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चंद्रमोहन शर्मा को-प्रड्यूसर और लीड ऐक्टर अक्षय कुमार की मानें तो उनकी नई फिल्म एयरलिफ्ट की कहानी और किरदार बिल्कुल सच्चे हैं। पहले खाड़ी युद्ध को कवर करने वाले एक सीनियर रिपोर्टर और उस वक्त एयर इंडिया में उच्च पद पर रहे एक अफसर इस कहानी को सच से परे मानते हैं। हालांकि, स्क्रीन पर आप जो कुछ भी देखेंगे वह सब सच के बेहद करीब है। बॉलिवुड की खबरें अपने फेसबुक पर पाना हो तो लाइक करें Nbt Movies फिल्म की कहानी चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। इन चारों को मिलाकर एक लीड किरदार स्क्रीन पर उतारा गया है, जिसे अक्षय कुमार ने निभाया है। यह फिल्म पहले खाड़ी युद्ध पर आधारित है। इस जंग के दौरान कुवैत में फंसे करीब एक लाख सत्तर हजार भारतीय नागरिकों को देश वापस लाए जाने की घटना को डायरेक्टर ने अपने अंदाज से पेश किया है। किरदारों को पर्दे पर उतारने में कुछ फिल्मी आजादी की जरूरत होती है, यही आजादी फिल्म के डायरेक्टर राजा मेनन ने भी ली है। देखिए, फिल्म का ट्रेलर इस घटना को और ज्यादा असरदार ढंग से पेश करने के मकसद से राजा ने फिल्म के कुछ सीन्स को दुबई से करीब चार घंटे की दूरी पर स्थित रसेल खेमा में जाकर शूट किया। गुजरात के भुज और राजस्थान की आउटडोर लोकेशन पर इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग की गई है। कहानी : रंजीत कात्याल (अक्षय कुमार), पत्नी अमृता कात्याल (निमरत कौर) और प्यारी-सी बेटी के साथ कुवैत में रहता है। वह शहर का नामी बिज़नसमैन है। खाड़ी युद्ध छिड़ने के बाद बुरी तरह से बर्बाद हुए कुवैत के एक शहर में रह रहे दूसरे भारतीय नागरिकों के साथ रंजीत का परिवार भी फंस जाता है। सरकारी अधिकारी हालात से निपटने के विकल्पों पर विचार कर रहे हैं और ऐसे में कुवैत का रईस बिज़नसमैन रंजीत अपने प्रभाव और रसूख से अपनी फैमिली और फंसे दूसरे भारतीय नागरिकों को वहां से निकालने का मिशन स्टार्ट करता है। कुवैत में हालात खराब हो रहे थे। भारतीय सेना डायरेक्ट कुछ करने में कतरा रही थी। उस वक्त रंजीत ने अपने दम पर दुनिया के सबसे बड़े ऑपरेशन को शुरू करने का फैसला किया। ऐक्टिंग : इस फिल्म में अक्षय कुमार ने एक बार फिर अपने किरदार को पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। एयरलिफ्ट में अक्षय कुमार ने अब तक के अपने फिल्मी करियर की बेहतरीन ऐक्टिंग की है। अक्षय जब स्क्रीन पर देश के राष्ट्रीय ध्वज के साथ नजर आते हैं, तो उनके चेहरे का एक्सप्रेशन देखकर हॉल में बैठे दर्शक इस सीन से बंध जाते हैं। अक्षय की पत्नी के किरदार में निमरत कौर ने अच्छा काम किया है। बाकी के कलाकारों में पूरब कोहली, इनामुल हक और कुमुद मिश्रा ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। डायरेक्शन : राजा मेनन ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह त्याग कर कहानी और किरदारों को पूरी तरह से माहौल में समेटा है। वहीं फिल्म के लगभर हर ऐक्टर से उन्होंने बेहतरीन ऐक्टिंग कराई है। वॉर सीन्स को भी उन्होंने पर्दे पर पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। उनका काम तारीफ के काबिल है। संगीत : ऐसी कहानी में गानों की जरूरत नहीं होती, लेकिन यहां राजा ने गानों का फिल्मांकन ऐसे ढंग से पेश किया है, जो कहानी और माहौल के अनुकूल है। क्यों देखें : अक्षय कुमार को उनके फिल्मी करियर के सबसे बेहतरीन किरदार में देखने के लिए इस फिल्म को देखें। अगर आप अच्छी और मेसेज देने वाली फिल्मों के शौकीन हैं, तो इस फिल्म को फैमिली के साथ देख सकते हैं।
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अगर आप इस फिल्म को देखने जा रहे हैं तो सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि बेशक इस फिल्म के साथ प्रडूयसर कुमार मंगत, डायरेक्टर अश्विनी धीर के नाम के साथ परेश रावल का नाम भी जुड़ा हो लेकिन कुछ साल पहले आई फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' से इस फिल्म का कुछ लेना-देना नहीं है। यूं तो इस फिल्म के क्लाइमैक्स में आपको पिछली फिल्म के हीरो अजय देवगन भी नजर आएंगे लेकिन इन दोनों फिल्मों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इस बार चाचा जी मुंबई की किसी सोसाइटी की बजाय अपने एक अनजान रिश्तेदार के यहां लंदन जा पहुचे हैं और इस बार चाचा जी के साथ चाची जी भी हैं। दूसरी ओर, 'गेस्ट इन लंदन' पिछली फिल्म से टोटली अलग है। इंटरवल से पहले डायरेक्टर ने अपनी ओर से आपको हंसाने की हर मुमकिन कोशिश की है लेकिन इसमें ज्यादा कामयाब नहीं हो पाए तो इंटरवल के बाद क्लाइमैक्स में फिल्म की कहानी में कुछ ऐसा टर्न आता है कि आपकी आखें नम जाती हैं। वैसे, कुमार मंगत अपनी इस फिल्म को भी पिछली फिल्म के सीक्वल के नाम से ही बनाना चाहते थे लेकिन पिछली फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी से कुछ विवाद के चलते बात नहीं बन पाई तो मंगत अपने अतिथि को गेस्ट का नाम दिया तो मुंबई की बजाय गेस्ट के साथ लंदन पहुंच गए। कहानी: लंदन में रहने वाले आर्यन ग्रोवर (कार्तिक आर्यन) का वर्क वीज़ा खत्म होने वाला है और उसे न चाहते हुए भी वर्क वीज़ा खत्म होने के बाद भारत जाना ही होगा। ऐसे में उसके ऑफिस के कुछ साथी सलाह देते हैं कि अगर वह किसी ब्रिटिश मूल की लड़की के साथ डील करके मैरिज कर ले तो उसे लंदन रहने की स्थाई वीजा आसानी से मिल सकता है। आर्यन को यह आइडिया पसंद आता है और वह लंदन में अपनी फ्रेंड्स के साथ रह रहीं ब्रिटिश मूल की अनाया पटेल ( कृति खरबंदा) के साथ मिलकर नकली शादी करने का प्लान बनाता है। दोनों के बीच एक सीक्रेट डील होती है जिसके मुताबिक नकली शादी होने तक अनाया उसी के साथ रहेगी बस इसके अलावा इनके बीच और कोई रिश्ता नहीं होगा। इसी बीच आर्यन को खबर मिलती है कि इंडिया से उसके चाचा (परेश रावल) और चाची (तनवी आजमी) कुछ दिन उनके साथ रहने के लिए आ रहे हैं। वैसे, आर्यन ने चाचा जी को देखा तक नहीं है बस उसके पास अपने किसी रिश्तेदार का फोन आता है कि उसके पड़ोसी लंदन आ रहे हैं, कुछ दिन उसके घर मेहमान बनकर रहेंगे। अनाया से शादी की डील के होने के बाद अनाया भी कार्तिक के घर में ही रहती है। ऐसे में अचानक इसी घर में चाचा और चाची जी की एंट्री के बाद क्या कोहराम मचता है, यह मजेदार है। फिल्म में परेश रावल और तनवी आजमी दोनों की ऐक्टिंग का जवाब नहीं है। इन दोनों के बीच गजब की ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री का इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। वहीं चाचा जी एकबार फिर पिछली फिल्म के चाचा जी की याद दिलाते हैं। कार्तिक आर्यन और कीर्ति खरबंदा की जोड़ी क्यूट और फ्रेश लगी तो दोनों अपने-अपने किरदार में फिट भी नजर आए। डायरेक्टर अश्विनी धीर की इंटरवल से पहले फिल्म पर कहीं पकड़ नजर नहीं आती, ऐसा लगता है इंटरवल तक उनके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं, लेकिन आखिरी बीस मिनट में धीर फिल्म को ट्रैक पर लाने में कामयाब रहे। राघव सच्चर और अमित मिश्रा का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है, खासकर फिल्म के दो गाने 'दारू विच प्यार' और 'फ्रेंकी तू सोणा नच दी' का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है और जेनएक्स की कसौटी पर यह गाने फिट बैठ सकते हैं। अगर आप परेश रावल के पक्के फैन हैं तो गेस्ट से मिलने जाएं लेकिन इस बार अतिथि वाली बात नजर नहीं आएगी।
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बॉलीवुड वाले चोरी-छिपे हॉलीवुड फिल्मों से कहानियां और दृश्य चुराया करते थे। उन पर न केवल हॉलीवुड वालों ने लगाम कसी बल्कि अपनी हिट फिल्म 'नाइट एंड डे' का हिंदी रिमेक 'बैंग बैंग' नाम से बनाया है। फॉक्स स्टार स्टुडियो के लिए डेढ़ सौ करोड़ रुपये की लागत से फिल्म बनाना मामूली बात है, लेकिन हिंदी फिल्म में इतने दाम में शायद ही किसी ने फिल्म बनाई हो। इतनी महंगी फिल्म होने से दर्शकों की उम्मीद का बढ़ना भी स्वाभाविक है। फिल्म में जबरदस्त एक्शन, शानदार लोकेशन और बॉलीवुड के दो खूबसूरत चेहरे हैं, जो रोमांचित करते हैं, लेकिन साथ ही फिल्म में कई बोरियत से भरे लम्हों को भी झेलना पड़ता है। फिल्म ठीक-ठाक है, देखी जा सकती है, लेकिन ऐसी भी नहीं है जो लंबे समय तक याद की जा सके। जरूरी नहीं है कि ज्यादा पैसा लगाने से ही फिल्म अच्छी बनती हो। बैंक रिसेप्शनिस्ट हरलीन (कैटरीना कैफ) शिमला में बोरिंग लाइफ जी रही है। जिंदगी में रोमांच लाने के लिए 'ट्रू लव डॉट कॉम' वेबसाइट के जरिये एक अनजान शख्स विक्की के साथ वह ब्लाइंड डेट फिक्स करती है। राजवीर (रितिक रोशन) को वह विक्की समझ लेती है। बात कुछ आगे बढ़े इसके पहले ही राजवीर पर कुछ लोग गोलियों की बरसात करते हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि हरलीन को न चाहते हुए भी राजवीर के साथ रहना पड़ता है। दरअसल राजवीर ने कोहिनूर हीरा चुरा रखा है, जिसे पाने के लिए पुलिस और एक गैंग उसके पीछे लगे हुए हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट को सुभाष नायर और सुजॉय घोष ने लिखा है। इस एक्शन मूवी को हरलीन के नजरिये से दिखाया गया है। हरलीन के दिमाग में राजवीर को लेकर कई सवाल है, जो दर्शकों के दिमाग में भी पैदा होते हैं। जैसे वह कौन है? क्या चाहता है? उसके पीछे लोग और पुलिस क्यों पड़ी है? उसकी आगे की क्या योजना है? कोहिनूर हीरा उसने क्यों चुराया है? इनके जवाब फिल्म में लंबे समय तक नहीं मिलते हैं और कई बार झुंझलाहट भी होती है कि आखिर बात को इतना खींचा क्यों जा रहा है। धीरे-धीरे सवालों के जवाब मिलते हैं, लेकिन इनके जवाब दर्शक अपनी समझ से पहले ही पा लेता है। फिल्म में कहानी जैसा कुछ नहीं है और सारा दारोमदार इस बात पर है कि परदे पर जो घटनाक्रम चल रहा है उसके जरिये दर्शकों को बांधा जाए। राजवीर-हरलीन तथा उनको पकड़ने वालों की भागमभाग का सफर है उसमें दर्शकों को मजा आए। पूरी फिल्म एक क्लाइमैक्स की तरह लगती है। राजवीर-हरलीन इस देश से उस देश भागते रहते हैं। इस भागमभाग में एक्शन, रोमांस और कॉमेडी है। ये सफर कई बार मजेदार लगता है तो कई बार बोरिंग। एक्शन के आते ही फिल्म अपने चरम पर आ जाती है, रोमांस ठीक-ठाक है, लेकिन ड्रामा इसकी कमजोर कड़ी है। फिल्म के विलेन का कोहिनूर को चोरी करवाने का जो कारण बताया गया है वो बेहद लचर है। फिल्म का निर्देशन सिद्धार्थ आनंद ने किया है। एक ऐसे शख्स पर डेढ़ सौ करोड़ रुपये लगाना जिसने अभी तक ढंग की हिट नहीं बनाई है, आश्चर्य की बात है। सिद्धार्थ के सामने 'नाइट एंड डे' मौजूद थी, इसलिए उनका काम आसान था। प्रस्तुतिकरण में उन्होंने ध्यान रखा कि यह अंग्रेजी फिल्म जैसी स्टाइलिश लगे, लेकिन बॉलीवुड के फॉर्मूले से भी वे बच नहीं पाए। खलनायक को उन्होंने टिपिकल तरीके से पेश किया। सिद्धार्थ के निर्देशन में वो कसावट नजर नहीं आती है जो 'नाइट एंड डे' के प्रस्तुतिकरण में है। फिल्म का एक्शन सबसे बड़ा प्लस पाइंट है, हवाई जहाज, स्टीमर, कारों के जरिये रोमांच पैदा किया गया है और इन एक्शन सींस को बहुत ही सफाई के साथ फिल्माया गया है। इंटरवल के ठीक पहले कार चेजिंग सीन लाजवाब है। बॉलीवुड के दो सबसे खूबसूरत चेहरे रितिक रोशन और कैटरीना कैफ की जोड़ी शानदार है। रितिक रोशन को बहुत कम कपड़े पहनने को दिए गए हैं ताकि वे अपनी बॉडी का प्रदर्शन कर सके। इस रोल को निभाने के लिए जिस स्टाइल और एटीट्यूड की जरूरत थी उस पर रितिक खरे उतरे हैं। एक्शन सीन उन्होंने बखूबी निभाए। कैटरीना कैफ बेहद मासूम और खूबसूरत लगी। बात को थोड़ा देर से समझने वाली लड़की का किरदार उन्होंने अच्‍छे से निभाया। कैटरीना और उनकी दादी के बीच के दृश्य अच्‍छे हैं। डैनी को कम फुटेज मिले हैं। जावेद जाफरी और पवन मल्होत्रा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फिल्म में दो-तीन गाने अच्छे हैं। 'तू मेरी' में रितिक का डांस देखने लायक है। बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को भव्य बनाता है। फोटोग्राफी, लोकेशन और तकनीकी रूप से फिल्म दमदार है। कुल मिलाकर 'बैंग बैंग' तभी अच्‍छी लगेगी जब ज्यादा उम्मीद लेकर थिएटर में न जाया जाए। यूं तो फिल्म ढाई स्टार के लायक है, लेकिन एक्शन की वजह से आधा स्टार अतिरिक्त दिया जा सकता है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो निेर्देशक : सिद्धार्थ आनंद संगीत : विशाल शेखर कलाकर : रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, डैनी, जावेद जाफरी, पवन मल्होत्रा सेंसर सर्टिफिकेट : युए * 2 घंटे 36 मिनट
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बैनर : संजय दत्त प्रोडक्शन्स प्रा.लि., रुपाली ओम एंटरटेनमेंट प्रा.लि निर्माता : संजय दत्त, संजय अहलूवालिया, विनय चौकसे निर्देशक : डेविड धवन संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : संजय दत्त, अजय देवगन, कंगना, अर्जुन रामपाल, लीसा हेडन, चंकी पांडे, सतीश कौशिक सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 8 मिनट * 15 रील रासकल्स के गाने में एक लाइन है ‘गए गुजरे रासकल्स’ और यह बात फिल्म पर एकदम सटीक बैठती है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोग गए गुजरे हैं। फिल्म बेहद लाउड है और हर डिपार्टमेंट का काम खराब है। चाहे वो एक्टिंग हो, म्यूजिक हो या डायरेक्शन। डेविड धवन अपना मिडास टच खो बैठे हैं और रासकल्स में कॉमेडी के नाम पर बेहूदा हरकतें उन्होंने करवाई हैं। संजय दत्त सौ प्रतिशत इसलिए फिल्म में हैं क्योंकि वे निर्माता हैं वरना वे इस रोल के लायक हैं ही नहीं। वे पचास पार हैं और बुढ़ा गए हैं। परदे पर वे अपने से उम्र में आधी कंगना के साथ चिपका-चिपकी करते हैं तो सीन बचकाना लगता है। ये बात सही है कि सलमान या आमिर भी अपने से कहीं छोटी उम्र हीरोइन के साथ परदे पर रोमांस करते हैं, लेकिन वे अभी भी फिट हैं। उनमें ताजगी नजर आती हैं। ये बात संजू बाबा में नहीं है और वे फिल्म की बहुत ही कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। और भी कई कड़ियां कमजोर हैं। मसलन कहानी नामक कोई चीज फिल्म में नहीं है। दो छोटे-मोटे चोर एक पैसे वाली लड़की को पटाने में लगे हैं। लड़की के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है कि वह कौन है? कितनी अमीर है? जहां वह मिलती है कि फिल्म के दोनों हीरो उससे ऐसे चिपटते हैं जैसे गुड़ से मक्खी। फिल्म के 90 प्रतिशत हिस्से में यही सब चलता रहता है। ये सभी लोग बैंकॉक की सेवन स्टार होटल में रूके हुए हैं और वही पर डेविड ने पूरी फिल्म बना डाली है। होटल की लॉबी, स्विमिंग पुल, रूम, गार्डन कोई हिस्सा उन्होंने नहीं छोड़ा है। ढेर सारे हास्य दृश्यों को जोड़कर उन्होंने फिल्म तैयार कर दी है। इन दृश्यों में भी इतना दम नहीं है कि दर्शक कहानी की बात भूल जाएं। युनूस सेजवाल का स्क्रीनप्ले बेहद घटिया है और सैकड़ों बार देखे हुए दृश्यों को उन्होंने फिर परोसा है। कुछ ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देख मुस्कान आती है तो दूसरी ओर फूहड़ दृश्यों की संख्या ज्यादा है। एक प्रसंग में तो भूखे और गरीब बच्चों तक का मजाक बना डाला है। फिल्म के क्लाइमैक्स में दर्शकों को चौंकाने की असफल कोशिश की गई है। संवादों के नाम पर संजय छैल ने घटिया तुकबंदी लिख दी है, जैसे भोसले के हौंसले ने दुश्मनों के घोसले तोड़ दिए या जिंदगी में मौत, फिल्मों में आइटम नंबर और ये एंथनी कभी भी टपक सकता है। निर्देशक के रूप में डेविड धवन प्रभावित नहीं करते हैं। अधूरे मन से उन्होंने फिल्म पूरी की है। अजय देवगन ने अपना पूरा जोर लगाया है, लेकिन खराब स्क्रिप्ट की कमियों को वे नहीं ढंक पाए। संजय दत्त का अभिनय बेहद खराब है और उन्हें उम्र के मुताबिक रोल ही चुनना चाहिए। कुछ दृश्यों में वे विग के तो कुछ में बिना विग के नजर आएं। कॉमेडी करना कंगना की बस की बात नहीं है ये बात एक बार फिर साबित हो गई। उनका मेकअप भी फिल्म में बेहद खराब था। छोटे-से रोल मे लीसा हेडन प्रभावित करती हैं। ‘शेक इट सैंया’ में वे सेक्सी नजर आईं। सतीश कौशिक, चंकी पांडे जैसे बासी चेहरों ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अनिल धवन फिल्म के निर्देशक के बड़े भाई हैं, इसलिए वे भी छोटे-से रोल में नजर आएं, लेकिन उनसे संवाद बोलते नहीं बन रहे थे। अर्जुन रामपाल ने अपना काम ठीक से किया है। विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध गाने जब परदे पर आते हैं तो दर्शक उनका उपयोग ब्रेक के लिए करते हैं। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। एक अच्छी हास्य फिल्म के लिए उम्दा सिचुएशन, एक्टर्स की टाइमिंग और चुटीले संवाद बेहद जरूरी है। अफसोस की बात ये है कि रासकल्स हर मामले में कमजोर है।
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चश्मे बद्दूर (1981) एक क्लासिक मूवी है, जिसे सई परांजपे ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने लीड रोल निभाए थे। चश्मे बद्दूर की कहानी इतनी बढ़िया है कि इस पर समय की धूल नहीं जम सकती। पचास वर्ष बाद भी इस पर फिल्म बनाई जा सकती है। टीनएजर्स और युवाओं को यह कहानी बेहद अपील करती है। तीन दोस्त हैं। दो लंपट और एक सीधा-सादा। उनके पड़ोस में एक लड़की रहने आती है। लंपट दोस्त उस लड़की को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन मुंह की खाते हैं। इस बात को छिपाते हुए वे अपने दोस्तों को नमक-मिर्च लगाकर किस्से बताते हैं और लड़की को बदनाम करते हैं। जब दोनों दोस्तों को पता चलता है कि उनके सीधे-सादे दोस्त का इश्क उसी लड़की से चल रहा है तो वे ईर्ष्या की आग में जल कर दोनों के बीच गलतफहमी पैदा करने में सफल रहते हैं। बाद में उन्हें गलती का अहसास होता है तो वे इसे सुधारते हैं। इस कहानी में अश्लीलता और फूहड़ता के तत्व घुसाने के सारी संभावनाएं मौजूद हैं, लेकिन सई ने कहानी की मा‍सूमियत को जिंदा रखते हुए बिना अश्लील हुए बेहतरीन तरीके से इसे स्क्रीन पर पेश किया था। रीमेक डेविड धवन ने बनाया है जो माइंडलेस और फूहड़ सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। सई इस बात को लेकर खफा भी हैं कि डेविड उनकी क्लासिक फिल्म को फिर बना रहे हैं। डेविड अपना सर्वश्रेष्ठ भी दें तो भी वे सई के नजदीक नहीं फटक सकते हैं। अपनी आदत के मुताबिक वे थोड़े बहके भी हैं, लेकिन सीमा में रहकर। कुल मिलाकर उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई है जिसे हंसते हुए देखा जा सकता है। रास्कल जैसी फिल्म बनाने के बाद लगने लगा था कि डेविड अब चूक गए हैं, लेकिन उन्होंने अच्छी वापसी की है और बिना सितारों के फिल्म बनाने का साहस किया है। चश्मे बद्दूर (2013) पुरानी फिल्म की सीन दर सीन कॉपी नहीं है, लेकिन उसका एसेंस (अर्क) इस फिल्म में मौजूद है। कुछ उम्दा सीन को दोहराया गया है, जैसे चमको वॉशिंग पाउडर वाला सीन, और आज के दर्शक के टेस्ट के मुताबिक जरूरी बदलाव किए हैं। पिछली बार कहानी दिल्ली की थी, यहां गोआ आ गया है, हालांकि इसको बदलने से कुछ खास बदलाव नहीं दिखता। अनुपम खेर का डबल रोल डेविड ने अपनी स्टाइल में डाला है, घटिया शायरी और एसएमएस वाले जोक भी सुनने को मिलते हैं, लेकिन इनका संतुलन सही है, इसलिए ये अखरते नहीं हैं। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां भी हैं। मसलन जोसेफ और जोसेफीन की शादी कराने वाले दोस्त अचानक इसके खिलाफ क्यों हो जाते हैं। कुछ घटनाक्रम लगातार दोहराए गए हैं जो खीज पैदा करते हैं। 1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत चश्मे बद्दूर (2013) की खासियत है इसकी ताजगी और ऊर्जा। डेविड ने कहानी को ऐसा दौड़ाया है कि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता और वह फिल्म में एंगेज रहता है। एक के बाद एक मजेदार सीन आते हैं और ज्यादातर हंसाने में कामयाब रहते हैं। खासतौर पर द्विव्येन्दु शर्मा और सिद्धार्थ वाले सीन। कहने को तो फिल्म के हीरो अली जाफर हैं, लेकिन सही मानों में द्विव्येन्दु और सिद्धार्थ का रोल पॉवरफुल है। उन्हें बेहतरीन सीन और संवाद मिले हैं। दोनों में सिद्धार्थ बाजी मार ले जाते हैं। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है। अली जाफर से ओवर एक्टिंग कराई गई है और कई बार वे देवआनंद की मिमिक्री करते नजर आएं। तापसी पन्नु निराश करती हैं। ऋषि कपूर और लिलेट दुबे वाला ट्रेक हम सैकड़ों फिल्मों में देख चुके हैं और ये बोर करता है। अनुपम खेर और भारती आचरेकर हंसाने में कामयाब रहे हैं। साजिद-फरहाद के वन लाइनर दमदार हैं और ज्यादातर हास्य उनके लिखे संवादों से ही पैदा हुआ है। खासतौर पर सिद्धार्थ और द्विव्येन्दु के लिए उन्होंने अच्छे डॉयलाग लिखे हैं। गानों का फिल्मांकन और स्टाइल 80 के दशक वाला रखा गया है। शायद इसीलिए एक गाने ढिचकियाऊं में उस दौर के गीतों की तर्ज पर ऊटपटांग बोल हैं। कुछ पुराने हिट गानों का भी सहारा लिया गया है। डेविड धवन ने अपनी शैली का तड़का लगाकर ‘चश्मे बद्दूर’ बनाई है। पुरानी चश्मे बद्दूर से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने ऐसी फिल्म तो बनाई है जिसे ढेर सारे पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखा जा सकता है। हालांकि जो तालियां डेविड के लिए बजती हैं, सही मायनों में 80 प्रतिशत की हकदार सई परांजपे हैं क्योंकि मूल काम तो उनका है। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्देशक : डेविड धवन संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : अली जफर, सिद्धार्थ, द्विव्येन्दु शर्मा, तापसी पन्नू, ऋषि कपूर, अनुपम खेर सेंसर ‍सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 56 सेकंड बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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दिल्ली की एक पांच सितारा होटल में डैन (वरुण धवन) होटल मैनेजमेंट ट्रैनी है। यह काम उसे खास पसंद नहीं है और वह बात-बात में चिढ़ता है। तौलियों से वह जूते पोंछ कर गुस्सा निकालता है। होटल में आए ग्राहकों पर भी वह आपा खो बैठता है और अक्सर अपने सीनियर्स से डांट खाता है। शिउली (बनिता संधू) भी उसके साथ ट्रैनी है। दोनों के बीच कोई खास रिश्ता नहीं है। एक‍ दिन पार्टी करते हुए शिउली तीसरी मंजिल से नीचे गिर जाती है और कोमा में पहुंच जाती है। अस्पताल में डैन उससे अनिच्छा से मिलने जाता है। उसकी हालत देख वह परेशान हो जाता है और रोजाना उससे मिलने जाने लगता है। शिउली के भाई, बहन और मां से वह कभी नहीं मिला था, लेकिन धीरे-धीरे वह उनके करीब आकर फैमिली मेम्बर की तरह बन जाता है। 'अक्टूबर' में डैन के हमें दो रूप देखने को मिलते हैं। वह दुनियादारी और नियम-कायदों से चलने पर चिढ़ता है। वह ऐसी राह पर था जिस पर चलना उसे पसंद नहीं है, लिहाजा वह बात-बात पर उखड़ने लगता है। उसे किसी तरह का दबाव पसंद नहीं है और दबाव पड़ने पर वह फट जाता है। होटल में उसके काम करने की शैली से उसके व्यवहार की झलक हमें मिलती है। उसके इसी व्यवहार के कारण उसे कोई बहुत ज्यादा पसंद नहीं करता और दोस्त भी उसे प्रेक्टिकल होने के लिए कहते हैं। दोस्तों से डैन को पता चलता है कि ऊपर से नीचे गिरने के पहले शिउली ने पूछा था कि डैन कहां है? यह बात उसके दिल को छू जाती है। उसे महसूस होता है कि किसी ने उसके बारे में भी पूछा है तो वह नि:स्वार्थ भाव से शिउली की अस्पताल में सेवा करता है। यह जानते हुए भी कि शिउली कोमा में हैं वह उससे बात करता है और उसके प्रयासों से ही शिउली में इम्प्रूवमेंट देखने को मिलता है। डैन का होटल से अलग रूप हॉस्पिटल में देखने को मिलता है। यहां उसकी अच्छाइयां नजर आती हैं। वह शिउली के ठीक होने की आशा उसके परिवार वालों में जगाए रखता है। होटल में नियम तोड़ने वाले डैन को जब हॉस्पिटल में बिस्किट खाने से रोका जाता है तो वह मुंह से बिस्किट निकाल लेता है। होटल के व्यावसायिक वातावरण में शायद उसका दम घुटता था, जहां दिल से ज्यादा दिमाग की सुनी जाती है। हॉस्पिटल में दिल की ज्यादा चलती थी इसलिए वह नर्स और गार्ड से भी बतिया लेता था। जूही चतुर्वेदी ने फिल्म की स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। जूही ने 'अक्टूबर' के माध्यम से कहने की कोशिश की है कि व्यक्ति का व्यवहार पूरी तरह से परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इसलिए उसका आंकलन करते समय सभी बातों पर गौर करना चाहिए। फिल्म में घटनाक्रम और संवाद बेहद कम हैं। साथ ही कहानी भी बेहद संक्षिप्त है, इसलिए निर्देशक शूजीत सरकार के कंधों पर बहुत ज्यादा भार था। शूजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह फिल्म दो घंटे से कम होने के बावजूद लंबी लगती है और फिल्म की स्लो स्पीड से कई लोगों को शिकायत हो सकती है। लेकिन शूजीत, डैन के मन में उमड़ रहे भावनाओं के ज्वार से दर्शकों का कनेक्शन बैठाने में कामयाब रहे हैं। निश्चित रूप से यह बात बेहद कठिन थी। जुड़वां 2 और मैं तेरा हीरो जैसी फॉर्मूला फिल्मों के बीच वरुण धवन 'बदलापुर' और 'अक्टूबर' जैसी फिल्में भी करते रहते हैं जो यह दर्शाता है कि लीक से हट कर फिल्म करने की चाह उनमें मौजूद है। यह पूरी फिल्म उनके ही कंधों पर थी और उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। हर सिचुएशन में उनके किरदार की प्रतिक्रिया और सोच एकदम अलग होती है और इस बात को उन्होंने अपने अभिनय से निखारा है। बनिता संधू ने बमुश्किल एक-दो संवाद बोले होंगे। ज्यादातर समय उन्हें मरीज बन कर बिस्तर पर लेटना ही था, लेकिन उन्होंने काफी अच्छे एक्सप्रेशन्स दिए। शिउली की मां के रूप में गीतांजलि राव और डैन के सीनियर के रूप में प्रतीक कपूर का अभिनय भी जोरदार है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। ठंड और कोहरे में लिपटी दिल्ली, आईसीयू और फाइव स्टार के माहौल को उन्होंने कैमरे से बखूबी पकड़ा है। शूजीत सरकार की फिल्मों से जो अपेक्षा रहती हैं उस पर भले ही फिल्म पूरी नहीं उतर पाती हो, लेकिन देखी जा सकती है। टेस्ट क्रिकेट को देखने वाले धैर्य की जरूरत इस फिल्म को देखते समय भी पड़ती है। बैनर : राइजि़ंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन निर्माता : रॉनी लाहिरी, शील कुमार निर्देशक : सुजीत सरकार संगीत : शांतुनु मोइत्रा, अनुपम रॉय, अभिषेक अरोरा कलाकार : वरुण धवन, बनिता संधू, गीतांजलि राव, प्रतीक कपूर सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 55 मिनट 30 सेकंड
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हसीना एक घरेलू लड़की थी, लेकिन भाई के भाग जाने और पति की हत्या के बाद कहा जाता है कि दाऊद का साम्राज्य उसने संभाल लिया और बतौर दाऊद की प्रतिनिधि भारत में काम किया। एक तरह से वह महिला डॉन थी जिससे लोग दाऊद के कारण घबराते थे। उसने कई मामलों को निपटाया और उसके दरबार में सैकड़ों लोग अपनी परेशानी लेकर आते थे। फिल्म में दिखाया गया है कि हसीना पर अदालत में मामला चल रहा है। एक बिल्डर ने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। वकील उससे सवाल करते हैं और जवाब में फिल्म बार-बार पीछे की ओर जाती है और तारीखवार उन घटनाओं का ब्यौरा दिखाया गया है जो हसीना के जीवन में घटते हैं। हसीना पारकर के बारे में लोगों ने ज्यादा सुना नहीं है और न ही लोगों को उनके बारे में ज्यादा जानकारी है। दाऊद और उसके स्नेह भरे संबंध, फिर उसकी शादी होना, खुशहाल जिंदगी जीना इन सब घटनाओं से भला किसी को क्या सरोकार है? इन बातों पर बहुत सारे फुटेज खर्च किए गए हैं। एक घरेलू महिला से वह दाऊद का काम कैसे संभालती है, यह बदलाव फिल्म में ठीक से नहीं दिखाया गया है। अचानक वह दाऊद की सत्ता संभाल लेती है और लोग उससे डरने लगते हैं। फिल्म में यह बात देखना एक झटके जैसा लगता है कि अचानक इतना बड़ा बदलाव कैसे आ गया? फिल्म गहराई में नहीं जाती और सतह पर तैरती रहती है। फिल्म में यह बात स्थापित करने की कोशिश की गई है कि हालात का शिकार होने के कारण उसे सब यह करना पड़ा ताकि दर्शकों को उसके प्रति हमदर्दी हो, लेकिन हसीना आपा से दर्शक हमदर्दी क्यों करें? फिल्म में कई बातें अस्पष्ट भी हैं, जैसे- हसीना के बेटे को किसने मारा, दर्शाया ही नहीं गया। निर्देशक अपूर्व लाखिया ने स्क्रिप्ट की कमियों पर ध्यान नहीं दिया। उनका प्रस्तुतिकरण कन्फ्यूजिंग है। इतनी बार फिल्म पीछे जाती है, बार-बार तारीखें दिखाई जाती हैं ‍कि सब याद रखना आसान नहीं है। हसीना को जिसके लिए अदालत बुलाया गया था वो बात दिखाई ही नहीं गई है और उससे दूसरी बातों पर ही सवाल किए जाते हैं। कोर्ट रूम ड्रामा भी नाटकीय है और गंभीरता का अभाव है। हसीना पर गाने फिल्माना भी दर्शाता है कि निर्देशक बॉलीवुड लटके-झटके छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। श्रद्धा कपूर का अभिनय देखने लायक है। हसीना आपा के किरदार को उन्होंने पूरी फिल्म में पकड़ कर रखा है और सारी भाव-भंगिमाओं को अच्छे से दिखाया है। उम्रदराज हसीना के रोल में वे युवा नजर आती हैं और यहां उन्हें उम्रदराज दिखाया जाना जरूरी था। श्रद्धा के भाई सिद्धांत कपूर ने दाऊद का किरदार निभाया है और उसे स्टीरियोटाइप पेश किया गया है जैसा हम हर फिल्म में दाऊद को देखते हैं। सिद्धांत का काम औसत से बेहतर है। महिला वकील के रूप में प्रियंका सेठिया को लंबा रोल मिला है जो उन्हें बेहतरीन तरीके से निभाया है। अंकुर भाटिया का अभिनय भी अच्छा है। कुल मिलाकर 'हसीना पारकर' विषय की गहराई में नहीं उतरते हुए छूती हुई निकल जाती है। बैनर : स्विस एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्माता : नाहिद खान निर्देशक : अपूर्व लाखिया संगीत : सचिन जिगर कलाकार : श्रद्धा कपूर, सिद्धांत कपूर, अंकुर भाटिया, प्रियंका सेठिया सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट 51 सेकंड
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जैसा कि फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि हर बार की तरह इस बार भी मिशन इम्पॉसिबल सीरीज का नायक टॉम क्रूज दुनिया को बचाने की खातिर एक असम्भव मिशन पर है। यह मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की छठी फिल्म है। फिल्म की कहानी इससे पिछली फिल्म मिशन इम्पॉसिबल : रोग नेशन को आगे बढ़ाती है। पिछली फिल्म में टॉम ने बागी ब्रिटिश एजेंट सोलोमन लेन (शॉन हैरिस) को गिरफ्तार किया था। इस बार फिल्म में नायक ईथन हंट (टॉम क्रूज) की इम्पॉसिबल मिशन फोर्स (आईएमएफ) को आतंकवादी जॉन लार्क और उसके करीबियों की तलाश है, जोकि दुनिया भर में परमाणु विस्फोट कर तबाही मचाना चाहता है। सोलोमन भी इस साजिश में शामिल है।एक सेफ हाउस में रह रहे ईथन को इस मिशन की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बर्लिन में प्लूटोनियम हासिल करने के मिशन के दौरान ईथन के अपने साथी को बचाने के चलते प्लूटोनियम उसके हाथ से निकल गया था। इसलिए इस बार उनके काम में अड़ंगा लगाने के लिए सीआईए डायरेक्टर ने अपने एक आदमी अगस्त वालकर (हेनरी काविल) को भी उनकी टीम में शामिल किया है। वालकर कदम-कदम पर ईथन की राह में रोड़े अटकाता है और उसे धोखा भी देता है। ईथन को जॉन लार्क को प्लूटोनियम खरीदने से रोकना है। इस मिशन में टीम आईएमएफ के अलावा ब्रिटिश जासूस और ईथन की पुरानी दोस्त इलसा फास्ट (रेबेका फर्गुसन) भी उसके साथ आ जाती है और कई मौकों पर उसकी मदद करती है। खास बात यह है कि फिल्म की कहानी आखिर में भारत के सियाचिन आती है। बहरहाल, ईथन अपने मिशन में कामयाब हो पाता है या नहीं यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा।टॉम क्रूज हर बार की तरह शानदार लगे हैं। खास बात यह है कि उनकी 56 साल की उम्र भी बेहतरीन एक्शन सीन्स में आड़े नहीं आती। वरना इस मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की पहली फिल्म करीब 22 साल पहले 1996 में आई थी। तब से लेकर अब तक टॉम क्रूज ने इसे अपने दम पर आगे बढ़ाया है और हर बार फैंस को पहले से बेहतर एक्शन सीन्स का तोहफा दिया है। इस बार भी फिल्म जबर्दस्त एक्शन सीन्स दिखाए गए हैं, जो आपकी सांसें थाम देते हैं। खासकर हेलिकॉप्टर वाले सीन देखने लायक हैं। फिल्म के कई सीन्स में बेहतरीन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी दर्शकों को हैरान करता है। फिल्म के राइटर और डायरेक्टर क्रिस्टोफर मैक्वेरी ने एक बार फिर बेहतरीन एक्शन ड्रामा रचा है। फिल्म में जबर्दस्त एक्शन से लेकर रोमांच तक सब कुछ है। टॉम के बाकी साथियों ने भी बढ़िया एक्टिंग की है। खासकर सीआईए एजेंट का रोल करने वाले हेनरी काविल कई सीन्स में हैरान करते हैं। इस हफ्ते अगर आप जबर्दस्त एक्शन और रोमांच देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को मिस ना करें।
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IFM IFM IFM IFM निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : शिमित अमीन पटकथा-संवाद-गीत : जयदीप साहनी संगीत : सलीम-सुलेमा न कलाकार : शाहरुख खान, विद्या मालवदे, अंजन श्रीवास्तव, जावेद खान भारत में खेलों पर आधारित फिल्में गिनती की बनी हैं। खुशी की बात है कि पिछले एक-दो वर्षों से फिल्मों में भी खेल दिखाई देने लगा है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और इस समय यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। इस खेल पर फिल्म बनाकर निर्देशक शिमित अमीन ने एक साहसिक काम किया है। ‘चक दे इंडिया’ कबीर खान की कहानी है, जो कभी भारतीय टीम का श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड रह चुका था। पाकिस्तान के विरूद्ध एक फाइनल मैच में वह अंतिम क्षणों में पेनल्टी स्ट्रोक के जरिये गोल बनाने में चूक गया और भारत मैच हार गया। मुस्लिम होने के कारण उसकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया। उसे गद्दार कहा गया। उस मैच के बाद खिलाड़ी के रूप में उसका कॅरियर खत्म हो गया। सात वर्ष बाद वह महिला हॉकी टीम का प्रशिक्षक बनता है। इस टीम को विश्व चैम्पियन बनाकर वह अपने ऊपर लगे हुए दाग को धोना चाहता है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं थी। इन लड़कियों का ध्यान खेल पर कम था। वे केवल नाम के लिए खेलती थीं। अलग प्रदेशों से आई इन लड़कियों में एकता नहीं थी। सीनियर खिलाडि़यों की दादागीरी थी। कबीर इन खिलाडि़यों के दिमाग में यह बात डालता है कि वे भारतीय पहले हैं, फिर वे महाराष्ट्र या पंजाब की हैं। फिर शुरू होता है प्रशिक्षण का दौर। हर तरफ से बाधाएँ आती हैं और कबीर इन बाधाओं को पार कर अंत में अपनी टीम को विजेता बनाता है। कहानी बड़ी सरल है, लेकिन जयदीप साहनी की पटकथा इतनी उम्दा है कि पहली फ्रेम से ही दर्शक फिल्म से जुड़ जाता है। छोटे-छोटे दृश्य इतने उम्दा तरीके से लिखे और फिल्माए गए हैं कि कई दृश्य सीधे दिल को छू जाते हैं। शाहरुख जब अपनी टीम का परिचय प्राप्त करते हैं तो जो लड़की अपने नाम के साथ अपने प्रदेश का नाम जोड़ती है, उसे वे बाहर कर देते हैं और अपने नाम के साथ भारत का नाम जोड़ने वाली लड़की को वे शाबाशी देते हैं। ये उन लोगों पर करारी चोट है, जो प्रतिभा खोज कार्यक्रम में प्रतिभा चुनते समय अपने प्रदेश के पहले होते हैं और भारतीय बाद में। ऑस्ट्रेलिया में स्टेडियम के बाहर खड़े शाहरुख एक विदेश ी कर्मचारी को भारत का तिरंगा लगाते हुए देखते रहते हैं। एक खिलाड़ी उनसे आकर पूछती है कि सर आप यहाँ क्या कर रहे है ं, तो शाहरुख का जवाब होता है कि मैं एक गोरे को तिरंगा फहराते हुए पहली बार देख रहा हूँ। भारत के लिए खेले एक श्रेष्ठ ‍हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति क्या होती है, ये निर्देशक ने शाहरुख को एक खटारा स्कूटर पर बैठाकर बिना संवाद के जरिये बयाँ कर दी। महिला टीम होन े क े कार ण इन्हे ं पुरुषों की छींटाकशी ‍का‍ शिकार भी होना पड़ता है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। शाहरुख एक जगह संवाद बोलते हैं 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'। शिमित का निर्देशन बेहद शानदार है। एक चुस्त पटकथा को उन्होंने बखूबी फिल्माया है। वे हॉकी के जरिये दर्शकों में राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ जगाने में कामयाब रहे। एक सीन में मैच के पूर्व जब ‘जन-गण-मन’ की धुन बजती है, तो थिएटर में मौजूद दर्शक सम्मान में खड़े हो जाते हैं। फिल्म में हर मैच के दौरान सिनेमाघर में उपस्थित दर्शक भारतीय टीम का इस तरह उत्साह बढ़ाते हैं, जैसे स्टेडियम में बैठकर वे सचमुच का मैच देख रहे हों। प्रत्येक दर्शक टीम से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है और यहीं पर शिमित की कामयाबी दिखाई देती है। शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है। उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है। फिल्म में गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है। जयदीप साहनी के संवाद सराहनीय है। कुल मिलाकर ‘चक दे इंडिया’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए।
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अंकुर कुमार युद्ध के बीच प्यार का मेसेज देने वाली कई फिल्में हॉलिवुड में आ चुकी हैं। इसके बावजूद मैट रिव्स की 'वॉर फॉर द प्लैनेट ऑफ एप्स' का इंतजार बड़ी बेसब्री से हो रहा था। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार फिल्म रिलीज हो गई। पहले यह पिछले साल रिलीज होने वाली थी। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की नई रिबूटेड फ्रेंचाइजी की यह तीसरी फिल्म है, जिसे रिलीज होने से पहले ही ऑस्कर कंटेंडर वाली मूवी कहा जाने लगा था। हॉरर सीरिज फिल्म कल्वरफिल्ड के लिए पहचाने जाने वाले मैट रिव्स ने इससे पहले 2014 में रिलीज हुई इस फ्रेंचाइजी की दूसरी फिल्म 'डॉन ऑफ द प्लैनेट ऑफ़ एप्स' भी डायरेक्ट की थी। इसकी कहानी भी वहीं से आगे बढ़ती है। इसके विजुअल इफेक्ट्स, इमोशनल सीन और एक्शन से आप फिल्म के अंत तक बंध जाते हैं। कहानी: साइंस एक्सपेरिमेंट से तेज और चालाक बन जाने वाला सीजर वानरों का अलग साम्राज्य बनाकर ग्रुप का लीडर बन चुका है। साम्राज्य के उदय के दो साल बाद सीजर और उसकी वानर सेना मानवों की मिलिट्री टीम अल्फा-ओमेगा के साथ लड़ाई लड़ रही है। टीम को वानरों के दूसरे गुट के लीडर रेड का साथ मिला हुआ है। जिस वायरस सिमियन फ्लू की वजह से वानर तेज और चालाक बने थे, उसी वायरस की वजह से अब मानव जाति अपनी भाषा और ज्ञान खो रही है। ऐसे में वानर और इंसानों के बीच प्लैनेट पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो चुकी है। अल्फा-ओमेगा का विवादित लीडर कर्नल मैक कलोग न सिर्फ वानरों से नफरत करता है, बल्कि वह वायरस से संक्रमित होने वाले इंसानों को भी मारने में यकीन रखता है। कर्नल मैक कलोग द्वारा अपने परिवार के खात्मे के बाद वानरों को बचाने के लिए उनका मसीहा सीजर कर्नल से मिलने जाता है। अब क्या कर्नल मैक कलोग और सीजर के बीच समझौता हो पाएगा या प्लैनेट पर किसका राज होगा, फिल्म देखने के बाद ही पता लग सकेगा। इफेक्ट्स के साथ इमोशन: विजुअल इफेक्ट्स के मामले में हॉलिवुड बॉलिवुड से कहीं आगे है। यह हॉलिवुड फिल्म भी तकनीक के साथ स्टोरी के मामले में भी बेहतरीन साबित हुई है। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की पिछली दोनों फिल्में काफी सफल रही है। एक्शन सीन काफी उम्दा हैं। स्टोरी इतनी अच्छी है कि विलेन के रूप में आप कर्नल के साथ इंसानों से भी नफरत करने लगेंगे। वॉर की वजह से अनाथ हुई बच्ची नोवा और उसे अपनी बेटी की रूप में स्वीकार करने वाले वानर मॉरिस से आपको प्यार हो जाएगा। वहीं बैड एप वानर इस गंभीर फिल्म में कॉमेडी एंगल लेकर आया है। उसके कॉमेडी पंच लाजवाब हैं। बैकग्राउंड साउंड इफेक्ट्स वॉर फिल्म को पूरी तरह से जस्टीफाई करते हैं। अगर आप इस फ्रेंचाइजी की पुरानी फिल्में देखी है तो आप इस फिल्म को न मिस करें। यह अब इस फ्रेंचाइजी की सबसे बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती है।
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बाहुबली दो में इसका जवाब इंटरवल के बाद मिलता है। तब तक कहानी में ठोस कारण पैदा किए गए हैं ताकि दर्शक कटप्पा के इस कृत्य से सहमत लगे। भले ही दर्शक जवाब मिलने के बाद चौंकता नहीं हो, लेकिन ठगा हुआ भी महसूस नहीं करता क्योंकि तब तक फिल्म उसका भरपूर मनोरंजन कर चुकी होती है। बाहुबली को के विजयेन्द्र प्रसाद ने लिखा है। इसकी कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है। फिल्म के कई किरदारों में भी आप समानताएं खोज सकते हैं। महिष्मति के सिंहासन के लिए होने वाली इस लड़ाई में षड्यंत्र, हत्या, वफादारी, सौगंध, बहादुरी, कायरता जैसे गुणों और अवगुणों का समावेश है, जिनकी झलक हमें लगातार सिल्वर स्क्रीन पर देखने को मिलती है। निर्देशक एस राजामौली ने इन बातों को भव्यता का ऐसा तड़का लगाया है कि लार्जर देन लाइफ होकर यह कहानी और किरदार दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। राजामौली की खास बात यह है कि बाहुबली के किरदार को उन्होंने पूरी तरह विश्वसनीय बनाया है। हाथी जैसी ताकत, चीते जैसी फुर्ती और गिद्ध जैसी नजर वाला बाहुबली जब बिजली की गति से दुश्मनों पर टूट पड़ता है और पलक झपकते ही जब उसकी तलवार दुश्मनों की गर्दन काट देती है तो ऐसा महसूस होता है कि हां, यह शख्स ऐसा कर सकता है। बाहुबली की इन खूबियों को फिल्म के दूसरे हिस्से में खूब भुनाया गया है। 'बाहुबली द कॉन्क्लूज़न' देखने के लिए 'बाहुबली: द बिगनिंग' याद होना चाहिए वरना फिल्म समझने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है। हालांकि पहले भाग में महेंन्द्र बाहुबली के कारनामे थे तो इस बार उसके पिता अमरेन्द्र बाहुबली के हैरतअंगेज कारनामे देखने को मिलते हैं। पिछली बार हमने देखा था कि महेंद्र बाहुबली को कटप्पा उसके पिता की कहानी सुनाता है। दूसरे भाग में विस्तृत रूप से इस कहानी को देखने को मिलता है। अमरेन्द्र और देवसेना के रोमांस को बेहद कोमलता के साथ दिखाया गया है। चूंकि पहले भाग के बाद कटप्पा की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी इसलिए दूसरे भाग में उसे ज्यादा सीन दिए गए हैं। कॉमेडी भी करवाई गई है। अमरेन्द्र और देवसेना तथा अमरेन्द्र और शिवागामी के साथ किस तरह से भल्लाल देव और उसका पिता षड्यंत्र करते हैं यह कहानी का मुख्य बिंदू है। कहानी ठीक है, लेकिन जिस तरह से इसे पेश किया गया है वो प्रशंसा के योग्य है। फिल्म की स्क्रिप्ट बेहतरीन है और इसमें आने वाले उतार-चढ़ाव लूगातार मजा देते रहते हैं। हर दृश्य को बेहतर और भव्य बनाया गया है और फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो ताली और सीटी के लायक हैं। जैसे, बाहुबली की एंट्री वाला दृश्य, बाहुबली और देवसेना के बीच रोमांस पनपने वाले सीन, बाहुबली और देवसेना के साथ में तीर चलाने वाला सीन, भरी सभा में देवसेना का अपमान करने वाले का सिर काटने वाला सीन, ऐसे कई दृश्य हैं। इंटरवल तक फिल्म भरपूर मनोरंजन करती है। इंटरवल के बाद ड्रामा ड्राइविंग सीट पर आता है और फिर क्लाइमैक्स में एक्शन हावी होता है। फिल्म की कमियों की बात की जाए तो कुछ को कहानी थोड़ी कमजोर लग सकती है। पहले भाग में जिस भव्यता से दर्शक चकित थे और दूसरे भाग से उनकी अपेक्षाएं आसमान छू रही थी, उन्हें दूसरे भाग की भव्यता वैसा चकित नहीं करती है। क्लाइमैक्स में सिनेमा के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट ले ली गई है और दक्षिण भारतीय फिल्मों वाला फ्लेवर थोड़ा ज्यादा हो गया है। लेकिन इन बातों का फिल्म देखते समय मजा खराब नहीं होता है और इनको इग्नोर किया जा सकता है। निर्देशक के रूप में एसएस राजामौली की पकड़ पूरी फिल्म पर नजर आती है। उन्होंने दूसरे भाग को और भव्य बनाया है। एक गाने में जहाज आसमान में उड़ता है वो डिज्नी द्वारा निर्मित फिल्मों की याद दिलाता है। कॉमेडी, एक्शन, रोमांस और ड्रामे का उन्होंने पूरी तरह संतुलन बनाए रखा है। जो आशाएं उन्होंने पहले भाग से जगाईं उस पर खरी उतरने की उन्होंने यथासंभव कोशिश की है। एक ब्लॉकबस्टर फिल्म कैसे बनाई जाती है ये बात वे अच्छी तरह जानते हैं और दर्शकों के हर वर्ग के लिए उनकी फिल्म में कुछ न कुछ है। प्रभाष और बाहुबली को अलग करना मुश्किल है। वे बाहुबली ही लगते हैं। बाहुबली का गर्व, ताकत, बहादुरी, प्रेम, समर्पण, सरलता उनके अभिनय में झलकता है। उनकी भुजाओं में सैकड़ों हाथियों की ताकत महसूस होती है। ड्रामेटिक, एक्शन और रोमांटिक दृश्यों में वे अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। देवसेना के रूप में अनुष्का शेट्टी को इस भाग में भरपूर मौका मिला है। देवसेना के अहंकार और आक्रामकता को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया। वे अपने अभिनय से भावनाओं की त्रीवता का अहसास कराती हैं। भल्लाल देव के रूप में राणा दग्गुबाती अपनी ताकतवर उपस्थिति दर्ज कराते हैं। शिवगामी बनीं रम्या कृष्णन का अभिनय शानदार हैं। उनकी बड़ी आंखें किरदार को तेज धार देती है। कटप्पा बने सत्यराज ने इस बार दर्शकों को हंसाया भी है और उनके किरदार को दर्शकों का भरपूर प्यार मिलेगा। नासेर भी प्रभावित करते हैं। तमन्ना भाटिया के लिए इस बार करने को कुछ नहीं था। फिल्म की वीएफएक्स टीम बधाई की पात्र है। हालांकि कुछ जगह उनका काम कमजोर लगता है, लेकिन उपलब्ध साधनों और बजट में उनका काम हॉलीवुड स्टैंडर्ड का है। खास तौर पर युद्ध वाले दृश्य उल्लेखनीय हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक अच्छा है। गानों में जरूर फिल्म मार खाती है क्योंकि ये अनुवादनुमा लगते हैं, लेकिन इनका फिल्मांकन शानदार है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सिनेमाटोग्राफी, सेट लाजवाब हैं। कलाकारों का मेकअप उनकी सोच के अनुरूप है। बाहुबली 2 भव्य और बेहतरीन है। पहले भाग को मैंने तीन स्टार दिए थे क्योंकि आधी फिल्म को देख ज्यादा कहा नहीं जा सकता। पूरी फिल्म देखने के बाद चार स्टार इसलिए क्योंकि ब्लॉकबस्टर मूवी ऐसी होती है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, एए फिल्म्स, आरको मीडिया वर्क्स प्रा.लि. निर्देशक : एसएस राजामौली संगीत : एमएम करीम कलाकार : प्रभाष, राणा दग्गुबाती, अनुष्का शेट्टी, तमन्ना भाटिया, रामया कृष्णन, सत्यराज, नासेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 47 मिनट 30 सेकंड्स
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लिबास से भले ही हम कितने ही आधुनिक हो गए हो, लेकिन बात जब शादी की आती है तो अचानक रूढ़िवादी विचारधाराएं सारी आधुनिकता पर हावी हो जाती हैं। 1981 में के. बालाचंदर ने 'एक दूजे के लिए' बनाई थी, जिसमें लड़के और लड़की को शादी करने में इसलिए अड़चनें आती हैं क्योंकि एक उत्तर भारतीय है तो दूसरा दक्षिण भारतीय। भाषा, पहनावे और संस्कृति की भिन्नताएं रूकावट बनती हैं। में रिलीज हुई फिल्म '2 स्टेट्स' भी बताती है कि स्थिति बहुत सुधरी नहीं है। अभी भी शादी के लिए लड़के और लड़की में प्यार होना ही काफी नहीं है। कई धरातलों पर समानताएं होना जरूरी है। भारत में शादी लड़के या लड़की से नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार से करना होती है क्योंकि ज्यादातरों को शादी के बाद अपने पैरेंट्स के साथ ही रहना होता है। लड़की का लड़के के बजाय लड़के की मां से मधुर संबंध रखना महत्वपूर्ण है। हालांकि अब बड़ी संख्या में विभिन्न जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं और इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि शादी के बाद पति-पत्नी अपने पैरेंट्स के साथ नही रहते हैं। स्टेट्स चेतन भगत द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है और 'एक दूजे के लिए' तथा इस फिल्म में कई समानताएं हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण के लिहाज से यह फिल्म काफी अलग है। आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ने वाले पंजाबी लड़के कृष मल्होत्रा और तमिल लड़की अनन्या स्वामीनाथन में प्रेम हो जाता है। पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों शादी के करने का फैसला लेते हैं। यहां जाकर उन्हें पता चलता है कि शादी के लिए दोनों में प्यार होना ही काफी नहीं है। दोनों अपने माता-पिता की मर्जी से शादी करना चाहते हैं और उन्हें यह करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शाकाहारी-मांसाहारी, भाषा, संस्कृति, पहनावा, रंग जैसे मुद्दों को लेकर मतभेद उभरते हैं। कृष और अनन्या अपनी शादी के लिए वो सारे काम करते हैं जिससे उनके पैरेंट्स खुश हो, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगती। एक बार तो वे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि उनमें ही मतभेद होने लगते हैं। जानी-पहचानी कहानी और कमियों के बावजूद फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है क्योंकि निर्देशक अभिषेक वर्मन के प्रस्तुतिकरण में ताजगी है। फिल्म की शुरुआत में कृष और अनन्या का रोमांस थोड़ा अविश्वसनीय लगता है, लेकिन दिल को छूता है। अनन्या और कृष के बीच में शुरुआत में शारीरिक आकर्षण रहता है जिसे प्यार में तब्दील होते देखना अच्छा लगता है। बीच-बीच में मनोरंजक दृश्य आते रहते हैं जो फिल्म को संभाल लेते हैं। मसलन, अनन्या का हाथ मांगते समय कृष उसके पूरे परिवार के लिए अंगूठी लाता है और कहता है कि वह उसके परिवार के साथ शादी करना चाहता है। फिल्म में कुछ बातें अखरती हैं, जैसे, कृष और अनन्या के माता-पिता को बहुत ज्यादा ही रूढ़िवादी दिखाया गया है मानो पचास साल पुराना जमाना हो। तीन चौथाई फिल्म पैरेंट्स को मनाने में खर्च हुई है और बीच में कई बार फिल्म खींची हुई प्रतीत होती है। निर्देशक ने दर्शकों के मनोरंजन का ख्याल रखते हुए कई बार समझौते भी किए और कई सीन ऐसे हैं जो सहूलियत के मुताबिक लिखे गए हैं। जैसे कृष के पिता का हृदय परिवर्तन का अचानक हृदय परिवर्तन हो जाना। एक शादी में दूल्हे का दहेज के लिए अड़ जाना और उसे अनन्या द्वारा मनाना जैसे दृश्य सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं क्योंकि फिल्म की कहानी से इस तरह के दृश्यों का कोई ताल्लुक नहीं है। अर्जुन कपूर और आलिया भट्ट की केमिस्ट्री दर्शकों को चुम्बक की तरह फिल्म से बांध कर रखती है। आलिया बेहद खूबसूरत लगी हैं और उनका अभिनय फिल्म दर फिल्म निखरता जा रहा है। हालांकि वे तमिल लड़की नहीं लगती है, लेकिन अपने अभिनय से वे इस कमी को बहुत जल्दी कवर कर लेती हैं। पंजाबी मुंडे के रूप में अर्जुन का अभिनय भी अच्छा है। अपने पिता से बिगड़े रिश्ते और एक प्रेमी की भूमिका उन्होंने अच्छे से निभाई है। फिल्म में एक सीन में कृष कहता है कि पंजाबी सास से खतरनाक कोई नहीं होता है और यह भूमिका अमृता सिंह ने बेहद कुटिलता से निभाई है। रेवती और शिव सुब्रमण्यम ने तमिल पैरेंट्स की भूमिका निभाई। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत '2 स्टेट्स' का निराशाजनक पहलू है। एक भी सुपरहिट गाना नहीं है। प्रेम कहानी में गाने अच्छे लगते हैं, लेकिन '2 स्टेट्स' में ये अखरते हैं। कमियों के बावजूद आलिया-अर्जुन की केमिस्ट्री, अच्छी एक्टिंग और ताजगी के कारण फिल्म देखी जा सकती है। बैनर : नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : साजिद नाडियाडवाला, करण जौहर निर्देशक : अभिषेक वर्मन संगीत : शंकर-एहसान-लॉय कलाकार : अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित रॉय, अमृता सिंह, शिव सुब्रमण्यम, रेवती सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 29 मिनट
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निर्माता : अशोक घई निर्देशक : मनोज तिवारी संगीत : प्रीतम कलाकार : सेलिना जेटली, ईशा कोप्पिकर, गुल पनाग, जावेद जाफरी, चंकी पांडे, दिव्या दत्ता, असावरी जोशी, मुकेश तिवारी, सनी देओल ( मेहमान कलाकार) केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 45 मिनट ज्यादातर ऑफिसेस में कुछ पुरुष बॉस ऐसे होते हैं जो अपने अधीन काम करने वाली महिलाओं/लड़कियों पर बुरी नजर रखते हैं। तरक्की व अन्य प्रलोभन देकर उनका यौन शोषण करते हैं। कुछ लड़कियों की मजबूरी रहती है। कुछ इसे तरक्की की ही सीढ़ी ही मानती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो लंपट बॉस को मजा चखा देती हैं। ‘हैलो डार्लिंग’ की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। एक अच्छी हास्य फिल्म की रचना इस थीम पर की जा सकती है, लेकिन अफसोस की बात ये है कि न इस फिल्म का निर्देशन अच्छा है और न ही स्क्रीनप्ले। कलाकारों से भी जमकर ओवर एक्टिंग कराई गई है, जिससे ‘हैलो डार्लिंग’ देखना समय और पैसों की बर्बादी है। हार्दिक (जावेद जाफरी) अपने अंडर में काम करने वाली हर लड़की पर बुरी नजर रखता है। चाहे वो उसकी सेक्रेटरी कैंडी (सेलिना जेटली) हो या सतवती (ईशा कोप्पिकर) और मानसी (गुल पनाग) हो। तीनों उसे सबक सिखाना चाहती हैं। एक दिन मानसी गलती से हार्दिक की काफी में जहर डाल देती है। हार्दिक कुर्सी से गिरकर बेहोश हो जाता है और तीनों लड़कियों को लगता है कि उनके जहर देने से उसकी यह हालत हो गई है। वे उसे अस्पताल ले जाती हैं। वहाँ फिर गलतफहमी पैदा होती है। उन्हें लगता है कि हार्दिक मर गया है। उसकी लाश को उठाकर वे समुद्र में फेंकने के लिए उठाती हैं, लेकिन इतनी बड़ी कंपनी में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाली ये लड़कियाँ इतनी बेवकूफ रहती हैं कि दूसरे आदमी की लाश उठा लेती हैं। इधर होश में आकर हार्दिक उनकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लेता है और उन्हें ब्लैकमेल करता है। लड़कियाँ उसे कैद कर लेती हैं। किस तरह से वह उनके चंगुल से निकलता है, यह फिल्म का सार है। दरअसल इस फिल्म से जुड़े लोग यही निर्णय नहीं ले पाए कि वे क्या बनाने जा रहे हैं। बॉस और लड़कियों से शुरू हुई उनकी कहानी थोड़ी देर में ही राह भटक जाती है और कही और जाकर खत्म होती है। ये लड़कियाँ बॉस को सबक सिखाना चाहती हैं, लेकिन उसे घर में कैद करने के बाद वे ऑफिस पर ज्यादा ध्यान देती हैं मानो उनका उद्देश्य ऑफिस को अच्छे से चलाना है। वे ये बात भूल जाती हैं कि हार्दिक को भी सही राह पर लाना है। फिल्म का क्लाइमैक्स भी बेहद कमजोर है और किसी तरह कहानी को खत्म किया गया है। कमजोर क्लाइमैक्स में सनी देओल को लाया गया है ताकि दर्शकों का ध्यान भटक जाए। स्क्रीनप्ले भी अपनी सहूलियत से लिखा गया है। मिसाल के तौर पर लड़कियों के घर कैद हार्दिक के हाथ फोन लगता है और बजाय पुलिस को फोन करने के वह घर पर फोन कर बीवी से बात करता है। उसकी बेवकूफ बीवी कुछ समझ नहीं पाती। इसके बाद भी उसे मौका था कि वह अपने दोस्त, ऑफिस या पुलिस को फोन कर अपना हाल बताता, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं करता। कई दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देख लगता है कि हँसाने की पुरजोर लेकिन नाकाम कोशिश की जा रही है। कैरेक्टरर्स भी ठीक से स्थापित नहीं किए गए हैं। हार्दिक अपनी बीवी से क्यों भागता रहता है यह भी नहीं बताया गया है। हद तो ये हो गई कि हार्दिक की बीवी उसे ‘हार्दिक भाई’ कहकर पुकारती है। बिगड़े हुए पतियों को सुधारने वाला एक ट्रेक अच्छा था, लेकिन उसे ठीक से विकसित नहीं किया गया। एक निर्देशक के रूप में मनोज तिवारी निराश करते हैं। न उन्होंने स्क्रीनप्ले की कमजोरी पर ध्यान रखा और न ही दृश्यों को ठीक से फिल्मा पाए। पूरी‍ फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती है। जावेद जाफरी ने अभिनय के नाम पर तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। ईशा कोप्पिकर और सेलिना जेटली में इस बात की प्रतियोगिता थी कि कौन घटिया एक्टिंग करता है। इनकी तुलना में गुल पनाग का अभिनय ठीक है। चंकी ने अभिनय के नाम पर फूहड़ हरकतें की हैं। दिव्या दत्ता ने पता नहीं ये फालतू रोल क्यों स्वीकार किया। इस फिल्म के निर्माता हैं अशोक घई, जो सुभाष घई के भाई हैं। सुभा ष घई में भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि इस फिल्म के साथ अपना नाम जोड़ सके। लगता है कि प्रीतम ने अपनी रिजेक्ट हुई धुनों को कम दाम में टिका दिया। केवल पुराना सुपरहिट गीत ‘आ जाने जाँ....’ (रिमिक्स) ही सुना जा सकता है। फिल्म देखने से तो बेहतर है कि इसी सदाबहार गाने को एक बार फिर सुन लिया जाए।
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फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए। निर्माता-निर्देशक : शशि रंजन संगीत : रूप कुमार राठौड़ कलाकार : अनुपम खेर, सतीश शाह, शाद रंधावा, समीर दत्तानी, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर, सतीश कौशिक, दीपशिखा, गुलशन ग्रोवर, जैकी श्रॉफ यू/ए * 14 रील पता नही ‘धूम धड़ाका’ जैसी फिल्में क्यों बनाई जाती हैं? इस फिल्म के जरिये न कोई सार्थक बात सामने आती है और न मनोरंजन होता है। शिक्षा जरूर मिलती है कि ऐसी फिल्मों से दूर रहा जाए। निर्माता-निर्देशक शशि रंजन ने सिर्फ अपने शौक की खातिर यह फिल्म बनाई है। कहने को तो यह हास्य फिल्म है, लेकिन दर्शक इस‍ फिल्म को देखने के बाद अपने आपको कोसते हुए बाहर निकलता है कि वह क्यों यह फिल्म देखने आया? फिल्म का हास्य इतना गया गुजरा है कि न समझदार दर्शक को हँसी आती है और न ही फूहड़ हास्य पसंद करने वालों को। ओवर एक्टिंग से भरी इस घटिया नौटंकी से छुटकारा 14 रील खत्म होने के बाद मिलता है, कुछ समझदार दर्शकों ने तो मध्यांतर को ही फिल्म का अंत मान लिया। मुँगीलाल (अनुपम खेर) एक डॉन है, जिसे एएबीएम (ऑल एशियन भाई मीट) में परिस्थितिवश कहना पड़ता है कि उसका वारिस है। जबकि उसकी शादी भी नहीं हुई है। वर्षों पहले उसने अपनी बहन को घर से निकाल दिया था। उसे पता चलता है कि उसने कमल नामक संतान को जन्म दिया है। वह उस वारिस की तलाश करता है तो उसके पास कई कमल नाम के लड़के-लड़कियाँ आ जाते हैं। क्या उसके पास आए सारे कमल असली हैं, इसकी वह पड़ताल करता है। फिल्म की कहानी में हास्य की गुंजाइश थी, लेकिन पटकथा बेहद घटिया है। दृश्यों को इतना लंबा रखा गया है कि संवाद लेखक के पास संवाद खत्म हो गए। फिल्म देखते समय कई सवाल दिमाग में उठते हैं, जिनका जवाब अंत तक नहीं मिलता। सारे पात्र जोकरनुमा हैं और उनसे ओवरएक्टिंग करवाई गई है। दु:ख की बात तो यह है कि इस फिल्म में अनुपम खेर और सतीश शाह जैसे कलाकारों ने काम किया है। अनुपम खेर की यह फिल्म इसलिए याद रहेगी क्योंकि इसमें उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे घटिया अभिनय किया है। शाद रंधावा, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर और समीर दत्तानी जैसे कलाकारों को काम क्यों नहीं मिलता, यह उनका अभिनय देखकर समझ में आ जाता है। गुलशन ग्रोवर, सतीश कौशिक, जैकी श्रॉफ और दीपशिखा जैसे थके हुए चेहरे बोर करते हैं। फिल्म का एक भी पक्ष उल्लेखनीय नहीं है। फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए।
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जैकी चैन और सोनू सूद स्टारर इस फिल्म का बजट 65 मिलियन यूएस डॉलर के करीब माना जा रहा है। फिलहाल, हम ओवरसीज की बात नहीं करते, लेकिन भारत सहित कई दूसरे एशियाई देशों में जैकी चैन का जबर्दस्त जलवा है। जैकी के ऐक्शन देखने को बेकरार उनके फैन्स को वैसे भी अपने चहेते ऐक्शन स्टार की फिल्म देखने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा है। जैकी की पिछली 'द मिथ' कई साल पहले रिलीज हुई, लेकिन मल्लिका शेरावत के साथ बनी जैकी की यह फिल्म इंडियन बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कलेक्शन नहीं कर पाई। ऐसे में अब इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी को इस बार भारत में जबर्दस्त कलेक्शन की उम्मीद है। अगर फिल्म के क्रेज और जैकी द्वारा इस फिल्म की गई भारत में प्रमोशन पर नजर डाली जाए तो फिल्म इंडस्ट्री के ट्रेड पंडितों का लगता है कि भारत में इंग्लिश और हिंदी के साथ कई दूसरी भाषाओं में रिलीज़ हुई यह फिल्म पहले वीकेंड पर अच्छा बिज़नस कर सकती है। इस फिल्म डायरेक्टर स्टेनली टॉन्ग चाइना के नामचीन निर्देशकों में से एक है उनके निर्देशन में बनी 'द स्टोन एज वॉरियर्स' बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई करने में कामयाब रही। अब जब इस बार स्टेनली को इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन के साथ बॉलिवुड के कई स्टार्स का भी साथ मिला है तो उन्होंने इस बार टोटली मसाला ऐक्शन फिल्म बनाई है। कहानी: चाइना के एक म्यूजियम में जैक (जैकी चैन) मशहूर आर्कियॉलजिस्ट है जो अपनी असिस्टेंट कायरा (अमायरा दस्तूर) के साथ विभिन्न विषयों पर शोध कर रहा है। भारत से प्रफेसर अश्मिता (दिशा पटानी) जैक से मिलने चाइना आती है। अश्मिता काफी अर्से से मगध के छिपे खजाने की भारत में तलाश कर रही है। जैक से मिलने पहुंची अश्मिता अपने साथ एक करीब एक हजार साल पुराना नक्शा भी लाई है, जिसकी मदद से मगध के प्राचीन बहुमुल्य असीम खजाने तक पहुंचा जा सकता है। अश्मिता की बात सुनने के बाद जैक इस छुपे खजाने की तलाश में उसकी सहायता करने का फैसला करते है। जैक अपनी असिस्टेंट कायरा और अश्मिता के साथ खजाने की तलाश में भारत आते हैं। भारत आने के बाद जैक खजाने की तलाश में लग जाता है, इस दौरान जैक की टीम का सामना रैंडल (सोनू सूद) से होता है, रेंडल इस छुपे खजाने को अपने पूर्वजों का खजाना बताकर इस खजाने पर अपना अधिकार बता रहा है। यहीं से इन दोनों के बीच टकराव शुरू होता है ऐक्टिंग : करीब 62 साल के हो चुके जैकी चैन के ऐक्शन सीन आपको हैरान कर देंगे, इतनी ज्यादा उम्र के होने के बावजूद जैकी के ऐक्शन सीन में आपको कतई कमी दिखाई नहीं देगी। कोई कमी नहीं दिखाई देगी। इन ऐक्शन सीन में जैकी का अच्छा साथ झांग इकसिंग, मिया मुकी ने दिया है। रेंडल के किरदार में सोनू को कुछ नया करने का मौका नहीं मिला, वैसे भी स्क्रिप्ट में रेंडल के किरदार पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई, ऐसे में सोनू अपने किरदार को परफेक्ट ढंग से नहीं निभा पाए। अमायरा दस्तूर और दिशा पटानी को लेकर भी कुछ ऐक्शन सीन हैं, लेकिन इन दोनों ने ऐक्शन सीन से ज्यादा ध्यान कैमरे के सामने अपनी ब्यूटी पेश करने में लगाया है। जैकी चैन और दिशा पटानी के कुछ सीन जरूर अच्छे बन पड़े हैं। निर्देशन : स्टेनली ने पूरी फिल्म चाइना, दुबई और भारत के अलग-अलग लोकेशंस पर शूट की है। स्टेनली ने फिल्म की सिनेमटॉग्रफी पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया, इसलिए यह गजब की बन पड़ी है। स्टेनली के पास दमदार स्क्रिप्ट नहीं थी, लेकिन इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन का साथ था सो उन्होंने सारा ध्यान फिल्म के ऐक्शन सीन को ज्यादा से ज्यादा बेहतरीन बनाने में लगाया और काफी हद तक कामयाब भी रहे। वहीं, इस फिल्म टाइटल 'कुंग फू योग' तो रखा गया है, लेकिन डायरेक्टर पूरी फिल्म में योग को कहीं फिट नहीं कर पाए जो यकीनन इस फिल्म का माइनस पॉइंट है। संगीत : फिल्म के आखिर में फिल्म की पूरी स्टार कास्ट के साथ एक डांस सॉन्ग है। इस गाने की कोरियॉग्राफ़र फराह खान है। बेशक यह गाना आपको समझ नहीं आएगा, लेकिन कैमरे के सामने जैकी का थिरकना आपको जरूर पसंद आएगा। क्यों देखें : अगर जैकी चैन के फैन हैं और ऐक्शन फिल्में मिस नहीं करते तो इस फिल्म को देखें। दुबई में फिल्माई लग्ज़री कार रेस, क्लाइमैक्स में दिशा पटानी, अमायरा दस्तूर का फिल्माया ऐक्शन सीन बेहतरीन बन पड़ा है। अगर कुछ नया या अच्छी कहानी की तलाश में थिअटर जा रहे हैं तो अपसेट हो सकते हैं।
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घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है। निर्माता : फरहान अख्तर-रितेश सिधवानी निर्देशक : अभिषेक कपूर गीतकार : जावेद अख्तर संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : फरहान अख्तर, प्राची देसाई, अर्जुन रामपाल, पूरब कोहली, ल्यूक केनी, शहाना गोस्वामी, कोयल पुरी हर इंसान किशोर या युवा अवस्था में कुछ बनने के सपने देखता है, लेकिन बाद में संसार की चक्की में वह ऐसा पिस जाता है कि कमाने के चक्कर में उसे अपने सपनों को कुचलना पड़ता है। कुछ ऐसा ही होता है ‘रॉक ऑन’ के चार दोस्तों जो (अर्जुन रामपाल), केडी (पूरब कोहली), आदित्य श्रॉफ (फरहान अख्तर) और रॉब नेंसी (ल्यूक केनी) के साथ। चारों का सपना था कि वे देश का सबसे बड़ा बैंड बनाएँ। युवा अवस्था के दौरान वे ऐसे सपने देखते हैं। वे एक प्रतियोगिता जीतते हैं और उन्हें एक कंपनी द्वारा अलबम के लिए साइन भी कर लिया जाता है। अलबम की शूटिंग के दौरान आदित्य और जो में विवाद हो जाता है और अलबम अधूरा रह जाता है। कहानी दस वर्ष आगे आ जाती है। आदित्य और केडी व्यवसाय में लग जाते हैं। रॉब संगीतकारों का सहायक बन जाता है और जो के पास कुछ काम नहीं रहता। चारों के दिल में अपने शौक के लिए आग जलती रहती है। आदित्य की पत्नी साक्षी (प्राची देसाई) को आदित्य के अतीत के बारे में कुछ भी नहीं पता रहता। एक दिन पुराना सूटकेस खोलने पर उसके सामने आदित्य के बैंड का राज खुलता है। वह एक बार फिर सभी दोस्तों को इकठ्ठा करती हैं और उनका बैंड ‘मैजिक’ पहली बार परफॉर्म करता है। इस मुख्य कहानी के साथ-साथ कुछ उप-कथाएँ भी चलती हैं। संगीत से दूर रहने की वजह से आदित्य जमाने से नाराज रहता है और इसकी आँच उसकी पत्नी साक्षी पर भी पड़ती है। दोनों के तनावपूर्ण रिश्ते की कहानी भी साथ चलती है। जो निठल्ला बैठकर पत्नी की कमाई पर जिंदा रहता है। उसे होटल में जाकर गिटार बजाना मंजूर नहीं है। उसकी पत्नी फैशन डिजाइनर बनने के सपने को छोड़ मछलियों का धंधा करती है क्योंकि घर चलाने की मजबूरी है। रॉब के अंदर प्रतिभा है, लेकिन संगीतकारों का सहायक बनकर उसे अपनी प्रतिभा को दबाना पड़ता है, जिसका दर्द वह अकेले बर्दाश्त करता है। फिल्म की मूल थीम ‘जीतने के जज्बे’ को लेकर है, जिसमें दोस्ती, संगीत, ईगो और आपसी रिश्तों को मिलाकर निर्देशक अभिषेक कपूर ने खूबसूरती के साथ परदे पर पेश किया है। उनका कहानी कहने का तरीका शानदार है। फिल्म वर्तमान और अतीत के बीच चलती रहती है और फ्लैश बैक का उपयोग उन्होंने पूरे परफेक्शन के साथ किया है। अभिषेक द्वारा निर्देशित कुछ दृश्य छाप छोड़ते हैं। वर्षों बाद जब आदित्य से मिलने रॉब और केडी आते हैं तो वे आदित्य से हाथ मिलाते हैं। इसके फौरन बाद आदित्य अपने हाथ धोता है, उसे डर लगता है कि हाथ मिलाने से उसके अंदर मर चुके संगीत के जीवाणु फिर जिंदा न हो जाएँ। आदित्य के चरित्र में आए बदलाव को निर्देशक ने दो दृश्यों के जरिए खूबसूरती के साथ पेश किया है। आदित्य ऑफिस के गॉर्ड के अभिवादन का कभी जवाब नहीं देता था, लेकिन जब बैंड फिर से शुरू किया जाता है तो वह आगे बढ़कर उनका अभिवादन करता है। निर्देशक ने इन दो दृश्यों के माध्यम से दिखाया है कि संगीत के बिना आदित्य कितना अधूरा था। चूँकि फिल्म रॉक कलाकारों के बारे में है, इसलिए उन्हें स्टाइलिश तरीके से परदे पर पेश किया गया है। निहारिका खान का कॉस्ट्यूम सिलेक्शन तारीफ के काबिल है। कलाकारों के लुक पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। फिल्म में कुछ ‍कमियाँ भी हैं। निर्देशक यह ठीक से नहीं बता पाए कि आदित्य अपनी पत्नी साक्षी से क्यों नाराज रहता है? रॉब को बीमार नहीं भी दिखाया जाता तो भी कहानी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। मध्यांतर के बाद फिल्म की गति धीमी पड़ जाती है। कुछ लोगों को ‘रॉक ऑन’ देखकर ‘दिल चाहता है’ और ‘झंकार बीट्स’ की भी याद आ सकती है। ऐसी फिल्मों में संगीतकारों की भूमिका अहम रहती है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत थोड़ा कमजोर जरूर है, लेकिन फिल्म देखते समय अच्छा लगता है। फिल्म के हिट होने के बाद इसका संगीत भी लोकप्रिय होगा। जेसन वेस्ट के कैमरा वर्क और दीपा भाटिया के संपादन ने फिल्म को स्टाइलिश लुक दिया है। निर्देशक के रूप में अपनी धाक जमा चुके फरहान अख्तर अच्छे अभिनेता भी हैं। उनका चरित्र कई शेड्स लिए हुए है और उन्होंने हर शेड को बखूबी जिया। अभिनय के साथ-साथ उन्होंने गाने भी गाए हैं। भारी-भरकम संगीत में आवाज का ज्यादा महत्व नहीं रहता है इसलिए उनकी कमजोर आवाज को बर्दाश्त किया जा सकता है। अर्जुन रामपाल सही मायनों में रॉक स्टार हैं और उन्होंने अपने चरित्र को बखूबी जिया है। उनकी पत्नी डेबी की भूमिका शहाना गोस्वामी ने बेहतरीन तरीके से निभाई है। प्राची देसाई, पूरब कोहली, कोयल पुरी और ल्यूक केनी भी अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है।
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ChanderMohan.Sharma@timesgroup.com 'सनम तेरी कसम' की डायरेक्टर जोड़ी का फिल्म बनाने और सोचने का नजरिया बाकी डायरेक्टर्स से अलग है। इन दिनों जहां हॉट ऐक्शन, डबल मीनिंग और बेवजह ऐक्शन स्टंट और थ्रिलर मूवीज़ बनाने का ट्रेंड चला हुआ है तो इस जोड़ी ने दिल को छूने वाली लव-स्टोरी बनाई है। कहानी : इंद्र ( हर्षवर्धन राणे ) मुंबई की एक सोसायटी में अकेला रहता है। इंद्र दिनभर अपने फ्लैट में बने जिम में कसरत करता या फिर नशा करता रहता है। इंद्र को प्यार शब्द से नफरत है। हालांकि, उसका रूबी नाम की एक मेकओवर आर्टिस्ट के साथ लंबे अर्से से रिलेशनशिप है। सोसायटी वालों को इंद्र के बारे में बस इतना पता है कि वह एक अमीर परिवार से है और आठ साल जेल काट कर लौटा है। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies इसी सोसायटी के एक फ्लैट में सरस्वती पार्थसारथी (मावरा हुकेन) अपनी छोटी बहन कावेरी और मां-बाप के साथ रहती है। सरस्वती एक लाइब्रेरी में जॉब करती हैं। साउथ इंडियन फैमिली की सरस्वती अपने पापा जयराम (मनीष शर्मा) को ही अपना आदर्श मानती है। सिंपल लुक वाली सरस्वती फैशन की एबीसी तक नहीं जानती। कावेरी को शिकायत है कि उसी की वजह से उसकी अपने बॉयफ्रेंड से शादी नहीं हो पा रही है। क्योंकि, पापा चाहते हैं कि पहले बड़ी बेटी की शादी हो, लेकिन जयराम, सरस्वती की शादी किसी आईएएस से करना चाहते हैं। सरस्वती के पिता को सोसायटी में रह रहे इंद्र का रहन-सहन और उसका स्टाइल जरा भी पसंद नहीं है, लेकिन चाह कर भी जयराम इंद्र के खिलाफ कुछ कर नहीं पा रहा है। इंद्र शहर के नामी ऐडवोकेट (सुदेश बेरी) का बेटा है, लेकिन पिता से उसे नफरत है। इस बार जब फिर सरस्वती अपने सिंपल लुक को लेकर शादी के लिए रिजेक्ट हो जाती है तो वह रूबी से मेकओवर कराने का फैसला करते हैं। सरस्वती के मां-बाप तिरुपति गए हुए हैं। देर रात सरस्वती इंद्र से मिलने जब उसके फ्लैट पहुंचती है तभी वहां रूबी आ जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि इंद्र बुरी तरह जख्मी हो जाता है। रूबी उसे इसी हाल में छोड़कर चली जाती है। ऐसी हालत में सरस्वती घायल इंद्र को ट्रीटमेंट के लिए लेकर जाती है। यहीं पर पुलिस इंस्पेक्टर की एंट्री होती है, बुरी तरह से घायल इंद्र को छोड़ने सरस्वती जब उसके फ्लैट लौटती है, तभी वहां उसके पापा की एंट्री होती है। ऐक्टिंग : फिल्म के लीड किरदार सरस्वती को पाकिस्तानी ऐक्ट्रेस ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिया है। फिल्म के जिस भी सीन में मावरा की मौजूदगी है वही सीन्स फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी हैं। मावरा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपनी पहली ही हिंदी फिल्म में एक सीधी-सादी साउथ इंडियन बहन जी टाइप लड़की के किरदार को बखूबी निभाया। हर्षवर्धन राणे का किरदार इंद्र बार-बार 'आशिकी 2' में आदित्य राय कपूर के किरदार की याद दिलाता है। डायरेक्शन : डायरेक्टर इस बार भी राधिका राव और विनय की जोड़ी ने स्क्रिप्ट को अपने ही अंदाज में हैंडल किया है। अच्छी शुरुआत के बाद बीच-बीच में दोनों ट्रैक से भटके तो सही, लेकिन कहानी और किरदारों के साथ इन्होंने कहीं बेवजह छेड़छाड़ नहीं की। कहानी की स्लो रफ्तार और लीड किरदार इंद्र को कमजोर बनाकर सरस्वती के किरदार को आखिर तक मजबूत बनाने की कोशिश की गई, दर्शकों की बड़ी क्लास को पसंद आए। तस्वीरें: 'रणबीर की दीवानगी ने कर दिया था मुझे बदनाम' संगीत : फिल्म के कई गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। टाइटल सॉन्ग सनम तेरी कसम का फिल्मांकन गजब है। फिल्म के लगभग गानों का फिल्मांकन अच्छा और माहौल के मुताबिक किया गया है। क्यों देखें : अगर आपको सिंपल म्यूजिकल लव-स्टोरी पसंद है तो इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।
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चंद्रमोहन शर्मा आमतौर से दिवाली से पहले के वीक में ऐसी फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर दस्तक देती है जिनकी अप्रोच सीमित और सब्जेक्ट कुछ हटकर होता है। ऐसे फिल्में फैमिली क्लास की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं लेकिन एक खास वर्ग जरूर इन्हें पसंद करता है। यंग डायरेक्टर मनीष श्रीवास्तव की इस फिल्म में भी ऐसा मसाला मौजूद है जो मल्टिप्लेक्स कल्चर और जेन एक्स की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखता है। कहानी हुसैनी (विकास आनंद) की हत्या की जांच एसीपी संकेत पुजारी (नसीरुद्दीन शाह) इंस्पेक्टर समीरा (औरोशिखा) के साथ कर रहा है। केस की जांच के दौरान इन दोनों के हाथ कुछ विडियो फुटेज लगते हैं। इनको संकेत और समीरा बार-बार देखते हैं, इन्हें लगता है ये टेप्स उन्हें कातिल तक पहुंचा सकती हैं। इन्हीं टेप्स से उन्हें दीपक उर्फ आदि (आनंद तिवारी), पैटी (आंचल नंदजोग्र), नीना (मानसी) और जीवन (निशांत लाल) के बारे में पता लगता है। यहीं से कहानी ऐसे चक्रव्यूह में जाकर फंसती है कि हॉल में बैठा दर्शक भी सोच में पड़ जाता है। हुसैनी के मर्डर से जुड़े तार दुबई तक पहुंचते हैं संकेत को जांच में पता लगता है कि हुसैनी का रिश्ता दुबई में बैठे डॉन अजमत खान से है। इस विडियो में ऐसा कुछ भी है जो सोची समझी प्लानिंग करके तैयार किया गया है। संकेत और समीरा को इस टेप के बारे में ऐसा एक राज पता लगता है जिसे सुनकर दोनों के पैरों तले जमीं निकल जाती है। । ऐक्टिंग डायरेक्टर मनीष की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह किए बिना किरदारों के मुताबिक फिल्म की स्टार कॉस्ट चुनी। सैम के रेाल में अमित सयाल ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। एकबार फिर पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में नसीरुद्दीन शाह छा गए। ज्यादातर नए कलाकार है लेकिन हर किसी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। खासकर आदि के रोल में आनंद तिवारी ने अपनी पहचान छोड़ी तो अन्य कलाकारों में मानसी रच, आंचल नन्द्रजोग, दिशा अरोड़ा, निशांत लाल, सिराज मुस्तफा, सनम सिंह सहित सभी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। डायरेक्शन इस फिल्म की कहानी भी मनीष ने लिखी है शायद यही वजह है उनकी कहानी और किरदारों पर पूरी पकड़ है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार कुछ धीमी है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक पर फुल स्पीड से लौटती है। हर किरदार को मनीष ने पावरफुल बनाने की अच्छी कोशिश की है। कुछ सीन्स को जरूरत से ज्यादा लंबा किया गया है। नसीर जब भी स्क्रीन पर नजर आते हैं, कहानी की रफ्तार तेज हो जाती है। क्यों देखें अगर आप डार्क और लीक से हटकर बनी सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों को कुछ ज्यादा ही पसंद करते हैं तो इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है।
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बैनर : पीवीआर पिक्चर्स निर्माता : अजय बिजली, दिबाकर बैनर्जी, प्रिया श्रीधरन, संजीव के. बिजली निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : इमरान हाशमी, अभय देओल, कल्कि कोएचलिन, प्रसन्नजीत चटर्जी, फारुख शेख सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट चुनाव नजदीक आते ही शहर को पेरिस या शंघाई बनाने की बातें तेज हो जाती हैं। बिज़नेस पार्क, ऊंची बिल्डिंग और चमचमाते मॉल्स के लिए मौके की जमीन चुनी जाती है। इसका विरोध भी शुरू हो जाता है क्योंकि कुछ लोगों की दुकान विरोध से ही चलती है। राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं और नेता से लेकर तो अफसर तक अपना-अपना हित साधने में जुट जाते हैं। इस तरह के विषय पर भारत में कई फिल्में बन चुकी हैं और शंघाई में दिबाकर बैनर्जी ने इसे अपने नजरिये से प्रस्तुत किया है। मूलत: इस फिल्म की कहानी ग्रीक लेखक वासिलिस वासिलिकोस की किताब ‘ज़ेड’ से प्रेरित है जिसका भारतीयकरण कर ‘शंघाई’ में प्रस्तुत किया गया है। कही-कही कहानी ‘जाने भी दो यारों’ से भी प्रेरित लगती है। शंघाई का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है दिबाकर बैनर्जी का निर्देशन और प्रस्तुतिकरण। दिबाकर बैनर्जी की गिनती वर्तमान में भारत के बेहतरीन निर्देशकों में से होती है और वे हर विषय पर फिल्म बनाने की क्षमता रखते हैं। फिल्म की हर फ्रेम पर उनकी छाप नजर आती है और एक ही सीन में वे कई बातें कह जाते हैं। कोरियोग्राफर, फाइट मास्टर या स्टार उन पर हावी नहीं होते हैं। दिबाकर बैनर्जी अपनी यह बात कहने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि व्यवसाय बन चुकी है और कितनी गिर चुकी है। हालांकि उनका डायरेक्शन क्लास अपील लिए हुए है। उन्होंने दर्शकों के लिए समझने को बहुत कुछ छोड़ा है और यही वजह है कि एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। भारत नगर में सरकार आईबीपी (इंटरनेशनल बिज़नेस पार्क) बनाने की घोषणा करती है। जिस जमीन पर ये बनाया जाना है वहां पर गरीब बस्ती है। सरकार उन्हें दूर जमीन और मकान देने का वादा करती है और आईबीपी को प्रगति से जोड़ती है। इसी बीच चार्टर्ड फ्लाइट से सोशल एक्टिविस्ट डॉ. अहमदी (प्रसन्नजीत) की एंट्री होती है जो आईबीपी का विरोध करता है। न्यूजपेपर के फ्रंट पेज पर कैसे छपा जाए ये वह बेहतरीन तरीके से जानता है और इसलिए हीरोइन की बगल में खड़े होकर फोटो भी खिंचाता है। अहमदी के विरोध के स्वर तेज होते है और सरकार घबराने लगती है। इसी बीच एक शराबी ड्राइवर अहमदी को अपनी गाड़ी से कुचल देता है। सरकार इसे एक्सीडेंट बताती है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि यह मर्डर है।
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विश्व हिंदू परिषद के विरोधों के बीच थिअटर तक पहुंची फिल्म 'लाली की शादी में लड्डू दीवाना' एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, खूबसूरत लड़की 'लाली' (अक्षरा हसन) और झूठे, मतलबी, लूज़र 'लड्डू' (विवान शाह) की लव स्टोरी है, जिसमें एक नेक-जहीन, अमीर शहजादे 'कबीर' (गुरमीत चौधरी) का तीसरा एंगल भी है। फिल्म की कहानी में झोल की भरमार है। मसलन, साइकल की दुकान के मालिक का बेटा यानी अपना हीरो लड्डू टाटा, बिड़ला, अंबानी बनने का सपना देखता है, पर उसे पूरा करने के लिए ललितपुर से बड़ोदरा जाकर कैफे में वेटर बन जाता है। शायद ही किसी ने टाटा, बिड़ला बनने के लिए यह रास्ता पहले कभी सोचा होगा। यही नहीं, कैफे में बैठे-बैठे अपने लैपटॉप पर करोड़ों की डील करने वाली लाली नौकरी छोड़ते ही सड़क पर आ जाती है, क्योंकि उसका घर, गाड़ी, मोबाइल सब कंपनी का है। मोबाइल का बिल भी कंपनी भरती है। यह कैसी नौकरी थी भई, फिल्म के राइटर साहब शायद भूल गए कि नौकरी करने पर कुछ सैलरी-वैलरी भी मिलती है। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सीन के बावजूद इस कदर बोर करती है कि दिल करता है कि काश इसकी समीक्षा न करनी होती तो एक नींद ही मार ली जाती। खैर, फिल्म की शुरुआत होती है लाली की शादी से, जो नौ महीने की प्रेग्नेंट है और वीर से शादी के बंधन में बंधने वाली है। उसी मंडप में लड्डू भी दूल्हा बना बैठा है। तभी लड्डू होने वाली दुल्हन लेक्चर देकर लोगों को पकाना शुरू करती है, लेकिन लड्डू उससे प्रेरित होकर वीर के पास यह खुलासा करने पहुंच जाता है कि लाली के होने वाले बच्चे का बाप वही है। फिर शुरू होता है फ्लैशबैक यानी लाली और लड्डू की अमर प्रेम कहानी, जिसे देखकर लोग फिल्म देखने के अपने फैसले को कोसने पर मजबूर हो जाएंगे। अमीर बनने का सपना देखने वाला लड्डू लाली को अमीरजादी समझकर कॉफी के साथ गुलाब का फूल देकर पटा लेता है। लाली को पाकर उसके मन में लड्डू फूटने शुरू ही होते हैं कि पता चलता है कि लाली ने नौकरी छोड़ दी है और उसकी तरह ठन ठन गोपाल हो चुकी है। लाली को भी लड्डू के झूठ पता चल जाता है। फिर भी वह लड्डू के साथ कश्मीर में प्यार भरे गाने के लिए तैयार हो जाती है। हद तो तब होती है जब लड्डू अपनी गर्लफ्रेंड लाली से बॉस की गलत हरकतों को छोटे लेवल का कॉम्प्रोमाइज बताकर सहने की सलाह देता है। बॉयफ्रेंड की ऐसी नसीहत पर कोई भी लड़की जोर का थप्पड़ लगाएगी, लेकिन लाली चुप रहती है। वह लड्डू पर हाथ तब उठाती है जब वह उसे शादी से पहले प्रेग्नेंट हो जाने पर अबॉर्शन करने को कहता है। इस पर लड्डू के मां-बाप उसे बेदखल कर लाली को अपनी बेटी बना लेते हैं और अमीरजादे वीर से उसकी शादी तय कर देते हैं। अब लाली की शादी वीर से होगी या लड्डू से, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखने की नहीं, बस थोड़ा सा दिमाग लगाने की जरूरत है। हां, वीएचपी वाले ये फिल्म जरूर देख सकते हैं, क्योंकि फिल्म देखने के बाद उन्हें ये तसल्ली हो जाएगी कि उनकी हिंदू संस्कृति सही सलामत है, क्योंकि फिल्म में प्रेग्नेंट महिला की शादी और फेरों का ऐसा कोई सीन नहीं है, जिसे लेकर वे बवाल कर रहे थे। फिल्म के डायरेक्टर मनीष हरिशंकर ने अपने तय कॉमिडी ऑफ एरर क्रिएट करने की कोशिश की है, लेकिन पूरी तरह नाकामयाब हुए हैं। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सींस के बावजूद दर्शकों को बोर ही करती है। विवान और अक्षरा की ऐक्टिंग बेहद निराशाजनक है। विवान ओवर ड्रमैटिक हैं तो अक्षरा के चेहरे पर इमोशन ही नहीं आते। संजय मिश्रा, दर्शन जरीवाला, सौरभ शुक्ला जैसे सपोर्टिंग कलाकार फिल्म को कुछ गति देने की कोशिश करते हैं, लेकिन बहुत भला नहीं कर पाते। फिल्म का म्यूजिक भी प्रभावी नहीं है। कहीं भी कभी भी आ जाने वाले गाने फिल्म को और बोझिल ही बनाते हैं।
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किशन गिरहोत्रा (फरहान) के सिंगर बनने के सपने तब एकाएक बिखर जाते हैं जब वह मुरादाबाद के आईएएस ऑफिसर के मर्डर के झूठे केस में फंस जाता है। इसके बाद वह उस अपराध के लिए जेल चला जाता है जो उसने कभी किया ही नहीं था। किशन एनजीओ वर्कर (डायना पेंटी) और जेल के कुछ साथियों की मदद से एक बैंड बनाने का निर्णय लेता है। क्या वह जेल के अंदर अपना बैंड बनाने का सपना पूरा कर पाता है या वह जेल से भागने में सफल हो पाता है? मूवी रिव्यू: सच्ची घटनाओं पर आधारित लखनऊ सेंट्रल एक फील-गुड, ह्यूमन, जेल तोड़कर भागने की इच्छा वाले ड्रामा वाली फिल्म है। यह फिल्म आपको इमोशनली जोड़ती है। हर मुश्किल से जीतने की थीम इस फिल्म को लोगों से कनेक्ट करती है। अपने घर से बाहर लखनऊ सेंट्रल की चारदीवारी के अंदर जीने की एक वजह तलाशते कैदी दर्शकों के दिल के तार को छेड़ देते हैं। अपने परिवार और समाज से ठुकरा दिए जाने के बाद कैदी एक-दूसरे के साथ में सुकून महसूस करते हैं। रंजीत तिवारी ने कैदियों के बीच इस दोस्ती और अनोखे रिश्ते को बहुत खूबसूरती के साथ हैंडल किया है। इस मुद्दे पर उनकी भावुकता को उनके स्टारकास्ट ने कॉम्प्लिमेंट किया है। रॉनित रॉय अपने किरदार पर बहुत सटीक दिखते हैं। वह फिल्म में एक धूर्त और चालाक जेलर की भूमिका निभा रहे हैं। फरहान ने पूरी क्षमता के साथ लखनऊ सेंट्रल को अपने कंधों पर उठाया है लेकिन देसी कैरक्टर को निभाने के लिए किए उनके एफर्ट्स विजिबल हो जाते हैं। उनकी अशुद्ध अंग्रेजी में बात करना आर्टिफिशल लगता है लेकिन उनका किरदार आपको कहानी से कनेक्ट कर देता है। उनका किरदार आपको उनकी बदकिस्मती पर रुला देता है। दीपक डोबरियाल, रवि किसन, राजेश शर्मा, इनाम-उल-हक और गिप्पी ग्रेवाल मुख्य भूमिकाओं में नजर आएंगे। फिल्म के गानों की बात करें तो रंगदारी एक खूबसूरत कंपोजिशन है। डायना पेंटी ने भी फिल्म में अच्छा काम किया है।
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रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्मित फिल्म ‘गो’ के एक दृश्य में राजपाल यादव गुंडों को धमकाते हुए कहते हैं कि भाग जाओ यहाँ से। गुंडे नहीं भागते। फिर वह दूसरी बार कहते हैं ‘मैं दूसरी बार वार्निंग दे रहा हूँ भाग जाओ यहाँ से।‘ गुंडे फिर भी नहीं भागते, लेकिन सिनेमाघर से कुछ दर्शक जरूर भाग जाते हैं। एक निर्माता के रूप में रामगोपाल वर्मा की बुद्धि पर तरस आता है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने इतनी घटिया कहानी पर फिल्म बनाने की सोची। मौका देने में अगर वे इतने उदार हैं तो फिल्म बनाने की हसरत पालने वाले हर इनसान को रामू से मिलना चाहिए। ऐसा लगता है कि नौसिखियों की टीम ने यह फिल्म बनाई है। घिसी-पिटी कहानी, बकवास पटकथा और घटिया निर्देशन। कौन कितना घटिया काम करता है, इसका मुकाबला चल रहा है। पूरी फिल्म दृश्यों की असेम्बलिंग लगती है। कहीं से भी कोई-सा भी दृश्य टपक पड़ता है। कहानी है दो प्रेमियों की। उनके माता-पिता शादी के खिलाफ रहते हैं। क्यों रहते हैं यह नहीं बताया गया। दोनों मुंबई से गोवा के लिए भाग निकलते हैं। साथ में एक कहानी और चलती रहती है। इसमें उपमुख्यमंत्री की हत्या मुख्यमंत्री ने करवा दी है। दोनों कहानी के सूत्र आपस में जुड़ जाते हैं। परिस्थितिवश उपमुख्यमंत्री की हत्या का सबूत इन प्रेमियों के हाथ लग जाता है और उन्हें पता ही नहीं रहता। सबूत मिटाने के लिए मुख्यमंत्री के गुंडों के अलावा पुलिस भी इनके पीछे लग जाती है। इन सबसे वे कैसे बचते हैं, ये बचकाने तरीके से बताया गया है। एक छोटा-सा बैग लेकर भागे ये प्रेमी हर दृश्य में नए कपड़ों में नजर आते हैं। पता नहीं उस बैग में इतने सारे कपड़े कैसे आ जाते हैं? बैग भी मि. इंडिया से कम नहीं है। कभी उनके साथ रहता है तो कभी गायब हो जाता है। गौतम नामक नए अभिनेता ने इस फिल्म के जरिये अपना कॅरियर शुरू किया है। उसके पास न तो हीरो बनने की शक्ल है और न ही दमदार अभिनय। निशा कोठारी के लिए अभिनय के मायने हैं आँखें मटकाना, तरह-तरह की शक्ल बनाना और कम कपड़े पहनना। केके मेनन ने पता नहीं क्यों यह फिल्म की? राजपाल यादव जरूर थोड़ा हँसाते हैं। फिल्म के निर्देशक के रूप में मनीष श्रीवास्तव का नाम दिया गया है। पता नहीं इस नाम का आदमी भी है या फिर बिना निर्देशक के काम चलाया गया है। फिल्म बिना ड्राइवर के कार जैसी चलती है, जो कहीं भी घुस जाती है। निर्माता : रामगोपाल वर्मा निर्देशक : मनीष श्रीवास्तव कलाकार : गौतम, निशा कोठारी, केके मेनन, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव गानों से कैंटीन वाले का भला होता है, क्योंकि दर्शक गाना आते ही बाहर कुछ खाने चला जाता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में जबरदस्त अँधेरा है। तकनीकी रूप से फिल्म फिसड्‍डी है। ‘गो’ देखते समय थिएटर से बाहर भागने की इच्छा होती है।
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एक सुपरहीरो की फिल्म से जो अपेक्षाएं होती हैं उस पर आयरन मैन 3 खरी उतरती है। सभी को पता है कि सुपरहीरो की कहानियां अच्छाई बनाम बुराई की होती है, लेकिन दर्शक को जो चीज रोमांचित करती है वो है दमदार प्रस्तुतिकरण, शानदार एक्शन सीक्वेंस और जबरदस्त उतार-चढ़ाव। इन्हीं कसौटी पर आयरन मैन 3 अपने प्रशंसकों को खुश करती है। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म की जान है और यह फिल्म थ्री-डी वर्जन में ही देखी जानी चाहिए। टोनी स्टार्क अपने विशाल बंगले में कई आयरन मैन सूट तैयार करता है और इसको लेकर उसका अपनी गर्लफ्रेंड पीपर पॉट्स से विवाद भी होता रहता है। वह लगातार 72 घंटे तक काम करता है लंबे समय से उसने गहरी नींद नहीं ली है। आतंकवादी मैनडेरिन का आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहा है जिससे सभी चिंतित है। पत्रकारों से बात करते हुए टोनी उसे धमकी देते हुए अपने घर का पता भी बता देता है। मैनडेरिन इसे अपने लिए चुनौती मानता है और टोनी के घर पर जबरदस्त हमला करता है। टोनी और उसकी गर्लफ्रेंड किसी तरह अपनी जान बचाते हैं। टोनी को मृत मान लिया जाता है। उसके हथियार और शक्ति में पहले जैसी बात नहीं होती। वह अपने आपको एक अनजान जगह पर पाता है जहां 10 वर्ष का एक लड़का हर्ले उसकी मदद करता है। किस तरह से टोनी फिर शक्तिशाली होता है। मैनडेरिन को ढूंढ निकालता है। किस तरह से उसे मैनडेरिन का राज पता चलता है, यह फिल्म का सार है। फिल्म की कहानी उतनी मजबूत नहीं है, लेकिन परदे पर जिस तरह से इसे पेश किया गया है, वो पूरी तरह दर्शकों को सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर करता है। पहले सीन से आखिरी सीन तक बोरियत का एक भी पल नहीं है। साथ ही फिल्म की अवधि बहुत कम है, इससे फिल्म बेहद कसी हुई लगती है। चाइनीज थिएटर में विस्फोट वाला दृश्य, टोनी के घर पर तथा अमेरिकी हवाई जहाज पर मैनडेरिन के हमले वाले दृश्य फिल्म की जान है। स्पेशल इफेक्ट्सल इतने बेहतरीन हैं कि सारे दृश्य एकदम वास्तविक लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स पैसा वसूल है और इसमें एक्शन जबरदस्त है। निर्देशक शेन ब्लैक ने कुछ बदलाव आयरन मैन सीरिज में किए हैं और ये बदलाव फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। हर्ले वाला प्रसंग जोड़कर फिल्म को बच्चों से जोड़ने की कोशिश की गई है और ये दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जार्विस से टोनी की नोक-झोक भी उम्दा है। शेन ने एक्शन के अलावा, ह्यूमर और ड्रामे का भी ध्यान रखा है। रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने आयरन मैन के किरदार में जान फूंक दी है। एक्शन के साथ-साथ वे इमोशनल दृश्यों में भी बेहद प्रभावी रहे हैं। बेन किंग्सले का रोल छोटा है, लेकिन उनका अभिनय देखने लायक है। कुल मिलाकर आयरन मैन में अपने प्रशंसकों को खुश करने वाली सारी खूबियां मौजूद हैं। निर्माता : केविन फीज निर्देशक : शेन ब्लैक कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जूनियर, ग्वेनेथ पॉल्ट्रो, बेन किंग्सले घंटे 10 मिनट
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1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : ढिलिन मेहता निर्देशक : शिवम नायर कलाकार : ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, बोमन ईरानी, नेहा धूपिया, तारा शर्मा गुजराती नाटक ‘महारथी’ पर आधारित ‘महारथी’ एक थ्रिलर फिल्म है, जिसके सात सौ से ज्यादा शो हो चुके हैं। इसलिए फिल्म के प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक है। साथ ही नसीर, बोमन, ओमपुरी और परेश रावल जैसे सशक्त कलाकार भी फिल्म के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। फिल्म में वे सारे तत्व मौजूद हैं, जो एक थ्रिलर फिल्म में जरूरी होते हैं और इस वजह से फिल्म में शुरू से आखिरी तक दिलचस्पी बनी रहती है। मिस्टर एडेनवाला (नसीरुद्दीन शाह) कभी सफल निर्माता थे, लेकिन अब कर्जों में फँसे हैं। मिसेस एडेनवाला (नेहा धूपिया) ने पैसों की खातिर उनसे शादी की थी और अब दोनों एक-दूसरे को पसंद नहीं करते। एक रात मि. एडेनवाला की जान सुभाष (परेश रावल) बचाता है। बदले में उसे ड्राइवर की नौकरी मिल जाती है। मि. एडेनवाला ने अपना 24 करोड़ रुपए का बीमा करवा रखा है और उनकी मौत के बाद ये सारे रुपए उनकी पत्नी को मिलने वाले हैं। यह बात उनका वकील (बोमन ईरानी), पत्नी और सुभाष भी जानता है। एक रात पत्नी के तानों से परेशान होकर एडेनवाला अपनी पत्नी और सुभाष के सामने आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन उसके पूर्व अपनी पत्नी को वे चुनौती दे जाते हैं कि वह उनकी आत्महत्या को हत्या साबित करे तभी उसे 24 करोड़ रुपए की राशि मिल सकती है। सुभाष मौके का फायदा उठाना चाहता है। वह मिसेस एडेनवाला को समझाता है कि कम जोखिम, कम फायदा बिजनेस होता है। ज्यादा जोखिम, ज्यादा फायदा जुआ होता है और कम जोखिम और ज्यादा फायदा एक मौका होता है जो जिंदगी में कभी-कभी आता है। दोनों मिल जाते हैं और एक योजना बनाते हैं जिसके जरिए मिस्टर एडेनवाला की आत्महत्या को हत्या साबित किया जा सके। आदमी योजना क्या बनाता है और होता कुछ और है। कई चीजें ऐसी घटित हो जाती हैं जिनके बारे में वह सोचता भी नहीं है। यही बात मिसेस एडेनवाला और सुभाष के साथ भी होती है। फिल्म की खास बात यह है कि इसमें ज्यादा कुछ छिपाया नहीं गया है। अपराधी और पुलिस के हर कदम दर्शक से वाकिफ रहता है। इसलिए रोचकता बनी रहती है। पटकथा कसी हुई है, लेकिन ऐसे लम्हें कम हैं जो दर्शकों को रोमांच से भर दें। फिल्म में कुछ और कमियाँ भी हैं। नेहा धूपिया की मौत वाला प्रसंग कमजोर है। नसीर का परेश के नाम सारी दौलत कर जाने के पीछे भी कोई ठोस वजह नजर नहीं आती। नि:संदेह परेश रावल ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन उनकी जगह यह किरदार कोई युवा अभिनेता निभाता तो फिल्म की कमर्शियल वैल्यू बढ़ जाती। परेश की उम्र इस किरदार से ज्यादा है। शायद परेश इस नाटक से शुरू से जुड़े हुए हैं, इस वजह से उन्हें लिया गया है। शराबी और सफलता देख चुके इंसान के रूप में नसीरुद्दीन शाह ने बेहतरीन अभिनय किया है। उनकी तकलीफ को दर्शक महसूस करता है। अभिनय के महारथियों के बीच में रहकर नेहा धूपिया के अभिनय में भी सुधार आ गया। ओमपुरी जैसे अभिनेता की प्रतिभा के साथ यह फिल्म न्याय नहीं कर पाती। उनका रोल सबसे कमजोर है। बोमन ईरानी ठीक हैं। थ्रिलर फिल्म में गाना नहीं हो तो बेहतर होता है, इसलिए फिल्म में गाना नहीं है। इस फिल्म को जबर्दस्त तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक बार देखी जा सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत
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