्नी को खोया था और अब उसे कोई दर्द नहीं होता। दूसरी ओर रॉ के तीन एजेंट्स चीन में मारे जाते हैं। इनमें से एक यश का दोस्त भी है। कोई ऐसा है जो इनकी पहचान दुश्मनों को बता रहा है। इसे ढूंढने की जिम्मेदारी यश को सौंपी जाती है। इस काम में उसकी मदद करती है रॉ एजेंट केके (सोनाक्षी सिन्हा)। दोनों पता लगाते हैं कि बुडापेस्ट में कोई ऐसा शख्स है जो यह काम कर रहा है। बुडापेस्ट पहुंच कर वे शिव शर्मा (ताहिर भसीन राज) को बेनकाब कर देते हैं। इसके बाद शिव को पकड़ने का खेल शुरू होता है। शिव ऐसा क्यों कर रहा है, यह राज फिल्म के अंत में खुलता है। फिल्म की कहानी बेहद सरल है और सारा फोकस शिव को पकड़ने में होने वाले रोमांच पर रखा गया है। इसके लिए कॉमेडी या रोमांस की बैसाखियों का सहारा भी नहीं लिया गया है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। कुछ उतार-चढ़ाव देकर चौंकाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये पैंतरेबाजी बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं है। स्क्रिप्ट में एक्शन के शौकीनों को खुश करने के लिए लॉजिक को किनारे रख दिया है। बुडापेस्ट की सड़कों पर यश और केके जिस तरह की गोलीबारी करते हैं उस पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है। शिव तक हर बार यश-केके आसानी से पहुंच जाते हैं। यदि इसमें थोड़ी कठिनाई रखी जाती तो फिल्म का मजा बढ़ सकता था, लेकिन एक्शन सीक्वेंस की अधिकता के कारण इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। केके और यश की अलग-अलग 'वर्किंग स्टाइल' को लेकर होने वाले टकराव से दर्शकों का मनोरंजन होता है। फो र्स 2 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें 'फोर्स' का निर्देशन निशिकांत कामत ने किया था, लेकिन सीक्वल में यह जिम्मेदारी अभिनय देव ने संभाली है। अभिनय के नाम के आगे 'देल्ही बैली' (2011) जैसी फिल्म और '24: सीजन 2' जैसा टीवी शो दर्ज है। यहां पर भी अभिनय ने अपनी जवाबदारी बखूबी संभाली। अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर उन्होंने फिल्म बनाई है। एक रूटीन कहानी को उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण के दम पर दर्शकों को बांध रखने में सफलता हासिल की है। स्क्रिप्ट की कमियों को बखूबी छिपाते हुए उन्होंने फिल्म को 'कूल' लुक दिया है और 'स्टाइलिश' एक्शन का तड़का लगा कर दर्शकों का मनोरंजन किया है। अभिनय की इसलिए भी तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने फिल्म को भटकने नहीं दिया। एक आइटम सांग का मोह भी वे छोड़ देते तो बेहतर होता। हंगरी की महिला का हिंदी गाना अटपटा लगता है। 'फोर्स 2' के एक्शन डायरेक्टर और उनकी टीम का काम काबिल-ए-तारीफ है। कार चेज़िंग सीन और गन फाइट्स के जरिये वे दर्शकों को रोमांचित करने में सफल रहे हैं। दो-तीन सीक्वेंस तो कमाल के हैं। निश्चित रूप से एक्शन फिल्मों के प्रशंसक इन्हें देख रोमांचित होंगे। जॉन अब्राहम एक स्टाइलिश हीरो हैं। वे फिल्म में बेहतर लगे हैं तो इसका श्रेय निर्देशक को जाता है। जॉन के चेहरे पर आसानी से भाव नहीं आते और उन्हें इस तरह के दृश्य बहुत कम दिए गए हैं। ज्यादातर समय वे एक्शन करते ही नजर आए। उनका एंट्री वाला सीक्वेंस जोरदार है। सोनाक्षी सिन्हा ने जॉन का साथ अच्छे से निभाया है और वे भी रॉ एजेंट के रूप में एक्शन करती नजर आईं। 'मर्दानी' में अपनी खलनायकी से प्रभावित करने वाले ताहिर राज भसीन यहां पर भी बुरे काम करते दिखाई दिए। एक कूल, माउथ आर्गन बजाने वाले और चालाक विलेन के रूप में वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं और अंत में कुछ दर्शकों की हमदर्दी भी उनके साथ हो सकती है। सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है और फिल्म को 'रिच लुक' देती है। क्लाइमैक्स का कुछ हिस्सा वीडियो गेम की तरह शूट किया गया है और यह प्रयोग अच्छा लगता है। एक्शन सीक्वेंस को सफाई के साथ शूट किया गया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक अन्य एक्शन फिल्मों की तरह लाउड नहीं है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। 'फोर्स 2' प्रीक्वल की तुलना में बेहतर है। ज्यादा उम्मीद लेकर न जाए तो पसंद आ सकती है। बैनर : जेए एंटरटेनमेंट प्रा.लि., वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, सनशाइन पिक्चर्स प्रा.लि. निर्माता : विपुल शाह, जॉन अब्राहम निर्देशक : अभिनय देव संगीत : अमाल मलिक कलाकार : जॉन अब्राहम, सोनाक्षी सिन्हा, ताहिर राज भसीन सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 48 सेकंड्स ",1